Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 768
________________ एकादशः सर्गः। प्रतीत्यर्थः, 'अनुलक्षणे' इति कर्मप्रवचनीयत्वात् द्वितीया / भूयो भूयिष्ठं, तत्परा तस्मिन् नले भासका भूत्वा; अन्यत्र-परब्रह्मरूपे तात्पर्यवती भूता, उपनिषत् वेदान्तवाक्, उपमानं यस्याः तदुपमा तत्कल्पा, पासीदिति श्लिष्टविशेषणेयमुपमा, श्लेष एवेति केचित् / स्रग्धरावृत्तम् // 129 // शुभ (शुभ लक्षणोंसे युक्त) अङ्गोवाली तथा अनन्तसंख्यावाले अर्थात् अपरिमित, भाग्यवान् ( या बहुत सम्पत्तिवाले), चित्तसे आशाकी वृद्धि करनेवाले ('दमयन्ती हमें ही वरण करेगी' ऐसी आशाको बढ़ानेवाले, पाठा०-आशाको करनेवाले), असमान गुणों (शौर्य, दान, विद्वत्ता आदि ) वाले सम्पूर्ण देव (इन्द्रादि) तथा राजाओंको प्राप्तकर एक साथ हो छोड़ती हुई, वचनागोचर रूप (अवर्णनीय सौन्दर्य) वाले, चैतन्य (ज्ञान) के समुद्र, अद्वितीय, सोमारहित (बेहद ) आनन्दवाले पुरुष (नल) को उद्देश्यकर गुप्त भाववाली (नल विषयक अनुरागको प्रकट नहीं करनेवाली), तत्पर होकर उपनिषद्के समान हुई शुभ छः अङ्गोंवाली उपनिषद् भी अनन्त अर्थात् माकाशसहित, काळयुक्त, मनके साथ दिशायुक्त, असमान (न्यूनाधिक असङ्ख्थात रूप-रसादि गुणोंबाले; जल, वायु तेजोयुक्त समस्त वायु और पृथ्वीको एक साथ निषेध करती हुई (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक् , आत्मा तथा मन-वार्षिकोक्त इन नब द्रव्यों में आत्माके अतिरिक्त शेष आठ द्रव्योंका एक साथ निषेध करती हुई) गूढ अभिप्रायवाली है, वह मनोवचनातीत रूपवाले, चैतन्यस्वरूप, अपरिमित आनन्दस्वरूप, परमात्माको लक्षितकर बहुत तात्पर्ययुक्त होती है / [अन्यान्य व्याख्याओंकी 'प्रकाश'आदि टीकाओंसे समझ लेना चाहिये ] // 129 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् / शृङ्गारामृतशीतगावयमगादेकादशस्तन्महाकाव्येऽस्मिन् निषधेश्वरस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 130 / / श्रीहर्षमित्यादि / शृङ्गार एव अमृतं तस्य शीता गावः किरणा यस्य सः शीतगुः तस्मिन् शीतगौ चन्द्रे 'गोलियोरुपसर्जनस्य' इति ओकारहस्वः // 30 // इति महिनाथविरचिते 'जीवातु' समाल्याने एकादशः सर्गः समाप्तः। कबीश्वर-समूहके......"उत्पन्न किया, उसके रचित शृङ्गारामृतके चन्द्ररूप 'नैषधचरित' नामक सुन्दर महाकाव्यमें स्वभावतः उज्ज्वल यह एकादश ( ग्यारहवां ) सर्ग समाप्त हुमा / (शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान समझनी चाहिये)॥१३०॥ यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'मैषधचरित' का एकादश सर्ग समाप्त हुआ // 11 //

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