Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 760
________________ एकादशः सर्गः। [वाराणसीमें शरीरत्याग करनेपर शिवजी प्राणीको श्रेष्ठ तारक मन्त्रका उपदेश देते हैं.. जिससे वह प्राणी उनकी सायुज्य मुक्तिको प्राप्त कर लेता अर्थात् शिवरूप हो जाता है। मुक्तिके सायुज्य, सामीप्य, सालोक्य आदि अनेक भेद शास्त्रों में वर्णित हैं ] // 117 // निर्विश्य निर्विरति काशिनिवासि भोगान् निर्माय नर्म च मिथो मिथुनं यथेच्छम् / गौरीगिरीशघटनाधिकमेकभावं शोर्मिकचुकितमञ्चति पञ्चतायाम् // 118 / / निर्विश्येति / काशिः काशी, 'कृदिकारादअक्तिनः' इति ङीषो वैकहिपको भावः / तस्यां निवासि वास्तव्यं, मिथुनं स्त्रीपुंसजातं, यथेच्छं, भुज्यन्ते इति भोगान् विषयान् , निर्विरति निर्विच्छेदं यथा तथा, निर्विश्य उपभुज्य, तथा मिथोऽन्योऽन्यं रहसि वा, नर्म क्रीडाच, निर्माय कृत्वा, पश्चतायां मृत्यौ सस्यां, गौरीगिरीशयोघं-- टनादर्भाङ्गसङ्घटनात् , अधिकमुत्कृष्टमेव, तत्र शरीरद्वयत्वेन प्रकाशः अत्र तु शिव. शरीरं एकत्वेनेति तदपेक्षया उत्कृष्टस्वमिति भावः, शर्मोर्मिभिः आनन्दलहरीभिः, कञ्चकितं सातकश्चकम् , आवृतसर्वाङ्गमित्यर्थः, एकभावम् एकत्वरूपम् , अश्चति प्रामोति, अन्यत्र सन्न्यासादिक्लेशात् मुक्तिः, इह तु भोगपूर्वकदेहत्यागेनापि मुक्तिरिति भावः // 118 // काशीमें निवास करनेवाला मिथुन (स्त्री-पुरुष की जोड़ी) वैराग्यरहित अर्थात् अनुरागपूर्वक इच्छानुसार भोगों ( कुङ्कुम केसर कस्तूरी चन्दन माल्यादि भोग-सामग्रियों) को प्राप्तकर और परस्पर में इच्छानुसार नर्म (हास-विलासादि ) करके मरनेपर (आधेआधे शरीरका संयोगरूप ) पार्वती-शिवके संयोगसे भी अधिक अर्थात् श्रेष्ठ एवं सुख परम्परासे संयुक्त एकीभाव (तादात्म्य ) को प्राप्त करता है / [पार्वती तथा शिवके अर्धाङ्ग होनेपर भी दोनोंका पृथक पृथक् ज्ञान होता है, किन्तु उक्त काशीवासी स्त्री-पुरुष-मिथुन तद्रूप होकर-पृथक नहीं मालूम पड़नेसे उक्त पार्वती-शिवको अर्धशरीरसंयोगकी अपेक्षा भी उत्तम गति लाम करता है। अन्यत्र निवास करनेपर भोग-विलास साधनोंसे विरक्त होकर तथा कष्ट सहते हुए ध्यान जप तप आदि करने पर ही मुक्ति मिल सकती है और यहां उक्त सब कष्टों को विना सहन किये ही काशी में निवास करने मात्रसे मुक्ति मिल जाती है, अत एव सर्वामिलाषसिद्धि के लिए इस काशीराजका वरण करो] // 118 // न श्रद्दधासि यदि तन्मम मौनमस्तु कथ्या निजाप्ततमयैव तवानुभूत्या। न स्यात् कनीयसितरायदि नाम काश्या राजन्वती मुदिरमण्डनधन्वना भूः॥ नेति / न श्रद्दधासि यदि स्वर्गादपि काश्या आधिक्यवर्णनरूपं मद्वाक्यं न विश्वसिषि चेत् , तत्तर्हि, मम मौनमस्तु अहं तूष्णीमासे, तव निजया आत्मीयया,. आप्ततमया नितरां हितकारिण्या, अनुभूत्या प्रमाणभूतस्वीयानुभावेनैव, कथ्या

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