________________ 580 नैषधमहाकाव्यम्। अन्यच्च-यत्तव रूपमधिगत्य त्वद्वेशं धारयित्वा, श्रितमुग्धभावाः लब्धसौन्दर्याः सन्तः, 'मुग्धः सुन्दरमूढयोः' इति विश्वः / असाम नाम दिव्यामहे खलु, 'अस गतिदीप्त्यादानेष्विति धातोर्लोट' तत्तस्मात् , नोऽस्माकम्, आशापतितां दिकपतित्वं ‘धिक , 'आशा तृष्णादिशोरपि' इति विश्वः, इदमस्मद्विबुधत्वञ्च धिक, तुच्छव्यापारत्वादिति भावः / 'विबुधः पण्डिते देवे' इति विश्वः / पूर्व एवालङ्कारः // 48 // हे नरेन्द्र ! तुम्हारे नाम तथा रूपको स्वयं जानकर (या साक्षात् देखकर) मूढभावापन्न हमलोग जिस कारण यहां ( स्वयंवरमें ) हैं अर्थात् आये हैं, उस कारण आशा (दमयन्तीको पानेका विश्वास ) से आये हुए ( अथवा-गिरे हुए ) हमलोगों को धिक्कार है और हमलोगों के इस विशिष्ट पाण्डित्यको भी धिक्कार है। पक्षा०-हे नरेन्द्र जिस कारण तुम्हारा रूप धारणकर सौन्दर्यको प्राप्त किये हुए हमलोग शोभित हो रहे हैं, उस कारण हमलोगों के दिक्पालत्वको-( अथवा-आशासे ( ही दमयन्तीके पतिभाव ) को अर्थात् हमलोगोंको दमयन्तीका पति होना केवल आशामात्र ही है, वास्तविक विचारनेपर दमयन्तीके पति बननेका कोई लक्षण हमलोग अपने में नहीं देखते हैं )-धिक्कार है और इस देवभावको भी धिक्कार है / पुनः, पक्षा०-अपने में ( सब कुछ प्रयत्न करनेपर भी ) तुम्हारे रूपको नहीं प्राप्तकर ( अब हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये ऐसे ज्ञानसे रहित होनेसे ) किंकर्तव्यमूढ होनेसे ( अब नलको ही दमयन्ती वरण करेगी ऐसी ईर्ष्यासे ) तुम्हारे नाम ( या प्रसिद्धि ) को जिस कारणसे हमलोग नष्ट करते हैं ( तुम्हारेसे अतिरिक्त हमलोगोंके भी नलका रूप धारण करनेसे तुम्हारी नाम ( या प्रसिद्धि ) नहीं रहने देते हैं ), उस कारण ( इस प्रकार नलका रूप धारण कर यहाँ आनेसे दमयन्ती हमलोगोंको वरण करेगी इस ) आशासे यहां आये हुए हमलोगोंको धिक्कार है, और देवत्वको भी धिक्कार है। ( अथवा-हे 'स्वेन' अर्थात् हे ज्ञातियों में श्रेष्ठ; अथवाहे धनके स्वामी ! ) // 48 // सा वागवाज्ञायितमा नलेन तेषामनाशङ्कितवाक्छलेन / स्त्रीरत्नलाभोचितयत्नमग्नमेनं न हि स्म प्रतिभाति किश्चित् // 49 // सेति / अनाशङ्कितवाक्छलेन अनाकलितदेववाकपटेन, नलेन तेषां देवानां, सा वाक पूर्वोक्ता व्याजोक्तिः, अवाज्ञायितमाम अतिशयेनावज्ञाता, देववाक्यस्य पुरः स्फूर्तिक एवार्थो गृहीतो न तु तात्विक इत्यर्थः / 'जानातेरवपूर्वात् कर्मणि लुङि' 'तिङश्च' इत्यनेनातिशयाथै तमप प्रत्ययः, ततस्तस्य घसंज्ञा, ततः किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्ष' इत्यनेनामुप्रत्ययः। कुतः ? हि यस्मात् , स्त्रीरत्नलाभे यः उचित. यत्रो योग्यव्यापारो देवताऽनुध्यानादिः। तत्र मग्नम् आसक्तम्, एनं नलं प्रति, किञ्चित् किमप्यन्यत् , न प्रतिभाति स्म न स्फुरति स्म; व्यासङ्गो हि महान् विवे. - कप्रतिबन्धक इति भावः // 49 //