Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSHBSESSISTERSHESHESIBSE828 श्री हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला 205 ॥श्रीः / / Pimparan नैषधमहाकाव्यम् 'जीवातु' 'मणिप्रभा' द्वयोपेतम् BSNBSB8838BSNBSHESSESSAREEBSISEDNESH 4551 चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्रीः / / हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला 205 महाकवि श्रीहर्षप्रणीतं नेषधमहाकाव्यम् महोपाध्याय मल्लिनाथकृत 'जीवातु' व्याख्यायुत'मणिप्रभा' हिन्दीटीकासहितम् हिन्दीटीकाकारः व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न-रिसर्चस्कालर-मिश्रोपाह्वपण्डित श्री हरगोविन्द शास्त्री प्राक्कथनलेखकः पण्डित श्री त्रिभुवनप्रसाद उपाध्यायः (प्रिंसिपल : गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, वाराणसी ) MON SHETANESER पत चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी-१ 1976 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी मुद्रक * / बौखम्बा प्रेस, वाराणसी संस्करण : तृतीय, वि० सं० 2032 मूल्यम् प्रथम सर्ग 2-00, 1-3 सर्ग 3-50, 1-5 सर्ग 6-50, 1-6 सर्ग 10-00, सम्पूर्ण ग्रन्थ 24-00 (c) The Chowkhamba Sanskrit Series Office Gopal Mandir Lane P. O. Chowkhamba, Post Box 8 Varanasi-221001 ( India ) 1976 Phone: 63145 अपरं च प्राप्तिस्थानम् चौखम्बा अमरभारती प्रकाशन गोपाल मन्दिर लेन, वाराणसी-२२१००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन [लेखक-त्रिभुवनप्रसाद उपाध्याय एम१५० प्रधानाचार्य-राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी ] संस्कृत संसार की सर्वप्रथम भाषा है, इसका साहित्य अत्यन्त सुन्दर एवं समृद्ध है, पहले गृहे गृहे और जने जने इसका प्रचार था तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में इसका व्यवहार होता था। बाद में कालक्रम से समाज की रुचि में विविध परिवर्तन हुये, जिसके कारण शिथिलता आने से इसकी प्रगति मन्द पड़ने लगी और निकट अतीत में विदेशी शासन के समय तो इसकी घोर उपेक्षा हुई। किन्तु अब स्वतन्त्र भारत के सुप्रभात में जनता तथा शासन दोनों ही का आकर्षण इस ओर बढ़ रहा है / ऐसी स्थिति में संस्कृत के उत्तमोत्तम प्रन्थों को सरल संस्कृत तथा राष्ट्रभाषा के माध्यम से जनसम्पर्क में लाना संस्कृत के विद्वानों का प्रधान कर्तव्य है। अतः श्रीहर्ष जैसे महान् दार्शनिक कवि की रमणीय रचना 'नैषध' को राष्ट्रभाषा में अनूदित करने का पं० हरगोविन्द शास्त्री जी का उपक्रम बहुत ही स्तुत्य है इनकी अनुवाद-भाषा बड़ी ही रोचक, मोहक तथा मूल भावों के अभिव्यंजन में पूर्ण क्षम है। मेरा विश्वास है कि संस्कृत के जिज्ञासु इस कृति का पूरा आदर कर अनुवादक को उत्साहित करेंगे, जिससे उनकी प्रौढ़ लेखनी से संस्कृत के अधिकाधिक ग्रन्थ राष्ट्रभाषा में अनूदित होकर जनजिज्ञासा की तृप्ति और देश का महान् मंगल कर सकेंगे। दिनांक 25-1-54 त्रि० प्र० उपाध्याय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र [ लेखक-पण्डित श्री बदरीनाथ शुक्ल एम० ए० प्रधानाध्यापक-वाराणसैय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी] संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं का शिरोमुकुट, समग्र उदात्त और उज्ज्वल विचारों की मनोरम मंजूषा तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की कमनीय कुंचिका है। यही कारण है कि अनेक शताब्दियों से अनाहत एवं उपेक्षित होने पर भी इसकी मधुरता और ओजस्विता अब भी ज्यों की त्यों बनी है। किन्तु यह रन्तोष की बात है कि 'यथा राजा तथा प्रजा' की जिस नीति ने इसे जनता से दूर कर दिया था उसी के आधार पर भारत को स्वतन्त्रता के समुन्मेष के साथ ही जनता की रुचि में संस्कृत की उन्मुखता पुनः अभिवृद्ध होने लगी है। अतः संस्कृत के प्रचार में अवांछनीय मन्दता आ जाने के कारण संस्कृत में निहित जो ज्ञान-विज्ञान समाज को दुष्प्राप्य हो गये हैं उन्हें अब हिन्दी के माध्यम से जनता के बीच प्रसारित करना संस्कृत के विद्वानों का समयोचित धर्म हो गया है। मैं पण्डित श्री हरगोविन्द शास्त्री जी को धन्यवाद देता है कि उन्होंने अपनी सिद्ध लेखनी से एक ऐसे ग्रन्थ को हिन्दी में अनूदित करने का प्रयास किया है कि जिसमें भारत के आदर्श नरेश नल और आदर्श नारी दमयन्ती का पावन चरित्र दार्शनिक शिरोमणि महाकवि श्रीहर्षद्वारा उच्चतम कोटि की काव्यकला में वर्णित हुआ है जिसके परिचय तथा अनुकरण से मनुष्य कृतार्थ हो सकता है। अनुवाद की भाषा बड़ी मंजुल और प्रांजल है तथा अध्येता को कवि के वास्तविक अभिप्राय के अत्यन्त निकट पहुंचाने की पूरी क्षमता रखती है। मेरा विश्वास है कि यह अनुवाद संस्कृतप्रेमी जनों को आवजित कर पर्याप्त प्रसार प्राप्त करेगा जिससे प्रकाशक और अनुवादक उत्साहित हो संस्कृत साहित्य की अन्य कृतियों को भी हिन्दी द्वारा जनता को हृदयंगम कराकर मानवता के मंगलमय विकास में पूर्ण सहयोग कर सकेंगे। बदरीनाथ शुक्ल Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका काव्यप्रयोजनअपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः / यथाऽस्में रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते // पुरुषार्थचतुष्टयको प्राप्त करना प्राणिमात्रका उद्देश्य होता है। उसके लिये योगसाधन, तपश्चरण, देवाराधन, तन्त्र-मन्त्रोपासना, आदि विविध उपाय शास्त्रों में अनेकत्र वर्णित हैं, और उन्हें प्रायः कुशाग्रबुद्धि व्यक्ति क्लेशादि सहन करके ही प्राप्त कर सकते है किन्तु उत्तम काम्य के सेवनसे साधारण बुद्धिवाला व्यक्ति मी मुखपूर्वक उक्त उद्देश्यकी पूर्ति कर सकता है; जैसा कि साहित्यदर्पणकारने कहा है 'चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखावल्पषियामपि।। काव्यादेव............................. (: ............... ( सा० द० 112) मामइने सत्काव्यको पुरुषार्थचतुष्टयप्राप्तिके साथ-साथ कगों में विचक्षणता, प्रीति तथा कीर्तिका साधक कहा है धर्मार्थकाममोक्षाणां वैचक्षण्यं कलासु च। करोति प्रीति कीर्ति साधुकाव्यनिषेवणम् // ' ( काव्यालङ्कार 112) इतना ही नहीं, काव्यसे कालिदासादिके समान यश, राजराजेश्वर श्रीहर्षादिसे कविश्रेष्ठ बाणादिके समान अर्थलाम, सूर्यस्तुतिदारा मयूरादिके समान कुष्ठादिमहारोगनिवृत्ति, तत्काल ब्रह्मानन्दसहोदर आनन्दलाम तथा स्त्रीवत् सदुपदेशादिलाम भी सम्भव है, जैसा कि मम्मटाचार्य ने कहा है काम्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरपतये। सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे रुद्रटने तो काम्यको समस्त अभिमतको देनेवाला कहा है 'अर्थमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य / स्वरचितरुचिरसुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कविः॥ (काव्याल. 18) राजानक कुन्तकने तो काव्यको पुरुषार्थचतुष्टयकी प्राप्तिसे भी अधिक आनन्दप्रद कहा है 'चतुर्वर्गफलस्वादमप्यतिक्रग्य तद्विदाम् / / काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते // ' (वक्रोक्तिजीवित) यही कारण है कि कष्टप्रद योग-तपश्चर्यादि साधनोंका त्याग कर मुखसाध्य काम्य. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सेवनके द्वारा हो चरमोद्देश्यप्राप्ति करने के लिए लोगों की प्रवृत्ति होती है, जैसा कि आचार्य मामहने कहा है 'स्वादुकाम्यरसोनिमकं शास्त्रमप्युपयुञ्जते / प्रथमालीढमधवः पिबन्ति कटुभेषजम् // ' (काव्यालङ्कार 563) राजानक कुन्तक ने भी अन्य शास्त्रों को कड़वी दवा के समान तथा काम्यको मधुर दवाके समान अविवेकरूपी रोगका नाशक कहा है 'कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशनम् / आहायमृतवत्काव्यमविवेकगदापहम् ॥(वक्रोक्तिजीवित) नैषधचरितकी काव्यश्रेष्ठताम०म० 50 शिवदत्त शर्माके कथनानुसार पं० दुर्गाप्रसाद शर्मा द्वारा प्रकाशित काम्यमालाके मुद्रणके पूर्व 'रघुवंश, किरातार्जुनीय, कुमारसम्भव, शिशुपालवध और नैषषचरित' इन पाँच हो काम्योंका पठन-पाठन प्रचलित था। कुछ विद्वानोंका मत है कि-'लघुत्रयी तथा वृहप्रयी' नामसे प्रसिद छः काम्योंका अध्ययनाध्यापन प्रचलित था। लघुत्रयों में 'रघुवंश, कुमारसम्भव तथा मेघदूत' और वृत्रयीमें 'किरातार्जुनीय, शिशुपालवध तथा नैवषचरित' की गणना है / इनमें से प्रथम 'लघुत्रयो' संज्ञक तीन काम्य महाकवि कालिदासके तथा 'पदत्रयी' संज्ञक कायों में 'किरातार्जुनीय, शिशुपालवध तथा नैषचरित' महाकाव्य क्रमशः महाकवि भारवि, माष तथा श्रीहर्षदारा विरचित है। इन तीनों महाकवियों में विदानोंने श्रीहर्षको ही सर्वश्रेष्ठ माना है 'उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् / दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः // ' इति / 'तावना भारवे ति यावन्माषस्य नोदयः। उदिते नैषधे काव्ये कमाघःकच भारविः॥ इति / उक्त प्रथम पथमें माघमें उपमादि गुणत्रयका अस्तित्व कहनेसे माधकी श्रेष्ठता कहकर द्वितीय पथमें श्रीहर्षकी सर्वश्रेष्ठता स्पष्टरूपमें प्रतिपादित की गई है। श्रीहर्षका जीवनचरित___ महाकवि श्रीहर्षके पिताका नाम 'श्रीहीर' तथा माताका नाम 'मामलदेवी' था। इसे स्वयं श्रीहर्षने नैषधचरित के प्रत्येक सर्गके अन्तिम श्लोकके पूर्वार्द्ध में स्पष्ट कहा है श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रोहोरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् / ' कतिपय विद्वान् 'माम् + अल्लदेवी' ऐमा पदच्छेद करके इनकी माताका नाम 'अल्लदेवी' था, ऐसा कहते हैं। किन्तु अन्य विद्वानों का मत है कि 'वातापि' के निकट 'मामल्लपुर' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नामका नगर ही श्रीहर्षकविको माताका निवासस्थान और उसी भाषारपर इनका नाम 'मामल्लदेवो' हुमा। 'श्रीहीर' बहुत ही विशिष्ट विद्वान् थे। ये काशीके राजा 'विजयचन्द्र' की राजसमाक प्रधान पण्डित थे। कहा जाता है कि इनको राजाके समक्ष एक पण्डितने शाखार्थमें पराजित किया / उक्त पण्डितके नामके विषयमें एकमत न होनेपर मी 'चाण्डू' पण्डितकी स्वकृत टीकाके आरम्भमें लिखी गयो-'प्रथमं तावकविर्जिगीषुकथायां स्वपितृपरिभावुक मुदयनमत्यमर्षणतया कटाक्षयंस्तग्रन्थग्रन्थीनुग्रन्थयितुं खण्डनं प्रारिमुभतुर्विधपुरुषार्थरभिमानमनवधीयमानमवधीर्यमानसमेकतानता निनाय / ' पहियोंसे मोहपके पिता 'श्रीहोर' को पराजित करने वाले मैषिक नैयायिक प्रसिय विद्वान् 'उदयनाचार्य हो थे, इसमें सन्देहका कोई स्थान नहीं रहता। अस्तु, राजसमामें पराषित 'पोहोर' ने सुपुत्र श्रीहर्षसे कहा कि 'पुत्र ! यदि तुम सुपुत्र हो तो मेरे विजेताको पराजित कर मेरा मनस्ताप दूर करना।' 'श्रीहर्ष' ने भी पिताकी आशाको शिरोधार्य कर सदगुरसे तक, न्याय, भ्याकरण, ज्योतिष, वेदान्तादिदर्शन, योगशाला एवं मन्त्रशासका सम्यक् प्रकारसे अध्ययन कर 'चिन्तामणि' मन्त्रका अनन्यमनस्क हो एक तक जप करनेसे प्रत्यक्ष हुई त्रिपुरादेवीके वरदानसे ऐसी विद्वत्ता प्राप्त की कि इनके कयनको कोई विद्वान् समझ ही नहीं पाता था। यह देख श्रीहने आराधनासे त्रिपुरादेवीका पुनः साक्षात्कार कर कहा किमातः! आपके वरप्रसादसे प्राप्त मेरा प्रखरतम पाण्डित्य भी सदोष ही रहा, क्योंकि मेरे कथनको कोई विद्वान् समझता ही नहीं, अत एव ऐसा वरदान दीजिये जिससे मेरे 1. 'चिन्तामणि' मन्त्रका स्वरूप यह है'अवामावामार्द्ध सकलमुभयाकारघटनाद् विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् / तदन्तर्मन्त्रं मे स्मरहरमयं सेन्दुममलं निराकारं शश्वजप नरपते! सिरयतु सते॥' (1485) 2. 'चिन्तामणि' मन्त्रका महत्व कविने स्वयं इन शब्दों में कहा है 'सर्वाङ्गीणरसामृतस्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः स स्वर्गीयमृगीरशामपि वशीकाराय मारायते / यस्मै यः स्पृहयत्यनेन स तदेवामोति किं भूयसा येनायं हृदये कृतः सुकृतिना मन्मन्त्रचिन्तामणिः॥ पुष्पैरभ्यर्च्य गन्धादिभिरपि सुभगैश्चारु हंसेन माञ्चेनिर्यान्ती मन्त्रमृति जपति मयि मतिं न्यस्य मय्येव भक्तः। सम्प्राप्त वत्सरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयिति रुचिरान कौतुकं दृश्यमस्य // ' (1485-87) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कपनको विद्वान् लोग समझने लगें। यह सुन देवीने कहा कि-आधी रातमें गीले बसको मस्तकपर रखना तथा मट्ठा पीना, जिससे कफवाहुल्य होकर जाड्यवृद्धि होनेपर तुम्हारे कथनको लोग समझने लगेंगे। श्रीहर्षने वैसा ही किया और उनके कथनको विदान् लोग समझने लगे। तदनन्तर इन्होंने 'खण्डनखण्डखाच' आदि अनेक ग्रन्योंकी रचना की, जैसा कि नैषधचरितके चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम, नवम, द्वादश, सप्तदश तथा अष्टादश सर्गों के अन्तमें क्रमशः स्थैर्य विचारप्रकरण, श्रीविजयप्रशस्ति, खण्डनखण्डखाथ, गौडोवीशकुलप्रशस्ति, अर्णववर्णन, नवसाहसाङ्कचरित, छिन्दप्रशस्ति तथा शिवशक्तिसिद्धि प्रन्थों के नामोंका इन्होंने स्वयमेव उल्लेख किया है। इस प्रकार अनेक ग्रन्थों की रचना कर मीहर्ष कन्नौजके अधिपतिके यहाँ पहुँचे। उनका आगमन सुनकर विदद्गुणग्राही राजाने मन्त्री, सभापण्डित आदिके साथ नगरके बाहर जाकर उनकी अगवानी करके यथोचित सस्कार किया। राजाको गुणिप्रियतासे अतिशय हर्षित श्रीहर्षने राजा की स्तुति करते हुए यह लोक पढ़ा'गोविन्दनन्दनतया च वपुश्रिया च माऽस्मिन्नुपे कुरुत कामधियं तरुण्यः / अस्वीकरोति जगतां विषये स्मरः स्त्रीरस्त्री जनः पुनरनेन विधीयते श्रीः॥' और उच्चस्तरसे विस्तृत व्याख्यान किया। यह सुन इनकी विद्वत्तासे समस्त समासदोंके सहित राजा अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये। तदनन्तर श्रीहर्षने अपने पिताके विजेता उदयनाचार्यको लक्ष्य कर कटाक्ष करते हुए यह श्लोक पढ़ा 'साहित्ये सुकुम रवस्तुनि दृढन्यायग्रहप्रन्थिले तकें वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती। शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्कुरेरास्तृता भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् // यह सुन श्रीहीरविजयी पण्डित ने उनके प्रखर पाण्डित्यको देखकर कहा कि-'भारतीसिर वादिगजकेसरी विददर ! आपके समान कोई मी विद्वान् नहीं है, फिर अधिक कहाँसे हो सकता है क्योंकि 'हिंस्राः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धतास्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीम ह महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् / केलिः कोलकुलैर्मदो मदकलैः कोलाहलं नाहले संहर्षों महिषैश्च यस्य मुमुचे साहकृते हुकृते // ' यह सुनकर श्रोहर्षका क्रोध शान्त हो गया। राजाने मी 'श्रीहीर' विजयी पण्डितकृत मवसरोचित श्रीहर्ष-स्तुति की श्लाघा करते हुए दोनों विद्वानोंमें परस्पर स्नेहपूर्वक मागिन कराकर राजमवनमें ले जाकर दोनोंका ही समुचित सरकार किया और श्रीहर्षको एक लक्ष सुवर्णमुद्राएँ दी। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नैषधचरितकी रचनाइस प्रकार पिताके विजयीका मानमर्दन कर श्रीहर्षने वहीं राजसमाके सदस्य होकर रहते हुए राजाशासे इस 'नैषधचरित' नामक महाकाव्यकी रचना कर राजाको दिखलाया। इसे देख प्रसन राजाने कहा कि-'कश्मीर जाकर इस महाकाव्यको सरस्वती के हाथमें दीजिये। वहाँपर साक्षात निवास करती हुई सरस्वती हाथमें दिये हुए दोषरहित ग्रन्थका शिरःकम्पनपूर्वक भमिनन्दन करती है और इसके विपरीत दोषयुक्त ग्रन्थको कूड़ेातवारके समान फेंक देती है। इस प्रकार सरस्वतीसे अमिनन्दित ग्रन्थका वहाँके राजासे प्रमाणपत्र लाइये। ऐसा कहकर और बैल-ऊँट भादिपर समुचितपाथेय तथा धन कदवाकर उन्होंने श्रीहर्षको कश्मीर भेजा। कश्मीरमें नैषधचरितका परीक्षणवर्तमान समयके समान रेल आदि साधनोंका अभाव होनेसे बहुत दिनों के बाद श्रीहर्षने कश्मीर पहुँचकर वहाँके राजपण्डितोंको अपना महाकाव्य दिखाया तथा इसे सरस्वतीके हाथमें रखा / सरस्वतीने पुस्तकको दूर फेंक दिया। यह देख श्रीहर्षने सरस्वती. से आक्षेपपूर्वक कहा कि 'मेरी पुस्तकको साधारण पुस्तकके समान दूषित समझकर तुमने क्यों अनादृत किया ? इसमें कौन-सा दोष है ?' श्रीहर्षकी आक्षेपपूर्ण बात सुन सरस्वती देवी ने कहा कि-'तुमने अपने इस ग्रन्थमें 'देवी पविनितचतुर्भुजवामभागा वागालपरपुनरिमां गरिमाभिरामाम् / एतस्य निष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् // ' इस पचके द्वारा मुझे विष्णुकी पत्नी कहकर लोकप्रसिद मेरे कन्याखका लोप किया है। इसी दोष के कारण मैंने पुस्तकको फेंक दिया है, क्योंकि-अग्नि, धूर्त, रोग, मृत्यु और मर्मभाषणका; ये पाँच योगियों को भी उद्विग्न कर देते हैं।' __ यह सुन महापुराणों के विशेषज्ञ श्रीहर्षने हँसते हुए कहा-'दूसरे जन्ममें तुमने विष्णुभगवान्को पतिरूपमें स्वीकार नहीं किया था क्या ? लोकमें मी तुम्हें लोग 'विष्णुपत्नी' नहीं कहते है क्या ? तब मेरे सत्य कहनेपर व्यर्थ ही क्रुद्ध होकर तुम मेरी पुस्तकको क्यों सदोष कह रही हो? / श्रीहर्षोक्त उक्त वचनको सुनकर सरस्वतीने पुस्तकको पुनः हाथमें लेकर उसकी प्रशंसा की। तदनन्तर श्रीहर्षने वहाँके राजसभासद पण्डितोंको सरस्वत्यनु. मोदित उक्त पुस्तक देकर कहा कि-'सरस्वती देवीने आपलोगों के समक्ष इस पुस्तककी प्रशंसा की है, अत एव आपलोग यहाँ के राजा 'माधवदेव'को यह पुस्तक दिखलाकर यह रचना शुद्ध है। ऐसा राजलेख 'काशिराज जयन्तचन्द्र' के लिए मुझे दें।। परन्तु पण्डितों में दूसरे किसी नये पण्डितके प्रति स्वमाचसे ही अस्या होती है, इस लोकनियमसे मावद उन 1. 'पावको वञ्चको व्याधिः पञ्चत्वं मर्मभाषकः। योगिनामप्यमी पञ्च प्रायेणोद्वेगकारकाः // इति / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका राजसमापण्डितोंने श्रीहर्षकृत सरस्वत्यमिनन्दित पुस्तक कश्मीरनरेश 'माषवदेव'को नहीं दिखलायी और परिणामस्वरूप राजा जयन्तचन्द्र के लिए पुस्तकके शुद्ध होनेका राजमुद्रामुद्रित लेख मी श्रीहर्षको नहीं प्राप्त हुआ। क्रमशः दिन, सप्ताह, पक्ष और मास व्यतीत होते गये। राजा जयन्तचन्द्रसे प्राप्त समस्त धन समाप्त हो चुका, वाइन, बैल, ऊँट आदि के साथ वर्तन भी श्रीहर्षको बेचने पड़े। _____एक समय नदीतटपर पानी भरने के लिए दो दासियों गयीं। संयोगवश उन दोनोंमें 'पहले मैं पानीका बड़ा मरूंगी' इस प्रसङ्गको लेकर परस्पर कहासुनी, गाली-गलौज होते-होते मारपीट हो गयी, फलतः दोनोंके शिर तक फूट गये। अपने-अपने पक्षकी पुष्टि करती हुई दोनों दासियोंने राजदरबार में जाकर मुकदमा किया और राजाके प्रत्यक्षद्रष्टा साक्षी मांगनेपर दोनोंने कहा कि एक विदेशी ब्राह्मण नदीतटपर बैठा था, उसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी वहाँ नहीं था। राजाशासे राजपुरुष नदीतटपर जाकर ब्राह्मणको साथ ले आये / वस्तुतः ये ब्राह्मणदेव अन्य कोई नहीं, महाकवि मोहर्ष ही थे। दोनों दासियोंके विवादके विषयमें पूछनेपर श्रीहर्षने कहा-'राजन् ! परदेशी होनेके कारण मैं इनके किसी शब्दका भी अर्थ नहीं समझ सका। हाँ, इन दोनोंने जो कुछ एक दूसरेके प्रति कहा या किया, उसे मैं मानुपूर्वी कह सकता हूँ।' ऐसा कहकर श्रीहर्षने' राजाश होनेपर दोनों दासियोंको परस्परोक्त उक्ति-प्रत्युक्तिको अनुपूर्वशः यथावत कह दिया। श्रीहर्षकी धारणाशक्तिसे आश्चर्यचकित राजाने दासीद्वयके विवादका निर्णय कर उन्हें विदा किया तथा साष्टाङ्ग प्रणाम कर श्रीहर्षसे उनका परिचय पूछा। उन्होंने काशीसे यात्रा करनेसे लेकर अब तकके सम्पूर्ण वृत्तान्तको राजासे कह सुनाया। यह सुन अपनी समाके पण्डितोंकी श्रीहर्षके प्रति की गयी असूयासे अत्यन्त दुःखित 'राजाने सभापण्डितोंको बुलाकर उन्हें विकारते हुए कहा-'मूखों! ऐसे परमविद्वान्के साथ स्नेह करनेके बदले असूया करनेवाले तुमलोगोंको धिक्कार है। अब तुम लोग अपने-अपने घरपर ले जाकर इस महात्माका सत्कार करो।' यह सुन श्रीहर्षने नैषधचरितकी प्रशस्तिमें पठित निम्नलिखित श्लोकको पढ़ा 'यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयाऽपि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते / मदुक्तिश्वेतश्चेन्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषाराधनरसैः // ' (प्रशस्ति 1) यह सुनकर अपने निन्दिन कमसे अतिशय लज्जित राजसभापण्डितोंने अपने-अपने घरपर श्रीहर्षको लेजाकर आदर-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। तदनन्तर कश्मीराधीश 'माधवदेव ने भी उनका सत्कार कर ग्रन्थकी शुद्धताका राजमुद्राप्रमाणित लेख देकर उन्हें विदा किया। उसे लेकर वे काशी लौटे तथा राजा जयन्तचन्द्रको लेख दिया और तबसे इस 'नैषधचरित'का प्रचार हुआ। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 भूमिका श्रीहर्ष का वैराग्य एवं संन्यास ग्रहणतदनन्तर काशीराज जयन्तचन्द्र के 'पभाकर' नामक प्रधान मन्त्रीने परमविकासवती एवं राजनीतिनिपुणा 'सहवदेवी' नामको विधवा शाणपति पत्नीको कुमारपालके घर लाकर सोमनाथको यात्रा कर जयन्तचन्द्रकी मोगपत्नो बनवाया। वह अपनेको लोकमें 'कलामारती' प्रसिद्ध करतो.थी और श्रीहर्ष मी 'नरभारती' कहे जाते थे। यह उस मत्सरिणीको असह्य था। एक समय उसने आदर के साथ श्रीहर्षको बुलाकर 'आप कौन हैं ? ऐसा प्रश्न किया। उसके प्रत्युत्तरमें श्रीहर्षके अपनेको 'कलासवंश' कहने पर उसने कहा कि 'जूता पहनाओ'। उसका अभिप्राय यह था कि यदि ये ब्राह्मण होनेके कारण 'मैं नहीं जानता हूँ' कहते हैं तब ये 'कलासर्वश' नहीं सिद्ध होते। श्रीहर्षने उसकी बातको स्वीकार कर वृक्षोंके वल्कल आदिसे जूता बनाकर उसे पहना तो दिया, किन्तु राजासे उसकी इस कुचेष्टाको कहकर अत्यन्त खिन्न हो गङ्गातटपर जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया। __ जयन्तचन्द्रका इतिवृत्तइसी बीच राजाकी अभिषिक्त देवीमें एक पुत्ररत उत्पन्न हुआ. जिसका नाम 'मेषचन्द्र' था और 'सहवदेवी से भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो मेधावी तो था, परन्तु अत्यन्त दुविनीत था। दोनों के युवावस्था प्राप्त करने पर राजाने अपने 'विद्याधर' नामक मन्त्रीसे पूछा कि 'किसे राज्य देना चाहिये ? विद्याधरने कुलीन एवं सस्पुत्र मेषचन्द्रको राज्य देनेके लिए अपनी सम्मति दी और 'सहवदेवी के दुर्विनीत पुत्रको राज्य देनेके इच्छुक राजाको यथाकथत्रित मेषचन्द्रको राज्य देनेके लिए राजी कर लिया। यह देख कर क्रुद्ध हुई सूहवदेवीने अपने विश्वासपात्र प्रधान दूतोंको भेजकर तक्षशिलाधीश्वर 'मुरत्राणको काशीपर चढ़ाई करनेके लिए तैयार किया। 'प्रत्येक पड़ावपर सवालाख स्वर्णमुद्रा व्यय करता हुभा वह काशीपर चढ़ाई करने के लिए चल पड़ा है। यह गुप्तचरोंसे बात कर मन्त्री विद्याधरने 'सूहवदेवी'कृत विरोधको राजासे निवेदन किया, किन्तु राजाने 'वह मेरे साथ ऐसा दुम्यवहार नहीं करेगी' कहकर उसे फटकार दिया। राजाको मूर्खतासे राजमक्त मन्त्री चिन्तित हो विधिको प्रतिकूल मानकर सोचने लगा कि राज्यभ्रंश होनेके पहले मर जाना अच्छा है। यह सोचकर उसने राजासे कहा'प्रमो ! यदि भाशा हो तो मैं गङ्गाजी में डूबकर प्राणस्याग कर दूं।' अपने प्रत्येक काममें उसे कण्टकभूत मानकर राजाने मी सहर्ष आशा दे दी। मन्त्रीने सोचा-हितवचनोंको नहीं सुनना, दुनीतिमें प्रवृत्त होना, प्रिय लोगों में भी दोष देखना, अपने गुरुजनोंका अपमान करना; ये सब मृभ्युके पूर्वरूप राजामें स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं, अत एव इनकी मृत्यु अब आसन है। यह सोच सब धातुओंको सवर्ण बनानेवाले जिस 'पारस पत्थरके प्रमावसे 8800 ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन देनेके कारण 'लघुयुधिष्ठिर' उपाधिस वह मन्त्री लोकप्रसिब था, चिन्तामणिविनावकके प्रसादसे प्राप्त उस पत्थरको लेकर गङ्गाजलमें Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 भूमिका प्रवेशकर उसने ब्राह्मणको सस्पपूर्वक दान दे दिया, किन्तु इतमाग्य उस ब्राह्मगने 'तुम्हें विकारहै, जो मुझ ब्राह्मणको गङ्गातटपर बुलाकर दानमें पत्थर दे रहे हो ऐसा कहकर उस अमूल्य पत्थरको गङ्गाजी में फेंक दिया और घर चला गया। इधर मन्त्रीने गङ्गाजीमें डूबकर प्राणत्याग कर दिया। उधर तक्षशिलाधीश्वर 'सुरत्राण' ने काशी पहुँचकर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया एवं यवनोंने नगरीको खूब लूटा। राजा मारा गया या उसका क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला। यह ईसवोय सन् 1348 में राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोषमें 'श्रीहर्ष-विद्याधरजयन्तचन्द्रप्रबन्ध से शात होता है। जयन्तचन्द्रका समयप्राचीन लेखमालाके 23 वे लेखके संवत् 1243 (ईसवीय सन् 1983 ) आषाढ़ शुक्ल सप्तमी रविवारको लिखित दानपत्रसे जयन्तचन्द्रका वंशक्रम इस प्रकार शात होता है यशोविग्रह महीचन्द्र श्रीचन्द्रदेव मदनपाल गोविन्दचन्द्र विजयचन्द्र जयन्तचन्द्र इनमें यशोविग्रहके पौत्र 'श्रीचन्द्रदेव' ने कान्यकुब्ज (कन्नौज ) तथा काशीपर विजय प्राप्त की थी, तथा 22 वे लेख में जयन्तचन्द्र के यौवराज्यदानपात्र में संवत् 1225 ( ईसवीय सन् 1169 ) लिखा है। इस प्रकार जयनचन्द्र के राज्यकालके अनुसार महाकवि श्रीहर्षका समय भी बारहवीं शताब्दी ही निश्चित होता है / अत एव जयन्तचन्द्र के पिता विजयचन्द्र के वर्णनस्वरूप ग्रन्थकी चर्चा श्रीहर्ष कविने अपने नैषधचरितमें की है। श्रीहर्षके समयके विषयमें विविध मतोंमें उपस्थित विसंवादों का प्रदर्शन कर उनका खण्डन करते हुए डाक्टर बूलर साहद के उस व्याख्यानसे भी इसीका समर्थन होता है, जो 'रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई ब्रांच' ( Royal Asiatic Society, Bombay Branch ) नामको विदत्समाद्वारा सन् 1875 ई० में प्रकाशित प्रबोधनग्रन्थ मुद्रित हुआ है। 1. तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचनातातस्य भव्ये महा. काव्य चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमपञ्चमः / (5 / 138 का उत्तरार्द्ध) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नल-दमयन्तीकी मूलकथा महामारनके वनपर्वमें नल-दमयन्तीकी कथा आयी है। उसके अनुसार भी इन्द्रादि चारों देवोंने दमयन्तीके पास नलको दूत बनाकर भेजा था। निष्कपट भावसे कार्य दमयन्तीकी स्तुतिद्वारा प्रसन्न होकर नलके लिए आठ वर दिये। स्वर्ग को जाते समय कलिको देवोंने बहुत समझाया, परन्तु वह नलको राज्यभ्रष्ट करनेके लिए दापरको सहायक बनानेकी शर्त कर निषध देशमें गया। बारह वर्ष के बाद नलको मूत्रत्यागके बाद आचमन कर बिना पैर धोये हो सन्ध्योपासन करते देख ( उन्हें अशुचि देख ) अबसरका लाम उठाकर वह उनमें प्रवेश कर गया। तमें अपने माई पुष्करसे पराजित होकर वनमें जाते हुए नलने दमयन्तीका त्याग कर दिया। और चार वर्षके बाद पुनः दोनोंका समागम हुआ। आदि। इस कथामें केवल इतिवृत्तमात्रका वर्णन है, किन्तु नैषधचरितमें श्रीहर्षने उस कथामागका बहुत ही रोचक एवं सरस शैलीमें इस प्रकार वर्णन किया है कि वह सजीव हो गया है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं उस कथाभागको स्वरचित कल्पनाका पुट देकर विशेषतया सजाकर उसमें चार चांद लगा दिये हैं, जिनमें से नल के दारा पकड़े गये हंसका करुण क्रन्दन आदि मुख्य हैं। 'सोमदेवमट्ट विरचित 'कथासरित्सागर' के अनुसार सबसे पहले इसको दमयन्ती ने अपना दुपट्टा फेंककर पकड़ा तब उसने कहा कि तुम मुझे छोड़ दो, मैं कामवत सुन्दर 1. प्रहृष्टमनसस्तेऽपि नलायाष्टौ वरान् ददुः / प्रत्यक्षदर्शनंयज्ञेशको गतिमनुत्तमाम् // अग्निरात्मभवं प्रादायत्र वान्छति नैषधः / लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः॥ यमस्वन्नरसंप्रादाद्धर्मे च परमां स्थितिम्।अपाम्पतिरपाम्भावंयत्र वाग्छति नैषधः॥ खजश्वोत्तमगन्धाढ्याः सर्वे ते मिथुनं ददुः / वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवंगताः / / (संक्षिप्तमहाभारत वनपर्व 133617-620) भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान भन्या सहप्स्यते। त्वमप्यक्षान् समाविश्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलिः सह। आजगाम कलिस्तत्र यत्र राजा स नैषधः॥ . ( संक्षिप्तमहामारत वनपर्व 16631-633) 3. स नित्यमन्तरं प्रेप्सुनिषधेप्ववसचिरम् / अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् // कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य सन्ध्यामन्वास्य नैषधः। अकृत्वा पादयोःशौचंतत्रैनंकलिराविशत्॥ (संक्षिप्तमहाभारत वनपर्व 14 / 633-635) 4. स चतुर्थे ततोवर्षसङ्गम्य सहभार्यया। सर्वकामैःसुसिद्धार्थो लब्धवान परमां मुदम् // ( संक्षिप्तमहामारत वनपर्व 16 / 833) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विषधराज नलसे तुम्हारे सौन्दर्यका वर्णन कर तुम्हारा पति होनेके लिए निवेदन करूंगा। यह सुन दमयन्तीके हाथसे मुक्ति प्राप्त कर इंस निषधदेशमें जाकर सरोवरपर स्थित नलके पास पहुंचा। वहांपर भी नलने उसे अपना दुपट्टा फेंककर पकड़ा, तब उस इंसने कहा कि पतिरूपमें तुम्हें चाहनेवाली मीमकुमारी परमसुन्दरी दमयन्तीका सन्देश लेकर मैं भाया हूँ, अतः तुम मुझे छोड़ दो। हर्षप्रद यह हंसोक वचन सुनकर नसे मुक्त इंस पुनः दमयन्तीके पास जाकर नलसे दी गई स्वीकृतिका सुसंवाद कहकर अभिमत स्थानको चला गया और दमयन्तीने माताके दारा यह समाचार पिताको सुनाया। तदनुसार पिता मीमने भो स्वयंवरके निमित्त राजाओं के पास निमन्त्रणपत्र भेजे। नारदसे दमयन्तीके लोकोत्तर सौन्दर्य तथा स्वयंवरका समाचार पाकर इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम तथा वाय, ये पांच लोकपाल नाके समीप गये और अदृश्य होनेकी शक्ति देकर उनको दूत बनाकर दमयन्तीके पास भेना। नलने मी दमयन्तीके पास जाकर देवोंका सन्देश कहते हुए उक्त पांच देवों में से किसी एक देवको पतिरूपमें वरण करनेके लिए कहा, किन्तु दमयन्तीका नलको ही वरण करनेका निर्णय मालूम कर नलने अपना परिचय दिया और उन पांच देवोंके पास वापस भाकर यथातथा सब बातोंको कह दिया। उनके इस वधनारहित सत्यवचनसे प्रसन्न देवोंने अपनेको नलका वशवती होनेका वरदान दिया। तदनन्तर नलके निषध देशको वापस लौटनेपर वे इन्द्रादि पाँचों लोकपाल नरूका रूप धारण कर स्वयंवर में पहुंचे। इधर अपने भाईसे स्वयंवरागत राजामों का परिचय पाकर क्रमशः उन्हें छोड़ती हुई दमयन्तीने मागे जाकर एक साथ बैठे हुए छः नकोंको देखा तथा उन देवताओंको स्तुतिसे प्रसन्न कर नलके गले में वरणमाला पहना दी। दमयन्तीके साथ विधिवत विवाह संस्कार सम्पन्न होनेपर नल वापर एक सप्ताह ठहरनेके बाद दमयन्तीको साथ लेकर अपने देशको लौटे। पर दमयन्ती-स्वयंवर में द्वापर के साथ आता हुआ कलि देवोंसे नलके दमयन्तीदारा वरे जानेका समाचार सुन उन्हें परस्पर वियुक्त करनेकी प्रतिक्षा कर नलकी राजधानीमें पहुंचा और नलके छिद्रान्वेषण करता हुमा रहने लगा। बारह वर्षके उपरान्त मद्यपान करनेके कारण बिना सन्ध्योपासन तथा पादप्रक्षालन किये ही सोए हुए नलके शरीर में कलिने प्रवेश किया, जिसके प्रभावसे नल दुराचारमें प्रवृत्त रहने लगे। इत्यादि / इस प्रकार महामारत तथा कथासरित्सागरके कथाशके साथ प्रकृत नैषधचरितके कांशका सामजस्य करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीहर्षने महाभारतके आधारपर ही इस महाकाव्यको रचना की है। 1. कथासरित्सागरके नवम 'अलकारवती' लम्बकके छठे तरङ्गमें लोक 237-416 / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका श्रीहर्षका पाण्डित्य पहले लिखा जा चुका है कि श्रीहर्षने खण्डनखण्डखाण आदि अपने ग्रन्थों की रचना की। उनमेंसे एकमात्र 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ ही इनके पाण्डित्यप्राचुर्यप्रदर्शनके लिए पर्याप्त है। इसमें ग्रन्थकारने अपने प्रखर पाण्डिस्थसे अनेकविध तर्को तथा प्रयुक्तियों के द्वारा बड़े उत्तम ढंगसे अद्वैत मतका प्रतिपादन किया है, जिसको देखकर विदानोंको इनके पाण्डित्यप्राचुर्यकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करनी ही पड़ती है। अपने इस भदैतकी झलक श्रीहर्षने नैषधचरितमें मी अद्वैततव इव सत्यतरेऽपि लोकः ( 13365) इत्यादि वचनोंद्वारा प्रदर्शित की है। पष्ठ सर्गको तो स्वयं श्रोहर्षने ही 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थका सहोदर कहा है / यथा 'षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात्योदतमे तन्महा. काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सोऽगमद्रास्वरः।' (6113 का उत्तराई) न्यायशाखके मुख्याचार्य गोतमको भी इन्होंने नैषधचरितमें 'मुक्तये यः शिलास्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / / गोतमं तमवेतैव यथा वित्थ तथैव सः॥ (1774) कहकर आड़े हाथों लिया है। सप्तदश सर्गमें चार्वाक मतका अत्यन्त कटुसत्य प्रामाणिक एवं विस्तृत समीक्षण श्रीहर्षको दार्शनिकताका अकाट्य प्रमाण है। वैशेषिक दर्शनका नामान्तर 'उलूक दर्शन' भी है, इसे श्रीहर्षने बड़ो युक्तिसे प्रतिपादित किया है 'ध्वान्तस्य वामोह ! विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे। औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षम तमस्तस्वनिरूपणाय // ' (22 / 35) अन्य कवियों ने प्रायः अपनी विश्त्ताके प्रदर्शनार्थ ऋतु, प्रभात, चन्द्र आदिका वर्णन अपनी रचनाओं में अप्रासङ्गिक या अत्यधिक रूपमें किया है, किन्तु श्रीहर्षने ऐसा वर्णन कहीं नहीं किया है। जहां कहीं भी इनोंने मूलकथासे पृथक् स्वतन्त्र कथाकी कल्पना की है, वह वहाँपर मशीनके पुर्जेके समान ठीक-ठीक बैठ जाती है और ऐसा आमास होता है कि इसके बिना रचना अधूरी एवं बेकार थी। उदाहरणार्थ नलके पास हंस पहले नलको काटकर ( 1 / 125) अनन्तर कुछ फटकारकर ( 11130-133 ) मी अपनेको छुड़ानेके लिए प्रयत्न करता है, किन्तु असफल होकर करुण-क्रन्दन (1 / 135-142 ) करने कगता है और दया नलसे मुक्ति पाकर वहीं वह अपनी भूल स्वीकार करता हुआ (2 / 8-9) अप्रिय माषणजन्यदोष को प्रत्युपकार द्वारा दूर करने का वचन देता है तथा उसे दैवप्रतिपादित मानने के लिए दोनतापूर्वक विविध प्रकारसे अनुरोध करता है (2 / 10 / 15) / इसके प्रतिकूल जब वही हंस दमयन्तीके पास पहुँचता है तो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अनेक प्रकारसे आरम-श्लाषा करता हुआ नलके प्रति दमयन्ती को Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भाकृष्ट करनेके उद्देश्यसे बार-बार उनका प्रसा लाकर उनको अत्यन्त स्तुति इस प्रकार करता है कि दमयन्तीको यह लेशमात्र भी आमास न होने पावे कि इसे नलने भेजा है तथा इस चातुर्यपूर्ण रहस्यको वह तब तक छिपा रखता है, जब तक दमयन्तीके हृदयको अच्छी तरह ठोंक-ठोंककर नलके प्रति आकृष्ट होनेका दृढ़ निश्चय नहीं कर लेता है। यहाँपर हंसके चातुर्यका दिग्दशनमात्र करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा। देखिये-हंस किस चातुर्यसे श्लेष द्वारा नल के प्रति दमयन्तीको आकृष्ट करता है। वह कहता है कि-'मुझ स्वर्गीय हंसको पकड़ने के लिए 'विरलोदय नर'के एकमात्र स्वर्गोग्यभाग्यके अतिरिक्त कोई जाल आदि समर्थ नहीं हो सकता। 'धन्धाय दिव्ये न तिरश्चि कश्चित्पाशादिरासादितपौरुषः स्यात् / एकं विना मादृशि तन्नरस्य स्वर्भोगभाग्यं विरलोदयस्य // ' (3 / 20) यहाँपर उसने 'विरलोदय, नर' इन दो शब्दोंसे नलका स्पष्ट सङ्केत किया है। आगे वह दमयन्तीके का नाम बाला द्विजराजपाणिग्रहाभिलाषं कथयेदभिज्ञा / ' (3159) अपने मनोरथगत नलकी ओर श्लेषद्वारा सङ्केत करने पर उसके नलविषयक अर्थको समझ कर भी स्पष्ट करने के लिए कहता है-चन्द्रमाको हाथसे पकड़ने के समान आप जिसे प्राप्त करने के लिए अधिक आदरिणी हों, उसे क्या मैं उस प्रकार सुननेका अधिकारी नहीं हूँ, जिस प्रकार वेदवचनको सुननेका अधिकारी शूद्र नहीं होता ( 362) / आगे उसके मनोरथको पूरा करनेमें अपनेको सर्वथा समर्थ बतलाता हुआ वही हंस विश्वकी किसी भी वस्तुको यहाँ तक कि लङ्काको भी देने में अपनेको समर्थ कहता है, जिसका उत्तर कुलीना दमयन्ती स्पष्टरूपसे न देकर श्लेषद्वारा ही नलको पानेकी इच्छा पुनः प्रकट करती है 'इतीरिता पत्ररथेन तेन हीणा च हृष्टा च बभाण भैमी। चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम् // ' ( 367) यहाँपर कुलाङ्गनोचित शोलका पूर्णरूपेण पालन करते हुए श्रीहर्षने भारतीय संस्कृति के परमोच्चादर्शको स्थापित किया है। इसी कारण अन्तमें विवश होकर हंसको ही 'नल के साथ तुम विवाह करना चाहती हो' कहना पड़ा है (379) / और आगे चलकर वह पुनः पुनः नलके लिये दमयन्तीसे दृढ़ निश्चय कराकर ही 'वे भी तुम्हें चाहते हैं और उन्होंने ही तुम्हारे पास मुझे भेजा है' इत्यादि कहते हुए अपना वास्तविक रूप दमयन्तीके समक्ष व्यक्त करता है। ___सभी लोग कुश तथा जल लेकर सङ्कल्पपूर्वक दान देते तथा लेते देखे जाते हैं। देखिये महाकवि श्रीहर्षने दानवीर नलके मुखसे उक्त प्रकरणको लेकर कितनी सुक्ष्मदशिताके साथ दानका महत्त्व कहलवाया है / दानके स्वरूप विविध प्रकारसे कहते हुए नल कहते हैं किकुश-जलयुक्त दान करने का विधान यह सूचित करता है कि याचकके लिए केवल धनमात्र ही नहीं, अपि तु प्राणोंको भी तृणके समान दान कर देना चाहिये।' Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 'अर्थिने न तृणवद्धनमानं किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवजलदायी ब्रम्पदानविधिरुकिविरग्य' (5 / 86) नलने अपने दूतकर्मको भाषन्त साङ्गोपाङ्ग निभाया है। अपने कार्य में कुछ विलम्ब होता हुआ देखकर वे बहुत ही खिन्न होते हुए सोचते है कि मेरे मार्गको देखनेवाले इन्द्र के नेत्रोंको बज्रने बनाया है। शोध करने योग्य कार्य में भी विलम्ब करनेवाले मुझको धिक्कार है, जिसमें दूसरे के दूतकार्य करनेका साधारण गुण मी नहीं है 'इयचिरस्यावदधन्ति मरपथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिन निममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेन्यगुणोऽपि यत्र न // ' (9 / 21) यहाँ पर नलने निष्कपट मानसे अपने दूतबमकी सिपिके लिए यथाशक्ति प्रयत्न करने में लेशमात्र भी कमी नहीं की है और अन्ततक उसकी सफलताके लिए प्रयत्नशील रहे हैं और इनके इसी निष्कपटमावने इन्हें पुण्यश्लोक बनाया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। स्वयंवर में जिस क्रमसे सब दीप तथा राजाभोंका वर्णन महाबवि श्रीहर्षने किया है, वह समस्त समुद्र, वृक्ष, देव आदिका विष्णुपुराणके द्वितीय अंशके तृतीय अध्यापमें स्पष्ट वर्णित है। वहाँ पर शाकदोपके वर्णन प्रसङ्गमें वहाँके अधिपतिका नाम 'मन्य' कहा गया है और अपनी कृति नैषषचरितमें श्रीहने 'हन्य' को शाकदोपका भविपति कहा है ( 11 // 37) सम्भव है यह नामभेद पाठान्तर आदि किसी कारणसे हो। इस द्वीपवर्णनसे महाकविके पौराणिक शानकी पुनः परिपुष्टि होती है / राजाओंके वर्णन प्रसङ्गमें सरस्वती मुबसे काशीनरेशका वर्णन कराते हुए महाकविने 'कश्यां मरणान्मुक्ति' वचनका अत्यन्त उत्तम युक्तिसे समर्थन किया है। आपके मतमें भूभागके किसी तीर्थविशेषमें तपस्या करनेवालों को स्वर्गप्राप्ति होती है, और यह काशीपुरी पृवीपर नहीं है (किन्तु पौरागिक वचनोंके अनुसार शङ्कर भगवान् के त्रिशूल के ऊपर बसी है ) और वहाँपर निवास करना स्वर्ग में निवास करना है, अत एव उस पवित्र तीर्थमें शरीर त्याग करनेवाले प्राणियों को स्वर्गसे भी श्रेष्ठ मुक्ति होती है। अन्यथा यदि उन्हें स्वर्ग ही प्राप्त हो तो उनके संका कोई कारण ही नहीं होता, क्योंकि वे तो स्वर्गरूप काशीमें पहलेसे निवास करते ही थे / कविके शब्दोंमें इस प्रसङ्गको देखिये'वाराणसी निवसते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिमखभुजां भुवने निवासः। तत्तीथमुक्तषपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गास्परं पदमुदतु मुदे तु कोरक ! // ' (11 / 116) नलके पाण्डित्व-प्रदर्शन-प्रसङ्ग में स्थान-स्थान पर इलेषका वर्णन मा चुका है, किन्तु इन्द्रादि चारो देवों के साथ नलका तथा नळके साथ इन्द्रादि चारो देवोंका एक साथ वर्णन करके महाकविने नो श्लेपोतिचातुर्य का प्रदर्शन किया है, वही उनके पाण्डित्यका निष्कर्ष है। आगे चलकर अन्तमें'देवः पतिर्षिदुषि नैपपराजगत्या निर्णीयते न किमु न प्रियते भवत्या। 2 नै० भ० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नायं नलः खलु तवास्ति महानलाभो यद्येनमुज्झसि वरः कतरः परस्ते // (13333) इस एक ही श्लोकसे पवनलों के वर्णन में तो ऐसा प्रतीत होता है कि सचमुच हो स्वयंवर में स्वयं पधारकर साक्षात सरस्वती देवीने या राजवर्णन किया है। महाकविने स्वयंवर में आयी हुई सरस्वती देवी के प्रसङ्ग का जो वर्णन ( 1074-78 ) किया है, उसमें उनका बहुश्रुतत्व स्पष्ट प्रतिमासित होता है। क्षागे चलकर बारातका वर्णन मी महाकविने सूक्ष्मदर्शनपूर्वक बड़ा रोचक किया है। वर्तमान समयमें भी साधारण कोटिके लोगों की बारात बारातियों की भोरसे जो शान दिखलायी जाती है, बात-बातमें हँसी मजाक चलता है उससे समी परिचित है, तो फिर परमैश्वर्यशाली नैषधकी बारातमें जिसमें नट, विट, विदूषक आदि दास्योपजीवियोंसे लेकर बड़े-बड़े चतुर राजगण मी सम्मिलित हुए थे, उसमें हास तथा शनशौकत की क्यों कमी होती ? कन्याके पिता मोम बार-बार आप्त राजाओंको यथासमय शुभ मुहूर्तमें शीन कार्य होने के लिए दूतरूपमें भेजते है, किन्तु पारातियों का मानो उपर ध्यान ही नहीं नाता, वे अपने शानमें मस्त होकर धीरे-धीरे चल रहे है, तथा भनेक बार दूतरूपमें मोमप्रेषित आप्त राजाओं तथा उनके सहचारों से नलकी सेना बहुत बढ़ गयी / यथा 'विदर्भराजः चितिपाननुक्षणं शुभषणासनतरवसत्वरः। दिदेश दुतान् पथि यान्यथोत्तरं चमूममुग्योपचिकाय तथयः॥ (15) जब सामान्य वर्गके मी कन्यापिता भादि पारातियों के मादर सस्कार एवं मोजमादि में यथासम्भव किसी प्रकार की कमी नहीं होने देते, तब मला कुण्डिनपुरापीश राजा मीमके यहाँ नल-जैसे वरके बारातियों के भोजनादिमें किस वस्तुको कमी थी तथा ऐसे वर्णनकी उपेक्षा मी महाकवि श्रीहर्षको कैसे सा हो सकती थी। बारातियों को विविध भोज्यपदार्थोके वर्णन-प्रसङ्ग में कल्पना विचक्षण श्रीहर्ष घी के विषयमें कहते है कि-यद्यपि मर्त्यलोकवासियोंने अमृतपान नहीं किया है, तथापि वी अमृतसे अधिक स्वादिष्ट है ऐसा अनुमान होता है; क्योंकि भमृतभोजी यशों में जले (दूषित ) हुए गन्धवाले भी जिस घोको लालसा करते हैं / यथा'यदष्यपीता वसुधालयः सुधा तदप्यदः स्वादु ततोऽनुमीयते / अपि तूपर्बुधदग्धगन्धिने स्पृहां पदस्मै दधते सुधाम्धसः // ' (1671 ) वाह ! क्या ही सुन्दर हृदयहारिणी कल्पना है, यहाँ गागरमें सागर ही भर दिया गया है। परिहासप्रियतामैं पहले लिख चुका हूँ कि बारातियों के बात-बातमें परिहासपूर्ण व्यवहार देखे जाते हैं, उसे यहाँपर कविने दमयन्मोके भाई दम अर्थात नलके मेटे साके द्वारा नाना प्रकारसे कराया है। और इतना ही नहीं, राजाओंसे मरी स्वयंवर सभामें भी दमयन्ती-दासियों के द्वारा दमयन्ती-निरस्त राजाओंको लक्ष्यकर कसा उपहास कराया है, देखिये ! सरस्वतोदेवी स्वयंवरमें आये हुए राजाभोंका परिचय दे रही है, उसी प्रसङ्गमें Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 16 जब एक राजा का परिचय दे रही थीं, उसी बीच में दमयन्तीके हृद्त अभिप्रायको जाननेवाली सखीने सरस्वतीदेवीको पान का बीड़ा देती हुई कहा कि इस राजाका वर्णन करते. करते आपका मुख थक गया होगा, इस बोड़ेसे उसे दूर कर लें अर्थात जिसे स्वामिनी नहीं चाहती उसका वर्णन करना व्यर्थ है, अतएव पानका बीड़ा चवाने के बहाने उसे समाप्त करें 'विधाय ताम्बूलपुटीं करागां बमाण ताम्बूलकरवाहिनी।। दमस्वसुर्भावमवेष भारती नयानया वक्रपरिश्रमं शमम् // ' ( 1276 ) आगे चलकर वारातियों के मोजन करनेके पश्चात् मुखशुद्धयर्थ वैसी सुपारी दी गयी जो विच्छुके आकारकी यी अतः उसे लेते हो बारातियों ने विच्छू समझकर तुरत फेंक दिया और यह देख वहाँपर उपस्थित दमपक्षीय इस पड़े 'मुखे निघाय क्रमुकं नलानुगैरयोजिम पालिरवेषय वृमिकम् / / दमार्पितान्तर्मुखवासनिर्मितं भयाविलः स्वममहासिताखिलः॥' (16 / 109) बारातियों के साथ दासियों, सखियों या बाराङ्गनाओं और छोटे साले दमका परिहास करने मात्रसे हो कवि को सन्तोष नहीं हुआ तो उन्होंने राजा भीम तकको पर घसीटा / जब सब बारातो भोजन करके निवृत्त हो मुखमथर्थ सुपारी, पान मादि भी ले चुके, तब उन्हें उपहार देते समय स्वयं राजा भीम मो एक नकली तथा एक असली-दो-दो रत्न अपनी हथेलीपर रखकर बारातियोंसे कहने लगे कि इन दोनों रत्नों में से जो रत्न मापको पसन्द हो, उसे आप लेलें, किन्तु अनमिताके कारण जब बाराती नकली रनको पसन्द करने लगे, नव मधुर स्मित करते हुए वे दोनों हो रन बारातियों को दे दिये 'अमीषु तय्यानृतरवजातयोर्विदर्भराट चारुनितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेश्युदय तद् दयं ददौ शेषजितबेहपन् // ' (16 / 110) कविलोग प्रायः अपनी रचनाओं में शृङ्गाररसकी भरमार कर देते हैं, क्योंकि उनकी उसीमें विशेष मक्ति होती है, किन्तु महाकवि श्रीहर्षने शृङ्गारके वर्णन के साथ अन्य रसोंका मो यथास्थान पर्याप्त वर्णन किया है। करुणरसके हंसकृत क्रन्दन एवं दमयन्तीका विरह वर्णन आदि गणनीय उदाहरण है। देखिये, श्री हर्षने मयानक तथा करुणरसका एक ही साथ कैसा सुन्दर चित्रण किया है 'एतनीतारिनारीगिरिगुहविगलासरा निःसरन्ती स्वक्रोटाहंसमोहनहिलशिराशप्रार्थिनोभिद्रचन्द्रा। आक्रन्दद्भरि यत्तन्नयनजलमिलचन्द्रहंसानुबिम्ब प्रत्यासतिप्रहृष्यत्तनपविहसितैराश्वसीम्न्यनसीह // ' (12 / 28) विवाहका दिन निश्चित हो जानेपर अपनी सहधर्मिणीसे घरका समस्त वैवाहिक कार्य करने के लिये कहकर स्वयं बाहर के कार्यका मार ग्रहणकर महलसे इतनी शीघ्रतासे बाहर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका माते हैं कि उन्हें विशेष बात करनेका मानो भवसर ही नहीं है। ठीक ही है, विवाह समबके निर्णीत होनेपर मो महान् उत्तरदायित्वपूर्ण मार कन्यापिताके ऊपर आ जाता है, उसे मुक्तभोगी या सहृदय ही कोई व्यक्ति समझ सकता है। रामाषिराज होते हुए भी मीमको कितनी चिन्ता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण कविने बहुत सुन्दर चित्रित किया है। योग्य वर-चरणका सुसमाचार सुनाकर वे सहपर्मिणी महारानीसे कहते हैं कि-'विवाह मङ्गल योग्य खी-सम्बन्धी कार्योको तुम सियां करो तथा हमलोग मौत स्मात विधियोंको करते हैं। ऐसा कहकर उत्तर या स्वीकृति पाये बिना ही झट बाहर मा नाते हैं_ 'सजन्तु पाणिग्रहमङ्गलोचिता मृगीरशः बीसमयस्पृशः क्रियाः श्रुतिस्मृतीनाश्तु वयं विदध्महे विधीनिति स्माह च नियंयौ च सः॥(१५।७) तथा महारानीके आशानुसार विविध प्रकार के पकवानों को बनानेमें निपुणतमा पुरन्ध्रियां मी तुरन्त अपने-अपने कार्योंका निपुणता पूक भारम्म कर देती हैं 'काचित्तदाऽऽलेपनदानमण्डिता कमप्यहवारमगारपुरस्कृता।। अलम्भि तुझासनसन्निवेशमादपूपनिर्माणविदग्धपाऽऽदरः // ' (15/12) साथ हो राजमहल तथा नगरकी सजापट होने लगती है। कपड़ेको काटकर तथा उन्हें उन्हीं सुगन्धि द्रव्योंसे सुवासितकर बनाये गये असामयिक फूलोंकी माला के आधिक्यसे मार्ग चंदबासे आच्छादित की तरह शीखने लगे। उन कपड़ों के असामयिक फूलोंकी मुगन्धको भौर कोई तो क्या, सौरमके पारखी भ्रमर भी नहीं पहचान सके और उन्हें सचा फूल समझकर सौरभलोमसे समन्ततः आकृष्ट होने लगे 'पथामनीयन्त तथाऽधिवासनान्मधुव्रतानामपि दत्तविभ्रमाः। वितानतामातपनिर्भयास्तदा पश्छिदाऽकालिकपुष्पजाः मजः // ' ( 15 / 14) विवाहार्थ वधू-परका मण्डन तथा विवाहविधिका वर्णन नैषधकारने कुमारसंयवके पार्वती करके समान हो किया है, किन्तु नैपषका वर्णन मत्युदात्त विस्तृत एवं सरस है। कुमारसम्मवमें मण्डन के उपरान्त पार्वतीके दपंग देखने का वर्णन इस प्रकार है - 'क्षीरोदवेलेव सफेनपुमा पर्याप्तचन्देव शरप्रियामा ! नवं नषदोमनिवासिनी सा भूषो पो दर्पणमादधाना // ' ( 7 / 26 ) तथा नैषध, वहा वर्णन निम्नावित है'मणीसनाभी मुकुरस्य अण्डले बभी निजास्यप्रतिबिम्पदर्शिनी। विधोरदूरं स्व मुखं विधाय सा निरूपयन्तीव विशेषमेतयोः॥ जितस्तदास्येन कलानिधिदधे विचन्द्रधीसाधिकमायकायताम् / तथापि जिग्ये युगपत्सखीयुगप्रदर्शितावर्शवषिष्णुता // किमालियुग्मार्पितदर्पणद्वये तदास्यमेकं बहु चान्यदम्वुजम् / हिमेषु निर्वाप्य निशासमाधिभिस्तदात्य सालोक्यमितं पक्षोक्यत // (15 / 50-52) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 भूमिका उपर्युक्त दोनों ग्रन्योंके इस वर्णनमें जहां पार्वती स्वयं दर्पण लेकर अपने मण्डन. विधिके बाद अपना सौन्दर्य निरीक्षण कर रही है, वहां दमयन्तीको एक ही नहीं, किन्तु दो-दो सखियां दर्पण दिखला रही है। इत्यादि वर्णनश्रेष्ठता स्पष्टतः प्रतिमासित होती है। आगे और देखिये, कुमारसम्भव तथा नैषषचरितमें पतिके कहनेपर बधुमोको ध्रुवदर्शन करनेका क्रमशः इस प्रकार वर्णन है। 'प्रवेण भर्ना ध्रुवदर्शनाय प्रयुज्यमाना प्रियदर्शनेन / सा इष्ट इत्याननमुखमय्य हीसमकण्ठी कथमप्युवाच // ' (785 ) 'ध्रुवावलोकाय तदुन्मुखभ्रवा निर्दिश्य पत्याऽभिदधे विदर्भजा। किमस्य न स्यादणिमानिसापिकस्तथापि तथ्यो महिमागमोदितः // ' (15 / 38) आगे चलकर विवाहके अनन्तर पुत्री तथा दामादको बिदा कर उन्हें कुछ दूर पहुँचा. कर वापस लौटते हुए राजा भीमने दमयन्तीके लिये सामयिक उपदेश दिया है, वह नारीजनों के लिए अक्षरशः पालनाय है। वे सजलनयन होते हुए दमबन्सीसे कहते हैं कि'हे पुत्रि! अपना अर्थात तुम्हारा पुण्य हो तुम्हारा पिता है, सहनशीलता हो आपत्ति. विनाश करनेवाली है, मनस्तुष्टि हो सारी सम्पत्ति है और ये नल हो तुम्हारे सब कुछ हैं, इसके अतिरिक्त मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ' 'पिताऽऽरमनः पुण्यमनापदः क्षमा धनं मनस्तुष्टिरथाखिलं नलः / अतः परं पुत्रि! न कोऽपि तेऽहमित्युदश्रुरेष व्यसृजनिजौरसीम्॥ (16 / 117) विवाहोत्तर पति ही नारीका सर्वस्व है, ऐसा कहकर महाकविने थोड़े शब्दों में ही मारतीय संस्कृतिका महत्तम आदर्श प्रदर्शित किया है। बारातके वापस लौटनेपर कन्यापक्षवालोंने 'बारातियोंका कैसा भादर-सत्कार किया और कौन सा कार्य किस प्रकार हुआ' यह जानने के लिए वरपक्षके गृहस्थित स्वचन बहुत उत्कण्ठित रहते हैं, साथ ही बारातियोंको भी अपने घरका समाचार जाननेको उत्कण्ठा रहती है और जब दोनोंका प्रथम मिलन होता है तब वे परस्पर में एक दूसरेके द्वारा संक्षेपतः समाचार कहते-सुनते आगे बढ़ते हैं। यहाँ भी नलके विवाह करके वापस लौटने पर राजधानीमें नियुक्त मन्त्री आदि नवदम्पतिको अगवानी करने बाते है तो परस्परमें एक दूसरेका समाचार संक्षेपमें सुनते हुए राजधानीमें प्रवेश करते हैं 'कियदपि कथयन् स्ववृत्तजातं श्रवणकुतूहलचखलेषु तेषु / कियदपि निजदेशवृत्तमेभ्यः श्रवणपथे स नयन् पुरी विवेश // ' ( 16 / 124) नलके राजपानीमें लौट जाने के बाद स्वर्गको वापस जाते हुए इन्द्रादि देवताभोंसे कहि आदि का साक्षात्कार होता है, उसमें कलिके सहचरोंका कविने ऐसा वर्णन किया है कि उनका स्वरूप हो पाठकों के समक्ष दृष्टिगोचर-सा होने लगता है। उनमें लोमका कितना मार्मिक वर्णन है . 'दैन्यस्तन्यमया नित्यमस्याहारामयाविनः / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भुमानजनसाकूतपश्या यस्यानुजीविनः // ' ( 16 / 25) आगे चलकर महाकदिने कलि के मुखसे तात्कालिक धर्माचरणका वर्णन कराकर जो नमस्वरूप उपस्थित किया है, वह भी कम महत्त्वास्पद नहीं है। उसका इन्द्रादिदेवोंने युक्तिपूर्वक बहुत ही उत्तम ढंगसे खण्डन करते हुए धर्मका मण्डन किया है। किन्तु इतना तो कहना ही पड़ेगा कि जितने सबल शन्दों में धर्मका खण्डन किया गया है, उतने सबल शब्दोंमें मण्डन नहीं है। अष्टादश सर्गमें नवदम्पतिकी रतिका वर्णन श्रीहर्षकी कामशाखकी पारदर्शिता प्रकट करता है। उन्नीसवें सर्ग में प्राबोधिक वैतालिकमुखसे किया गया प्रमात वर्णन बहुत ही हृदयहारी है / महाकविने नारीहृदयकी मृदुता तथा पुरुषहृदयकी कठोरताका कितनो सुन्दर करपना द्वारा चित्रण किया है। वह कहते हैं कि पतिरूप चन्द्र के सर्वथा अस्त होनेके पहले नहीं, किन्तु उसके क्षीणकाय ( निष्प्रभ ) होनेके पहले ही चन्द्रप्रिया ताराएं तथा रात्रि नष्ट हो गयीं, यह उन परमसती लोगों के लिये सर्वथा उचित हो है; किन्तु अपनी ऐसी प्रियाओं के नष्ट हो जानेपर भी चन्द्रमा जो मलिनकान्ति होकर स्थित है, शीघ्र मरा नहीं; अतएव हात होता है कि इसका हृदय पत्थर का है 'उडुपरिषदः किं नावं ? निशः किमु नौचिती? पतिरिह न यत्ताभ्यां दृष्टो गणेयरुची गणः / स्फुटमुडपतेराश्मं वक्षः स्फुरन्मलिनाश्मनपछवि यदनयोविच्छेदेऽपि मृतं बत न द्रुतम् // ' (19 / 19 ) श्रीहर्षका महावैयाकरणत्व· श्रीहष महावैयाकरण थे यह उनके तत्तस्थलों में दिये गये पर्यो एवं पदों के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। एतदर्थ यद्यपि बहुतसे उदाहरण इस ग्रन्थ से उपस्थित किये जा सकते है तथापि दिग्दर्शनार्थ निम्नलिखित केवल दो पद्य हो उद्धृत किये जाते हैं 'क्रियेन चेत्साधुविभक्तिचिन्ता व्यक्तिस्तदा सा प्रथमाभिधेया। या स्वौजसा साधयितुं विलासैस्तावक्षमा नामपदं बहु स्यात् / / ( 3223) उक्त पय हंसमुखसे नलका वर्णन कराते हुए कविने 'पदं न प्रयुञ्जीत' 'एकवचन. मुत्सर्गतः करिष्यते' इन वैयाकरणसम्मत सिद्धान्तोंकी ओर सङ्केत किया है 'स्वं नैषधादेशमहो विधाय कार्यस्य हेतोरिति नानलः सन् / कि स्थानिवदावमधत्त दुष्टं ताहक्कृतम्याकरणः पुनः सः॥' ( 10 / 136 ) यहाँपर महावैयाकरण श्रीहर्षने इन्द्रादिके नलका रूप धारणकर स्वयंवरमें आने के प्रसङ्गका वर्णन करते हुए 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' (पा० स० 111156 ) का सरत किया है। बीसवें सर्गके वणनसे श्रीहर्षका परमवैष्णव होना भी सिद्ध होता है। उन्होंने नलकृत Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पूजाप्रकरणको लेकर जो वर्णन किया है, उसमें विष्णुके वर्णनको ही प्रधानता दी है / उसी प्रसङ्गमें नामकीर्तनका माहात्म्य कहते हुए वर्णन करते हैं कि-हे विष्णो ! नरकनाशक मापके नामका जो लोग लोलापूर्वक भी उच्चारण करते हैं, उन्हींसे नरकको डरना उचित है, वे लोग मला नरकसे क्यों डरें 'लीलयाऽपि तव नाम जना ये गृडते नरकनाशकरस्य / - तेभ्य एव नरकैरुचिता भीस्ते तु विभ्यतु कथं नरकेभ्यः // ' ( 21 / 17 ) आगे चलकर स्मरणमाहात्म्यका वर्णन कर ( 2199) पुनः रामनाम कीर्तन के महत्त्व का विशेषरूपसे वर्णन करते हैं। वे कहते हैं-'हम जैसे साधारण शानी कोगों के लिये सब नामों में विशेषभाव ( समानता) रहनेपर भी हमें आपका 'राम'नाम ही गुणोंका स्थान प्रतीत होता है, यदि ऐसा नहीं था तो तीन जन्मों (बलराम, परशुराम तथा दशरथतनय राम) में अपने 'राम'नामको क्यों स्वीकार किया ?'___ प्रस्मदायविषयेऽपि विशेषे रामनाम तव धाम गुणानाम् / अन्वबन्धि भवतैव तु कस्मादन्यथा ननु जनुत्रितयेऽपि // ' (2190) अन्तमें भक्तिमरित हृश्य नल कहते हैं कि-हे भगवान् ! संसार ही आपका स्वरूप है और आपने ही संसारको रचा है, अत एव आपके आश्चर्यजनक ऐश्वर्यको छोटे-से हृदयमें कितना ग्रहण करूँ; क्योंकि दरिद्र व्यक्ति सुमेरु पर्वतको पाकर भी फटे चिथड़ेमें कितना सोना बाँधता है 'विश्वरूप ! कृतविश्व ! कियत्ते वैभवादभुतमणी हृदि कुर्वे। हेम नाति कियनिजचीरे काशनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः // ' (21 // 10 // 3) श्रीहर्ष जिसका वर्णन करने लगते हैं, उसके वर्णनसे मानो थकते ही नहीं। इस इक्कीसवें सर्गमें दमयन्तोके पाससे नलके उठनेसे लेकर द्वारपर चिरकालसे प्रतीक्षा करते हुए राजाओंको दर्शन देते, उनसे उपहार ग्रहण करते हुए स्नानगृहमें जाकर सविवि स्नान करने के पश्चात् देव-पूजागृह में उपस्थित होने, वहाँपर स्थापित देवपूजा सामग्रियोंका तथा विधिपूर्वक पञ्चदेव पूजनोपरान्त पुरुषसूक्त पाठ, मन्त्र जप, विष्णुस्तुति आदिका सवि. स्तर वर्णन किया है। आगे चलकर सन्ध्याकालके भाप्तन्न होनेपर चक्रवाकवधूके आसन्न भावी विरहसे दयार्द्र प्रियतमा दमयन्तीके कहनेपर सायं सन्ध्योपासनसे निवृत्त हो क्रमशः सायङ्काल, अन्धकार एवं चन्द्रमाका वर्णन स्वयं करते हैं तथा दमयन्तीसे भी चन्द्र वर्णन करानेके अनन्तर पुनः स्वयं चन्द्रवर्णन करने लगते हैं। इससे स्पष्ट विदित होता है कि महाकवि श्रीहर्षका कल्पनाकोष बहुत विशाल एवं क्षयरहित है। जैसा मैंने ऊपर कहा है कि ये एक ही पदार्थका वर्णन बार-बार करके भी थकने नहीं, किन्तु कहीं भी ऐसे वारवार वर्णनों के प्रसङ्गमें किसी भी कल्पनाको ये दुहराते नहीं, प्रत्युत उत्तरोतर अभिनव कल्पना मात्राभोंसे उसे अधिकाधिक सजाते ही जाते हैं। उदाहरणार्थ भनेक स्थलों में दमयन्तीके Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 भूमिका वर्णनका प्रसङ्ग आया है, किन्तु पाठकको समस्त वर्णन सर्वथा नूतन एवं महत्वपूर्ण ही प्रतीत होता है। महाकवि द्वारा स्थान-स्थानपर 'बहुल, अमा, पञ्चास्य, द्विजराज' आदि शब्दों का नया नया अर्थ करना उनकी परिष्कृत बुद्धिका विशद दिग्दर्शन है।' रसादिनिरूपणइस नैषधचरितमें प्रधानतया शृङ्गाररसका तथा गौणतया अन्यरसों का वर्णन है। शृङ्गाररसमें भी विप्रसम्म शृङ्गार तथा सम्मोग शृङ्गार-दोनों ही का पर्याप्त मात्रामें वर्णन किया गया है। पात्रात्यादि रीतियों में से इस ग्रन्थमें वैदीरीतिका प्राधान्य है। इस बात का महाकवि हर्षने स्वयं स्पष्ट सङ्केत किया है 'धन्यासि वैदर्भि ! गुणैरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति // (3 / 11 / 16) 'गुणानामास्थानी नृपतिलक ! नारीति विदितां रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः। जवित्री वैदर्भीमधिकमधिकष्टं रचयितुं परीरम्मक्रीडाचरणशरणामन्वहमहम् / / ' (14 / 88) अलङ्कारों में श्लेष यथा अनुप्रासालंकारों को सर्वत्र मारमार है, इनके अतिरिक्त अर्थान्तरन्यास, उपमा, दृष्टान्त, निदर्शना भादि अलङ्कार भी विविध स्थलों में मिलते हैं / अतिशयोक्ति वर्णनमें तो श्रीहर्षने कमाल कर दिया है। कामपीडिता विरहिणी दमयन्तीके विरहावस्थाका वर्णन करते श्रीहर्ष कहते हैं कि-कामाग्निसे दीपित दमयन्तीने बहुत-से ताजे कमलों को हृदयपर रखने के लिये पुनः पुनः ग्रहण किया, किन्तु हृदय तक पहुंचने के पूर्व हो उष्णतम श्वाससे मर्मर ( अधसुखे) हुए उनको आधे मार्गसे ही वापस फेंक दिया 'स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम्। श्रयितुमर्द्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् // ' ( 4 / 29) नल इन्द्रादिके दूत बनकर भीमकन्याके अन्तःपुरमें अलक्षित हो पहुँच गये हैं। वहाँ पर नलकी छायाको मणिकुट्टिमादिमें देखकर दो सखियां दोनों ओर से बाह फैलाई गई उन्हें पकड़ने के लिए आती हैं, किन्तु वे उन्हें पकड़ नहीं पा रही हैं क्योंकि उन दोनोंके स्तन 1. 'विरहिभिर्बहु मानमवापि यः स बहुलः खलु पक्ष इहाजनि / तदमितिः सकलैरपि यत्र तय॑रचि सा च तिथिः किममा कृता / ' 'मोहाप देवाप्सरसां विमुक्तास्तराः शराः पुष्पशरेण शके। पञ्चास्यवस्पशशरस्य नाम्नि प्रपञ्चवाची खलु पञ्चशब्दः॥' 'सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय वधाय विनिर्मितः। विरहिणीगणचर्वणसाधनं विधुरतो द्विजराज इति श्रुतिः॥' (क्रमशः 4 / 67, 22 / 19, 4172) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इतने उन्नत-उन्नत है कि दोनोंके स्तन परस्परमें सट माते हैं और भक्षित नल उनके पीच में जाते हैं। इस प्रकार उनके शरीरस्पर्शका अनुमवकर वे भात्मनिन्दा करते हैं और वे दोनों पुरुषशरीरके स्पर्श होनेसे रोमानित हो जाती है'मीलन शेकेऽभिमुखागताभ्यां धत्त मिपीब्य स्तनसा-तराभ्याम्। स्वानान्यपेतो विषगो स पवारपुमङ्गसङ्गोत्पुरके पुनस्ते॥' (6 / 21) उपजाति, वंशस्थ, वसन्ततिलका, वैतालीय, रयोदता, हरिणी, शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, स्रग्धरा भादि 19 छन्दों में इस ग्रन्थको रचना की गयी है। मोहर्षने इस महाकाव्यमें नलके परितका पूर्णतः वर्णन नहीं किया है, अत एव कतिपय विद्वानोंका मत है कि महाकान्यको प्रायः शतपरिमित सर्गों में ग्रन्धकारने पूरा किया होगा, किन्तु अद्यावधि इस महाकान्यमें वर्णित कथामागके भागे मोरकत कोई कयामाग नलका उपलब्ध नहीं हो सका है, अत एव नारायण भट्टके इस कथन को सत्य मानना पड़ता है कि महामारतादिमें वर्णित नलके मग्रिम चरित नीरस एवं नायकके उदयामाव वर्णन करने से रसमङ्गकारक था, मतएव सहृदयाहादोत्पादन ही कान्यका मुख्य उद्देश्य होनेसे महाकवि श्रीहर्षने इस महाकान्बमें उनके शेष परितका वर्णन नहीं किया है।' श्रीहर्षके निवासादिके सम्बन्ध में विविध मतकतिपय विद्वान् श्रीहर्षको कन्नौनके अधीश्वर अवन्तचन्द्र के राजसमापण्डित होनेसे कनौजका निवासी मानते हैं। कन्नौन (कान्यकुम्ज ) के राजाका भाश्रित होना श्रादर्षने स्वयं स्पष्ट कहा है 'ताम्बूलाबमासनं च लभते यः कान्यकुब्जेबारायः सामापुरते समाधिनु परंपर प्रमोदार्णवम् / यरकाम्यं मधुवर्षि पषितपरास्तकेषु यस्वोक्तयः / श्रीश्रीहर्षको कृतिः कृतमुदे तस्याम्युदोषादियम् // (प्रशस्ति 4) तथा कुछ विद्वान् गौडोवींशकुलप्रशस्ति तया नवसासाकरितके इनकी रचना होने एवं नैषधचरित के वर्णनके आषारसे इन्हें वङ्गदेशज मानते हैं। तथा कुछ विद्वान् श्रीहर्षकी 'करमीरैर्महिते चतुर्दषतयों विर्घा विदधनिमहाकाव्ये......(१६।१३०) उक्ति के आधारपर इन्हें कश्मीरी मानते हैं ; किन्तु राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोशके पूर्वोद्धृत वचनके आधार पर इनका काश्मीरी होना सिद्ध नहीं होता। जैसा कि पहले नहा गया है कान्यकुम्बाधीश्वर जयन्त चन्द्र के समापण्डित श्रीहर्षने 1. 'आनन्दपदेन तुष्टयेऽस्तु इत्याशिषाच अन्यसमाप्ति द्योतयति। महाभारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसस्वानायकानुदपवर्णनेन रसमासदावार काव्यस्य च सहदयाहादनफलत्वाचात्रोत्तरचरित्रं श्रीहर्षेण न वर्णितमित्यादि ज्ञातम्यम् / (221148 प्रकाशन्याख्या) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका राजाको आशासे नैषधचरितकी रचना की और उनके आदेशसे ही कश्मीर जाकर इस महाकाव्यको वहां सरस्वती देवीके हाथमें रखकर उसके अभिनन्दन करने पर वहाँके तात्कालिन राजा माधव देव से ग्रन्थका सरस्वत्यमिनन्दित होनेका राजमुद्राङ्कित लेख प्राप्त कर काशी लोटे और उक्त राजमुद्राङ्कित लेख राजा जयन्तचन्द्रको दिया तबसे यह महाकाव्य लोकप्रसिद्ध हुआ'। अब यहां पर यह सन्देह होता है कि श्रीहर्ष 22 सान्त इस महाकाव्यको लिखने के उपरान्त यदि कश्मीर गये तो 'कश्मीरमहिते..... ( 16 / 130) यह वचन मध्य में किस प्रकार आया ? अतएव शात होता है कि कश्मीरसे ग्रन्थकी प्रामा. णिकता सिद्ध होने के उपरान्त श्रीहर्षने सर्गके अन्त में 'श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटा....... सर्गो निसर्गाज्वलः॥ 1-1 श्लोक ग्रन्थमें जोड़ दिया है। वास्तविकता क्या है ? सम्भव है भावी इतिहासकार इसका अनुसन्धानकर जनताके समक्ष उपस्थित करेंगे। नैषधचरितकी टीकाएँम० म० पं० शिवदत्तशमा महोदयने नैषधचरितकी प्रस्तावनामें इसके निम्नलिखित 23 टीकाकारों के नाम लिखे हैं-१ आनन्दराजानक, 2 ईशानदेव, 3 उदयनाचार्य, 4 गोपीनाथ, 5 चाण्डू पण्डित, 6 चारित्रवर्धन, 7 जिनराज, 8 नरहरि (या-नरसिंह ), 9 नारायणमट्ट, 10 भगीरथ, 11 मरतमलिक ( या-मरतसेन ), 12 मवदत्त, 13 मथुग. नाथ, 14 म. म. मल्लिनाथ, 15 महादेव विद्यावागीश, 16 रामचन्द्रशेष, 17 वंशीवदन शर्मा 18 विद्याधर, 19 विद्यारण्य योगी, 20 विश्वेश्वराचार्य, 21 श्रीदत्त, 22 श्रीनाथ और 23 सदानन्द / उक्त शर्माजी ने इन टीकाकारोंके रचित ग्रन्थों तथा टोकाओं के नाम भी लिखे हैं, उसे निज्ञासुओं को वहीं देखना चाहिये। उन टीकाओं में म० म० नारायण भट्ट रचित 'नैषधप्रकाश' तथा म म मल्लिनाथ रचित 'जीवात' नामकी टीकाओंको विद्वानोंने सर्वश्रेष्ठ माना है। 'नैषधप्रकाश' टोका हो 'नारायणी' नामान्तरसे भी प्रसिद्ध है। इन दो टीकाओं में नारायणी टोका अत्यधिक विस्तृत एवं खण्डान्वय मुखसे लिखी गयी है और 'जीवातु' टीका सम्प्रति प्रचलित दण्डान्वय प्रणालासे लिखी गयी है, इसी लिए सुरमारतीके अन्यतम सेवक एवं प्रायः सहस्र आर्ष संस्कृत ग्रन्थों के मुद्रक तथा प्रकाशक स्वनामधन्य गोलोकवासी श्रीमान् श्रेष्ठिवर्य श्री हरिदास जी गुप्त के सुपुत्र बाबू जयकृष्णदास जी गुप्त 'महोदय ने इस नैषधचरित महाकान्यकी जीवातु' टीकाको वर्तमानमें राष्ट्रभाषा हिन्दीका युग होने से हिन्दी अनुवाद के सहित प्रकाशित करनेका निर्णय किया। किन्तु प्रयत्न करने पर भी अन्तिम सर्गकी 'जीवातु' टीका नहीं उपलब्ध हो सकी, अतएव इस 22 वें सर्गमें 'नैषध प्रकाश' टीका ही दी गयी है। _ 'मणिप्रभा' हिन्दी टीकाउक्त निर्णय करनेके अनुसार, प्रकाशक महोदयने इस महाकाम्यका हिन्दी अनुवाद करनेका मार मुझे सौपा। कार्याधिक्य रहनेपर भी मैंने उनके सौजन्यपूर्ण व्यवहार एवं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अपने साथ निकट सम्बन्धसे विवश होकर इसे स्वीकार कर लिया / जब यह गुरुतर भार मेरे कन्धोंपर आया, तब मैंने सोचा एवं प्रकाशक महोदय के साथ विमर्श भी किया कि मूल श्लोकों के साथ म० म० मल्लिनाथकृत 'जीवातु' टीका तो मुद्रित हो ही रही है, अत एव यदि 'नैषधप्रकाश' ( नारायणी ) टीकाका आश्रय लेकर हिन्दी अनुवाद किया जाय तो विद्वानों तथा विशेषतः नैषधपिपठिषु छात्रोंको दोनों टीकाओं में आये हुए विषयोंका ज्ञान हो जायगा और प्रायः प्रत्येक श्लोक, पाद एवं शम्दमें नैषध अर्थबाहुल्य है वह मी सर्वसाधारणके समक्ष आकर ग्रन्थगौरव सुरक्षित रहेगा / इसी विचार के भाधार पर मैंने 'मणिप्रमा' नामक हिन्दी टीका लिम्बना भारम्भ कर दिया / 'नैषधप्रकाश' तथा 'जीवातु' टोकाओं के अनुसार मूल श्लोकों में अनेकत्र पाठभेद है, मतः मैंने 'जावातु' टीकाके अनुमार पाठ मानकर हो हिन्दी टोकामें पहले 'नीवातु' के मनुसार तथा बादमें 'नैषध प्रकाश' के अनुसार विविधार्थीको लिखा है। जहां पर पाठभेदके कारण सर्वथा अर्थमित्रताका अवसर आया है वहांपर 'जीवातु के अनुसार ही पहला अर्थ लिखा गया है और पाठान्तर में द्वितीय अर्थ / इन अनेक अर्थोको बार बार आचन्त लिखने में ग्रन्थका भाकार ड्योढा दूना हो जाता, अत एव पक्षान्तरीय अर्थको कोष्ठकमें लिख दिया गया है और यही कारण है कि कई स्थलों में हिन्दी कुछ क्लिष्ट हो गयी है और कथाक्रमको विच्छिन्न करती-सी प्रतीत होती है। इस दोषको दूर करने के लिए ही प्रायः सभी स्थलों में लोकों के मूह अर्थ करने के उपरान्त [ ] ऐसे कोष्ठकके भीतर पूरे श्लोकका विशद आशय विशुद्ध हिन्दी में स्पष्ट कर दिया गया है और अनेक स्थलों में गुरुपरम्परागत भभिप्रायोको भी लिखकर ग्रन्यकी ग्रन्थियों को सुलझानेका यथासम्भव प्रयत्न किया गया है, क्योंकि प्रन्थकारने कतिपय स्थलों में जान-बूझकर स्वमेव ग्रन्थियों को प्रयत्नपूर्वक रखनेको लिखकर अपनेको बुद्धिमान मानकर पढ़ने का प्रयत्न करते हुए तथा श्रद्धापूर्वक गुरुसेवासे हो उन ग्रन्थियों को समझकर हम महाकाव्यके रसका आनन्द लनेके लिये कहा है 'अन्धग्रन्थिरिह कचित्कचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राज्ञम्मन्यमना हटेन पठिनी माऽस्मिन् खलः खेलतु / श्रद्वारागुरुरलयीकृतहढग्रन्थिः समासादय. स्वेतकाव्यरसोमिमजनसुखं प्यासज्जनं सजनः // ' (प्रशस्ति 3) श्रीहर्षके पौराणिक ज्ञान के विषय में हम पहले हो लिख चुके हैं। अनेक स्थलों में उन्होंने पौराणिक विषयोंका वर्णन किया है, उनकी मी तत्तस्थलों में पौराणिक कथाएं लिख दी गयी है। मल्लिनाथने बहुतसे श्लोकों की व्याख्या स्क्षेप मानकर नहीं की है, उन श्लोकोंका मी 'नैषधप्रकाश' व्याख्या सहित हिन्दी अनुवाद तत्तत्स्थलों में कोष्ठकमें लिखा गया। प्रत्येक सर्गकी कथाका सारांश संक्षिप्त रूपमे विषयमूची में लिखा गया है। श्रीहर्ष बहत से सूक्तिपद कण्ठस्थ करने योग्य है, लोकोक्तियां भी पर्याप्त मात्रामें विद्यमान है सर्वसुविधा के लिए इन्हें भी संग्रहीत कर दिया गया है। मूल तथा प्रक्षिप्त श्लोकों की कारादिक्रमसे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सूची भी ग्रन्थान्तमेंदी गयी है। इस प्रकार इस ग्रन्थको सर्वाङ्गमुन्दर एवं सरक बनाने का यथाशक्य प्रयन किया गया है। आशा एवं पूर्ण विश्वास है कि इससे सर्वसाधारण पाठकवृन्द को अवश्य काम एवं सरलता होगी। आभार प्रदर्शनसर्वप्रथम भगवान् विश्वनाथ एवं अन्य गुरुवर्षों के साथ इस ग्रन्पके हमारे अन्यतम गुरु स्व. म. म. श्री 6 देवीप्रसादनी शुझ कपिचक्रवती तथा स्व. म. म. श्री 6 माधव भाण्डारी महोदयके चरणकमलमें बडाजलि प्रणाम करता हुआ उनका भाभार मानता हूँ, जिनकी चरणानुकम्पासे मैं इस सर्वर महाकान्यकी 'मणिप्रभा' नामकी हिन्दी टीका लिखनेमें समर्थ हुआ, तथा म० म० पं. शिवदत्तसा, पं० बलदेवजी उपाध्याय एम० ए० और श्रेष्ठिवर्य कन्हैयालालनी पोदार महोदयोंका भी बहुत आमार मानता हूँ जिनके प्रस्तावना तथा इतिहास ग्रन्योंकी सहायता से मैंने इसको यह भूमिका लिखी है। राजकीय संस्कृत कालेन काशीके प्रधानाचार्य माननीय श्री पं० त्रिभुवनप्रसादजी उपाध्याय एम० ए० तथा प्रधानाध्यापक आचार्य श्री पं० बदरीनाथजी शल, एम०९० महोदयोंका तो मैं अतिशय भामारी हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थका क्रमशः प्राकथन तथा सम्मति लिखनेकी कृपा की है। ___ अन्तमें हम इस ग्रन्धके प्रकाशक चौखम्बा संस्कृत सीरीन के प्रधानाध्यक्ष गोलोकवासी माननीय श्रीयुत हरिदास जी गुप्त के पुत्र बाबू जयकृष्णदासजी गुप्तको विशेष धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने भावातीत विलम्ब होने तथा अन्यके माकारके अत्यधिक बढ़ बानेपर भी अपने लाभकी ओर विशेष ध्यान न देकर इस ग्रन्धको सर्वसाधारणको मुलभ मूवमें देनेके विचारसे प्रकाशित कर संस्कृत वाजायकी सेवाका महान् भादर्श उपस्थित किया है। अन्यान्य भी मेरे जिन मित्रोंने मेरे बाहर रहनेसे प्रफसंशोधनादि कार्यद्वारा इसे पूर्ण करनेमें योग दिया है उनको भी मैं साभार भनेकशः धन्यवाद देता हूँ। अन्तिम निवेदनइस महाकाम्यके अनुवाद कार्यको गुरुतर भार मानते हुए सहदय विद्वानों एवं प्रिय छात्रोंसे भी मेरा विनत्र निवेदन है कि इस ग्रन्थको भी मेरे भनूदित अमरकोष, रघुवंश महाकाव्य तथा मनुस्मृति भादि अन्योंके समान हो अपनाकर मुझे पुनः अन्य ग्रन्थोंको लिखनेके लिए उत्सादित करनेकी कृपा करें। साथ ही मानव-मुलम दोषवश बदि कहीं त्रुटि इटिगोचर हो, उसे मुझे सूचित करनेकी कृपा करें, जिससे अग्रिम संस्करणमें उसको दूर कर दिया नावे / इति शम् / चाराणसी ) निशुपवियः महाशिवरात्रि सं० 2010) हरगोविन्द शास्त्री Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसो वै ब्रह्म नैषधमहाकाव्यम् जीवातु-मणिप्रभा-संस्कृत-हिन्दीव्याख्याद्वयोपेतम् प्रथमः सर्गः निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः 'कथां तथाद्रियन्ते न बुधास्सुधामपि | नलस्सितच्छत्त्रितकीतिमण्डलस्स राशिरासीन्महसां महोश्वलः // 1 // __ अथ तत्रभवान् श्रीहर्षकविः 'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरचतये / सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे // ' इत्यालङ्कारिकवचनप्रामाण्यात् काव्यस्यानेकश्रेयःसाधनस्वाच 'काम्यालापांश्च वजयेदितितनिषेधस्यासत्काग्यविष. यतां पश्यन् नैषधाख्यं महाकाव्यं चिकीर्षुश्विकीर्षितार्थाविधनपरिसमाप्तिहेतोः आशी. नमरिक्रमा वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखमित्याशीराधन्यतमस्य प्रबन्धमुखलक्षणत्वात् कथानायकस्य राज्ञो नलस्य इतिवृत्तरूप मङ्गलं वस्तु निर्दिशति-निपीयेति / यस्य लितिरक्षिणः मापालस्य नलस्य कथाम उपाख्यानम् / निपीय नितरामास्वाद्य पीक स्वादे कावो त्यवादेशः न तु पिबतेः 'न ख्यपी'ति प्रतिषेधादीवासम्भवात् / दुधास्तज्ज्ञाः सुराश्च 'ज्ञातृचान्द्रिसुरा बुधा' इति धीरस्वामी। सुधामपि तथा यथेयं कथा तद्वदित्यर्थः, नाद्रियन्ते, सुधामपेक्ष्य बहु मन्यन्ते इति यावत् / सितच्छस्त्रितं सितच्छत्त्रं कृतं सितातपत्रीकृतमित्यर्थः, तत् कृताविति ण्यन्तात् कर्मणि का। कीतिमण्डलं येन सः / महसां तेजसा राशिः रविरिवेति भावः। महैः उत्सवैः उज्वलः दीप्यमानो नित्यमहोत्सवशालीत्यर्थः / 'मह उद्धव उत्सव' इत्यमरः / स नलः आसीत् / अत्र नले महसां राशिरिति कीर्तिमण्डले च सितच्छस्त्रत्वरूपस्यारोपात रूपकं कथायाश्च सुधापेक्षया उत्कर्षात् व्यतिरेकश्चेत्यनयोः संसष्टिः / तदुक्तं दर्पणे 'रूपकं रूपितारोपाद् विषये निरपह्नवे' इति / “आधिश्यमुपमेयस्योपमानान्यूनताऽथवा / व्यतिरेक" इति मिथोऽपेक्षयतेषां स्थितिः संसृष्टिरुच्यते इति च / अस्मिन् सर्गे वंशस्थं वृत्तं, 'जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जराविति तल्लक्षणात् // 1 // 1. 'कपाः' इति पाठान्तरम / Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवधमहाकाव्यम् / शिवाशिवतनूजोऽपि त्रिलोकीशिवकारकः / वक्रतुण्डोऽपि सुमुखो यस्तं वन्दे गणाधिपम् // 1 // जगतां व्यवहारस्य याऽस्ति हेतुः सनातनी। सारदां शारदामाच्छवां वन्देऽस्मि शारदाम् // 2 // पदपरमवचिन्तामण्योरा' न कामये बातु। पाचे वासेवालम्पं सम्शानदं सततम् // 3 // लोकनाथं पूर्णचन्द्रं प्रीत्रिवेदिमहाशयो। . शब्दशावगुरुन् बन्दे भकिनम्रस्तदधिषु // 4 // देवीप्रसादमाध' वपदपोतावाश्रयामि सदा। कायाणवेविहमिय"चिन्तामणि समवातुम् // 5 // 'भारा' मण्डल केसठ'वास्तग्यो 'मूर्ति'गर्भभवः। 'हरगोविन्दः शाली' 'रामस्वार्था'स्मजन्माहम // 6 // 'मेप'वाल्यां स्वराष्ट्रभाषामयीमधुना। एषा मुदेऽस्तु मुधियां सान्सेवसतां सदा लोके // 7 // पृथ्वीपाक (राणा) विस ( नक) को कथाओंका सम्यक् प्रकारसे पानकर विद्वान् जोग (पा-अमृतमोजी देवता डोग ) अमृतका सा (नकी कमाके समान ) मादर नहीं करते है (अपने ) कीतिसमूहको श्वेवच्छत्र बनाये हुए तथा नित्य उत्सवबाले में तेबोराशि वर्षात महादेवस्वी नल हुए। अबवा-विसको कपाका सम्यक् प्रकारसे पानकर (वायादिके द्वारा ) पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले देव अमृतका भी वैसा भादर नहीं करते,..."| अववा-विसकी कथाका.."देव सुधामय अर्थात चन्द्रमामें भी वैसा भादर नहीं करते,"..."। अथवा...बिसकी कथाका...."पृथ्वीको रक्षा करनेवाले मांत राजा लांग तथा बुध अर्थात देवलोग अमृतका भी वैसा-मादर नहीं करते / अथवा-विसकी कथाका... (फणामण्डलपर पृथ्वीको धारण करनेसे ) पृथ्वी-रक्षक होनेसे अमृत तथा नरू कथाके ( एवं अमृतमोजी तारतम्यके ) शाता शेष तक्षकादि नाग गोग. अमृतका मी वैसा भादर नहीं करते...." / अथवा- क्षितिः+ अक्षिणः' पदच्छेद 1. 'चिन्तामणि' संज्ञकप्रस्तर-नैषधोक्त ( 1485) 'चिन्तामणि'मन्त्रयोः। 2. नैषध एव भीर्षकविनोक्तं ( 14 / 8. ) 'चिन्तामणि' संशकं मन्त्रम् / 1. मीपूज्यपाद पं० देवनारायणत्रिवेदि-(महाशय जोनाम्नाख्यात ) ओं पं० रामय. शसिपाठिनौ। 4. कविवकपतिमहामहोपाध्याय-श्री पं० देवीप्रसादशुक्कः, महामहोपाध्यायो दाक्षिगावो बिहान् मी पं० माषपशाखी माण्डारी च (मत्काव्यपाठयितारौ ) / 5. नेपचरितकाम्यावाद चतुर्दशसर्गीयपनाशीतिरकोकोक्तं चिन्तामणिमन्त्रम् / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। करके) विसकी कथाका सम्यक् प्रकार से पानकर (स्थित म्यक्ति-विशेष के) कड़ि (कविन्द दोष ) का नाश होता है तथा जिसकी कवाका सम्यक् प्रकारसे पानकर बुध (विद्वान् , या देव ) अमृतका भी वैसा बादर नहीं करते..."। अथवा अक्षी अर्थात् अतक्रीडारत बिस नरूको पृथ्वी ( राज्य) है और जिसकी कथाका'""(इससे पतम्बसनी नको राज्य होनेसे इनकी बाबयंबनिका मोकिकी शकि व्यक होती है) उत्तराईका ग्यास्यान्तर-अथवा-जिस नलने अत्यधिक उज्ज्वल गुणविशिष्ट शृङ्गार रस, अथवा-जिस ( नल ) में दमयन्तीका उतरूप शृङ्गार रस अत्यधिक है, ऐसे तेजोराशि ( अथवा-सूर्यके समान स्थित ) चतुर्दिव्यापी कीर्तिमण्डएको श्वेतच्छत्र बनाये हुए वे नक थे [ राजा नलका धूतव्यसनी होना भागेके कथा-मागमें यद्यपि नहीं वर्णित है, तथापि महामारतादिमें इतव्यसनके कारण ही उनके राज्यच्युत होनेका वर्णन मिलता है। नलकी कथाको अमृताधिक मधुर होनेसे तथा अधिक शृङ्गार-रसपूर्ण होनेसे इन्द्रादि देवोंका दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' उक्तिके अनुसार नलकथाकीर्तनको कमिका नाशक होना सुपसिद्ध है। यहाँ पर शिष्टाचारानुसार किसी विशिष्ट देवतादिका नमस्कारादि रूप मजा नहीं किया गया है, किन्तु पूर्वोक्त 'कर्कोटकस्य......" तथा 'पुण्यश्लोको नको राजा पुण्यश्कोको युधिष्ठिरः। पुण्यकोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // ' वचनों के अनुसार नल-कपाके कीर्तनको ही विशिष्ट वस्तुनिर्देशात्मक माछा. चरणरूपमें श्रीहर्षमहाकविने माना है। कुछ विद्वान इसे भमोष्ट देव रघुनाथबोका सबीन नमस्कारात्मकरूप मङ्गल मानते है। इस नैषधचरित महाकाव्यमें धीरललित राजा नरू नायक है तथा सम्मोग और विप्रलम्मरूप दिविध शृङ्गाररस भङ्गो है और अन्य करुणादि रस उसके अङ्ग हैं ] // 1 // रसैः कथा यस्य 'सुधावधीरिणी नलस्य भूजानिरभूदु गुणाद्भुतः। सुवर्णदण्ड कसितातपत्रितज्वलत्प्रतापालिकीर्तिमण्डलः // 2 // इममेवार्थमन्यथा थाह-रसैरिति / यस्य नठस्य कथा रसैः स्वादैः, 'रसो गन्धो रसः स्वाद' इति विश्वः / सुधा अवधीरयति तिरस्करोति तथाका अमृतादतिरिच्या मानस्वादेति यावत , ताच्छील्ये णिनिः / भूर्जाया यस्य स भूजानिा भूपतिरित्यर्थः / 'जायाया निङिति बहुव्रीहौ जायाशब्दस्य निङादेशः। स नलः गुणः शौर्यवाहि. ण्यादिभिः / अद्भुतः लोकातिशयमहिमत्यर्थः / अभूत् / कथम्भूतः सुवर्णदण्श्व एक सितातपत्त्रञ्च ते कृते द्वन्दात् तस्कृताविति ण्यन्तात् कर्मणि कः / ज्वलस्प्रतापावलिः कीर्तिमण्डलञ्च यस्य तथाभूतः। इह कीतः सितातपस्त्रस्वरूपणं पूर्वोकमपिसुवर्णदण्ड. 1. 'सधावधीरणी' इति पाठान्तरम् / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / वैशिष्टयात राज्ञश्च गुणाद्भुतत्वेन वैचित्र्यात् न पुनरुक्तिदोषः। अनापि पूर्ववद् व्यतिरेकरूपकयो। संसृष्टिः // 2 // जिस ( नक) की कथा ( शृङ्गारादि नव ) रसोंसे ( केवल मधुर रसवाले, यामधुरादि छः रसोवले) अमृतको तिरस्कृत करनेवाली है अर्थात् अमृतसे भी श्रेष्ठ है, मुवर्णका दण्ड तथा एक श्वेतच्छन्त्र बने हुए है जलते हुए प्रताप-समूह तथा कीर्ति-समूह बिसके ऐसे ( अतएव, शौर्यादि या -- सन्धि-विग्रहादि छः ) गुणोंसे माश्चर्यकारक वे राजा नक थे। (अथवा-जिसकी कथा-रसोंसे सुधाकी अवधि अमृतकी सीमा अर्थात् श्रेष्ठतम अमृत) को हीन करनेवाली थी। अथवा-जिसकी कथा-रसोंसे सुधावधि अर्थात अमृतकी सीमा थी। अथवा- जिसकी कथा रसोंसे पुण्यसञ्चारिणी बुद्धिवाली, नित्य रणतत्पर तथा भूस्वामिनी थी, (इन तीनों विशेषणों से कथा मन्त्रशक्ति, उत्साहशक्ति तथा प्रभुशक्तिका होना सूचित होता है। अथवा-जिसकी कथा '' अर्थात् काम की भूमि अर्थात् बमिलापोस्पादिनी तथा एक श्वेतच्छत्व बने हैं जलते हुए (तीव्रतम ) अर्थात शत्रुओंको असम प्रताप-समूह तथा कीति-समूह जिससे (या-जिसके), ऐसे गुणाद्भुत वे (प्रसिद्धतम ) रामा नक थे) [ शृङ्गारादि नव रसोंवाली नल-कथा का एकमात्र मधुर रसवाली (या-मधुरादि षड्सोवाली) सुधाको पराजितकर तिरस्कृत करना उचित ही है / प्रतापका तप्तमुवर्ण के समान तथा कीर्ति-समूहका श्वेत वर्णन होने से यहॉपर उन्हे क्रमशः सुवर्णदण्ड तथा श्वेत छत्र बनाया गया है / राजाका सुवर्ण दण्डयुक्त एक श्वेतच्छत्र होनेसे अन्य राजामोंका नलके लिए करदाता होना सूचित होता है। जलते हुए नल. प्रताप-समूहका एक सुवर्णदण्ड बननेपर उस प्रतापसमूहका सङ्कचित होना ध्वनित होता है, अत एव 'सुवर्णदण्ड' शब्दका ब्राह्मणादि वर्गोंका सुन्दर शासन अर्थ करके परिहार करना उत्तम पक्ष है ] // 2 // पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता रसालनयेव तत्कथा'। कथं न सा मदिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति // 3 // सम्प्रति कविः स्वविनयमाविष्करोति पवित्रमिति / अत्र युगे कलौ इति यावत् / पस्य नलस्य कथा स्मृता स्मृतिपथं नीतेत्यर्थः / सती जगल्लोकं रसवालनयेव जलसा. लनयेवेत्युत्प्रेक्षा, 'देहधात्वम्बुपारदा' इति रसपाये विश्वः। पवित्रं विशुद्धम् आतनुते करोति, सा कथा आविलां कलुषामपि सदोषामपीति यावत , स्वसेविनीमेव केवलं स्वकीर्तनपरामेवेति भावः / मदिरंमम वाचं कथं न पवित्रयिष्यति ? अपितु पवित्रा करिष्यत्येवेत्यर्थः। तथा चोक्तं कर्कोटकस्य नागस्य दमयंत्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य रामकीर्तनं कलिनाशनम् // ' इति / या स्मृतिमात्रेण शोधनी सा कीर्तनात् किमु. 1. 'पत्कथा' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः। - . . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः तेति कैमुत्यन्यायेनार्थान्तरापत्या अर्थापत्तिरलङ्कारः। तदुकम्-'एकस्य वस्तुनो भावाद् यन्त्र वस्स्वन्यथा भवेत् / कैमुत्यन्यायतः सा स्यादर्यापत्तिरलकिया।' इति // 3 // जिस ( नल ) की कथा इस ( कलि ) युगमें संसारको पवित्र (निर्दोष ) करती है, वह नलकथा मलिन भी स्वसेबिना अर्थात् दोषयुक्त मेरी वाणीकी शृङ्गारादि रसोंसे धोये हुए के समान क्यों नहीं पवित्र ( दोषहीन, पक्षा-स्वच्छ ) करेगी ? अर्थात् अवश्य करेगी। [ जिस प्रकार जलसे धोयी हुई कोई वस्तु स्वच्छ एवं निर्दोष हो जाती है, उसी प्रकार नलकथा 'कर्कोटकस्य नागस्य ... ...' इत्यादि वचनों के अनुसार मलिन भी स्वसेविनी मेरी वाणीको अवश्यमेव निदोष करेगी, इसी कारण मैं श्रीहर्षकवि अन्य कथाभोंको छोड़कर नल-कथाका ही वर्णन करता हूँ ] // 3 // अधीतिबोधाचरणप्रचारणेदशश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः / चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतस्स्वयं न वेद्मि विद्यासु चतुर्दशस्वयम् / / 4 / / ___अस्य सर्वविद्यापारदशित्वमाह-अधीतीति / अयं नलः चतुर्दशसु विद्यासु 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणञ्च विद्या घेताश्चतुर्दशे'त्युक्तासु अधीतिरध्ययनं गुरुमुखात श्रवणमित्यर्थः। बोधः, अर्थावगतिः, भाचरणं तदर्थानुष्ठानं, प्रचारणम् अध्यापनं शिष्येभ्यः प्रतिपादनमित्यर्थः, तैश्चतुर्भिः उपाधिभिः विशेषणः आचरणविशेषैरित्यर्थः / 'उपाधिर्धर्मचिन्तायां कैतवे च विशेषणे'इति विश्वः / चतस्रो दशाः अवस्थाः प्रणयन् कुर्वन्नित्यर्थः, स्वयं तस्रो दशा यासा तासां भावः चतुर्दशस्वं स्वतलोगुणवचनस्येति पुंवद्भावो वक्तव्य, इति स्त्रियाः पुंवद्भावः। 'संज्ञाजातिव्यतिरि. ताश्च गुणवचना' इति सम्प्रदायः। चतुर्दशसंख्याकत्वं कुतः कस्मात् कृतवान् न वेनि न जाने इति स्वतः सिद्धस्य स्वयङ्करणं कथं पिष्टपेषणवदिति चतुर्दशानां चतुरावृत्ती षट्पञ्चाशत्त्वात् कथं चतुर्दशस्वमिति च विरोधाभासद्वयम् / चतुरवस्थरवमिति तस्प. रिहारश्च / तदुक्तम् 'आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास उच्यते' इति // 4 // .. (द्वितीय इलोकमे नलको 'गुणाद्भुत' कहा गया है, उसीका यहां प्रतिपादन करते है-) अध्ययन, अर्थशान, तदनुसार आचरण तथा प्रचार अर्थात ब्राह्मणों को द्रव्यादि देकर शिष्योंको अध्यापन कराना-इन प्रकारोंसे चार दशाओं को करते हुए इस नरुने स्वयं चौदह विद्याओं में चतुर्दशत्व क्यों किया ? यह मैं नहीं जानता। [मो विद्याएँ स्वयं चौदह थीं, उनको चतुर्दशत्व करना पिष्टपेषण के समान निरर्थक है / अथवा चौदह विद्याओं में से प्रत्येकको अध्ययन, अर्थशान, आचरण तथा प्रचाररूप चार दशाओंसे (1444 % 6 ) छप्पन करना चाहिए था, फिर चरर्दशत्वं अर्थात् चौदह ही क्यों किया ? इस प्रकार विरोध. कद्वयका परिहार 'चौदह विद्याओं को चार दशा ( अवस्था ) ओं वाली फिया' अर्थ द्वारा करना चाहिए। नल चौदहों विद्याओं के अध्यक्ष, शाता, आचरणकर्ता तथा प्रचारक थे। क्षत्रियको अध्यापनका निषेध होनेसे विद्वान् ब्राह्मणको धनादि देकर शिष्याध्यापन कराने में दोषामाव समझना चाहिये] // 4 // Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अमुष्य विद्या रसनापनर्तकी त्रयीष नीताजगुणेन विस्तरम् / अगाहताष्टादशतां जिगीषया नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् // 5 // अथास्यापरा अपि चतम्रो विद्याः सन्तीत्याह-अमुष्येति / अमुष्य नलस्य रसनाप्रनर्तकी जिह्वान पश्चारिणीत्यर्थः / विद्या पूर्वोक्ता सूद विद्या चेति गम्यते, रसनानन· तिवधादिति भावः / त्रयीव त्रिवेदीव 'इति वेदासयत्रयीत्यमरः / अङ्गाना 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निलकं छन्दसां चितिः। ज्योतिषश्चेति विज्ञेयं षडङ्गं बुधसत्तमरि' स्युकानां षण्णां मधुराग्लकषायलवणकटुतिक्तानाच रसानां षण्णां गुणेन आवृत्या वैशिष्टयेन च, अथ च अनगुणेन शरीरसामन्येन स्वकीयग्युत्पत्तिविशेषेणेति यावत् , विस्तरं वृद्धि नीता प्रापिता सती नवानां द्वयं नवयं लक्षणया अादशेत्यर्थः, तेषां दीपाना पृथग्भूता जयश्रिया तासां जिगीषया म्यञ्जकाप्रयोगात् गम्योत्प्रेक्षा। जेतुमिच्छयेवेत्यर्थः, भष्टादशताम् अगाहत अमजत / पूर्वोक्तासु चतुर्दशसु विद्यासु विशिष्टव्युत्पत्या आयुवदादीनामनुशीलनसौकात तरपारदर्शिवेन, सूदविद्यापरे च षण्णां रसानाम् उक्षणानुषणसमतारूपत्रैविध्येन त्रयीपक्षे च एकैकवेदस्य प्रत्ये. कशः अङ्गानां शिक्षादीनां पाविश्यवैशिष्टयेन चाष्टादशस्वसिद्धिः / प्रागुशाश्चतुर्दश विचाः / 'मायुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्यन्त विद्या मष्टादश स्मृता' इति / अविधागुणनेन अय्या अष्टादशस्वमित्युपाध्याय-विश्वेश्वरभट्टारकव्या. ज्याने तु मनानि वेदासरवार इत्याथर्वणस्य पृथग्वेदस्वे त्रयीवहानिः / वय्यन्तर्भावे तु नाशवशत्वसिदिरिति चिस्यम् / उपमोस्प्रेषयोः संसृष्टिः // 5 // इस ( नल ) के जिह्वाग्रपर सदा नृत्य भात निवास करनेवाली विधाने (व्याकरणादि छः) भोंसे गुणा करनेपर विस्तारको प्राप्त (ऋक्-यजुः सामवेदरूप ) त्रयीके समान मानो अठारर दीपोंकी विजयलक्ष्मीको अलग-अलग जीतनेकी इच्छासे अठारह संख्यात्व को प्राप्त कर लिया है। (अथवा-इस नलके रसनाग्रपर नृत्य करनेवाली जो बुद्धि है, बह.....। अर्थात इनको बुद्धिने अठारह संख्यात्वको इस लिए प्राप्त किया है कि मैं भठारह दोपोंको नाकत बयोको पृथक् पृथक् जोत लू। जिस प्रकार कोइ नर्तको शिर. हाथ आदि छः मङ्गों, ग्रीवा-इ.हु आदि छः प्रत्यङ्गों तथा भ्र-नेत्रादि छः उपागोंसे विस्तारको प्राप्त कर अष्टादश संख्यावाली हो जाती हैं / अथवा-नलने अठारह दीपोंको जीतकर भठारह बपत्रियों को प्राप्त कर लिया है, अत एव मैं मी अठारह दीपोंकी अयश्रीको बीत लू, इस मावनासे इनकी उक्तरूपा विद्याने मी अठारह संख्याको प्राप्त कर लिया। अषवा-न पाकशासके महापण्डित थे, अतः इनकी पाकशास्त्र विधाने 'मधुर-अम्झबबण-कटु-कषाय और तिक' रूप छः रसोंके न्यून-मधिक और समरूप प्रकार से (341 = 18) विस्तार को प्राप्तकर अठारह संख्याको प्राप्त कर लिया है, यथामधुर द्रभ्यमें दूसरे मधुर इम्मको न्यूनमात्रा तिक्त द्रम्पमें अधिक मात्रा में मौर अम्क Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। (खट्टे) द्रव्य में सममात्रामें प्रक्षेप करनेसे एक मधुर द्रव्यके तीन मेद होते है, इसी प्रकार 1 द्रव्यों में न्यून, अधिक और मम मात्रामें द्रव्यान्तर गलनेसे 18 भेद हो जाते हैं। अपवादंडवाले जौ-गेहूँ आदि, फळी ( छीमी) वाले मटर आदि, कण्टकवाले चना प्रादि-ये तीन प्रकारके धान्य, भचर-जलचर तथा खेचर जीवों के विविध मांस, अम्लादि पूर्वोक्त 6 रस और कन्द-मूल-फळ-नाक-पत्र-पुष्परूपमें 6 प्रकारके शाक (3+3+6+6= 18) इस प्रकारसे विस्तारको प्राप्तकर पाकशाखके महापण्डित इस नरू की रसनाग्रनतको विद्याने अठारह द्वीपोंकी जयलक्ष्मीको पृथक् पृथक् जीतनेके लिए मानो अठारह संख्याको प्राप्त किया है / अथवा-दूध-दही' आदिके अङ्गगुणों से विस्तारको प्राप्त, नलकी रसनाप्र. नर्तकी पाकशासविद्याने...... / अथवा-तव्यसनी होने से बहुत बोलने वाले ना की रसनायनर्तकी द्यूतविया दुआ-तिया-चौका-पक्षा तथा चार उड्डीयक (2+3+4+5+ 4- 18 ) रूप गुणोंसे विस्तारको प्राप्त मठारह दीपोंकी जयश्री ...." / भवाप्रयीका उद्धाररूप अथर्ववेद, व्याकरण आदि 6 वेदान, गुण अर्थात् आठ मषान पुराणन्याय-मीमांसा-धर्मशास्त्र-आयुर्वेद-धनुर्वेद-पान्धर्ववेद और अर्थशास; तथा ऋक-यजुः सामवेद (1+6+843 - 18) इन अङ्गगुणों से विस्तारको प्राप्त इस नम्की जियान, नर्तकी विद्या......। पूर्वश्लोकोक्ति 14 विद्या तथा आयुर्वेद, धनुर्वेद-गान्धर्ववेद और अर्थशाख (14+4 - 18) ये अठारह विद्याएँ नलके जिह्वाग्रपर सर्वदा निवास करती थीं और उन्होंने अठारहों दीपोंको भी पीत लिया था, इस प्रकार नळ परस्परविरोधिनी भी और सरस्वती दोनों के माश्रय थे ] // 5 // दिगीशवृन्दांशविभूतिरीशिता दिशां स कामप्रसभावरोधिनीम् / बभार शास्त्राणि दृशं व्याधिको निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् / / 6 // ___ अथास्य देवांशत्वमाह-दिगीशेति / दिशामीशा दिगीशाः दिक्पाला इन्द्रादयः तेषां वृन्दं समूहः तस्य मात्राभिः अंशः विभूतिन्मयः यस्य तथाभूतः। तथा च 'इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्व वरुणस्य च / चन्द्रवित्तेशयोथैव मात्रा निहत्य शाधती. रिति / 'अष्टाभिर्लोकपालानां मात्राभिनिर्मितो नृप' इति च स्मृतिः। दिशाम ईशिता ईश्वर स नलः शाबाणि दिशामिति च बहुवचन निदंशात् इन्द्रादीनामेककदिगीशस्वम् अस्य तु सर्वदिगीशितृत्वमिति व्यतिरेको ग्यज्यते। कामम् इच्छा मदनञ्च मदनस्य प्रसभेन बलात् अवरुणनीति तथोक्ता स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवारिणी कन्दर्पदहनकारिणीम्चेत्यर्थः / कामप्रसरावरोधिनीमिति पाठे कामस्य प्रसरः विस्तारः वृद्धिरिति यावत् तमवरुणदीति तथैवार्थः। निजम् आरमीयं बत् त्रिनेत्रावत. 1. तदुक्तम्-'दुग्धं दधि नबनीतं घोलबने तक्रमस्तुयुगम् / मध्वाटविकविण्यं विदबान्नश्चेति विशेयम् // कन्दो मूलं शाखा पुष्पं पत्रं फळनेति / अष्टादशक मांसं मवाण्युक्तानि गिरिमतया // इति / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / रत्वं दिगीशेश्वरांशप्रभवस्वं तस्य बोधिकां ज्ञापिकाम अत्र 'तृजकाभ्यां कर्तरी ति कृयोगसमास्यैव निषेधात शेषषष्ठीसमासः 'तस्प्रयोजक' इत्यादि सूत्रकारप्र. पोगदर्शनादिति बोध्यम् / इयाधिका तृतीयामित्यर्थः, शं नेत्रं बभार वः। एतेन अस्य शास्त्रेणैव कायंदर्शित्वं ग्यज्यते। शास्त्राणि दृशमिति उद्देश्यविधेयकपकर्मयम् / अवतरेत्यत्रापप्रत्ययान्तेन तरशब्देन 'सुपसुपेति समासः, न तूपसृष्टात् प्रत्ययोत्पत्तिः / अत्र शास्राणि दशमिति व्यस्तरू पकम् // 6 // (इन्द्रादि ) दिक्पाल-समूहके अंशसे विभूतिवाले तथा आठ दिशाओंके स्वामी उस नकने काम ( कामदेव, पक्षा० = इच्छा ) की प्रबलताको रोकनेवाले तथा अपनेको त्रिनेत्र शिवके अवतारका बोध करानेवाले दो से अधिक शालरूप तृतीय नेत्रको धारण किया। [ राजा नल सम्पूर्ण दिशाओं के शासक थे और इन्द्रादि दिक्पाल 1-1 दिशाके ही शासक थे, अत एव इन्द्रादिमें इस नलकी विभूति थी, अथवा-वचनके अनुसार राजा नल समस्त दिक्पालोंके अंशसे ऐश्वर्यवान् थे, ऐसे वे शालरूप तृतीय नेत्रको ग्रहणकर इच्छाकी प्रबलता अर्थात् मनको शास्त्रविरुद्ध कार्य में प्रवृत्त होनेसे वैसे रोकते थे, जैसे त्रिनेत्र शङ्कार भगवान्ने तृतीयनेत्रसे कामदेवकी प्रबलताको रोका था। इस प्रकार नल शास्त्रज्ञानद्वारा कामप्राबल्यको रोककर अपनेको शङ्करका अवतार बतला रहे थे। नल शास्त्रश होनेसे शासविरुद्ध कार्य करनेसे अपनी इच्छा को सर्वदा रोके रहते थे ] // 6 // पदैश्चतुभिस्सुकृते स्थिरीकृते कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे ? / भुवं यदेकाधिकनिष्ठया स्पृशन् दघावधर्मोऽपि कृशस्तपस्विताम् / / 7 / / ___ अथास्य प्रभावं दर्शयति-पदैरिति / अमुना नलेन कृते सत्ययुगे सुकृते धर्म वृष. रूपत्वात् चतुर्भिः पदैः चरणैः-'तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। द्वापरे यज्ञ. मेवाहुनमेकं कलौ युगे।' इत्युक्तचतुर्विधैरिति भावः, स्थिरीकृते निश्चलीकृते इति . यावत् के जनाः तपःचान्द्रायणादिरूपं कठिनं व्रतं का कथा ज्ञानादीनमिति भावः, . त प्रपेदिरे ? अपि तु सर्व एव तपश्चेरुरित्यर्थः / यत् यतः अधर्मोऽपि का कथा अन्ये. षामिष्यपिशब्दार्थः, कृशः, दुर्बलः सन् एकया अडलेश्चरणस्य कनिष्ठया कनिष्ठयाऽङ्गुस्येत्यर्थः, भुवं स्पृशन् कुतेऽपि अधर्मस्य लेशतः सम्भवादशेनेति भावः। तपस्वितां तापसत्वं दानवश 'मुनिदीनी तपस्विना'विति विश्वः / दधी धारयामास / अस्य शासनादधर्मोऽपि धर्मषु आसक्तोऽभूत्। किमुत अन्य इति कैमुत्यन्यायादथान्तरा• पत्या अर्थापत्तिरलकारः अधर्मोऽपि धार्मिक इति विरोधश्चेत्यनयोः संसृष्टिः // 7 // 1. तदुक्तम्-'सोमाग्न्यानिलेन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च / भष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः // ' इति ( मनु० 5 / 96 ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। इस ( नल ) के द्वारा सत्ययुगमें ( सत्य, अचौर्य, शम, दम रूप, या-तप, दान, यश, शानरूप ) चार चरणोंसे पुण्यके स्थिर किये जाने पर किसने तपश्चर्या को ग्रहण नहीं किया ? अर्थात् समीने तपश्चर्याको ग्रहण किया। ( अधिक क्या ? ) जो एक पैर पर स्थित होकर, अथवा-एक पैरकी कनिष्ठा ( सबसे छोटी ) अङ्गुलिसे पृथ्वीको स्पर्श करता हुआ / अतएव ) दुर्बल अधर्मने भी तपस्विताको ग्रहण किया अर्थात् तपस्वी हो गया। [सत्ययुगमें उत्पन्न राजा नलने पुण्यको चारों चरणोंसे स्थिर कर दिया था, अतः उस समय सभी लोग तपश्चर्या में संलग्न थे। यही नहीं, किन्तु धर्मविरोधी अधर्म भी एक चरणसे पृथ्वीपर वास करता हुआ अतिशय दुर्बल होकर तपस्वी बन गया था। यहां पर सत्ययुगमें धर्मको स्थिति चारों परणोंसे रहने पर भी अधर्मकी स्थिति एक चरणसे रहती है, और वह अधर्म अत्यन्त क्षीण रहता है। लोकमें भी कोई तपस्वी एक चरणसे, या-एक चरणकी कनिष्ठा अङ्गुलिसे पृथ्वीका स्पर्श करता हुआ तपश्चर्या करता है तो वह अत्यन्त दुर्बल हो जाता है / 'अवश्यम्माविमावानां प्रतोकारो भवेद्यदि / प्रतिकुर्युनं किं नूनं नलरामयुधिष्ठिराः॥' इस. वचन में सत्ययुगादिक्रमसे नल, रामचन्द्र तथा युधिष्ठिर का वर्णन होनेसे नलकी स्थिति सत्ययुगमें ही सिद्ध होती है, तथापि कतिपय विद्वान् उनकी स्थिति त्रेतायुगमें मानते हैं, तदनुसार इस श्लोक का अर्थ ऐसा करना चाहिये-इस नल के द्वारा त्रेतायुगमें सुकृति अर्थात धर्मके च.र चरणों दारा स्थित किये जानेपर ... ... / अधवा- त्रेतायुगमें मी चार चरणोंसे स्थितकर धमके सत्य युग किये जानेपर अर्थात त्रेतायुगमें भी सत्य युगके समान धर्मकी स्थिरता करने पर....... | प्रथम अर्थ पक्षमें 'सुकृति' शब्दके षष्ठीमें 'सुकृतेः' पाठ मानकर 'खपरे शरि वा विसर्गलोपो वक्तव्यः' वार्तिकसे विसर्गका पाक्षिक लोप करने पर भी उक्त अर्थकी तथा 'सुकृते, स्थिर कृते' ऐसे सप्तम्यन्त श्लेषकी अनुपपत्ति होने से उक्त अथंके लिये जो 'प्रकाश' कारने 'सुकृत' ऐसे सविसर्ग पाठ माना है, वह चिन्त्य है ] // 7 // यदस्य यात्रासु बलोद्धतं रजः स्फुरत्प्रतापानलधूममञ्जिम / / तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधौ दधाति पढीभवदनां विधौ / / 8 / / अथास्य सप्तभिः प्रतापं वर्णयति-यदिस्यादिभिः / अस्य नलस्य यात्रासु जैत्रयानेषु बलोद्धतं सैन्योक्षिप्तं स्फुरतः ज्वलतः प्रतापानलस्य यो धूमः तस्येव मञ्जिमा मनो. हारिवं यस्य तथोक्तं सप्तम्युपमाने त्यादिना बहुवीहिः / मञ्जशब्दादिमनिचप्रत्ययः। यत् रजः धूलिः, तदेव गत्वा उस्क्षेपवेगादिति भावः। सुधाम्बुधौ क्षीरनिधो पतितम्, अतएव पङ्कीभवत् सत् विधौ चन्द्रे तहासिनीति भावः / अकृतां कलङ्करवं दधाति / अत्रापि व्यन्जकाप्रयोगात् गम्योस्प्रेक्षा तथा व कलकत्वं दधातीवेत्यर्थः // 8 // ___ इस ( नरू ) की (दिग्विजय-सम्बन्धिनी) यात्राओं में, दीप्यमान प्रतापानिके धुएंके समान सुन्दर और यहाँसे जाकर अमृत समुद्र अर्थात् क्षीरसागर में गिरी हुई एवं ( गिरनेसे ) कीचड़ होती हुई, सेनासे उड़ी हुई धूल चन्द्रमामें कलङ्क हो रही है। (भथवा-अमृतके Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / समुद्र चन्द्रमामें कम हो रहा है)। [जब रामा नदिग्विजय के लिए सेना लेकर यात्रा करते है, तब इनकी सेनासे जो धूल उड़ती है, वही बीरसमुद्र में गिरकर कीचड़ बन जाती है और यहाँसे उत्पन्न चन्द्रमामें कीचड़ लग बानेसे वही कलरूपसे प्रतीति होती है। इससे राजा नलकी सेनाका अत्यधिक होना तथा समुदपर्यन्त विनयी होना सूचित होता है ] // स्फुरदनुनिस्वनतद्घनाशुगप्रगल्भवृष्टिव्ययितस्य सङ्गरे / निजस्य तेजशिखिनः परश्शता वितेनुरङ्गारमिवायशः परे / / 6 // स्फुरदिति / समरे युद्धे शतात् परे परश्शताः शताधिका इत्यर्थः, बहव इति यावत् , पक्षमीति योगविभागात् समासः, राजदन्तादिस्वादुपसर्जनस्य परनिपातः पारस्करादित्वात् सुहागमश्च / परे शत्रवः स्फुरन्तौ प्रसरन्तौ धनुनिस्वनौ चापघोषौ इन्द्रचापगर्जिते-यस्य यत्र वा तयोक्तः स नल एव घनः मेघ तस्य माशुगाना शराणाम् अन्यत्र आशुगा वेगगामिनी, यद्वा आशुगेन वेगगामिना वायुना या प्रगलमा महती वृष्टिः 'आशुगौ वायुविशिखावित्यमरः। तया व्ययितस्य निर्वापितस्य विपू. दियतेः कर्मणि तः। निजस्य तेजःशिखिनः प्रतापाग्नेः अङ्गारमिव अयशः अप. कीर्ति वितेनुः विस्तारितवन्तः / पराजिता इति भावः। अत्र रूपकोस्प्रेषयोरताङ्गिभावः सः // 9 // शताधिक शत्रुओंने युबमें प्रकाशमान धनुषके टङ्कारवाले (या--....''टङ्कारको विस्तृत करनेवाले ) उस नलके अत्यधिक बाणोंकी असह्य वर्षासे बुझी हुई अपने ( शत्रुओंक) तेजरूप अग्निके अङ्गारके समान भयको फैला दिया। [ नल युद्धमें प्रकाशमान धनुषका रहार करते हुए मेघके समान बाणोंको बरसाते थे, उस पाणवृष्टिसे शताधिक नल. शत्रुओंकी प्रतापाग्नि दुझ गयी और उनके कृष्णवर्ण अङ्गारके समान अयश फैल गये / अत्यधिक वृष्टि से अग्नि का मुझना और सर्वत्र उसके काले-काले मङ्गारों का फैलना उचित हो है / नलने युद्ध में शताधिक शत्रुओं को जीतकर उनको प्रतापाग्निको बुझा दिया था ] // अनल्पदग्धारिपुरानलोज्ज्वलैनिजप्रतापवलयं ज्वलद् भुवः / प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया रराज नीराजनया स राजघ / / 10 // अनस्पेति / राज्ञः प्रतिपक्षानिति भावः, हन्तीति राजघः शत्रुघातीत्यर्थः 'राजघ उपसंख्यानमिति निपातः। नलः अनल्पं दग्धानि अरिपुराणि शत्रुराष्टाणि यः मथोक्ताः अनलवत् उज्ज्वलाः तैः निजप्रतापैः कोपदण्डसमुस्थतेजोभिः ‘स प्रतापःप्रमा. वश्च यत्तेजः कोषदण्डजमित्यमरः। वलत् दीप्यमानं भुवः वलयं भूमण्डलं प्रति. णीय प्रदक्षिणं परिभ्रम्य क्रमेण सर्वदिगविजेतृत्वादिति भावः / अयाय सध्या सर्व भूजयनिमित्तं कृतयेत्यर्थः, पुरोहितैरितिशेषः / नीराजनया आरार्तिकयारराज शुशुभे दिशो विजित्य प्रत्यावृत्तं विजिगीषु स्वपुरोहिताः मालसंविधानाय नीराजयन्तीति प्रसिद्धिः। केचित्तु निजप्रतापैरिव जयाय सृष्टया बयार्थयेवेत्यर्थः। नीराजनया भारा. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। तिकया ज्वलत् दीप्यमानं भुवो वलयं भूचनं प्रदक्षिणीकृत्य प्रदक्षिणं परिभ्राम्य रराज / तत्र बलप्रतापानलो नानादिग्त्रयात्रायां प्राच्यादिप्रादक्षिण्येन भूमण्डलं परित्रमन् निजप्रतापनीराजनया भूदेवता नीराजयकिव रराजेत्युत्प्रेक्षा ग्यञ्जकाच. प्रयोगादग्या / इति व्याचक्षते। तन्न समीचीनम् , निजप्रतापेरियस्य नीराजनये. स्यनेन सामानाधिकरण्यासङ्गतेरिति // 10 // (क्षुद्र प्राणियों को नहीं, किन्तु मशप्रतापी पवं शूरवीर ) राजामों को मारने वाले तथा बहुतसे जलाये गये शत्रुनगरोंवाली अग्निके समान प्रकाशमान अपने प्रतापोंसे प्रकाशमान भूमण्डल को प्रदक्षिणा कर स्थित वे ( नल ) विजयके लिये ( पुरोहितों के द्वारा ) की गयी नीराजना अर्थात मारतीसे शोमते थे। 'अथवा-उक्तरूप अपने प्रतापोंसे मानो विजय के लिए रचित भारती (पक्षा-नीराजना= राजाओंका अमाव अर्थात् नाश करने ) से प्रकाशमान भूमण्डलकी प्रदक्षिणा कर शोमते थे। अथवा-'प्रदक्षिणी, कृती, मजया, आय = प्रदक्षिणीकृत्य जयाय' ऐसा पदच्छेद कर अधिक दक्षिणाशील, अनुचरोंवाले कृतकर्मा, विपक्षराजहन्ता वे नल लक्ष्मीके द्वारा विष्णु के लिए रचित आरतीसे शोमित होते थे. शेष अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिये / इस पक्षमें नलके मनुचर प्रदक्षिण ( अधिक दक्षिणा देनेवाले अर्थात वदान्य ) थे और नक उनसे युक्त होनेसे 'प्रदक्षिणी' ( वदान्यतम अर्थात अत्यधिक दानशील थे। अथवा-अधिक दक्षिणावाले ज्योतिष्टोमादि यज्ञकर्ता होनेसे नल 'प्रदक्षिणी' थे / राजाको सर्वदेवांशभूत होने के कारण विष्णुरूप मी होनेसे लक्ष्मीके द्वारा आरती करना उचित ही है ] // 10 // निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः / न तत्यजुनूनमनन्यसंश्रयाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः // 11 // निवारिता इति / तेन नलेन अखिले समग्रे महीतले न सन्ति ईतयः अतिवृ. टयादयः यत्र तत् निरीति, तस्य भावः तम् ईतिराहित्य मित्यर्थः। ईतयश्वोक्ता यथा'अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः // इति / गमिते प्रापिते सति निवारिताः स्वराष्टात् निराकृता इत्यर्थः / अतिवृष्टयः नास्ति अन्यःसंश्रयः आश्रयः यासां तथाभूताः सत्याः प्रतीपभूपालानां प्रतिपक्षनृपतीनां या मृगीदृशःमृगनयनाः कान्ताः तासां दृशः नयनानि न तस्यजुः / नूनं मन्ये इत्यर्थः। उत्प्रेक्षावाचकमिद, तदुक्तं दर्पणे 'मन्ये शके ध्रवं प्रायो नून. मित्येवमादयः। उत्प्रेक्षाध्यक्षकाः शब्दाइवशब्दोऽपिताश' इति / नलनिहतभर्तृका राजपस्न्यः सततं रुल्दुरिति भावः // 11 // (अतिवृष्टि आदि छः ) ईतियोंसे रहित सम्पूर्ण भूतलपर उस ( नछ ) के द्वारा रोकी 1. दिग्विजय करते हुए भूमण्डलकी प्रदक्षिणा कर लौटे हुए विजयी नल पुरोहितोंके भारती करनेसे शोभित होते थे। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / गयी अतिवृष्टियोंने मानो अन्यत्र भाश्रय नहीं पाकर शत्रुभूत राजाओंकी मृगनयनियों की दृष्टियों ( नेत्रों ) को नहीं छोड़ा। [ राजा नलके राज्यमें कहीं भी अतिवृष्टि आदि ईति नहीं होती थी, अत एव पृथ्वीपर कहीं मी माश्रय नहीं मिलनेसे उन्होंने शत्रुओंकी रानियों के नेत्रका आश्रय लिया अर्थात् नलने शत्रुओंको मारा, अत एव उनकी खियाँ बहुन रोती थीं। लोकमें मी किसीके द्वारा निकाला गया कोई व्यक्ति उसके शत्रुके पास जाकर आश्रय पाता है, तथा अतिवृष्टिरूप खियों के लिए मृगनयनियोंकी दृष्टि रूप त्रियों के पास आंश्रय पाना उचित ही है // 11 // सितांशुवर्णैवयति स्म तद्गुणैर्महासिवेम्नस्सहकृत्वरी बहुम् / दिगङ्गनाङ्गाभरणं रणाङ्गणे यशःपटं तद्भटचातुरी तुरी // 12 // सिताविति / महान् असिरेव वेमा वायदः 'पुसि वेमा वायदण्ड' इत्यमरः / तस्य सहस्वरी सहकारिणी 'सहे चेति करोतेः कनिष्प्रत्ययः / 'वनो र 'ति डीप रश्च / तस्य नलस्य भटानां सैनिकानां यद्वा स नल एव भटः वीरः तस्य चातुरी चतुरता नैपुण्यमिति यावत् एव सुरी वयनसाधनं वस्तुविशेष इत्यर्थः / 'माकु' इति प्रसिद्धा, रण एव अङ्गनं चत्वरं तस्मिन् सितांशुवर्गः शुभ्ररित्यर्थः, तस्य नलस्य गुणः शौर्यादिभिः तन्तुभिश्च दिश एव अङ्गानाः तासाम् अङ्गामरणम् अङ्गभूषणम् / 'अनावरणमिति पाठे अनाच्छादनं बहु यश एव पटः वसनं तं वयति स्म ततान / साङ्गरूपकमलारः / संग्रामे तथा नैपुण्यमनेन प्रकटितं यथा तेन सर्वा दिशो यशसा प्रपूरिता इति भावः // 12 // उस ( नल ) के योद्धाओंकी ( या-उस प्रसिद्ध नलके योद्धाओं की ) चतुरतारूपिणी तथा विशाल तलवाररूपिणी वेमाका साथ करनेवाली तुरी संग्रामाङ्गणमें चन्द्रवत् स्वच्छ नलके गुणों ( पक्षा-सूतों) से दिशारूपिणी स्त्रियोंको ढकनेवाले यशोरूपी बड़े कपड़े को बुनती थी। [नलके योद्धाओं की चतुरतासे संग्राममें तलवारोंके प्रहारसे शत्रु मरते थे तो नलका यश दिगन्ततक फैलता था ] // 12 // प्रतीपभूपरिव कि ततो भिया विरुद्धधमैरपि भेत्तृतोज्झिता। अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स यद्विचारहवचारहगप्यवर्तत // 13 // प्रतीपेति / प्रतीपाः प्रतिकूलाः भूपा राजानः तैः विरुद्धधमः असमानाधिकरण. धर्मः विपरीतवृत्तिभिरित्यर्थी, अपि ततः नलात् भिया भये नेव हेतुना भेत्तता स्वाश्रयः भेदकत्वं परोपजाप इत्यर्थः / उज्झिता त्यक्ता किम् ? यद् यस्मात् स नलः ओजसा तेजसा अमित्रान् शव जयतीति तथोक्तः मिन्नं सूर्य जयतीति तथाभूतः। अत्र यः खलु अमित्रजित स कथं मित्रजिदिति विरोधाभासः, परिहारस्तु पूर्वमुक्तः / तथा वि. चारेण पश्यतीति विचारहक चारैः गूढपुरुषः पश्यतीति चारहक / 'राजानश्चारचक्षुष' इति, 'चारैः पश्यन्ति राजान' इति च नीतिशास्त्रम् / अत्रापि यो विचाररकस कर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। चारहग भवतीति विरोधाभासः, परिहारस्तु पूर्वमुक्तः। अवर्तत मासीत् / अपिवि. रोधे। सूर्यतेजसं चारशच नलं ज्ञात्वा शत्रवो भयात् परस्परोपजापादिवैरभावं तत्यजुरिति भावः / अत्र विरोधोरप्रेयोरङ्गाङ्गिभावः // 13 // ____ विरोधी राजाओं के समान परस्पर विरोधी स्वभावोंने भी उस नलके भय से भेदभाव को छोड़ दिया क्या ? / जो नल अमित्रजित् (शत्रुओं को जीतनेवाले ) होकर भी मित्र जित् (मित्रोंको जीतनेवाले, विरोध परिहार पक्षमें-अपने प्रतापसे सूर्यको बीतनेवाले ) थे तथा चारदा ( गुप्तचरोंके ) द्वारा ( कार्यकलापको देखनेवाले ) होकर भी विचारदृक् ( गुप्तचरों के द्वारा नहीं देखेनेवाले, विरोध परिहार पक्ष-विचारसे देखनेवाले अर्थात् विचारपूर्वक कार्य करनेवाले ) थे। [ जो नल मित्रजित थे, उनका अमित्रजित ( मित्रजित नहीं ) होना तथा जो चारदृक् थे, उनका विचारदृक् ( चार दृक् नहीं ) होना अर्थ करके विरोध आता है; अतः उसका परिहार 'जो नल प्रमावसे सूर्यको जीतनेवाले थे, वे शत्रुओं को भी जीतनेवाले थे और जो चारदृक ( दूतों के द्वारा कार्योंको देखनेवाले ) थे, वे विचार. दृक् ( विचारपूर्वक कार्योको देखनेवाले ) थे, अर्थ के द्वारा करना चाहिये ] // 13 // तदोजसस्तद्यशसः स्थिताविमौ वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति भानोः परिवेषकैतवात्तदा विधिः कुण्डलनां विघोरपि / / 14 / / तदिति / तस्य नलस्य ओजः तेजः प्रताप इत्यर्थः, तस्य तथा तस्य नलस्य यशः तस्य स्थिती सत्तायाम् इमो भानुविधू वृथा निरर्थको इति चित्ते यदा यदा कुहने विवेचयतीत्यर्थः, विधिः तदा तदा परिवेषः परिधिः 'परिवेषस्तु परिधिरुपसूर्यकमण्डले' इत्यमरः। एव केतवं छलं तस्मात् मानोः सूर्यस्य विधोरपि चन्द्रस्य च कुण्डलनाम् अतिरिक्ततासूचकवेष्टनमित्यर्थः, करोति अधिकाक्षरवर्जनार्थ लेखकादिवदिति मावः। विजित चन्द्राको अस्य कीर्तिप्रतापौ इति तात्पर्यम् / अत्र प्रकृतस्य परिवेषस्य प्रति. षेधेन अप्रकृतस्य कुण्डलनस्य स्थापनात् अपह्नतिरलकारः, तदुक्तं दपणे 'प्रकृत प्रति. षिद्ध धान्यस्थापनं स्यादपद्धति' रिति / प्राचीनास्तु परिवेषमिषेण सूर्याचन्द्रमसोः कुण्डलनोस्प्रेक्षणात् सापहवोस्प्रेक्षा / सा च गम्या व्यक्षकाप्रयोगादित्याहुः // 14 // 'उस नलके प्रताप तथा यशके रहने पर ये दोनों (सूयं तथा चन्द्रमा) व्यर्थ है, इस प्रकार ब्रह्मा मनमें जब-जब विचारते हैं, तब-तब सूर्य तथा चन्द्रमाके परिवेष ( कमीकमी सूर्य तथा चन्द्रमामें दृष्टिगोचर होनेवाला गोलाकार घेरा) के छलसे ( व्यर्थतासूचक ) कुण्डलना बना देते हैं। [लोकमें भी कोई व्यर्थ वस्तु लिखी जाती है तो उसको चारों औरसे वेर देते हैं / नलके प्रताप तथा यशको सूर्य-चन्द्राधिक समझकर सृष्टिकर्ता प्रक्षाको, सूर्य-चन्द्रको घेरकर व्यर्थ माननेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 14 // अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी लिपि ललाटेऽथिनजनस्य जाप्रतीम् / मृषा न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः प्रणीय दारिद्रयदरिद्रतां नृपः / / 15 / / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अस्य वदाम्यतां दाम्या वर्णयति-अपमिति विभज्येति च / अल्पितः अल्पीकृतः निर्जित इति यावत् , दानशौण्डस्वादिति भावः, करपपादप अपतकः वान्छितफल. प्रावृप इति यावत् , येन तथाभूतः स नृपः दारिद्वयस्य अभावस्य निर्धनत्वस्य इति यावत् , दरिद्रताम् अभाव मिति यावत् , प्रणीय कृत्वा दरिदेभ्यः प्रभूतधन. दानेन तेषां दारिद्रयम अपनीयेति भावः। अयं दरिद्रः अमाववानिति यावत, भविता इति अर्थिजमस्य याचकजनस्य ललाटे जाग्रती दीप्यमानामिति यावत् , वेधसः इयं वैधसी तां लिपि मृषा मिथ्या न चक्र न कृतवान् / विधातुर्लिपौ सामाः न्यतः दरिद्रशब्दस्य स्थितौ दरिद्रशन्दस्य यथायथं धनदरिदः, पापदरिद्रः, ज्ञानदरिद्र इत्यादिप्रयोगदर्शनात् अभावमात्रबोधकत्वमङ्गीकृत्य राजा दरिद्राणां धना. भावरूपं दारिद्रयमपाचकार इति निष्कर्षः // 15 // (अब नलकी दानवीरताका वर्णन करते है ) 'यह दरिद्र होगा' इस प्रकार याचक लोगोंके ललाटमें लिखे गये ब्रह्माक्षरको, ( याचनासे भी अधिक दान देनेके कारण ) कल्प वृक्षको भी तुच्छ करनेवाले राजा नरूने उन याचकोंकी दरिद्रताकी दरिद्रता करके व्यर्थ नहीं किया, ( अथवा-व्यर्थ नहीं किया ? भर्यात व्यर्थ कर ही दिया ) [राजा नल याचककी अमिलाषासे भी अधिक दान देनेवाले, अत एव उनके राज्य में कोई भी दरिद्र नहीं वा] // 15 // विमज्य मेहर्न यदर्थिसात्कृतो न सिन्धुरुत्सर्गजलव्ययैर्मरुः / अमानि तत्तेन निजायशोयुगं द्विफालबद्धाश्चिकुरारिशरस्स्थितम् // 16 / / विभज्येति / मेकः हेमादिः विभज्य विभक्तीकृत्य अर्थिसात् अर्थिग्यो देयः न कृतः। अर्थिने देयमिति 'देये ना चेति सातिप्रत्ययः / सिन्धुः समुदः उत्सगंजलाना ध्ययैः दानाम्बुप्रोपैः मरुः निर्जलदेशः न कृतः इति यत तत् तस्मात् तेन नलेन द्विकालबद्धाः द्वयोः फालयोः शिरःपाईयोः बदा रक्षिता इति यावत् , फलतेर्विशर• गाथै अप्प्रत्ययः। विलासिनां पुंसां सीमन्तितशिरोरुहत्वात् चिकुराणां द्विफालबद्ध स्वमिति भावः, द्विधा विभका इति यावत् / चिकुराः देशाः 'चिकुरः कुन्तलो बाल: कधः कंशः शिरोरुह' इत्यमरः। शिरःस्थितं मस्तकतमिति भाषः, निज स्वीयम् अयशोयुगम् अपकीत्तिद्वयंपूर्वोक्त मेरुविभागसिन्धुजलव्ययाकरणजनितमिति भावः / अमानि शरूपेण विधास्थितं स्वशिरसि अयशोयुगमेव तिष्ठति इति अमन्यत इत्यर्थः / अयशसः पापरूपत्वात् कृष्णवर्णनं कविसमय सिद्धम् 'तथा च मालिन्यं ग्योग्नि पापे' इत्यादि / उद्देश्यविधेयरूपं कर्मद्वयम् / केशेषु कार्यसाग्यात् अय. शोरूपणमिति म्यस्तरूपकम् // 16 // (प्रकारान्तरसे अधिक दानवीरताका पुनः वर्णन करते है-'जो मैंने सुमेरु पर्वतको विमलकर यापोंके लिए नहीं दे दिया और दानके सहपबबसे समुद्रको मर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। स्थळ नहीं बना दिवा' इस प्रकारके दोनों पोरके काकपक्ष ( बंधे हुए केशकलाप ) रूपं मेरे दो अपयश शिरपर स्थित है ऐसा उस नलने माना। [मपयशका काला एवं शिर पर स्थित होना लोकप्रसिद्ध है। दो काकपक्षका उक्तरूप दो अपपश होने की कल्पना को गयी है / // 16 // अजनमभ्या'समुपेयुषा समं मुदेव देवः कविना बुधेन च / दधौ पटीयान समयं नयनयं दिनेश्वरश्रीरुदयं दिने दिने / / 17 // अस्य विद्वजनसम्माननामाह-अजनमिति। दिनेश्वरस्पेन श्रीर्यस्य, अन्यत्र दिने ईश्वरस्येव श्रीः यस्य तयाभूतः पटीयान् समर्थतरः अयं देवो राजा सूर्यश्च 'देव: सूर्ये यमे राज्ञीति विश्वः / अजवं सततम् अभ्यासं सानिध्यम् उपयुषा प्राप्तवता सहचारिणा इति यावत् , 'उपेयिवाननाचाननूचानश्चेति निपातः। कविना काव्य. शास्त्रविदा पण्डितेन शुक्रेण न बुधेन विदुषा धर्मशासादिदशिनेति भावः, सौम्येन च समं सह मुदैव भानन्देनैव न तु दुःखेनेत्येवकारार्थः समयं नयन् अतिवाहयन् रिने दिने प्रतिपादनम् उदयम् अभ्युबतिम आविर्भाष दधौ धारयामास / अत्र रवाधारः / 17 // बुद्धिमान् , सयंतुल्प तेजस्वी राणा नल निरन्तर अभ्यास करनेवाले कवि तथा पण्डित (काव्यरचयिता तथा पाकरणशाता) के साथ हर्षपूर्वक समयको म्यतीत करते हुए प्रतिदिन समृश्किो ग्स प्रकार प्राप्त कर रहे थे, जिप्त प्रकार निरन्तर समीपमें स्थित शुक तथा पुष नामक ग्रहदयके सा समयको व्यतीत करते हुए तेजस्वी सूर्य प्रतिदिन उदयको प्राप्त करते हैं। [सर्यके समीपमें शुक्र तथा बुध प्रहका सर्वदा रहना ज्योतिःशास्त्र में वर्णित है ] // 17 // अघो विधानात् कमलप्रवालयाश्शिरस्सु दानादखिलझमाभुजाम् / पुरदमूर्ध्व भवतीति वेघसा पदं किमस्याङ्कितमूबरेखया / / 18 / / अध इति / कमलप्रवालयोः पद्मपल्लवयोः कर्मभूसयोः अधोविधानात् अधः करणात् न्यकरणादिति यावत् / तथा अखिलानां सवंषा समाभुजां प्रतिकूलवत्तिनां राज्ञां शिरःसु दानात विधानात इदम् अस्य नलस्य पदम् ऊर्ध्वम् उस्कृष्टम् ऊर्ध्वः स्थितञ्च पुरा भवति मविप्यतीत्यर्थः / यावत् पुरानिपातयोलट' इति पुराशब्दयों गात् भविष्यदर्थे लट् / इति इदं मरवा इति शेषः, गग्यमानार्थस्वाइप्रयोगः / वेधसा विषात्रा को ऊर्वरेखया अहितं चिह्नितं किम् ? 'ऊवं खाङ्कितपदः सत्कर्ष मजेत् पुमानि'ति सामुद्रिकाः / सौन्दर्यसुलक्षणाभ्यां युक्तमस्य पदमिति भावः // 8 // (अब सामुद्रिक लक्षणका वर्णन करते हैं- ) 'यह (नल चरण) कमक तथा प्रवाल (मूंगा, या नवपल्लबको ) को नीचा करनेसे और समस्त राबायों के शिरपर रखे जाने से 1. 'मभ्याश-' इति पाठान्तरम् / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / ऊपर ( उन्नत) होगा' यह विचारकर ब्रह्माने इस (नक) के चरणको (जन्मकारसे) पहले ऊध्र्वगामिनी रेखासे चिह्नित कर दिया है क्या ? ( अथवा- पहले ऊपर होगा' यह विचारकर....")। [ नसके चरणमें सामुद्रिक लक्षणके अनुसार शुमसूचक ऊपरकी ओर जाने वाली रेखाएँ थीं ] // 18 // जगन्जयं तेन च कोशमक्षयं प्रणीतवान् शैशवशेषवानयम् / सखा रतीशस्य ऋतुर्यथा वनं वपुस्तथालिङ्गदथास्य यौवनम् ||16|| अथ अस्य यौवनागमं क्रमेण वर्णयति-जगदिस्यादिभिः / अयं नलः शैशवशेष. वान् ईषदवशिष्टशैशव एवेत्यर्थः। जगतां जयं तेन च जयनेस्यर्थः। कोषं धनजा. तम् अपयं प्रणीतवान् कृतवान् / अथानन्तरं रतीशस्य कामस्य सखा ऋतुः वसन्त. इत्यर्थः। वनं यथा यौवनम् अस्य नलस्य वपुः शरीरं तथा आलिङ्गत् संश्लिष्टवत् / उपमालङ्कारः // 19 // (अब यौवनावस्थाके आरम्भ होनेका वर्णन करते हैं-) पाश्यावस्था शेष (समाप्त ) है जिसकी ऐसे अर्थात् सोलह वर्षको अवस्थावाले इस नलने संसारको विजय तया उससे कोष (खजाने ) को अक्षय कर दिया, अनन्तर इनके शरीरको युवावस्थाने इस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार वनको कामदेवका मित्र अर्थात् वसन्त ऋतु प्राप्त करता है। (वाल्यावस्था पूरी होते-होते ही नलने संसार पर विजय प्राप्त कर राज्यको निःसपस्न बना लिया तथा उस विजयसे कोषको मी भरपूर कर लिया, वास्तविकमें जगदिजय करना ही इनका मुख्य लक्ष्य था, कोषपूर्ति करना तो आनुषङ्गिक कार्य था; क्योंकि इनकी होनेसे शरीर-सौन्दर्यको वृद्धि होना सूचित होता है ) // 19 // अधारि पद्मेषु तदङघ्रणा घृणा क तच्छयच्छायलवोऽपि पनवे ? / तदास्यदास्येऽपि गतोऽधिकारितां न शारदः पाविकशर्वरीश्वरः / / 20 / ___ अधारीति / तस्य नलस्य अघ्रिणा चरणेन पछेषु घृणा अवज्ञा 'घृणा जुगुप्सा. कृपयोरिति विश्वः। अधारि एता। पल्लवे नवकिसलये तस्य नलस्य शयः पाणिः 'पञ्चशाखः शयः पाणि'रिस्यमरः / तस्य छाया तच्छयच्छायं 'विभाषेत्यादिना समा. से छायाया नपुंसकत्वम् / तस्य लवो लेशोऽपि क्व ? नैव लेशोऽस्तीत्यर्थः। शरदि भवः शारदः शरस्कालीन इत्यर्थः / सन्धिवेलायूतुनक्षत्रेभ्योऽणप्रत्ययः। पर्वणि पौर्णमास्यां भवः पार्विकः / 'पार्वणे'ति पाटान्तरं कालाहज 'नस्तद्धित' इति टिलोपः / स च असौ शर्वरीश्वरश्चेति तथोक्तः पूर्णचन्द्र इत्यर्थः / तस्य नलस्य यत् आस्यं मुखं तस्य दासे कार्येऽपि अधिकारिता न गतः न प्राप्तः। एतेनास्य पाणिपादवदना. नामनौपम्यं व्यज्यते / अत्र अघ्रयादीनां पद्मादिषु घृणाघसम्भवेऽपि सम्बन्धोक्ते अतिशयोक्ति अबधारः॥२०॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। (भब नलकी शरीरशोमाका वर्णन भारम्म करते है-) उस (नक) के चरणने पोंमें घृणा : या-दया ) की, ( क्योंकि उनमें पद अर्थात नल-चरणसे ) (या-नल-चरणकी) शोमा यी, या-वे पद्म नलचरणमें रेखारूपमें स्थित थे, अतः इन पोंने मुझसे शोमा प्राप्त की है। इस कारण मद पेक्षा होनश्री इनके साथ मुझे स्पर्धा करना उचित नहीं है। यह समझकर नल चरणने पमों में घृणा की, या-'ये पद्म रेखारूप में मुझमें ही स्थित अर्थात मेरे ही आश्रित है' यह समझकर नल-चरणने पड़ों पर दया की ( अपनेसे हीनके साथ घृणा करना तथा अपने आश्रितपर दया करना नल-चरणके लिए उचित ही था)। पस्लवमें उस ( नल ) के हाथकी कान्तिका लेश ( थोड़ा-सा अंश ) भी कहा था ? अर्थात नहीं था, ( क्योंकि वह परलव ( नल-चरणके लेश अर्थात अल्पतमाशबाला ) था, अत एव जिस पल्लवमें नल चरणका लेश था वह भला इनके बायकी कान्ति के शवाहा कैसे हो सकता था ? अर्थात् हीनाङ्ग चरणका लेशवाला श्रेष्ठाङ्ग हाथको कान्तिका लेशवाहा कदापि नहीं होता ) / तथा शरत्कालीन पूणिमाका चन्द्रमा उस ( नल ) के. मुखके दासंखका अधिकारी भी नहीं हुआ ( तो मला नलके मुखकी समता कैसे करता ? क्योंकि चन्द्रभा शरत्काल एवं पूणिमाके योगसे रमणीय हुआ था, वह भी केवल एक दिनके लिए और वह सोलह ही कलामोसे पूर्ण था, कितु नल-मुख स्वत एव विना किसीके योग ( सहायता ) से सर्वदा के लिए रमणीय एवं चौसठ कलाओंसे युक्त है, अतः उस दोन चन्द्रमा का श्रेष्ठतम नल मुखकी समानता करना तो असम्भव ही था, उसे नलके दासत्वके योग्य भी नहीं होना उचित ही था ( क्योंकि रमणीयतम नायकके लिए रमणीय ही दासका होना उचित होता है) [नलके चरण कमल से, हाथ नवपल्कवसे तथा मुख शरत्कालीन पूर्णिमाके चन्द्रमासे मी अत्यधिक सुन्दर थे ] // 20 // किमस्य रोम्णाङ्कपटेन कोटिभिविधिन रेखाभिरजीगणद् गुणान् / न रोमकूपौघमिषाजगत्कृता कृताश्च कि दूषण शुन्यबिन्दवः ? // 21 // किमिति / विधिविधाता अस्य नलस्य गुणान् रोग्णां कपटेन म्याजेन कोटिभिः कोटिसख्याभिः लेखाभिः न अबीगण न गणितवान किम् ? अपितु गणितशनेवेत्यर्थः तथा जगरकृता, स्रष्ट्रा विधिनेत्यर्थः / रोग्णां कूपाः विवराणि तेषाम् भोघः समूह एव मिर्ष ग्याजः तस्मात् / दूषणानां दोषाणां शून्यस्य अमावस्य बिन्दवःज्ञापचिह्वभूता वत्तलरेखाः न कृताः किम् ? अपि तु कृता एवेत्यर्थः / अस्मिन् गुणा एध सन्ति, न कदाचित् दोषा इति भावः / अत्र रोग्णांरोमकूपाणाञ्च कपटमिषशब्दाभ्याम् अपह्नवे गुणगणनालेखस्वदूषणशून्यबिन्दुत्वयोरुरप्रेक्षणात सापह्नवोपयोः संसृष्टिः // 21 // ब्रह्माने रोमोके कपट ( बहाने ) से साढ़े तीन करोड़ रेखामों से इस ( नल ) के गुणों को नहीं गिना क्या ? अर्थात् अवश्य ही गिना, और जगत्सृष्टिकर्ता ब्रह्माने साढ़े तीन करोड़ रोमकूपोंके कपटसे इस ( नक) के दोषामाव-बिन्दुओंको नहीं किया क्या ? अर्थात 2 नै० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 नैषधमहाकाव्यम् / अवश्य ही किया। [अत्यधिक सजयावाको वस्तुओं को गिनते समय विस्मरण नहीं होने के लिए रेखाओं द्वारा गिनना तथा अमावसूचक स्थानों पर गोगकार शून्यविन्दुओंको रखना कम्पबहार में भी देखा जाता है। अतएव नकके शरीरमें ये रोम नहीं है, किन्तु हन नसके गुण है तथा ये रोमकूप नहीं हैं, किन्तु दोषामावसूचक शूल्य-विन्दु हैं। नको बहुसङ्कयक गुग थे तथा दोष कोई मो नहीं था। 'तिस्रः कोटयोऽद्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे / ' इस वचनके अनुसार मानव-शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं तथा 'रोमैककं कुपके पार्थिवानाम्' इस कपनके अनुसार रामाका प्रत्येक रोम एक-एक रोमकूप में होता है] // 21 // अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रुवं गृहीतार्गलदीर्घपीनता / उरःमिया तत्र च गोपुरस्फुरत्कवा'टदुर्धर्षतिर प्रसारिता / / 22 // अमुध्येति / अमुष्य नलस्प दोम्यो भुजाभ्यां कर्तृभ्याम परिदुर्गलुण्ठने शत्रुदुर्गमाने अर्गलस्म कपाटविष्कम्मदारूविशेषस्य 'तविकम्भोऽर्गलं न ना' इत्यमरः / दीर्घश पीना तयोर्भावः दोघंपीनता भापतपीवरस्वमित्यर्थः, किति पार्थः / उरसा वासः श्रिया लपया को तत्र अरिदुर्गलुण्ठने गोपुरेषु पुरद्वारेषु 'पुरद्वारन्तु गोपु. रमियमरः / स्फुरता राजता कवाटानां दुर्द्धर्षागि च तानि तिम्प्रसारीणि च तेषां भावः तता असण्यस्वं तिय्यंकप्रसारिवश्वेयर्थः / गृहोता ध्रुवम् भवम्बिता किम् ? प्रवमित्युस्प्रेचाम्पाकम् / तदुदपणे 'मन्ये शके ध्र प्रायो नूनमित्येवमादयः। उस्प्रेक्षाग्पाकाः शम्दा इव शब्दोऽपि ताशः' इति / दीर्घबाहुः कवाटवजावाय. मिति भावः // 22 // इस (न) के बाहुपने शत्रुओंके दुर्गों (किलों ) को लूटनेमें मानो भाग: (विवाड़की किही ) को विशान्ता तथा स्थूलताको प्राप्त कर लिया तथा वक्षःस्थलको शोमाने मानो (धुओंके ) नगरद्वारपर स्फुरित होते हुए किवाड़ को दुधर्षता एवं विशालता को प्राप्त कर दिया। [ नसके पाइदय भागमके समान लम्बे एवं मोटे थे तथा छाती किवाड़के समान विशड चौड़ी एवं कठोर थी। इससे नकका भावानुबाहु एवं विशाल वक्षस्थळ वाण होना सूचित होता है ] // 22 // स्वकेनिलेशस्मितनिर्जितेन्दुनो निजांशहक्तर्जितपनसम्पदः / अतद्वयोजित्वरसुन्दरान्तरे न तन्मुखस्य प्रतिमा चराघरे / / 23 / / स्वकलोति / स्वस्य केलिगेशः विलासबिन्दुयंत् स्मितं मन्दासितं तेन निन्दितः तिरस्कृतः इन्दुमन्द्रः येन तमोकस्प स्मितरूपकिरणेन निर्मितशीतांएमयूजस्येति भाषः निर्माणस्वावयवःयारक नेनं तया तर्षिता निभरिसता पमानां सम्पद सौभाग्यं १.'-कपार-' इति पाठान्तरम् / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 1. येन तथाभूतस्य तन्मुखस्य नलमुखस्य तयोश्चन्द्रपभयो यो तस्या जित्वरं जय. शीलं ततोऽषिकमिति यावत् सुन्दरान्तर नास्ति, यत्र तथाविधे चरापरे जगति 'चराचरं स्याउजगदिति विश्वः / प्रतिमा उपमानं न नामादिति शेषः / अत्र चन्द्रा. रविन्दजयविशेषणतया मुखस्य निरौपम्य प्रतिपादनात् पदार्थहेतुकं कायलिगमलकारः / नदुस्तं दर्पगे- हेतावाक्यपदाथस्वे काग्यलिङ्ग निगद्यते' इति / / 23 // ____अपनो कोडाके लेशमात्र स्मितसे चन्दमाको निन्दित करनेवाले तथा अपने अवयवभूत नेवसे कमशोमाको तिरस्कृत करने वाले नल-मुखको उपमा उन दोनों (चन्द्रमा तथा कमल ) को शोमाको जाननेवाले दूसरे किसो वस्त्वन्तरसे शुन्य संसारमें नहीं थी। [ नळके मुखने अपनी क्रीडापूर्वक मन्द मुस्कानसे चन्द्रमाको जीत किया तथा उस मुखके एक भाग ( नेत्र ) ने कमलशामाको जोत लिया, आरव उस नळके मुखको उपमा संसार भर में कोई नहीं थी, क्योंकि उस प्रकारसे नकमुखके दारा जगत में सबसुन्दर चन्द्रमा तथा कमल पराजित हो चुके थे और दूसरी कोई सुन्दर वस्तु उन ( चन्द्रमा तथा कमल ) को जीतनेवालो जगत् में यो हो नहों, जिसके साथ नल-मुखको उपमा दी जाय / उपमेय की अपेक्षा उपमान पदार्थके श्रेष्ठ होनेपर उपमा दी जाती है, और ऐसा कोई पदार्थ या नहीं, जो नक-मुख से अधिक सुन्दर होकर उपमान हो सके, अतएव नक-मुख अनुपम था] // 23 // सरोरुहं तस्य दृशेव तर्जितं जिताः स्मितेनैव विधोरपि श्रियः / कुतः परं भव्यमहो महोयसी' तदाननस्यापमितो दरिद्रता / / 24 / / उतार्थ मायन्तरेणाह-सराहमिति / तस्य नलस्य रशैव नयनेनैव सरोरुहं पचं तर्जितं व्यकृतम् / स्मितेनैव विधोश्चन्द्रस्य श्रियः कान्तयः अपि जिताः तिरस्कृताः परम अन्यत् आभ्यामिति शेषः मण्यं रम्यं वस्तु कुतः ? न कुनाप्यस्ती. स्यर्थः / अहो आश्वयं तस्य नलस्य यत् आननं मुखं तस्य उपमिती तोलने महीयसी अतिमहती दरिद्रता समावः अत्यन्ताभाव इत्यर्थः। सर्वथा निरुपममस्य मुखमित्या. श्वर्यम् / अत्र वाक्यार्थहेतुकं काग्यलिमलकारः / / 24 // (पुनः उसी वातको प्रकारान्तरसे कहते है-) कमलको उस ( नल ) के मुखने ही बीत किया था चन्द्रमाकी शोमाओंको ( नलकी ) मुस्कानने ही जीत लिया, ( अतः कमल तथा चन्द्रमासे मिन दूसरा क ई पदार्थ कहांसे मिले ? अर्थात् कोई पदार्थ सुन्दर नहीं है ) माश्चर्य है कि उस ( नळ ) के मुखको उपमाको बड़ा मारो कमो पड़ गयो // 24 // स्ववालमारस्य तदुत्तमाङ्गजस्स्वयञ्चमर्यव तुजाभिलाषिणः / अनागसे शंसति बालचापलं पुनः पुनः पुच्छविलालनच्छ लात् / / 25 // 1. 'महीयसाम्' इति पाठान्तरम् / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्वबालेति / चमरी मृगीविशेषः तस्य नलस्य उत्तमाङ्गजः शिरोग्हैः समं सहैव तुळाभिलाषिणःसारश्यकारिणः स्वबालभारस्य निजलोनिचयस्य नागसे अन. पराधाय नीचस्य उत्तमैः सह सायाभिगमोऽपि महान् अपराध इति भावः / क्वचिः सदभावे नम्समासो श्यते। पुनः पुनः पुच्छस्य लागूलस्य विलोलनं विचालनम् एव छलं तस्मात् बालचापलं रोमचावल्यम् अथ च शिशुचापल्यं शंसति कथयति बालचापल्यं सोढव्यमिति धियेति भावः / 'अन पुच्छविलोलनप्रतिषेधेन अन्यस्य बालचापलस्य स्थापनादपद्धतिरलकारः। तदुकं दर्पणे-'प्रकृतं प्रतिषि यान्यस्थापनं स्यादपह्नतिरिति // 25 // उस ( नक) के मस्तकके केशोंके साथ समताको चाहने वाले अपने बाक ( केश) समूहके अपराधामाबके लिए चमरी गाय ही बार-बार पूंछ को हिलाने के कपटसे बालकी चपलताको कहती है। [चमरी गायके वारू अर्थात् केश नरूके शिरके बालों के साथ समा. नता चाहते थे, किन्तु तुच्छ होकर श्रेष्ठ नक-शिरःस्थ बार साथ समता करना उनका बड़ा अपराध है, इसलिये चमरी गाय बार-बार पूछको हिलाकर नसे मानो यह कह रही है कि उन्होंने बाल (बच्चे ) की चपलता की है, अत एव बच्चेके चपलता करने पर उसका अपराध नहीं मानना चाहिये / लोकमें भी बच्चेके अपराध करने पर उसका अपराध नहीं मानना चाहिये / लोकमें मी बच्चेके अपराध करने पर उसकी माता बच्चेकी चपलता कहकर उसके अपराधको क्षमा करने के लिए प्रार्थना करती है। नम्के मस्तकके केश चमरी गायके केश-समूहसे मी सुन्दर एवं मृदु थे ] // 25 // महीभृतस्तस्य च मन्मश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया। द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतभ्रवां मन्मविभ्रमोऽभवत् || 26 // महीभृत इति / तस्य महीभृतो नलस्य मन्मयस्येव श्रीः कान्निः तया च निज. स्य चित्तस्य तं नलं प्रति इच्छया रागेण च तत्र नृपे नले जगस्नपीभुवां त्रिभुवन वत्तिनीनां नत4वां कामिनीनां विधा द्विप्रकारेण मन्मथविभ्रमः अयं मन्मय इति विशिश भ्रान्तिः कामावेशश्च अमवत् / अत्र श्लेषसङ्कीर्णो यथासंख्यालङ्कारः // 26 // ___ उस राजा ( नल ) की कामदेव-कान्तिसे तथा उम ( नक) के प्रति अमिलाप होनेसे लोकत्रयोरपन्न सुन्दारेयोकी उस ( नह) के विषय में दो प्रकारका विभ्रम (विशिष्ट भ्रान्ति, पक्षा० - विलास ) हुमा। [सुन्दरियोंको कामदेवकी शोभा होनेसे नसमें 'यह कामदेव है। ऐसा विशिष्ट भ्रम हुआ तथा उनके प्रति कामामिलाष होनेसे कटाक्षादिरूप विलास हुभा / लोकत्रयोत्पन्न सु-दारियोंको विभ्रम होना सामान्य रूपसे कहने के कारण पतिव्रता लियोको नलके प्रति कामामिलाष नहीं होने पर भी कोई दोष नहीं होता, अथवा-'लोकप्रयोत्पन्न मन्दारयोंको कामदेवकान्तिसे ही उस राजा नलमें कामदेव का विशिष्ट भ्रम 1. 'मत्र पुच्छविलालनच्छलशम्दनापह्नता वालवालयोरभेदाध्यवसायेन बालचा पछत्वारोपादपह्नवभेदः' इति जीवातुः, इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। हुआ तथा पतिव्रतामों के अतिरिक्त स्त्रियोंके चित्तमें नल के प्रति कामामिलाप होनेसे विलास हुआ' ऐसा अर्थ कर उक्त दापका निराकरण करना चाहिए / नल कामदेवके समान सुन्दर थे ] / / 26 // निमोलनभ्रंशजुषा दशा भृशं नियोय तं यत्रिदशीभिरजितः / अमुस्तमभ्यासभर विवृण्वते निमेषनिःस्वरधुनापि नाचने: / / 27 / / निमीलनेति / त्रिदशीभिः सुराङ्गनाभिः निमोल नभ्रंशजुषा निर्निमेषयेत्यर्थः / इशा नयनेन तं नलं भृशम् भतिमात्र निपीय सतृष्ण दृष्टवेत्यर्थः। यः अभ्यासमर: अभ्यासातिशयः कृतः, अमूविरश्यः देण्या अधुनापि निमेषनिःस्वैः निमेषशून्यैः लो वनैः तम् अभ्यासमरं विवृण्वते प्रकटयन्ति / तासां स्वाभाविकस्य निमेषा. भावस्य तारशनिरीक्षणाभ्यासवासनया तस्वमुत्प्रेषयते // 27 // देवागनाओंने निमेषरहित दृष्टिले उस ( नरू ) को अच्छी तरह देखकर जिस अभ्या. साधिक्यको सम्पक प्रकारसे प्राप्त किया, उस अभ्यासाविषयको वे ( देवाङ्गनाएँ ) मा मो निमेषरहित नेत्रोंसे प्रकट करती हैं [ देवाङ्गनामों के स्वतःसिद्ध निमेषामावको नलदर्शनके अभ्यासाधिक्यसे एत्पन्न होनेको उत्प्रेक्षा की गयी है। अधिक अभ्यस्त कार्यका बहुत समयके बाद मो विस्मरण नहीं होना स्वमावसिद्ध है ] // 7 // अदस्तदाकणि फलाढथ नावितं हशाद्वयं नस्तदवीशि चाफलम् / इति स्म चक्षुःश्रवां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हुदा तदात्मनः / / 28|| ____ अद इति / चतुःश्रवसा नागानां प्रियाः पन्य इत्यर्थः / अदः इदं नोऽस्माकं इशोश्चक्षुषायं तं नलम् आकर्णयतीति तदाकर्णि तद्गगावीत्यर्थः, तासां चतु: श्रवत्वादिति भावः / अत एव फलाढय जावितं सफल जीवितम् / न वीदते इत्यवीति, अधोभपोस्ताच्छाप्ये णिनिः / तस्य नलस्य अाति तदवीधि तददीत्यर्थः / अत एव अफल्म, इति हेताः / तदा तस्मिन् काले भास्मना स्वेन हृदा मनसा नले नल. विषये स्तुवन्ति प्रशंपन्ति निन्दन्ति कुस्मयन्ति च / अतिशयोक्तिरलङ्कारः // 28 // 'हमलोंगोंके ये दोनों नेत्र उस ( नल के चरित मादि ) क' सुनकर मकर जीवनवाले हो गये किन्तु उस ( नल ) को देख नहीं सके' इस प्रकार चक्षुःश्रवा (सोपों ) को प्रियायें अर्थात् नागाङ्गनाएँ हृदयसे क्रमशः माने दानों नेत्रका प्रशंसा नया निन्दा करती हैं। ( नागनाएँ नेवासे ही सुनने के कारण नल चरितको मुनकर अपने नेत्रोंका हृदयसे प्रशंसा करती है और स्वयं पाताल में रहने के कारण मर्त्यलोकवासी नलको नहीं देखनेसे उन नेत्रोंको निन्दा भी करती हैं ) // 28 // विलोकयन्तोभिरजनभावनाबलादमं तत्र निमोलनेष्यपि / अलम्भि माभि'मुख्य दर्शने न विनले शाऽपि निमेषनिर्मितः / / 26 | विलोकयन्तीभिरिति / अजनभावनाबला निरन्तरध्यानप्रभावात् अमुं नलं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / तत्र भावनापामिति भावः / निमीलनेषु अपि निमेषावस्थासु अपि विकोकयन्तीभिः उन्मेषावस्थायामिव साक्षात् कुर्वतीभिः माभिः मानधीभिः अमुल्य मलस्य दर्शने निमेषनिर्मितः नेमिमीलनमनिता विग्नशोऽपि अन्तरायलवोऽपि न अकम्भिन प्राप्तः / 'विभाषा पिण्णमुलोः' इति मुमागमः / मानव्यः हरिगोचरं या मष्टिगो. चरशतं मनसा सततं पश्यन्ति स्मेति भावः / अतिशयोक्किरलकारः // 29 // सतत मावनावश नेत्रोंको बन्द करने पर भी इस नरूको देखती हुई मांगनाओं ( मृत्युलोकवासी सुन्दरियों ) ने इस (नल ) को देखनेके विषय, निमेषकत ( पटक गिरनेसे ) लेशमात्र मी विघ्नको महीं प्राप्त किया। [मानवी स्त्रियाँ निरन्तर नरूको ही भावना करती थी, अतएव वे पलक गिरनेसे नेत्रों के बन्द होने पर भी सतत भावनावश नक. को देखती ही थीं, इस प्रकारसे नलको पलक गिरनेसे मी नको देखनेमें लेशमात्र मी विघ्न नहीं हुआ ) // 29 // न का निशि स्वप्नगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्खलिते च का न तम् ? / तदात्मताभ्यातधवा रते च का चकार वा न स्वमनोमयोद्भवम् ? // 30 // नेति / का नारी निशि रात्रौ तं नलं स्वप्नगतं न ददर्श ? सधैव ददशेस्यर्थः / का च गोत्रस्खलितेषु नामस्खलनेषु तं न जगाद स्वभर्तृनाग्नि उच्चरितम्ये तमाम न उचरितवती अपितु सर्वव तथा कृतवती इत्यर्थः / काच रते सुरतण्यापारे तदात्मा 'तया नलाग्मतया ध्यातः चिन्तितः भवः भर्ता यया तथाभूता 'धवः प्रियः पतिर्मत'. त्यमरः / स्वस्य आरमनः मनोमवः कामः तस्य उद्भवः तं वा न चकार ? अपितु सर्वैव तया चकारेत्यर्थः / अतिशयोक्तिरलारः // 30 // (अब पतिव्रतामों को छोड़कर अन्य मुग्धा, मध्या. तथा प्रगश्मा खियोका नसमें अनुराग कहते हैं-) किस ( मुग्धा ) स्त्रीने स्वप्नमें प्राप्त नलको नहीं देखा ? अर्थात सबने देखा, किस ( मध्या ) स्त्रीने गोत्रस्खलन (पतिके नामके स्थानपर भ्रमवश पुरुषान्तरका नामोचारण होने ) में नसके प्रति नहीं कहा अर्थात् सपने अपने पतिका नाम लेने की इच्छा रहते हुए भी निरन्तर नरूकी भावना करते रहनेसे नसके ही नामका उच्चारण किया और नकरूपसे पतिका ध्यान करनेवाली किस ( प्रगल्मा ) स्त्रीने रतिकाल में अपने में कामको उत्पत्ति ( रति ) नहीं की ? अर्थात सबने की // 30 // श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीभितुं करे तमालोक्य सुरूपया धृतः / विहाय भैमीमपदर्पया कया न दर्पणः श्वासमलीमसः कृतः ? / / 31 / / श्रियेति / तं नलम् आलोक्य दृष्ट्वा श्रिया सौन्दर्येण अहमस्य नलस्य योग्याअनु. रूपाइति धियेति शेषः स्वम् भात्मानं स्वावयमित्यर्थः। ईपितुं द्रष्टुं करे इतः। गृहीतः दर्पणः भैमी भीमनन्दिनी दमयन्तीमित्यर्थः / विहाय विनेत्यर्थः कया सुरूपया शोभनरूपवती हमित्यभिमानवत्या नार्या अपदर्पया वर्षशून्यया सरमा श्वासन दुःख Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 प्रथमः सर्गः। निश्वासेन मलीमसः मलदूषितः 'मकीमसन्तु मलिनं कपरं मखदूषितमित्यमरः / न कृतः 1 अपितु सर्वथैव कृत इत्यर्थः। सौन्दर्यगर्विताः सर्वा एष भैमीय. तिरिक्ताः कामिन्यः तमवलोक्य अहमेवास्प सरशीत्यभिमानाय करतो भारमानं निर्वर्ण्य माहमस्य योग्येति निमयेम विषण्णाः कदुष्णनिधासेन त बर्षणं मलिनयन्ति स्मेति निष्कर्षः // 31 // ___ ( अब अन्य सियोंकी नकके अयोग्य बतलाते हुये दमयन्तीका प्रसा उपस्थित करते है- ) नलको ( चित्र में ) देखकर 'शोमासे मैं इस ( नल ) के योग्य है ( ऐसा मन विचार कर अपने को देखनेके किये हाथमें पकड़े गये दर्पणको, दमयन्तीके अतिरिक्त सौन्दयो मिमानरहित किस सुन्दरीने श्वाससे मल्लिन नहीं कर दिया 1 अर्थात समीने किया। [ सुन्दरियोंने नलको चित्र देखकर उनके योग्य मैं मी सुन्दरी हूँ १५सा सोचकर हाथमें दर्पण ग्रहण किया, किन्तु दर्पणों में अपने सौन्दर्गको नकसे तुम देखकर सनका पूर्वाभिमान नष्ट हो गया तथा दमयन्तीके अतिरिक्त खेद से श्वास लेती हुई सभी सही हो ने उस दणको मैका कर दिया ] / / 31 / / यथोह्यमानः खलु 'भोगभोजिना प्रसाद वैरोचनिजस्य पत्तनम् / विदर्भजाया मदनस्तथा मनोऽनलावरुद्धं वयसैष वेशितः / / 32 / / एवमस्यालोकिकसौन्दर्य द्योतनाय स्त्रीमानस्य तदधुरागमुक्या सम्पत्ति समय स्यास्तत्रानुरागं प्रस्तौति-यथेति / मनः कामः प्राग्न इति यावर मोगमोजिला सर्पशरीराशिना वयसा पक्षिणा गरसेनेत्यर्थः / उपमान: मीयमानः, यह कमगि यकि सम्प्रसारणे पूर्वरूपम् / अनावम भग्निपरिधेष्टितं विरोचनस्व अपत्यं पुमान् वैरोचनिः बलिः तजस्य तापुनस्य बाणासुरस्योपर्यः / पत्तनं शोणितपुरमिति या. वत / प्रसश सहसा यथा वशितः खलु प्रवेशित एव, 'ततो गाम्माहा स्मृतपात्रामात हरिः'। उषाहरणे विश्णुपुराणात् / तथा नलावरुद्धं नलास विभकाया मयन्त्या मनः भोगमोजिना सुख भोगासप्ते नेत्यर्थः, वयसा यौवनेन उद्यमानः परस्तम्ममाग अहेवि तार्थात कर्मणि यक। वेशितः प्रवेशितः। 'भोगः सुखे ध्याभृितावस फणकाय योरि'त्यमरः। पुरा उषानाम्नी बाणदुहिता स्वप्ने प्रद्युम्नपुत्रनिरुवा सुप्तप्रतिबुदा सहचरी चित्रलेखामवदत् / सा च योगवलेन तस्यामेव रात्री द्वारकामा प्रसुप्तनिरद्ध विहायसा समानीप तया समगमयत्। कालेन नारदमुपाद तपाइय कृष्ण प्रघम्नबछरामाभ्यां बहुभिर्बलेच गवा माण नगरमौरसीदिति कथा अनानु. सन्धेया / यथोद्यमानो नलावरुद्धमिति शम्दश्लेषः। तदनुप्राणिता रुपमा च, 1. 'मागिमोजिना हात पाठान्तरम् / 2. मत्र म० म शिवदत्तशर्माण:-'म यथोषमानो मनोनल इति शमश्लेषः / अन्यप्रार्थश्लेषः / दिलष्टविशेषणा चेयमुपमा। सा च वयसेति वयसोरभेदाध्यवसायमूहातिशयो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 साच वयसेति वयसीरभेदाध्यवसाय मूलातिशयोक्तिपूला चेत्येषां परः // 32 // (अब न कमें दमयन्तीके मनोमिलापका वर्णन करते हैं- ) जिस प्रकार मर्पमझो पक्षो अर्थात् गरड़मे ढोया जाता हुमा प्रद्युम्न बलपूर्वक विरोवन-पोत्र ( अर्थात् बल. पुत्र बाणासुर ) के पग्निसे व्याप्त ( शोणितपुर नामक ) नगरमें प्रविष्ट हुआ था, उसो प्रकार मोग-विलासकारो यौवन अवस्थामे प्रात कामदेव ( कथाप्रमों में तथा वन्दिवारणादिके मुखसे सुने गये एवं चित्रादिमें देखे गये ) नलसे माकान्त अपार आकृष्ट दमयन्तीके मन में प्रविष्ट हुमा॥ 32 // पौराणिक कथा-बलिपुत्र बाणासुर को पुत्रो 'उषा' ने स्वप्न में प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धको देखकर नागने के बाद स्वप्नत्तानको 'चित्रलेखा' नामकी अपनी सखीसे कहा। योग. पण्डिता चित्रलेखाने उसो रातको योगबल से द्वारकापुरामें जाकर सोते हुए अनिरुद्धको लाकर उसके साथ सनम करा दिया। कुछ समयके बाद नारद मुनिसे बागार के द्वारा अनिरुद्धके रोके जाने का समाचार पाकर अनिरुद्धक' छुड़ाने के लिए राम तथा प्रद्युम्नके साथ श्रीकृष्ण भगवान् गाड़पर चढ़कर शोणितपुर नामको बाणासुरको अग्निरिवेष्टित नगरीमें गये / यह कथा विष्णुपुराणमें है। नृपेऽनुरूपे निजरूपपम्पदा दिदेश तस्मिन् बहुशः अति गते / विशिष्य सा भोमनरेन्द्रनन्दना' मनोभवाझंकवशंवदं मनः / / 33 / / इह विरहिणां चतुःप्रीत्यादयो दशावस्थाः सन्ति, तत्र चतुःप्रीतिः श्रवगानुराग. स्याप्युपलसगमतस्तरपूर्षिका मनःसनास्यां हितोयामवस्थामाह-नृप इत्यादि। सा भीमनरन्द्रनन्दना दमयन्ती नन्दादिस्वायुप्रत्ययः। निजरूपसम्पदा स्वला: वष्यसम्पत्तो नामनुरूपे बहुशः। 'बहपाज्छस्कारकादायतरस्यामि'यादानार्थ शस्प्रत्ययः। श्रुति श्रवणं गते एतेन श्रवगानुराग उकः, तस्मिन् नृपेनले मनो. भवाज्ञाया एकं वशंवदम् एकस्यैव विधेये शिवभागवनवत् समासः / 'प्रियवशे वरःख' 'अरुषिदित्यादिना तस्य मुम् / मनो विशिष्य दिदेश अस्येदमिति राजाधिराज मीम की पुत्री ( दमयन्ती ) ने ( चारण-वन्दो आदिके मुखसे एवं कथादि. प्रसाने ) अनेक बार सुने गये तथा अपनी रूप-सम्पत्तिके योग्य उस राजा (नक ) में मनको विशेष रूपसे कामाशाका वशंवद बना दिया अर्थात् दमयन्तोका मन उक्तरूप नलमें कामके वशीभूत हो गया // 33 // उपासनमित्य पितुस्स्म रज्यते दिने दिने सावसरेषु वन्दिना / पठत्सु तेषु प्रति भूमनोनलं विनिद्रामाजनि शृण्वती नलम् / / 34 / / त्यनुप्राणितेति सङ्करः' इति जीवातुः, इत्याहुः / 1. '-नन्दिनी' / इति पाठान्तरम् / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः अथास्याः श्रवणानुरागमेव चतुभिर्वर्णयनि-उपासनामिम्बादि। सा भैमी दिने दिने प्रतिदिनं 'नित्यकीप्सयोरिति वीप्तायां द्विर्भावः / वन्दिना स्तुतिपाठकानाम. वसरेषु पितुरुपासना सेवामेश्य प्राप्य तेषु वन्दिषु भूपतीन् प्रति भूपतीनुहिश्य पठ. रसु सरिस्वति शेषः / नलं शृश्वती अलं रज्यते स्म रक्ताऽभूदित्यर्थः / रनेद वादि. कालट। अतएव विनिदरोमा रोमाञ्चिता अजनोति सात्विकाक्तिः। जनेः कत्तरि लुङ 'दीपजने'त्यादिना उलेश्चिमादेशः। नलगुणश्रवणजन्यो रामस्तस्य रोमान व्यकोऽभूदिति भावः // 34 // (भब चार ( 1134-17 ) श्लोकों में दमयन्तीके नल-विषयक श्रवणनुराग नामक सात्विक मावका वर्णन करते हैं- ) वह दमयन्ती पिताको सेवामें उपस्थित होकर प्रतिदिन वन्दियोंके (नृपस्तुतिके ) भवसरोंमें अनुरक्त होती थी तथा उनके प्रत्येक राबाभोंकी स्तुति करते रहनेपर नल ( की स्तुति ) को सुनती हुई (हर्षाधिक्य के कारण ) रोमानयुक्त हो जाती थी // 34 // कथाप्रसङ्गेषु मिथस्सखीमुखात्तणेऽपि तव्या नलनामनि श्रुते / द्रुतं विधूयान्यदभूयतानया मुदा तदाकर्णनसजकर्णया / / 35 / / कथेति / मियोऽन्योऽन्यं रहसि कथाप्रसङ्गेषु विस्त्रम्भगोष्ठीप्रसङ्गेषु सखीमुखा. बलनामनि नलास्ये तृणे श्रुते पति 'नला पोटगले राज्ञी'ति विश्वः। अनया तन्व्या दमयन्त्या द्रुतमन्यत् कार्यान्तरं विधूय निराकृत्य मुदा हर्षण तदाकर्णने नलशब्दा. कर्णने सजकर्णया दत्तकर्णया अभूयत अभावि / 'भुवो भावे' ला। अर्थान्तरप्रयु. कोऽपि नलशब्दो नृपस्मारकतया तदाकर्षकोऽभूदिति रागातिशयोक्तिः // 35 // ___ मापसमें बातचीत के अवसरों पर सखीके मुखसे तृण-( नरसल ) के विषयमें भी 'न' का नाम सुनकर कृशाङ्गी ( वह दमयन्तो ) तत्काल अन्य कथा (या-कार्य ) छोड़कर ( 'यह सखी मेरे प्रियतम 'नल' की चर्चा कर रही है। ऐसे जानकर ) उस कथाको सुनने में कानोंको सावधान कर लेती थी अर्थात् उस सखी-वणित नक-चर्चाको ही सावधान होकर सुनने लगती थी // 35 // स्मरात्परासारनिमेषलोचनाद् बिभेमि तद्भिन्नमुदाहरेति सा। जनेन यूनः स्तुवता तदास्पदे निदर्शनं नैषधमभ्यषे वयम् / 36 // स्मरादिति / परालोमृतात् अत एवानिमेषलोचनान्निश्चलाक्षादेवादिति च गम्यते / उभयथापि भयहतूक्तिः / तस्माद्विभेमाति तद्भिनं ततोऽन्यमुदाहरति तरस शं निदर्शयेत्याह सा दमयन्ती यूनः “तुवता जनेन प्रयोगको तदारपदे स्मर. थाने निदर्शनं दृष्टान्तं नैषवं निषधानां राजानं नलं जनपदादावत्रिया' / अभ्यषेचयत् स्मरस्य स्थाने तरसहश एवाभिवतुं युकः / स च नलादयी नास्तीति Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / तस्मिन् नळ उदाहतेऽनुतर्ष शृणोतीति रागातिरेकोतिः। 'उपसर्गात सुनोती त्यादिना मण्यवायेऽपि वयम् // 36 // _ 'मरे हुए (अत एव ) निमेष-हीन नेत्रवाले कामदेव से मैं बरती हूँ, इस कारण दूसरा सदाहरण दो' ऐसा कहकर उस दमयन्ती ने तरुणको प्रशंसा करते हुए (सखी, याबन्दी ) लोगों के द्वारा कामदेव के स्थानपर नकको अभिषित कराया। [कामदेव देवता होनेसे निमेषहीन है, उसे यहाँ मरा हुमा कहकर निमेष-दोन होने तथा उससे डरनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है, क्योंकि मरे हुए व्यक्तिका नेत्र मी निमेष-हीन हो जाता है तथा उससे लोग करते मी है। अथ च-जब कोई राजा भादि विशिष्ट व्यक्ति मर जाता है, तब उसके स्थानपर नये विशिष्ट व्यक्तिका अभिषेक कर स्थापित किया जाता है, यहाँ मृत कामदेवके स्थानपर नलको मिषिक्त कर स्थापित किया गया है। किसी तरणकी प्रशंसा करते हुए लोग अब सुन्दरतामें उसके साथ कामदेवकी उपमा देते थे, तब वह दमयन्ती उक्त प्रकारसे डरनेकी बात कहती थी और वे लोग कामदेवके समान दूसरे किसीके नहीं होनेसे उस युवकके साथ नमकी उपमा देते थे] // 36 // नलस्य पृष्टा निषधागता गुणान् मिषेण दूतद्विजवन्दिचारणाः / निपीय तत्कीतिकथा'मथानया चिराय तस्थे विमनायमानया // 30 // नलस्यति / निषधेभ्य भागता दूताः सन्देशहराः, हिना प्राह्मणाः, वन्दिनः स्तावकाः चारणा देशभ्रमणजीविनः ते सर्वे मिषेण म्याजेन नलस्य गुणान् पृष्टाः पृच्छतेदुंहादिस्वाद प्रधाने कर्मणि क्तः। अथ प्रश्नानन्तरमनया भैम्या तरकीर्तिकथां नलस्य यशकथामृतं निपीय नितरां भ्रस्वेत्यर्थः। चिराय धिमनायमानया विमनीभवस्या भृशादिस्वारस्यङि सलोपश्च 'मकरसार्वधातुकयोः ' ततो लट: शानजादेशः। तदा तस्थे स्थितं तिते वे लिट / अयन दूतादिग्यवधाने गुणकीर्सनलक्षणः प्रलापाग्यो रत्यनुभवः // 37 // निषध देशसे भाये हुए दूतों, ब्राह्मणों, वन्दियों तथा चारणोंसे वह दमयन्ती ( उस देशका राजा कौन है ? प्रनापालन कैसा करता है ? उसमें कौन-कौन गुण है ? इत्यादि) बहानेसे नसके गुणों को पूछती थी (इसके बाद उनसे वर्णित ) नसकी कीर्ति-कथा ( पाठा कीर्ति-अमृत ) को अच्छीतरह पानकर अर्थात् सुनकर ( ऐसे अत्यधिक सदगुणोंसे युक्त रामा नलको मैं किस प्रकार प्राप्तकर सकूगी ? इस भावनासे ) चिरकालतक उदासीन रहती थी [ अथवा-(ऐसे अत्यधिक सद्गुणसम्पन्न राजा नलके प्रति मेरा अनुराग हुमा है, अत एव उन्हें पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगी, इस भावनासे ) चिरकालतक आनन्दित होती थी / इस अर्थमें 'तस्थे+ अविमनयमानया, पदच्छेद करना चाहिये ] // 37 / / प्रियं प्रियां च त्रिजगज्जयिश्रियो लिखाधिलीलागृहभित कावपि / 1. '-सुधा-' इति पाठान्तरम् / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। इति स्म सा कारतरेण लेखितं नलस्य च स्वस्य च सल्यमीक्षते / / 3 / / प्रतिकृतिस्वप्नदर्शनादयो विरहिणां विनोदोपायाः, अथ तस्कयममुखेन दर्शना नुरागशास्या दर्शयन् प्रतिकृतिदर्शनं तावदाह-प्रियमिति / सा भैमी त्रीणि जगन्ति समाहृतानि त्रिजगत् / समाहारो द्विगुरेकवचनम् / तस्य जयिनो लोकत्रयविश्वरी श्रीः शोभा ययोस्तारशी कापि प्रियं प्रियाञ्च ती अधिलीछागृहमित्ति विलासवेश्म. कुडये विभक्त्यर्थेऽम्ययीभावः / लिखेत्युको कारुतरेण शिल्पिकाण्डेन प्रयोज्येन लेखितं नलस्य च स्वस्य च सव्यं रूपसाम्यापादनम ईसते स्म // 38 // (अब दर्शनानुरागके वर्णन प्रसङ्गम प्रतिकृति-दर्शनका वर्णन करते है-) वह दमयन्ती, 'गेकत्रय बियिनी सुन्दरतावाले किसी प्रिय तथा प्रिया अर्थात् सी पुरुषको विलासगृहकी दिवाळपर बिखो' ऐसा कहने पर चित्रकारसे लिखे गये अपने तथा नलके रूप-साम्यको देखती थी। [ उक्त कथनसे पुरुषों में नलकी तथा बियों में दमयन्तीकी सुन्दरताका तीनों लोकों में सर्वाधिक श्रेष्ठ होना सचित रोता है ] // 38 // मनोरथेन स्वपतीत नलं निशि क सा न स्वपती स्म पश्यति / अदृष्टमप्यर्थमदृष्टवैभवात्करोति सुप्तिर्जनदर्शनातिथिम् / / 3 / / मनोरथेनेति / मनोरथेन सङ्करुपेन स्वपती कृतं स्वमतृकृतं नसम् अभूततद्भावे. ध्वौ दीर्घः / स्वपती निद्राती सा दमयन्ती क निशि कुन रात्री न पश्यति स्म? सर्वस्यामपि रात्रौ दृष्टवती। तथा हि सुप्तिः स्वप्नः अदृष्टम् अत्यन्ताननुभूतमप्यर्थ किमुत मिति भावः / श्वेभवात् प्राक्तनभाग्यबलात् जनदर्शनातिथि कोकरष्टिगोचरं करोति, तदत्रापि निमित्तादहष्टात्ताहक स्वप्नज्ञानमुपसमित्यर्थः / सामान्य न विशेष. समर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 39 // सोती हुई वह दमयन्ती ममिलापके द्वारा अपने पति बनाये गये नसको किसी रातमें नहीं देखती थी ? अर्थात प्रत्येक रातमें वह नरूको स्वप्न में देखती थी, क्योंकि स्वप्न पहले नहीं देखे गये पदार्थको भी पूर्वजन्मकी मावनासे मनुष्यको दिखला देता है। [ यद्यपि दमयन्तीने नलको पूर्व श्लोक (1138 ) के अनुसार चित्रादिमें देखा था, तथापि प्रत्यक्षमें नहीं देखने के कारण इस इलोकके उत्तरार्द्धके साथ कोई विरोध नहीं होता ] // 39 / ! निमीलितादभियुगाच निद्र या हृदोऽपि बाह्यन्द्रियमौनमुद्रितान् / अदर्शि संगोप्य कदाप्यवीक्षितो रहस्यमस्यास्स महन्महीपतिः // 40 // निमीलितादिति / निद्रया प्रयोजिकया निमीलितान्मकलितादुपरतव्यापारा. दित्यर्थः, चियुगाच तथा बाह्येन्द्रियाणां चक्षुरादीनांमौनेन व्यापार राहित्ये न मुदि. तात्प्रतिष्टधात , मनसो हिरम्यानच्यादिति भावः / हृदो हृदयादपि सनोप्य गोप यित्वेत्यर्थः, 'अन्तौं येन दशमिच्छुती'यमियुगमन सोरपादानस्वम् / अदर्शनं चात्र मनसो बाद्येन्द्रियमौनमुद्रितादिति विशेषणसामादिन्द्रियार्थसंप्रयोगमन्यज्ञान Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेषघमहाकाव्यम् / विरह एवेति ज्ञापते, स्वप्नज्ञानं तुमनोजन्यमेव। तदजन्यज्ञानमत्याह-कदाप्यवी. क्षित इति / अत्यन्तावर इत्यर्थः, महदहस्यमतिगोप्यं वस्तु स महोपतिनलः / अस्या भन्या अदर्शि दर्शयानके, शेय॑न्तात् कर्मगि लुङ्गा तथा काचिच्चेटी कस्यै. चित्कामिन्य कान कान्त सगाप्य दर्शयति तद्वदिति धनिः // 40 // निद्राने बन्द हुए नेत्रदयसे तथा बाह्येन्द्रिय ( नेत्रदय, या-अन्यान्य नेत्र-कर्णादि इन्द्रियों के अपने विषयको ग्रहण करने (देखने या-देखने, सुनने आदि ) के मौन होनेसे बन्द अर्थात् अपने विषयोंको सोनेके कारण ग्रहण नहीं करते हुए हृदयमे मी छिपाकर, कमी नहीं देख गये अतिशय रास्यरूप प्रसिद्धतम राजा नलको इस दमयन्ती के लिए दिखला दिया। [मिस प्रकार किसो अदृष्टचर अद्भुत रहस्यको कोई आप्त व्यक्ति दूसरोंसे छिपाकर किसो एक आप्ततम व्यक्तिके लिए दिखला देता है, या कोई सुचतुरादूती किसी प्रियतम नायकको दूसरोंसे छिपाकर नायिकाके लिए दिखला देतो है उसी प्रकार निद्राने मी कमी नहीं देखे गये एवं अतिशय रहस्यभूत उस प्रसिद्धतम राजा नको उत्तरूप नेत्रदय तथा हायसे मी छिपाकर दिखला दिया अर्थात् दमयन्ती ने नलको स्वप्नमें देखा; किन्तु उसके नेत्रदयको तथा बाह्येन्द्रिय क्रियाशुन्य हृदय को मी पता नहीं लगा ] ( सुषुप्ति अवस्था मनके व्यापारशून्य होनेसे दमयन्तोको किस प्रकार शान हुमा ? इसका उत्तर यह है कि स्वप्न के पदार्थ बाह्येन्द्रियों से ग्राम नहीं है, अतएव वे बाह्य भी नहीं है, तथा सुखादिके अन्तर्गत नहीं होनेसे श्राभ्यन्तरिक मी नहीं है। कारण अदृष्टसाकृत केवल अविषावृत्तिरूप सुषुप्ति के विषय हैं अतएव उस सुषुप्ति अवस्थामें मात्माका ही दर्शन होता है, क्योंकि भात्मरूपसे सर्वदा स्फुरण होने में कोई बाधा नहीं है। अथवा-नकमें मो दमयन्तीका अनुराग होनेसे उनकी प्राप्तिके विना विषयमात्र से वैराग्य होने के कारण सुखकी सम्मावना नहीं होती, और सोकर जगने के बाद मैं सुखपूर्वक सोया, कुछ मी मालूम नहीं पड़ा' ऐसे अनुभवके होनेसे नकके दर्शनके बिना दमयन्तीको वैसा अनुभव नहीं हो सकता था अतएव सुषुप्तिके बाद दमयन्तीने 'मेरे मन में निरतिशयानन्दरूपसे वे नरू ही स्फुरित हुए' ऐसा नाना।) [ अब इस श्लोकका दूसरा अर्थ करते हैं-निद्रानन्य मशानसे परस्तुति में मौन हृश्यहोन अथात् मूखसे और कलियुगसे बहिर्भूत, अत्यन्त गोप्य लक्ष्मीवाले तथा मानके योग्य है नक ! विष्णु-मक्त के सहवासवाले, दुःख देनेवाले ( दुष्टों ) से नहीं देखें गये अर्थत् दुर्जन संसर्गसे वर्जित (अश्व ) नित्य उत्सवबाले तुम मेरे पति होवो / पूर्व जन्ममें नल हो दमयन्तोके पति थे, इन्द्रादि पति नहीं थे, अतएव इन्द्रादिका त्याग कर दमयन्ती को नलसे ही उक्त रूप प्रार्थना करना उचित था ] // 40 // अहा अहाभिर्महिमा हिमागमेऽप्यतिप्रपेदे प्रति तां स्मरादिताम् / तपर्तुपूर्तावपि मेदसा भरा विभावरोभिर्विभरांबभूविरे / / 41 / / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 24 अथास्याश्चिन्ताजागरावाह-अहो इति / हिमागमे हेमन्तेऽपि स्मरादितां तां दमयन्ती प्रति अहोभिदिवसैः तिमहिमा अतिवृद्धिः प्रपेदे तथा तप पूर्तावपि. ग्रीष्मान्तेऽपि विभावरीभिनिशाभिः मेदसा भरा मांसराशयोऽतिवृद्धिरिति यावत् / विराम्बभूविरे बभ्रिरे, भृक्षः कर्माण लिट भामप्रत्ययः / अहो आश्वय्य शास्त्रविरो. धादनुभवविरोधाच्चेति भावः / विरहिणां तथा प्रतीयत इत्यविरोधः, एतेनास्या निरन्तरचिन्ता जागरश्च गम्यते / अहोशब्दस्य 'मोदिति प्रगृह्यत्वात् प्रकृतिभावः // कामपीडित उस दमयन्तीके लिए हेमन्त ऋतुमें भी दिन बड़े होने लगे तथा ग्रीष्म ऋतुकी पूर्णता होने पर मी रात्रियां बड़ी हो गयीं, यह आश्चर्य है। (हेमन्त ऋतुम दिन तथा ग्रीष्म ऋतुमें रात्रि पर्याप छोटी होती थी, तथापि कामपीडित उस दमयन्तीके लिए वे बड़ी प्रतीत होती थीं) // 41 // स्वकान्तिकीतिब्रजमौक्तिव सज: अयन्तमन्तर्घटनागुणश्रियम् / कदाचिदस्या युवधैर्यलोपिनं नलोऽपि लोकादशृणोद् गुणोत्करम् // 42 // __स्वेत्यादि / अथ नलोऽपि स्वस्य कास्या सौन्दर्येण याः कीर्तयः तासां व्रजः पुक्ष एव मौलिकमक मुक्काहारः तस्या अन्तः अभ्यन्तरे घटनागुणश्रियं गुम्फनसू अलक्ष्मी श्रयन्तं भजन्तं युवधैर्यलोपिनं तरुणचित्तस्थैर्यपरिहारिणम् अस्या दम. यस्या गुणोरकरं सौन्दर्यसन्दोहं लोकादागन्तुकजनात अशृणोत् / अत्र कीतिब्रज गुणोरकरयोर्मुक्काहारगुम्फनसूत्रस्वरूपणाद्पकालधारः // 42 // (मथ दमयन्ती-विषयक नलानुरागका वर्णन करते हैं-) अपने अर्थात् दमयन्तीके (या-नरूके) सौन्दर्य-विषयक कीति-समूहरूप मोतियों की मालाके योचमें (या-नल के मन में ) [यनेवाले धागेकी शोमाको प्राप्त करते हुए तथा युवकोंके धैर्यको नष्ट करने वाले इस दमयन्तीके गुण-समुहको किसी समय नलने भी लोगोंसे सुना। [सौन्दर्यकीर्तिके शुभ्र होने से उसमें मोतीकी कल्पना की गयी है। मुक्तामालाको गूंथने के लिए बीचके धागेके समान जो दमयन्तीके गुण-समूह थे, वे नल के चित्तमें मालाके समान गुम्फित हो गये / नरुने दमयन्तीके गुण-समूहको लोगोंसे सुना ] // 42 // तमेव लब्ध्वावसरं ततः स्मरश्शरीरशोभाजयजातमत्सरः / अमोघशक्त्या निजयेव मृतया तया विनिमये नैषधम / ४शा अथास्य तस्यां रागोदयं वर्णयनि-तमेवेति / ततो गुणश्रवणानन्तरं शरीरशो भाया देहसौन्दर्यस्य जयन जातमत्सरः उत्पन्नवरः स्मरः तमवावसरमवकाश लच्या मूर्तया मूर्तिमन्या नजया अमोघशक्तयेव अकुण्ठितसामने वेत्युत्प्रेक्षा। तया दमयन्त्या नैषधं नलं विनितुमियष इच्छति स्म, रयान्वेषिगो हि विद्वेषिण इति भावः / तेन रामोदय उक्तः // 43 // तदनन्तर ( नरूको शरीर-शोभादारा अपनी ) शरीर-शोमाके जीते जानेसे मात्सर्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / युक्त कामदेव ने उसी अवसरको पाकर शरीरिणी अपनी समोष शक्तिके समान उस (दमयन्ती ) से नको जीतना चाहा। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी प्रबळ भ्यक्तिसे पराजित होकर उसके साथ देष करता हुआ अवसर पाकर अपनी बमोष शक्ति से उसे पराजित करने की इच्छा करता है ] // 43 / / अकारि तेन श्रवणातिथिर्गुणः क्षमाभुजा भीमनृपात्मजाभितः / तदुच्चधैर्यव्ययमंहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः ||4|| अकारीति / तेन क्षमाभुजा नलेन भीमनृपात्मजायाः दमपस्याः भितः गुणः तदीयः सौन्दर्यादिः श्रवणातिथिः श्रोत्रविषयः अकारि कृतः श्रुतः इत्यर्थः। करोते: कर्मणि लुङ / तम्य नहस्य उपचधैर्यव्ययाय उच्चधैर्यनाशाय संहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मनः शरासनाश्रयः चापनिष्ठो गुणो मौर्वी श्रवणातिथिरकारि आकर्ण कृष्ट इत्यर्थः / दमयन्तीगुणश्रवणामलमनसि महान् मदनविकारः प्रादुर्भूत इस्पर्थः / अत्रोक्तवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकं कायलिशमलकारः // 14 // ___ उस राजा (नल) ने मोमनन्दिनी / दमयन्तो ) के मामित गुणोंको कान तक पहुँचाया अर्थात दमयन्तीके गुणों को सुना तथा उस (न) के अत्यधिक धैर्यको नए करनेके लिए बाण चढ़ाये हुए कामदेवने प्रत्यत्राको अपने कानतक खींचा। [दमयन्तीके गुणों को सुनकर हो कामपीड़ित नकका धैर्य नष्ट हो गया ] // 44 // अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी तदा खलु ज्यां विशिखेस्सनाथयन् / निमज्जयामास यशांसि संशये स्मरखिलोकीविजयार्जितान्यपि' | 45|| ___ अमुष्येति / स स्मरः साहसी साहसकारः 'न साहसमनामा मरो महाणि पश्य तीति न्यायादविलम्बी समित्यर्थः / अमुण्य धीरस्य अविचलितस्य नलस्य जयाय शारासनग्यां निजधौवीं विशिखैः शरैः सनाथयन् सनाथं कुर्वन् संयोजयविस्यर्थः, प्रयाणां लोकानां समाहारखिलोकी 'ततिायेत्यादिना समासः, 'अकारान्तोसरः पदो विगुः खियामिष्यत' इति नालिगवात 'दिगोरिति डीप / सस्य विजयेनार्जि. तानि सम्पादितान्यपि पशांसि संशये निमज्जयामास किं पुनः सम्प्रति सम्पाय. मित्यपिशब्दार्थः / पुरवपेषया अनुचितकारम्भे मूलमपि नरयेदिति संशयितवा. नित्यर्थः / अत्र स्मरस्योक्तसंशयाऽसम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोकेरतिशयोकिः // 15 // ___ उस समय पीर इस ( नल ) को जीतनेके लिए प्रत्यञ्चाको बाणोंसे मुक्त करता हुआ अर्थात प्रत्य वापर बाणोंको रखता हुआ साहसी ( अपनी शक्तिको बास्तविक बलको बिना जाने महान् धीर नलको जीतने के लिए उद्यत होनेसे विवेकहीन ) कामदेवने तीनों कोकों को बीतनेसे प्राप्त हुए अपने समस्त यशको सन्देह में डाल दिया / (कामदेव तीनों कोकों को जीतकर बो यशः-समूह पाया है, वह नरूको नहीं जीतने पर नष्ट होने 1. विषयोचिंतानि' इति पाठः साधीयान् , इति 'प्रकाश'कारः। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। जाता, बतएव ऐसे बड़े कामको करनेके लिए उबत कामदेवको साहसी कहा गया है, तथा महान् धीर नल को एक बागसे जीतना सर्वथा असम्भव होनेसे प्रत्यत्रापर भनेक पागों का चढ़ाना कहा गया है ) // 45 // अनेन भैमी घटयिध्यतस्तथा विधेरबध्येच्छत या व्यलासि तन् / अभेदि तत्ताहगनङ्गमार्गणर्यदस्य पीपैरपि धैर्यकचकम् / / 46 / / देवसहायात् पुष्पेपोरेव पुरुषकारः फलित इस्पाइ-अनेनेति / अनेन नलेन सह भैमी घटविष्यतः यो विपतो विधेर्विधातुरबन्ध्ये छतया अमोघसाल्पत्वेन यत्तस्मातथा तेन प्रकारेण बोऽग्रे वयत इति भावः / म्यलासि विकसितं लसतेर्भावे लुरू। यत् पौष्पैरपि न तु कठिमेरमसत्य न तु देहवतः मागंणेधैरपमेव कञ्चकमस्य नलस्य अभेदि भिनं, कर्मणि लुङ्। दमयन्तीनलयोस्पित्यघटनाप भननमार्गणे सधैर्यकमकभेदनाविधेरबम्ध्येच्छवं विज्ञायत इत्यर्थः, देवानुकूरुपे किं दुष्करमिति भावः। तत्रानापौष्पयोः कन्सुकं मिमिति विरोधः, तस्य विलासेनाभासीकरणाविरोधा. भासः, स च धैय्यकश्चकमिति रूपकोस्थापित इति तयोरङ्गाङ्गिभावेन सरः // 46 // जिस कारण वैसा सुप्रसिद्ध एवं दुर्भब इस नलका धैर्यरूपी कवच भनङ्ग ( कामदेव, पक्षा-शरीरशन्य प्रतिमट ) के पुष्पमय अर्थात् अतिकोमल बाणों से विदीर्ण ( नष्ट हो गया, उस कारण इस ( नल ) के साथ उस प्रकार (इन्दादि दिक्पागेका त्याग कर ) दमयन्तीका सङ्गम करानेवाले माग्यके सफल मनोरथका हो वह विलास था, ऐसा बान पड़ता है / ( अन्यथा महान् शूर-बीर नहका धैर्य शरीरहीन प्रतिभट कामदेवके पुष्पमय कोमलतम बाणोंसे कदापि नहीं नष्ट होता अर्थात् दमयन्तीके प्रति मनुरक्त होनेसे कामपीरित नरूका धैर्य कदापि मग्न नहीं होता, इससे पता चलता है कि भाग्य की इच्छाको कोई भी नहीं टाल सकता। नल दमयन्तीके गुणों को सुनकर कामपोहित होनेसे अधीर हो गये) // 46 // किमन्यदद्यापि यक्ष्मतापितः पितामहो वारिजमाश्रयत्यहो / स्मरं तनुच्छायतया तमात्मना शशाक शङ्के स न लक्ति नलः / / 47 || अथ विधिमपि बिसवतः किं विध्यपेचयेत्याशयेनाह-किमिति / किमन्यत् अन्यत् किमुच्यते, पितामहो विधिरपि तस्य स्मरस्यास्तापितः सम्तापितः अद्यापि वारिजमापति तस्य पपासनस्वादिति भावः। सर्वनीतेरपचार गम्यते, अहो विधेरपि स्मरविधेयरवमाबर्यम् / पितामहतापिनं स्मरं स नलः आत्मनस्तनोः छायेर छाया कान्तिर्यस्य तस्य भावस्तत्ता तया तनुच्छापतया तनोश्छापा अनात पस्तनु. पछाया तत्तयेति गम्पते 'छाया वनातपेकान्ताविति'वनयन्ती। लहितुं न शशाक इत्पहं शक्के, न हि स्वच्छाया लखितुं शक्या इति भावः। अत्र स्मरलने पितामहो. ऽप्यशकः किमुत नळ इत्यर्थापत्तिस्तावदेकोऽलङ्कारः। 'एकस्प वस्तुनो भावायत्र Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / बरवन्यथा भवेत् / कैमुस्यन्यायतः सा स्यामापत्तिरलङक्रिया' // इति / लक्षणात तनोश्छायेवच्छायेत्युपमा छाययोरभेदाध्यवसायादतिशयोक्तिः। एतस्त्रितयोपत्रीव. नेनालयस्वे तनुच्छायताया हेतुस्वोस्प्रेक्षा सङ्कीर्णा, सा च शक इति व्यञ्जकप्रयोगा. द्वाच्येति // 47 // और क्या ? विस ( कामदेव ) के अस्त्रोंसे सन्तप्त पितामह ( ब्रह्मा, पक्षा- अतिशय वृद्ध, या-पिताके भी पिता ) आज मी ( शीतल होनेसे ) कमलका आश्रय करते हैं, वे नल अपने शरीरको छाया (शोमा ) वाले ( या-अपनेसे कम शोमावाले ) उस कामदेवको लांघनेके लिए नहीं समर्थ हो सके, ऐसा मैं मानता हूँ। जिस कामदेवने अतिशय बूढ़े या अपने पिताके पिताको मी ऐसा सन्तप्त कर दिया कि बहुत समयके व्यतीत होनेपर मी वे माज मी सन्तापनिवारक शीतल कमळपर निवास करते हैं, वह काम अपने प्रतिद्वन्दी नलको नहीं सन्तप्त करेगा, यह कैसे सम्भव है ? तथा-- नलका शरीर अत्यधिक सुन्दर है और कामदेव नलके शरीरकी परछाहीं है, अतएव नल अपने शरीर की परछाही रूप कामदेवको नहीं बांध सके, अर्थात् नहीं बीत सके, यह उचित ही है, क्योंकि लोकमें भी प्रबल. तम मी व्यक्ति अपने शरीरकी परछाहीको कदापि नहीं लांघ सकता-स्वशरीरच्छाया सबके लिए मनुलाथ ही रहती है / अथवा-नल अपनेस कम कान्तिवाले कामदेवको नहीं लांघ ( जीत ) सके ? अर्थात् जीत हो लिया ) // 47 / / उरोभुवा कुम्भयुगेन जम्मितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् / त्रपासरिदुर्गमपि प्रतीर्य सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् / / 48 // उरोभुवेति / सा तन्वी भैमी पैव सरित सैव दुर्ग नसम्बन्धि तदपि प्रतीर्य नलस्य हृदयं विवेशेति यत तत्प्रवेशनं यनदोनित्यसम्बन्धात् , वयस्कृतेन नवाप. हारेण नूतननिर्माणेन उरोभुवा तउजन्येन कुम्मयुगेन कुचयुगाख्येनेति भावः, इत्यतिशयोक्तिः ! 'न लोक'स्पादिना कृयोगषष्ठीप्रतिषेधारकरि तृतीया, 'नपुंसके भाव उपसंस्थानमिति पष्ठी तु शेषविवक्षायाम् / जम्मितं जम्भणं किमुस्प्रेक्षा सा चोक्तातिशयोतिमूलेति सङ्करः। दमयन्तीकुचकरमविभ्रमश्रवणामलनापां विहाय तस्यामासक्तचित्तोऽभूदित्यर्थः, तेन मनःसङ्ग उक्तः // 48 // कशाली वह दमयन्ती ( अपनी ) लज्जारूपिणी नदीके उच्चतम प्राकारको पार कर बो नलके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी, वह युवावस्थासे किये गये समीप में नये मुक्ताहारसे युक ( या-नवीन उपहार से युक्त) वक्षस्यकपर उत्पन्न ( स्तनरूप ) दो कलशोका प्रभाव था क्या ? / (जिस प्रकार कोई दुर्बल व्यक्ति छातीपर दो कलशको रखकर उनकी सहायतासे नदीको पार कर अभीष्ट स्थानको पहुँच जाता है, उसी प्रकार मानों कशाङ्गी दमयन्ती मी युवावस्थासे सम्पादित नये उपहाररूप ( या-नवीन मोतियोंकी मालावा) कलशाकार विशाल स्तनदयको सहायतासे अपनी (या नसकी ) लज्जारूपिणी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। नदीके उच्चतम प्रकारको ( या-बारूपिणी नदीरूप दर्गको पारकर नसके पबमें प्रति हो गयी ) // 48 // अपहृवानस्य जनाय यन्निजामधीरतामस्य कृतं मनोभुवा। अयोधि तज्जागरदुःखसाक्षिणी निशा च शय्या प शशाङ्ककोमला // 4 // अथास्य जागरावस्थामाह-अपहवानस्पेति / निजामधीरतां चपलावं बनाया. पहवानस्यापळपतः 'श्वाघहुस्थे स्यादिना सम्प्रदानस्वाचतुर्थी। भस्य नलस्य मनोभुवा कामेन यजागरप्रहापारिकं कृतम्सस्सर्व जागरवस्य सारिणी / 'सासाद दृष्टरि संज्ञायामि ति सामाच्छन्दादिमिप्रत्यये डीप / शशान कोमला रम्या निशा बाबोधि / 'दीपजने स्थारिना कसरि ग्लेषिणादेशः / तथा शशाश्वस्कोमला मृदुला शय्या अबोधि, निशापा पपायां मागरणयोस्तरसारिवमिति भावः // 49. कामदेवने अन्य लोगों से अपनी भारताको छिपाते हुए इस मका को 9 किया, इस नाके भागनेको प्रत्यय देखनेवाग रात्रि तथा चन्द्र के समान कोमा शय्या मानती थी। (अथवा चनसे मनोहर राषि एवं चन्द्रबह शुभ होनेसे कोमाखाबानती बी)। नलकी दमयन्ती-विराबन्या पोरताको दूसरे हिसाने वो नहीं पहचाना। रातमर जागते हुए भव्यापर होते रहते थे] // 49 // स्मरोपतप्तोऽपि भृशं न म प्रभुविदर्मराजं तनयामयाषत / त्यजन्त्यसूलशर्म च मानिनो वरं त्यजन्ति न त्वेकमयाचितव्रतम् // 50 // ना किमने न निषन्मनेन, पापताम्भीमभूपतिदमपन्तीम् , नेत्याह-स्मरेत्यादि। भृशं गाढं स्मरोपततः कामपन्सोऽपि प्रभुः समर्थः स मला विधमरा भीमनुपतितनयां दमयन्ती न भयापत नपाधितवान् 'दुहिपाची'त्पादिना याचेर्षिकर्मकता। तयाहि मानिनो मनस्विमोश्युवमनस्काः प्राणान् कर्म च सुख पन्ति एतस्यागोऽपि धरं मनाक दरमिति ममागुरकर्ष इति महोपाप्यायपईमानः / किन्तु, एकमद्वितीयमयाचितवत अपानानियमन्तु न त्यजन्ति, मानिभा प्राणरपागडस्वाद् दु:सह यात्रामा दमित्यर्थः / सामाम्येन विशेषसमर्थनस्पोऽर्थान्तरन्याः // 50 // उस मा तलने वामपसे मतिशव पारित होकर मौ विधमनरेश ( मीम ) से दमथती को नहीं मांगा, क्योंदि मानी लोग प्राणत्याग मळे हो कर देते है, किन्तु एकमात्र भयान स्यमका स्या नहीं करते। [अथवा-- ... "मानी लोग उस तश प्राणोंका स्यामा ने... ... / अथवा--मानो योग प्राणांका त्याग Bखपूर्वक कर देते है, यमाके में जियमका त्याग नहीं कर ! 58 / / मृषाविषदामन यादय कामउजुगोप निःश्वासतानि वियोगजाम् / विले 5 साधिक चन्द्रमागताविभावनाचायललाप पाण्दुनाम् / / 52 / / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / मषेति / अयं नलो वियोगजा दमयन्तीवियोगबन्यां निःश्वासतति निश्वासपर. म्परां कचित् कुत्रचिस्वन्तरे विषये मृषाविषादस्य मिय्यादुःखस्याभिनयात् छलेन, जुगोप संववार / तथा पाण्डुतां विशदतां शरीरपाण्डिमानं च विलेपनस्प चन्दनाद. घिका चन्द्रमागः कर्पूरांशो यस्मिन् विलेपने 'घनसारश्चन्द्रसंज्ञः सिताम्रो हिमवा. लुका' इत्यमरः। तस्य भावस्तसा तस्या विभावमात् कपूरभागाधिकतोस्प्रेक्षणा. इपललाप निहते स्म / 'अत्राङ्गगताभ्यां मृषाविषादचन्द्रभागपाण्डिमभ्यां तहिरहा भासपाण्डिग्नोनिगूहनान्मीलनालकारः। मीलनं वस्तुना यत्र वस्वन्तरनिगूहनम् / ' इति लपणात् // 5 // वे (नस) किसी वस्तुके विषयमें निरर्थक ( झूठे हो) विषादके प्रदर्शित करनेसे दमयन्ती-बिरहजन्य निश्वास-समूहको छिपाते थे, तथा चन्दनमें अधिक कपर छोड़ने काहानाकर अपनी पाण्डुताको छिपाते थे। (भयवा- वे व्यर्थ ही 'शिव' के भमिनयसे दमयन्ती-विरहबन्य..."", मर्यात वास्तविक तो दमयन्तीके विरहसे उन्हें अधिक श्वास माते थे, किन्तु श्वास मानेपर "शिव-शिव' कहकर लोगोंको यह प्रदर्शित करते थे कि 'मैं म्यर्थ ही किसी वस्तु के विषयमें शोक कर रहा हूँ, जो बीत गया, वह पुनः आनेवाला नहीं है....... ) // 51 // शशाक निहोतुमनेन तत्प्रियामयं बभाषे यदलीकवीक्षिताम् / समाज एवालपितासु वैणि कैमुमृर्छ यत्पश्चममूर्च्छनासु च / / 52 // शशाकेति / अयनकोऽलीकवीक्षितां मिथ्यादृष्टां प्रियां दमयन्ती समाजे समाया. मेव यत् बभाषे घमाण, वीणा शिल्पमेषां तैणिकैः वीणावादैः 'शिरुपमिति ठञ् / मालपितासु सूचरितासु व्यक्किं गतास्वित्यर्थः। 'रागष्याक आलाप' इति ला. गाव / पञ्चमस्य पश्चमात्यस्य स्वरस्य मूच्छनासु आरोहावरोहणेषु क्रमात् स्वराणां सप्तानामारोहादवरोहणम् / मूच्र्छनेत्युच्यत' इति लक्षणात् / पञ्चमग्रहणन्तस्य कोकिलालापकोमलस्वेन उहीपकत्वातिशयविवक्षयेत्यनुसन्धेयम् / मुमूर्छत्यपि यसदुभयम् अनेन प्रकारेण निहोतुमाच्छादयितुं शशाक / 'अ' इति पाठे विषादे इत्यर्थः / 'अये क्रोधे विषादे चेति विश्वः। एतेन हीस्यागोन्मादमूर्छावस्थाः सुचिताः॥५२॥ इस नन्ने ( भावनावश ) मिथ्यादृष्ट प्रिया (दमयन्ती ) से जो कहा तथा वीणा बमानेवालों के पञ्चम स्वरको मूछनाओंके अवसरपर समाज (बन-समा) में ही जो मुञ्छित हुए, उसे माग्य ही छिपा सका अर्थात नलके उक्त माषण तथा मूच्र्छाको संयोगबश लोग नहीं देख सके। ( अथवा-मिध्यादृष्ट प्रियासे बो नरुने 'अये" कहा, उसे ये नहीं छिपा सके 1 अर्थात छिपा ही छिया, तथा वीणावादकोंके पशम स्वरकी मूच्छंनाके 1. भयमशः म०म० पं, शिवदत्तमंटिप्पण्यापारेण वद्धितः / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 3. समय बो नल दमयन्तीके उद्देश्यसे मूपिछत हुए, उसे लोगोंने समझा कि वे बोणाके मच्छनानन्दजन्य मानन्दातिशयसे नेवनिमोनादि कर रहे है, अतः उसे भी कोई पहचान नहीं सका। अथवा-उक्त मूच्र्छनाके समयमें समाज ही मूञ्छित (भानन्दातिशयसे तन्मय ) हो गया, अतएव अलीका दमयन्तीके प्रति किया गया नसोक्त माषण कोई नहीं सुन सका / [ अथवा "उक्त मूच्र्छनाकाऊमें समाज मूच्छित हो गया, अतएव वह अलीकदृष्ट दमयंतीके प्रति किये गये भाषणको नहीं सुन सका, किन्तु उसे वे नल काम देवसे नहीं छिपा सके अर्थात कामदेवने तो उनके उक्त माषणको समझ ही लिया ] // 52 // अवाप सापत्रतां स भूपतिर्जितेन्द्रियाणां धुरि कीर्तितस्थितिः / असंवरे शम्बरवैरिविक्रमे क्रमेण तत्र स्फुटतामुपेयुषि // 53 // अवापेति / जितेन्द्रियाणां धुर्यभ्रे कीर्तितस्थितिः स्तुतमर्यादः स भूपतिः नमः तत्र समाजे असंवरे संवरितुमशक्ये संवरणं संवरः शमश्चेत्यपि, न विद्यते संवरो यस्य तस्मिन् शम्बरवैरिविक्रमे मनसिप्रविकारे क्रमेण स्फुटतामुपेयुषि सति साप. प्रपतां सलजताम् अवाप / धैर्यशालिनां ताम्रपाकर इति भावः // 53 // जितेन्द्रियों के अग्रणी वे राजा नल उस समाम ( जन-समूह ) में अगोपनीय काम पराक्रम ( कामजन्य पाण्डुतादि विकार ) के क्रमशः स्पष्ट हो जाने पर लज्जित हो गये। [ लोगोंने धीरे धीरे नस्के कामजन्य विकार को जान लिया ] // 53 // अलं नलं रोदुधुममी किलाभवन् गुणा विवेकप्रभवा न चापलम् / स्मरः स रत्यानिरुद्धमेव यत्सृजत्ययं सर्गनिसर्ग ईदृशः // 54 // ननु विवेकिनः कुत इदं चापल्यम् ? इत्यत आह-अलमिति / युक्तायुक्तविचारो विवेकः तत्प्रभवा अमी गुणा धैर्यादयः नलमिदं स्त्रीलाभरूपं चापलं निरोधुम 'दुहियाची त्यादिना रुन्धेईिकर्मकरवम् / अलं समर्था नाभवन् किल खलु / तथाहिस्मरः कामः / जनमिति शेषः / जनं रत्या रागे अनिरुद्धं सृजति भनीश्वरमवशंकोति रत्या रतिदेण्यामनिरुद्धास्यं कुमारं सृजतीति ध्वनिः / इति यत् अयं सर्गनिसर्गः सृष्टिस्वभाव ईदृशः / रतिः स्मरप्रियायां च रागेऽपि सुरतेऽपि च'। अनिरुद्धः काम. श्रेढे चानीश्वरेऽपि चेति विश्वः / अत्र स्मररागारतायाः सर्वसुटिसाधारयन चापलदुर्वारतासमर्थनात सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽन्तरन्यासः // 54 // ये प्रसिद्ध विबेक आदि गुण नककी चपलताको नहीं रोक सके, क्योंदि कामदेव रात ( अनुराग ) होनेपर चपलताको ही सृष्टि करता है, यही सृष्टि का नियम है। यया कामदेव रतिकालमें चपलताकी ही सृष्टि करता है अर्थात् रतिकालमें तमो चञ्चल हो जाते है, अयवा-कामदेव 'रति' नामको अपनी प्रिया 'अनिरुद' नायक पुत्र को ही हरन करता है, यहो सृष्टिका नियम है)। [दिदेकादिगुणयुक्त भी नल दमयन्ती विर अन्य कामपीडासे अतिशय चन्चल हो गये] // 54 // Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / भनङ्गचिह्नं स विना शशाक नो यदासितुं संसदि यत्नवानपि / क्षणं तदारामविहार कैतवानिषेवितुं देशमियेष निर्जनम् / / 55 / / भयास्य मनोरथसिदयौपयिकदिम्पससंवादनिदानभूतं वनविहारं प्रस्तौतिभमङ्गेति। स नैषधो नलो यनवानप्यनमपिहूं मूप्रिलापादिस्मरविकारं विना. संसदि गणमप्यासितुं यदा नो शशाक, तदा आरामविहारकैतवादुपवनविहरण. पाजाबिजनं देशं निषेवितुम् इयेष देशान्तरं गन्तुमैच्छदित्यर्थः। एतेन चापलाण्ये समारिणि भ्रमणलक्षणोऽनुमाव उकः // 55 // (मन नल के उपवनगमनका प्रसङ्ग उपस्थित करते है.- ) बा प्रयत्न करने पर भी ये नह समाज (बन समूह) में दमयन्ती-बिरहमन्य ( पाण्डुता, कृशता, निःश्वास आदि) कामरिहों के विना नहीं रह सके अर्थात रक्त कामचिह्नोंको लोगोंसे नहीं छिपा सके तब देवानमें विहार करनेके बहानेते कुछ समय तक निर्जन देशमें रहनेको इच्छा किये // 55 // अथ प्रिया भत्सितमत्स्यकेतनस्समं वयस्यैस्स्वरहस्यवेदिभिः। पुरोपक्षण्ठोपवनं किलेक्षिता दिदेश यानाय निदेशकारिणः // 56 // अयेति / अथानन्तरं श्रिया सौन्दर्यण भत्सितमास्यकेतनस्तिरस्कृतस्मरः स मलः स्वरहस्यवेदिभिः निजभैमीरागमर्मज्ञवयसा तुल्या वयस्याः स्निग्धाः स्निग्यो पयस्यः सपया' इत्यमरः। तैः सह समं पुरोपकण्ठोपवनं पुरसमीपाराममोरिता मटा, तृषन्तमेतत् अतएव 'न लोके' त्यादिना पडीप्रतिषः। किलेत्यलोके / निदे. शकारिण माझाकरान् यानाय यानमानेतुमित्यर्थः / 'क्रियार्थोपे' त्यादिना चतुर्थी। दिदेश बावापयामास / 56 // इस ( उबान-विहारार्थ इच्छा करने ) के बाद (कामपारित होनेपर मी) शरीरशोमासे कामदेवको मत्सित करनेवाले, अपने मात् नलके रहस्य ( ये वस्तुतः बिहा. रार्थ रचानको नहीं जा रहे है, किंतु कामविहगोपनार्थ ना रहे हैं ऐसे गुप्त विषय को) माननेवाले मित्रों के साथ नगरके समीपवर्ती उद्यानके दर्शनेच्छुक उन नलने सवारी (घोड़ा) हानेके लिये मृत्वोंको आदेश दिया / / 56 // ' अमी ततस्तस्य विभूषित सितं जवेऽपि मानेऽपि च पौरुषाधिकम् / सुपादरममजनचञ्चलैः खुराञ्चलः मोदितमन्दुरोदरम / / 57 // अभी इति / तत भाज्ञापनानन्तरं अमी निदेशकारिणःतम्य विभूषितमन्डकृत. अवेऽपि वेगेऽपि माने प्रमाणेऽपि च पौरुषात् पुरुषगतिवेगात् पुरुषप्रमाणात चाधिक 'उज्यविस्तृतदोःपाणिनृमाने पौरुषं त्रिषु' इत्यमरः / 'पुरुषहस्तिभ्यामण चे स्यणप्र. स्पयः / अजवालैबटुलस्वभावैः खुराशले शफाप्रैः पोदितं मन्दुरोदरं चूर्णाकृता 1. 'पुरोपकण्ठं स बनम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'शोभित-' इति पाठान्तरम् / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। धशालाभ्यन्तरं 'वाजिशाला तु मन्दुरे'त्यमरः / एतेनोसमाश्वलक्षणयुक्तं सितं श्वेत. मरवमुपाहरणानिन्युरित्यर्थः // 57 // तदनन्तर वे नौकर मलकारोंसे विभूषित, श्वेतवर्ण, वेग तथा ऊँचाई में भी पुरुषसे अधिक और निरन्तर चमक खुराप्रमागोंसे अश्वशाला (घुड़सवार ) के मध्यमागको चूर्णित करनेवाले घोड़ेको उस नल के लिए लाये // 57 / / अथान्तरेणावटुगामिनाऽध्वना निशीथिनीनाथमहस्सहोदरैः। निगालगाद् देवमणेरिवोत्थित विराजितं केसरकेशरश्मिभिः // 58 // अथ सप्तभिः कुलकमाह-अयेत्यादि / अथानयनान्तरं स नलो हयमारोहे. स्युचरेणान्वयः। कथंभूतमान्तरेणाभ्यन्तरेण अवटुगामिना काटिकायमस्तक. पृषभाजा 'अवटुर्धाटा काटिके'त्यमरा, अचना मार्गेण निगालगागलोदेशात 'निगालस्तु गलोद्देश' इत्यमरः / देवमणिः आवर्तविशेषः, 'निगालजो देवमणिरि' ति लक्षणात्। दिव्यमाणिक्यं च गम्यते, तस्मादुरिथरिव स्थितरित्युप्रेश। निशीथिनीनाथमहासहोदरैश्चन्द्रांशुसरशेरिल्युपमा। केसरकेशा एव रश्मय इति रूपकं तैर्विराषितम् // 58 // (भब सात कोकों ( 1158-64 से उक्त घोड़ेका वर्णन करते है-) इसके बाद गलप्रदेशस्थ देवमणि ( दक्षिणावर्त घूमी हुई बालों की मौरीरूप 'देवमणि' नामक शुमाग. सूचक चिह-विशेष ) से कण्ठके बीचमें स्थित गर्दनके ऊपरी प्रदेशकी ओर जाते हुए मार्ग निकले हुए तथा चन्द्रमाकी किरणों के समान (उज्ज्वक वर्णवाले) केसर (भयाक) के बालोंकी किरणोंसे शोभित (या-पक्षिराब गरुडके समान आचरण करनेवाले ) 'घोड़ेपर वे नक सवार हुए' ऐसा भागामी ( 1 / 64 ) ३कोकसे सम्बन्ध करना चाहिए। [ देवमणि कौस्तुम मणि तथा चन्द्रको मी कहते हैं, वे दोनों ही समुद्र से उत्पन्न है, अतएव देवमणिते उत्पन्न केरके वाकोका चन्द्रसहोदर होना उचित ही है ] // 58 // अजस्रभूमीतटकुट्टनोगतैरुपास्यमानं चरणेषु रेणुभिः / स्यप्रकर्षाध्ययनार्थमागतर्जनस्य चेतारिवाणिमाहितः / / / / / / अजस्रति / अजस्रेण भूमीतटकुट्टनेन उद्दतैकस्थित रेणुभिः रयप्रकर्षस्य धेगातिशयस्याध्ययनार्थमभ्यासायागतैरणिमाक्षितैरणुस्वपरिमाणविशिष्टजनस्य लोकस्य चेतोभिरिवेत्युत्प्रेक्षा / चरणेषु पादेषु उपास्यमानं सेव्यमानम् / 'अणुपरिमाणं मन' इति तार्किकाः // 59 // तीव्र वेग को पढ़ने के लिए भाये हुए अणुपरिमाणवाले, लोगों के मनों के समान निरन्तर भूतलको चूर्णित करनेसे उत्पन्न हुई धूलियों के द्वारा चरणों में सेवित-(घोड़ेपर वे नक सवार हुए' ऐसा अग्रिम ( 1964 ) इकोकसे सम्बन्ध करना चाहिये ) / [ उस घोड़ेका वेग मनुष्यों के मनसे मी तीव्र था, अतः वे ( लोगों के मन ) उस घोड़े के पास तीव्र वेगको सीखने के लिए आकर शिष्यके समान उसके चरणों की सेवा करते हैं, ऐसा प्रतीत होता Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 नैषधमहाकाव्यम् / था, क्योंकि लोगों के मनका परिमाण मी अणुपरिमित है, वे निरन्तर भूमिपर पैर पटकनेसे सक्ष्मतम धूलिरूपमें उपस्थित थे। विद्याध्ययनार्थ शिष्यका गुरुके समीप जाकर उसके चरणों की सेवा करना उचित ही है। नलके घोड़ेका वेग मनुष्यों के मनके वेग से भी अधिक तीव्र था] // 59 // चलाचलप्रोथतया महीभृते स्ववेगदोनिय वक्तुमुत्सुकम् / अलं गिरा वेद किलायमाशयं स्वयं हयस्येति च मौनमास्थितम् // 60 // चलाचलेति / पुनः, चलाचलप्रोथतया स्वभावतः स्फुरमाणघोणतया 'चरिचलि. पदीनामुपसंख्याना'चलर्विचनं दीर्घश्च / 'घोणा तु प्रोथमनियामित्यमरः। मही. भृते नलाय स्ववेगदान वेगातिरेकान् वक्तुमुस्सुकमुक्तमिवेत्युस्प्रेक्षा। अथावचने हेनमुष्प्रेषते-अलमिति / गिरा उश्या अलं, कुतः, अयं नलःस्वयंहयस्याश्वस्य आश. यमभिप्रायं वेद वेत्ति किल / 'विदो लटो वेति णलादेशः / इति हेतोरिवेश्यनुषतः मौनं तूष्णीम्भावनास्थितं प्राप्तम् / अश्वहृदयवेदी नल इति प्रसिद्धिः // 6 // ओष्ठानको मस्यन्त चञ्चलतासे अपने वेगके दर्पोको मानो राजा नलसे कहनेके लिए एस्कण्ठित, किन्तु 'मत कहो, ये नक स्वयं ही घोड़ेके अभिप्रायको जानते है। इस कारणसे मानो मौन धारण किये हुए-घोड़ेपर वे नल सबार हुए 'ऐसा अग्रिम' ( 1 / 64 ) श्लोकसे सम्बन्ध करना चाहिये // 60 // महारथस्याध्वनि चक्रवर्तिनः परानपेक्षोद्वहनायशस्सितम् / रदावदातांशुमिषादनीहशां हसन्तमन्तबलमर्वतां रवेः॥ 61 // महारथस्येति / महान् रथो यस्य तस्य महारथस्य / 'भारमानं सारथिनावं रचन् युद्धयेत यो नरःसमहारथसंज्ञः स्यादित्याहुनीतिकोविदाः॥' इत्युक्तलक्षणस्य रथिकविशेषस्येत्यर्थः / अन्यत्र महारथो नलः तस्य महारथस्य चक्रं राष्ट्र वर्तयतीति चक्रवर्ती सार्वभौमः तस्य नलस्य, 'हरिश्चन्द्रो नलो राजा पुरुः कुरसः पुरूरवाः। सागरः कार्तवीर्यश्च षडेते चक्रवर्तिनः // ' इत्यागमात अन्यत्र चक्रेणैकेन वर्तनशीलस्येत्यर्थः। अवनि मार्गे नापेचत इत्यनपेक्षं पचायच, परेषामनपेतं तस्मादुदहनादसहायोदहा नादूतोर्यशःसितंकीत्तिविशदम् अत एवानीहशामीहशयशोरहितानाम् सप्त युआन्ति रथमेकचक्रमिति सप्तानां सम्भूयोद्वहनश्रवणादिति भावः। रवेरर्वतामश्वानामन्तई। लमन्तःसारं रदानां दन्तानां ये अवदाताः सिताः अंशवः तेषां मिषाद्धसन्तं हसन्तमिव स्थितमित्यर्थः / अत्र मिपशब्देनांशूनामसत्यस्वमापाद्य हासत्वोस्प्रेक्षणासापहः वोस्प्रेक्षेयं गग्या च व्यञ्जकाप्रयोगात् / 'रदना दशना दन्ता रदा' इत्यमरः // 61 // महारथ ( दश सहस्र प्रतिमट योद्धाओं के साथ अपने सारथि, अश्व, रथ तथा अपनी रक्षा करते हुए युद्ध करनेवाले ) तथा चक्रवर्ती नलके मार्गमें दूसरेकी अपेक्षाके विना रथको ले बानेसे उत्पन्न यशसे श्वेत वर्ण, ( अत एव ) दाँतोंकी श्वेत किरणों के बहाने (कपट ) से Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। विशाल रथवाले तथा एक पहियेवाले सूर्य के 'मार्ग' अर्थात 'आकाश' अतद्रूप मर्याद दूसरे की अपेक्षासे रथको ले जानेवाले हरे रंगवाले उनके घोड़ोंको मुखके मोतर में इंसते हुए ('घोड़ेपर नल सवार हुए' ऐसा सम्बन्ध अग्रिम ( 1664) श्लोकसे करना चाहिये ) / [बड़े रथवाले तथा एक चक्र ( पहिये ) वाले सूर्यके मार्गमें उनके घोड़े दूसरोको सहायता से रथको ढोते थे, अतएव वे यशोहीन होनेसे हरे रंगके थे, किन्तु महारथ एकचक्रवती (सार्वमीम ) नळके मार्ग में यह घोड़ा विना किसीकी सहायताके रथको ढोता था, अतएव इससे उत्पन्न यशसे मानों यह नलका घोड़ा श्वेतवर्ण था, इसी कारण यह सूर्यके मतदूप उन घोड़ोंकी दांतोंकी शुभ्र किरणों के बहानेसे मानों हँस रहा था ] // 61 // सितत्विषश्चञ्चलतामुपेयुषो मिषेण पुच्छस्य च केसरस्य च / स्फुटाञ्चलच्चामरयुग्मचिह्नकरनिढुवानं निजबाजिराजताम् / / 62 / / सितेति / पुनः कथम्भूतम् 1 सितस्विषः विशदप्रभस्म चलतामुपेयुषः चालस्येत्यर्थः / पुउछस्य लागूलस्य केसरस्य ग्रीवास्थबालस्य चमिषेण भछलेन चलत. शामरयुग्मस्य चिह्नकै लक्षणैः स्फुटो प्रसिद्धां निजां वाजिराजता अश्वेश्वरत्वमनिह. वानं प्रकाशयन्तमिव / अश्वामिनः कथामरयुग्ममिति भावः / पूर्ववदलारः॥ __ श्वेत कान्तिवाले तथा चखल पूँछ तथा गर्दनके भयाकों (बालों ) के कपटसे डुडते हुए दो चामरों के चिह्नों के द्वारा अपने मश्वराजस्वको प्रगट करते हुए-('घोड़ेपर देना सवार हुए; ऐसा सम्बन्ध भग्रिम ( 1164 ) को कके साथ करना चाहिए)।, [ राणाके लमय पाश्वमें डुछाये बाते हुए श्वेतवर्ण दो चामरोंके समान पूँछ तथा गर्दनके श्वेतवर्ण पिलते हुए घोड़े के बाक चवर बन गये थे, जिससे वह अपने को घोड़ोंका राजा मर्याद अष्ठतम घोड़ा होना प्रगट करता था ] // 62 // अपि द्विजिह्वाभ्यवहारपौरुषे मुखानुषक्तायतवल्गुवल्गया। उपेयिवांसं प्रतिमलता रयस्मये जितस्य प्रसभं गरुत्मतः / / 63 / / अपीति / पुनः कथम्भूतं स्थितम् ? रयस्मये वेगप्रयतारकारे प्रसभं प्रसस जितस्य प्रागेव निजितस्य गरमतः मुस्वानुषक्ता वक्त्रलग्ना आयता दीघों वक्ष्ग रम्या च या वल्गा मुखरज्जुः तया तन्मिषेणेत्यर्थः। द्विजिह्वानामहीनामभ्यवहारे माहारे यत पौरुषे सभक्षणपुरुषकारेऽपि प्रतिमलता प्रतिद्वन्द्वितामुपेयिवांसं प्राप्तम् / तथा च गम्योरप्रेक्षयम / 'उपेयिवाननाश्वाननूचानश्चेति छ सुप्रत्ययान्तो निपातः // 63 // वेगके अमिमानमें बलात्कारमे जीते गये गरुड़के समक्षणरूप पुरुषार्थमें मी मुखमें पड़ी हुई लगाम ( श्वेतवर्ण साकार ) रस्सीसे प्रतिमलमावको प्राप्त-(बाड़ेपर वे नल सवार हुए' ऐसा सम्बन्ध अग्रिम ( 64 ) इलोकसे करना चाहिए ) / [इल घोड़ेने तीन वेगमें पहले ही गरुड़को बलात्कार पूर्वक पराजित कर दिया था, किन्तु गरुडकी दूसरी शक्ति सोको मक्षण करने में भी थी, उस शक्तिको भी यह घोड़ा मुखमें पड़ी हुई गामकी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / साकार एवं सतवर्ण रस्मीसे मानो गरड़का प्रतिद्वन्दी होकर उन्हें बीत रहा था। घोड़े मुखमें पोरगामको रस्सी दो सोक समान-प्रतीत हो रही यो] // 63 // स सिन्धुजं शीतमहस्सहोदरं हर तमुच्चअवसः श्रियं हयम् / जिताविलक्ष्माभृदनल्पलोपनस्तमारोह मितिपाकशासनः / / 64 // सति ।पिता अखिलाः माभृतो भूपा भूधराच येन सः अनल्पलोचनो विसावा अन्यत्र बाहुनेत्रः सहवाच इति यावत्।शितिपाकशासनः पितीन्द्रो नलः देवेन्द्रबसिगजं पिदेशोअवा समुद्रोद्भवाम देशे नदविशेषेधौ सिन्धुर्ना सरिति सिपामि'त्यमरः / शीतमहासहोदरं चन्द्रसवर्णमित्वः, अन्यत्र चन्द्रमासरमेकपोनित्वादिति भावः। सवैभवस इन्द्रारवस्थ श्रियं हरन्तं तत्स्वरूपमित्यर्थः, तं हयमारोह। बनोगःशवसः श्रियं हरन्तमिवेत्युपमा। सा- रिलष्टविशेषणात् सहीणेयं सितिपाकशासन इस्पतिशयोक्तिः // 6 // सिन्धु (पक्षा-समुद्र ) में उत्पन्न (भत एष ) पन्द्रमा के सहोदर ( समान) तथा एच्चेःमवाकी शोमाको हरण करते हुए उस ( नौकरोंद्वारा डाये गये ) घोड़े पर समस्त राधामों के विजेता तथा विशाग्नेत्र (या-बान) वाले ( पक्षा०-पर्वतोंके विजेता तथा बहुत अर्थात सहस्र नेत्रोंवाडेसे ) पृथ्वीके इन्द्र (पृथ्वीपति ) रामा नल सगर हुए / [समुद्रोपा चन्द्रमाके सहोदर उच्चैःश्रवापर सर्वपर्वतविजेता सासनेत्र इन्द्र के समान सिन्धुदेशोत्पत्र, चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण उच्चैःमवाको शोमावाले उस घोड़े पर सर्वनृपतिविजेता विशालनपन भूपति नक सवार हुए ] // 64 // निजा मयूखा इव तिग्मदीधिति स्फुटारविन्दाक्षितपाणिपङ्कजम् / तमश्वधारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः // 4 // निवा इति / निमा आत्मीयाः प्रकाशरूपा उज्ज्वलाकारा भास्वररूपाश्च अश्यावारयन्तीत्यरववाराः अचारोहाः स्फुटारविन्दाक्तिपाणिपाज परेशाश्तिहस्तम, अन्यत्र पमहस्तं जवनोभवशीलः 'जुचक्रम्यस्यादिना युष। तेनाश्वेन अन्यत्र तैरस्वैर्यातीति तथोक्तं मनुजा मनोर्जाता मनुजा नरास्तेषामीशं राजानच तं नलं तिग्मवीधिति सूख्यं मयूखा इव अन्वयुः अन्वगच्छन् / यातलंङि झेजुंसादेशः // 15 // विकसित कमलसे चिह्नित करकमलवाले तथा तीन (उच्चैःश्रवानामक ) घोड़ेसे चलनेवाले सूर्य के पीछे जिस प्रकार प्रकाशरूप अपने किरण च*ते हैं. उसी प्रकार ( रेखारूप विकसित कमलम चिह्नित करकमलवाले तथा तीव्र पाड़े चहनेवाले उस मनुजेश्वर (नल ) के पीछे अपने घुड़सवार चकने लगे // 65 // चलन्नलहत्य महारयं हयं स वाहवाहोचित वेषपेशलः। प्रमोदनिष्पन्दतराभिपक्ष्मभिर्यलोकि लोकैनंगरालयर्नलः / / 66 / / चलचिति / वाहवाहोचितवेषपेशलः अश्ववाहोचितनेपथ्यचार 'चारौ दक्षे च Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। पेशल' इत्यमरः / स नलो महारथमतिजवं हयममकृस्प चलन् स्वयं हयस्व भूष. णीभूय गरुधिरपथः। प्रमोदेन निष्पन्दतराणि अत्यन्तमिश्चकानि भपिपपमाणि येषान्तरनिमेषरष्टिभिरियर्थः। नगराळयेनंगरनिवासिमिरित्यर्थः। लोकैनैव्यं. लोकि विस्मयहर्षाभ्यां विलोकित इरयर्थः / वृश्यनुप्रासोऽलहारः 66 // तीन बेगधाले घोडेको ( अपने चढ़नेसे ) मडवकृत कर पछते हुए तथा अपने वाहन घोड़ेके योग्य पेषसे सुन्दर उस नहको अतिशय दर्षके कारण निमेषहोन नेत्रके पलकोवाले अर्थात हतिषषसे निमेष-हीन होकर नगरवासियोंने देखा // 66 // क्षणादथेष क्षणापतिप्रभः प्रभचनाम्येयजवेन वाजिना। सहेर वाभिर्जनदृष्टिवृष्टिभिर्वहिः पुरोऽभूत पुरुहूतपौरुषः / / 67 / / मादिति। अथानन्तरं पणदापतिप्रमादतत्यस्तथा पुरुहूतपौरुषः इन्द्रस्येव पौरुषं कम बो वा यस्थ तारा एष नलः / प्रमअनेन वायुना अम्पेयः शिक्षणीयः अवो वेगो सस्प तथाविधेम दागिना प्रश्न सणादिति-पणातामिः पूर्वोकाभिः बनामां रष्टिकृष्टिभिः पातैः सह जनेश्यमान एवेत्यर्थः। बहिः पुरः पुरावहिः स्थितोऽभूः दिति गहिोंगे पञ्चमी / पूर्व पुरे दृष्टः पणादेव पुराइहि इति वेगातिशयोक्तिः // (माहाबक होनेसे ) चन्द्रमाके समान कान्तिबाले तथा इन्द्र के समान सामध्यंवाले बे नक वायु द्वारा भी मध्यप न लिये स्नाने योग्य वेगवाले अर्थात् मतिशय तीव्रगामी घोड़ेसे नागरिकोको दृष्टि-वृष्टि के साथ ही क्षणमात्रसे नगरसे बाहर हो गये / / 67 / / ततः प्रतीच्छ प्रहरेति भाषिणी परस्परोलासितशल्यपल्लवे | मृषा मृधं सादिषले कुतूहलान्नलस्य नासीरगते वितेनतुः / 68 / / तत हति / ततः पुरावहिर्गमनानन्तरं प्रतीच्छ गृहाण प्रहर जहीति भाषिणी भाष. माणे इत्यर्थः / परस्परमन्योन्योपरि उच्चासितानि प्रसारितानि शल्यपन्नवानि तोमरा. प्रामि याम्यां ते तयोके 'शल्यं तोमरमित्यमरः। नलस्य नासीरगते सेनानवतिनी पनामुखन्तु नासीरमि'त्यमरः। सादिषले तुरङ्गसैन्ये कुतूहलात् मृषा मृधं मिथ्यायुद्धं युद्ध नाटकमित्यर्थः / वितेनतुश्चक्रतुः 'मृधमायोधनं संसय मित्यमर // 28 // इस ( नबके नगरम बाहर निकलने) के बाद 'सम्हालो, मारो' ऐसा कहते हुए, परस्पर तोमरादि अत्रों को उठाये हुए, नलके सेनामुख में स्थित घुड़सवारोंके दो दल कौतूइ. लवश झूठे युद्धका प्रदर्शन करने लगे / / 68 // प्रयातुमस्माक.मियं कियत्पदं धरा तदम्भोधिरपि स्थलायताम | इनाव वाई। जवेगदपते पयोधिरोघझममुत्थितं रजः / 6. / / प्रपातुमिति / इयं धरा भूः सजुद्रातिरिकति भावः / अस्माकं प्रयातुंप्रस्थातुं कि. यत् पदं गन्तम्पं स्थानं किश्चित्पर्याप्तमित्यर्थः। तस्मादम्भोधिरपि स्थलायतां स्थलव दायरतु, भूरेव भवस्वित्यर्थः / 'कर्त्तः क्यङ्सलोपश्चेति क्यडप्रत्ययः / इती. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / वेति / इतीव इति मवेश्यथः। इतिनैव गम्यमानार्थवादप्रयोगः, अन्यथा पौनक परयात् / क्रियानिमित्तोरण। निजवेगेन दर्पितः सजातदः वाहनलावैः पयोधि. रोषरमं समुद्रच्छादनपर्याप्तं रज उस्थितमुस्थापितं तथा सान्द्रमिति भावः // 69 // 'हमलोगोंके चलनेके लिए यह पृथ्वी कितने पैर (कितने कदम ) होगी ? अर्थात अत्यन्त थोड़ी होगी, इससे यह समुद्र भी स्थल बन आय', मानो ऐसा विचारकर अपने बेगके ममिमानी घोड़ोंने समुद्रको पूरा करने ( सुखाने ) में समर्थ धूलिको उड़ाया // 69 // हरेयदक्रामि पदैककेन खं पदैश्चतुर्मिः क्रमणेऽपि यस्य नः / त्रपा हरीणामिति ननिताननैर्व्यवर्ति तैरर्धनभःकृतक्रमैः / / 70 / / हरेरिति / यत् खमाकाशं हरेविष्णोरेककेन एकाकिना 'एकादाकिनियासहाये" इति चकारात् कन्प्रत्ययः। पदा पादेन 'पादः पदघ्रिश्चरणोऽखियामि'त्यमरः / 'पद्दचिस्यादिना पदादेशः / अकामि अलहि, तस्य खस्य चतुर्मिः पदैः क्रमणे छाने कृते सत्यपीति शेषः / हरीणां वामिना विष्णूनां चेति गम्यते, 'यमानिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहाशुवाजिषु / शुकाहिकपिभेकेषु हरिना कपिले त्रिविश्यमरः। उभयत्रापि मोऽस्माकं अपेति वेत्यर्थः / गम्यार्थरवादिवशब्दस्याप्रयोगः। अत एव गम्योरप्रेता। नम्रितानि निम्नीकृतानि माननानि येस्तैः हरिभिः अ नभसि कृतक्रमैः कृतवानः सद्धियवत्ति निवर्तितम् , मावे लुछ। यदन्येन पुसा लघूपायेन साधितं तस्य गुरुपायेन करणं समानस्य लापवाय भवेदिति भावः। एतेन प्लुतगतिरुका, तत्र गगनलंघनस्य सम्भवादिति भावः // 7 // हरि ( एक विष्णु, पक्षा०-एक घोड़े ) के एक पैरने बिस आकाशका बाक्रमण किया, उस भाकाशका हम अनेक हरियों (घोड़ों, पक्षा-भनेक विष्णुमों ) के चार पैरोंसे आक्रमण करने में लज्जाकी बात है, मानो ऐसा विचारकर माधे माधे आकाशमें पैरोंको उठाये हुए अधोमुख वे घोड़े ( आकाशके आक्रमण करने से ) निवृत्त हो गये। [कोकमें मी एक व्यक्तिके द्वारा किये गये कामको भनेक व्यक्तियों के द्वारा करनेपर उन्हें लज्जा होती है और वे इसी कारण अधोमुख होकर उस कार्यको करनेका विचार छोड़ देते हैं ] // 70 / / चमूचरास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोक्तिषु 'श्राद्धनयेव सैन्धवाः / विहारदेश तमवाप्य मण्डलीमकारयन् भूरितुरङ्गमानपि / / 71 / / चमूचराइति / तस्य नृपस्य चमूचराःसेनाचरा चरेष्टच, सिन्धुदेशमवाः सन्धवाः अश्वाः, 'हयसैन्धवसप्तय'इत्यमरः। तत्र भव'इत्यागपत्ययः, तरसम्बंधिनोऽपिसैन्धवा 'तस्येदमित्यणा ते सादिनः अश्वसादिन इत्यर्थः,जिनोक्तिषुश्राद्धतयेव जैनदर्शनश्रद्धालुतयेवेश्युत्प्रेषा, श्रद्धा वृत्तिभ्योऽणि ति मत्वर्थोयोऽणप्रत्ययः तं विहारदेशं सञ्चार भूमि सुगतालय विहारो भ्रमणे स्कन्धे लीलायां सुगतालय' इति विश्वः / अवाप्य 1. 'श्राद्धतयैव' इति पाठान्तरम् / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। तुरसमान् भूरि बहुलं मण्डलीमपि मण्डलाकारं च अकारयन् अपिशब्दोऽवाप्तिसम. बयार्थः / अन्यत्र मण्डली मण्डलासनमित्य / 'बौदाः स्वकर्मानुष्ठाने प्रायेण मण्ड लानि कुर्वन्ति' इति प्रसिद्धिः // 71 // उस राजा नलके सेनामें रहनेवाले तथा सिन्धुदेशज घोड़ोंवाले घुड़सवारोंने उस बाहरी क्रीडास्थलको प्राप्तकर बहुत से घोड़ोंको मी (अर्थात घोड़ों के साथ स्वयं मी) उस प्रकार मण्डलाकार गति विशेषसे घुमाया अर्थात गोलाकार मैदान में घोड़ों की चकर कराया, जिस प्रकार 'जिन'के कथनमें श्रद्धामावसे ही सिन्धुदेशोरपन्न जिनमक विहारस्थान ( देव मन्दिर ) को प्राप्तकर मण्डली कराते हैं अर्थात् मण्डलाकारसे स्थित होते हैं। [जिन मक्त विहार ( अपने देवमन्दिर ) में जाकर मण्डलाकार बैठते हैं, या सप्तधान्यमयी मण्डको को कराते हैं, ऐसा उनका सम्प्रदाय है। नल के सैनिक सिन्धुदेशज घोड़ोंवाले घुड़सवारों ने घुड़दौड़के मैदानमें जाकर घोड़ोंको ( घोड़ोंपर चढ़े रहने के कारण स्वयं मी) चक्कर कटवाया अर्थात गोल मैदानमें घुमाया ] // 71 // द्विषद्भिरेवास्य विलचिता दिशो यशोमिरेवाब्धिरकारि गोष्पदम् / इतीव घारामवधार्य मण्डलीक्रियाश्रियाऽमण्डि तुरङ्गमः स्थली / / 72 / / द्विषद्भिरिति / अस्य नस्य विषनिरेव पलायमानैरिति भावः। विशो विलति ताः / अस्य यशोभिरेवाग्धिः गोः पदं गोष्परमकारि गोष्पदमात्रः कृतः, 'गोष्पदंसं. वितासेवितप्रमाणार्थे' इति सडागमषस्वयोनिपातः। इतीव इति'मस्वेवेत्युस्प्रेका, अन्य. साधारणं कर्म नोस्कर्षाय भवेदिति भावः / तरामराजतिं नातावेकवचनं पश्चापि धारा इत्यर्थः / 'आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् / गतयोऽमूः पत्र धारा' इत्यमरः / अवधीर्य अनाहत्य मण्डली क्रियाश्रिया मण्डलीकरणलपम्या मण्डलगत्यैवेत्यर्थः / स्थली अकृत्रिमा भूः 'जानपदे त्यादिना अकृत्रिमार्थे सीप, अम. ण्डि भभूषि / मदि भूषायामिति धातोर्ण्यन्तात् कर्मणि लुक, इविश्वान्नुमागमः // इस ( नल ) के शत्रु हो ( प्राणरक्षार्थ युद्धभूमिसे भागकर ) दिशाओंको लोप गये हैं तथा यशों ( इस नलकी कीर्तियों) ने ही समुद्रको गोष्पद (गौके परके गढ़ेके समान भतिशय छोटा ) बना दिया है, मानो ऐसा विचार कर घोड़ोंने 'धारा' ( आस्कन्दित = सरपट दौड़ना आदि 5 गतिविशेषों ) को छोड़कर मण्डली करने ( चक्कर काटने ) की शोमासे ही पृथ्वीको सुशोमित किया। [इस श्लोकसे नलके शत्रुओंका इनके मयसे भागकर दिशामों के अन्ततक पहुँचना तथा यशःसमूहका समुद्रके पारतक जाना सूचित होता है / घोड़ोंको गतियों के विषयमें विशेष जिज्ञासुभोंको अमरकोषको मरकृत 'मणिप्रमा नामक हिन्दी अनुवाद ( 2 / 848-49 ) में देखना चाहिए ] // 72 // अचीकरच्चारु हयेन या भ्रमीनिंजातपत्रस्य तलस्थले नलः / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 नैषधमहाकाव्यम् / मरुत् किमयापि न तासु' शिक्षते वितत्य वात्यामयचक्रचंक्रमान् / / 7 / / अचीकरदिति / नळमार पथा भवति तथा हपेन प्रयोज्येन का निभातपत्रस्य सलत्यले भषःप्रदेशे 'अधः स्वरूपयोरबी तसमित्यमरः। या भ्रमीमण्डळगतीरची. करदकारितवान् , करोवणों घड। तासु भ्रमीषु विषये मस्त अद्यापि वातानां समूहो वास्या, 'वातादिभ्यो यः' / बत्र तह्ममयो अच्यन्ते, तन्मयान् तद्रूपान् चक्रचंक्रमान् मण्डलगतीर्षितत्य विस्तीग्यं न शिचते कियाम्पस्पते किमित्युप्रेता। शिक्षितत् तथा सोऽपि गतिं कुर्यादित्पर्यः। वायोरप्पसम्मविता गतीरचीकरदिति भावः // 73 // ___नख्ने अपने छपके नीचे घोड़ेसे जिन सुन्दर मण्डलियोंको कराया, वायु भाव भी वायु-समारूप गोलाकार भ्रमणों को विस्तृतकर उन मण्डलियोंके विषयमें नहीं सीखतारे क्या ? अर्थात बहुत दिन बीत जानेपर भाष मो वायु पश्वकृत उन मण्डलियोंको सोखने. का सम्पास कर हो रहा है, तथापि यथार्थतः इन्हें नहीं सीख सका है। [प्रीष्म ऋतुमें गोलाकार बढ़ते हुए वायु-समूह (बवंडर ) को यहाँ घोड़ेके मण्डलाकार चक्करके सीखने. की उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 73 / / विवेश गत्वा म विलासकाननं ततः क्षणात् भोणिपतिकृतीच्छया। प्रवालरागच्छुरितं सुषुप्पया हरिचनच्छायमिवाम्मसां निधिम् / / 74 / / विवेशेति / ततः स चोणीपतिः पणाद्या प्रतीच्छया सन्तोषकाडया प्रवासाः पञ्चवाः मन्पत्र प्रवाठाः विद्रमाः 'प्रवाळो वकीरण्डे विद्रमे नवपल्लव' इत्यमरः / तेषां रागेणारुण्येन छुरितं रूषितं धनच्छायं सान्द्रानातपमन्यत्र मेघकान्ति 'छाया खनासपे काम्ताविति विश्वः / विलासकाननं क्रीडावनम् अन्यत्र बवयोरभेदात् बिलासकानां बिळेशयानां पणाम आननं प्राणनं सुषुप्सया स्वप्तुमिच्छया हरि. विष्णुरम्भसानिधिमन्धिमिव विवेश // 74 // तदनन्तर राजा नह नवपस्लवोंको काभिमासे युक्त तथा सघन छायावाले कोडोपवनको जाकर शीघ्र धैर्यकी इच्छासे ( उस विलास वनमें मुझे धैर्य प्राप्त होगा, इस ममि. लाषासे) उस प्रकार प्रविष्ट हए, जिस प्रकार विष्णु भगवान् विद्रमकी लालिमासे मिश्रित तथा स्वयं मेधको समान शोमावाले, क्षीरसमुद्रको प्राप्तकर शीघ्र सोनेकी इच्छासे प्रवेश करते है, ( भयग-बिस प्रकार सिंह पल्लवों की कालिमासे युक्त सघन छायावाले वनको प्राप्त कर शीघ्र सोनेकी इच्छासे प्रवेश करता है ) // 7 // वनान्तपर्यन्तमुपेत्य सस्पृहं क्रमेण तस्मिन्नवतीर्णदक्पथे। भ्यनिष्क रः पुरौकमामनुन नबन्धु समाज बन्धुभिः / / 74 / / वनान्तेति / अनुवबन्धुसमाजबन्धुभिः स्नेहादनुगच्छद्वन्धुसङ्घसशरित्यर्थः। मत एवोपमालङ्कारः। पुरोकसां दृष्टिप्रकरैष्टिसमूहैः कर्तृभिर्वनान्तपर्यन्तं काममो. 1. 'ताः मुशिक्षते' इति पाठान्तरम् / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 45 पान्तसीमाम उपकप्रारतपर्यन्तम्चेति गम्यते, 'वने सछिलकानमे' इत्यमरः / सस्पृह सामिलापं यथा तथा उपेत्य गरवा अथ अनन्तरं क्रमेण तस्मिन् नले अवतीर्णरम्पथे अतिक्रान्तरष्टिविषये सति न्यवर्ति निवृत्त, मावे लुङ् / यथा बन्धुमिः 'उदकान्तं प्रियं पान्थमनुव्रजेरित्यागमारप्रवसन्तमनुव्रज्य निवरयते तददित्यः / 75 // (किसी बाते हुए इष्ट बान्धवके) पीछे जाते हुए बन्धुसमूहके समान नगरवासियों के नेत्र-समूह ( नलको देखनेके लिए ) वनतक माकर क्रमशः उस नसके दृष्टिसे मोझक हो जानेपर लौट भाये। [विस प्रकार कोई इष्ट-बान्धव कहीं बाने लगता है ता इसके बन्धु. सम्ह बनतक पहुँचाने के लिए उसके साथ आते है और उस इह मान्यवके दृष्टिसे बोझल हो जानेपर लोट पाते हैं, उसी प्रकार नगरवासियोंके नेत्र-समूह मी नको देखनेके लिए सस्पृह हो वनके समीपतक गये, और नन्के दृष्टिसे मोझल (बाहर ) हो जानेपर लौट भाये अर्थात जबतक नक वनके पास नहीं पहुँचे थे तबतक नागरिक लोग नरूको देखते थे, किन्तु जब वे दृष्टिसे बाहर हो गये, तब नागरिक विवश हो पर देखना भी भेदकर लोट गये // 7 // ततः प्रसूने च फले च मंजुजे म सम्मुखीनाङ्गुलिना जनाधिपः / निवेगमानं वनपालपाणिना ठयनोकयत् काननरामणीयकम् // 6 // तत इति / ततः पनप्रवेशामन्तरं म बमाधिपो नळः मन्जुले मनोज्ञे प्रसने कुसुमे फळे व विषये सम्मुखीना सन्दर्शिनी सम्मुखावस्थितवस्तप्रकाशिकेति यावत् 'ययामुखसम्मुखस्य दर्शनःख' इति सप्रत्ययान्तो निपातः / ती मालियंस्य तेन वनपालपाणिना निवेधमानम् इदमिदमित्यवत्पा पुष्पफलादिनिर्देशेन प्रदर्य: मानमित्ययः / काननरामणीय बनरामणीयकं 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुम' इति वुभप्रत्ययः / पलोकपत् अपश्यदिति स्वभावोलि 76 // तदनन्तर अर्थात वनमें प्रवेश करनेके बाद राजा नखने मनोहर फूल सपा फळपर सामने दिखाई जाती हुई भाटिया ( भकुहिम मनोहर फूल तथा फलको दिखाते हुए वनपाल हाधते बतलायी माती हुई रूपयनको सुन्दरताको देखा / / 73 / / फलानि पुष्पाणि च पनवे करे धयोऽतिपातोद्गतबात वेपिते / स्थितः समाधाय मषिधारकारने सदातिश्यमशिभि शानिमिः / / 7 / / पलानीति / वयोऽतिशतेन परिपातेन वास्यायपगमेन चोदतेजोरियतेम वातेन वायुना याताण व नेपिते पर आधादिलोयायमरः / पहप एष कर इति पल्लरपक फलानि पुष्पाणि समाधाय निधारितशिद्धिः धने शाखि. मित दवाखाण्यापिमिश्च, 'शाखादे शाखा वेदेडपीति मयती। तदा तिथ्य तस्य नलम्यातिभ्यम् अप्तिध्यक्षम, अतिधेळR प्रत्ययः / महषीणाई वाकाद् वृदप्तमूहात् तत्रत्यवृदमहर्षिमादित्यर्थः शिव भागवतवरणमासः। 'वृह. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 नैषधमहाकाव्यम् / संघे तु वाईकमि'स्यमरः / 'वृद्धाच्चेति वक्तव्यमिति समूहाथै वुअप्रत्ययः / अशिषि शिचितमभ्यस्तम् , अन्यथा कयमिदमाचरितमिति भावः। कर्मणि लुङ / उत्प्रेयं साच व्यअकाप्रयोगादग्या पूर्वोकरूपकरलेषाभ्यामुत्थापिता चेति सः // 77 // पक्षियोंके. अत्यन्त उड़नेके कारण वायुसे ( पक्षा०-अधिक अवस्थाके कारण उत्पन्न पात-दोषसे दिखते हुए पलवरूपी हाथमें फल-फूलों को लेकर स्थित, वनके वृक्षोंने मानो महर्षियों के सम्हसे स ( राजा नल ) के आंतथि सत्कारको करनेके लिए सीखा है। [ अधिक अवस्थाके कारण उत्पन्न वात दोषसे हिलते हुए हाथपर फल-फूड लेकर नलका मातिथ्य करनेवाले वनवासी वृद्ध महर्षि-सम्हसे मानो वन के वृक्षोंने मी पक्षियों के अधिक उड़नेसे सत्पन्न हवासे कम्पित पल्लवरूप हाथमें फल-फूलों को लेकर नलका मातिथ्य करना सौखा है / वृद्ध-महर्षि-समूहसे वनमें रहकर विद्या सीखना डोकव्यवहारमें मी श्रेष्ठ माना जाता है। इस श्लोकसे उक्त विकास-धनमें वृद्ध महर्षि-समूहका निवास करना तथा वृक्षोंका पक्षियों एवं फल-फूलसे युक्त होना सूचित होता है ] // 77 // विनिद्रपत्रालिगतालिकैतवान्मृगाङ्कचूडामणिषर्जनार्जितम् / दधानमाशासु चरिष्णु दुर्यशः स कौतुकी तत्र ददर्श केतकम् / / 78 / / विनिद्रेति। विनिद्रपत्रालिगतालिकैतपात विकचदलावलिस्थितभृङ्गमिषात मृगाइचढामगेरीश्वरस्य कर्तुर्वर्जनेन परिहारेणार्जितं सम्पादित 'न केतम्या सदा. शिवमिति निषेधादिति भावः / आशासु चरिष्णु सशरणशीलं 'अलंकृजित्यादिना चरेरिष्णुचप्रत्ययः। दुर्यशोऽपकीर्ति दधानं कैतकं केतकीकुसुमं तत्र वने स नल: कौतुकी सन् ददर्श। अहंस्य महापुरुषस्य बहिष्कारो दुष्कीर्तिकर इति भावः / अत्रालिकेतवादिश्यलिश्वापहवेन तेषु दुर्यशस्वारोपादपहत्यलकारः। 'निषेध्यविषये साम्पादन्यारोपेऽपततिः' इति क्षणात् // 78 // वन-(दर्शनके विषय ) में कुतूहलयुक्त उस ( नल) ने विकसित पत्र-समूहपर बैठे हुए भ्रमरोंके कपटसे चन्द्रचूड (शिवजी) के द्वारा व्यक्त होनेसे प्राप्त तथा दिशामि फैलते हुए भयशको धारण करते हुए केतकी-पुष्पको देखा। [ केतकी के विकसित पत्तोंपर गन्धकोमसे भ्रमर नहीं बैठे थे किन्तु वे शिवजीके द्वारा त्यक्त होनेसे फैलनेवाले कालेकाले अयश थे, उन्हें धारण करते हुए केतक-पुष्पको नलने देखा / पड़ोंसे परित्यक्त व्यक्तिका अयश होता है ] // 78 // पौराणिकी कथा-रामचन्द्र जी लक्ष्मग तथा सीताजीके साथ गया में गये तो पितृ भाद्धकी सामग्री लाने के लिए लक्ष्मणजी को नगरमें भेजा तथा स्वयं फल्गु नदीके किनारे पितरोंका भावाहन कर दिये। बब लक्ष्मणजी सामग्री लेकर नहीं आये और उनको गये बहुत विलम्म हो गया तब स्वयं श्रीरामचन्द्रजी मी सीताजीको वहीं छोड़कर सामग्री काने के लिए चल दिये। उन दोनों में कोई भी श्राद्धकी सामग्री लेकर वापस नहीं छोटा था, इसके पहले ही रामचन्द्रजीके पितरोंके हाथ मादपिण्ड लेनेके लिए बाहर निकले यह Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। देख श्रद्धासामग्री तथा उन दोनों में किसी एकके मी नहीं रहनेसे सीता पपड़ायीं कि भष पितरोंको प्रादपिण्ड किस प्रकार दिया जाय ? उसे घबड़ायी हुई देखकर भाकाशवाणी करते हुए पितरोंने कहा कि 'हे वत्से ! श्राद्धसामग्री नहीं होने पर मी तुम मत घबड़ामो और बालूका पिण्ड बनाकर हम लोगोंका श्राम करो'। सीताने वैसा ही किया तथा अपने इस श्राद्ध कार्यमें वहां उपस्थित गौ, अग्नि, फल्गु नदी और केतकीको साक्षी बनाया / विधिवत बाला प्रादपिण्ड पाकर पितरोंके हाथ अन्ततिहो गये ता रामचन्दनी तथा रुक्ष्मणबी श्राद्धसामग्री लेकर भाये और सीताजीने पूर्वोक्त चारों साक्षियों के सामने बालूके पिण्डद्वारा पितरों की मालासे श्राद्ध करनेकी पात उनसे कहो, किन्तु उन चारों साक्षियों ने 'हमें कुछ मी मालूम नहीं है' कह दिया और पितरों ने पुनः आकाशवाणीकर सीताबोके दिये हुए श्राद्धपिण्डको स्वीकार करनेका वृत्तान्त कहकर रामचन्द्रबीको पुनः श्राद्ध करनेसे निषेध किया। तब सीताजीने-तुम पागे (मुख) मागसे अपवित्र हो तो, तुम सर्वमक्षी होवो, तुम निर्जल (अन्तर्जक) होवो तथा तुम शिवजीका प्रिय न रहो' ऐसा शाप क्रमशः उन गौ, अग्नि, फल्गुनदी तथा केतकी-पुष्पको दिया। कहा जाता है कि उसी समय से उस स्थानपर बालूके पिण्डसे ही पितरों के बाद करनेकी प्रथा चालू हुई। यह कथा शिवपुराणमें आयी है। वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटुर्निधीयसे कणिशरः स्मरेण यत् / ततो दुराकषतया तदन्तकृद्विगीयसे मन्मथदेहदाहिना / / 4 // अथ निमिः केतकोपालम्ममाह-वियोगस्यादि। केतक! यद्यस्मारवं स्मरेण वियोगमाजांहदि कण्टकैः निजतीचणावयवैः कटुरतीचणः केतकविशेषणस्यापि कर्णि. शरस्वम् / विशेषणविवच्या पुंल्लिनिर्देशः, किन्तूहेश्य विशेषणस्य विधेयविशेषणत्वं क्लिष्टम् / कर्णवत् कर्णि प्रतिलोमशल्यं तद्वान् शरः कर्णिशरः सनिधीयसे कण्टककोः केतकस्य कर्णिशरस्वरूपणाद्रपकाळारः / ततः कणिशरस्वादिवद् दुराकर्षतथा दुसद्वारतया तदन्तकृत्तेषां वियोगिनां मारकं मम्मथदेहदाहिना स्मरहरेण विगीयते विगपे / वेष्यवत् द्वेष्योपकरणमप्यसद्यमेव, तदपि हिनं चेत् किमु वक्तव्यमिति भावः। अत्रेश्वरकर्तृकस्य केतकीविगणस्य तद्तवियोगिहिंस्रताहेतुफरवोस्प्रेक्षणादेतूस्प्रेक्षा ग्यजकाप्रयोगादम्या, सा चोक्तरूपकोस्थापितेति सङ्करः॥ 79 // ___कामदेव काँटोसे क्रूर ( भयकर ) कर्णयुक्त वाणरूप तुमको वियोगियोंके हायमें चुभाता है, इस हारण से (अपवा-कृणंयुक्तबाण होनेसे, अथवा-उस वियोगि हृदयसे ) कसे निकाले राने योग्य होने से उन विरदियोको मारने वाले तुमको कामदेव-शरीरदाहक (शिवजी ) निन्दित ( त्यक्त) करते हैं-('इस प्रकार क्रोरसे नलने केतकी पुष्पकी निन्दा की' ऐसा ममिम ( 1 / 81) लोकसे सम्बन्ध करना चाहिये)। [ कामदेवके सहायक तुम्हारा स्याग करना कामदेवदाहक शिवजी के लिए उचित ही है ] // 79 // त्वदप्रसूचीसचिवः स कामिनोमनोभवः सीव्यति दुर्यशःपटौ। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्फुटन पत्रः करपत्रमूर्तिभिर्वियोगिहरामणि दारणायते // 8 // स्वदिति / तवाप्राण्येव सूच्यः सचिवाः सहकारिणो यग्य स तथोकः स प्रसिद्धो मनोभवः कामिनी च कामी च कामिनी तयोः, 'पुमान् सिपे'त्येकशेषः / दुर्यशासि अपकीर्तयाताः पटाविति रूपकं तानि सीव्यति कण्टकस्यूतं करोतीत्यर्थः। किश्चेति चायः करपत्रमूतिमिः कचाकारः, 'क्रकचोऽसी करपत्रमित्यमरः / पत्रेस्तैर्वियोगि. नां हृयेव दारुणि दारयनीति दारुणो विदारको भेत्ता स इवाधरतीति दारुणायते, 'कतः क्यड़ सलोपश्चेति क्यडन्तात् लट् / दारागायत इस्युपमा, सा च दारणीति रूपकानुप्राणितेति सारः // 80n कामदेव तुम्हारे प्रमाग (नोक) रूपी सरंकी सहायतासे कामी सी-पुरषों के दुष्कोतिरूप बयोंको सोता है, तथा वह कामदेव भारे ( लकदी चीरनेका अनविशेष ) के समानाकार तुम्हारे पोंसे वियोगियोंके हृदयरूप कढीपर भपरप हो बारेके सभाम म्यपहार करता-(इस प्रकार कोषसे नठने केसको-पुस्पको निन्दा की' ऐसा सम्बन्ध मग्रिम ( 1981 ) कोकके साथ करना चाहिये ) [ केवको पुष्प देखनेसे कामी एवं विरही सी-पुरुषोंका पेमङ्ग होता है, पिसके कारण दुष्कोति पारे, तवा मारेके समान भाकारवाले केतकी-पत्रको देखनेसे उनका हृदय मारेसे चोरे जाते एके समान विदीर्ण होता] // 8 // धनुमधुस्विनकरोऽपि भीमजा परं परागैस्तव धूनिहस्तयम् | प्रसूनापन्वा शरसात्करोति मामिति क्रुषाऽऽकश्यत तेन कैतकम् / / 81|| पारिति / केतक! प्रसनं धन्वा बनुयंस्पति प्रसनबन्ना पुपचापः / 'वासंज्ञा. पामि' स्वबहादेशः। मत एव पशुपो महनामकरन्देन स्विकमाईपाणिःसन् अत एवं परागैःरमोमिा धूलिहस्तपन् पुनः पुनः धूल्युदावितहस्तमात्मानं रुपन् अन्यथा भनंपनादिति भावः, तरकरोतेयन्ताक्टः पत्रादेशः। मविभीमनापरमतिमा दमयस्यासक्तं मां शरसात् पराधीनरोति, 'तपधीने ' इति सातिप्रत्ययः, अन्यथा सस्तापास मोकिं कुपोदिति भावः। इतीत्थं श्लोकायोतिरिति तेन रामा कवा केतकमाकश्यत अपराधोदाटने अघोप्यतेत्यर्थः // 8 // पुष्पपन्ना (कामदेव ) धनुषके मधुसे भाद्रास्त होकर तुम्हारे परार्मोसे हायको धूपित करता हुमा दमयन्तीमें भत्यासल मेरे मनको बाणों के अधीन कर रहा है, ऐसे क्रोबसे उस नळने उस केतकी पुष्प को निन्दा की। [पुष्पमय धनुष के मधुसे आर्द्रहस्त कामदेव यदि तुम्हारे परागोंसे हायको धूलियुक्त नहीं करता तो लक्ष्यभ्रष्ट होने मुझे बाणपादित नही कर सकता, भतएव मेरे काम-बाणसे पीड़ित होने तुम्ही मुख्य कारण हो ऐसा कोषसे करते हुए नग्ने केतकी-पुष्पकी जिन्ना की अनुषको बहुत समय तक पकड़े रहनेसे बर बनुरोका हाय पसीजने गता है, तब वह हायमें धूलि बगाकर उसे सूखा कर लेता है और वेसा करनेसे वह अक्ष्यका ठीक-ठीक वेव करता है ] // 81 // Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। विदर्भसुभ्रस्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि धूमस्य धयानधोमुखान स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // 2 // विदर्भेति / 'तरुगुल्मळतादीनामकाले कुशलैः कृतम् / पुष्पादुरपादितं द्रव्यं दोहदं स्यात्तु तरिक्रया // ' इति शब्दार्णवे। दोहदश्वासौ धूपच तदुक्तं 'मेषामिषाम्बुसंसे. कस्तरके शामिषधूपनम् / श्रेयानयं प्रयोगः स्याद् दारिमीफलवृद्धये // मरस्याज्यनिफळालेपैर्मा सैराजाविकोद्भवैः / लेपिता धूपिता सूते फलन्तालीव दाडिमी // अविष्काथेन संसिका धूपिता तप्तरोमभिः। फलानि दाडिमी सूते सुबहूनि पृथूनि च // ' इति / तति दारिमीद्रुमे फलानि विदर्भसुभ्रुवो दमयन्त्याः स्तनयोर्या तुगता तदाप्तये तारगौनस्यलाभायेत्यर्थः / अलमस्यर्थन्तपस्यतस्तपश्चरतः, 'कर्मणो रोमन्थ. तपोभ्यां वर्तिचरोरिति पहप्रत्यये तपसः परस्मैपदश्च वक्तव्यं, धूमस्य दोहद. धूमस्य धयन्तीति धयान् पातन , धेट-पाने अत्र 'आतश्योपसर्ग' इति उपसर्गग्रहणान्नानुवर्ति-पक्षस्वात् 'पाने त्यादिनाऽनुपसृष्टादपि धेटः शप्रत्यय इति गतिः। भत एव काशिकायां केचिदुपसर्ग इति नानुवर्तयन्तीति / अधोमुखान् घटानिव अपश्य दिस्युरप्रेक्षा / महाफलार्थिन इस्थमुग्रं तपस्यन्तीति भावः // 82 / / उस नलने दोहद धूपयुक्त अनारके पेड़पर दमयन्तीके स्तनद्वयकी विशालताको पाने के लिए अधोमुख हो धूमका पान करनेवाले, तप करते हुए घड़ों के समान फलोंको मच्छी तरह देखा। [दमयन्तीके स्तन बहुत बड़ेबड़े थे, पटाकार अनारके फल मी चाहते थे कि हम भी दमयन्ती स्तनों के समान ही बड़े हों, अतएव वे दोहद धूपयुक्त अनारके पेड़पर अधोमुख हो लटकते हुए ऐसे ज्ञात होते थे मानो वे दमयन्तीके स्तनों के समान बड़े होने के लिए अधोमुख हो अत्यन्त कठिन तपस्या कर रहे हों, ऐसे उन फलों को नलने देखा / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी बड़े अमीष्टकी सिद्धि के लिए अधोमुख हो धृम का पान करता हुआ घोर तपस्या करता है। पेड़में अच्छे फल लगने के लिए विविध द्रव्यों द्वारा वृक्षके नीचे दिये गये धूमको 'दोहद' कहते हैं ] / / 82 // वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ प्रियस्मृतेः स्पष्टमुदीतकण्टकाम् | फलस्तनस्थानविदीर्णरागिहद्विशच्छकास्यस्मरकिंशकाशगाम // 3 // वियोगिनीमिति / असौ नलः प्रियास्मृतेदमयन्तीस्मरणादिव स्पष्ठं व्यक्तमुदीतेति ई गताविति धातोः कर्तरि क्तः। उदीता उद्गताः कण्टकाः स्वावयवसूचय एव कण्टका रोमाञ्चा यस्यास्तामिति श्लिष्टरूपकम् / 'वेणी द्रुमाङ्गे रोमाञ्चे क्षुद्रशत्रौ च कण्टके' इति वैजयन्ती। फलान्येव स्तनौ तावेव स्थानं तत्र विदीर्णो रागो यस्यास्तीति रागि रक्तवर्णमनुरक्तञ्च यत्तस्मिन् हृदि विशत् बीजभक्षणान्तःप्रविशच्छुकास्यरूपं शुकतुण्डमेव स्मरस्य किंशुक पलाशकुडमलमेवाशुगो बाणो यस्यास्तां दादिमीमेव वियोगिनी विरहिणीमैक्षत अपश्यत् / रूपकालङ्कारः। विपक्षी तयोगिनीमिति च गम्यते // 83 // 40 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम्। इस (न) ने पक्षीयुक्त, दोहदप्राप्तिसे कण्टकित तथा मध्यमें विदीर्ण होनेसे लाल फहमें दामोंको खानेके लिए सुग्गों के प्रविष्ट होते हुए चोंचोंसे युक्त दारिमी (अनार ) को देखा, वो प्रियका स्मरण होनेसे रोमात्रयुक्त तथा स्तनमध्यमें विदीर्ण होनेसे रक्तवर्ण हृदय में कामदेवके पलाश-पुष्पमय बाण जिसमें प्रविष्ट हो रहे हैं ऐसी विरहिणी नायिकाके समान प्रतीत होती थी। [नलने दाडिमीको देखा, जो पक्षियोंसे तथा दोहद (धूपादि) प्राप्त होनेसे कण्टोसे युक्त थी, एवं जिसके विदीर्ण हुए फलके मध्यमें दानों को खाने के लिए प्रविष्ट होते हुए मुग्गोंके चोच ऐसे मालूम पड़ते थे मानों प्रिय-स्मरण से रोमानियुक्त विर. हिणीके स्तनमध्यमें विदीर्ण होनेसे लालिमा युक्त हृदयमें कामदेवके पलाशपुष्परूप बाण घुस रहे हो। अथवा-परमात्माके साक्षात्काररूप फलका बोधक (तुरीयावस्थारूप) स्थान. से व्युत पूर्वकाको विषयों में अनुरागी हृदयमें प्रवेश करते (स्थिर होते ) हुए उपदेशसे हटाये जाते हैं। कामदेवके पलाशपुष्पमय बाण जिससे ऐसी, तथा परमप्रिय सच्चिदानन्दके स्मरणसे (शीघ्र प्राप्तिको माशासे हातिशय होने के कारण ) रोमाञ्चयुक्त विशिष्ट योगिनीको (या-उक्तरूपा योगिनीके समान दारिमीको ) नलने देखा ] // 83 // स्मरा चन्द्रेषुनिभेकशीयसां स्फुटे पलाशेऽध्वजुषाम्पलाशनात् / स वृन्तमालोकत खण्डमन्वितं वियोगिहरखण्डिनि कालखण्डजम् / / 4 / / स्मराति / नलः स्मरस्य योऽ चन्द्रः मर्दचन्द्राकार इषुस्तभिभे तस्साशे नित्यसमासवादस्वपदविग्रहः, अत पाहामरः-'स्युत्तरपदे स्वमी। निमसाशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः' इति / वियोगिनां हृरखण्डिनिहायवेधिनि कशीयसांकृश. तराणामध्वजुषामध्वगामिनाम् पलाशनात् मांसभक्षणात् पलाशे पलमश्नातीति शुष्परथा पलाशसंज्ञामाजिकिंशुककलिकायामित्यर्थः / अन्वितं सम्वद्धं वृन्तं प्रसवबन्धनं तदेव कालखण्ड खण्डं यकरखण्डमिति व्यस्त रूपकम् ।आलोकत आलोकि. तवान् / 'कालखण्डं यकृरसमे' इत्यमरः। तच दक्षिणपार्श्वस्थः कृष्णवर्णो मांस. पिण्डविशेषः / / 84 // उस ( नक) ने कामदेवको अर्द्धचन्द्राकार पाणके समान, वियोगियोंके हृदयको विदीर्ण करनेवाले ( मतएव ) अतिशय दुर्बल (घर भाते हुए विरही) पथिकों के मांसका मक्षण करनेसे वस्तुतः पलाश अर्थात अन्वर्थ 'पलाश' नामवाले वृक्षपर कालखण्ड (वियोगियों के दक्षिण हृदय के कृष्णवणं मांस) से उत्पन्न वियोगि-हृदयके अंशके समान वृन्त (फूलकी भेटी - ऊपरी इण्ठल-जहाँसे फूल टूटकर अलग होता है) को देखा। (पाशवृक्षपर अहं नन्दाकार फूल लग रहे थे, वे कामदेवके वियोगि-घातक भद्धचन्द्राकार बाणके तुल्य मालूम पड़ते थे, उन फूलों के ऊपर कृष्णवर्ण वृन्त ऐसे मालूम पड़ते थे कि कामदेवने बो विरहियोंके दाहिने पाश्वमें भद्धचन्द्राकार किंशुक-पुष्पमय वाणसे प्रहार किया है, उस बाणमें उन विरहियोंके दक्षिण पाश्वका कृष्णवर्ण मांसका कुछ माग सम्बर हो गया ( सट गया) है। तथा उन पलाशपुष्पोंको देखनेसे वसन्तका मागमन मालूम कर विरही Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। पयिक कापपीरित होकर दुर्वक हो रहे थे, अतएव 'पलमश्नाति इति पलाशः' (मासको जो खाता है, उसे 'पलाश' कहते हैं ) इस विग्रहसे उक्त पलाशवृक्षका नाम सार्थक-सा हो रहा था / 84 // नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता करम्बिताङ्गी मकरन्दशीकरैः / दृशा नृपेण स्मितशोभिकुड्मला दरादराभ्यां दरकम्पिनी पपे / / 8 / / नवेति / गन्धवहेन वायुना चुम्बिता स्पृष्टा अन्यत्रानुलिप्तेन पुंसा वीचिता मक. रन्दशीकरैःपुष्परसकणैः करम्विताली ब्यामिश्रितरूपाअन्यत्र स्विन्नाङ्गीति च गम्यते। स्मितशोभिनः विकासरग्याः कुडमला मुकुलारदमाश्च यस्यास्तांमन्दहासमधुरदन्तमुकुला च गम्यते / दरकम्पिनी वायुस्पर्शादीषकम्पिनी सात्त्विकवेपथुमती च नवा लता वल्ली तत्सरशी कान्ता च गम्यते / नृपेण की दशा करणेन दरादराभ्यां भय. तृष्णाभ्यामुपचितेन सता पपे अवेदिता गाढं दृष्टा इत्यर्थः। उद्दीपकत्वात् दरः प्रिया. साहश्यादादरश्च / 'दरोऽत्री शङ्कभीगतेष्वरुपार्थे स्वव्ययम्' इति वैजयन्ती। अत्रप्र. स्तुतविशेषणसाम्याइप्रस्तुतनायिकाप्रतीतेः समासोक्तिरलधारः। 'विशेषणस्य तीक्ष्येन थत्र प्रस्तुतवर्णनात् / अप्रस्तुतस्य गम्यरवे सा समासोक्तिरिष्यत्' 'इति लक्षणात् // ( नायकरूप ) वायुसे चुम्बित ( स्पष्ट ), मकरन्दकणोंसे रोमानित शरीरवाली, ईषदि. कसित एवं शोममान कलिकाओंवाली, कुछ कम्पायमान नवीन ( पल्लववालो ) लताको भय (विरहियों को दुःखद होनेसे उक्त लताको देखनेसे उत्पन्न डर ) तथा ( सुन्दरता होनेसे ) आदरसे युक्त राना ( नल ) ने नेत्रसे मानो उस प्रकार पान किया अर्थात् देखा, जिस प्रकार कस्तूरी, कर, चन्दनादिकी सुगन्धिसे युक्त नायक द्वारा चुम्बित, प्रियस्पर्शसे रोमान्चित अङ्गों वाली, थोड़ा स्मित करती हुई तथा सात्त्विक मावके उत्पन्न होनेसे कुछ कम्पन युक्त नायिकाको (परस्त्री होनेसे ) भयपूर्वक तथा सुन्दरी होनेसे भादरपूर्वक कोई दूसरा नायक देखता है। ( अथवा-बाल 6-शैशव के ले शसे रहित अर्थात् युवावस्थायुक्त तरुणसे चुम्बित...) // 85 // विचिन्वतीः पान्थपतङ्गहिंसनैरपुण्यकर्माण्यलिकजलच्छ लात् / व्यलोकयचम्पककोरकावलीः स शम्बरारेबलिदीपिका इव // 86 // मरः / तेषा हिंसनः वधः अपुण्यकर्माण्येव अलयः कजलानीवेत्युपमितसमासः। तेषां छलादित्यपहवालङ्कारः। विचिन्वतीः संगृलती: हिंसापापकारिणीरित्यर्थः। चम्पक कारकावलाः शम्बरारेमनसिमस्य बलिदीपिका पूजादीपिका इस्युरप्रेक्षा, स भको यलोकयत् / / 86 // पयिकरूप पतझोंकी ( हिंसासे, भ्रमररूपी कजसके कपटसे पापकर्मको एकत्रित करशी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / हुई कामदेवकी) बहि-दीपिकामों (पूनार्थ दीपकों ) के समान चम्पककी कलिकामों के समूहको उस (नल ) ने देखा। [चम्पककलियों के कामोद्दीपक होने से उन्हें देखकर विरही पथिक उस प्रकार मर जाते थे जिस प्रकार दीएककी लोपर पतङ्ग (फुनगे) मर जाते हैं, एन कलिकाओंपर बैठनेवाले भ्रमर उन दोपकोंके कजलके समान मालूम पड़ते थे, उसीको कविने पथिकों के मरनेसे उत्पन्न अयशको उत्प्रेक्षा की है, उन्हें कामदेवके पूजा दीपकोंके समान नलने देखा। दीपककी लौ के समान चम्पाकी कलियाँ भी पीली होती हैं। कुछ डोगोंका मत है कि चम्पाके फलपर भ्रमर नहीं बैठते और उसपर बैटते तो है, किन्तु मर माते है, ऐसा प्रामाणिक लोग कहते हैं, यह 'प्रकाश' कारका कथन है ] // 86 // अमन्यतासौ कुसुमेषुगर्भज परागमन्धकरणं वियोगिनाम् / स्मरेण मुक्तेषु पुरा पुरारये तदङ्गभस्मेव शरेषु सङ्गतम् // 87 // अमन्यतेति / असौ नलः कुसुमाग्येव इषवः कामबाणास्तेषां गर्भ गर्भजातं वियोगिनामिति कर्मणि षष्ठी।अन्धाः क्रियन्तेऽनेनेत्यन्धङ्करणं 'भाग्यसुभगे'त्यादिना भव्यर्थे ज्युन्प्रत्ययः, 'अरुर्विषदित्यादिना मुमागमः। तं परागं पुरा पूर्व पुरारये पुरहराय स्मरेण मुक्तेषु शरेषु सङ्गतं संसक्तं तस्य पुरारेरो यद्दस्म तदिवामन्यत इति उत्प्रेरितवानित्यर्थः / पुरा पुरारये ये मुक्तास्त एवैते पुरोवर्तिनः कुसुमेषव इत्यभिमानः, अन्यथैषां तदङ्गमस्मसङ्गोस्प्रेक्षानुस्थानादिति // 87 // रस (नल ) ने फूलों के मध्यगत परागको वियोगियोंको अन्धा करनेवाला, पूर्वकालमें कामदेवके द्वारा शिवजीपर छोड़े गये (पुष्पमय ) वाणों में लगा हुआ शिवजीके शरीरका भस्म माना। [ भस्म आँखमें पड़नेपर लोगोंको अन्धा कर देता है तथा फूलोंके परागोंको देखकर विरही मी कामपीड़ित हो अन्धे ( विवेकहीन ) हो जाते हैं ] / / 87 / / पिकाद्वने शृण्वति भृङ्गहुकृतैर्दशामुदश्चत्करुणं वियोगिनाम् / अनास्थया सूनकरप्रसारिणीं ददर्श दूनः स्थलपद्मिनी नलः // 8 // पिकादिति / बने उपवने श्रोतरि पिकाक्तः सकाशात् भृङ्गहुकृतैर्वियोगिनां दशामलिहुशरकृतां दुःखावस्थामित्यर्थः / उदवरकरुणं विकसवृक्षविशेषमुद्यस्कृपञ्च यथा तथा अण्वति सति, 'करुणस्त रसे वृक्ष कृपायां करुणा मते'ति विश्वः / अनास्थया श्रोतुमनिच्छया सूनं प्रसूनमेव करं प्रसारयतीति प्रसारिणी पुष्परूप. हस्तविस्तारिणी तथोक्कामनिष्टकथां करेण वारयन्तीमिव स्थितामित्यर्थः / सूनकरेति प्रसारिणीमितिरूपकानुप्राणिता गम्योत्प्रेक्षयम् / स्थलपद्मिनी नलो दूनः परितप्तः सन् दुडः कर्तरिक':, 'स्वादिभ्यश्चेति निष्ठानस्वम् / बदर्श // 88 // 1. इयं भ्रममूलिकोक्तिः स्वादिषु 'लू स्तृञ् कृञ् वे धूञ् श प व भ म दृ ज (झ ध) न कृ ऋ गृ ज्या रीकी की प्ली' इत्येतेषामेव धातूनां परिंगणनात् / ततो दीपांदूरः स्वादिस्खेनौदिसवानिष्ठानः' इति 'प्रकाश'व्याख्यानमेव सदित्यवधेयम् / 8 . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। (कामपीड़ित होनेसे ) कृश नलने (मल्लिकाके समान पुष्पवाला ) करुणपक्ष जिसमें विकसित हो रहे हैं, ऐसे तथा भौरे मानो हुँकारी' मर रहे है, ऐसे उनके गुञ्जनों के द्वारा कोयलोंसे विरहियों की दशा को सुनते हुए वनमें नलको अधीरतासे ( अथवा-मनाइरसे) पुष्परूपी हाथको फैलायो हुई स्थलकमलिनीको देखा। [जिसमें करुणवृक्ष फूल रहे थे, कोयक मानो विरहियोंकी दशा कह रही थी तथा गूंजते हुए भ्रमर मानो 'हूँ-हूँ' कहकर 'हुंकारी' मर रहे थे; ऐसे वनमें ( तुम्हें ऐसा करना अनुचित है इस मावनासे मानो) पुष्परूपी हायको फैलायी हुई स्थलकमलिनीको कामपीड़ासे दुर्बल नलने देखा ) छोकमें मी किसीको अनुचित कार्य करते हुए देखकर दूसरा सज्जन व्यक्ति अनादरसे हाथ फैलाकर उसे निषेध करता है। वन में करुगवृक्ष विकसित हो रहे थे, कोयक कुहक रही थी, भ्रमर गूंज रहे थे तथा स्थल कमलिनी फूल रही थी, इन सबोंको कामपीड़ित नलने देखा ] // 88 // रसालसालः समदृश्यतामुना स्फुरद्विरेफारवरोषहुकृतिः / समीरलोलैर्मुकुलैर्वियोगिने जनाय दित्सन्निव तर्जनामियम् / / 1 // रसालेति। अमुना नलेन स्फुरन्तो द्विरेफास्तेषामारवो भ्रमरझकार एव रोषेण या हुकृतिहुंङ्कारो यस्य सः समीरलोलैर्वायुचलैर्मुकुलैरङ्गुलिभिरिति भावः। वियो. गिने जनाय तर्जनाभियं दिसन् दातुमिच्छशिव स्थितः, ददातः सन् प्रत्ययः 'सनिमीमेत्यादिना इसादेशः, 'भन लोपोऽभ्यासस्येत्यभ्यासलोपः, 'सस्यार्धधातुक' इति सकारस्य तकारः। रसालसालश्वतवृषः समदृश्यत सम्यग्दृष्टः। द्विरेफेत्यादिरूप. कोस्थापितेयं तर्जनामयजननोस्प्रेक्षेति सङ्करः // 89 // इस ( नल ) ने भ्रमण करते हुए भ्रमरों के समन्ततः गुञ्जनरूपी हुकारवाले आमके पेड़को वायुसे चञ्चल मअरियों ( बोरों) द्वारा विरहिजनको डरवाता हुभा-सा देखा। [ आम के पेड़पर बोरें लग गयी थीं, वे वायुसे धीरे धीरे हिल रही थीं, उनपर मौरे उड़ते हुए गूंज रहे थे, जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह आमका पेड़ भौरों के गुअनरूपी हुकारोंसे मअरीरूपी हाथको हिला हिलाकर विरहियों को तर्जित कर ( डरा) दिने दिने त्वं तनुरेधि रेऽधिकं पुनः पुनर्मूर्छ च मृत्युमृच्छ च | इतीव पान्थं शपतः पिकान द्विजान सखेदमैक्षिष्ट स लोहितेक्षणान् ||10|| दिने दिने इति / रे इति हीनसम्बोधने / त्वं दिने दिने अधिकं तनु एधि अधिक कृशो भव, अस्तेर्लोट सिप'इझलभ्यो हेर्धिरिति धिरवम् , वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च' इति एवम् , पुनः पुनः मूर्च्छ च मृत्यु मरणमृच्छ च इति पान्थं नित्यपथिकं शपतः शपमानानिव स्थितानित्युत्प्रेक्षा, लोहितेक्षणान् रक्तदृष्टीन् एकत्र स्वभावतोऽन्यत्र रोषाच्चेति द्वष्टम्यम् , पिकान् कोकिलान् द्विजान् पक्षिणो ब्राह्मणांश्व ल नलः सखेव. मैशिष्ट। स्वस्यापि उक्तशङ्कयेति भावः // 90 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / 'रे पथिक ! तुम प्रतिदिन भषिक दुर्बल होवो, बार-बार मूच्छित होवो और सन्ताप प्राप्त करो' इस प्रकार विरही पथिकों को शाप देते हुए रक्तवर्ण नेत्रवाले पिक पक्षियों (पक्षा०-क्रोधसे लाल नेत्र किये हुए ब्राह्मणों ) को नलने खेदपूर्वक देखा // 90 // अलिम्रजा कुड्मलमुचशेखरं निपीय चाम्पेयमधीरया दशा। स धूमकेतुं विपदे वियोगिनामुदीतमातङ्कितवानशङ्कत // 11 // अलिसजेति / अलिस्रजा भ्रमरपंक्श्या उच्चशेखग्मुन्नतशिरोभूषणम् अलिमलिना. गमित्यर्थः / 'शिखास्वापीडशेखराविश्यमरः / चाम्पेयं चम्पकविकारं कुडमलम 'अय चाम्पेयः चम्पको हेमपुष्पक' इत्यमरः। नन्वयुक्तमिदं 'न षटपदो गन्धफली. मजिघ्रदित्यावावलीनां चम्पकस्पर्शामावप्रसिद्धेरिति चेत् नैवं किन्तु स्पृष्टेयन्ता. वतैवास्पोंकि कचित् केषाचित् उतपरिहारः अथवा चारपेयं नागकेसरं 'चाम्पेय. केसरो नागकेसरः काशनाह्वय' इत्यमरः / अधीरया दृशा निपीय विक्लव दृष्या गाढं दृष्ट्वा आशङ्कितवान् किदिनिष्टमुस्प्रेषितवान् / स नलः 'अनिष्टाभ्यागमोस्प्रेक्षा शङ्कामाचाते बुधाः' इति लपणात् / वियोगिनां विपदे रदीत मुस्थितं धूमकेतुम शात अतर्कयदित्युत्प्रेलाल कारः॥९१ // __ भ्रमर पक्तिसे उन्नत अग्रमागवाले चम्पाकी बालिकाको धीरताहीन बुद्धिसे अर्थात धेयरहित हो देखकर आतङ्कयुक्त उस नलने उसे वियोगियोंकी विपत्तिके लिए उदयको प्राप्त धूमकेतु माना // 91 // गलत्परागं भ्रमिभङ्गिभिः पतत् प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् / स मारनाराच निघर्षणस्खलज्ज्वलत्कणं शाणमिव व्यलोकयत् / / 62 / / गलदिति / स नलो गलरपरागं निर्यद्रजस्कं भ्रमिसनिभिः भ्रमणप्रकारैरुपलक्षितं पतद् अश्यत् प्रसत्तभृशावलि सक्कालिकुलं नागकेसरं कुसुमविशेष मारनाराचनि. घर्षणः स्मरशरकर्षणः स्खलन्तः लुठन्तः ज्वलन्तश्च कणाः स्फुलिङ्गा यस्य तं शाणं निकषोरपळमिवेस्युस्प्रेक्षा ग्यलोक यत् , 'शाणस्तु निकषः कष' इत्यमरः // 12 // _____ उस ( नल ) ने गिरते हुए परागवाले, चक्कर काटते हुए दूसरे वृक्षोंसे आते हुए भ्रमरसमूहवाले नागकेसर-पुष्पको कामदेवके बाणके रगडनेसे निकलती हुई जलती चिनगारी वाले शाण के समान देखा / / 92 / / तदङ्गमुदिश्य सुगन्धि पातुकाः शिलीमुखालीः कुसुमाद् गुणस्पृशः / स्वचापदुनिर्गतमार्गणभ्रमात स्मरः स्वनन्तीरवलोक्य लज्जितः / / 63 / / ___तदामिति / सुगन्धि शोभनगन्धं गन्धस्येत्यादिना समासान्त इकारः / तदर्श तस्य नलस्यानमुहिश्य लषयीकृत्य गुणो गन्धादिः मौवीं च, 'गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येन्द्रियामुख्यतन्तुग्विति वैजयन्ती। तरस्पृशस्तद्युक्ताः 'स्पृशोऽनुदके क्विन्' कुसुमाद. पादानात् पातुका धावन्तीः, 'लषपतेत्यादिना उकअप्रत्ययः। स्वनन्तीयनन्तीः Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। शिलीमुखाली भलिपंकीः वामपंक्तीमावलोक्य स्मरः स्वचापात् पौष्पाद शु वर्गमा विषमनिर्गता ये मार्गणा वाणास्तद्भमादेतोजितोऽभवत् न्यूनमिति शेषः / दुर्मिगतेषवो अधिक स्वनन्तीति प्रसिद्धः / अत्र स्वनच्छिलीमुखेषु दुर्निर्गतमार्ग बन्नाद भ्रान्तिमदलङ्कारः स च शिलीमुखेति श्लेषानुप्राणितादुस्थापिता घेयं श्य कजितस्वोस्प्रेत्यनयोरनाङ्गिभावेन सः // 93 // पुष्पों की अपेक्षा सुगन्धित नल-शरीरको उद्देश्य ( लक्ष्य ) कर चली हुई, गुणदणी (सुगन्धिगुणको चाहनेवाली, पक्षा०-प्रत्यनाका स्पर्श की हुई), शम्द करती (पक्षागूंजती ) हुई भ्रमर-पछिक्त देखकर अपने धनुषसे दुःखपूर्वक अर्थात् भ्रष्ट होकर निकले हुए माणके भ्रमसे कामदेव लज्जित-सा हो गया। [ नसके शरीरको सुगन्धि पुष्पोंसे बाधिक यो, अतएव पुष्पों को छोड़ छोड़ कर भ्रमरसमूह नल-शरीरपर गूंजते हुए आ रहे , हमें देखकर कामदेव 'ये मेरे पाण ( पुष्परूप चापकी प्रत्यञ्चासे निकलकर लक्ष्य अष्ट हो' करते हुए जा रहे है ऐसा भ्रम होनेसे मानो लज्जित हो गया। लक्ष्यभ्रष्ट होकार बाणको देख धनुर्धर को लज्जित होना उचित है ] // 93 / / मरबलत्पल्लवकण्टकैः क्षतं समुच्चरश्चन्दनसारसौरभम् / स वारनारीकुचसश्चितोपमं ददर्श मालरफलं पचेलिमम् / / 14!! महदिति / मरुता वायुना ललरपल्लवानामलस्किसलयानां कण्टकैती यवैः चतमन्यत्र विलसदिटनखैः पतमिति गम्यते, समुच्चरत् परितः प्रस्टप 5. नसारस्येव सौरभं यस्य तव अतएव वारनारीकुचेन वेश्यास्तनेन सशिता सम्पादितसाहश्यमित्युपमालङ्कारः। 'वारस्त्री गणिका वेश्येत्यमरः। कुलानाखाताधनौचित्याद्वारविशेषणं, पचेलिमं स्वतः पक्कं कर्मकर्तरि केलिमर उपसंया. नमिति पचेः केलिमर प्रत्ययः / मालूरफलं बिल्वफलं 'बिल्वे शाण्डिल्योलापौ मालूरः श्रीफलावपी'त्यमरः / स नलो ददर्श / / 94 // उस ( नल ) ने वायु से कम्पित शाखाग्रके कण्टकों से ( पक्षा०-वायुके समान विकास करते हुए विट ( धूत नायक ) के कण्टकतुल्य नखोसे ) क्षत, निकलते हुए चन्दन के समान श्रेषु सुगन्धवाले ( पक्षा-निकलते हुए चन्दनके श्रेष्ठ गन्धवाले ) वेश्याके स्तनोंकी प्तमानताको पाये हुए पके बेळके फल को देखा // 9 // युवद्वयीचित्तनिमजनोचित प्रसूनशून्येतरगर्भगह्वरम् / स्मरेषुधीकृत्य धिया भियाऽन्धया स पाटलायाः स्तबकं प्रकम्पितः / / 6 / / युवेति / युवा च युवती च तयोयूनोईयो मिथुनं तस्याश्चित्तयोः कर्मणोनिमलने ग्यन्ताल्लुट् उचितैः पमैः प्रसूनैः पुष्पबाणैः शून्येतरदशून्यं पूर्ण गर्भगहरं गर्भ कुहरं यस्य तत् पाटलायाः पाटळवृषस्य स्तबकं कुसुमगुरुम्मियान्धया भयमू. ढया धिया भयजन्यभ्रान्स्येत्यर्थः। स्मरेषुधीकृश्य कामतूणीकस्य तथा विभग्य Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / इत्यर्थः, अत एव भयात् प्रकम्पितश्चकम्पे। अत्र पाटलस्तबके मदनतूणीरभ्रमात प्रान्तिमदलकारः। 'कविसंमतसादृश्याद्विषये विहितात्मनि / आरोप्यमाणानुभवो यत्र स भ्रान्तिमान्मतः॥ इति लक्षणात् // 95 // वे ( नल) युवक मिथुनके हृश्यमें प्रवेश करनेके योग्य पुष्पोंसे पूर्ण मध्य मागवाले पाटला गुच्छको भयसे अन्धी ( विचारशन्य ) बुद्धिसे कामदेवका तरकस समझकर कम्पित हो गये। [ नकने पाटलाके गुच्छको पुष्पोंसे परिपूर्ण देखकर समझा कि यह विरही युवक-दम्पति के हृ दयको वेधनेवाला कामदेव के बाणों से भरा हुआ तरकस है, अतः वे स्वयं भी विरही होनेके कारण उसके मयसे कम्पित हो गये। भयके कारण विचार-शक्तिके नष्ट होनेसे नलने वैसा समझा] // 95 // मुनिद्रुमः कोरकितः शितिद्युतिर्वनेऽमुनाऽमन्यत सिंहिकासुतः। तमिस्रपक्षत्रुटिकूटभक्षितं कलाकलापं किल वैधवं वमन् / / 16 // मुनीति / अमुना नलेन वने कोरकितः सजातकोरकः शितिद्युतिः पत्रेषु कृष्ण. छविः मुनिगुमोऽगस्त्यवृक्षः तमित्रपक्षे त्रुटिकूटेन ज्यव्याजेन भक्तिम् मस्तित्वे कुतः पय? इति भावः / अत्र कूटशब्देन क्षयोपह्नवेन भरणारोपादपह्नवभेदः / वैधवं चन्द्रसम्बन्धि विधुः सधांशुः शुभ्रांशुरि'त्यमरः। कलाकलापलासमूह वमन्नुगिरन् सिंहिकासुतो राहुरमन्यत किल खलु ? अत्र कोरकितशितद्युतित्वाभ्यां मुनिगमस्येन्दुकलाकलापवमनविशिष्टराहुस्वोस्प्रेक्षा, सा चोक्तापहवोस्थापितेति सरः / / 96 // इस ( नल) ने वनमें कोरकित कृष्णवर्ण अगस्त्यको कृष्णपक्षमें चन्द्र कलाक्षयके कपटसे मक्षित चन्द्रकलाको वमन करते ( उगलते ) राहु के समान माना / ( अथवा-.......... अन्धकारमें कपटपूर्वक खाये गये पशु आदिको वमन करते हुए सिंह के बच्चे के समान माना)। [प्रथम मर्थमें - यह राहु चन्द्रमाको खा गया था, अतएव मुझे सन्ताप नहीं होता है किन्तु अब पुनः चन्द्रमाको यह वमन कर रहा है, अतएव मुझे यह चन्द्रमा सन्तप्त करेगा, ऐसा समझकर वे डर गये। द्वितीय अर्थमें अन्धकारमें पशुको खाकर उसे उगलते हुए सिंहको वनमें देखनेसे मय होना उचित ही है। अगस्त्यको कोरकयुक्त देख उसके कामोद्दीपक होनेसे विरही नक हर गये ] // 96 // 'पुरोहठाक्षिप्ततुषारपाण्डरच्छदा' वृतेर्वीरुधि नद्धबिभ्रमाः / मिलन्निमीलं विदधुविलोकिता नभस्वतस्तं कुसुमेषु केलयः // 7 // पुर इति / पुरोऽग्रेहठात् झटिस्याचिप्ता आकृष्टातुषारेण हिमेन पाण्डराणां छदानां पत्राणां तुषारवत् पाण्डरस्य छदस्याच्छादकस्य वस्त्रस्य चावृतिरावरणं येन तस्य नमस्वतो वायोः वीरुषि लतायां नद्धाः अनुबद्धा विभ्रमा भ्रमणानि विलासाश्च 1. 'पुरा इति' पाठान्तरम्। 2. 'च्छदा वृते-' इति पाठान्तरम् / 3. 'बद्ध-' इति पाठान्तरम् / 4. 'ससृजु-' इति पाठान्तरम् / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। यासान्ताः कुसुमेषु विषये केलयः क्रीडाः कुसुमेषु केलयः कामकीडाश्च विलोकिताः सत्यस्तं नृपं नलं मिनिमीलो मिलनं यस्य तं विदधुः निमीलिताक्षरित्यर्थः / विरहिणामुद्दीपकदर्शनस्य दुःसहदुःखहेतुस्वात् अन्यत्र ('नेक्षेता न नाग्नां स्त्रों न च संस्पृष्टमैथुनामिति निषेधादिति भावः।) अत्र प्रस्तुतनमस्वद्विशेषणसाम. दिप्रस्तुतकामुकविरह प्रतीतेः समासोक्किरलङ्कारः // 97 // ___ सामने ( पाठा०-पहले ) हठपूर्वक बर्फके समान श्वेत पत्ते रूप आवरण ( वस्त्र ) को हटानेवाली, वायुकी लताओं में विलास ( या-विशिष्ट भ्रम, या-पक्षियों का भ्रम ) करने वाली, पुष्पविषयक क्रीडाओं ( या-कामक्रीडाओं ) ने नलके नेत्रों को बन्द कर दिया अर्थात् उसे देखकर नलने अपने नेत्र बन्द कर लिये। अथवा-सामने हठ पूर्वक हटाये गये तुषार तुल्य श्वेत पत्तोंवाली, घेरेकी लताओंमें विशिष्ट भ्रम ( या-पक्षियोंका भ्रम ) पैदा करनेवाली, वायुकी पुष्पों में क्रीडा (या-वायुको कामक्रीडा ) ने नलके नेत्रों को बन्द कर दिया। (सी-पुरुषकी कामक्रीडा देखने का स्मृतिशास्त्र में निषेध होनेसे श्रीरूपिणी लताके साथ पुरुषरूपी वायुकी कालक्रीडाको देखकर मानो नलने नेत्रों को बन्द कर लिया, वास्तव में तो वायुके द्वारा हिलायी जाती हुई लताओं का देख ना कामोद्दीपक होनेसे उनके असह्य होनेसे नलने नेत्रों को बन्द कर लिया था ] // 97 // / गता यदुत्सङ्गतले विशालता द्रुमाः शिरोभिः फलगौरवेण ताम् / कथं न धात्रीमतिमात्रनामितैः स वन्दमानानभिनन्दतिस्म तान् ? ||8|| गता इति / द्रमा यस्या धाच्या उत्सङ्गतले उपरि देशे च विशालतां विद्धिं गताः तां धात्रीभुवञ्च उपमातरं वा 'धात्री जनन्यामलकी वसुमत्युपमातृष्विति विश्वः / 'धा कर्मणि ष्ट्रनिति दधातेः ष्ट्रन्प्रत्ययः / फलगौरवेण फल मरेण सुकृताति. शयेन च हेतुना अतिमानं नामितैः, प्रह्वीकृतैः, नमेमिश्वविकल्पाद्धस्वाभावः। शिरोभिरग्रैः उत्तमाङ्गेश्व वन्दमानान् स्पृशतोऽभिवादयमानांश्च तान् प्रकृतान् दुमान् अत एव यच्छब्दानपेक्षी स नलः कथं नाभिनन्दति स्म अभिननन्दैवेत्यर्थः / वृताणां क्षेवानुरूपफलस्य सम्पत्तिमपत्यानां च मातृभक्किन को नाम नाभिनन्द. तीति भावः / अत्रापि विशेषगसामर्यात् पुत्रप्रतीतेः समासोक्तिरलंकारः / / 98 // __ बो पृथ्वीके उत्सङ्ग ( कोट = गोद, पक्षा०- भूतल ) में विशाल हुये थे अर्थात पलकर बड़े हुए थे, वे पेड़ फलों ( पक्षा०-पुण्योत्पन्न मनोरथ-प्राप्ति ) गौरव (मारीपन, पक्षागुरुता ) से अतिशय नम्र किये गये शाखामों ( पक्षा०-मस्तकों ) से उस पृथ्वी (पक्षामाता) की वन्दना करते हुए उन पेड़ोंका नल क्यों नहीं अभिनन्दन करते ? अर्थात् अवश्यमेव अमिनन्दन करते / (लोकमें भी माताकी गोद में बढ़कर विद्याध्ययनादि फलके गौरवसे अत्यन्त नम्रमस्तक हो उस माताकी वन्दना करनेवाले पुत्र का सज्जन लोग जिस प्रकार अमिनन्दन करते हैं, उसी प्रकार भूतलपर बढ़कर फलों के मारसे मस्यन्त झुकी हुई Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / नालियोंवाले वृत्तोंका अमिनन्दन नरूने किया। फल-मारसे झुके हुए वृक्षों को देखकर ना बहुत प्रसन्न हुए ] // 98 // नृपाय तस्मै हिमितं अनानिलैः सुधीकृतं पुष्परसैरहमहः / विनिर्मितं केतकरेणुभिः सितं वियोगिनेऽधत्त न कौमुदी मुदः // 6 // __अत्रातपस्म चन्द्रिकास्वनिरूपणाय तद्धर्मान् सम्पादयति-नृपायेति / वनानिलैः उद्यानवातैः हिमं शीतलं कृतं हिमितं, तस्करोतेण्यंन्तात् कर्मणि कः। पुष्परसैर्वनः वातानीतैः मकरन्दैः सुधीकृतममृतीकृतं तथा केतकरेणुभिः सितं विनिर्मितं शुभ्री. कृतम् अह्रो महस्तेजः अहमह आतपः 'रोः सुपीति रेफादेशः। तदेव कौमुदीति व्यस्तरूपकं वियोगिने तस्मै नृपाय मुदः प्रमोदान् नाधत्त न कृतवती, प्रत्युतोद्दीपि. कैवाभूदिति भावः // 99 // उपवन-वायुसे ठण्डा किया गया, पुष्पों के मधुसे अमृतके तुल्य बनाया गया तथा केतकी-पुष्पके परागोंसे श्वेतवर्ण किया गया भी दिनको धूप विरही उस राजा ( नल) के लिए चाँदनीके मानन्दको नहीं दे सकी। [ यद्यपि उक्त कारणत्रयसे शीतल, अमृतयुक्त एवं श्वेत वर्ण होनेसे दिनकी धूप चाँदनी-जैसा सुखद हो रही थी, किन्तु विरहियों के लिए चाँदनीके दुःखद होनेसे वैसे धूपसे भी नलको सुख नहीं हुआ ] // 99 // वियोगभाजोऽपि नृपस्य पश्यता तदेव साक्षादमृतांशुमाननम् / पिकेन रोषारुणचक्षुषा मुहुः कुहूरताऽऽहूयत चन्द्रवैरिणी / / 100 / / वियोगेति / वियोगमाजोऽपि वियोगिनोऽपि नृपस्य तदाननमेव सासादमृतांशुं प्रत्यवचन्द्रं पश्यता अत एव रोषादद्यापि चन्द्रतां न जहातीति क्रोधादिवारुणधनुषा पिकेन चन्द्रवैरिणी कुहूर्निजालाप एव कुहूर्नष्टचन्द्रकला अमावास्येति श्लिष्टरूपकं, 'कुहूः स्यात् कोकिलालापनष्टेन्दुकलयोरपीति विश्वः / मुहुराहूयत माहूता किमित्युस्प्रेक्षा पूर्वोकरूपकसापेक्षेति संकरः। अस्य चन्द्रस्येयमेव कुहूराहानीया स्यात् तरकान्तिराहित्यसम्भवादिति भावः // 10 // _ विरही मी राबा ( नल ) के मुखको साक्षात् चन्द्रमा ही देखते हुए (अतएव–'यह विरही होकर मी मरिन नहीं हुआ, प्रत्युत चन्द्रतुल्य सुन्दर ही है' ऐसा विचारकर ) क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला तथा 'कुहू' शब्द करनेवाला पिक पुनः चन्द्रमाको विरोधिनी (कुहू' अर्थात् मदृष्ट चन्द्रकलावाली अमावस्या तिथि ) को बुलाने लगा। ( अथवा-निश्चित ही चन्द्र विरोधिनी कुहूको बुझाने लगा)। विरहावस्थामें भी नरमुख चन्द्राधिक सुन्दर था // 10 // अशोकमर्यान्वित नामताशया गतान् शरण्यं गृहशोचिनोऽध्वगान् / अमन्यतावन्तमिवैष पल्लवैः प्रतीष्टकामज्वलदखजालकम् / / 101 // 1. 'अयोग-' इति पाठान्तरम् / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। अशोकमिति / एष नला पल्लवैः प्रतीशनि प्रतिगृहीतानि संच्छनानि कामस्य ज्वलदखाणि तद्रपकाणि मालकानि छादकानि बालमुकुलगुच्छा येन तं पक्षवसंच्छ. कुसुमरूपकामानमित्यर्थः / अन्यथा तदर्शनादेव ते म्रियेरनिति भावः। अशोकमत एवार्यान्वितनामता नास्ति शोकोऽस्मिनिरयन्वर्थसंज्ञा तस्कृतया आशया अस्मान. प्यशोकान् करिष्यतीत्यभिलाषेण शरणे रक्षणे साधु समर्थ शरण्यं मस्वति शेषः / 'शरणं रमणे गृह' इति विश्वः, 'तत्र साधुरिति यत्प्रत्ययः। आगतान् शरणागतानित्यर्थः / गृहान् दारान् शोचन्तीति गृहशोचिनः गृहानुद्दिश्य शोचन्त इत्यर्थः / 'गृहः पत्न्यां गृहे स्मृत' इति विश्वः / अध्वगान् प्रोषितान् अवन्तमिव शरणागतरचणे महाफलस्मरणादन्यथा महादोषस्मरणाच्च रचन्तमिवेत्यर्थः। अमन्यत ज्ञातवान् / भस्मभीरूणां तदुगोपनमेव रमणाय इति भावः / / 101 // 'जहाँ शोक नहीं है, उसे 'अशोक' कहते है। ऐसे सार्थक नामकी आशाते समीपमें 'गये हुए, स्त्रियों को सोचते हुए पथिकोंकी, पलवोंसे जलते हुए अवतुल्य कलियों के गुच्छाओंको छिपाये हुए (या-रक्त पल्लवोंमे जलते हुए कामास्त्रको अपने शरीरपर ग्रहण किये हुए, अतएव ) शरणागतों के लिए साधु ( श्रेष्ठ ) अशोकको नलने रक्षा करते हुएके समान माना / ( अथवा-... पथिकों को कामदेवके जलते हुए अस्त्रको स्वीकार कर पल्लवोंसे मारते हुए अशोकको नहने वध करने में श्रेष्ठ माना) [ प्रथम अर्थमें-उक्त रूपसे अन्वर्थक समझकर अशोकके पास गयी हुई स्त्रीकी चिन्ता करते हुए पथिकों के शरण्य (शरणागत. वत्सल ) अशोकको जाते हुए कामबाणों को अपने शरीर पर स्वीकार कर रक्षा करते हुएके समान माना / लोकमें भी शरणागतवत्सल सज्जन व्यक्ति अपने ऊपर शत्रुओंके शखोंका प्रहार सहते हुए मी शरणागतकी रक्षा करता है। द्वितीय अर्थमें-सक्त आशाले समीप गये हुए पथिकों को, अशोकने 'रक्तवर्ण पल्लवोंसे जलते हुए कामास्त्रको स्वीकार कर मारा ( वे अशोकके रक्तपल्लवोंको देखकर अधिक कामपीडित हुए ) अतएव नकने उस अशोकको वध करनेवालों में श्रेष्ठ माना / लोकमें मी कोई असज्जन व्यक्ति रक्षा पाने की आशासे समीपमें आये हुए शरणागोंका भी उनके शत्रुके भयङ्कर अत्रोंसे वध कर डालता है। अशोकपल्लवों के कामोद्दीपक होनेसे दितीय अर्थ ही उचित प्रतीत होता है और बहो अर्थ 'प्रकाश' कारको भी विशेष सम्मत है ] // 101 // विलासवापीतटवीचिवादनात् पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् / वनेऽपि तौम्यत्रिकमारगघ तं क भोगमाप्नोति न भाग्यभाग्जनः 1 / / विलासेति / विलासवापी विहारदीर्घिका तस्यास्तटे वीचीनां वादनारिपकाना. मलीनाञ्च गीतेईनात् शिखिनां मयूराणां लास्यलाघवात् नृत्यनै पुण्यात् च वनेऽपि तं नलं तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवायत्रयं कत्त, मारराध आराधयामास / तथा हिभाग्यभाक भाग्यवान् जनः क भुज्यत इति भोगः सुखं तं नाप्नोति सर्वत्रैवाप्नो. तीत्यर्थः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 102 // Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / क्रीडावापीके तौरपर तरों के बबने (शरद करने ) से, पिकसमूह ( या-पिकों तथा भ्रमरों ) के गानेसे तथा मयूरों के नृत्य-चातुर्यसे वनमें भी उस नरूको तौर्यत्रिक (क्रमश:वादन, गायन तथा नर्तन) ने सेवा की, क्योंकि माग्यवान् मनुष्य कहाँपर मोगको नहीं पाता ? अर्थात माग्यवान् मनुष्यको भोग-विलासके साधन सर्वत्र मिल जाते हैं। यद्यपि विरही होनेसे कामपीडित नलके लिए वे कामोद्दीपक वादनादि सुखकर नहीं थे, तथापि विरक्त व्यक्तिके सामने स्थित तरुणी तरुणी ही मानी जाती है, अतएव विरही भी नलके लिए प्रतिकूल होनेपर भी वे वादनादि मोग-साधन ही माने जायेंगे। अथवा-."तौर्यत्रिकने खेद है कि नलको मारा अर्थात पीडित किया, क्योंकि भाग्य (पूर्वकृत पुण्यपापजन्य सुख या दुःख ) को पानेवाला मनुष्य भोग (पुण्यजन्य मुख या-पापजन्य दुःख ) को कहाँ नहीं पाता है ? अर्थात् सर्वत्र पाता है, अतएव नलको महलमें तो कामपीड़ा होती ही थी, विनोदार्थ एकान्त वनमें आनेपर भी उससे छुटकारा नहीं मिला' यह दूसरा मर्थ करना चाहिये / इस दूसरे अर्थके लिए 'मा' उपसर्गको खेदवाचक तथा परराध' क्रियापदमें 'राध' धातुको हिंसार्थक मानना चाहिये // 102 // तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पटवस्तमस्तुवन् / स्वरामृतेनोपजगुश्च शारिकास्तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः // 103 / / तदर्थमिति / जनेन सेवकजनेन तदर्थ नलप्रीत्यर्थमध्याप्य स्तुति पाठयिस्वा तस्मिन् वने विमुका विसृष्टाः पटवः स्फुटगिः शुकास्तं नलमस्तुवन् / तथैव शुक्रव. देव तदर्थमध्याप्य मुक्ताः तत्पौरुषस्य नलपराक्रमस्य गायिन्यो गायकाः कृता गायः नीकृताः शारिकाः शुकवध्वः स्वरामृतेन मधुरस्वरेणेत्यर्थः / उपजगुश्च // 103 // ___उस ( नलकी स्तुति करने ) के लिए पढ़ाकर छोड़े गये चतुर ( स्पष्ट बोलनेवाले, याकही हुई स्तुतिका ठीक-ठीक अभ्यास किये हुए ) तोतोने उस नककी स्तुति की तथा उस (नल ) के पुरुषार्थ-गानको सिखायी गयी सारिकाओं ( मैंनों ) ने अमृततुल्य मधुर स्वर. से नलके पौरुषको गाया // 103 // इतीष्टगन्धाट्यमटन्नसौ वनं पिकोपगीतोऽपि शुकस्तुतोऽपि च | अविन्दतामोदभरं 'बहिश्वरं विदर्भसुभ्रविरहेण नान्तरम् / / 101 / / इतीति / इतीरथमिष्टगन्धाढ्य मिष्टसौगन्ध्यसम्पन्नं वनमटन् , 'देशकालाध्वगन्त. ज्या कर्मसंज्ञा ह्यकर्मणामिति वनश्य देशस्वात् कर्मस्वम् / असौ नलः पिकै कोकि. लैरुपगीतोऽपि शुकः स्तुतोऽपि च परं केवलं परं स्यादुत्तमानाप्तवैरिरेषु केवल' इति विश्वः। बहिरामोदभरं सौरभ्यातिरेकमेवाविन्दत विदर्भसुभ्रूविरहेण हेतुना आन्तरमामोदभरमानन्दातिरेकरूपनाविन्दत न लब्धवान् , प्रत्युत दुःखमेवान्वभूः दिति भावः / 'आमोदो गन्धहर्षयोरिति विश्वः // 104 // 1. बहिः परम्' इति पाठान्तरम् / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। इस प्रकार अभीष्ट सौरमयुक्त वनमें घूमते हुए तथा तोतों एवं सारिकाओं से स्तुत मी उस नलने बाहरी आनन्दको तो प्राप्त किया, किन्तु दमयन्तीके विरहके कारण भीतरी भानन्दको नहीं प्राप्त किया / / 104 // करेण मीनं निजकेतनं दधद् द्रुमालवालाम्बुनिवेशशङ्कया / व्यतर्कि सर्वर्तुघने वने मधुं स मित्रमत्रानुसरन्निव स्मरः / / 105 / / करेणेति / स नलः निजकेतनं निजलान्छनं मीनं दुमालवालाम्बुषु निवेशशङ्कया प्रवेशभिया करेण दधत् तारक शुभरेखाम्याजेन दधान इत्यर्थः, सर्वर्तुघने सर्वतुसकुले अन्न अस्मिन् वने मित्रं सखायं मधुं वसन्तमनुसरन् भन्विष्यन् स्मर इव ग्यतर्क इत्युप्रेचा / / 105 / / ( लोगोंने ) उस नलको पेड़ोंके थालों के पानी से प्रवेश करनेकी शङ्कासे अपने पताका चिह्न मछलीको हाथ में धारण किया हुआ-(पक्षा०-अपने राजचिह्न रेखारूप मोनको हाथमें धारण किये हुए ) तथा सब ऋतुओंसे परिपूर्ण इस वन में वसन्त ऋतुका अनुगमन करता हुआ कामदेव समझा // 105 // लताऽबलालास्यकलागुरुस्तरुप्रसूनगन्धोत्करपश्यतोहरः / असेवतामुं मधुगन्धवारिणि प्रणीतलीलाप्लवनो वनानिलः / / 106 // लतेति / लता एवाबलास्तासां लास्यकलासु मधुरनृत्तविद्यासु गुरुरुपदेष्टेति मान्योक्तिः, तरुप्रसूनगन्धोस्कराणां दुमकुसुमसौरभसम्पदां पश्यतोहरः पश्यन्तमा नाहत्य हरः प्रसह्यापहत्त्यर्थः / 'पश्यतो यो हरण्यर्थ स चौरः पश्यतोहर' हतिहला. युधः, पचायच् 'षष्ठी चानादरे' इति षष्ठी / 'वाग्दिक्पश्यनयो युक्तिदण्डहरेष्वि'ति वक यादलुक् / सौरभ्ययुक्तं मधुमकरन्द एव गन्धवारि गन्धोदकं तत्र प्रणीतलीला. प्लवनः / एतेन कृतलीलावगाहन इति शेयोक्तिः, ईग्वनानिलोऽमुं नलमसेवत गुणवान् सेवकः सेव्यप्रियो भवतीति भावः // 106 // लतारूपिणी नायिकाको नृत्यकला सिखानेवाला, वृक्षोंके पुष्पों के गन्धसमूहको चुराने. पाला तथा पुष्परसरूप सुरमित जळमें (या-नलके 'मधुगन्ध' नामक सरोवरके जलमें) जलक्रीडा किया हुभा पवन इस नलकी सेवा करने लगा। [ उक्त विशेषणत्रयले पवन का मन्द, सुगन्ध तथा शीतल होना सूचित होता है, जो नलके लिए शुभ शकुनका सूचक है / लोक व्यवहार में भी कोई परिचारक बड़े लोगों की पीठमदनादिके दारा सेवा करते हैं ] // 106 // अथ स्वमादाय भयेन मन्थनाचिरत्नरत्नाधिकमुचितं चिरात् | निलीय तस्मिन्निवसन्नपांनिधिर्वने तडागो ददृशेऽवनीभुजा // 107 / / अथेति / अथ वनालोकनानन्तरं मन्थनाद्येन धनार्थ पुनर्मथिष्यतीति मयाः दित्यर्थः / चिरादुचितं सचितं चिरस्नं चिरन्तनं 'चिरपरस्परादिभ्यस्त्नो वकग्य' इति Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / समययः / ताच तद्रत्नाधिकं श्रेष्ठवस्तु भूयिष्ठं चेति चिरस्नरत्नाधिकं 'रत्नं स्वजाती श्रेष्ठेऽपी'त्यमरः / स्वं धनमादाय तस्मिन् वने निलीयान्तर्धाय निवसन् वर्तमानोऽ. पातिधिरिवेत्युस्प्रेक्षा / तेन नलेन तडागः सरोविशेषोऽवनीभुजा राज्ञा दहशे दृष्टः। उस राजा ( नल) ने बहुत समय बढ़े हुए, प्राचीन रत्नों (अपने धन ) को मथने के मयसे लेकर उस (नलके उपवन ) में छिपे हुए समुद्र के समान ( अपने कोडासरको) देखा। [लोकमें भी कोई धनवान् व्यक्ति चोरीके मयसे अपने चिरसञ्चित धनको लेकर वनमें छिप जाता है। नलका क्रोडासर समुद्र के समान वात रत्नोंसे भरा हुमा एवं गम्भीर या] // 107 // पयोनिलीनाभ्रमुकामुकाबलीरदाननन्तोरगपुच्छसच्छवीन् / जलार्द्धरुद्धस्य तटान्तभूमिदो मृणालजालस्य निभाद् बभार यः // 108 / / यदुकं धनमादायेति, तदेवात्र सम्पादयति नवमिः श्लोकः पय इत्यादिभिः / यस्तडागः जलेनार्द्धरुद्धस्य अर्द्धग्छनस्य तटान्तभूमिदस्तरप्रान्तनिर्गतस्येत्यर्थः / मृणालजालस्य बिसवृन्दस्य निमायाजादिस्यपह्नवालधारः, 'निभो व्याजसरक्षयोरिति विश्वः / अनन्तोरगस्य शेषाहे; पुच्छेन सच्छवीन् सवर्णान् तदवलानित्यर्थः, पयोनिलीनानामभ्रमुकावलीनामरावतश्रेणीनां रदान् इन्तान् बभार / तत्रैक एवै. रावतः, अन स्वसंख्या इति व्यतिरेकः / अभ्रमुकामुका इति द्वितीयासमासो मधुपि. पासुवत् , 'न लो'श्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् 'लषपतेत्यादिना कमेरुकप्रत्ययः॥ (मागेके 1 / 117 ) इलोकमें समुद शोमाका चोर इस तडागको कहा गया है, मत. एव वहाँ तक समुद्र-धर्मोका वर्णन करते हैं-) जो तडाग पानीसे भाषा ढके हुए तट प्रान्त भूमिसे बहिर्गत मृगाल-समूहके कपटसे शेषनागको पूँछके समान सुन्दर कान्तिवाले तथा जहमें डूबे हुए ऐरावतके दन्त-समूहको धारण करता था। (पानीने माधे छिपे हुए तथा आधे तौर भूमिके ऊपर निकाले हुए मृगाल-समूह ऐसे मालूम पड़ने थे कि वे शेषनाग की पूंछके समान, पानी में डूबे हुए ऐरावोंके दन्त-समूह हो। समुद्रसे एक ऐरावत निकला था, किन्तु इस तडागमें अनेक ऐरावत डूबे हुए थे, अतएव यह समुद्रसे मी श्रेष्ठ था) // 108 // तटान्तविधान्ततुरङ्गमच्छटास्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन यः। बभौ चलद्वीचिकशान्तशातनैः सहस्रमुचैःश्रवसामिव श्रयन् / / 106 / / तटान्तेति / पस्तडागस्तटान्ते तीरप्रान्ते विश्रान्ता या तुरङ्गमच्छटा नलानीता. वश्रेणी तस्याः स्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन प्रकटप्रतिविम्वाविर्भावप्रीत्या निमित्तेन च एककशस्तासां वीचीनां कशानामन्ते। शातनैरुप्रताउनः, 'अधादेस्ताडनी कशे'त्यमरः, चलदुखदुःश्रवसा सहस्रं श्रयन् प्राप्नुवषिव बभावित्युरप्रेक्षा, व्यतिरेका पूर्ववत् / एतेन महायानामुग्धेसवासाम्ब गम्बत इबलहारेण वस्तुवनिः // 109 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। जो (तड़ाग) तोरपर ठहरे हुए घोड़ोंकी ( नील-श्वेत-कृष्ण आदि विविध ) कान्तिके प्रतिविम्बके सम्बन्धसे चाल तरङ्गरूपी कोड़ोंके प्रहारोंसे मानो इशारों उच्चैःनाको धारण करता था। [घोड़े कोडेको प्रहारसे चषक होकर चलते हैं, जलमें प्रतिविम्बित वस्तुके तरसे चाल होनेके कारण तीरपर ठहरे हुए नलके घोड़ों के प्रतिबिम्ब जलके तरङ्गरूपी कोड़ोंकी मारसे चलते हुए भनेक उच्चै श्रवा घोड़ोंके समान प्रतीत होते थे। यहाँ मी समुद्र में एक उच्चैःप्रवासे तथा इस तडागमें अनेक उच्चैःश्रवाके होनेसे समुद्रको अपेक्षा इस तडागकी श्रेष्ठता सूचित होती है तथा नलके घोड़ोंका उच्चैःश्रवाके समान होना सूचित होता है ] // 109 // सिताम्बुजानां निवहस्य यश्छलाद् बभावलिश्यामलितोदरश्रियाम् / तमासमच्छायफलसङ्कलं कुलं सुधांशोबहलं वहन् बहु / / 10 // सितेति / यस्तडागः भलिभिः श्यामलितोदरश्रियां श्यामीकृतमध्यशोभानां सिताम्बुजानां पुण्डरीकाणां निवहस्य उछलात् तमःसमच्छायः तिमिरवर्णः यः कलाः तेन सङ्कुलं बहलं सम्पूर्णम्पहनेकं सुधांशोश्चन्द्रस्य कुलं वंशं वहन् सन् बभौ / भत्र छलशब्देन पुण्डरीकेषु विषयापहवेन चन्द्रस्वाभेदादपहवभेदः, व्यतिरेकस्तु पूर्ववत् // 110 // __ जो (तहाग ) बीचमें भ्रमरों के बैठनेसे श्यामवर्ण मध्यभागवाले श्वेतकमलों के समूहके कपटसे अन्धकारके समान (कृष्णवर्ण) कलङ्कसे युक्त चन्द्रमाके बहुतसे समूहोंको धारण करता हुआ शोमता था- / [ यहाँ भी एक चन्द्रमावाले समुद्र की अपेक्षा अनेक चन्द्रकुलके धारण करनेवाले इस तडागको श्रेष्ठता सूचित होती है ] // 110 // रथाङ्गभाजा कमलानुषङ्गिणा शिलीमुखस्तोमसखेन शार्जिणा। सरोजिनीस्तम्बकदम्बकंतवान्मृणालशेषाहि वाऽन्वयायि यः / / 111 // स्थाङ्गेति / यस्तटागो रथाङ्गं चक्रवाकः धक्रायुधज्ञ यधपि चक्रवाके रथाङ्गना. मेति च प्रयोगो रूढः तथापि प्रायेणास्य धक्रशब्दपर्यायस्वप्रयोगदर्शनात् (रथात) पदस्याप्युभयत्र प्रयोगम्मन्यते कविः, तद्भाजा 'भजो ण्विः', कमले कमलया चान. षङ्गिणा संसर्गवता शिलीमुखस्तोमसखेन अलि कुलसहचरेण अन्यत्र सखिशब्दः माहश्यवचनः तरसवर्णनेत्यर्थः, मृणालं शेषाहिरिवेत्युपमितसमासः, तद्भुवा तदाकरेण अन्यत्र मृणालमिव शेषाहिः तनवा तदाधारण शाङ्गिणा विष्णुना सरोजिनी. नों स्तम्बा गुल्माः, 'अप्रकाण्डे स्तम्बगुल्ममित्यमरः, तेषां कदम्बस्य केतवान्मिषात् अन्वयायि अनुयातोऽनुसृतोऽधिष्ठित इति यावत् / अत्रापि कैतवशब्देन स्तम्बरव. मपत्य शारिवारोपादपहवभेदः / / 111 / / / जो ( तडाग ) चकवा-चकईयुक्त, कमलसहित, भ्रमर-समूहवाले तथा मृणालरूप जो शेष शरीर तद्रूप भूमिपर सस्पन्न कमलिनी स्तम्म-समाके कपटसे मुर्शनचक युक लक्ष्मी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / के साथ रहनेवाले, भ्रमरसमूहके समान ( श्याम कान्तिवाले ) तथा मृणाल तुल्य (शुभ्र वर्ण ) शेषनागकी शग्यावाले विष्णुसे अनुगत (युक्त ) होता था। [क्षीर समुद्र में उक्तरूप विष्णु भगवान् रहते हैं, अतएव यह तडाग भी उक्तरूप कमलिनी-स्तम्ब-समूहयुक्त होनेसे वैसा ही प्रतीत होता था] // 111 // तरङ्गिणीरङ्कजुषः स्ववल्लभास्तरङ्गलेखा बिभराम्बभूव यः / दरोद्गतः कोकनदौघकोरकैधृतप्रवालाङ्करसञ्चयश्च यः॥ 112 // तरङ्गिणीरिति / यस्तडागोऽङ्कजुषोऽन्तिकभाजः उत्सङ्गसङ्गिन्यश्च वा तरतरेखा. स्तरङ्गराजिरेव स्ववल्लभास्तरक्षिणीरिति व्यस्तरूपकम्बिभराम्बभूव बभार, 'भीही. भृहुवा श्लुवच्चे ति भृजो विकरुपादाम्प्रत्ययः। किश्च यस्तटागो दरोद्गतेरीषदुबुद्धेः कोकनदौधकोरकैः रक्तोत्पलखण्डकलिकाभिः धृतप्रवालाङ्कुरसञ्चय पतविद्रुमाकुर. निकरश्चेति / अत्रापि कोकनदकोरकाणां विदुमत्वे रूपणाद्रुपकालङ्कारः // 112 // जो ( तडाग) क्रोड ( मध्य ) में स्थित अपनी प्रिया तरङ्ग लेखारूपिणी नदियों को धारण करता था तथा कुछ बाहर निकले हुए रक्तकमल-समूहके अहरोंसे विद्दुमके अङ्करसमूह वाला था- [ समुद्र में जैसे उसकी प्यारी बहुत सी नदियाँ भाकर मिलती है तथा विद्रुमके अङ्कर-समूह रहते हैं, उसी प्रकार इस तदागके मध्यमें भी अपने में ही उत्पन्न होनेसे प्रिय तरङ्ग रेखारूपी नदियाँ थीं तथा बाहरको ओर थोड़ा दीखते हुए रककमकके अडर समूह प्रवालाङ्कर समूहरूप थे / अतएव यह तडाग समुद्रतुल्य था ] // 212 / / महीयसः पङ्कजमण्डलस्य यशवलेन गौरस्य च मेचकस्य च | नलेन मेने सलिले निलीनयोस्त्विषं विमुश्चन विधुकालकूटयोः / / 113 // महीयस इति / यस्तडागः महीयसो महत्तरस्य गौरस्य च मेचकस्य च पङ्कजा मण्डलस्य सितासितसरोजयोश्छलेन सलिले निलीनयोः विधुकालकूटयोः सितासि. तयोरिति भावः। विर्ष विमुझन् विराजसिव नलेन मेने / अनच्छलेन विमुशलि. वेति सापहवोस्प्रेणा // 113 // गौर ( श्वेत ) तथा मेचक ( चमकदार नीलवर्ण ) कमल समूहके कपटसे जिसको नबने पानीमें डूबे हुए चन्द्रमा तया कालकूट ( हलाहल विष ) को कान्तिको छोड़ता हुआ-सा माना। [ समुद्र जिस प्रकार श्वेत चन्द्रमा तथा इलाहलसे युक्त है, उसी प्रकार इस तडाग में भी श्वेत तथा नील कमल समूह होनेसे यह तडाग मी उन ( चन्द्रमा तथा हलाहरू) से युक्त था ] // 113 // चलीकृता यत्र तरङ्गरिङ्गणैरवालशैवाललतापरम्पराः / ध्रुवन्दधुर्वाडवहव्यवाडवस्थितिप्ररोहत्तमभमधूमताम् // 114 // चलीकृता इति / यत्र यस्मिन् तडागे तरकरिगणैस्तरङ्गकम्पनाश्चलीकृताः चाली. कृताः अबालानां कठोराणां शैवाललतानां परम्पराः पंक्तयः हव्यं वहतीति हग्य. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। वाडवाग्निः 'वहश्चेति ण्विप्रत्ययः / तस्यच्छन्दोमात्रविषयस्वाद अनादरेण भाषायां प्रयोगः / वाडवहम्यवाहो वाहवाग्नेरेव स्थिरयाऽन्तरवस्थानेन प्ररोहत्तमो बहिः प्रादु. भंवत्तमो भूमा येषान्ते च धूमाश्च तेषां भावस्तता तां दधुः। पहिलस्थितधूमपटल. बदभुरित्यर्थः / ध्रुवमित्युस्प्रेक्षायाम् // 114 // जिस ( तडाग ) में तरङ्गोके चलनेसे बड़े-बड़े शेवाक लताके समूहने भीतरमें रानेवाले वाडवाग्निसे ऊपर उठे हुए धूम-बाहुल्यको धारण कर किया है, ऐसा प्रतीत होता था। [तरङ्ग-समूहसे चञ्चल बड़े-बड़े शेवाल-समूह अन्तःस्थित वसवाग्निके ऊपर उठती हुई धूमज्वालाके समान प्रतीत होते थे ] // 114 // प्रकाममादित्यमवाप्य कण्टकैः करविताऽऽमोदभरं विवृण्वती। धृतस्फुटश्रीगृहविग्रहा दिवा सरोजिनी यत्प्रभवाऽप्सरायिता // 15 / / प्रकाममिति। आदित्यं सूर्यमवाप्य प्रकामं कण्टकैः नालगतैः तीधणाौरवयवैः करम्बिता वन्तुरिता, अन्यत्रादिस्यमदितिपुत्रमिन्द्रमवाप्य कण्टकैः पुलकः करविता अतएवामोदभरं परिमलसम्पदमानन्दसम्पदं च विवृण्वती प्रकटयन्ती दिवा दिवसे घृतानि स्फुटश्रीगृहाणि पनानि यस्य स विग्रहः स्वरूपं यस्याः सा, अन्यत्र दिवा स्वर्गेण स्फुटश्रीगृहमुज्ज्वलशोभास्पदं विग्रहो देहो यस्याः सा स्वर्गलोकवासिनी. त्यर्थः। यस्तडागः प्रभवः कारणं यस्याः सा तजन्या सरोजिनी पद्मिनी अप्सरा. यिता अप्सर इवाचरिता। 'उपमानाद् कतः क्या सलोपश्चेति कर्तरि का, 'भोज जिस ( तडाग ) में उत्पन्न, दिनमें सूर्यको प्राप्तकर सम्यक प्रकारसे कण्टकों के द्वारा च्याप्त, सौरम-समूहको फैलाती हुई, विकसित शोमास्थान ( कमळ ) रूप शरीरवाली कमलिनी विशिष्ट कामयुक्त इन्द्रदेवको प्राप्तकर रोमाञ्चों व्याप्त इर्षातिशयको प्रकट करती हुई तथा स्वर्गसे धारण किये गये प्रकाशमान शोमा-स्थानरूप शरीरवाली अप्सराके समान माचरण करती है / / 115 // यदम्बुपूरप्रतिबिम्वितायतिमरुत्तरङ्गैस्तरलस्तटद्रुमः / निमज्ज्य मैनाकमहीभृतः सतस्ततान पक्षान् धुवतः सपक्षताम् / / 116 // ___ यदिति / यस्य तडागस्याम्बुपूरे प्रतिबिम्बितायतिः प्रतिफलितायामः मरुत्तरङ्गैः वातवीजनस्तरलश्वश्चलः तटदुमः निमज्ज्य सतो वर्तमानस्य पचान् धुवतः कम्पयतो मैनाकमहीभृतस्तदास्यस्य पर्वतस्य सपक्षतां साम्यं ततानेत्युपमा // 116 // जिस (तडाग ) के जल-प्रवाहमें प्रतिविम्बित विस्तारवाला तथा वायु चलित तरकों से चचक तीरस्थ वृक्ष जलके भीतर ) डूबकर स्थित तथा पलोंको कपाते हुए मैनाक पर्वतकी समानताको विस्तृत कर रहा है। [जिस तडागके जल में प्रतिबिम्बित वायु प्रेरित तरकोसे चचक तटस्थ द्रुम समुद्र-जल में डूबकर पङ्ख हिलाते हुए मैनाक पर्वतके समान प्रतीत होते थे ] // 116 // 5 नै० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / (युग्मम् ) पयोधिलक्ष्मीमुषि केलिपल्वले रिरंसुहंसीकलनादसादरम् | स तत्र चित्रं विचरन्तमन्तिके हिरण्मयं हंसमबोधि नैषधः / / 11 / / प्रियासु मालासु रतिक्षमासु च द्विपत्रितं पल्लवितञ्च विभ्रतम् | स्मरार्जितं रागमहीरुहाङ्करं मिषेण चच्चोश्चरणद्वयस्य च // 118 // पयोषीति / अथ च नैषधो निषधानां राजा नलः, 'जनपदशब्दात् पनियादभि' स्य पयोघिलपमीमुषि तरसहश इत्यर्थः। अत्र केलिपल्सले क्रीडासरसि रिरंसूनां रन्तुमिछूनां हंसीनां कलनादेषु सादरं सस्पृहं तत्रान्तिके तरसमीपे विचरन्तं चित्र. ममतं हिरण्मयं सुवर्णमयं 'दाण्डिनायना'दिना निपातनात् साधुः। हंसमबोधि वारियर्थः / 'दीपजनेत्यादिना कर्तरि धिण। पुनस्तमेव विशिनष्टि-प्रियास्विति / बालासु अरतिक्षमासु किन्रवासत्रयौवनास्वित्यर्थः। अन्यथा रागारासम्भवात् / रतिषमासु युवतीपु द्विविधासु प्रियासु विषये क्रमाञ्चम्वोस्रोटयोः 'चमोटिरभे खियामि'त्यमरः / चरणहयस्य च मिषेण द्विपत्रितं सातद्विपत्रं पल्लवितं सातपय वञ्च चम्च्योर्द्वयोः सम्पुटितरवे साग्याद् द्विपत्रिस्वं धरणयोस्तु विभ्रमरागमयस्वेन पलवसायापलवस्वं राजहंसानां लोहितचलुचरणस्वात् तस्मिन् मिषेणेत्युक्तं स्मरा. र्जितं स्मरेणेव वृक्षरोपणेनोस्पादितमित्यर्थः। रागएव महीलहस्तस्याङ्करंरागमहीरहा. हुरं विनतं चनपुटमिषेण हिपत्रितं बालिकागोचररागं चरणमिषेण पल्लवितं युवती. विषये राग विभतमित्यर्थः / ईशं हंसमबोधीति पूर्वेणान्वयः / 'नाम्पस्ताच्छतुरि'. ति नुरप्रतिषेधः, वृक्षारो हि प्रथम द्विपत्रितो भवति, पश्चात् पवित इति प्रसिद्धम् / तर रागं बिभ्रतम् इति हंसविशेषणात् , तद्रागस्य हंसाधिकरणस्वोक्तिः, प्रियास्व. धिकरणभूनास्वित्युपाध्यायविश्वेश्वरम्याख्यानं प्रत्यास्येयम , अन्यनिष्टस्य रागण्यायाधिकरणस्वायोगात् , न चायमेक एवोभयनिष्ठ इति भ्रमितव्यम् , तस्येच्छापरतरः विषयानुरागाभावप्रसकाप उभयोरपि रागरवसाग्थादुमयनिष्ठभ्रमः कंषाशिकस्मा. एकामिनोरन्योन्याधिकरणरागयोरन्पोन्यविषयत्वमेव नाधिकरणस्वमेवमिति सिद्धाम्तः, प्रियास्थिति विषयसप्तमी, न स्वाधारसप्तमीति सर्व रमणीयम् / अत्र रागमहीबहाकुर मिति रूपकं चनुचरणमिणेत्यपहवानुमाणितमिति सः। तेन स बाधा. एन्तररागयोर्भेदे अभेदलक्षणातिशयोत्यापिता पधरणग्याजेनान्तरस्येव बहिररितत्वोस्प्रेक्षा ग्यज्यत इत्यलारणामकारवनिः // 17-18 उस नलने ( उक्त प्रकारसे 1 / 108-116) समुद्र शोभाको चुरानेवाले पर्या समुद्रके समान शोममान उस कोड़ाके छोटे बलाशयमें रमणामिछाषिणी इसीके कलनाद (भव्यक्त मधुर शम) में ममिलाषुक, (मरुपकामा ) बाला पियानों तथा सुरत-समय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 60 युक्ती प्रियाओंमें दोनों चोंचों तथा दोनों चरणों के कपट से (क्रमशः) दो पत्रयुक्त तथा सुवर्णमय होनेसे भाश्चर्यकारक ) पासमें ( नल के समीपमें, या-क्रीड़ातडाग के समीपमें ) विचरते ( धीरे धीरे चलते ) हुए सुवर्णमय हंसको देखा। [बाजा प्रियाभों में अल्पकाम होनेसे कामोस्पादित भनुरागरूप वृक्षका अडर केवल दो पत्तों वाला था, मिसे बह दो चञ्चुपुटके कपटसे धारण करता था, तथा सुरत समर्थ युवती प्रियाओं में प्रचुर काम होनेसे कामोत्पादित अनुरागरूप वृक्षका अङ्कर पकवयुक्त था, जिसे वह पल्लवस्थानीय चरणाङ्गुलिके कपटसे धारण कर रहा था। यद्यपि इस तडागकी तुभना समुद्रसे करने के कारण इसे पल्लव (छोटा बहाशय)कहना उचित नहीं है, तथापि नलके कीमतगकी मावनाते इसे 'पल्ला' कहा गया है। भयवा-विस्तारके कारण समुद्रतुप तथा विनश्वर होनेसे पल्वछतुल्य शरीरमें बिहार करते हुए रमणार्थिनी हंसी शक्तिके कहनाद (अव्यक्त ध्वनि ) में आदरयुक्त हिरण्मय परमात्माको जैसे कोई योगी जानता ( देखता ) है, वैसे हंसको नकने देखा ] // 117-118 // महीमहेन्द्रस्तमवेक्ष्य स क्षणं शकुन्तमेकान्तमनोविनोदिनम् / प्रियावियोगाद्विधुरोऽपि निर्भरं कुतूहलाक्रान्तमना मनागभूत् / / 116 / / महीति / महीमहेन्द्रो भूदेवेन्द्रः स नलः एकान्तं नितान्तं मनो विनोदयतीति तथोक तं शकुन्तं पविणं षणमवेषय प्रियावियोगानिर्भरमतिमा विधुरो दुःस्थोऽपि मनागीषकुतूहलाकान्तमनाः कौतुकितचित्तोऽभूत् , गृहीतकामोऽभूदिश्यर्थः 119 // प्रिया [दमयन्ती ] के विरहसे अत्यन्त दुखी भी दे पृथ्वीपति नल निश्चितरूपसे मनोहर उस पक्षी (हंस)को थोड़ी देर देखकर ( उसे ग्रहण करने के लिर) कुछ सौतुक युक्त हो गये अर्थात उसे पकड़नेकी इच्छा किये // 119 // अवश्यभव्येष्वनवग्रहमहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / तृणेन वात्येव तयाऽनुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना / / 120 // कथमीरशे चापल्ये प्रवृत्तिरस्य धीरोदात्तस्येत्याशका मात्र जन्तोः स्वातम्यं किन्तु भाव्यर्थानुसारिगी विधातुरिच्छेव तथा प्रेरखतीत्शाह-अवश्येति / अवश्यभः ज्येष्ववश्य भाष्यर्थेषु विषये 'भम्यगेयादिना कहि याप्रत्ययान्तो निदाता, 'लुम्पे. दवश्यमः कृत्ये' इत्यवश्यमो मकारलोपः, अनवप्रहमहा अप्रविधिनिबन्धा निर। कुशामिनिवेशेति यावत् , 'ग्रहोऽनुग्रह निर्बन्धप्रहगेषु रमोसम' इलि विश्वः / वेध. सः स्पृहा विधातरिच्छा यया दिशा धावति येनाका प्रवर्तते तयैव हिशा ऋशा. वशारमनाऽस्यन्तपरतन्त्रश्वमावेन जनस्य चिन तृगेन्द्र लामा वाट नमूह इद, 'पाशादिभ्यो यः' अनुगम्यते, वेक्षतः स्पृहा कम्म् // 120 / (अत्यन्त कामपीडित नलको हंस पकड़ने का गौतुक कैसे मा 1 या नलकी सेनाको Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / देखकर भयमीत भी इस कैसे सो गया, इसका समाधान अर्थान्तरन्यासके द्वारा करते है-) अवश्य होनेवाले होनहारमें निर्वाध ब्रह्माकी इच्छा जिस ओर दौड़ती है, मनुष्यका अस्यन्त परापीन चित मी वायु -समूहसे तृगके समान उसी दिशाको जाता है [होनहार को कोई नहीं गक सकता ] // 120 // अथावलम्ब्य क्षणमे कपादिकां तदा निदद्रावुपपल्वलं खगः / सतिय॑गाजितकन्धरः शिरः पिधाय पक्षण रतिक्लमालसः // 121 // चिकीर्षितायें देवानुकूल्यं कार्यतो दर्शयति-अथेति / अथ नलरष्टिप्राप्स्यनन्तरं रतिक्मालसास खगो हंसा तदा नलकुतूहलकाले पणमेकः पादो यस्यां क्रियायाः मित्येकपादिका एकपादेनावस्थानं मत्वर्थीयष्ठन्प्रत्ययः, 'तद्धितास्यादिना सङ्घया. पादिकामवलमय तिर्यगावर्जितकन्धरः भावर्तितग्रीवः सन् पक्षण शिरः विधाय उपपलवलं पक्वले निदगौ सुष्वाप / स्वभावोकिरलङ्कारः 'स्वभावोक्तिरलङ्कारो पथावस्तुवर्णनम्' इति लसणात् // 121 // भनन्तर रति-खेद-खिन्न वह इंस गर्दनको तिरछा कर शिरको पङ्क्षसे छिपाकर एक पैरपर स्थित होकर उस तडागके पास में ही सो गया // 121 / / सनालमात्मानननिजितप्रभ हिया नतं काञ्चनमम्बजन्म किम् / अबुद्ध तं विदुमदण्डमण्डितं स पीतमम्भःप्रभुचामरञ्च किम् ? / / 122 / / सनालमिति / स नलः तं निद्राणं हंसम् आत्माननेन निर्जितप्रभं निजसुखनि. राकृतशोमम् अत एव हिया नतं सनालं नालसहितं काश्चनं सौवर्णमम्बुजन्माबुजं किम् ? तथा विदुमदण्डेन मण्डितं भूषितं पीतवर्णमम्भाप्रभोरपाम्पत्युः वरुणस्य बुध्यतेलरित 'शषस्तथो? ध' इति तकारस्य धकारः // 122 // ____ उस (नक) ने उस ( सोये हुए हंस ) को (एक चरण पर बैठे रहने के कारण) अपने मुखसे पराबित शोभावाला (अतएव) लज्जासे नीचे मुख किया नाल (कमलदण्ड) सहित सुवर्णमय कमल समझा क्या ? तथा विद्रुम के दण्ड से शोभित पीतवर्ण वरुणका हिरण्मय चामर समझा क्या ? [लाल एक चरणसे पीतवर्ण हंसको रक्तवर्म नालवाला सुवर्णमय पीला कमल तथा रक्तवर्ण दण्डवाला सुवर्णमय वरुणका चामर समझना गेचता है अर्थात् उक्तावस्थामें सोया हुआ हंस रक्तनालवाले सुवर्णमय कमलके समान तथा विद्रुमदण्डवाले सुवर्णमय वरुणके चामरके समान प्रतीत होता था ] // 122 // कृतावराहस्य हयादुपानही ततः पदे रेजतुरस्य बिभती। तयोः प्रषालैर्वनयोस्तथाऽम्बुजैनियोधुकामे किमु बद्धवर्मणी ? // 123 // कुवेति / ततस्तनिदर्शनानन्तरं हयादवारकृतावरोहस्य कुतावतरणस्यास्य नल Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। स्योपानही वर्मणी पादत्राणे / 'पादत्राणे उपानही' इत्यमरः। पदे धरणे तयोवनयोः सलिलकाननयोः 'वने सलिलकानने' इत्यमरः / प्रवालः पल्लवैः तयाम्बुजैः पद्मश्वेत्यर्थः, 'सहार्थे तृतीया' नियोधु कामोऽभिलापो ययोस्ते नियोद्धकामे युदकामे इत्यर्थः / ' काममनसोरपी ति तुमुनो मकारलोपा, मतो बवमणी किमुपद्ध. कवचे इव ते रेजतुः किमित्युस्प्रेचा // 123 // तदनन्तर घोड़ेसे उतरे हुए इस नल के जूता पहने हुए चरण वन अर्थात् जङ्गल के नवपल्लवोंसे तथा वन अर्थात जल के कमलोंसे युद्ध करने के इच्छुक हो कवच बाँधे हुए के समान शोमते थे क्या ? [ जूता पहने नलके चरण ऐसे प्रतीत होते थे कि वनोत्पन्न नवपल्लव तथा (जलोत्पन्न) कमलों के साथ युद्ध करने के लिए उन्होंने कवच पहना हो, नल के चरणद्वय पल्लव तथा कमलके समान होनेसे उनके प्रतिमट थे] // 123 // विधाय मूर्ति कपटेन वामनी स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीमयम् / उपेतपार्श्वश्चरणेन मौनिना नृपः पतङ्गं समघत्त पाणिना / / 124 // विधायेति / अयं नृपः स्वयमेव कपटेन छद्मना वामनी हस्वां गौरादित्वात् ङीप, बलिध्वंसिविडम्बिनी कपटवामनविष्णुमूर्त्यनुकारिणीमित्यर्थः, मूर्ति विधाय कायं सङ्कुच्येत्यर्थः / मौनिना निःशब्देन चरणेनोपेतपाश्वः प्राप्तहंसान्तिकः पाणिना पतङ्गं पक्षिणं समपत्त, संतवान् जमाहेत्यर्थः / स्वभावोक्तिरलकारः // 114 // ___इस राजा ( नल) ने बलिध्वंसी ( नारायण) के समान कपटमें अपने शरीरको छोटा कर शब्दरहित चरणसे ( हसके ) समीपमें जाकर हायसे उस पक्षी अर्यात हंसको स्वयं पकड़ लिया। [पौराणिक कथा - बलिके यशमें तीन चरणपरिमित भूमि मांगने के लिए नारायणने कपटसे अपने शरीरको अत्यन्त छोटा बनाकर बलिको बाँधा था। ] // 124 // तदात्तमात्मानमवेत्य संभ्रमात पुनः पुनः प्रायसदुत्प्लवाय सः / गतो विरुत्योड्डयने निराशतां करौ निरोदधुर्दशति स्म केवलम् / / 12 / / ___ तदिति / स हंसः आत्मानं तदा तु तेन नलेनात्तं गृहीतमवेस्प हास्वा सम्भ्रः मादुरप्लवायोरपतनाय पुनः पुनः प्रायसदायस्तवान् / यसु प्रयत्न इति धातोलुंडि पुषादित्वात् ग्लेरङादेशः / उड्डयने उत्पतने निराशतां गतो विरुस्य विश्य निरोदः ग्रहीतुः करौ केवलं करावेव दशति स्म दष्टवान् / अत्रापि स्वभावोक्तिरेव // 125 // ___ तब उस हंसने अपने को पकड़ा गया समझकर घबड़ाकर (या-मयसे ) बार-बार उड़ने के लिए प्रयत्न किया, (फिर ) उड़ने में निराश हो चिल्ला-चिल्लाकर पकड़नेवाले (नल ) के दोनों हाथों को काटने लगा / / 125 // ससम्भ्रमोत्पातिपतत्कुलाकुलं सरः प्रपद्योत्कतयाऽनुकम्पिताम् / तमूर्मिलोलैः पतगग्रहान्नृपं न्यवारयद्वारिरहैः करैरिव // 126 // . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / स इति / ससम्भ्रमं सस्वरमुत्पातिना उड्डीयमानेन पतस्कुलेन पचिसोनाकुलं सकुलं सरः कत्त उरकतया उन्मनस्तया 'उत्फ उन्मना' इति निपातनादिविधानाच साधुः। अनुकम्पितां प्रपद्य कृपालुतां प्राप्य तं नृपमूर्मिलोलैश्चलैारितहैः करैरिति ज्यस्तरूपकम, पतग्रहास्पतिग्रहात् न्यवारय दिवेत्युस्प्रेक्षा। वास्तवनिवारणासम्भ वादुस्प्रेचा, निवारणस्य करसाध्यत्वात् तत्र रूपकाश्रयणम्, अत एवेवशब्दस्य उप. माबाधेनार्यानुसाराद्वयवहितान्वयेनाप्युस्प्रेचाव्यजकत्वमिति, रूपकोस्प्रेच्योरङ्गाङ्गिभावेन सहरः // 126 // (सनातीय हंसके पकड़े जानेपर ) भयसे उड़े हुए पक्षि-समूहसे व्याप्त ( अतएव पक्षियों के उड़नेसे उत्पन्न वायुसे ) ऊपर उठते हुए जलसे कम्पनको प्राप्त (या-हंस-विषयक उत्कण्ठासे दयालुताको प्राप्त ) वह तडाग तरहोंने चश्वक कमलरूप हाथों के द्वारा पक्षी ( हंस ) पकड़नेसे रामा नलको मना-सा कर रहा था। [ हंसके पकड़े जानेसे तहाग. वासी पक्षी जब मयसे एक साथ उड़ गये और उनके पडोंकी हवासे तडागका जल चञ्चल हो गया तथा तरकोंसे कमल हिलने लगे, तब ऐसा प्रतीत होता था कि वह तडाग राजा नलको पक्षी पकड़नेसे उस प्रकार निषेध कर रहा है, जिस प्रकार अनुचित रूपसे किसीके द्वारा किसी व्यक्तिके पकड़े जानेपर दूसरा दयालु व्यक्ति हाथोंको हिलाकर वैसे काम करनेसे उस व्यक्तिको मना करता है ] // 126 // पतत्त्रिणा तद्रुचिरेण वञ्चितं श्रियः प्रयान्त्याः प्रविहाय पल्वलम् / चलत्पदाम्भोरहनूपुरोपमा चुकूज कुले कलहंसमण्डली / / 127 // पतस्त्रिणेति / रुचिरेण पतस्त्रिणा हंसेन वञ्चितं विरहितं तत्पल्वलं सरः विहाय प्रयानस्याः गच्छन्याः श्रियो लक्ष्म्याश्वलद्भयां पदाम्भोरुहनूपुराभ्याम् उपमा साम्यं पस्याः साकळहंसमण्डली कूले चूकूज / यूथभ्रंशे कूजनमेषां स्वभावस्तत्र हंसेनैव सह गच्छन्त्याः सम्शोभायाः श्रीदेव्या सहाभेदाध्यवसायेन कूजस्कलहंसमण्डल्यां तन्नूपुरस्वमुस्प्रेषयते / उपमाशब्दोऽपि मुख्यार्थानुपपत्तेः सम्भावनालक्षक इत्यः बधेयम् // 127 // सुन्दर इस पक्षी (इंस ) से रहित तडागको छोड़कर जाती हुई लक्ष्मी ( पक्षाशोमा) के ( चखनेसे ) चन्चल चरण-कमलके नूपुरोंके समान राजहंस-समूह तीरपर कूबने (शम्द करने) लगा। [लोकमें भी प्रियसे रहित स्थानको छोड़कर जाती हुई नायिकाके चरणके नूपुर शद करते हैं। जाती हुई कहनेसे लक्ष्मीका वहाँसे तरक्षण माना ध्वनित होता है ] / / 127 // न वासयोग्या वसुधेयमीहशस्त्वमङ्ग ! यस्याः पतिरुज्झितस्थितिः / इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः खगास्तमाचुक्रशुरारवैः खलु / / 128 // नेति / इयं वसुधा वासयोग्या निवासार्हा न, कुतः अङ्ग मोर ! यस्या वसुधाया Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। उशितस्थितिः त्यकमर्यादः ईडशः अनपराधपनिधारकः वं पतिः पालका, इत्थं खगाः निति प्रहाय नभ आश्रितास्तं नकमारवैहच्चध्वनिभिराचुकशः खलु। उह रोश्या सनिन्दोपालम्भनं चक्ररिवेत्युस्प्रेचा गण्या // 28 // _ 'हे मग ( राजन् नल ) यह पृथ्वी निवासके योग्य नहीं है, जिसके तुम मर्यादा छोड़नेपाळे ऐसे ( निरपराध इंसको पकड़नेवाले ) पति ( रक्षक या- स्वामी ) हो' इस प्रकार पृथ्वीको छोड़कर आकाश का माश्रय किये ये अर्थात् पृथ्वीसे आकाशमें उड़े हुए पक्षा अधिक शब्द कर नलकी निन्दा करने लगे। [ लोकमें मी लोग धनाधाम पूर्ण उपद्रवयुक्त देशका त्याग कर शून्य देशका आश्रय करते है ] / / 128 / / न जातरूपच्छदजातरूपता द्विजस्य दृष्टेयमिति स्तुवन् मुहुः। अवादि तेनाथ स मानसौकसा जनाधिनाथः करपारस्पृशा / / 126 / / नेति / इयमीहरजातरूपच्छदैः सुवर्णपक्षः जातरूपता उत्पमसौन्दर्य विजय परिणो न दृष्टा हिरण्मयः पक्षो न कुत्रापि हट इत्यर्थः। इति मुहुः स्तुवन् स ना. धिनाथः अथास्मिन्नन्तरे करपारस्पृशा तद्गतेन मानसं सरः मोकः स्थानं यस्येति सः तेन मानसौकसा हंसेन 'हंसास्तु श्वेतगरुतश्चक्राला मानसोकस' इत्यमरः / अवादि उक्तः / वदेः कर्मणि लुङ // 129 // ___ 'यह सोनेके पलोंसे उत्पन्न सुन्दरता पक्षीकी नहीं देखी गयी है।' इस प्रकार इसकी बार बार प्रशंसा करते हुए राजा नलसे करपारस्थ मानसरोवर निवासी वह इस बोला.... [मय च-ब्राह्मणकी सुवर्ण-सामगीसे उत्पन्न सुन्दरता कहीं नहीं देखी गयो है....... अर्थात् ब्राह्मण प्रायः इतने अधिक धनी नहीं होते कि सुवर्णसे इस प्रकार व्याप्त हो / हायको पञ्जर कहनेसे नलका हंसको ढीले हाथसे पकड़ना अतएव इंसका पीडित होना मुक्ति होता है ] / / 129 / / धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजन्मनः / तवार्णवस्येव तुषारशीकरभवेदमीमिः कमलोदयः कियान् || 130 / / __तदेव चतुर्भिराह-धिगित्यादि / हेम्नो जन्म येषां तान् हेमजन्मनो हैमान् मम पलान् पतत्राणि समीचय तृष्णातरलम् आशावशगं भवन्मनो धिगरिस्वति निन्दा 'घिनिर्भत्सननिन्दयोरि' स्यमरः / 'धिगुपर्यादिषु त्रिवि ति धिग्योगात् मन इति द्वितीया। तुषारशीकरैः हिमकणैरणवस्येव तव एभिः पक्षः कियान् कमलाया लषम्याः कमलस्य जलजस्य चोदयो वृद्धिर्भवेत् , न कियानित्यर्थः // 130 / / सुवर्णोत्पन्न मेरे पलों को देखकर होमसे चल तुम्हारे मनको धिक्कार है, समुद्रको ओसकी बूंदोंसे जलके समान समृद्धिमान् तुमको इन ( सुवर्णोत्पन्न पकों ) से कितनी धनकी वृद्धि होगी ? अर्थाव कुछ नहीं। [बिस प्रकार अथाह बसे पूर्ण तमुद का जक मोसकी बूंदों से कुछ भी नहीं बढ़ सकता, उसी प्रकार समस्तैश्वर्यसम्पन्न तुम्हारा धन इन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / बोरे सुवर्ण-पक्षोंसे कदापि नहीं पढ़ सकता, अतएव उनके लिए लोम करनेसे चत्रक तुम्हारे मनको धिक्कार है ] // 130 // न केवलं प्राणिवधो वधो मम त्वदीक्षणाद्विश्वसितान्तरात्मनः / विगहितं धर्मषनैर्निबहणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि // 131 // नेति / हे नृप ! स्वदीक्षणात् स्वमूर्तिदर्शनादेव विश्वसितान्तरात्मनो विस्तब्ध. चित्तस्य विश्वस्तस्येत्यर्थः मम वधः केवलं प्राणिमात्रवधो न किन्तु विश्वासघात. पातमित्यर्थः / ततः किमत माह-विश्वासजुषां विस्रम्मभाजां द्विषामपि निबर्षणं हिंसनं धर्मधनैर्धर्मपरैः मन्वादिभिः विशिष्यातिरिच्य विगर्हितमन्यन्तनिन्दित. मित्यर्थः // 3 // ___ तुम्हें देखनेसे विश्वस्तहृदयवाले मेरी हिंसा केवल जीवहिंसा मात्र नहीं है, क्योंकि पार्मिकोंने विश्वस्त शत्रुओं की भी हिंसाको विशेष निन्दित कहा है // 131 / / पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते / घिगीहशन्ते नृपतेः कुविक्रमं कृपाश्रये यः कृपणे पतत्रिणि || 132 / / पदे पद इति / रणोद्भटाः रणेषु प्रचण्डाः भटा योधाः पदे-पदे सन्ति सर्वत्र सन्तीत्यर्थः , वीवायां द्विर्भावः एष हिंसारसो हिंसारागस्तेषु भटेषु न पूर्यते अत्र काकुः न पूर्यते किमित्यर्थः / नृपतेमहाराजस्य ते तव ईदृशमवध्यवधरूपं कुविक्रम धिक्यः कुविक्रमः कृपाश्रये कृपाविषये अनुकम्पनीये कृपणे दीने पतत्रिणि क्रियत इति विशेषः // 132 // पद-पदपर युद्ध में बहादुर योद्धा हैं, उनमें तुम्हारा हिंसानुराग नहीं पूरा होता क्या ? अर्थात् अवश्य पूरा होता, ( अतएव ) हे रामन् ! तुम्हारे इस निन्दित पराक्रम ( अथवा भूमिपर प्रसिद्ध पराक्रम) को धिक्कार है, जो कृपापात्र दीन पक्षीपर प्रयुक्त हो रहा है। [अथवा - पद-पदपर रणमें बहादुर योद्धा नहीं हैं ? जिनमें तुम्हारा यह हिंसानुराग पूरा होता..." अथवा- पद-पदपर युद्ध में बहादुर शुरवीर है, (तथापि ) तुम्हारा यह हिंसानुराग नम्रों ( मेरे जैसे दोनों ) में पूरा होता है ? अर्थात् उन शूरवीरों के साथ युद्ध करनेमें असमर्थ होनेसे तुम मुझ-जैसे नतमस्तक दोनों में अपनी हिंसा-प्रवृत्तिको पूरा करते हो, यह अनुचित है / ........"] // 132 // फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः / त्वयाऽद्य तस्मिन्नपि दण्डधारिणा कथं न पत्या धरणी हृणीयते / / 133 / / फलेनेति / यस्व मम मुनेरिव वारिभूरुहां बलरुहां पद्मादीनाम् अन्यत्र वारिकहां भूमहान फलेन मूलेन चेस्थमनेन दृश्यमानप्रकारेण वृत्तयो जीविकाः तस्मिन् अपि अनपराधेऽपीति भावः / दण्डधारिणा दण्डकारिणा अदण्डयदण्डकेनेत्यर्थः / पल्या स्वया हेतुना अच धरणी कथं न हृणीयते जुगुप्सत एवेत्यर्थः, हृणीयते कण्डवा. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। दियगन्ताबट तत्र हृणीहिति डिस्करणादात्मनेपदम् / अकार्यकारिणं भर्तारमपि हन्ते स्त्रिय इति भावः // 133 // ( राजाका दण्ड देना धर्म है, इस पर वह हंस कहता है-) जिसकी जीविका जलभूमिमें उत्पन्न अर्थात् कमलोंके फल ( कमलगट्टा ) तथा मूल (कमल-नालकी बड़) से ( अथवा-जल में उत्पन्न होनेवाले कमलादिके तथा भूमिपर उत्पन्न होने वाले आत्रादि के फल तथा, कन्द से ) मुनिके समान है, ऐसे (दयापात्र ) मुझपर भी दण्ड प्रयोग करने वाले तुम्हारे ऐसे पतिसे पृथ्वी क्यों नहीं लज्जित होती ? / [दोनोंको दुःख देते हुए पति को देखकर उसकी स्त्री जिस प्रकार लज्जित होती है, उसी प्रकार फल मूलसे जीविका. निर्वाह करने वाले मुनिके तुल्य मुझको दण्ड देते हुए तुम्हें देखकर पृथ्वीको भी लज्जित होना चाहिये ] // 133 // इतीरशैस्तं विरचय्य वाङ्मयः सचित्रवैलक्ष्यकृपं नृपं खगः / दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथीचकार कारुण्यरसापगा गिरः / / 134 / / इतीति / इतीस्थं खगो हंसरतं नृपम् ईदृशैर्दोषालम्भरित्यर्थः, वाङमयैर्वाग्निकारैः 'एकाचो नित्यं मयटमिच्छती'ति विकारार्थे मयट्प्रत्ययः। पक्षिकथनात् चित्रं, परैः स्वाकार्योद्घाटनादपनपा वैलक्ष्यं, एरातिदर्शनेन तनिवर्तनेच्छा वा कृपा, तामिः सह वर्तत इति सचित्रवैल चयकृतं विरचय्य विधाय 'ल्यपि लघुपूर्वादिययादेशः। दयासमुद्रे तदाशये तचित्ते कारुण्यरसापगाः करुणारसनदीः गिरः अतिथीचकार प्रवेशयामासेत्यर्थः समुद्रे नदीप्रवेशो युक्त इति भावः // 134 // वह पक्षी ( हंस ) इस प्रकारके ( 1 / 120-133 ) वचनोंसे उस ( नल) को आश्चर्य, दुःख तथा कृपासे युक्त बनाकर दया-समुद्र उनके हृदय में करुणारस ( कारुण्यरूपी जल ) की नदीरूपिणी वाणियों को प्रवाहित कराया अर्थात समुद्र में जलपूर्ण नदियों के समान दयापूर्ण नलके हृदयमें करुणा रससे युक्त वचनोंको प्रविष्ट कराया-नहसे करुणापूर्ण वचन कहने लगा-। [नल सुवर्णमय हंस देखनेसे आश्चर्यित, अपनी निन्दा सुनने लज्जित तथा उसके वचन सुननेसे कृपास युक्त हो रहे थे] // 134 // मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिर्वरटा तपस्विनी / गतिस्तयोरेष जनस्तमईयनहो विधे! त्वां करुणा रुणद्धि नो / / 13 / / तावद्रिः प्रपञ्चयति-मदित्यादिना / तत्र तावद् दवमुपालभते हे विधे ! जननी अहमेवैकः पुत्रो यस्याः सा मदेकपुत्रा मम नाशे तस्या गत्यन्तरं नास्तीत्यर्थः / जरातुरा स्वयमप्यसमर्थत्यर्थः, वरेटा स्वभार्या 'हंसस्य योषिरटे'त्यमरः। नव. प्रसूतिरचिरप्रसवा तपस्विनी शोच्या एव जनः स्वयमित्यर्थस्तयोर्जायाजनन्योर्गतिः शरणं तं जनं मामित्यर्थः, अर्दयन् पीडयन् हे विधे! विधातः ! स्वां करुणा नो रुणद्धि मत्पीडनाम निवारयतीति काकुः, न रुणदि किमिश्पर्यः // 135 // Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 नैषधमहाकाव्यम् / हे देव ! मैं हो जिसका इकौता पुत्र हूँ ऐसी तथा बुढ़ापेसे पीड़ित मेरी माता है तथा नवीन प्रसववाली एवं पतिव्रता (या-दीना) मेरी प्रिया इंसी है, उन दोनों (माता तथा पत्नी) का यह व्यक्ति अर्थात मैं गति (जीविका चलानेवाग) हूँ, उसे अर्थात् मुझे मारते हुए तुम्हें करुणा नहीं रोकती है, महो! आश्चर्य (या-खेद) है। (मथवा-मुझसे एक पुत्र है जिसकी ऐसी, अजननी अर्थात मेरे मरनेके बाद भी पुत्रो. त्पादन नहीं करने वाली, बुढ़ापेसे पीडित) पतिव्रता (होनेसे युवती होने पर भी पुनः विवाह नहीं करनेसे सन्तानोत्पादन नहीं करने वाली), वप्रमें चेष्टावाळी (या-मेरे मरने पर आश्रयान्तर नहीं होनेसे पर्वत-शिखर पर धूम-घूमकर मात्मरक्षा करने वाली बरटा अर्थात मेरी प्रिया हंसी है, उन दोनों अर्थात् उस प्रिया हंसी तथा पुत्रकी गति ( जीविका चलाने वाला) यह व्यक्ति अर्थात मैं हूँ,"..." / प्रथम अर्थमें-अन्य पुत्र नहीं होनेसे तथा स्वयं जरापीड़ित होनेसे एवं मेरी खोके नवप्रसवा होनेसे माताको रक्षाका कोई उपाय नहीं है तथा स्त्री मी नवप्रसूति तथा पतिव्रता है, मत एव भव मेरे मरनेपर वह दूसरी सन्तान नहीं उत्पन्न कर सकती और पतिविरहित होकर न तो स्वयं जीविकानिर्वाह ही कर सकती है, इन दोनोंकी मैं जीविका चलाने वाला था, वह मर ही रहा हूँ। अत एव ऐसे व्यक्तिको मारते समय देव होने पर भी तुम्हें दया नहीं भाती तो मनुष्य इन नलसे दयाको आशा मैं कैसे करूँ ? / द्वितीय अर्थमें-मेरी प्रिया इंसी बुढ़ापेसे पीड़ित नहीं है, फिर भी तपस्विनी ( पतिव्रता) होनेसे पुनः दूसरे पतिके साथ विवाह कर पुत्रोत्पादन नहीं कर सकती तथा सर्वदा पर्वत-शिखरों पर ही मेरे मर जाने पर घूमती हुई भारमरक्षा करेगी अपने मन्यतम निवासस्थान मानसरोवर में कमी नहीं रहेगी, उन दोनों (प्रिया हंसी तथा पुत्रको ) मैं ही बीविका चलानेवाला हूँ"""] // 135 / / मुहूर्त्तमात्रं भवनिन्दया दयासखाः सखायः नवदश्रवो मम / निवृत्तिमेष्यन्ति परं दुरुत्तरस्त्वयैव मातः ! सुतशोकसागरः / / 136 / / अथ मातरं शोधयति-मुहूर्तेति / हे मातः ! सखायः सुहृदो क्यासखाः सदयाः भवनिन्दया संसारगर्हणेन मुहर्तमानं पणमानं स्रवदश्रवो गलिताश्रव एव सन्तो निवृत्ति शोकोपरतिमेष्यन्ति, किन्तु स्वयैव सुतशोक एव सागरः परमत्यन्तः दुःखे. नोत्तीय्यत इति दुरुत्तरो दुस्तरः तरतेः कृच्छ्रार्थे खलप्रत्ययः॥ 13 // __ आँसू गिराते हुए तथा दयायुक्त मेरे मित्र थोड़े समय तक संसारकी (संसार भनित्य है, यहां आकर अन्तमें सबको यही गति-मृत्यु होती है, काल किसीको नहीं छोड़ता, इत्यादि ) निन्दासे दुःखको भूल जायेंगे, किन्तु हे मातः ! पुत्रका शोकसमुद्र तुम्हारे लिए ही दुःखसे पार करने योग्य होगा अर्थात मित्रों को मेरी मृत्युसे क्षणमात्र कष्ट होगा, किन्तु तुम्हें जीवन पर्यन्त कष्ट सहना पड़ेगा / 136 // मदर्थसन्देशमृणालमन्थरः प्रियः कियर इति त्वयोदिते / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। 75 विलोकयन्त्या रुदतोऽथ पक्षिणः प्रिये ! स कीदृग्भविता तव क्षणः 1 / / ___ अथ भार्यामुद्दिश्य विलषति-मदत्यादिन / हे प्रिये ! मद्यमिमे मर्थे 'अर्थेन सह नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम्' तयोः सन्देशमृणालयोः वाचिकबिसयोः मन्थरस्तस्प्रेषणे विलम्बितप्रवृत्तिः प्रियः कियरे देशे वतंत इति श्वया उदिते उक्त पृष्टे सतीत्यर्थः। अथ प्रश्नानन्तरं रदतः अनिष्टोच्चारणाशक्त्या अणि विमुञ्चतः पक्षिणः इतो गच्छतो गतान्विलोकयन्स्यास्तव स क्षणः स कालः कीदृग्भबिता भविष्यति ? वज्रपातप्राय इति भावः / कर्तरि लुट // 137 // __हे प्रिये ! मेरे (इसीके) लिए सन्देश ( प्रियासे जाकर इस प्रकार कहना ऐसी मेरी ( हंसकी ) आशा) तथा मृणाम (मुझ हसीके लिये मक्ष्य कमलनाल) के विषय में आलसी मेरा ( हसीका ) प्रिय ( हंस ) कितनी दूर है ?" ऐसा तुम्हारे कहने पर रोते हुए ( मेरे सहचर ) पक्षियों को देखती हुई तुम्हारा बह समय कैसा होगा ? अर्थात् अनिर्वचनीय दुःख. प्रद होगा / [ अथवा-'मेरे ( हंसीके ) लिए मृणालों को लाना' ऐसे मेरे ( हंसीके ) सन्देश ( यहांसे जाते समय कहे गये वचन ) में आलसी...... ] // 137 / / कथं विधातर्मयि पाणिपङ्कजात्तव प्रियाशैत्यमृदुत्वशिल्पिनः / वियोक्ष्यसे वल्लभयेति निर्गता लिपिर्ललाटन्तपनिष्ठुराक्षरा / / 138 / / कामिति / हे विधातः! प्रियायाः वरटायाः शैत्यमृदुरवशिल्पिनस्ताहक तदङ्ग शैत्यमार्दवनिर्माणकात्तव पाणिपङ्कजात्पङ्कजमृदुशिशिरात् पाणेरिस्यर्थः / मयि विषये वल्लभया सह वियोचय से इत्येवंरूपा अतएव ललाटं तपन्ति दहन्तीति ललाटन्त. पानि 'असूर्यललाटयोद्देशितपोरिति खलप्रत्ययः, 'अर्दिषदित्यादिना मुमागमः तानि निष्ठुराणि कर्णकठोराणि चाक्षराणि यस्याः सा लिपिरचरविन्यासः कथं निर्गता निःसृता? अत्रकारणात् विरुद्ध कार्योत्पत्तिकथनाद्विषमालङ्कारभेदः 'विरुद्ध कार्यस्योत्पत्तियंत्रानर्थस्य भावयेत् / विरूपघटना वा स्याद्विषमालंकृतिमते'ति // हे ब्रह्मन् ! प्रिया शीतलता तथा कोमलताके शिल्पी ( रचयिता-निपुण कारीगर ) तुम्हारे हस्तकमलसे 'तुम प्रियासे विरह पावोगे' ऐसा ललाटको तपानेवाला कठोर अक्षर का लेख कैसे निकला ? [ शीतलता तथा कोमळताको चतुर कारीगर तुम्हारे स्वयं मो शीतल तथा कोमल करकमलसे शीतल तथा कोमल वस्तु को ही सृष्टि होना उचित था, न कि तद्विपरीत उष्ण तथा कठोर उक्तरूप सृष्टि होना] / / 138 // अपि' स्वयूथ्यैरशनिक्षतोपमं ममाद्य वृत्तान्तमिमं बतोदिता। मुखानि लोलाक्षि ! दिशामसंशयं दशापि शून्यानि विलोकयिष्यसि / / अपीति / अपि चेत्यपेरर्थः। अद्यास्मिन् दिने 'सघापरुदित्यादिना निपातः स्वयू. ध्यैः स्वसङ्घवरैहंसः कर्तृभिरशनिघतोपमं वज्रप्रहारप्रायं ममेसं वृत्तान्तम् अनर्थवात्ता 1. 'अयि' इति पाठान्तरम् / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 नैषधमहाकाव्यम् / उदिता उता सती वदेवअर्थस्प दुहादिस्वादप्रधाने कर्मणि कः पचिस्वपीत्यादिना सम्प्रसारणं, हे लोलाति! दशदिशां मुखानि शून्यान्यलचयाकाराणि विलोकयिष्यसि असंशयं सन्देहो नास्तीत्यर्थः / अर्थाशवण्ययीभावः, पतेति खेदे // 19 // और हे कोलाक्षि ( स्वभावतः चपक-नेत्रवाली प्रिये) ! आज अपने झुण्डवाले हंसोंसे वज्रप्रहारसे तुल्य मेरे वृत्तान्त ( मृत्यु-समाचार ) को कहने पर खेद है कि तुम दशों दिशाओं को सूना देखोगी / / 139 / / ममैव शोकेन विदीर्णवक्षसा त्वयाऽपि चित्राङ्गि ! विपद्यते यदि / तदस्मि देवेन हतोऽपि हा हतः स्फुटं यतस्ते शिशवः परासवः / / 140 / / ___ ममैवेति / हे चित्राङ्गि ! लोहितचञ्चुचरणस्वाद्विचित्रगात्रे! मम शोकेनैव मद्वि. पसिदुःखेनैव विदीर्णवासा विदलितहदा स्वया विपद्यते म्रियते यदि तत्तर्हि देवेन हतः स्फुटं व्यकं पुनहतोऽस्मि हेति विषादे, 'हा विस्मयविषादयोरिति विश्वः / कुतः 1 यतः ते शिशवः परासवो मातुरष्यमावे पोषकाभावान्मृताः, अतः शिशुमरण. भावनया द्विगुणितं मे मरणदुःखं प्राप्तमित्यर्थः // 140 // हे विचित्र ( सुन्दर ) भगोवाली प्रिये ! मेरे ही शोक से विदीर्णहृदया तुम यदि मर जावोगी तो हा ! दैवसे मारा गया मी मैं फिर मारा गया, क्योंकि तुम्हारे बच्चे ( तुम्हारे विना ) अवश्य ही मर जायेंगे। [ मेरे विना तुम मी उन बच्चों का पालन-पोषण कर सकती हो, किन्तु यदि मेरे वियोगसे तुम मर जावोगी तो उनकी निश्चित हो मृत्यु हो बायेगी, इस प्रकार मेरे मरनेपर मेरा परिवार ही नष्ट होता हुआ प्रतीत होता है, अतएव मुझे दुर्दैवने यह बड़ा दुःसह कष्ट दिया ] // 140 // तवापि हाहा विरहात् क्षुधाकुलाः कुलायकूलेषु विलुट्य तेषु ते / चिरेण लब्धा बहुभिर्मनोरथैर्गताः क्षणेनास्फुटितेक्षणामम // 141 / / ननु मन्मृतौ कथं तेषां मृतिरत आह-तवापीति / हे प्रिये ! बहुभिर्मनोरथैश्वि रेण लब्धाः कृच्छ्रलब्धा इत्यर्थः, अस्फुटितेषणाः अद्याप्यनुन्मीलितेक्षणा मम ते पूर्वोक्ताः शिशवः तवापि न केवलं ममेवेति भावः / विरहाद्विपत्तेः सुधाकुलाः सुरपी. डिताः तेषु स्वसम्पादितेवित्यर्थः, कुलायफूलेषु नीडान्तिकेषु, 'कुलायो नीडम' स्त्रियामि'त्यमरः / विलुट्य परिवृत्य क्षणेन गताः मृतप्रायाः, हा हेति खेदे // 14 // (हे प्रिये ! ) मेरे बहुत मनोरथोंसे प्राप्त, अस्फुटित नेत्रोंवाले वे (बच्चे ) तुम्हारे भी ( तथा मेरे मी) विरइसे भूखोंसे व्याकुल हो उन घोसलों के समूहों में लोटकर क्षणमात्रमें चक वसेंगे अर्थात् मर जायेंगे; हाय ? हाय !! // 141 // सुताः कमाहूय चिराय चूकृतैविधाय कम्प्राणि मुखानि के प्रति ? | कथासु शिष्यध्यमिति प्रमील्य च सूतस्य सेकाद् बुबुधे नृपाश्रुणः // 142 / / सुता इति। हे सुताः ! चूकृतैश्चूङ्कारश्चिराय के प्रति कमपि प्रति मुखानि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। कम्प्राणि चवलानि विधाय कथासु शिष्यध्वं कथामात्रशेषा भवत ! कुत्रापि पित्रोरदर्शनाद् नियध्वं, प्राप्तकाले लोट् , मरणकालः प्राप्त इत्यर्थः / इतीति इत्युक्रवेत्यर्थः। गम्यमानार्थवादप्रयोगः / प्रमील्य मूग्छों प्राप्य स हंसः सूतस्य दयाभावात्प्र. वहतो नृपस्याश्रमः सेकाद् बुबुधे संज्ञा लेभे / प्रायेणात्र स्वभावोक्तिरूह्या // 142 // (इस प्रकार प्रियाको लक्ष्य कर कहनेके वाद हंस अपने पुन्नोंको लक्ष्य कर कहता है-) हे पुत्रो ! 'चूं धूं करते हुए चिरकालतक किसे बुलाकर ( भोजन-पदार्थ मांगोगे ) ? तथा मुखोंको कॅपाते हुए (बोलना सीखोगे ? अर्थात् किसोसे नहीं, अतएव ) कथाशेष हो (मर) जावोगे' ऐसा कह मूच्छित होकर वह हंस ( दयाके कारण ) नीचे बहते हुए राजा (नक) के भोसके द्वारा भींगनेसे होश में आया। [उक्त वचन कहते कहते हंस मूञ्छित हो गया, तथा नलने उस हंसके करुण विलापसे दयाद्रं हो इतने आँसू गिराये कि उसीके प्रवाइसे भोंगा हुआ हंस होशमें आ गया। यहाँ पर हंसने बच्चेसे भोजन मांगने तथा बोलना सीखने की बात नहीं कही है, किन्तु दुःखातिशयके कारण भाषी ही बात कह सका है, ऐसा कहने से यहाँ करुणरस विशेष पुष्ट होता है। अथवा-'चं चूं' करते हुए किसे बुलाकर तथा कंपते हुए मुखको किसके प्रति कर के गोष्ठी आदिमें बोलना सीखोगे ? अर्थात माता पिताकी मृत्यु हो जानेसे तुम्हें समामें बोलना सिखाकर कोन चतुर करेगा ?.... ] // इत्थममुं विलपन्तममुञ्चद्दीनदयालुतयाऽवनिपालः / रूपमदशि धृतोऽसि यदर्थं गच्छ यथेच्छमथेत्यभिधाय / / 143 / / __ अत्र सर्वत्र 'भिन्नसर्गान्तरिति काव्यलक्षणाद्वृत्तान्तरेण श्कोकद्वयमाह-इस्थ. मित्यादिना। इत्थं विलपन्तं परिदेवमानममुं हंसमवनिपालो नलो दीनेष्वार्तेषु दयालुतया कारुणिकतया रूपमाकृतिरदर्शि अपूर्वत्वादवलोकितं, यस्मै यदर्थ रूप. दर्शनार्थमेव तो गृहीतोऽसि, अथ यथेच्छं गच्छेत्यभिधाय अमुश्चत् मुक्तवान् / 'दोधकवृत्तमिदम्भभभा गावि'ति लक्षणात् // 143 // इस प्रकार (11135-142 ) विलाप करते हुए इस हंसको ( मैंने ) जिस (रूपको देखने ) के लिए तुम्हें पकड़ा था, वह रूप देख लिया, अब तुम इच्छानुसार ( जहाँ चाहो, वहाँ) बावो' ऐसा कहकर दीनदयालु होनेसे राजा नबने छोड़ दिया // 143 / / आनन्दजाअभिरनुनियमाणमार्गान् प्राकशोकनिर्गलितनेत्रपयःप्रवाहान् / चक्रे स चक्रनिभचक्रमणच्छलेन नीराजनां जनयतां निजबान्धवानाम् / / मानन्देति / हंसः चक्रनिमचङक्रमणस्य मण्डलाकारभ्रमणस्य छलेन नीराजनाअनयतां कुर्वता निजबान्धवानां 'बन्धमुक्त बान्धवा नीराजयन्तीति समाचारः। प्राममोचनापूर्व शोकेन निगलिता निःसृता नेत्रपयःप्रवाहाः बाष्पपूरास्तानानन्दजा. अभिरानन्दबाप्पैरनुस्रियमाणमार्गान् अनुगम्यमानमार्गाश्च कृतवान् / अत्र परिणां स्वभावसिद्धं बन्धमुक्तं स्वयूथ्यभ्रमणं छलशब्देनापगुस्य तत्र नीराजनात्वारोपाइपह्न Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / चभेदः / अत्र चमत्कारिस्वान्मालाचाररूपरवाच सर्वत्र सङ्गीतश्लोकेवानन्दशब्द प्रयोगः, यथाह भगवान् भाष्यकार:-'मङ्गलादीनि मङ्गलमयानि मजलान्तानि विहितानि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाण्यायुष्मरपुरुषाणि च भवन्ति अध्येतारश्च प्रवकारो भवन्तीति / वसन्ततिलकावृत्तम् 'उका वसन्ततिलका तभजा जगी ग' इति लक्षणात्। सन्तत्वाद् वृत्तभेदः, यथाह दण्डी-'सगैरनतिविस्तीर्णैः श्राव्य. वृत्तः सुसन्धिमिः / सर्वत्र मिसान्तैरुपेतं लोकरञ्जनम् // ' इति // 14 // ____ उस ( हंस ) ने चक्राकार (गोल) भ्रमण करने के कपटसे ( हंसके छूटने के इर्षसे ) भारती करते हुए अपने वान्धवों को पहले ( पकड़े जानेपर ) शोकसे निकलते हुए नेवाश्रु. प्रवाहवालों को ( तथा छूटनेपर ) भानन्दजन्य हर्षाश्रुसे युक्त कर दिया। [राजा नलके दारा इसके पकड़े बानेपर उसके सहचर बन्धु पहले रोकर तथा उस सके छूटनेपर हर्षित होकर माँस बहाने लगे और इसके चारों ओर मँडराते ( चक्कर काटकर आते) हुए ऐसे प्रतीत होते थे, मानों वे बन्धनमुक्त हंसकी आरती कर रहे हों। कोकमें मी किसी इष्ट बन्धुके पकड़े जाने पर लोग दुःखसे मांसू बहाते हैं तथा छूटने पर हर्षसे आँसू बहाते है तथा उस कारागारादिके बन्धनसे मुक्त इष्ट पन्धुकी आरती करते हैं ] // 144 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् | तचिन्तामणिमन्त्रचिन्तनफले शृङ्गारभङ्गथा महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽयमादिर्गतः // 145 / / अथ कविःकाव्यवर्णनमाश्यातपूर्वकं सर्गसमाप्तिं श्लोकबन्धेनाह-श्रीहर्षमिति। कविराजराणिमुकुटानां विच्छेष्ठश्रेणीमुकुटानाम् अलधारभूतो हीरो बज्रमणिः हीरो नाम विहान् श्रीहर्षनामानं यं सुतं सुषुवे जनयामास, मामझदेवी नाम स्वमाता सा च यं सुतं सुषुवे, तस्य श्रीहर्षस्य यश्चिन्तामणिमन्त्रः तस्य चिन्तनमुपासना तस्य फले फलभूते शृङ्गारमनपा शृङ्गाररसेन चारुणि निषधानां राजा नैषधो नलः तदीयचरिते नलचरितनामके महाकाव्ये अयमादिः प्रथमः सर्गो गतः समाप्त इत्यर्थः / एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् // 145 // इति 'मल्लिनाथसूरि विरचितायां 'जीवातु'समास्यायो नैषधटीकायां प्रथमः सर्गः समाप्तः // 1 // कविराज-समूहके मुकुटके अलङ्कारके हीरा 'श्रीहीर' तथा 'मामल्लदेवी'ने इन्द्रियसमूहको बोतनेवाले जिस 'श्रीहर्ष'को उत्पन्न किया, उसके चिन्तामणि मन्त्र ( 14.85) के चिन्तन (जपादि) के फलस्वरूप, शृङ्गार रचनासे मनोहर 'नैषधीय चरित' नामक महाकाव्यमें प्रथम सर्ग समाप्त हुभा // 145 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित' का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ // 1 // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अधिगत्य जगत्यधीश्वरादथ मुक्तिं पुरुषोत्तमात्ततः / वचसामपि गोचरो न यः स तमानन्दमविन्दत द्विजः // 1 // अधिगत्येति / अथ मोचनानन्तरं सद्विजः पक्षी विप्रच, 'दन्तविप्राण्डजा द्विजा' इत्यमरः / जगत्यधीशरात् चयापतेः भुवनपतेश्च 'जगती भुवने मायामिति विश्वः। पुरुषोत्तमात् पुरुषश्रेष्ठात् विष्णोश्च ततः तस्मात् प्रकृतान्नलात् अन्यत्र प्रसिद्धाक्ष मुक्ति मोचनं निर्वाणश्च अधिगत्य प्राप्य आनन्दो बलामपि न गोचरः वक्तुमश. क्यः, 'यतो वाचो निवर्तन्त' इस्थादेरवाङ्मनसगोचरश्च तमानन्दं परमानन्दन अविन्दतालमत, विदेर्लाभार्थात् 'कभिप्राये क्रियाफल' इत्यात्मनेपदं, 'शे मुचादी. नामिति नुमागमः / अनाभिधायाः प्रकृतार्थमात्र नियन्त्रगादुभयश्लेषानुपपत्तेदा. न्तरानवकाशाल्लक्षणायाश्च मुख्यार्यबाधमन्तरेणासम्भवात् ध्वनिरेवायं, ब्राह्मणस्य विष्णोर्मोधानन्दप्राप्तिलक्षणार्थान्तरप्रतीतेन श्लेषः प्रकृताप्रकृतोभयगतः / अस्मिन सर्गे एकशतश्लोकपर्यन्तं वियोगिनीवृत्तम् / 'विषमे ससना गुरुः समे सभरा लोऽय गुरुर्वियोगिनीति लक्षणादिति संक्षेपः॥१॥ तदनन्तर वह पक्षी ( हंस ) उस पुरुषश्रेष्ठ भूपति नलसे छुटकारा पाकर वचनके भी ( 'अपि' ) शब्दसे मनके भी भविषय अर्थात् अनिर्वचनीय आनन्दको पाया ( पक्षा० - वह ब्राह्मण जगदीश श्रीविष्णु भगवान् से मुक्ति ( तथा मुक्ति-साधनभूत ज्ञान ) को पाकर अनिर्वचनीय भानन्दको पाया) // 1 // अधुनीत खगः स नकधा तनुमुत्फुल्लतनूरुहीकृताम् | करयन्त्रणदन्तुरान्तरे व्यलिखच्चञ्चुपुटेन पक्षती // 2 // अधुनीतेति / स खगो हंसः उत्फुखतनूरुहीकृतां नृपकरपीडनादुबुदय पतनी. कृतां 'पतञ्च तनूसहमित्यमरः / तनुं शरीरं नकधा, नअर्थस्य सुम्सुपेति समासः। नत्रसमासे नलोपप्रसनः / अधुनीत धूतवान् / धूमः यादेलङिति तक , 'धादीनां हस्व' इति हस्वः / किञ्च करयन्त्रणेन नृपकरपीटनेन दन्तुरे निम्नोन्नतमध्यप्रदेश पवती पक्षमूले 'स्त्री पचतिः, पक्षमूलमि'त्यमरः, धन्चुपुटेन नोटिसम्पुटेन ब्यलिखत् विलेखनेन ऋजूचकारेत्यर्थः / एतादेः श्लोकचतुष्टयेषु स्वभावोचिरलङ्कारः॥२॥ वह पक्षी (हंस ) फुलाये गये रोमोंवाले शरीरको अनेक प्रकारसे कँपाया तथा ( नलके ) हाथ के द्वारा दबनेसे दन्तुरित ( उच्चावच ) मध्य मागवाले पङ्खमूलोको चोंचसे खुनलाया // 2 // अयमेकतमेन पक्षतेरधिमध्योर्ध्वगजङ्घमध्रिणा। स्खलनक्षण एव शिश्रिये द्रुतकण्डूयितमौलिरालयम् // 3 // 6 नै Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 नैषधमहाकाव्यम् / अयमिति / अयं हंसः स्खलनक्षण एव मोचनानन्तरमेवेत्यर्थः। एकतमेनाङ् घ्रिणा पक्षतेः पवमूलस्वाधिमभ्यं मध्ये ऊन्वंगामिनी जङ्घा यस्मिन् कर्मणि तयथा तथा कण्डूयनेन तत्तथा द्रुतं कण्डूपितमौलिः सत्वरं कषितचूडः सन् भालयं निजा. वासं शिप्रिये श्रितवान् // 3 // वह ( हंस नलके पाससे ) छूटते ही पङ्खमूलके मध्यमें ऊपर जङ्घा करके झटपट सिरको खुजलाया तथा अपने निवास स्थानपर (घोसलेमें या-तडाग तट पर ) पहुंच गया // 3 // स गरुद्वनदुर्गदुग्रहान् कटु कीटान् दशतः सतः कचित् / नुनुदे तनुकण्डु पण्डितः पटुचञ्चपुटकोटिकुट्टनैः // 4 // - स इति / पण्डितः निपुणः स हंसः गरुतः पक्षा एव वनदुर्ग तत्र दुर्ग्रहान् ग्रहीतमशक्यान् कटुतीक्षणान्दशतः दन्तैस्तुवतः कचित् कुत्रचिदेव सतः वर्तमानान् कीटान् बुद्रजन्तून् पटुचन्चूपुटस्य समर्थनोटेः कोटया अग्रेण कुट्टनैः घुट्टनैस्तनुरल्पा कण्डूस्मिन् तनुकण्दु यथा तथा 'गोखियोरुपसर्जनस्येति' ह्रस्वः। नुनुदे निवारि. तवान् 'स्वरितजित' इत्यात्मनेपदम् // 4 // (खुमाने में ) चतुर वह हंस पङ्ख-समूहरूप दुर्ग में ( रहने से ) कठिनाईसे पकड़े जाने योग्य तथा खूब काटते हुए एवं कहीं ( अशात स्थानमें ) स्थित कोदोको तेज ( नुकीले ) चोचोंके अग्रभागके द्वारा आहत करनेसे शरीरकी खुजलाइटको दूर किया [ लोकमें भी कोई कुशल योद्धा वनादि दुर्गम भूमिमें रहने के कारण कठिनाईसे पकड़ने योग्य एवं पोढ़ा देते हुए शत्रुओंको तीक्ष्ण शखोंसे मारकर उनकी बाधाको दूर करता है] // 4 // अयमेत्य तडागनीडलघु पर्य्यत्रियताथ शङ्कितैः।। उदडीयत वैकृतात् करग्रहजादस्य विकस्वरस्वरैः // 5 // अयमिति / अयं हंसस्तहागनीजैः सरस्पतिभिस्तत्रत्यहंसः 'नीडोद्भवा गह. स्मन्त' इत्यमरः / लघु क्षिप्रमेत्यागत्य पर्यवियत परिवृतः, वृणोते. कर्मणि लक। अथ परिवेष्टनानन्तरमस्य हंसस्य करग्रहजामलकरपीडनजन्यादिकृतादेव वैकृताहि लुण्ठितपक्षस्वरूपाद्विकारदर्शनादित्यर्थः, स्वार्थेऽण प्रत्ययः, शक्तैिश्चकितैः अतएव विकस्वरस्वरैरुज्?षैस्तैरुदडीयतोड्डीनम् डीडो भारे लङ॥५॥ ( मलके ) सरोवरपर रहने वाले पक्षियोंने इस हंसको झट-पट चारों तरफसे घेर लिया और बादमें ( नलके ) हाथमे पकड़ने के विकार (इसके उच्चावच शरीरभाग ) से डरे हुए वे उच्चस्वर करते हुए उड गये। [ लोकमें भी किसी तीर्थादि मैं दान लेने के लिए दाताको बहुत-से प्रतिग्रहीता घेर लेते हैं तथा दानजन्य कलहको माशङ्कासे (छा करते हुए वहांसे चले जाते हैं ] // 5 // दधतो बहुशैवलक्ष्मतां धृतरुद्राक्षमधुव्रतं खगः / स नलस्य ययौ करं पुनः सरसः कोकनभ्रमादिव // 6 // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 81 दधत इति / अथ स खगो हंसः बहुशैवला भूरिशैवला चमा भूर्यस्य तहुशैवलयम तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानात् स्वरसः पश्वलात् बहूनि शैवलचमाणि शिवभक्तचिह्नानि यस्य स बहुशैवलयमा तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानस्य नलस्य रुद्राक्षाणि मधुव्रता इदेत्युपमितसमासः, ते पृता येन तं करं कोकनदभ्रमा. द्रकोपलभ्रान्तेरिव पुनर्ययो, कोकनदन्तु रुद्राक्षप्तहशमधुव्रतं खलु / अत्र बहुशैव. लेत्यादौ शब्दश्लेषस्तदनुप्राणिता रुद्राक्षमधुव्रतमित्युपमा तस्सापेक्षा चेयं कोकनद. प्रमादिवेत्युत्प्रेक्षेति सङ्करः // 6 // ___ वह पक्षी (हंस ) बहुत शेवाल युक्त भूमि वाले सरोवरसे शिव-सम्बन्धी (या शिवभक्तोंकी ) बहुत-से चिह्नों को धारण करते हुए नलके ( मानो भ्रमरसदृश रुद्राक्षको धारण करते हुए ) हाथको रुद्राक्ष-सदृश भ्रमरों वाळे रक्तकमकके भ्रमसे पुनः प्राप्त किया। [बहुत से शेवाल युक्त भूमिवाले तडागके रुद्राक्ष तुल्य भ्रमरोंसे युक्त रक्त कमल के भ्रम से वह हंस बहुतने शैव ( शिवमरत या-शिवसम्बन्धी, या-मङ्गलकारक सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभ ) चिह्नोंवाले ( रक्तवर्ण) नल के हाथको पुनः प्राप्त किया अर्थात नलके हाथ में पुनः आ गया। अथवा-रुद्राक्षके मधुतुल्य श्रेष्ठ व्रतों को धारण करते हुए हाथ को........." / अथवा-रुद्रको नहीं सहन करने वाले अर्थात शिवद्रोहियोंको पराभूत करने वाले व्रत (नियम-प्रतिज्ञा ) से युक्त = शिवद्रोहि पराभव कारक नल-करको....... / अथवा-गूंजते हुए एवं अग्नितुल्य पिङ्गलवर्ण नेत्र वाले भ्रमरोंसे युक्त रक्तकमलकी भ्रान्तिसे"."...] // 6 // पतगश्चिरकाललालनादतिविश्रम्भमवापितो नु 'सः / अतुलं विदधे कुतूहलं भुजमेतस्य भजन्महीभुजः / / 7 // अथास्य स्वयमातमनादुस्प्रेचते-पता इति / पतङ्गो हंसश्चिरकाललालनादुपळा. लनादतिविशम्भमतिविश्वासं 'समौ विश्रामविश्वासावित्यमरः / अवापितः प्रापितो नु किमि युस्प्रेछा, अन्यथा कथं पुनः स्वयमागच्छेदिति भावः / किन्न एनस्य सही. भुजो भुजम्मजन् स्वयमाप्नुवन् अतुलं कुतूहलं विदधे कौतुकारेत्यर्थः / अत्रोत्प्रे. झावृश्यनुप्रासयोः शब्दार्थालङ्कारयोस्तिलत्तण्डुलवत् संसृष्टिः। 'एकद्विश्यादिवर्णानां पुनरुकिलेशदि / सख्या नियममुहमध्य वृत्यनुप्रास ईरितः // ' इति // 7 // ___ इस राजा ( नल) के हाथ में आये हुए उस पक्षी (हंस ) ने बहुत समय तक लालन करनेसे मानों अतिशय विश्वासको पाये हुएके समान अत्यधिक कौतूहल को धारण किया / नृपमानसमिष्टमानसः स निमजत्कुतुकामृतोर्मिषु / अवलम्बित कर्णशष्कुलीकलसीकं रचयन्नवोचत / / नृपमानसमिति / इष्टमानसः प्रियमानसः स राजहंसः कुतुकं हर्षस्तदेव अमृतं सुधा तस्योर्मिषु निमजदन्तर्गतं नृपमानसं नलमनःकर्णी शकुष्याविव कर्णशकु. 1. 'सन्' इति पाठान्तरम् / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 नैषधमहाकाव्यम् / यो ते कलस्यौ ते अवलम्बिते अवधीकृते ते च येन तत्तथोक्तं 'नवृतश्चेति कप। रचयन् कुर्वनवोचत उक्तवान् / जले मजन्नपि तरणार्थ कलसमवलम्बते, तद्वत्कर्णः शष्कुली-कलस्यावित्युपमारूपकयोः संसष्टिः // 8 // __मानसरोवर है प्रिय जिसका ऐसा वह हंस कौतुक रूप अमृत (पीयूष, पक्षापानी) के तरङ्गों में डूबते हुए, नलके मनको कर्णश कुलीरूप कल सदयका अवलम्बन करनेवाला बनाता हुआ अर्थात् अपने वचनको सुनने के लिए सावधान करता हुभा बोला-[लोकमें पानीकी लहरों में डूबता हुआ कोई व्यक्ति कलस (घड़े) का अवल. मनकर सावधान हो जाता है। जिसे मानस ( मानसरोवर ) प्रिय है, उसे नृपमानस ( राजा नल के चित्त ) को सावधान करना-डूबने से बचने के लिए घड़ेका सहारा देकर सावधान करना उचित ही है ] // 8 // मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्मपारगैः। स्मरसुन्दर ! मां यदत्यजस्तव धर्मः स दयोदयोज्ज्वलः // // मृगयेति / धर्मागममर्मपारगैधर्मशास्तत्वपारदर्शिभिरिव 'अन्तास्यन्ताम्वदूर पारसर्वानन्तेषु डः' इति गमेडं प्रत्ययः / नृपैर्मृगया आखेटो न विगीयते न गीते / तथापि हे स्मरसुन्दर ! मामत्यज इति यत् स त्यागस्तव दयोदयेनोज्ज्वलो विमलो धर्मतोऽपीति भावः॥ 9 // धर्मशास्त्रके मर्मके पारगामी ( मनु आदि ) राजा लोग भी आखेट (शिकार ) की निन्दा नहीं करते ( अत एव ) कामदेवतुल्य सुन्दर ! ( नक! आपने ) मुझे जो छोड़ दिया वह ( छोड़ना) दया के आविर्भावसे निर्मल बापका धर्म था / [ अर्थात् आप केवल भाकृतिसे ही सुन्दर नहीं है, किन्तु आपका धर्म ( स्वभाव ) मी सुन्दर (दयावान्) है] // 9 // अबलस्वकुलाशिनो झषानिजनीडद्रुमपीडिनः खगान् / अनवद्यतृणार्दिनो मृगान् मृगयाऽघाय न भूभृतां धनताम् // 10 // ननु प्राणिहिंसा कथं न विगीयते तत आह-अवलेति / अबलस्वकुलाशिनो झषाः 'दुर्बलस्वकुलघातिनो मत्स्या' इति प्रसिद्धिः, निजनीडद्रुमपीडिनो विण्मोक्षफलभषणादिना स्वाश्रयवृक्षपीडाकरान् खगान् अनवधतृणाहिनः अनपराधितृणहिंसकान् मृगान्, 'अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विता' इति मनुस्मृत्या तस्तृणा. दीनामपि प्राणित्वासद्धिंसा पीडेवेति भावः। सर्वत्रापि ताच्छील्ये णिनिप्रत्यया, ध्नता हिंसा भूभृतां मृगया अघाय पापाय न भवति / तदूधस्य इण्डरूपस्वात् प्रत्युताकरणे दोष इति भावः // 10 // अपने निर्बल वंशवालों को खाने वाली मछलियोंको, अपने घोसलोंके पेड़ोंको (विष्ठामूक मादिसे ) पीडित करनेवाले पक्षियोंको तथा निरपराध तृणोंको नष्ट करनेवाले मृगको Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 83 मारते हुए राजाओंका आखेट दोष के लिए नहीं होता है / [ क्योकि निरपराधियों को पीड़ित करनेवालों को दण्डित करना राजाका धर्म है ] // 10 // यदवादिषमप्रियन्तव प्रियमाधाय नुनुत्सुरस्मि तत् / कृतमात पसंज्वरं तरोरभिवृष्यामृतमंशुमानित्र // 11 // तथावि किमर्थ पुनरागतन्वयेत्यत आह-यदिति / तव यदप्रियमवादिषमवो. चम् / प्रियमाधाय प्रियं कृत्वा तदप्रियन्तरोः कृतं स्वकृतमातपसन्तापम् अमृत. मुहकभिवृष्य पयः कीलालममृतमि'स्यमरः / अंशुमानिद नुनुत्सुनौदितुं प्रमाटुं. मिच्छुः, नुद-प्रेरण इत्यस्माद्धातोः समन्तादुप्रत्ययः // 11 // (पहले ) मैंने आपको अप्रिय ( 11130- 133 ) कहा था, ( अब ) प्रिय ( अमिल. षित ) कर के उस अप्रिंयको उस प्रकार दूर करना चाहता हूँ, जिस प्रकार सूर्य वृक्षको धूपके द्वारा तपाकर बाद में जैसे बरसाकर उसका प्रिय करता है // 11 // उपनम्रमयाचितं हितं परिहत्तु न तवापि साम्प्रतम् / करकल्पजनान्तराद्विधेः शुचितः प्रापि स हि प्रतिग्रहः // 12 // तर्हि भवन्मोचनं सुकृतमेव मम पर्याप्ठम् किं दृष्टोपकारेणेति न वाच्यमित्याहउपनम्रमिति / अयाचितमप्रार्थितमुपनम्रमुपनत हितम् इह चामुत्र चोपकारक तवापि परिहर्त न सांम्प्रतम् युक्तम् / 'अयाचितं हितं ग्रामपि दुष्कृत कर्मण' इति स्मरणादिति भावः / तदपि मारशात पृथग्जनात् कथं ग्राघमत आह-करेति / हि यस्मारकारणात् स प्रतिग्रहः करकापङ्करस्थानीयमित्यर्थः। ईषदसमाप्तो कल्पप्र. त्ययः, यजनान्तरं स्वयं यस्य तस्माच्छुचेः शुद्धाद्विधेः ब्रह्मणः प्राप्तः न तु मत्त इति भावः / प्राप्नोतेः कर्मणि लुछ। विधिरेव ते दाता अहं तस्योपकरणमात्रम्, अतो न यात्रालाघवन्तवेति भावः // 12 // बिना याचना किये उपस्थित हित (प्रिय-अभीष्ट ) को छोड़ना (सार्वभौम ) भापको भी उचित नहीं है, क्योंकि हाथके समान (मद्रूप ) दूसरे व्यक्तिवाले शुद्ध भाग्यसे प्राप्त होने वाला यह प्रतिग्रह ( दान ) है। [ यद्यपि आप सार्वभौम चक्रवर्ती राजा हैं, अतएव दूसरे किसीसे कुछ भी लेना-दान स्वरूपमें प्राप्त हुएको ग्रहण करना उचित नहीं है, तथापि बिना याचना किये बो हितकारक वस्तु उपस्थित हो जाय, उसे ग्रहण करने में चक्रवती होते हुए भी आपको निषेध नहीं करना चाहिये; क्योंकि दूसरे व्यक्तिको अपना हाथ बनाकर शुद्ध भाग्य ही दानरूप में तक्त हितकारक बस्तुको देता है अर्थात भाग्यानुसार ही विना याचना किये वह वस्तु उसे मिलती है, अतएव उसका निषेध करना किसीको भी उचित नहीं ] // 12 // पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्यै तव किं प्रभूयते / इति वेद्मि, न तु त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकत्तुमर्तयः // 13 // Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम्। ननु सार्वभौमस्य मे तिरश्चा स्वया किमुपकरिष्यते, तबाह-पतगेनेति / पतगेन पक्षिमात्रेण मया जगत्पतेः सार्वभौमस्य तवोपकृत्यै उपकाराय प्रभूयते सम्यते किं न भूयत एवेत्यर्थः, भावे लट, इति वेद्मि अधमरवं जानामि / तदपि तथाप्यतयो यास्त स्वया विनिवर्तिता इति भावः। मां प्रत्युपकतुं न स्यजन्ति प्रत्युपकरणाय प्रेर. यन्तीत्यर्थः / मन्त्र पतगोऽप्य महोपकारिणस्ते महोपकारं करवाणीति भावः // [सम्प्रति हंस अपने अहङ्कार का निराकरण करता है-] पक्षी मैं लोकाधीश ( राजा) भापका क्या उपकार कर सकता हूँ ? अर्थात् अतिशय साधनहीन मैं सर्वसाधन-सम्पन्न आपका कोई मी उपकार करने में समर्थ नहीं हूँ' यह मैं मानता हूं, तथापि ( आपसे दूर की गई मेरी) पीड़ाएँ प्रत्युपकार करने के लिए मुझे नहीं छोड़ती हैं अर्थात पीड़ामुक्त कर मेरा महोपकार करने वाले आपका महाप्रत्युपकार करने के लिये बार-बार प्रेरित करती हैं // 13 // अचिरादुपकर्तुराचरेदथवात्मौपयिकीमुपक्रियाम् / पृथुरित्थमथाणुरस्तु सा न विशेष विदुषामिह ग्रहः / / 14 // अथवा यथाशक्तिपक्षोऽस्वित्याह अचिरादिति / अथवा उपकर्तुरचिरादषि लम्बादुपाय एवोपयिका, विनयादित्वात् स्वार्थे ठक् 'उपधाया हम्बस्वोति हस्वः, तत भागता औपयिकी तामात्मौपायकी स्वोपायसाध्यामित्यर्थः, 'तत आगत' इत्यण प्रत्यये 'टिड्ढाणजि' स्यादिना डीप / उपक्रियामाचरेत् प्रत्युपकारं कुर्यात्, चरधातो. विधिलिङ। इस्थमेवं सति सोपक्रिया पृथुरधिकाऽस्तु अथ अथवा अणुररूपाऽस्तु विदुषां विवेकिनामिहास्मिन् विषये विशेषे ग्रह आग्रहो न / गुणग्राहिणो विवेकिनः कृतज्ञतामेव अस्य पश्यन्ति, न छोषमन्विष्यन्तीत्यर्थः // 14 // (उपकार किया जा सके या नहीं किया बा सके, यह विचार छोड़कर उपकृत व्यक्ति को उपकर्ताका प्रत्युपकार करना ही चाहिये, इस लोकनियमानुसार हंस कहता है-) उपकृत व्यक्तिको अपने उपायसे साध्य अर्थात् यथाशक्ति उपकतोका प्रत्युपकार शीघ्र ही करना चाहिये, 'वह उपकार छोटा हो या बड़ा' इस विषय में विद्वानों को कोई आग्रह (हठ-विशेष विचार ) नहीं करना चाहिये / [ जीवनको क्षणमङ्गुर जानकर उपकृत व्यक्तिको छोटा या बड़ा-जैसा मी शक्ति के अनुसार हो सके, उपकर्ताका प्रत्युपकार तत्काल करना चाहिये / इसमें प्रत्युपकर्ताका भाव देखा जाता है, न कि प्रत्युपकारका छोटापन या बड़ापन, अत एव मैं यथाशक्ति प्रत्युपकार करना चाहता हूं ] // 14 // भविता न विचारचारु चेत्तदपि श्रव्यमिदं मदीरितम् / खगवागियमित्यतोऽपि किं न मुदं दास्यति कीरगीरिव // 15 // अथ स्ववाक्ये आवरं याचते-भवितेति / हे नृप! इदं वषयमाणं मदीरितं मचः मदचनं विचार विमर्श चार युक्तं न भविता न भविष्यति चेत्तदपि अविचारित. रमणीयमपि श्रव्यं श्रोतव्यम् / इयं खगवापिस्यतोऽपि हेतोः कीरगी: शुकवागिव Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 85 मुदं किं न दास्यति हास्यस्येव / प्रयोजनान्तराभावेऽपि कौतुकावपि श्रोतम्यमिस्यर्थः, ददातेः लुट् // 15 // मेरा यह वचन यदि विचार करने में सुन्दर नहीं हो, तथापि इसे आपको सुनना चाहिये ( क्योंकि मनुष्य के समान ) यह पक्षीकी बोली है, इस कारण भी तोतेकी बोलीके समान यह आपको हर्षित नहीं करेगी क्या ? [ अर्थात् यह हंस मनुष्य के समान स्पष्ट बोल रहा है इस कौतुकसे भी यह मेरा बचन भापको इषित करेगा ही, त्यतः विचारमें सुन्दर नहीं होने पर भी इमे आप सुननेका कष्ट करें ] // 15 // स जयत्यरिसार्थसार्थकीकृतनामा किल भीमभूपतिः / यमवाप्य विदर्भभूः प्रभुं हसति द्यामपि शकभर्तृकाम् // 16 // ___ अथ यदन्यं तदाह-स इति / अर्थन मभिधेयेन सह बर्तत इति सार्थकम्, 'तेन सहेति तुल्ययोग' इति बहुचीहिः, 'वोपसर्जनस्येति सहशब्दस्य विकल्पात् समानः 'शेषाद्विभाषेति कप समासान्तः, ततश्विरभूततद्भावे। अरिसार्थेषु शत्रुस. वेषु सार्थकीकृतं नाम भीम इत्याख्या येन प तयोः च प्रसिद्धः बिभ्यस्यस्मादिति भीमः 'भियो म' इत्यपादानार्थे निपातनान्मप्रत्यय औणादिकः, भीम इति भूपतिः नृपः जयति किल सर्वोत्कर्षेण वर्तते खलु / विदर्भभूविंदर्भदेवाः यं भूपतिं प्रभु भर्तारमवाप्य श को भर्ता यस्यास्तां शकमर्तृको 'नयतश्चेति कपि धान्दिवमपि हसति, किमुतान्यमर्तृकदेशानियर्थः। स्त्रियो हि मरकर्षाद्धासं कुर्वन्तीति भावः। अम्र विदर्भभुवोऽपि हालासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोवतेतिशयोकिः // 16 // शत्रु-समूहमें अपने नामको सार्थक करनेवाला वह लोकप्रसिद्ध राजा 'भीम' है, जिस पातको पाकर विदर्भभूमि इन्द्राधिपति वाली स्वर्गभूमिको भी हंसती है। 'भयङ्कर' इस अर्थवाले नामको रामा 'भीम'ने अपने शत्रु-समूहमें चरितार्थ कर दिया है / अर्थात् राजा मीम के नाममात्रसे शत्रु-समूह भयभीत हो जाता है, ऐसे विदर्भनरेश है // 16 // दमनादमनाक् प्रसेदुषस्तनयां तथ्यगिरस्तपोधनात् / वरमाप स दिष्टविष्टपत्रितयानन्यसदृग्गुणोदयामम् / / 17 // दमनादिति / स भीमभूपतिरमनागनल्पं प्रसेदुषो निजोपासनया प्रसन्नात् 'भाषायां सदवसद' इति सदेलिटः कस्वादेशः। दमनामनाख्यात् तथ्यगिरः अमोघव चनात् तपोधनाहः दिष्टानां कालानां विष्टपानां लोकानाच त्रितययोरनन्य. सहशीं गुणोदयां कालत्रये लोकत्रये चानन्यसाधारणप्रकर्षां तनयां दुहितरं वरमाप / वरत्वेन लब्धवानित्यर्थः / 'देवारते वरः श्रेष्ठे त्रिषु क्लीवे मनाकप्रिय' इत्यमरः // 17 // ( दमयन्ती के लोकोत्तर गुणकी प्रामाणिकताके लिए हंस पुराण-प्रसिद्ध इतिहासको कहता है- ) उस भीम रामाने अत्यन्त प्रसन्न, सत्यवक्ता एवं तपोधन 'दमन' ऋषिसे ( वर्तमान, भूत और भविष्यद् रूप ) तीनों काल तथा ( स्वर्ग, मयं और पाताल रूप) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 नैषधमहाकाव्यम् / तीनों लोकों में अनन्य साधारण ( सौन्दर्यादि) गुणोदय वाली कन्याको वर रूपमें प्राप्त किया [ तीनों काल तथा तीनों लोकमें इसके समान गुण किसीको भी नहीं होगा, ऐसा वरदान अतिशय प्रसन्न सत्यवक्ता तपस्वी 'दमन' ऋषिसे राजा भीमने पाया, जिसके फल स्वरूप वह कन्या उत्पन्न हुई ] // 17 // भुवनत्रयसुभ्रवामसौ दमयन्ती कमनीयतामदम् / उदियाय यतस्तनुश्रिया दमयन्तीति ततोऽभिधां दधौ // 18 // अथास्या नामधेयं व्युत्पादयन्नेवाह-भुवनत्रयेति / असौ वरप्रसादलब्धा तनया कर्ती तनुश्रिया निजशरीरसौन्दर्येण करणेन भुवनत्रयसुभ्रवां त्रैलोक्यसुन्दरीगां कमनीयतामदं सौन्दयंग दमयन्ती अस्तं गमयन्ती दमेयन्ताद् 'न पादमित्यादिना कत्रंभिप्राय भात्मनेपदापवादः परस्मैपदप्रतिषेधेऽप्यकभिप्रायविवक्षायां परस्मैपदे लटः शत्रादेशः / उदियाय उदिता, इणो लिट् , ततस्तस्मादेव निमित्ता. हमयन्तीत्यभिधामाख्यां दधी, वधातेलिट् // 18 // जिस कारण वह कन्या शरीरको शोमासे तीनों लोककी सुन्दरियों के सौन्दर्यामिमान को दमन करने वाली उत्पन्न हुई, उस कारण उसका नाम 'दमयन्ती' पड़ा // 18 // श्रियमेव परं धराधिपाद् गुणसिन्धोरुदितामवेहि ताम् / व्यवधावपि यां विघोः कलां मृडचूडानिलयां न वेद कः // 16 // अथैकविंशतिश्लोकैश्चिकुरादारभ्य दमयन्तीं वर्णयति-श्रियमिति / हे नृप ! ताम् दमयन्ती गुणसिन्धोः गुणसागरादषिपाद्धीमनरेन्द्रादुदितामुत्पन्नां श्रियं साक्षाल्ल चमीमेव परं ध्रवमवेहि जानीहि, अवपूर्वादिणो लोटि 'सेहिरिति झादेशे ङित्त्वान्न सार्वधातुकगुणः, संहितायाम् 'भाद्गुणः' अत्र केवलायपूर्वस्य इणो ज्ञानार्थस्वादाङ् प्रश्लेषे तदलामात्, प्रश्लेषेऽपि 'ओमाङोश्चेति पररूपमिति केषाधिस्प्रक्रियोप. न्यासो वृथा। प्रक्षाल्य त्यागः 'अवैहीति वृद्धिरवद्येति वामनसूत्रमप्यनाइप्रश्लेष एव भ्रान्तिप्राप्तवृद्धिप्रतिषेधपरं गुण एव युक्त इति व्याख्यानादन्यथा 'ओमाको. श्वे'ति पररूपमेव युक्तमित्युच्येत इति / न चदेशष्यवधानास श्रीरेवेति वाध्यमित्याहग्यवधौ ग्यवधाने सत्यपि 'उपसर्गे घोः किरिति किप्रत्ययः, मृडचूदानिलयां हरशिखाश्रयां कलां विधोरिन्दोरेव कलां को वा न वेद ? सर्वोऽपि वेदैवेत्यर्थः, 'विदो लटो वेति वैकल्पिको णलादेशः / यथा हरशिरोगतापि कला चन्द्रकलेच, तथा भीमः भवनोदिताऽप्येषा श्रीरेवेति सौन्दर्यातिशयोक्तिः। अत्र श्रीकलयोः नृपमृडो वाक्य. इये बिम्बप्रतिबिम्बमावेन सामान्यधर्मवत्तया निर्दिष्टाविति दृष्टान्तालकारः। 'यत्र वाक्याइये बिम्बप्रतिबिम्बतयोच्यते / सामान्यधर्मः काग्यज्ञैः स दृष्टान्तो निगयते // ' इति लक्षणात् // 19 // बाप उस ( दमयन्ती) को गुण-समुद्र राजा भीमसे उत्पन्न साक्षात् लक्ष्मी हो जाने, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः पृथक् रहने पर भी शिवजीकी चूडामें स्थित कला ( चन्द्रकला) को कौन नहीं जानता ? अर्थात् चन्द्रमासे पृथक् शिवचूडा स्थित कला भी जिस प्रकार चन्द्रकला ही कहलाती है, उसी प्रकार जलनिधि समुद्रसे नहीं उत्पन्न होने पर भी गुण समुद्र भीमसे उत्पन्न हुई उस दमयन्तीको आप साक्षात् लक्ष्मी ही जानें // 19 // चिकुरप्रकरा जयन्ति ते विदुषी मूर्द्धनि सा बिभर्ति यान् / / पशुनाऽप्यपुरस्कृतेन तत्तुलनामिच्छतु चामरेण कः // 20 // निकुरप्रकरा इति / चिकुरप्रकराः केशसमूहाः जयन्ति सर्वाकर्षेण वर्तन्ते, यान् वेत्तीति विदुषी विशेषज्ञा 'विदेः शतुर्वसुः 'उशितश्चेति लोप 'वसोः सम्प्रसारणम् / सा दमयन्ती मूर्द्धनि विमति, विद्गृह एय सवस्याप्युत्कर्षहेतुरिति भावः / अत. एव पशुना तिरश्वा चमरीमृगेणाप्यपुरस्कृतेनानारसेन चामरेण चमरीपुच्छेन सह तत्तलनान्तेषां चिकुराणां समीकरणं क इच्छतु ? न कोऽपीत्यर्थः / सम्भावनायां लोट / अत्र तुलनानिषेधस्यापुरस्कृतपदार्थहेतुकत्वारपदार्थहेतुकं काध्यलिङ्गम, 'हेतो. क्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतमिति लक्षणात् // 20 // पण्डिता वह दमयन्ती जिन केश-समूहों को सिर पर धारण करती है, वे विजयो होवें पशु ( चमरी गाय ) से भी भागे नहीं किये गये अर्थात् पीछे धारण किये गये चामरसे उस (दमयन्ती-केश-समूहों ) की समानता कौन करना चाहे ? अर्थात् कोई नहीं / [ मूर्खा चमरी गायें भी जिन चामरगत केश समूहों को हीन गुण समझकर पीछे धारण करती हैं, उन चामरगत केश-समूहों के साथ दमयन्तीके केश-समूहों की समता कौन करना चाहेगा ? जिन्हें पण्डिता दमयन्ती सब अङ्गों में उत्तम अङ्ग अपने मस्तक पर धारण करती हैं / दम. यन्ताका केश-समूह चामरसे बहुत ही श्रेष्ठ है ] // 20 // स्वदृशोजनयन्ति सान्त्वनां खुरकण्डूयनकैतवान्मृगाः। जितयोरुदयत्प्रमीलयोस्तदखर्वेक्षणशोभया भयात् / / 21 // __ स्वरशोरिति / मृगाः हरिणास्तस्या दमयन्त्या अखर्वयोरायतयोरीक्षणयोरक्ष्णोः शोभया का जितयोरत एव भयादुदयाप्रमीलयोहरपथमाननिमीलनयोः स्वरशो. निजनयनयोः खुरैः शफैः 'शफं क्लीबे खुरः पुमानित्यमरः / कण्डूयनस्य कर्षणस्य कैतवाच्छलास्सान्त्वनां जनयन्ति लालनां कुर्वन्ति / यथ: लोके परपराजिता निमी. लितामाः स्वजनेभयनिवृत्तये करतलास्फालनादिना परिसायन्ते तद्वदिति भावः। अत्र कैतवशम्देन कण्डूयनमपह्नत्य साधनारोपाइपलवभेदः // 27 // उस दमयन्ती के बड़े-बड़े नेत्रोंकी शोभासे जीते गये मत एव भयस मानो तन्द्रायुक्त होते हुए अपने नेत्रदयको खुरसे खुजलाने के कपटसे मृग सान्त्वना देते हैं। [ लोकमें भी प्रबल व्यक्तिसे पराजित होनेसे भय के कारण तन्द्रायुक्त होते हुए दुर्बल व्यक्तिको मारमीय जन हाथसे सहलाकर (छूकर ) सान्त्वना देते हैं। दमयन्तीके नेत्र मृगनेत्रोंसे भी बड़े बड़े तथा सुन्दर हैं ] // 21 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 नैषधमहाकाव्यम् / अपि लोकयुगं दृशावपि श्रुतदृष्टा रमणीगुणा अपि / श्रुतिगामितया दमस्वसुर्व्यतिभाते सुतरां धरापते ! // 22 // अपीति / हे धरापते ! दमो नाम भीमस्यैवात्मजस्तस्य स्वसुर्दमयन्याः लोक. युगं मातापितृकुलयुगं श्रुतिगामितया वेदप्रसिद्धतया सुतरां व्यतिमाते परस्परोस्क. र्षेण भाति तथा रशी नेत्रे अपि श्रुतिगामितया कर्णान्तविश्रान्ततया व्यतिभाते परस्परोस्कर्षण भातस्तथा श्रताः श्रुतिप्रसिद्धाः तेच ते रष्टाः लोकप्रसिदाश्च विशे. षणयोरपि विशेषणविशेष्यभावविवक्षायां विशेषणसमासः, ते रमणीगुणाः स्त्रीधर्मा अपि अतिगामितया जनैः श्रयमाणतया 'श्रुतिः श्रोत्रे तथाम्नाये वार्तायां श्रोत्रकर्मणीति विश्वः / सुतरां व्यतिमाते व्यतिहारेण भान्ति / 'आत्मनेपदेष्वनत' इति झस्थादादेशः, सर्वत्र 'कर्तरि कर्मव्यतिहार' इत्यात्मनेपदम् , अदादित्वाग्छपो लुक, सर्वत्र टेरेस्वम् / अत्र लोकयुगादीनान्त्रयाणामपि प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतविषयतुल्य. योगिताभेदः / 'प्रस्तुताप्रस्तुतानाच केवलं तुष्यधम्मंतः / औपम्यं गम्यते यत्र सा मता तुल्ययोगिले'ति लक्षणात // 22 // __ हे भूपते ( नल ) ! 'दम' ( भीम राजाके पुत्र ) की बहन अर्थात् दमयन्तीके मातृकुल तथा पितृकुल वेदप्रसिद्ध (या--लोकप्रसिद्ध ) होनेसे परस्परमें शोमते हैं, दोनों नेत्र मी कानों तक पहुंचने से अर्थात् अत्यन्त विशाल होनेसे परस्पर में शोभते हैं और शास्त्रों में सुने तथा किसी सुन्दरीमें देखे गये स्त्री-सम्बन्धी गुण भी लोगों के द्वारा सुने जानेसे परस्पर में शोमते हैं / [ यहाँ 'वि अति' उपसर्ग वाले दीप्त्यर्थक 'मा' धातुसे सिद्ध प्रथम पुरुष की 'व्यतिमाते' क्रिया दी गयी है, एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचनमें एक ही रूप होनेसे उक्त एक ही क्रियापदका सम्बन्ध क्रमशः एकवचन 'लोकयुगम्' द्विवचनमें 'दुशौ' तथा बहुवचन 'रमणीगुणाः' तोनों पदों के साथ होता है। 'कर्तरि कर्मव्यतिहारे' ( पा० सू० 13.14 ) के नियम से 'वि-अति' उपसर्गों के साथ 'म!' धातुका परस्पर विनिमय अर्थ होता है; अत एव इस इलोकका विशद अर्थ यह है-दमयन्तीके मातृकूल लोकप्रसिद्ध हैं, अतः इस मातृकुल के लोकप्रसिद्ध स्वको दमयन्तीके पितृकुल ने स्वीकार किया तथा दमयन्तीका पितृकुछ भी लोकप्रसिद्ध हैं, अतः उस पितृकुलके लोकप्रसिद्धत्वको दमयन्तीके मातृकुलने स्वीकार किया अर्थात् दमयन्तीके सम्बन्धसे पितृकुलके समान मात. कुक तथा मातृकुल के समान पितृकुल शोमता है, इस प्रकार सादृश्यमें तात्पर्य मानकर परस्पर विनिमय करना चाहिये / वह सादृश्य अतिगामी ( जगत्प्रसिद्ध ) होनेसे विशिष्ट होता है और जगत्प्रसिद्धस्वरूप मातृकुलका •सादृश्य पितृकुलकी अपेक्षा तथा पितृकुलका सादृश्य मातृकुलकी अपेक्षासे है, नेत्रादि अपेक्षासे नहीं। इसी प्रकार दमयन्तीके दोनों नेत्र मी कान तक पहुँचने ( कानों तक पहुंचकर विशाल होने ) से परस्पर विनिमयसे शोमते हैं अर्थात् दहने नेत्रकी कानतक पहुँचनेसे उत्पन्न विशालस्वरूप शोमाको वामनेत्र Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 86 तथा बांये नेत्रकी कानतक पहुँचनेसे उत्पन्न विशालस्वरूप शोभाको दहिना नेत्र स्वीकार करता है / कानतक पहुंचकर विशाल होनेसे दहना नेत्र पाये के समान तथा बांया नेत्र दहनेके समान सुन्दर है, इस तरह यहां भी सादृश्य में ही तात्पर्य है। तथा पुराणादिमें मुने गये एवं किन्हीं स्त्रियों में देखे गये दमयन्ती सम्बन्धी (या-किन्हीं स्त्रियों में सुने गये एवं किन्हीं स्त्रियों में देखे गये स्त्री-सम्बन्धी ) गुण लोगोंके द्वारा सुने जानेसे विनिमयसे शोमते हैं / पुराणादिमें (या-किन्हीं स्त्रियों में ) जो सुने गये किन्हीं खियों में देखे गये और वे दमयन्तीमें ही सुने जाते हैं, इस प्रकार सुने तथा देखे गये दमयन्ती-सम्बन्धी स्त्री-गुणोंका श्रुतिगामित्व है, अतः सुने गये दमयन्तीके स्त्री-गुणोंकी श्रुतिगामी होनेसे शोभाको उसके देखे गये गुणोंने स्वीकार किया तथा देखे गये दमयन्तीके स्त्री-गुणों को अतिगामी होनेसे शोमाको उसके सुने गये गुणों ने स्वीकार किया-इस प्रकार विनिमय जानना चाहिये / सुने गये दमयन्ती-सम्बन्धी खो-गुण जैसे शोमते हैं, देखे गये दमयन्ती. समन्धी स्त्री-गुण मी वैसे ही शोभते हैं, इस प्रकार सादृश्यमें ही तात्पर्य-जानना चाहिये अर्थात् सुने तथा देखे गये सम्पूर्ण स्त्री सम्बन्धी गुण दमयन्तीमें ही विद्यमान हैं / अथवासामुद्रिक शास्त्रों में देखे गये एवं पद्मिनी' आदि में सुने गये स्त्री-गुण परस्पर विनिमयसे दमयन्तीमें ही शोमते हैं ] // 22 // नलिनं मलिनं विवृण्वती पृषतीमस्पृशती तदीक्षणे | आप खञ्जनमञ्जनाञ्चिते विदधाते कचिगवदुविधम् // 23 // नलिनमिति / नलिनं पद्मं मलिनमचारु विवृण्वती कुर्वाणे पृषती मृगीमस्पृशती असमानस्वात् दूरादेव परिहार इत्यर्थः, तदीक्षणे तसोचने अझनाश्चिते कज्जलपरि. कृत्ते सती खञ्जनं खञ्जरीटास्यं खञ्जननामकः पक्षिविशेषः 'खारीटस्तु खञ्जन' इत्यमरः / तमपि रुचिगर्वदुविधं चारुस्वगर्वनिःस्वं विदधाते कुर्धाते, सर्वथाप्यनुमेये इत्यर्थः / 'निःस्वस्तु दुविधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि स' इत्यमरः। ईक्षणयोनलिना. दिमलिनीकरणाद्यसम्बन्धे सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तया चोपमा प्यज्यत इत्यः लङ्कारेणालङ्कारध्वनिः // 23 // कमलको मलिन ( सौन्दर्यहीन ) करते हुए तथा मृगीका स्पर्श तक नहीं करते हुए अर्थात् अत्यन्त हीन मृगी नेत्रका दूरसे ही परिहार करते हुए अञ्जनयुक्त दमयन्तीके नेत्र 'खजरीट' नामक पक्षीको शोमाविषयक अभिमान में दरिद्र बना रहे हैं अर्थात् दमयन्तीके नेत्रों की श्रेष्ठतासे स्वञ्जरीटका .शोभासम्बन्धी अभिमान नष्ट हो जाता है। [अथवाअक्षन शलाकाका स्पर्श नहीं किये हुए अर्थात् अञ्जनसे हीन एवं कमलको मलिन करते हुए दमयन्ती के नेत्र विस्फारित होकर कमलको मलिन (शोभाहीन) करते हैं और अञ्जनसे मुशोभित होकर खभरीटको सौन्दर्य-मदके विषयमें दरिद्र करते है। अथवा-(मात्मगत] श्यामताको प्रकाशित करते हुए दमयन्तीके नेत्र कमलको शोमा-सम्बन्धी अभिमानके Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 नैषधमहाकाव्यम् / विषयमें दरिद्र बनाते हैं.......। या-श्यामवर्ण अर्थात् नील कमलको दमयन्तीके नेत्र शोभा-सम्बन्धी मदके विषय में दरिद्र बनाते हैं तथा विस्फारित होते हुए हरिणीको शोमा सम्बन्धी मदके विधयमें दरिद्र बनाते हैं। और अञ्जनसे शोमित दमयन्तीके नेत्र खजरीटको शोमा-सम्बन्धी मदके विषयमें दरिद्र बनाते हैं। दमयन्तीके नेत्रोंने अपने श्यामत्व गुणसे कमलको, विशाहत्व गुणसे हरिणियों ( के नेत्रों ) को और अञ्जन युक्त होनेपर कृष्ण श्वेत गुणसे खजरीटको जीत लिया ] // 23 // अधरं खलु बिम्बनामकं फलमस्मादिति' भव्यमन्वयम् | लभतेऽधरबिम्बमित्यदः पदमस्या रदनच्छदं वदत् // 24 // अधरमिति / अधरविश्वमित्यदः पदम अधरं बिम्बमिवेत्युपमितसमासाश्रयणेन स्त्रीणामधरेषु यत्पदं प्रयुज्यते तदित्यर्थः / अस्या दमयन्त्याः रहनच्छवम् ओष्ठममि. दधत् तदभिधानाय प्रयुक्तं सदित्यर्थः / बिम्बनामकं फलं विम्बमस्मादमयन्तीरद नन्छदावधरं किलापकृष्टं खल्विति अपरशब्दस्यापकृष्टार्थत्वे अधरं विम्बं यस्मात्त. दिति बहुव्रीहिसमासे च सति भण्यमबाधितमन्वयं वृतिपदार्थसंसर्गलक्षणं लभते, अन्यथा समर्थसमासाश्रयणे 'समर्थः पदविधिरिति समर्थपरिभाषा भज्येत, तर्हि नोपमा स्यादिति भावः / अन दमयन्तीदन्तच्छदस्य बिम्बाधरीकरणासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोकि पूर्ववत् ध्वनिश्च // 24 // (अधर विम्बके समान हैं, इस अर्थ में प्रयुज्यमान ) 'अधरबिम्ब' यह पद इस ( दमयन्ती ) के बोष्ठको कहता हुआ 'विम्ब' नामक फल ( दमयन्तीके ) इन दोनों ओष्ठोसे अधर अर्थात् हीन है, इस प्रकार ( बहुव्रीहि समासात्मक ) उचित अन्वयको प्राप्त करता है। [इस दमयन्तीके मोष्ठों की अपेक्षा लालिमा तथा अमृतकल्प मधुरिमामें अत्यन्तहीन होनेसे 'अघर' (हीन ) है 'बिम्ब' (बिम्बफल ) जिससे ऐसा बहुव्रीहि समासात्मक अन्वय अधरबिम्ब' पदके लिए उचित है और अन्यान्य स्त्रियों के ओष्ठों के साथ बिम्बफरूकी समानता होनेसे लोकप्रसिद्ध अधर ( ओष्ठ ) बिम्बके समान है, ऐसा तत्पुरुष कर्मधारय समासात्मक अन्वय करना ठीक है ] // 24 // हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा। 1.2. अत्र म० म० शिवदत्तशर्माणः-'आभ्याम् , रदनच्छदे। इति द्विवचनान्तपाठः साहित्यविद्याधरीसम्मतः / यतो व्याख्यातम्-रदनच्छदे ओठौ वदत् प्रतिपादयत् / रदन. च्छदस्य नपुंसकत्वम् / यदुक्तं प्रतापमार्तण्डामिधानकोषे-'गरुरपक्षच्छदोऽखियाम्' इति / 'आभ्याम् , रदनच्छदे' इति पाठस्तु सर्वथाऽशुद्धः, 'ओष्ठोऽधरो रदच्छदः' इति पुंल्लिग निदेशात , इति सुखावबोधा / आभ्यामिति पाठे रदनच्छदौ वददिति युक्तः पाठः। छद. शब्दस्य पुंल्लिङ्गत्वात् / 'दलं पर्ण छदः पुमान्' इत्यमरः, इति तिलकव्याख्यायामभिहितम् / , रदनच्छद वदन् 'वद स्थैर्ये स्थिरीभवन्निति सप्तम्यन्तपाठाङ्गीकारश्च'। इति / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम // 25 // हृतसारमिति / इन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय तनिर्माणायेत्यर्थः / 'क्रियार्थोपप. दस्येति चतुर्थी, वेधसा हृतसारमुद्धृतमध्यामिव, कुतः? कृतमध्यबिलं विहितमा भयरन्ध्रमत एव धृतो गम्भीरखनीखस्य निम्नमध्यरन्ध्राकाशस्य नीलिमा नल्य. न्तथा विलोक्यते, 'खनिः खियामाकरः स्यादित्यमरः। 'कृदिराकादक्तिन' इति डीप मित्र कलापह्नवेन खनीलिमारोपादपहवभेदः, स च कृतमध्यबिलमित्येत. स्पदार्थहेतुककाग्यलिङ्गानुप्राणितः, तदपेक्षा चेयं हृतसारमियुरप्रेक्षेति सङ्करः। तया चोपमा व्यज्यत इति पूर्ववत् ध्वनिः // 25 // दमयन्तीके मुख ( को बनाने ) के लिए ब्रह्माके दारा ( बीचसे ) लिये गये सारवाला बोनमें बिलयुक्त चन्द्रमा गहरे गढ़े के आकाशके नीलापनसे युक्त दिखलाई पड़ रहा है // 25 // धृतलान्छनगोमयाञ्चनं विधुमालेपनपाण्डरं विधिः / भ्रमयत्युचितं विदर्भजानननीराजनवर्द्धमानकम् // 26 // धृतेति / विधिद्ब्रह्मा धृतं लाच्छनमक एव गोमयाञ्चनं मध्यस्थितगोमयसंश्लेष. णम् एनम् मालेपनपाण्डरं निजकान्तिसुधाधवलितमित्यर्थः, विधुं चन्द्रमेव विदर्भ जाननस्य वैदर्भामुखस्य नीराजनवर्द्धमानकं नीराजनशराबम् 'शरावो वर्द्धमानक' इत्यमरः / किरणदीपकलिकायुक्तमिति भावः / भ्रमयस्युचितम् लोकोत्तरस्वात् इति भावः, एवं नीराजयन्तीति देशाचारः। अत्र विधुतल्लान्छनादेन राजनशरावगोमः यादित्वेन निरूपणारसावयवरूपकम् // 26 // ब्रह्मा कलङ्करूप (गोबर ) पूजनसे युक्त तथा ( चउरठ-चावल के चूर्णसे बने) ऐपन के लेपसे श्वेतवर्ण चन्द्ररूप दमयन्तीके मुखकी आरतीके शराब ( दकनी-पात्रविशेष) को ठीक ही घुमा रहा है / [ लोकमें दृष्टिदोष हटाने के लिए ढकनी आदिमें गोबर रख कर तथा उसे ऐपन (चावल के चूर्ण ) से लीपकर जिस प्रकार आरती धुमायी जाती है, उसी प्रकार ब्रह्मा कलरूप गोबर तथा श्वेतिमारूप ऐपनसे युक्त चन्द्रको दमयन्तीके मुखकी भारतीका पात्र (थाल या ढकनी ) घुमाता है, यह उचित ही है ] // 26 // सुषमाविषये परीक्षणे निखिलं पद्ममभाजि तन्मुखात् / अधुनापि न भङ्गलक्षणं सलिलोन्मजनमुज्झति स्फुटम् // 27 // सुषमेति / सुषमा एरमा शोभा सैव विषयः यस्मिन् परीक्षणे जलदिव्यशोधने कृते निखिलं पद्म पद्मजातं तन्मुखापादानात् भङ्गावधित्वादमाजि भभनि स्वयमेव भग्नमभूदित्यर्थः, स्फुटं, कर्तरि लुङ , 'मझेच चिणीति वैभाषिको नकारलोपः। अतएवाधुनापि भङ्गलक्षणम्पराजयचिह्न सलिलादुन्मजनं क्षणमपि नोउझति न जहाति / जलदिव्योन्मजनस्य पराजयलिङ्गत्वस्मरणादिति भावः। उन्मजनक्रियानिमित्तेयं भगोत्प्रेक्षा // 27 // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अधिक शोभाके विषयमें दिव्य परीक्षामें सम्पूर्ण कमल दमयन्तीके मुखसे पराजित हो गये, (अत एव ) मानो इस समय भी वे कमल पराजयसूचक पानीसे ऊपर स्थितिको नहीं छोड़ते अर्थात अब भी पानीके ऊपर हो रहते हैं। [दिव्य' परीक्षामों में जलसे 'दिव्य परीक्षा लेने का यह नियम है कि धनुर्धरके वाण छोड़ने पर उस बाणको लानेतक जो व्यक्ति नाभितक पानीके भीतर खड़े हुए मनुष्य का पैर पकड़े हुए डूबकर ठहरा रहता है वह विजयी होता है तथा पानी में डूबा हुभा जो व्यक्ति बाण लाने के पहले ही पानीके ऊपर सिरकर लेता है वह पराजित होता है। प्रकृतमें दमयन्तीके मुख तथा कमल में दिव्य परीक्षा करते समय कमलको पानीके ऊपर रहनेसे उसके पराजित होने की उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 27 // धनुषी रतिपञ्चबाणयोरुदिते विश्वजयाय तद्भवा / नलिके न तदुच्चनासिके त्वयि नालीकविमुक्तिकामयोः / / 28 / / धनुषी इति / तद्भवो विश्वजयायोदिते उत्पन्ने रतिपञ्चबाणयोधनुषी नून मित्यादिग्याकाप्रयोगादग्योस्प्रेक्षा, किञ्च तस्याः दमयन्याः उच्चनासिके उसतनासापुटे स्वयि नालीकानां द्रोणिचापशराणां विमुक्ति कामयेते इति तथोकयोः तयोः 'शीलिकामिभचयाचारिभ्यो ण' इति णप्रत्ययः, 'नालीकं पाखण्डेऽस्त्री नालीकः शर. शल्ययोरिति विश्वः / नलिके न द्रोणिचापे न किमिति काकुः / पूर्ववदुरप्रेक्षा // 28 // उस (दमयन्ती) के भ्रद्वय विश्वविजय करने के लिये रति तथा कामदेव के धनुष नहीं हैं क्या ? अर्थात् धनुष ही है, तथा हे राजन् ! उस ( दमयन्ती ) का उच्च दोनों नासिकायें तुम्हारे ऊपर नालीसे छोड़ने के इच्छुक बागद्य की दोनों नालियां नहीं है क्या ? अर्थात् दो नालियां ही है / ( या-..."कामदेवके मानों धनुष हैं ) // 28 // सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्थमृणालजिभुजा। अपि मित्रजुषां सरोरुड़ां गृहयालुः करलीलया श्रियः / / 26 // __ सरशीति / हे शूर ! जलदुर्गस्थानि मृणालानि जयत इति तजितौ भुजौ यस्याः सा मित्रजुषामसेविनां सुहृत्सलिलाना सहायकसम्पन्नामपीत्यर्थः / 'मित्रं सुहृदि मित्रोऽक' इति विश्वः / सरोकहां श्रियः शोभा सम्पदश्च 'न लोके त्यादिना षष्ठीप्रति षेधः, करलीलया भुजविलासेन भुजण्यापारेण वलिग्रहणेन च 'बलिहस्तांशवः करा' 'लीलाविलामक्रिययोरिति चामरः, गृहयालुः ग्रहीता गृह-ग्रहण इति धातोश्चौरा. दिकात् 'स्पृहिगृहीत्यादिना भालुच प्रत्ययः, 'अयामन्ते'त्यादिना रयादेशः। सा 1. एतदर्थ याज्ञवल्क्यस्मृतेन्यवहाराध्याये दिव्यप्रकरणं द्रष्टव्यं 'तुलाग्न्यापो विषं कोशो"....'हत्यारभ्य 'आचतुर्दशिकादह्रो......' (2 / 95-113) यावद् / तस्यैव मिताक्षरावीरमित्रोदयव्याख्याने च विशदतया वणितं तदिव्यप्रकरणमिति बोध्यम् / 2. 'नु' इति पाठान्तरम् / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 द्वितीयः सर्गः समयन्ती तव परमत्यन्तं सदृशी अनुरूपेत्युपमालकारः / शूरस्य शूरैव भार्या भवितुमर्हतीति भावः // 29 // हे शूर ( नल ) ! जलरूपी दुर्गमें रहने वाली मृणाल की विजयिनी भुजाओं वाली, तथा मित्रसेवी (सूर्यसेवी, पक्षा०-सुहृद्रूप अलसे युक्त अर्थात सहायक सहित ) मी कमलों की शोमाको भुजाओं के विलासप्ते (पक्षा-करराजदेय भागके विकाससे ) सदा ग्रदण करनेवाली वह दमयन्ती एकमात्र आपके ही योग्य हैं, (क्योंकि शूरवीर को पत्नी शूरवीर स्त्री ही होती है ) // 29 // वयसी शिशुतातदुत्तरे सुदृशि स्वाभिविधिं विधित्सुनी / विधिनापि न रोमरेखया कृतसीम्नी प्रविभज्य रज्यतः // 30 // वयसी इति / सुशि दमयन्त्यां स्वाभिविधिं स्वव्याप्तिं विधिरसुनी विधातुमिछती अहमहमिकया स्वयमेवामितुमिच्छती इत्यर्थः, शिशुतातहत्तरे बाल्ययोबने वयसी विधिना सीमाभिज्ञेन रोमरेखपा सीमाचिह्नन प्रविभज्य रोमराजे प्रागेव अत्र शैशवेन स्थातव्यन्ततः परं यौवनेनेति कालतो विभागं कृत्वा, कत. सीग्नी कृतमर्यादे अपि 'विभाषा डिश्यो'रिस्यल्लोपः, न रज्यतः न सन्तुष्यतः। रम्यवस्तु दुस्त्यजमिति भावः / एतेन वयःसन्धिरुतः। अत्र प्रस्तुतवयोविशेषसाम्याप्रस्तुतविवादप्रतीतेः समासोक्तिरलकारः // 30 // सुनयना उस दमयन्तीमें अपनी अभिव्याप्तिको करने की अमिलाविणी ( 'मैं ही इस दमयन्ती में सर्वत्र व्याप्त होकर रहती हूं' ऐसा करने की इच्छा करनेवाली ) शैशव तया उसके बादवाली अर्थात् यौवन अवस्थाएँ ब्रह्माके द्वारा मी (नाभिके नीचे) रोमरेखासे विभागकर मर्यादित की गयी नहीं अनुरक्त होती हैं क्या ? अर्थात् अनुरक्त होती ही हैं। [ उस सुनयना दमयन्तीमें शैशवावस्था पहलेसे ही है तथा युवावस्थाका मी मारम्भ हो रहा है / लोकमें दो व्यक्तियों में सीमा-सम्बन्धी पारस्परिक विरोध होने पर कोई वृद्ध व्यक्ति उन दोनों के लिए सीमा बनाकर उन्हें सन्तुष्ट कर देता है। नाभिके नीचे रोभराज उत्पन्न होने से दमयन्तीकी यौवनावस्थाका आरम्भ होना सूचित होता है ] // 30 // अपि तद्वपुषि प्रसर्पतोर्गमिते कान्तिमरैरंगाधताम् / स्मरयौवनयोः खलु द्वयोः प्लवकुम्भौ भवतः कुचावुभौ // 31 // सम्प्रति यौवनमेवाश्रित्याह-अपीति / कान्तिझरैलावण्यप्रवाहैरगाधतां दरव. गाहतो गमिते तदपुषि दमयन्तीशरीरे प्रसर्पतोस्तरतोः स्मरयौवनयोईयोरपि उभौ कुची प्लवस्योन्मजनस्य कुम्भौ प्लवनार्थ कुम्भाविस्यर्थः, प्रकृतिविकारभावा. भावादश्वघासादिवत्तादर्थे षष्ठीसमासः / लोके तरद्भिः अनिमजनाय कुम्भादिकम. लम्ब्यत इति प्रसिद्धं, भवतः खलु / मत्र कुचयोः स्मरयौवनप्लवनकुम्मस्वोस्प्रेक्षया तयोरोस्कटयं कुचयोश्चातिवृदिय॑ज्यत इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 31 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / कान्ति-प्रवाहसे अगाधताको प्राप्त भी उस ( दमयन्ती) के शरीर में बढ़ते ( क्रीड़ा करते हुए कामदेव तथा यौवन के लिए ( दमयन्तीके विशाल ) दोनों स्तन मानों तैरने के घड़े हो रहे हैं। [ ययपि अगाध जल प्रवाहमें कीड़ा करना ठीक नहीं है, तथापि जलक्रीड़ा करते हुए कामदेव तथा यौवन के लिए दमयन्तीके विशाल दोनों स्तन तैरने के घड़े से हो रहे हैं ] // 11 // कलसे निजहेतुदण्डजः किमु चक्रभ्रमकारितागुणः ? / स तदुचकुचौ भवन प्रभाझरचक्रभ्रममातनोति यत् / / 32 // कलस इति / निजहेतुएण्डजः स्वनिमित्तकारणजन्यः चक्रभ्रमकारिता कुलाल. भाण्डभ्रमणजनकत्वं सव गुणो धर्मो रूपादिश्व, 'गुणः प्रधाने रूपादावित्यमरः। स। कलसे किमु ? दण्डकार्य कलसे संक्रान्तः किमु ? इत्यर्थः, कुतः यद्यस्मात् स कलसः तस्या दमयन्या उच्चकुचो भवन् तस्कुचारममा परिणतः सन् प्रमाझरे लावण्यप्रवाहे चक्रम्रमं चक्रवाकभ्रान्ति कुलालदण्डभ्रमणं चातनोति, 'चको गणे चक्रवाके चक्रं सैन्यस्थानयोः / ग्रामजाले कुलालस्य भाण्डे राष्ट्रासयोरपि' इस्युभय. प्रापि विश्वः अत्र 'समवायिकारणगुणा रूपादयः कार्ये संक्रामन्ति न निमित्तगुणा' इति तार्किकाणां समये स्थिते गुण इति चक्रभ्रम इति चोभयनापि वाच्यातीय. मानयोरभेदाभ्यवसाय एव 'स तदुधकुचो भवधि'ति कुचकलसयोरभेदातिशयो. क्युस्थापितझरचक्रभ्रमात्मक क्रियानिमित्ता कुचात्मनि कलसे कार्य चक्रमकारिता. लक्षणनिमित्तकारणगुणसंक्रमलक्षणेनोस्प्रेति सङक्षेपः। तार्किकसमये विरोधात् विरोधाभासोऽलकार इति केश्चिदुक्तम्, तदेतदस्यन्ताश्रुतचरमलद्वारपारहचानः शृण्वन्त // 32 // (कुम्हारके गकको) घुमानेका गुण कलससे अपने निमित्त कारण दण्डसे उत्पन्न हुमा हैं क्या ? क्योंकि वह कलस उस (दमयन्ती) का विशाल स्तनद्वय होता हुआ प्रभा प्रवाहसमूह (या-प्रमा-प्रवाहरूप चाक, या-प्रमा-प्रवाह से चकवा पक्षी ) का भ्रम (भ्रान्ति, पक्षा०-भ्रमण ) को उत्पन्न करता है। [ समवायिकारण, असमवायिकारण तथा निमित्त कारण-ये तीन कारण नैयायिकों ने माने हैं, इनमें समवायिकारणका गुण कार्य में आता है, यथा मृत्पिण्डका गुण कलशमें / किन्तु निमित्त कारणका गुण कार्य में नहीं माता, यथा-दण्ड-चक्र-चीवरादिका गुण कलसरूप कार्यमें नहीं आता। परन्तु यहाँ उलटा ही देखा जाता है, क्योंकि कुम्हारके चाकके घुमानेका अपने निमित्त कारणभूत दण्डका गुण कार्यरूप कलसमें भा गया है, यह इस कारणसे ज्ञान होता है कि वह कलस दमयन्तीके विशाल स्तनद्वय होकर प्रमा समूहसे कुम्हारके चाकको भ्रम कराता है अर्थात् दमयन्तीके कलसतुल्य विशाल स्तनोंको देखकर कान्ति-समूहसे मनुष्य नीचे ऊपर घूमने लगता है; अथवा-वह प्रमा-प्रवाहमें चकवाका भ्रम कराता है अर्थात् उक्तरूप स्तनोंको देखकर के चकवा पक्षी प्रवाहमें घूम रहे हैं ऐसा प्रतीत होने लगता है; और प्रवाहमें चक्रवाकर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः घूमना उचित भी है; अथवा-वह प्रभा-प्रवाह ( कान्ति-समूह ) से राष्ट्र (या-जनसमूह ) को भ्रम उत्पन्न करता है अर्थात् सभी लोग उक्तरूप स्तनोंको देखकर आश्चर्यसे चकित हो भ्रममें पड़ जाते हैं ] // 32 // भजते खलु षण्मुखं शिखी चिकुरैनिर्मितबहंगहणः / अपि जम्भरिपुं दमस्वसुर्जितकुम्भः कुचशोभयेभराट् // 33 // भजत इति / दमस्वसुर्दमयन्त्याश्चिकुरैनिम्मितबहंगर्हणः कृतपिच्छनिन्दः जितबर्ह इत्यर्थः / शिखी मयूरः षण्मुखं कार्तिकेयं भजते खलु, तया कुचशोभया जितकुम्भ इभराडैरावतोऽपि जम्भरिपुमिन्द्रं भजते / परपरिभूताः प्राणवायाण प्रबलमाश्रयन्त इति प्रसिद्धम् / अत्र शिख्यैरावतयोः षण्मुखजम्भारिभजनस्य जितबहत्वजितकुम्भवपदार्थहेतुकत्वात् तद्धेतुके काव्यलिंगे तदसम्बन्धेऽपि सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिश्च // 33 // __दमयन्तीके बालोंसे ( पराजित होनेके कारण ) पूंछोंके बालोंकी निन्दा किया हुआ मयूर षडानन ( स्वामी कार्तिकेय ) की सेवा करता है तथा स्तनोंकी शोभासे पराजित कुम्भ ( मस्तकस्थ कुम्भाकार मांस-पिण्ड ) वाला गजराज (ऐरावत ) इन्द्रकी सेवा करता है / [ लोकमें भी किसी प्रबलसे पराजित व्यक्ति उस वैरीसे बदला लेने या वैसा स्वयं भी बनने, या उसे पराजित करनेके लिये किसी देवताकी सेवा करता है। यद्यपि पहले (2 / 20 ) केशका वर्णन कर चुके हैं तथापि यहां स्तन-वर्णनके प्रसङ्गमें केशका वर्णन कविने पुनः कर दिया है / दमयन्तीके केश मयूरपिच्छ से तथा स्तन ऐरावतके कुम्भसे भी सुन्दर हैं ] // 33 // उदरं नतमध्यपृष्ठतास्फुरदङ्गुष्ठषदेन मुष्टिना / चतुरङ्गुलिमध्यनिर्गतत्रिबलिभ्राजि कृतं दमस्वसुः / / 34 // उदरमिति / दमस्वसुरुदरं नतमध्यं निम्नमध्यप्रदेशं पृष्ठं यस्योदरस्य तस्य भावस्तत्ता तया स्फुरत् दृढफलके पृष्ठफलके स्फुटीभवदगुष्ठपदमङ्गुष्ठन्यासस्थानं यस्य तेन भुष्टिना करणेन चतसृणामङ्गुलीनां समाहारश्वतुरङ्गुलि 'तद्धिते'त्यादिना समाहारे द्विगुरेकवचननपुंसकत्वे / तस्य मध्येभ्योऽन्तरालेभ्यो निर्गतं तस्त्रिवलि पूर्ववत् समासादिः कार्यः, यत्तक्तं वामनेन 'त्रिवलिशब्दः संज्ञा चेदिति सूत्रेण सप्तर्षय इत्यादिवत् 'दिकसंख्ये संज्ञायामिति संज्ञायां द्विगुरिति / तदपि चेत्करणसामर्थ्यात् त्रिवलय इति बहुवचनप्रयोगदर्शने स्थितं गतिमात्रं न सार्वत्रिकमितिप्रतीमः / तेन भ्राजत इति तद्भाजि वलित्रयशोभि कृतमित्युत्प्रेक्षा, कौतुकिनेति शेषः / मुष्टिग्राह्यमध्येयमित्यर्थः। मुष्टिग्रहणादङ्गुष्ठनोदनात्पृष्ठमध्ये नब्रता उदरे च चतुरङ्गुलिनोदनादलित्रयाविर्भावश्चेत्युत्प्रेक्षते // 34 // ___ दमयन्ती का उदर मुट्ठीमें बांधनेसे पृष्ठ भागमें अङ्गुष्ठ लगनेसे चिपटा तथा आगेमें चारो अङ्गुलियोंके बीचकी तीन रेखाओंके लगनेसे त्रिवलियुक्त बनाया गया है / [चार Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 नैषधमहाकाव्यम् / अङ्गुलियोंके बीच में तीन रेखाओंका होना सर्वविदित है, इसकी सृष्टि करते समय उन्हींके लगनेसे दमयन्तीका उदर आगे तीन रेखाओंसे युक्त तथा पीठमें अङ्गुष्ठ लगनेसे चिपटा हो गया है / दमयन्तीका उदर एक मुट्ठीमें बांधने योग्य अर्थात् अत्यन्त पतला है ] // 34 // उदरं परिमाति मुष्टिना कुतुकी कोऽपि दमस्वसुः किमु ? / धृततच्चतुरङ्गुलीव यद्वलिभिर्भाति सहेमकाश्चिभिः / / 35 // उदरमिति , कोऽपि कुतुकी दमस्वसुरुदरं मुष्टिना परिमाति किमु ? परिच्छिनत्ति किमित्युत्प्रेक्षा, कुतः ? यद् यस्मात् सहेमकाञ्जिभिर्वलिभिहेंमकाञ्चया सह चतसृभिस्त्रिवलिभिरित्यर्थः / एतस्याः कनकसावयं सूचितम् धृतं तस्य मातुश्चतुरङ्गुली अङ्गुलीचतुष्टयं येन तदिव भातीत्युत्प्रक्षा। अत्रोत्प्रेक्षयोहे तुहेतुमद्भूतयोरङ्गाङ्गिभावेन सजातीयः सङ्करः / पूर्वश्लोके वलीनां तिसृणां चतुरङ्गुलिमध्यनिर्गतत्वमुस्प्रेक्षितम् / इह तु तासामेव काञ्चीसहितानां चतुरङ्गुलित्वमुत्प्रेक्षत इति भेदः प्रेक्षितरिति भावः॥ 35 // कौतुकी कोई ( ब्रह्मा ) दमयन्तीके उदरको मुट्ठीसे नापता है क्या ?, क्योंकि स्वर्णकी करधनी-सहित त्रिवलियोंसे ऐसा शोभता है कि मानो उस ( कौतुकी ) के चारों अङ्गुलियों (के मध्यगत तीन रेखाओं ) को धारण कर रहा हो। [ पूर्व श्लोक ( 2 / 34 ) में त्रिवलियोंको चार अङ्गुलियोंके बीचमें होनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है, तथा इस श्लोकमें उनके सहित करधनी सहित उन्हों त्रिवलियोंको चार अङ्गुलियां होनेको उत्प्रेक्षा की गयी है, अतः दोनोंमें भेद स्पष्ट है ] // 35 // पृथुवर्तुलतानितम्बकृन्मिहिरस्यन्दनशिल्पशिक्षया / विधिरेककचक्रचारिणं किमु निर्मित्सति मान्मथं रथम् / / 36 / / पृथ्विति / पृथु वर्तुलं च तस्याः नितम्बं करोतीति नितम्बकृन्नितम्बं कृतवान् विधिः ब्रह्मा मिहिरस्यन्दनशिल्पशिक्षया रविरथनिर्माणाभ्यासपाटवेन एककमेकाकि 'एकादाकिनिन्चासहाये' इति चकारात् कप्रत्ययः / तेन चक्रेण चरतीति तच्चारिणं मान्मथं रथं निर्मित्सति किमु ? सूर्यस्येव मन्मथस्यापि एकचक्रं रथं निर्मातुमिच्छात किमु ? इत्युत्प्रेक्षा / अन्यथा किमर्थमिदं नितम्बनिर्माणमिति भावः। मातः सन्नन्तालट् / 'सनि मीमे'त्यादिना ईसादेशः, 'सस्यार्द्धधातुक' इति सकारस्य तकारः, 'अत्र लोपोऽभ्यासस्ये त्यभ्यासलोपः // 36 // विशाल तथा गोलाकार दमयन्ती के नितम्बको बनानेवाला ब्रह्मा सूर्यके रथकी कारीगरीके अभ्याससे एक पहियेसे चलनेवाला कामदेवका रथ बनाना चाहता है क्या ? [ पहले ब्रह्माने एक पहियेसे चलनेवाला रथ सूर्यका ही बनाया था, किन्तु मालूम पड़ता है कि अब वह एक पहियेसे चलनेवाला कामदेवका रथ भी बनाना चाहता है / दमयन्ती के विशाल तथा गोलाकार नितम्बको देखकर सभी कामुक हो जाते हैं // 36 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः तरुमूरुयुगेन सुन्दरी किमु रम्भा परिणाहिना परम् / तरुणीमपि जिष्णुरेव तां धनदापत्यतपःफलस्तनीम् // 37 / / - तरुमिति / सुन्दरी दमस्वसा परिणाहिना विपुलेन ऊरुयुगेन रम्भा रम्भां नाम तरं परन्तरुमेव 'न लोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / जिष्णुः किमु ? किन्तु धनदापत्यस्य नलकूबरस्य तपसः फलस्तनी फलभूतकुचां तां रम्भान्नाम तरुणीमपि जिष्णुरेव / 'रम्भाकदल्यप्सरसोरिति विश्वः। रम्भे इव रम्भाया इव चोरू यस्याः सा इत्युभयथा रम्भोरुरित्यर्थः // 37 // सुन्दरी दमयन्ती विशाल ऊरुद्वयसे केवल रम्भा ( केला ) दृक्षको ही जीतनेवाली है क्या ? ( ऐसा नहीं कहना चाहिये, किन्तु ) कुबेरपुत्र ( नलकूबर ) की तपस्याके फलस्वरूप स्तनोंवाली युवती रम्भा ( नामकी अप्सरा ) को भी जीतनेवाली है ! [ दमयन्ती उक्तरूप ऊरुद्वयसे केवल कदली-स्तम्भको नहीं, किन्तु जिस रम्भाके स्तनोंको नलकूबरने तपस्याके फलस्वरूप प्राप्त किया है, उस तरुणी रम्भाको भी जीतती है अर्थात्-दमयन्तीके ऊरुद्वय कदली-स्तम्भ तथा रम्भा अप्सराके ऊरुद्वयसे भी अधिक चिकने, गोलाकार एवं क्रमिक आरोहावरोह (चढ़ाव-उतार ) वाले हैं ] // 37 / / जलजे रविसेवयेव ये पदमेतत्पदतामवापतुः / ध्रवमेत्य रुतः महंसकोकुरुतस्ते विधिपत्रदम्पती॥ 38 / / जलजे इति / ये जलजे द्विपझे रविसेवया सूर्योपासनयेब एतस्याः पदतां चरणत्वमेव पदम्प्रतिष्ठामवापतुः ते जलजे कर्मभूते विधिपत्रदम्पती द्वन्द्वचारिणौ ब्रह्मवाहनहंसौ एत्यागत्य रुतः रवात्कूजनादित्यर्थः। रौतेः सम्पदादित्वात् क्विपि तुगागमः / सहंसकी सपादकटकी सहंसकी च कुरुतः 'अभूततद्भावे विः' / हंसकः पादकटक' इत्यमरः / हंसपक्षे वैभाषिकः कप्रत्ययः / ध्रुवमित्युत्प्रेक्षायाम् / पद्महंसयोरविनाभावात् कयोश्चिद्दिव्यपद्मयोस्तत्पदत्वमुत्प्रेक्ष्य दिव्यहंसयोरेव हंसकत्वञ्चोत्प्रेक्षते // 38 // जिस कमलद्वयने मानो सूर्यकी सेवामें दमयन्तीके चरणरूप उत्तम स्थानको प्राप्त किया है ( अत एव ) मानो ब्रह्माका वाहनभूत हंसमिथुन उस (कमलद्वय ) के पास आकर उसे हंसयुक्त कर रहा है / [ दमयन्तीके चरण कमलके समान हैं, अत एव ज्ञात होता है कि कमलने सूर्यकी सेवासे दमयन्तीके चरणरूप उत्तम स्थानको पाया है, क्योंकि लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी देवताकी सेवासे उत्तम पदको पाता है; तथा कमलको हंस-सहित होना उचित होनेसे ब्रह्माका वाहनभूत हंसमिथुन (हंस तथा हंसी ) उन कमलोंके पास आकर उन्हें हंस-युक्त कर रहा है, पक्षा०-दमयन्तीके चरण कमल हंसके समान मधुर शब्द करनेवाले नूपुरोंसे युक्त हैं ] // 38 // श्रितपुण्यसरःसरित्कथं न समाधिक्षपिताखिलक्षपम् / जलज गतिमेतु मजुलां दमयन्तीपदनाम्नि जन्मनि // 36 / / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 नैषधमहाकाव्यम् / श्रितेति / श्रिताः सेविताः पुण्याः सर सरितः मानसादीनि सरांसि गङ्गाद्याः सरितश्च येन तत्समाधिना ध्यानेन निमीलनेन क्षपिताखिलक्षपं यापितसर्वरात्रं जलजं दमयन्तीपदमिति नाम यस्मिन् जन्मनि मञ्जुलाङ्गतिं रम्यगतिमुत्तमदशाञ्च, 'गतिर्मार्गे दशायां चेति विश्वः / कथं नैतु एत्ववेत्यर्थः / पदस्य गतिसाधनत्वात्तत्रापि दमयन्तीसम्बन्धाच्चोभयगतिलाभः / तथापि जन्मान्तरेऽपि सर्वथा तपः फलितमिति भावः / सम्भावनायां लोट् // 39 // पवित्र ( मानसरोवरादि ) तडाग तथा ( गङ्गा आदि ) नदियोंका आश्रय करनेवाला (सर्वदा उनमें रहनेवाला) तथा सम्यक प्रकारके कष्ट [ पक्षा०-मुकुलित रहकर नेत्र बन्द करनेरूप समाधि ( योगाङ्गविशेष ) ] से सम्पूर्ण रात्रिको बिताने वाला कमल दमयन्तीके चरणके नामवाले जन्मान्तरमें उत्तम गतिको क्यों नहीं प्राप्त करे ? अर्थात् उसे उत्तम गति को प्राप्त करना उचित ही है / [लोकमें भी कोई व्यक्ति तडाग या नदी आदि पुण्य तीर्थमें रहकर नेत्रोंको बन्दकर समाधि लगाये रातको बितानेसे जन्मान्तरमें उस तपोजन्य फलस्वरूप जिस प्रकार उत्तम गतिको पाता है, उसी प्रकार कमल भी पुण्यतीर्थ मानसादि तडाग एवं गङ्गादि नदियोंमें रहकर रात्रिमें मुकुलित रहनेसे समाधिको धारणकर जो तप किया, उसके फलस्वरूप दमयन्तीके चरणके नाम प्राप्तिरूप उत्तम गतिको पाया ] // 39 // सरसीः परिशीलितुं मया गमिकर्मीकृतनैकनीवृता / / अतिथित्वमनायि सा दृशोः सदसत्संशयगोचरोदरी / / 40 / / अथ कथं त्वमेनां वेत्सीत्यत आह-सरसीरिति / सरसीः सरांसि परिशीलितुं परिचेतुं तत्रविहमित्यर्थः। चुरादिणेरनित्यत्वादण्यन्तप्रयोगः। गमिर्गमनं शब्दपरशब्देनार्थो गम्यते तस्य कर्मीकृताः कर्मकारकीकृताः नेके अनेके नजर्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः / नितरां वर्तन्ते जना येष्विति नीवृतः जनपदाः येन तेन क्रान्तानेकदेशेनेत्यर्थः / 'नहिवृती'त्यादिना दीर्घः। मया सदसद्वेति संशयगोचरः सन्देहास्पदमुदरं यस्याः सा कृशोदरीत्यर्थः / 'नासिकोदरे'त्यादिना ङी। सा दमयन्ती दृशोरतिथित्वमनायि स्वविषयतां नीता दृष्टेत्यर्थः / नयतेः कर्मणि लुङ // 40 // (आगे नलसे हंस कहता है कि-) तगाडोंका आश्रय करनेके लिए अनेक देशोंको जानेवाले मैंने अतिशय कृश होनेसे 'हैं या नहीं' ऐसे सन्देहके विषयीभूत उदरवाली उस ( दमयन्ती ) को देखा है / [ दमयन्तीका उदर कृश है कि उसे देखकर मुझे सन्देह हो जाता था कि इसका उदर है या नहीं है ? / इस प्रकार उन्तरूपा उस दमयन्तीको अनेक तडागोंमें रहनेके लिए देश-देशान्तरमें भ्रमण करनेवाले मैने देखा है, अतः वैसी परम सुन्दरी रमणी कहीं भी नहीं है, ऐसा आपको विश्वास करना चाहिये ] // 40 / / अवधृत्य दिवोऽपि यौवन सहाधीतवतीमिमामहम् / कतमस्तु विधातुराशये पतिरस्या वसतीत्यचिन्तयम् / / 41 // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अवश्त्येति / अहमिमान्दमयन्ती दिवः स्वर्गस्य सम्बन्धिभियौंवतैर्युवतिसमूहैरपि 'गार्मिणं यौवनं गण' इत्यमरः / भिक्षादित्वात्समूहार्थे अण्प्रत्ययः, तत्राप्यस्य युवतीति स्त्रीप्रत्यान्तस्यैव प्रकृतित्वेन तद्ग्रहणात् तत्सामर्थ्यादेव 'भस्याढे तद्धित' इति पुंवद्भाव इति वृत्तिकारः। न सहाधीतवतीमसदृशीं ततोऽप्यधिकसुन्दरीमित्यर्थः / 'नजर्थस्य न शब्दस्य सुप्सुपेति समास' इति वामनः। अवश्त्य निश्चित्य विधातुः ब्रह्मणः आशये हृदि अस्याः पतिः कतमो नु कतमो वा वसतीत्यचिन्तयम्, तदेवेति शेषः॥ 41 // स्वर्गके भी युवती-समूहोंके साथ अध्ययन नहीं की हुई ( स्वर्गीय युवतियोंसे भी अधिक सुन्दरी ) इस ( दमयन्ती ) को निश्चितकर 'ब्रह्माके मन में इसका कौन पति बसता है ?' यह मैंने विचार किया। [ समान गुणवालोंके साथ अध्ययन किया जाता है, असमान गुणवालोंके साथ नहीं; अतएव मानुषी स्त्रियों की कौन कहे, स्वर्गीय युवतियोंसे भी अधिक गुणवाली होनेसे दमयन्तीने उनके साथ भी अध्ययन नहीं किया है अर्थात् स्वर्गीय युवतियोंसे भी दमयन्ती अधिक सुन्दरी है ऐसा निश्चय कर ब्रह्माके मन में इसका कौन पति बसता है यह मैने सोचा ] // 41 // अनुरूपमिमं निरूपयन्नथ सर्वेष्वपि पूर्वपक्षताम् / युवसु व्यपनेतुभक्षमस्त्वयि सिद्धान्ताधयं न्यवेशयम् / / 42 // अनुरूपमिति / यथेदानीमनुरूपं योग्यं त्वां निरूपयन् तस्याः पतित्वेनालोचयन् सर्वेष्वपि युवसु पूर्वपक्षतां दूष्यकोटित्वं व्यपनेतुमक्षमः सन् त्वयि सिद्धान्तधियं न्यवेशयम् / त्वमेवास्याः पतिरिति निरचैषमित्यर्थः / अयमेव विधातुरप्याशय इति भावः॥ 42 // (इस दमयन्तीके ) अनुरूप पतिका निरूपण करता हुआ सब युवकोंमें पूर्वपक्षत्वको दूर करनेमें असमर्थ मैंने तुममें ही सिद्धान्त बुद्धिको स्थापित किया। [ पूर्वपक्षकी अपेक्षा सिद्धान्त पक्षके प्रबल होनेसे 'आप ही इस दमयन्तीके अनुरूप पति हैं। ऐसा मैंने निश्चय किया ] // 42 // अनया तव रूपसीमया कृतसंस्कारविबोधनस्य मे | चिरमध्यवलोकिताऽद्य सा स्मृतिमारूढवती शुचिस्मिता / / 4 / / ___ अथ त्वद्रूपदर्शनमेव सम्प्रति तत्स्मारकमित्याह-अनयेति / चिरमवलोकिताऽपि सा शुचिस्मिता सुन्दरी अद्याधुना हस्तेन निर्दिशन्नाह-अनया तव रूपसीमया सौन्दर्यकाष्ठया कृतसंस्कारविबोधनस्य उबुद्धसंस्कारस्य मे स्मृतिमारूढवती स्मृतिपथङ्गता, सदृशदर्शनं स्मारकमित्यर्थः // 43 // तुम्हारी इस रूपमर्यादा ( सर्वाधिक सौन्दर्य ) से उबुद्ध संस्कारवाले मेरे स्मृतिपथमें बहुत पहले भी देखी गयी वह उज्ज्वल मुसकानवाली सुन्दरी (दमयन्ती) आ गयी / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 नैषधमहाकाव्यम् / [सदृश वस्तुके देखने पर पूर्वसंस्कारके जागृत होने से चिरदृष्ट वस्तुका भी स्मरण हो जाता है, अत एव आपकी सर्वाधिक सुन्दरताको देखकर मुझे बहुत पहले देखी गयी भी उस दमयन्तीका स्मरण हो गया ] // 43 // . त्वयि वीर ! विराजते परं दमयन्तीकिलकिंचितं किल / तरुणीस्तन एव दीप्यते मणिहारावलिरामणीयकम् / / 44 / / ततः किमत आह-त्वयीत्यादि / हे वीर ! दमयन्त्याः किलकिञ्चितम्, 'क्रोधाश्रुहर्षभीत्यादेः सङ्करः किलकिञ्चितमि'त्युक्तलक्षणलक्षितशृङ्गारचेष्टितं त्वयि परन्त्वय्येव विराजते किल शोभते खलु / तथाहि-मणिहारावलेर्मुक्ताहारपङ्क्तेः रामणीयकं रमणीयत्वं 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुञ्' / तरुणीस्तन एव दीप्यते, नान्यत्रेस्यर्थः / स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टा जातिः प्रायेणेति प्रायग्रहणादेकवचनप्रयोगः / अत्र हारकिलकिञ्चितयोरुपमानोपमेययोर्वाक्यद्वये बिम्बप्रतिबिम्बतया स्तननृपयोः समानधर्मत्वोक्तदृष्टान्तालङ्कारः, लक्षणन्तूक्तम् // 44 // ___हे वीर ( नल )! दमयन्तीका किलकिञ्चित (शृङ्गारसम्बन्धी चेष्टाविशेष ) केवल आपमें ही विशेषतः शोभित होता है, क्योंकि मणियोंके हारोंकी रमणीयता युवतीके ही स्तनों पर विशेष शोभती है / [ युवतियोंको वीरस्वामी ही अधिक प्रिय होता है, अत एव यहाँ नल के लिए हंसने 'वीर' पदका प्रयोग किया है / क्रोध, रोदन, हर्ष और भयादिके सम्मिश्रण के साथ की गयी स्त्रियोंकी शृङ्गार चेष्टाको 'किलकिञ्चित' कहते हैं ] // 44 / / तव रूपमिदं तया विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः / इयमृदुधना वृथाऽवना, स्ववनी सम्प्रवदत्पिकापि का ? // 4 // सवेति / हे वीर ! तवेदं रूपं सौन्दर्य तया दमयन्त्या विना अवकेशिनो वन्ध्यवृक्षस्य 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी चे'त्यमरः। पुष्पमिव विफलं निरर्थकम्, ऋद्धधना सम्पूर्ण वित्ता इयमवनी वृथा निरर्थिका / सम्प्रवदत्पिका कूजत्कोकिला स्ववनी निजोधानमपि 'डीप' का तुच्छा निरर्थिकेत्यर्थः। तद्योगे तु सर्व सफलमिति भावः / 'किं वितर्के परिप्रश्ने क्षेपे निन्दापराधयोरिति विश्वः / अत्र नलरूपावनीवनीनां दमयन्त्या विना स्म्यतानिषेधाद्विनोक्तिरलङ्कारः / 'विना सम्वन्धि यत्किञ्चिदत्रान्यत्र परा भवेत् / रम्यताऽरम्यता वा स्यात् सा विनोक्तिरनुस्मृते ति लक्षणात् / तस्याश्च पुष्पमिवेत्युपमया संसृष्टिः॥४५॥ ( उत्कण्ठावर्धनार्थ राजहंस पुनः कहता है कि-हे राजन् ! ) उस ( दमयन्ती ) के बिना यह तुम्हारा रूप फलहीन वृक्षके पुष्पके समान (या-मुण्डितमस्तक व्यक्तिके मस्तक पर धारण किये गये पुष्प के समान ) व्यर्थ है, बढ़ी हुई सम्पत्तिवाली यह पृथ्वी ( तुम्हारा राज्य ) भी व्यर्थ है और जिसमें कोयल कूकती है ऐसा अपना ( आपका ) उद्यान में क्या है ? अर्थात् कुछ नहीं-सर्वथा निःसार है॥ 45 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 101 अनयाऽमरकाम्यमानया सह योगः सुलभम्तु न त्वया / धन संवृतयाऽम्बुदागमे कुमुदेनेव निशाकरत्विषा // 46 // अन्रान्यापेक्षा दर्शयितु तस्या दौर्लभ्यमाह-अनयेति / अमरैरिन्द्रादिभिः काम्यमानयाऽभिलष्यमाणया दमयन्त्या सह योगः अम्बुदागमे घनसंवृतया मेघावृतया निशाकरत्विषा सह योगः कुमुदेनेव त्वया न सुलभो दुर्लभ इत्यर्थः। अत्र तत्संयोगदौर्लभ्यस्य अमरकामनापदार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गभेदः, तत्सापेक्षा चेयमुपमेति सङ्करः॥ 46 // वर्षाकालमें बादलसे अच्छी तरह आच्छादित हुई चन्द्रकान्तिके साथ कुमुदके समान देवताओंसे भी अभिलषित होती हुई इस दमयन्तींके साथ आपका सम्बन्ध होना सरल नहीं है / [ यहांपर हंसने-वायु आदिके द्वारा बादलके हट जाने पर जिस प्रकार चन्द्रकान्तिके साथ कुमुद का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, उसी प्रकार मेरे उपाय करनेसे दमयन्तीके साथ आपका सम्बन्ध अवश्यमेव हो जायगा-ऐसा संकेत किया है तथा देवसे भी अभिलषित होना कहकर दमयन्तीका देवाङ्गनाओंसे भी अधिक सुन्दर होनेका तथा भविष्य ( स्वयंवरमें होनेवाले देवोंके आगमन आदि ) का भी संकेत किया है ] / / 46 // तदहं विदधे तथा तथा दमयन्त्याः सविधे तव स्तवम् / हृदये निहितस्तया भवानपि नेन्द्रेण यथाऽपनीयते // 47 // अत्र का गतिरित्याह-तदिति / तत्तस्मात्कार्यस्य सप्रतिबन्धत्वादहं दमयन्त्याः सविधे समीपे तथा तथा तव स्तवं स्तोत्रं विदधे विधास्य इत्यर्थः, सामीप्ये वर्तमाने प्रत्ययः / यथा तया हृदये विहितो भवानिन्द्रेणापि नापनीयते नेतुमशक्य इत्यर्थः / यथेन्द्रादिप्रलोभिताऽपि त्वय्येव गाढानुरागा स्यात्तथा करिष्यामीत्यर्थः // 47 // ( अपने वचनका उपसंहार करता हुआ हंस उक्त विषयको ही स्पष्ट करता है-) इस कारण मैं दमयन्तीके समीप आपकी वैसी वैसी प्रशंसा करूँगा, जिससे हृदयमें स्थापित आपको इन्द्र भी पृथक् नहीं कर सकता है ( तो किसी मनुष्य के विषयमें कहना क्या है ?) // 47 // तव सम्मतिमत्र केवलामधिगन्तुं धिगिर्द निवेदितम् / ब्रुवते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् // 48 // तर्हि तथैव क्रियतां किं निवेदनेनेत्यत आह-तवेति / अत्रास्मिन् कार्ये केवलामेकांतव सम्मतिमङ्गीकारमधिगन्तुमिदं निवेदितं निवेदनं धिक। तथा हि-साधवो निजोपयोगितां स्वोपकारित्वं फलेन कार्येण ब्रुवते बोधयन्ति, किन्तु कण्ठेन वाग्वत्या न ब्रुवते / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 48 // केवल आपकी सम्मति पानेके लिए ही इस निवेदनको धिक्कार है, क्योंकि सज्जन लोग अपने उपयोगको स्वयं कण्ठसे नहीं कहते हैं, किन्तु फल (कार्यकी सिद्धि) से ही कहते हैं / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 नैषधमहाकाव्यम् / तदिदं विशदं वचोऽमृतं परिपीयाभ्युदितं द्विजाधिपात् / अतितृप्ततया विनिर्ममे स तदुद्गामिव स्मितं सितम् / / 4 / / तदिति / स नलो द्विजाधिपात् हंसाचन्द्राच्चाभ्युदितमाविर्भूतं विशदं प्रसन्नमवदातञ्च तत् पूर्वोक्तमिदमनुभूयमानं वच एवामृतमिति रूपकं तत्परिपीय अत एव अतितृप्ततया अतिसौहित्येन तस्य वचोऽमृतस्य उद्गारमिव सितं स्मितं विनिर्ममे निर्मितवान् / माङः कर्तरि लिट् / अतितृप्तस्य किञ्चिनिःसार उद्गारः। सितत्वसाम्यात् स्मितस्य वागमृतोद्गारोत्प्रेक्षा // 49 // पक्षिराज ( हंस, पक्षा०-चन्द्रमा ) से निकले हुए उस स्वच्छ वचनामृतका सम्यक् प्रकारसे पान कर अर्थात् सुनकर उस नलने अत्यधिक तृप्त होनेसे उस ( श्वेत वचनामृत ) के डकारके समान श्वेत स्मित किया। [जिस प्रकार कोई व्यक्ति अधिक लोभसे किसी वस्तुको अधिक पीकर उसके समान ही डकारता है, उसी प्रकार नलने हंसके स्वच्छ वचनामृतको अधिक पीकर डकाररूप स्वच्छ स्मित किया / सज्जनोंको स्मितपूर्वक भाषण करनेका नियम होनेसे, या दमयन्ती-लाभरूप अनुकूल वचन सुननेसे नलने मुस्कुरा दिया ] // 49 // परिमृज्य भुजापजन्मना पतगहोकनदेन नैषधः / मृदु तस्य मुदेऽगिरद् गिरः प्रियवादामृतकूपकण्ठजाः / / 50 / / परिमृज्येति / निषधानां राजा नैषधः नलः 'जनपदशब्दात् क्षत्रियाद' / भुजाग्रजन्मना कोकनदेन पाणिशोणपङ्कजेनेत्यर्थः। पतगं हंसं परिमृज्य तस्यहंसस्य तथा मुदे हर्षाय प्रियवादानामेवामृतानां कूपः निधिः कण्ठो वागिन्द्रियं तजन्याः गिरः मृदु यथा तथा अगिरत् प्रियवाक्यामृतैरसिञ्चदित्यर्थः / अत्र भुजाग्रजन्मना कोकनदेनेति विषयस्य पाणेनिंगरणेन विषयिणः कोकनदस्यैवोपनिबन्धात् अति. शयोक्तिः, 'विषयस्यानुपादानाद्विषय्युपनिबध्यते / यत्र सातिशयोक्तिः स्यात्कविप्रौढोक्तिसम्मता // ' इति लक्षणात् / सा च पाणिकोकनदयोरभेदोक्तिः अभेदरूपा तस्याः प्रियवादामृतकूपकण्ठेति रूपकसंसृष्टिः // 50 // निषध नरेश नलने भुजाके अग्रभागमें उत्पन्न रक्तकमल अर्थात् रक्तकमल-तुल्य तलहथीसे पक्षी ( हंस ) को सहला कर (प्रेमपूर्वक उसके शरीर पर धीरे-धीरे हाथ फेरकर ) उसके हर्षके लिए प्रिय भाषणरूप अमृतके कूपरूपी कण्ठसे उत्पन्न मृदु वचन कहा // 50 // न तुलाविषये तवाकृतिन वचो वर्त्मनि ते सुशीलता। त्वदुदाहरणाकृतौ गुणा इति सामुद्रिकसारमुद्रणा // 51 // न तुलेति / हे हंस ! तव आकृतिः आकारः तुलाविषये सादृश्यभूमौ न वर्त्तते असदृशीत्यर्थः। ते तव सुशीलता सौशील्यं वचोवर्मनि न वर्त्तते वक्तुमशक्येत्यर्थः। अत एवाकृतौ गुणाः 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा' इति सामुद्रिकाणां या सारमुद्रणा सिद्धा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 103 प्रतिपादनं सा त्वमेवोदाहरणं यस्याः सा तथोक्ता आकृतिसौशील्ययोः त्वय्येव सामानाधिकरण्यदर्शनादित्यर्थः / अत एवोत्तरवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः 'हेतोर्वाक्यार्थहेतुत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतमिति लक्षणात् // 51 // तुम्हारे ( सुवर्णमय ) आकारकी समता किसीके साथ नहीं की जा सकती तथा तुम्हारी सुशीलताका वर्णन नहीं किया जा सकता, 'आकृतिमें गुण रहते हैं। ऐसे सामुद्रिक शास्त्रके सारभूत नियमके तुम्ही उदाहरण हो [ अर्थात्-तुम्हें देखकर ही सामुद्रिक शास्त्रने 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' ऐसा नियम किया है। तुम्हारा जैसा सुन्दररूप है, वैसा ही सुन्दर स्वभाव भी है ] // 51 / / / न सुवर्णमयी तनुः परं ननु किं वागपि तावकी तथा / न परं पथि पक्षपातिताऽनवलम्बे किमु माहऽशेपि सा // 52 / / न सुवर्णेति / ननु हे हंस ! तवेयं तावकी 'युप्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् चेति चकारादण प्रत्यये डीप 'तवकममकावेकवचने' इति तवकादेशः / तनुः परं मूर्तिरेव सुवर्णमयी हिरण्मयी न किन्तु वागपि तथा सुवर्णमयी शोभनाक्षरमयीत्यर्थः / अनवलम्बे निरवलम्बे पथि परमाकाश एव पक्षपातिता पक्षपातित्वं किमु किं वेत्यर्थः / निपातानामनेकार्थत्वात् / अनवलम्बे निराधारे मादृशेऽपि सा पक्षपातिता स्नेहवत्तेत्यर्थः। अत्र तनुवाचोः प्रकृताप्रकृतयोः सुवर्णमयीति शब्दश्लेषः एवं पथि मादृशेऽपि पक्षपातितेति सजातीयसंसृष्टिः, तया चोपमा व्यज्यते // 52 // केवल तुम्हारा शरीर ही सुवर्णमय ( सोनेका बना हुआ ) नहीं है, किन्तु वचन भी सुवर्णमय (सुन्दर अक्षरोंसे बना हुआ ) है तथा तुम केवल अवलम्बन-रहित मार्ग ( आकाश ) में ही पक्षपाती ( उड़ते समय पलों को गिरानेवाले ) नहीं हो, किन्तु निरवलम्ब मुझमें भी पक्षपाती ( पक्षपात-तरफदारी करनेवाले ) हो / / 52 / / भृशतापभृता मया भवान्मरुदासादि तुषारसारवान् / धनिनामितरः सतां पुनर्गुणवत्सन्निधिरेव सन्निधिः / / 53 / / भृशेति / भृशतापभृता अतिसन्तापभाजा मया भवांस्तुषारैः शीकरैः सारवानुत्कृष्टो मरुत् मारुतः सन् आसादि सन्तापहरत्वादिति भावः / तथा हि-धनिनां धनिकानां कुबेरादीनामितरः पद्मशङ्खादिः संश्चासौ निधिश्चेति सन्निधिः, सतां विदुषां पुनः गुणवतां सन्निधिः सान्निध्यमेव सन्निधिः महानिधिः / सन्तापहारित्वात् त्वमेव शिशिरमारुतः, अन्यतस्तु दहन एवेति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः लक्षणं तूक्तम् // 53 // ' (दमयन्ती-विरहमें ) अत्यन्त ताप ( कामज्वर ) से युक्त मैंने हिम ( वर्फ) के सार भागयुक्त वायुरूप तुमको पा लिया है, क्योंकि धनियोंका दूसरा ही ( रुपया-पैसा आदि द्रव्यरूप ) श्रेष्ठ धन है, किन्तु सज्जनोंका तो गुणवानोंका संसर्ग ही श्रेष्ठ धन है। [ द्रव्यादिको पानेसे धनियोंके समान गुणवानोंके संसर्गको पानेसे सज्जनोंको हर्ष होता है ] // 53 // Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 नैषधमहाकाव्यम् / शतशः श्रुतिमागतैव सा त्रिजगन्मोहमहौषमिर्मम | अधुना तव शंसितेन तु स्वहशैवाधिगताममि ताम् / / 54 // शतश इति / त्रिजगतः त्रैलोक्यस्य मोहे सम्मोहने महौषधिः महौषधमिति रूपकम् / सा दमयन्ती शतशो मम श्रुतिं श्रोत्रमागतैव अधुना तव शंसितेन कथनेन तु स्वदृशा मम दृष्टयैवाधिगतां दृष्टामवैमि साक्षाद् दृष्टां मन्ये / आप्तोक्तिप्रामाण्यादिति भावः // 54 // तीनों लोकोंको मोहित करनेके लिए महौषधिरूपिणी उस (दमयन्ती) को मैंने सैकड़ों बार सुना है, तथा तुम्हारे इस कथन (2 / 17-39 ) से तो उस ( दमयन्ती ) को अपने नेत्रोंसे ही देखता हुआ समझ रहा हूँ // 54 / / अखिलं विदुषामनाविलं सुहृदा च स्वहृदा च पश्यताम् / सविधेऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी वदनालकृतिमात्रमक्षिणी / / 55 / / अथ स्वदृष्टरप्याप्तहष्टिरेव गरीयसीत्याह-अखिलमिति / सहृदा आप्तमुखेन स्वहृदा स्वान्तःकरणेन च सुहृद् ग्रहणं तद्वत्सुहृदः श्रद्धयत्वज्ञापनार्थमखिलं कृत्स्नमा र्थमनाविलमसन्दिग्धम् अविपर्यस्तं यथा तथा पश्यतामवधारयतां विदुषां विवेकिनां सविधे पुरोऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी असूक्ष्मार्थदर्शिनी 'सुप्सुपे'ति समासः / अक्षिणी वदनालङ्कृतिमात्रं न तु दूरसूक्ष्मार्थदर्शनोपयोगिनीत्यर्थः // 55 // __मित्रके द्वारा तथा अपने हृदयसे सब वस्तु-समूहको प्रत्यक्ष देखते हुए विद्वानोंके ( अतिशय ) निकटस्थ ( कज्जलादि पदार्थ) को भी नहीं देखनेवाले नेत्रद्वय केवल मुखका अलङ्कारमात्र है ( अथवा-........"नेत्रद्वय अलङ्कारमात्र नहीं है ? अर्थात् अलङ्कारमात्र ही है ) / [जो नेत्र अपने अतिशय निकटस्थ कज्जल आदि पदार्थोंको भी नहीं देखते वे नेत्र दूरस्थ पदार्थको कैसे देख सकते हैं ?' अत एव आगम तथा अनुमानसे स्वयं या मित्र के द्वारा देखी गयी वस्तुको ही वास्तविक देखी गयी मानना ठीक है, इस प्रकार तुमने दमयन्तीको देख लिया ( 2 / 40 ) तो मैं भी मानो उसे देखी गयी ही मानता हूँ ] // 55 // अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राघुणकीकृता जनैः / मदनानलबोधनेऽभवत् खग धाय्या धिगधैर्यधारिणः // 6 // अमितमिति / हे खग ! जनैः विदर्भागतजनैः मम श्रवणप्राघुणकीकृता कर्णातिथीकृता तद्विषयीकृतेत्यर्थः / 'आवेशिकः प्राघुणक आगन्तुरतिथिस्तथे ति हलायुधः। अमितमपरिमितं मधु क्षौद्रं तद्वदतिमधुरेत्यर्थः / तत्कथा तद्गुणवर्णना अधैर्यधारिणोऽत्यन्ताधीरस्य मम मदनानलबोधने मदनाग्निप्रज्वलने धाय्या सामिधेनी भवेत् 'ऋक् सामिधेनी धाय्या च या स्यादग्निसमिन्धने' / इत्यमरः / 'पाय्यसानाय्ये' त्यादिना निपातः / धिक वाक्यार्थो निन्द्यः / अत्र तत्कथायाः धाय्यात्मना प्रकृतमदनानीन्धनोपयोगात् परिणामालङ्कारः, 'आरोग्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम' इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः॥ 56 // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 105 हे पक्षी ( हंस ) ! लोगोंसे श्रवणातिथि की ( सुनी ) गयी अनुपम (या-अपरिमित मधुरूप ( या-मधुतुल्य ) उसकी कथा मेरी कामाग्निको बढ़ानेमें 'धाय्या' ऋक् ( अग्निहोत्रके अग्निको प्रज्वलित करनेवाला ऋग्वेदका मन्त्र-विशेष ) होती है, इस कारण धैर्यहीन ( या-धैर्ययुक्त ) मुझको धिक्कार है // 56 // विषमो मलयाहिमण्डलीविषफत्कारमयो मयोहितः। बत कालकलत्रदिग्भवः पवनस्तद्विरहानलघसा / / 57 / / विषम इति / विषमः प्रतिकूलः कालकलत्रदिग्भवः यमदिग्भवः प्राणहर इति भावः, पवनो दक्षिणमारुतः तद्विरहानलैधसा दमयन्तीविरहाग्निसमिधा तदाह्येनेत्यर्थः / मया मलये मलयाचले या अहिमण्डली सर्पसङ्घः तस्याः विषफूत्कारमयऊहितस्तद्रुप इति तर्कित इत्यर्थः / लोके च 'अग्निरेधांसि फूस्कारवातैर्मायत' इति भावः / बतेति खेदे। विरहानलेधसेतिरूपकोत्थापितेयं दक्षिणपवनस्य मलयाहिमण्डलीफूत्कारत्वोत्प्रेक्षेति सङ्करः // 57 // हे हंस ! उस ( दमयन्ती ) की विरहाग्निका इन्धनरूप मैं यमराजकी स्त्रीभूता दिशा अर्थात् दक्षिण दिशाकी वायुको मलयपर्वतके सर्प-समूहके विषमिश्रित फुफकारसे पूर्ण ( अत एव ) भयङ्कर ( या-विषतुल्य ) समझा / [ जिस प्रकार मुंहके फूत्कारसे सन्धुक्षित ( बढ़ी हुई ) अग्नि धधककर इन्धनको जलाती है, उसी प्रकार दमयन्तीके विरहसे उत्पन्न कामाग्नि मलयवासी सर्प-समूहके विषैले फूत्कारसे सन्धुक्षित होनेसे विषतुल्य होकर इन्धनरूप मुझे जला रही है / काल ( यमराज ) की स्त्रीभूता दिशाके वायुको सर्प-समूहके विषैले फूत्कारसे मिश्रित होनेसे विषतुल्य होना उचित ही है। दमयन्तीकी विरहाग्निसे पीड़ित में दक्षिण वायुके बहने पर अत्यन्त सन्तापका अनुभव करता हूँ ] // 57 // प्रतिमासमसौ निशाकरः खग ! सङ्गच्छति यहिनाधिपम् | किमु तीव्रतरैस्ततः करैर्मम दाहाय स धैर्यतस्करैः 1 // 58 / / प्रतिमासमिति / असौ निशाकरो मासि मासि प्रतिमासम्प्रतिदर्शमित्यर्थः / वीप्सायामव्ययीभावः / दिनाधिपं सूर्य सङ्गच्छति प्राप्नोतीति यत्ततः प्राप्तेः स निशाकरः तीव्रतरैरत एव धैर्यतस्करैर्मम धैर्यहारिभिः करैः सौरैः तत आनीतैः मम दाहाय सङ्गच्छतीत्यनुषङ्गः, किमुशब्द उत्प्रेक्षायाम् / अत्र सङ्गमनस्य दाहार्थत्वोत्प्रेक्षणात् फलोत्प्रेक्षा // 58 // हे हंस ! वह प्रसिद्धतम चन्द्रमा जो प्रतिमास ( अमावस्याको) सूर्यके साथ सङ्गत होता है, उससे अत्यन्त तीक्ष्ण एवं धैर्यनाशक किरणोंसे मुझे जलानेके लिये समर्थ होता है क्या ? [ लोकमें स्वयं किसीका अपकार करनेमें असमर्थ व्यक्ति दूसरे प्रबल व्यक्तिकी सहायता लेकर अपकार करनेमें जिस प्रकार समर्थ होता है, उसी प्रकार स्वयं शीतल प्रकृति होनेसे मुझे सन्तप्त करनेमें असमर्थ चन्द्रमा प्रत्येक मास की अमावस्या तिथिके सूर्यसे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 नैषधमहाकाव्यम्। सङ्गत होनेसे तीक्ष्ण किरणोंवाला होकर मुझ विरहीको * सन्तप्त करता है, ऐसा ज्ञात होता ] है // 58 // कुसुमानि यदि स्मरेषवो न तु वकं विषवल्लिजनानि तत् / हृदयं यदमुमुहन्नमूर्मम यचातितमामतीतपन् // 56 / / कुसुमानीति / स्मरेषवः कुसुमान्येव यदि न तु वज्रमशनिः सद्योमरणाभावा. दिति भावः / तत्तथा अस्तु किन्तु विषवल्लिजानि विषलतोत्पन्नानि / यद्यस्मादमूः स्मरेषवः 'पत्री रोप इषुर्द्वयोरि'ति स्त्रीलिङ्गता, मम हृदयममूमुहन् अमूर्च्छयन् मुह्यतेौँ चङ्, यद्यस्मादतितमामतिमात्रमव्ययादाम्प्रत्ययः। अतीतपन् तापयन्तिस्म, तपती चङमोहतापलक्षणविषमकार्यदर्शनाद्विषवल्लिजत्वोत्प्रेक्षा // 59 // ___ यदि काम-बाण पुष्प है, वज्र नहीं है तो वे विषलतासे उत्पन्न ( पुष्प ) हैं, (अथवाकामबाण वज्र ही है, पुष्प नहीं है, यदि यह कथन लोकप्रसिद्धिसे विरुद्ध है तो वे विषलतासे उत्पन्न पुष्प हैं ) क्योंकि इन कामबाणोंने मेरे हृदयको मोहित कर दिया तथा अत्यन्त सन्तप्त कर दिया। ( अत एव कामबाण यदि वज्र नहीं पुष्प ही है तो विषलता से उत्पन्न पुष्प है, अन्यथा उनमें मोहकत्व एवं सन्तापकत्व होना सम्भव नहीं है ) // 59 // तदिहानवधौ निमज्जतो मम कन्दर्पशराधिनीरधौ / भव पोत इवावलम्बनं विधिनाऽकस्मिकसृष्टसन्निधिः / / 60 / / तदिति / तत्तस्मादिहास्मिन्ननवधौ अपारे कन्दर्पशरैर्य आधिर्मनोव्यथा 'पुंस्याधिर्मानसी व्यथे'त्यमरः / तस्मिन्नेव नीरधौ समुद्रे निमजतो अन्तर्गतस्य मम विधिना देवेनाकस्मादकाण्डे भवमाकस्मिकमध्यात्मादित्वात् ठक, अव्ययानाम्भमात्रे टिलोपः तद्यथा तथा सृष्टसन्निधिः सन्निधानं भाग्यादागत इत्यर्थः। त्वं पोतो यानपात्रमिव 'यानपात्रन्तु पोत' इत्यमरः / अवलम्बनं भव // 60 // - इस कारण ( हे हंस ! कामबाणजन्य पीडारूपी अथाह समुद्रमें डूबते हुए मेरे दैवसे अकस्मात् देखे गये सामीप्यवाला ( भाग्यवश सहसा समीपमें प्राप्त तुम ) जहाजके समान अवलम्बन होवो / [ अथाह समुद्रमें डूबते हुए व्यक्तिके लिये भाग्यवश देखा गया जहाज जिस प्रकार अवलम्बन होकर डूबनेसे उसकी रक्षा करता है, उसी प्रकार अनाथ कामपीड़ामें डूबते हुए मेरे लिए भाग्यवश अकस्मात् समीपमें आये हुए तुम मेरा अवलम्बन होवो अर्थात् दमयन्तीके साथ सङ्गम कराकर काम-पीडासे मेरी रक्षा करो] / / 60 / / अथवा भवतः प्रवत्तेना न कथं पिष्टमय पिनाष्ट नः / स्वत एव सतां पराथेता ग्रहणानां हि यथा यथाथता / / 61 / / अथवेति / अथवा इयं नोऽस्माकं सम्बन्धिनी 'उभयप्राप्ती कर्मणीति नियमात् कर्तरि कृयोगे वष्ठीनिषेधेऽपि शेषषष्ठीपर्यवसानात् कर्थलाभः / भवतः 'उभयप्राप्ती कर्मणी'ति षष्ठी, प्रवर्त्तना प्रेरणा 'ण्यासश्रन्थो युच', कथं पिष्टं न पिनष्टि ? स्वतः Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 107 प्रवृत्तिविषयत्वात् पिष्टपेषणकल्पेत्यर्थः। हि यस्माद् ग्रहणानां ज्ञानानां यथार्थता याथार्थ्यं यथा प्रामाण्यमिव स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिव 'गृह्यतां जाता मनीषा स्वत एव मानमिति मीमांसकाः / सतां परार्थता परार्थप्रवृत्तिः स्वत एव न तु परतः / उपमासंसृष्टोऽर्थान्तरन्यासः // 61 // ___ अथवा-आपको प्रवृत्त करने का मेरा यह कार्य पिष्ट-पेषण नहीं होता है क्या ? अर्थात् स्वतः इस कर्मके लिए उद्यत आपको लगाना मेरा पिष्ट-पेषण मात्र है। क्योंकि ज्ञानके प्रमाणके समान सज्जन स्वयमेव ( विना किसीकी प्रेरणा किये ही) परोपकारी होते हैं / [ अथवा ग्रहण ( अर्थग्राहक शब्द ) की अनुगतार्थताके समान सज्जनोंकी परोपकारिता स्वयमेव होती है, अर्थात् जिस प्रकार 'वृक्ष' आदि शब्दके उच्चारण करने मात्रसे उसके अर्थभूत मूल-शाखा-पत्रादिका प्रत्यक्ष स्फुरण हो जाता है, उसी प्रकार बिना किसी की प्रेरणाके ही सज्जन परोपकारी होते हैं ] // 61 // / तव वमनि वर्त्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः / अपि साधय साधयेप्सितं म्मरणीया समये वयं वयः // 62 // तवेति / हे वयः ! तव वर्मनि शिवं मङ्गलं वर्ततां, त्वरितं क्षिप्रमेव पुनः समागमोऽस्तु, अपि साधय गच्छ, ईप्सितमिष्टं साधय सम्पादय समये कार्यकाले वयं स्मरणीयाः। अनन्यगामि कार्ये कुर्या इत्यर्थः॥१२॥ तुम्हारे मार्गमें कल्याण हो, फिर (तुम्हारे साथ मेरा ) समागम हो, हे हंस ! अभीष्टको साधो-साधो अर्थात् शीघ्र पूरा करो और समयपर ( दमयन्तीके साथ एकान्तमें ) हमें स्मरण करना // 62 / / इति तं स विसृज्य धैर्यवान्नृपतिःसूनृतवाग्बृहस्पतिः। अविशद्वनवेश्म विस्मितः अतिलग्नैः कलहंसशंसितैः / / 63 / / इतीति / धैर्यवानुपायलाभात् सधैर्यः सूनृतवाक् सत्यप्रियवादेषु बृहस्पतिः तथा प्रगल्भ इत्यर्थः। 'सूतृतं च प्रिये सत्यमित्यमरः। स नृपतिरितीत्थं हंसं विसृज्य श्रुतिलग्नैः श्रोत्रप्रविष्टः कलहंसस्य शंसितैर्विस्मितः सन् वनवेश्म भोगगृहमविशत् // सत्य एवं प्रिय बोलनेमें बृहस्पतिरूप तथा ( हंस के लौटनेतक ) धैर्यधारण करनेवाले वे राजा नल इस प्रकार ( 2 / 62 ) उस ( हंस ) को भेजकर हंसके मधुर भाषणोंके स्मरणसे आश्चर्यित होते हुए उद्यानगृहमें प्रवेश किये // 63 // अथ भीमसुतावलोकनैः सफलं कत्तमहस्तदेव सः। क्षितिमण्डलमण्डनायितं नगरं कुण्डिनमण्डजो ययौ / / 64 // अथेति / अथ सोऽण्डजो हंसः तदहरेव भीमसुतायाः भैम्या अवलोकनैः सफलं कर्तुं तस्मिन्नेव दिने तां द्रष्टुमित्यर्थः। क्षितिमण्डलस्य मण्डनायितमलङ्कारभूतं कुण्डिनं कुण्डिनाख्यनगरं ययौ // 64 // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 नैषधमहाकाव्यम् / इसके बाद दमयन्तीके दर्शनोंसे उसी दिनको सफल करनेके लिए वह पक्षी ( राजहंस ) भूमण्डलके भूषणतुल्य कुण्डिन नगर 'कुण्डिनपुरी' को गया // 64 // प्रथमं पथि लोचनातिथिं पथिकप्रार्थितासिद्धिशंसिनम् / कलसं जलसंभृतः पुरः कलहंसः कलयाम्बभूव सः / / 65 / / अथ श्लोकत्रयेण शुभनिमित्तान्याह-प्रथममित्यादिना / सः कलहंसः प्रथममादौ पथि मार्गे लोचनातिथिं दृष्टिप्रियं पथिकानां प्रस्थातृणां प्रार्थितस्य इष्टार्थस्य सिद्धिशंसिनं सिद्धिसूचकं जलसम्भृतं जलपूर्ण कलसं पूर्णकुम्भं पुरोऽग्रे कलयांबभूव ददर्श // 65 // ___ अब हंसकी यात्रामें होने वाले शुभ शकुनोंको तीन श्लोकों ( 2065-67 ) से वर्णन करते हैं-) उस राजहंसने पहले पथिकसे अभिलषित सिद्धिको सूचित करनेवाले जलपूर्ण कलसको देखा // 65 // अवलम्ब्य दिदृक्षयाऽम्बरे क्षणमाश्चर्य्यरसालसं गतम् | स विलासवनेऽवनीभृतः फलमैक्षिष्ट रसालसंगतम् / / 66 / / अवलम्ब्येति / स हंसो दिनया स्वगन्तव्यमार्गालोकनेच्छया अम्बरे क्षणमाश्चयरसेन तद्वस्तुदर्शननिमित्तेन अद्भुतरसेन अलसं मन्दं गतं गतिमवलम्ब्य अवनीभुजो नलस्य विलासवने विहारवने रसालेन चूतवृक्षण सङ्गतं सम्बद्धम्, 'आम्रश्चूतो रसालोऽसा' वित्यमरः, फलमैक्षिष्ट दृष्टवान् // 66 // ___उस ( राजहंस ) ने थोड़े समयतक मार्गको देखनेकी इच्छासे आकाशमें ( रमणीय देखनेसे उत्पन्न) आश्चर्यसे मन्दगमनका अवलम्बनकर राजा ( नल ) के क्रीडावनमें सामने आमके पेड़में लगे हुए फलको देखा [ मार्ग देखनेके लिए जब हंसने ऊपर देखा तब रमणीय क्रीडावनके देखनेसे अपनी चाल (गति ) को मन्दकर आमके पेड़में फलको देखा ] // 66 // नभसः कलभैरुपासितं जलदै रितरक्षुपन्नगम् / स ददर्श पतङ्गपुङ्गवो विटपच्छन्नतरक्षुपन्नगम् / / 67 / / नभस इति / पुमान् गौः वृषभः विशेषणसमासः, 'गोरतद्धितलुगि ति समासान्तष्टच् स इव पतङ्गपुङ्गवः पक्षिश्रेष्ठः उपमितसमासः, नभसः कलभैः खेचरकरिकल्पैरित्यर्थः / जलदैरुपासितं व्याप्तं भूरयः बहवस्तरक्षवो मृगादनापन्नगा यस्य तं विटपैः शाखाविस्तारैण, 'विस्तारो विटपोऽस्त्रियामि'च्यमरः छिन्नतराः अतिशयेन छादिताः सुपा ह्रस्वशाखाः, 'हस्वशाखाशिफः तुप' इत्यमरः। नगं पर्वतं ददर्श 'पूर्णकुम्भादिदर्शनं पान्थक्षेमकरमिति निमित्तज्ञाः // 67 // ___ पक्षिराज उस ( राजहंस ) ने आकाशके करिशावक (हाथीके बच्चे ) रूप मेघोंसे युक्त बहुत-से झाड़ियों वाले तथा शाखाओंसे छिपे ( ढके ) हुए तेंदुओं तथा सोको छिपाये Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 106 हुए पर्वत को देखा / [ करिशावकोंको शुभसूचक होनेसे मेघरूप करि-शावकोंका दर्शन होना तथा तेंदुए ( चीते ) एवं सर्पोका देखना यात्रामें अशुभसूचक होनेसे उनको शाखाओंसे ढके रहनेका वर्णन किया गया है ] // 67 // स ययौ धुतपक्षतिःक्षणं क्षणमूर्ध्वायनदुर्विभावनः / विततीकृतनिश्चलच्छदः क्षणमालोककदत्तकौतुकः // 6 // स इति / स हंसः क्षणं धुतपक्षतिः कम्पितपक्षमूलः क्षणम् ऊर्ध्वायनेन ऊर्ध्वगमनेन दुर्विभावनो दुष्करावधारणो दुर्लक्ष इत्यर्थः। विततीकृती विस्तारीकृतौ निश्चलौ छदौ पक्षौ यस्य सः, तथा क्षणमालोककानां द्रष्टणां दत्तकौतुकः सन् ययौ / स्वभावोक्तिः // 68 // (अब पांच श्लोकों ( 2 / 68-72 ) से राजहंसके शीघ्रगमनका वर्णन करते हैं-) क्षणमात्र पङ्खोंको कम्पित किया हुआ, क्षणमात्र ऊर्ध्वगमन करनेसे दुर्लक्ष्य ( कठिनाइसे दृष्टिगोचर ) होता हुआ, क्षणमात्र पढोंको फैलानेसे निश्चल (स्थिर ) किया हुआ और क्षणमात्र देखनेवालोंको कुतूहलयुक्त किया हुआ वह (राजहंस ) चला // 68 // तनुदीधितिधारया रयाद्तया लोकविलोकनामसौ। छदहेम कषन्निवालसत् कषपाषाणनिभे नभस्तले // 6 // तन्विति / असौ हंसो रयाद्धेतोः उत्पन्नयेति शेषः। लोकस्य आलोकिजनस्य परीक्षकजनस्य च विलोकनां दर्शनं गतया कौतुकाद्वर्णपरीक्षां च विलोक्यमानयेत्यर्थः। तनोः शरीरस्य तन्वा सूचमया च दीधितिधारया रश्मिरेखया निमित्तेन कषपाषाणनिभे निकषोपलसन्निभे नभस्तले छदहेम निजपक्षसुवर्ण कषन् घर्षन्निवालसत् अशोभतेत्युत्प्रेक्षा // 69 // ___ लोगोंको दिखलायी पड़नेवाली वेगसे शरीर-कान्तिकी रेखासे ( या पतली कान्तिरेखासे ( कसौटीके पत्थरके समान आकाशमें पलके सुवर्णको कसता हुआ ( खरा, या खोटा सुवर्ण है, यह जाननेके लिए आकाशरूप कसौटीके पत्थर पर सुवर्णमय अपने पलों को रगड़ता हुआ ) सा शोभमान हुआ // 69 // विनमद्भिरधः स्थितैः खगै टिति श्येननिपातशङ्किभिः / न निरैक्षि दृशैकयोपरि स्यदसांकारिपतत्रिपद्धतिः // 70 // विनमद्भिरिति / स्यदेन वेगेन सांकारिणी सामिति शब्दं कुर्वाणा पतत्रिपद्धतिः पक्षसरणिर्यस्य स हंसः श्येननिपातं शङ्कत इति तच्छतिभिः अतएव विनमद्भिविलीयमानैरधास्थितैः खगैः झटिति द्राक एकया दृशा उपरि निरैक्षि निरीक्षितः / कर्मणि लुङ् / स्वभावोक्तिः // 70 // ___ अतिशय वेगके कारण झङ्कारयुक्त पडोंवाले उस (राजहंस ) को 'बाज' नामक पक्षीके झपटनेकी आशङ्का करनेवाले ( अत एव ) नीचे झुकते हुए ( उस हंसकी अपेक्षा ) नीचे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 नैषधमहाकाव्यम् / उड़नेवाले पक्षियोंने एक दृष्टिसे देखा / [ जब वह राजहंस वेगसे बहुत ऊँचा उड़ रहा था, तब उसके नीचे उड़नेवाले पक्षी राजहंसके पङ्खोंकी झनकारसे उसे अपने ऊपर झपटने वाला 'बाज' समझकर झट और नीचे हो गये तथा भयसे उस हंसको एक दृष्टिसे देखे भयार्तका अपने आक्रान्ताको एक दृष्टिसे देखनेका स्वभाव होता है ] // 70 // ददृशे न जनेन यन्नसौ भुवि यच्छायमेवक्ष्य तत्क्षणात् / दिवि दिक्षु वितीर्णचक्षुषा पृथुवेगद्रुतमुक्तहक्पथः / / 71 / / ददृश इति / यन् गच्छन् , इणो लटः शत्रादेशः, असौ हंसः भुवि तच्छायं तस्य हंसस्य च्छायां 'विभाषा सेनेत्यादिना नपुंसकत्वम् / अवेक्ष्य तत् क्षणात् प्रथम दिशि पश्चात् दिक्षु च वितीर्णचक्षुषा दत्तदृष्टिना * जनेन पृथुवेगेन द्रुतं शीघ्रं मुक्तहक्पथः सन् न ददृशे न दृष्टः / क्षणमात्रेण दृष्टिपथमतिक्रान्त इत्यर्थः / / 71 // पृथ्वीपर उस राजहंसकी परछाई को देखकर तत्काल आकाशमें सब ओर देखनेवाले लोगोंने, तीव्र वेगसे शीघ्र ही दृष्टिसे अतिक्रान्त ( ओझल ) हुए उस राजहंसको नहीं देखा / [ नीचे छाया देखनेके उपरान्त ही ऊपर देखनेपर भी उस हंसके नहीं दिखलायी पडनेसे नल-कार्य-सिद्धयर्थ शीघ्र कुण्डिनपुरीमें पहुँचनेके लिए उसकी गति का तीव्रतम होना सूचित होता है ] // 71 // न वनं पथि शिश्रियेऽमुना कचिदप्युच्चतरदुचारुतम् / न सगोत्रजमन्ववादि वा गतिवेगप्रसरदूचा रुतम् / / 72 / / नेति / गतिवेगेन प्रसरचा प्रसपत्तेजसा अमुना हंसेन क्वचिदपि उच्चतराणामस्युन्नतानां द्रूणां द्रुमाणां चारुता रम्यता यस्मिंस्तत्वनं न शिश्रिये / सगोत्रज बन्धुजन्यं रुतं कूजितं वा नान्ववादि नानूदितम् / मध्यमार्गे अध्वश्रमापनोदनं बन्धुसम्भाषणादिकमपि न कृतमिति सुहृस्कार्यानुसन्धानपरोक्तिः / 'पलाशो दुद्रुमागमा' इत्यमरः // 72 // वह ( राजहंस ) मार्गमें कहीं भी अत्यन्त ऊँचे पेड़ोंसे सुन्दर वन में नहीं ठहरा और गमनके वेगसे बढ़ती हुई शोभावाले पक्षियोंके कूजनेका अनुवाद नहीं किया अर्थात् उड़ते हुए इसे देखकर दूसरे पक्षियोंके बोलने पर भी नहीं बोला / [ उड़ते हुए पक्षियोंका यह स्वभाव होता है कि मार्गमें सुन्दर ऊँचे पेड़ों वाले सुन्दर वनको पाकर वहीं ठहर जाते हैं तथा अपने सजातीय पक्षियोंके बोलनेपर उनके उत्तरमें बोलते हैं, किन्तु कुण्डिनपुरीको लक्ष्यकर जाते हुए राजहंसने उक्त दोनों कार्य नहीं किये, अत एव कार्यको शीघ्र सिद्ध करनेके लिए इसका तीव्र गतिसे उड़ना उचित होता है ] // 72 // ___ अथ भीमभुजेन पालिता नगरी मञ्जरसौ धराजिता / पतगस्य जगाम दृक्पथं हरशैलोपमसौधराजिता // 73 / / अथेति / धराजिता भूमिजयिना 'सत्सूद्विषे'त्यादिता विपि सुक् भीमस्य भीम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 द्वितीयः सर्गः। भूपस्य भुजेन पालिता हिमशैलोपमैः सौधेः राजिता मजुमनोज्ञा असौ पूर्वोक्ता नगरी कुण्डिनपुरी पतगस्य हंसस्य दृक्पथं जगाम, स तां ददशेत्यर्थः / अत्र यम. काण्यानुप्रासस्य हिमशेलोपमेति, उपमायाश्च संसृष्टिः // 73 // ___ भू-विजयी भीम ( राजा ) के बाहुसे सुरक्षित तथा कैलास पर्वतके समान महलोंसे शोभित मनोहर इस ( कुण्डिनपुरी ) नगरीकों पक्षो [ राजहंस ) ने देखा / [ कैलास पर्वत भी भूविजयी तथा शत्रुके लिये भयङ्कर (शिवजी ) के बाहुसे पालित है / जो 'धराजिता' है, उसका अपराजिता होनेसे विरोध आता है जिसका परिहार उक्त अर्थ से समझना चाहिये] / / 73 // दयितं प्रति यत्र सन्ततं रतिहासा इव रेजिरेभुवः / / स्फटिकोपलविग्रहा गृहाः शशभृद्रितनिरङ्कभिनयः / / 7 / / __ तां वर्णयति-दयितमिति / यत्र नगयाँ स्फटिकोपलविग्रहाः स्फटिकमयशरीरा इत्यर्थः / अत एव शशभृद्त्तिनिरङ्कभित्तयः शशाङ्कशकलनिष्कलङ्कानि कुड्यानि ये. षान्ते 'भित्तं शकलखण्डे वे'त्यमरः, भिदेः किप्प्रत्ययः / 'भित्तं शकलमित्यादि निपातनात् 'रदाभ्यामि'त्यादिना निष्ठानस्वाभावः / गृहाः दयितं भीमं प्रति सन्ततं भुवः भूमेर्नायिकायाः रतिहासाः केलिहासा इव रेजिरे इत्युत्प्रक्षा // 74 // __ ( अब इकतीस श्लोकों ( 2074-105 ) से कुण्डिननगरोका वर्णन करते हैं-) जिस (नगरी ) में स्फटिकमणिके बने हुए तथा चन्द्रमाके टुकड़े के समान निकलङ्क दीवालवाले घर पति ( राजा भीम ) के प्रति निरन्तर प्रवृत्त (नायिकारूपिणी) पृथ्वीके रतिकालके हासके समान शोभते थे // 74 // नृपनालमणागृहविषामुपधेयत्र भयेन भास्वतः / शरणाप्तमुवाम वासरेऽप्यसदावृत्त्युदयत्तमं तमः / / 75 / / नृपेति / यत्र नगर्यां तमोन्धकारः भास्वतो भास्करात् भयेन नृपस्य ये नीलमणीनां गृहाः तेषां विषः तासामुपधेश्छलादित्यपह्नवभेदः / 'रत्नं मणियोरि'त्यमरः / 'कृदिकारादक्तिनः' इति ङीष् / शरणाप्तं शरणं गृहं रक्षितारमन्वागतं 'शरणं गृहरक्षित्रोरि'त्यमरः / वासरे दिवसेऽप्यसदावृत्ति अपुनरावृत्ति किचोदयत्तममुद्यत्तम सदुवास // 75 // जिस ( नगरी ) से राजा (भीम ) के इन्द्रनीलमणि (नोलम) के बने हुए महलोंके कपटसे आवृत्तिहीन उदयको प्राप्त होता हुआ अर्थात् निरन्तर बढ़ता हुआ अन्धकार मानो सर्यके भयसे दिनमें भी शरणके लिए निवास करता था। [ अन्यत्र रात्रिमें ही अन्धकार रहता है, दिनमें नहीं, किन्तु इस कुण्डिन नगरीमें ऐसा ज्ञात होता है कि राजा भीमके नीलम मणियोंसे बने हुए महलोंकी कान्तिके बहानेसे सूर्यके भयसे शरणके लिए आकर यहां निरन्तर बढ़ता हुआ अन्धकार निवास करता है। लोकमें भी किसीसे डरा हुआ 8 नै० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 नैषधमहाकाव्यम् / कोई व्यक्ति स्वरक्षार्य किसी प्रबल व्यक्तिका आश्रय कर सदैव उन्नति करता हुआ निवास करता है ] // 75 // सितदीप्रमणिप्रकल्पिते यदगारे हसदङ्करोदसि / निखिलान्निशि पूर्णिमा तिथीनुपतस्थेऽतिथिरेकिका तिथिः / / 76 / / सितेति / सितैः दीप्रैश्च मणिभिः प्रकल्पिते उज्ज्वलस्फटिकनिर्मिते हसदङ्करोदसि विलसदङ्करोदस्के द्यावापृथिवीव्यापिनीत्यर्थः / यदगारे यस्या नगर्या गृहेष्वित्यर्थः। जातावेकवचनं, निशि निखिलान् तिथीनेकिका एकाकिनी एकैवेत्यर्थः / 'एकादाकिनिच्चासहाय' इति चकारात् कप्रत्ययः। 'प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्ये'तीकारः / पूर्णिमा तिथी राकातिथिः / 'तदाद्यास्तिथयोरि'त्यमरः। अतिथिः सन् उपतस्थे अतिथिर्भूत्वा सङ्गतेत्यर्थः 'उपाद्देवपूजेत्यादिना सङ्गतिकरणे आत्मनेपदम् / स्फटिकभवनकान्तिनित्यकौमुदीयोगात् सर्वा अपि रात्रयोराकारात्रय इवासन्नित्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिभेदः॥ स्वच्छ तथा चमकते हुए रत्नोंसे बने हुए तथा ( प्रकाशमान होनेसे ) हँसते हुए मध्यभागरूप आकाश-पृथ्वीके मध्यभाग वाले जिस ( कुण्डिन नगरी ) के महलों में केवल पूर्णिमा तिथि रात्रिमें सब तिथियोंका अतिथि होकर निवास करती थी। [ कुण्डिनपुरीके ऊँचेऊँचे महल नीचे पृथ्वी तथा ऊपर आकाशको स्पर्श कर रहे थे तथा वे चमकते हुए स्फटिकमणिके बने हुए थे अत एव मध्यभागमें हँसते हुएके समान ज्ञात होते हुए उन महलोंमें सर्वदा ( रात्रि में भी ) प्रकाश रहता था जिसके कारण ऐसा ज्ञान होता था कि एकमात्र पूर्णिमा तिथि ही सब तिथियोंकी अतिथि होकर निवास करती हो ] // 76 / / सुदतीजनमज्जनार्पितैघुसृणैर्यत्र कषायताशया / न निशाऽखिलयापि वापिका प्रससाद अहिलेव मानिनी / / 77 // सुदतीति / यत्र नगर्यां शोभना दन्ता यासां ताः सुदत्यः स्त्रियः, अत्रापि विधानाभावात्रादेशश्चिन्त्य इति केचित् "अग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहेभ्यश्चेति चकारात् सिद्धि रित्यन्ये, सुदत्यादयः स्त्रीषु योगरूढाः, 'स्त्रियां संज्ञायामिति दनादेशात् साधव इत्यपरे. तदेतत्सर्वमभिसन्धायाह वामनः-'सुदत्यादयः प्रतिविधेया' इति / ता एव जना लोकाः तेषां मजनादवगाहादर्पितः क्षालितैः घुसृणैः कुङ्कुमैः कषायिताशया सुरभिताभ्यन्तरा भोगचिह्नः कलुषितहृदया च वाप्येव वापिका दीर्घिका महिला, 'ग्रहोऽनुग्रहनिर्बन्धाविति विश्वः। तद्वती दीर्घरोषा पिच्छादित्वादिलच दिवादिः / मानिनीस्त्रीणामीाकृतः कोपो'मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये' इत्युक्तलक्षणो मानः तद्वती नायिकेव अखिलया निशा निशया सर्वरात्रिप्रसादनेनेत्यर्थः। न प्रस. साद प्रसन्नहृदया नाभूत् ताहक क्षोभादिति भावः // 77 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) में सुदतियों ( सुन्दर दाँतवाली स्त्रियों ) के स्नानसे धुले हुए कुङ्कमरागोंसे कलुषित मध्यभाग वाली (कुछ मैले जलवाली, पक्षा०-दूषित चित्तवाली, या Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 113 कलुषित = रुष्ट तथा नहीं सोनेवाली ) बावली हठयुक्त मानिनी नायिका के समान सारी रातमें भी नहीं प्रसन्न ( स्वच्छ जलवाली, पक्षा०-खुश ) हुई। [ सपत्नी आदिके कुकुमादि रागसे चिह्नित पतिको देखकर दूषित चित्तवाली एवं रातमें नहीं सोनेवाली अतिहठी मानिनी नायिका पतिके सारी रात अनुनयादि करने पर भी जिस प्रकार नहीं खुश होती है, उसी प्रकार सुदतियोंके स्नान करते समय-धुले हुए स्तनादिके कुङ्कुमरागसे कलुषित जलवाली बावरी सारी रात बीतने पर भी निमल नहीं हुई ] // 77 / / क्षणनीरवया यया निशि श्रितवप्रावलियोगपट्टया / मणिवेश्ममयं स्म निर्मलं किमपि ज्योतिरवाह्यमीक्ष्यते' ||78 / / क्षणेति / निशि निशीथे क्षणं नीरवया एकत्र सुप्तजनत्वादन्यत्र ध्यानस्तिमितत्वान्निःशब्दमाश्रितः प्राप्तः वप्रावलिः योगपट्ट इव अन्यत्र वप्रावलिरिव योगपट्टो यथा सा तथोक्ता यया नगर्या मणिवेश्ममयं तद्रूपं निर्मलमबाह्यमन्तर्वति किमपि अवाङ्मनसगोचरं ज्योतिः प्रभा आत्मज्योतिश्च ईच्यते सेव्यते स्म / अत्र प्रस्तुतनगरीविशेषसाम्यादप्रस्तुतयोगिनीप्रतीतेः समासोक्तिः // 78 // रात्रिमें क्षणमात्र ( कुछ समय तक ) निःशब्द तथा चहारदिवारी रूप योगपट्टको धारण की हुई जो ( कुण्डिन नगरी) मणियोंके बने महलरूप निर्मल एवं अनिर्वचनीय आभ्यन्तर प्रकाशको देखती है / [अन्य भी कोई योग साधनेवाली योगिनी कुछ समयतक मौन धारण कर योगपट्टको पहनी हुई वाङ्मनसागोचर निर्मल आत्मलक्षण आभ्यन्तर ज्योतिको देखती है / अथवा-परमात्म-साक्षात्काररूप क्षण अर्थात् उत्सवसे सात्त्विक भावजन्य अश्रुजल को प्राप्त करनेवाली एवं योगपट्ट धारण की हुई...... ] / / 78 / / विल लास जलाशयोदरे कचन द्यौरनुबिम्बितेव या।। परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बानवलम्बिताम्बुनि // 7 // विललासेति / या नगरी परिखायाः कपटेन व्याजेन स्फुटं परितो व्यक्तं तथा स्फुरता प्रतिबिम्बनावलम्बितं मध्ये चागृह्यमाणं चाम्बु यस्मिन् तस्मिन् प्रतिबिम्बाक्रान्तमम्बु परितः स्फुरति प्रतिबिम्बदेशेन स्फुरति तेनैव प्रतिबिम्बादिति भावः क्वचन कुत्रचिजलाशयोदरे हृदमध्ये कस्यचित् हृदस्य मध्य इत्यर्थः / अनुबिम्बिता प्रतिबिम्बिता द्यौरमरावतीव विललासेत्युत्प्रेक्षा // 79 // ___ जो ( कुण्डिन नगरी ) खाईके कपटसे स्पष्ट स्फुरित होते हुए प्रतिबिम्बसे निराधार जल वाले कहीं जलाशयके बीचमें प्रतिबिम्ब हुए स्वर्ग के समान शोभती थी। [बड़े भारी जलाशयके बीच में प्रतिबिम्बित स्वर्गरूप छोटी वस्तुके समान खाईके जलमें स्थित वह कुण्डिनपुरी शोभती थी ] // 79 // 1. 'मिज्यते' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 नैषधमहाकाव्यम् / व्रजते दिवि यद्गृहावलीचलचेलाञ्चलदण्डताडनाः / व्यतरनरुणाय विश्रमं सृजते हेलियालिकालनाम् / / 80 // व्रजत इति / यस्यां नगयों गृहावलीषु चलाः चञ्चलाः चेलाञ्चलाः पताकाग्राणि ता एव दण्डास्तैः ताडनाः कशाघाता इत्यर्थः / ताः को दिवि व्रजते खे गच्छते हेलिहयालेः सूर्याश्वपङ्क्तेः 'हेलिरालिङ्गने रवावि'ति वैजयन्ती। कालनां चोदनां सृजते कुर्वते अरुणाय सूर्यसारथये विश्रमं स्वयं तत्कार्यकरणाद्विश्रान्ति 'नोदात्तोपदेशे'त्यादिना घनि वृद्धिप्रतिषेधः / व्यतरन् ददुः। अत्र हेलिहयालेश्चेलाञ्चलदण्डताडनासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः, तेन गृहाणामर्कमण्डलपर्यन्त. मौन्नत्यं व्यज्यत इति अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 8 // जिस ( कुण्डिनपुरी) की गृहपतियोंके चञ्चल पताकाग्र वस्त्ररूपी कोड़ेके आघात, आकाशमें गमन करते हुए तथा सूर्यके घोड़ोंको हाँकते हुए अरुणके लिए विश्राम देते हैं / [आकाशमें गमन करता हुआ सूर्य-सारथि अरुण सूर्यके घोड़ोंको कोड़ेसे मारकर हांकता है, अत एव इस कुण्डिनपुरीके ऊँचे-ऊँचे महलोंके ऊपर लगी हुई पताकाओंके वस्त्राग्रवायुसे चञ्चल होकर स्वयं घोड़ोंको प्रेरित करते ( हांकते ) हैं, जिससे अरुणको उतने समय तक घोड़ोंको नहीं हांकनेसे विश्राम मिल जाता है। इस कुण्डिनपुरीमें बहुत ऊँचेऊँचे महल पताकाओंसे सुशोभित हैं ] // 80 // क्षितिगर्भधराम्बरालयस्तलमध्योपरिपूरिणां पृथक् / जगतां खलु याऽखिलाद्भुताऽजनि सारैर्निजचिह्नधारिभिः // 81 / / क्षितीति / तलमध्योपरि अधोमध्योर्ध्वदेशान् पूरयन्तीति तत्पूरिणां जगतां पातालभूमिस्वर्गाणां पृथगसङ्कीर्णं यानि निजानि प्रतिनियतानि निजचिह्नानि निध्यन्नपानस्रकचन्दनादिलिङ्गानि धारयन्तीति तद्धारिभिः तथोक्तैः सारैरुस्कृष्टैः तितिकुहरे धरायां भूपृष्ठे अम्बरे आकाशे च ये आलया गृहाः तैः भूम्यन्तर्बहिः / शिरोगृहैरित्यर्थः।या नगरी अखिला कृत्स्ना अद्भुता चित्रा अजनि जाता / 'दीपजने'त्यादिना जनेः कर्त्तरि लुङ्, च्लेश्चिणादेशः / अत्र क्षितिगर्भादीनां तलमध्योपरि जगत्सु सतां तञ्चिह्नानाञ्च यथासंख्यसम्बन्धात् यथासंख्यालङ्कारः। एतेन त्रैलोक्यवैभवं गम्यते // 81 // ___ जो ( कुण्डिनपुरी ] पृथ्वीके नीचे ( पाताल ), पृथ्वी पर ( मर्त्यलोक ) और आकाश (स्वर्गलोक ) में स्थिर पाताल लोक, मर्त्यलोक और स्वर्गलोकको पूर्ण करनेवाले लोकोंके पृथक्-पृथक् अपने चिह्नों ( पाताललोकके कोष, भूतल मर्त्यलोकके अन्न-पान तथा आकाश = स्वर्गलोकके पुष्पमाला; चन्दनादि रूप ) को धारण करने ( सारभूत पदार्थों) से सबसे आश्चर्यजनिका प्रतीत होती थी। ( जिस प्रकार पाताल लोक ( भूमिके भीतर-तहखानों) में रत्न-सुवर्णादि कोष, भूतल पर अन्नादि तथा आकाश ( ऊपर ) में पुष्प-माला-चन्द Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः समः। 115 नादि रहता है; उसी प्रकार उस नगरीके महलोंके भूतलके निचले भाग वाले भवनों ( तहखानों ) में रत्न-सुवर्णादि कोष, भूतल वाले भवनों में अन्नादि तथा ऊपर वाले भागों ( अट्टालिकाओं ) के भवनों में विलास-सामग्री पुष्पमाला, चन्दनादि रहते हैं? इस प्रकार तीनों लोकोंके मारभूत पदार्थोको धारण करनेवाली त्रिलोक-विभव-सम्पन्ना एक ही नगरी आश्चर्य उत्पन्न करती थी ] // 81 // दधदम्बुदनीलकण्ठता वहदत्य छसुधोज्ज्वलं वपुः / कथमृच्छतु यत्र नाम न भितभृन्मन्दिरीमन्दुमोरनाम् / / 82 / / दधदिति / यत्र नगर्यामम्बुदैरम्बुदवनीलः कण्ठ: शिखरोपकण्ठः गजश्च यस्य तस्य भावस्तत्तां 'कण्ठो गले सन्निधान' इति विश्वः / दधत् अच्छया सुधया लेपनद्रव्येण च सुधावदमृतवज्ज्वलं वपुर्वहत् 'सुधा लेपोऽमृतं सुधे'त्यमरः / क्षितिभृ. न्मन्दिरं राजभवनमिन्दुमौलितामिन्दुमण्डलपर्यन्त शिखरत्वं कथं नाम न ऋच्छतु ? गच्छत्वेवेत्यर्थः। राजभवनस्य तादृगौन्नत्यं युक्तमिति भावः / अन्यत्र नीलकण्ठस्य इन्दुमौलित्वमीश्वरत्वं च युक्तमिति भावः / अत्र विशेषणविशेष्याणां श्लिष्टानामभिधायाः प्रकृतार्थमात्र नियन्त्रणात् प्रकृतेश्वरप्रतीतेः ध्वनिरेव // 81 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) में मेघके द्वारा नीलकण्ठत्व (नीले कण्ठके भाव, पक्षा०नीले मध्य भाग वालेका भाव ) को धारण करता हुआ तथा निर्मल चूना ( कलई ) से उज्ज्वल शरीर ( भबन ) को धारण करता हुआ राजभवन चन्द्रशेखरत्व (शिवभाब, चन्द्रमा है मस्तक-ऊपरमें जिसके ऐसे भाव ) को क्यों नहीं प्राप्त करे ? / [शिवजीका कण्ठ नीला है तथा शरीर शुभ्र है एवं उनके मस्तकमें चन्द्रमा विराजमान हैं, उसी प्रकार इस नगरीके राजमहलको भी अत्यन्त ऊँचा होनेसे उसके मध्यभागमें मेघके रहनेसे नीलकण्ठ, चूनेसे पुते होनेसे शुभ्र शरीरवाला तथा ऊपरमें चन्द्रमाको धारण करनेसे शिवभाव को प्राप्त करना उचित ही है ] / / 82 / / बहुरूपकशालभनि कामुखचन्द्रेषु कलङ्करवः / यदनेककसौधकन्धराहरिभिः कुक्षिातीता इव // 23 // बह्विति / बहुरूपकाः भूयिष्टसौन्दर्याः, शैषिकः कप्रत्ययः / तेषु शालभञ्जिकानां कृत्रिमपुत्रिकाणां मुखचन्द्रेषु कलङ्करङ्कवः चन्द्रत्वात् सम्भाविताः कलङ्कमृगाः ते यस्यां नगर्यामनेकेषां बहूनां सौधानां कन्धरासु कण्ठप्रदेशेषु ये हरयः सिंहाः तैः कुक्षिगतीकृता इव ग्रस्ताः किमित्युत्प्रेक्षा मुखचन्द्रागां निष्कलङ्कत्वनिमित्तात् , अन्यथा कथं चन्द्रे निष्कलङ्कतेति भावः // 83 // __ अनेक आकृति वाली ( या-अतिशय सुन्दर स्तम्भादिमें निर्मित हाथी-दाँत आदिकी बनी हुई ) पुतलियोंके मुखरूपी चन्द्रोंमें (सम्भावित) कलङ्क मृगोंको मानो जिस ( कुण्डिन पुरी) के बहुत-से महलोंके स्कन्ध ( मध्य ) भागमें बनाये गये सिंहोंने खा लिया है, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 नैषधमहाकाव्यम् / ऐसा ज्ञात होता हो / [उक्त पुतलियोंके मुखचन्द्रमें कलङ्क मृग होना चाहिये, किन्तु वे मृग मुखचन्द्रोंमें नहीं हैं, अत एव ज्ञात होता है कि महलोंके मध्यभागमें बने सिंहोंने उन मृगों को अपने उदरमें ले लिया-खा लिया है ] // 83 // बलिसद्मदिवं स तथ्यवागुपरि स्माह दिवोऽपि नारदः / अधराय कृता ययेव सा विपरीताऽजनि भूमिभूषया // 84 // बलीति / स प्रसिद्धः तथ्यवाक् सत्यवचनः 'नारदः बलिसद्मदिवं पातालस्वर्ग दिवो मेरुस्वर्गादप्युपरिस्थितामुत्कृष्टाञ्चाह स्म उक्तवान् / अथेदानी भूमिभूषया यया नगर्या अधरा न्यूना अधस्ताच्च कृतेवेत्युत्प्रेक्षा सा बलिसद्मद्यौविपरीता नारेदोक्तविपरीता अजनि / सर्वोपरिस्थितायाः पुनरधः स्थितिः वैपरीत्यम् // 84 // सत्यवक्ता नारद मुनिने 'पातालरूप स्वर्ग, स्वर्गसे भी ऊपर (पक्षा०-अधिक रमणीय ) है' यह ठीक ही कहा था, क्योंकि पृथ्वीको भूषणरूपिणी जिस ( कुण्डिनपुरी ) से नीचे ( अधो भागमें, पक्षा०-अपनी शोभासे हीन ) किया गया वह ( पातालरूपी स्वर्ग ) विपरीत-सा हो गया / [ पहले भूलोक तथा स्वर्गलोकसे पाताल ऊपर था, किन्तु इस समय अतिरमणीयतासे हीन होनेके कारण विपरीत हो गया। स्वर्गलोकसे पाताललोक सुन्दरतामें अधिक है, इस कारण 'वह स्वर्गसे ऊपर है' ऐसा नारदने विष्णुपुराणमें कहा है और अब भूलोकस्थ इस कुण्डिन नगरीसे सौन्दर्य में हीन किये जानेके कारण वह पाताललोक भी नीचे ( हीन ) हो गया / स्वर्ग तथा पाताल-दोनों लोकोंसे यह कुण्डिनपुरी रमणीय है / / 84 / / प्रतिहट्टपथे घरट्टजात् पथिकाहानदसक्तुसौरभेः / / कलहान्न घनान यदुस्थितादधुनाप्युज्झति घर्घरस्वरः / / 85 // प्रतीति / पन्थानं गच्छन्तीति पथिकाः तेषामाह्वानं ददाति तथोक्तमाह्वकम् अध्वानं गच्छतामाकर्षकमित्यर्थः। सक्तूनां सौरभं सुगन्धो यस्मिन् प्रतिघट्टपथे प्रत्यापणपथे। 'अव्ययं विभक्ती'त्यादिना वीप्सायामव्ययीभावः / 'तृतीयासप्तम्योबहुल'मिति सप्तम्या अमभावः / घरट्टाः गोधूमचूर्णग्रावाणः तज्जात् यस्या नगर्याः उत्थितात् कलहात् घर्घरस्वनः निर्झरस्वरः कण्ठध्वनिः घनान् मेघान् अधुनापि नोज्झति न त्यजति / सर्वदा सर्वहट्टेषु घरट्टा मेघवानं ध्वनन्तीति भावः। अत्र घनानां घरट्टकलहासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिः। तथा च घर्घरस्वनस्य तद्धेतुकत्वोत्प्रेक्षा, व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्योत्प्रेक्षेति सङ्करः // 85 // प्रत्येक बाजार के मार्गों में चक्कियोंसे निकला हुआ सत्तुओंके सुगन्धवाला घघर शब्द (बरसात आनेसे घर पर जाते हुए ) पथिकोंको आकृष्ट करता था, उधर मेघ गरज-गरज 1. 'भूविभूषया' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'स्वर्गादप्यतिरमणीयानि पातालानि' इति विष्णुपुराणे नारदवचनमिति 'प्रकाश'कृत् / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सगः 117 कर उन्हें शीघ्र घर पहुँचनेके लिए प्रेरित करता था, इस प्रकार चक्कियों तथा मेघोंके साथ कलह होता था, वह भी कलहरूप घर्घर शब्द आज भी मेघोंको नहीं छोड़ रहा है / / 85 // वरणः कनकस्य मानिनी दिवमलादमराद्रिरागताम / घनरत्नकवाटपक्षतिः परिरभ्यानुनयन्नुबास याम || 86 / / वरण इति / कनकस्य सम्बन्धी वरणः तद्विकारः प्राकारः स एवामराद्रिमरुः यां नगरीमेव मानिनी कोपसम्पन्नामत एव अङ्कान्निजोत्सङ्गादागतां भूलोकं प्राप्तां दिव. मरावतीं घने निबिडे रत्नानां कवाटे रत्नमयकवाटे एव पक्षती पक्षमूले यस्य स सन् परिरभ्य उपगूह्य मेरोः पक्षवत्त्वात्पक्षतिरूपत्वमनुसरन् अनुवर्तमानः उवास। कामिनः प्रणयकुपितां प्रेयसीमाप्रसादमनुगच्छन्तीति भावः / रूपकालङ्कारःस्फुट एव, तेन चेयं नगरी कुतश्चित् कारणादागता द्यौरेववरणश्च स्वर्णादिरेवेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते। ___ मानिनी ( अत एव रुष्ट होकर ) अङ्क अर्थात् क्रोडको छोड़कर ( भूलोकपर ) आयी हुई दिव अर्थात् स्वर्गरूपिणी जिस ( कुण्डिनपुरी) नगरीको सघन रत्नोंसे बने हुए किवाड़रूप दो पक्षोंको धारण करता हुआ स्वर्णसे बने चहारदिवारीरूप सुमेर पर्वत आलिङ्गन कर प्रसन्न करता हुआ निवास कर रहा है / / [ 'दिव' ( स्वर्गपुरी ) पहले सुमेरु पर्वतके अङ्कमें रहती थी, किन्तु किसी कारणवश मानिनी होनेसे रुष्ट होकर वह उसके अङ्कको छोड़कर यहां पृथ्वीपर आ गयी हैं और वहीं कुण्डिनपुरी है, अत एव अपनी प्रेयसीको प्रसन्न करने के लिये सुवर्णमय चहारदिवारीरूप होकर बहुरत्नरचित कपाटरूप पङ्खोंको धारण करता हुआ सुमेरुपर्वत भी पृथ्वीपर आकर अपनी प्रेयसी कुण्डिननगरी रूपिणी 'दिव' का आलिङ्गन कर उसे प्रसन्न करता हुआ यहां निवास कर रहा है। कुण्डिनपुरीके सुवर्णमय प्राकार सुमेरुतुल्य, उसके विशाल रत्नमय फाटक उस सुमेरुके पङ्खतुल्य तथा कुण्डिननगरी स्वर्गतुल्य है ] // 86 / / अनलैः परिवेषमेत्य या ज्वलदर्कोपलवप्रजन्मभिः / उदयं लयमन्तरा रवेरवहबाणपुरीपराद्धथताम् / / 87 // अनलैरिति / या नगरी रवेरुदयं लयमस्तमयं चान्तरा तयोर्मध्यकाल इत्यर्थः / 'अन्तरान्तरेण युक्त' इति द्वितीया। ज्वलतामकाँशुसम्पर्कात् प्रज्वलतामोपलानां वप्राजन्म येषान्तः सूर्यकान्तैः प्राकारजन्यः अनलेः परिवेषमेत्य परिवेष्टनं प्राप्य बाणपुर्याः बाणासुरनगर्याः शोणितपुरस्य पराद्धर्थतां श्रेष्ठतामवहत् / अत्रान्यधर्मस्यान्येन सम्बन्धासंभवात्तादृशीं पराद्धर्यतामिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनालङ्कारः // 87 // ___ जो ( कुण्डिन नगरी) जलते हुए सूर्यकान्तमणिके चहारदिवारियोंसे उत्पन्न हुई अग्निके द्वारा सूर्यके उदय तथा अस्तके मध्य में अर्थात् सूर्योदयसे सूर्यास्त तक बाणासुरको नगरी ( शोणितपुर ) की ( मा-के समान ) श्रेष्ठताको धारण करती है / [ पौराणिक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / कथा-शिवभक्त बाणासुरकी शोणितपुर नामकी नगरी भी शिवजीके प्रसादसे अग्निपरिवेष्टित रहती थी, ऐसा पुराणोंमें उल्लेख मिलता है ] // 87 / / बहुकम्बुमाणवराट कागणनाटत्करककटोत्करः / हिमबालुकयाऽच्छ बालकः पटु दध्वान यदापणाणवः / / 88 / / बह्विति / बहवः कम्बवः शङ्खा मणयश्च यस्मिन् सः वराटिकागणनाय कपदिका. संख्यानाय अन्तिः तिर्यक् प्रचरन्तः कराः पाणय एव कर्कटोत्कराः कुलीरसंघाः यस्मिन् सः, हिम्बालुक्या कर्पूण अरबबालुकः स्वच्छसिकतः यस्याः पुरः आपणो विपणिरेवार्णवः पटु धीरं दध्वान ननाद, 'कपर्दो वराटिके ति हलायुधः। 'शङ्खः स्यात् कम्बुरस्त्रियामि'त्यमरः / 'सिताभ्रो हिमबालुका', स्यात्कुलीरः कर्कटक'इति चामरः // बहुत-से शङ्ख तथा मणियोंवाला, कौड़ियोंको गणनाके लिए चञ्चल हाथरूप केकड़ों वाला तथा कर्पूर-धूलिरूप श्वेत बालुओं वाला जिस ( कुण्डिनपुरी ) का बाजाररूपी समुद्र ( लोगोंके कोलाहलसे ) सर्वदा गरजता था // 88 // यदगारघटाकुटिमसदिन्दूपलतान्दलापया। मुमुचे न पतिव्रतौचिती प्रतिचन्द्रोदयमभ्रगङ्गया / / 8 / यदिति / यस्याः नगर्याः अगारघटासु गृहपतिषु अट्टानामहालिकानां कुट्टिमेषु निबद्धभूमिषु, 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूरि'त्यमरः / नवद्भिरिन्दुसम्पर्कात् स्यन्दमानरिन्दूपलैश्चन्द्रकान्तः हेतुभिः तुन्दिलाः प्रवृद्धा आपो यस्याः तया, तुन्दादिभ्य इलच 'ऋवपूरि'त्यादिना समासान्तः / अभ्रगङ्गया मन्दाकिन्या, 'मन्दाकिनी वियद्गङ्गे'त्यमरः / चन्द्रोदये चन्द्रोदये प्रतिचन्द्रोदयं वीप्सायामव्ययीभावः। पतिव्रतानामौ. चिती औचित्यं ब्राह्मणादित्वाद् 'गुणवचने'त्यादिना प्यञप्रत्ययः, षिद्गौरादिभ्यश्चेति ङीष् / स च 'मातारि षिच्चेति षित्वादेव सिद्ध मातामहशब्दस्य गौरादिपाठेना. नित्यत्वज्ञापनाद्वैकल्पिकः / अत एव वामनः-प्यञः पित्कार्य बहुलमिति स्त्रीनपुंसकयोर्भावक्रिययोः प्यञ् / क्वचिच्च बुन 'औचित्यमौचिती मंत्र्यं मैत्री वुञ् प्रागुदाहृतमि'त्यमरश्च / न मुमुचे न तत्यजे / भर्तुः समुद्रस्य चन्द्रोदये वृद्धिदर्शनात्तस्य अपि तथा वृद्धिरुचिता / 'आर्ते मुदिते हृष्टा प्रोषिते मलिना कृशा / मृते हि म्रियते या स्त्री सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता // ' इति स्मरणादिति भावः / अत्राभ्रगङ्गायाः यदगारेत्यादिना विशेषणार्थासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तथा च यदगाराणामतीन्दु. मण्डलमौनत्यं गम्यते तदुत्थापितां चेयमस्याः पातिव्रत्यधर्मापरित्यागोत्प्रेक्षति सङ्करः, सा च व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या // 89 // प्रत्येक चन्द्रोदयमें जिस ( कुण्डिनपुरी) के भवन-समूहों के ऊपरी छतमें जड़े गये बहते हुए चन्द्रकान्त मणियोंसे पूर्ण जलवाली आकाशगङ्गाने अपने पतिव्रताधर्मके औचित्य को नहीं छोड़ा। [चन्द्रमाके उदय होनेपर हर्षसे समुद्र जल बढ़ जाता है, अत एव Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 211 समुद्र की पत्नी आकाश गङ्गा भी कुण्डिनपुरीके महलोंके छतों पर-जड़े हुए चन्द्रकान्त मणियों के पसीजनेसे जलपूर्ण होकर अपने पति समुद्र के हर्षसे बढ़ने पर स्वयं भी हर्षसे बढ़कर पातिव्रत धर्मका पालन करती है, पतिके हर्ष होनेपर हर्षित होना तथा दुःखी होने पर दुःखी होना पतिव्रता स्त्रीका धर्म है। कुण्डिनपुरीके महलोंके छतमें चन्द्रकान्तमणि जड़े हुए हैं और चन्द्रोदय होने पर उनके पसीजनेसे बहते हुए पानीसे आकाश गङ्गा जलपूर्ण हो जाती है, अत एव आकाश गङ्गासे भी ऊँचे इस कुण्डिनपुरीके छतोंका होना सूचित होता है ] // 89 // रुचयोऽस्तमितम्य भास्वतः स्वलिता यत्र निराल पाः खलु / अनुमागमविलेपारण कश्मीरजपण्णाश्रयः / / 6 / / रुचय इति / यत्र नगर्यामनुसायं प्रतिसायं वीप्सायामव्ययीभावः। विलेपना. पणेषु सुगन्धद्रव्यनिपद्यासु कश्मीरजानि कुङ्कमान्येव पण्यानि पणनीयद्रव्याणि तेषां वीथयः श्रेणयः अस्तमितस्यास्तङ्गतस्य भास्वतः सम्बन्धिन्यः स्खलिताः अस्तमयक्षोभात् च्युताः अतएव निरालया निराश्रया रुचयः प्रभाः अभुः खलु, कथञ्चिप्रच्युताः सायन्तनार्कत्विष इव भान्ति स्मेत्यर्थः / कुङ्कमराशीनां तदा तत्सावादियमुत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या / भातुर्लङि झेजसादेशः // 90 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) में प्रत्येक सायकालमें लेप-सामग्रियोंके बाजार में बिकने वाले कुङ्कुमके मार्ग अस्तङ्गतसूर्यकी गिरी हुई निरवलम्ब किरणोंके समान शोभती थीं। [ सायंकालमें कुण्डिनपुरीके लेप विकनेवाले बाजारमें कुङ्कुम बिकनेवाले मार्ग गिरे हुए कुङ्कुमोसे रजित होनेके कारण ऐसे प्रतीत होते थे कि अस्तगत सूर्यकी लाल-लाल किरणे निराश्रय होनेसे भूमिपर गिर गयी हैं ] // 90 // विततं वणिजापणेऽखिलं पणितुं यत्र जनेन वीक्ष्यते / मुनिनेव मृकण्डुसूनुला जगतीवस्तु पुरोदरे हरेः / / 61 / / विततमिति / यत्र नगर्यां वणिजा वणिग्जनेन पणितं व्यवहर्तमापणे पण्यवीथ्यां विततं प्रसारितमखिलं जगत्यां लोके स्थितं वस्तु पदार्थजातं पुरा पूर्व हरेविष्णोरुदरे मृकण्डुसूनुना मुनिना मार्कण्डेयेनेव जनेन लोकेन वीक्ष्यते विष्णूदरमिव समस्तवस्त्वाकरोऽयमवभासत इत्यर्थः / पुरा किल मार्कण्डेयो हरेरुदरं प्रविश्य विश्वं तत्राद्राक्षीदिति कथयन्ति // 91 // जिस ( कुण्डिनपुरी ) में व्यापारियोंकी दुकानों पर देखने के लिए फैलायी हुई समस्त वस्तुओंको लोग उस प्रकार देखते हैं; जिस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने पहले विष्णु भगवान्के उदर में पृथ्वीको समस्त वस्तुओंको देखा था / [प्रत्येक दुकानदारकी दुकान में संसार भरकी समस्त वस्तुएँ रक्खी हुई थीं ] // 91 // Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 नैषधमहाकाव्यम् / पौराणिक कथा-पहले मार्कण्डेय मुनिने विष्णु भगवान्से वरदान पाकर उनके उदर में प्रविष्ट होकर संसार को देखा था। सममेणमदैयदापणे तुलयन् सौरभलोभनिश्चलम् / पणिता न जनारवैरवैदपि कूजन्तमलिं मलीमसम् / / 12 // सममिति / यस्या नगर्या आपणे सौरभलोभनिश्चलं गन्धग्रहणनिष्पन्दं ततः क्रियया दुर्बोधमित्यर्थः / मलीमसं मलिनं सर्वाङ्गनीलमित्यर्थः / अन्यथा पीतमध्यस्यालेः पीतिम्नैव व्यवच्छेदात्, अतो गुणतोऽपि दुर्घहमित्यर्थः / 'ज्योत्स्नातमिस्र'त्यादिना निपातः / अलिं भृङ्गमेणमदैः समं कस्तूरीभिः सह तुलयन तोलयन पणिता विक्रेता कूजन्तमपि जनानामारवैः कलकले नावेत् , शब्दतोऽपि न ज्ञातवान् इत्यर्थः / इह निश्चलस्याले गुञ्जनं कविना प्रौढवादेनोक्तमित्यनुसन्धेयम् / अत्राले. नल्यादेणमदोक्तेः सामान्यालङ्कारः। 'सामान्यं गुणसामान्ये यत्र वस्त्वन्तरैकते'ति लक्षणात् / तेन भ्रान्तिमदलङ्कारो व्यज्यते // 92 // जिस ( कुण्डिनपुरी ) के बाजार ने कस्तूरीके साथ, सुगन्धके लोभसे नहीं उड़ते हुए तथा गुञ्जन करते हुए काले (कस्तूरीके रंगवाले) भौरोंको कस्तूरीके साथ तौलते हुए दुकानदारको. खरीददार लोगोंके कोलाहलसे नहीं जान सका / [ जब दुकानदार कस्तूरी तौलने लगा तब उसके सुगन्धसे आकृष्ट भौंरा उसके कांटेके पलड़े पर बैठकर निश्चल हो गया, तथा वह यद्यपि गूज रहा था, किन्तु लोगोंके कोलाहलके कारण गूजना भी ज्ञात नहीं हुआ एवं समान रंग होनेसे कस्तूरीके साथ भौरेको भी दूकानदारने तौल दिया और इस बातको खरीददार नहीं जान सका / भौरे घूमते रहने पर ही गूजते हैं, बैठने पर नहीं, तथापि यहां पर महाकविने बैठे हुए भौरेका गूजना प्रौढिवश कहा है ] // 92 / / विकान्तमयन सेतुना सकलाहज्वेलनाहितोष्मणा / शिशिरे निशि गच्छतां पुरा चरणौ यत्र दुनोति नो हिमम् / / 63 / / रबिकान्तेति / यत्र नगाँ सकलाहः कृत्स्नमहः 'राजाहःसखिभ्यष्टच' / 'रात्राहाहाः पुंसी ति पुंल्लिङ्गता, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, योगविभागात्समासः / ज्वलनेन तपनकराभिपातात्प्रज्वलनेन आहितोष्मणा जनितोष्मणा जनितोष्णेन रविकान्तमयेन सेतुना सेतुसदृशेनाध्वना सूर्यकान्तकुटिमाध्वनेत्यर्थः / गच्छता सञ्चरतां चरणौ चरणानित्यर्थः / 'स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टा जातिः प्रायेणे'ति जाती द्विवचनम् / शिशिरे शिशिरतौं तत्रापि निशि हिमं पुरा नो दुनोति नापीडयत् / 'यावत्पुरानिपातयोर्लट' / अत्र सेतोरूष्मासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तत्रोत्तरस्याः पूर्वसापेक्षत्वात् सङ्करः // 93 // जिस ( कुण्डिनपुरी ) में पहले दिनभर ( सूर्य-किरण-सम्पर्कसे निकली हुई ) अग्निसे उष्ण, सूर्यकान्तमणियोंके बने हुए पुलसे शिशिर ऋतुमें जानेवाले लोंगोंके चरणोंको शीत पीड़ित नहीं करता था // 93 / / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 121 विधुदीधितिजेन यत्पथं पयसा नैषधशीलशीतलम् / / शशिकान्तमयं तपागमे कलितीव्रस्त पति स्म नातपः // 14 // विध्विति / विधुदीधितिजेन इन्दुकरसम्पर्कजन्येन पयसा सलिलेन नैषधस्य नलस्य शीलं वृत्तं स्वभावो वा तद्वच्छीतलं शशिकान्तमयं यत्पथं यस्या नगर्याः पन्थानं तपागमे ग्रीष्मप्रवेक्षे कलितीव्रः कलिकालवच्चण्डः आतपः न तपति स्म / नलकथायाः कलिनाशकत्वादिति भावः / अत्र नगरपथस्य इन्दूपलपयःसम्बन्धोक्रतिशयोक्तिः, तत्सापेक्षत्वादुपमयोः सङ्करः // 94 // चन्द्रकान्त मणियों से बने हुए ( अत एव ) चन्द्र-किरणों ( के सम्पर्क ) से उत्पन्न पानीसे नलके शीलके समान शीतल जिस ( कुण्डिनपुरी) के मार्ग को कलियुगके समान तीक्ष्ण धूपने गर्म नहीं किया / [ दिनमें गर्म हुआ भी जिस नगरी का मार्ग रात्रिमें चन्द्रकान्तमणियोंके बने हुए होनेसे चन्द्रकिरणोंके सम्पर्कके कारण बहे हुए जल से ठण्डा हो जाता था तथा 'नलकथा कलि 'दोषका नाशक है' यह भी ध्वनित होता है ] / / 94 / / परिखावलयच्छलेन या न परेषां ग्रहणस्य गोचरा / फणिभाषितभाष्यफक्किका विषमा कुण्डलनामवापिता / / 65 // परिखेति / परिखावलयच्छलेन परिखावेष्टनव्याजेन कुण्डलनांमण्डलाकाररेखामवापिता परेषां शत्रूणां ग्रहणस्याक्रमणस्य अन्यत्र अन्येषां ग्रहणस्य ज्ञानस्य न गोचरा अविषया या नगरी विषमा दुर्बोधा फणिभाषितभाष्यफक्किका पतञ्जलिप्रणीतमहाभाष्यस्थकुण्डलिग्रन्थः तद्वदिति शेषः। अत्र नगर्याः कुण्डलिग्रन्थत्वेनोस्प्रेक्षा // सा च परिखावलयच्छलेनेति अपह्नवोत्थापितत्वात् सापह्नवा व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या // 95 // खाईके घेरेके कपटसे कुण्डलित ( घिरी हुई, अत एव ) शेषनाग ( के अंशावतार पतअलि ) से कथित 'महाभाष्य' ग्रन्थकी फक्किका के समान विषम (अशेय, पक्षा०-अप्रवेश्य ) जिस ( कुण्डिनपुरी ) को दूसरोंने नहीं जाना ( पक्षा०-वशमें नहीं किया ) / [ शेषनागके अवतार श्री पतञ्जलि भगवान् से रचे भाष्य में कुछ ऐसे स्थल हैं; जिनके वास्तविक आशयका ज्ञान नहीं होनेसे उन्हें वररुचिने घेरकर उनका दुज्ञेयत्व सूचित कर दिया है, इसी प्रकार इस कुण्डिननगरीके चारों ओर ऐसी खाई है कि इसे कोई भी शत्रु अपने वश में नहीं कर सकता अत एव यह नगरी उस भाष्य की फक्किकाके समान दूसरोंसे अग्राह्य है ] // 95 // मुखपाणपदाक्षिण पङ्कजं रचिताऽङ्गेष्वपरेषु चम्पकैः / स्वयमादित यत्र भीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियम् / / 66 / / 1. तदुक्तम् - 'कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' इति / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 नैषधमहाकाव्यम् / मुखेति / यत्र नगर्यां मुखञ्च पाणी च पदे च अक्षिणी च यस्मिन् तस्मिन् प्राण्यङ्गत्वाद् द्वन्द्वैकवद्भावः / पङ्कजैः रचिता सृष्टा अपरेषु मुखादिव्यतिरिक्तेप्वङ्गेषु चम्पकैश्चम्पकपुष्पैः रचिता सर्वत्र सादृश्याद्वयपदेशः / भीमजा भैमी स्वयं स्मरपूजाकुसुमस्त्रजः श्रियं शोभामादित आत्तवती / ददातेर्लङि 'स्थाध्वोरिञ्चेतीत्वं 'हस्वादङ्गादिति सलोपः / अत्र अन्यश्रियोऽन्यस्यासम्भवात् श्रियमिव श्रियमिति साहश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः / तथा तदङ्गानां पङ्कजाद्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिः / तदुस्थापिता चेयं निदर्शनेति सङ्करः // 96 // जिस ( कुण्डनपुरी) में मुख, हाथ, पैर तथा नेत्रोंमें कमलोंसे तथा शेष अङ्गों में चम्पक पुष्पोंसे रची गयी दमयन्तीने काम-पूजा-सम्बन्धिनी पुष्पमालाकी शोभाको स्वयमेव ग्रहण किया। [ दमयन्तीके मुख, हाथ, पैर तथा नेत्र कमल-पुष्पतुल्य और शेष अङ्ग चम्पक-पुष्पतुल्य थे, ऐसी दमयन्ती ही कामपूजा-सम्बन्धिनी पुष्पमालाके स्थान में हो गयी। कमलादि अनेकविध पुष्पोंसे रचित मालाके समान दमयन्तीके द्वारा कामको प्रसन्न किया जाता था अर्थात् उसके द्वारा कामोद्दीपन होता था ] / / 96 / / जघनस्तनभारगौरवाद्वियदालम्ब्य विहतुमक्षमाः। ध्रुवमत्सरसोऽवतीर्य यां शतमध्यामत तत्सखी जनः / / 67 / / जघनेति / जघनानि च स्तनौ च जघनस्तनं, प्राण्यङ्गत्वाद् द्वन्द्वकवद्भावः / तदेव भारः तस्य गौरवात् गुरुत्वाद्वियदालम्ब्य विहर्तुमक्षमाः शतं शतसंख्याकाः 'विंशत्याद्याः सदैकत्वे संख्याः संख्येयसंख्ययोरि'त्यमरः / अप्सरसोऽवतीर्य स्वर्गादागत्य तत्सखीजनः सख्यः जातावेकवचनम् / यो नगरीमध्यासत अध्यतिष्ठन् , 'अधिशीङस्थासां कम ति कर्मत्वं ध्रवमित्युत्प्रेक्षा। अप्सर-कल्पाः शतं सख्य एनामुपासत इत्यर्थः // 97 // जघनों तथा स्तनोंके बोझके भारीपन से ( शून्य ) आकाशका अवलम्बन कर बिहार करने में असमर्थ-सी सैकड़ों अप्सराएँ ( आकाशसे भूतलपर) उतरकर उस दमयन्तीको सखियां होकर (जिस कुण्डिनपुरी) में रहती थीं [ स्वर्गीय अप्सरारूप ही दमयन्तीकी सैकड़ों सखियां थीं ] // 97 // स्थितिशालिसमस्तवर्णतां न कथं चित्रमयी बिभर्तु या ? | मदरभेदमुपैतु या कथं कलितानल्पमुखारवा न वा ? // 8 // स्थितीति / चित्रमयी आश्चर्यप्रचुरा आलेख्यप्रचुरा च, 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रमि'त्यमरः / या नगरी स्थित्या मर्यादया स्थायित्वेन च शालन्ते ये ते समस्ता वर्णा ब्राह्मणादयः शुक्लादयश्च यस्याः तस्या भावस्तत्तां “वर्णो द्विजादौ शुक्लादावि'त्यमरः / कथं न बिभर्तु बिभवेत्यर्थः / कलितः प्राप्तः अनल्पानां बहूनां मुखानामारवो बहुमुखानां ब्रह्ममुख-पञ्चमुख-षण्मुखानां च आरवः शब्दो यस्याः सा या पुरी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 द्वितीयः सर्गः स्वरस्य ध्वनेर्भेदं नानास्वं स्वः स्वर्गादभेदं च कथं वा नोपैतु उपैस्वेवेत्यर्थः। उभयत्रापि सति धारणे कार्य भवेदेवेति भावः / अत्र केवलप्रकृतश्लेषालङ्कारः उभयोरप्यर्थयोः प्रकृतत्वात् / किन्तु एकनाले फलद्वयवदेकस्मिन्नेव शब्दे अर्थद्वयप्रतीतेरर्थश्लेषः प्रथमार्धे / द्वितीये तु जतुकाष्ठवदेकवद्भूताच्छब्दद्वयादर्थद्वयप्रतीतेः शब्दश्लेषः // 9 // __बहुत-से चित्रोंवाली ( कुण्डिनपुरी) परस्पर स्थितिसे शोभनेवाले ( नील-पीतश्वेतादि ) सम्पूर्ण वर्णों ( रंगों ) को क्यों नहीं प्राप्त करे ? अर्थात् बहुत चित्रवाली नगरीमें अनेकविध रंगोंका होना उचित ही है तथा बहुत-से मुखोंके शब्दाधिक्य वाली नगरी स्वरभेद ( अनेकविध शब्द ) को नहीं प्राप्त करे ? अर्थात् जिसमें, मनुष्य, हाथी, अश्व आदि तथा शुक-सारिका दि विविध पक्षी बोलते हैं; ऐसे अनेकों मुखोंके शब्दवाली नगरीमें विभिन्न स्वरोंका होना उचित ही है / पक्षा०--आश्चर्यकारिणी कुण्डिन नगरी स्थिति (शास्त्र-विहित स्व-स्वआचार-पालन ) से शोभनेवाले सब (ब्राह्मणादि चारो) वर्गों के भावको वह क्यों नहीं प्राप्त करे ? अर्थात् अवश्यमेव प्राप्त करे अन्यत्र ब्राह्मणादि वर्गों में साङ्कर्य होनेसे तथा इसमें नहीं होनेसे इसका आश्चर्यकारिणी होना उचित ही है, तथा बहुत-से मुखवालों ( चतुमुख ब्रह्मा, पञ्चमुख शङ्करजी, षण्मुख कार्तिकेय आदि ) से युक्त नगरी स्वर्गके साथ अभिन्नता ( सादृश्य ) को क्यों नहीं प्राप्त करे ? अर्थात् प्राप्त करे / अथवास्थिति ( अकारादि अक्षरोंके मुखादि उच्चारणस्थान ) से शोभनेवाले हैं समस्त वर्ण ( अक्षर ) जिसमें ऐसे भावकी चित्रमयी नगरी क्यों नहीं प्राप्त करे ? ब्राह्मणादि ठीकठीक स्वरोंका उच्चारण करते हुए वेदाध्ययन-पाठ करते हैं। तथा अनल्पमुख वाचाट ब्राह्मणोंके समन्ततः शब्द ( वेदध्वनि ) वाली नगरी ( उदात्तादि ) स्वरोंके भेदको क्यों नहीं प्राप्त करे, अर्थात् अवश्य प्राप्त करे ] / / 98 / / स्वरुचाऽरुणया पताकया दिनमर्केण समोयुषीत्तषः / लिलि हुबहुधा सुधाकरं निशि माणिक्यमया यदालयाः // 6 // स्वरुचेति / माणिक्यमयाः पद्मरागमयाः यदालयाः यस्यां नगर्यां गृहाः दिनं दिने, अत्यन्तसंयागे द्वितीया / समीयुषा सङ्गतेन अर्केण हेतुना उत्तषः अर्कसम्पर्कादुत्पन्नपिपासाः सन्तः स्वरुचा स्वप्रभया अरुणया आरुण्यं प्राप्तयेति तद्गुणालङ्कारः, 'तद्गुणः स्वगुणत्यागादन्योत्कृष्टगुणाहृतिरिति लक्षणात् / पताकया रसनायमानयेति भावः, सुधाकरं बहुधा लिलिहुः आस्वादयामासुरित्यर्थः। अह्नि सन्तप्तानिशि शीतोपचारं कुर्वन्तीति भावः। अत्र गृहाणां सन्तापनिमित्तसुधाकरलेहनात्मकशीतोपचार उत्प्रेक्ष्यते। सा चोक्ततद्गुणोत्थेति सङ्करः, व्यञ्जकाप्रयोगादम्या // 99 // Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 नैषधमहाकाव्यम् / .. ( माणिक्य रत्नोंसे बने हुए जिस ( कुण्डिन नगरी ) के भवन दिनमें समीपस्थ सूर्य से अधिक प्यासयुक्त होकर अपनी ( भवनोंकी ) कान्तिसे लाल ( जिह्वा स्थानीग) पताकाओंसे रात्रिमें अनेक प्रकारसे चन्द्रमाका आस्वादन करते हैं। [ दिनमें सूर्य-सन्तप्त व्यक्ति जिस प्रकार रात्रिमें शीतलोपचारसे अपना सन्ताप दूर करता है, उसी प्रकार अत्यधिक ऊँचे होनेसे नगरीके ये भवन दिनमें सूर्य के अत्यन्त समीप होनेसे अधिक पिपासायुक्त होकर भवन-कान्तिसे लाल पताका रूपिणी जीभसे रातमें शीतल चन्द्रमाका आस्वादन करते हैं ] // 99 // लिलिहे स्वरुचा पताकया निशि जिह्वानिभया सुधाकरम् / श्रितमकरैः पिपासु यन्नृपसद्भामलपद्मरागजम् // 100 // अथानयैव भङ्ग-या राजभवनं वर्णयति-लिलिह इति / अमल पद्मरागजं यस्यां नगर्यां नृपसद्म राजभवनम् अर्ककरैः श्रियमतिसामीप्यादभिव्याप्तम् / श्रयतेः कर्मणि क्तः, शृणातेः पक्वार्थादिति केचित् / तदा ह्रस्वश्चिन्त्यः, प्रकृत्यन्तरं मृग्यमित्यास्तां तत् / अत एव पिपासु तृषितं सत् पिबतेः सन्नन्तादुप्रत्ययः। स्वकीया रुग् यस्याः तया स्वरुवा तषितयेत्यर्थः / अत एव जिह्वानिभया पताकया सुधाकर लिलिहे आस्वादयामास। लिहे कर्त्तरि लिट् / त्वरितत्वादात्मनेपदम् अलङ्कारश्च पूर्ववत् , जिह्वानिभयेत्युपमा सङ्करश्च विशेषः // 10 // - ( उसी विषयको पुन: कहते हैं-) पद्मराग मणियोंसे बना हुआ जिस नगरीका निर्मल राजभवन ( दिनमें ) सूर्य-किरणोंसे पिपासायुक्त होकर अपनी ( राजभवनकी) कान्तिवाली, अर्थात् रक्तवर्ण जिह्वातुल्य पताकासे रात्रिमें चन्द्रमाका आस्वादन करता है। अमृतधतिलदम पीतया मिलितं यद्वलभीपताकया / वलयायितशेषशायिनस्सखितामादित पीतवाससः // 101 / / अमृतेति / पीतया पीतवर्णया यस्या नगर्याः वलभ्यां 'कूटागारन्तु वलभि'रित्यमरः। पताकया मिलितं सामीप्यान्सङ्गतममृतद्युतिलक्ष्म चन्द्रलाञ्छनं वलया. यिते वलयीभूते शेषे शेत इति तच्छायिनः पीतवाससः पीताम्बरस्य विष्णोः सखितां सदृशतामादित अग्रहीदित्युपमालङ्कारः // 101 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) के छज्जेका पीली पताकासे मिला हुआ चन्द्रमाका कलङ्क मण्डलाकार शेषनाग पर सोये हुए पीताम्बर पहने श्रीविष्णुके समान ज्ञात होता है। [ कलङ्कके साथ श्रीविष्णु भगवान्की, पीली पताकाके साथ पीताम्बरकी, कलङ्कके चारों ओर स्थित चन्द्रमाके साथ मण्डलाकार (गेरुडी बांधकर ) स्थित शेषनागकी समानता की गयी है / इस पे भवनोंका अत्युन्नत होना सूचित होता है ] // 101 // अश्रान्तअतिपाठपूतरसनाविभूतभूरिस्तवा. जिब्रह्ममुखौषधिनितनवस्वगक्रियाकेलिना / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। 125 पूर्व गाधिसुतेन सामिघटिता मुक्ता नु मन्दाकिनी यत्प्रासाददुकूलवल्लिरनिलान्दोलेरखेलद्दिवि / / 102 / / अश्रान्तेति / यस्याः नगर्याः प्रासादे दुकूलं वल्लिरिव दुकूलवल्लिः दुकुलमयी पताकेत्यर्थः / अश्रान्तेन श्रुतिपाठेन नित्यवेदपाठेन पूताभ्यः पवित्राभ्यः रसनाभ्यो जिह्वाभ्यः आविर्भूतेषु भूरिस्तवेषु अनेकस्तोत्रेषु अजिह्मेन अकुण्ठेन ब्रह्मणो मुखानामोघेन हेतुना विनिता सञ्जातविना नवस्वर्गक्रिया नूतनस्वर्गसृष्टिरेव केलिः लीला यस्य तेन गाधिसुतेन विश्वामित्रेण पूर्व ब्रह्मप्रार्थनात्पूर्व सामि घटिता अर्धसृष्टा 'सामि त्वर्द्ध जुगुप्सन' इत्यमरः / सुक्ता पश्चान्मुक्ता मन्दाकिनी नु आकाशगङ्गा किमनिलस्य कर्तरान्दोलनदिवि आकाशे अखेलत् विजहारेत्युत्प्रेक्षा। एषा कथा त्रिशकूपाख्याने द्रष्टव्या। शार्दूलविक्रीडितवृत्तं 'सूर्याश्वैर्मसजास्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितमिति लक्षणात् // 102 // जिस ( कुण्डिन नगरी ) के महलोंकी पताकारूपिणी श्वेत वस्त्रलता, निरन्तर वेदपाठ करनेसे पवित्र जिह्वाओंसे उत्पन्न बहुत-सी स्तुतियोमें निरालस्य ब्रह्ममुख-समूह ( ब्रह्माके चारो मुख ) से रोक दी गयी है नये स्वर्गकी रचनारूपिणी क्रीडा जिसकी, ऐसे विश्वामित्रजी द्वारा पहले आधी बनायी गयी ( बादमें ब्रह्माके स्तुति करनेपर ) छोड़ी गयी गङ्गा ही मानो वायुके झोकोंसे आकाशमें क्रीडा करती ( लहराती ) है / / 102 // ___पौराणिक कथा-गुरु वसिष्ठ मुनिके शापसे चण्डाल हुए राजा त्रिशङ्कुको सशरीर स्वर्गमें जानेके लिए, इच्छा होनेपर महर्षि विश्वामित्रजीने यज्ञ कराकर उन्हें स्वर्गमें भेजना चाहा, किन्तु चण्डाल होनेसे स्वर्गके अनधिकारी त्रिशङ्कुको जब देवगण नीचे गिराने लगे, तब उन देवोंके इस कार्यसे रुष्ट विश्वामित्रजी दूसरे स्वर्ग की रचना करने लगे ? यह देख अपनी प्रतिष्ठामें धका लगता हुआ मानकर ब्रह्माजीने विश्वामित्रजीको अनेकविध स्तुति वचनोंसे प्रसन्नकर स्वर्ग-रचना करनेसे रोक दिया / / 102 // शादति विमलनील वेश्मरश्मिभ्रमरितभाश्शुचिसोधवस्त्रवल्लिः / अलभत शमनस्वसशिशुत्व दिवसकराङ्कतले चला लुटन्ती // 10 // यदिति / यस्या नगर्याः अतिविमलै नीलवेश्मनः इन्द्रनीलनिकेतनस्य रश्मिभिः भ्रमरिता भ्रमरीकृता भ्रमरशब्दात् 'तस्करोती'ति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः। वल्ल्याश्च भ्रमरैर्भाव्यमिति भावः / तथाभूता भाः छाया यस्याः सा श्यामीकृतप्रभेत्यर्थः / अत एव तद्गुणालङ्कारः। शुचिः स्वभावतःशुभ्रा सौधस्य वस्त्रमेव वह्निः पताके. त्यर्थः / रूपकसमासः / भ्रमरितभा इति रूपकादेव साधकात् दिवसकरस्य सूर्यस्य अङ्कतले समीपदेशे उत्सङ्गप्रदेशे च चला चपला लुठन्ती परिवर्त्तमाना सती शमनस्वसुर्यमुनायाः शिशुत्वं शैशवमलभत बालयमुनेव बभावित्यर्थः / बालिकाश्च पितुरके लुठन्तीति भावः / अत्रान्यस्य शैशवेनान्यसम्बन्धासम्भवेऽपि तत्सदृशमिति सादृश्याक्षेपान्निदर्शना पूर्वोक्ततद्गुणरूपकाभ्यां सङ्कीर्णा // 103 // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 नैषधमहाकाव्या जिस ( कुण्डिनपुरी ) के अत्यन्त निर्मल नीलमके बने हुए महलोंकी किरणोंसे भ्रमरतुल्य की गयी (घूमती हुई ) कान्तिवाली स्वच्छ महलोंकी पताका सूर्यके समीप (पक्षा०क्रोड = गोद ) मैं चञ्चल तथा लोटती हुई यमुनाके शैशवको प्राप्त किया अर्थात् पिता सर्यके समीप चञ्चल तथा लोटती हुई बालिका यमुना के समान उक्तरूपा पताका शोभती थी / / 103 // स्वप्राणेश्वरनर्महर्म्यकटकातिथ्यग्रहायोत्सुकं पाथोदं निजकेलिसौधशिखरादारुह्य यत्कामिनी / साक्षादप्सरसो विमानकलितव्योमान एवाभव द्यन्न प्राप निमेषमभ्रतरसा यान्ती रसादध्वान / / 104 / / स्वेति / यत्कामिनी यन्नगराङ्गना विमानेन कलितं क्रान्तं व्योम याभिस्ताः साक्षादप्सरसो दिव्याङ्गनेवाभवत्। 'स्त्रियां बहुप्वप्सरस' इत्यभिधान देकत्वेऽपि बहुवचनप्रयोगः कृतः, यद्यस्मानिजकेलिसौधशिखरादपादानात् स्वप्राणेश्वरस्य नर्महम्य क्रीडासौधं तस्य कटकान्नितम्बादातिथ्यग्रहाय स्वीकाराय तत्र विश्रमार्थमि. त्यर्थः। उत्सुकमुद्यक्तं गच्छन्तमित्यर्थः, पाथोदं मेघमारुह्य रसादागाद् यान्ती गच्छन्ती अध्वनि अभ्रतरसा मेघवेगेन हेतुना निमेषं न प्राप / अत्र नगरामराङ्गनयोर्भेदेऽपि अनिमेषमेघारोहणव्योमयानैः सैव इत्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिभेदः। शार्द. लविक्रीडितं वृत्तम् // 104 // जिस ( कुण्डिनपुरी) की कामिनी अपने क्रीडाप्रासादकी चोटी (ऊपरी छत ) से अपने प्राणप्रियके क्रीडाप्रासादके आतिथ्य-ग्रहण (विश्राम ) करने के लिए उत्कण्ठित अर्थात् जाते हुए मेघपर आरूढ होकर अनुरागसे जाती हुई मेघ-वेगके कारण पलकको नहीं गिराया, अतएव विमानके द्वारा आकाशका अवलम्बन की हुई वह मानो साक्षात् अप्सरा ही हो गयी। [ जिस नगरीको कामिनी अपने क्रीडा-प्रासादके अत्युन्नत ऊपरी छतसे उस मेघपर चढ़ जाती है, जो मेघ उस कामिनीके प्राणेश्वरके क्रीडा-प्रासाद पर विश्राम करना चाहता है अर्थात् वहीं होकर जाता है, और मेघके वेगके कारण उसे निनिमेष ( एकटक ) देखती है, अतएव वह कामिनी विमानसे आकाशमें स्थित साक्षात् अप्सरा ही हो जाती है / उस कुण्डिनपुर की कामिनियोंके तथा उनके प्राणेश्वरोंके क्रीडाप्रासाद अत्युन्नत हैं, तथा कामिनियां अप्सराओंके समान सुन्दरी हैं ] / / 104 / / वेदीकालशैले मरकतशिखरास्थितरंशुदर्भ ब्रह्माण्डाघातभग्नस्यदजमदतया ह्रीधृतावामुखत्वैः। कस्या नोत्तानगाया दिवि सुरसुरभेरास्यदेशं गता] यद्रोग्रासप्रदान व्रतसुकृतमविश्रान्त मुज्जम्भते स्म // 15 // वैदर्भीति / 'उत्साना वै देवगवा वहन्ती'ति श्रुत्यर्थमाश्रित्याह-वेदीकेलिशैले मरकतशिखरादुस्थितैः अथ ब्रह्माण्डाघातेन भन्नो स्यदजमदो वेगगर्वो येषां तत्तथा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 127 हिया वृतम् अवाङ्मुखत्वं यैस्तैरधोमुखैः अतएव दिवि उत्तानगाया ऊर्ध्वमुखाया इत्यर्थः / कस्याः सुरसुरभेः देवगन्या आस्यदेशं गताग्रैरंशुभिरेव दभैर्यस्या नगर्याः सम्बन्धि गोग्रासप्रदानव्रतसुकृतमविश्रान्तं नोज्जम्भते स्म / किन्तु सर्वस्य अपि ग्रासदानाद्यत्तत्सुकृतमेवोज्जम्भितमित्यर्थः / अत्युत्तमालङ्कारोऽयमिति केचित् / अंशुदर्भाणां ब्रह्माण्डाघाताद्यसम्बन्धेऽपि सम्बन्धोत्तरतिशयोक्तिभेदः / स्त्रग्धरावृत्तं 'नम्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयमिति लक्षणात् // 105 // दमयन्तीके क्रीडापर्वतपर नरकत ( पन्ना ) मणियोंके अग्रभागसे उत्पन्न (होकर ऊपर की ओर जाते हुए, किन्तु ऊपर में स्थित ) ब्रह्माण्डके आघात (टक्कर) में ऊपर जानेके मद के भग्न होनेसे लज्जासे नम्रमुख हुए. ( अतएव ) आकाशमें उत्तानगामिनी किस कामधेनुके मुखमें प्रविष्ट किरणरूप कुश तुण जिस (कुण्डिनपुरी) के गोग्रास देनेके शाश्वत पुण्यको नहीं पाता है ? / [ मरकत मणिके बने-दमयन्तीके अत्युन्नत क्रीडापर्वतकी चोटीसे कुशाओंके समान हरे रङ्गकी किरण ऊपर की ओर निकलती हैं, किन्तु ब्रह्माण्डके साथ टकराकर ऊपर नहीं जा सकनेके कारण पुनः नीचे की ओर लौटकर ऊपर आकाशमें उत्तान चलती हुई कामधेनु गायोंके मुख में प्रविष्ट होकर ऐसा प्रतीत होती है कि पुण्यलाभार्थ गायोंको हरे कुशाओंका निरन्तर गोग्रास दिया जाता हो ] // 105 / / विधुकरपरिरम्भादात्तनिष्यन्दपूर्णः शशिदृषदुपक्लुप्तैरालवालस्तरूणाम् / विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण व्यरचि स हतचित्तस्तत्र भैमीवनेन / / 106 / / विध्विति / तत्र तस्यां नगर्या शशिहषदुपक्लप्तैश्चन्द्रकान्तशिलाबद्धैः अत एव विधुकरपरिरम्भात् चन्द्रकिरणसम्पर्कात् हेतोः आत्तनिष्यन्दैः जलप्रस्रवणैरेव पूर्णैस्तरूणामालवालविफलितं व्यर्थीकृतं जलसेकस्य प्रक्रियायां प्रकारे गौरवं भारो यस्य तेन भैमीवनेन स हंसो हृतचित्तो व्यरचि / कर्मणि लुङ / अत्रालवालानां चन्द्रकान्तनिष्यन्दासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः / एतदारभ्य चतुःश्लोकपर्यन्तं मालिनीवृत्तं-'न नमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकरिति लक्षणात् // 106 // वहांपर चन्द्रकान्तमणिके बने हुए. (अतएव) चन्द्रकिरणोंके संसर्गसे पसीजनेसे भरे हुए तथा वृक्षोंके थालाओंके द्वारा पानीके सींचनेके गौरव ( परिश्रम ) को निष्प्रयोजन करनेवाले दमयन्तीके कीड़ोद्यानने उस हंसके चित्तको आकृष्ट कर लिया। [ चन्द्रकान्त मणियोंसे बने वृक्षोंके थाले चन्द्रकिरण स्पर्श होनेसे स्वयं जलपूर्ण होकर पानीके द्वारा सींचने को व्यर्थ कर देते थे, ऐसे दमयन्तीके क्रीडोद्यानको देखकर हंसका चित्त आकृष्ट हो गया ] // 106 // अथ कनकपतत्रस्तत्र तो राजपुत्रीं सदसि सदृशभासां विस्फुरन्तीं सखीनाम् / 6 0 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 नैषधमहाकाव्यम् / उडुपरिषदि मध्यस्थायिशीतांशुलेखाऽ नुकरणपटुलक्ष्मीमक्षिलक्षीचकार / / 107 / / अथेति / अथ दर्शनानन्तरं कनकपतत्रः स्वर्णपक्षी तत्र वने सहशभासामात्मतुल्यलावण्यानां सखीनां सदसि विस्फुरन्तीं 'स्फुरतिस्फुलत्योर्निर्निविभ्य' इति पत्वम् / उडुपरिषदि तारकासमाजे मध्यस्थायिन्याः शीतांशुलेखायाश्चन्द्रकलायाः अनुकरणे पटुः समर्था लक्ष्मीः शोभा यस्याः सा इत्युपमालङ्कारः / तां राजपुत्रीम् अतिलक्षीचकार अद्राक्षीदित्यर्थः // 107 // ___ इसके बाद वह सुवर्णमय ( राजहंस ) पक्षी वहां (क्रीडावनमें ) समान कान्तिवाली सखियोंकी सभा ( बीच ) में देदीप्यमान उस राजकुमारी दमयन्तीको नक्षत्र-समूहके बीच में स्थित चन्द्रलेखाके तुल्य शोमती हुई देखा // 107 / / भ्रमणरयविकीणस्वणभासा खगेन कचन पतनयोग्यं देशमन्विष्यताऽधः / मुखविधुमदसीयं सेवितुं लम्बमानः शशिपरिधिरिवोच्चैमण्डलस्तेन तेने / / 108 / / भ्रमणेति / अधो भूतले वचन कुत्रचित्पतनयोग्यं देशं स्थानम् अविष्यता गवे. षमाणेन अत एव भ्रमणरयेण विकीर्णा स्वर्णस्य भा दीप्तिर्यस्य तेन खगेन अमुण्या अयम् अदसीयम् 'वृद्धाच्छः' 'त्यदादानि चेति वृद्धिसंज्ञा / मुखेन्दं सेवितुं लम्बमानः स्रंसमानः शशिपरिधिः चन्द्रपरिवेष इव उच्चैरुपरि मण्डलो वलयः तेने वितेने तनोतेः कर्मणि लिट् / उत्प्रेक्षास्वभावोक्त्योः सङ्करः // 108 // घूमने ( चक्कर लगाने ) के वेगसे स्वर्णकान्तिको फैलानेवाले तथा कहीं पर नीचे योग्य स्थानको ढूढ़ते हुए उस ( राजहंस ) पक्षीने इस ( दमयन्ती ) के मुखचन्द्रकी सेवाके लिए नीचेको ओर आये हुए चन्द्रपरिधि के समान मण्डल किया [ अर्थात् पृथ्वी पर उतरते हुए उस राजहंसने जो ऊपर में चक्कर लगाया, वह ऐसा ज्ञात होता था कि दमयन्तीके मुखचन्द्र की सेवाके लिए चन्द्रपरिधि ( चन्द्रमाका घेरा ) नीचे आ गया हो। नीचे उतरते समय चक्कर लगाकर उतरना पक्षियोंका स्वभाव होता है, तदनुसार ही नीचे उतरता हुआ राजहंस चारों ओर चक्कर लगाने लगा ] // 108 // अनुभवति शचीत्थं सा घृताचीमुखाभि. नं सह सहचरीभिनन्दनानन्दमुच्चैः / 1. 'सूतोग्रराजभोजकुलमेयरुभ्यो दुहितुः पुत्रड वा' इति राजशब्दात्परस्य दुहितृशब्दस्य पुत्रडादेशे टित्त्वात् डीपि राजपुत्रीति / केचित्तु शाङ्गरवादिषु पुत्रशब्दं पठन्ति ! तेन पुरुहूतपुत्रीति सिद्धम्' इति 'प्रकाश' कृदाह / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः 126 इति मतिरुदयासीत्पक्षिणः प्रेक्ष्य भैमी विपिनभुवि सखीभिस्सार्धमाबद्धखेलाम् / / 106 / / अनुभवतीति / विपिनभुवि वनप्रदेशे सखीभिः सहचरीभिः 'सख्यशिश्वीति भाषायामिति निपातनात् ङीप। सार्द्धमाबद्धखेलामनुबद्धक्रीडां, 'क्रीडा खेला च कर्दनमित्यमरः / भैमी प्रेक्ष्य पक्षिणः सा प्रसिद्धा शची इन्द्राणी घृताचीमुखाभिः सहचरीभिः सह इत्थमुच्चैरुत्कृष्टं नन्दनानन्दं नन्दनसुखं नानुभवतीति मतिः बुद्धिरुदयासीदुस्थिता / अत्र प्रेक्ष्य मतिरिति मननक्रियापेक्षया समानकर्तकत्वात् पूर्वकालत्वाच्च प्रेक्ष्येति क्त्वानिर्देशोपपत्तिः, तावन्मात्रस्यैव तत्प्रत्ययोत्पत्तौ प्रयोजकत्वात् / प्राधान्यन्त्वप्रयोजकमिति न कश्चिद्विरोधः। अत्रोपमानादपमेयस्याधिक्योक्तेर्व्यतिरेकालङ्कारः 'भेदप्रधानसाधम्यमुपमानोपमेययोः। आधिक्यादल्पकथनाद्वयतिरेकः स उच्यते // ' इति लक्षणात् // 101 // ___ वह ( सुप्रसिद्ध ) इन्द्राणी, घृताची आदि ( अप्सरा ) सहचरियोंके साथ इसी प्रकार ( दमयन्तीके समान ) नन्दन वनमें आनन्द पाती है क्या ?' ऐसा विचार क्रीडोद्यान में सखियोंके साथ क्रीडा करती हुई दमयन्तीको देखकर हंसको हुआ // 109 // श्रीहषः कावराजराजमुकुटालङ्कारहीरस्सुत श्रीहीरस्सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / द्वैतीयोकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 150 / / श्रीहर्षमित्यादि / व्याख्यातम् / द्वितीय एव द्वैतीयीकः, 'द्वितीयादीका स्वार्थे वा वक्तव्य' इतीकक द्वैतीयीकतया मितो द्वितीयत्वेन गणितः द्वितीय इत्यर्थः, अगमत् // 110 // इति 'मल्लिनाथ'सूरिविरचितायां 'जीवातु' समाख्यायां नैषधटीकायां द्वितीयः सर्गः समाप्तः // 2 // कविराज... ... ... ... उत्पन्न किया उसके मनोहर रचनारूप 'नैषधीयचरित' नामक महाकाव्यमें द्वितीयसर्ग समाप्त हुआ / (शेष व्याख्या प्रथमसर्गके समान जाननी चाहिये)। यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित' का द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ // 2 // Page #159 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः आकुञ्चिताभ्यामथ पक्षतिभ्यां नभोविभागात्तरसाऽवतीर्य / निवेशदेशाततधूत पक्षः पपात भूमावुपभैमि हंसः // 1 // आकुञ्चिताभ्यामिति / अथ मण्डलीकरणानन्तरं हंसः। आकुञ्चिताभ्यां पक्षतिभ्यां पक्षमूलाभ्यां नभोविभागादाकाशदेशात्तरसा वेगेनावतीर्य निवेशदेशे उपनिवेशस्थाने आततौ विस्तारितौ धूतौ कम्पितौ च पक्षौ येन सः तथा सन्नुपभैमि भैम्याः समीपे, सामीप्येऽव्ययीभावः, नपुंसकं, ह्रस्वत्वं च / भूमौ पपात / स्वभावोक्तिरलङ्कारः // 1 // इस ( मण्डलाकार चक्कर लगाने ) के बाद सङ्कचित दोनों पक्षोंसे आकाश से झट नीचे उतरकर बैठनेकी जगह फैलाये गये पडोंको कँपाता ( फड़फड़ाता ) हुआ वह हंस दमयन्तीके पास भूमिपर आ गया // 1 // आकस्मिकः पक्षपुटाहतायाः क्षितेस्तदा यः स्वन उच्चचार / द्रागन्यविन्यस्तदृशः स तस्याः संभ्रान्तमन्तःकरणश्चकार / / 2 // आकस्मिक इति / तदा पतनसमये पक्षपुटाहतायाः क्षितेः / अकस्माद्भव आकस्मिकः अदृष्टहेतुको निर्हेतुक इत्यर्थः / यः स्वनो ध्वनिरुच्चचार उत्थितः, स स्वनः अन्यविन्यस्तदृशः विषयान्तरनिविष्टदृष्टेस्तस्याः भैम्याः अन्तःकरणं द्राक झटिति सम्भ्रान्तं ससंभ्रमं चकार / अकाण्डेऽसम्भावितशब्दश्रबणाच्चमत्कृतचित्ताऽभूदि. त्यर्थः / स्वभावोक्तिः // 2 // __ दोनों पङ्खोंसे आहत पृथ्वीर. अकस्मात् जो शब्द हुआ, उसने दूसरी ओर देखती हुई दमयन्तीके अन्तःकरणको सभ्रान्त ( कुछ घबड़ाया हुआ तथा आश्चर्ययुक्त) कर दिया [हंसके नीचे उतरनेसे एकाएक उत्पन्न शब्दसे दूसरी ओर देखती हुई दमयन्ती कुछ घबड़ा गयी एवं आश्चर्यचकित हो गयी ] // 2 // नेत्राणि वैदर्भसुतासखीनां विमुक्ततत्तद्विषयग्रहाणि / प्रापुस्तमेकं निरुपाख्यरूपं ब्रह्मेव चेतांसि यतव्रतानाम् / / 3 / / नेत्राणीति / विदर्भाणां राजा वैदर्भः। तस्य सुतायाः भैम्याः सखीनां नेत्राणि विमुक्तास्तत्तद्विषयग्रहाः तत्तदर्थग्रहणानि अन्यत्र तत्तद्विषयासङ्गो यस्तानि सन्ति एकमेकचरम् अद्वितीयञ्च नोपाख्यायत इति निरुपाख्यमवाच्यं रूपमाकारः, स्वं स्वरूपं च यस्य तं पुरोवर्तिनं हंसं तत्पदार्थभूतञ्च यतव्रतानां योगिनां चेतांसि ब्रह्म परास्मानमिव प्रापुः, अत्यादरेणादाचरित्यर्थः॥३॥ ___ उन-उन (विभिन्न ) विषयोंको ग्रहण करने ( देखने ) वाले विदर्भराज-कुमारी ( दमयन्ती ) को सखियोंके नेत्र अनिर्वचनीय उस एक हंसको उस प्रकार प्राप्त हुए (देखने लगे ), जिस प्रकार योगियोंके चित्त अनिर्वचनीय रूपवाले एक ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 नैषधमहाकाव्यम् / [ अनिर्वचनीय रूपवाले ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर योगियोंके चित्तके समान उस अनिर्वचनीय सुवर्णकाय राजहंसको देखनेपर दमयन्तीकी सखियों को आनन्द हुआ ] // 3 // हंसं तनौ सन्निहितं चरन्तं मुनेमेनोवृत्तिरिव स्विकायाम् / ग्रहीतुकामादरिणा शयेन यत्नादसौ निश्चलतां जगाहे // 4 // हंसमिति / असौ दमयन्ती मुनेर्मनोवृत्तिरिव स्विकायां स्वकीयायां 'प्रत्ययस्थाकात् पूर्वस्ये'तीकारः / तनौ शरीरान्तिके अन्यत्र तदभ्यन्तरे सन्निहितमासन्नमाविर्भूतं च चरन्तं सञ्चरन्तं वर्तमानं च हंसं मरालं परमात्मानं च, 'हंसो विहङ्गभेदे च परमात्मनि मत्सर' इति विश्वः / अदरिणा निर्भीकेण शयेन पाणिना 'दरो स्त्रियां भये श्वभ्रे', 'पञ्चशाखः शयः पाणिरित्यमरः / अन्यत्र आदरिणा आदरवता आशयेन चित्तेन ग्रहीतुकामा साक्षात्कर्त्तकामा च यत्नात् निश्चलतां निश्चलाङ्गत्वं जगाहे जगाम // 4 // ___ इस ( दमयन्ती ) ने सन्निहित ( समीपस्थ, या-श्रेष्ठ = नलके द्वारा भेजे गये ) तथा चलते हुए हंसकी भययुक्त ( या-आदरयुक्त ) हाथ से पकड़ने के लिए यत्नपूर्वक अपने शरीरमें उस प्रकार निश्चलताको प्राप्त किया अर्थात् अपने शरीरको स्थिर किया, जिस प्रकार सन्निहित (सन् = मन्वादिकेद्वारा सम्यक प्रकारसे ध्यान किये गये, या-सत् = सज्जन मन्वादिके लिए अतिशय हितकारक ) तथा अपने शरीरमें विचरते हुए परमात्मा को आदरान्वित आशयसे अर्थात् सादर ग्रहण करनेके लिए मुनिकी मनोवृत्ति (विषयान्तरसे हटकर ) यत्नपूर्वक निश्चलताको प्राप्त होती है। [दमयन्तीने समीपस्थ हंसको पकड़नेके लिए शरीरको निश्चल ( के तुल्य ) बना लिया, किन्तु उसके मनमें तो चञ्चलता बनी ही रही ] // 4 // तामिङ्गितरप्यनुमाय मायामयं न धैर्याद्वियदुत्पपात / तत्पाणिमात्मोपरिपातुकं तु मोघं वितेने प्लुतिलाघवेन / / 5 / / तामिति / अयं हंसस्तां पूर्वोक्तां मायां कपटमिङ्गितैश्चेष्टितैरनुमाय निश्चित्यापि धैर्यात् स्थैर्यमास्थाय ल्यब्लोपे पञ्चमी / वियदाकाशं प्रति नत्पपात नोत्पतितवान् आत्मन उपरि पातुकम्पतयालुं 'लषपते' त्यादिना उकन प्रत्ययः / तस्याः पाणिं तु प्लुतिलाघवेन उत्पतनकौशलेन मोघं वितेने बिफलयत्नम् अकरोत् आशाञ्च जनयति न तु पाणी लगतीत्यर्थः // 5 // ___ यह हंस दमयन्तीकी चेष्टाओंसे उसकी मायाको जानकर भी आकाशमें नहीं उड़ा, किन्तु अपने ऊपर आते हुए उसके हाथको थोड़ा उछलनेसे निष्फल कर दिया [दमयन्तीका हाथ जब उसके ऊपर पकड़नेके लिए अधिक निकट होता था, तभी वह हंस थोड़ा उछलकर दूर हट जाता था, जिससे वह उसे पकड़ नहीं पाती थी] // 5 // व्यर्थीकृतं पत्ररथेन तेन तथाऽवसाय व्यवसायमस्याः। परस्परामर्पितहस्ततालं तत्कालमालोभिरहस्यतालम् // 6 // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सगः 133 व्यर्थीकृतमिति / अस्याः भैम्याः व्यवसायं हंसग्रहणोद्योगं तेन पत्ररथेन पक्षिणा व्यर्थीकृतं तथाऽवसाय ज्ञात्वा तत्कालं तस्मिन् काले अत्यन्तसंवोगे द्वितीया / स एव कालो यस्येति बहुव्रीही क्रियाविशेषणं वा / परस्परां परस्परस्यामित्यर्थः / 'कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्विर्भावः समासवञ्च बहुलमिति बहुलग्रहणादसमासवद्भावे पूर्व पदस्य प्रथमैकवचने कस्कादित्वाद्विसर्जनीयस्य सत्वमुत्तरपदस्य यथायोगं द्वितीयाघेकवचनं 'स्त्रीनपुंसकयोरुत्तरपदस्थाया विभक्तेराम्भावो वक्तव्य' इति विकल्पादामादेशः / अर्पितहस्ततालं दत्तहस्तताडनं यथा तथा आलीभिः सखीभिरलम् अत्यर्थम् अहस्यत हसितम् / भावे लङ॥ 6 // ___ उस पक्षा ( हंस ) के द्वारा उस प्रकार ( थोड़ा उछल-उछलकर ) व्यर्थ किये गये दमयन्तीके उद्योग (हंसको पकड़नेका कार्य ) को जानकर ( दमयन्तीकी ) सखियोंने ताली बजाकर परस्परसे उस ( दमयन्ती ) को सम्यक् प्रकार से हँसा अर्थात् उसका बड़ा उपहास किया / 6 // उच्चाटनीयः करतालिकानां दानादिदानी भवतीभिरेषः / याऽन्वेति मां द्रुह्यति मह्यमेव साऽत्रेत्युपालम्भि तयाऽऽलिवर्ग: / / 7 / / उच्चाटनीय इति। हे सख्यः ! भवतीभिरेष हंसः करतालिकानां दानादन्योन्यहस्तताडनकरणादुच्चाटनीयः निष्काशनीयः किमिति काकुः, नोच्चाटनीय एवेत्यर्थः / अत्र आसु मध्ये या मामन्वेति सा मह्यमेव द्रुह्यति मां जिघांसतीत्यर्थः। 'क्रुधगुहे'त्यादिना सम्प्रदानत्वात् चतुर्थी / इतीत्थं तया भैम्या आलिवर्गः सखीसंघः उपालम्भि अशापि, शापेनैव निवारित इत्यर्थः // 7 // ____ इस समय ( जब मैं इस सुवर्णमय सुन्दर हंसको पकड़नेके लिए इतना अधिक सावधान होकर लग रही हूं, ऐसे समयमें ) हाथकी तालियाँ देकर तुम लोगोंको इसे उड़ाना चाहिये ? इनमें जो मेरा अनुगमन करती है, वही मेरे साथ द्रोह कर रही है, इस प्रकार उस ( दमयन्ती ) ने सखी-समूहको उपालम्भ दिया / / 7 / / धृताल्पकोपा हासते स्वीला छायेव भास्वन्तमभिप्रयातुः / श्यामाऽथ हंसम्म करानवाप्तेमन्दाक्षलगा लगह स्म पश्चात / / 8 / / नेति / अथ सखी निबारणानन्तरं सखीनां हसिते हासनिमित्ते ताल्पकोपा तासु ईषत्कोपा इत्यर्थः / भास्वन्तमभिप्रयातुः सूर्याभिमुखं गच्छतः छाया अनातपरेखेव श्यामा यौवनमध्या 'श्यामा यौवनमध्यस्था' इत्युत्पलमालायाम् / अन्यत्र श्यामा नीला, हंसस्य कर्मणि षष्ठी। करेण हस्तेन अनवाप्तेरग्रहणाद्धेतोर्मन्दाक्षं हीस्तेन लक्ष्या उपलक्ष्या हीणा सतीत्यर्थः। अन्यत्र हंसस्य सूर्यस्य करानवाप्तः अंशुसंस्पर्शाभावात् मन्दाक्षेरपटुदृष्टिभिर्लक्ष्या ग्राह्या तैः छाया लक्ष्यते न प्रकाश इति भावः / पश्चाल्लगति स्म पृष्ठे लग्नाऽभूत् प्राप्त्याशया तमन्वगात् / 'रविश्वेतच्छदौ हंसौ', 'बलिहस्तांशवः करा' इति चामरः // 8 // Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 नैषधमहाकाव्यम् / सखियोंके हँसने पर थेड़ा क्रुद्ध तथा हंसको हाथसे नहीं पकड़नेसे कुछ लज्जित हुई श्यामा ( षोडशी ) दमयन्ती सूर्यके सामने जानेवाले व्यक्तिके पीछे उसकी श्यामवर्ण ( काली ) परछाहींके समान हंसके पीछे लग गयी ( हंसके पीछे-पीछे चलने लगी)॥ 8 // शस्ता न हंसाभिमुखी तवेय यात्रति ताभिश्छलहस्यमाना। साऽऽह स्म नैवाशकुनीभवेन्मे भावि प्रियावेदक एष हंसः // 6 // शस्तेति / तवेयं हंसस्य श्वेतच्छदस्य चाभिमुखी यात्रा गमनं न शस्ता न प्रशस्ता श्रेयस्करी न शास्त्रविरोधात् श्रमसन्तापदृष्टदोषाच्चेति भावः। इतीत्थं ताभिः छलेन व्याजोक्त्या हस्यमाना सती भाविप्रियावेदको मङ्गलमूर्त्तित्वादागामिशुभसूचकः एष हंसो मे मम नाशकुनीभवेदेव, किन्तु शकुनमेव भवेदित्यर्थः / अपक्षी न भवेदिति च गम्यते 'शकुनन्तु शुभाशंसानिमित्ते शकुनः पुमानि'ति विश्वः / 'अभू. ततद्भावे विः' विध्यादिसूत्रेण प्रार्थने लिङ् / इत्याह स्म अवोचत् , 'ब्रुवः पञ्चानामि' त्याहादेशः / एतेन तदीययात्रानिषेधोक्तदोषः परिहृतो वेदितव्यः // 9 // ___ 'हंस ( मराल = राजहंस पक्षी, पक्षा०-सूर्य) के सम्मुख तुम्हारा यह गमन करना श्रेष्ठ ( अभीष्ट फलप्रद ) नहीं है। इस प्रकार उन ( सखियों ) के द्वारा हँसी गयी उस दमयन्तीने कहा कि भविष्यमें प्रिय ( शुभ ) की सूचना देनेवाला ( पक्षा०-भविष्यमें होने वाले प्रिय ( नल ) की सूचना देनेवाला ) यह हंस अशकुनि ( पक्षी भिन्न, पक्षा०-अशुभ सूचक शकुनवाला ) नहीं है अर्थात् यह पक्षी ही है, जिसके सम्मुख यात्रा करना निषिद्ध है, वह सूर्य नहीं हैं // 9 // हंसोऽप्यसौ हंसगतेस्सुदत्याः पुरःपुरश्चारु चलन बभासे / वैलक्ष्यहेतोर्गतिमेतदीयामग्रेऽनुकृत्योपहसन्निवोच्चैः / / 10 // एवं दमयन्तीव्यापारमुक्त्वा सम्प्रति हंसस्य व्यापारमाह-हंसोऽपीति / असौ हंसोऽषि हंसस्य गतिरिव गतिर्यस्यास्तस्याः सुदत्याः शोभनदन्तायाः भैम्याः, सुदती व्याख्याता / पुर-पुरः वीप्सायां द्विर्भावः / अग्रे समन्तात् , चारु चलन् रम्यं गच्छन् सन् वलक्ष्यमेव हेतुस्तस्य वैलक्ष्यहेतोः, अहो मामयमतिविडम्बयतीति तस्या अपि विस्मयजननार्थमित्यर्थः / 'विलक्षो विस्मयान्वित' इत्यमरः / 'षष्टी हेतु. प्रयोग' इति षष्ठी / एतदीयाङ्गतिमनुकृत्य अभिनीय उच्चैरुपहसन्निवेत्युत्प्रेक्षा, बभासे बभौ लोके परिहासकाः तच्चेष्टाद्यनुकरणेन परान् विलक्षयन्ति // 10 // यह हंस भी हंसगामिनी एवं सुदती (सुन्दर दाँतोंवाली दमयन्ती) के आगे-आगे सम्यक् प्रकारसे चलता हुआ उसे लज्जित (या-आश्चर्यचकित ) करनेके लिए इस (दमयन्ती ) के चलनेका अनुकरण कर उसे सम्यक् प्रकारसे हँसता हुआ-सा शोभित हुमा / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसीको लज्जित ( या-'अहो ! यह भी मेरा अनुकरण 1. 'पुनस्ते' इति 'प्रकाश' व्याख्यातः पाठः / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। कर उपहास कर रहा है' इस भावनासे आश्चर्यचकित ) करनेके लिए उसके गमनादिका अनुकरण करता हुआ उसे हंसता है / / 10 / / पदे पदे भाविनि भाविनी तं यथा करप्राप्यमवैति नूनम् / तथा सखेलं चलता लतासु प्रतार्य तेनाचकृषे कृशाङ्गी / / 1 / / पदे पद इति / भावयन्तीति भाविनि हंसग्रहणमेव मनसा भावयन्ती कृशाङ्गी भैमी भाविनि भविष्यत्यनन्तर इत्यर्थः / 'भविष्यति गम्यादय' इति साधुः। पदे पदे तं हसं यथा करप्राप्यं करग्राहय नूनं निश्चितमवैति प्रत्येति, तथा सखेलं चलता गच्छता तेन हंसेन प्रतार्य वञ्चयित्वा लतासु आचकृषे आकृष्टा, एकान्तं नीतेत्यर्थः॥ भाविनि ( हंस-ग्रहणकी भावना वाली, दमयन्ती ) अगले प्रत्येक डग ( कदमपग ) पर जिस प्रकार उसे हाथसे ग्रहण करने योग्य समझती थी, उस प्रकारसे क्रीडापूर्वक चलता हुआ वह ( हंस ) कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) को वञ्चितकर लताओं में ले गया // 11 // रुषा निषिद्धालजनां यदैनां छायाद्वितीयां कलयाञ्चकार | तदा श्रमाम्भःकणभूषिताङ्गी स कीरवन्मानुषवागवादीत् / / 12 / / रुषेति / रुषा निषिद्धालिजनां निवारितसखीजनां यदा छाया एव द्वितीया यस्यास्तामेकाकिनी कलयाञ्चकार विवेद, तदा श्रमाम्भःकणभूषिताङ्गी स्वेदाम्बुलवपरिष्कृतशरीरा स्विन्नगात्रान्तां स हंसः कीरवत् शुकवन्मनुष्यस्येव वाग्यस्य स सन्नवादीत् // 12 // ___ जब हंसने क्रोधसे सखियोंको निषेधकी हुइ दमयन्तीको अकेली जान लिया, तब परिश्रमके जल ( पसीने ) की दूंदोंसे भूषित अङ्गोंवाली ( दमयन्ती ) से तोते के समान मनुष्यकी बोली बोलने लगा / / 12 / / अये ! कियद्यावदुपैषि दूरं व्यर्थ परिश्राम्यसि वा कमथम् ? | उदेति ते भीरपि किन्नु बाले विलोकयन्त्या न घना वनालीः ? / / 13 // __अय इति / अये बाले ! व्यर्थं कियद्रं यावदुपैषि उपैष्यसि ? 'यावत्पुरानिपातयोर्लट' / किमर्थं परिश्राम्यसि वा ? घनाःसान्द्रा वनालीर्वनपंक्तीविलोकयन्त्यास्ते भीरपि नोदेति किन्नु ? // 13 // ___ हे दमयन्ति ! कितनी दूर तक आवोगी ?, व्यर्थ ही क्यों थक रही हो 1, हे बाले ! सघन वन-समूहोंको देखकर तुम्हें भय भी उत्पन्न नहीं होता ? ! [ अथवा-हे दमयन्ति ! कितनी दूर तक व्यर्थ आवोगी ! क्यों थक रही हो / हे नवीन सखियों वाली दमयन्ति ? सवन वन-समूहो.. ... ..' या-........ आवोगी ? व्यर्थ ( बि+ अर्थ अर्थात् मुझ पक्षीके लिए ) क्यों परिश्रम करती हो ? / या-..... आवोगी, इस प्रकार क्यों परि 1. 'किमित्थम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'किन्न वाले' इति पाठान्तरम् / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / श्रम करती हो ? ) / [हंस दमयन्तीसे समझता हुआ कहता है कि-'तुम कहाँ तक आवोगी ?, किसी महत्त्वपूर्ण वस्तु के लिए दूर जाना सङ्गत होनेपर भी एक पक्षीके लिए इतना अधिक परिश्रम करना ठीक नहीं, सुवर्णमय पक्षीके लिए उत्कण्ठित होकर इतनी दूर तक आना एवं परिश्रम करना यथा कथञ्चित् उचित होने पर भी बाला ( स्वयं अप्रौढ़ या-नवीन-अप्रौढ सखियों वाली ) तुमको सघन वन-समूहोंको देखकर भय उत्पन्न होना चाहिये; इस प्रकार तुम इस कार्य में प्रवृत्त मत होवो, लौट जावो' // 13 / / वृथाऽर्पयन्तीमपथे पदं त्वां मरुल्ललत्पल्लवपाणिकम्पैः / आलीव पश्य प्रतिषेधतीयं कपोतहङ्कारगिरा वनालीः // 14 // वृथेति / वृथा व्यर्थमेव न पन्था अपथम्, 'ऋकपूरि'त्यादिना समासान्तः अः, 'अपथं नपुंसकम्' / तस्मिन्नपथे दुर्मार्गे अकृत्ये च पदं पादं व्यवसायं च अर्पयन्ती 'पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माद्धिवस्तुष्वि'त्यमरः / मरुता ललन् चलन् पल्लव एव पाणिस्तस्य कम्पैः कपोतहुकारगिरा च वनाली आलीव सखीव प्रतिषेधति निवारयति, पश्य इति वाक्यार्थः कर्म / यथा लोके अमार्गवृत्तं सुहृजनः पाणिना वाचा च वारयति तद्वदित्यर्थः / अत एव पल्लवपाणीत्यादौ रूपकाश्रयणम् तत्सङ्कीर्णा वनाल्यालीवेत्युपमा // 14 // यह वनपङ्क्ति वायुसे विलास करते हुए पल्लवरूपी हाथोंके कम्पनोंसे एवं कबूतरोंके 'हुङ्कार'रूप वाणीसे वेराह चलती हुई तुमको सखीके समान रोक रही है, यह तुम देखो // धायः कथंकारमहं भवत्या वियाहारी वसुधैकगत्या / अहो शिशुत्वं तव खण्डितं न स्मरस्य सख्या वयसाऽप्यनेन / / 17 / / धार्य इति / एकत्रैव गतिर्यस्यास्तया एकगत्या वसुधायामेकगत्या भूमात्रचारिण्येत्यर्थः / शिवभागवतवत्समासः / भवत्या वियद्विहारी खेचरोऽहं कथङ्कारं कथमित्यर्थः / 'अन्यथैवं कथमित्थंसुसिद्धाप्रयोगश्चेदि'ति' कथंशब्दोपपदात्करोतेर्णमुल / धार्यों धतुं ग्रहीतुं शक्य इत्यर्थः / 'शकि लिङ्चेति चकाराच्छक्यार्थे कृत्यप्रत्ययः। अनेन स्मरस्य सख्या सखिना तदुद्दीपकेन वयसा यौवनेन सखिशब्दस्य भाषितपुस्कत्वात् पंवद्भावः / न खण्डितं न निवर्तितम् अहो विरुद्धवयसोरेकत्र समावेशादाश्चर्यमित्यर्थः अत्राधार्यत्वस्य वसुधागतिवियद्विहारपदार्थहेतुकत्वादेकः काव्यलिङ्गभेदस्तथा शंशवाखण्डनस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वादपर इति सजातीयसङ्करः // 15 // ___ केवल पृथ्वी पर चलनेवाली तुम आकाशमें विहार करनेवाले ( इच्छापूर्वक चलनेवाले मुझको किस प्रकार पकड़ सकती हो ? अर्थात् कथमपि नहीं पकड़ सकती। आश्चये है कि कामदेवके मित्र इस अवस्था ( युवावस्था ) ने तुम्हारे बचपनको नहीं दूर किया अर्थात् युवावस्थाके आनेपर भी तुम्हारा बचपन नहीं गया, यह आश्चर्य है। ( अथवा-कामदेवतुल्य नलके मित्र इस पक्षीने अर्थात् मैंने तुम्हारे बचपनको खण्डित नहीं किया ? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। अर्थात् प्रायः खण्डित ही कर दिया शीघ्र नलकी प्राप्ति होनेसे तुम अपना बचपन प्रायः दूर हुआ ही समझो। [तुम केवल पृथ्वीपर चलने वाली हो अर्थात् पृथ्वीपर भी इच्छापूर्वक सर्वत्र गमन करने में समर्थ नहीं हो और मैं आकाशमें भी केवल चलने ही वाला नहीं हू, अपितु विहार करनेवाला ( इच्छापूर्वक सर्वत्र जाने वाला ) हूं-इस प्रकार तुम्हें केवल पृथ्वीपर चलनेसे और मुझे आकाशमें भो विहार करनेसे हम दोनोंकी गतिमें बहुत अन्तर है, अतएव तुम मुझे किसी प्रकार भी नहीं पकड़ सकती हो] / / 15 / / सहस्रपत्रासनपत्रहसवंशम्य पत्राणि पतत्रिणः स्मः / अम्मादशा चाटुरमामृतानि स्वर्लोकलोकेतरदुर्लभानि / / 16 // अथ प्रस्तुतोपयोगितया निजान्वयं निवेदयति-सहस्रति / सहनपत्रासनस्य कमलासनस्य पत्रहंसाः वाहनहंसाः तेषां वंशस्य कुलस्य वेणोश्च पत्राणि वाहनानि पर्णानि च 'वंशो वेणौ कुले वर्गे', 'पत्रं स्याद्वाहने पर्णे' इति च विश्वः / पतत्रिणः स्मः ब्रह्मवाहनहंसवंश्याः वयमित्यर्थः। अस्मानिव पश्यन्तीति अस्मादृशामस्मद्विधानां 'त्यदादिप्वि'त्यादिना दृशेः किन् चाटुषु सुभाषितेषु ये रसाः शृंगारादयः त एव अमृतानि स्वलोंके लोका जनाः, 'लोकस्तु भुवने जने' इत्यमरः / तेभ्यः इतरैमनुष्यैर्दुर्लभानि लब्धुमशक्यानीत्यर्थः // 16 // हम लोग कमलासन ( ब्रह्मा ) के वाहन ( हंस ) के वंशके सहायक पक्षी अर्थात् ब्रह्मा के वाहन हंसवंश के कुलमें उत्पन्न हंस हैं / हम जैसे लोगोंके प्रियवचन-रसरूपी अमृत स्वर्गलोकके लोगोंस भित्र लोगों ( मर्त्यलोक या पाताल में निवास करनेवाले लोगों ) को दुर्लभ है / ( अतः मुझे यथाकथञ्चित् पकड़ने पर भी तुम मुझसे कोई लाभ नहीं उठा सकती / / 16 // स्वगापमाहममृणालिनीना नालामृणालाग्रभुजी भजामः / अन्नानरूपा तनुरूपऋद्धि कार्य निदानादि गुणानधीते / / 17 / / अथ स्वाकारस्य कनकमयत्वे कारणमाह-स्वर्गेति / स्वर्गापगा स्वर्णदी तस्या हेममृणालिन्यस्तासां या नालाः काण्डाः यानि मृणालानि कन्दाश्च / अत्र नालामृणालशब्दस्य शब्दानुशासनं केषां शब्दानामितिवत्समासे गुणभूतेन सम्बन्धः सोढव्यः 'नालो नालमथास्त्रियामि'त्यमरवचनान्नालेति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः न च तत्रापि सन्देहः / तद् व्याख्यानेषु देशान्तरकोशेषु च स्त्रीलिङ्गपाठस्यैव दर्शनात् / तथा च दशमे सर्गे प्रयोक्ष्यते 'मृदुत्वमप्रौढमृणालनालया' इति, 'नाला स्याद्विसकन्द' इति विश्वः, तेषामग्राणि भुञ्जत इति तद्भुजः वयमिति शेषः। अन्नानुरूपामाहारसदृशीन्तनोः शरीरस्य रूपऋद्धिं वर्णसमृद्धिम् 'ऋत्यक' इति प्रकृतिभावः। भजामः प्राप्ताः स्म इत्यर्थः / तथा हि कार्य जन्यं द्रव्यं निदानादुपादानात् , 'आख्यातोपयोग' इत्यपादानता गुणान् रूपादिविशेषणगुणान् अधीते प्राप्नोतीत्यर्थः / प्राप्तिविशेषवाचि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 नैषधमहाकाव्यम् / नस्तत्सामान्यलक्षणात् प्रायेण आहारपरिणतिविशेषपूर्विकाः प्राणिनां कायकान्तय इति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 17 // ( हंस अब अपने स्वर्ण-शरीर होनेका कारण कहता है-) आकाशगङ्गाकी स्वर्ण कमलिनीके नालके अग्रभाग ( कमल तथा कमलदण्ड-बिस ) को खानेवाले हम लोग अन्न ( खाद्य पदार्थ ) के अनुरूप शरीरके रूपकी समृद्धि अर्थात् स्वर्ण शरीर को प्राप्त किये हैं, क्योंकि कार्य कारणके गुणोंको प्राप्त करता है / [ सुवर्णकमल तथा सुवर्णबिस भोजन करनेसे हम लोगोंका शरीर भी सुवर्णमय है / 'हम ऐसा बहुवचन कहकर बहुत-से हंसों का सुवर्णमय शरीर होना सूचित करता है ] // 17 / / / धातुर्नियोगादिह नैषधीयं लीलासरस्से वितुमागतेषु / है मेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि भूलोकविलोकनोत्कः // 18 // अथात्मनः आमालोकसञ्चरणे कारणमाह-धातुरिति / धातुब्रह्मणो नियोगादादेशादिह भूलोके नैषधीयं नलीयं लीलासरः सेवितुं क्रीडासरसि विहर्तुमित्यर्थः / आगतेषु हैमेषु हेमविकारेषु / विकारार्थेऽण प्रत्ययः / 'नस्तद्धित' इति टिलोपः। हंसेषु मध्ये अहमेक एव भूलोकविलोकने उत्कः उत्सुकः सन् 'दुर्मना विमना अन्तर्मनाः स्यादुत्क उन्मना' इत्यमरः / उच्छब्दात्कन् प्रत्ययान्तो निपातः भ्रमामि पर्यटामि // 18 // ( वह ब्रह्माका वाहन होनेपर मर्त्यलोकमें आनेका कारण बतलाते हुए नलका प्रसङ्ग भी उपस्थित करता है- ) ब्रह्माकी आज्ञासे यहां ( मर्त्यलोकमें ) नलके क्रीडासरका सेवन करने ( नलके क्रीडातडागमें विचरने ) के लिए आये हुए सुवर्णमय हंसों में भूलोकको देखनेके लिए उत्कण्ठित अकेला मैं घूम रहा हूँ। ( इससे हंसने नलके क्रीडासरमें बहुत-से सुवर्णमय हंसोंका होना और ब्रह्मा की आज्ञासे वहां निवास करना कहकर उसका अधिक महत्त्व सूचित किया है ] // 18 // विधेः कदाचिद् भ्रमणाविलासे श्रमातुरेभ्यस्स्वमहत्तरेभ्यः / स्कन्धस्य विश्रान्तिमदां तदादि श्राम्यामि नाविश्रमविश्वगोऽपि / / 1 / / अनवरतभ्रमणेऽपि श्रमजये कारणमाह-विधेरिति / कदाचिद्विधेः ब्रह्मणो भ्रमणीविलासे भुवनभ्रमणविनोदे श्रमातुरेभ्यः अवसन्नेभ्यः स्वमहत्तरेभ्यः स्वकुलवृ. द्धेभ्यः स्कन्धस्यांसस्य, 'स्कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री'त्यमरः / विश्रान्तिमदां प्रादाम् / स्वयमेक एवाहमित्यर्थः / ददातेलुंङि 'गातिस्थे'त्यादिना सिचो लुक / तदादि तत्प्र. भृति अविश्रममनवरतं 'नोदात्तोपदेश'त्यादिना श्रमेजि वृद्धिप्रतिषेधः, विश्वगो विश्वं गच्छन्नपि 'अन्यत्रापि दृश्यत' इति गमेर्डप्रत्ययः / न श्राम्यामि न खिद्य॥१९॥ ( 'जब तुम भूलोकको देखनेके लिए उत्कण्ठित होकर घूमते हो तो अधिक थके हुए तुम्हारा पकड़ा जाना सम्भव हैं। इस दमयन्तीके मनोगत शङ्काका राजहंस खण्डन करता है-(किसी समय ब्रह्माके भ्रमण-विलासमें थकनेसे दुःखी अपनेसे बड़े ( हंसों) के Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 126 लिए मैंने विश्राम दिया था तबसे ( ब्रह्माके वरदानके कारण ) निरन्तर संसारका भ्रमण करता हुआ भी मैं नहीं थकता हूँ // 19 / / / बन्धाय दिव्ये न तिरश्चि कश्चित्पाशादिरासादितपौरुषस्स्यात् / एकं विना माशि तन्नरस्य स्वर्भोगभाग्यं विरलोदयस्य / / 20 / / __ अथ व्याधादिबन्धनमपि न मेऽस्तीत्याह-बन्धायेति / मादृशि दिव्ये तिरश्चि विषये विरलोदयस्य दुर्लभजन्मनो नरस्य मय॑स्य प्रायेणैवंविधो नास्तीत्यर्थः / अन्यत्र विरो विगतरेफः स चासौ लोदयो लोदयवांश्च मत्वर्थीयोऽकारः। तस्य रेफस्थानाधिष्ठितलकारस्य नलस्येत्यर्थः / शब्दधर्मोऽर्थ उपचर्यते, भुज्यत इति भोगः सुखं स्वर्गभोगस्य स्वर्गसुखस्य भाग्यं तत्प्रापकादृष्टमित्यर्थः / स्वप्राप्तेस्तत्प्रापकत्वादिति भावः / तदेकं विना कश्चित् पाशादिः पाशाद्युपायः / बन्धाय बन्धनार्थमासादितपौरुषः प्राप्तव्यापारो न स्यात् / स्वर्भोगभाग्यैकसुलभा वयं, नोषायान्तरसाध्या इत्यर्थः / अस्माक्संसर्गादन्यः को नाम स्वर्गपदार्थ इति भावः // 20 // ( 'जाल आदिसे पक्षियोंका पकड़ा जाना सम्भव होनेसे तुम्हें भी पकड़ा जा सकता है। दमयन्तीके इस मनोगत शङ्काका निवारण करता हुआ हंस पुनः नलका प्रसङ्ग लाता है-) स्वर्गीय मुझ पक्षीको पकड़नेके लिए विरलोदय (विरल समृद्धि वाले ) उस प्रसिद्ध नरके स्वर्गमें भोग करने योग्य भाग्यके बिना कोई जाल आदि सामर्थ्यवान् ( सफल ) नहीं हो सकता / पक्षा०—जिस 'नर' शब्दमें 'र' नहीं है और वहाँ 'ल' का उदय है, उस 'नर' अर्शन 'नल' के स्वर्ग के भोग करने योग्य भाग्यके बिना... ... .. अर्थात् पोल नलका ही ऐमा स्वर्गीय भाग्य है कि मुझ-जैसे दिव्य पक्षीको पकड़नेमें समर्थ हो सके अन्य जाल आदि कोई भी मुझे नहीं पकड़ने में समर्थ होगा, मुझे पकड़ने के लिए तुम्हारा प्रयास करना व्यर्थ है।२० // इष्टेन पूर्तेन नलस्य वश्यास्स्वर्भोगमत्रापि सृजन्त्यमाः / महीकहो दोहदसेकशक्तेराकालिकं कोरकमुगिरन्ति / / 21 // तच्च भाग्यं नलस्यैवास्तीत्याह-इष्टेनेति / इष्टेन यागेन पूर्तेन खातादिकर्मणा च / 'त्रिष्वथ क्रतुमष्टं पूत्त खातादिकर्मणी'त्यमरः / वश्याः वशङ्गता इति प्रागदी. व्यतीयो यत्प्रत्ययः। अमर्त्या देवा नलस्यात्रापि भूलोके स्वर्भोगं सृजन्ति स्वर्गसखं सम्पादयन्तीत्यर्थः / ननु देवाश्च कथं लोकान्तरकायान्तरभोग्यं स्वर्गमिदानीं सृजन्तीत्याशङ्कां दृष्टान्तेन परिहरति ।महीरुहो वृक्षाः दोहदस्य अकालप्रसवोत्पादनद्रव्यस्य सेकस्य जलसेकस्य शक्तेः सामर्थ्यात् समानकालावाद्यन्तौ उत्पत्तिविनाशावस्येत्या. कालिकः उत्पत्त्यनन्तरविनाशीत्यर्थः। 'आकालिकडायन्तवचन' इति समानकालशब्दस्याकालशब्दादेशे ठअप्रत्ययान्तो निपातः। प्रकृते त्वकालभवं कोरकमद्विरन्तीत्यर्थः / ' तरुगुल्मलतादीनामकाले कुशलैः कृतम् / पुष्पाद्युत्पादकं द्रव्यं दोहदं Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 नैषधमहाकाव्यम् / स्यात्त तरिक्रया' इति शब्दार्णवे / दोहदवशाद् वृक्षा इव देवता अपि उत्कटपुण्यव. शाददेशकालेऽपि फलं प्रयच्छन्तीत्यर्थः दृष्टान्तालङ्कारः // 21 // ( अब दो श्लोकों ( 3 / 21-22 ) में मर्त्यलोकवासी भी नलके स्वभोंग्य भाग्यका प्रतिपादन करता है-) देवलोग यागादि तथा तडाग-वाटिकादिसे नलके वशीभूत होकर यहां पर ( इस भूलोकमें ) भी स्वर्गीय भोगको रचना करते हैं, क्योंकि वृक्ष भी दोहद सेकके प्रभावसे असमय में कलिकाको उत्पन्न करते हैं / अथवा-जब अमर्त्य (मनुष्यभिन्न) जड वृक्ष भी इष्ट ( दोहद-धूप खाद आदि देने ) तथा पूर्त ( थालामें पानी आदि देने ) से असमयमें कलिकाको देते हैं, तब सर्वशक्ति सम्पन्न देवगण यज्ञ तथा वापी-कूप-तडागारामादिसे प्रसन्न होकर मर्त्यलोकमें भी नल के लिए स्वर्गीय भोग देते हैं, इसमें कौन-सा आश्चर्य है ? ) // 21 // सुवणशलादवतीय तूर्ण स्वाहिनीवारिकणावकोणः / तं वीजयामः स्मरकेलिकाले पढेन पंचामरबद्धसख्यैः / / 22 / / स्वभॊगमेवाह-सुवर्णेति / सुवर्ण शैलान्मेरोस्तूर्णमवतीर्य अवरुह्य स्वर्वाहिनीवारिकणावकीर्णे मन्दाकिनीजलबिन्दुसम्पृक्तैः चामरेषु बद्धसंख्यैस्तत्सदृशैः पक्षः पतत्रैः स्मरकेलिकाले तं नृपं वीजयामः तादृक्पक्षवीजनैः सुरतश्रान्तिमपनुदाम इत्यर्थः॥२२॥ देवों ( या-चामर ) के साथ मित्रता करनेवाले हम लोग ( मुझ-जैसे बहुत-से सुवर्णमय हंस ) काम-क्रीडाके समय सुमेरुपर्वतसे शीघ्र उतरकर आकाशगङ्गाके जलकणसे आई पङ्खों द्वारा उस ( नल ) को हवा करते हैं [ उपर्युक्त श्लोकमें देवलोग नलके स्वर्गभोगकी रचना करते हैं, तथा इस श्लोक में कथित हवा करनेसे हम लोग स्वर्गभोगकी रचना करते हैं, अत एव हमारा तथा देवोंका नलके लिए स्वर्गीय भोगरचनारूप एक कार्य होनेसे परस्परमें मैत्री होना उचित ही है, तथा राजा नलका चामरके द्वारा हवा की जाती है, और हम लोग पंखों द्वारा हवा करते हैं, अतः समान कार्य होनेसे चामरके साथ भी हमारी मित्रता होना उचित ही है ] // 22 // क्रियेत चेत्साधुविभाक्ताचन्ता व्याक्तस्तदा सा प्रथमाभिधेया। या स्वौजसां साधयितुं विलासैस्तावत्क्षमा नामपदं बहु स्यात् / / 23 / / __क्रियेतेति साधुविभक्तिचिन्तां सजनबिभागविचारः क्रियेत चेत्सा नलाभिधाना व्यक्तिः मूर्तिः प्रथमाभिधेया प्रथमं परिगणनीया। कुतः या व्यक्तिः स्वौजसा विलासैाप्तिभिः तावद्वहु तथा प्रभूतं नास्ति नामो नतिर्यस्येति-अनाकमननं पदं परराष्ट्र साधयितुं स्वायत्तीकर्तुं क्षमा समर्था स्यात् / अन्यत्र साधुविभक्तिचिन्ता सप्तविभक्तिविचारः क्रियेत चेत् यदा सा प्रथमा व्यक्तिः अभिधेया विचार्या, या स्वौजसा 'सु औ जस्' इत्येषां प्रत्ययानां विलासैः विस्तारैस्तावद्वहु अनेकं नामपदं . सुबन्तपदं 'वृक्ष' इत्यादिकं पदं साधयितुं निष्पादयितुं क्षमा / अत्राभिधायाः प्रकृतार्थमात्र नियन्त्रितत्वावक्षणायाश्चानुपषत्त्यभावेनाभावादप्रकृतार्थप्रतीतिर्ध्वनिरेन // 23 // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः यदि सज्जनों के विभाजनका विचार किया जाय तो वह ( नल ) प्रथम व्यक्ति होगा, जो अपने पराक्रमके विलासोंसे बहुत-से शत्रुस्थानोंको वशमें करनेके लिए समर्थ है / ( पक्षा०-यदि ( 'सुप्-तिङ' रूप ) साधु विभक्तिका विचार किया जाय तो 'प्रथमा' नाम से प्रसिद्ध वह व्यक्ति होगा, जो 'सु-और-जस्' ( एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन ) के विलासोंसे बहुत-में 'नाम' अर्थात् प्रातिपदिक पदोंको सिद्ध करनेके लिए समर्थ है / 'प्रातिपदिकालिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा' ( पा० सू० 2 / 3 / 46 ) के नियमानुसार सब विभक्तियोंमें-से किसी विभक्ति-विशेषकी प्राप्ति नहीं रहनेपर 'प्रातिपदिकार्थ' में प्रथमा विभक्तिका प्रयोग सामान्यतः होता है, अत एव वहं प्रथमा विभक्ति हो 'सु-औ-जम् रूप प्रत्ययों के विसर्गलोष, वृद्धिः दीर्घ आदि कार्योंके विलाससे 'प्रातिपदिक पदको सिद्ध करने में समर्थ होती हैं / अथ च-यादे एकवचन आदि विभक्तियोंमें साधु विभक्तियों का विचार किया जाय तो 'सु' औ, 'जम्' के बोचमें प्रथमा (पहली) विभक्ति अर्थात् 'सु' विभक्ति होगी, जो अपने विसर्ग-लोपादिरूप बलके विलासोंसे प्रातिपदिक पदको सिद्ध करनेके लिए बहुत समर्थ है / 'अपदं न प्रयुजीत', 'एकवचनमुत्सर्गतः करिष्यते' अर्थात् अपद ( साधुत्व-हीन ) शब्दका प्रयोग नहीं करना चाहिये, एकवचनका प्रयोग स्वभावतः (किसी विभक्ति-विशेषकी आकांक्षा नहीं रहने पर भी स्वतः एव ) "किया जाता है इस सिद्धान्तके अनुसार 'सु, औ, जस्' विभक्तियों में भी पहली 'सु' विभक्ति सब प्रातिपदिक पदको सिद्ध करने के लिए सर्वथा समर्थ है ] // 23 // राजा स यज्वा विबुधवजत्रा कृत्वाऽध्वराज्योपमयेव राज्यम् / भुङ्क्ते श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्रीः पूर्व त्वहो शेषमशेषमन्त्यम् / / 24 / / राजेति / 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्', 'सुयजोर्ध्वनिप', श्रिताः आश्रिताः ये श्रो. त्रियाः छान्दसा अधीतवेदा इत्यर्थः / श्रोत्रियच्छान्दसौ समावि'त्यमरः। 'श्रोत्रियश्छन्दोऽधीत' इनि निपातः / तत्सात्कृता दानेन तदधीना कृता श्रीः सम्पद्येन सः राजा नलः अध्वरेषु यदाज्यन्तदुपमया तत्सादृश्येनैव तद्वदेवेत्यर्थः। राज्यं विबुधा देवा विद्वांसश्च तद्वजत्रा दानेन तत्सङ्घाधीनं कृत्वा 'देये त्रा चेति चकारादितरत्र सातिप्रत्ययश्च, 'तद्धितश्वासर्वविभक्तिरित्यव्ययत्वम्, पूर्व पूर्वनिर्दिष्टमध्वराज्यं शेषं हुतशेषं भुङ्क्ते अन्त्यं पश्चान्निर्दिष्टं राज्यन्त्वशेषं कृत्स्नमखण्डं भुङ्क्ते, अहो उपभुतादन्यः शेषः पूर्वस्याशेषस्य तथात्वम्, अन्त्यस्य अशेषत्वं कथं विरोधादित्याश्चर्यम्, अत एव विरोधाभासोऽलङ्कारः, अखण्डमिति परिहारः // 24 // ___आश्रयस्थ श्रोत्रियों ( वेदपाठियों ) के अधीन करनेवाले अर्थात् वेदपाठियोंकी धनदान करनेवाले तथा सविध यज्ञकर्ता वे ( राजा नल ) यशके घीके दृष्टान्तसे ही राज्यको विद्वत्समूह ( पक्षा०-देवसमूह ) के अधीन करके पहले ( यज्ञशेष घृत ) को शेष ( बचा हुआ ) तथा अन्तिम ( राज्य ) को अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते (खाते, पक्षा०-भोगते ) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 नैषधमहाकाव्यम्। हैं, यह आश्चर्य है / [ राजा नल आश्रममें रहनेवाले श्रोत्रियों ( जन्म, संस्कार तथा विद्यासे युक्त ब्राह्मणों ) को धन देकर जिस प्रकार यज्ञके घृतको विबुधों ( देवों ) के समूहके अधीन करते ( उन्हें देते हैं, उसी प्रकार राज्यको भो विबुधों (विशिष्ट विद्वानों) के समूहके अधीन करके प्रथम अर्थात् यज्ञघृतको शेष ( यज्ञ-कर्मसे बचा हुआ ) भोजन करते हैं तथा अन्तिम ( राज्य ) को अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते हैं, यह आश्चर्य है, क्योंकि 'जो वस्तु पहले खायी जाती है, वह सम्पूर्ण तथा जो बाद में खायी जाती है, उसे असम्पूर्ण खाया जाता है' ऐसा साधारण लौकिक नियम है, किन्तु ये राजा नल पूर्व ( यज्ञ-घृत ) को शेष. तथा अन्तिम ( राज्य ) को सम्पूर्ण भोजन करते ( पक्षा०-भोगते ) हैं अतः आश्चर्य है / अथ च-सर्वसाधारणके भोज्य होनेसे मार्गमें जो राज्य, तत्सामान्यतः राज्यका भोग करनेवाले ये नल राज्यको अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते हैं यह आश्चर्य है / विधिवत् हवनकर आश्रित श्रोत्रियोंको धन देनेवाले तथा समुद्रावधि सम्पूर्ण राज्यको भोगनेवाले राजा नल हैं ] // 24 // दारिद्रयदारिद्रविणोधवषैरमोघमेघव्रतमथिसाथ। सन्तुष्टमिष्टानि तमिष्टदेवं नाथन्ति के नाम न लोकनाथम् // 25 // दारिद्रयेति / दारिद्रयं दारयति / निवर्तयतीति तस्य दारिद्रयदारिणो द्रविणौघस्य धनराशेरर्थिसाथै विषये अमोघमेघव्रतं वर्षुकत्वलक्षणं यस्य तं सन्तुष्टं दानहृष्टमिष्टदेवं यज्ञाराधितसुरलोकनाथं तं नलं के नाम इष्टानि न नाथन्ति ? न याचन्ते सर्वेऽपि नाथन्त्येवेत्यर्थः / नाथतेर्याच्जार्थस्य दुहादित्वाद् द्विकर्मकत्वम्॥२५॥ दरिद्रताको दूर करनेवाले धनराशिकी वर्षाओंसे याचक-समूहमें सफल व्रतवाले, ( दान-कर्मसे ) सन्तुष्ट, देव-यज्ञ करनेवाले (या-देव हैं अभीष्ट देव जिसके ऐसे, या( याचकोंके लिए ) ( अभीष्ट देवरूप ) उस राजा ( नल ) से कौन लोग अभीष्ट ( आदि) की प्रार्थना नहीं करते हैं ? अर्थात् राजा नलसे सभी लोग अभिलषित धनादिको चाहते हैं / [ जिस प्रकार याचना करनेपर मेघ वर्षासे धान्योत्पादनके द्वारा सभी लोगोंकी दरिद्रताको दूर करता है, उसी प्रकार राजा नल भी अधिक धन देकर सभी याचकोंकी दरिद्रताको दूर करते हैं, अतएव मेघके समान दरिद्रताको दूर करनेसे नलका व्रत (नियम) सफल है ] // 22 // अस्मत्किल श्रोत्रसुधां विधाथ रम्भा चिरं भामतुला नलस्य / तत्रानुरक्ता तमनाप्य भेजे तन्नामगन्धान्नलकूबरं सा // 26 // अस्मदिति / सा प्रसिद्धा रम्भा नलस्यातुलामनुपमां भां सौन्दर्यमस्मत् मत्तः श्रोत्रसुधां विधाय कणे अमृतं कृत्वा रसादाकयेत्यर्थः। तत्र तस्मिन्नले अनुरक्ता सती तं नलमनाप्य अप्राप्य, आपूर्वादाप्नोतेः क्त्वो ल्यबादेशः नमसमासः / अन्यथा त्वसमासे ल्यवादेशो न स्यात् तन्नामगन्धात्तस्य नलस्य नामाक्षरसंस्पर्शादे॒तोर्नलकूबरं कुबेरात्मजं भेजे किल / तादृक्तस्य सौन्दर्यमिति भावः // 26 // Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 543 वह ( सुप्रसिद्ध स्वर्गीय ) रम्भा नामकी अप्सरा हमलोगोंसे नलकी अनुपम शोभाको बहुत देरतक सुनकर उनमें अनुरक्त हुई, और उनको नहीं पाकर उनके नामके कुछ भाग होनेसे नलकूवरकी सेवा करने लगी ( नलकूबरको पतिरूपमें प्राप्त कर उनकी सेवामें लग गयी) ! [ लोकमें भी अभीष्ट वस्तुको पूर्णतः नहीं प्राप्त होने पर उसके सदृश वस्तुको प्राप्त कर उसीकी सेवा करते लोगोंको देखा जाता है ] // 26 // स्वर्लोकमस्माभिारतः प्रयातैः केलीषु तद्गगानगुणानिपीय / हा हेति गायन् यदशोचि तेन नाम्नैव हाहा हरिगायनोऽभूत // 27 // स्वलॊकमिति / केलीषु विनोदगोष्टीषु तस्य नलस्य कर्तुर्गाने गुणाधिपीय इतः अस्माल्लोकात् स्वलोकं प्रयातरस्माभिर्हरिगायनः इन्द्रगायको गन्धर्वः 'प्युट चेति गायतेः शिल्पिनि ण्युट्प्रत्ययः / गायन् यद्यस्मात् हाहेत्यशोचि, ततस्तेनव कारणेन नाम्ना हाहा अभूत् , आलापाक्षरानुकारादिति भावः / 'हाहाहूहूश्चैवमाद्या गन्ध स्त्रिदिवौकसामि'त्यमरः / 'आलापाक्षरानुकारनिमित्तोऽयमाकारान्तः पुंसि चेति केचित् / 'हाहा खेदे हुहु हर्षे गन्धर्वेऽमू अनव्यय' इति विश्वः / अव्ययमेवेति भोजः। अत्र शोकनिमित्तासम्बन्धेऽपि सम्बन्धादतिशयोक्तिः। तथा च गन्धर्वातिशायि गानमस्येति वस्तु व्यज्यते // 27 // क्रीडाके समयमें उस ( नल ) के गानेके गुणों को अच्छी तरह पीकर अर्थात् सुनकर यहां ( मर्त्यलोक ) से स्वर्गको गये हुए हम लोगोंने ( स्वर्गमें गान करते हुए गन्धर्वको) जो 'हा, हा', सोचा ( राजा नलने गानेकी तुलनामें तुम्हारा गाना अत्यन्त तुच्छ है, इस अभिप्रायसे जो 'हा' हा ? कहा) तो उस इन्द्रके गन्धर्वका नाम ही 'हा हा' पड़ गया। राजा नल गान विद्यामें भी 'हा हा' नामक स्वर्गीय गन्धर्व से अधिक निपुण है ] // 27 / / शृण्वन् सदारस्तदुदारभावं हृष्यन्मुहुर्लोम पुलोमजायाः / पुण्येन नालोकत 'नाकपालः प्रमोदबाष्पावृतनेत्रमालः // 28 // शृण्वन्निति / नाकपाल इन्द्रः सदारः सवधूकः तस्य तलस्य उदारभावमौदार्य शृण्वन्नत एव प्रमोदबाप्पैरानन्दाभिरावृतनेत्रमालस्तिरोहितदृष्टिब्रजः सन् पुलोमजायाः शच्याः मुहुह प्यन्नलानुरागादुल्लसल्लोमरोमाञ्चं पुण्येन शच्या भाग्येन नालोकत नापश्यत् अन्यथा मानसव्यभिचारापराधाद् दण्ड्यैवेत्यर्थः // 28 // ____ स्त्री ( इन्द्राणी) के साथ नलकी उदारताको सुनते हुए (हर्षाश्रुसे व्याप्त नेत्र-समूह वाले ) इन्द्रने इन्द्राणीके बार-बार पुलकित होते हुए रोमको ( नलमें अनुराग होनेसे उत्पन्न इन्द्राणी के रोमाञ्चको, इन्द्राणीके ) पुण्य (भाग्यातिशय ) से नहीं देखा [ अन्यथा यदि इन्द्राणीके रोमाञ्चको इन्द्र देख लेते तो नलमें अनुरक्त होनेसे इसे शृङ्गारसम्बन्धी रोमानरूप सात्त्विकभाव हो रहा है, अत एव यह पतिव्रता नहीं है, ऐसा समझकर उसका त्यागकर 1. लोकपाल' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः। 10 नै० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 नेषधमहाकाव्यम् / देते, किन्तु स्वयं नलगुणको सुननेसे हर्षोत्पन्न अश्रुसे भरे हुए नेत्र होनेके कारण उस रोमाञ्चको इन्द्र नहीं देख सके यह इन्द्राणीका भाग्य समझना चाहिये अथवा-नलकी उदारताको सुनते हुए बार-बार प्रसन्न अर्थात् रोमाञ्चित होते हुए हर्षाथ से व्याप्त नेत्रसमूहवाले इन्द्रने इन्द्राणीके रोमाञ्चको इन्द्राणीके पुण्य से नहीं देखा ] // 28 // साऽपीश्वरे शृण्वात तद्गुणोघान् प्रसह्य चेतो हरतोऽर्धशम्भुः। अभूदपर्णाऽङ्गुलिरुद्धकर्णा कदा न कण्डूयनकैतवेन 1 // 29 // सेति / ईश्वरे हरे प्रसह्य चेतो हरतो बलान्मनोहारिणस्तस्य नलस्य गुणौघान् शृण्वति सति सा प्रसिद्धा अर्ध शम्भोरर्धशम्भुः शम्भोरर्धाङ्गभूतेत्यर्थः। तथा चापसरणमशक्यमिति भावः / अपर्णा पार्वत्यपि कदा कण्डूयनकैतवेन कण्डूनोदनन्याजेन अङ्गुल्या रुद्धः पिहितः कर्णो यया सा नाभूत अभूदेवेत्यर्थः / अन्यथा चित्तचलनादिति भावः // 29 // चित्तको बलात्कारपूर्वक हरण ( वशीभूत ) करते हुए, नलके गुण-समूहोंकी शङ्करजीके मुनते रहनेपर अद्धशम्भु वह ( पतिव्रताओंमें सुविख्यात) पार्वती कान खुजलानेसे छलसे कब अङ्गलिसे कानको नहीं बन्द कर लेती है ? [शङ्करजीका आधा शरीर पार्वती हैं, अतएव जब शङ्करजी नलके गुण-समूहोंको सुनने लगते हैं, तब नलके गुण-समूह बलात्कारपूर्वक ( इच्छा नहीं रहनेपर भी ) पार्वतीके चित्तको आकृष्ट करते हैं, और उस चित्ताकर्षणसे पार्वतीको पातिव्रत्यके भङ्ग होने का भय उत्पन्न हो जाता है, अतएव आधे शरीरमें रहनेसे अन्यत्र जानेमें अशक्त पार्वती कान खुजलानेके छलसे अपने कानको बन्द कर लेती है कि न में नलके गुण-समूहोंको सुनूगी और न मेरा पातिव्रत्य भङ्ग होगा] // 29 // अलं सजन धर्मविघी विधाता रणाद्ध मौनस्यामषेण वाणीम् / तत्कण्ठमालिङ्गय रसस्य तृमां न वेद तां वेदजडः स वक्राम // 30 // अलमिति / विधाता ब्रह्मा अलमत्यन्तं धर्मविधौ सुकृताचरणे सजन् धर्मासक्तः सचित्यर्थः / वाणी स्वभार्या वाग्देवीं वर्णात्मिकाच मौनस्य वाग्यमनव्रतस्य मिषेण रुणद्धि नलकथाप्रसङ्गाबिरुन्धे, तस्या उभय्या अपि तदासङ्गभयादिति भावः / किन्तु वेदजडः छान्दसः विधाता तामुभयीमपि वाणीं तस्य नलस्य कण्ठं ग्रीवामालिङ्गय मुखमाश्रित्य च रसस्य तृप्तां तद्रागसन्तुष्टामन्यत्र शृङ्गरादिरसपुष्टाञ्च / सम्बन्धसामान्ये षष्ठी, 'पूरगगुणे'त्यादिना षष्ठीनिषेधादेव ज्ञापकादिति केचित् / वक्रां प्रतिकूलकारिणीं वक्रोक्त्यलङ्कारयुक्ताञ्च न वेद न वेत्ति, 'विदो लटो वेति णलादेशः / अशक्यरक्षाः स्त्रिय इति भावः / अत्र प्रस्तुतवाग्देवीकथनादप्रस्तुतवर्णात्मकवाणीवृत्तान्तप्रतीतेः प्रागुक्तरीत्या ध्वनिरेवेत्यनुसन्धेयम् // 30 // धर्मकार्यमें अत्यन्त आसक्त ब्रह्मा मौनके छलसे वाणी (स्त्री-पक्षा०-वचन) को अत्यन्त रोकते हैं (बाहर जाकर मेरी प्रिया यह वाणी पुरुषान्तर के पास चली जायेगी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः / 145 यह गूढाभिप्राय मन में रखकर धर्मके कपटसे वाणी को अच्छी तरह ब्रह्मा रोकते हैं अथोत् मौन रहते हैं / पक्षा० -स्त्रीको रोकते हैं / या-...."छलसे जो वाणीको रोकते हैं, वह व्यर्थ है ) किन्तु वेदाध्ययनसे जड ( वाणीके कपटको नहीं समझनेवाले ) वे ( ब्रह्मा ) उस ( नल ) के कण्ठका आलिङ्गनकर रस ( शृङ्गारादि ) से सन्तुष्ट वक्रा ( कुटिला, पक्षा०-वक्रोक्तिरूपा ) उस वाणीको नहीं जानते हैं। [ दूसरा भीः मूर्ख पुरुष अन्यपुरुषासक्ता कुटिला स्त्रीको नहीं समझता है। नल ही वक्रोक्तिपूर्ण वाणीको जानते है, दूसरा कोई नहीं] // 30 // श्रियस्तदालिङ्गनभून भूता व्रतक्षतिः काऽपि पतिव्रतायाः / समस्तभूतात्मतया न भूतं तद्भतुरीर्ध्याकलुषाऽणुनाऽपि // 31 // श्रिय इति / पतिव्रतायाः श्रियः श्रीदेव्याः तगर्तुर्विष्णोः समस्तभूतात्मतय, सर्वभूतात्मकत्वेन नलस्यापि विष्णुरूपत्वेनेत्यर्थः। तदालिङ्गनभूनलाश्लेषभवा कापि व्रतक्षतिः पातिव्रतभङ्गो न भूता नाभूत् / अतएव तद्भर्तुर्विष्णोश्च ईय॑या नलालिङ्गनभुबा अक्षमया यत्कलुषं कालुप्यं मनःक्षोभः दुःखादित्वेन अस्य धर्मधर्मिवचनत्वादत इव क्षीरस्वामी 'शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं सुखादि चे'त्यत्र आदिशब्दाच्छ्रे याकलुषशिवभद्रादय इति उभगवचनेषु संजग्राह / तस्याणुना लेशेनापि न भूतं नाभावि / नपुंसके भावे क्तः। अत्र शच्यादिचित्तचाञ्चल्योक्तेर्नलसौन्दर्य तात्पर्यान्नानौचित्यदोषः // 31 // (विष्णुको ) समस्त भूतों का स्वरूप होने से ( नलमें भी विष्णु-स्वरूप रहने के कारण ) पतिव्रता लक्ष्मी ( शरीर-शोभा या-राज्यलक्ष्मी ) की उस ( नल ) के आलिङ्गन करनेसे थोड़ी भी व्रतहानि ( पातिव्रत्य में न्यूनता) नहीं हुई, तथा उस ( लक्ष्मी) के पति (विष्णुभगवान् ) को भी ( अपनी प्रिया लक्ष्मीको नलका आलिङ्गन करनेपर ) असूयानिमित्तक पापलेश भी नहीं हुआ [ समस्तभूतात्मा विष्णु भगवान्के स्वरूप नलका आलिङ्गन करने पर लक्ष्मीका पातिव्रत्य धर्म भङ्ग नहीं हुआ और उनके पति विष्णु भगवान् भी लक्ष्मीपर लेशमात्र रुष्ट भी नहीं हुए, अन्यथा यदि नल परपुरुष होते तो लक्ष्मीका पतिव्रत धर्म नष्ट हो जाता तथा परपुरुष का आलिङ्गन करनेवाली लक्ष्मीपर उनके पति विष्णुभगवान् भी बहुत रुष्ट होते / नलके सम्पूर्ण शरीर में शोभा थी ] // 31 // धिक तं विधेः पाणियजातलज्जं निमोति यः पणि पूणामन्दुम / / मन्ये स विज्ञः स्मृततन्मुखाः कृतार्धमौज्झद्भवमूनिः यस्तम् ||32|| धिगति / तमजातलज्जं निस्पं विधेः पाणिं धिक् यः पाणिः स्मृततन्मुखश्रीरपि पर्वणि जातावेकवचनं पर्वस्वित्यर्थः / पूर्णमिन्दुं निर्माति अद्यापीति भावः / स विज्ञः अभिज्ञ इति मन्ये यः पाणिः स्मृततन्मुखश्रीः सन् तमिन्टुं कृत. अर्द्ध एकदेशो यस्य तं कृतार्द्धमर्द्धनिर्मितमेव भवमूर्ध्नि हरशिरसि औज्झत्। अतिसौन्दर्ययुक्तमस्यास्यमिति भावः॥३२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 नैषधमहाकाव्यम् / ब्रह्माके निर्लज्ज उस हाथको धिक्कारा है, जो पूर्णिमामें पूर्ण चन्द्र की रचना करता हैं, तथा (ब्रह्माके ) उस हाथको मैं निपुण मानता हूँ, नलके मुखकी शोभाको स्मरण किये हुए जिस (ब्रह्माके हाथ ) ने उस चन्द्रमा को शिवजीके मस्तकपर फेंक दिया ( अथवा नलंके मुखकी शोभाको स्मरण किये हुए निर्लज्ज उस ब्रह्माके हाथको धिक्कार है, जो पूर्णिमामें पूर्ण चन्द्रकी रचना करता हैं,.... ) / [ यद्यपि पूर्ण कला वाले चन्द्रमाकी रचना ब्रह्माका जो हाथ करता है, वही एक कलावाले भी चन्द्रमाकी रचना करता है, तथापि तिथिरूप कालभेदसे ब्रह्माके हाथमें भिन्नताका आरोप किया गया है। नलका . मुख पूर्ण चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर है ] // 32 // निलयिते होविधुरः स्वजैत्रं श्रुत्वा विधुस्तस्य मुखं मुखानः / सुरे समुद्रस्य कदापि पूरे कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्भ / / 33 / / निलीयत इति / विधुश्चन्द्रःस्वस्य जैत्रं, तृन्नन्तात्प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण प्रत्ययः / तस्य नलस्य मुखं नोऽस्माकं मुखाच्छ्रुत्वा हीविधुरः लजाविधुरः सन् कदापि सूरे सूर्ये दर्शष्वित्यर्थः, कदापि समुद्रस्य पूरे प्रवाहे तदुत्पनत्वात् कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्भे आकाशे सञ्चरमाणमेघोदरे निलीयते अन्तर्धत्ते, न कदाचिदग्रतः स्थातुमुत्सहत इति भावः / अत्र विधोः स्वाभाविकसूर्यादिप्रवेशे पराजयप्रयुक्तहीनिलीनत्वोत्प्रेक्षा म्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या // 33 // हम लोगोंके मुखके उस नलके मुखको स्वविजयी ( चन्द्रमाको जीतनेवाला ) सुनकर लज्जासे विकल होकर वह चन्द्रमा किसी समय ( अमावस्या तिथिको) सूर्यमें, किसी समय ( अस्त होनेके समयमें ) समुद्र-प्रवाहमें तथा किसी समय ( वर्षाऋतुमें ) बादलों के बीचमें छिप जाता है / लोकमें भी कोई दुर्बल व्यक्ति लज्जासे दुःखी होकर अपने विजयीके पामने नहीं होता और अलक्षित स्थानमें छिपा करता है ] // 33 // संज्ञाप्य नः स्वध्वजभृत्यवर्गान् दैत्यारिरजनलास्यनुत्यै / तत्संकुचन्नाभिसरोजपीतादातुविलज्ज रमते रमायाम् / / 34 // __ संज्ञाप्येति / दैत्यारिः विष्णुः स्वध्वजस्य गरुडस्य पज्ञिराजस्य भृत्यवर्गानोsस्मान् अतिक्रान्तमब्जमत्यब्जमब्जविजयीत्यर्थः / अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयये'ति समासः / तस्य नलास्यस्य नुत्यै स्तोत्राय, 'स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुतिरि'त्यमरः। संज्ञाप्य तत्सकुचता तया नुत्या निमीलतानाभिसरोजेन पीतात्तिरोहिताद्धातुर्ब्रह्मणो विलज्जं यथा तथा रमायां रमते / अत्र विष्णोरक्तव्यापारासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्ते. रतिशयोक्तिः // 34 // विष्णुभगवान् अपनी ध्वजामें (स्थित पक्षिराज गरुड़के) भृत्य-समूह हमलागा ( ब्रह्माके बाइनभूत सों) को नलके कमलातिशायिनी मुख-शोभाका वर्णन करने के लिए संकेतकर उस ( नलके मुखकी स्तुति ) में सचित होते हुए नामिकमलमें अन्तहिंत Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 140 ब्रह्मासे लज्जाका त्यागकर लक्ष्मीमें रमण करते हैं / ] विष्णु भगवान्की पताकामें पक्षियोंके स्वामी गरुड़ रहते हैं, अतएव वे विष्णु भगवान् गरुड़के भृत्य-समूह हमलोगोंके कमलशोभाको जीतने वाले नल-मुखकी प्रशंसा करने के लिए संकेत कर देते है और जब हमलोग नलके मुखकी प्रशंसा करने लगते हैं तो उनके नाभिका कमल स्वविजयी नल मुखके भय या लज्जासे मुकुलित हो जाता है और कमलपर रहनेवाले ब्रह्मा उसीके भीतर बन्द हो जाते है, अत एव विष्णुभगवान् पितामहका साक्षात्कार नहीं होनेसे लज्जा छोड़कर लक्ष्मी के साथ रमण करने लगते हैं ] // 34 // रेखाभिरास्ये गणनादिवास्य द्वात्रिंशता दन्तमयोभिरन्तः। चतुर्दशाष्टादश चात्र विद्या द्वेधाऽपि सन्तीति शशंस वेधाः // 5 // रेखाभिरिति / अस्य नलस्य आस्ये दन्तमयीभिर्दन्तरूपामिद्वात्रिंशता रेखाभिणनात्संख्यानाचतुर्दश चाष्टादश च विद्या द्वेधा अपि अत्र आस्ये सन्ति सम्भवन्यायेनेति वेधाः शशंसेवेत्युत्प्रेक्षा / 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः / पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्या घेताश्चतुर्दश // आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्बश्चेत्यनुक्रमात् / अर्थशास्त्रं परं तस्माद्विद्या ह्यष्टादश स्मृताः // ' इति // 35 // ___ ब्रह्माने इस ( नल ) के मुखमें दमयन्ती बत्तीस रेखाओंके द्वारा गिननेसे इस ( नलके मुख ) में चौदह तथा अट्ठारह-दोगे प्रकारकी विद्याएँ है, मानो ऐसा कह दिया है / ( नलके मुखमें बत्तीस दाँत नहीं है, किन्तु इसमें स्थित दोनों प्रकारकी विद्यायें रहती हैं, इस बातको ब्रह्माने बत्तीस रेखाओंको करके कहा है। नलके नुखमें बत्तोस दाँत हैं पूरे बत्तीस दाँत वाले मनुष्य का कथन सर्वदा सत्य होता है, ऐसा सामुद्रिक शास्त्रका वचन है, अतः नलका सदा सत्यवक्ता होना सूचित होता है ] // 35 // श्रियौ नरेन्द्रस्य निरीक्ष्य तस्य स्मरामरेन्द्राविव न स्मरामः / वासेन सम्यक श्रमग्रोथ तस्भिन बुद्धौ न दध्मः खलु शेषबुद्धौ / / 36 / / श्रियाविति / तस्य नरेन्द्रस्य श्रियौ सौन्दर्यसम्पद निरीचय, शोभासम्पत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरि'ति शाश्वतः / स्मरामरेन्द्रावपि न स्मरामः किं च तस्मिन्नरेन्द्रे नमयोः तितिक्षान्त्योः क्षितिक्षान्त्यो. क्षमे'त्यमरः। सम्यग्वासेन निर्बाधस्थित्या शेषबुद्धौ फणिपतिबुद्धदेवौ चित्ते न दध्मः न धारयामः खलु / अत्र द्वयोरपि श्रियोः टूयोरपि क्षमयोः प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषः / एतेन सौन्दर्यादिगुणैः स्मरादिभ्योऽप्यधिक इति व्यतिरेको व्यज्यते / श्लेषयथासंख्ययोः सङ्करः // 36 // ___ उस राजा ( नल ) की शरीर शोभा तथा राज्यलक्ष्मीको देखकर हम लोग कामदेव तथा देवेन्द्रका भी स्मरण नहीं करते है, तथा उस राजा ( नल ) में पृथ्वी तथा क्षमा (तितिक्षा ) के निवास करनेसे शेषनाग तथा बुद्धको भी बुद्धिमें नहीं लाते / [नल शरीरकी शोभामें कामदेवसे तथा राज्यैश्वर्यमें इन्द्रसे, एवं पृथ्वीभारवहन करनेमें शेषनागसे Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 नैषधमहाकाव्यम् / और क्षमा करनेमें बुद्ध भगवान्से भी अधिक श्रेष्ठ हैं; अत एव हमलोग कामदेवादिका स्मरणतक भी नहीं करते / [ लोकमें भी श्रेष्ठ वस्तुको पाकर लोग निकृष्ट वस्तुका स्मरण नहीं करते हैं ] // 36 / / विना पतत्रं विनतातनूजैस्समीरणैरीक्षणलक्षणीयैः / मनोभिरासीदनणुप्रमाणैर्न निजिता दिकतमा तदश्वैः // 37 / / विनेति / पतत्रं विना स्थितैरिति शेषः / विनतातनूजैः वैनतेयैः, अपक्षतायैरित्यर्थः / ईक्षणलक्षणीयैः समीरणैश्चाक्षुषवायुभिः अनणुप्रमाणेः 'अणुपरिमाणं मन'इति तार्किकाः, तद्विपरीतैर्महापरिमाणैर्मनोभिर्वैनतेयादिसमानवेगैरित्यर्थः / एवंविधैः तदश्वैः कतमा दिक न लविताऽऽसीत् ? सर्वापि लकितैवासीदित्यर्थः। अनाश्वानां विशिष्टवैनतेयादित्वेन निरूपणाद्रुपकालङ्कारः // 37 // पडोंके विना गरुड़रूप, नेत्रों में दृश्यमान वायुरूप तथा अणुपरिमाणसे भिन्न (विशाल ) मनरूप-नलके घोड़ोंने किस दिशाको पार नहीं किया है ? अर्थात् उक्तरूप नलाश्व सब दिशाओंके पार तक जाते हैं / [ पङ्खोंके सहित गरुड़, नेत्रका अगोचर वायु तथा अणुप्रमाण मन ही सब दिशाओंको शीघ्र पार करनेमें समर्थ हैं, किन्तु नलके घोड़े पक्षादि से हीन होते हुए भी शीघ्र सब दिशाओंके पारतक जाते हैं ] // 37 / / संग्रामभूमीषु भवत्यरोणामौर्नदोमातृकतां गतासु / तद्वाणधारापवनाशनानां राजनजीयैरसुभिम्सुभिक्षम || 18 // संग्रामेति / अरीणामझेरसृम्भिनद्येव माता यासां तास्तासां भावस्तत्ता नदीमा. तृकता नद्यम्बुसम्पन्नशस्याढ्यता, 'देशो नद्यम्बुवृष्टयम्बुसम्पन्नव्रीहिपालितः। स्यान्नदीमातृको देवमातृकश्च यथाक्रममि'त्यमरः / 'नद्यतश्चेति कप , स्वतलोर्गुणवचनस्येति पुंवद्भावः। तां गतासु संग्रामभूमीषु तस्य नलस्य बाणधारा बाणपरम्परास्ता एव पवनाशनास्तेषां राजव्रजीयैः राजसंघसम्बन्धिभिः, 'वृद्धाच्छः' / असुभिः प्राणवायुभिः सुभिक्षम् / भिक्षाणां समृद्धिर्भवति समृद्धावव्ययीभावः / नदीमातृकदेशेषु सुभिदं भवतीति भावः / रूपकालङ्कारः // 38 // शत्रुओंके रक्तसे नदीमातृकत्वको प्राप्त युद्धभूमिमें राज-समूहके प्राणोंसे उस (नल ) के बाणधारारूपी सपोंके लिए सुभिक्ष होता है। नदी नहर आदिके जलसे जहाँ खेतों की सिंचाई होती है, उन्हें 'नदीमातृक' देश कहते है। ऐसे स्थानोंमें खेती करनेवाले किसानोंके लिए सुभिक्ष होता है --अकाल पड़नेका भय नहीं होता। प्रकृतमें नल युद्ध में शत्रुओंको बाणवृष्टिकर मारते हैं, उनके शत्रुओंके रक्त-प्रवाहसे युद्धभूमि द्रावित हो जाती है, अत एव वहाँ मानों अच्छी तरह सिंचाई हो जाती है। नलके बाणोंकी वृष्टिधारा ही वायुभक्षण कर्ता ( सर्प) है और शत्रु-राजाओंके प्राण वायुरूप है, अत एव नलके बाणों की वृष्टिधारारूप पवनभक्षी सर्प मृत राजाओं के प्राणरूप वायु का भक्षण करते हैं, इस Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 14 प्रकार उनके लिए मानो नदीमातृक युद्धभृमिमें सुभिक्ष होता है / युद्धमें नल बाणवर्षाकर बहुत-से शत्रुओंको मार गिराते हैं ] / / 38 // यशो यदस्यानि संयुगेषु कण्डलभावं भजता भुजेन | हेतोगुणादेव दिगापगाली कूलंकषत्वं व्यसनं तदीयम || 36 / / यश इति / संयुगेषु समरेषु कण्डूलभावं कण्डूलत्वं, 'सिध्मादिभ्यश्चेति मत्वर्थीयो लच / भजता अस्य भुजेन यद्यशः अजनि जनितं, जनेय॑न्तात्कर्मणि लुङ / तदीयं तस्य यश सम्बन्धि दिशः एव आपगाः नद्यः तासामालिः राजिः तस्याः कूलङ्कपतीति कूलङ्कर्ष, शिवभागवतवत्समासः, 'सर्वकूले'त्यादिना खचि मुमागमः। तस्य भावस्तत्त्वं तत्र व्यसनमासक्तिः हेतोः कारणस्य भुजस्य गुणादेव कण्डूलत्वादागतमिति शेषः / यशसो दिक्कूलकषणानुमितायाः कण्डूलतायाः तत्कारणकण्डू. लभुजगुणपूर्वत्वमुत्प्रेक्ष्यते // 39 // (युद्ध-सम्बन्धी ) खुजलाहटको प्राप्त इस नल के बाहुने जो यश प्राप्त किया, उस यशका दिशारूपिगी नदियोंकी श्रेणि ( समूह ) में कूलङ्कषा होने ( किनारेको तोड़ने ) का व्यसन ( यशोरूपी) हेतुके गुणसे हो उत्पन्न हुआ है। [ यशके हेतुभूत नलबाहुमें कण्डूलभाव होनेसे कार्यरूप दिनदियोंमें भी कूलङ्कषत्व ( किनारोंको धारासे रगड़-रगड़कर तोड़नेका भाव ) होना उचिते ही है / नलका यश दिगन्ततक फैला हुआ है ] // 39 // यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यातस्यास्समाप्तियदि नायुषः स्यात् / पारेपराद्ध गणितं यदि स्याद् गणेयनिश्शेषगुणोऽपि म स्यात् / / 4 / / यदीति / किं बहुना, त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी, तद्धितार्थे'त्यादिना समाहारे द्विगुः, अकारान्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियां भाज्यते, द्विगो'रिति ङीप / गणना परा नलगुणसंख्यानतत्परा स्याद्यदि तस्याः त्रिलोक्याः आयुषः समाप्तिर्न स्याद्यदि अमरत्वं यदि स्यादित्यर्थः / परार्द्धस्य चरमसंख्यायाः पारे पारेपरार्द्ध, 'पारे मध्ये षष्ठया वे'ति अव्ययीभावः / गणितं स्यात्परार्धात्परतोऽपि यदि संख्या स्थादित्यर्थः / तदा स नलोऽपि गणेया गणितुं शक्याः निःशेषा निखिला गुणा यस्य स स्यात् , गणेय इति औणादिक एयप्रत्ययः / अत्र गुणानां गणेयत्वासम्बन्धेऽपि सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिः // 40 // - यदि तीनों लोक गणना करने के लिए तत्पर हो जॉय, तथा उनका आयुका अन्त न हो अर्थात् वे अमर हो जायँ और पराईके भी बाद गणनाकी संख्या हो जाय; तब उस नलके सब गुण गिने जा सकते है। उक्त तीनों बातोंके असम्भव होनेसे नल के गुणोकी गणना करना भी असम्भव है अर्थात् नलके गुणोंको कोई नहीं गिन सकता ] / / 40 / / अवारितद्वारतया तिरश्चामन्तःपुरे तस्य निविश्य राज्ञः / गतेषु रम्येष्वधिकं विशेषमध्यापयामः परमाणुमध्याः // 41 // Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 नैषधमहाकाव्यम् / एवं नलगुणाननुवयं गूढाभिसन्धिनाऽऽत्मनस्तदन्तः पुरेऽपि परिचयं दशयतिअवारितेत्यादि / तिरश्चां पक्षिणामवारितद्वारतया अप्रतिषिद्धप्रवेशतयेत्यर्थः / तस्य राज्ञो नलस्यान्तःपुरे निविश्य अवस्थाय परमाणुमध्यास्तदङ्गनाः रम्येषु गतेषु अधिकमपूर्व विशेषं भेदमध्यापयामः अभ्यासयामः / दुहादित्वाद् द्विकर्मत्वम् // 41 // तिर्यञ्चों ( पक्षी आदि ) को भीतर जानेके लिए द्वारपर रुकावट नहीं होनेसे उस राजा नलके रनिवासमें प्रवेशकर हमलोग परमाणुके बराबर अर्थात् अतिकृश कटिवाली रानियों को सुन्दर गतियोंमें अधिक विशेषता सिखलाते हैं। [नलकी अतिशय कृश कटिवाली इंसगामिनी रानियोंकी गति पहले ही रमणीय है, किन्तु उसमें भी अधिक रमणीयता हम लोग उन्हें सिखलाते हैं, क्योंकि तिर्यश्च होनेके कारण हम पक्षियोंको अन्तःपुर में प्रवेश करने में कोई रुकावट नहीं होती / बहुवचन कहनेसे हंसने अनेक इंसों को नलकी सेवामें लगे रहनेका संकेतकर दमयन्तीको नलके प्रति विशेष आकृष्ट करता है ] // 41 // पीयूषधारानधराभिरन्तस्तासां रसोदन्वति मजयामः / रम्भादिसौभाग्यरहःकथाभिः काव्येन काव्यं सृजताऽऽहताभिः ||4|| पीयूषेति / किं च पीयूषधाराभ्यः अनधराभिरन्यूनाभिरमृतसमानाभिः काव्यं पजता स्वयं प्रबन्धकळ, कवेरपत्यं पुमान् काव्यस्तेन, 'शुक्रो दैन्यगुरुः काव्य' इत्यमरः। 'कुर्वादिभ्यो ण्य' इति ण्यप्रत्ययः / आहताभिस्तस्यापि विस्मयकरीभिरित्यर्थः / रम्भादीनां दिव्यस्त्रीणां सौभाग्यं पतिवाबभ्यं तत्प्रयुक्ताभिः रहाकथाभीरहस्यवृत्तान्तवर्णनाभिस्तासां नलान्तःपुरतीणामन्तरन्तःकरणं रसोदन्वति शृङ्गाररससागरे मजयामः अवगाहयामः॥४२॥ हम लोग काव्यरचना करनेवाले शुक्राचार्यसे आदृत तथा अमृत-प्रवाहतुल्य रम्भादि अप्सराओंके (पुरुष-वशीकरणरूप ) सौभाग्य-सम्बन्धिनी रहस्यमयी कथाओंसे उन ( नल की रानियों ) के अन्तःकरणको शृङ्गार-रसरूप समुद्रमें निमग्न करते हैं // 42 // कामिने तत्राभिनवस्मराज्ञाविश्वासनिक्षेपवणिकक्रियेऽहम् / जिति यन्नव कुतोऽपि तिर्यकश्चित्तिरश्चनपते न तेन / / 43 / / काभिरिति / किायद्यस्मात् तिर्यक पक्षी कुत्तोऽपि जनान्न जिह्वेति न लजत एव ही-लज्जायामिति धातोर्लट, 'श्लाविति द्विर्भाधः / तिरश्चोऽपि कश्चिजनो न पते न लजते, तेन कारणेन तम्रान्तःपुरे काभिस्त्रीभिरहमभिनवा अपूर्वा स्मराज्ञा रतिरहस्यवृत्तान्तः सैव विश्वासनिक्षेपो विश्वासेन गोप्यार्थः / तस्य वणिक गोप्ता न किये न कृतोऽस्मि ? / सर्वासामप्यहमेव वित्रम्भकथापात्रमस्मीत्यर्थः // 43 // ___ वहाँपर ( नलके अन्तःपुरमें ) कौन सुन्दरियाँ अभिनव अर्थात् मुझे अतिगोपनीय कामाशाके विश्वासपूर्वक धरोहर रखनेका बनियाँ (व्यापारी) नहीं बनाती हैं अर्थात् उस नलके अन्तःपुरको कौन सुन्दरियाँ अपने गुप्ततम कामरहस्यको मुझसे नहीं कहती हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 151 यानी सभी अपने कामरहस्यको मुझसे कहती है, क्योंकि तियंत्र ( पक्षी आदि) किसीसे लज्जा नहीं करता, अतः तिर्यक्रसे से भी लज्जा नहीं करता। [ जिस प्रकार विश्वासपात्र बनियेंके यहां रक्खा हुआ परोहर किसी दूसरेके पास नहीं जाता है तथा सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार यदि तुम अपना अभिप्राय मुझसे कहोगी तब तो मैं उसे अन्यत्र किसी दूसरेसे प्रकाशित नहीं करूँगा, अपितु सुरक्षित रखूगा. इस कारण यदि तुम नलको चाहती होतो मुझपर विश्वास कर कहो ] // 43 // वार्ता च साऽसत्यपि नान्यथेति योगादरन्ध्र हृदि तां निरुन्धे / विरश्चिनानाननवादधौतसमाधिशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णः // 44 / / अथ स्वस्य एवं विधविश्वासहेतुत्वमाह-वातेति / विरिञ्जेब्रह्मणो नानाननैर्बहुमुखैर्वादेन व्याख्यानेन धौतस्य शोधितस्य समाधिशास्त्रस्य संयमविद्यायाः श्रुत्या श्रवणेन पूर्णकर्णःचतुर्मुखाभ्यस्तवानियमनविद्य इत्यर्थः। अहमिति शेषः / योगात् अरन्ध्रे निरवकाशे पूर्णे हृदि हृदये यां वाता निरन्धे, सा वार्ता लोकवार्ता किमुत. रहस्यवार्तति भावः / असत्यपि विनोदार्थ कथितापि, किमुत सतीति भावः / असत्यपि अन्यपुरुषान्तरं नैति न गच्छति / यथा ह्यसती दुश्चरी नीरन्ध्रस्थाने निरुद्धा नान्यमेति तद्वदिति भावः। अतोऽहमासां विश्वास्य इति पूर्वेणान्वयः। अत्र वार्तानिरोधस्य विरञ्चीत्यादिपदार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गभेदः॥४४॥ ___ ब्रह्माके चार मुल्के कथनसे पवित्र योगशास्त्रके सुननेसे परिपूर्ण कानोंवाला में छिद्र रहित (शत्रुसे अभेद्य या-योगाभ्याससे निर्दोष ) हृदयमें जिस (वार्ता) को रोकता (गुप्त रखता) हूँ, असत्य भी वह वार्ता दूसरे किसीके पास नहीं जाती अर्थात् दूसरा कोई उसे नहीं सुनता। [क्योंकि मैं किसी दूसरेसे असत्य भी उस बातको नहीं कहता हूँ / पक्षा०-जिसे प्रयत्नसे गुप्त स्थानोंमें रोकता हूँ, असती अर्थात् कुलटा भी वह स्त्री दूसरे किसी पुरुषके पास नहीं जाती ? दोषयुक्त हृदय वाला पुरुष ही किसीकी किसी भी बातको दूसरेसे कह देता है, निर्दोष हृदयवाला पुरुष किसीकी किसी भी बातको दूसरेसे कदापि नहीं कहता / ब्रह्माके चारो मुखोंसे कहे गये पदेश ( वेदवचन ) के सुननेसे मेरे कान परिपूर्ण हो गये हैं, अतएव उनके उपदेशमय योगाभ्याससे मेरा हृदय दोषरहित हो गया है, इस कारण मुझसे जो कोई भी व्यक्ति चाहे जैसी ( सत्य या असत्य ) बात कहता है, उसे मैं किसीसे भी नहीं कहता हूं, अतः तुम्हें मुझपर विश्वासकर अपना अभिप्राय बतलाना चाहिये / / 44 / / नलाश्रयेण त्रिदिवापभोगं तवानवाप्यं लभते बतान्या / कुमुद्वतीवेन्दुपारग्रहेण ज्योत्स्नोत्सव दुर्लभमम्बुजिन्याः / / 45 // अथ श्लोकद्वयेन अस्या नलानुरागमुद्दीपयति-नलेत्यादि / तवानवाप्यं नलपरिग्रहाभावात्त्वया दुरापं, 'कृत्यानां कर्तरि वेति षष्ठी तृतीयार्थे / त्रिदिवः स्वर्गः पृषोद Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 नैषधमहाकाव्यम् / रादित्वात् साधुः। तस्य उपभोगं तादृग भोगमित्यर्थः। तस्येन्द्रसदृशेश्वर्यत्वादिति भावः / अम्बुजिन्या दुर्लभमिन्दुपरिग्रहाभावात्तया दुरापंज्योत्स्नोत्सवं चन्द्रिकाभो. गम् इन्दोः कर्तः परिग्रहेण कुमुदान्यस्यां सन्तीति कुमुदिनीव, 'कुमुदनड. वेतसेभ्योड्मतुप , 'मादुपधायाश्चेत्यादिना मकारस्य वकारः / नलस्य कर्तुराश्रयेण नलस्वीकरणेन अन्या लभते, बतेति खेदे। ईदृग्भोगोपेक्षिणी त्वं बुद्धिमान्द्यात् न शोचसि इति भावः // 45 // जिस प्रकार चन्द्रमाके सम्बन्धसे कमलिनीके लिगे दुर्लभ चन्द्रिकोत्सवको कुमुदिनी पाती है, उसी प्रकार तुमसे दुर्लभ ( हमलोगोंके पङ्खको हवा करना आदि) स्वर्ग-भोगको नलके आश्रयसे दूसरी स्त्री प्राप्त कर रही है यह खंद है। [ क्योंकि अन्य स्त्रियां वैसी नलके योग्य नहीं हैं, जैसी तुम हो / ऐसा कहकर हंसने नलमें दमयन्तीका विशेष अनुराग बढ़ाने का प्रयत्न किया है ] / / 15 / / तन्नैषधानूढतया दुरापं शर्म त्वयाऽस्मत्कृतचाटुजन्म / 'रसालवल्ल्या मधुपानुविद्धं सौभाग्यमप्राप्तवसन्तयेव // 46 // तदिति / किञ्च तत्प्रसिद्धमस्माभिः कृतेभ्यः प्रयुक्तेभ्यश्चाटुभ्यः प्रियवाक्येभ्यो जन्म तस्य तत्तजन्यमित्यर्थः। चाटुग्रहणं पूर्वोक्तनिजपक्षवीजनाद्यपलक्षणं, शर्म सुखं स्वबा अप्राप्तो वसन्तो यया तया वसन्तानधिष्ठितयेत्यर्थः / रसालवल्ल्या सहकार• श्रेण्या मधुपानुविद्धं सौभाग्यं रामणीयकमिव नैषधेन नलेन अनूढतया अपरिणी. तत्वेन हेतुना दुरापन्तस्मात्ते नलपरिग्रहाय यत्नः कार्य इति भावः // 46 // (हंस प्रकृतका उपसंहार करता हुआ कहता है-) इस कारण नलके द्वारा विवाहिता नहीं होनेसे तुम्हारे लिए हमलोगोंकी चाटुकारितासे उत्पन्न आनन्द उस प्रकार दुर्लभ है, जिस प्रकार वसन्त ऋतुको नहीं प्राप्त की हुई आम्रवल्ली, ( आम-लता, पाठा०-आमकी बगीची ) को भ्रमरकृत सौभाग्य दुर्लभ होता है / [ इस उपमासे राजहंसने स्पष्ट कह दिया कि वसन्त काल आनेपर आम्रवल्ली के लिए भ्रमरकृत सौभाग्य जिस प्रकार पर्याप्त मात्रामें सुलभ हो जाता है, उसी प्रकार नलके साथ विवाह करनेपर तुम्हें भी हमारी चाटुकारिता से उत्पन्न आनन्द सुलभ हो सकता है। पूर्व इलोक (3 / 45 ) में अम्बुजिनीको उपमा देकर उक्त स्वर्गभोगको दमयन्तीके लिए सर्वधा असम्भव बतलाकर नलके साथ विवाह करने पर सम्भव बतलाया है / यहां उसे सम्भव बतलाकर उसको पानेका प्रयत्न करनेके लिए दमयन्तीको उत्साहित किया है ] // 46 / / तस्यैव वा यास्यसि किं न हस्तं दृष्टं विधेः केन मनः प्रविश्य ? / अजातपाणिग्रहणाऽसि तावद्रूपस्वरूपातिशयाश्रयश्च / / 47 // 1. 'रसालवन्या' इति पाठान्तरम् / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। अथ पुनरस्या नलपाप्त्याशां जनयन्नाह तस्येत्यादि / यद्वा तस्य नलस्यैव हस्तं किं न यास्यसि ? यास्यस्येवेत्यर्थः / केन विधेर्मन एव प्रविश्य दृष्टं, विध्यानु, कूल्यमपि सम्भावितमिति भावः / कुतस्तावदद्यापि अजातपाणिग्रहणा अकृतवि. वाहा असि, तवायं विवाहविलम्बोऽपि नलपरिग्रहणार्थमेव किं न स्यादिति भावः। रूपं सौन्दर्य स्वरूपं स्वभावः शीलमिति यावत् / तयोरतिशयः प्रकर्षस्तस्याश्रयश्रासि / योग्यगुणाश्रयत्वाच्च तद्धस्तमेव गमिप्यसीति भावः // 47 // ( नल-प्राप्ति तुम्हारे लिए सर्वथा असम्भव नहीं है, अतः तुम्हें धैर्य-धारण करना चाहिये' ऐसा संकेत करता हुआ राजहंस कहता है- ) अथवा उसीके ( नलके ही ) हाथमें क्यों नहीं जावोगी अर्थात् नलसे ही तुम्हारा विवाह क्यों नहीं होगा ? ब्रह्माके मनमें घुसकर किसने देखा है ? ( कि उनकी क्या इच्छा है ?) क्योंकि तुम अविवाहित तथा सुन्दरताके स्वरूप ( विना भूषणादिके ही सौन्दर्याधिक्य ) का आश्रय हो अर्थात् अत्यधिक सुन्दर हो, अतः सम्भव है कि तुम्हारा विवाह नलके साथ ही हो जावे // 47 / / निशा शशाडू शिवया गिरीशं श्रिया हरि योजयतः प्रतीतः / विधेरपि स्वारसिकः प्रयासः परस्परं योग्यसमागमाय // 48 // सत्यं विधिसङ्कल्पस्तु दुज्ञेय इत्यत आह-निशेति / निशा निशया 'पद्दन्नि'त्यादिना निशादेशः / शशाङ्कम् , शिवया गौर्या गिरीशं शिवं, श्रिया लचम्या हरिं च योजयतो विधेः प्रयासो यनोऽपि परस्परं योग्यसमागमाय योग्यसङ्घटनायव स्वार• सिकः स्वरसप्रवृत्तः प्रतीतः प्रसिद्धः ज्ञातः। निशाशशाङ्कादिदृष्टान्ताविधिसङ्कल्पो. ऽपि सुज्ञेय इति भावः // 48 / / ('समानरूप होनेसे तुम्हें नलको पाना विशेष सन्भत्र है' इस बातको राजहंस दृढ करता है-) गत्रिके साय चन्द्रमाको, पार्वतीके, साथ शिवजीको तथा लक्ष्मीके साथ विष्णु भगवानको संयुक्त करते हुए ब्रह्माका प्रयत्न मी पररपरने योग्योंके समागम करनेके लिए प्रसिद्ध है / [ रात्रि आदिके साथ चन्द्रमा आदि का समागम करनेसे ज्ञात होता है कि ब्रह्मा परस्परमें योग्य स्त्री-पुरुषोंका ही समागम कराते हैं, अत एव नलके साथ तुम्हारा समागम होना भी विशेष सम्भव है / // 48 // वेलातिगौणगुणात्रिवेणी न योगयोग्याऽसि नलेतरेण / सन्दर्यते दर्भगुणेन मल्लीमाला न मृद्री भृशकर्कशेन || 49 / / नलान्यसम्बन्धस्त्वयोग्य इत्याह-वेलातिगेति / वेलामनिगच्छन्तीति वेलातिगा निःसीमाः स्त्रीणामिमे सौणाः गुणाः 'स्त्रीपुंसाम्यां नजनजाविति वचनात् नजप्रत्ययः / त एवाब्धिस्तस्य वेणी प्रवाहभूतः, त्वमिति शेषः / वेलाऽब्धिजलबन्धने / काले मीग्नि च, वेणी तु केशबन्धे जलस्रुतौ' इति वैजयन्ती। नलादितरेण योगयोग्या योगार्हा नासि / तथाहि मृद्वी मल्लीमाला भृशकर्कशेन दर्भगुणेन न संदय॑ते न सङ्गुम्फयते / हम-ग्रन्थ इति धातोः कर्मणि लट् / व्यतिरेकेण दृष्टान्तालङ्कारः // 49 // Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 नैषधमहाकाव्यम् / ('दूसरेको छोड़कर तुम नलके ही योग्य हो' यह संकेत करता हुआ राजहंस कहता है-) मर्यादाहीन स्त्री-सम्बन्धी गुण समुद्रकी प्रवाहरूपा अर्थात् परमरमणीयतमा तुम नलके अतिरिक्त दूसरेके साथ समागमके योग्य नहीं हो, क्योंकि अत्यन्त कड़ी (रूखी) कुशकी रस्सीसे कोमलमल्लिका की माला नहीं गुथी जाती है / [ तुम मल्लीषुष्पके समान कोमल हो तथा नलभिन्न पुरुपलोग कुशकी रस्सीके समान रूखे एवं कड़े हैं अतः नलेतर किसी पुरुषसे तुम्हारा समागम न होकर नलके साथ ही होना योग्य है / / 49 // विधि वधूसृष्टिमपृच्छमेव तद्यानयुग्यो नलकेलियोग्याम् / / त्वमामवणों इव कर्णपीता मयाऽस्य संक्रीडति चक्रनके || 50 / / विधिमिति / किं च, विधि ब्रह्माणं नलस्य केले. क्रीडायाः योग्यामहां वधूसृष्टिं स्त्रीनिर्माणं तस्य विधेर्यानस्य रथस्य युग्यो रथवोढा तत्र परिचित इत्यर्थः / 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गमिति यत्प्रत्ययः / अहमपृच्छमेव, दुहादित्वाद् द्विकर्मकत्वम् / नया अस्य तयानस्य चक्रचक्रे रथाङ्गबजे संक्रीडति कूजति सति 'समोऽकूजन' इति वक्तव्येऽपि कूजते त्मनेपदम् , स्वनामवर्णा मया कर्णेन पीताः गृहीताः। न केवलं लिङ्गात् किन्वागमादपि ज्ञातोऽयमर्थ इत्यर्थः // 50 // (अब राजहंस प्रकारान्तरसे नल-प्राप्तिको और भी अधिक दृढ़ करता हुआ कहता है-) ब्रह्माकी सवारीको ढोते हुये मैंने नलकी क्रीडाके योग्य स्त्रीरचनाको पूछा था 'आपने नलके योग्य किस स्त्रीकी रचनाकी है' यह बात उनकी सवारी को ढोते हुए मैंने पूछी थी तो ब्रह्माके रथके पहियेके शब्द करते रहने पर तुम्हारे नामके अक्षरके समान ही मैंने सुना था। [ 'कदाचित् दमयन्ती नलको नहीं चाहती हो तो ब्रह्माका वचन असत्य हो जायेगा' इसलिए राजहंसने ब्रह्माके रथके पहियेको शब्द करते रहना कहकर उसके हृद्गताभिप्राय जानने तक दमयन्तीका नलके साथ विवाह होनेकी बातको पूर्णतः निर्णयात्मक करके नहीं कहा है ] // 50 // अन्येन पत्या त्वयि योजितायां विज्ञत्वकीर्त्या गतजन्मनो वा। जनापवादाणवमुत्तरीतुं विधा विधातुः कतमा तरी स्यात् ? // 51 // अन्येनेति ! किंच, अन्येन नलेतरेण पत्या त्वयि योजितायां घटितायां सत्यां विज्ञत्वकीर्त्या गतजन्मनः अभिज्ञत्वख्यात्टौ / नीतापो विधातुर्वा जनापवादार्णवमुत्तरीतुं निस्तरीतुं 'वतो वेति दीघः। कतमा विधा कः प्रकारः तरी तरणिः स्यात् ? न काऽपीत्यर्थः / 'स्त्रियां नौस्तरणिस्तरिः' इत्यमरः! अतो देवगत्याऽपि स एव ते भतेति भावः // 51 // (नल-प्राप्तिको पुनः दृढ़ करता हुआ राजहंस कहता है-) दूसरे पतिके साथ तुम्हारा समागम करानेपर सर्वज्ञत्वकी कीर्तिसे पूरी जिन्दगी बितानेवाले ब्रह्माके लिए लोकापवादरूप समुद्रको पार करने के लिए कौन सी नाव होगी। [भा तक ब्रह्मा योग्य स्त्री Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 155 पुरुषका समागम कराने से विज्ञत्वके लिये बहुत कीर्ति पायी है, अतः यदि नल-भिन्न दूसरे पुरुषके साथ तुम्हारा समागम कराते हैं तो उनकी बहुत लोकनिन्दा होगी, अतः तुम्हारा सम्गगम नलके साथ ही ब्रह्मा करायेंगे मेरा दृढ़ विश्वास हैं ] // 51 // आस्तां तदप्रस्तुतचिन्तयाऽलं मयाऽसि तन्वि ! अमिताऽतिवेलम / सोऽहं तदागः परिमाष्टु कामस्तवेप्सितं कि विदघेऽभिधेहि // 52 // इत्थमाशामुत्पाद्य अस्याश्चित्तवृत्तिपरिज्ञानाय प्रसङ्गान्तरेण निगमयति-आस्तामिति / तत्पूर्वोक्तमास्तां तिष्ठतु, अप्रस्तुतचिन्तया अलं, तया साध्यं नास्ती. त्यर्थः। गम्यमानसाधनक्रियापेक्षया करणत्वात्ततीया, अत एवाह 'न केवलं श्रयमाणक्रियापेक्षया कारकोत्पत्तिः, किन्तु गम्यमानक्रियाऽपेक्षयाऽपि इति न्यासकारः। किन्तु हे तन्वि, कृशाङ्गि ! मया अतिवेलम् अत्यर्थ श्रमिता खेदिताऽसि, श्रमेlन्तात् कर्मणि क्तः। तत् श्रमणरूपमागोऽपराधं परिमाष्टुकामः परिहतुकामः। 'तं काममनसोरपी'ति मकारलोपः। सोऽहं कि त्वदीप्सितं तव मनोरथं विदधे कुर्वे, अभिधेहि ब्रूहि // 52 // (दमयन्ती का अभिप्राय जाननेको इच्छासे उपसंहार करता हुआ राजहंस कहता है-) हे तन्वि ! नल-वर्णनरूप अप्रासङ्गिक बातको छोड़ों, मैंने तुमको बहुत समय तक बहुत थकावा ( हैरान किया ) है, उस अपराधका परिमार्जन करनेकी इच्छा करता हुआ मैं तुम्हारा कौन अभीष्ट पूरा करूँ ? कहो // 52 // इतीयित्वा विरराम पत्री स राजपुत्रीहृदयं बुभुत्सुः / हदे गभीरे हदि चावगाढे शंसन्ति कार्यावतरं हि सन्तः // 53 // इतीति / स पत्री हंसः इति ईरयित्वा राजपुत्रया भैम्या हृदयं बुभुत्सुर्जिज्ञासुविरराम तूष्णीं बभूव, 'व्यापरिभ्यो रम' इति परस्मैपदम् / तथाहि-सन्तः कार्यज्ञाः गभीरे अगाधे हृदि हदे च अवगाढे प्रविश्य दृष्टे सति कार्यस्य स्नानादे रहस्योक्तेश्च अवतरं तीर्थ प्रस्तावं च शंसन्ति कथयन्ति, अन्यथा अनर्थः स्यादिति भावः / अवतरो व्याख्यातः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः॥ 53 // ऐसा ( 2 / 13-52 ) कहकर राजकुमारी ( दमयन्ती) के हृदयको जाननेका इच्छुक वह पक्षी ( राजहंस ) चुप हो गया, क्योंकि गम्मीर ( गहरा) तडाग तथा गम्भीर ( गुप्त अभिप्राय वाले ) हृदयको आलोडित करनेपर (प्रवेशकर थाह लगानेपर, पक्षा०-अभिप्राय जान लेनेपर ) बुद्धिमान् लोग कार्यारम्भ ( पक्षा०-कार्यका प्रस्ताव ) करते हैं। [जिस प्रकार तैराक गम्भीर जलाशयको बिना आलोडन किये मार्ग निश्चित नहीं करता, उसी प्रकार हृद्गत भावको विना मालूम किये बुद्धिमान् व्यक्ति किसी कार्यके लिये प्रस्ताव नहीं करता अत एव उक्त राजहंस सब कुछ कहकर भी उसे प्रकारान्तरमें गुप्त ही रखकर दमयन्तीका अभिप्राय जानना चाहता है ] // 53 // Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 नैषधमहाकाव्यम् / किञ्जित्तिरश्चीनविलोलमौलिविचिन्त्य वाचं मनसा मुहूर्तम् | पतत्रिणं सा पृथिवीन्द्रपुत्री जगाद वक्त्रेण तृणीकृतेन्दुः / / 54 / / किञ्चिदिति / किञ्चित्तिरश्वीना स्वभावादीषत्साचीभूता विलोला आयासाद्विलुलिता मौलिः केशबन्धो यस्याः सा। 'मौलयः संयताः कचा' इत्यमरः। वक्त्रेण तृणीकृतेन्दुरधाकृतचन्द्रा सा पृथिवीन्द्रपुत्री भैमी मुहूर्तमल्पकालं मनसा वाच्यं वचनीयं विचिन्त्य पर्यालोच्य पतत्रिणं जगाद // 54 // (विचारते समय ) कुच टेढ़ा एवं चञ्चल मस्तक वाली तथा ( स्वभावतः एवं हंसकथनसे नल-प्राप्तिकी आशा होनेसे प्रसन्नताके कारण ) मुखसे चन्द्रमाको तृणतुल्य ( अतिशय तुच्छ ) की हुई राजकुमारी दमयन्ती थोड़ी देर कहने योग्य बातको विचार कर बोली // 54 / / धिक्चापले वत्सिमवत्सलत्वं यत्प्रेरणादुत्तरलीभवन्त्या / समीरसङ्गादिव नीरभङ्गथा मया तटस्थस्त्वमुपद्रतोऽसि / / 55 / / धिगिति / चापले चपलकर्मणि, युवादित्वादण्, 'यत्सस्य भावः वसिमा शिशुत्वम् पृथ्वादित्वादिमनिच / तेन निमित्तेन वत्सलत्वं वात्सल्यं बाल्यत्वप्रयुक्तचापलमित्यर्थः / तद्धिक / कुतः ? यस्य चापलवात्सल्यस्य प्रेरणादुत्तरलीभवन्त्या चपलायमानया समीरसङ्गाद्वाताहतेरुत्तरलीभवन्त्या नीरभङ्गया जलवीच्येव तटस्थः उदासीनः कूलं गतश्च स्वमुपद्रुतः पीडितोऽसि / अधर्महेतुत्वाद् बालचापलं सोढव्यमिति भावः // 55 // चपलता करनेके विषय में बचपनके प्रेमको धिक्कार है, जिसकी प्रेरणासे अत्यन्त चञ्चल होती हुई मैंने, वायुसे प्रेरित जल-प्रवाहसे तटस्थ व्यक्तिके समान (तुम्हें पकड़ने के लिये पीछे-पीछे चलकर ) तटस्थ ( उदासीन, मुझसे सम्बन्ध-शून्य ) तुमको पीड़ित किया है। [ बचपनमें चञ्चलता करनेकी अधिक इच्छा रहती है, उसके कारण एक उदासीन व्यक्तिको मैंने पकड़ने के लिए पीछे-पीछे चलकर पीड़ित किया है, उस बाल-चपलताको धिक्कार है ] // 55 // आदर्शतां स्वच्छतया प्रयासि सतां स तावत्खलु दर्शनीयः / आगः पुरस्कुर्वति सागसं मां यस्यात्मनीदं प्रतिबिम्बितं ते / / 56 // आदर्शतामिति / स्वच्छतया नैर्मल्यगुणेन आदृश्यते पुरोगतवस्तुरूपमस्मिन्निति आदशों दर्पणस्तत्तांप्रयासि, कुतः यस्य स्वच्छस्य ते तव सम्बिन्धिनि सागसं सापराधां मां पुरस्कुर्वति पूजयति अग्रे कुर्वाणे च आत्मनि बुद्धौ स्वरूपेच, 'पुरस्कृतः पूजिते स्यादभियुक्तेऽग्रतः कृते'। 'आत्मा यत्नो प्रतिबुद्धिः स्वभावो ब्रह्मवर्मणीति चामरः / इदं मदीयमागोऽपराधःप्रतिबिम्बितं प्रतिफलितम् / पुरोवर्ति धर्माणामास्मनि संक्रमणादादर्शोऽसीत्यर्थः, ततः किमत आह-सः आदर्शः सतां साधूनां Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। तावत्प्रथमं दर्शनीयः अथवा पूज्यश्चेति तावच्छब्दार्थः खलु 'रोचनं चन्दनं हेम मृदङ्ग दर्पणं मणिम् / गुरुमग्नि तथा सूर्य प्रातः पश्येत् सदा बुधः // ' इति शास्त्रा. दिति भावः॥ 56 // ( दमयन्ती अपनी निन्दा करती हुई हंसकी प्रशंसा करती है- ) सज्जनोंके दर्शनीय तुम स्वच्छ होनेसे आदर्श ( दृष्टान्त, पक्षा०-दर्पण) हो, जिसमें अपराधसहित मेरे सामने होने पर मेरा अपराध प्रतिबिम्बित हो गया है। [ स्वच्छहृदय वाले आदर्श पुरुषका सज्जन लोग दर्शन करते हैं, तथा ये आदर्श पुरुष दूसरेके किये गये अपराधको भी अपराधकर्ताका न कहकर अपना किया हुआ ( मेरे कर्मोदयके कारणसे ऐसा काम अपने किया है, इसमें आपका नहीं, किन्तु मेरा ही अपराध है) कहते हैं, पक्षा०–मङ्गलद्रव्य होनेसे दर्पणका दर्शन करना श्रेष्ठ माना गया है, वह स्वतः स्वच्छ रहता है तथा उसके सामने जो कोई वस्तु पड़ती है, वह स्वच्छतम दर्पणमें प्रतिबिम्बित होकर ऐसी मालूम पड़ती है कि यह दर्पण ही मलिनसा है, प्रकृतमें हे राजहंस ! तुम स्वच्छ एवं माङ्गलिक होने में दर्शनीय हो, तथा तुमने मेरे प्रति कोई अपराध नहीं किया है, हां, मैंने ही तुम्हें पकड़नेके लिए पीछे पीछे चलकर तुम्हें पीड़ित किया है, अत एव अपराधिनी तो वास्तविकमें मैं हूं और तुम आदर्श (दर्पण ) हो इसी कारण स्वच्छ (निर्दोष, पक्षा०-निर्मल ) आदर्शरूप तुम्हारे सामने आयी हुई अपराधिनी ( मलिनता युक्त ) मैं तुममें प्रतिबिम्बित हो गयी हूं, जिससे शात होता है कि तुममें ही मलिनता हैं / परन्तु वास्तविक विचार करनेपर तुममें नहीं, अपि तु मुझमें मलिनता ( दोषयुक्तत्व ) है ] // 56 / / अनायमप्याचरितं कुमार्या भवान्मम क्षाम्यतु सौम्य ! तावत् / हंसोऽपि देवांशतयाऽभिवन्द्यः श्रीवत्सलक्ष्मेव हि मत्स्यमूर्तिः / / 57|| अनार्यमिति / हे सौम्य ! भवान् कुमार्याः शिशोर्मम सम्बन्धि अनार्यमप्याचरितं स्वदुपद्रवरूपं दुश्चेष्टितं क्षाम्यतु सहतां, हंसोऽपि तिर्यगपीत्यर्थः / त्वमिति शेषः / भवानित्यनुषङ्गे असीति मध्यमपुरुषायोगात् देवांशतया मत्स्यमूर्तिः श्रीवत्सलक्ष्मा विष्णुरिव वन्द्योऽसि // 57 // हे सौम्य ! मुझ कुमारीके अनुचित भी व्यवहारको पहले आप क्षमा करें, ( राजकुमारीको तिर्यञ्च पक्षीसे क्षमा-प्रार्थना करना अनुचित नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ) श्रीवत्सचिह्नयुक्त मत्स्यमूर्ति (मत्स्यावतार ) के समान ( ब्रह्माका वाहन होनेसे ) देवांश होने के कारण तिर्यञ्च ( पक्षी ) होकर भी तुम भी वन्दनीय हो / [ आपने पहले ( 3152 ) अपना अपराध क्षमा कराते हुए मुझसे अभीष्ट पूछा है, किन्तु अभी अभीष्टकी बातको अलग रहने दीजिये, आपने अपराध नहीं किया है. किन्तु मैंने ही अपराध किया है, अतः पहले ( अभीष्ट जानने और उसे पूरा करने के पूर्व ) आप मेरा अपराध क्षमा करें / ब्रह्माके वाहन होनेसे आपमें देवांश है, अत एव मुझ राजकुमारीके भी वन्दनीय Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 नैषधमहाकाव्यम् / हैं, जैसे निन्ध मत्स्य (मछली ) भी श्रीवत्स ( विष्णुके चिह्न-विशेष ) से युक्त होनेके कारण वन्दनीय होता हैं / कुमारी होनेसे मुझमें अज्ञानकी मात्रा अधिक है, अतः अज्ञानीके अपराधको क्षमा करना भी बड़ोंको उचित ही है ] // 57 // मत्प्रीतिमाधिससि कां त्वदीक्षामुदं मदक्षणोपि याऽतिशेताम् / निजामृतलॊचनसेचनाद्वा पृक्किमिन्दुस्सृजति प्रजानाम ? ||5|| अथ यदुक्तं त्वयेप्सितं किं विदधे ? अभिधेहीति, तत्रोत्तरमाह-मन्त्रीतिमिति / कां मत्प्रीति किंवा मदीप्सितमित्यर्थः / आधित्सति आधातुं कर्तुमिच्छसि ? दधातेः सन्नन्ताहट / या प्रीतिर्मदक्षणोः त्वदीक्षामुदं त्वदीक्षणप्रीतिमतिशेतान्त्वदर्शनोत्सवादास्क ममेप्सितमित्यर्थः / तथाहि इन्दुः प्रजानां जनानां निजामृतैर्लोचनसेच. नात् पृथक अन्यत 'पृथग्विने' त्यादिना पञ्चमी / किंवा सृजति करोति न किञ्चित् करोतीत्यर्थः। दृष्टान्तालङ्कारः॥ 58 // ( अब दमयन्ती अपनी अभीष्ट-सिद्धिके विषयमें कहती है-) जो तुम्हारे दर्शनसे उत्पन्न मेरे नेत्रों के हर्षसे भी अधिक हो, वह कौन मेरा अभिलषित करना चाहते हो? ( तुम्हें देखनेसे जो मुझे हर्ष हुआ है, उससे अधिक हर्षप्रद मेरा कोई अभीष्ट तुम नहीं साध सकते ), क्योंकि चन्द्रमा अपने अमृत-प्रवाहोंप्से प्रजाओं ( दर्शकों ) के नेत्रको तृप्त करनेके अतिरिक्त क्या करता है ? अर्थात् कुछ नहीं। [ वैसे तुम भी मुझे दर्शनानन्द देनेके अतिरिक्त मेरा कोई अभीष्ट नहीं साध सकते हो, ‘अतः तुमसे अभीष्ट बतलाना व्यर्थ है ] // 58 // मनस्तु यं नोन्मति जातु यातु मनोरथः कण्ठपथं कथं सः / का नाम बाला द्विजराज पाणिप्रहाभिलाषं कथयेभिज्ञा // 5 // अत्र सर्वथा मनोरथः कथनीयः इत्यभिप्रेत्य तन्न शक्यमित्याह-मनस्त्विति / मनो मच्चित्तं कत्त यं मनोरथं जातु कदापि नोज्झति न जहाति, स मनोरथः कण्ठपथं वाग्विषयम् उपकण्ठदेशं च कथं यातु, सम्भावनायां लोट् / सम्भावनापि नास्ती. त्यर्थः / केनापि प्रतिबद्धस्य मनोरथस्य कथमन्तिकेऽपि सञ्चार इति भावः / कुतः? अभिज्ञा विवेकिनी का नाम बाला का वा स्त्री द्विजराजस्य इन्दोः पाणिना ग्रहे ग्रहणे अभिलाषं कथयेत् / तथा द्विज ! पक्षिन् ! राजपाणिग्रहाभिलाषं नलपाणिग्रहणेच्छा. मिति च गम्यते तया च दुर्लभजनप्रार्थना द्विजराजपाणिग्रहणकल्पा परिहासास्पदीभूतां कथं लजावत्या वक्तुं शक्या इत्यर्थः। पूर्व एवालङ्कारः // 59 // जिसे मन कभी नहीं छोड़ता है, वह मनोरथ ( अन्तःकरण, पक्षा०-अभिलाष) कण्ठमार्गमें किस प्रकार आवे ? ( क्योंकि) कौन निर्लज्ज बालिका चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी इच्छा ( पक्षा०-हे पक्षी ! राजा ( नल ) के साथ विवाह करने की इच्छा) को कहती है ? [अन्तःकरण नीचे हैं तथा कण्ठ ऊपर , अतः नीचेसे ऊपरकी ओर रथका Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 159 आना किस प्रकार सम्भव है। अर्थात् बहुत ही दुःसाध्य है / तथा जिसे कहा भी नहीं जाता उसे कार्य रूपमें सिद्ध करना अतिदुःसाध्य है। चन्द्रमाको हाथसे ग्रहणकी इच्छाको कौन निर्लज्ज ( अशानाधिक्य युक्त ) बालिका कहती है ? अर्थात् कोई भी नहीं / अथवाहे द्विजराज = पक्षियोंमें श्रेष्ठ राजहंस ! कौन निर्लज्ज बालिका विवाहको इच्छा को कहती है, अर्थात् अज्ञानयुक्त बालिका भी लज्जा छोड़कर अपने विवाहकी इच्छा प्रकट नहीं करती तो मैं किस प्रकार अपने विवाहकी इच्छा तुमसे प्रकट करूँ?-विवाहकी इच्छा होनेपर भी लज्जावश मैं तुमसे कहनेमें असमर्थ हूं, क्योंकि मैं बाला हूँ, प्रौढा नहीं और बालामें प्रौढाकी अपेक्षा लज्जा की मात्रा अधिक होती है // 59 // वाचं तदीयां परिपीय मृद्वी मृद्वीकया तुल्यरसां स हंसः / तत्याज तोषं परपुष्टघुष्ठे घृणा वीणाकणिते वितेने / / 60 // वाचमिति / स हंसः मृद्वीकया द्राक्षया, 'मृद्वीका गोस्तनी दाणे'त्यमरः / तुल्यरसां समानस्वादां मधुराामित्यर्थः / मृहीं मधुराक्षरांतदीयां वाचंपरिपीय अत्यादरादाकर्ण्य परपुष्टधष्टे कोकिलकूजिते तोषं प्रीतिं तत्याज, वीणाकणिते च घृणां शुगुप्सां 'घृणा जुगुप्साकृपयोरिति विश्वः / वितेने // 6 // वह हंस दाखके समान रसवाला (मीठा) सुकोमल दमयन्तीका वचन सुनकर कोयलके कुजनेमें सन्तोष ( हषित होना) छोड़ दिया तथा वीणाकी झनकार में घृणा कर लिया। [ कोयलके कूजने तथा वीणाके झनकारसे भी दमयन्तीका वचन मधुर एवं सरस था] // 6 // मन्दाक्षमन्दाक्षरमुद्रमुक्त्वा तस्यां समाकुश्चितवाचि हंसः। तच्छसिते किश्चन संशयालुगिरा मुखाम्भोजमयं युयोज // 6 // मन्दाति / तस्यां भैम्यां मन्दाक्षेण हिया मन्दा सन्दिग्धार्था अक्षरमुद्रा 'द्विजराजपाणिग्रह'त्याचारविन्यासो यस्मिन् तत्तथोक्तमुक्त्वा समाकुशितवाचि नियमितवधनायां सत्यामयं हंसस्तच्छंसिते भैमीभाषिते किचन किनिसंशया: सन्दिहानः सन् , 'स्पृहिगृहीत्यादिना आलुच प्रत्ययः। 'मुखाम्भोजं गिरा युयोज मुखेन गिरसुवारेत्यर्थः / / 61 // - लज्जासे थोड़ा अक्षर कहकर उस ( दमयन्ती ) के चुप होनेपर उसके कथनमें कुछ सन्देहयुक्त इस अपमे मुखकमलको वचनसे युक्त किया अर्थात् बोला- [दमयन्ती लज्जावश 'कोन निर्लज्ज वाला द्विजराजपाणिग्रहणाभिलाषको कहेगी ?? ऐसा कहकर चुप हो 1. 'मुखान्नोजम्' अत्र 'प्रशंसावचनैश्च' इति समासः' इति 'प्रकाश' कृत् / किन्तु मनोरमाकृता प्रशस्तशोभनरमणीयादीनां यौगिकानां शुचिमृद्वादीनां गुणवचनानां 'सिंहो माणवक' इत्यादी गोण्या वृत्या प्रशंसावाचकानाञ्च शब्दानां व्युदासत्य करिष्यमाणत्वेनो. क्ततया 'वचन' ग्रहणस्य रूढपरिग्रहार्थमेव स्वीकृतत्वेन 'उपमितं व्याघ्रादिभिः (पा० सू० 21 56 ) इत्यनेनोपसितसमासस्यवौचित्यतया भ्रान्तियुक्तं तदिति बोध्यम् / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / गयी हैं, अतः इस वचनके श्लेषयुक्त होनेसे हंसको नलविषयक दमयन्तीके अनुरागमें यद्यपि अधिक सन्देह नहीं रह गया है किन्तु थोड़ा सन्देह अवश्य ही रह गया है; अतएव 'किचन' (कुछ ) शब्दका यहाँ प्रयोग हुआ है ] // 61 // करेण वान्छेव विधुं विधतुं यमित्थमात्यादरिणी तमर्थम् / पातुं अतिभ्यामपि नाधिकुर्वे वर्ण श्रुतेर्वर्ण इवान्तिमः किम / / 62 // करेणेति / हे भैमि ! करेण विधुं चन्दं विधनुं ग्रहीतुं वान्छेव यमर्थमित्थं 'द्विजराजपाणिग्रहे'त्याद्यक्तप्रकारेण आदरिणी आदरवती सती आत्थ ब्रवीषि, 'ब्रवः पञ्चा. नामिति ब्रुवो लटि सिपि थलादेशः अवश्वाहादेशः 'आहस्थ' इति हकारस्य थकारः। तमर्थमन्ते भवोऽन्तिमो वर्णः शूद्रः, 'अन्ताच्चेति वक्तव्यमिति इमच / श्रतेवर्ण वेदाशरमिव श्रुतिभ्यां पातुं श्रोतुमपीत्यर्थः / नाधिकुर्वे नाधिकार्यस्मि किम् ? अस्म्ये. वेत्यर्थः / अतः सोर्थो वकम्य इति तात्पर्यम् // 2 // चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी इच्छाके समान आदरयुक्त (या-निर्भय होकर ) जिस प्रयोजनको तुम कह रही हो, वेदके अक्षरोंको शूद्रके समान मैं उस प्रयोजनको सुननेका भी अधिकारी नहीं हूँ क्या ? / [ तुम्हारे समझसे यद्यपि मैं तुम्हारे उक्त अभीष्टको सिद्ध नहीं कर सकता, किन्तु उसको सुनने का भी मैं अधिकारी नहीं हूँ क्या ? अर्थात् उसे मुनने का अवश्य अधिकारी हूँ / अथ च-मैं ही उस प्रयोजन को पूर्ण करूँगा अतएव उसे मुननेका मैं ही अधिकारी हूँ, इसलिए अपना मतलब तुम्हें स्पष्ट करना चाहिये / चन्द्रमाको हाथसे ग्रहण करनेकी अभिलाषा को तो लज्जावश ही कहा गया है, वास्तविकमें तो इलेष द्वारा राजा नलसे विवाहकी अभिलाषा होनेमें ही मुख्यतः तात्पर्य है यह बात 'इव' शब्ददारा 'चन्द्रमाको हाथसे पकड़ने की इच्छाके समान' अर्थ करनेसे सूचित होती है ] / / 62 // अर्थाप्यते वा किमियद्भवत्या चित्तैकपद्यामपि वर्तते यः। यत्रान्धकारः खलु चेतसोऽपि जि तरब्रह्म तदप्यवाप्यम् / / 63 / / ननु तमर्थमत्यन्तदुर्लभत्वाद्वक्तुं जिहेमीस्याशझ्याह-अर्थाप्यत इति / हे भैमि ? भवत्या किंवा इयदेतावद्यथा तथा अर्थाप्यते किमर्थमयमर्थो द्विजराजपाणिग्रहवदति दुर्लभरवेनास्यायत इत्यर्थः। अर्थशब्दात्तदाचष्टे इत्यर्थे णिचः 'अर्थवेदसत्यानामापुग्वकम्य' इत्यापुगागमः / कृतस्तथानाख्येय इत्यत आह-योऽर्थ एकः पादो यस्यामित्येकपदी एकपादसवारयोग्यमार्गः / 'वर्त्तन्येकपदीति चेत्यमरः / 'कुम्भीपदीषु चेति निपातनात् साधुः। चित्तैकपयां मनोमार्गेऽपि वर्तते चतुरायविषयत्वेऽपीत्यपिशब्दार्थः। स कथं दुर्लभ इति भावः / तथाहि-यत्र यस्मिन् ब्रह्मणि विषये चेतसोड प्यन्धकारः प्रतिबन्धः तद् ब्रह्म जिह्येतरैरकुटिलैः कुशलधीभिरिति यावत् / अवाप्यं सुप्रापम् अमनोगम्यं ब्रह्मापि कैश्चिद् गम्यते, किमुत मनोगतोऽयमर्थः / अतएवार्थापत्तिरकारः। 'मुत्वेनार्यान्तरापतनमापत्तिरि'ति वचनात् // 13 // Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 161 तुमने इतना ( दुर्लभ होना ) क्यों कहा ? जो चित्तरूपो पगडण्डी ( आगे-पीछे होकर 1-1 आदमीके चलने योग्य पतला रास्ता) में भी हैं, उसे प्राप्त किया जाता है, क्योंकि जहांपर चित्तका भी अन्धकार हैं अर्थात् जिसे मन भी नहीं देखता-जो मनोऽगोचर हैउस ब्रह्मको उद्योगी लोग (या-सीधे रास्तेसे चलनेवाले लोग ) प्राप्त कर लेते है ! [ तुमने चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी बात कहकर उसे इतना असाध्य क्यों बना दिया ?, क्योंकि बहुत सङ्कीर्ण मार्ग ( पगडण्डी ) में भी स्थित वस्तुको प्राप्त कर लिया जाता हैं, और जिस ब्रह्मका मन भी नहीं प्रत्यक्ष करता, उसे भी प्रयत्न करनेवाले प्राप्त कर लेते हैं; अतएव तुमने जो कहा उसका अभिप्राय मैंने समझ लिया है, मुझसे अपना अभिप्राय छिपाना व्यर्थ है / तथा जिसे तुम चन्द्रमाको हाथ से पकड़ेनेके समान अशक्य समझती हो, वह नलप्राप्तिरूप कार्य वैसा अशक्य नहीं है, उसके लिये तुम्हें प्रयत्न करना होगा ] // 63 / / ईशाणिमैश्वर्यविवर्तमध्ये लोकेशलोकेशयलोकमध्ये। तिर्यश्चमप्यश्च मृषानभिज्ञरसज्ञतोपज्ञसमज्ञमज्ञम् // 64 // अथ मयि मृषावादित्वाशङ्कया वक्तुं सङ्कोचस्तञ्चन शङ्कितव्यमित्याह-ईशेस्यादिना त्रयेण / ईशस्य यदणिमैश्वर्य तस्य विवर्ती रूपान्तरं मध्यो यस्याः सा तथोक्ता हे कृशोदरीत्यर्थः। लोकेशलोके शेरत इति लोकेशलोकेशयाः ब्रह्मलोकवासिनः 'अधिकरणे शेतेरि त्यचप्रत्ययः। 'शयवासवासिवकालादित्यलुक तेषां लोकानां जनानां मध्ये अझं मूढं तिर्यनं पक्षिणमपि मामिति शेषः। मृषा अनृतं तस्य अनभिज्ञा रसज्ञा रसना यस्य तस्य भावस्तत्ता सत्यवादितेत्यर्थः। उपज्ञायत इति उपज्ञा आदावुपज्ञाता, 'उपज्ञा ज्ञानसाचं स्यादि'त्यमरः / 'आतश्चोपसर्गे' इत्यङ्प्रत्ययः बहुलग्रहणात् कर्मार्थत्वं तथात्वेन ज्ञातं तदुपज्ञम् 'उपज्ञोपक्रम तदाद्याचिख्यासायामिति नपुंसकत्वम् / समं साधारणं सर्वैर्जायत इति समज्ञा कीर्तिः पूर्ववदप्रत्ययः, तदुपर्श तथात्वेनादौ ज्ञाता समज्ञा कीर्तिर्येन तं तथोक्तं मामञ्च, सत्यवादिनं विद्वीत्यर्थः / अञ्चतेर्गत्यर्थत्वात् ज्ञानार्थत्वम् // 64 // ___ ( मुझे अपना अभिप्राय नहीं कहने पर भी उसे जाननेका अभिमान क्यों करते हो, ऐसे दमयन्तीके आक्षेप का समाधान राजहंस करता है-) हे कृशोदर (दमयन्ती) ! ब्रह्मलोकके निवासी लोगों में सत्यवादिता एवं सहृदयताके आद्य ज्ञानसे युक्त सर्वश भी मुझ तिर्यञ्चको अश (मूर्ख, या असत्यवक्ता हृदयहीन-जैसा चाहो, वैसा) समझो, [अथवा-..."मूर्ख तिर्यञ्चको भी सत्यवादिता तथा सहृदयताके प्रथम ज्ञानसे युक्त सर्वश समझो, या-उक्तरूप मेरी पूजा करो / अथवा-असत्य-भाषण नहीं करनेवाली जीभके भाव ( वचन ) से युक्त आद्यज्ञानसे कीर्तिवाले मुझ तिर्यञ्चको भी अश ( मूर्ख, या-असहृदय असत्यवक्ता-चाहे जैसा समझो..." ) // 64 // मध्ये श्रुतीनां प्रतिवेशिनीनां सरस्वती वासवती मुखे नः / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 नेपषमहाकाव्यम् / हियेय ताभ्यश्चलतीयमद्धापथान' संसर्गगुणेन बद्धा / / 65 / / मध्य इति / किं च, प्रतिवेशिनीनां प्रतिवेश्मनां श्रुतीनां वेदानां ब्रह्ममुखस्थानां श्रुतीनां मध्ये वासवती निवसन्ती इयं नोऽस्माकं मुखे सरस्वती वाक् संसर्ग एव गुणः श्लाघ्यधर्मः तन्तुश्च तेन बद्धा सती ताभ्यः श्रुतिभ्यो हियेवेत्युप्रेक्षा। भदापथात्सत्यमार्गान्न चलति संसर्गजा दोषगुणा भवन्तीति भावः / 'सत्ये त्वद्धाsअसाद्वयमित्यमरः // 65 // हमलोगोंके मुख में वर्तमान सरस्वती ( वाणी ) पड़ोसिन श्रुतियों के बीचमें बसती हैं, अतएव संसर्ग-गुणसे बँधी हुई वह मानो उत (श्रुतियों) से लज्जाके कारण निश्चितरूपसे पथभ्रष्ट नहीं होती है [ ब्रह्माके चारों मुखसे वेद निकले हैं, जो वेद-वचन सर्वथा सत्य एवं सत्पथगामी ही हैं, और हमलोग ब्रह्माके वाहन होनेसे उनके साथ सदा रहते हैं, अतएव श्रुतियां हमलोगोंके मुखमें रहनेवाली सरस्वती अर्थात् हमारे वचनकी पडोसिन है, इस कारण सदा सत्य उन श्रुतियोंसे लज्जा करती हुई हमारी वाणी कभी असत्पथमें नहीं जाती अर्थात् हमलोग कभी असत्य भाषण नहीं करते / लोकमें भी पड़ोसी व्यक्तिसे लज्जा होने के कारण कोई भी व्यक्ति उनके अनुसार ही सदा आचरण करता है ] // 65 // पर्यङ्कतापन्नसरस्व दङ्क लङ्कापुरीमध्यभिलाषि चित्तम् / कुत्रापि चेद्वस्तुनि ते प्रयाति तदप्यवेहि स्वशये शयालु / / 66 / / ततः किमित्यत आह-पर्यङ्केति / कुत्रापि वस्तुनि द्वीपान्तरस्थेऽपीति भावः। अभिलाषि साभिलाषं ते तव चित्तं कर्तृ पर्यङ्कतां वाससकथिकात्वमापन्नः सरस्वान् सागरोऽङ्कश्चिद्रं यस्यास्तामतिदुर्गमामित्यर्थः। तां लङ्कापुरीमपि प्रयाति चेत्तदपि तदुर्गस्थमपि स्वशये स्वहस्ते शयालु स्थितमवेहि / पर्यस्तमपि पर्यङ्कस्थमिव जानीहि // 66 // (अब राजहंस अपने सामर्थ्यातिशयको प्रकट करता हुआ कहता है- ) पर्यङ्क ( पलँग ) बना है मनुद्र-मध्य जिसका ( पलंग के समान समुद्र-मध्यमें सुखसे स्थित ) लङ्कापुरी या अन्य किसी भी वस्तुको भी यदि तुम्हारा मन चाहता है ( अथवा किसी वस्तु को चाहने वाला तुम्हारा चित्त लङ्कामें उस वस्तुमें होनेसे यदि उक्तरूप लकापुरीको भी जाना चाहता है ) तो उसे भी अपने हाथमें स्थित समझो। [ पक्षा०-कुत्रापिपृथ्वी के रक्षक नलमें अभिलाषयुक्त तुम्हारा चित्त उक्तरूप लङ्काको भी जाना चाहता है तो".......... ] || 66 // इतीरिता पत्ररथेन तेन हीणा च दृष्टा चबमाण भैमी। चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम // 67 / / इतीति / तेन पत्ररथेन पक्षिणा हंसेन इतीत्थमीरिता उक्ता भैमी हीणा स्वयमेव 1. 'मत्सङ्गगुणेन नद्धा इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। - स्वाकूतकथनसकोचात् लजिता, 'नुदविदेत्यादिना विकल्पानिष्ठानत्वम् / हृष्टा उपायलाभान्मुदिता च सती बभाण / किमिति ? मदीयं चेतो लङ्का नायते, किन्तु मलं राजानं कामयत इति श्लेषभङ्गया बभाणेत्यर्थः / अन्यत्र कुत्रापि वस्तुनि साभिलाषं न // 67 // ___उस पक्षी ( हंस ) के ऐसा ( 362-66 ) कहने पर प्रसन्न एवं लज्जित दमयन्ती बोली कि-मेरा मन लङ्काको नहीं जाता अर्थात् मैं लङ्कापुरीको नहीं चाहती ( पक्षा०मेरा मन नलको चाहता है ), दूसरे किसी वस्तु को ( या दूसरे किसी ( राजाको) नहीं चाहता, ( अथ च-नलके नहीं मिलने पर मेरा चित्त अनल ( अग्नि ) को चाहता है कि मैं उसमें जलकर भस्म हो जाऊं, किसी दूसरे को नहीं चाहता ) // 67 // विचिन्त्य बालाजनशीलशैलं लज्जानदीमजदनङ्गनागम् / आचष्ट विस्पष्टमभाषमाणामेनां स चक्राङ्गपतङ्गशकः // 68 // विचिन्त्येति / विस्पष्टमभाषमाणां श्लेषोक्तिवशात्संदिग्धमेव भाषमाणामित्यर्थः। एनां दमयन्तीं सः चक्राङ्गपतङ्गशक्रः हंसपक्षिश्रेष्ठः वालाजनस्य मुग्धाङ्गनाजनस्य शीलं स्वभावमेव शैलं लजायामेव नद्यां मजदनङ्गनागो यस्य तं विचिन्त्य विचार्य आचष्ट, तस्य लजाविजितमन्मथत्वं ज्ञात्वा लजाविसर्जनार्थ वाक्यमुवाचेत्यर्थः // 68 // __ वह राजहंस बालाओं के पर्वताकार ( बहुत बड़े ) शीलको तथा लज्जारूपिणी नदीमें गोता लगाते हुए कामदेवरूपी हाथो वाला समझकर स्पष्ट नहीं कहती हुई इस दमयन्तीसे बोला- / [ लज्जावश कामपीडित होती हुई भी वाला यह दमयन्ती पर्वताकार शीलका उल्लङ्घनकर अपने मनोरथको स्पष्ट नहीं कहती है, यह सोचकर राजहंस बोला- // 6 // नृपेण पाणिग्रहणे स्पृहेति नलं मनः कामयते ममेति / आश्लेषि न श्लेषक वेर्भवत्याः इलोकद्रयार्थस्सुधिया मया किम् ? / / 6 / / नृपेणेति / श्लेषकवेः श्लेषभङ्गया कवयित्र्याः श्लिष्टशब्दप्रयोक्न्या इत्यर्थः, कवृ. वर्णन इति धातोरोणादिक इकारप्रत्ययः / भवत्यास्तव सम्वन्धि नृपेण का पाणिग्रहणं पाणिपीडनम् , 'उभयप्राप्ती कर्म गीति विहितायाः षष्टयाः 'कर्मणि चेति समासनिषेधेऽपि शेपे पष्ठोसमासः / तत्र स्पृहेति मम मनो नलं कामयते द्विजराजपाणिग्रहति चेतो नलं कामयत इति श्लोकद्वयार्थः सुधिया मया विदुषा नाश्लेषि नाग्राहि किं ? गृहीत एवेत्यर्थः // 69 // 'राजा ( नल ) के साथ विवाह करनेकी इच्छा है, मेरा मन नलको चाहता है। ऐसे इलषपण्डिता तुम्हारे पूर्वोक्त दो श्लोकों ( 3159 तथा 67 ) के अर्थको विद्वान् मैने नहीं समझा क्या ? अर्थात् 'यद्यपि तुमने स्पष्ट नहीं कहकर इलेषद्वारा अपगा मनोरथ बतलाया है. तथापि तुम नलको चाहती हो' ऐसा तुम्हारे अभिप्रायको मैंने समज ही लिगा है // 69 // Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 नैषधमहाकाव्यम् / त्वच्चेतसः स्थैर्यविपर्ययं तु सम्भाव्य भाव्यस्मि तदर्श एव / लक्ष्ये हिवालाहदि लोलशीले दरापराद्धेषुरपि स्मरः स्यात ||7|| तर्हि किमर्थ करेण वान्छेत्यादिकमज्ञवदुक्तवदुक्तमित्यत आह-स्वच्चेतस इति / किन्तु त्वच्चेतसः स्थैर्य विपर्ययमस्थिरत्वं संभाव्य आशङ्कय तदज्ञः कस्य श्लोकदयार्थस्य अज्ञः अनभिज्ञः भावी भविष्यन् 'भविष्यति गम्यादय' इति साधुः अस्मि / स्वश्चित्तनिश्चयपर्यन्तमित्यर्थः / धातुसम्बन्धे प्रत्यया इति भविष्यत्ताया गुणात्वाद्वर्तमानतानुरोधः / नन्वेवमनुरक्तायां मयि कुत इयं शङ्केत्याशङ्कय स्त्रीणां चित्तचाञ्चल्यसम्भवादित्याह-लक्ष्य इति / लोलशीले चंचलस्वभावे बालाहृदि चित्त एव स्मरो पि दरापराद्धेषुरीषच्च्युतसायकः स्यात्, कुशलोऽपि धन्वी चललक्ष्यात्कदाचिदपरा. ध्यत इति भावः / 'अपराद्धपृषत्कोऽसौ लक्ष्याद् यश्चयुतसायकः' इत्यमरः। अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः // 70 // (बाला होने के कारण ) तुम्हारे मनकी अस्थिरताको सम्भावना कर मैं उसका अनभिज्ञ ( अजानकार ) ही बना हूं ( या-अनभिज्ञ सा बना हूं); क्योंकि सदा चंचल बालाके हृदयमें कामदेव लक्ष्यभ्रष्ट भी हो जाता है / [बालामें कामवासना तीव्र नहीं रहनेसे वह अधिक कामपीडित नहीं होती, अतएव सम्भव है बाला होनेसे तुम्हारा मन भी बादमें परिवतित हो जाय, इस कारण तुम्हारे मनोरथको जानकर भी मैं अजानकार हा बना था / / महीमहेन्द्रः खलु नैषधेन्दुस्तद्वोधनीयः कामत्थमेव ? | प्रयोजनं सांायकम्प्रतीहक्पृथग्जनेनेव स मद्विधेन / / 71 // महीति / नैषधः इन्दुरिव नैषधेन्दुलचन्द्रः महीमहेन्द्रो भूदेवेन्द्रः खलु तस्मात् स नलः / पृथग्जनेन प्राकृतजनेनेव मद्विधन मादृशा विदुषा ईदृक सांशयिक सन्देह. दुःस्थम् अस्थिरं प्रयोजनं प्रति इत्थमेव मुग्धाकारेणैव कथं बोधनीयः? अनर्ह मित्यर्थः। 'गतिबुद्धी'त्यादिनाअणि कर्त्तनलस्य कर्मत्वं, 'ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मण' इति अभिधानाच॥ ___ इस कारण सन्देहयुक्त कार्यके लिये नैषधचन्द्र राजा नलसे हीन व्यक्तिके समान मुझ-जैसा प्रामाणिक व्यक्ति इसी प्रकार ( सन्देहयुक्त होनेसे बिना विचार किये ही ) कैसे कहे ? [ सामान्य व्यक्ति भले ही किसी सन्दिग्ध कार्य के लिये भी नलसे निवेदन कर दे, किन्तु मुझे जैसे प्रामाणिक व्यक्तिको सन्दिग्ध कार्यके लिये नलसे निवेदन करना कदापि उचित नहीं है ] // 71 // पितुनियोगेन निजेच्छया वा युवानमन्यं यदि या वृणीषे / त्वदर्थमथित्वकृतिप्रतीतिः कोहमयि स्याभिषधेश्वरस्य || 72 / / अथेत्यमेव बोधने को दोषस्तत्राह-पितुरिति / पितुर्नियोगेन आज्ञया निजेच्छया स्वेच्छया वा अन्यं नलादयं युवानं यदि वृणीषे वृणोषि यदि, तदा निषधेश्वरस्य 1. 'तमश' इति पाठान्तरम् / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 165 नलस्य मयि विषये स्वदथं तुभ्यं, 'चतुर्थी तदर्थे'त्यादिना चतुर्थी समासः,'अर्थे न सह निस्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम् / तद्यत्तथा अर्थित्वकृतिः अर्थित्वभजनं तत्र प्रतीतिर्विश्वासः कीटक स्थान स्यादित्यर्थः / तस्मादसंदिग्धं वाच्यमिति भावः // तो तुम्हारे लिए याचना करनेवाले मेरे विषयमें नलका कैसे विश्वास रह जायेगा [ अर्थात् सर्वदाके लिए मुझसे उनका विश्वास उठ जायेगा, अतः विना दृढ़ निश्चय किये मैं नलसे तुम्हारे लिए नहीं कहना चाहता] / / 72 // त्वयाऽपि कि शढिविक्रियेऽस्मिन्नधिक्रिये वा विषये विधातुम् / इतः पृथक् प्रार्थयसे तु यद्यत्कुर्वे तदुर्वीपतिपुत्रि ! सर्वम / / 73 // अन्यथा तथा वक्तुं न शक्यते तर्हि ततोऽन्यदीप्सितं करिष्ये प्रतिज्ञाभनपरि. हारायेत्याह-त्वयेति ! हे उर्वीपतिपुत्रि ! भैमि ! त्वयापि वा किं विधातुं किं कर्तु शङ्कितविक्रिये सम्भावितविपर्यये अस्मिन् विषये राजपाणिग्रहणसंघटनकार्ये अहम् , अधिक्रिये विनियुज्ये, अनियोज्य इत्यर्थः / करोतेः कर्मणि लट् , किन्तु इतः पृथगस्मादन्यत् यद्यत्प्रार्थयसे सत्सर्वं कुर्वे करोमीत्यर्थः // 73 // तुम भी परिवर्तनकी सम्भाबना वाले इस ( नल-विवाहरूप ) विषयमें कार्य करनेके लिए मुझे क्यों अधिकारी बनाती हो ? अतः हे राजकुमारी दमयन्ती ! इससे भिन्न जो जो तुम चाहोगी, वह सब मैं करूँगा / / 73 // श्रवःप्रविष्टा इव तगिरस्ता विधूय वैमत्यधुतेन मूर्ना / ऊचे हिया विश्लाथतानुरोधा पुनर्धरित्रीपुरुहूतपुत्री / / 74 / / श्रव इति / धरित्रीपुरुहूतपुत्री भूमीन्द्रसुता भैमी अवाप्रविष्टा इव न तु सम्यक प्रविष्टाः तद्विरो हंसवाचः / वैमत्येन असम्मत्या धुतेन कम्पितेन मूर्ना विधूय प्रतिषिध्य हिया का विश्लथितानुरोधा शिथिलितवृत्तिस्त्यक्तलजा सती पुनरप्यूचे उवाच // 74 // कानमें प्रविष्ट हुएके समान उस हंस के वचनोंको असम्मतिसे कम्पित किये गये मस्तक से निकालकर लज्जासे शिथिलित अनुरोध वाली अर्थात् अत्याज्य लज्जाको भी शिथिल, की हुई राजकुमारी दमयन्ती बोली। [हंसके कहनेपर ऐसा कहीं हो सकता कि मैं पिताकी आज्ञासे या स्वेच्छासे दूसरे युवकका वरण कर लूं' इस अभिप्रायसे निषेध करती हुई दमयन्तीने जब मस्तकको हिलाया, तब ऐसा ज्ञात होता था कि हंसोक्त अनभिलषित वचन जो उसके कानों में घुस गये हैं, उन्हे निकालने के लिए उसने मस्तक हिलाया हो. लोकमें भी कानमें अनिभिलषित कीड़ा आदि घुसनेपर मस्तकको हिलाकर लोग उसे बाहर करते है ] // 74 / / मदन्यदानं प्रति कल्पना वा वेदस्त्वदीये हृदि तावदेषा / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / निशोऽपि सोमेतरकान्तशङ्कामोद्धारमप्रेसरमस्य कुर्याः / / 75 / / मदिति / मम अन्यदानमन्यस्म दानं प्रति दानमुहिश्य या कल्पना पितुर्नियो. गेनेत्यादि श्लोकस्तर्कः / एषा कल्पना त्वदीये हृदि वेदस्तावत्सत्य एवेत्यर्थः / निशो निशाया अपि 'पदन्नि'त्यादिना निशाया निशादेशः सोमाञ्चन्द्रादितरकान्तशत पुरुषान्तरकल्पनामेव ओङ्कारं प्रणवम् अस्य वेदस्याग्रेसरमाधं कुर्याः कुरु सर्वस्यापि वेदस्य प्रणवपूर्वकत्वादिति भावः / यथा निशायाः निशाकरेतरप्रतिग्रहो न शङ्क नीयः, तथा ममापि नलेतरप्रतिग्रहो न शङ्कनीय इत्यर्थः / रूपकालङ्कारः // 75 // मुझे दूसरे युवकके लिए देनेकी यदि कल्पना तुम्हारे हृदय में वेद अर्थात् वेदवत् प्रामाणिक है, तो रात्रिके भी चन्द्रभिन्न पति होने की शङ्काको इस वेदके आगे करो। [वेदके पहले ॐकार होता है, अतः यदि तुन्हें शङ्का है कि पिताकी आज्ञासे या स्वयं दूसरे युवकका मैं वरण कर लूँगी ( 372 ), तो रात्रिका भी पति चन्द्रमासे भिन्न कोई ही सकता है, इस बातको भी तुम्हे प्रामाणिक मानना चाहिये। अत एव जिस प्रकार रात्रि का पति चन्द्रमासे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता, उसी प्रकार मेरा भी पति नलसे भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता ] / / 75 // सरोजिनीमानसरागवृत्तेरनर्कसम्पर्कमतर्कयित्वा / मदन्यपाणिग्रहशक्षितेयमहो महीयस्तव साहसिक्यम् // 76 / / सरोजिनीति / सरोजिन्याः मानसरागवृत्तेर्मनोऽनुरागस्थितेरभ्यन्तरारुण्यप्रवृ. तेश्च अनर्कसम्पर्कमर्केतरकान्तसंक्रान्तिमतर्कयित्वा अनूहित्वा तवेयं मम अन्यस्य नलेतरस्य पाणिग्रहं शङ्कत इति तच्छङ्कितस्य भावस्तत्ता महीयो महत्तरं साहसिक्यं साहसिकत्वम् अहो असम्भावितसम्भावनादाश्चर्यम् // 76 // ___ कमलिनीके मनोऽनुरागके व्यापारको सूर्येतर के साथ बिना तर्क किये नलेतरके साथ मेरे विवाहकी शङ्का करना तुम्हारा बहुत बड़ा साहस है, (तुम्हारे ऐसे साहस करनेपर) आश्चर्य है [ सूर्य के अतिरिक्त किसी दूसरेसे कमलिनी विकसित नहीं हो सकती, तो नलके अतिरिक्त किसी दूसरेसे मेरा विवाह नहीं हो सकता, अत एव बे-सिर-पैरकी बातोंकी शङ्का करनेसे तुम्हारे महान् साहसपर मुझे आश्चर्य होता है J // 76 / / साधु त्वयाऽतर्कि तदेकमेव स्वेनानलं यस्किल संश्रयिष्ये / विनाऽमुना स्वात्मनि तु प्रहतु मृषा गिरं त्वां नृपतौ न कर्तुम् ||77 // साध्विति / किन्तु स्वेन स्वेच्छया अनलं नलादन्यम् अग्निं च संश्रयिष्ये प्राप्स्यापीति यत् त्वया अतर्कि ऊहितं तदेकमेव साधु अतर्कि, किन्तु अमुना नलेन विना तदलाम इत्यर्थः / स्वात्मनि प्रहतुं स्वात्मानं हिंसितुं कर्मणोऽधिकरणस्वविवक्षायां सप्तमी। 'अनेकशक्तियुक्तस्य विश्वस्यानेककर्मणः / सर्वदा सर्वतोभावात् कचित् किनिद्विवच्यते // ' इति वचनादनलं संश्रयिष्ये इत्यनुषङ्गः नृपतौ नले विषये त्वां Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 160 मृषागिरमसत्यवाचं कर्तुमनल एव शरणम् अन्यथा मरणमेव शरणमिति भावः॥ हां तुमने सचमुच यह ठीक तर्क किया है कि मैं स्वयं अनल (अग्नि पक्षा०'नलभिन्न ) का आश्रय कर लूगी, इस ( नल ) के बिना अपनी आत्मापर प्रहार करनेके लिए तैयार हूँ अर्थात् नलके नहीं मिलनेपर अग्नि में जलकर मर जाऊँगी, किन्तु तुममें राजा नलके यहां असत्यवक्ता नहीं बनाऊंगी / / 77 // मद्विप्रलभ्यं पुनराह यस्त्वां तर्कस्स किं तत्फलवापि मूकः ? / अशक्यशङ्कयभिचारहेतुर्वाणी न वेदा यदि सन्तु के तु ? // 7 // मदिति / किञ्च, यस्तकं उहः मद्विप्रलभ्यं मया विप्रलम्भनीयं 'पोरदुपधादिति यत्प्रत्ययः / आह बोधयतीत्यर्थः स तर्कः तस्य विप्रलम्भस्य फलवाचि प्रयोजनाभिधाने मूकः अशक्तः किम् ? अतो मय्यसत्यवादित्वशङ्का न कार्यत्यर्थः / कथमेतावता सत्यवाक्यत्वनिश्चयः अत आह-अशक्या शङ्का यस्य सः अशक्यशङ्कः शवितुमशक्यः व्यभिचारहेतुर्विप्रलिप्सालक्षणो यस्याः सा वाणी न वेदा यदि न प्रमाणं चेत्तर्हि के तु वेदाः सन्तु ? न केऽपीत्यर्थः सम्भावनायां लोट / वेदवाचामसत्यस्वे मद्वाचोऽप्यसत्यत्वम्, नान्ययेति भावः // 78 // जिस तर्कसे तुम यह समझते हो कि 'यह दमयन्ती मुझे (हंसको) असत्य कहकर ठग रही है', वह तक उस ठगनेके परिणामको कहनेमें मूक क्यों है ( तुम्हें झूठाकर मुझे क्या लाभ होगा, यह भी तुम्हें उसी तर्क से पूछना चाहिये ), जिसमें कोई शक नहीं हो सकती ऐसे व्यभिचार कारणवाले वचन वेद (वेदके समान सत्य ) नहीं हैं, तो वेद क्या है ?, [ जिसमें व्यभिचार होनेकी शङ्का ही नहीं उठती, ऐसे ही वचन वेदतुल्य साथ है, अतः तुम्हें ठगनेपर मुझे कोई फल ( लाम ) नहीं होगा, इस कारग मैं तुमें मलको पति बनानेके लिए कहकर ठग नहीं रही हूं, किन्तु सत्य कह रही हू] // 78 / / अनवधायंत्र जुहोति किं मां तातः कृशानो न शरीरशेषाम् ? / इष्टे तनूजन्मतनोस्तथापि मत्प्राणनाथस्त नलस्स एव / / 05 // एवं निजेच्छया नलान्यशङ्कां निरस्य पित्राज्ञयापि तां निरस्यति-अनैषधायेति / ततो मम जनकः / 'तातस्तु जनकः पिता' इत्यमरः / मामनैषधाय नैषधानलाइनबस्मै एव जुहोति ददातीति काकुः, तदा शरीरशेषां मृतां तत्रापि कृशानी न किं न तु जीवन्तीं नग्नेरन्यत्र जुहोतीत्यर्थः। तदङ्गीकर्तव्यमेवेति भावः / कुतः ? स जनकः तनूजन्मतनोः आत्मजशरीरस्य ईष्टे स्वामी, भवतीत्यर्थः। अधागर्थदयेशां कर्मणी'ति शेषे षष्ठी / तथापि शरीरस्य पितृस्वामिकत्वेऽयीत्यर्थः। मत्प्राणनाथस्तु नल एवं प्राणानामतज्जन्यत्वादिति भावः / अतो मय्यविश्वासं मा कुर्वित्यर्थः॥ 79 // यदि पिताजी मुझे नल-भिन्नके लिए देते हैं तो शरीरशेष (प्राणहीन-मृत ) मुझको अग्निमें ही क्यों नहीं फेंक देते ? कहो, वे (पिताजी) सन्तानके शरीरके अधिकारी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अवश्य है, तथापि मेरे प्राणनाथ तो नल ही है। [ यदि पिताजी किसी दूसरेके साथ मेरा विवाह करना चाहेंगे तो जन्मातरमें भी नलको पतिरूपमें पाने के लिए मैं प्राणत्याग कर दूगी ] // 79 // तदेकदासीत्वपदादुदमे मदीप्सिते साधु विधित्सुता ते / अहेलिना किं नलिनो विधत्ते सुधाकरेणापि सुधाकरेण / / 80 // फलितमाह-तदेकेति / तस्य नलस्यैकस्यैव दासीत्वं तदेव पदमधिकारस्तस्मा. दुदने अधिके मदीप्सिते पत्नीत्वरूपे विषये तव विधित्सुता चिकीर्षुतैव साधु साध्वी, अविचारेण मनोरथपूरणमेव ते युक्तमिति भावः। साध्विति सामान्योपक्रमान्न पुंसकत्वम्, 'शक्यं श्वमांसेनापि सुन्निवर्तयितुमि ति भाप्यकारप्रयोगात् / ननु क्रिमः त्राभिनिवेशेन गुणवत्तरं चेद्यवान्तरस्वीकारे को दोषस्तत्राह-अहेलिनेति / नलिनी सुधाकरेण अमृतदीधितिनापि अहेलिना असूर्यण सुधाकरेण चन्द्रण किं विधत्ते ? किं तेन तस्या इत्यर्थः / तद्वन्ममापि किं युवान्तरेणेति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः // 8 // ___ उस ( नल ) की एकमात्र दासी-पदसे भी श्रेष्ठ मेरे अभीष्ट को पूरा करनेकी तुम्हारी चाहना अच्छी है ? अर्थात् कदापि नहीं, क्योंकि सूर्यभिन्न अमृतकर भी चन्द्रमासे कमलिनी क्या करती है ? अर्थात् कुछ नहीं। [जिस प्रकार कमलिनी अमृतकिरण भी चन्द्रमाकी इच्छा नहीं करके सूर्यको हो चाहती है, उसी प्रकार में नलका दासी बनकर ही रहना चाहती हूं, दूसरे किसीकी पटरानी भी नहीं होना चाहती, अत एव तुमने नल-प्राप्तिसे भिन्न मेरे दूसरे मनोरथकी जो साधना चाहते हो, वह दूसरा कोई भी मेरा मनोरथ नहीं है ] / / 80 // तदेकलुब्धे हदि मेऽस्ति लन्धुं चिन्ता न चिन्तामणिमप्यनम् / वित्ते ममैकस्स नलत्रिलोकीसारो निधिः पद्ममुखस्स एव / / 81 / / तदिति / तस्मिन्नेवैकस्मिन् लुब्धे लोलुपे मे हृदि अनघं चिन्तामणिमपि लब्धं चिन्ता विचारो नास्ति, तथा वित्ते धनविषयेऽपि मम स नलस्त्रिलोकीसारस्त्रैलोक्यश्रेष्टः पद्ममुखः पद्माननः एकः स नल एव त्रैलोक्यसारः, पद्मनिधिश्च / नलादन्यत्र कुत्रापि मे स्पृहा नास्ति / किमुत युवान्तर इति भावः // 81 // _ इस कारण उस नलमात्रके लोभी ( पानेको इच्छा करनेवाले ) मेरे मनमें बहुमूल्य चिन्तामणिको भी पानेकी चिन्ता नहीं है, सम्पूर्ण त्रिलोकीका सारभूत् कमल तुल्य सुन्दर मुखवाले वे ( नल) ही हमारे निधि (प्राणसर्वस्व स्वामी) हैं [ अथ च-पद्म है, प्रथम जिसके, ऐसे वे ही मेरे कोष हैं, अतः चिन्तामणिको जी मैं नहीं चाहती हूँ ] / / 81 / / श्रुतश्च दृष्टश्च हरित्सु मोहाद् ध्यातश्च नीरन्ध्रिनबुद्धिधारम् / ममाद्य तत्प्राप्तिरसुव्ययो वा हस्ते तवास्ते द्वयमेव शेषः / / 82 // भुतश्चेति / किं बहुना स नलः श्रुतः दूतद्विजनन्द्यादिमुखादाकर्णितश्च, मोहाव Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 169 भ्रान्तिवशात् हरित्सु दृष्टः साक्षात्कृतश्च, तथापि नीरन्ध्रितबुद्धिधारं निरन्तरीकृत. तदेकविषयबुद्धिप्रवाहं यथा तथा ध्यातश्च / अथाद्य मम तत्प्राप्तिनलप्राप्तिसुन्ययः प्राणत्यागो वा द्वयमेव द्वयोरन्यतर एवेत्यर्थः / शेषः कार्यशेषः स च तव हस्ते आस्ते त्वदायत्तः तिष्ठतीत्यर्थः / अत्र तत्पदार्थश्रवणमनननिदिध्यासनसम्पन्नस्य ब्रह्मप्राप्तिदुःखोच्छेदलक्षणमोक्षो गुर्वायत्त एवेत्यर्थान्तरप्रतीतिर्ध्वनिरेव अभिधायाः प्रकृतार्थनियन्त्रणादि संक्षेपः॥ 82 // मैंने नलको ( दूत, बन्दी तथा द्विज आदिके मुखसे ) सुना है, भ्रमवश दिशाओं में देखा है तथा निरन्तर बुद्धिप्रवाहसे उनका ध्यान किया है; ( इस प्रकार मैने चक्षुःप्रीति आदि नव प्रकारको अवस्थाओंका अनुभव किया है और अब ) मुझे नलको पाना या मेरा मरना - दोनों तुम्हारे हार्थों में हैं, उनमें एकका शेष होगा अर्थात् मैं नलको वरूँगी, या मरकर दशमी अवस्थाको पाऊँगी ? [ 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' (पा० सू० 1 / 2 / 64) से समानरूप वालोंका ही एकशेष होता है, परन्तु यहाँ विभिन्न रूपवालोंका भी एकशेष होना आश्चर्यजनक है / अथ च-जिस प्रकार श्रवण, दर्शन तथा ध्यानसे प्रत्यक्ष किये हुए ब्रह्मकी प्राप्ति किसी पुण्यात्माको ही होती है, उसी प्रकार उक्त प्रकारसे श्रवणादिसे प्रत्यक्ष किये गये नलकी प्राप्ति मुझे तुम्हारे अनुग्रह-विशेषसे होगी, अन्यथा नहीं / तथा-ब्रह्मप्राप्तिमें अ य ( दो अवयव वालों ) से हीन एकका ही शेष होता है ) // 82 // सञ्चीयतामाश्रुतपालनोत्थं मत्प्राणविश्राणनजं च पुण्यम् / निवार्यतामार्य ! वृथा विशङ्का भद्रेऽपि मुद्रेयमये ! भृशं का ? |8|| सञ्चीयतामिति / हे हंस ! आश्रुतपालनोत्थं प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहणोत्पन्नम् 'अङ्गी. कृतमाश्रुतं प्रतिज्ञातमित्यमरः। मत्प्राणानां विश्राणनं दानं तज्जन पुण्यं सुकृतं सञ्चीयतां संगृह्यता, हे आर्य! वृथा विशङ्का सन्देहो निवार्यताम् / अये ! अङ्ग / भद्रे पूर्वोक्तपुण्यरूपे श्रेयसि विषये भृशङ्केयं मुद्रा औदासीन्यं, श्रेयसि नोदासितध्यमिति भावः // 83 // ('मेरा कार्य करनेसे तुम्हे पुण्यातिशय प्राप्तिरूप महान् लाभ होगा' इस आशयसे दमयन्ती कहती है-) प्रतिज्ञाके पालनसे उत्पन्न मेरे प्राणदानरूप पुण्यका संग्रह करो, हे आर्य ! व्यर्थकी विपरीत शङ्का (या-विशिष्ट शङ्का ) को छोड़िये, अरे ! शुभ कार्यमें भी अत्यधिक यह मुद्रा (चुप रहनेकी चेष्टा ) क्यों है ? [ अथवा-सज्जन, या विचारशील तुममें यह ( मौनधारण रूप ) चेष्टा क्यों है ? अब तुम मौन छोड़कर पूर्व स्वीकत वचनको पूरा करने के लिये स्पष्टरूपसे कहो ] / / 83 / / अलं विलध्य प्रिय' ! विज्ञ ! याञ्चां कृत्वापि वाक्यं विविध विधेये / यशःपथादाश्रवतापदोत्थात खलु स्खलित्वाऽस्तखलोक्तिखेलात // 54 // 1. 'प्रियविज्ञ !' इति पाठान्तरम् / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 नैषधमहाकाव्यम् / बलमिति / हे प्रिय ! प्रियङ्कर विज्ञ ! विशेषज्ञ ! उभयत्र 'इगुपधेस्यादिना कमश्ययःयामां प्रार्थनां विलय अलं याच्आभङ्गो न कार्य इत्यर्थः। विधेये विनी. तजने विविधं वाक्यं वक्रतां कृस्वापि अलं, तच्च न कार्यमित्यर्थः / आश्रवो यथोक्त कारी, 'वचने स्थित आश्रव' इत्यमरः / तस्य भावास्तत्ता सैव पदं पदक्षेपः तदुत्थात् अस्ता निरस्ता खलोक्तिखेला मिथ्यावादविनोदो येन तस्माद्यशःपथात् स्खलित्वा चलित्वा खलु न स्खलितम्यमित्यर्थः / अन्यथा हानिः स्यात् / 'निषेधवाक्यालङ्कारजिज्ञासानुनये इत्यमरः / 'म खस्योः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वे ति उभयत्रापि वाप्रत्ययः इह 'न पादादोसरवादय' इति निषेधस्योद्वेजकत्वाभिप्रायत्वासअर्थस्य नशब्दस्यानुदेजकत्वाचनवदेव पादादी प्रयोगो न दूष्यत इति अनुसन्धेयम् // 8 // हे प्रिय ! हे विश (विचारशील ! अथवा-पक्षियोंमें ज्ञानी राजहंस !, अथवा-प्रिय पक्षियोंमें ज्ञानी--राजहंस !, अथवा--प्रिय (नल ) को विशेष जाननेवाले) ? मेरी याचनाका उल्लङ्घन मत करो, (पा-प्रिय तथा विश नल-विषयक मेरी (याचनाका उल्लङ्घन मत करो) विनीतमें (या-कर्तव्य कार्यमें ) अनेक प्रकारकी कुटिलता भी मत करो और कहे हुए वचनको पालनेवालोंके चरण (या-तल्लक्षण श्रेष्ठ स्थान ) से उत्पन्न तथा दुष्टोक्ति क्रीडासे वर्जित कीर्तिमार्गसे स्खलित भी मत होवो। [लोकमें हंसको पक्षियों में श्रेष्ठतम माना जाता है, अत एव उसे अपनी उस कीर्तिसे विचलित न होनेका यहाँ निषेध ही किया गया है ] // 84 / / स्वजीवमप्यातमुदे ददद्भ्यस्तव त्रपा नेशबद्धमुष्टेः। मझ मदीयान्यदसून दत्सोधर्मः कराद् अश्यति कोतिधौतः / 8 / / स्येति : इरशवमुष्टेरीहककष्टलुब्धस्य तव आर्त्तानां मुदे प्रीत्यै स्वजीवं ददद्भयः स्वप्राणमयेन परत्राणं कुर्वदयो जीमूतवाहनादिभ्य इत्यर्थः। 'जीवञ्जीमूतवाहन' इति प्रसिदम् / त्रण नेति काकुः, अपाया मनःप्रत्यावृत्तिरूपत्वात्तदपेक्षया तेषामपादानस्वात् पशमी / यद्यस्मान्मदीयानेवासून् प्राणान् मह्यमदित्सोः तव कीया धौतः शुद्धो धर्मः कराद्धस्ताद् भ्रश्यति, न चैतत्तवाहमिति भावः // 85 / / इस प्रकार मुट्ठी बांधे हुए ( ऐले महाकृषण. अत एव ) मेरे प्राणोंको ही मुझे नहीं देनेकी इच्छा करनेवाले तुमको, दुःखियोंके हर्ष के लिए अपना जीवन तक देनेवालों ( शिवि, दधीचि, जीमूतवाहन, राजा कर्ण आदि दाताओं ) से लज्जा नहीं होती, अत एव उक्तरूप कीर्तिसे धोया गया ( स्वच्छतम ) धर्म भी तुम्हारे हाथसे गिर ( नष्ट हो ) रहा है / [ दूसरे का धन लेकर पुनः उसे समर्पित नहीं करनेवाले व्यक्तिको आत्तॊके लिए अपना जीवनतक देनेवालोंसे लज्जा कैसे हो ? यदि लज्जा हो तब तो वह दूसरेकी ली हुई वस्तु उसे समर्पित ही कर देता, वैसा तुम नहीं करते, अत एव धर्म के साथ लज्जाको भी तुम नष्ट कर रहे हो। जो दूसरेकी वस्तुको ही नहीं लौटाना चाहता, वह अपनी वस्तु कैसे दे सकता है ? Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। अर्थात् कदापि नहीं दे सकता अत एव तुम नलदानद्वारा मेरे प्राणोंको मुझे देकर अपने धर्म तथा लज्जा दोनोंकी रक्षा करो [ // 85 // दत्त्वाऽऽत्मजीवं त्वयि जीवदेऽपि शुध्यामि जीवाधिकदे तु केन / विधेहि तन्मां त्वरणेष्वंशोधुममुद्रदारिद्रयसमुद्रमग्नाम् / / 86 // दत्त्वेति / किं च, जीवदे प्राणदे त्वयि विषये आत्मजीवं मत्प्राणं दत्त्वापि शुध्यामि आनृण्यं गमिष्यामीत्यर्थः / किन्तु जीवादधिकः प्रियः तद्दे त्वयि केन शुध्यामि ? न केनापि, तत्तल्यदेयवस्वभावादित्यर्थः। सम्प्रति प्राणैः समं तु न किञ्चिदस्तीति भावः / तत्तस्मादभावादेव मां.त्वहणेषु विषये अशोधुमऋणग्रस्तांभवितुमेव अमुद्र अपरिमिते दारिद्रयं त्वयवस्त्वभावरूपं तस्मिन्नेव समुद्र / मनां विधेहि नलसानेन मामृणग्रस्तां कुर्वित्यर्थः / अशोद्धं, मनामिति मग्नत्वानुवादेन अशुद्धिर्विधीयते दरिद्राणामृणमुक्तिर्नास्तीति भावः // 86 // __ तुम्हें जीव-दान करनेपर मैं अपना जीवन-दान करके भी शुद्ध (ऋणहीनअनृणी ) हो सकती हूँ, किन्तु जीवसे अधिक (नल ) के देनेपर (जीवाधिक पदार्थान्तर नहीं होनेसे ) मैं किससे अर्थात् तुम्हारे लिए क्या देकर शुद्ध हो जगी (तुम्हारे ऋणते छुटकारा पाऊँगी) ? इस कारण तुम तुम्हारे ऋणको नहीं चुकानेके लिए मुझे अपरिमित दारिद्रयरूपी समुद्रमें मग्न कर दो। [ मेरे जीवनसे भी अधिक नलको मुझे देकर सदाके लिए अपना ऋणी बना लो ] // 86 // क्रीणीष्व मजीवितमेव पण्यमन्यं न चेद्वस्तु तदस्तु पुण्यम् / जीवेशदातयदि ते न दातुं यशोऽपि तावत्प्रभवामि गातुम् / / 87 // क्रीणीप्वेति / हे जीवेशदातःप्राणेश्वरद ! मज्जीवितमेव पण्यं क्रेयं वस्तु क्रीणीष्व, जीवेशरूपमूल्यदानेन स्वीकुरुष्वेत्यर्थः। अन्यदेतन्मूल्यानुरूप वस्वन्तरं नास्ति चेत्तर्हि पुण्यं सुकृतमस्तु, किञ्चिद्यदि ते तुभ्यं दातुं न प्रभवामि न शक्नोमि तावत्तर्हि यशोऽपि कीतिं गातं प्रभवामि, ख्यातिसुकृतार्थमेवोपकुरुवेत्यर्थः // 87 // ( नलको बिना पाये मेरा मर जाना निश्चित है, अत एव तुम नलको देकर ) मेरे जीवनरूप सौदेको खरीद लो। ( यद्यपि जीवनदान तथा जीवनाधिकदानमें जीवनाधिकदानके बिना दूसरा कोई भी मूल्य नहीं हो सकता ), तथापि तुम्हें पुण्य ही हो / हे प्राणनाथके दाता राजहंस यदि मैं कुछ नहीं दे सकती हूँ तो तुम्हारा यश भी नहीं गा सकती ? अर्थात् तुम्हारा यश ही गाया करूंगी [ इसी प्रकार पुष्यरूप पारलौकिक फलमें अनिच्छा या अविश्वास रखनेवाले तुमको ऐहिक यशोगानरूप फल तो मिल ही जायेगा। वराटिकोपक्रिययाऽपि लभ्यान्नेभ्याः कृतज्ञानथवाद्रियन्ते / 1. त्वदृणान्यशोधु-' इति पाठान्तरम् / 2. '-असोदु-' इति पाठान्तरम् / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्राणः पणैः स्वं निपुणं भणन्तः क्रोणन्ति तानेव तु हन्त सन्तः ||8|| __ अथवासाधुस्वभावेनापि परोपकारं कुर्वित्याह-वराटिकेति / वराटिकोपक्रियया कपदिकादानेनापि लभ्यान् कृतज्ञान् तावदेव बहुमन्यमानान् उपकारज्ञान् इभ्याः धनिकाः, 'इभ्य आढयो धनी स्वामी'त्यमरः / नाद्रियन्ते धनलोभान्नोपकुर्वन्तीत्यर्थः। सन्तो विवेकिनस्तु स्वात्मानं निपुणं भणन्तः, सन्त एते वयं त्वदधीना इति साधु वदन्त इत्यर्थः / तानेव कृतज्ञान् प्राणैरेव पणैः क्रीणन्ति आत्मसात्कुर्वन्ति, क्रिमत जनैरित्यर्थः / अतस्त्वयाऽपि सता कृतज्ञाऽहमुपकर्तव्येति भावः / हन्त हर्षे // 88 // ___ धनिकलोग एक कौड़ीके भी उपकारसे मिलनेवाले कृताज्ञोंका आदर नहीं करते, और अपनेको चतुर कहते हुए सज्जन लोग प्राणरूप मूल्यसे भी उन्हें खरीद लेते हैं। [ अतः पूर्व श्लोकोक्त पुण्य तथा यशकी चाहना तुम्हें यदि नहीं हो, तथापि ( निरपेक्ष होते हुए भी ) सज्जन होनेके कारण मुझे उपकृत करो // 88 // स भूभृदष्टावपि लोकपालास्तैमें तदेकाधियः प्रसेदे। नहीतरम्मारद्धटते यदेत्य स्वयं तदाप्तिप्रतिभूममाभूः || 1 || स इति / किञ्च स भूभृन्नलः अष्टावपि लोकपालाः, तदात्मक इत्यर्थः / 'अष्टाभिलोकपालानां मात्राभिर्निर्मितो नृप' इति स्मरणात् / अत एव तदेकाग्रधियो नलैः कतानबुद्धेः मे मम तैर्लोकपालैः प्रसेदे प्रसन्नं भावे लिट। देवता ध्यायतः प्रसीदन्तीति भावः। कुत ? इतरस्मात् प्रसादादन्यथेत्यर्थः। स्वयं स्वयमेवागत्य मम तदाप्तिप्रतिभूः नलप्राप्तिलग्नकोऽभूरिति यत् , तन्न घटते हि / तत्प्रसादाभावे कुतो ममेदं श्रेयः ? इत्यर्थः // 89 // वे नल आठों लोकपाल हैं, उन (नल ) में एकाग्र बुद्धिवाली मुझपर वे लोकपाल प्रसन्न हो गये हैं, उस (नल ) की प्राप्तिके विषयमें तुम स्वयं आकर मेरा प्रतिभू ( लामिनदार, मध्यस्थ ) बने हो, यह बात अन्यथा (नलको मुझे देनेके लिए लोकपालोंके मुझपर प्रसन्न नहीं होनेपर ) नहीं घटित होती / [ अत एव दाता तथा ग्रहीताके बीचमें दोनों ओर कार्य करनेवाले प्रतिभूको ही दबाकर नियत धनादि मांगा जाता हैं, अत एव में भी तुमसे ही नलको देने के लिए बार-बार हठपूर्वक कह रही हूँ ] // 89 // अकाण्डमेवात्मभुवाऽर्जितस्य भूत्वाऽपि मूलं मयि वोरणस्य / भवान मे किं नलदत्वमेत्य को हृदश्चन्दनलेपत्यम् / / 10 // अकाण्डेति / हे हंस ! विः पक्षी 'विर्विप्किरपतत्रिणः' इत्यमरः / 'रोरी'ति रेफलोपे 'ढलोपे पूर्वस्ये ति दीर्घः। भवान् अकाण्डमनवसर एव 'अत्यन्तसंयोगे द्वितीया' आत्मभुवा कामेन मयि विषये अर्जितस्य कृतस्य रणस्य गाढप्रहारलक्षणस्य मूलं हंसानामहीपकत्वेन निदानं भूत्वाऽपि अन्यत्र काण्डो दण्डः तद्वर्जितमकाण्डं यथा तथा आत्ममुवा ब्रह्मणा अर्जितस्य सृष्टस्य वीरणस्य तृणविशेषस्य मूलं मूलावयवो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 173 भूत्वा अत एव नलदरवं नैषधदातृत्वम् / अन्यत्र उशीरत्वं चेत्यर्थः / हृदः चंदनलेप. कृत्यं शैत्योत्पादनं न कर्ता करिष्यत्येव परोपकारशीलत्वादिति भावः / 'काण्डोऽस्त्री दण्डबाणार्ववर्गावसरवारिषु / ', 'स्याद्वीरणं वीरतरुर्मूलस्योशीरमस्त्रियाम् / ' 'अभयं नलदं सेव्यमिति चामरः / वीरणस्येति शब्दश्लेषः / अन्यत्रार्थश्लेषः / तथा च नलदत्वमेत्य चेति प्रकृताप्रकृतयोरभेदाध्यवसायेन हंसे आरोप्यमाणस्योशीरस्य प्रकृत्या तादात्म्येन चन्दनकृत्यलक्षणप्रकृतकार्योपयोगात् परिणामालङ्कारः / 'आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम' इति लक्षणात्, स चोक्तश्लेषप्रतिविम्बो. स्थापित इति सङ्करः // 9 // __ असमय अर्थात् बाल्यमें ही कामदेवसे उत्पादित रहस्य-कथनका मूल पक्षी होकर भी ( अथवा-नलका प्रस्ताव उपस्थित कर बाणहीन कामदेवके युद्धका मूल ( जड़ ) पक्षी होकर भी / अथवा-विना गांठ (पर्व-पोर ) के ही ब्रह्माके द्वारा मेरे लिए रचे गये खसका मूल-जड़ होकर भी आप मेरे लिए नल ( राजा नल, पक्षा०-उशीर = खश ) को देकर हृदयके चन्दन लेपके कार्यको नहीं करेंगे क्या ? ( जब आप मेरे लिए ब्रह्मसृष्ट खशकी जड़ बने हैं, तब आपकी मेरे लिए नल (खश) को देकर हृदयपर चन्दनलेपके कार्य को पूरा कराना ही चाहिये / अथ च-मेरे कौमार अवस्थामें ही आप सहसा कहींसे आकर कामयुद्ध का मूल बन गये हैं तो नलको मेरे लिए देकर मेरे हृदय पर चन्दन लेपका कार्य सम्पादन आपको करता ही चाहिये, अन्यथा यदि अन्य-नलको मेरे लिए नहीं देंगे तो मैं हृदय पर चन्दनका लेपकर शृंगार भी नहीं करूँगी ] // 90 // अलं विलम्ब्य स्वारतु हि वेला कार्य किल स्थैर्यसहे विचारः / गुरूपदेशं प्रतिभेव तीक्ष्णा प्रतीक्षते जातु न कालमातिः // 11 // अलमिति / हे हंस ! विलम्ब्यालं न विलम्बितव्यमित्यर्थः। 'अलकत्वोरित्यादिना क्त्वाप्रत्यये ल्यबादेशः। त्वरितुं वेला हि त्वराकालः खस्वयमित्यर्थः / 'कालसमयवेलासु तुमुन्' कुतः ? स्थैर्यसहे विलम्बसहे कार्य विचारो विमर्शः किलेति प्रसिद्धी, अन्यथा विपत्स्यत इति भावः तथाहि तीपणा शीघ्रग्राहिणी प्रतिभा प्रज्ञा गुरूपदेशमिव आर्निराधिर्जातु कदापि कालं न प्रतीक्षते, कालोपं न सहत इत्यर्थः / उपमार्थान्तरन्यासयोः संसृष्टि // 91 // यह समय शीघ्रता करनेका है, अत एव विलम्ब मत करो, क्योंकि विलम्बको सह सकनेवाले कार्य में विचार किया जाता है। जिस प्रकार तीक्ष्ण बुद्धि गुरुके उपदेशकी प्रतीक्षा कभी नहीं करती, उसी प्रकार पीड़ा ( नल-विरह पीडा) समय ( विलम्ब) की प्रतीक्षा नहीं करती // 91 // अभ्यर्थनीयस्स गतेन राजा त्वया न शुद्धान्तगतो मदर्थम् / प्रियास्यदाक्षिण्यबलात्कृतो हि तदोदयेदन्यवधूनिषेषः / / 92 / / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् अथानन्तरकृत्यं सविशेषमुपदिशति-अभ्यर्थनीय इत्यादिश्लोकपत्रकेन / गतेन इतो यातेन त्वया स राजा नलः शुद्धान्तगतः अन्तपुरस्थो मदथं मत्प्रयोजनं नाभ्यर्थनीयो न वाच्यः, दुहादित्वाद् द्विकर्मत्वम् 'अप्रधाने दुहादीनामिति राज्ञोऽभि. हितकर्मत्वम् कुतः ? हि यस्मात्तदा तस्मिन् काले प्रियाणामास्यदाक्षिण्यं मुखाव. लोकनोत्थापितच्छन्दानुवृत्तिबुद्धिरित्यर्थः / तेन बलात् कृतो बलात्प्रतिवर्तितो भन्यवधूनिषेधः उदयेत् उत्पद्यते // 92 // (अब चार श्लोकों ( 193-95) से नलसे प्रार्थना करनेके उचित अवसरको कहती है-) यहाँसे गये हुए तुम रानियों के बीचमें स्थित राजा नलसे मेरे लिए प्रार्थना मत करना, ( अथवा-यहाँसे गये हुए तुम मेरे लिए राजा नलसे प्रार्थना करना, किन्तु रानियों के बीचमें प्रार्थना नहीं करना ), क्योंकि उस समय प्रियाओंके मुख देखनेसे उत्पन्न लज्जा एवं प्रेमसे दूसरी स्त्रीके विषयमें निषेध हो सकता है / / 92 // शुद्धान्तसंभोगनितान्ततृप्ते न नैषधे कार्यामदं निगाद्यम् / अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुस्सुगन्धिः स्वदते तुषारा 93 / / शुद्धान्तेति / किञ्च शुद्धान्तसम्भोगेन अन्तःपुरस्त्रीसम्भोगेन नितान्ततृप्ते अत्यन्तसन्तुष्टे नैषधे नलविषये इदं कार्य न निगायं न निगदितम्यम्, 'ऋहलोय॑त् , 'गदमदे'त्यादिना सोपसर्गाचतो निषेधात् / यथाहि अपां तृप्ताय अनिस्तृप्तायेत्यर्थः। 'पूरणगुणे'त्यादिना षष्ठीसमासप्रतिषेधादेव ज्ञापकात् षष्ठी 'रुच्यर्थानां प्रीयमाण' इति सम्प्रदानत्वाचतुर्थी। स्वादुमधुरा सुगन्धिः कर्पूरादिवासना शोभनगन्धा / अत्र कवीनां निरङ्कुशत्वाइन्धस्येत्वं तदेकान्तत्वनियमानादरः / तुषारा शीतला वारिधारा न स्वदते न रोचते हि / दृष्टान्तालंकारः // 93 // रानियों के साथ सम्भोग कर अत्यन्त सन्तुष्ट नलते रस कार्यको मत कहना, क्योंकि जलसे सन्तुष्ट व्यक्तिको स्वादिष्ट सुगन्धयुक्त एवं ठण्डी जलकी धार। नहीं रुचती। [उक्त दृष्टान्तद्वारा दमयन्तीने नलकी अन्य रानियोंको सामान्य जलतुल्य तथा अपनेको मधुर सुगन्धित एवं शीतल जलतुल्य कहकर उनकी अपेक्षा अपनेको बहुत श्रेष्ठ ध्वनित किया है। विज्ञापनीया न गिरो मदर्थाः ऋधा कदुष्णेद नषधस्य / पित्तेन दूने रसने सित्ताऽपि तिक्तायते हमकुलावतंम ! // 34 // विज्ञापनीया इति / हे हंसकुलावतंस ? नैषधस्य हृदि हृदये क्रुधा क्रोधेन कदपणे ईषदुष्णे चकारात्कोः कदादेशः। मामिमाः मदाः अर्थन सह नित्यसमासः सर्वलिङ्गता च वक्तव्या' गिरो वाचो न विज्ञापनीया न विधेयाः न विज्ञाप्या इत्यर्थः / तथाहि पित्तेन पित्तदोषेण दूने दूषिते रसने रसनेन्द्रिये सिता शर्करापि तिक्तायते तिक्तीभवति लोहितादित्वात् क्यष , वा क्यष' इति आत्मनेपदम् / अत्रापि दृष्टान्तालङ्कारः // 94 // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 तृतीयः सर्गः। हे हंसवंशके भूषण ? नलसे क्रोधसे हृदयके कुछ गर्भ रहनेपर मेरे किए बातको मत कहना, क्योंकि पित्तसे जीभके दूषित होनेपर शक्कर भी तीता लगता है // 94 / / धरातुरासाहि मदर्थयाचा कार्या न कार्यान्तरचुम्बिचित्ते / तदाऽर्थितस्यानवबोधनिद्रा बिभर्त्यवज्ञाचरणस्य मुद्राम् // 15 // धरेति / तुरं त्वरितं सहयत्यभिभवत्यरीनिति तुराषाडिन्द्रःसहतेश्चौरादिकत्वात् क्विप, 'नहिवृती'त्यादिना पूर्वपदस्य दीर्घः, प्रकृतिग्रहणे ण्यन्तस्यापि ग्रहणात्, मुग्ध भोजस्तु तुराशब्दं टावन्तमाह। तस्मिन् धरातुरासाहि भूदेवेन्द्र नले अजादिषु असा पत्वात् 'सहेः साडः स'इति षत्वं नास्ति / कार्यान्तरचुम्बिचित्ते व्यासक्तचित्ते मदर्थयाञ्चा मत्प्रयोजनप्रार्थना न कार्या। तथाहि-तदा व्यासङ्गकाले अथितस्य अनवबोधः अबोधः स एव निद्रा सा अवज्ञाऽऽचरणस्य अनादरकरणस्य मुद्रामभिझानं बिभर्ति, अनादरप्रतीति करोतीत्यर्थः / तच्चातिकष्टमिति भावः // 95 // राजा ( नल ) के चित्तके दूसरे कार्यमें आसक्त रहनेपर तुम मेरे लिए प्रार्थना मत करना क्योंकि कार्यान्तरमें चित्तके आसक्त रहने पर याचित विषयको यहीं सुनना अपमान करने ( या-अभीष्ट नहीं होने ) के रूपको ग्रहण कर लेता है / [ कार्यान्तर में चित्तके आसक्त रहने के कारण यदि व्यक्ति किसीकी याचनाको नहीं सुननेके कारण उसके विषयमें कोई उत्तर नहीं देता तो प्रार्थयिता समझता है कि इनको यह बात नहीं रुचती, और ऐसा समझ पुनः उस विषयमें उस व्यक्तिसे प्रार्थना करना भी नहीं चाहता] // 95 / / विज्ञेन विज्ञाप्यमिदं नरेन्द्र तस्मात्त्वयाऽस्मिन् समयं समीक्ष्य / आत्यन्तिकासिद्धिविलम्बसिध्योः कार्यस्य काऽऽर्यस्य शुभा विभाति ? ||16|| विशेनेति / तस्मात् करणाद् विज्ञेन विवेकिना त्वया समयं समीक्ष्य इदं कार्यमस्मिन् नले विषये विज्ञाप्यम् / विलम्बः स्यादित्याशङ्कयाह-आत्यन्तिकेति / हे हंस ! कार्यस्य आत्यन्तिकासिद्धिबिलम्बसिद्धयोमध्ये आर्यस्य विदुषस्ते का कतरा शुभा समीचीना विभाति ? अनवसरविज्ञापने कार्यविधाताद्वरं बिलम्बनेनापि कार्य साधनमिति भावः // 96 // इस कारणसे विद्वान् आप इस राजा ( नल ) से अवसर देखकर इस बिषयमें प्रार्थना करना / आपको कार्यकी सिद्धि सर्वथा नहीं होने में तथा विलम्बसे सिद्धि होने में कौन-सी उत्तम मालूम एड़ती है ? अर्थात् सर्वथा असिद्धि होनेसे विलम्बसे सिद्धि होना ही उत्तम है / / इत्युक्तवत्या यदलोपि लज्जा साऽनौचिती चेतसि नश्वकास्तु / स्मरस्तु साक्षी तददोषतायामुन्माद्य यस्तत्तदवीवदत्ताम || 17 // इतीति / इत्थमुक्तवत्या तया लजा अलोपि त्यक्तेति यत् / सा, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गता, अनौचिती अनौचित्यङ्गतमेतत् नोऽस्माकं शृण्वतां चेतसि चकास्तु। किन्तु लज्जात्यागस्य अदोषतायां स्मरः साक्षी प्रमाणं, यः स्मरः तां भैमीमुन्माद्य 12 नै० Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 नैषधमहाकाव्यम् / उन्मादावस्थां प्राप्यतत्तदनुचितं वचनमवीवदत् वादयतिस्म। वदतेौँ चडि 'गतिबुद्धी त्यादिना वदेरणि कर्तुः कर्मत्वम् / प्रकृतिस्थस्यायं दोषो न कामोपहत. चेतसि इति भावः // 97 // ऐसा ( 375-96 ) कहनेवाली दमयन्तीने जो लज्जाको छोड़ दिया, वह हम लोगोंके मन में अनुचित भले ही मालूम हो, किन्तु उस ( दमयन्ती) के निर्दोष होनेमें कामदेव साक्षी है, जिसने उसे उन्मादयुक्त करके उससे वह ( 375-96 ) कहलवा दिया। ( उन्मादयुक्त पुरुषका कोई अपराध नहीं माना जाता, अतः कामोन्मादयुक्त बाला दमयन्ती ने युवती के समान लज्जा त्यागकर वह सब कह दिया तो उसमें उसका कोई दोष नहीं मानना चाहिये / / 97 / / उन्मत्तमासाद्य हरः स्मरश्वद्वावप्यसीमा मुदमदहेते। पूर्वस्मरस्पर्षितया प्रसूनं नूनं द्वितीयो विरहाधिनम् / / 66 / / कामो वा किमर्थमेवं कारयतीत्याशङ्कय तस्यायं निसर्गो यदुन्मत्तेन क्रीडतीति सदृष्टान्तमाह-उन्मत्त मिति / हरः स्मरश्च द्वावपि उन्मत्तमासाद्य असीमां दुरन्तां मुदमुद्हेते दधतुः / वहेः स्वरितेवादात्मनेपदम् किन्तु तत्र निर्देशक्रमात् पूर्वो हरः स्मरस्पद्धितया स्मरद्वेषित या प्रसूनं धुत्तरकुसुमं तस्यायुधतयेति भावः। अन्यस्तु द्वितीयः स्मरस्तु विरहाधिदून विरहन्यथादुःस्थमुन्मादावस्थापनमित्यर्थः। अन्यत्र विनोदलाभादित्यर्थः / 'उन्मत्त उन्मादवति धुत्तरमुचुकुन्दयोरिति विश्वः / उभयोरभेदाध्यवसायात् समानधर्मत्वविशेषणमत्राश्लेषात्प्रकृताप्रकृतगोचरत्वाच उभयश्लेषः तेन हरवत् स्मरोऽप्युन्मत्तप्रिय इति उपमा गम्यते // 98 // शिवजी तथा कामदेव-दोनों ही उन्मत्तको प्राप्तकर परस्पर स्पर्धापूर्वक असीम हर्ष को पाते हैं, उनमें पहला (शिवजी) उन्मत्त पुष्प अर्थात् धतूरेके फूलको तथा दूसरा कामदेव उन्मत्त अर्थात् प्रिय-विरहसे सन्तप्त होनेसे उन्मादयुक्त व्यक्तिको प्राप्तकर असीम हर्ष पाते हैं / शिवजी तथा कामदेव एक दूसरेके शत्रु हैं, अतः प्रथम शिवजी पुष्पवाण कामदेवके बाणरूप उन्मत्तपुष्प (धतूरेके फूल) को पाकर तथा कामदेव धतूर पुष्पसे प्रसन्न होते हुए. शिवजीको देखकर मुझे भी उन्मत्त (उन्मादयुक्त व्यक्ति) को पाकर हर्षित होना चाहिए, यह जानकर प्रिय-विरहित उन्मत्त व्यक्तिको पाकर हर्षित होता है। अथ च-कामदेव शिवजीके गणभूत उन्मत्त पिशाचको पाकर हर्षित होता है / शत्रुकी प्रिय वस्तुको वशमें करनेपर हर्ष होना सर्वविदित है / कामदेव शिवजीसे तथा शिवजी कामदेवसे अधिक इषित होना चाहते हैं, अतः दोनों हषित होनेके लिए परस्परसे स्पर्धा किए हुए हैं, शत्रुके साथ किसी बातमें स्पर्धाकर उससे आगे बढनेकी इच्छा होना भी लोक-विदित है ] // 98 // तथाऽभिधात्रीमथ राजपुत्रीं निणाय तां नंषधषद्धरागाम् / अमोधि पञ्चपुटमौनमुद्रा विहायसा तेन विहस्य भूयः || 6 | Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 177 तथेति / तथाऽभिधात्री तां राजपुत्रीं भैमी नैषधे नले बद्धरागां निर्णीय तेन विहायसा विहगन विहस्य भूयः चन्चूपुटस्य मौनमुद्रा निर्वचनत्वममोचि आवादीदित्यर्थः // 99 // इसके बाद वैसा ( 3-75-96 ) कहनेवाली राजकुमारीको नलमें अनुरक्त निश्चित कर वह राजहंस चञ्चुपुटकी मौनमुद्राका त्याग किया अर्थात् बोला-।। 99 // ___ इद यदि आमापतिपुत्रि ! तत्त्वं पश्यामि तन्न स्वविधेयमस्मिन् / त्वामुच्चकैस्तापयता नलं च पश्चेषुणैवाजनि योजनेयम / / 100 // इदमिति / हे उमापतिपुत्रि ! इदं त्वदुक्तं तत्त्वं यदि सत्यं यदि तत्तर्हि अस्मिन् विषये स्वविधेयं मत्कृत्यं न पश्यामि, किन्तु त्वां नृपं च उच्चकैरत्यन्तं तापयता पम्वे. पुणेव इयं योजना युवयोः सङ्घटना अजनि जाता! जनेः कर्मणि 'चिणो लुक॥१०॥ ___ हे राजकुमारी ! यदि यह सत्य है, तो इस विषयमें मैं अपना कोई कार्य नहीं देखता हूँ अर्थात् मुझे कुछ करना नहीं है। क्योंकि तुम्हें तथा राना ( नल ) को अत्यन्त सन्तप्त करते हुए कामदेवने ही यह योजना ( दोनोंका मिलन ) तैयार की है। [ लोकमें भी लाख, लोहा आदि धातुको सन्तप्तकर संयुक्त होते हुए देखा जाता है ] / / 100 / / त्वद्वद्धबुद्धहिरिन्द्रयाणां तस्योपवासातनां तपोभिः। स्वामद्य लब्ध्वाऽमृतकृप्तिभाजां स्वं देवभूर्य चरितार्थमस्तु // 101 // त्वदिति / किन्तु त्वद्वद्धबुद्धेः त्वदायत्तचित्तस्य त्वामेव ध्यायत इत्यर्थः / अत एव तस्योपवासवतिनां त्वदासङ्गाद्विषयान्तरव्यावृत्तानां तपोभिरुक्तोपवासव्रतरूपेरथ स्वां लब्ध्वा मन्मुखेन लब्धप्रायां निश्चित्य साक्षात्कृत्येति च गम्यते, अत एव अमृतेन या तृप्तिस्तद्भाजा बहिरिन्द्रयाणां स्वं स्वकीयं देवभूयं देवत्वमिन्द्रियत्वं सुरत्वञ्च, 'देवः सुरे राज्ञि देवमाख्यातमिन्द्रियमिति विश्वः / चरितार्थ सफलमस्तु / अमृतपानेकफलस्वाद्देवत्वं स्यादिति भावः / अर्थान्तरप्रतीतेर्वनिरवेत्यनुसन्धेयम् // तुममें ही बुद्धि लगाये हुए उस ( नल ) की (बाह्य विषयोंको ग्रहण नहीं करनेसे ) उपवास व्रत करनेवाली तथा तपस्याओंके द्वारा ( मुझसे सुनकर; या भविष्यमें प्रत्यक्षतः ) तुम्हें पाकर अमृततुल्य वृत्तिको प्राप्त करनेवाली इन्द्रियोंका अपना देवत्व सार्थक होवे / [जिस प्रकार काई तपस्या करता हुआ भोजन नहीं करता तथा एकमात्र ब्रह्मका ध्यान करता रहता है, फिर वह उन तपस्याओंके प्रभावसे ब्रह्मको पाकर अमृतभोक्ता देवके भावको प्राप्त करता है; उसी प्रकार नल भी सदा एकमात्र तुम्हारा ही ध्यान करते हैं, उनकी नेत्रादि बाह्येन्द्रियाँ रूपादि अपने-अपने विषयोंको ग्रहण नहीं करनेसे मानो उपवास कर रही है, नलकी वे बाह्येन्द्रियाँ तपस्याके प्रभावसे मेरे कहने पर तुमको प्राप्त कर लेंगी ( या--भविष्यमें प्रत्यक्ष देख लेंगी) इस प्रकार तुम्हारा दर्शन उन नेत्रादि इन्द्रियों के लिए अमृत भोजन तुल्य होकर 'आदित्यश्चक्षुभूत्वाऽक्षिणी प्राविशत्' इत्यादि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / मुतियों के अनुसार उन इन्द्रियोंका देवत्व चरितार्थ हो। आजतक तो उक्त श्रुतिवचनके अनुसार केवल वचनमात्रसे ही नेत्रादि इन्द्रियोंको सूर्यादिदेवभाव प्राप्त था, किन्तु अब पुण्यसे तुम्हें पाकर अमृतभोजी होनेसे उनका देवत्व अर्थतः भो चरितार्थ होगा, अमृतभोजी होनेपर ही देवोंका वास्तविक देवत्व है, अन्यथा नहीं। तुम्हारी प्राप्ति नलके लिए अमृतप्राप्तिके समान आनन्दकारी होगी // 10 // तुल्यावयातिरभून्मदोया दग्धा परं साऽस्य न ताप्यतेऽपि / इत्यभ्यसूर्याभव देहतापं तस्याऽतनुस्त्वद्विरहाद्विधत्ते / / 102 / / यदुक्तं नृपं पञ्चेषुस्तापयतीति तदाह-तुल्येति / आवयोनलस्य मम चेत्यर्थः। 'त्यदादानि सनित्यमिति सर्वग्रहणादत्यदादिना नलेन सह त्यदायेकशेषः / मूर्तिस्तनुस्तुल्या तुल्यरूपाऽभूत् / तत्र मदीया सा मूर्तिः परं निःशेषं दग्धा भस्मीकृता, अस्य मूर्तिस्तनुर्न ताप्यते तापमपि न प्राप्यते इति हेतोरभ्यसूयन् ईय॑न्निवेत्युत्प्रेक्षा। अतनुरनङ्गस्त्वद्विरहावद्विरहमेव रन्ध्रमन्विष्येत्यर्थः / तस्य नलस्य देहतापं विधत्ते / तस्मासिद्धिपदमुपतिष्टते ते मनोरथ इति भावः // 102 // 'हम दोनोंकी मृति समान है, भेरी (कामदेवकी) मूर्ति तो जल गया और इस ( नल ) की मूर्ति तो अधिक उष्ण (गर्म-सन्तप्त ) भी नहीं होती' मानो ऐसी ईर्ष्या करता हुआ कामदेव तुम्हारे विरहसे इस ( नल) के शरीरको सन्तप्त कर रहा है // 102 // लिपि हशा भित्तिविभूषणं त्वां नृपः पिबन्नादरनिनिमेषम् / पामरैरपितमात्मचक्षु रागं स धत्ते रचितं त्वया नु / / 103 / / अथास्य दशावस्था वर्णयन् चचुःप्रीतिं तावत् श्लोकद्वयेनाह-लिपिमित्यादि / हे भैमि ! स नृपो भित्तिविभूषणं कुड्यालङ्कारभूतां लिपि चित्रमयीं त्वां रशा आदरेणास्थया निनिमेषं पिबन् चचुर्झरैरश्रुभिरर्पितं त्वया नु त्वया वा रचितमात्मचशुषो रागमारुण्यमनुरागञ्च धत्ते / अत्रोभयकारणसम्भवादुभयस्मिन्नपि रागे जाते श्लेषमहिम्नेकत्राभिधानात्कारणविशेषः सन्देहः // 103 // (हंस नलकी दस ' दशाओंका वर्णन करता हुआ प्रथम दशा 'चक्षुः प्रीति'का वर्णन करता है-) राजा नल दिवालकी अलङ्कार अर्थात् दिवालपर बनायी गयी तुमकी आदरसे एकटक देखते हुए एकटक देखनेसे ( या-अनुरागसे ) बहते हुए नेत्र-प्रवाहों ( आँसुओं) से किये गये मानो तुमसे रचित चक्षुराग ( नेत्रोंमें उत्पन्न लालिमा ) को ग्रहणकर रहे हैं। [ नल भोतमें बनाये गये तुम्हारे चित्रको आदरपूर्वक एकटक देखते हैं, अतः एकटक देखनेसे ( या-तुममें अनुराग होनेसे ) उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती रहती है, 1. रतिरहस्ये-'नयनप्रीतिः प्रथमं चित्तासङ्गस्ततोऽथ सङ्कल्पः / निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिनपानाशः // उन्मादो मूर्छा मृतिरित्येताः स्मरदशा दशैव स्युः' इति / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 176 इससे उनके नेत्र लाल-लाल हो रहे हैं अतः ऐसा ज्ञान होता है कि उनके नेत्रों में लालिमा को तुम्हींने उत्पन्न कर दिया है / एकटक देखनेसे या किसीनें अनुरागाधिक्य होनेसे नेत्रके आँसू आना और उनका लाल-लाल हो जाना अनुभूत है ] // 103 / / पातुर्दशाऽऽलेख्यमयीं नृपस्य त्वामादरादस्तनिमील्याऽस्ति / ममेदमित्युअणि नेत्रवृत्तेः प्रीतेनिमेषच्छिदया विवादः // 104 / / इममेवाथ भङ्गायन्तरेणाह-पातुरिति / अस्तनिमिलया निनिमेषया दृशा आले. ख्यमयी चित्रगतां त्वामादरात्पातुष्टुरित्यर्थः पिबतेस्तृन् प्रत्ययः। अत एव 'न लोके'त्यादिना षष्टीप्रतिषेधात्वमिति द्वितीया। नृपस्य नेत्रवृत्तेः प्रीतेश्चतुःप्रीतेनिमेषस्य च्छिदया च्छेदेन सह नेत्रवृत्त्येति शेषः। भिदादित्वादङ प्रत्ययः। अश्रुणि विषये इदमच ममेति मत्कृतमेवेति विवादः कलहः अस्ति भवतीत्यर्थः // 104 / / (उसी भावको प्रकारान्तरसे कहते हैं- ) चित्रमयी तुमको आदरपूर्वक निमेषरहित दृष्टिसे पान करते ( सादर देखते ) हुए राजा नलका आँसूके विषय में नेत्रगत अनुरागका तथा निनिमेषका 'यह मेरा है' ऐसा विवाद होता है / [ नल चित्रलिखित तुमको आदरपूर्वक एकटक देखते हुए आँसू बहाते हैं, तो नेत्रगत अनुराने कहता है कि 'इस आँसूको मैंने उत्पन्न किया है' तथा निमेषाभाव ( एकटक देखना ) कहता है कि इसे मैंने उत्पन्न किया है' इस प्रकार दोनों का झगड़ा चल रहा है / यहाँ पर 'निमेषच्छिदया' में अप्रधान अर्थमें तृतीया विभक्तिका प्रयोगकर नेत्रगत अनुरागजन्य ही आँसू है ऐसा सूचित किया गया है ) / / 104 // त्वं हृद्गता भैमि ! बहिर्गताऽपि प्राणायिता नासिकयाऽस्य गत्या / न चित्तमाकामति तत्र चित्रमेतन्मनो यद्भवदेकवृत्ति / / 105 // अथ मनःसङ्गमाह--स्वमिति / हे भैमि ! त्वं बहिर्गतापि हृद्गता अन्तर्गता, अपि विराधे तेन चाभासाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः / कया गत्या केन प्रकारेण अस्य नलस्य प्राणायिता प्राणवदाचरिता प्राणसमा 'उपमानादाचारे' कर्तुः क्यङ प्रत्ययः। नासि अस्येवेत्यर्थः / यतः प्राणोऽपि नासिकया नासाद्वारेण आस्यगत्या मुखद्वारेण उच्छासनिश्वासरूपेण बहिर्गतोऽप्यन्तगतो भवतीति शब्दश्लेषः। अतएव प्राणायितेति लिष्टविशेषणेयमुपया पूर्वोक्तविरोधेन सङ्कीर्णा, किन्तु तत्र प्राणायितत्वे चित्रमाश्चर्यरसः चित्तन्नाकामति न किञ्चिच्चित्रमित्यर्थः / कुतः यद्यस्मादतन्मनो नलचित्तं भवती त्वमेवैका वृत्ति विका यस्य तद्भवदेकवृत्ति, भवच्छब्दस्य सर्वनामत्वाद् वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / जीवितभूतस्य प्राणायितत्वे किं चित्रं, जीवितत्य प्राणधारणात्मकत्वादिति भावः // 105 // ( अब नलकी दूसरी दशा 'चित्तासक्ति' का वर्णन करता है - ) हे दमयन्ति ! बहिः 1. 'चित्र-' इति पाठान्तरम् / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 नैषधमहाकाव्यम्। प्रदशम विद्यमान भी ( अनुरागवश ) हृदयमें स्थित तुम किस प्रकारसे इस नलके प्राणतुल्य नहीं हो ? अर्थात् सब प्रकारसे नलके प्राणवत् प्रिया हो / अथवा-बहिः प्रदेशमें विद्यमान भी नासिका तथा मुखकी गति (सौन्दर्य से नलके अन्तःकरणमें स्थित हो और इसीसे प्राणप्रिया हो / वायु नासिका तथा मुखके मार्गसे वारह अंगुल बाहर निकलकर 'प्राण' कहलाती ) / उस (प्राणायित होने ) में आश्चर्य है एकमात्र त्वन्मात्र-परायण ( केवल तुमसे ही जीतनेवाला ) नलका मन जो चित्तको आक्रान्त नहीं करता इसमें आश्चर्य नहीं है / [ पाठा०- त्वन्मात्र-परायण नलका मन जो चित्रको आक्रान्त नहीं करता इसमें आश्चर्य है अर्थात् विरह-पीडामें मनको चञ्चल रहना चाहिए, किन्तु वह चित्रवत् व्यापारशून्य हो जाता है यह आश्चर्य है / त्वन्मात्रपरायण होनेसे नलका मन अन्यत्र कहीं भी नहीं लगता, अतएव तुम उसके प्राणतुल्य प्रिया हो / अथवा--चित्र उक्तरूप नल-मनको जो आक्रान्त ( पराधीन ) नहीं करता, यह आश्चर्य है ? अर्थात् कोई आश्चर्य नहीं है, क्यों कि वह ( नलका मन ) त्वन्मात्रपरायण है / अधबा-उक्तरूप नल-मन चित्रको आक्रान्त नहीं करता यह आश्चर्य है; क्योंकि चित्रको सभी लोग देखते हैं, किन्तु नल-मन नहीं देखता, यह आश्चर्य है ] // 105 // अजसमारोहसि दूरदीपों सङ्कल्पसोपानतति तदोयाम् / श्वासान् स वर्षत्यधिकं पुनयद्धयानात्तव वन्मयतान्तदाप्य // 106 // अथ द्वाभ्यां सङ्कल्पावस्थामाह-अजस्रमिति / दूरदीर्घामत्यन्तायतां तदीयां सङ्कल्पा मनोरथा एव सोपानानि तेषाम् ततिं पङ्तिमजस्रं त्वमारोहसि, श्वासान् पुनः स नलः अधिक वर्षति मुञ्चतीति यत् तच्छासवर्ष तव ध्यानात् त्वन्मयतां त्वदात्मकत्वमाप्य प्राप्य, आप्नोतेराङ्, समासे क्त्वो ल्यबादेशः, अन्यथा कथ. मन्यायासादन्यस्य श्वासमोक्ष इति भावः / अत्र श्वाससोपानारोहणयोः कार्यकारणयोयधिकरण्योक्तेरसङ्गत्यलङ्कारः 'कार्यकारणयोभिन्नदेशत्वे स्यादसङ्गतिरि' तिल. क्षणात् तन्मूला चेयं तादात्म्योत्प्रेक्षेति सङ्करः // 106 // (अब तृतीया 'सङ्कल्प( दशाका वर्णन करता है-) तुम नलकी सङ्कल्परूप सीढ़ियों की श्रेणी पर बहुत दूर तक चढती ही (दमयन्ती मुझे कैसे मिलेगी, उसे पाकर मैं उसके साथ इस प्रकार वार्तालाप, क्रीडा, बिहार आदि करूगा इत्यादि अनेकविध सङ्कल्प तुम्हारे विषय में नल किया करते हैं ) / वे नल जो बार-बार श्वासोंकी अधिक वृष्टि करते हैं अर्थात् अधिक श्वास लेते हैं, वह त्वन्मय ( तुम्हारी चिन्तामें लीन ) होकर तुम्हारे ध्यानके कारण करते हैं। [ जो बहुत दूर तक सीढ़ियोंपर चढ़ता है, वही अधिक श्वास लेता ( हांफता) है, परन्तु यहाँ पर जो तुम नलके सङ्कल्परूप सीढ़ियों पर चढ़ती हो, अतः तुम्हें अधिक श्वास लेना चाहिए था, परन्तु नल अधिक श्वास लेते हैं, यह विपरीत बात हैं / परन्त नल स्वन्मय ( त्वद्रूप ) होनेसे अधिक श्वास लेते हैं, यह उचित है, क्योंकि अब नलका तथा तुम्हारा कोई भेदभाव ही नहीं रह गया है ] // 106 // Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 181 हृत्तस्य यां मन्त्रयते रहस्त्वां तां व्यक्तमामन्त्रयते मुखं यत् / तद्वैरिपुष्पायुधमित्रचन्द्रसख्यौचिती सा खलु तन्मुखस्य // 107 // हदिति / तस्य नलस्य हृत् हृदयं कर्तृ यां त्वां रहः उपांशु 'रहश्वोपांशु चालिङ्गे' इत्यमरः / मन्त्रयते सम्भाषते तां त्वां तन्मुखं कर्तृ व्यक्तं प्रकाशमामन्त्रयते / हे प्रिय ! क्व यासि ? मामनुयान्तं पश्य इत्येवमुच्चैरुच्चरतीति यत् सा तद्रहस्यप्रकाशनं, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गता / तन्मुखस्य तद्वैरिणो नलद्वेषिणः पुष्पायुधस्य मित्रं सखा शरच्चन्द्रः। तेन यत् सख्यं मंत्री सादृश्यञ्च, तस्य औचिती औचित्यं खलु / अरिमित्रस्याप्यरित्वादुचितमेतद्रहस्यभेदनमित्यर्थः / अत्र मुखकर्तृकरहस्योझेदनस्य उक्तवैरनिमित्तत्वमुप्रेक्षते // 107 // ___उस नलका अन्तःकरण एकान्त में जो तुमसे मन्त्रणा ( गुप्त परामर्श ) करता है, उसको ( नलका ) मुख बाहरमें प्रकट कर देता है / नल-मुखका यह कार्य तुम्हारे शत्रु कामदेवके मित्र चन्द्रमाके मित्रताके अनुरूप ही है / [नलने सौन्दर्याधिक्यसे कामदेवको जीत लिया है, अत एव नलका कामदेव शत्रु हुआ, उस कामदेवका मित्र चन्द्रमा है, अत एव नलशत्रु कामदेवके मित्र चन्द्रमाकी समानता रखनेसे उसके साथ मित्रता करनेवाला नल-मुख नलशत्रु कामदेवको सहायता देनेके लिए जो नलके हृदयकी बातको प्रकाशित करा देता है, वह उचित ही है; क्योंकि शत्रुके मित्रके मित्रको भी शत्रुका सहायक होना ठीक ही नीति है ] / / 107 / / स्थितस्य रात्रावधिशय्य शय्यां मोहे मनस्तस्य निमज्जयन्ति / आलिङ्गच या चुम्बति लोचने सा निद्राऽऽधुना न त्वदृतेऽङ्गना वा // अथ एकेन जागरमरतिश्चाह-स्थितस्येति / रात्रौ शय्यामधिशय्य शय्यायां शयित्वा 'अधिशीस्थासामिति अधिकरणस्य कर्मत्वम् / स्थितस्य तस्य मनो मोहे सुखपारवश्ये निमजयन्ती सती याआलिङ्गय लोचने चुम्बति, सा निद्रा त्वहते त्वत्तो विना 'अन्यारादितरते' इत्यादिना पञ्चमी / स्वद्विरहाद्धेतोस्त्वदन्या चेति द्रष्ट. व्यम् अङ्गना वा अधुना नास्ति, निद्रानिषेधाजागरः अङ्गनान्तरनिषेधाद्विषयद्वेषलक्षणा अरतिश्चोक्ता अत्र निद्राङ्गनयोः प्रस्तुतयोरेवालिङ्गनाक्षिचुम्बनादिधर्मसाम्यादौपग्यप्रतीतेः केवलं प्रकृतगोचरात्तल्ययोगितालङ्कारः। 'प्रस्तुताप्रस्तुतानाञ्च केवलं तुल्यधर्मतः / औपम्यं गम्यते यत्र सा मता तुल्ययोगिता // ' इति लक्षणात् // 108 // [ अब क्रमागत चतुर्थी अवस्थाका वर्णन करना उचित होनेपर भी लाघवसे निद्रानाश' नामक चौथी तथा 'विषय-निवृत्ति' नामक छठी अवस्थाओंका वर्णन करता है ) रात्रिमें पलंगपर सोकर स्थित उस ( नल ) के मनको मोहमें मग्न ( मदनाक्रान्त ) करती हुई जो निद्रा ( सम्पूर्ण शरीरका ) आलिङ्गन कर दोनों नेत्रोंका चुम्वन करती है, वह निद्रा भी इस समयमें तुम्हारे बिना कोई स्त्री नहीं है / [ तुम्हारे विरहमें नल न तो सोते है और न किसी रानीके साथ सम्भोग करते हैं, अत एव वे निद्राहीन तथा विषयनिवृत्त हो रहे हैं ] / / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 नैषधमहाकाव्यम् / स्मरेण निस्तक्ष्य वृथैव' वाणैर्लावण्यशेषां कृशतामनायि / अनङ्गतामध्ययमाप्यमानः स्पर्धा न साधं विजहाति तेन / / 109 / / अथ कार्य्यावस्थामाह-स्मरेणेति / अयं नलः स्मरेण बाणैर्निस्तक्ष्य निशात्य वृथैव लावण्यं कान्तिविशेषः, 'मुक्ताफलेषु च्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा / प्रतिभाति यदनेषु तल्लावण्यमिहोच्यते // ' इति भूपालः / तदेव शेषो यस्यास्तां तनुतां कार्यमनायि नीतः / नयतेर्द्विकर्मकत्वात्प्रधाने कर्मणि लुङ् 'प्रधानकर्मण्याख्येये लादी. नाहुर्द्विकर्मणामिति वचनात् / वृथात्वं व्यनक्ति-अनङ्गतां कृशाङ्गताम् 'अनुदरे' तिवदीषदर्थे नत्र समासः, आप्यमानो आनीयमानोऽपि अत्र पूर्ववत्प्रधाने शानच तेन स्मरेण सार्द्ध स्पर्धा न विजहाति, तथापि तं जिगीषत्येवेत्यर्थः / अङ्गकार्येऽपि स्पर्धाबीजलावण्यस्याकाादङ्गकर्शनं वृथैवेति भावः / अत एव विशेषोक्तिरलङ्कारः, 'तत्सामग्रयामनुत्पत्तिर्विशेषोक्तिरलङ्कृतिः।" इति लक्षणात् // 109 // ( अब पाँचवीं 'कृशता' अवस्थाका वर्णन करता है-) कामदेवने बाणोंसे छील-छील कर व्यर्थमें ही सौन्दर्यावशेष (जिसकी सुन्दरता ही बच गयी है ऐसी दुर्बलताको प्राप्त कराया है, क्योंकि अनङ्गता ( अतिशय कृश हो जानेसे अतिक्षीण-शरीरता, पक्षा०मदनता ] को पाप्त भी ये नल उस ( कामदेवके साथ स्पर्धा करना नहीं छोड़ेंगे / [ यद्यपि नल कामपीड़ासे अत्यधिक दुर्बल हो जायेंगे, तथापि सुन्दरताके वैसे ही स्थिर रहनेसे कामदेवके समान ही रहेंगे, अत एव कामदेवका उक्त प्रयत्न वृथा है ] // 109 / / त्वत्प्रापकात्त्रस्यति नैनसोऽपि त्वय्येव दास्येऽपि न लज्जते यत् / स्मरेण बाणैरतितक्ष्य तीक्ष्णेलनः स्वभावोऽपि कियान् किमस्य // 110 // अथ द्वाभ्यां लजात्यागमाह-वदित्यादि / स्मरेण तीक्ष्णैर्बाणैरतितच्य शरीरमिति शेषः। अस्य नलस्य स्वभावोऽपि पापभीरुत्वनीचत्वगर्हत्वताच्छील्यमपि क्रियानल्पोऽपि लूनः किमित्युत्प्रेक्षा, यद्यस्मात्त्वत्प्रापकात् त्वत्प्राप्तिसाधनादेनसः पापादपि न त्रस्यति, 'भीत्रार्थानां भयहेतुरिति अपादानत्वात् पञ्चमी त्वय्येव दास्येऽपि त्वदधिगतदास्यविषये न लजते // 110 // ( अव सातवीं 'निर्लज्जा' वस्थाका वर्णन करता है-आठ प्रकारके विवाहोंमें 'राक्षस' नामक विवाहका वर्णन क्षत्रियके लिए आया हैं, अत एव ) ये नल तुमको प्राप्त 1. 'तथैव' इति पाठान्तरम् - 2. मनुनोक्ता अष्टविधविवाहा यथा _ 'ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः / / ' इति ( मनु० 3 / 21) 3. तदुक्तं मनुना-'चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयो विदुः / राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः' इति ( मनु० 3 / 24) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 183 करानेवाले पाप ( 'राक्षस' विवाह करने ) से भी नहीं डरते है, तथा ( क्षत्रियके लिए दासता करनेका निषेध होनेपर भी ) तुम्हारी दासता करने में भी नहीं लज्जित होते हैं; (इससे अनुमान होता है कि) कामदेवने तीक्ष्ण बाणोंसे इनके स्वल्प स्वभावको भी अधिक छील कर काट ( क्षीण कर ) दिया है / पूर्व श्लोक ( 3 / 109 ) में नलके शरीर को बाणोंसे छीलकर कृश करनेकी चर्चा की गयी है, अत एव ज्ञात होता है कि बाणोंसे शरीरको छीलकर पतला करते हुए कामदेवने इनके स्वभावको भी अधिक छीलकर पतला (दुवैल ) कर दिया है, जिसके कारण पहले पापकर्मसे डरनेवाले तथा दास्यकर्मसे लज्जित होनेवाले नल इस समय उनके करनेके लिए भी तैयार हो गये हैं ] 110 / / स्मारं ज्वरं घोरमपत्रपिष्णोस्सिद्वागदहारषये चिकित्सौ। निदानमौनादविशद्विशाला साक्क्रामिकी तस्य रुजेव लज्जा / / 11 / / स्मारमिति / घोरं दारुणं स्मारं ज्वरं कामसन्तापं चिकित्सौ प्रतिकर्तरि कितनिवास इति धातोः 'गुप्तिकिझ्यः सन्निति निन्दाक्षमाव्याधिप्रतीकारेषु इष्यत' इति रोगप्रतीकारे सन् प्रत्ययः, 'सनाशंसभिक्ष उ', 'नलोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / सिद्धागदकारचये सिद्धवैद्यसंघे कर्मण्यणि 'कारे सत्यागदस्येति मुमागमः / निदानमौनाद्रोगनिदानानभिधानाद्धतोरपत्रपिष्णोलज्जाशीलस्य 'अलकृषि'त्यादिना इप्णु च / तस्य नलस्य विशाला महती लज्जा संक्रमादागता सांक्रामिकी रजेव, 'अक्षिरोगो ह्यपस्मारः क्षय कुष्टो मसूरिका। दर्शनात् स्पर्शनाहानात् संक्रमन्ति नरा. भरम् // इति उक्ताक्ष्यादिरोगा इवेत्यर्थः, भिदादित्वादङ प्रत्ययः, अविशत् // 111 // भयङ्कर कामज्वरकी चिकित्सा करने की इच्छा करनेवाले अनुभवी वैद्य-समूहमें लज्जाहीन उस नलकी विशाल लज्जा ( रोगके कारणको ठीक नहीं समझ सकनेके कारण ) निदानमें मौन धारण करनेसे मानो सङ्क्रामक रोगके समान प्रविष्ट हो गयी / [ नलको भयङ्कर कामज्वर होनेपर अनुभवी बहुतसे वैद्य उनकी चिकित्सा करना चाहते थे, किन्तु रोगका निदान ठीक नहीं कर सकनेके कारण वे लज्जित हो गये अत एव ज्ञात होता है कि नलने तुम्हारे विरहमें जो लज्जा त्याग कर दिया है, वही विशाल लज्जा संक्रामकरोग ( कुष्ठ, अपस्मार आदि छुतही बीमारी) के समान उन वैद्योंमें प्रविष्ट हो गयी है / रोगका ठीक निदान नहीं करनेसे वैद्य-समूहका लज्जित होकर मौन धारण करना उचित ही है / अथवा जब वे रोगका ठीक निदान नहीं कर सके, तब नलसे ही रोगका कारण पूछे और उन्होंने 'दमयन्ती-विरजन्य यह कामज्वर है' ऐसा लज्जा छोड़कर स्पष्ट कह दिया अत एव वे 'लज्जित हो गये कि बिना इनके कहे हम रोग-निदान नहीं कर सके / इस प्रकार मानो नलकी लज्जा उन वैद्योंमें प्रविष्ट हो गयी ] // 111 / / तथा-'गान्धर्वो राक्षसश्चैव धम्यौं क्षत्रस्य तौ स्मृतौ / ' इति च ( मनु० 3 / 26) एतद्विषयकविशेषजिज्ञासायां मत्कृतो मनुस्मृते; 'मणिप्रभा'नुवादो द्रष्टव्यः / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 नैषधमहाकाव्यम् / विभेति रुष्टाऽसि किलेत्यकस्मात्स त्वां किलोपेत्य हसत्यकाण्डे / यान्तीमिव त्यामनुयात्यहेतोरक्तस्त्वयेव प्रतिक्ति मोघम् / / 112 // अथ उन्मादावस्थामाह-बिभेतीति / स नलः अकस्मादकाण्डे रुष्टा कुपिता. सीति बिभेति, अकाण्डे अनवसरे उपेत्य किल प्राप्येव हरूति, अहेतोरकस्माद्यान्ती गच्छन्तीं किल वामनुयाति, त्वया उक्त इव मोघं निर्विषयं प्रतिवक्ति / सर्वोऽप्ययमुन्मादानुभावः / उन्मादश्चित्तविभ्रमः // 12 // ( अब आटवीं 'उन्माद' दशाका वर्णन करता है-) वे (नल ) 'तुम रुष्ट ह। गयी हो' ऐसा समझकर एकाएक डर जाते हैं, मानो तुम्हारे पास जाकर (पाठा०-तुम्हें पाये हुए-से अर्थात् 'तुम्हें पा लिया है। ऐसा समझकर ) तुम्हारा अनुगमन करते हैं और 'तुमने कहा ( नलसे बातचीत की )' ऐसा समझकर व्यर्थ प्रत्युत्तर देते हैं / 112 / / भवद्वियोगाच्छिदुरार्तिधारायमस्वमुर्मज्जति निश्शरण्यः / मूच्.मयद्वीपमहान्ध्यपके हा हा महीभृद्भटकुखरोऽयम् / / 113 // अथ मूर्छावस्थामाह-भवदिति / भवत्या वियोगो भवद्वियोगः, 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः। तस्मिन्नच्छिदुरा अविच्छिन्ना 'विदिभिदिच्छिदेः कुरच' / आर्तिधारा दुःखपरम्परा तस्या एव यमस्वसुर्यमनाया मूर्छामयं मूर्छावस्थारूपं यद्वीपं तत्र यन्महान्ध्यं महामोहस्तस्मिन्नेव पङ्के महीभृद्भटो राजवीरः स एव कुअरः निःशरण्यो निरालम्बः सन् मजति हा हेति खेदे / रूपकालङ्कारः। आर्तिधारायास्तमोविकारत्वेन रूपसाम्यायमुना रूपणम् // 113 // ( अब राजहंस नवीं 'मू ' वस्थाका वर्णन करता है-) यह राजश्रेष्ठरूप हाथी नल तुम्हारे विरहसे उत्पन्न शाश्वत पीडाप्रवाहरूपी यमुनाके मूर्छारूप द्वीप (टापू-चारों ओर जलसे घिरा हुआ निर्जल स्थान-विशेष ) में घोर अन्धकाररूपी कीचड़ ( दलदल भूमि) में शरण-रहित होकर धस रहा है, हाय ! महादुःख है / [ जिस प्रकार हाथीवान्के विना पर्वताकार विशाल हाथी यमुनाके दलदलमें धसकर पीडित होता है, उसी प्रकार ये नल तुम्हारे विरहसे निरन्तर होनेवाली पीडाओंसे मूर्छाजन्य अन्धकारमें डूब रहा है, यह महान् दुःख हैं ] // 113 // सव्यापसव्यव्यसनाद् द्विरुक्कैः पन्चेषुबाणैः पृथगजितासु / दशासु शेषा खलु तदशा या तया नभः पुष्प्यतु कोरकेण // 114 / / दशमावस्था तु तस्य कदापि माभूदित्यत आह-सव्येति / सव्यापसव्याभ्यां बामदक्षिणाभ्यां व्यसनान्मोचनात् द्विरुक्तद्विगुणीकृतैर्दशभिरित्यर्थः / पञ्चेषुबाणः 1. किलापेति' इति पाठन्तिरम् / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 185 पृथगर्जितासु प्रत्येकमुत्पादितासु दशसु 'दृङ्मनःसङ्गसङ्कल्पा जागरः कृशताऽरतिः। हीत्यागोन्मादमूर्ध्वान्ता इत्यनङ्गदशा दश।' इत्युक्तासु चतुःप्रीत्यादिदशावस्थासु शेषा अवशिष्टा या तद्दशा दशमावस्थेत्यर्थः / तयैव कोरकेण कलिकयेति रूपकम् / नभः, पुष्प्यतु पुष्पितमस्तु / अस्य सा दजा खपुष्पकल्पाऽस्तु, कदापि मा भूदित्यर्थः / तच्च त्वत्प्राप्तिलाभादिति भावः / पुष्प-विकसन इति धातोर्लोट् // 114 // ___ अब उक्ति विशेषसे दशमी 'मरणा' वस्थाका निषेध करते हुए वर्णन करता है-) बायें तथा दहने के फेर-बदलसे द्विगुणित कामबाणसे उत्पन्न दश दशाओं में जो बाकी ( दशवीं ( दशा (मृत्यु) है, उस कालिकासे आकाश पुष्पित हो / [ जिस प्रकार आकाशपुष्पका होना सर्वथा असम्भव है, उसी प्रकार नलकी वह दशवी अवस्था ( मृत्यु ) असम्भव हो जावे / कामदेवके पाँच बाण हैं, उनको उसके बाँयें तथा दहने-दोनों ओरसे छोड़नेसे उसकी दश दशा विरहिजनोंको उत्पन्न होती हैं / वे दश दशाएँ ये हैं-१ नेत्रप्रीति, 2 चित्तासङ्ग, 3 सङ्कल्प, 4 अनिद्रा, 5 कृशता, 6 विषय-निवृत्ति ( अरति ), 7. निलज्जता, 8 उन्काद. 9 मूर्छा और 10 मृत्यु' ] // 115 // त्वयि स्मराधेम्सततास्मितेन प्रस्थापितो भूमिभृताऽस्मि तेन / आगत्य भूतस्सफलो भवत्या भावप्रतीत्या गुणलोभवत्याः // 115 // स्वयीति / त्वयि विषये स्मराधेः स्मरपीडादुःखाद्धेतोः सततमस्मितेन स्मित. रहितेन खिन्नेन तेन भूमिभृता प्रस्थापितोऽस्मि / अथ आगत्य गुणलोभवत्याः भव. त्यास्तव भावप्रतीत्या अभिप्रायज्ञानेन सफलो भूतः सिद्धार्थोऽस्मीत्यर्थः // 15 // कामपीडासे सर्वदा हासरहित उस राजा ( नल ) ने तुम्हारे पास मुझे भेजा है, यहाँ आकर गुणका लोभ करनेवाली अर्थात् गुणग्राहिणी आपके प्रेमका विश्वास होनेसे मैं सफल (कृतकार्य ) हो गया // 115 // धन्याऽसि वैदर्मि ! गुणेरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्टुतिः का खलु चन्द्रिका या यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति / / 116|| धन्येति / हे वैदर्भि ! भैमि ! वैदर्भीरीतिरपिगम्यते / धनं लब्धा धन्या असि कृतार्थासीत्यर्थः / 'धनगणं लब्धेति यत्प्रत्ययः। कुतः ? यया स्वया उदारैरुत्कृष्टैगुणैर्लावण्यादिभिरन्यत्र श्लेषैः प्रसादादिभिः पाशैश्चेति गम्यते, नैषधो नलोऽपि ताहक धीरोऽपीति भावः / समाकृष्यत सम्यगाकृष्टो वशीकृत इति भावः। एतेन 1. उक्ता कामदशा रतिरहस्यकृन्मतेन, साहित्यदर्पणकृन्मते तु'अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद गसम्प्रलापाश्च / उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मृतिरिति दशात्र कामदशाः // ' इति / (सा०द० 32218) 2. 'चन्द्रिकाया' इति षष्ठयन्तपदमिति 'प्रकाशः' / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 नैषधमहाकाव्यम् / वैदीत्यादिविशेषणाद् गुणैर्भावुकमिवेत्युपमापलङ्कारो युज्यते। तथाहि चन्द्रिका या अब्धिमपि गभीरमपीति भावः / उत्तरलीकरोति क्षोभयतीति यत् इतोऽपि अभ्य. धिका स्तुतिवर्णना का खलु ? न कापीत्यर्थः / दृष्टान्तालङ्कारः / एतेन नलस्य समुदगाम्भीर्य दमयन्त्याश्चन्द्रिकाया इव सौन्दर्यं च व्यज्यते // 116 // __ हे दमयन्ति ! ( पक्षा०-वैदर्भी रीति ध्वनित होती हैं ), तुम धन्य हो, जिस तुमने उदार गुणों ( पक्षा०- श्रेष्ठ इलेपादि गुणों, या-उत्तम रस्सियों-जालों) के नलको भी आकृष्ट कर लिया ( अथवा--तुम उदार गुणोंसे धन्य हो, जिस तुमने नलको भी आकृष्ट कर लिया (, इससे अधिक प्रशंसा क्या है ? जो ( चाँदनी ) ( अतिशय गंभीर ) समुद्रको भी चञ्चल करती है / पाठा०-इससे अधिक चाँदनीकी क्या प्रशंसा है ? जो समुद्रको भी....... | [ वैसे ही तुमने परम गंभीर नलको भी अपने सौन्दर्यादि गुणोंसे आकृष्ट कर लिया, अतः धन्य हो / इससे नल समुद्र के समान गम्भीर हैं तथा दमयन्ती चाँदनीके समान सुन्दर एवं आह्लादिका है, यह सूचिक होता है ] // 116 / / नलेन भायाश्शशिना निशेव त्वया स भायान्निशया शशीव / पुनःपुनस्तद्युगयुग्विधाता स्वभ्यासमास्ते नु युवां युयुक्षुः॥ 117 // फलितमाह--नलेति / शशिना निशेव त्वं नलेन भायाः। भातेराशिषि लिङ् / सोऽपि निशया शशीव त्वयाभायात् , भातेः पूर्ववदाशिषि लिङ। किं च अत्र दैवा. नुकूल्यमपि सुभाव्यमित्याह पुनः सुनस्तयोनिशाशशिनोर्युगं युनक्ति योजयतीति तयुगयुक विधाता युवां नलं त्वाञ्च 'त्यदादीनि सर्वैर्नित्यमिति एकशेषः / योक्तुमिछतीति युयुचर्यजेः सन्नन्तादुप्रत्ययः स्वभ्यासमभ्यासस्य समृद्धौ निरन्तराभ्यास इत्यर्थः / समृद्धयर्थेऽव्ययीभावः / ततः परस्याः सप्तम्या वैकल्पिकत्वादम् भावः / आस्ते नु ? तथाऽभ्यस्यति किमित्यर्थः / अत्र तादयं चतुर्थ्या अम्भाव इति व्याख्याने अभ्यासार्थमभ्यस्यतीत्यर्थः स्यात् तदात्माश्रयत्वादित्यपेक्षणीयम् / अत्र दमयन्ती. नलयोरन्योन्यशोभाजननोक्तेरन्योन्यालङ्कारः। 'परस्परक्रियाजननमन्योन्यमिति लक्षणात् / उपमाद्वयानुप्राणित इति सङ्करः / तन्मूला चेयं विधातुः पुनर्निशाशशियोजनायां दमयन्तीनलयोजनाभ्यासत्वोत्प्रेक्षेति // 117 // __(अब आशीर्वाद देता हुआ कहता है--) तुम चन्द्रमासे रात्रिके समान नलसे शोभित होवो, वे नल रात्रिसे चन्द्रमाके समान तुमसे शोभित होवें, बार-बार उन दोनों ( रात्रि तथा चन्द्रमा ) की जोड़ीको संयुक्त करनेवाले ब्रह्मा तुम दोनों ( तुम्हें तथा नल) को संयुक्त करनेके लिये मानो अभ्यास करते हैं। [ लोकमें भी कोई कारीगर श्रेष्ठ वस्तुको रचना करनेके लिए बार-बार वैसी एक ही वस्तुकी रचनाकर जैसे अभ्यास करता है, वैसे ही मानो तुम दोनोंको संयुक्त करनेके लिए ही ब्रह्मा चन्द्रमा तथा रात्रिको बार-बार संयुक्तकर अभ्यास करते हैं, अन्यथा अनेक बार चन्द्रमा तथा रात्रिको संयुक्त करना व्यर्थ होजाता] / / 117 // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 187 स्तनद्वये तन्वि ? परं तवैव पृथौ यदि प्राप्स्यति नैषधस्य / अनल्पवैदग्ध्यविवर्धनीनां पत्रावलीनां रचना समाप्तिम् // 11 // स्तनद्वय इति / हे तन्वि ! किञ्च नैषधस्य नलस्य अनल्पेन महता वैदग्ध्येन नैपुण्येन विवधनीनामुज्जम्भणीनां पत्रावलीनां रचना समाप्ति सम्पूर्णतां प्राप्स्यति यदि, तर्हि पृथौ पृथुनि भाषितपुंस्कत्वाद्विकल्पेन पुंवद्भावः / तवैव स्तनद्वये परं प्राप्स्यति, नान्यस्या इत्यर्थः / अन्यस्या अयोग्यत्वादितिभावः // 118 // नलकी अत्यधिक चातुर्यसे बढ़नेवाली पत्रावलि-श्रेणियोंको रचना यदि समाप्त हो सकती है, तो केवल तुम्हारे विशाल दोनों स्तनोंपर ही हो सकती है। [नल स्त्री-स्तनों पर पत्त्रावलिश्रेणिको बनानेमें इतने चतुर हैं कि अन्य स्त्रियोंके छोटे-छोटे स्तनों पर उनकी पत्रावलिरचना समाप्त ही नहीं होती, किन्तु तुम्हारे स्तन बड़े-बड़े हैं, अतः मैं सम्भावना करता हूं कि इन दोनों स्तनोंपर नलकी पत्त्रावलि रचना की निपुणता पूरी हो जायेगी // 118 // एकस्सुधांशुन कथञ्चन स्यात्तप्तिक्षमस्त्वमयनद्वयस्य | त्वल्लोचनासेचनकस्तदस्तु नलास्यशीतद्युतिसद्वितीयः // 119 / / एक इति / एकः सुधांशुस्त्वन्नयनद्वयस्य कथञ्चन कथञ्चिदपि तृप्तौ प्रीणने क्षमो न स्यात्तत्तस्मान्नलास्यशीतद्युतिना नलमुखचन्द्रेण सद्वितीयः सन् त्वलोचनयोरासे. चनकस्तृप्तिकरोऽस्तु / 'तदासेचनकं तृप्तोर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनादि'त्यमरः / आसि. च्यते अनेनेत्यासेचनकं, करणे ल्युट , स्वार्थे कः // 19 // ___ एक चन्द्रमा तुम्हारे (चकोरतुल्य ) दो नेत्रोंकी तृप्ति करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, इस कारण नलके मुखरूप चन्द्रमासे सहायक युक्त चन्द्रमा तुम्हारे दो नेत्रोंकी पूर्ण तृr करने वाला होवे / [ तुम्हारे नेत्र चकोर-नेत्रके समान हैं चकोरनेत्र चन्द्रमाका पान करते हैं / और एक चन्द्रमा तुम्हारे दो नेत्रोंको कदापि सन्तृप्त करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, अतः नलके मुखरूप चन्द्रमासे मिलकर दो चन्द्रमा होने पर तुम्हारे दो नेत्र पूर्णतः सन्तुष्ट हो सकते हैं / तुम्हारे नेत्र चकोरनेत्रतुल्य और नलमुख चन्द्रतुल्य है, अत एव चकार चन्द्रमाको देखकर जिस प्रकार अधिक सन्तुष्ट होता है, वैसे ही तुम नलके मुखचन्द्र को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होवोगी ] // 119 // (युग्मम् ) अहो तपःकल्पतरुनलीयस्त्वत्पाणिजाग्रस्फुरदकरश्रीः। त्वद्मयुगं यस्य खलु द्विपत्री तवाधरो रज्यति यत्कलम्बः // 120 // यस्ते नवः पल्लवितः कराभ्यां स्मितेन यः कोरकितस्तवास्ते / अङ्गम्रदिम्ना तव पुष्पितो यः स्तनश्रिया यः फलितस्तवैव // 121 / / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 नैषधमहाकाव्यम् / अथ द्वाभ्यां नलतपःसाफल्यमाह-अहो इत्यादिना। नलस्यायं नलीया, 'वा नामधेयस्येति वृद्धसंज्ञायां वृद्धाच्छः / अत एव कल्पतरुः अभिनवः प्रसिद्ध कल्पतर विलक्षण इत्यर्थः / अत एव अहो इत्याश्चर्य वैलक्षण्यमेवाह-वदित्यादि। अत्रापि यच्छब्दो द्रष्टव्यः यः कल्पतरुः तव पाणिजाग्रैः कररुहागैनित्यं स्फुरन्ती अकुरश्रीर्यस्य सः अङ्कुरवानित्यर्थः, यस्य त्वम॑युगमेव द्वयोः पत्रयोः समाहारो द्विपत्री प्रथमोत्पन्नपत्रद्वयं खलु, तवाधरो यत्कलम्बो यस्य नालिका किसलयकाण्ड इत्यर्थः, 'अस्य तु नालिका' कलम्वश्च कडम्बश्चे'त्यमरः ? रज्यति स्वयमेव रक्तो भवति, 'कुषिरजोः प्राचां श्यन् परस्मैपदञ्चेति कर्मकर्तरि रूपम् / य इति / यस्ते तव कराभ्यां पल्लवितः सातपल्लवः, यस्तव स्मितेन कोरकितः सनातकोरकः सन् आस्ते, यस्तवाङ्गानां म्रदिग्ना मार्दवेन पुप्पितः सञ्जातपुष्पः, यस्तवैव स्तनश्रिया स्तनसौन्दर्यण फलितः सञ्जातफलः / सर्वत्र तारकादित्वादितच प्रत्ययः / अत्र श्लोकद्वयेन तपसि दमयन्तीनखादिषु च कल्पतरुतावयवत्वरूपणात्सावयवरूपकं तथा अवयविनि कल्पतरोरवयवानां नखाङ्करादीनाञ्च मिथः कार्यकारणभूतानां भिन्नदेशत्वादसङ्गत्याश्रितमिति सङ्करः, 'कार्यकारणयोभिन्न देशत्वे स्यादसङ्गतिरिति लक्षणात्।।१२०-१२॥ __ नल-सम्बन्धी तपोरूप कल्पवृक्ष आश्चर्यकारक है, जिसका अङ्कुर तुम्हारे हाथका नखाग्र है. उसके बाद होनेवाले दो पत्ते तुम्हारे दोनों भ्र है, जिसका डण्ठल तुम्हारा लाल ओष्ठ है, जो तुम्हारे दोनों हाथोंसे पल्लवित हुआ है अर्थात् जिसके पल्लवद्वय तुम्हारे हाथ हैं, जो तुम्हारे स्मितसे कोरकित हुआ है अर्थात् तुम्हारा स्मित जिसका कोरक ( पुष्पकलिका ) है, जो तुम्हारे शरीर की कोमलतासे पुष्पित हुआ है अर्थात् जिसका फूल तुम्हारे शरीरकी कोमलता है, और तुम्हारे स्तनोंकी शोभासे हो फलित ( फलयुक्त ) हुआ हैं अर्थात् तुम्हारे स्तन ही जिसके फल है। [ वृक्षमें क्रमशः अङ्कर, दो पत्ते, उनके बीचमें डण्ठल, पल्लव, पुष्पकोरक. पुष्प और फल लगते है। ये सब तुम्हारे ही शरीरमें विद्यमान है, अत एव नलने कल्पतरु तुल्य तुमको तपस्यासे प्राप्त किया है ] // 120-121 / / / 'कंसीकृतासीत्खलु मण्डलीन्दोः ससक्तरश्मिप्रकरा स्मरेण / तला च नाराचलता निजैव मिथोऽनुरागस्य समीकृतौ वाम ||122|| किन्च समानुरागत्वाच युवयोःसमागमः श्लाघ्य इत्याशयेनाह-कंसीति / स्मरेण का वां युवयोमिथोऽनुरागस्य अन्योन्यरागस्य, यस्तव तस्मिन् , यश्च तस्य त्वयि, तयोरनुरागयोरित्यर्थः / समीकृतौ समीकरगे निमित्ते तदर्थमित्यर्थः / संसक्तः संयोजितः रश्मीनामंशूनां सूत्राणाश्च प्रकरः समूहो यस्यां सा 'किरणप्रग्रही रश्मी' इत्यमरः / इन्दोर्मण्डली बिम्बं कसीकृता आसीत् / 'कंसोऽस्त्री लोहभाजनमिति शाब्दिकमण्डने / मण्डले निजा नाराचलता बाणवल्ली सैव तुला तुलादण्डीकृतेति 1. कंसी-इति पाठान्तरम् / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। 15 शेषः / तत्रेन्दुमण्डलादौ कंसादिरूपणादेवस्मरस्य कार्यकारणरूपसिद्धेरेकदेशविवर्ति रूपकम् // 122 // कामदेवने तुम दोनों के पारस्परिक अनुरागको बराबर करने ( तौलने ) में किरणसमुहसे युक्त ( पक्षा०-रस्सियोंसे बंधे हुए ) चन्द्रमण्डलको कांसेका पलडा और अपने बाणको तराजू ( की डण्डी ) बनाया था। [ कामदेवने किरणयुक्त गोल चन्द्रमण्डलको रस्सीसे बंधा हुआ कांसेका पलड़ा तथा अपने बागको तराजूका डण्डी बनाकर तुम्हारा तथा नलके परस्परानुरागको तौलकर बराबर किया है, यही कारण है कि नलमें तुम्हारा जितना अधिक अनुराग है, उतना ही अधिक अनुराग तुममें भी नलका है ] // 122 // सत्त्वसुतस्वेदमधूत्थसान्द्रे तत्पाणिपञ मदनोत्सवेषु / लग्नोस्थितास्त्वत्कुचपत्ररेखास्तनिर्गतास्तत् प्रविशन्तु भूयः / / 123 / / सत्वेति / किं च मदनोत्सवेषु रतिकेलिषु सत्त्वेन मनोविकारेण सतो यः स्वेदः सात्त्विकविकारविशेषः तेनैव मधूत्थेन मधूच्छिष्टेन सान्द्रे निरन्तरे अत एव तस्य नलस्य पाणिपञ लग्नाः संक्रान्ताः / अतएव उत्थिताः त्वत्कुचतटाद्विश्लिष्टाः। मधू. च्छिष्टे निकषस्थकनकरेखावदिति भावः। स्नातानुलिप्तवत्पूर्वकालसमासः। तन्नि र्गताः / तत्पाणिपद्मोत्पन्नाः त्वत्कुचपत्ररेखाः भूयः तत् पाणिपञ 'वा पुंसि पद्मं नलि. नमि'त्यमरः / प्रविशन्तु / कार्यस्य कारणे लयनियमादिति भावः। युवयोः समा. गमोऽस्तु इति तात्पर्यम् // 123 // कामोत्सवों में सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीना रूपि मोमसे सान्द्र, नलके हस्तकमलमें पहले लगकर ( संसक्त होकर ) उठी हुई तुम्हारे स्तनोंपर बनायी गयी पत्रावलियां नलके हाथसे निर्गत ( नलके हाथसे बनी हुई ) होनेसे फिर उसीमें प्रविष्ट हो जांय / [नल अपने हस्तकमलसे तुम्हारे स्तनद्वयपर पत्रावलियोंकी रचनाकर रति करनेके समय उन स्तनोंका स्पर्श करेंगे तो सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीनेसे वे पत्रावलियां उनके हाथमें उस प्रकार अङ्कित हो जायेंगी, जिस प्रकार मोमके वने ठप्पेपर कोई चित्रादि अङ्कित हो जाता है' इस प्रकार नलके हाथसे ही बनायी गयी कार्यरूपिणी पत्रावलियां पुनः कारण रूप नलके हाथमें लीन हो जायें। कारणमें कार्य का लय होना उचित ही है। तुम्हारे स्तनद्वयपर अपने हाथसे बनाये गयी पत्रावलियोंको रतिकालमें नल सात्त्विकभावसे स्वेदयुक्त हाथसे पोंछे ] // 123 / / बन्धात्यनानारतमजयुद्धप्रमोदितैः केलिवने मरुद्रिः। प्रसूनवृष्टिं पुनरुक्तमुक्तां प्रतीच्छतं भैमि ! युवां युवानौ / / 124 / / बन्धेति / किं च हे भैमि ! बन्धेरुत्तानादिकरणः कामतन्त्रप्रसिद्धैराढ्य समग्रं नानारतमुत्तानकादिविविधसुरतं तदेव मल्लयुद्धं तेन प्रमोदितैः सन्तोषितैः केलिवने मरुद्भिः वायुभिर्देवैश्च 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः / पुनरुक्तं सान्द्र यथा तथा मुक्तां Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसूनवृष्टिं युवतिश्च युवा च युवानी, 'पुमान् स्त्रिये'त्येकशेषः / युवा प्रतिच्छतं स्वीकुरुतम् / युद्धविक्रान्ता हि देवैः पुष्पवृष्टया सम्भाव्यन्त इति भावः // 124 // __ हे दमयन्ती ! युवक तथा युक्ती तुम दोनों क्रीडावनमें ( रतिकालमें किये गये) अनेक प्रकारके आसनोंसे अनेकविध सुरतरूप मलयुद्धसे अतिशय हर्षित वायुओं ( पक्षा०मलयुद्धसे हृष्ट देवों ) से बारबार की गई पुष्पवृष्टिको ग्रहण करो। [ क्रीडोद्यानमें रति करते हुए तुम दोनों पद्मबन्ध आदि आसनोंको करते हुए अनेक प्रकारकी रति करोगे, जो मल्लयुद्ध-सा होगा, उस समय हृष्ट देवगण बार-बार पुष्पवृष्टि करेंगे' अथ च-तुम्हारे मस्तकसे पुष्प गिरेंगे, या-वायुस कम्पित वृक्षोंसे पुष्प गिरेंगे, उन्हें तुमलोग ग्रहण करोगे दो शूरवीरोंके युद्धसे हषित देवलोग पुष्पवृष्टि करते हैं तथा उन पुष्पोंको वे शूरवीर ग्रहण करते हैं ] // 124 / / अन्योन्यसङ्गमवशादधुना विमातां तस्यापि तेऽपि मनसी विकसद्विलासे / स्रष्टं पुनमेनसिजस्य तनुं प्रवृत्तमादाविव द्वयणुककृत्परमाणुयुग्मम्||१२५।। अन्योन्येति / किं च, अधुना अन्योन्यसङ्गमवशाद्विकसद्विलासे वर्धमानोल्लासे तस्यापि तेऽपि नलस्य तव च मनसी मनसिजस्य कामस्य तनुं शरीरं पुनः स्रष्टुमारब्धुं प्रवृत्तमत एवादी द्वाभ्यामारब्धं कार्य द्वयणुक तस्करोतीति तत्कृत् तदारम्भकं, करोतेः किप / तत्परमाणुयुग्ममिवेत्युत्प्रेक्षा / तार्किकमते मनसोऽणुत्वादिति भावः / विभातां कार्यारम्भकपरमाणुयुगलवदविश्लेषेण विराजतामित्यर्थः। भातेर्लोट् , 'तस्थे ति तसः तामादेशः॥ 125 // __ इस समय परस्परके समागम होनेसे बढ़ते हुए विलासवाले उस ( नल) का भी तथा तुम्हारा भी ( एक एक परमाणु मिलनेसे दो परमाणु मात्रावाले ) मन फिर कामदेवके शरीरकी रचना करनेके लिए तत्पर पहले द्वथणुकको बनानेवाले परमाणुदयके समान शोभित होवें। [ मनकी मात्रा एक परमाणुके बराबर है / किसी शरीरादिकी रचना करनेके लिए सर्वप्रथम दो परमाणुओंको मिलाकर द्वथणुक बनाया जाता है, इसी क्रमसे बढ़ातेबढ़ाते इष्ट रचनाको पूरा किया जाता है / तुम्हारा तथा नलका इतना गाढ़ अनुराग है कि परमाणुरूप तुम दोनोंका मन एक होकर थणुकरूप हो जायेगा, और इस क्रमसे कामदेवकी शरीरकी रचना पुनः हो जानेसे सम्भव है वह शरीर हो जायेगा] // 125 // कामः कोसुमधापदुर्जयममु जेतु नृप त्वा धनुवल्लीमव्रणवंशजामधिगुणामासाद्य माधत्यसौ। प्रीवालस्कृतिपट्टसूत्रलतया पृष्ठे कियल्लम्बया भ्राजिष्णुं कषरेखयेव निवसत्सिन्दूरसौन्दर्यया / / 126 / / काम इति / असौ यो नलजिगीषुरिति भावः / कामः कौसुमेन चापेन दुर्जय जितेन्द्रियत्वादिति भावः / अमुं नृपं नलं जेतुमव्रणवंशजां सत्कुलप्रसूतां दृढवेणु Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 तृतीयः सर्गः जन्यास, 'द्वौ वंशौ कुलमस्कराविस्यमरः / अधिगुणामधिकलावण्यादिगुणामधिः ज्याच निवासदनुवर्तमानं सिन्दूरस्याङ्कुरावस्थायां नालान्तराले चिप्तस्य सौन्दर्य शोभा यस्यां तया कषरेखया कालान्तरे सिन्दूरसंक्रान्तिपरीक्षार्थ कृतघर्षणरेखयेवे. स्युत्प्रेक्षा / पृष्ठे प्रीवापश्चादागे कियत् किशिपथा तथा लम्बया सस्तया ग्रीवालकृ. तिः ग्रीवालङ्कारभूता या पट्टसूत्रलता तया प्राजिष्णुं ताच्छील्ये 'भुवश्चेति चकाराविष्णुच / भ्राजमाना स्वामेव धनुर्वलीं चापलतामासाच माधति हृष्यति / श्लेषोरप्रे. चासकीणों रूपकालङ्कारः // 126 // कामदेव पुष्पों के बाणोंसे दुर्जय ( दुःखसे जीते जाने योग्य ) इस राजा (नल ) को जीतने के लिए दोषरहित वंशमें उत्पन्न ( पक्षा-छिद्ररहित बांससे बनी हुई ) तथा अधिक गुणवाली ( पक्षा०-डोरी चढ़ी हुई ) तुमको धनुलता पाकर हर्षित हो रहा है, जो धनु. लंता ( तुम्हारी ) पीठएर कुछ लटकती हुई कण्ठभूषगके लाल पट्टसूत्रलतासे सिन्दूरको शोमावाली अर्थात् बासकी परीक्षाके लिए सिन्दूर रगड़नेसे उत्पन्न लाल रेखासे युक्तके समान शोमती है / [ सिन्दूर लगाकर बांसकी परीक्षा करने के लिए धनुषको पीछे रगड़ते है, यदि लाल सिन्दूर की रेखा धनुष के पीछे स्थित हो तो यह बांस धनुष के लिए उत्तम होता है / प्रकृतमें तुमने कण्ठभूषण पहना है, जिसकी लाल कपड़ेकी पट्टी कण्ठके पीछेसे होकर पीठपर थोड़ा लटक रही हैं, यही पट्टी धनुषके पीछेवाली पूर्वोक्त सिन्दूर रेखा है, जिससे परीक्षित बांसवाला धनुष शोमता है (और पक्षा०-जिसके थोड़ा पीठपर लटकने वाली कण्ठभूषणकी काल पट्टीसे तुम शोमती हो ) ऐसी श्रेष्ठ वंशोत्पन्न गुणवती तुमको ही छिद्ररहित बांससे बनी तथा डोरी चढो हुए धनुलतासी पाकर कामदेव प्रसन्न हो रहा है कि पुष्प-धनुषसे दुर्जय नलको अब मैं सरलतासे जीत लूगा] // 126 / / त्वद्गुच्छावलिमौक्तिकानि गुटिकास्तं राजहंसं विभो बेध्यं विद्धि मनोभुवः स्वमपि तां मजुं धनुर्मचरीम् / यन्नित्याङ्कनिवासलालिततमज्याभुज्यमानं लस नाभीमध्यबिला विलासमखिलं रोमालिरालम्बते / / 127 / / स्वदिति / विभोर्मनोभुवः कामस्य पक्षिवेधुरिति शेषः / तव गुच्छावलेमताहा. रविशेषस्य मुक्ता एव मौकिकानि, 'विनयादित्वात् स्वार्थे ठगिति वामनः / गुटिकाः गुलिकाः विद्धि जानीहि / तं राजहंस राजश्रेष्ठं तमेव राजहंसं कलहंसं श्लिष्टरूपकम् / 'राजहंसो नृपश्रेष्ठे कादम्बकलहंसयो रिति विश्वः / वेधित प्रहर्त्तमहं वेध्यं लपयं, विध-विधाने 'अहलोण्यत्' अनेकार्था धातवः' एवमाह-'वेषितपिछद्रितावि'स्यत्र स्वा. मी। अन्य स्वाहुः-स्वप्नेऽपि विधानार्थ एव प्रयोगाच विध-वेधन इत्येवाकारस्था पाठः, पाठान्तरं तु प्रामादिकमन्धपरम्परायातमिति बिद्धि / स्वमात्मानमपि 'स्वो 1. '-भज्यमानम्' इति पाठान्तरम् / 13 नै० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 नैषधमहाकाव्यम् / शातावरमनि स्वमित्यमरः / तां वषयमाणप्रकारां मझुं मन्जुलां धनुर्मअरी चाप. बारी विधि, यस्याः नित्यमङ्कनिवासेन समीपस्थित्या लालिततमया अस्यारतया ज्यवा मौा भुज्यमानमनुभूयमानमखिलं विलासं शोभा ज्यारूपतामित्यर्थः / लस. चाम्येव मध्यः बिलङ्गुलिकास्थानं यस्याः सा रोमालिस्त्वद्रोमराजिरालम्वते भजति / मन मोतिकादो गुटिकावयवरूपणादवयविनि कामे वेद्यस्वरूपणस्य गम्यमानः स्वादेकदेशविवर्सिसावयवरूपकमलकारः // 127 // हे दमयन्ति ! तुम समर्थ कामदेवके, तुम्हारे बत्तीस लड़ीवाले 'हार विशेषके मोतियों को ( मिट्टीकी बनी हुई ) गोलियाँ समझो, उस राजश्रेष्ठ ( नल, पक्षा-राजहंस पक्षी) को वेध्य ( मारने योग्य शिकार ) समझो तथा अपनेको मनोहर वह धनुलता समझो बो शोममान नामिरूप बिल ( गोलियोंको फेकने के लिए धनुषमें बना हुआ छिद्र ) वाली रोमपति जिस (धनुर्सता ) के मध्य में सर्वदा रहनेसे अतिशय लालित (नचायी गयी) डोरीसे सेवित ( अनुभूत ) होते हुए सम्पूर्ण विलासको प्राप्त करती है [मिट्टीकी गोली फेंकनेवाले धनुष में छिद्र रहता है, इसीसे गोलियोंको फेंककर लक्ष्यवेध किया जाता है। यहॉपर समर्थ कामदेव धनुर्धर, तुम्हारे हारके मोती-गोली, राजश्रेष्ठ नल-लक्ष्य, तुम अनुलता, रोमश्रेणी-धनुषको डोरी, नामि-गोली रखने के स्थानका धनुश्छिद्र है। ऐसा समझो / इस प्रकार कामदेव नलको सरलतासे जीत लेगा अर्थात तुम्हें लक्ष्य कर शीघ्र नल कामपीड़ित हो जायेंगे ] // 127 / / / पुष्पेषुश्चिकुरेषु ते शरचयं स्वं भालमूले धनू रौद्रे चक्षुषि यजितस्तनुमनुभ्राष्ट्रं च यश्चिक्षिपे / निविद्याश्रयदाश्रमं स वितनुस्त्वां तज्जयायाधुना पत्रालिस्त्वदुरोजशैलनिलया तत्पर्णशालायते / / 128 // पुष्पेषुरिति / यः पुष्पेषुः कामो यजितो येन नलेन सौन्दर्यास्पराभूतः अतएव निर्विय ईपया जीवनवैयध्य मरवेस्नर्थः / 'तत्वज्ञानोदितादेनिहो निष्फलस्वधी. रिति लक्षणात् / ते तव चिकुरेषु केशेषु स्वं स्वकीयं शरचयं स्वद्धतकुसुमन्याजा. दिति भावः / मालमूले ललाटमागे धनुः अायाजादिति भावः। तथा रौद्रे रुद्र. सम्बन्धिनि चतुष्येव अनुभ्राष्ट्रमम्बरीषे, विमतपर्येऽव्ययीभावः / 'क्लोबेऽम्बरीषं भाष्ट्रो ना' इत्यमरः / तनं शरीरं च चिचिपे चितवान् / पूर्वमेव दग्धतनुण्याजा. 1. तदुत्तममरसिंहेन-'हारभेदा यष्टिमेदाद् गुच्छगुच्छादंगोस्तनाः। पद्धदारो माणवक एकावस्यैकयष्टिका // इति / (अमर 2 / 6 / 105-106) एषा यष्टिसङ्घयावानार्थ मत्कृतममरकोषस्य 'मणिप्रमाख्यमनुवादम् , 'अमरकौमुबा'. स्या टिप्पणीच विलोकयन्तु जिशासव इति / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 163 दिति भावः / स्वरितेश्वात्तक / स पुष्पेषुर्वितनुरनमः सन् अधुना तजयाय नलविजयावामेवाश्रमं तपोवनमाश्रयत् आश्रितवान् तपश्चर्यार्थमिति शेषः / अन्य. था कथं तं जेष्यतीति भावः / अतएव स्वदुरोज एव शैलो निलयो यस्याः सा तखि ष्ठेत्यर्थः / पत्रालिः पत्ररचना पर्णचयश्च तस्य कामस्य पर्णशालायते सेवाचरति / उपमानात् कर्तः क्या / अत्र पूर्वाः शरचापादीनां पूर्वोक्तपुष्पादिविषयनिगरणेन तदभेदाध्यवसायानेदे अभेदलक्षणातिशयोक्तिः, तत्पर्णशालायत इत्युपमा चोस्था. पितेन स्वमाश्रममिति रूपकेण सङ्कीर्णा व्यञ्जकाप्रयोगाद्या कामस्याश्रमाश्रयणो. स्प्रेदेति सहरः // 128 // उस ( नल ) से ( सौन्दर्यमें ) हारे हुए जिस कामदेवने खेदसे विरक्त होकर तुम्हारे केशों में बाणसमूहको फेंक दिया, तुम्हारे ललाटमूलमें धनुषको फेंक दिया तथा शिवनीके ( पक्षा-दारण = भयङ्कर ) नेत्ररूप भाड़में अपने शरीरको फेंक दिया; वह कामदेव इस समय उस नलको जीतने के लिए वितनु ( विशेष दुर्बल, पक्षा०-शरीरहीन ) होकर तुम्हारा मात्रय किया है और तुम्हारे स्तनरूप पर्वतपर वर्तमान पत्रालि ( पत्तोंका समूह, पक्षा०-चन्दनादिरचित पत्रावलि ) उस ( कामदेव ) को पर्णशालाके समान हो रही है। | जिस प्रकार किसी प्रब कसे पराजित दुर्बल व्यक्ति दुःखसे खिन्न होकर अपने बाण, धनुष तथा अपने शरीरतकको फेंक देता है और उस प्रबल को जीतने के लिए किसीका आश्रयकर कामदेव ने किये हैं / तुम्हारे केशसमहमें लगे हुए पुष्प कामदेवके बाण-समूह हैं, तुम्हारा भ्र-कामदेवका धनुष है, शिवजीका नेत्र भयङ्कर (शीघ्र जलानेवाला )-माड़ है, तुम्हारे विशाल स्तन-पर्वत हैं तथा उनपर चन्दनादिसे बनायी गयी पत्रावलि-पत्तों की झोपड़ी है। भब तक तो नरूने कामदेवको जीत लिया था, किन्तु अब कामदेव तुम्हारे सहारेसे नसको जीतेगा अर्थात् तुम्हें पाकर नल कामके वशीभूत होंगे] // 128 // इत्यालपत्यथ पतत्त्रिणि तत्र भैमी सख्यश्चिरात्तदनुसन्धिपराः परीयुः / शर्मास्तु ते विसृज मामिति सोऽप्युदीर्य वेगाजगाम निषधाधिपराजधानीम्।। इतीति / तत्र तस्मिन् पतस्त्रिणि हंसे भैमीमिति इस्थमालपति भाषमाणे सति अथास्मिनवसरे चिरात्प्रभृति तस्या भैम्या अनुसन्धिरन्वेषणम, 'उपसर्गे घोः किरिति किः / तस्पराः सख्या परीयुःपरिवः, इणो लिट् / हंसोऽपि 'ते तव शर्मास्तु मुखमस्तु, मां विसृज' इत्युदीयं उक्त्वा वेगाविषधाधिपराजधानी जगाम // 129 // इसके बाद उस हंसके दमयन्तीसे ऐसा ( 31100-128 ) कहते रहनेपर उसे ( दमयन्ती को ) खोजने में तत्पर सखियोंने दमयन्तीको चारो तरफ से घेर लिया। वह हंस भी 'तुम्हारा कल्याण हो, मुझे छोड़ो अर्थात् विदा करो' ऐसा कहकर वेगसे नल को राजधानी Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 नैषधमहाकाव्यम् / चेतोजन्मशरप्रसूनमधुभिर्व्यामिश्रितामाश्रयत् प्रेयोदूतपतङ्गपुङ्गवगवीहैयङ्गवीनं रसात् / स्वादं स्वादमसीममृष्टसुरभि प्राप्ताऽपि तृप्ति न सा ____ तापं प्राप नितान्तमन्तरतुलामानछे मूर्छामपि / / 130 // चेत इति / सा भैमी चेतोजन्मनः कामस्य शरप्रसूनानां शरभूतपुष्पाणां मधु. भिस्तद्रसः चौख 'मधु मद्ये पुष्परसे चौद्र' इत्यमरः / ग्यामिश्रतामाश्रयत् तथा मिश्र सदित्यर्थः / असीमं निःसीमम् अपरिमितमित्यर्थः। नकारान्तोत्तरपदो बहु. बीहिः / मष्टं शुद्धम् / अन्पनामलं तर तत सुरभि सुगन्धि च, खाकुब्जवद्विशेषणसमासः / प्रेयसो नलस्य दूतः सन्देशहरो यः पतनः पुनव इव पतनपुयो हंसा श्रेष्ठः पुमान् गौः पुङ्गवः / 'गोरतद्धितलुकी'ति टच , तस्य गोर्वाक तद्वी पूर्ववत् उचि 'टिडढाणमित्यादिना डीप / सैव हैयंगवीनं योगोदोहोद्भवं घृतमिति रूप. कम् / 'हैयनवीनं संज्ञायामिति निपातः / तदवी तदेनुः तस्या इति च गम्यते रसादागात् स्वादं स्वादं पुनरास्वाथ भाभीचण्ये णमुलप्रत्ययः / पौनःपुन्यमाभीषण्यम् 'भाभीषण्ये द्वे भवत' इति उपसंख्यानात् द्विरुतिः / तृप्ति प्राप्तापि अपि. विरोधे अन्तः नितान्तं तापं न प्राप अतुलां मूर्छामपि नानपर्छ न प्राप, 'ऋच्छ. स्यतामिति गुणः / 'मत आदेरि त्यभ्यासाकारस्य वीर्घः / 'तस्मान्नुड् द्विहल' इति नुट / मधुमिश्रघृतस्य विश्वात्तस्पाने तापाभावादिति विरोधः / स च पूर्वोक्तपतङ्ग. पुंगवगवीहैयनवीन इति रूपकोत्थापित इति सङ्करः / 'मधुनो विषरूपत्वं तश्यांशे मधुसपिषी' इति वाग्भटः // 120 // कामबाणरूप पुष्पके मधु ( पराग, पक्षा०-शहद ) से मिश्रित तथा इष्ट एवं सुगन्धयुक्त प्रियतम ( नल) के दूत पक्षिमेष्ठ (राजहंस) को वाणीरूपी ( पक्षा० -..." की गायके) मक्खन ( नेनू घी ) को अपरिमित बार-बार स्वाद लेकर ( खाकर, पक्षा०-हंसके वचन को बादरपूर्वक सुनकर ) भी वह दमयन्ती तृप्त हो गया और अन्तः अधिक सन्तापको नहीं पाया, तथा अपरिमित मूछाको भी नहीं पाया ( अथवा-... ..वह दमयन्ती तृप्त नहीं हुई; उसका अन्तःकरण अधिक सन्तापको पाया तथा अपरिमित मूर्छाको पाया) [घी तथा मधु समान मात्रा में मिलाकर अधिक खाने से भी तृप्त नहीं होती और भी खाने की इच्छा बनी रहती है, परन्तु उसे खाने से अन्तःकरणमें दाह होता है तथा मू. मी भाती है। वे सब दमयन्तीको नहीं हुए यह आश्चर्य हैं। अथवा दितीय अर्थके पक्षमें हंसके वचनको दमयन्ती और भी सुनना चाहती थी, अतएव उसकी तृप्ति नहीं हुई तथा उसके चले जानेसे दमयन्तीके अन्तःकरणमें सन्ताप भी हुमा तथा वह मोइयुक्त भी हुई यह उचित ही है / 'असीमम् + मृष्टमुरमि' पदच्छेद का अर्थ ऊपर लिखा गया है, 'मसीममृष्टसुरमि' समस्त एक पद की 'हैयङ्गवीनम्' का विशेषण मानकर अपरिमित Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 165 मधुर तथा सुगन्ध युक्त' उक्त रूप धोको बार-बार खाकर मी..... ...." ऐसा मयं मी हो सकता है ] // 130 // तस्या शो वियति' बन्धुमनुव्रजन्त्यास्तद्वाष्पवारि न चिरादवधिर्बभूव | पार्वेऽपि विप्रचकृषे तदनेन दृष्टेरारादपि व्यवदधे न तु चित्तवृत्तेः // 131 / / तस्या इति / वियत्याकाशे बन्धुमनुव्रजन्स्यास्तस्था शो भैमीहष्टेः तद्वापवारि बन्धुजनविप्रयोगजन्यं तदरजलं न चिराचिरादवधिर्बभूव, 'पोदकान्तं प्रियं पान्थमनुबजेदिति शास्त्रात्तदा सीमाभूदित्यर्थः। ततः तस्माद् बाष्पोपगमादेव हेतोरनेन हंसेन हष्टेः पाश्वे समीपे विप्रचकृषे विप्रकृष्टेनाभावि / बाप्पावरणात् समीपस्थोऽपि नालभ्यतेत्यर्थः। वित्तवृत्तेस्तु आराद् दूरेऽपि न व्यवदधे ग्यवहितेन नाभावि, स्नेहबन्धान्मनसो नापेत इत्यर्थः / उभयत्रापि भावे लिट् / समीपस्यस्य विप्रकृष्टत्वं दूरस्थस्य सनिकृष्टत्वं चेति विरोधाभासः // 31 // नेत्रअल (प्रियदूत हंसके विरहसे उत्पन्न आँस ) जो आकाशमें जाते हुए बन्धु (रूप राजहंस ) का अनुगमन करती हुई उस ( दमयन्ती ) की दृष्टिके शीघ्रही अववि हो गया, भत एव समीप होने पर भी इस हंससे वह 'दूर हो गयी, किन्तु दूर चले जाने पर भी वह हंस दमयन्तीकी चित्तवृत्तिसे दूर नहीं हुआ। [बाहर जाते हुए बन्धका तडाग, वाटिका, नगरसीमा आदि तक अनुगमन करनेका नियम है, अतः जब प्रियावेदक होनेसे बान्धव. रूप इस नलकी राजधानीको जाने लगा तब शीघ्र ही दमयन्तीके नेत्र उसके विरह दुःखसे अश्रुयुक्त हो गये, अत एव नेत्राश्रु ही इसका अनुगमन करनेवाले दमयन्ती-नेत्रको भागे बढ़ने से रोकने के लिए जलाशयरूप गमनावधि हो गये, इसी कारण इसके थोड़ी दूर ही बानेपर भी वे ( नेत्र ) उससे दूर हो गये; किन्तु दमयन्तीने उस इंसको अन्तःकरणमें रख लिया था, अत एव हंस बहुत दूर तक जानेपर भी उसके अन्तःकरणसे दूर नहीं हुआ, उसके अन्तःकरणमें ही रहा / पाठा-नृपति ( राजा नल ) के बन्धु-राजहंसका अनु. गमन.... अर्थ करना चाहिये] // 131 // अस्तित्वं कार्यसिद्धः स्फुटमथ कथयन् पक्षयोः कम्पभेदै राख्यातुं वृत्तमेतन्निषधनरपतौ सर्वमेकः प्रतस्थे / कान्तारे निर्गतासि प्रियसखि ! पदवी विस्मृता किन्नु मुग्धे ? मा रोदीरेहि यामेत्युपहृतवचसो निन्यरन्यां वयस्याः // 132 / / अस्तित्वमिति / अथ एकः अनयोरेकतरो इंसः पक्षयोः कम्पभेदैश्चैष्टाविशेषः कार्यसिद्धरस्तिस्वं सत्ताम् 'अस्तीत्यव्ययं विद्यमानपर्यायस्तस्माश्वप्रत्ययः / स्फुटं 1. 'दृशाऽधिपतिबन्धु-इति पाठान्तरम्। 2. 'नृपतिबन्धु-' इति पाठान्तरम् / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 नैषधमहाकाव्यम् / कथयन् वृत्तं निष्पसमेतत्सर्व निषधनरपतौ नले विषये भाण्यातुं तस्म निवेदयि. ज्यविस्यर्थः, प्रतस्थे। अभ्यो दमयन्ती वयसा तुल्या वयस्याः सख्यः 'नौवयो' इति यस्प्रत्ययः / 'हे प्रियसखि ! मुग्धे! कान्तारे विषमे निर्गतासि सङ्कटं प्रविष्टासि, पदवी विस्मृता किम् नु ? मा रोदीः, एहि, याम गच्छाम' इत्युपहतवचसो इत्तवचना: सत्यः एना निन्युः // 132 // (उड़ते समय ) दोनों पक्षोंको कपानेसे कार्यसिद्धिके मस्तित्वको स्पष्ट कहता (सूचित करता) हुमा उनमें से एक (इंस ) सब वृत्तान्तको निषधेश्वर (न) से करनेके खिये (निपपदेशको) गया तथा दूसरी ( दमयन्ती) को 'हे प्रियसखि ! दुर्गम मार्गमें का पड़ो हो / हे मुग्वे ( मोली या सुन्दरी ! ) क्या तुम रास्ता भूल गई हो, मत रोमो, भागो चले' इस प्रकार कहती हुई उसकी सखियों उसे ( राजमहलमें ) ले गयीं // 132 / / सरसि नृपमपश्यद् यत्र तत्तीरभाजः स्मरतरलमशोकानोकहस्योपमूलम् / किसलयदलतल्पग्लापिनं प्राप तं स ज्वलदसमशरेषुस्पर्धिपुष्पर्धिमौलेः // 13 // सरसीति / हंसो यत्र सरसि नृपमपश्यत् दृष्टवान् तस्य सरसस्तीरमाजस्ता हस्य ज्वलदिरसमशरस्य पछेषोरिषुमिः स्पर्द्धत इति तत्पर्षिनी तत्सरशी / पुष्पर्धिः पुष्पसमृद्धिः मौलिः शिखरं यस्य तस्याशोकानोकहस्य अशोकवृषस्य उप. मूलं मूले विभक्त्यर्थे अव्ययीभावः / स्मरेण तरलं चञ्चलं किसलयदलतल्पं पड़वप. प्रशयनं ग्लापयति स्वाङ्गदान म्लापयतीति तथोक्तं तं नृपं प्राप // 133 // उस (इंस ) ने जिस तडागपर नकको ( दमयन्तीके पास जानेसे पहले) देखा था, उसीके किनारे पर स्थित जलते हुए कामबाणों के साथ स्पर्धा करने वाले पुष्पोको मधिकता से युक्त शिखर ( अग्रभाग ) वाले (जिसके ऊपर फूले हुए पुष्प जलते हुए काममाणके तुस्य प्रतीत हो रहे हैं, ऐसे ) अशोक वृक्षके नीचे, काम (जन्य पीडा ) से चश्चक (छट. पटाते हुए ) तथा नवपल्लवों की शय्याको ( काम-सन्तापसे ) मलिन करते हुए उस ( नल ) को पाया। [ दमयन्तोके पास जानेके पहले हंसने जिस तमगपर नलको देखा था, उसीके तौरपर स्थित पुष्पित अशोक वृक्षके नीचे कामपोडासे छटपटाते हुए तथा नवपल्लमोंकी शय्याको तापसे महिन करते हुए नलको दमयन्तीके यहाँसे कौटकर भी पाया / यद्यपि नक हंसको दमयन्तीके पास भेजकर वहाँसे उद्यानगृहमें चले गये थे ( 2163 ) तथापि वहाँसे लौटे हुए हंससे मिलने के लिए उसी तडाग पर पुनः मा गये थे] // 19 // परवति ! दमयन्ति ! त्वां न किञ्चिद्वदामि द्रुतमुपनम किं मामाह सा शंस हंस !| Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः 167 इति वदति नलेऽसौ तच्छशंसोपनम्रः प्रियमनु सुकृतां हि स्वस्पृहाया विलम्बः // 134 // परवतीति / परवति ! पराधीने दमयन्ति ! स्वां न किञ्चिददामि नोपालभे किन्तु हे हंस ! दूतं शीघ्रमुपनम आगग्छ, सा दमयन्ती मा किमाह, शंस कथयेति नले वदति भ्रान्त्या पुरोवर्तिनमिव सम्बोध्य आलपति सति / असौ हंसः उपनम्रः पुरो. गतः सन् कार्यज्ञः तत् वृत्तं शशंस कथयामास / तथाहि सुकृतां साधुकारिणां 'सुक. मंपापपुण्येषु कृष' इति विप् / प्रियमनु इष्टार्थ प्रति स्वस्पृहायाः स्वेच्छाया एव बिलम्बः। न स्विग्छानन्तरं तरिसद्धेविलम्ब इति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥ 134 // हे परवश दमयन्ति ! मैं तुम्हें कुछ नहीं कहता ( अपने पिता आदिके अधीनस्थ होने से तुम्हें कोई उपालम्म नहीं देता ), 'हे हंस ! शीघ्र भावो तथा उस ( दमयन्ती ) ने मुझसे क्या कहा, कहो' ऐसा नलके कहते रहनेपर समीपमें आये हुए उस हंसने उस वृत्त को कहा। क्योंकि पुण्यात्माओंको अभीष्ट के लिए केवल अपनी इच्छाका विलम्ब होता है। [ पुण्यास्माओंको इच्छा करते ही अमोष्ट प्राप्ति हो जाती है / ] // 134 // कथितमपि नरेन्द्रश्शंसयामास हंसं किमिति किमिति पृच्छन् भाषितं स प्रियायाः। अधिगतमतिवेलानन्दमा-कमत्तः स्वयमपि शतकृत्वस्तत्तथाऽन्वाचवक्षे / / 135 // कथितमिति / स नरेन्द्रः नलः कथितमपि प्रियायाः दमयन्याः माषितं वचनं किमिति किमिति पृच्छन् हंसं शंसयामास, पुनराण्यापयामास, किं च अतिवेलः अतिमात्रो यः आनन्दः स एव माकं मृहोकाविकारो दानामधं 'मृद्धीका गोस्तनी द्राक्षे त्यमरः / तेन मत्तः सन् अधिगतं सम्यक गृहीतं तदुक्तं स्वयमपि शतकरणः शतवारं 'संख्यायाः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृस्वसुष' / तथा तदुक्तप्रकारेण अन्वाच. चक्षे अनूदितवान् / मत्तोऽप्युक्तमेव पुनः पुनर्वतीति भावः // 135 // राजा (नल ) ने 'क्या कहा, क्या कहा ?' ऐसा पूछते हुए, कहे हुए भी प्रिया (दम. यन्ती ) के समाचारको हंससे बार-बार कहलवाया / तथा मर्यादातीत आनन्दरूप दाख की बनी मदिरासे मत्त होते हुए के समान सुने हुए भी उसे ( दमयन्ती-समाचारको ) सैकड़ों बार वेसे ही अनुवाद किया ( फिर-फिर कहा) // 135 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरस्सुतं श्रोहीरस्सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् | १.'-माध्वीक-' इति पाठान्तरम् / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 नैषधमहाकाव्यम् / तार्तीयीकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 136 // श्रीहर्षमित्यादि / तृतीय एव तार्तीयीकः / 'द्वितीयतृतीयाभ्यामीकक स्वार्थे वतन्य' तस्य भावस्तत्ता तया मितस्तृतीय इत्यर्थः / शेषं सुगमम् // 36 // इति मधिनाथ सूरिविरचितायां 'जीवातु' समाख्यायां नैषध' टीकापां तृतीयः सर्गः // 3 // "GOMTV कविराज........ उत्पन्न किया, उसके मनोहर रचनारूप 'नैषधीयचरित' नामक महाकाव्य में तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। (शेष व्याख्या प्रथम सर्ग के समान जाननी चाहिये ) // 136 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित' का तृतीय सर्ग समाप्त हुमा // 3 // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् चतुर्थः सर्गः अथ नलस्य गुणं गुणमात्मभूः सुरभि तस्य यश कुसुमं धनुः / श्रुतिपथोपगतं सुमनस्तया तमिषुमाशु विधाय जगाय साम् // 1 // अथ राज्ञः स्वयंवर प्रत्युपोद्धातत्वेनास्मिन्सर्गे भैम्या मदनावस्था वर्णयितुमार. भते-अथेत्यादि / अथ भैम्या प्रियसन्देशश्रवणानन्तरं, आरमभूः कामः, नलस्य गुण आरमोत्कर्षहेतुशौर्यसौन्दर्यादिको धर्मः, तमेव गुणं मौर्यो, विधाय / सुरमि सुगन्धि, मनोज्ञन / 'सुगन्धौ च मनोज्ञे च वाच्यवन सुरभिः स्मृतः' इति विश्वः / तस्य नल. स्य, यद्यशः, तदेव कुसुमं धनुर्विधाय / तथा सुमनस्तया सुमनस्कत्वेन पुष्पत्वेन , श्रुतिपयोपगतं कर्णपथं गतं, पुनः पुनः भैम्या श्रुतमित्यर्थः / माफर्णमाकृष्टस, तं नल मेव, इपुं विधाय / तां भैमी जिगाय / तदेकासकचित्तो चकारेस्पर्थः / 'सन्लिटोजेः' इति कुस्वम् / रूपकालकारः। अस्मिन्सर्गे द्रुतविलम्बितं वृत्तम् / 'द्रुतविलम्बित. माह नभौ मरौ' इति लक्षणात् // 1 // शारदाके चरण कमलों में विनत प्रणिपातकर / राष्ट्रभाषामें लिखू नैषधचरित अनुवाद वर / पूज्य विबुधोंका सदा ही यह मनोरक्षक बने / सरलतासे छात्रगणका भी यही बोधक बने / कामदेवने कान तक पहुंचे ( पक्षान्तर में-खंचे ) हुए, नलके गुणको धनुषकी डोरी, विख्यात ( पक्षान्तरमें-मुगन्धित ) यशोरूपी फूलको धनुष और मन स्विता ( पक्षान्तरमेंपुष्पता ) होनेसे नलको वाण बनाकर उसे ( दमयन्तीको ) शीघ्र ही जीत लिया। [धनुर्धारी योदा भी कानतक प्रस्यनाको खींचकर बाणप्रहारदारा अपने प्रतिपक्षीको चौत लेता है। नकको वाण बनाकर कामदेवने दमयन्तीके हृदय में प्रहार किया, वह नकरूप बाण दमयन्ती के हश्यमें पहुंचकर बहुत पीड़ा देने लगा अर्थात् दमयन्ती नलके गुणोंको सुनकर अत्यन्त कामपीडित हो गयो ] // 1 // यदतनुज्वरभाक्तनुते स्म सा प्रियकथासरसीरसमजनम् / सपदि तस्य चिरान्तरतापिनी परिणतिर्विषमा समपद्यत // 2 // यदिति / सा भैमी, अतनुज्वरमनमज्वरम्, अधिकज्वरश, भजतीति तनाका सती / मजो ण्विः / प्रियकथैव सरसी सरः तस्यां रसो रागः, जलन तत्र मजनमा. सक्किमवगाह, तनुते स्म चकारेति यत् / 'लट् स्मे' इति भूते लट / तस्य मज्जा नस्य, सपदि चिरं दीर्घकालं, अन्तरमभ्यन्तरं, तापयतीति तापिनी, विषमा 14 नै० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 नैषधमहाकाव्यम् / उद्दीपनारिमका, परिणतिः परिपाकः, समपद्यत साता / अत एव ज्वरशान्त्यर्थाः इसमजमनात्तदुद्रेकरूपानर्थोत्पत्तेविषमालङ्कारभेदः / 'विरुदकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रान. र्थस्य वा भवेत् / विरूपघटना वा स्याद्विषमालंकृतिविधा // ' इति लक्षणात् / एतेन बादशावस्थापक्षे नवमी संज्वरावस्थोक्ता / तदुक्तं-'चतुःप्रीतिभनःसनः सङ्कल्पोऽथ प्रलापिता। जागरः कार्यमरतिर्लज्जास्यागोऽथ संज्वरः / उन्मादो मूर्छनं चैव मरण. अरमं विदुः।' इति // 2 // कामज्वर (पक्षान्तरमें-अधिक ज्वर) गीडित उस दमयन्तीने जो नल-कथारूपी तडागके जल (पक्षान्तरमें-विप्रलम्म शृङ्गार रस ) में मज्जन ( स्नान ) किया अर्थात डुबकी लगायी, उसका शीघ्र ही बहुत अधिक सन्ताप देनेवाला भयङ्कर परिणाम हो गया। [ दम. यन्तीने नलविरहमें कामज्वरसे पीड़ित होकर उसको शान्ति के लिये सखो आदिकं द्वारा नल के गुणों को प्रेमसे मना, किन्तु कामपीहा शान्त होने के बदले और अधिक बढ़ गयी। अन्य भी कोई ज्वरसे सन्तप्त रोगी सन्ताप की शान्ति के लिये तडागके जल में ( ठंढा होनेसे सन्ताप को शान्त करनेवाला समझकर ) यदि स्नान करता है, तो उसका मयङ्कर फल हो जाता है अर्थात ज्वर-सन्ताप शान्त होने के बदले अधिक बढ़ जाता है, वही दशा दमयन्ती की भी हुई ] // 2 // ध्रुवमधीतवतीयमधीरतां दयितदूतपतद्गतिवेगतः / स्थितिविरोधकरी द्वयणुकोदरी तदुदितः स हि यो यदनन्तरः // 3 / / - ध्रुवमिति / एषणुकोदरी सूचममध्या, इयं दमयन्ती, स्थितिमर्यादा गतिनि. त्तिश्च, तद्विरोधकरी, तद्विरोधहेतुमित्यर्थः / गत्युत्पत्तेस्तत्प्रागभावविरोधिस्वादिति भावः। 'कृयो हेतु' इत्यादिना हेस्वर्थे टप्रत्यये ङीष / अधीरतां चपलताम्, एकधान. वस्थानलक्षणां, दयितदूतो यः पतन् पतत्री हंसः / 'पतत्पत्ररथाण्डजा' इत्यमरः / तस्य गतिवेगतः गमनवेगावधीतवती गृहीतवती, प्राप्तवतीत्यर्थः। एतेन चापलास्यः सञ्चारी भाव उक्तः। 'चापलं स्वनवस्थानं रागद्वेषादिसम्भवम्' इति लसणात् / तस्य हंसपश्वेगजन्यस्वमुस्प्रेक्षते-ध्रुवमिति / ननु कथमन्यवेगादन्यत्र कियोत्पत्तिरित्या शंक्य यदनन्तरम्यायेन समर्थयति / योऽर्थो यस्यानन्तरस्सविहितः स तस्मादु. दित उत्पक्ष इस्युरप्रेतार्थान्तरन्यासयोरङ्गालिभावेन सकरः // 3 // कृशोदरी उस दमयन्तीने प्रिय-दूत हंसके पंखों के वेगसे ( स्त्री-) मर्यादा-विरोधिनी अधीरताको धारण किया (सीखा ) अर्थात प्रिय नल के दूत हंसके उड़कर चले जानेपर अधीर हो गयी; क्योंकि जिसके बाद जो होता है, वह उसीसे उत्पन्न समझा जाता है / [इसका उड़ना स्थिरताविरुद्ध (चंचल = अधैर्ययुक्त ) था, अत एव उसके जाने के बाद दम. यन्तीको जो अधीरता हो गई है, वह मानों उसी हंस-गमन-शिक्षासे ही उत्पन्न हुई है]॥३॥ अतितमा समपादि जडाशयं स्मितलवस्मरणेऽपि तदाननम् / अजनि पङ्गरपाङ्गनिजाङ्गणभ्रमिकणेऽपि तदीक्षणखञ्जनः // 4 // Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 201 अतितमामिति / तस्या भैम्याः आननं, स्मितलतस्य हासलेशस्य स्मरणेऽपि. किमुत करण इति भावः / अतितमामतिमात्रम् / 'किमेतिङ इत्यादिना अव्ययादा. म् प्रत्ययाः / जडाशयं मूढचित्तं, समपादि सम्पन्न, तदजं जातमित्यर्थः / 'चिण्ते पद:' इति कर्मतिक्षिण / तन्या ईक्षणमेव नयनमेव, खञ्जनः वञ्जरीटः, अपाङ्ग एव निजा. जाणं, तन्न भ्रमिभ्रमणं, तम्या: कणे लेशेऽपि सङ्गुरसमर्थः, अजनि जातः / 'दीपजन' इत्यादिना जनेः कर्तरि चिण ! घरवेगात् स्मित वीक्षणे लुपले इति भावः // 4 // ___ ( दमयन्ती ) का मख थोड़ी-सी मुस्कुराहट के स्मरण करने में भी जडनाको धारण किया (नाल-विरह से पीटित दमयन्तीने लशमात्र भी मुकुराना छोड़ दिया ) तथा उसका ने वरूपी खजन ( ख नरोट नामक पक्षी / उसके नेत्र खञ्जन पक्षी के तुल्य थे यह भी ध्वनित होता है ) नेवप्रान्त ए अपने आंगन में थोड़ा-सा भ्रमण करने में भी पङ्गु हा गया : दमयन्ती के नेत्रों ने विरह के कारण कटाक्षपूर्वक देखना भो छोड़ दिया): [अन्य मी कोई जड = Fखं शक्ति छोटो छोटी बातों को मो स्मरण करने में तथा लंगड़ा व्यक्ति अपने अर्थात् अतिनिकटवर्ती आंगन में थोड़ा भी घूमने में असमर्थ हो जाता है। नलविरह-पाडित दमयन्ती ने हंसना तथा कटाक्ष करना छोड़ दिया ] // 4 // किमु तदन्तरुभौ भिषजौ दिवः स्मरनलौ विशतः स्म विगाहितु / तदभिकेन चिकित्सितुमाशु तां मखभुजामधिपेन नियोजितौ / / 5 / / अथास्याः स्मरनलयोनिरन्तरान्तःप्रवेशमालचमोत्प्रेक्ष्यते-किम्चिति / तदभिः केन भैमीकामुकेना, 'अनुकामिकामीकः कमिता' इति निपातितः / मखभुजामधि. पेन देवेन्द्रण, तां भैमीमाशु चिकित्सितुमगदीकर्तु, नियोजितौ प्रेषितौ उभौ, दिवो भिषजौ स्ववद्यावश्विनौ, स्मरनलौ सन्तो, विगाहितुं रोगनिदानं निश्चेतुम, तस्याः दमयन्त्याः, अन्तरन्तश्शरीरं प्रविशतः स्म किम् / प्रविश्य स्थितावश्विनावेव तौ कि. मित्युप्रेता। तेनास्य मद नाश्विसमानसौन्दर्य व्यज्यते / अत्र चिन्ताख्यः सञ्चारी भा. वः सूचितः। 'प्यानश्चिन्तेपिसतानाप्तिः शून्यताश्वासतापकृत्' इति लक्षणात् // 5 // जो कामदेव तथा नलने दमयन्ती के अन्तःकरण ( हृदय ) में प्रवेश किया था, वह उस दमयन्तो के कामुक देवराज इन्द्र के द्वारा, शीघ्र चिकित्सा करने के किये ( या उसके मन्तः करण की स्थिति जानने के लिये) नियुक्त स्वर्ग के वैद्य अश्विनी-कुमार थे क्या? [यहां 'नलकी कान्ति अश्विनीकुमारके समान थी यह तथा माजा दमयन्ती-स्वयंवर में दमयन्तीको पलीरूप पाने के लिये इन्दका आगमन' वनित होता है। अन्य मी किमी सुन्दरीकाका व्यक्ति उसकी मनोवृत्ति के प्रतिकुन् , यानुकर यह जानने के लियेथ! उसके रोगी होने औपचार लगे वेचको भेजकर अपनी मनोमल पति वियो नलाग कराना कुसुम चापजतापसमाकुलं कमल कोमल मैक्ष्यत तन्नुखम् / अहरहवंहदभ्यधिकाधिका रविरुचिग्लपितस्य विधोविधाम् // 6 // Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 नैषधमहाकाव्यम् / अथ चिन्तानुभावं सन्तापं वर्णयति-कुसुमेत्यादि / कुसुमधापजेन स्मरस. मुग्थेन, तापेन समाकुलं विह्वलम्, अत एवाहरहः अहन्यहनि / अत्यन्तसंयोगे वीप्सायां द्विर्वचनम् / 'रोः सुपि' इत्यहो नकारस्य रेफादेशः। अभ्यधिकाधिका. मस्यन्ताधिकाम् / आभीचण्ये विर्भावः। रविरुचिम्लपितस्य भांशहतस्प, विधो. रिन्दोः, विधां प्रकारं, तादृशीमवस्थामित्यर्थः / अत एव सादृश्याक्षेपादसम्भवद्वस्तु. सम्बन्धानिदर्शनालङ्कारः। वहत् प्राप्नुवत् , कमलकोमलं तन्मुखमैचयत दृष्टं सखी. जनेनेति शेषः / सकरुणमिति भावः // 6 // काम-ज्वरसे पीडित उस दमयन्ती का कमल के समान कोमल मुख सूर्य के सन्ताप से दिनपर दिन क्रमशः क्षीणकान्ति चन्द्रमाके समान होता जाता था। [कृष्ण पक्षका चन्द्रमा जिस प्रकार दिनपर दिन सूर्य के धूप से फीका पड़ता जाता है, उसी प्रकार नल-विरह से काम-पीडित दमयन्ती का मुख भी संस्कारादि के छोड़ने से मलिन एवं क्षीण के रहा था] // 6 // तरुणतातपनद्युतिनिर्मितढिम तत्कुचकुम्भयुगं तथा / अनलसङ्गतितापमुपैतु नो कुसुमचापकुलालविलासजम् // 7 // तरुणतेति / तस्याः कुचावेव कुम्भौ तयोयुगं (कर्तृ), तरुणता तारुण्यमेव, तपनातिरातपस्तया निर्मितः कृतो द्रतिमा काठिन्यं यस्य तत्तथा, कुसुमचाप एव कु. लाल कुम्भकारस्तस्य विलासेन व्यापारेण जातं तज्जम्, अनलसङ्गतिः नलसनत्यभावः / क्वचित् प्रसज्यप्रतिषेधे नन्समास इष्यते / अर्थाभावेऽव्ययीभावे वा नपुं. सकरवम् / सैवानलसतिरग्निसंयोग इति श्लिष्टरूपकम, तया तापमुपैतु नो काकुः उपेयादेवेत्यर्थः / प्राप्तकाले लोट / तथा हि-आमो घटः कुलालेन दायक प्रथममातपेन पक्रवा पश्चादग्निना पच्यते / रूपकालकारः // 7 // / उस समय कामदेवरूपी कुम्हार के विलास (क्रीडा या चाहना) से उत्पन्न (बनाया गया ), तारुण्यरूप सूर्यको धुति (शोमा, पक्षान्तरमें-घाम ) से कठिन ( पक्षान्तरमें-सूखकर कड़ा) हुमा, उस दमयन्तीका स्तनरूप दो घट अर्थात् स्तन-कलश-दय मनल-संगति (मग्निका संसर्ग) भावों में पड़ने (पक्षान्तरमै नलके विरहमें रहने ) के सन्तापको नही प्राप्त करें क्या 1 अर्थात् भवश्य प्राप्त करें। [ 'कामदेव ..."उत्पन्न' यह सन्ताप का मी विशेषण हो सकता है। जिस प्रकार कुम्हार घड़ों को बनाकर उन्हें धूप में मुखानेसे कड़ा होने के बाद आग पकाता है, उसी प्रकार कामकृत युवावस्थासे कठिनीभूत घरद्वयके समान दमयन्तीका स्तनद्वय बनल ( नलका ममाव ) अर्थात नस-विरहमें सन्तप्त होते थे, यह ठीक है]॥॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 चतुर्थः सर्गः अधृत यद्विरहोष्मणि मज्जितं मनसिजेन तदूरुयुगं तदा / स्पृशति तत्कदनं कदलीतरुयदि मरुज्वलदूषरदूषितः // 8 // अश्तेति / तदा यत्तस्था ऊरुयुगं मनसिजेन विरहोमणि विरहदाहे मजितम, अमृत अवस्थितम् / पृडवस्थान इति धातोलुंङि तङ / 'हस्वादङ्गात्' इति सलोपः / कदलीतरुः, मरी मरदेशे जबजता तप्यमानेन ऊपरेणोपरक्षेत्रेण, दूषितो यदि दूषित. श्चेत् / तत्कदनं, तेनोरुयुग्मेन कदनं कलहं साम्यमित्यर्थः। स्पृशति / अत्रोपमानस्य कदलीतरोरुपमेयत्वकल्पनात् प्रतीपालद्वारभेदः / 'उपमानस्याक्षेपे उपमेयरमा करुपनं प्रतीपम्' इति लक्षणात् / उपरप्ररूढकदलीकाण्डकरुपं तदासादित्यर्थः // 8 // __ कामदेवके द्वारा ( नल ) विरहाग्निमें डाला गया उस दमयन्तीका ऊरुदय ( दोनों जांघे ) उस समय जैसा हो रहा था, यदि मरुस्थलकी बलती हुई ऊसर भूमि में झुलसा हुमा केलेका वृक्ष हो तो उस ( दमयन्तीके दोनों जङ्घाओं ) को समानता करे, [ कामपीडाजन्य सन्तापसे दमयन्तीका जघनद्वय मरुस्थलकी सन्तप्त भूमिमें उत्पन्न केलेके वृक्षके समान हो गया था] // 8 // स्मरशराहतिनिर्मितसंज्वरं करयुगं हसति स्म दमस्वसुः / अनपिधानपतत्तपनातपं तपनिपीतसरस्सरसीरुहम् / / 6 / / स्मरेति / स्मरशराहत्या निर्मितसंश्वरं जनिततापं, दमस्वसुः करयुगं (क) अनपिधानादनावरणात् (हेतोः), पतन् प्रविशन् , तपनातपः सूर्यातपः, यस्मिन् तत्तथा, तपेन ग्रीष्मेण निपीते शोषिते सरसि यस्सरसीसहं पद्म, तदसति स्म तरस हशमभूदित्यर्थः / 'हसतीय॑स्यसूयतीति दण्डिना सहशपर्याये पठितस्वात् / अत एवोपमालङ्कारः // 9 // कामदेवके बाणों के प्रहारसे उत्पन्न दाहसे युक्त. दमयन्तीके दोनों हाथ, आवरण-हीन सूर्य-सन्तापसे युक्त, घामसे सूखे हुए तडागके कमलोंको हंसते थे। [सूर्यसन्नापसे निरा. वरण सन्तप्त, सूखे तडागके कमलों की अपेक्षा कामपीडाजन्य नल-विरहसन्तप्त दमयन्तीके दोनों हाथ अधिक क्षीण कान्तिवाले हो रहे थे ] // 9 // मदनतापभरेण विदीर्य नो यदुदपाति हृदा दमनस्वसुः / निबिडपीनकुचद्वययन्त्रणा तमपराधमधात्प्रतिबध्नती // 10 // मदनेति / दमनस्वसुः, हृदा हृदयेन (का) मदनतापस्य भरेण औरकटयेन ( हेतुना) विदीर्य, नो उदपाति नोत्पतितमिति यत् , मावे लुङ / तमनुत्पतनरूप. मपराधं प्रतिषश्नती निरुन्धती, निबिपीनकुचद्वयेन यन्त्रणा बन्धः (की), अधात् / हृदयकृतापराधं स्वयमुवाहेत्यर्थः / अत्रातिदाहेऽप्यस्फुटनं हृदयस्यायुःशेष. निबन्धनं, तस्य कुचयन्त्रणानिमित्तत्वमुस्प्रेच्यते / सा च व्यक्षकाप्रयोगाद्गम्या // 10 // दमयन्तीका हृदय कामदेवजन्य सन्तापकी अधिकतासे विदीर्ण हो (फट) कर जो नहीं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 नैषधमहाकाव्यम्। उछल (बाहर निकल ) गया, उस अपराधको, रोकनेवाले सटे हुए पड़े-बड़े स्तनों के दबावने पारण किया भात सटे हुए बड़े बड़े स्तनों के बोझके कारण ही विरह-पीडामें भी दमयन्तीका हृदय फटकर टुकड़ा-टुकड़ा नहीं हो गया। [ अन्य भी कोई वस्त्र आदि इलको वस्तु वजनदार बड़े पत्थरों के दवावसे ऊपरको नहीं उड़ने पाती / अथवा-'उस अपराधको रोकनेवाले सटे हुए बड़े बड़े दोनों स्तनौने पी लिया। यह भी अर्थान्तर हो सकता है]॥१०॥ निविशते यदि शुकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यधाम / मृदुतनोतिनोतु कथं न तामवनिभृत्त निविश्य हृदि स्थितः // 11 // निविशत इति / शूकशिखा कण्टकाग्रं, पदे चरणे निविशते प्रविशति यदि 'नेर्विश' इत्यात्मनेपदम् / सा प्रविष्टा शूकशिखा / कियतीमिव व्यधां पीडाम, इव. शब्दो वाक्यालकारे / कीदृशी व्यधामित्यर्थः / न सृजति नोत्पादयति, महतीमेव मजतीत्यर्थः / अवनिभृद्राजा नलः, पर्वतश्च / स तु, हृदि निविश्य स्थितः सन् , मृदुतनोः कोमलांग्या, तां तथाविधां, व्यधां कथं न वितनोतु तनोत्ववेत्यर्थः / सम्भावनायां लोट / अत्र पदे सूचमकण्टकप्रवेशे दुस्सहा व्यथा / किमुत मृदंग्या हृदि महाप्रवेशेनेति कैमुस्यन्यायेनार्थापत्तेरापत्तिरलङ्कारः // 11 // ___ यदि पैर में शूक ( यव या गेहूँ आदि धान्योंके बालिमें होनेवाला महीन ढूंड ) का नोक मी घुस जाता है, तो वह कितनी पीडा नहीं पहुँचाता अर्थात् अत्यधिक पीडा पहुं. चाता है / तब सुकुमार शरीरवाली दमयन्तीके हृदयमें घुसकर (पूर्णतया प्रवेशकर) स्थित महीभूत ( पर्वत, पक्षान्तरमें-राजा=नल ) उस व्यथाको क्यों नहीं बढ़ावें ? [ पैर-जैसे कठिनतम अङ्गमें सूक्ष्मतम शूकका अग्रभाग भी जब व्यथा करता है, तब हृदय -जैसे कोमलतम मर्मस्थल में पूर्णरूपेण प्रविष्ट हुए पहाड़ ( पक्षान्तरमें-नल )-जैसा विशालतम कठिन पदार्थसे सुकुमार शरीरवालीकी व्यथाका अधिक बढ़ना ठीक ही है // दमयन्तीके हृदय में नल थे, अतः उनके विरहसे वह अधिक व्यथित हो रही थी ] // 11 // मनसि सन्तमिव प्रियमीक्षितुं नयनयोः स्पृहयान्तरुपेतयोः / ग्रहणशक्तिरभूदिदमीययोरपि न सम्मुखवास्तुनि वस्तुनि / / 12 / / मनसीति / मनसि सन्तं हृदि वर्तमानं प्रियमीक्षितुं स्पृहया, अन्तरुपेतयोरन्तः प्रविष्टयोरिव, इदमीययोरस्याः सम्बन्धिनोः / इदंशब्दात्यदादेः 'वृद्धाच्छः'। नयः नयोः सग्मुखं पुरोदेशः वास्तु स्थानं यस्य तस्मिन्नपि पुरोवर्तिन्यपि वस्तुनि, ग्रहण शक्तिः साक्षात्करणसामर्थ नाभूत् / नलव्यासम्मान किञ्चिदन्यदद्राक्षीदित्यर्थः। तद्ग्यासङ्गनिमित्तस्य बाझादर्शनस्य चक्षुषोरन्तःप्रवेशननिमित्तत्वमुस्प्रेक्षते / चिन्तैव सधारी भावः॥१२॥ मनमें स्थित प्रिय नलको देखनेके लिए मानों भीतरको घुसी (चिन्तासे भीतरकी ओर 1. 'ग्यथाम्' इति पाठान्तरम् / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 205 धंसी ) हुई दमयन्तीकी आँखोंको सामने पड़ी हुई वस्तुओंको भी देखनेका सामथ्र्य नहीं रहा। [चिन्ताके कारण दमयन्तीकी आँखें भीतर धंस गई थीं तथा वे सामने मी पड़ी हुई वस्तुओं को नहीं देख सकती थीं ] // 12 // हृदि दमस्वसुरश्रुझरप्लुते प्रतिफलद्विरहात्तमुखानतेः / हृदयभाजमराजत चुम्बितु नलमुपेत्य किलागमितं मुखम् // 13 // हृदीति / विरहेणात्ता प्राप्ता मुखानतिर्यया सा तस्या नम्रमुखायाः दमस्वसुः मुखम् / अश्रुझरेणाप्रवाहेण, प्लुते सिक्ते, हृदि हृदये, प्रतिफलत् प्रतिबिम्बितं सत् , हृश्यमा हृदि स्थितं, नलं चुम्बितुमुपेत्य गत्वा, आगमितं सातागमनं किल, प्रत्यागतमित्युत्प्रेक्षा / तारकादित्वादित च / किलेति सम्भावनायाम् / वातासम्माययोः किल' इत्यमरः / अराजत रराज / सम्भावनायामुत्प्रेक्षा // 13 // ( नल-) विरहसे नीचेकी ओर मुख की हुई दमयन्तीकी आँसुओं के प्रवाह (अश्रुधारा) से मांगे हुए हृदयमें ( छातीपर पड़ी हुई आँसुओंकी बूंदों में ) प्रतिबिम्बित उस दमयन्तीका मुख, मानो हृदयस्थित नमको चुम्बन करने के लिये पास गये हुएके समान शोभायमान होता था। [चिन्तासे नोचेकी ओर मुख किये दमयन्ती रो रही थी, अश्रु प्रवाह-जन्य बूंदें छाती पर पड़ी हुई थीं, उनमें उसका मुख प्रतिविम्बित हो रहा था, उसे देखनेसे मालूम होता था कि हृदय में रहनेवाले प्रियतम नलके पास जाकर दमयन्तीका मुख चुम्बन कर रहा है ] // 13 // सुहृदमग्निमुदञ्चयितुं स्मरं मनसि गन्धवहेन मृगीदृशः। अकलि निःश्वसितेन विनिर्गमानुमितनिह्नत वेशनमायिता / / 14 // सुहृदमिति / गन्धवहन बाह्यवायुना, सुहृदं मखायम् / 'रोहिताश्वो वायुसखः' इस्यग्नेर्वायुसखस्लाभिधानात् / मृगीदृशः भैम्याः, मनसि, स्मरमेवाग्निमुदचयितु. मुद्दीपयितुं, निःश्वसितेन निःश्वासवातम्याजेन, विनिर्गमेण बहिनिस्सारणेन, अनु. मितं निहतं, प्रागज्ञातं, यद्वेशनमन्तःप्रवेशस्तन मायिता मायाविस्वम् / तस्कल्प. नापाटवं नीहादिस्वादिनिः / अकलि कलितं प्राप्तम, नूनमिति शेषः / अनिदो हि गूढं प्रविश्य प्रकाशं निर्गच्छति, तद्वदायुरपि याङनिःश्वासध्याजेन तथा कृत्वा निर्गत इत्युत्प्रेक्षा // 14 // ___मृगनयनी दमयन्तीके निःश्वासरूपी मलय-वायुने दमयन्ती के हृदयमें रहनेवाले ( या कैद ) मित्रभूत कामाग्निको उत्तेजित करने ( या बाहर निकालने ) के लिये बाहर निकलने पर अनुमान किये गये गुप्तरूपमे मीतर प्रवेशरूप मायाको धारण किया। [ 'अग्निका वायु मित्र है' यह सर्वविदित है, अतः मित्र होने के कारण दमयन्तोके हृदयरूप जेल में कैद कामा. ग्निको छुड़ाने के लिये या उसको उत्तेजित करने के लिये दमयन्तीका सुगन्धित निःश्वासरूप वायु चुपचाप उसके हृदयमें भीतर प्रवेशकर जब बाहर निकलने लगा तब उसका गुप्त 1. 'किलागमि तन्मुखम्' इति पाठान्तरम् / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 नैषधमहाकाव्यम्। रूपसे प्रवेश करनेका कपटाचरण लोगों को मालूम पड़ा। अथवा परमसुगन्धित मलयवायु कामदेवका मित्र है, अतः सर्वदा विरहियों के काम को वह उत्तेजित करता (बढ़ाता ) है, दमयन्तीका सुगन्धित निःश्वास मलयवायुके समान कल्पित किया गया है। दूसरा मी कोई जेल या हवालात भादिमें बन्द मित्रको छुड़ाने के लिये अवसर पाकर चुपचाप उसके पास पहुँचकर उसे छुड़ानेकी चेष्टा करता है और ना बाहर निकलते हुए उसे कोई देख लेता है तो उसके गुप्तरूपसे मीतर प्रवेश करने के मायाचारको जान जाता है / दमयन्तीके निःश्वास के साथ ही उसका कामसन्ताप भी बढ़ गया ] // 14 // विरहपाण्डिमरागतमोमषीशितिमतन्निजपीतिमवर्णकैः / दश दिशः खलु तदृगकल्पयल्लिपिकरी नलरूपकचित्रिताः / / 15 / / विरहेति / तस्या दमयन्स्याः , राष्टिरेव, लिपिकरी चित्रकरी, विरहेण पाण्डिमा शरीरश्वैत्यं, रागोऽनुरागः, स एव रागो रकिमा। श्लिष्टरूपकम् / तमो मोहस्तदेव मषी तस्याः शितिमा नीलिमा / तस्या भैम्याः,निजो नैसर्गिकः पीतिमा कनकवर्णः, चतुर्णा इन्दः, तैरेव वर्णकः चित्रसाधनः, दश दिशस्ता एव मित्तीरिति शेषः / नलस्य रूपक प्रतिकृतिभिः चित्रिताः सातचित्राः, तारकादिवादितच / अकल्प. यदपजत्खलु / निरन्तरचिन्ताजनितया भ्रामस्या प्रतिदिशं मिथ्यानलानद्राक्षी. दित्यर्थः // 15 // - दमयन्तीकी दृष्टिरूपिणी चित्रकारिणी ( चितेरी-चित्र बनानेवाली ) ने ( उसके शरीर में ) विरहसे उत्पन्न पाण्डुरता, राग ( लाल रज, पक्षान्तरमें-अनुराग ), मूच्र्छारूपी स्याही की कालिमा (काला रक) और सर्वप्रसिस ( स्व-देह-सौन्दर्यरूप ) पीलापन (पीला रङ्ग); इन रजसे दशो दिशाओंको (सब ओर ) नळके चित्रोंसे चित्रित कर दिया। दूसरी कोई चितेरी भी श्वेत, लाल, काले और पीले रगोंसे सब भोर चित्र बना देती है // नलविषयक अनुरागके कारण विरहसे दमयन्तीके शरीर में पाण्डुता, मूच्र्छा म दि विकार होने लगे और उसे सब बोर नल ही दिखलाई पड़ने लगे] // 15 // स्मरकृति हृदयस्य मुहुदेशां बहु वदन्निव निःस्वसितानिलः / व्यधित वाससि कम्पमदः श्रिते त्रसति कः सति नायबाधने // 16 // स्मरकृतिमिति / निःषसितानिलः, स्मरकृति मदनकर्तृकसृष्टिरूपा, हृदयस्य हस्पि. ण्डस्य, दशामवस्था, बहु बहुवारं (क्रियाविशेषणम् ), वदग्निव एवं कम्पत इति कथयनिवेत्युस्प्रेक्षा / अदो हृदयं, श्रिते वाससि, कम्पनळनं, तरकारणं त्रासन, मुहः ज्यधित विहितवान् / दधातेलहिता। 'स्थाध्वोरिच' इतीकारः / 'हस्वादनात्' इति सिचो लोपः। तथा हि-आश्रयबाधने सति, को नाम न सति / सर्वोऽपि सत्येवे. त्ययः। तद्वाधे तदाश्रितस्य स्वस्थापि बाधादिति भावः। भर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः॥ ( दमयन्तीकी ) निःश्वासवायु उसके हृदयकी कामजन्य दशा ( पीडा, अवस्था ) को बार-बार अधिक कहती हुईके समान (दमयन्तीके) हृदयपर स्थित वस्त्रको कम्पायमान करने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 207 लगी। ठीक है-आश्रयको पीडा होनेपर कौन नहीं डर जाता अर्थात् सभी डर जाते हैं / [विरहावस्थासे उत्पन्न निःश्वासाधिक्य के कारण हृदयस्थित वन अधिक कम्पित होने लगा, हृदय के कम्पित होने पर उसपर स्थित वस्त्र मी कम्पित होने लगा। एवं जो कोई व्यक्ति किसीकी अवस्थाको कहने लगता है, तब उसके ओष्ठ आदि अङ्ग कम्पित होने ही लगते हैं। दमयन्तीका निःश्वास तथा हृदय कम्पन विरहके कारण बहुत बढ़ गया ] // 16 // करपदाननलोचननामभिः शतदलैः सुतनोविरहन्वरे / रविमहो बहुपीतचरं चिरादनिशतापमिषादुदसृज्यत / / 17 / / करेति / करौ पदे आननं लोचने इति नामानि येषां तैः, तदाकारपरिणामात. नामधारिभिः शतदलैः कुशेशयैः (कर्तृभिः) चिरात् चिरात्प्रभृति, पोतचरं रसव. शात् पूर्वपीतं, भूतपूर्वे चरटप्रत्यथः / बहु भूरि, रविमहः सूर्यतेजः, सुतनोः, दमयस्याः, विरहज्वरे वरावस्थायां, अनिशतापमिषानिरन्तरोष्मण्याजात् , उदपुज्यत उत्सृष्टम् / नूनमिति शेषः / अत्र पद्मानां भैमीकरचरणादिभ्यो नाममात्रभेदः। न रूपभेद इत्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिः / तन्मला चेयं पूर्वपीततेजोवमनोरप्रेक्षा। सा च तापण्याजादित्यपह्नवानुप्राणितेति सङ्करः॥ 17 // सुन्दर अङ्गोवाली दमयन्तीके ( नल- ) विरहजन्य ज्वर ( सन्ताप) में हाथ, पैर, मुख तथा नेत्ररूप कमल मानो पहले अधिक मात्रामें पीये हुए सय-सन्तापको बहुत समयके बाद निरन्तर सन्ताप (विरहजन्य सतत ज्वर ) के बहानेसे छोड़ने (वमन करने) लगे / [ सर्वा सुन्दरी दमयन्तीके हाथ, पैर, मुख तथा नेत्र कमलके समान या कमलरूप ही हैं, कमलों का निरन्तर सूर्य-सन्तापसे विकसित होना स्वभाव-सिद्ध है, अतः सूर्यतापको दमयन्तीके हाथ-पैर आदि कमलों के द्वारा पहले पीनेकी तथा अधिकताके कारण बादमें बिरहजन्य ज्वर के न्याजसे वमन ( उल्टी) करने की कल्पना की गयी है। अन्य भी कोई व्यक्ति यदि किसी वस्तुको अधिक प्रमाणमें पीता है, तो उसे बाद वमन कर देता है। विरहज्वरसे दमयन्ती के कमलतुल्य हाथ पैर आदि अङ्ग अधिक सन्तप्त होने लगे ] // 17 // उदयति स्म तदद्भुतमालिभिर्धरणिभृद्भुवि तत्र विमृश्य यत् | अनुमितोऽपि च बाष्पनिरीक्षणाद्वयभिचचार न तापकरो नलः / / उदयतीति / आलिभिः सखीभिः, तत्र तस्यां, धरणिभृतो भीमभूपाद्भवतीति तद्भः भैमी तस्यां पर्वतभूमौ च विमृश्य ग्याप्तिमनुसन्धाय, बाष्पनिरीक्षणादश्र. लिङ्गदर्शनात् / अन्यत्र, धूभदर्शनात् / 'बाष्पोऽण्यम्बुधूमे च' इति वैजयन्ती / अनुमितः अभ्यूहितः, अन्यत्र लिङ्गभाप्तावधारितोऽपि तापकरः सन्तापजनका, नलो नैषधः, अन्यत्र अनलोऽग्निः, न व्यभिचचार नान्यया बभूवेति यत् , तदभुः तमुदयति स्म उत्पसमित्यर्थः। 'अय गतौ' इति धातोर्भूते लट् / नलचिन्ताजन्यो. ऽयं सन्ताप इत्यथ दर्शनारसखीभिरूहितमहो इति परमार्थः। अग्रवाष्पलिङ्गदर्श Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 नैषधमहाकाव्यम् / नादनलज्ञानम् / तवान्यभिचारीति स्फरतो विरोधस्या लिङ्गारसन्तापकरो नलो निश्चित इत्यभासीकरणाविरोधाभासः / स च श्लेषानुप्राणितः। सन्तापकरो नल इति शब्दश्लेषः / अन्यत्रार्थश्लेषः / अपिर्विरोधे // 18 // सखियों के द्वारा उस राजकुमारी ( पक्षान्तरमें-पर्वतभूमि ) में बाष्प (आंसू , पक्षा. न्तरमें--भाप ) को देखनेसे विचार किया गया सन्तापकारक नल ( पक्षान्तरमें-अनल= अग्नि ) का अनुमान जो व्यभिचरित नहीं हुआ (ठीक निकला ) यह आश्चर्य है / [ जैसे पर्वतकी भूमिमें भाप देखकर किया गया अग्नि-विधयक अनुमान आश्चर्यजनक होता है, वैसे ही बाष्प देखनेसे अनुमित सन्तापकारकत्व भाश्चर्यजनक है। दमयन्ती का रोना देखकर उसकी सखियोंने जो 'नल-विरहके कारण यह रो रही है' अनुमान किया, यह आश्चर्य है / पहले पाण्डुता आदिसे और बाद में रोनेसे बिना बतलाये ही सखियों द्वारा नलविरह जन्य सन्तापका अनुमान करना आश्चर्यजनक है ] // 18 // हृदि विदर्भभुवं प्रहरन् शरै रतिपतिनिषधाधिपतेः कृते | कृततदन्तरगस्वदृढव्यथः फलदनीतिरमूर्च्छदलं खलु // 16 // हृदीति / निषधाधिपतेः कृते नलस्यार्थ, तत्प्रहारार्थमित्यर्थः। 'अर्थे कृते चशब्दो द्वौ तादध्येऽव्ययसंज्ञितौ' इति वचनात् / विदर्भभुवं दमयन्ती, शरहदि प्रहरन् , नलस्य सदा तद्गतरवादिति भावः / रतिपतिः कामः, कृता तदन्तरगस्य भैमीहृदतस्य स्वस्य दृढव्यथा येन सः, स्वयमपि तद्गतत्वात् प्रहृतः समित्यर्थः। फलन्ती अनीतिदुनौतिर्यस्य सोऽलमत्यन्तममूर्च्छदवर्धत खलु / अमुह्यदिति 1 गम्यते / 'म मोहसमुच्छ्राययोः' इत्यनुशासनात , तदभेदेन मूछोलक्षणकार्यदर्शनादतिपतेः स्मरस्थापि प्रहार उत्प्रेक्ष्यते व्यक्षकाप्रयोगादग्या / सा च श्लेषमलातिशयो. क्युस्थापितेति सङ्करः। परप्रहारोद्यतस्य स्वप्रहाररूपानर्थोत्पत्तेविषमभेदश्च व्यज्यते // ___ निषधराज नलको लक्ष्यकर दमयन्तीके हृदय में बाणों से प्रहारकर दमयन्ती हृदय-स्थित अपनेको ही अधिक व्ययित करनेसे दुनीतिका फल पानेवाला कामदेव अत्यन्त मूच्छित हो गया ( पक्षा० में बढ़ गया)। [ कामदेवको नलने अपनी शरीरशोमासे जीत लिया था, अतः वह कामदेवका शत्रु बन गया। दमयन्तीके हृदयमें स्थित नलको लक्ष्यकर दमयन्तीके हृदय में बाणोंसे प्रहार करनेवाला कामदेव वहां स्वयं भी स्थित होने के कारण स्वयं ही बहुत घायल होकर मूञ्छित हो गया, यह उसने अपनी दुनौतिका फल पाया। नलको मारनेके लिये दमयन्तीके हृदय में प्रहार करना भारी दुनीति है, क्योंकि शत्रुको छोड़कर दूसरेपर प्रहार करना अनुचित है, अतएव इस दुनीतिका फल कामदेवको स्वयं भोगना पड़ा। अन्य कोई योद्धा किसी दुर्ग भादि गुप्त स्थानमें छिपे हुए शत्रुपर वहां जाकर आत्मरक्षाके बाद ही प्रहार करता है, किन्तु कामदेव वैसा न कर सकने के कारण (आत्मरक्षाऽमावरूपी) दुर्नीति का स्वयं शिकार बन गया। दमयन्तीकी कामजन्य पीडा बढ़ गई। अथवा-शत्रुका Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 206 आश्यदाता भी शत्रु हो जाता है, अतः नलको हृदय में आश्रय देनेवाली दमयन्ती भी कामदेवका शत्रु बन गयी। इस कारण दमयन्तीके हृदयमें प्रहार करने से उस कामदेवकी नीति सफल हो गयी। और वह वहां स्वयं वृषिको (विजय) को प्राप्त किया। यह वास्तविक फलितार्थ ध तु के दूसरे अर्थ में होता है ] // 19 // / विधुरमानि तथा यदि भानुमान् कथमहो स तु तद्धृदयं तथा / अपि वियोगभरास्फुटनस्फुटीकृत दृषत्त्वमजिज्वलदंशुभिः // 20 // विधुरिति / तया दमयन्त्या, विधुश्चन्द्रः, भानुमान् सूर्यः, अमानि मेने यदि, विरहिणस्ता चित्रम् / किन्तु, सः सूर्यस्वामिमतो विधुः, बियोग एव भरो भारस्ते. नापि यदस्फुटनमविशरणं, तेन स्फुटीकृतं दृषत्वं सूर्योपलवं यस्य तत् / अन्यथा तिभाराखोष्टादिबद्विशीर्यतेति भावः / तदयमपि भैमीहृदयरूपं सूर्यकान्तम पीत्यर्थः / कथं तथा सूर्यवत् अंशुभिः स्वतेजोमिः, अजिज्वलत् ज्वलयति स्म / ज्यलतेो चङ / अहो विधुविरहिणामुद्दोपकस्वात सूर्यवत्तपतु नाम / तदकोंपलज्वल. यितृत्वं तु चित्रमित्यर्थः // 20 // ____ यदि (विरहावस्थामें चन्द्रमाको देखकर सन्ताप बढ़ने के कारण ) दमयन्तीने चन्द्रमाको सूर्य मान लिया है, किन्तु वह ( सूर्य माना गया वास्तविक चन्द्रमा) वियोगकी अधिकता (पक्षान्तर में-अधिक बोझ ) से नहीं विदीर्ण होने (पक्षान्तरमें-फूटने) के कारण अपनेको पत्थर अर्थात् सूर्यकान्त मणि स्फुट ( प्रमाणित ) करनेवाले दमयन्ती हृदयको उस प्रकार ( अत्यधिक प्रमाणमें ) क्यों सन्तप्त कर रहा था ? [ चन्द्रमा विरहि विरहिणियोंका सन्तापकारक होनेसे विरहिणी दमयन्तीके लिये भो सन्ताप-कारक हो रहा था, इसी कारण वह चन्द्रमाको सूर्य मानती थी; किन्तु बह अवास्तविक सूर्य ( वास्तविक रूपमें चन्द्रमा) विरहभारसे मी अविदीर्ण ( अन्यथा यदि पत्थर नहीं होता तो दवावसे फूटकर चूर्ण हो जाता और सामान्य जातीय पत्थर होने पर भी अधिक सन्तप्त नहीं होता फिर ) दमयन्ती-हृदयरूप सूर्यकान्त मणिको क्यों सन्तप्त कर रहा था ? यह आश्चर्य है / जो सूर्य नहीं, अपितु चन्द्रमा है, वह सर्य माननेमात्रसे सूर्यकान्त मणिको कदापि सन्तप्त नहीं कर सकता, अतः वह वस्तुतः चन्द्रमा नहीं, किन्तु सूर्य ही है // विरहिणी दमयन्तीके हृदयको चन्द्रमा अत्यधिक सन्ताप दे रहा था ] // 20 // हृदयदत्तसरोरुह्या तया क सहगस्तु वियोगनिमग्नया / प्रियधनुः परिरभ्य हृदा रतिः किमनुमतुमशेत चितार्चिषि / / 21 / / हृदयेति / वियोगनिमग्नया विरहाग्निमग्न या, अत एव हृदयदत्तसरोरुहया स. तापशान्तये वक्षोनिक्षिप्तपद्मया, तया समाना हश्यत इति सहक सहशी स्त्री 'समाना. न्ययोश्च' इत्युपसण्यानारसमानोपपदादृशेः किन्प्रत्ययः / 'म्हशवतुषु' इति समानशब्दस्य सभावः / वास्तु न कापीत्यर्थः / यद्वा रतिः कामपरनी, हृदा वक्षसा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 नैषधमहाकाव्यम् / प्रिवस्य स्वमर्तुः, धनुःपौष्पमित्यर्थः परिरभ्य, अनुमर्तुम् अनुगमनं कतु, चितार्चिपि, अशेत शयिता किम् / प्रियमनुमतु चितार्जिषि शयाना साक्षादतिरेवेयमित्युस्प्रेक्षा। तज्ज्वराग्निस्तथा प्रज्वलतीति भावः // 21 // विरहमें निमग्न (अत एव तज्जन्य सन्तापको शान्ति के लिये ) हृदयपर कमलको रखी हुई उस दमयन्तीके समान कहांपर (किस संसार में ) कोई स्त्री है ? / प्रिय (काम-) धनुषको हृदयसे मालिङ्गन ( हृदयपर रख) कर रति प्रियतम ( कामदेव ) के पीछे मरने के लिये चिताग्निपर सोई थी क्या ? अथवा-..."सोई है क्या ? [ दमयन्ती की स्वस्थावस्थामें कहींपर कोई भी स्त्री उसके समान सुन्दरी नहीं ही थी, किन्तु नल विरहसे क्षीणकान्ति होकर शय्यापर पड़े रहनेको अवस्थामैं भी उसके समान कोई स्त्री नहीं थी, इतना ही नहीं, अपि तु सर्वसुन्दरी रति भी उस दमयन्तीकी समता उस क्षीणावस्थामें भी नहीं कर सकी; क्योंकि दमयन्ती तो जीवित मी प्रिय (नल ) के विरह होनेसे विरहरूप चिताग्निपर सोकर मरने के लिये तैयार हो गई थी, किन्तु प्रिय कामदेवके भस्मावशेष हो जानेपर भी रति उसके कमल = पुष्परूप धनुषको हृदयसे आलिङ्गनकर उस प्रियके पीछे मरने ( सती होने ) के लिये चिताग्निपर नहीं सोई थी भतएव रति मी दमयन्तीकी समानता नहीं कर सकी / अथवा-विरह-सन्तापकी शान्ति के लिये हृदयपर कमलपुष्प रखकर सोई हुई दमयन्तीको देखकर सखोजन आदिको शला हो जाती थी कि-'प्रिय कामके विरह से उसका कमल-पुष्परूप धनुष हृदयपर रखकर सती होने के लिये रति ही चिताग्निपर सोई है क्या ? // दमपन्ती विरहजन्य तापकी शान्तिके लिये शीतल कमलपुष्पको हृदयपर रखकर लेटी हुई थी ] // 21 // अनलभावमियं स्वनिवासिनो न विरहस्य रहस्यमबुद्धयत | प्रशमनाय विधाय तृणान्यसून ज्वलति तत्र यदुज्झितुमैहत // 22 // अनलभावमिति / इयं दमयन्ती, स्वनिवासिनः स्वनिष्ठस्य, विरहस्य नलवियो. गस्य, रहस्यं शमीवहिवनिगूढम्, अनलभावमग्निवं, नलरहितवश गम्यते / नाचु. यत नाजानादिस्यर्थः / कुतः, ययस्मात् , तत्र तस्मिन्विरहे, ज्वलति सति, प्रशम. नाय प्रज्वलनप्रतीकारार्थम् , असन् , तृणानि विधाय तृणप्रायान् कृत्वा तणा. स्मकानिति गम्यते / उज्झितुं त्यक्तुं प्रक्षेप्तुश। ऐहत ऐच्छत् / अग्नित्वज्ञाने कथं सच्छान्तये तत्र तृणप्रक्षेप इत्यर्थः। विरहदुःखान्मर्तुमैग्छदिति तात्पर्यार्थः // 22 // उस दमयन्तीने अपने में स्थित विरहको अनलभाव (अग्नित्वरूप, पक्षान्तरमें-नके अप्राप्तिरूप ) रहस्यको नहीं समझा, क्योंकि उस अग्निके जलते रहनेपर ( पक्षान्तरमेंविरहके बढ़ते रहनेपर ) उसकी शान्ति के लिये उप्तमें प्राणों को तृण बनाकर छोड़ना चाहा / अथवा-उस दमयन्तीने अपने में स्थित विरह-नलका दुलं मत्वरूप रहस्यको नहीं समझा ? अर्थात् अवश्य समझा क्योंकि (उस नलको दुर्लभताको समझ कर ही अन्य उपाय न होनेसे) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 211 उस विरहकी शान्ति के लिये अपने प्राणों को तृणों के समान मानकर छोड़ना चाहा ( जीनेकी अपेक्षा मरना ही अच्छा समझा / अथवा-अपने पासमें रहनेवाले के रहस्यको मनुष्य अवश्य समझता है, अतएव दमयन्तीने मी नलाभावरूपी विरह-रहस्य को समझकर अपने प्राणों को तृण (तुच्छतम ) मानकर प्रशमन (प्र+शमन-उद्दण्ड + यमराज अर्थात् क्रूर यमराज ) के लिए देना चाहा / [प्रथम पक्षमें-यदि दमयन्ती अपने में निवास करनेवाले विरहके अग्नित्वरूप रहस्यको समझती तो उसकी शान्तिके लिए प्राणोंको तृण बनाकर नहीं छोड़ती, क्योंकि कोई भी समझदार व्यक्ति अग्निकी शांति के लिये उसके जलते रहने पर उसमें तृण नहीं छोड़ता / दमयन्ती नलको दुर्लभ समझकर मृतप्राय हो गयी ] // 22 // प्रकृतिरेतु गुणस्स न योषितां कथमिमां हृदयं मृदु नाम यत् / तदिषुभिः कुसुमैरपि धुन्वता सुविवृतं विबुधेन मनोभुवा / / 23 / / प्रकृतिरिति / योषितां हृदयं मृदु नामेति यत् / नामेति प्रसिद्धौ। स इति विधेयप्राधान्यात् पुंल्लिङ्गता / प्रकृतिः प्रकृतिसिद्धः,गुणो मार्दवगुणः, इमां दमयन्ती कथं नैतु प्राप्नोत्ववेत्यर्थः / कुतः ? तन्मृदुवं कुसुमैरपि इषुभिः, धुम्वता विबुधेन देवेन विदुषा च मनोभुवा, सुविवृतं सम्यग्ज्याण्यातम्, विदधिकारवारसन्दिग्धा. थनिणंयस्येत्यर्थः / कुसुमादपि सुकुमारमस्या हृदयमित्यर्थः // 23 // 'क्यों स्त्रियोंका हृदय कोमल होता है। यह प्रसिद्ध है / यह (स्त्रियोंका) स्वामाबिक गुण दमयन्तीरूप स्त्रीको भी क्यों न प्राप्त हो अर्थात् प्राप्त ही हैं। इस वातको पुष्पबाणों से भी कम्पायमान ( 'दुन्वता' पाठभेदमें-पीडित ) करते हुए देवता ( पक्षास्तरमें-विशिष्ट विद्वान्) कामदेवने अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया [सर्व देवता या विशिष्ट विद्वान् ही किसी बातको मुस्पष्ट कर सकता है, वैसे कामदेवने मी अतिसुकुमार पुष्प-बाणोंसे दमयन्ती हृदयको कम्पित या पीडितकर उक्त बातको सुस्पष्ट कर दिया, अन्यथा यदि दमयन्तीका हृदय फूलोंसे भी अधिक कोमल नहीं होता तो वह फूलों के बाणोंसे कम्पित या पीड़ित कदापि नहीं होता] / रिपुतरा भवनादविनिर्यतीं विधुरुचि हजालबिलैर्नु ताम् / इतरथात्मनिवारणशङ्कया ज्वलयितुं बिसवेषधराविशत् // 24 // रिपुतरेति / रिपुतरालिद्वेषिणी, विधुरुचिश्चन्द्रप्रभा, भवनादविनियंतीमनिर्ग: छन्ती, इश्शतरि ङोप / तां भैमी ज्वलयितुं सन्तापयितुं, इतरथा निजरूपेण प्रवेशे आत्मनिवारणशक्या / स्वप्रवेशप्रतिषेषभिया, बिसवेषस्य धरा सती, गृहस्य जालबिलैर्गवाचरन्धेः, अविशन्नु प्रविष्टा किम् / शिशिरोपचारबिसाकुरा निरन्त. रान्तःस्थितभैमीबाधनाय प्रच्छन्न प्रविष्टेन्दुकरा इव प्रविमान्ति स्मेस्युस्पा // 24 // (विरहके कारण दमयन्तीको भतिशय पीडित करनेसे ) प्रबल शत्रुभूत चाँदनी, घरसे (बाहर ) नहीं निकलती हुई दमयन्तीको सन्ताप देने के लिये अन्यथा ( अपने वास्तविक रूपमें घरके मुख्य द्वारसे प्रवेश करनेपर ) अपने निवारण ( रुकने ) की शंकासे (दमयन्तो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 नैषधमहाकाव्यम् / सन्ताप-शांतिके लिए उसकी सखियों द्वारा लाये गये) कमल-नालका रूप धारणकर घरको खिड़कियों के बिलोंसे प्रवेश किया क्या ? [ अन्य मी कोई प्रबल शत्रु अपने प्रतिपक्षीको भारने के लिये अपने वास्तविक वेषको धारणकर द्वारमार्गसे आने के समय अपनी रुकावटकी आशंकाकर अपना वेष बदलकर खिड़की आदिके मार्गसे घरमें घुसकर भयसे घरसे बाहर नहीं निकलनेवाले प्रतिपक्षीपर प्रहार करता है / खिड़कियों के बिलोंसे घरमें प्रवेश करती हुई चाँदनी हृद्गत कमल-नालके समान मालूम पड़ती थी, और उसे देखकर विरहजन्य क्षीणतासे घरसे बाहर नहीं निकल सकने वाली दमयन्तीको पीडा हाती थी ] // 24 // हृदि विदर्भभुवोऽश्रुभृति स्फुटं विनमदास्यतया प्रतिबिम्बितम् / मुखहगोष्ठमरोपि मनोभुवा तदुपमाकुसुमान्यखिलाः शराः / / 25 // हृमीति / विदर्भभुवो वैदाः , विनमदास्यतया नम्राननत्वेन (हेतुना) अभ्रणि बिभर्तीत्यश्रभृत् , विप / तस्मिन्नसिक्त इत्यर्थः / हृदि वसि, वैमख्यात् स्फट यथा तथा प्रतिबिम्बितं, मुखं च दशौ च ओष्ठश्च मुखहगोष्ठम् / प्राण्यङ्गत्वादेकव. द्भावः / मनोभुवा कामेन, नस्य मुखादेः उपमाकुसुमानि पद्यम् उत्पले बन्धूक च पञ्चधा स्थितान्युपमानपुष्पाणि तान्येव अखिलाः पश्चापि शराः सदरोपि रोपितम्। तस्यास्तथाविधे वांसि प्रतिफलितं मुखाधवयवपञ्चकं पञ्चशरनिखातम्, तदुपमानः कुसुमशरपञ्चक मिवालच्यतेत्युत्प्रेकार्थः // 25 // ___ अश्रुयुक्त दमयन्तीके हृदयमें (छातीपर ) उस दमयन्तीके भुखके नम्र होनेसे प्रति. बिम्मित उसका मुख, दोनों नेत्र तथा दोनों ओष्ठ (1+2+2=5) रूप उनके उपमानमूत सब ( पांचों) पुष्प-बाणोंको मानो कामदेवने सचमुच ही गड़ा दिया था। [ कामदेवके पुष्पमय पाँच बाण हैं, दमयन्ती के मांसूसे भोगे हुए हृदय पर प्रतिविम्बित उसका कमलतुल्य मुख, नील-कमल-तुल्य दोनों नेत्र, तथा दुपहरियाके फूलके समान दोनों मोठ-इस प्रकार मुख, नेत्र तथा पोष्ठ के उपमानभूत पांचों पुष्पमयबाण कामदेव द्वारा विरहिणी दमयन्तीके अश्रुबुक्त हृदयमें गड़ाये गये मालूम पड़ते थे। दमयन्ती विरहमें अत्यधिक रोती तथा मुखका नीचे किये रहती थी ] // 25 // विरहपाण्डुकपोलतले विधुळधित भीमभुवः प्रतिबिम्बितः / अनुपलक्ष्यसितांशुतया मुखं निजसुखं सुखममगार्षणात् // 26 / / विरहेति / विधुः, भीमभुषः भैम्याः, विरहेण पाण्डुनि कपोलतले गण्डस्थले, प्रतिबिम्बितः सन् , अनुपलच्यसितांशुतया सावात् दुलंच्यशुभ्रकिरणतया, सुखमनायासेन, अङ्कमृगार्पणादसितकलङ्कमगसमर्पणात् , मुखं भैमीमुखं निजसखं स्वसदृशं, व्यधित विहित वानू / दोषिणो हि स्वदोषं निषेऽपि स्वसंसगिणि सक्रमय्य समीकुर्वन्तीति भावः। केचिस्किञ्चिदानेनामित्रं मित्रं कुर्वन्तीति भावं वर्णयन्ति / अत्र चन्द्रस्य कपोल पावण्यन तदेकत्वकथनात् सामान्यालङ्कारः। 'सामान्यं गुणसाम्येन यन्त्र वस्त्वन्तरैकता' इति लक्षणात् // 26 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 213 विरहसे पाण्डुवर्णवाले दमयन्तीके कपोल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा (विरह जन्य) दमयन्ती मुखको श्वेततामें अपनी श्वेत किरणों ( या श्वेत भाग ) को नहीं मालूम पड़नेसे अपने कलङ्करूप मृग-चिह्नको समर्पणकर उम दमयन्ती के मुखको मित्र बना लिया। [ पहले दमयन्तीका मुख गौरवर्ण था तथा उसमें श्वेतवणं चन्द्रमा प्रतिविम्बित होता था तो स्पष्ट मालूम पड़ जाता था, अर्थात् दमयन्तीको स्वप्नावस्थामें उसका मुख चन्द्रमासे भो अधिक सुन्दर था; किन्तु इस समय विरहावस्थामें मुख पाण्डवर्ण हो गया है और उसमें प्रतिबि. म्बित पाण्डुवर्ण चन्द्रमा समानवर्ण होनेसे पृथक मालूम नहीं पड़ता, केवल उसका कलङ्कभूत मृगचिह्न मालूम पड़ता है। अन्य मी कोई चतुर व्यक्ति अपने विजेताको कोई उपहार (भेट) देकर उसको अपना मित्र बना लेता है, यहांपर चन्द्रमा अपना मृगचिह्नरूप कलङ्क दम. यस्तों के मुखको देकर उसको अपना मित्र बना लिया अर्यात् उसके मुखके समान हो गया। अथवा अन्य कोई व्यक्ति अपने दोषको दूसरे में भी लगाकर उसे अपने समान दोषयुक्त बना लेता है, वैसे चन्द्रमाने भी विरह-पाण्डु दमयन्ती मुखको कलङ्क-श्याम बनाकर अपने समान बना लिया। बिरहावस्थासे दमयन्तीका मुख मी पाण्डु वर्ण हो गया था] // 6 // विरहतापिनि चन्दनपांसुभिर्वपुषि सार्पितपाण्डिममण्डना / विषधराभबिसाभरणा दधे रतिपतिं प्रति शम्भुबिभीषिकाम / / 27 / / विरहेति / सा दमयन्ती, विरहतापिनि वपुषिचन्दनपांसुभिः, भस्मधवलैरिति भावः, मर्पितः सम्पादितः, पाण्डिमैव मण्डनं यस्याः सा, विषधराभं शेषाहिकरूपं, बिसमेवाभरणं यस्याः सा सती, रतिपतिं स्मरं, प्रति शम्भुरेवेयमिति विभीषिकां विशेषेण मयोत्पादनं, भीषयतेर्धात्वनिर्देशे ण्वुल / 'सुप्सुपा' इति समासः / न तु शम्भोधिभीषिकेति कर्तरि षष्ठीसमासः 'तृजकाभ्यां कतरि' इति निषेधात् / दधे दधार, नूनमिति शेषः / गम्योत्प्रेक्षा // 27 // विरहसे सन्तप्त रहनेवाले शरीरमें चन्दन-रेणुभोंसे श्वेत भूषणको ग्रहण करनेवाली तथा सर्पके समान मृणाल-नालरूप भषणको धारण करनेवाली दमयन्तीने कामदेवके लिए शङ्करजीकी विभीषिका ( भयङ्करता-प्रदर्शक भाव ) को धारण किया। [विरहसे सन्तापशान्ति के लिये शरीरपर लिप्त चन्दनद्रव सूखकर धूल हो गया था, वही शङ्करजीके भस्मके स्थान में था, तथा विरहताप-शान्ति के लिये हृदयादिपर स्थापित कमल-नाल (श्वेति. मा तथा दीर्घताके कारण ) शङ्करके भूषणभूत सर्प हो रहे थे, उनको धारणकर दमयन्त ने 'मैं शङ्कर हूँ' यह कामदेवके प्रति प्रमाणितकर उसे डराना चाहा, जिसमें शङ्कर समझकर कामदेव मुझसे डरकर पीडा देना छोड़ दे / शङ्कर जीने अपने तृतीय नेत्रको अग्निसे काम. देवको भस्मावशेषकर डाला था, अतः दमयन्तीने कामदेवको डराने के लिये उक्त प्रकारसे शंकर का रूप धारण किया। अन्य भी कोई व्यक्ति अपने शत्रुको हराने के लिये उससे भी प्रबल शत्रुका रूप धारणकर उसे डराना चाहता है / विरह संतापाधिक्यसे दमयन्तीके हृद. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 नैषधमहाकाव्यम् / यादिपर लिप्त चन्दन द्रव सूखकर चूर्ण (धूलि ) हो जाता था तथा मृणाल मौ मुरझाकर सापके समान संकुचित (टेढ़े-मेढ़े) हो जाते थे ] // 27 // विनिहितं परितापिनि चन्दनं हृदि तथा भृतबुबुद्दमाबभौ / उपनमन सुहृदं हृदयेशयं विधुरिवाङ्कगतोडुपरिग्रहः // 28 // विनिहितमिति / तया भैम्या, परितापिनि हृदये वचसि, विनिहितं भृतबुबु दम अतिक्वाथकृपीटक, चन्दनं सुहृदं सखायं, हृदये शेत इति(त)हृदयेशयं मन्मथम 'अधिकरणे शेतेः' इत्यम्प्रत्ययः / 'शयवासवासिष्वकालात्' इत्यलुक / उपनमाप. सर्पन , अङ्कगतोहुपरिग्रहः अन्तिकस्थतारकापरिकरः, विधुरियाबमावित्युत्प्रेक्षा। ___उस दमयन्तीके द्वारा सन्तपनशील हृदयपर रस्खा चन्दनका लेप, बुद्बुद ( पानीका बुलबुला ) बनकर हृदयमें रहनेवाले मित्र कामदेवके पास तारारूप परिवार के सहित भाये हुए चन्द्रमाके समान मालूम पड़ता था। [अन्य भी कोई व्यक्ति मित्रसे मिलने के लिये सपरिवार पाता है / अत्यन्त सन्तप्त तवे आदिपर रखे द्रव पदार्थमें भी बुदबुद निकलने रुगते हैं / दमयन्तीका हृदय विरह से अत्यधिक सन्तप्त हो रहा था] // 28 // स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् / श्रयितुमर्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् / / 26 // स्मरेति / स्मरहुताशनदीपितया कामाग्निततया तया बहु भूरि, सरसं साद्र सरसीरुहं सरोज, मुहुः, अपितुं शैत्याय सेवितुम्, अधे पयि अर्धपथे कृतं, तत्पर्यन्त. मानीतं सत् , अन्तरा मध्ये, श्वसितेन भैमीनिवासेन, निर्मितं मर्मरं सद्यःशोषात् कृतमर्मरशन्दं सत् , उज्झितं वैरस्यास्यकम् / तथोष्णस्तविश्वास इति भावः / 'अथ मर्मरः / स्थानते वसपर्णानाम्' इत्यमरः / ईग्धर्मासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशः मोहिमेदोऽलङ्कारः // 29 // कामाग्निसे सन्तप्त उस दमयन्तीने बहुतसे और भनेक बार ताजे कमळको, (तापशांति के लिये हृदयादिपर) रखने के किये माधे मार्ग में आते ही (अरयुष्ण) निश्वास-वायुसे ममर. (शुष्कप्राय होनेसे ममरशब्दयुक्त ) होनेपर ( उनके अनुपयुक्त हो मानेके कारण ) फेंक. दिया। [विरहाग्निसे दमयन्ती के निःश्वास अत्यन्त गर्म 2 निकल रहे थे] // 29 // प्रियकरग्रहमेवमवाप्स्यति स्तनयुगं तव ताम्यति किं न्विति / जगदतुर्निहिते हृदि नीरजे दवथुकुड्मलनेन पृथुस्तनीम् // 30 // प्रियेति / हदि वसि, निहिते म्पस्ते, नीरजे पझे, दवथुः परितापः, दूक टिवाः वथुप्रत्ययः / तेन यस्कुडमलनं मुकुलनं निपीव्य ग्रहणमिति यावत् / तेन पृथुस्तनी दमयन्ती, तब स्तनयुगं (क) एवमनेन प्रकारेण, प्रियकरण ग्रहं निपीड्य ग्रहणम् , अवाप्स्यति / किं नु किमर्थ, ताम्यतीति अगदतुः ऊपतुः / ननमिति शेषः // 30 // ( सन्तप्त ) हृदयपर रखे हुए दो कमक ( अत एव तापके कारण ) सङ्कुचित होनेसे. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 215 मानो विशाल स्तनोंवाली दमयन्तीसे कह रहे थे कि तुम्हारे दोनों स्तन इसी प्रकार (जिस प्रकार हम दोनों सङ्कुचित हो रहे हैं, उसी प्रकार ) प्रिय ( नल ) के कर-ग्रहण (हाथ से पीडन अर्थात् मदन, पक्षान्तरमें-प्रिय नछके साथ पाणिग्रहण अर्थात विवाह ) को प्राप्त करेंगे, तुम क्यों खिन्न हो रही हो ?' [ इस पद्यमें भी दमयन्तीके सन्तापाधिक्य का वर्णन किया गया है ] // 30 // त्वदितरोन हदापि मया धृतः पतिरितीव नलं हृदयेशयम् / स्मरहरिमजि बोधयति स्म सा विरहपाण्डुतया निजशुद्धता // 31 // स्वदिति / सा भैमी, हृदपेशयं हृदि स्थितं, नलं स्वदितरस्सोऽन्यः, समानो वाऽन्यो बा पलिः, मया दापि न धृतः मनसापि न चिन्तितः, इति निजशुदताम् आनिता, पाहु / विरहपाण्हुतया ताजेनेत्यर्थः / स्मरहविर्भुजि बोध यति रमेज भवनाग्निमग्ना सा अग्निदिव्येन स्वशुद्धिं सीता राममिव नलं बोधयाः मासवेश्युस्प्रेक्षा / 'गतिवुद्धि' इत्यादिना अणिकर्तनलस्य जो कर्मत्वम् // 31 // ___ वह दमयन्ती विरहजन्य पाण्डुतासे, हृदयस्थित नलके प्रति 'तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य पतिको मैंने हृदय अर्थात मनसे भी नहीं ग्रहण ( स्वीकार ) किया है। फिर संभा• षण या इाथ आदि के द्वारा ग्रहण करनेकी बात हो क्या है ?)' इस प्रकार कामदेवरूप अग्निमें अपनी शुद्धता जना रही थी। [जगज्जननी सीतानीने मी लङ्काविजय के बाद रामचन्द्रजीके समक्ष अपने सतीत्वको अग्निमें प्रवेशकर प्रमाणित किया था। इसी प्रकार अन्य भी व्यक्ति अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिये अग्नि आदि देवताओं की साक्षी देते हैं / विरहतप्तदशनिवेशिता कमलिनी निमिषदलमुष्टिभिः / किमपनेतुपचेष्टत किं पराभवितुमैहत तदव, पृथुम् / / 32 // विरहेति / विरहलाते तदने भैमीशहीरे, निवेशिता निहिता, कमलिनी पद्मलता, निमिमदिरानमद्रिदले परेव, मुष्टिभिः मुष्टिबन्धैः (करणैः) पृथं तदनथु तस्यास्ताप, अपनेतुमान्छेत्तमचेष्टत व्याप्रियत किम् / पराभवितुं तिरस्कतुमेहत किम् / अचेष्टत किमिपुस्प्रेक्षा / वस्तुन किश्चित्कर्तृ शशाक / प्रत्युत स्वयमेव दम्धे. त्यर्थः / सोऽयं भीषकस्य मयाजा इति भावः / अत एषानर्थोत्पत्तिलक्षणो विषमा. लङ्कारः / तदुस्थापिता चेयरप्रति सङ्करः // 32 // दिइसे सन्तप्त दमयन्ती-शरीरपर स्थापित कमलिनी ( सन्तापसे ) सङ्कचित होते हुए पर्णरूपी मुक्केसे उस दमयन्ती अत्यधिक सन्तापको दूर करने ( मारने ) को इच्छा करती है क्या ? अथवा उसे पराभूत करने ( जीतने या मोहित करने) की इच्छा करती है ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति अङ्गुलियों को समेटनेसे मुट्ठी बांधकर शत्रुको मुत्केसे मारकर १'अग्निदिव्य' शलको जलदिन्छ'शब्देन व्याख्यातः। स च 2 यसर्गस्य 27 तम. श्लोकण्याख्याने द्रष्टव्यः। 15 नै० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 नैषधमहाकाव्यम् / जीतना चाहता है। सन्तापाधिक्यसे दमयन्तीके शरीरपर रखी हुई कमलिनी के पत्ते मुझाकर सङ्कषित हो जाते थे ] // 32 // इयमनङ्गशरावलिपन्नगक्षतविसारिवियोगविषावशा। शशिकलेव खरांशुकरार्दिता करुणनीरनिधौ निदधौ न कम् / / 33 // इममिति / इयं भैमी, अनाशरावलिरेव पश्चगाः तैः पतं क्षतिः, नपुंसके भावे कः। तेन बिसारिणा व्यापिना, वियोगेनैव विषेण अवशा सती, खरांशोस्तिग्मांशोः करैरर्दिता पीडिता, शशिकलेव कं जनं करुणनीरनिधी शोकरसाधौ। 'करुणस्तुरसे पूरे रूपायो करुणा मता' इति विश्वः / न निदधौ निदधावेव, निमजयामासैवे. त्यर्थः / अत्र रूपकोपमयोरङ्गानिमावेन सहरः // 33 // काम-बाणों के समूहरूपी सर्पके काटने (पक्षान्तरमें-विद्ध होने ) से फैलनेवाले-विरह. रूपी विषसे पराधीन (मोहित ) उस दमयन्तीने सूर्य-पीडितचन्द्रकलाके समान किसको करणारूपी समुद्र में नहीं डाल दिया ? [ अर्थात सबको विरहिणी दमयन्तीको देखकर दया भा बाती थी। सांपके काटनेसे मूच्छितावस्थामें पड़े हुए व्यक्तिको देखकर सभी लोगोंको दया था जाती है / मथवा-सांप जिस व्यक्तिको काटता है, वही व्यक्ति विषबाधा-शान्ति के लिये जलमें छोड़ा जाता है, किन्तु काम-पाणावलि-सर्पदष्ट होनेसे विरह-विषज्वालासे मोहित दमयन्तीने दूसरोंको बलमें डाल दिया यह माश्चर्य है ] // 5 // ज्वलति मन्मथवेदनया निजे हृदि तयाद्रमृणाललतार्पिता। स्वजयिनोखपया सविधस्थयोमलिनतामभजद् भुजयोभृशम् // 34 // स्वतीति / तया भैम्या, मन्मथवेदनया मदनज्वरदुःखेन, ज्वलिते प्रज्वलिते निजे हृदि बरसि, अर्पिता बार्दा सरसा, मृणालकता बिसवनी, स्वजमिनोः स्वजैनो, 'बिपि इत्यादिना इनिप्रत्ययः। भुजयोस्तदीययोरेव, सविधस्थयोःसमीप. स्थयोः सतो, अपया अपयेवेत्यर्थः। गम्योस्प्रेक्षा। भृशं मलिनता वैवयंमभजत् / जितो जेतुरग्रे लज्जया वैवण्य भजतीति भावः // 34 // उस दमयन्तीके द्वारा काम-पीड़ासे जलते (सन्तप्त होते) हुए हृदयपर रखी हुई कमलकताने अपनेको बीतनेवाले समीपस्थ (दमयन्तीके) दोनों बाहोंकी लज्जासे अत्यन्त मलि. नताको धारण कर लिया। मथवा-अपनेको जीतनेवाले (दमयन्तीको ) दोनों भुजाओं के स्वसमीपस्थ होनेपर कमललताने लज्जासे मलिनताको धारण किया। [ अन्य भी कोई व्यक्ति अपने विजेताके सामने लज्जासे मलिनमुख हो जाता है / दमयन्तीके हृदयपर रखी दुई कमाता सन्तापसे मलिम हो जाती थी ] // 34 // * पिकरतश्रुतिकम्पिनि शैवलं हृदि तया निहितं विचलद्वभौ / सतततद्गतहृच्छयकेतुना हमिव स्वतनूधनधर्षिणा // 35 // पिकेति / तया भैम्या, पिकहतशत्या कोकिलकूजितश्रवणेन, कम्पिनि वपमाने, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 217 हृदि वक्षसि, निहितं शैस्या न्यस्तं विचलत् आधारचलनादिति भावः / शैवलं, स्वतन्या शैवलशरीरेण सह, धनधार्षिणा भृशसकर्षिणा, इयोरपि बलधरस्वादिति भावःसततं तद्वतस्य भैमीहृदूतस्य हृच्छयस्य कामस्य, केतना चिह्वेन, मरस्येन हतं ताडितमिव, बभावित्युत्प्रेक्षा // 35 // - उस दमयन्तीके द्वारा कोयलका कूकना सुननेसे कम्पित होनेवाले हृदयपर (विरहजतापशान्त्यथै ) रक्खा हुमा तथा (हृदयसे कांपते रहनेसे) हिलता हुमा शेवाल ऐसा मालूम पड़ता था कि निरन्तर उस दमयन्तीके हृदयमें रहनेवाले कामदेवको पताकारूप मछली द्वारा अपने शरीरको रगड़नेसे वह कम्पित हो रहा हो। [ 'मछलियां अपने शरीरको कण्डू दूर करने के लिये शेवाल में शरीरको रगड़ती है' यह प्रसिद्धि है। ] दमयन्ती द्वारा हृदयपर शेवाल रखनेपर भी कोयलका कुहुकना उसे पीडित कर उसके हृदय-कम्पनको बढ़ा रहा था। . न खलु मोहवशेन तदाननं नलमनः शशिकान्तमबोधि तत् / इतरथाऽभ्युदये शशिनस्ततः कथमसुस्रवदश्रमयं पयः / / 36 / / नेति / नमनः (क), मोहवशेन विरहप्रयुका ज्ञानबलेन, तदाननं भैमीमुखं (कर्म), शशिकान्तमिन्दुसुन्दरम् इन्दूपमत्र, नाबोधि खलु नाबुद्ध किमिति काकुः। अबुध्यत एवेत्यर्थः / तच सस्पमिति भावः / 'दीपजन' इत्यादिना कर्तरि चिण् / इतरथा, तहसत्यस्वे शशिनोऽभ्युदये ततो भैमीमुखादश्रमयमश्ररूपं, पयः कथं असुनवत् चुतं, चन्द्रोदये पयानावाचन्द्रकान्तस्वं सत्यमित्यर्थः। चन्द्रोदये दाहो. देकाद्रुरोदेति भाषः। द्रवतेलुकणिश्रीस्थादिना प्लेश्वङि धातोरवहादेशः // 36 // . नलका मन सुन्दर दमयन्ती-मुखको मोह (अज्ञान) के कारण चन्द्रमासे समान मनोहर (पक्षान्तरमें चन्द्रकान्तमणिरूप) नहीं समझा था, अपितु यथार्थतः समझा था। अन्यथा चन्द्रोदय होने पर उससे आँसू रूप जल क्यों निकलता ? [ दमयन्ती में अधिक प्रेम होने से उसके मुखको नसके चित्तने मोहवश नहीं; अपितु वस्तुतः चन्द्रकान्त हो समझा था। चन्द्रो. दय होनेपर विरहावस्थामें चन्द्रमाके विरहवर्द्धक होने से दमयन्ती रोने लगती थी, चन्द्रकान्तमणिसे भी चन्द्रोदय होनेपर पानी टपकने लगता है, अतः नरूका दमयन्ती-मुखको चन्द्रकान्त समझना ठीक ही था। अथवा-दमयन्तीके मुखने चन्द्रमाको अपनी सुन्दरतासे जीत लिया था, अतएव वह चन्द्रमाके उदय (अभ्युन्नति ) होने पर रोने लगता है। अन्य भी कोई व्यक्ति शत्रुको मभ्युन्नति होने पर ईष्यासे रोने लगता है। अथवा-दमयन्तीके मुखको नलने चन्द्रकान्त (चन्द्रमाके समान या चन्द्रमा है कान्त=प्रिय मित्र जिसका ऐसा) समझा था, अन्य भी कोई व्यक्ति नियमित्रकी अभ्युन्नति होनेपर आनन्दाश्रु बहाता है ] // रतिपतेर्विजयास्त्रमिषुर्यथा जयति भीमसुतापि तथैव सा / स्वविशिखानिव पञ्चतया ततो नियतमैहत योजयितुं स ताम् // 37 // रतिपतेरिति / रतिपतेः कामस्य, यथेषुः विजयस्यास्त्रं विजया विजयसाधनमा. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 नैषधमहाकाव्यम् / पुषं जयति / तथैव सा भीमसुतापि विजयास्त्रं सती जयति / ततस्तस्मात् (हतो.) सकामा, स्वस्य विशिखानिषूनिव, तां भैमी, पश्चतया पासण्याकरमेन, मरणेन च / 'पक्षता पसभावे स्यात् पशता मरणेऽपि च' इति विधः / पोजयितुमैहत / स्वेषुधर्मविनयात्रवेनेव पञ्चस्वेनापि योजयितुमैग्छत् / नियतं सत्यमित्युत्प्रेक्षार्थः / अन्यथा, किमर्थमेनामित्थं पीडयेदिति भावः। उपमानोस्प्रेषयोः सहरः॥३७॥ रतिपति कामदेवका विजयसाधनभूत वाण जिस प्रकार विजेता मर्यात सर्वोत्कृष्ट है, उसी प्रकार भीमनन्दिनी दमयन्ती भी सर्वोत्कृष्ट विजयास्त्र है (यह बात कामदेव समझता है), मत एव वह ( कामदेव ) अपने अन्य बाणों के समान उस ( दमयन्ती) को पवस्व (पांच संख्याओंका माव, पक्षान्तरमें-मृत्यु) से युक्त करना चाहा। [कामदेवके सर्वविजेता बाणपत्रता-पांच संख्या के मावसे युक्त अर्थात संख्या में पांच है, अतः दमयन्तीको मी वह पत्रता (मृत्यु) से युक्त करना अर्थात मारना चाहा // विरह में कामपौड़ाके कारण दमयन्तीको अवस्था मरणासन्न हो रही थी ] // 37 // शशिमयं दहनावमुदित्वरं मनसिजस्य विमृश्य वियोगिनी। झटिति वारुणमश्रमिषादसौ तदुचितं प्रतिशस्त्रमुपाददे // 38 // शशिमयमिति / वियोगिन्यसो भैमी, उदेतीत्युदिस्वरमुद्यत् , 'इनशजिसर्तिभ्यः करप' शशिम शशिरूपं, मनसिजस्य दहनासम् भाग्नेयास्त्रं विमृश्यालोच्य, झटिति द्राक / अश्रुमिषाद्वारुणं वरुणदेवताकं, 'सास्य देवता' इत्याप्रत्ययः। तस्याग्नेयस्योचितं प्रतीकारक्षम, प्रतिशतमुपाददे प्रयुक्तवतीत्यर्थः / चन्द्रतापसहिष्णुर. शरणा केवलमरोहीत्यर्थः / सापहवोस्प्रेक्षा // 38 // . वियोगिनी दमयन्तीने चन्द्ररूप काम-माणको दाहक अस (मग्निबाण) समझकर शीघ्र हो आँसके व्याजसे वारुणाखको धारण कर लिया। [अन्य मी योद्धा संग्राममें शत्रुके द्वारा प्रयुक्त भाग्नेयाखको शान्त करने के लिये वारुणास्त्र (पानी रसाकर मग्नितापको शान्त करनेवाला बत्र) धारण करता है // विरहिणी दमयन्ती चन्द्रमाको देखकर तापा. विक्यसे रोने लगती यो] // 38 // अतनुना नवमम्बुदमाम्बुदं सुतनुरस्त्रमुदस्तमवेक्ष्य सा। उचितमायतनिश्वसितच्छलाच्छ्वसनमखममुञ्चदमुं प्रति / / 36 // अतनुनेति / सा सुतनुभैमी, नवं नूतनम्, अम्बुदं मेघमेव, अतनुना भनङ्गेन, उदस्तम् उरिक्षप्तं, आम्बुदमबुदसम्बनभ्यस्त्रं पर्जन्यास्त्रम् अवेचय आपतनिश्चसि. तच्छलाहीनिवासमिषादमुमाबुदं प्रति, उचितं प्रतीकारक्षम, बसनं श्वसनात्मकमस्त्रं वायम्यास्त्रममुखत् प्रायुक्त / मेघदर्शनात् दीप्तमदनज्वरा दीर्घमुष्णं च निश. श्वासेत्यर्थः / अत्रापि सापहवोत्प्रेक्षा // 39 // (विरहिणी) उस दमयन्तीने कामके द्वारा उठाये हुए नबीन मेषरूप वारणास्त्रको देख. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ..चतुर्थः सर्गः कर निःश्वासके न्याबसे योग्य ( वारुणास्त्रको शान्त करनेमें समर्थ) बायन्यास्त्रको रस ( कामदेव.) के प्रति छोड़ा। [अन्य भी कोई योद्धा शत्रुके गरणास्त्र ठानेपर उसको शान्त करनेमें समर्थ बायम्यास्त्रको शत्रुके ऊपर छोड़ता है। वर्षा ऋतुमें उठे हुए काले काले बादलों को देखकर विरहिणी दमयन्तीका निःश्वास अत्यन्त बड़ गया] // 39 // रतिपतिप्रहितानिलहेतितां प्रतियती सुदती मलयानिले / - तदुरुपतापभयात्तमृणालिकामयमियं भुजगास्त्रमिवादित // 40 // रतिपतीति / मुदतीयं भैमीमलयानिले विषये रतिपतिप्रहितानिलहेतितां काम प्रयुक्तवायम्यास्ताम् / 'हेतिःशस्त्र प्रहरणं द्यायुधशास्त्रमेव च' इति हलायुषः। प्रति. यती मानती। इणः शतरि डीप / तेनास्त्रेण य उरुस्तापः ततो भयात, भात्ता भी. कृता या मृणालिका तन्मयं विसरूपं, भुजगासम् अदितेब आत्तवती किमित्युप्रेता। भुजगानां वाताहाररावादिति भावः / 'स्थाधोरिच' इतीकारः। 'हस्वादमात्' इति सलोपः // 40 // मुन्दर दातोंवाली दमयन्तीने मण्यवायुको कामदेवके द्वारा (भपने प्रति ) छोड़ा गया वायव्यास्त्र समझकर उससे उत्पन्न होनेवाले अत्यधिक सन्तापके भयसे कमलनालरूप सख को धारण कर लिया। [अन्य भी कोई योद्धा अपने प्रति छोड़े गये वायव्यावसे उत्पन्न करको दूर करने के लिए सपास्त्र (नागाल) धारण करता है। मलयानिळके बहनेपर विरहिणी दमयन्तीको पीडाशान्ति के लिये (सफेद तथा कुरिलाकार होनेके कारण सपैके समान ) मृणाकानालको हृदयादिपर रख लिया ] // 40 // न्यधित तधृदि शल्यमिव द्वयं विरहितां च तथापि च जीवितम् / किमथ तत्र निहत्य निखातवान् रतिपतिः स्तनबिल्वयुगेन तत् // 41 // न्यषितेति / रतिपतिस्तददि भैमीहृदये, विरहितां विरहित्वं, , तथापि बिर. हिस्वेऽपि, जीवितंति दूर्व, शल्यं शङ्कमिव, न्यधित निखातवानित्यर्थः। जीवतो विरहः विरहिणो जीवनं च हे अपि शक्यप्राये इत्यर्थः / दधातेल डि त / 'स्थाग्यो। रिच' इतीकारः / स्वादङ्गात्' इति सलोपः / अथ निखननानन्तरं, तछल्पयं स्तनावेव विश्वे परिणतविक्फले, तयोर्यगेन तच हृदि निहत्य माहत्य, निसातवान् किम / यथा लोके निखातं शराबर्याय पाषाणेन घ्नन्ति तरिति भावः। पूर्वार्ध शल्यनिखननोस्प्रेक्षा / उत्तरार्धे निहत्य निहननोस्प्रेक्षा। निखातानित्यवादः॥४॥ कामदेखने उस दमयन्तीके हृदयमें दो शस्य अर्थात् कील या खूटोंके समान विरह तथा जीवन (अथवा-विरही होकर बोना एवं जीते हुए विरही होना) स्थिर कर दिया (शश्यपक्षमें-गाड़ दिया) और एन दोनों बल्यों को स्तनरूपी दो बिल्वफडों (बेडके फलों) से वहां पर (दृढ़ताके व्येि ) ठोंककर स्थिर कर दिया क्या ? [विरहिणियों के छिये बौना मौर जीते हुए विरहिणी होना-ये दोनों कार्य महाकष्टकर होते है, उसमें युवावस्थामैं तो ये अत्यन्त ही असह्य हो जाते हैं। कामदेवके द्वारा दमयन्तीके हृदयमें जीवन तथा विरहरूप Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 नैषधमहाकाव्यम्। दो शल्योंको गाडकर विश्वरूप दोनों स्तनोंसे ठोंककर उन्हें दृढ़ करनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है। अन्य भी कोई व्यक्ति खूटा या कीलको गाड़कर उसे दृढ़ करनेके लिये पत्थर मादि किसी कठोर पदार्थ से ठोक देता है। युवावस्था में ही स्तनका बिल्वफलके समान कठिन होना पाया जाता है। अतः उस युवावस्थामें जीने के साथ विरह होना या विरह होनेपर बीना हृदय में गड़े हुए दो कीलों के समान दमयन्तीको अत्यन्त हो. असह्य हो रहा था] // 41 // अतिशरव्ययता मदनेन तां निखिलपुष्पमयस्वशरव्ययात् / स्फुटमकारि फलान्यपि मुञ्चता तदुरसि स्तनतालयुगार्पणा // 42 / / अतीति / तां दमयन्तीम् अतितरां, शरव्ययता शरव्यं लक्ष्यं कुर्वता, शरण्यः शब्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्तालटः शतृप्रत्ययः / अत एव निखिला ये पुष्पमयाः स्वशरास्तेषां ज्ययात् चयात् फलान्यपि मुशता पिता मदनेन तदुरसि भैमीव. चसि, स्तनावेव ताले तालफले, तयोर्यगस्यार्पणा क्षेपः, अकारि / स्फुटमित्युस्प्रेक्षा। शरचये पाषाणादिनापि प्रहरन्तीति भावः // 42 // उस दमयन्तीको अतिशय निशाना बनाते हुए, पुष्पमय सब बाणेंके समाप्त हो आनेसे फलोंको भी छोड़ते हुए कामदेवने मानों उस दमयन्तीके हृदयपर स्तनरूप दो तालफलों को छोड़ा है / [अन्य मी योद्धा बाणों के समाप्त हो जाने पर पत्थर मादि कठिन पदार्थों से शत्रुपर प्रहार करता है। कामदेवके पास पुष्षमय पाँच ही बाण होनेसे उनका शीघ्र समाप्त हो जाने और कोमकतम तथा अल्पसंख्यक पुष्प बाणोंसे शत्रुरूप दमयन्तीपर विजय नहीं पानेसे पत्थर के समान कठिन दो ताल-फलोंसे हृदयमें प्रहार करना उचित एवं स्वामाविक ही है / मय-समी फल पुष्पके बाद ही लगते हैं अतः उनके पुष्पोंको ही बाण बनाकर दमयन्तीपर प्रहार करने के कारण उनके फल नहीं लगे, अत एव विना फूल लगे ही फलनेवाले तालके बड़े-बड़े एवं कठोर फलोंसे हो दमयन्तीके कोमल हृदय अर्थात् मर्मस्थलपर प्रहारकर उसपर विजय पानेकी इच्छा करना कामदेवके लिये स्वाभाविक ही है ] // 42 // अथ मुहुर्बहुनिन्दितचन्द्रया स्तुतविधुन्तुदया च तया बहु / पतितया स्मरतापमये गदे निजगदेऽअविमिश्रमुखी सखी // 43 / / अथेति / अथानन्तरं स्मरतापमये कामज्वररूपे, गदे रोगे 'रोगव्याधिगदामया" इत्यमरः / पतितया मग्नया। अत एक, मुहुः बहु बहुधा, निन्दितचन्द्रया, तस्योः हीपकस्यादिति भावः / मुहुः स्तुतो विधुं तुदतीति विन्धुन्तुदो राहुर्यया तया, विधुः न्सुदस्वादेवेति भावः। 'तमस्तु राहुः स्वर्भानुः संहिकेयो विधुन्तुद इस्ममः / 'विश्वरुषोस्तुद' इति खचप्रत्ययः / 'अरुविषदजन्तस्य मुम्' इति मुमागमः / तया दम. यस्या, अश्रविमिथं मुखं यस्याः सा भनिष्टाशङ्कया सदती सखी, निजगदे निग• दिता / विप्रकृतो अपकर्तारं निन्दति तदपकर्तारस स्तोतीति भावः // 3 // 'काम-सन्ताप-ज्वरमें पड़ी हुई, (अतएव दाहक होनेसे ) बार-बार तथा बहुत चन्द्रमा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चतुर्थः सर्गः .. 221 की निन्दा और राहुकी प्रशंसा करनेवाली बह ( दमयन्ती) रोती हुई सखीसे बोली (यहाँसे श्लो० 99 तक दमयन्तीका कथन है )- [विरहावस्थामें चन्द्रमाके अत्यन्त सन्ताप देनेके कारण उसकी निन्दा और उसको ( चन्द्रग्रहण के अवसरपर ) निगलनेवाले राहुकी प्रशंसा बिरहिणी दमयन्ती करती थी तथा उसकी कष्टावस्था देखकर उसकी सखी रो रही थी ] // 43 // . 'नरसुराब्जभुवामिव यावता भवति यस्य युगं यदनेहसा / . विरहिणामपि तद्रतववक्षणमितं न कथं गणितागमे // 44 // नरेति / नरसुरान्नभुवा मनुष्यदेवब्रह्मणामिय, यावता अनेहसा कालेन, यस्य जन्तोर्ययुगं भवति, गणितागमे ज्योतिश्शाने तरसव बळग्यमेवेति शेषः। यथाप्राणी दिनं देवादीनां युगादिकमित्युक्सम, तद्वदन्यस्यापि गणितशाले वक्तग्यमिति भावः। __ततः किमित्याशक्य आह / ताह, विरहिणां तयुगं कथं किमिति रतवतामवियुक्तानां यूनां चणेन मितं गणितं न / अवियुक्तानां पणो वियुकानां युगमिति किमिति नोकमित्यर्थः। तथा तस्या एकैकक्षण एकैकयुगकल्पोऽभूदित्यर्थः // 44 // ___जितने समयका मनुष्यों, देशों तथा ब्रह्माका युग-परिमाण होता है। मनुष्यों, देवों तथा ब्रह्माके युगके बराबर उन्हीं के समान सुरतक्रीडा युक्त तरुण स्त्री-पुरुषोंके तथा विरही खो-पुरुषों के क्षणकी गणना ज्योति शास्त्र में क्यों नहीं की गयो है ! अर्थात इसमें इतनी श्रुटि रह गयी है। [ मरतक्रीडायुक्त तरुण स्त्री-पुरुषों के क्षणके बराबर मनुष्य, देव तथा ब्रह्माका युग होता है अर्थात सुरतानन्द में मासक्त तरुण स्त्री-पुरुषों को मनुष्यों, देवों या ब्रह्माका युगके बराबर समय भी एक क्षणके समान प्रतीत होता है और इसके प्रतिकूल विरही तरुण स्त्री-पुरुषोंका क्षण मो मनुष्यादिके युगके बराबर होता है अर्थात इन विरहियों को एक क्षण भी व्यतीत करना मनुष्यादिके युगपरिमित काल के समान अत्यधिक मालूम पड़ता है // विरहिणी तरुणी दमयन्तीको भी एक एक क्षण मनुष्य, देव, ब्रह्माके युगके समान प्रतीत हो रहा था] // 44 // .. जनुरधत्त सती स्मरतापिता हिमवतो न तु तन्महिमाहता। ज्वलति फालतले लिखितः सतीविरह एव हरस्य न लोचनम् // 4 // जनुरिति / सती भवपूर्वपत्नी कन्या, स्मरतापिता विरहाग्नितप्ता सती, हिमा बतो जनुर्जन्माषत / तस्य हिमवतो महिमा आहतो यया सा तन्महिमाता, भार. ततन्महिमा सती तु न / भाहिताग्न्यादित्वानिष्ठायाः परनिपातः। विरहतापशान्त्यर्थ हिमाद्वेर्जाता। न त, तत्तपरसामर्थ्यानुरोधादित्युत्प्रेला। हरस्य फालतले सिसितो ब्रह्मणा लिखितः सतीविरह एष ज्वळति, लोचनं नेस्यारोप्यापहवालदार // 5 // सती ( दक्षप्रजापत्ति की कन्या-पूर्वजन्म में शङ्करजी का स्त्री) ने कामदेव से सम्तप्त होकर ही ( अतिशय शीतल ) हिमालय पर्वतसे उत्पन्न हुई है, उन (हिमालय पर्वत ) की महिमाके आदरसे नहीं। जलते हुए शिव-लकारमें (ब्रह्माके द्वारा सतो;विरह ही दिखा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / गया है, तृतीय नेत्र नहीं बनाया गया) है। [अपने पिता दक्ष प्रजापति के द्वारा पति शहरजीका अपमान देख सतीने योगाग्नि द्वारा प्राण त्यागकर पति शारजीके विरहमें कामदेवसे मतिशय सन्तप्त होकर उस तापको शान्ति के लिये भरयन्त शीतल हिमालय से जन्म ग्रहण किया है, वहां जन्म लेनेमें हिमालको प्रतिधा मादि अन्य कोई कारण नहीं है। अन्य भी कोई व्यक्ति भधिक सन्तप्त होकर भतिशय शीतल स्थानका माश्रय करता है। इसी प्रकार-सती योगाग्निमें प्राणस्यग कर देनेपर ब्रह्माने शङ्करबीके ललाटमें अतिशय तापकारक सती-विरहाक्षर ही लिखा है, वह शहरनीकी तीसरी माँख नहीं है ] // 45 // दहनजा न पृथुर्दवथुव्यथा विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् / दहनमाशु विशन्ति कथं स्त्रियः प्रियमपासुमुपासितुमुधुराः // 46 // दहनेति / दहनमा अग्निदाहजन्या, दवथुग्यथा तापदुःखं, पृथुः अधिका न / किन्तु विरहजैव पृथुः / ईशंन पनि मिस्थं न चेत् / चियः, अपासुमपगतप्राणं मृतं, प्रियम, उपासितुं प्राप्तम, उत्कृष्ट पूर्भारो यास ता उद्धराः अनर्गलाः सत्य इत्यर्थः। पूर' इत्यादिना समासान्तोऽकारः। कथमाशु दहनं विशन्ति / अग्निदाहाहिरहदाह एवाधिक इत्यर्थः। तस्य तस्परिहारार्थेन स्त्रीणामग्निप्रवेशकार्येण समर्थनात् कार्येण कारणसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 46 // अग्निजन्य दाहपीडा अधिक सन्तापकारक नहीं होती, किन्तु विरहपन्य दाहपीना ही अधिक संतापकारक होती है। यदि ऐसा नहीं है तब मरे हुए पतिको सेवा ( अनुगमन) करने के लिये उरणसयुक्त सियां मग्नि में कैसे प्रवेश करती 1 / [विरहमन्य सन्तापपीडा. को नहीं सह सकनेके कारण ही खिया पतिके मरनेपर (विरहाग्निको अपेक्षा कम सन्ताप देनेवारी) चितामिमें प्रवेशकर जो सती हो जाती है उससे यह प्रमाणित होता है कि बिरहमन्य दाइपील ही भनिनन्य दाहपीडासे अधिक है ] // 4 // हृदि लुठन्ति कला नितराममूर्विरहिणीवधपटकलहिताः। कुमुदसख्यकृतस्तु बहिष्कृताः सखि ! विलोकय दुविनयं विधोः // 47 // हदीति / विरहिणीवप्रायः पङ्कः पाप्मा। 'असी पवं पुमान् पाप्मा' इत्यमरः। तेन कलहिताः सनातक, अमूकला, हदि अभ्यन्तरे नितरां लुठम्ति वर्तन्ते। कुमुदैः सम्यं कुर्वन्तीति तस्कृतः, विशुदा इत्यर्थः। तास्तु कलाः बहिष्कृताः। सखि, विधोविनयं, दोर्जन्य, विलोकय / दुर्जनाः पापिष्ठानन्त:कुर्वन्ति विशुद्धान् बहिष्कुर्वन्तीति भावः॥४७॥ " हे सखि / चन्द्रमाका दुविनय तो देखो, कि-विरहिणियों की हत्यारूपी पङ्कसे मलिन इन कलानोंको तो उसने हृदयमें धारणकिया है तथा कुमुदको विकसितकर मित्रता करनेवाली उत्तम ककामों को बाहर कर दिया है। विरहणियों के मारनेसे उत्पन्न पाप ही कान्छन रूपमें चन्द्रमाको छाती पर दौख रहे हैं, अत एक यह बड़ी दुनीतिवाला है। [यदि कोई सब्जन Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 223 होता है तो वह आपकारीको हृदयसे लगाये रहता है तथा दुष्टों-पाप करनेवालोंको बाहर कर देता है, किन्तु दुओंकी प्रकृति इसके विपरीत होती है, वे पापियोंको ही हृदयसे लगाते और परोपकारी सज्जनों को बाहर कर देते हैं। अथवा-दुघलोग अपने पापको तो हृदयमें धारणकर छिपा लेते हैं तथा उपकार मावको बाहर प्रगट करते हैं, मतः इस दुष्ट चन्द्रमाने भी ऐसा ही किया है ] // 47 // अयि विधुं परिपृच्छ गुरोः कुतः स्फुटमशिक्ष्यत दाहवदान्यता | ग्लपितशम्भुगलाद्गरलात्त्वया किमुदधौ जड ! वा वडवानलात् / / 4 / / अयोति / मयि सखि ! विधं परिपृच्छः। हे जडमूढ ! स्वया वाहवदान्यता दाह. दातृत्वं दाहकत्वमित्यर्थः / किं म्लपितशम्भुगलाच्छोषितशम्भुफण्ठात् गरलात काल. फूटात् , उदधी बडवानलाद्वा कुतः कस्माद् गुरोः स्फुटमशियत शिरिता, अभ्यस्तस्यर्थः॥४८॥ हे सखि ! तुम चन्द्रमासे पूछो कि-'तुमने दाहको अधिक देनेकी यह दानवीरता किस गुरुसे सीखी है ? हे जड़ ! शङ्करनीके गलाको बलानेवाले विष (कालकूट ) से अथवा समुद्र में सदा रहनेवाले बड़वानकसे ? [ जो निसके पास रहता है, वह उसीसे कोई बात सीखता है, चन्द्रमाको मो शङ्करजीके मस्तकमें रहने तथा समुद्रसे उत्पन्न ( उदय ) होने के कारण क्रमशः शिवकण्ठस्थ कालकूट या उदविस्थ बडवानलसे दाहकत्व शक्तिको सीखना सम्भव है, क्योंकि वे दोनों ही बत्यन्त दाहक है ] // 48 // अयमयोगिवधूवधपातकैमिमवाप्य दिषः खलु पात्यते / शितिनिशादृषदि स्फुटदुत्पतत्कणगणाधिकताराकताम्बरः // 46 // ___ अयमिति / अयं विधुः, अयोगिवधूवधपातकः वियोगिनीहिंसापापैः, करणः, भ्रमि भ्रमणम्, अवाप्य प्रापय्य भाप्नोतेण्यंन्ताव स्वो क्यादेशः। 'विमाषाऽऽप:" इति विकल्पादयादेशामावः / शितिनिशा कृष्णपराबिस्तस्यामेव हि शिलायां स्फुटन्तः पातवेगाद्विलन्तः तत उत्पतन्तन ये कंगाः खण्डाः, तेषां गणेरधिक तारकिताम्बरं भूग्ना तारकवस्कृताकाशःसन् / अत एव कृष्णपक्षे तारकबाहुल्यमिति भावः। तारकवच्छन्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्तात् कर्मणि कः। विन्मतोर्मक मतुपो लुक दिवोऽन्तरिवाधिपात्यते खलु / उत्कटपापफारिणः पुरे परिभ्राम्य शिलायां निपास्य हम्यन्त इति भावः॥४९॥ यह (चन्द्रमा) विरहिणी स्त्रियोंके वधजन्य पापसे घुमाया नाकर काली रात्रिरूप शिला ( पस्थर ) पर स्वर्ग अर्थात् अत्यन्त ऊँचे स्थानसे गिराया जाता है, और फूटकर (चूर्ण 2 होकर ) ऊपर उछलते हुए टुकड़ों ( स्वर्गपतित चन्द्रमाके खों) के समूरसे भाकाश अधिक तारामोंसे युक्त हो जाता है। [शुक्लपक्षमें चन्द्रदर्शनसे विरहिणियोंको अधिक कार होता है तथा चन्द्रप्रकाशके कारण भाकाशमें तारागण भी बहुत कम दिखलाई पड़ते है। इसके विपरीत कृष्णपक्षमें चन्द्रदर्शनके न होनेसे विरहिणी सियोंको अधिक कष्ट नहीं Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 नैषधमहाकाव्यम् / होता तथा आकाशमें तारागण मी अत्यधिक संख्यामें दिखलाई पड़ते हैं, मतःमालूम पड़ता है कि विरहिणी-पापसे चन्द्रमा अंधेरी रातरूपी काले पत्थरपर पटका जाता है और ऊँचे स्थानसे पटके जाने के कारण चूर्ण होकर ऊपर उबले हुए उसके खण्ड ही तारारूपमें आकाश में दिखलाई पड़ते हैं / अन्य भी कोई पापी व्यक्ति घुमाकर पर्वत मादि ऊँचे स्थानोंसे काले पत्थर पर पटक दिया जाता है, और उसकी हड्डियां चूर-चूर होकर ऊपरको उछलती हैं]॥ त्वमभिधेहि विधं सखि ! मगिरा किमिदमीहगधिक्रियते त्वया / न गणितं यदि जन्म पयोनिधौ हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मृता // 50 // स्वमिति / हे सखि ! वं मदिरा विधुमभिधेहि उपालभरव / तत्प्रकारमेवाहस्वया महात्मनेति भावः। किं किमर्थमिदमीहक सीवधात्मक (कर्म), अधिक्रियते आचर्यते ? पयोनिधो जन्म न गणितं यदि मास्तु / हरशिर एष स्थितिभूनिषाप्स. भूमिः सापि विस्मृता / महाकुलप्रसूतस्य शम्भुशिरोरतस्य तवेदमनुचितमित्यर्थः // हे सखि ! तुम मेरी ओरसे चन्द्रमासे कहो अर्थात पूछो कि-'तुम ऐसा अर्थात विर• हिणियोंका वधरूप निन्दित कर्म क्यों करते हो ( तुम्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता, क्यों कि ) तुमने समुद्र में अपना बन्म होनेको नहीं गिना अर्थात लक्ष्मी आदि-जैसे परोपकारियों को जन्म देनेवाले एवं स्वयं भी अत्यन्त गम्भीर समुद्ररूप पितृ-कुलकी कोई गिनती नहीं की (कुछ ख्याल नहीं किया), लेकिन शिवजीके मस्तकपर रहना मी भुला दिया ? अर्थात तुम केवल शिवबीके साथ ही नहीं रहते हो, अपितु उन्होंने तुम्हें परोपकारिता आदि गुणों से युक्त समझकर अपने मस्तकपर रखा है-अपनेसे मी श्रेष्ठ माना है। [अन्य सज्जन या सामान्य भी व्यक्ति अपने कुल तथा सहबासकाख्यालकर निन्दित कार्य नहीं करता विशेषकर मत्यन्त पीड़ितोंकी उसमें भी दुखिया खियों की हत्या करना तो दूर रहा, उन्हें श. मात्र भी पीरित करने के लिये मन में विचारतक नहीं करता। किन्तु तुमने तो अपने उत्तम कुल तथा सहवास-इन दोनों को भुला दिया है, अतएव तुम बड़े भारी पापी हो / महापापी चन्द्रमाके साथ साक्षात बात करने में पाप समझकर सती दमयन्तीने सखोके द्वारा चन्द्रमा को कहलवाया है। अन्य भी कोई व्यक्ति महापातकियों से साक्षात पात न करके दूसरेसे सन्देश करवाता है] // 50 // निपततापि न मन्दरभूभृता त्वमुदधौ शशलाञ्छन ! चूर्णितः। . . अपि मुनेजठरार्चिषि जीर्णतां बत गतोऽसि न पीतपयोनिधिः // 51 // निपततेति / हे शशलान्छन सकलकेत्यर्थः / स्वमुदधौ निपतता। मथनसमय इति शेषः / मन्दरभूभृता मन्दराद्रिणापि न चूर्णितः, पीतपमोनिधेः आचमितसमुः दस्य मुनेः अगस्त्यस्य, जठराधिषि जठरानलेऽपि जीर्णता न गतोऽसि / वातापिव. दिति भावः। बतेति खेदे / मदाग्यविपर्यय एवायमिति भावः // 5 // - हे शशकान्छन (मृग-कलयुक्त चन्द्र)! (अमृतमन्थनके समय ) समुद्र में गिरते हुए Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 चतुर्थः सर्गः (डाले जाते हुए ) मन्दराचलसे भी तुम चकनाचुर नहीं हुए ? अथवा समुद्रको पी पानेवाले अगस्त्य मुनिकी जठराग्नि में भी तुम गल पच नहीं गये 1 / [उक्त दोनो बातें नहीं होनेसे हो मुझ-जैसे विरहिणियोंको इतना कह हो रहा है, यदि वैसा हो जाता तो भाज मुझ जैसे लोगों को कष्ट नहीं होता / अत्यन्त दाहक तथा पापी होनेके कारण उन दोनों ( मन्दराचल तथा अगस्त्य मुनि ) ने भी तुम्हें छोड दिया; हा! महाकष्ट है ] // 51 // किमसुभिर्गलितैर्जड! मन्यसे मचि निमन्जतु भीमसुतामनः।। मम किल श्रतिमाह तदर्थिकां नलमुखेन्दुपरां विबुधस्मरः / / 12 / / किमिति / हे जड मूढ ! गलितैर्निष्कामितेः, असुभिः, प्राणैः स्वमारणेनेत्यर्थः / भीमसुतामनो मयि चन्द्रे निमज्जतु निमज्जेत् / सम्भावनायां लोट् / इति मन्यसे किम् ? 'यत्रास्य पुरुषस्याग्नि वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रदिशःश्रोत्रं पृथिवीं शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन् केशा अप्सु रोहितं च रेतश्च निधीयत' इति श्रतिप्रामाण्यादिति भावः। सोऽपि वृथामिमान इत्याह-समृतम. नश्चन्द्रमेतीत्येवं रूपोऽर्थोऽभिधेयो यस्यास्तां तदर्थिका, शेषाद्विभाषा' इति कप्समा. सान्तः / 'प्रत्ययस्थास्कारपूर्वस्यात इदाप्यसुप' इतीकारः, श्रुति पूर्वोक्तवेदवाक्यम् / विबुधो देवो विद्वांश्च, स्मरः नलस्प मुखेन्दुः मुखचन्द्रः, परो मुण्यार्थो यस्यास्तां तत्पराम् / 'परं दूरान्यमुख्येषु' इति वैजयन्ती / मम आह किल ब्रूते सलु। विदूदुक एवार्थो ग्राह्य इत्यर्थः / परतोऽपि मे भर्ता नल एव नान्य इति भावः // 52 // हे जह चन्द्र ! 'मारनेसे भीमकन्या दमयन्तोका मन मुझमें लीन हो नायगा, अर्थात् दमयन्ती मुझे चाहने लगेगी' ऐसा समझते हो क्या 1 विद्वान् वेदव्याख्यानकर्ता ( पक्षान्त. रमें-स्मरणशील विद्वान् , या देवता ) काम ने निश्चय ही मुझसे उस अति (वेदमन्त्र) का अर्थ नलका सुख रूप बतलाया है (अतएव मैं मरकर भी नको ही जन्मान्तरमें भी चाहूँगी, तुम्हें कदापि नहीं)। [ 'यत्रास्य पुरुषस्याग्नि........." श्रुतिके अनुसार मृत प्राणीका मन चन्द्रमामें लीन हो जाता है, इस कारण चन्द्रमा का वैसा सोचना समझ. कर दमयन्तीने कहा है कि उक्त अतिका 'मरनेपर प्राणियों के मनका चन्द्रमामें लीन होना' सामान्य अर्थ है / वेदव्याख्यान या पूर्वापरका स्मरण करनेवाले विद्वान् या देवताकामने उस श्रुतिका अर्थ 'मरनेपर नलरूपी चन्द्रमामें मनको लीन होना' बतलाया है / अतएव सामान्यको अपेक्षा विशेषकी बलवत्ता होनेसे तुम्हारी भाशा ('मरनेपर दमयन्तीका मत मुझ-चन्द्रमें लीन होगा' यह समझना) भूल है। सामान्य बुद्धिवाला ही मनुष्य किसी अति आदिका सामान्य अर्थ ग्रहण करता है, विद्वान् तो विशेष अर्थको ही ग्रहण करते हैं अथवादेवता कामका बतलाया हुमा अतिका विशेष अर्थ ही ग्राह्य है, सामान्य अर्थ नहीं] // 52 // मुखरयस्व यशोनवडिण्डिमं जलनिवेः कुलमुज्ज्वलयाऽधुना। अपि गृहाण वधूवधपौरुषं हरिणलाच्छन ! मुश्च कदर्थनाम् / / 53 // Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 . नैषधमहाकाव्यम्। - मुखरयस्वेति / हे हरिणलान्छन शशाङ्क ! यशसः नवडिण्डिम कीर्तिप्रकाशकं नूतनवाचविशेष मुखरयस्व मुखरं रवणं कुरु, अधुना जलनिधेस्वजनकस्य कुलमु. ज्ज्वलय प्रकाशय, वधूवधपौरुषमपि स्त्रीवधशौर्य, गृहाण स्वीकुरु / किंत, कुरिस. * तोऽयः कवर्थः पीडाकरः, 'कोः कत्तत्पुरुषेऽधि' इति कुशब्दस्य कदादेशः / कद क. रणं कदर्थना कदर्थनशब्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्ताधुच / तां मुश शीघ्र मारय / न पीडयेत्यर्यः। अत्र वधूवषस्यानिष्टत्वेनाविधेयस्य विधानात्। 'विषं भुरुचव' इतिवधिषेधपरो विध्यामासः / अनिष्टनिषेधाभासपराक्षेपालकारभेदः / तथा चालकारसूत्रम्-'अनिष्टं विध्यामासश्चेति // 53 // हे मृगलान्छन ( कलवी चन्द्रमा)१ अपने यशकी (पक्षान्तरमें-म+अयश""". अर्थात् अत्यन्त अयशकी) डुग्गी पिटवावो / जलनिधि (अपने पिता) के वंशको उज्ज्वल करो ( पक्षान्तरमें अपने पिताके वंशको अधिक दग्ध करो अर्थात नका डालो ), नोहत्याकी बहादुरी लूट को अर्थात् मुझे मार डालो; परन्तु कुत्सित मर्थना करना या अधिक यंत्रणा देना तो छोड़ दो। [पूर्वोक्त वाक्यों में एक पक्ष काकुद्वारा निन्दापरक तथा दूसरा पक्ष वास्त. विक कथनपरक है। कोई भी शूर व्यक्ति खोकी हत्या करनेसे यशकी डुग्गी नहीं पिटवाता, न उस निन्दित कर्मसे पिताके वंशको ही उज्ज्वल करता है और न तो उससे उस योद्धाको बहादुरीही मिलती है; अपितु स्त्री-इत्यासे अकीति होती है, पिताके 'कुलमे मानो माग लग जाती है (बचा-खुचा मी यश नष्ट हो जाता है)। किन्तु तुम बनिधि ( 'ड तथा ल' में अभेद होनेसे जडनिधि अर्थात् मूर्खतम पिताने मूर्ख पुत्र हो, मतएव तुम ऐसा निन्दित कर्म करते हो, यह ठीक ही है / मूर्खसे अन्य आशा भी क्या हो सकती है 1 // 53 // निशि शशिन् ! भज कैतषभानुतामसति भास्वति तापय पाप माम / अहमहन्यवलोकयितास्मि ते पुनरहर्पतिनिधुतदर्पताम् // 54 // निशीति / हे शशिन् ! पाप ! कर ! 'नृशंसो घातुकाकरः पापः' इत्यमरः। निशि मास्वस्यसति / कैतवमानुता कपटसूर्यस्वं भज / मां तापय, किं स्वहशाहनि, अहर्प तिना सूर्येण, 'भहरादीनां पत्यादिषु'इति रेफादेशः / ते तव, निर्धतर्पता निरहवा. रताम, अवलोकयितास्मि द्रज्यामीत्यर्थः। लुरि मिपि तासिप्रत्ययः। पापिष्ठाः स्वनाशमासम्ममपश्यन्तः परान् हिंसन्तीति भावः // 54 // ___ हे चन्द्रमा ! रातमें सूर्यके नहीं रहनेपर तुम कपटसे सूर्य बन लो और हे कर ! मुझे तपाभो; किन्तु मैं कल दिन में सूर्यसे तुम्हारे ममिमानको नष्ट हुभा अर्थात् सूर्य के सामने निष्प्रभ हुए तुमको देखूगी / [अन्य मी दुष्ट पड़ोंकी अनुपस्थितिमें हो दुष्टता करता है. उसकी उपस्थितिमें अर्थात् सामने पड़नेपर उस. दुष्टका घमण्ड दूर हो जाता है। तथा किसी के द्वारा सताया गया व्यक्ति प्रबलतम अन्य व्यक्ति के द्वारा सताने वालोंका अमि. मान नाश देखकर इषित होता है ] // 54 // Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 227 शशकलङ्क ! भयङ्कर ! मादृशां ज्वलसि यन्निशि भूतपतिं प्रितः। तदमृतस्य तवेशभूतताऽद्भुतकरी परमूर्धविघननी // 55 // शशकलङ्केति / हे शशकला शशा! माशां वियोगिनामित्यर्थः। भयंकरो. तीति भयङ्कर उद्धेजक ! 'मेघतिभयेषु कुमा' इति खप्रत्यया / 'अहिपत्' इत्यादिना मुमागमः / यद्यस्मात् , भूतपतिं शिवं पिशाचपतिश, श्रितः सन् निशि ज्वलसि प्र. दीप्यसे / ततस्माश्मृतस्यामृतमयस्य मृतेतरस्य च, तव परेषां द्रष्टणां स्वाविष्टानां च, मूर्धविधूननी एकत्र विस्मयादन्यत्रावेशाच शिरःकम्पकरी, ईडशभूनता इत्यंभूत. स्वम् ईशपिशाचरवश, अद्भुतकरी विस्मयकरी। हरशिरोमणेरमृतस्य इव इत्थं प्रज्व. लनात्मकत्वमद्धतमिति वाक्यार्थः। जीवत ईडगलातपिशाचस्वमद्धतमिति व्यङ्गया। हे शशकला (शश-काननवाले) मुझ-जैसी (विरहिणियों या निरपराध अबलाओं) के भयङ्कर ! चन्द्रमा! रातमें भूतपति (पत्रमहाभूतो में प्रधान भाकाश, या प्रमथादि भूतगों के पति भगवान् शङ्कर ) का माश्रय किये हुए तुम को जलाते (विरहिणियोंको सन्तप्त करते ), हो, अभृत (अमृतमय किरणोंवाले या जीवित) तुम्हार। ( भूतावेश वा विरहव्ययाके कारण) दूसरोंके मस्तकको हिलानेवाला इस प्रकारका भूतपना (प्रतपना) माश्चर्यकारक है। [ कोई जीव मरनेपर प्रेत होकर रातमें चलता या स्वखित होता है, बाळकादिके लिये भयकारक होता है और जिसपर वह माविष्ट होता है उस ( भूताविष्ट मनुष्य ) का शिर कांपने लगता है; किन्तु अमृत अर्थात जीवितावस्थामें स्थित किसीका वैसा करना माश्चर्यजनक है / अथबा-अमृत अर्थात् जलमय होनेसे शीतक चन्द्रमाका बलाना (दाहक होना) भाश्चर्यकारक है / अथवा-भूतों अर्थात् प्राणियोंके पति ( पालक) एवं अमृत (सुषा) रूप चन्द्रमा का दुखित अबलाओंको भय दिखाना या रातमें अपनी तेजी (बहादुरी) दिखलाना अनुचित होनेसे पाश्चर्यजनक है / दमयन्तीने सखोके द्वारा अपनी भोरसे चन्द्रमाके प्रति श्लो० 48 से यहां तक उपालम्म दिया] // 55 // श्रवणपूरतमालदलाङ्करं शशिकुरङ्गमुखे सखि ! निक्षिप / किमपि तुन्दिालतः स्थगयत्वमुं सपदि तेन तदुच्छ्वसिमि क्षणम् // 56 // श्रवणेति / हे सखि ! श्रवणपूरः कर्णावतंसः, यस्तमालइलाकुरस्तमालपत्रवस्तं, . शशिकुरङ्गस्य मुखे वक्त्रे, निधिप / तेन दलाकुरेण, सपदि, किमपि कियदपि, तन्दि. लितस्तुन्दिलीकृतः, स्थूलीकृतस्सन् , अमुं शशिनं, स्थगयत छादयतु / तत्तस्मा. देतो, चणमुच्छ्वसिमि प्राणिमि, 'कदादिभ्यः सार्वधातुक' इतीहागमः // 56 // हे सखि ! कर्णपूरक तमाळ-किसलय (तमालका नया पल्लव ) को चन्द्रमाके मृगके मुखमें ( खानेके लिये ) डालो, (जिससे उसे खाकर ) वह कुछ तुन्दिल (बढ़े हुए पेटवाला) होकर चन्द्रमाको आच्छादित करे तो मैं क्षणभर श्वास लूँ। [चन्द्रमा मुझे इतना सताता है कि मैं तनिक श्वास भी नहीं लेने पाती] // 56 // Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 नैषधमहाकाव्यम् / असमये मतिरुन्मिषति ध्रुवं करगतैव गता यदियं कुहूः / पुनरुपैति निरुध्य निवास्यते सखि ! मुखं न विधोः पुनरीक्ष्यते / / 57 // . असमय इति / हे सखि ! असमये मतिः कार्यधीः, उन्मिषति उदेति, ध्रवम् / न तु योग्यकाल इत्यर्थः। कुतः, यद्यस्मादियं कुहूः नष्टचन्द्रामावास्या करगता स्वायत्तैव, हस्तनपत्रगता च गता। तदास्तां. पुनरुपैति पुनरागच्छति चेदित्यर्थः। निध्य निवास्यसे स्थाप्यते / तस्य फलमाह-विधोमुखं पुननेष्यते / तस्यास्तबा. शकरवादिति भावः / पापिष्ठस्य तस्यादर्शनमेव फलमित्यर्थः // 57 // हे सखि! निश्चय ही समय में (बेमौके) बुद्धि स्फुरित होती (कोई आवश्यक बात सूझती ) है, क्योंकि हाथमें अत्यन्त पास में भाई हुई ( अथवा-हस्त नक्षत्र में भायी हुई, दिखलाई पढ़ती, वह अमावास्या तिथि ) चली गयी अर्थात् बीत गयी। अस्तु यदि वह फिर भावेगी, तब उसे (प्रार्थना आदि करके ) रोक रखेंगी, जिससे फिर (पापी इस) चन्द्रमाका मुख ही नहीं देखूगी। [अन्य भी कोई सज्जन व्यक्ति पापीका मुख देखना नहीं चाहता] // 57 // अयि ! ममैष चकोरशिशुर्मुनेव्रजति सिन्धुपिबस्य न शिष्यताम् / अशितुमब्धिमधीतवतोऽस्य वा शशिकराः पिबतः कति शीकराः // 58|| अयोति / अयि सखि ! एष मम चकोरशिशुर्विषपरीक्षार्थ गृहसंवर्धितो बाल. चकोरः। यथाहकामन्दक:-'चकोरस्य विरज्येते नयने विषदर्शनात्' इति / पिब. तीति पिवः, 'पाघ्राध्मा' इत्यादिना शतप्रत्यये पिबादेशः। सिन्धोः पिवस्य समुद्र पायिनो मुनेस्गस्यस्य शिष्यतां, न बजतीति काकुः ।'बजतीत्यर्थः / तथा च अयं चकोरचन्द्रं निश्शेषं पास्यतीत्याशयः, न चैतदशक्यमित्याह-अधिमशितुं पातुः मधीतवतः अभ्यस्तवतः अत एव, पिषतः अधिपानप्रवृत्तस्यास्य चकोरस्य, शशि. कराः कति वा शीकराः कतिचिस्कणा इत्यर्थः / अन्न समुद्रपायिनो दण्यापूपिकया शशिकरपानसिद्धरापत्तिरलकाः // 58 // हे सखि ! मेरा यह चकोरका बच्चा समुद्रको पीनेवाले मुनि (अगस्त्य ) का शिष्य नहीं बन जायेगा? भयांत अवश्य बन जायेगा। समुद्रको पीनेकी शिक्षा पाये हुए (समुद्रको) पीते हुए इसके लिये चन्द्र-किरणे कितनी बूंद होंगी अर्थात् अत्यल्प ही होंगी। (चकोरका चन्द्रिका-पान करना लोक-प्रसिद्ध होनेसे यहां 'चकोर-शिशु' कहा गया है, क्योंकि बालकको दी गयी शिक्षा उसे शीघ्र अभ्यस्त होजाती है और यह चकोर-शिशु जब शिक्षित हो पायेगा तब भतिसरलतासे चन्द्रिकाको पी जायेगा, जिससे चन्द्रिकाके अभावमें मुझे सन्ताप नहीं होगा। चकोर विषपरीक्षाके लिये पाला जाता है, विषैले पदार्थको देखनेमात्रसे चकोरकी आंखें लाल होमाती हैं)॥५८ // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः / 226 कुरु करे गुरुमेकमयोधनं बहिरितो मुकुरञ्च कुरुष्व मे | विशति तत्र यदेव विधुस्तदा सखि ! सुखादहितं जहि तं द्रुतम् / / 6 / / - कुर्विति / हे सवि! एकं गुरु महान्तम् अयोधनं तप्तायःपिण्डघवनमयोमुद्गरं करे कुरु बिमृहीत्यर्थः / इतोऽस्मसाधनादहि, मे मम मुकुरं दर्पणं च कुरुष्व विधेहि / तन मुकुरे या विधुर्विशतिप्रतिफलति, तदैव, सुखाइनायासात् , महितं शव, तं विधं, दुतं जहि मारय / हन्तेलोटि सिपि हिरादेशः / 'हन्तेज' इति जादे. शस्य 'असिदबदबामात्' इत्यसिद्धवाश हेलुंक / अत्र चन्द्रप्रहारादिप्रलापा मेघ. सन्देशादिवन्मदनोन्मादविकारा इत्यनुसन्धेयम् // 59 // हे सखि ! अपने हाथमें लोहेका भारी धन लो, मेरे दर्पणको इस (घर ) के बाहर (आगनमें ) रखो। इस दर्पणमें जब चन्द्रमा प्रवेश करता (प्रतिबिम्बित होता) है, तब उस शत्रुको अनायास ही शीघ्र मार डालो। [ अन्य भी कोई व्यक्ति किसी प्रकार घर आदि में शत्रके वसनेपर लोहे छड़ आदि भारी पदार्थोसे उसे मारता है। दमयन्तीका उन्माद बहुत ही बढ़ गया है, जिसके कारण वह इस प्रकार बेसिर-पैर की बातें करती है ] // 59 // उदर एव धृतः किमुदन्वता न विषमो षडवानलवद्विधुः / विषवदुझितमप्यमुना न स स्मरहरः किममुं बुभुजे विभुः / / 60 / / उदर इति / विषमः क्रूरकर्मा, विधुः, उदन्वता उदधिना, 'उदन्वाइनुषी च' इति निपातः। वडवानलबटवाग्निना तुल्यं, 'तेन तुल्यं क्रिया चेदतिः' उदरे कुवा. चेव किं न धृतः / अथवा, अमुना उदन्वता उज्झितमप्यम विधं विभुः समर्थः स्मर. हरः, विषषद्विषेण कालकूटेन तुल्यं, पूर्वपद्धतिः। किं न बुभुजे म असतेस्म / उभयथापि स्वयं जीवेम इति भावः // 6 // __ समुद्ने वडवानलके समान दुःसह ( पक्षान्तरमें-विषतुल्य ) चन्द्रमाको पेटमें ( अपने भीतर ) ही क्यों नहीं धारण किया 1 तथा इस ( समुद्र) के द्वारा विष ( कालकूट ) के समान छोड़े (बाहर निकाले ) गये इस चन्द्रमाको काम-नाशक एवं सर्वसमर्थ वे शहर जी क्यों नहीं खा गये 1 / [ लोकनाशकारी वडवानलको समुद्ने जिस प्रकार अपने भीतर रखकर जगतका उपकार किया, वैसे ही सन्तापकारक चन्द्रमाको भी भीतर ही रख लेना उचित था। और यदि समुद्र ने इस चन्द्रमाको अपने भीतर नहीं रखकर कालकूट विषके समान इसको भी बाहर कर दिया तो कामदेवको भस्म करनेवाळे तथा सर्वशक्तिसम्पन्न शङ्करजीने जगत के दाइक कालकूट विषको जिस प्रकार खाकर संसारको बचा लिया, उसी प्रकार इस चन्द्रमाको भी क्यों नहीं खाया? अतएव जात होता है कि बडवानल तथा कालकूटसे भी अधिक दाह करनेवाला यह चन्द्रमा है, इसी कारण समुद्र तथा शहरजीने भी इसको छोड़ दिया] // 60 // . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 नैषधमहाकाव्यम् / असितमेकसुराशितमध्यभून्न पुनरेष पुनर्विशदं विषम् / अपि निपीय सुरैर्जनितक्षयं स्वयमुदेति पुनर्नवमार्णवम् // 61 // असितमिति / भाणवमर्णवे जातं, 'तत्र जातः' इत्याप्रत्ययः। अशितं मेचर्क विष कालकूटाम्पमेकेनैव सुरेण महादेवेन, अशितं गिलितमपि, पुनर्नाभूनाजनि / एष चन्द्रो नामार्णवं विशदं विषं पुनः सितविषं तु, सुरैर्बहुभिर्देवैः 'प्रयमा पिवते बहि' रित्याउकामेण, निपीय जनितपयं कृतनाशमपि, स्वयं नवं तदपेणैव, पुनसदेत्यागछतीति व्यतिरेकः // 6 // ____समुद्रसे उत्पन्न कृष्णवर्णके ( कालकूट ) विषको एक देवता अर्थात केवळ महादेवजीने खाडिया तो वह फिर उत्पन्न नहीं हुमा मौर समुद्रसे ही उत्पन्न इस (चन्द्ररूप) श्वेतवर्णके विषको बहुत देवतामोंने अच्छी तरह पानकर इसका क्षय कर दिया, तब भी यह (चन्द्ररूप श्वेत विष) फिर स्वयं उत्पन्न होता है। जिस कृष्ण वर्ण अर्थात दुख कारकूट विषको केवल एक महादेवजीने खाया अतः उसे फिर उत्पन्न होना सम्भव है, न कि श्वेत वर्ण होनेसे उत्तम चन्द्ररूप बिस विषको अनेक देवताओंने बार 2 पानकर नष्ट कर दिया है, उसे बार बार स्वयं ( किसीसे बिना सहायता पाये ) उत्पन्न होना / अतएव चन्द्रमा हो कारकूटसे मी अधिक तीव्र विष है। [चन्द्रकलाको देवतालोग कृष्ण पक्षमें पान करते हैं, ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है ] // 61 // विरहिवर्गवधव्यसनाकुलं कलय पापमशेषकलं विधम् / सुरनिपीतसुधाकमपापकं ग्रहविदो विपरीतकथाः कथम् // 62 // विरहीति / हे सखि ! विरहिवर्गवधे व्यसनेनासक्रया, आकुलं सकुलं, सशब्दम् अशेषकलं पूर्णकलं, विधुं पापं कळप करं विद्धि सुदैनिपीता सुधा यस्य तं वीणमि. स्यर्थः / शैषिकः कप्समासान्तः। 'अपोऽन्यतरस्याम्' इति विकल्पाद् हस्वभावः / अपाप एवापापकस्तं सौग्यं कलय / तथा कार्यदर्शनादिति भावः। किंतु ग्रहविदो दैवज्ञास्तु कथं विपरीतव्याः 'कोणेन्दुभिपुत्राः पापास्तसंयुतो बुधः / पूर्णच. न्द्रबुधाचार्यशुक्रास्ते स्युः शुभमहाः // ' इत्येवं विरुवाचः / अनुभवविरोधादप्राचं तद्वाक्यमिति भावः॥१२॥ ___ (हे सखि ! तुम) विरही खी-पुरुष-समुदायके वधरूप निन्दित कर्मवाले ( पक्षान्तरमेंवर्षमें मासक्त अर्थात् मतिश्य संकग्न) पूर्णकलायुक्त चन्द्रमाको पापी और देवताभोंने विसको कला-सुधाका पान कर लिया है, उस ( कृष्ण पक्ष ) चन्द्रमाको पापरहित जानो किन्तु ज्योतिषी लोग उश्टा ( पूर्ण चन्द्र ग्रहको शुम तथा क्षीण चन्द्र ग्रहणको मशुम ) क्यों कहते हैं ? / [अथवा-बशेष ( सम्पूर्ण मर्याद 64) कलाओंसे युक्त विषु ( अच्युत ) को भी परोपकारी न होनेसे पापी तथा कलाहीन परोपकारी पतित या मूर्खको भी पुण्यात्मा समझो] // 12 // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः / " विरहिभिर्बहुमानमवापि यः स बहुलः खलु पक्ष इहाजनि / तदमितिः सकलैरपि यत्र तैय॑रचि सा च तिथिः 'किममा कृता॥ पिरहिभिरिति / या पो विरिहमिः बहुमान सरकारमवापि प्रापितः, जीव. माणचन्द्रवादिति भावः। अवपूर्वादाप्नोतेयन्तात् कर्मणि लुइ। 'गतिपुद्धि'इत्यादिना अणि कर्तुः कर्मस्वम् / ण्यन्ते 'कतुश्च कर्मणः' इत्यभिधानास विरहित मिबहुलतः पर इहास्मिन् लोके, बहुप्रकार, लाति आदत्त इति ज्युस्पस्या बहुल: 'मातोऽनुपसर्गे क' न तु 'बहोल' इति भावः / अननि जातः / अश्विरपुत्प्रेस। किन तथापि, यन्त्र यस्यां तियो सकलैरपि तैर्विरहिमिः तदमितिस्तस्य बहुमानस्वा. मितिरपरिमितिम्बरचि अकारि / नष्टचन्द्रस्वादिति भावः / सा च तिथि: अमा अमितिबहुमानस्यास्यामिति व्युत्पत्या अमा, अमानामिका कृता किम् ? मातेमा. बाथै सम्पदादिकिपि नम्समासे मत्वर्थीये चाकारप्रत्यये 'पस्येति चेति लोपे 'मजा. चतराप'। न स्वमा सहभावोऽस्या सूर्याचन्द्रमसोरिति व्युत्पश्येत्युस्प्रेचा। अमेति सहाथै अध्ययं, ततो भावप्रधानान्मश्वर्थीयाकाराद्वाप // 13 // जिस पक्षने विरहियोंसे अधिक सम्मान पाया, वह पक्ष इस संसार में पहुक' (बहुत मानको लेनेवाला) अर्थात कृष्णपक्ष हुआ। ( उसमें भी) जिसमें उन्हीं (विरहियों) ने इस सम्मानको अपरिमित (अत्यधिक होनेसे परिमाणरहित ) कर दिया, वह तिथि 'ममा की गयी अर्थात अमावास्या कहलायी क्या ? अथवा-निश्चय ही अमा की गयी। [निर• हियों के लिए कृष्णपक्ष कम चन्द्रदर्शन होने से मुखदायी होता है और अमावस्या तिथि सर्वथा चन्द्रदर्शन नहीं होनेसे अधिक सुखदायिनी होती है ] // 6 // स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमात किमु विधु ग्रसते न विधुन्तुदः / निपतितं वदने कथमन्यथा बलिकरम्भनिभं निजमुल्झति / / 64 // * स्वेति / विधुन्तुदो राहुः, विधुं चन्द्रं, स्वरिपोर्विष्णोस्तीपणं निशितं यत् सुदर्शनं सविति विभ्रमात् सारश्यमूलभ्रमात्र प्रसते किमु तालुच्छेदमयादिति भावः। अन्यथा भयाभावे, बदने निपतितं वक्त्रान्तर्गतम् / अत एव, निजं स्वावतं, बलि. कम्मनिभम् उपहृतवण्युपसिकसक्तुसाशं, स्वाधिष्ठितमित्यर्थः / 'करम्भा पधिस.. क' इत्यमरः / एनमिति शेषः / कपमुज्जति उद्विरतीस्युप्रेत . वह राहु अपने शत्रु (विष्णु) के तीक्ष्ण सुदर्शन चक्र का.अतिशय भ्रम होनेसे चन्द्रमा को नहीं पास करता ( खाता) है क्या ? भन्यथा ( यदि अतिशय प्रम नहीं होता तो) मुखमें पड़े हुए अपने पक्केि करम्म (अपनी पूजाके ब्येि दिये गये दही और सत्तचन्द्रमा भी दहीमें साने गये सत्तके गोले के समान श्वेतवर्ण होता है) के समान (चन्द्रमा को) क्यों छोड़ देता है / [ मालूम पड़ता है गोलाकार चन्द्रमाको देखकर राहुको उसी १.किममीकता' इति पाठान्तरम्। 2. '' इति पाठान्तरम् / 16 नै Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / तीन शख (सर्शन चक्र) का अत्यन्त भय हो जाता है, उसी कारण वह अपना गला कट जानेके भयसे अपनी पूना में प्राप्त दषियुक्त श्वेतपिण्डाकार सत्तके समान चन्द्रमा को प्राणकाळमें मुखमें डालकर भी बार-बार छोड़ देता है। समुद्रमन्थनके बाद अमृत बांटनेके समय सूर्य-चन्द्र के बीच में बैठकर राहुने नब अमृत पी लिया तब उसे अमर जानकर विष्णु ने उसको शिर सुदर्शन चक्रसे काट दिया ] // 14 // वदनगर्भगतं न निजेच्छया शशिनमुज्झति राहुरसंशयम् / ... अशित एव गलत्ययमत्ययं सखि ! विना गलनालविलाध्वना // 6 // बहनेति / हे समि! पहाराहुः बदनगर्भगतमास्यान्त:प्रविष्टं शशिनं निजेछपा स्वेण्या, नोति / असंशयं संभयो..नास्ति / अर्थाभावेऽग्ययोमावः। किं स्वयं सशी अमितो गिलिस एव मस्ययं बिना भन्छु मेस्यर्थः / 'मस्ययोऽतिकमे कुछ इति जयन्ती। यमालविकायमा कण्ठनालान्त:कुहरमार्गेण, गति मिस्मरति। राहोः शिरोमानदेन कण्ठनालनिस्पतस्याशितस्य जठराग्निसंयोगविरहादस्य पापिः पुस्येन्दोः पुनरदय इत्युप्रेशायः // 65 // ... राहु-मुखके भीतर गये अर्थात खाये हुए चन्द्रमाको अपनी इच्छासे नहीं छोड़ता है, किन्तु निश्चय ही खाया हुभा यह चन्द्रमा बिना बीर्ण हुए ही (अथवा-अनायास ही) गलनालके विलरूपी रास्ते से निकल माता है। [राहुका केवल सिरमात्र होनेसे चन्द्रमा का बाहर निकल जाना सरह ही है, यदि उसका शरीर पूर्ण पर्वात धड़के सहित होता तो चन्द्रमा उसके पेट में पहुँचकर जीर्ण होने (पच जाने) से बाहर नहीं निकल पाता / मन्य भी कोई व्यक्ति साये हुए किसी पदार्थको स्वेच्छासे बाहर नहीं निकालता है ] // 65 // ऋजुडशः कथयन्ति पुराविदो मधुभिदं किल राहुशिरश्छिदम् / विरहिमूर्धभिदं निगदन्ति न क नु शशी यदि तज्जठरानलः // 66 // अडस इति ।रासादाविककार्यमाप्रदर्शिना, न स्वागामिकार्यसिन इस्यबापुराविषः पुराणज्ञाः पूर्वपुरुषा, मधुमिदं विष्णु, राहुशिररिक कथयन्ति किछ। मिति वार्तावाम् / विरहिमूर्यमिदं पियोगिभिरश्विदं न मिगदन्तीति काकुः / तकनीवमित्वः। तस्वस्थ राहोर्जठरावलो पदि मस्तीति शेषः / शशी क्य दुनियापि स्यादिपराहुभिरखेदेन तदीयजठराग्निविच्छेदकस्वाहिरहिमारक. समिनमुखीवनमा विष्णुविरहिशिरश्छेदीत्येवंग्यपदेश्यः न राशिरस्छेदीस्पः॥ सौपा देखनेवाले (सरदुषि) पौराणिक लोग मधुसूदन (विष्णु) को राहुका सिर कारवान करते है, विरहियोंका सिर काटने वाला नहीं करते। (क्योंकि ) यदि राहुका अमरानक (पूर्ण पड़के साथ शरीर होनेसे जठराग्नि होती तो चन्द्रमा कहां होता ? अर्थात नहीं होगा किन्तु राहुके जठराग्निमें ही जीणं हो जाता। [ विष्णुदारा राहुका शिर काटने के कारण ही राहु के मुखमें गया हुआ मी चन्द्रमा गईनके रास्ते बार-बार बाहर निकल Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 233 आता है और विरही स्त्री-पुरुषों को सताया करता है, अतः विष्णुको राहुका शिर काटने. बाला न कहकर विरहियों का शिर काटनेवाला कहना उचित है ] // 66 // स्मरसखौ रुचिभिः स्मरवैरिणा मख मृगस्य यथा दलितं शिरः / सपदि संदधतुर्भिषजौ दिवः सखि ! तथा तमसोऽपि करोतु कः // 6 // स्मरसखाविति / हचिभिः स्मरसखी कायकान्तिभिः स्मरसाशी तन्मित्रेच, दिवो भिषजौ स्ववैधौ, स्मरवैरिणा हरेण, दलितं भिन्नं, मख एव मृगः तस्य मृग. रूपधारिणो मखस्येत्यर्थः / शिरो यथा सपदि संवधतुः संयोजयामामतः / यो यस्य मित्रं स तस्य वरं निर्यासयतीति युक्तम् / किंतु, हे सखि ! कस्तमसो राहोरपि तथा शिरस्सन्धानं करोतु / न कोऽपीत्यर्थः / हरस्य मखमृगशिरश्छेदे पुराणं प्रमाणम्, अश्विनोः पुनस्तरसन्धाने 'ततो वै तौ यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्ताम्' इति श्रुतिः // 67 // हे सखि ! शोमामोंसे कामदेव के मित्र अर्थात् कामदेव के समान शोमावाले स्वर्गके वैद्य अश्विनीकुमारोंने कामशत्रु (शङ्करजी ) के द्वारा मृगरूपधारी यशके शिरको जिस प्रकार शीघ्र जोड़ दिया, उप्त प्रकार (विरहि-वैरी विष्णुके द्वारा काटे गये ) राहुशिरको कौन जोड़े ? / [यशका काम देव तथा कामदेव के अश्विनीकुमार मित्र हैं, अतः 'मित्रका मित्र भी मित्र होता है तथा वह मित्र मित्र-शत्रुद्वारा बिगाड़े हुए कामको ठीक कर देता है' इस सिद्धान्त के अनुसार यशमित्र-( कामदेव- ) मित्र अश्विनीकुमारोंने मित्र-( कामदेव-) शत्रु अर्थात् शङ्करजोके द्वारा मित्र-( कामदेव- ) मित्र अर्थात् यश ( मृगरूपधारी यश ) का काटा गया शिर तत्काल जोड़ दिया, कटे हुए अङ्गको तत्काल जोड़नेसे-उप्स में भी स्वर्गके दो वैद्यों द्वारा जोड़नेसे वह बिल्कुल ठीक हो गया। विरहिणियों का कोई दो की कौन कहे, एक भी अनुभवी चिकित्सक मित्र दृष्टिगोचर नहीं होता, जो विरहि-शत्रु विष्णुद्वारा काटे गये राहुशिरको जोड़ दे, यदि ऐसा होता तो राहु के द्वारा खाया गया चन्द्रमा उसके अठरानल में ही रह जाता और विरहि-जनोंको वह नहीं सताता] // 67 // नलविमस्तकितस्य रणे रिपोर्मिलति किं न कबन्धगलेन वा / मृतिभिया भृशमुत्पततस्तमोग्रहशिरस्तदमृग्हढबन्धनम् // 68 / / नलेति / अथवा, रणे नलेन विमस्त कितस्य तथापि मृतिमिया मरणभयेन भृशमुस्पतत उद्गच्छतो रिपोः, कबन्धगलेन अपमूर्धकलेवरकण्ठेन सह तमोग्रहस्य शिरः, तस्य गलस्यासृजा रक्तेन ढबन्धनं निबिडसंयोगं सत् किं न मिलति न सनग्छते ? तथा च तज्जठराग्निना चन्द्रो जीदिति भावः // 18 // अथवा संग्राम में मरने ( 'धृतिभिया' पाठमें-नलद्वारा पकड़े जाने ) के भयसे अत्यन्त ऊपर उछलते हुए ( तथापि ) नल के द्वारा काटे गये सिरवाले शत्रुके (शिर से रहित) धड़की गर्दन के साथ ( आकाश में तारारूपमें स्थित ) राहुका शिर उस (शिरसे हीन धड़) के रक्तसे अच्छी तरह जुड़कर नहीं मिल जायगा क्या ? / [इसके पूर्ववाले श्लोकमें विरहिजनोंको Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 नैषधमहाकाव्यम् / कोई मित्र नहीं दृष्टिगोचर होने से राहुशिरका उसीके धड़के साथ जोड़ने की संभावना को दमयन्तीने प्रकट किया है, फिर इस पद्य में यदि कोई वैसा करनेवाला मिल भी गया तो भी राहुके शिरको कटे बहुत समय व्यतीत हो जाने के कारण उस जोड़को दृढ न समझकर इस श्लोकमें रक्तयुक्त नलच्छिन्नमस्तक शके धड़के साथ राहुशिरको मिलकर दृढ होने की कल्पना दमयन्तीद्वारा की गई है / ऐसा होने से चन्द्रमा राहु के जठर में जाकर गल-पच जायेगा और विरहि-जनों को सर्वदाके लिये उससे छुटकारा मिल जायेगा ] // 68 // सखि ! जरां परिपृच्छ तमश्शिरस्सममसौ दधतापि कबन्धताम् / मगधराजवपुर्दलयुग्मवत् किमिति न प्रतिसीव्यति केतुना ? // 6 // सखीति / अथवा, हे सखि ! जरा जराख्यां निशाचरी, परिपृच्छ / असी जरा कबधताम, अशिरस्कतां दधतापि केतुना समं केतुग्रहेण सह, तमसो राहोः शिर: मगधराजस्य जरासन्धस्य वपुर्दलयोः शरीरार्धमागयोः युष्मवत् युगलमिव, किमि ति न प्रतिसीम्यति न सन्धत्ते ? / शिरोमानं राहुः शरीरमानं केतुः तयोः सम्धाने पूर्ववत्तजठराग्निना चन्द्रो जीयेंदिति भावः / जराकृताङ्गसन्धानो जरासन्ध इति भारती कथानुसन्धेया // 69 // ___ हे सखि ! तुम जरा ( नामकी राक्षसी ) से पूछो कि राहु के शिरको कबन्धरूप केतुके साथ, मगधनरेश ( जरासन्ध ) के शरीर के दो खण्डों के समान क्यों नहीं सी ( कर जोड़) देती हो ? / [ जिस प्रकार दो टुकड़ों के रूप में जन्मे हुए जरासन्धका शरीर सीकर तुमने जोड़ दिया, उसी प्रकार केतुरूप धड़ तथा राहुरूप शिर को जोड़ देना उचित हैं, विष्णुके द्वारा सुदर्शन चक्रसे काटने के बाद एक ही दैत्यका शिर राहु तथा धड़ केतु नामसे प्रसिद्ध हुश्रा, अतः एक ही व्यक्ति के धड़ तथा शिरको जोड़ ना तुम्हें अवश्यमेव उचित है। इससे मिस प्रकार विरहिजनों को लाभ होगा, वह पहले के दो इलोकों में कह दिया गया है ] 69 // बद विधुन्तुदमालि ! मदीरितैस्त्यजसि किं द्विजराजधिया रिपुम् / किमु दिवं पुनरेति यदीदृशः पतित एष निषेव्य हि वारुणीम् / / 70 // वदेति / हे भालि सखि ! मदीरितैः मद्वाक्यैः, विधुन्तुदं राहुं वद, रिपुं द्विजरा जश्छन्द्रो ब्राह्मणश्रेष्ठश्च, तदिया त्यजसि किम् ? / तन्नास्तीत्याह-ययस्मादेष चन्द्रो वाहणी प्रतीची सुराज / 'वाहणी गन्धर्वायां प्रतीचीसुरयोरपि' इति विश्वः / निषे. ज्य गरवा पीत्वा च / पतितः च्युतः पातकी च / ईरशः पतितोऽपि पुनर्दिधमन्तरिक्षं स्वर्गच एति यदि किमु / इयोरपि पतितयोरधोगतिरेव नोर्ध्वगतिरित्यर्थः / अतः पतितस्य कुतः श्रेष्ठयं कुतस्तरां तडधे दोषश्चेति भावः // 70 // हे मालि ! तुम मेरे कहनेसे चन्द्रमाको पीड़ित करनेवाले अर्थात राहुसे पूछो कि-'तुम Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 235 द्विजराज (ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ, पक्षान्तरमें-चन्द्रमा) को बुद्धिसे अर्थात ब्राह्मण श्रेष्ठ ( पक्षान्तर में। चन्द्रमा) समझकर शत्रुभूत इस चन्द्रमाको (ब्राह्मणको नहीं मारना चाहिये, एतदर्थक अतिको स्मरणकर) छोड़ते हो क्या, फिर यदि यह ऐसा अर्थात् ब्राह्मण-श्रेष्ठ होता तो वारुणी ( मदिरा, पक्षान्तरमें-पश्चिम दिशा ) का सेवनकर अर्थात् मदिरा पीकर ( पक्षा. न्तरमें-सायंकाल में पश्चिमकी ओर जाकर ) पतित ( मदिरा सेवनजन्य महापात कसे युक्त, पक्षान्तरमें समुद्र में गिरा ) हुआ फिर स्वर्ग ( पक्षान्तरमें-माकाश ) में क्यों भाता ? अर्थात् नहीं आता। [ 'द्विजराज' शब्दका ब्राह्मण या ब्राह्मण-श्रेष्ठ और चन्द्रमा-दोनों अर्थ है / ब्राह्मण-हत्याका वेदमे निषेध जानकर शत्रुभूत चन्द्रमाको भी ब्राह्मण-श्रेष्ठ समझकर छोड़ देना राहुको ठोक नहीं, क्योंकि जो ब्राह्मण मदिराका सेवन करता है वह पतित हो जाता है तथा फिर स्वर्ग पानेका अधिकारी नहीं रहता, किन्तु वारुगी अर्थात् पश्चिम दिशाका सेवनकर सायंकालमें पश्चिम समुद्र में गिरकर पुन प्रातःकाल उदित होता है, अतः यह ब्राह्मण है ही नहीं या ब्राह्मण है मी तो पतित ब्राह्मण है, अतः शत्रुभूत इस (चन्द्रको तुम अवश्य मारो, इससे हमलोगों की पीडा शान्त हो जायेगी ] // 70 // दहति कण्ठमयं खलु तेन किं गरुडवद् द्विजवासनयोज्झितः ? / प्रकृतिरस्य विधुन्तुद ! दाहिका मयि निरागसि का वद विप्रता?||७१।। वहतीति / हे विधुन्तुद ! अयं विधुः द्विजवासनया द्विजस्वसामान्येनेत्यर्थः / पातित्येऽपि जातेरनपायादिति भावः / गरुडवद् गरुडस्येव 'तत्र तस्येव' इति वति. प्रत्ययः / ते तव कण्ठं दहति खलु / विधुः तेन दाहेनोज्झितः किम् ? अस्य विप्रता का वद, न कापीत्यर्थः / तथा हि, अस्य विधोः प्रकृतिः निरागसि निरपराधायां मयि दाहिका दग्ध्री / अनपराधस्त्रीघातुकस्य कुतो ब्राह्मणस्वमित्यर्थः। 'आगोऽप. राघो मन्तुश्च' इत्यमरः / पुरा किल क्षुधितेन गहस्मता पित्रादेशेन म्लेच्छान् भक्ष. यता तन्मिलितः भ्रष्टद्विजः कश्चित् तदग्धगलेन सहसोद्गीण इति पौराणिकी कथा। तथा माघवाह-'विप्रं पुरा पतगराडिव निजंगार' इति // 71 // (अथवा ) यह चन्द्रमा ( खानेपर ) तुम्हारे कण्ठको जलाता है, अतः ब्राह्मण समझ. कर गरुड़के समान इसको छोड़ देते हो क्या / ( यह ठीक नहीं, क्योंकि ) इसका स्वभाव ही दाहक (जलानेवाला) है, ( तुम्ही बतलाओ कि ) मुझ निरपराधिनी में क्या ब्राह्मणत्व है ( जो मुझे जला रहा है ) / ब्राह्मण अपराधीको शापके द्वारा जलाता है, निरपराधीउसमें भी दुखिया स्त्रोको नहीं, किन्तु जिस प्रकार यह मुझ निरपराधिनीको अपने स्वभाव. से ही जलाता है ब्राह्मणस्वके कारण नहीं; उसी प्रकार मुखमें लेने पर तुमको भी स्वभावसे ही अलाता है, अपने ब्राह्मणत्व के कारण नहीं, अब इस चन्द्रमाको खाना ही तुम्हारे लिए उचित है, गरुडके समान कण्ठ में दाह होनेमात्रप्ते चन्द्रमाको ब्राह्मण समझकर छोड़ना Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 नैषधमहाकाव्यम्। उचित नहीं। 'एक समय माताकी दासताको छुडाने के लिये स्वर्गसे अमृत कोनेको माते हुए गरुडसे कश्यपने कहा था कि मार्ग में ब्राह्मणों को छोड़कर बो जीव मिले उसे खा सकते हो, किन्तु निसको मुख में लेने पर गले में दाइ हो उसे ब्राह्मण समझकर छोड़ देना' इस भादेशानुसार मार्गमें समुद्रतटपर निषादों में रहने वाले निषादाकृति ब्राह्मणको गरुड़ने निषाद के भ्रमसे मुखमें डाला, परन्तु गलेमें दाह होने लगा तो उसे उगल दिया' यह पौराणिक कथा है / / 71 // सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय यमाय विनिर्मितः / विरहिणीगणचर्वणसाधनं विधुरतो द्विजराज इति श्रुतः / / 72 / / सकलयेति / विधुः सकलया कलया सकलाभिः, कलाभिरेव बंष्ट्रया दंष्ट्रामिः, दन्तविशेषैः प्रकृतिद्रव्येण / उभयत्र जास्येकवचनम् / यमाय अन्त कार्य समवधाय सम्यगवाहितीभूय, विरहिणीगणस्य चर्वणसाधनं किशिक्षणसाधनं विनिर्मितः, किल ब्रह्मणेति शेषः / अतोऽस्माइंष्ट्राविशेषस्वाद 'विजराज' इति श्रतः, न तु विप्रकि. शेषस्वादिस्यर्थः / दन्तविप्रायजा द्विजा' इत्यमरः / अतो नायमुपेक्ष्य इति भावः // यह चन्द्रमा यमराजके लिये सावधान होकर (ब्रह्माके द्वारा) सम्पूर्ण कलारूपी दांतोंसे विरहिणीसमूहको चबानेका साधन बनाया गया है, अतएव यह द्विजराज ( द्विजों अर्थात दांतोंसे शोभनेवाला) कहा गया है / [ब्राह्मणों में शोमनेवाला या श्रेष्ठ होनेसे द्विजराज नहीं कहा गया है, अतः ब्राह्मण न होनेसे इसे मारनेमें राहुको कोई पाप नहीं. इस कारण इसे मार ही डालना उचित है // अन्य लोगोंको भी चना आदि चबाने के लिए सब दांतों को दृढ़ रहना आवश्यक होता है ] // 72 // स्मरमुखं हरनेत्रहुताशनाज्ज्वलदिदं विधिना चकृषे विधुः / बहुविधेन वियोगिवर्धनसा शशमिषादथ कालिकयाट्टितः // 73 // स्मरमुखमिति / अथ विधुश्चन्द्रो नामेदं स्मरमुखं ज्वलत् प्रज्वलदेव विधिना देवेन हरनेबहुताशनाचकृषे मध्ये आकृष्टः / अथवा बहुविधेन वियोगिवधेन यदेनः पापं, तेनैव कालिकया श्यामिकया, शशमिषादङ्कितः / दाहकालिमा वा, पापका लिमा वा शशमिषाद् एश्यत इति सापह्नवोस्प्रेक्षादयम् // 73 // ब्रह्माने शिवजीके नेत्रकी अग्निसे, अलते हुए इस चन्द्ररूप काम-मुखको खींच लिया, फिर बियोगिजनों के वधजन्य अनेक प्रकारके पापके कारण उसे शशकके बहाने से कालिका अर्थात् कालिखसे चिह्नित कर दिया। [ अन्य भी व्यक्ति अग्नि में जलते हुए किसी मनुष्यको बचाने के लिये भग्निसे खींचकर निकालता है, यदि वह अच्छा (उपकारक) होता है तो उसे रख लेता है, अन्यथा यदि वह दूसरों के लिए हानिकारक होता है तब उसके मुख में कालिख पोतकर उसे बाहर निकाल देता है तथा अधजली वस्तुमें भी कालिख लगी रहती है] 17 // Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 237 इति विधोविविधोक्तिविगर्हणं व्यवहितस्य वृथेति विमृश्य सा / अतितरां दधती विरहज्वरं हृदयभाजमुपालभत स्मरम् / / 74 // . इतीति / अतितरामतिमात्रम्, अव्ययादाम्प्रत्ययः। विरहज्वरं दधती सा दम. यन्ती इतीत्थं, व्यवहितस्य विप्रकृष्टस्य, विधोविविधोक्तिभिर्विगर्हणं निन्दा वृथेति विमृश्य, अरण्यरुदितप्रायमिति विचार्य, हृदयमाज सन्निहितं स्मरमुपालभत निनिन्द / पाक्षिकफलसम्भावनयेति भावः // 74 // अत्यधिक विरहज्वरको धारण करती हुई वह दमयन्ती 'अत्यन्त दूरस्थ चन्द्रमाकी अनेक प्रकार के कथन से निन्दा करना व्यर्थ है (उसके स्वयं न सुननेसे मेरी की हुई निन्दा अरण्यरोदन के समान है ), ऐसा विचारकर हृदय ( अत्यन्त समीप ) में नित्य रहनेवाले कामदेवको उपालम्भ देने लगी ( कामदेवको निन्दा करने लगी)।[भपकारी व्यक्तियों में से दूरस्थको उकहना न देकर अत्यन्त निकटस्थ व्यक्तिको उलहना देना उचित समझा नाता है ] // 74 // (द्विजपतिग्रसनाहितपातकप्रभवकुष्ठसितीकृतविग्रहः / विरहिणीवदनेन्दुजिघत्सया स्फुरति राहुरयं न निशाकरः॥१॥)* (द्विजराज ( ब्राह्यण, पक्षान्तरमें चन्द्रमा) के खानेसे स्थापित ( या 'महित' पदच्छेद करने पर 'अहितकर') पापसे उत्पन्न कोढ़से सफेद शरीरवाला ( तथा इस समय) विर. हिणियोंके मुखरूपी चन्द्रमाको खानेकी इच्छासे यह राहु स्फुरित हो रहा है, यह चन्द्रमा नहीं है / [अन्य भी कोई व्यक्ति ब्राह्मणके खानेसे उत्पन्न महापातकसे कुछरोगी हो जाता है, किन्तु वह यदि अत्यधिक दुष्ट होता है तो अपने स्वभावसे विवश होकर फिर उसी दुष्कर्मको करता रहता है ] // 1 // हृदयमाश्रयसे बत मामकं ज्वलयसीत्थमनङ्ग ! तदेव किम् ? / स्वयमपि क्षणदग्र्धानजेन्धनः क भवितासि ? हताश ! हुताशवत् / / 75 // हृदयमिति / हे अना! ममेदं मामकम् / 'तवकममावेकवचने' इत्यणि ममः कादेशः / हृदयमाश्रयसे / तदेवेस्थं किं ज्वलयसि वहसि ? बत। हताश दुर्बुढे! स्वयं स्वमपि, हुतमश्नातीति हुताशोऽग्निः, कर्मण्यण / तद्वत् क्षणदग्धनिजेन्धनो दग्धाश्रयः सन्नित्यर्थः / क्व भवितासि व भविष्यसि 1 न कापीत्यर्थः। अनघतने लुट / परहिसाव्यसनेनात्मनाशं न पश्यसीयाशयेन हताशेत्यामन्त्रणम् // 75 // हे कामदेव ! यदि तुम मेरे हृदयका आश्रय करते हो अर्थात् मेरे हृदय में रहते हो. तब सीको इस प्रकार ( अतिशय एवं निरन्तर ) क्यों जलाते (अपने आश्रयस्थानको नष्ट करते ) हो ? / हे हताश ! ( निष्फल अभिलाषावाले ! ) क्षणभरमें अपने इन्धनको मला देनेवाले अग्नि के समान स्वयं भी तुम कहाँ रहोगे 1 / (जिस प्रकार अग्नि अपने & अयं श्लोक: तिलक सुखावबोधा'ख्यव्यास्ययोरुपलभ्यत इत्यवधातम्यम् / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / इन्धनको जलाकर स्वयं भी बुझ जाती है, उसी प्रकार अपने आप्रय मेरे हृदयको पीस्तिकर अर्थात मुझे मारकर तुम मी कहां रहोगे ? // लोकमें भी कोई व्यक्ति अपने निवास. स्थानको स्वयं नष्ट नहीं करने पर ही सुखी रहता है, अतः स्वाभयभूत मेरे हृदयको पीडित करना तुम्हारे लिये अच्छा नहीं होगा] // 75 // पुरभिदा गमितस्त्वमदृश्यतां त्रिनयनत्वपरिप्लुतिशङ्कया / स्मर ! निरक्ष्यत कम्यचनापि न त्वयि किमक्षिगते नयनत्रिभिः / / 76 / / पुरभिदेति / हे स्मर ! स्वम् अतिगत इति शेषः। अनसिसनिकृष्टस्याचणा दग्धुमशक्यस्वादश्यस्य च दाहायोगादिति भावः। पुरभिदा हरेण, त्रिनयनत्वं ज्यवस्वं, पुम्नादिस्वाण्णत्वाभावः। तस्य परिप्लुतिशङ्कया तृतीयाक्षिवैयर्यभयेने. त्यर्थः / अहश्यतां गमितो नाशं प्रापितः, 'गति बुद्धि'-इत्यादिना भणिकर्तुः कर्मत्वे तत्रैव कः / 'ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मण' इति वचनात् / किन्तु, कस्यचनापि यस्य कस्य चिदपि जनस्याक्षिगते हग्गोचरे द्वेष्ये च / 'देष्ये स्वक्षिगतो वध्यः' इत्यमरः / स्वयि विभिन यनैः किं न निरैयत, किमिति न निरीक्षितम् / अतोऽस्य त्रिनयनस्वं व्यर्थः मेवेत्यर्थः / स्वामिगत इव माशाक्षिगतेऽपि त्वयि तृतीयातिनिरीक्षणाभावादपरोपकारिणस्तस्य वैयथ्य, निरीक्षणा देवस्य जितकामस्वादन्येषां तु कामजितस्वादुरप्रे. घयत इति / स्वयि निचयतेत्यत्र कर्मणोऽपि स्मरस्य अनेक शक्तियुक्तस्येति न्यायेन मातरि प्रहृतमित्यादिवदाधारस्वविवक्षायामविवक्षितकमकादीक्षतेर्भावे लकारः / 'प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया' इति वचनात // 7 // हे स्मर ! महादेवजीने (अपने) त्रिनयनत्वको अर्थात् तृतीय नेत्रवाला होने की व्यर्थता (या अतिव्याप्तिकी ) माशङ्कासे तुमको अदृश्य ( नष्ट ) कर दिया। (फिर ) तुम्हारे प्रत्यक्ष ( पक्षान्तरमें-द्वेष्य ) होने पर किसे तीन नेत्र ( पक्षान्तर में-क्रोध) हुए अर्थात् किसीको भी नहीं / अथवा--अक्षिगत (देण्य) होने पर कोन त्रिनेत्र अर्थात् क्रोधयुक्त नहीं हुआ, अपितु सभी कोषयुक्त हुए / [ महादेवजीने सोचा कि अभी तो केवल मैं ही त्रिनेत्र हूँ, पर कामदेव यदि अन्य लोगोंका अक्षिगत यानी प्रत्यक्ष ( पक्षान्तरमें-देष योग्य ) होगा तो सभी त्रिनेत्र ( पक्षा०-क्रोधी ) हो जायेंगे तो हमारा त्रिनेत्र ( तीन नेत्रोंवाला) होना व्यर्थ हो जायगा / अत एव उन्होंने तुम्हें जलाकर नष्ट कर दिया कि अब भविष्यमें कामदेव न किसीको अक्षिगत ( प्रत्यक्ष) होगा, न कोई त्रिनेत्र (क्रोधी ) ही होगा, इस प्रकार मेरा त्रिनेत्र होना सफल होगा। यही कारण है कि तबसे कामदेवको देखकर कोई त्रिनेत्र ( कोधी ) नहीं हुआ, अपितु कामदेवके द्वारा मानन्दलाम किया। लोकमें भी कहा जाता है कि 'मैं' तुम्हें देखकर त्रिनेत्र ( क्रोधी ) हो गया, यही कारण है कि क्रोध होनेपर लोगोको आंख लाल हो जाती है, शिवजीकी भांखते भी कामदेव के जलाने के समय लालवर्ण हो अग्नि निकलती थी / लोकमें अब भी क्रोध के कारण आँखसे चिनगारी निककने की बात होग कहा करते हैं ] // 76 // Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an चतुर्थः सर्गः 236 सहचरोऽसि रतेरिति विश्रुतिस्त्वयि वसत्यपि मे न रतिः कुतः ? | अथ न सम्प्रति सङ्गतिरस्ति वामनुमृता न भवन्तमियं किल / / 77 // सहचर इति / हे स्गर ! रतेः रतिदेण्याः, सन्तुष्टेच सहयोऽसीति विश्रुतिः प्रसिद्धिः। स्वयि वसति हृदयस्थे सत्यपि, मे कुतो रतिनं ? अथवा, सम्प्रति वां युवा योः सङ्गतिर्नास्ति / कुतः, इयं रतिर्भवन्तं नानुमृता किल / किलेति वार्तायाम् / अनुमरणाभावादसङ्गतिर्यक्तेत्यर्थः / अत्र प्रीतिलक्षणाया रतेदेंग्या सहाभेदाभ्यवसा. नादयमुपालामः / अत एवातिशयोक्तिरलवारः // 77 // तुम रति ( अपनी स्त्री, पक्षान्तरमें-प्रीति ) के सहचर हो अर्थात् जहाँ तुम रहते हो, वहाँ रति (रति नाम की तुम्हारी प्रिया, पक्षान्तरमें-प्रीति ) अवश्य रहती है, यह विश्रुति ( लोकमें प्रसिद्धि या विशिष्ट श्रुति = विशेष वेदवाक्य ) है; किन्तु तुम्हारे निवास करते रहने पर भी मुझे रति ( नल के साथ सहवासरूपी रति, पक्षान्तरमें-प्रीति ) क्यों नहीं है ? (तुम्हारे रहने पर उसे रहना उचित था)। अथवा-इस समय (शरजो के द्वारा तुम्हारे जलाये जाने के बाद ) तुम दोनों ( रति-काम ) का साथ नहीं है, पर तुम्हारे पीछे वह ( रति ) तो नहीं मर गयी है। ( अतः तुम रतिके सहचर हो, यह वस्तुतः विश्रुति अर्थात् विपरीत जनप्रसिद्धि ( पक्षान्तरमें-विपरीत वेदवचन ) है ] // 77 / / रतिवियुक्तमनात्मपरज्ञ ! कि स्वमपि मामिव तापितवानसि ? | कथमतापभृतस्तव सङ्गमादितरथा हृदयं मम दह्यते ? // 79 // रतीति / आत्मानं परश्च न जानातीत्यनारमपरज्ञ सर्वघातुक मार! मामिव रतिवियुक्तं स्वमात्मानमपि तापितवानसीत्युत्प्रेक्षा / कुतः, इतरथा स्वाऽसन्तापने, अतापभृतस्तापरहितस्य तव सङ्गमात् सम्पर्कान्मम हृदयं कथं दद्यते ? तप्तस्पर्शा. तापो नातप्तस्पर्शादित्यर्थः / सन्तापनादपि, स्वयमतप्तेन स्वया परसन्तापः क्रियते यथा तग्छीलैस्तप्तमुखैः शिलीमुखैरिति भावः // 78 // ___ हे अनात्मपरक्ष! अर्थात् अपना तथा पराया नहीं जाननेवाले (किस की रक्षा करनी चाहिये तथा किसकी नहीं, यह नहीं समझनेवाले कामदेव ! ) रति ( नलविषयक संसर्ग) से रहित मेरे समान रति अपनी प्रियतमा) से रहित अपनेको भी क्यों संतप्त किया है ? अन्यथा ( यदि तुम अपनेको भी नहीं सन्तप्त करते तब ) सन्ताप-रहित तुम्हारे साथसे मेरा हृदय क्यों जल रहा है ? [ कोई भी व्यक्ति अपनी रक्षा करते हुए दूसरोंको सन्ताप देता है, किन्तु तुम तो इतने दुष्ट हो कि स्वयं सन्ताप सहकर भी दूसरेको सन्तप्त कर रहे हो, अतः तुम्हारी दुष्टता अत्यधिक है // लोकमे मी ठण्डे पदार्थ के संसर्गसे कोई गर्म नहीं होता है ] // 78 // __ अनुममार न मार ! कथं नु सा रतिरिति प्रथितापि पतिव्रता / इयदनाथवधूवधपातकी' दयितयापि तयासि किमुज्झितः ? // 6 // 1. 'विरहिणीशतघातनपातकी' इति पाठान्तरम् / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 नैषधमहाकाव्यम्। अनुममारेति / हे मार मारक ! पतिप्रतेति प्रथितापि सा रतिः कथं नानुममार कथं नानुमृता ? 'मृते म्रियेत या नारी सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता' इत्यनुस्मरणादिति भावः / अथवा, इयद्भिरेतावद्भिरसंख्यरित्यर्थः / अनाथवधूनां वियोगित्रीणा, वधैः पातकी वं, तया दयितयापि विरहमसहमानयापीति भावः। उज्झितः स्यकोऽसि किमित्युस्प्रेक्षा। 'भा शुद्धःसंप्रतीचयो हि महापातकदूषित' इति स्मरणादिति भावः / / हे पातक कामदेव ! अत्यन्त विख्यात पतिव्रता मी वह रति तुम्हारे बाद क्यों नहीं मर गयो / अर्थात मरकर सती हो गयी ? इतनी (सैकड़ों-नारों) मनाथ स्त्रियों के मारने से पातको तुमको अतिशय प्रिया उस ( रति ) ने भी छोड़ दिया है क्या ?[ सैकड़ों-सहनों भनाथ विरहिणी स्त्रियों की हत्या करनेसे पातकी होने के कारण ही पतिव्रता तथा परमप्रिया होनेपर भी रतिने स्मृति ( याप० 177 ) वचनको मानकर हो तुम्हें छोड़ दिया, अन्यथा वह अवश्यमेव तुम्हारे मरने के बाद सती हो जाती] // 79 // सुगत एव विजित्य जितेन्द्रियस्त्वदुरुकीर्तितनुं यदनाशयत् / तव तनूमवशिष्टवतीं ततः समिति भूतमयीमहरद्धरः // 8 // सुगत इति / जितेन्द्रियो वशी सुगतो बुद्ध एव, विजित्य, तव उरुं महती कीतिः मेव तनुं शरीरं, यद्यस्मादनाशयत् नाशितवान् / ततः कारणादवशिष्टवत्तीमवशिष्ट भूतमी पावभौतिकी तव तनं समिति युद्ध हरः शम्भुरहरत् भस्मीचकारेश्यर्थः / ताथपि निर्लजः कथमिस्थमस्मारशानकरणं यथयसीति विस्मिताः स्म इति भावः // __ जितेन्द्रिय बुद्धने हो तुम्हें जीतकर तुम्हारी बढ़ी हुई कीतिरूपी शरीरको जो नष्ट कर दिया। तदनन्तर जितेन्द्रिय हर (संसारका संहार करनेवाले महादेव) ने युद्ध में विजयकर शेष पात्र भौतिक (पृथिवी आदि पञ्चमहाभूतसे बने हुए) शरीरको हरण किया (जलाया ) / [ यदि जितेन्द्रिय बुद्ध तुमको जीतकर तुम्हारा यश नष्ट नहीं किये होते तो सर्व-संहार-कर्ता शिवजी मी तुम्हें नहीं जला सकते / अथवा-पहले तो बुद्धने तुम्हें जीतकर कीतिको नष्ट किया, फिर भूतमयी (पिशाच-रूपी) देहको महादेवजीने जलाया, इस अर्थमें यशको आत्मा तथा शरीरको पाञ्चभौतिक शरीर माना है, क्योंकि यश तथा मात्मा दोनों अमर एवं निस्य हैं तथा आत्माके शरीर से निकल जानेपर पात्रमौतिक शरीरको जला दिया जाता है / मारने पर भूतमय अर्थात् प्रेतरूप होना लोक तथा शास्त्र में माना जाता हैं ] // 8 // फलमलभ्यत यत्कुसुमैस्त्वया विषमनेत्रमनङ्ग ! निगृह्णता / अहह नीतिरवाप्तभया ततो न कुसुमैरपि विग्रहमिच्छति // 81 // फलमिति / हे अनङ्ग ! विषमनेनं ध्यक्ष, कुसुमैनिगृह्णता निसन्यता प्रहरतेत्यर्थः। स्वया यत्फलं मरणरूपमलभ्यत / ततस्तस्मात् फलादवाप्तभया प्राप्तभया नीतिः, सर्वथा साधनान्तरेणापि वैरनिर्यातनं कार्पमित्येवंरूपा(की), कुमुमैरपि विग्रहं नेच्छति / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 241 अहहेत्यद्भुते / किनुत साधनान्तरै, 'पुष्पैरपि न योग्य किं पुनर्निशतैः शरै'रिति नीत्या कुसुमान्यपि मोक्तुं बिभेषीति भावः // 8 // हे अनङ्ग ! पुष्पों (बाणभूत पुष्पों) से भी त्रिनेत्र महादेवजी पर प्रहार ('विगृह्णता' पाठमें विरोध ) करते हुए जो फल (मात्मनाश) पाया, उसीसे समय होकर नीति, पुष्पों के द्वारा भी ( तीक्ष्ण बाण आदि शत्रोंका तो कहना ही क्या ?) विरोधको नहीं चाहती ( 'पुष्पोंसे भी किसीको मारना श्रेयस्कर नहीं' यह नीति श्रेष्ठ मानी जाती है)। अथवा-हे 'भङ्ग हीन' (जब शरीर ही नहीं तो शरीराभयो शान कहां रहेगा! अतः हे मूर्ख कामदेव !) तुम ऐसे मूर्ख हो कि पुष्पास्त्र होकर भी विषम-दृष्टि ( असमान नेत्रवाले अर्थात् मृत्युञ्जय ) के साथ मी युद्ध करने गये, यह भाश्चर्य है / अथवा-विषम अर्थात् भतितीक्ष्ण स्वभाववाले नेत्र ( नायक ) के साथ विरोध किया यह तुम्हारी बड़ी मुर्खता है ] // 81 // अपि धयनितरामरवत्सुधां त्रिनयात्कथमापिथ सां दशाम् ? | भण रतेरधरस्य रसादरादमृतमात्तघृणः खलु नापिबः ? // 2 // अपीति / हे स्मर! इतरामरवद् देवतान्तरवत् , सुधा धयन् पिषमापि, धेटः शत प्रत्ययः / त्रिनयनादीवरात् , कथं तो दशां मरणावस्थाम, आपिथ प्राप्तोऽभूः ? आप्नोलिटि थलि क्रयादिनियमादिदागमः / मण वद / अथवा, रतेदेंग्याः, अधर. स्योष्ठस्य, रसे स्वादे, आदरावास्थावशात् आत्तघृणः प्राप्तामृतजुगुप्सः सन् / 'घृणा जुगुप्साकृपयोः' इति वैजयन्ती। अमृतं नापिवः खलु / अमृतपाने कथमन्येवमरेषु स्वमेको मृत इति भावः // 82 // अन्य (इन्द्र आदि ) देवताओं के समान अमृतको पीते हुए भी तुमने शिवजीसे उस (भात्मदाहरूप ) दशाको क्यों प'या ? अथवा रतिके अधरके रस में अत्यन्त आदर (मास. क्ति) होनेसे ( अमृतके प्रति ) घृणाकर अर्थात अमृतको प्रियाके अधररसकी अपेक्षा तुन्छ समझकर ( तुमने ) अमृत को नहीं पिया क्या ? कहो / [ यदि तुम भी इन्द्र मादि अन्य देवताओं के समान अमृतका पान करते तो शिवजी तुम्हें नहीं जला सकते, अत एव प्रियाके अधररसके लम्पट तुमने अमृत का त्यागकर महामूर्खता की यह आश्चर्य है ] // 82 // भुवनमोहनजेन किमेनसा तव परेत ! बभूव पिशाचता ? | यदधुना विरहाधिमलीमसामभिभवन् भ्रमसि स्मर ! मद्विधात् / / भुवनेति / परेत प्रेत ! तव भुवनानां मोहनमचेतनीकरणं तज्जेनैनसा पापेन पिशाचता बभूव किम् ? कुतः स्मर ! यद्यस्मादधुना विरहाधिना वियोगव्यथया मलीमसां मलिना, मद्विधां माहशीमबलामभिभवन् पीडयन् भ्रमसि / पापिष्ठाः किल पिशाचतांगता: दुर्बलस्त्रीबालादीन् पीडयन्ति, स्वच ताहकोऽपि पिशाच इस्युरप्रेक्षा। हे प्रेत ! हे कामदेव ! संसार ( में स्थित प्राणियों ) को मोहित करनेसे उत्पन्न पापसे तुम पिशाच हो गये हो क्या ? जो इस समय (मरनेके बाद प्रेत बनकर ) विरह-पीडासे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 नैषधमहाकाव्यम् / मलिन मुझ जैसी (विरहिणी ) को पीडित करते हुए घूमते हो [ मरने के बाद पापसे प्रेतरूप नीच योनिको प्राप्त जीव स्त्री बालक आदि मलिन लोगों के शरीरमें प्रवेशकर उन्हें पीडित तथा उनके शरीरको कम्पित करते हैं // तुम मरनेपर भी मुझ-जैसी दुखित अबलाओंको पीडित करते हो अतः महादुष्ट हो ] / / 83 // बत ददासि न मृत्युमपि स्मर ! स्खलति ते कृपया न धनुः करात् / अथ मृतोऽसि! मृतेन च मुच्यते न किल मुष्टिरुरीकृतबन्धनः / / 84 // बतेति / हे स्मर ! मृत्युमपि न ददासि / तेन दुःखान्तो भवेदिति भावः / अथवा कृपया ते कराद्धनुरपि न स्खलति न भ्रश्यति / पूर्ववनावः / अथ मृतोऽसि / तथापि न स्खलतीत्याह-मृतेन च मृतेनापि, उरीकृतबन्धनः अङ्गीकृतबन्धनः हतबद्ध इत्यर्थः / 'उर्यनाथ यररीभ्यश्च करोति कुरुते परः' इति भट्टमः। मुष्टिर्न मुच्यते खलु / बतेति खेदे / ततः कृतान्तादपि करोऽसीति भावः // 84 // हे स्मर ! तुम ( मुझ दुखिया अबलापर कृपाकर ) मृत्युको भी नहीं देते हो ( जिससे मेरा दुःख छूट जाय ) कष्ट है / कृपा से ( पक्षा०-अकूपाते ) तुम्हारे हाथसे धनुष भी नहीं गिर जाता ( जिससे तुम्हारा निरन्तर बाण-प्रहार पीडित करना असम्भव हो जाता), खेद है / अथवा तुम मर गये हो ( अतः ) मरा हुआ वाँधी हुए मुट्ठीको नहीं खोलता है। ( यही कारण है कि मरने के पहले जो तुमने धनुष लेकर मुट्ठी बांध ली है, वह मरने के बाद नहीं खुलती है / अन्य मी व्यक्ति यदि मुट्ठो बांधे मर जाता है, तब उसकी मुट्ठी प्रत्येक अङ्गके काष्ठवत् हो बानेसे नहीं खुलती। और जब जीते जी तुम मुट्ठी खोलकर कृपा नहीं करते तब मरने पर कहांतक कृपा करोगे ? अतः धनुष कैसे गिरे ? अन्य कृपण व्यक्ति भी जो जीते जो मुक्तहस्त होकर दान देने की कृपा नहीं करता, वह मरनेपर कहाँ तक मुक्त. हस्त होकर दान देने की कृपा करेगा ? अर्थात् कदापि नहीं करेगा ] // 84 // दृगपहत्यपमृत्युविरूपताः शमयते परनिर्जरसेविता / अतिशयान्ध्यवपुः क्षतिपाण्डुताः स्मर ! भवन्ति भवन्तमुपासितः / / दृगिति / हे स्मर ! परनिर्जरसेविता त्वत्तोऽन्यदेवतासेवको जनः तृच। शो रूप हतिः माध्यम, अपमृत्युरकालमरणं, विरूपता अङ्गवैवर्ण्यञ्च, शमयते निवर्तयति / 'णिचश्च' इत्यात्मनेपदम् / मियाद्धस्वत्वम् / भवन्तमुपासितः स्वरसेविनो जनस्य तु / तापछील्ये तृन् / 'न लोक'-इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / भतिशये नाभ्यं दृष्ट प. घातः, वपुःषतिः शरीरबिपत्तिः पाण्डुता वैवयंच, ता भवन्तीति देवतान्तरमकस्य उकदोषशान्तिः फलं, स्वद्भक्तस्य तदुद्रेक इत्यहो भक्तवारसक्यं कामदेवस्येत्युप. हासः। अनानोत्पत्तिलक्षणो विषमालङ्कारभेदः // 85 // हे कामदेव ! तुमसे भिन्न (सूर्य आदि) देवताओंकी सेवा (आराधना ) करनेवालेकी दृष्टिनाश (कम दीखना या अन्धापन ), अकालमृत्यु और विरूपता (शरीरको वि. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 243 कृत करनेवाले कुष्ठादि रोग) को शान्त करती है, किन्तु तुम्हारी सेवा (आराधना, पक्षान्तरमें-आश्रय) करनेवालेको अत्यन्त अन्धता ( देखिये श्लो० 12, या शानशून्यता), शरीर. क्षति ( दुर्बलता आदि, पक्षान्तर में-अकाल मृत्यु ) और पाण्डुता (शरीरमें विरहजन्य पाण्डुता पक्षान्तर में-पाण्डुरोग) होते हैं / [ दूसरे सूर्य आदि देवता तो अने भक्तोंके अन्यकृत उक्त रोगों को भी शान्त कर देते हैं, किन्तु तुम मपनी सेवा करनेबालों के अन्यकृत रोगोंको शान्त करना तो दूर रहा, उल्टे स्वयं ही इन रोगोंको उत्पन्न कर देते हो, धन्य है तुम्हारा देवत्व ! ] // 85 // स्मर ! नृशंसतमस्त्वमतो विधिः सुमनसः कृतवान् भवदायुधम / यदि धनुदृढमाशुगमायसं तव सृजेत् प्रलयं त्रिजगद् व्रजेत् / / 86 // स्मरेति / हे स्मर ! नृन् शंसति हिनस्तीति नृशंसो घातकः, 'शंस हिंसायाम्' इति धातोः पचाद्यच / स्वमतिनृशंसतमः, अतो (हेतो.)विधिः स्रष्टा, सुमनसः पुष्पाणि,, भवतः आयुधं कृतवान् / तव दृढं धनुरायतमयोमयम् आशुगं शरश्च एजेधदि / त्रयाणां जगतां समाहारखिजगत् (कर्तृ), प्रलयं विनाशं व्रजेत् / तव पापिष्ठता दृष्टवा विदुषा परमेष्ठिना सम्यगनुष्ठितमिति भावः // 86 // हे कामदेव ! तुम अत्यन्त क्रूर हो, अत एव ब्रह्माने तुम्हारे शासको फूलका बनाया / यदि उसने तुम्हारा धनुष दृढ़ तथा बाण लोहेका बनाया होता तो तीनों लोकोंका प्रलय हो जाता। [इस प्रकार ब्रह्माकी बनी-बनाई सृष्टि अनायास ही नष्ट हो जाती, अतः तुम्हारी क्रूरता को देखकर चतुर ब्रह्माजी ने अपनी रची सृष्टिकी रक्षाका प्रबन्ध पहलेसे ही कर लिया ] // 86 // स्मररिपोरिव रोपशिखी पुरां दहतु ते जगतामपि मा त्रयम् | इति विधिस्त्वदिपून कुसुमानि कि मधुभिरन्तरसिञ्चदनिवृतः // 8 // स्मरेति / स्मररिपोस्त्वदरेहरस्य रोपशिखी बाणाग्निः / 'पस्त्री रोप इषुईयोः' इत्यमरः / पुरा घ्रयमिव ते तव रोपशिखी जगतां त्रयं मा दहस्विति मवेति शेषः / गम्यमानार्थवादप्रयोगः / विधिः स्रष्टा, अनिवृतस्त्वां कुसुमेधुं कृत्वाप्यपरितुष्टः सन् , वदिषून कुसुमानि मधुभिर्मकरन्दैः, अन्तरसिञ्चत् अग्निशान्त्यर्थमौषत् किमित्युस्प्रेक्षा / अन्यथा पापिष्ठस्प ते को वारयितेति भावः // 87 // जैसे काम-रिपु महादेवजीने त्रिपुर ( त्रिपुरासुर, पक्षान्तरमें-तीन नगर ) को जलाया था, वैसे ही तुम्हारे बाणों की अग्नि तीनों लोकों को न जलावे, इस कारण चिन्तित ब्रह्माने तुम्हारे बाणभूत पुष्पोंको भीतर में मधु (पुष्परस अर्थात् पुष्पराग ) से सिक्त (आई) कर दिया क्या ? [रससे सिक्त होनेसे मार्द्र पदार्थको दाहक शक्ति कम हो जाती है, जैसे गीले इन्धन आदि की। पहले महादेवजीने तीन नगरों (पक्षा०-त्रिपुरासुर) को जला दिया अतः यह दृष्ट कामदेव कहीं तीनों लोकों को न जला दे, इससे ब्रह्माने पहले तो उसके धनुष तथा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 नैषधमहाकाव्यम् / बाणको ही कोमल पुोका बनाया और इतना करनेपर भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ, अतः उन्हें ( कामके वाणभूत पुष्पोंको ) मीतरमें पुष्परस (पक्षा०-जल) से मिंगो दिया। भीतरमें मिंगायी वस्तुमें ऊपर-ऊपर से मिंगायी वस्तुकी अपेक्षा दाहक शक्तिका बहुत ही कम हो जाना लोकानुभवसिद्ध है ] // 87 // विधिरनङ्गमभेद्यमवेक्ष्य ते जनमनः खलु लक्ष्यमकल्पयत् / अपि स वज्रमदास्यत चेत्तदा त्वदिषुभिर्व्यदलिष्यदसावपि / / 8 / / विधिरिति / विधिब्रह्मा अनङ्गमनवयम् / 'भङ्गं प्रतीकोऽवयवः' इत्यमरः / अत एवाभेद्यमवेचय, निरवयवद्रग्यत्वादविनाश्यं निश्चित्य, जनमना, ते तव, लषयमा कक्षपदिश्युत्प्रेक्षा।सावयवल एयदामपते, स विधिर्वज्रमदास्यत चेद्दद्याधादि, तदा स्वदिषुभिरती वज्रोऽपि ग्यदलिष्यद्विशीर्णो भवेत् / मतो युक्तकारी स्रष्टेति भावः॥ ब्रह्माने अखण्ड (परमाणुरूप होनेसे फिर खण्डित नहीं होनेवाले अतएव ) अभेद्य, मनुष्य के मनको देखकर ( उसे ही ) तुम्हारा लक्ष्य कल्पित किया। यदि वह ब्रह्मा वज्रको मी ( तुम्हारा लक्ष्य बनाने के लिये ) देता तो वह ( अत्यन्त कठिन वज्र ) भी चूर्ण हो जाता / [जीवके मनका प्रमाण परमाणुके बराबर बतलाया गया है, उसका कोई खण्ड न हो सकनेसे वह अभेद्य-नहीं तोड़ने योग्य, माना गया है। ब्रह्माने बहुत विचारकर तुम्हारे लक्ष्यका निर्णय किया है, अन्यथा तुम ऐसे महाक्रूर हो कि दूसरा कठिनसे कठिन भी कोई बड़े भाकारका पदार्थ लक्ष्य रहता तो उसे भी चकनाचूर कर देते ] // 88 // अपि विधिः कुसुमानि तवाशुगान् स्मर ! विधाय न निवृतिमाप्तवान् / अदित पञ्च हि ते स नियम्य तान तदपि तेबत जजरितं जगत ||1|| __अपीति / हे स्मर ! विधिः कुसुमान्येव तवाशुगान्विधायापि, निर्वृति कृतकृ. स्योऽस्मीति परितोषं नाप्तवानिरयुस्प्रेक्षा / कुतः, हि यस्मात् सोऽनिवृतो विधिस्तान् कुसुमान्याशुगानपि, नियम्य इपन्त एवेति नियमं कृत्वा / ते तब, पञ्चैवादित दत्तवान् तदपि तथापि तैः पञ्चभिरेव जगत् मर्जरितं अजरीकृतम् / बतेति खेरे। विश्वनियन्ताप्येवं विफल यस्ना, कोऽन्योऽस्ति नियन्तेति भावः // 89 // हे स्मर ! ब्रह्मा तुम्हारे पाणोंको पुष्पमय बनाकर भी निश्चिन्त नहीं हुए, अतएव उन्होंने नियमितकर केवल पांच ही बाण दिये. किन्तु खेद है कि उन (रसप्ते अन्तःसिक्त पुष्पमय पांच बाणों ) से ही संसार नजरित हो रहा है / [ तुम इतने कर हो कि ब्रह्माके इतने ( श्लो० 86-89 ) प्रयत्नको भी असफल कर रहे हो, हा खेद ! ] // 89 // उपहरन्ति न कस्य सुपर्वणः सुमनसः कति पञ्च सुरद्रुमाः ? | तव तु हीनतया पृथगेकिकां धिगियतापि न तेऽङ्गविदारणम् / / 60 // उपहरन्तीति / हे स्मर ! पश्च सुरद्रमाः मन्दारादयः, कस्य सुपर्वणः कति सुम. नसः कियन्ति कुसुमानि, नोपहरन्ति नोपायनीकुर्वन्ति ? सर्वस्याप्यमितमुपहरन्ती Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 245 स्यर्थः / 'उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा' इत्ययः। तव तु हीनतया नीचतया पृथक प्रत्येकमेकि कामेकाकिनीमेकैकां सुमनोव्यक्तिमुपहरन्तीत्यर्थः / अत एव प. बाणवं तवेति भावः / 'एकादाकिनिहासहाये' इति चकारात् कनप्रत्यये पूर्व स्येकारः / इयता एतावदवमानेनापि ते तवानविदारणं शरीरविपत्ति स्तिाधिक। अवमतस्य जीवनान्मरणमेव वरमिति भावः // 9 // ___(मन्दार आदि स्वर्गीय ) पांच देववृक्ष किस देवताको किसने पुष्प उपहार ( भेंट) नहीं देते 1 अर्थात् सब देवताओं को असंख्य पुष्प वे भेंट करते हैं, किन्तु हीनता ( अनमः भाव, पक्षा०-नीच ) होने के कारण वे तुमको पृथक् पृथक् केवल एक-एक ही पुष्प उपहार देते हैं / इतने (बड़े अपमान ) से भी तुम्हारा अङ्ग ( हृदय या शरीर / विदीर्ण नहीं हो जाता, ( अथवा-मन पर्थात् जो मगरहित है, उसका मा विदीर्ण कहाँसे होगा ? अतः 'भग' शब्दको सम्बोधन मानकर 'हे अङ्ग ! हृदयस्थ होनेसे निकटतम मित्र !) तुम्हारा विदारण अर्थात विध्वंस या विदारण चूर-चूर होना नहीं हो जाता ! ऐसे निलज्ज तुमको धिक्कार है / 'अङ्गविधारणम्' पाठमें-शरीरधारण करना तुम्हें धिकार नहीं है 1 अर्थात अवश्य धिकार है ) // 90 // कुसुममप्यतिदुर्नयकारि ते किमु वितीर्य धनुर्विधिरग्रहीत् / किमकुनैष यदेकतदास्पदे द्वयमभूदधुनापि नलभ्रवोः // 11 // कुसुममिति / विधिः कुसुममपि दुर्बलमपीत्यर्थः / अतिदुर्नयकारि अनर्थकारक धनुस्ते तव वितीयं दावा, अग्रहीत् किमु पुनर्जहार किमित्युस्प्रेगा। पापीयसे दत्तं हन्तव्यमेवेति भावः / किरवेष विधिः, किमकृत अकार्यमेव कृतवानित्यर्थः। कुतः, यद्यस्मादेकस्य तस्य धनुष भास्पदे स्थाने, अधुना नलभ्रुवोर्द्धयमभूदि / तेनैव धनुषा नलभ्रवो दे निर्मितवता तेन कण्टकमुश्य शल्पमारोपितं यदेकासहिष्णोद्धयमः सह्यं सम्पादितमिति भावः // 91 // ब्रह्माने पुष्पमय होनेपर मी अत्यन्त दुर्नीति (अवगादिपीडन भादि) करनेवाले तुम्हारे धनुष को देकर ( फिर वापस ) ले लिया क्या ?, ( किन्तु ) इस ( ब्रह्मा ) ने तुम्हारा क्या (अपकार, अथवा-हम विरहिणियोंका उपकार ) किया ? अर्थात् कुछ नहीं; क्योंकि इस समय तुम्हारे उस एक धनुषके स्थानपर नलका भ्रूरूप दो धनुष हो गये। [ परोपकारकी भावनासे किया हुमा ब्रह्माका कार्य संसारके माग्यसे प्रतिकूल हो गया, हा खेद !] // 91 // षड़तवः कृपया स्वकमेककं कुसुममक्रमनन्दितनन्दनाः। . ददति षड् भवते कुरुते भवान् धनुरिवैकमिषूनिव पञ्च तैः // 12 // पडिति / अक्रमेण योगपद्येन, नन्दिततन्दनाः प्रकाशितसुरोधानाः, युगपशिज. कुसुमदानसमर्था इत्यर्थः / षडतचो वसन्तादयः, कृपया, न तु प्रीत्येति धावः। स्वक स्वसम्बन्धिनम(न्धिोएककमेकैकमेव असहाये कन्प्रत्ययः। कुसुम ददाना इति शेषः / Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 नैषधमहाकाव्यम् / तथा चोक्तरीत्या, प्रत्येकमेकैकदानाम्मिलित्वा, षड, भवते तुभ्यं ददाति / तैः षडभिः, कुसुमैरेक धनुरिव, एकेनेति शेषः / पन्चेषूनिव, पञ्चभिरिति शेषः / भवान् कुरुते / अहो ! अवमानेऽपि निर्लजस्य ते परहिंसाम्यसनमिति भावः // 92 // एक साथ नन्दन ( स्वर्गके उपवन को समृद्धिशाली बनानेवाले हेमन्त आदि छः ऋतु कृपासे ( तुम्हारे गौरवके कारण, आदर या प्रेमसे नहीं ) अपने अपने एक एक पुष्पको तुम्हें देते हैं, उनसे तुम विभाग कर के एक पुष्पसे धनुष और शेष पाँच पुष्पोंसे पांच बाणोंको समान बनाते हो / [ नन्दन वनमें सब ऋतु पर्याय-क्रमका त्यागकर एक साथ उसे फूल आदिसे हरा-भरा बनाते हुए सब देवताओंको आदरपूर्वक असंख्य पुष्प देते हैं, किन्तु तुम्हारा कोई गौरव न मानकर कृपाकर केवळ 1-1 पुष्प देते हैं, इन्हें भी तुम अपने उपमोगमें न लाकर व्याधके समान दूसरों को पीडित करने के लिये एक पुष्पसे धनुष तथा शेष पांच पुष्पोंसे वाण बनाते से, अतः तुम बहुत बड़े नीच हो / अथवा-जिस प्रकार लोग मिक्षुकके ऊपर कृपाकर उसे एक-एक पदार्थ अलग-अलग देते हैं और वह मिक्षुक उन्हें दिमक्तकर एकत्रितकर अपनी आवश्यकताके अनुसार इतनेसे अमुक कार्य करूंगा और इतनेसे अमुक कार्य, इत्यादि मनोरय करता है, वैसे ही ऋतुओं के दिये गये कुल केवल 6 पुष्पों में से विभागकर तुम काम चलाते हो; अतएव देवता हाकर अपमानित होते हुए भी तुम्हारी वृत्ति व्याध या भिक्षुकके समान अत्यन्त निन्दनीय है ] // 92 // यदतनुस्त्वमिदं जगते हितं क स मुनिस्तव यः सहते क्षतीः / विशिखमाश्रवणं परिपूर्य चेदविचलभुजमुज्झितुमीशिषे / / 63 / / यदिति / हे मार ! स्वमतनुरशरीरीति यत्तविदमतनुस्वं जगते हितं 'हितयोगे च' इति चतुर्थी वक्तग्या। तथा हि, विशिखं बाणमविचलद्भुजमकम्पहस्तं यथा तथा आश्रवणं परिपूर्याकर्णमाकृष्य उज्झितुं मोक्तुमीशिषे शक्नोषि चेयस्तव क्षतीः प्रहारान् सहते, स मुनिः क्व, न क्वापीत्यर्थः / अनङ्गरवेऽप्येवं जगद्रोहिणस्तव घानु कान्तरवत् कायव्यापारे जगति जितेन्द्रियकथै वास्तमियादिस्यनजत्वमेव जगद्धित. मित्यर्थः // 13 // बो तुम अनङ्ग ( शरीररहित ) हो, यह संसार के लिये हितकारक है / (अन्यथा शरीर. युक्त होकर ) यदि तुम कानतक बाणों को खींचकर तथा हाथ को स्थिर रखते हुए बाण छोड़ना चाहते तो वह मुनि कहां है ? नो तुन्हारे बहारों को सह लेता ? [यदि तुम सशरीर होते तो संसार में कोई मुनि भी तुम्हारे बाणप्रहारको सहन नहीं कर सकता, तब हमलोगों को कौन गणना है ? अतः महादेवजीने तुम्हें जलाकर संसारका बड़ा उपकार किया है]॥९॥ सह तया स्मर ! भस्म झडित्यभूः पशुपति प्रति यामिषुमग्रहीः / ध्रुवमभूदधुना वितनोः शरस्तव पिकस्वर एव स पञ्चमः / / 64 // सहेति / हे स्मर ! पशुपति प्रतियामिषुमग्रहीस्तया सह झाडिति सहसामस्माभूः / 1. 'झटिस्यभूः' इति पाठान्तरम् / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 247 अधुना वितनोरनङ्गस्य तव पिकस्वरः कोकिलालाप एव, सः दग्धः पनमः, पास. यापूरणः शरोऽभूत् / ध्र वम् / अत एव, 'पिका कूजति परम मित्यादौ पिकस्वरे पश्चमसंज्ञाप्रवृत्तिश्चेति भावः। 'पनमो शगभेदे स्यात् पशानामपि पूरण' इति विश्वः। शरकार्यकारित्वात् पिकस्वरस्य शरवोस्प्रेक्षा // 94 // __ हे स्मर ! शिवजीके प्रति तुमने जिस बाणको (मारनेके लिये ) ग्रहण किया, वह तुम्हारे साथमें ही 'धक' से (पाठान्तरमें-शीघ्र ) भस्म हो गया। शरीरहीन तुम्हारे वही पांचवां बाण इस समय निश्चय ही कोयलका शम्द हो गया है। [ कोयलका शब्द भी विरही लोगों के लिये सन्तापकारक होता है। कोयल पञ्चम स्वरसे बोलता है यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है ] // 14 // स्मर ! समं दुरितैरफलीकृतो भगवतोऽपि भवदहनश्रमः / सुरहिताय हुतात्मतनुः पुनर्ननु जनुर्दिवि तत्क्षणमापिथ // 15 // स्मरेति / हे स्मर ! भगवतो हरस्थापि, दुरितैः समं भवत्पापैः सह भगवष्टिः पातस्य पापहरस्वादिति भावः / भवदहनश्रमोऽफलीकृतो निष्फलीकृतः, सुरहिताय हुतात्मतनुहरकोपानले त्यत्तस्वदेहः सन् , तत्क्षणं तस्मिन्नेव सणे अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / विवि द्युलोके, पुनर्जनुः पुनस्पत्तिमापिथ नयु प्राप्नोषि खलु / सुरप्रार्षि थितात्तस्मादेवेति शेषः / तचास्मस्पापफलमिति भावः // 15 // हे स्मर ! इमारे पापोंने भगवान् शरजीके तुम्हें जलाने के परिममको मी निष्फल कर दिया क्या ? ( अथवा-निष्फल कर दिया ); क्योंकि देवताओं के उपकार के लिये (शिव-नेत्र अग्नि ) में अपने शरीरको हवन करने ( जलाने ) वा तुमने तत्काल ही स्वर्गमें बन्म पा लिया। [ अन्य भी व्यक्ति परोपकारके लिये अपना शरीर त्यागकर ( मरकर ) तत्काल स्वर्गमें देवता बन जाता है। तुम एकमात्र देवकार्यसाधनरूप परोपकार के लिये भग्निमें जलकर मरनेपर भी तस्कार देव बन गये हो, अन्यथा तुम जैसे पापी एवं अग्निमें बलकर अकाल मृत्युसे मरनेवाले व्यक्तिको स्वर्गप्राप्ति कदापि उचित नहीं है। 'तारकासुर पीडित देवताओं की स्तुतिसे प्रसन्न होकर ब्रह्माने पार्वतीगभंज शिवपुत्रको सेनापति बनाकर युद्ध करनेसे देवताओंका दुःख दूर होने का उपाय बतलाया। तदनुसार इन्द्र के आदेशसे कामदेव हिमालयपर तपस्या करते हुए शिवजीको उनकी सेवामें लगी हुई पार्वतीपर आकृष्ट करने के लिये गया' किन्तु उक्त देवकार्य सिद्ध होने के पहले ही शिवजीका कोपभाजन बनकर जल गया, यह पौराणिक कथा है। ] // 95 // विरहिणो विमुखस्य विधूदये शमनदिक्पवनः स न दक्षिणः / सुमनसो नमयन्नटनौ धनुस्तव तु बाहुरसौ यदि दक्षिणः // 16 // विरहिण इति / हे शूर ! तपासौ बाहुपदि विषूदये चन्द्रोदये सहायलाभे सती. 17 नै Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 नैषधमहाकाव्यम् / स्पर्थः। सुमनसः पुष्पं नाम धनुः, अटनो कोटी। 'कोटिरस्याटनिर्गोधा' इत्यमरः / नमयन् दक्षिणो विरहिजनप्रहारदः स्यात् , प्रहतुं प्रवृत्तश्चेदित्यर्थः। 'सम्येतरम' इति ध्वनिः। तदा विमुखस्य विहलमुखस्य चन्द्रोदयपराङ्मुखस्य विरहिणो वियोगिजनस्य स दक्षिणस्वेन प्रसिद्धः शमनदिकपवनो याम्यदिङमारुतः, दक्षिणो दाक्षिः ण्यवान् सम्येतरम न / किन्तु सोऽपि स्वरसहकारिवानिर्दयप्रहतैवेत्यर्थः अतः सर्वाः नयंमूलत्वात् त्वमेव पापिष्ठ इत्यर्थः / प्रत्यङमुखस्य दक्षिणोऽपि वाम इति ध्वनिः। शमनदिक्पवनोऽपि न दक्षिण इति स्फुरणाविरोधाभासोलकारः // 96 // चन्द्रमाके उदय होनेपर पराङ्मुख (सन्तापकारक चन्द्रमाको नहीं देखनेके लिये पश्चिमाभिमुख) हुए विरहीके लिए यम दिशा (दक्षिण दिशा) को मलय वायु दक्षिण (मनुकूक, पक्षान्तरमें-दहने मागमें ) नहीं होगी अर्थात् वाम (प्रतिकूल, पक्षा-बायें) मागमें पड़ेगी, यदि उसे दक्षिण होने का ही अभिमान है तो पुष्पमय धनुषकी कोटिपर प्रत्यञ्चा (धनुषकी डोरी) को चढ़ाते हुए तुम्हारा बाहु तो दक्षिण ( अनुकूल, पक्षा०-दाने भागमें) होगा, अर्थात विरुद्ध लक्षणासे जिस प्रकार तुम्हारा बाहु प्रतिकूल होगा उसी प्रकार मलयवायु भी प्रतिकूल होगी / ( अथवा-तुम जिस प्रकार पुष्पमय धनुषपर प्रत्यश्चाको चढ़ाने के लिये उसे (पुष्पमय धनुषको) झुकाते हो, उसी प्रकार मलयवायु भी पहले पुष्पों के भग्रमागको झुका देता है / अथवा-शमन अर्थात् सबको मारनेवाले यमराजको दिशावाला मलयवायु भी मारनेवाला ही होनेसे दक्षिण अर्थात अनुकूल न होकर वाम अर्थात वक्र या प्रतिकूल ही होगा। अथवा-वह मलय वायु (रूपी योद्धा ) युद्धसे पराङ्मुख होनेवालेपर प्रहार करनेसे दक्षिण अर्थात् धर्मानुकूछ युद्ध करनेवाला चतुर योद्धा नहीं होगा)। [ चन्द्र पूर्व दिशामें उदित होकर विरही जनको जब सन्ताप देने लगेगा, तब उसको न देखने के लिये विरही व्यक्ति पश्चिमाभिमुख हो जायगा, अत एव पश्चिमाभिमुख उस व्यक्तिके लिये दक्षिण दिशाकी ओर बहनेवाला मलयवायु दहनी ओर नहीं पड़ेगा, अपि तु बांयी ओर पड़ेगा। भाशय यह है कि-कामजन्य तथा चन्द्रोदयजन्य विरहपीडा तो किसी प्रकार सध हो भी सकती है, परन्तु मलयानिलजन्य विरहपीड़ा किसी प्रकार भी नहीं सही जाती / / किमु भवन्तमुमापतिरेककं मदमुदान्धमयोगिजनान्तकम् / यदजयत्तत एव न गीयते स भगवान् मदनान्धक मृत्युजित् / / 67 // किम्विति / हे मदन ! उमापतिः मदश्च मुच इन्कवद्भावः / तेन मदमदाभ्यां मदानन्दाभ्याम् अन्धयति व्यामोहयति कामिजनमित्यन्धम् अन्धकम् / 'अन्ध. रष्टिप्रतीघाते' इति धातोश्चौराधिकात् पचायच। अयोगिजनान्तकं वियोगिजनमृत्युम्, एककमेकाकिनं, भवन्तमेव अजयदिति / तत एव स भगवान् उमापतिः / मदनान्धकमृत्युजित् मनमिदम्पकजिन्मस्युनिदिति गीयते किमु गीयत एवेत्यर्थः / मदनवदन्धकमत्यू अपि स्वत्तोऽन्यो न स्त इति भावः / अत्र मदनादीनां मियो भेदेऽप्यभेदोकेरतिशयोकिः // 97 // Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 241 उमापतिने मदके नशेमें अन्धे तथा विरहीलोगोंके मन्त करनेवाले ( यमरानतुल्य) अकेले तुमको जो जीत लिया, इसी कारणसे उन्हें 'मदनजित , अन्धकजित् तथा अन्तक. जित् (मृत्युक्षय)' कहा जाता है क्या ? / [शङ्करनीने मदन अर्थात् कामदेव, अन्धकासुर तथा अन्तक अर्थात् मृत्युको जीत लिया है, अत एव उनके उक्त तीनों नाम प्रसिद्ध हुए है / इस पद्यमें कामदेवमें ही 'मदनत्व, अन्धकत्व' तथा 'अन्तकत्व' ये तीन गुण हैं, अतः एक तुम्ही को जीतकर शङ्करजीने उक्त तीनों नाम प्राप्त किये हैं ऐसी उत्प्रेक्षात्मक कल्पना की गयी है। अन्य कोई योद्धा जिस व्यक्तिको जीतता है, वह केवल उसी एकका विजेता कहा जाता है, पर शिवजी केवल एकमात्र तुम्हें जीतकर तीमका विजेता कहलाये यह माश्चर्य है]॥९७॥ त्वमिव कोऽपि परापकृतौ कृती न दहशे न च मन्मथ ! शुश्रवे | स्वमदहहहनाज्ज्वलतात्मना ज्वलयितुं परिरभ्य जगन्ति यः // 8 // स्वमिति / हे मन्मथ ! स्वमिव परापकृती परापकारे कृती कुशलः कोऽपि न दहशे न दृष्टः, न शुभवे न च श्रुतः, यः अपकर्ता दहनादग्निसंयोगात् , ज्वलता प्रज्वलता आस्मना स्वाङ्गेन जगन्ति परिरभ्याश्लिष्य ज्वलयितुं दग्धं, स्वमात्मान. मदहत् परिरभ्य परगात्रदूषणाय स्वगात्रे पकलेपवत् , परदाहण्यसनादेवारमदाहा. जीकारस्तवेत्यहो दुर्व्यसनमिति भावः // 98 // हे मन्मथ ! (विरहियों के मनको मथन करनेवाले कामदेव !) दूसरेका अपकार करने में तुम्हारे समान कोई भी न देखा गया और न सुना गया। बो अपकारी अपने बलते हुये स्वरूपके साथ (तीनों) लोकोंका भालिङ्गनकर बलाने के लिये अपनेको ( शिवजीके नेत्रकी) अग्निमें जला डाला। [ कोई भी व्यक्ति किसीको पीड़ा देते समय अपनी रक्षा करता है, किन्तु तुमने तो संसारको पीड़ा देने के लिये अपनी मी रक्षा नहीं की, अत एव तुम महान् दुष्ट हो] // 98 // त्वमुचितं नयनाचिषि शम्भुना भुवनशान्तिकहोमहविः कृतः / तव वयस्यमपास्य मधुं मधुं हतवता हरिणा बत्त किं कृतम् ? / / 66 // स्वमिति / हे वीर! शम्भुना नयनार्चिषिनेत्राग्निशिखायां त्वं भुवनानां शान्तिके शान्तिप्रयोजके / 'प्रयोजनम्' इति ठक / होमहविराहुतिः कृतः। उचितं वध्यस्य वधादिति भावः। तच घयस्यं सखायं, मधं घसन्तम् अपास्थोपेक्ष्य मधं मध्वाश्यं, दैत्यं हतवता हरिणा किं कृतम् ? बतेति खेदे / वध्यवधाहरः साधुकारी / हरिस्त दुपेक्षणासाधुकारीत्यर्थः / समित्रः स्मरो वध्य इति भावः // 99 // शम्भु ( मङ्गलके उत्पन्न करनेवाले शिवजी) ने नेत्राग्निज्वालामें तुमको ठीक ही संसारकी शान्तिरूपी हवनका हविष्य (हवन करनेके योग्य आहुति ) बना लिया (भववाशम्भुने जो नेत्राग्नि ....."इविष्य बनाया) यह उचित कार्य किया; किन्तु खेद है कि विष्णुने Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 नैषधमहाकाव्यम्। तुम्हारे मित्र मधु अर्थात् वसन्त ऋतुको छोड़कर 'मधु' नामक दैत्यको मारकर क्या किया ? अर्थात कुछ नहीं। (अथवा-अच्छा नहीं किया जो वसन्तको छोड़कर मधुदत्यको ही मारा)। [मिस शिवजीका अवतार संसारका संहार करने के लिये माना जाता है, उन्होंने तो मदन को जलाकर संसारका पालन किया, किन्तु जिस विष्णु भगवान्का अवतार संसारकी रक्षा करने के लिये माना जाता है, उन्होंने मदन-मित्र वसन्तको छोड़कर 'मधु' दैत्यको मारकर कुछ नहीं किया। मधु दैत्यसे भी संसार बहुत पीड़ित था, अतः उसे मारकर भी यद्यपि विष्णु भगवान्ने संसारका उपकार ही किया है, किन्तु यह मदन-मित्र वसन्त उस (मधु. देस्य) से भी अधिक संसारको सता रहा है, अतः पहले उसे ही मारना भावश्यक था]॥१९॥ इति कियद्वचसैव भृशं प्रियाधरपिपासु तदाननमाशु तत् / अजनि पांसुलमप्रियवाग्ज्वलन्मदनशोषणबाणहतेरिव / / 100 // इतीति। प्रियस्य नलस्याधरमोष्ठं पिपासु पातुमिच्छु'मधुपिपासुप्रभृतीनां गग्या. दिपाठात् समास' इति वामनः / तत् प्रसिदम, तस्याभैम्या माननम्, इतीत्थं किया इचव, अप्रियवाग्मिनिष्ठुरोतिमिः,ज्वलतः क्रुष्यतो मदनस्य या शोषणवाणः तस्य हतेः प्रहारादिवेति हेतूस्प्रेक्षा। आशु भृशं, पांसुलं पांसुमद् अजनि जातम् // प्रिय नलके अधर ( रस ) को पौनेकी इच्छा करनेवाला वह प्रसिद्ध सुकोमल सर्वसुन्दर तथा सरस ( या विरहपाण्डुर एवं क्षीण ) उस दमयन्तीका मुख इन कुछ (चन्द्रमा, कामदेव, वसन्त तथा मलवायुके प्रति ) उपालम्मरूपमें (इलो० 44-99) कहे गये थोड़े ही बचनसे मानो अप्रिय कहनेसे ( क्रोधकर ) जलते हुए कामदेवके शोषण बाणके प्रहारके कारण अत्यन्त सूख गया (पक्षान्तरमें-धूलियुक्त हो गया)। [ भन्य किसी प्यासे व्यक्तिका मी मुख थोड़ा पोकनेसे भी सूख जाता है, और वह अधिक बोलने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है / इस पद्यमें दमयन्तीकृत आत्मनिन्दा सुनकर कामदेवके द्वारा छोड़े गये शोषण बाण-प्रहारको दमयन्तीके मुखको सूसनेमें हेतु कहा गया है। और पहलेसे ही क्षीण ( थोड़े बलवाले ) तडाग आदिमें शोषणकारक तीव्र सन्तापसे धूल उड़ने लगती है। लोकमें मी 'बहुत देरसे प्यास लगनेके कारण मेरे मुखमें धूल उड़ रही है, मैं अधिक बोल नहीं सकता' ऐसा कहते हैं। विरह-क्षीण दमयन्ती इतना कहने के बाद अधिक बोलने में असमर्थ हो गयी ] // 10 // प्रियसखीनिवहेन सहाथ सा व्यरचयगिरमर्धसमस्यया। हृदयमणि मन्मथसायकैः क्षततमा बहु भाषितुमक्षमा // 101 // प्रियसखीति / अथ सा दमयन्ती, मन्मथसायकैः हृदयमर्मणि चततमा गाढं प्रहता। अत एव बहु भाषितुं प्रपन्य वक्तुमसमा सती, प्रियसखीनिवहेन सह आप्तसखीसधेन सार्धम, अर्द्धरूपया समस्यया संग्रहकारिकया। 'समस्या तु Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 251 समासार्था' इत्यमरः। 'संज्ञायां समजनिषदे'स्यत्र संपूर्वादस्यतेर्बाहुलकः क्या, इति चीरस्वामी / गिरं व्यरचयत् / पूर्वाध सखीजनसमस्या, तदुत्तरवेनोत्तरार्ध स्वयमरचयदित्यर्थः // 11 // इसके बाद हृदयरूप मर्मस्थळमें मन्मथ ( मनको मथन करनेवाले कामदेव ) के बाणोंसे अतिशय घायल होकर बोलने में असमर्थ वह दमयन्ती प्रिय (अतएव दमयन्तीके मनोगत भावको समझनेवाली ) सखी-गणके साथ आधी समस्यासे बोलने लगी (आधी बात सखीगणके कहनेपर शेष आधी बात को दमयन्ती पूरा करने लगी)। [जो विषय या श्लोकादिका अंश अपूर्ण रहता है, उसको अन्य व्यक्ति पूरा करता है और स्वयं अधिक बोलने में अशक्त होने पर अपने वक्तव्य विषयको वह असमर्थ व्यक्ति समास अर्थात संक्षेप करता है] // 10 // अकरुणादव सूनशरादसून सहजयाऽऽपदि धीरतयाऽऽत्मनः / असव एव ममाद्य विरोधिनः कथमरीन् सखि ! रक्षितुमात्थ माम् // अकरुणादिति / हे भैमि ! भापदि सहजया धीरतया धैर्येण / 'विपदि धैर्यमिति नीतेरिति भावः / अकरुणाभिर्दयाद् सूनशरात् कुसुमेषोः, आस्मनः स्वस्यासून प्राणान् अव रक्ष / अद्येदानीमसव एव मम विरोधिनः शत्रवः / तन्मूलस्वात् दुःख. संवेदनस्येति भावः / हे सखि ! मां कथमरीन् रचितुमात्थ ब्रवीषि ? 'अवः पश्चानाम्' इति साधुः / सम्प्रति मे प्राणरमणमाशीविषपोषणं पयोभिरिति भावः // 102 // (अब यहांसे भारम्भकर श्लो० 109 तक प्रथम वाक्य दमयन्तीके सखियोंका तथा मन्तिम वाक्य उत्तररूपमें कहा गया दमयन्तीका समझना चाहिये ) सखी कहती है कि-हे सखि दमयन्ती ! निर्दय पुष्पबाण (कामदेव ) के बाणोंसे अपने प्राणों को आपत्तिमें अपनी स्वामाविक धोरताके द्वारा बचावो / दमयन्ती कहती है कि-हे सखि ! आज मेरे प्राण ही विरोधी हैं, ( अतः तुम ) शत्रुओं को बचाने के लिये मुझसे क्यों कह रही हो ? [कोई तटस्थ व्यक्ति भी शत्रुओंको बचाने के लिये नहीं कहता, तब तुम प्रिय सखी होकर ऐसा क्यों कह रही हो ? यदि मेरे प्राण नहीं रहते अर्थात् मैं मर जाती तो मुझे इतनी व्यथा नहीं सहनी पड़ती, अत एव शत्रुरूप इन प्राणों को बचानेका परामर्श देना तुम्हारी-जैसी प्रिय सखीको उचित नहीं जचता] // 102 // 1. 'क्यप' इत्युचितम् तेन क्यङोऽविधानात् / अमर (नामलिङ्गानुशासन) स्य 'समस्या' शब्दण्याख्याने च 'अपूर्णस्वाद्विक्षिप्त (विवक्षित) समस्यते संक्षिप्यते. ऽनया समस्या, 'संज्ञायां समजे'ति बाहुलकात् क्यप , 'ऋहलोर्ण्यत्' वा, संज्ञापूर्व. कत्वाद् वृदयमावः / समारक्यचि 'सर्वप्रातिपदिकेभ्योः' सुगागम इत्येके, ततः भ प्रत्ययात् / यथा-'दामोदरकरराघातविह्वलीकृतचेतसा / इष्टं चाणूरमप्लेन शतचन्द्र नमस्तलम् // इति सी० स्वा० व्याख्या दृश्यते / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 नैषधमहाकाव्यम् / हितगिरं न शृणोषि किमाश्रवे ! प्रसभमप्यव जीवितमात्मनः / सखि ! हिता यदि मे भवसीहशी मदरिमिच्छसि या मम जीवितम् / / हितगिरमिति / आशृणोति वाक्यमिति आश्रवा। पचायच / हे आवे ! वाक्यकारिणि !'वचने स्थित आश्रव' इत्यमरः। प्रसभं बलादप्यात्मनो जीवितं प्राणमय रस / 'एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि' इति न्यायादिति भावः। हितगिरमाप्तवाक्यं किं न शृणोषि? हे सखि ! यावं मदरिं मम जीवितमिग्छ. स्यपेक्षसे / इशीत्थं शत्रुवृद्धिमीहमानापि, मे हिता भवसि यदि / न तु भवसि / अतो न शृणोमीत्यर्थः / / 103 // सखी-सर्वदा मेरी बातको सुनने तथा माननेवाली हे दमयन्ती ! मेरी हितकारी बात क्यों नहीं सुनती 1 बलपूर्वक ( कष्ट सहकर ) भी अपने जीवन की रक्षा करो। दमयन्ती-हे सखि ! तुम मेरी ऐसी हितैषिणी होती हो, जो ( तुम ) मेरे शत्रुरूप बीवनको चाहती हो ( भतः तुम मेरी हितैषिणी सखी नहीं हो अर्थात सखी होकर तुम्हें ऐसा चाहना शोभा नहीं देता) // 103 / / अमृतदीधितिरेष विदर्भजे ! भजसि तापममुष्य किमंशुभिः / / यदि भवन्ति मृताः सखि ! चन्द्रिकाः शशभृतः क तदा परितप्यते // अमृतदीधितिरिति / हे विदर्भजे दमयन्ति ! एष इति पुरोवर्तिनो हस्तेन नि. देशः। अमृतदीधितिः सुधांशुः / अमुष्य सुषांशोरंशुभिः किमिति तापं भजसि ? अत्रामृतशब्दस्यार्थान्तराभयेणोत्तरमाह-यदीति / हे सखि ! शशभृतभन्द्रिकाः मृताः भवन्ति यदि, तदा क परितप्यते ? न कापीत्यर्थः। अस्यामृतदीधितिस्वादे. वेदं दुःखं, मृतदीधितिश्चेत् सर्वारिष्टशान्तिः स्यादिति भावः / अत्र अमृतेति सुधा विवक्षया प्रयुक्तस्य मृतेतरार्थवेन योजनाद्वक्रोक्तिरलकारः। 'अन्यथोक्तस्य वाक्य. स्या काक्वा श्लेषेण वा भवेत् / अन्यथा योजनं यत्र सा वक्रोकिनिंगयते // इति // सखी-हे विदर्भकुमारी दमयन्ती ! यह अमृतकिरण (सुधारश्मि अर्थात् चन्द्रमा) है, इसके किरणोंसे क्यों सन्तप्त होती हो ? दमयन्ती-हे सखि ! यदि शशाङ्क ( चन्द्रमा) की किरणें मृत (नष्ट) हो जाती अर्थात् नहीं रहती, तब कहां सन्ताप होता ? अर्थात् चन्द्रमाके किरणों के अमृत (मरणरहित = जीवित अर्थात सर्वत्र फैली हुई ) होनेसे ही सन्ताप हो रहा है, इसके अमावमें कदापि सन्ताप नहीं होता / / 104 // ब्रज धृति त्यज भीतिमहेतुकामयमचण्डमरीचिरुदश्चति / ज्वलयति स्फुटमातपमुर्मुरैरनुभवं वचसा सखि ! लुम्पसि // 10 // बजेति / मुग्धे !), धृति मन धैर्य भन / अहेतुका भीति स्यज। अयम Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 253 चण्डमरीचिः शीतांशुरुदास्युदेति, न चण्डायरित्यर्थः / आतपैरेव मुर्मरैस्तुपानलैः। 'मुर्मुरस्तु तुषानल' इति वैजयन्ती / स्फुटं प्रत्यक्षं यथा तथा, ज्वलयति दहति / हे सखि ! अनुभवं प्रत्यक्षं वचसा भागमेन लुम्पसि बाधसे / तदयुक्तं प्रावप्लवन. वाक्यवत् , प्रत्यक्षेणैवास्य बाधादित्यर्थः / अत्राचण्डको चण्डकरमान्या भ्रान्ति. मदलङ्कारः // 105 // सखी--धैर्य ग्रहणं करो, निष्कारण भयको छोड़ो; क्योंकि यह अचण्डदीधिति (शीतरश्मि ) अर्थात चन्द्रमा उदय हो रहा है / [ चन्द्रमामें सूर्यबुद्धि करनेसे जो निष्कारण मय कर रही हो, उसे छोड धैर्य-धारण करो] / दमयन्ती-हे सखि ! यह धूपरूपी मुर्मुरों ( कंडे के निर्धूम अंगारों) से मुझे प्रत्यक्ष हो जहा रहा है, मेरे इस प्रत्यक्ष अनुभवको (शास्त्र-) वचनसे लुप्त करती रही हो। [बातों की अपेक्षा अनुभव ही सत्य एवं प्रामाणिक माना गया है / अतः मेरे प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है कि यह चण्डरश्मि ( सूर्य ) ही है ] // 105 // अयि ! शपे हृदयाय तवैव यद्यदि विधोर्न रुचेरसि गोचरः। रुचिफलं सखि ! दृश्यत एव यज्ज्वलयति त्वचमुझलयत्यसून् // 106 // ___ यदुकमयमघण्डमरीचिरिति सद्विवासयति-अयोति / अयि (मुग्धे) भैमि ! विश्वसिहीति शेषः / वियोश्चन्द्रस्य रचेस्तेजसो गोचरो विषयो नासि यदि, वद. असगीदं तेजश्नान्द्रं न चेदित्यर्थः / तत्तर्हि तवैव हृदयाय शपे। स्वजीविताय द्या. मीत्यर्थः / 'श्लाघह्वा' इत्यादिना सम्प्रदानस्वाचतुर्थी / तर्हि, सखि ! बचिफल्मेव तेजोमात्रकार्यमेव रश्यते / न तु चन्द्रकार्यम् / मद्भाग्यविपर्ययेणाभिभवनिवृत्तेरिति भावः / कुतः, यद्यस्मारवचं ज्वलयति दहति / असून् प्राणान् उबलयति उन्मूल. यति / सर्व तेजः उष्णस्वाहाहकमेव, अमिभवात्त विपर्यय इति पदार्थतत्ववादिनः॥ सखी-अयि दमयन्ती ! मैं तुम्हारे ही हृदय की सौगन्ध खाती हूँ जो तुम चन्द्रमा की रुचि (चांदनी ) में न हो। दमयन्ती-हे सखि ! रुचिका फल (कार्य) तो दिखलाई ही दे रहा है कि वह ( मेरे शरीरके ) चमड़ेको जला (सन्तप्त कर) रही है और प्राणोंको ऊपर उठा अर्थात उबाल (व्याकुल कर ) रही है। [दमयन्तीको विश्वास दिलाने के लिये उसकी सखीने दमयन्तीका हृदय छूकर शपथ किया कि तुम चाँदनी में ही हो, इस उक्तिमें 'रुचि' शब्दका अर्थ प्रकाश लेना चाहिये / किन्तु दमयन्तीने सखोकी शपथ-पूर्वक कही गयी बातको स्वीकार करती हुई 'रुचि' शब्दका अर्थ दाहक तेच मानकर उसके सर्वथा प्रतिकूल उत्तर दिया ] // 106 // विधुविरोधितिथेरभिधायिनीमयि ! न किं पुनरिच्छसि कोकिलाम् / सखि ! किमर्थगवेषणया ? गिरं किरति सेयमनर्थमयीं मयि // 107 // Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 नैषधमहाकाव्यम् / विचिति / अयि भैमि ! विधुविरोधितिथेः कुहास्याया नष्टेन्दुतिथेरभिधायिनी, तदभिधायककुहूशब्दोच्चारिणी 'कुहू कुह्नि'ति नामप्राहं तदाहायिनीमित्यर्थः / कोकिलां पुनः किं नेच्छसि / मा भूपचन्द्रः तद्विरोधिनीमेना कि नेच्छसीत्यर्थः / हे सखि ! अर्थगवेषणया कुहूशब्दस्य नष्टचन्द्रा तिथिरर्थः इति विचारेण किम् ? तत्साध्यं किमपि नास्तीत्यर्थः / गम्यमानसाधनक्रियापेच्या करणत्वात्ततीया / कुतः, सेयं कोकिला मयि विषये गवादिशब्दवदभिधेयवती न भवतीत्यर्थमयी, स्थघोषादिवदर्थशून्यस्वात् / किश, अनर्थमयी अशनिघोषवदापद्रपा च, ताम् / अनर्थशब्दा. न्मयटप्रत्ययः / गिरं किरति विधिपति // 17 // सखी-चन्द्र-विरोधिनी तिथि 'कुहू' (चन्द्रकलाका दर्शन जिसमें न हो वह अमा. वास्या तिथि) को कहने अर्थात् बुलानेवाली कोयल को तुम क्यों नहीं चाहती ? [ शत्रुभूत चन्द्रकी विरोधिनी कोयकको चाहना उचित है / दमयन्ती-हे सखि ! भर्थ के हूँढनेसे क्या लाम है ? अर्थात कुछ नहीं, क्योंकि यह कोयल मेरे विषय में (या पासमें ) अनर्थकारी बात ( 'कुहू' शब्दार्थ के प्रतिकूल वाणी ) कहती है / [ यह कोयल सचमुच 'कुहू' को नहीं बुलाती, अपितु अनर्थ ( अनिष्ट ) कारक (पक्षान्तर में-प्रतिकूलार्थक ) वाणी बोलने से धूर्त है। कोयलका कुहूंकना भी मुझे पीड़ित करता है ] // 1.7 // हृदय एव तवास्मि स वजमस्तदपि किं दमयन्ति ! विषीदसि ? / हृदि परं न बहिः खलु वर्तते. सखि ! यतस्तत एव विपद्यते // 108 / / हृदयं इति / हे दमयन्ति ! सा ते वनमः नलः तव हृदय एवास्ति वर्तते / सदपि तथापि किं विषीदसि खिचसे ? हे सखि ! यतो हृदि परं हृधेव वर्तते बहिर्न वर्तते खलु / तत एव विषयते विद्यते / सदेर्भावे लट / यतः स्मर्यत एव, न तु इश्यते; अतो मे विषाद इत्यर्थः // 108 // सली-हे दमयन्ती ! तुम्हारा प्रिय नल हृदयमें (अत्यन्त समीपमें ही है, तथापि क्यों विषाद करती हो ?) [भत्यन्त निकटवर्ती प्रियके रहने पर उसके लिए कोई भी विषाद नहीं करता है। दमयन्ती-क्योंकि वह प्रिय नल केवल हृदय में ही है, निश्चय ही बाहर नहीं है, इसी कारण विषाद करती हूं। [ अतिशय प्रिय नलके हृदयस्थ होनेसे उनका एकमात्र स्मरण ही होता है, दर्शन नहीं और परम प्रिय के विना दर्शन हुए स्मरणमात्र से किसी को पूर्ण हपं नहीं होता, यही मेरे विपाद का कारण है ] // 108 // स्फुटति हारमणौ मदनोष्मणा हृदयमप्यनलंकृतमद्य ते / सखि ! हतास्मि तदा यदि हृद्यपि प्रियतमः स मम व्यवधापितः // 106 / / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 255 स्फुटतीति / हे भैमि ! मदनोष्मणा कामज्वरेण, हारमणौ हृदयालझाररस्ने स्फुरति विदलति सति, अद्य ते तव हृदयं वक्षोऽपि अलंकृतं न भवतीत्यनलड्कृतम् अपरिष्कृतं जातम् / अथ हृदयमन्तरङ्गमध्यनलं नलरहितं कृतमित्यर्थान्तरं मरवो. तरमाह-हे सखि ! स प्रियतमः, मम हृद्यपि व्यवधापितो यदि दूरीकृतश्चेत् / दधातेय॑न्तास्कर्मणि क्तः / 'अर्तिही' इत्यादिना पुगागमः / तदा हतास्मि / वक्रो. किरलारः / लक्षणमुकम् // 109 // सखी-कामज्वर ( कामजन्य विरह सन्ताप ) से हारमणिके फूटते रहनेसे आज मैंने तुम्हारे हृदयको भी अनलकृत ( भूषित नहीं, पक्षान्तरमें-नारहित ) किया है [ पहले तुम्हारे मुख आदि तो अलङ्कारशून्य थे ही, किन्तु माग हृदयको भी मलङ्कार से युक्त नहीं किया यह 'अपि' शब्दसे ध्वनित होता हैं मुक्ताका अग्नि तापमें पड़कर फूटना स्वाभाविक है / दमयन्ती-हे सखि ! यदि हृदयसे भी उस प्रियतम ( नल ) को व्यवहित (पृथक ) कर दिया तब तो हाय ! मैं मारी गयो / [पहले प्रियतम का दर्शन पाहरमें न होने पर भी 'हृदयमें वे हैं, तब कभी न कभी वे अवश्य ही मिलेंगे' यह मानकर हो मैं संतोष करती थी, किन्तु माज तुमने जब हृदयसे भी उस प्रियतम नलको अलग कर दिया, अतः मैं मारी गयी। [ पहले सखीने तो 'न+अलकृत-अनलकृत अर्थात् मण्डनरहित' अर्थ मानकर 'अनलकृत' शब्दको कहा, किन्तु दमयन्तीने 'म+नलकृत-अनलकृत अर्थात नसशून्य किया' यह अर्थ 'अनलकृत' शब्दको मानकर घबड़ाकर उक्त उत्तर दिया] // 109 // इदमुदीर्य तदैव मुमूर्छ सा मनसि मूछितमन्मथपावका / क सहतामवलम्बलवच्छिदामनुपपत्तिमतीमपि' दुःखिता / / 110 // इदमिति / सा भैमी, इदं पूर्वोक्तं 'सखि ! हतास्मीति वाक्पम् उदीर्य उच्चार्य, तदैव मनसि मूछितमन्मथपावका प्रवृद्धकामानला सती, मुमूर्छ मुमोह 'मूर्षा मोहसमुच्छ्राययोरित्ययेऽपि धातोः स्मरणात् / तथाहि दुःखिता सातदुःखा, दुःखिनी सा। अनुपपत्तिमतीमनलकृतमिति श्लेषशब्दभ्रषणजन्यभ्रान्तिविषय. स्वादनुपपन्नाम पीत्यर्थः। अवलम्बलवस्य हृदयसङ्गतिमात्रलक्षणस्य प्राणाधारलेशस्यापिलिवामुच्छेदकं व सहता, कथं सहेतेत्यर्थः / दुःखोहिग्नस्य भ्रान्तमभ्रान्तं वानि. ष्टसंवेदनमतिदुःसहमतो युसमस्या मूर्छनमिति भावः / अर्थान्तरन्यासोऽलकारः / ऐसा कहकर मनमें बढ़ी हुई कामाग्निवाली वह दमयन्ती उस समय मूच्छित हो गई। अत्यन्त दुखिया ( वह दमयन्ती) असत्य मी अर्थात् श्लेषोक सखी-वचनके भिन्नार्थक होनेसे हृश्य-गत नलामावरूप घटनारहित भी अवलम्ब ( हृदयस्थित प्रिय कभी न कभी 1. '-मतिदुःखिता' इति पाठान्तरम् / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 नैषधमहाकाव्यम् / अवश्यमेव मिलेगा, ऐसी आशारूप सहारा) के लेश ( कुछ माग ) के नाश (वय हृदय में भी प्रिय नहीं रहा तब वह कैसे मिलेगा इस प्रकार विचार आनेपर भाशाके ठूट जाने ) को कैसे सहन करे ? / [ अतिदुःखित व्यक्ति सत्य असत्य, परित-मटित, इर्षादिके तदर्थ या अन्यार्थक आदि बातों का विचार नहीं कर सकता, किन्तु जैसा सुनता है, उसका वैसा ही सीधा अर्थ मानकर तदनुसार निर्णय कर लेता है, अतः अतिपीडित सुकुमारी दमयन्तीको मी सखीके द्वारा कही गयी इलेपोक्तिसे अपने हृदयको नकरहित समझकर मूच्छित होना उचित ही था] // 110 // अधित कापि मुखे सलिलं सखी प्यधित कापि सरोजदलैः स्तनौ / व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ // __ अधितेति / कापि सखी सतनोभैंग्या मुखे सबिलम् भधित माहितवतीत्यर्थः / कापि स्तनी सरोजदलै प्यधित पिहितवत्ती, 'वष्टि भागुरिरखोपमवाप्योउपसर्गयो' इत्यपेरकारलोपः। कापि हदि ग्यजनानिलं ब्यधित विहितवती / तालवृन्तेन वीज. यामासेत्यर्थः / कापि तनी शरीरे हिमं चन्दनम् / 'चन्दनेऽपि हिमं विदुः' इति विश्वः / न्यधित निहितवती // 111 // (यह देख ) किसी सखीने सुन्दर शरीरवाली दमयन्तीके मुखपर पानी ( का छींटा) दिया, किसीने कमलिनीपत्रोंसे उसके स्तनोंको ढक दिया, किसी सखीने हृदयपर पंखेकी हवा की और किसी सखीने उसके शरीरपर चन्दनलेप लगाया // [ दमयन्तीको मूच्छित देख सब सखियां एक साथ ही शीतलोपचारद्वारा उसकी मूळ दूर करनेमे जुट गयीं]॥१११॥ उपचचार चिरं मृदुशीतलंजलजजालमृणालजलादिभिः / प्रियसखीनिवहः स तथा क्रमादियमवाप यथा लघु चेतनाम् // 112 // उपचचारेति / स प्रियसखीनिवहः मृदुशीतलैजलमजालमृणाबजलादिभिः जलजजाले पनसमूहैः, मृणाल जलैः / आदिशब्दान्यजनादिसाधनविशेषैः क्रमा. चिरं तथोपचार, यथेयं भैमी लघु सिप्रं चेतनां संज्ञामबाप // 112 // उस प्रिय सखीवर्गने कोमल और ठंढे कमल (पाठभेदसे-कमलसमूह-कमलनाल ), विसकता और मल मादि ( चन्दन, खश भादि ) से क्रमशः बहुत समय तक ऐसा उपचार किया, जिससे यह दमयन्ती थोड़ा होशमें आ गयी / ( 'लघु' शब्द भी शीघ्र अर्थ करना प्रकृतपपके प्रथमपादस्य 'चिरम्' पदसे विरुद्ध होनेके कारण तथा सुकुमारी दमयन्तीको चिरकालम नक-विरहबन्य पीडा होनेस 'शीघ्र होशमें भा गयो' ऐसा अर्थ करनेकी अपेक्षा 'कुछ ( थोड़ा) होशमें भा गयो' यही अर्थ अधिक सङ्गत है, और इस अर्थके करनेसे मग्रिम दो श्लोकोंके साथ भी विरोध नहीं होता] // 112 // 1. 'विष' इति पाठान्तरम्। 2. 'नाल' इति पाठान्तरम् / Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257 चतुर्थः सर्गः (युग्मम् ) अथ 'कले ! कलय श्वसिति स्फुटं चलति पक्ष्म चले ! परिभावय | अधरकम्पनमुन्नय मेनके ! किमपि जल्पति कल्पलते.! शृणु // 11 // रचय चारुमते ! स्तनयोवृतिं गणय केशिनि ! कैश्यमसंयतम् / . अवगृहाण तरङ्गिणि ! नेत्रयोर्जलझराविति शुअविरे गिरः // 114 // अथ भैग्याः कलादयः सप्त सण्यस्तासां तदशापरीक्षाग्यप्राणां मिया कलकलं श्लोकहयेनाह-अथेति / अथानन्तरम्, इति गिरः शुश्रविर इति सम्बन्धः / ता एवाह-हे कले ! स्फुटं व्यक्तं, श्वसिति प्राणिति, कलय आकलय / हे चले ! पक्षमा नेत्रलोम, चलति चन्मिपतीत्यर्थः। परिभावय परामश / हे मेनके ! अपरकम्प. नमोष्ठचलनमुन्नय तर्कय / हे कल्पलते ! किमपि जल्पति, शृणु // 113 // रचयेति / हे चारुमते / स्तनयोवृतिमावरणं रचय / हे केशिनि ! असंयतं वित्रस्तं कैश्यं केशसमूह, 'केशाश्वाभ्यां या छावन्यतरस्याम' इति यन्प्रत्ययः। गणय चिन्तय / बधानेत्यर्थः। हे तरङ्गिणि! नेत्रयोर्जलझरावप्रवाही, अवगृहाण बधान / इति गिरः शुश्रुविरे श्रुताः // 114 // इसके (कुछ होशमें आने के बाद 'हे कला ! देखो साफ 2 श्वास ले रही है, हे चला ! इसके पलक चल रहे हैं, यह तुम विचार करो; हे मेनका! इसका ओष्ठ हिल रहा है, यह तुम अनुमान करो; हे कल्पलता ! कुछ ( मस्पष्ट तथा धीरेसे ) कह रही है, तुम मुनो; हे चारुमती ! इसके स्तनोंको ढंक दो; हे केशिनी ! खुले हुए (इसके) केश-समूहको बांध दो; हे तरङ्गिणी ! नेत्रोंमें निकले हुए मासूको पोंछ दो'; इस प्रकार (सखियोंका परस्पर में) कहना सुनाई दिया // 113-114 / / कलकलः स तदालिजनाननादुदलसद्विपुलस्त्वरितेरितः / यमधिगम्य सुतालयमेतवान् द्रुततरः स विदर्भपुरन्दरः / / 115 // कलकल इति / तदा तस्मिन् सखीजनब्याकुलकाले, आलिजनाननात सखीमु. खारवरितेरितैः सम्भ्रमोक्तिभिः, विपुलो महान् , सः कलकला उदलसदुस्थितः / यं कलकलमधिगम्याकण्य, स विदर्भपुरन्दरः भीमभूपतिः द्रुततरोऽतित्वरितः, सुताल. यमेतवान् कन्यान्तःपुरं प्राप्तवान् // 115 // इस प्रकार मापसमें मरदी 2 कानेसे सखी-समुदायके मुखसे निकला हुआ वह महान् कोलाहल अधिक बढ़ गया (अथवा-धावकों अर्थात् दौड़कर दमयन्ती-मूछोको खबर पहुँचानेवालों के कहनेसे सखी-समुदाय....... ) जिसे सुनकर विदर्भनरेश (राजा भीम ) 1. '-मीयिवान् धृतदरः' इति पाठान्तरम् / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 नैषधमहाकाव्यम् / भययुक्त हो कन्या (दमयन्ती) के महलमें पहुंच गये / [ पुत्रीकी मूर्छाका समाचार सुनकर पिताका मययुक्त होना एवं तरकाल ही उसके महरूमें पहुंचना स्वाभाविक ही है ] // 115 // कन्यान्तः पुरबोधनाय यदधीकारान्न दोषा नृपं द्वौ मन्त्रिप्रवरश्च तुल्यमगदवारश्च तामूचतुः / देवाकर्णय सुश्रुतेन चरकस्योक्तेन जानेऽखिलं स्यादस्या नलदं विना न दलने तापस्य कोऽपि क्षमः // कम्येति / कन्यान्तःपुरस्य बोधनाय योगक्षेमानुसन्धानाय, यदधीकाराययो. मन्त्रिवैद्ययोरधीकाराधियोगात् / 'उपसर्गस्य अभ्यमनुष्ये बहुलम्' इति दीर्घः / दोषाः परपुरुषप्रवेशादयो वातादयश्च, न सन्तीति शेषः। अस्तिर्भवतिपरोऽप्रयुज्य. मानोऽप्यस्तीति वचनात् / ती मन्त्रिप्रवरण अगदमपरोगं करोतीत्यगदारो वैधश्च / 'रोगहार्यगदारो भिषग्वैश्चिकित्सक'इत्यमरः / 'कर्मण्यण 'कारे सत्याग दस्य' इति मुमागमः। हो नृपं तुख्यमेकवाक्यमूचतः / देव राजन् ! आकर्णय सुश्र. तेन सम्यक्तेन, चर एव चरको गूढचारः, तस्योक्तेन वाक्येन। अन्यत्र सुश्रतेन चरकस्योक्तेन चरकाचार्यप्रणीतग्रन्थेन, मखिलं तापनिदानं जाने। अस्यास्तापस्य बलने निवर्तने, नलं राजानं ददातीति नलद, तरसंघटक विना।'ातोऽनुपसर्गे का। अन्यत्र, नलवमुशीरं विना / 'मूलेऽस्योशीरमनियाम / अभयं नलदं सेण्यम्' इत्य. मरः / कोऽपि न मो न स्यात् / 'शकि लि' इति शक्याथै लिछ। अत्र योरपि नलइयोः प्रकृतस्वात् केवलप्रकृतश्लेषोऽलङ्कारः॥१६॥ जिस (प्रधान मन्त्री)के अधिकारसे कन्याके अन्तःपुरके योगक्षेममें बापाके लिये कोई दोष (परपुरुषसंसर्गजन्य व्यभिचार आदि) समर्थ नहीं होते राजवैद्यपक्षमें-जिस (राजवैद्य)के मषिकार अर्थात निरन्तर देखरेख रखनेसे कन्याके शरीरको रक्षित करने (में बाधा) के लिये कोई दोष (वात, पित्तादि ) समर्थ नहीं होते; उन दोनों ( मुख्यमन्त्री तथा राबवैद्य ) ने समान ( परस्पर अविरुद्ध ) वचन कहे / (प्रधान मन्त्रीने कहा कि सरकार ! सुनिये, अच्छी तरह सुने हुए दूतके कहनेसे मैं सब जानता हूं कि-) नलके लिये देने (नछके साथ •विवाह करने ) के अतिरिक्त इस दमयन्तीके सन्तापकी शान्तिके लिये कोई भी ( अन्य रामादि ) समर्थ नहीं है, राजवैद्यके पक्षमें वैद्यने कहा कि-'हे सरकार ! सुश्रुत तथा चरक (नामक चिकित्साशास्त्रके रचयिता प्रधान दो आचार्यों) के कहनेसे मैं सब जानता हूं कि नल अर्थात् खश देने के अलावे इसके तापकी शान्तिके लिये अन्य कोई (काथ, रस, मस्म आदि औषध) समर्थ नहीं है / (अथवा-राजा 'नल' को प्राप्तिके पहले 'खश' देनेके अतिरिक्त इसके तापको शान्ति के लिए ब्रह्मा भी समर्थ नहीं है, तब दूसरेकी बात ही क्या है ? अतः शीघ्र ही राजा नलके साथ विवाह करनेका तथा उसके पहले खशदारा उपचार करनेका प्रबन्ध होना 1. 'बाघनाय' इति पाठान्तरम् / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 256 चाहिये)। [ प्रधान मन्त्री तथा राबवैद्यको राजकुमारीको मूर्छा सुनकर अन्तःपुरमें पहुँचना उचित ही है ] // 116 // ताभ्यामभूयुगपदप्यभिधीयमानं भेदव्ययाकृति मिथःप्रतिघातमेव / श्रोत्रे तु तस्य पपतु पतेर्न किञ्चिद्भम्यामनिष्टशतशङ्कितयाकुलस्य // ताभ्यामिति / ताभ्यां मन्त्रिभिषग्भ्यां, भेदण्ययो नामाभेदः स एवाकृतिर्यस्य तद् भेदण्ययाकृति, अभिनाकारमेकरूपं यथा तथा, युगपदेकदा, अभिधीयमानं नलदादिवाक्यमिति शेषः / मिथोऽन्योन्यं प्रतिघातो विरोधो यस्य तन्मिथःप्रतिषातं मिथोमिनमेवाभूत् / अमिधानयोगपद्यादेकशब्दाचाभिनायकवाक्यवत् प्रतीयमा. नमपि तद् भिन्नार्थ वाक्यद्वयमेवासीदित्यर्थः / राज्ञस्तु न तत्र दृष्टिरित्याह-भैम्यां विषये अनिष्टशतशक्षितया अनिष्टानेकशावत्वेन आकुलस्य विह्वलचित्तस्य, 'प्रेम पश्यति भयान्यपदेऽपि' इति न्यायादिति भावः / तस्य नृपतेः भीमस्य श्रोत्रे तु किचिन्न पपतुः त किश्चिदर्थ जगृहतुः / व्याकुलान्तःकरणतया तद्वाक्ये नातीव कर्ण दत्तवानित्यर्थः // 117 // उन दोनों (प्रधान मन्त्री तथा राजवैद्य) के द्वारा एक साथ कहा गया भेदरहित मी वह वचन परस्परमें प्रतिघातक ( एक दूसरे का बाधक ) ही हुआ, इस कारण दमयन्ती के विषय में सैकड़ों अनिष्टों की शङ्का होने से राजा के दोनों कान कुछ भी (किसी एक के वचन को मी) नहीं पान किये अर्थात नहीं सुने / [एक साथ दो व्यक्तियों के कहे गये वचनों को कोई भी घबड़ाया हुमा व्यक्ति नहीं सुन सकता, अतः प्रधान मन्त्री तथा राज. वैद्य के एक साथ कहे गये भेदरहित वचनको भी परस्पर बाधक (मीम राबाके द्वारा एक दूसरे की बातको नहीं सुनने में कारण ) होना स्वाभाविक ही है / अतः वचनको न सुन सकनेसे दमयन्तीके नाना प्रकारको अनिष्ट शङ्काओंसे भीम राजा धबड़ा गये ] // 117 // द्रुतविगमितविप्रयोगचिह्नामपि तनयां नृपतिः पदप्रणम्राम् / अकलयदसमाशुगाधिमग्नां झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः // द्रुतेति / नृपतिः द्रुतविगमितविप्रयोगविहां दागपसारितशिशिरोपचारचिह्नामपि, पदे प्रणम्रो पादपतिताम् 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' इति णत्वम् / तनयामसमाशुगाधिमग्नां मदनव्यथामग्नाम् अकलयनिश्चिकाय। तथाहि विज्ञाः प्रवीणाः / 'प्रवीणे निपुणाभिज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षिताः' इत्यमरः / झटिस्यविलम्बेन पराशयबेदिनो हि, प्रकाशकलिङ्गमन्तरेण आकारमात्रेण परेङ्गितं निश्चिन्वन्तीत्यर्थः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 118 // राजा ( मीम ) ने विरहचिह्न से रहित चन्दनलेप, कमल, मृणाल आदि नहीं धारण 1. 'भेदण्यपाकृति' इति पाठान्तरम् / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 नैषधमहाकाव्यम् / की हुई पैरों में प्रणाम करती हुई दमयन्तीको कामदेव-पाणप्रहारजन्य मानसिक व्यथामें मग्न अर्थात् अत्यन्त कामपीडित समझ लिया, क्योंकि चतुरळोग दूसरों के माशयको शीघ्र जाननेवाले होते हैं / [अन्तःपुरमें राजाका भाना सुनकर समय सखियोंने या कुछ स्वस्थ हुई स्वयं दमयन्तीने ही कमल, मृणाल, विस भादि विरह-ताप-शान्तिकारक चिह्नोंको दूर कर दिया तब दमयन्तीने जाकर पिताके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया। विरहचिह्नों को दूरकर आयी हुई भी पुत्रीको चतुर राजा भीमने कामबाणसे पीड़ित समझ लिया। यहां दमयन्ती कामपीडासे इतनी क्षीण हो गयी थी कि विरहचिह को दूर हटाकर भी समीप में यो विनम्र दमयन्तीको कामपीडित समझनेमें चतुर राजाको कुछ विलम्प नहीं लगा] // व्यतरदथ पिताशिषं सुतायै नतशिरसे मुहुरुन्नमय्य मौलिम् / 'दयितमभिमतं स्वयंवरे त्वं गुणमयमाप्नुहि वासरैः कियद्भिः // 116 / / ग्यतरदिति / अथ पिता भीमः, नतशिरसे लजानतमुखायै सुतायै दमयनस्यै, मोलि मुख मुखमय्य, हे वरसे ! कियद्भिः कतिपयैरेष वासरैः स्वयंवरे स्वं गुणमयं गुणाढ्यमभिमतं दयितमाप्नुहोत्याशिषं मुहुर्यतरत् // 119 // इसके (चरणों में दमयन्तीके प्रणाम करनेके ) बाद पिता (राजा मीम ) ने नतमस्तक कन्या के लिये प्रेमाधिक्य से झट (पादप्रणत उसके) मस्तक को उठाकर भाशीर्वाद दिया कि-'स्वयंवर में ( अथवा हे स्वयंवरे ! पति को स्वयं वरण अर्थात् चुनकर स्वीकार करने. वाली!) तुम कुछ ( थोड़े) ही दिनों में बहुत गुणी अपने अभिलषित प्रियतम प्राप्त करो। [इस पद्य में 'स्वयंवरे. अमिमतम्, कियद्भिः वासरः पदों से राजा भीम ने पुत्री दमयन्तीकी कामपोडितावस्था जानकर आश्वासन दिया कि 'तुम्हें अभिलषित प्रियतम पति शीघ्र ही पाने के लिये मेरी परतन्त्रता नहीं रहेगी, अपितु तुम स्वेच्छानुसार पति को स्वयंवर में स्वयं ही स्वीकार करने में स्वतन्त्र रहोगी ] // 119 // तदनु स तनुजासखीरवादीत्तुहिनऋतौ गत एव हीदृशीनाम् | कुसुममपि शरायते शरीरे तदुचितमाचरतोपचारमस्याम // 120 // तदन्विति / तदनु आशीर्वादानन्तरम् 'अनुर्लपणे' इति कर्मप्रवचनीयसंज्ञा / स नृपस्तनुजासखीः सुतावयस्याः भवादीदूचे / किं तत्तदाह-हि यस्मात् , तुहिन. ऋतौ शिशिरकाले, 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / गते निर्गत एव, बसन्ते पुष्पपरिणामात्तापस्य दुःसहत्वाच्चेति भावः। ईदृशीनां कोमलाङ्गीनां यौवनप्रविष्टानां शरीरे कुसुममपि शरायते शरवदाचरति, तद्वद दुःसहं भवति / एकत्र गात्रमार्दवादन्यत्र मदनबाणत्वाचेति भावः। तत्तस्मादस्यां कोमकाङ्गयां युवस्यांच, उचितं योग्यमु. पचारं प्रतीकारमाचरत // 120 // उसके ( दमयन्तीको आशीर्वादरूप आश्वासन देने के ) बाद उस (राजा भीम ) ने Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 261 पुत्री दमयन्तीकी सखियोंसे कहा-'शिशिर ऋतुके बीतते हो अर्थात् वसन्त ऋतुका आरम्म में ही ऐसी (कोमलाङ्गी युवतियों या विरहपीडिताओं) के शरीर में फूल मी बाणके समान व्यवहार करता है, अत एव ( तुमलोग ) इस दमयन्तीके विषय में योग्य उपचार करो। [ ऐसौ कोमलागियों के शरीर में फूलसे मारनेपर मी वाणसे मारने के समान पीड़ा होती है, फूलको कामबाण होनेसे विरहियों के लिये तो पीडा होना स्वाभाविक ही है ] // 120 // कतिपयदिवसैर्वयस्यया वः स्वयमभिलष्य वरिष्यते वरीयान् / / क्रशिमशमनयानया तदाप्तुं रुचिरुचिताथ भवद्विधाभिधाभिः // 12 // ___ कतीति / किंच, कतिपयदिवसः अरुपदिन रेव, वो युष्माकं, वयस्यया सख्या भैग्या, वरीयान् श्रेष्ठः पुमान् , स्वयमभिलष्य कामयिस्वा वरिष्यते / यं कामयते तं वरिष्यतीत्यर्थः / ततस्माद् अथेदानीम्, अनया दमयन्स्या (का), भवतीनां विधेव विधा यासा तासां भवहिधानां सखीनां, सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंबद्भावः / अभिधामिरुतिभिर्या क्रशिमशमना काय॑निवर्तना, तया उपायभूतयारुचिः कान्तिः प्रीतिश्च, आप्तुमुचिता आप्तम्या, स्ववंबरपर्यन्तं भवदुपलालनावचनैः खेदं विहाय प्रसन्नया सन्तुष्टया च स्थातव्यमित्यर्थः / द्रुतेत्यादिश्लोकचतुष्टयं पुष्पिताप्रावृत्तम् // तमलोगोंको सखी यह दमयन्ती कुछ (थोड़े) ही दिनों में स्वयं अभिलाषा करके अत्यन्त उत्तम (पतिको ) स्वीकार करेगी (जिसे यह हृदयसे चाहती है, उसे ही स्वयंवर में स्वयं वरण करेगी, इस कार्यमें पिता होने के कारण मैं किसी प्रकार का वाधक नहीं बनूंगा) / इस कारण इस समय इस दमयन्तोकी दुर्बलता दूर करनेवाली रचि (विरहावस्थाके पहले वाली सुन्दरता, या इच्छा), तुमलोगों के समान ( हितैषिणी सखियों ) के कहने अर्थात समझाने ( पाठभेदसे-उपचारोंसे ) प्राप्त करना उचित अर्थात आवश्यक है। [ 'कृशता दूर करनेवाली' कह विशेषण प्रथमान्त मानकर दमयन्ती पक्षमें भी लग सकता है। इसका शीघ्र ही स्वयंवर होनेवाला है, अत एव तुमलोग ऐसा उपचार करो; जिससे यह दमयन्ती कशना दूर कर पहले के समान सुन्दर हो जाये ] // 121 // एवं यद्वदता नृपेण तनया नापच्छि लज्जापदंर यन्मोहः स्मरभूरकल्पि वपुषः पाण्डुत्वतापादिभिः / यच्चाशीःकपटादवादि सदृशी स्यात्तत्र या सान्त्वना तन्मत्वालिजनो मनोऽब्धिमतनोदानन्दमन्दाक्षयोः // 122 // एवमिति / एवं वदता नृपेण, तनया दमयन्ती, लज्जापदं लजाहेतुं, नापृच्छि न पृष्टेति यत् / ज्ञातांशे प्रश्नायोगादिति भावः। पृच्छेदुंहादिस्वादप्रधाने कर्मणि लुछ। मोहो मूछों च वपुषः पाण्गुस्वतापादिभिलिङ्गः स्मरभूः कामजोऽकल्पि निश्चित 1. विधामिः' इति पाठान्तरम्। 2. 'लज्जास्पदम्' इति पाठान्तरम् / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 नैषधमहाकाव्यम् / इति यत् / तत्र तस्यां पुध्यां, सही अनुरूपा या सावना लालनोक्तिः स्यात् , सा चाशीकपटाइयितमाप्नुहीत्याशीर्वादण्याजादवादीति च यत्, तरसर्व मरवा. लोग्य, भालियर्गः मनः स्वचित्तम् भानन्दमन्दायोः अब्धिमतनोत् / छज्जानन्द. सागरीचकारेत्यर्थः / स्वेष्टसिद्धेरानन्दः स्वरहस्वप्रकाशनाधज्जा // 122 // इस प्रकार (श्लो० 119-121 ) कहते हुए राजा भीमने कन्या दमयन्तीसे लज्जाविषयक बातको ( पाठभेदसे-सलज्ज दमयन्तीसे पीडाविषयक बातको) तथा कामदेवने शरीरके पाण्डुत्व और सन्ताप मादिसे को मूच्र्छा उत्पन्न कर दिया था उसको जो नहीं पूछा, और भाशीर्वाद के बहानेसे (श्लो० 119 में ) दमयन्तीसे योग्य वर पानेको तथा सखियोंसे उसका योग्य उपचार करनेको कहकर जो सान्त्वना दी, उसे जानकर सखियोंने मनको आनन्द तथा लज्जाका समुद्र बना दिया। [राजाने पिता होने के नाते कामपीडित कन्यासे लज्जाजनक पाण्डुतापादिजन्य मोह भादिकी बात नहीं पूछी और आशीवाद देकर तथा सखियोंसे नचित उपचार करने के लिये कहकर कन्या तथा उसकी सखियोंको पूर्ण सान्त्वना दे दी, यह योग्य एवं चतुर पिताके लिये उचित ही था। सखियां भी 'पिताजीने सखी दमयन्तीका, स्वयंवर शीघ्र ही करने का निश्चय कर किया' यह जानकार हर्षित तथा 'कामपीडाविषयक बात पिताजीने मालूम कर लिया' यह जानकर एक साथ ही मनमें मस्यन्त लज्जित भी हुई / अन्य किसी भी पिता एवं कन्याके लिये ऐसा ही करना स्वामा. विक है ] // 122 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामझदेवी च यम् / तुर्यः स्थैर्यविचारणप्रकरणभ्रातर्ययं तन्महा... काव्येऽत्र व्यगलनलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 12 // श्रीहर्षमिति / श्रीहर्षमित्यादि सुगमम् / तुर्यचतुर्थः। 'चतुरश्छयतावाधार लोपश्च' इति साधुः / स्थैर्य विचारणं नाम स्वप्रणीतप्रकरणं तद्भातरि तासमानः कर्तृक इत्यर्थः // 123 // "इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु'समाख्याने चतुर्यः सगं समाप्तः // 4 // ___ कवीश्वरसमूहके मुकुटाबहार में जड़े गये हीरेके समान पिता 'श्रीहीर' तथा माता मामल्ल देवीने इन्द्रिय-समूहको जीतनेवाले जिस 'मीहर्ष'नामक पुत्रको उत्पन्न किया, उसके रचित 'स्थैर्यविचारण' (क्षण-मनके खण्डनसे स्थिरताका विचारणसूचक ग्रन्य. विशेष ) नामक प्रकरणका सहोदर ( समान, पक्षान्तरमें-दोनों ग्रन्थों का एक निर्माणकर्ता होनेसे सहज माई ), सुन्दर, नलके चरित अर्थात् 'नैषधचरित' नामक महाकाव्यमें स्वमा. वतः निर्मक ( दोषहीन ) चतुर्थ सर्ग समाप्त हुभा / / 123 // यह 'मणिप्रभा टीकामें 'नैषधचरित'का चतुर्थ सर्ग समाप्त हुभा // 4 // Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः यावदागमयतेऽथ नरेद्रान् स स्वयंवरमहाय महीन्द्रः / तावदेव ऋषिरिन्द्रदिदृक्षुर्नारदस्त्रिदशधाम जगाम // 1 // अथ दमयन्तीस्वयंवराय इन्द्राबागमनं वक्तुं तदुपयोगितया नारदस्येन्द्रलोक. गमनमाह-यावदिति / अथ स महीन्द्रो भीमभूपतिः, स्वयंवरमहाय स्वर्षवरोरसवाय, नरेन्द्रान् , यावदागमयते आगमनेनानयनेन विलम्बत इत्यर्थः / 'आगमे समायामात्मनेपदं वक्तव्यम्। 'मोपेचा कालहरणे'ति काशिका / तावदेव ऋषिः नारदः, 'ऋत्यक' इति प्रकृतिभावः। इन्द्रं दिसतुरिन्द्रदिरः सन् , मधुपिपासुवत् गम्यादिपाठाद् द्वितीयसमासः / त्रिदशधाम स्वर्ग प्रति जगाम / सर्गेऽत्र स्वागता. वृत्तम् / 'स्वागतेति रनमाद् गुरुयुग्मम्' इति लक्षणात् // 1 // दमयन्तीको आश्वासन देने के बाद मीम जब तक (स्वयंवरका निमन्त्रण भेजकर) राजाओं की प्रतीक्षा करते थे, तब तक नारदजी इन्द्रको देखने ( उनसे मिलने ) की इच्छा से स्वर्गको गये // 1 // नात्र चित्रमनु तं प्रययौ यत्पर्वतः स खलु तस्य सपक्षः / नारदस्तु जगतो गुरुरुच्चैविस्मयाय गमनं विललङ्घ // 2 // अथ षड्भिस्तद्गमनप्रकारं वर्णयति-नेत्यादि / पर्वतो नारदसखो मुनिः शैलश्च / 'पर्वतः शैलदेवोः ' इति विश्वः / तं नारदमनु प्रययाविति यत् अत्र चित्रमाश्चर्य न / कुतः, स पर्वतस्तस्य नारदस्य सपतः सखा खलु पाश्चेति गम्यते / उभयः थाप्यनुयानं युक्तमेवेति न चित्रमित्यर्थः / किंतु, जगतो लोकस्य उच्चरुनतः, गुरुराचार्यः तस्मादलघुश्ख, स नारदस्तु, विस्मयाय गमनं विललंघे लंघयामास / तल्लंघन विस्मयाय भवतीत्यर्थः / गुरुद्रव्यस्य पतनाईस्य उत्पतनं विरुद्धमिति श्लेषोत्थापितो विरोधाभासोऽलकारः // 2 // उन नारदजीके सपक्ष ( मित्र, पक्षान्तरमें-पंखसहित ) पर्वत ऋषि ( पक्षान्तर मेंपहाड़ ) जो पीछे 2 गये, इसमें आश्चर्य नहीं है, किन्तु संसारके ( पक्षान्तरमें- संसारसे अर्थात् सबसे ) गुरु (माचार्य होने के कारण गौरवयुक्त, पक्षान्तरमें-मारी) नारदजी मो अत्युन्नत आकाशको लांघ गये, यह भाश्चर्य है / अथवा-गुरु अर्थात् गौरवयुक्त ( पक्षान्तरमें-मारी) नारदजी संसार माश्चर्य के लिये उच्चतम आकाशको लाप गये, अथवा-संसार के गुरु नारदजी बो भाकाशको लाँध गये, यह 'वि' अर्थात् पक्षियों के 18 नै० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / मी स्मय (याश्रय) के लिए हुभा ( पक्षियोंने भी गुरुतम नारदजी को भाकाश लांघते (रूपर जाते ) देखकर बड़ा आश्चर्य किया कि इस प्रकार शीघ्र हमलोग भी नहीं उढ़ सकती)। [जो पर्वत अव है, उसका नारद जोके साथ ऊपर माकाशको जाना आश्चर्य कारक होना चाहिए था, वैसा नहीं हुभा; क्योंकि वह पंख सहित था-जैसा कि रामायण मनाक पर्वत तथा हनुमान जी के संवादसे और पुराणवचनांसे पवोंके पंखयुक होनेसे माकाशमें उड़ने का प्रसङ्गाया है। अथवा-यह नारदजी उसके (पर्वतके) सपक्ष अर्थात पक्ष में थे या मित्र थे, अतः वे सब कुछ उसके वास्ते कर सकते थे, अतः उसका भाकाशमें गमन करना कोई भी पाश्चर्यको बात नहीं। संसारके उपदेशा होनेसे गोरवयुक्त ( पक्षा-भति. मारयुक्त) नारदजी जो भाकाशको लांघ गये-धोरे 2 नहीं गये किन्तु उछलकर बांध गये-यह आश्चर्यके लिये हुआ, क्योंकि जो जगद्गुरु है, वह स्वयं अपने लिए कोई अतिमयादित काम नहीं करता। नारद जी के साथ उनके मित्र पर्वत ऋषि भी स्वर्गको गये] // गच्छता पथि विनैव विमानं व्योम तेन मुनिना विजगाहे। साधने हि नियमोऽन्यजनानां योगिनां तु तपसाऽखि जसिद्धिः // 3 // गच्छतेति / पयि विमानं ज्योमयानं विनैव गच्छता तेन मुनिना, पोम विज. गाहे प्रविष्टम् / तथा हि, साधने उपाये नियमोऽवश्यंभावः क्रियासिदो नियमेन. साधनान्तरापेवेत्यर्थः / अन्यजनानामस्मदादीनां, योगिनां त, तपसा योगधर्मेणैः वाखिलसिद्धिः सर्वकार्यसिद्धिहि / तस्मान्महायोगिनोऽस्य किं विमानेनेति भावः। सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 3 // विना विमानके हो जाते हुए उस नारदजीने भाकाशको आलोडित कर दिया (अथवा...."अपरिमित माकाशको भालोडित कर दिया। अथवा-पक्षोके समान जाते हुए...)। क्योंकि अन्य साधन ( रथ, घोड़ा, विमान आदि ) की आवश्यकता साधारण लोगों को होती है (पिना साधनके साधारण लोग कुछ नहीं कर सकते ), योगियों को तो तपस्या से ही सब सिदि होती है, (किसी अन्य साधन के बिना उनका कोई काम नहीं रुकता) // 3 // खण्डितेन्द्रभवनाद्यभिमानालाचते स्म मुनिरेष विमानान् / अर्थितोऽप्यतिथितामनुमेने नैव तत्पतिभिरंघ्रि विनम्रः // 4 // खण्डितेति / एष मुनिः, खण्डितो निरस्तः, इन्द्र भवनादीनामभिमानोऽहारो यैस्तान्, ततोऽपि समृदानित्यर्थः / विमानान् देवगृहान् , लखने स्म अतिच काम / किंबहुना, अद्धिविनत्रैः पादपतितैः, तस्पतिमिर्विमानाध्युषितर्देवैः अधितः प्रार्थि तोऽपि, अतिथितामातिथ्य, नैवानुमेने / एतन्मात्रविलम्बं च नासहिष्टेत्यर्थः // 4 // यह मुनि नारदजः इन्द्रभवन के अभिमानको मो सुन्दरतासे चूर करने वाले अर्थात् इन्द्रमवनोंसे भी अधिक सुन्दर ('खण्डितेन्दु' पाठभेदसे-'चन्द्रशाला'संज्ञक भवनविशेषोंसे Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 265 मो अधिक सुन्दर, या अत्यन्त ऊँचे स्तरपर उढ़नेसे चन्द्रमवन ( चन्द्रनिवासस्थान-चन्द्रकोक ) के भी अभिमानको चूर करनेवाले) विमानोंको लांघ गये थे (उन विमानोंको अपेक्षा भो तीव्र वेगसे चलते थे, अथवा उनसे भी ऊँचा पहुँच गये थे)। चरणपर प्रणामकर विमा. नांके स्वामियों के प्रार्थना करनेपर भा ( 'पैदल क्यों जा रहे हैं ? आकर मेरे विमानपर चढ़कर चलिये' ऐसा निवेदन करने पर भी विलम्ब होने की बाशहासे ) उन (विमानस्थित देवतामों ) का आतिथ्य ग्रहग नहीं किया ( उनके विमानपर नहीं बैठे ) // 4 // तस्य तापनभिया तपनः स्वं तावदेव समकोचयदचिः / यावदेष दिवसेन शशीव द्रागतप्यत न तन्महसैव / / 5 // तस्येति / तपनोऽकी, तस्य मुनेः (कर्मणः), तापनादिया, सन्तापोऽस्य भविज्यतीति भयेन स्वमारमीयमचिस्तेजस्तावदेव प्रागेव, समकोचयत् सङ्काचितवान् / यावदेष तपना दिवलेन दिवा, आतपेन स्वौजसा, शशीव, तन्महसा तस्य तेजसेव, बाक सपदि, स्वयमेव नातप्यत, मुनितापनादामहानेरमारमशेच इति मवा मन्दप्रकाशः स्थित इत्यर्थः / तथा च सूर्यादपि तेजिष्ठा मुनिरिति भावः // 5 // सूर्यने नारदजीका सन्ताप होने के भयसे अपने तेजको ता तक ( अथवा-उतना, अथवा-पहले ) हो कम कर लिया, जब तक ( अपवा-जितनेसे ) दिन के द्वारा चन्द्रमाके समान उन ( नारद जा ) के तेजसे ही स्वयं तत नहीं होने लगे [ सूपंको दो प्रकार के भय थे-एक यह कि यदि मैं तापका कम नहीं करूंगा तो मुझको नारदजा से संताप होगा और वे मुझे क्रोधसे शाप दे देंगे, दूसरा यह कि यदि मैं अपने तेन का अधिक कम कर लूंगा तब उनके तेजसे मैं स्वयं ही सन्तप्त होने लगूंगा, जैसे मेरे ( सूर्य के ) ते बसे चन्द्रमा सन्तप्त ( कान्ति होन ) होता है / अतः सूर्यने तब तक या उतना ही अपना तेज कम किया, जिससे उनके तेजसे न तो नारद ना सन्तप्त हुए और नारदजाके ते बसे स्वयं वे ( सूर्य ) हो सन्तप्त ( क्षाणकान्ति ) हुए / नारदजोका तेज सूर्य के समान था ] // 5 // पर्यभूहिनमणिद्विजराजं यत्करैरहह तेन सदा तम् / पर्यभूत् खलु करैर्द्विजराजः कम कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते ? // 6 // पर्यभूदिति / दिनमगिः सूर्यः, द्विजराजं चन्द्रं ब्राह्मगोत्तमच, करैरंसुभिः हस्तैश्च, क्यंभूत् परिभूतवानिति यत् / तेन परिभवेन ( हेतुना) तदा नारदागमन काले, तं दिनमणि, द्विजराजो ब्राह्मणोत्तमश्चन्द्रश्व, कौरंशुभिहस्तैश्च, पर्यत् / अहह अद्धः तम् / 'अहहेश्यद्भुते खेदे' इत्यमरः / स्वकृतद्विजराजपरिभव होलात् स्यमय तेन परिभूत इत्यर्थः / तथा हि, अत्र जावलोके का स्वकृतं (कर्म) न भुङ्क्ते / सर्वगापि. स्वकर्मफलमनुभाग्यमेवेत्यर्थान्तरन्यासः॥६॥ सूर्यने करों (किरगों, पक्षान्तरमें-हायों) से द्विजराज (चन्द्रमा, पशान्तरमें Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 नैषधमहाकाव्यम् / मामणश्रेष्ठ नारदजी) को जो परिभूत ( तेजसे होन, पक्षान्तरमें-सन्तप्त) किया, तब इस कारणसे दिनराज ( चन्द्र, पक्षान्तरमें ब्राह्मणश्रेष्ठ नारदजी ) ने उस (सूर्य) को करों (किरणों, पक्षान्तरमें-अपने तेज ) से परिभूत ( तेजोहीन, पक्षान्तरमें-सन्तप्त ) किया। भाश्चर्य या खेद है-इस संसारमें अपने किये गये कर्म (के फल) को कौन नहीं भोगता ! मर्थात समी भोगते हैं / ( सूर्य के तापसे चन्द्रमाका निस्तेज होना सर्वप्रत्यक्ष है, अतः द्विजराज नारदजीने भी अपने तेजसे सूर्यको तपाया) अथवा-द्विजराज नारदजीको जो सूर्यने अपने किरणोंसे सन्तप्त किया, अत एव क्रुद्ध द्विजराज नारदीने भी उस सूर्यको सन्तप्त किया, इसी कारण नारदजीके माकाश में पहुंचनेपर सूर्य निस्तेज हो गये, जैसा पूर्व श्लोक में कहा गया है / [ नारदजीका तेज सूर्यके तेजसे भी अधिक था] // 6 // विष्टरं तटकुशालिभिरद्भिः पाद्यमय॑मथ कच्छरुहाभिः / पद्मवृन्दमधुभिर्मधुपक स्वर्गसिन्धुरदितातिथयेऽम्मै // 7 // विष्टरमिति / अथ स्वर्गसिन्धुर्मन्दाकिनी, अतिथये अस्मै नारदाय, तटकुशाना. मालिभिरावलिभिविष्टरमासनं, 'वृक्षासनयोविष्टरः' इति षत्वनिपातः, अभिः पाद्य पावार्य जलं, कच्छमहाभिर्जलप्रायभूग्युपश्चाभिलताभिः, अयम् अर्धार्थ पुष्पफलादि, 'पादाभ्याच' इति तादयं यत्प्रत्ययः। पनवृन्दाना मधुभिर्मकरन्दः, मधुपर्क अदित दत्तवती / दवातेलङि ता॥७॥ इसके बाद ( स्वर्गमें पहुंचनेपर ) मन्दाकिनी अर्थात स्वर्गगङ्गाने अतिथि इस नारदजी के लिये किनारेमें उत्पन्न कुशाओंसे आसन, जलसे पाद्य (पैर धोनेके लिए) जरू, अपने समीपकी जलप्राय भूमिकी दरोंसे मध्ये और कमलसमूहके मधु अर्थात् मकरन्दसे मधुपर्क दिया / [ अन्य सज्जन व्यक्ति भी अपने यहाँ आये हुये मतिथिके लिए प्रसन्न होकर मासन, पाथ, अयं और मधुपर्क देते हैं और वह मतिथि भी उनके मातिथ्यसे प्रसन्न होता है / मन्दाकिनी और नारदीको और नारदमी मन्दाकिनीको देखकर प्रसन्न हुए ]u. स व्यतीत्य वियदन्तरगाधं नाकनायकनिकेतनमाप / सम्प्रतीर्य भवसिन्धुमनादि' ब्रह्म शर्मभरचारु यतीव // 8 // स इति / स मुनिः, अगाध, वियदन्तनभोऽभ्यन्तरं व्यतीत्य, नाक नायकनिके. तनम् इन्द्रभवन, यती योगी, अनादि, भसि धुं संसाराब्धिम्, सम्प्रतीर्थ शम: मरचाह परमानन्दसुन्दरं, ब्रह्म परमात्मानमिव आप // 8 // - वह (नारदजी) बीच में अगाध (अपरिमित ) आकाशको पारकर देवराज इन्द्रके भवन (वैजयन्त नामक महल) को प्राप्त किये, जिस प्रकार योगी (या परमहंस) अनादि (प्रवाहसे युक्त ) संसारसागरको पारकर मानन्दातिशय रमणीय ब्रह्मको प्राप्त करता है / १.'-मनावि' इति पाठान्तरम् / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 267 [अन्तः तथा अगाध शब्द भवसागरके, अनादि शब्द वियत् के और शर्ममरचार शब्द इन्द्रभवन के भी विशेषण हो सकते हैं / नारदजी इन्द्रभवनमें पहुंच गये ] // 8 // अर्चनाभिरुचितोच्चतराभिश्चारु तं सदकृतातिथिमिन्द्रः। यावदह करणं किल साधोः प्रत्यवायधुतये न गुणाय // 6 // अर्चनाभिरिति / इन्द्रः, तमतिथिं मुनिम्, उचिताद्विहितात् , उत्तराभिरधि कामिः, अर्चनाभिः पूजाभिः, चारु यथा तथासदकृत सस्कृतवान्, आइतवानित्यर्थः। 'आदरानादरयोः सहसती' इति निपातनात् प्राक प्रयोगः / अधिकाचरणे हेतुमाहयावदह याववतम् 'यावइवधारणे' इत्यव्ययीभावः। 'यावरहस्य करणम्' इति षष्ठीतत्पुरुषः / लाबोः श्रद्वालोः प्रत्यवायधुक्ये अकरदोषनिवार गाय, गुगायोस्क र्षाय न किल खलु / सामान्येन विशेषसमर्थन रूपोऽर्थान्तरन्यासः // 9 // इन्द्रने अतिथि उस नारदजी का उचितसे अधिकतर पूजाओं द्वारा सत्कार किया / उचित पूजा करना सज्जनके प्रत्यवाय ( नहीं पूजा करने से होनेवाले दोष ) को शान्ति के लिये होता है, ( पूजा करने वाले के ) गुणके लिये नहीं। अथवा-तज्जनको उचित पूजा करना पूजनकर्ता के प्रत्यवायशान्ति के लिये होता है, गुणके लिये नहीं। अथवा-सज्जन के गुण के लिये नहीं होता / [ देवराज इन्द्रने श्रेष्ठतम अतिथिरूप में उपस्थित नारदजीका आतिथ्य बड़ी ही श्रद्धा एवं मक्तिके साथ किया ] // 9 // नामधेयसमतासखमद्रेरद्रिभिन्मुनिमथाद्रियत द्राक् / पर्वताऽपि लभतां कथमचों न द्विजः स विबुधाधिपलम्भो ? // 10 // नामधेयेति / अथ नारदसस्कारानन्तरम्, अदिर्शिदन्द्रः, अद्रेः पर्वतस्य, नाम: धेयतमतया नामसामान्येन सखायं तत्सखं मुनि पर्वताख्यं, द्राक द्रुतमाद्रियत सस्कृतवान् / स्वतः पर्वतारेः कथं हरस्कारमलभतेत्यत्राह--पर्वतोऽपि सद्विजो विबु. धाधिपं देवेन्द्र पण्डितोत्तमं च, लभते प्राप्नोतीति तल्लम्मी / विबुधः पण्डिते देवे' इति विधः। स मुनिः, कथमचर्चा पूजो, न लभता ? लमतामेवेत्यर्थः। हिजोऽभ्या: गतो महतः प्रतिपक्षादपि विकिनः पूजां लभत इति भावः / / 10 // पर्वताहा भेदन करनेवाले इन्द्रने पर्वत इस नाममात्रसे ( कर्मसे नहीं ) पर्वत मुनिका शीघ्र सरकार किया। विबुधषभु ( देवताओं के स्वामी, पक्षान्तर में विशिष्ट विद्वानों में श्रे) को प्राप्त करनेवाला द्विज (ब्राह्मण ) पर्वत मी पूजाको क्यों नहीं प्राप्त करे अर्थात् अवश्य प्राप्त करे / [ यद्यपि इन्द्र पर्वतोंका भेदन करने वाले हैं किन्तु देवराज या विशिष्ट विद्वानों में श्रेष्ठ होनेसे अपने यहां आये हुए पर्वत (शत्रु) का मी क्यों सत्कार न करें ? उसमें भी यह द्विज है, तथा केवल नाम से ही पर्वत है वास्तविक पर्वत नहीं, अत एव अवश्य सस्कार पाने के योग्य है / अथवा-पर्वतरूप (पत्थरके समान) अर्थात् महामूर्ख भी ब्राह्मणको विद्वच्छ्रेष्ठ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 नैषधमहाकाव्यम् / के यहां भाकर पूजा प्राप्त करना उचित ही है। द्वार पर आया हुआ शत्रु हो, या महामूर्ख भी ब्राह्मण हो तो उसका विद्वान् लोग पादर-सत्कार अवश्य ही करते हैं ] // 10 // तद्भुजादतिवितीर्णसपर्याद् द्योगुमानपि विवेद मुनीन्द्रः / स्वःसहस्थिति सुशिक्षितया तान् दानपारमितयैव वदान्यान् // 11 // तदिति / मुनीन्द्रो नारदस्तान्, प्रसिद्धान् धोनुमान रूपवृक्षानपि, अतिविती. जसपर्यादतिमात्रदा पूजात, तरयेन्द्र न्य, भुजाद्धरतादेव, गुरोः रवः स्वर्गे, सहस्थिया सहवासेन, सुशिक्षित या स्तम्यरतया, दानपारमिता नाम दानकर्तव्यताप्रतिपादको प्रन्यविशेषः, तथैव कारणेन वदान्यान् विवेद / इन्द्रहरतः कल्पवृक्षाणामपि दानविद्योपदेष्टेयुत्प्रेरितवानित्यर्थः / वलपवृक्षातिशायौदार्यमायेति भावः // 11 // मुनिराज नारदजीने अतिशय दानशीलतासे (अथवा-अधिक दानशीलताका प्रतिपादक 'दानपारमिता' नामक ग्रन्थ विशेषसे ) हो अत्यधिक पूजन (भादर सत्कार ) करने वाले (गुरुरूप) इन्द्र के हार्थोसे स्वर्गमें नित्य साथ रहने से शिक्षा प्रहण किये (सीखे) हुए, स्वर्गवृक्ष अर्थात कल्पवृक्ष आदिको अतिशय दान देनेसे वदान्य (अतिशय दान करनेवाला) माना। [ 'संसजा दोषगुणा भवन्ति' अत्ति के अनुसार जो जिसके साथ सदा रहता है, वह बिना सिखाये भी उसके गुणों को सीख लेता है, यहां देवर्षि नारदजीने दानवीर इन्द्र के हायोंसे अत्यधिक भादर सत्कार पाकर यह निश्चय किया कि कल्पवृक्षों की दानशीलता स्वभावक नहीं, किन्तु महादानी इन्द्र के सहवाससे है। इन्द्र कल्पवृक्षोंसे भी अधिक दानी थे] // 11 // मुद्रितान्यजनसंकथनः सन्नारदं बलरिपुः समवादीत् / आकरः स्वपरभूरिकथानां प्रायशो हि सुहृदोः सहवासः // 12 // मुद्रितेति / बलरिपुरिन्द्रः, मुदितान्यजनसंकथनो निवारितेतरजनालापः सन् , नारदं समवादीत् , तेन सह संडापमकार्षीदित्यर्थः। किं संवाधं तदाह-प्रायशः सुहृदोमित्रयोः सहवासः सङ्गमः, स्वे मारमीयाः परेच स्वपरे तेषां याः भूरयः कथाः प्रसास्तासाम् आकरः खनिर्हि / इष्टालापानामियत्ताभावात् संवादसिद्धिरित्यर्थान्तरम्यासाभिप्रायः / 'खनिः खियामाकरः स्यात्' इत्यमरः // 12 // बल दैत्य के शत्रु इन्द्रने दूसरे लोगोंकी या दूसरे लोगों के साथकी बातचीतको रोककर नारदजीसे कहा-क्योंकि दो मित्रोंका सहवास प्रायशः अपनी तथा दूसरों की बहुत-सी कथाओं की खान होता है / [दो मित्रों के मिलने पर अपनी र हार्दिक हस्यमयी बातें तथा अन्यान्य विविध संभाषण निरन्तर हुआ करते हैं, इसी कारण इन्द्र दूसरे लोगोंसे संभाषण करना आदि कार्य रोककर स्वयं नारदजी के साथ सम्भाषण करने लगे ] // 12 // तं कथानुकथनप्रसृतायां दूरमालपनकौतुकितायाम् / भूभृतां चिरमनागमहेतुं ज्ञातुमिच्छुरवदच्छतमन्युः // 13 // Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 266 तमिति / शतमन्युः शतक्रतुः / 'मन्युदैन्ये कतौ क्रुधि' इत्यमरः / आलपनको. कितायामाभाषणोत्कण्ठायां, दूरं कथानुकथनप्रसृतायाम् उत्तरप्रत्युत्तराभ्यां दूर गतायां सत्यां, प्रसकानुप्रसक्तया सङ्गत्येत्यर्थः। चिरं चिरात्प्रभृत्ति / भूभृता राज्ञाम, अनागमहेतुं ज्ञातुमिच्छुः सन् / तं नारदम, अवददपृच्छदित्यर्थः // 13 // संभाषण-कौतुकके परस्पर कथनानुकथन ( एक दूसरेके कहने तथा सुनने) के बहुत अधिक बढ़ जानेपर बहुत दिनोंसे राजाओं के स्वर्गमें न आनेके कारणको जाननेकी इच्छा करनेवाले शतमन्यु ( सैकड़ों क्रोधवाले अर्थात् अत्यन्त क्रोधी =इन्द्र ) ने उन नारदजीसे पूछा-[ 'पहले भूलोकमें रणके सम्मुख मारे गये बहुतसे रानालोग स्वर्गमें पाया करते थे, इस समय बहुत दिनोंसे किसी युद्धहत राजाके स्वर्गमें नहीं माने का क्या कारण है ?' यह मानने की प्रबल इच्छा इन्द्रके मन में थी, सर्वत्र घूमनेवाले नारदजी इस बातको अवश्य बतलायेंगे, ऐसा समझकर उनसे पूछा / अत्यधिक क्रोधी इन्द्रका युद्धप्रिय होना तथा तद्विपयक प्रश्न करना स्वाभाविक ही था] // 13 // प्रागिव प्रसुवते नृपवंशाः किन्नु सम्प्रति न वीरकरीरान् ? | ये परप्रहरणैः परिणामे विक्षताः क्षितितले निपतन्ति // 14 // प्रागिति / नृपवंशाः राजकुलानि, नृपा एव वंशाः वेणवश्च / 'वंशो वेणौ कुले वर्गे' इति विक्षः। प्राक पूर्वमिव, सम्प्रति, वीरानेव करीरानकुरान् / 'वंशाकुरे करीरो. ऽसी' इत्यमरः / न प्रसुवते न जनयन्ति / किं नु ? कि तैरत आह-य इति ये वीर• करीराः, परिणामे परिपकावस्थायां, परेषामरीणाम अन्येषां च / 'परं दूनान्यमुख्येषु परोऽरिपरमात्मनोः' इति वैजयन्ती / प्रहररायुधैः दानादिभिश्च, विषताः सन्तः चितितलं निपतन्ति // 14 // राजवंश ( राजाओं के कुल, पक्षान्तरमें-राजारूपी बाँस ) इस समय पहले के समान वीरकरीरों ( हाथियों को भी गिराने या कम्पित करनेवाले वीरों, पक्षान्तरमें-वीररूप करीरों अर्थात बाँसके कोपलो ) नहीं उत्पन्न करते हैं क्या ? जो (वीरकरीर ) युवावस्थामें ( पक्षान्तरमें-पकने पर ) शत्रुओंके ( पक्षा०-दूसरोंके ) वाण-नगादि शत्रोंसे ( पक्षा• न्तरमें-कुल्हाड़ी मादिसे ) विक्षत होकर ( अत्यन्त घायल होकर, पक्षा-कटकर) भूतलपर गिरते हैं (किसी रोग से पीडित होकर बुढ़ापे में नहीं मरते ) / जिस प्रकार बांस उन वंशाङ्करोंको पैदा करता है, जिन्हें पक जानेपर अन्यलोग कुल्हाड़ी आदिसे काटकर ले जाते हैं, उसी प्रकार राजकुल हाथियों को भी कंपा देनेवाले वीरोंको नहीं जन्माते क्या ? जो बुढ़ापेमें किसो रोगसे आक्रान्त होकर नहीं मरते, अपितु पूर्ण युवावस्थामे युद्ध में शत्रुओं के शस्त्रप्रहारसे ही भूमिपर गिरकर प्राणत्याग करते हैं ] // 14 // पार्थिवं हि निजमाजिषु वीरा दूरमूर्ध्वगमनस्य विरोधि | गौरवाद्वपुरपास्य भजन्ते मत्कृतामतिथिगौरवऋद्धिम् / / 15 // Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 नैषधमहाकाव्यम्। ततः किमत आह-पार्थिवमिति / वीराः पूर्वोक्ता रणपातिनः, पार्थिवं पृथिवीविकारम् अत एव गौरवात् गुरुस्वगुणयोगित्वात् , ऊर्ध्वगमनस्योस्पतनकर्मणः, पार्थिः वस्वादू लोकप्राप्तेश्च, दूरमत्यन्तं विरोधि निजं वपुः, आजिषु युद्धेषु अपास्य मरततामतिथिसरकारस्तस्य ऋद्धिम, 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / भजन्ते हि / तारग्वी. राला स्वस्यातिथिलाभो न स्यादिति भावः // 15 // वीर लोग पार्थिव ( नृपमावापन्न, अथवा-मिट्टीसे बने ) अत एव गौरव ( बड़प्पन, अथवा-भारीपन ) से अत्यन्त दूर ऊपर जाने में असमर्थ अपने शरीरको छोड़कर (अथवा मारी होनेसे ऊपर उठने अर्थात् स्वर्ग जाने में असमर्थ अपने पार्थिव शरीरको दूर ( भूतल पर ) हो छोड़कर मुझसे अतिथि-गौरवोन्नतिको प्राप्त करते हैं। [ अन्य मी व्यक्ति दूर माने के लिये भारी बोझको छोड़ देता है / पार्थिव अर्थात् मिट्टोसे बनी वस्तुको छोड़कर इन्द्रकृत गौरवमयी समृद्धिका सबके लिये प्रिय होना उचित हो है। मारो वस्तुको छोड़कर भधिक भारी तथा अपनी वस्तुको छोड़कर दूसरे की वस्तु ग्रहग करना कौन नहीं चाहता ? अर्थात समो चाहते हैं / अथवा-वे वीर वैसे अपने शरीरको छोड़कर गौरव ( महत्त्व ) के कारण मुझसे की गयो गौरवपूर्ण अतिथिसत्काररूपी समृद्धिको पाते हैं इत्यादि यथाशान अन्य भी अर्थ कर लेना चाहिये ( जब ऐसे वारों के लिए स्वर्गाधोश देवराज इन्द्र मो तरसते हैं तो वे वीर धन्य हैं ) / उन वीरों के इस समय स्वर्गमें पतिथि-सरकारसे प्राप्त होनेवाले पुण्यातिशयसे मैं वञ्चित रह जाता हूँ अत एव उन वारों के विषय में पूछ रहा हूं ] // 15 // साभिशापमिव नातिथयस्ते मां यदद्य भगवन्नुपयान्ति | तेन न श्रियमिमां बहु मन्ये स्वोदरैकभृति कार्यकदर्याम् / / 16 // ननु तदलाभे तेषामेव सरकारहानिस्तव तु न काचित् अतिरिष्यत आहसाभिशापमिति / हे भगवन् मुने ! ते वीराः अतिथयः, अभिशापेन सह वर्तत इति साभिशापं मिथ्याभिशस्तमिव / 'अश मिथ्याभिशंसनम् / अभिशापः' इत्यमरः। मामद्य नोपयान्तीति यत् / तेन हेतुना / स्वोदरस्यैकस्यैव, भृतिकार्यण, पोषणक स्येन, कदयां कृपणाम / 'कदर्य कृपणः चुद' इत्यमरः / 'आत्मानं धर्मकरयं च पुत्र. दारांश्च पीतयेत् / लोमायः पितरौ भ्रातन् म कदर्य इति स्मृतः // ' इति च / इमा श्रियं न बहु मन्ये / अतिथि सत्कारशून्यस्य श्रीवैफल्यमेव तिरिति भावः // 16 // हे भगवन् ! वे वीर अनिधि जो पान (इस समय ) महापातक आदिसे कलछुतके समान मेरे यहां नहीं आते हैं, उससे केवल अपने पेट मरनेके कार्य तुच्छ ( या काण) इस ( स्वर्गेश्वर्य : 5 ) लक्ष्मीका मैं अत्यन्त आदर नहीं करता अर्थात् उसे अच्छा नहीं मानता / [धन होने का मुख्य फल अतिथि-सत्कार होने से, इस समय उसका लाभ न होने के कारण स्वर्गका यह ऐश्वर्य मुझे अच्छा नहीं लगता है ] // 16 // Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः पूर्वपुण्यविभवव्ययलब्धाः सम्पदो विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिर्विधिदृष्टः // 17 // पूर्वति / पूर्वपुण्यविभवस्य व्ययेन लब्धाः सम्पदो विमृष्टाः विचारिताः विषय एव / सद्यः स्वोदयेन पुराकृतसुकृतनाशकत्वादिति भावः / तासु विपत्सु सम्पद्रपा. स्वापरसु / आसां सम्पदा, पात्राणां विद्याजातितपोवृत्तसम्पनानां पाणिकमलेश्वर्पणं दानमेव विधिरष्टः शास्त्राष्टा, शान्तिकविधिः शान्तिकर्मानुष्ठानम्, नष्टसुकृतादपि अत्युस्कृष्टसुकृतोत्पादनादिति भावः / अनेन बीजाङ्करन्याय उक्तः // 17 // पूर्व पुण्यैश्वर्यके व्ययसे मिली हुई अधिक सम्पत्तियों ( अथवा-लक्ष्मोरूप भार या लक्ष्मीका भार ) विचार करने पर विपत्ति ही हैं। उन विपत्तियों में इन सम्पत्तियों का सत्पात्रों के करकमलमें समर्पण करना ( देना) ही शास्त्र में देखा गया अर्थात् शास्त्रोक्त ( अथवाब्रह्माके द्वार। वेदों में देखा गया ) शान्ति के लिये विधान है। ( अथवा-सत्पात्रके हाथपर दान-सम्बन्धी ) जलका समर्पण" | [ कमल में लक्ष्मोका निवास रहना शास्त्र-प्रसिद्ध है. अत एव सत्पात्रके करकमलमें लक्ष्मीको समर्पण करने का अर्थ लक्ष्मीको उनके निवास स्थानपर बैठाकर उसे स्थिर करना है। अन्य भी व्यक्ति विपत्ति कालमें शास्त्रोक्त हवन दान आदि शान्तिक विधिका अनुष्ठान करते हैं ] // 17 // तद्विमृज्य मम संशयशिल्पि स्फीतमत्र विषये सहसाघम् | भूयतां भगवतः श्रुतिसारैरद्य वाग्भिाघमर्षणऋग्भिः // 18 // तविति / तत्तस्मात् , तन्त्र विषये अस्मिन्नथें, मम, संशयस्य शिविप तजनक, स्फीतं, प्रभृतम, अधमेनः, तन्मूलत्वानिमयाज्ञानस्येति भावः / यद्वा, संशयः शिल्पी जनको यस्य तदघं दुःखं, दुःखहेतुत्वात्संशयस्येति भावः। दुःखेनोव्यसनेष्वधम्' इति वैजयन्ती / सहसा विज्य निवळ, भगवतो वाग्मिरध श्रुति पारर्वेदसारैः कर्णामृ. तैश्च / अघमर्षणाग्भिः अधमनीभिः ऋग्भिः। 'त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पंचद्भावः। 'प्रत्यकः' इति प्रकृतिभावः। भुयताम् / भाने लोट / राज्ञामनागमनकारणमसंदिग्धं वहीत्यर्थः / अत्र मुनिदा वापरमाणस्य अघमर्षणत्वस्य प्रताघहरणोपयोगात् परिणामालङ्कारः / 'भारो प्यालय प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः' इति लक्षणात् // इस कारण कानों में सुधाकर्षक अर्शद कर्ण-सुखकर (पक्षान्तर में-वेदों का मारभूत) मापके वचन इस समय, ( राजालोग युद्ध में वीरगति को प्राप्त कर स्वर्गमें क्यों नहीं आते ? ) इस विषय में बढ़े हुए तथा संशय पैदा करनेवाले ( अथवा -संशयका कारण बने हुए ) मेरे दुःख ( पक्षान्तर में-पाप) को सहसा दूर कर अघमर्षण-ऋक ( मेरे दुःख या पापको धाने अर्थात् साफ करनेवाले ऋमन्त्र, पक्षान्तरमें-ऋग्वेदोक्त 'अघमर्षण' नामक ऋचा-'ऋतश्च सत्यञ्चामीद्धा......) ऋ० 8848 ) हो / [ जैसे वेदोक्त Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 नैषधमहाकाव्यम् / अघमर्षण मन्त्रके सुनने से पाप दूर हो जाते हैं, वैसे ही आपके वचनों को सुनने से वीरों के स्वर्गमें न आनेका कारण जानकर मेरे दुःख दूर हो] // 18 // इत्युदीर्य मघवा विन यधि वर्धयन्नवहितत्वभरेण | चक्षुषां दशशतीमनिमेषां तस्थिवान्मुनिमुखे प्रणिधाय / / 16 // इतीति / मघवा इन्द्रः, इत्युदीयं, अहिलवमरेण एकाप्रतातिशयेन, विनय धि धिनयातिशयं, वर्धयन्ननिमेषां चतुषां दशशतीं यशानां शतानां समाहारः दश. शती सहस्त्रं, 'तदितार्थ-' इत्यारिना समाहारे दिगावकारान्तोत्तरपदत्वात् खियां हिंगोः' इति डीप / एतेन शतमखी व्याख्याता। मुनिमुखे प्रणिधाय तस्थिवान् तस्थौ / लिटः क्वसुरादेशः // 19 // ___ यह (श्लोक 14-18 ) कहकर अधिक सावधानीसे विनय-समृद्धिको बढ़ाते हुए इन्द्र मुनि नारदजीके मुखको निमेषरहित हजार आँखोंसे देखते हुए चुप हो गये। [ अधिक सावधानी तथा देव होनेसे इन्द्र विना पलक गिराते ( एकटक मुनिराजके मुखकी ओर उत्तरकी प्रतीक्षामें देखते ) हुए चुपचाप बैठे रहे / अत्युत्कण्ठित अन्य कोई भी व्यक्ति उत्तर देनेवाले की ओर एक टक देखता हुभा चुपचाप बैठ जाता है ] // 19 // वीक्ष्य तस्य विनये परिपाकं पाकशासनपदं स्पृशतोऽपि / नारदः प्रमदगद्गदयोक्त्या विस्मितः स्मितपुरस्सरमाख्यत् // 20 // वीध्येति / नारदः नाकशासनपदं स्पृशतोऽपीन्द्रस्वे तिष्ठतोऽपि। तस्येन्द्रस्य, विनये परिपाकं प्रकर्ष, वीक्ष्य विस्मितः सन् सविस्मयः सन् , कतरि कः। प्रमद. गद्दयोक्त्या हर्षविस्वरया वाचा स्मितपुरस्सरं स्मितपूर्वमास्यदाचचक्षे / 'अस्यति वचिस्यातिभ्योऽङ' इत्यप्रत्ययः // 20 // हन्द्रासनपर बैठे हुए भी उस इन्द्र के अधिक विनयको देखकर आश्चयित नारदजी हर्षा धिक्य से गद्गद वचन मुस्कुराकर बोले-[ कोई दूसरा व्यक्ति थोड़ी-सी सम्पत्तिको पाकर मी विनयसे रहित हो जाता है, और ये इन्द्र पदपर बैठे हुए भी इतना अधिक विनय कर रहे हैं, यही नारदजीके आश्चर्य एवं हर्षका कारण था / अन्य भी कोई व्यक्ति आश्चर्यचकित तथा हषित होनेसे कोई पात गद्गद होकर ही कहता है ] // 20 // भिक्षिता शतमखी सुकृतं यत्तत्परिश्रमविदः स्वविभूतौ। तत्फले तव परं यदि हेला क्लेशलब्धमधिकादरदं तु // 21 // भिरिति / शतानां मखानां समाहारः शतमखी (दात्री), यत् सुकृतं भिषिता याचिता। मिवेर्नुहादिस्वादप्रधाने कर्मणि कः / तत्फले तस्य सुकृतस्य फले, स्ववि. भूतो निश्चय हेला अवज्ञा अनास्था यदि, 'हेलाऽवज्ञा' इति वैजयन्ती। तत्परिश्रम Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः विदो यारमावलेशाभिज्ञस्य तव परं केवलं तवैव / नान्यस्येत्यर्थः / 'परं स्यादुत्तमाः माप्तरिदारेषु वेचले' इति मिशः / याचक एव याचकदुःखं जानातीति भावः। ननु धनिना दातृत्वं किं चित्रं तबाह-क्लेशेति / सायं क्लेशलब्धं तु अधिकादरदम अतिलोभकारि दुस्स्यजम् / स्वं तु मखशतक्लेशलब्धमप्यैश्वर्यमाथसास्करोषीति कर्थ न चित्रमित्यर्थः / अन्न क्लेशवाक्येन हेलास्वसमर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमल कारः / 'हेतोर्वाक्यपदार्थरवे कायलिङ्गमुदाहृतम्' इति लसणात् // 21 // 'आपने सौ अश्वमेध यज्ञरूपी पुण्यकी जो मिक्षा प्राप्त की है उसके (पानेमें ) परिश्रम को जानने वाले उस पुण्य के फल अपने (इन्द्रपटरूप ) ऐश्वर्यमें, यदि अनादर ( श्लो०१६) है तो केवल आपको है (अन्य किसीको नहीं / अथवा-यदि अधिक अनादर है तो सापको है। ) कष्टसे प्राप्त हुई वस्तु तो अधिक आदरके योग्य होती है / [ भिक्षामें प्राप्त इतने बड़े ऐश्वर्यका वेवल माप ही अनादर कर सकते है, मिक्षाके कष्टको समझनेवाला दूसरा कोई व्यक्ति थोड़ी-सी सम्पत्ति पाकर भी उसका अनादर नहीं करता, फिर इतनी बड़ी-इन्द्रपद. रूप सम्पत्तिके अनादर करने की बात ही कौन कहे ? / भिक्षाप्राप्त इतनी बड़ी सम्पत्तिको मी भाप जो मतिथिके सत्कारमें लगाना चाहते हैं, यह बड़े भाश्चर्यकी बात है ] // 21 // सम्पदस्तव गिरामपि दूरा यन्न नाम विनयं विनयन्ते / श्रद्दधाति क इवेह न साक्षादाह चेदनुभवः परमाप्तः / / 22 // सम्पद इति / कि बहुना, तव सम्पदो गिरामपि दूराः अगोचराः, कुतः, यद्य. स्मादिनयं न विनयन्ते नाम न लुम्पन्ति खलु / नयतेलंट 'स्वरित-' इत्यादिना आत्मनेपदम्, 'कर्तृस्थे चाशरीरे कर्मणि' इत्यस्मादिति केचित् / तदसत् / सम्पदा कतणाम् अचेतनस्वेन कर्मणो विनयस्येन्द्रियनिष्ठरवेन चाकर्तृस्थत्वादिति / अतः स्तोतुमशक्या इत्यर्थः / किं रिवह विनयोत्तरत्वे परमाप्तः प्रमाणभूतः साक्षादनुभवः प्रत्यक्षानुभवसिद्धः, नाह चेक इव को वा, श्रद्दधाति विश्वसिति, न कशिदिस्यर्थः / स्वरसम्पदा दिनयोत्तरवे साक्षादनुभवता माशामेव श्रद्धा जायते नान्येषां, प्राये. णान्यत्र सम्पदा विनयहारित्वात् / किबहुना, वयमपि न श्रद्दध्म इति भावः / अत्र सम्पदा वाग्गोचरत्वेऽपि तदगोचरत्वोक्त्या असम्बन्धरूपातिशयोक्तिः // 22 // वचन के अविषय अर्थात् अवर्णनीय ('इतनी सम्पत्ति है। ऐसा नहीं बता सकने योग्य) सम्पत्तियां जो तुम्हारे विनयको नहीं दूर करती है, इसमें यदि अत्यन्त प्राप्त ( परम मित्र, अथवा-राग-द्वेषसे रहित कोई परम प्रामाणिक व्यक्ति, अथवा-कमी नहीं व्यभिचरित भर्थात् दूषित होनेबाला) अनुभव साक्षात् नहीं कहता है तो कौन श्रद्धा करता है अर्थात कोई नहीं / [अथवा-इस विषय में यदि परम आप्त साक्षात् अनुभव कहता है तो कौन विश्वास 1. 'मति-' इति पाठान्तरम् / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 नैषधमहाकाव्यम्। नहीं करता ? अर्थात् समी करते हैं (क्योंकि साक्षात् अनुभूत विषयमें अविश्वास करनेका कोई कारण नहीं होता है)। अथवा-संसारमें लोग पायः सोमान् व्यक्तियों की झूठी प्रशंसा किया करते हैं, किन्तु तुम्हारी झूठी प्रशंसा नहीं करते, ऐसा कोई परममित्र या भाप्त या अनुभव हो साक्षात कह रहा है तो कौन विश्वास नहीं करेगा ? अर्थात् सब करेंगे। अन्य व्यक्ति सम्पत्ति होने पर विनयको छोड़ देते हैं, किन्तु तुम इतनो अपार सम्पत्ति पाकर भी विनयी हो, यह बात प्रत्यक्ष अनुभवसे ही विश्वासके योग्य है ] // 22 // श्रीभरानतिथिसात्करवाणि स्वोपभोगपरता न हितेति / पश्यतो बहिरिवान्तरपीयं दृष्टिसृष्टिरधिका तव कापि // 23 // श्रीभरानिति / श्रीभरान् सम्पदुच्छूपान् , अतिथिसात् दानेनातिथ्यधीनं, 'देये प्राच' इति चकारात् सातिप्रत्ययः / करवाणि कुर्याम् / विध्यर्थे लोट / 'आहु. समस्य पिच्च' इति मेनिः / स्वोपभोगपरता आत्मम्भरित्वं, न हिता न श्रेयस्करीति पश्यतो जानतः प्रेक्षमाणस्य च तव बहिरिव देह इव अन्तरास्मन्यपि कापीयं दृष्टिः सृष्टिः ज्ञानवृष्टिरक्षिसृष्टिश्च / 'दृष्टिानेऽपिर्शने' इत्यमरः। अधिका असाधारणी, द्वयोरपि दृष्टयोः श्लिष्टशब्दोपात्तयोरभेदाभ्यवसायेन बहिरिवेत्युपमा // 23 // ___ 'समस्त सम्पत्तिको दान देकर अतिथियों के अधीन कर दूं, उनका अपने लिए ही उपभोग हितकर नहीं है' इस प्रकार अन्तःकरणमें भी बाहरके समान देखते हुए कोई अर्थात् लोकोत्तर या अनिर्वचनीय तुम्हारी दृष्टि रचना है। [जिप्त प्रकार सहस्र नेत्र होनेसे बाहरमें तुम्हारी दृष्टि-रचना लोकोत्तर है, उसी प्रकार मनमें उक्त उत्तम विचार करनेसे तुम्हारी शानदृष्टि भी लोकोत्तर अनिर्वचनोय हैं, तुमसे अधिक विचारवान् नहीं है ] // 23 // आः स्वभावमधुरैरनुभावस्तावकरतितरां तरलाः स्मः / द्यां प्रशाधि गलितावधिकालं साधु साधु विजयस्व विडोजः ! // 24 // आ इति / विडं भेदकम् / विढ भेदने / इगुग्धलक्षणः कः, तदोजो यस्य तस्य सम्बुद्धिः हे विडोजः !, स्वभावमधुरः निसर्गरमणीयैः, तवे मे तायकाः 'तवझमम - कावेकवचने' इत्यणि तादादेशः। तैरनुभवैरैश्चर्यरतितरामत्यन्तम्, अध्ययादा सुप्रत्ययः / तरलाः लोलाः लानन्दलहरोमग्नाः स्म इत्यर्थः। आ इत्यानन्दास्वा. दानुकारः। गलिताधिकालमनन्तकालम् / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। यो स्वर्ग साधु प्रशाधि पालव / माधु, विजयस्व सर्वोत्कृष्टो भव / 'विपराभ्यां नेः' इत्या. स्मनेपदम् // 24 // हे विडोजा! ( व्यापक ते वाले इन्द्र ! ) स्वभावतः मधुर ( दिखावट नहीं ) तुम्हारे प्रभावों ( या भावप्रकाशन या प्रत्यक्षतः अनुभव किये गये कार्यों) से आः मैं अत्यन्त चला. यमान या आश्चर्यित हूँ। अवधिरहित (अनन्त) समय तक अच्छी तरह स्वर्गका शासन करो और Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अच्छी तरह विजय करो। [ यद्यपि मुनि होने के कारण किसीका गुण या दोष देखकर मुझे विचलित या माश्चयिंत नहीं होना चाहिये, तथापि तुम्हारे स्वाभाविक अर्थात् निष्कपट एवं शाश्वत मधुर प्रभावसे हम चाल या पाश्चयित हो रहे हैं। अतः महाहर्षाधिक्यसे 'भा:" शब्दका प्रयोग हुआ है ] // 24 // सङ्घयविक्षततनुम्रवदस्रक्षालिताखिलनिजाघलघूनाम् / यत्त्विहानुपगमः शृणु राज्ञां तज्जगद्युवमुदं तमुदन्तम् // 25 // एवमिन्द्रमभिनन्ध तस्प्रश्नस्योत्तरमाह-सङ्खयेति / सङ्खये समरे, विक्षता. भ्यः प्रहृताभ्यः तनुभ्यो गात्रेभ्यः, सद्भिररसग्भिः पालितानि निर्णिकानि अखि• लानि निजान्यघानि येषां तेषामत एव रघूनां निर्भाराणां राज्ञां यद्यस्मात् कारणा दिह स्वर्गेऽनुपगमो नागमः तरकारणभूतं अगस्सु ये युवानः तेषां मुदमानन्दकार. णम् असाधारणार्थम, अभेदेनः व्यपदेशः। तं प्रसिद्धम् उदन्तं वार्ताम् / 'वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त उदन्तः' इत्यमरः। शृणु। अत्र चालिताघपदार्थस्य विशेषणगत्या लघुत्वहेतुत्वात् पदार्थहेतुकं कायलिजमलङ्कारः // 25 // युद्ध में घायल शरीरसे बहते हुए रक्त द्वारा धो दिये गये हैं सब पाप जिनके, ऐसे होनेसे हलके ( अथवा-."धोये गये सब पापोंके कारण हलके। 'हलका' होनेसे अत्यन्त ऊँचे भानेमें समर्थ ) रानालोगोंका यहा ( स्वर्गमें) प्रागमन नहीं होता है, संसारके अत्यन्त हर्षप्रद उस वृत्तान्तको सुनो। [हरूको वस्तु सरलतासे अत्यधिक ऊँचे स्थानको जा सकती है, युद्ध में घायल होने या मरनेसे वीरोंकी पुण्यातिशयलाम होता है तथा उनके पाप नष्ट हो आते हैं, पापका भार अत्यन्त मारी (ढोने में अशक्य) तथा पुण्यका मार अत्यन्त हलका (सर्वत्र ले जाने योग्य) होता है, हलके मार ( बोझे ) वाला व्यक्ति सरलतासे पर्वतादि ऊँचे स्थानों में चढ़ सकता है / सब पाप नष्ट होनेसे पुण्यात्मा वीर राजाओंका भी स्वर्गमें पहुँ। चना अनायास साध्य हैं ] // 25 // सा भुवः किमपि रत्नमनघं भूषणं जयति तत्र कुमारी / भीमभूपतनया दमयन्ती नाम या मदनशस्त्रममोघम् / / 26 / / सेति / भुवो भूषणं किमप्यनर्घममूल्यं रत्नम् / असाधारणं स्त्रीरत्नमित्यर्थः / कुमारी कन्या, अनूढेय / सा दमयन्ती नाम भीमभूपतनया तन्न भुवि जपति / सर्वोत्कर्षेण जागति, या अमोघं मदन शाम् // 26 // __ वहाँ ( भूतलपर ) पृथ्वीका भूषण मूल्व कोई (मनिवर्चनीय अर्थात जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, अथवा-जिस रत्नका नाम नहीं बतलाया जा सकता) रत्न राजा भीम की कन्या दमयन्ती नामकी कुमारी सर्वश्रेष्ठ है, जो कामदेवका ममोघ (कमी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 . नैषधमहाकाव्यम् / निष्फल नहीं होने वाला ) शख है / [उससे पृथ्वी अलंकृत है, कुल नाम तथा कुमारी कहने से वह विवाहके योग्य है, इच्छा हो तो तुम भो उसके लिये उपाय करो, ऐसा संकेत है ] // सम्प्रति प्रतिमुहूर्तमपूर्वा कापि यौवनर्जवेन भवन्ती / आशिखं सुकृतसारभृते सा क्वापि यूनि भजते किल भावम् / / 27 / / अथेन्द्रस्य मात्सर्योत्पादनाय तस्याः पुरुषान्तरासतिश वक्ति-सम्प्रतीति / सम्प्र. तीदानी, सा दमयन्ती, यौवनस्य जवेनोद्भववेगेन, प्रतिमुहूतं काप्यपूर्वा लावण्यम यावयवपोषविशेषेणान्येव भवन्ती / आशिखं शिखापर्यन्तम् , ममिविधावण्ययी. भावः। सकतसारभृते उस्कृष्टपुण्यभृते ईडग्भाग्यसम्पन्न इत्यर्थः / कापि कस्मिन्नपि यूनि भावमनुरागं भजते। कित्येति // 27 // इस समय प्रत्येक क्षणमें योवन वेगसे कोई अपूर्व अर्थात् अस्यन्त सुन्दरी होती हुई वह दमयन्ती एड़ीसे चोटी तक पुण्य के सारसे परिपूर्ण किसो युवकों अनुराग कर रही है। जगत्मन्दरी वह दमयन्ती स्वयं जिसे चाहती है, उस युवकके पुण्यजन्य माग्यातिशयका क्या वर्णन किया जाय ? अर्थात् वह अत्यन्त भाग्यशाली है। [प्रतिक्षण उसके सौन्दर्यको वृद्धिका वर्णन करते हुए नारदजीने उस दमयन्तीका किसो भाग्यशाली युवक में स्वयं प्रेम करना कहकर महल्या मादिकी इच्छा करनेसे कामवासनामें प्रसिद्ध इन्द्रकी उत्कण्ठाको अधिक बढ़ा दिया है ] // 27 // कथ्यते न कतमः स इति त्वं मां विवक्षुरसि किं चलदोष्ठः 1 / अर्धवमनि रुणसि न पृच्छां निर्गमेण न परिश्रमयैनाम् // 28 // कथ्यत इति / किश, चलदोष्ठस्स्वंस युवा कतम इति मां विवतुर्वक्तुमिछुरसि किम् / तर्हि अर्धवर्मन्योक्ते पुच्छां प्रश्नम् / मिदादिस्वादछ।न वणरसीति काकुः। एना पुग्छां निर्गमेणोच्चारणेन न परिश्रमय मा खेदय / कुतः न कथ्यते / यतः पृष्टोऽपि न कथयामि, अतो न प्रष्टग्यमेवेत्यर्थः // 28 // __हिलते हुए ओठवाले तुम 'वह युवक कौन है' यह ( मुझसे ) पूछना नहीं चाहते हो क्या ? अर्थात् अवश्य हो पूछना चाहते हो। आधे मार्गमें अपने 'प्रश्नको नहीं रोकते हो ? अर्थात रोकते ही हो, उसको (मुखले ) बाहर निकालकर अर्थात् उस प्रश्नको पछकर, उसे मत थकामओ ( मत पूछो, क्योंकि मैं उसे ) नहीं कहूँगा। ( अथवा-हिलते हुए ओठवाळे तुम 'उस दमयन्तोके अनुरागभूत युवक को आप नहीं कहेंगे क्या ? ) इस प्रकार पूछने के इच्छुक नहीं हो क्या ?... / [ तुम्हारे ओठके हिलनेसे स्पष्ट मालूम होता है कि तुम दमयन्तोके अनुराग विषयभूत उस युवकका परिचय पूछना .. ..'-भरेण' इति पाठान्तरम् / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः चाहते हो, लेकिन उसे पूछना व्यर्थ है, उसका परिवार मैं नहीं दे सकता / अन्य मो व्यक्ति किसीके प्रश्नका उत्तर नहीं देना चाहता है तो उसके मोठ का हिना देख कर उसे प्रश्न करने का इच्छुक समझकर उसे प्रश्न करने के पहले हो रोक देता है ] // 28 // यत्पथावधिरणुः परमः सा योगिधीरपि न पश्यति यस्मात् / पलया निजमनःपरमाणो होदरोशयहरोकृतमेनम् // 26 // किं कपटादायनं, नेस्याह-यापयति / परमो अगुपस्या योनिधियः पन्थाः, यापयतस्यावधिः सीमा, सा योगिधोरपि / षालया निजमन ए परमाणुः / अगु परिमाणं मनः' इति स्वगात् / तस्मिन् हारेव दरी गुहा तयहरोक्तं तद्गत. सिंहीकृतम्, एनं युवान, यस्मान्न पश्यति तस्मान्न का इति पूर्व गान्धयः। योगिबुद्धरपि परमाणुस्वरूग्राहियो। नान्तप्रवेशे शक्तिरित्य हानादयनं, न कपटात् / सा तु मन्दासमन्यातया न कथयतीत्यर्थः // 29 // परमाणु योगियों को बुद्धि के मार्गको अन्तिम अवधि है अर्थात योगोलोग भविकसे अधिक सूक्ष्म पदार्थ परमाणु तक हो देख सकते हैं; बाका (दमयतो) के द्वारा अपने मनोरूप परमाणु बारू गुहामें साने वाले सिंह बनाये गये इसे (युवक को) बह योगिः बुद्धि मो नहीं देखतो है / [ जिस प्रकार गुहामें सोए हुर सिंहको अन्धकार होने से कोई जहों देख सक, उसो प्रकार दमयन्तो-मनोरूा परमाणु में उसे रखो है ओर गुहाके समान विशाल मौर अन्धकार युक लज्जा में सिंहके समान छिग रखा है अर्थात लज़ाके कारण उस युवक का नाम अपने मन में हो रखो है, किपोसे वाहातो नहों; अत एव उस युवक का नाम कई नहीं जानता जो आपने बाला सके / योगोलोग मन के बराबर परि. माणवाले परमाणु तक का प्रत्यक्ष करते हैं, किन्तु वह युवक दमपन्तोके परमाणु परिगाम मन के भो मोतर रहने से उस मनसे मो समातिसूक्ष्म होने से अशेष है। यही कारण है कि योग के बल पर भी मैं उसका नाम नहीं बतला सकता] // 29 // सा शरस्य कुसुमस्य शरव्यं सूचिता विरहवाचिभिरङ्गैः / तातचितमपि धातुरचत स्वस्वयंवरमहाय सहायम् // 30 // तर्हि कामुकीत्वमात्रं वा कपस्याः प्रीतम आह-लेते / सा भेत्री, विरह. वाचिभिः विहव्योगः काश्यंगहिमादिपरिविष्टेरिति भावः। कुसुमशरस्य कामबागस्य शरव्यं लव, सूचना। कुप्रचियनि बदमावत्येतावन्मासाते. त्यर्थः। तर्हि तरिपत्रा वा वरविशेषज्ञानं विवाहोपायः कथं चिन्तितस्ताहतातचितनपि (क), स्वस्वयंवरमहाय धातुः सहायमबत अकोत् / सहकारोच. कारेत्यर्थः / तस्पित्रापि पातृपेगा स्वयंवर एकोपायश्चिन्तित इति भावः // 30 // (पाण्डुना, दुबंता आदिके द्वारा) विरह को बताने वाले कामगा लश Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 नैषधमहाकाव्यम्। (निशाना ) बनी हुई अपनेको प्रकट करनेवाली वह ( दमयन्ती ) पिताके चित्तको भी स्वयंवरोत्सवके लिये भाग्यका सहायक बना दिया है। [दमयन्तीके पिताने उसके अङ्गों में पाण्डुता, दुर्बलता आदि विरहचिह्नोंको देख 'यह कामवाणपीडित हो रही है। यह समझ 'जैसा ब्रह्मा करेंगे वैसा होगा' यह विचारकर उसके स्वयंवरोत्सवकी तैयारी की है ] // 30 // मन्मथाय यथादित राज्ञां हूतिदूत्यविधये विधिराज्ञाम् / तेन तत्परवशाः पृथिवीशाः सङ्गरं गरमिवाकलयन्ति // 31 / / अस्तु राज्ञामनागमे किं कारणमुक्तं तत्राह-मन्मथायेति / अथ विधिविधाता, राज्ञा हुतिः स्वयंवरावानं, तदेव दूत्यं दूतकम / 'दूतस्य भागकर्मणी' इति यत्प्र. त्ययः / तस्य विधये करणाय मन्मयायाशामादेशमदित दत्तवानिति यत् / तेनाज्ञा. दानेन तत्परवशाः मम्मथपरतन्त्राः। शिवभागतवत्समासः / पृथितीशाः सङ्गरं गरमिवाकलयन्ति विमिव मन्यन्ते / 'विषं स्याद्रलं गरः' इति हलायुधः // 31 // इस ( दमयन्तीके स्वयंवर के लिये प्रेरित होने ) के बाद ब्रह्माने राजाभोंको भाह्वान (बुलाना) रूपी दूतकार्यके लिये मन्मथ ( मनको मथन करनेवाले ) कामदेवको माशा दी है, उस कारण उस मन्मथ ( कामदेव ) के पराधीन राजालोग युद्धको विषके समान मानते है / [ स्वयंवरका समाचार सुनकर कामके वशीभूत सब राजा वहां जानेकी तैयारीमें हैं, युद्ध करना कोई भी नहीं चाहता। जिस प्रकार एकके ही प्राणघातक विषको सेवन करना कोई साधारण वुद्धिवाला भी नहीं चाहता, उसी प्रकार अनेकों के प्राणघातक संगर (सम्यक गर- महाविष ) अर्थात युद्धको भी कोई राजा नहीं चाहता] // 31 // येषु येषु सरसा दमयन्ती भूषणेषु यदि वापि गुणेषु / तत्र तत्र कलयापि विशेषो यः स हि क्षितिभृतां पुरुषार्थः // 32 // येष्विति / किश, दमयन्ती, भूषणेषु हाराविषु, यदि वा, गुणेषु दयावाक्षिण्या. विषु वा, येषु येषु सरसा सामिलाषा, तत्र तत्र तेषु तेषु भूषणेषु गुणेषु च कल्या मात्रयापि यो विशेषः वितिभृतां स हि स एव / 'हि हेतायवधारणे' इत्यमरः / पुरुपार्थः प्रयोजनम, यथाकथखिझैमीमनोरअनमेव पुरुषार्थो न तु पात्रधर्मः सङ्गार इत्यर्थः // 32 // दमयन्ती जिन 2 भूषणों (हार, मुकुट केयूर आदि ) में अथवा गुणों शोभाविलास मादि पाठ पुरुष गुणों ( या उदारता-दया आदि गुणों ) में अनुराग करती है, उन उन (भूषणों या गुणों ) में (एक दूसरे की अपेक्षा) थोड़ी-सी भी विशेषता लाना ही राजाओंका पुरुषार्थ हो रहा है। [ पहले राजालोग जो युद्ध के लिये पुरुषार्थका संग्रह करते थे, वे अब दमयन्तीके प्रिय भूषणों तथा शोमा आदि गुणों के संग्रहमें दत्तचित्त है, अत एव युद्ध में पुरुषार्थ दिखाकर प्राणत्यागपूर्वक स्वर्गलाम करना कोई राजा नहीं चाहता है ] // 32 // Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः शैशवव्ययदिनावधि तस्या यौवनोदयिनि राजसमाजे / आदरादहरहः कुसुमेषोरुल्ललास मृगयाभिनिवेशः / / 33 // शैशवेति / कुसुमेषोः कामस्य, यौवनोदयिनि यौवनप्रादुर्भाववति, राजसमाजे राजसमूहे विषये, तस्याः भैम्या, शैशवश्यदिनं बाल्यापगमदिनम्, अवधिः सीमा यस्मिस्तत्तथा, तहिनमारभ्येत्यर्थः / अहरहः प्रत्यहम् / वीप्सायां विर्भावः / अत्यन्त. संयोगे द्वितीया / आदरात मृगयायामभिनिवेशः आग्रहः / उखलास ववृधे / सर्वेषा. मपि यूनां भैमीयौवनोद्भेदात् प्रभृति स्मरण्यसनमेव वर्तते, न समरग्यसनमित्यर्थः॥ प्टस दमयन्तीके बचपन बीतने के दिनसे लेकर अर्थात् युवावस्था प्रारम्भ होने के दिनसे, युवावस्था प्राप्त करते हुए ( अथवा-युवावस्था तथा ऐश्वयं-समृद्धिवाले ) राज-समुदाय में कामदेवकी मृगया (शिकार ) का आग्रह प्रतिदिन अधिक बढ़ रहा है [ दमयन्तीके युवती होनेके दिनसे युवक राज-समुदाय कामदेवके शिकार ( वशीभूत ) हो रहे हैं ] // 33 // इत्यमी वसुमतीकमितारः सादरास्त्वदतिथिभवितुं न / भीमभूसुरभुवोरभिलाष दूरमन्तरमहो नृपतीनाम् // 34 // इतीति / इतीस्थममी नृपाः वसुमत्याः कमितारः कामयितारः सन्तः तृच। वसुमती वा कभितारः / ताच्छील्ये तृन् / 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / 'आयादय आर्धधातुके वा' इति विकरुपादुमयत्रापि णिजभावः / स्वदतिथिर्भवितुं सादराः साकाक्षा न / तथा हि, नृपतीनां भीमभूः भैमी सुरभूः द्यौस्तयोरभिलाषे तद्विषयानुरागे दूरमन्तरं महत्तारतम्यम्, अहो, स्वर्गेऽप्यरुचिरित्याश्रर्यम् / एतेन सुराङ्गनातिशायिसौन्दय दमयन्त्या इति म्यज्यते / भीमदेशसुरदेशयोः महान् विप्र. कर्ष इत्यर्थान्तरप्रतीतिः / अत्रोत्तरनाक्यार्थेन स्वर्गारुच्या पूर्ववाक्यार्थातिथ्यानाद. रस्य समर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काध्यलिङ्गमलङ्कारः॥३४॥ इस कारण पृथ्वीको चाहने वाले पृथ्वीको चाहते हैं ( दमयन्तीको प्राप्त करने के लिये पृथ्वीपर ही रहना चाहते हैं ) तुम्हारे अतिथि होने के लिये ( युद्ध में प्राणत्यागकर स्वर्गमें माने के लिये ) आदर नहीं करते (स्वर्गमें आना नहीं चाहते)। अथवा-इस प्रकार दमयन्तीके इच्छुक पृथ्वीको चाहने वाले ( पहिले युद्ध में शत्रुको जीतकर भूमिको चाहनेवाले ) ये ( राजालोग ) तुम्हारे अतिथि होने के लिये आदर नहीं करते ( युद्ध में मरकर स्वर्ग पाना नहीं चाइते ) / महो ! भीमनगरी ( कुण्डिनपुरी), तथा देवभूमि ( स्वर्ग ) को राजाओं के चाहने में बहुत दूरका अन्तर है, भीमकी राजधानी कुण्डिनपुरीको स्वर्गको अपेक्षा पास होने से राजालोग समीपस्थ कुण्डिन पुरीको ही जाना चाहते हैं, स्वर्गको नहीं। अथवामीमकन्या (दमयन्ती) और देवकन्या (भमराजना) को राजाओंके चाइने में बहुत दूरका भन्तर है अर्थात् राजालोग देवाङ्गनाओंसे भी अधिक सुन्दरी दमयन्तीको हो चाहते हैं, 19 नै० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 नैषधमहाकाव्यम्। देवाङ्गनाओं को नहीं। [अन्य भी कोई व्यक्ति कष्ट उठाकर (युद्ध करनेमें तथा दूर देश जाने में बड़ा का होता है ) एवं प्राणों को देकर बहुत दूरदेश (जैसे स्वर्ग) में जाकर वहां तुच्छ वस्तु ( देवागना) को प्राप्त करने की चाइना छोड़कर जीते जी आनन्दपूर्वक थोड़ी दूर / (भूमिपर स्थित कुण्डिनपुर ) जाकर सर्वोत्तम वस्तु ( दमयन्तीरूप अमूल्य स्त्रीरत्न ) पाने को चाहना करने में अधिक बादर करता है ] // 34 // तेन जाग्रदधृति दिवमागां संख्यसौख्यमनुकर्तुमनु त्वाम् / यन्मृधं क्षितिभृतां न विलोके तन्निमग्नमनसां भुवि लोके // 35 // एवं राज्ञा स्वर्गानागमने हेतमुक्वाथ स्वस्यागमने हेतुमाह-तेनेति / यद्यस्मा. द्भुवि लोके भूलोके तस्यां दमयन्त्यां, निमग्नमनसाम् आसकचेतसां नितिभृतां मृचं युदं न विलोके न पश्यामि / तेन युदालाभेन जाग्रतिः संमूर्च्छदसन्तोषः असन्तुष्टः सन्, सङ्घयसौख्यं युदसुखम् / 'मृधमास्कन्दनं सङ्घयम्' इत्यमरः / अनुः सतुंमनुभवितुं, स्वामनु स्वामुहिश्य, दिवं स्वर्गमागाम् // 35 // __उस दमयन्तीमें आसक्त चित्तवाले राजाओंका युद्ध भूलोकमें मैं नहीं देखता हूँ, उससे बढ़ते हुए असन्तोषवाला ( अथवा-असन्तुष्ट अधैर्ययुक्त, अत एव जागरूक ) मैं युद्धजन्य मुखको प्राप्त करने के लिये तुम्हारे पास स्वर्गमें आया हूँ। [ नारदजी सदा कलहप्रिय है, उनकी यही कामना ही है कि इधर-उधर कर परस्पर में लोगों को लड़ा दें, इसीसे लोकमें किसी झगड़ा लगानेवाले व्यक्तिको देखकर लोग कहते हैं कि-'देखो ये नारदजी आ गये। यहां नारदजी का इन्द्र के पास पहुंचनेका यह आशय है कि-इन्द्र हो कोई उपाय करें, जिससे राजाओंमें युद्ध छिड़ जाय ] // 35 // वेद यद्यपि न कोऽपि भवन्तं हन्त हन्त्रकरुणं विरुणद्धि / पृच्छयसे तदपि येन विवेकप्रोञ्छनाय विषये रससेकः // 36 / / वेदेति / हन्तृष्वकरुणं समूलघातं हन्तारं भवन्तं कोपि न विरुणद्धि न विगृ. हाति / हन्तेति हर्षे वेद यद्यपि एतावस्येव / 'विदो लटो वा' इति विदो णलादेशः / यद्यपीत्यवधारणे, तदपि तथापि पृच्छयसे। भज्ञः पृच्छति न विद्वानत माह-येन कारणेन विषये भोग्ये रससेको रागानुबन्धो जलसेकश्च विवेकस्य विशेषज्ञानस्य चित्राचसापस्य च प्रोन्छनाय प्रमार्जनाय, विषयतृष्णालुप्तविवेकः पृच्छामीत्यर्थः // 36 // __ यद्यपि 'प्रहार करनेवालों में तुम निर्दय हो (प्रहार करनेवालों को निर्दय होकर नष्ट कर देते हो, अतः) तुमसे कोई वैर नहीं करता है, यह मैं जानता हूं; तथापि तुमसे पूछता हूं (कि युद्ध होगा या नहीं। अथवा-युद्धके लिये तुमको उत्साहित करता हूँ), क्योंकि भभिलषित विषयमें अधिक अनुराग ( पक्षान्तर में-जलके द्वारा धोना) ज्ञानामावके लिये Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 281 ( पक्षान्तरमें-पादिको धोने के लिये ) होता है, यह आश्चर्य है अर्थात् अत्यन्त अभीष्ट वस्तुमें अधिक स्नेहके कारण शानकी कमी हो जाती है'। [विषयको जानते हुए भी लोग भस्यधिक अनुरागके कारण उसमें अपनी अजानकारी व्यक्त करते हुए उस विषयको अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं ] // 36 // एवमुक्तवति देवऋषीन्द्रे द्राग्भेदि मघवाननमुद्रा / उत्तरोत्तरशुभो हि विभूनां कोऽपि मञ्जुलतमः क्रमवादः // 7 // एवमिति / देवऋषीन्द्रे नारदे / 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः। एवमुकति सति, मघोनः मानने मुद्रा मौनं मधवाननमुद्रा। 'मघवा बहुलम्' इति विकरूपान्मतुबादेशाभावः। द्राक झटिस्यभेदि स्वयमेव भियते स्म / 'कर्मवत्कर्मणा तुल्य क्रियः' इति कतुः कर्मवद्भावात् 'कर्मकर्तरि लुछ। सङादिकार्थे 'यगारमनेपदधिण. विण्यद्धावाः प्रयोजनम्' इति वचनात् / 'क्रियमाणं तु यत्कर्म स्वयमेव प्रसिध्यति / सुकरैः स्वगुणेयस्मात् कर्मकर्तेति तं विदुः // ' इति // तथाहि, विभूनां प्रभूणां, कोऽपि मम्जुलतमोऽतिहृधः क्रमवादः प्रश्नोत्तरक्रमेणोक्तिः। उत्तरोत्तरशुभः उपर्यपरि सुभगो हि / अर्थान्तरन्यासः॥३७॥ देवर्षिनारदजीके ऐसा (इलो० 21-36 ) कहने पर इन्द्रको मुखमुद्रा ( मौन रहना) शीघ्र भङ्ग हो गयी अर्थात् इन्द्र शीघ्र बोले। उत्तरोत्तर शुभ (अथवा-उत्तर प्रत्युत्तरसे शुम ) बड़े लोगोंका क्रमशः कुछ बोलना अत्यन्त मनोहर होता है / ( अथवा-गड़े लोगों का अत्यन्त मनोहर कुछ भी क्रमसे बोलना उत्तरोत्तर शुम' या उत्तर प्रत्युत्तरसे शुभ होता है। अथवा-बड़े लोगोंका बोलना क्रमशः कुछ अनिर्वचनीय उत्तरोत्तर शुम अतिशय मनोहर होता है / [बड़े लोग जैसा क्रमबद्ध उत्तर प्रत्युत्तररूपसे अत्यन्त मनोहर बातचीत करते हैं, वैसा साधारण व्यक्ति नहीं करता। अथवा-बड़े लोगोंका अतिशय मनोहर क्रमबद्ध भाषण पहले या बादमें शुमकारक होता है, अतः इन्द्र फिर भी बोले ] // 37 // / कानुजे मम निजे दनुजारौ जाप्रति स्वशरणे रणचर्चा / यद्भुजाङ्कमुपधाय जयाद शर्मणा स्वपिमि वीतविशङ्कः // 38 // कानुन इति / निजे स्वीये अनुजे दनुजारौ उपेन्द्रे स्वशरणे स्वरक्षके स्वगृहे वा 'शरणं गृहरचित्रोः' इत्यमरः / जाग्रति जागरूके सति / मम रणचर्चा रणचिन्ता का ? न कापीत्यर्थः / जयोऽकृश्चिह्न यस्य तं तद्भुजावं, यस्यानुजस्थ भुजोत्सनमुप. धायोपधानीकृत्य वीतविशटो निरातङ्कः सन् शर्मणा सुखेन स्वपिमि शये। यथा रक्षिजने जाग्रति राजा शय्यागारे सुखेन भुजमुपधाय स्वपिति तददिति भावः / इह निरातङ्कवृत्तिस्सुप्तिः अस्वप्नत्वाइमराणाम् // 38 // अपने ( मेरे ) परमें (अथवा-मेरे रखक, अथवा-आत्मीयजनों अर्थात् देवों के रक्षक) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 नैषधमहाकाव्यम् / अपने छोटे भाई दानवशत्रु (विष्णु) के सावधान ( या जागरूक या योगक्षेमके लिये तस्पर रहनेपर, (पक्षान्तरमें-जागते रहनेपर) मुझे युद्धकी क्या बात (या चिन्ता) है ? विजयरूप चिह्नसे (अथवा-विजयसूचक शङ्खचक्र आदिसे) चिह्नित जिसके बादुमध्यको तकिया बनाकर निर्भय मैं सुखपूर्वक सोता हूँ। [ अन्य मी व्यक्ति रक्षकके जागते रहनेपर निर्भय हो सुखपूर्वक सोता है / आत्मीय-रक्षक विष्णु के जागरूक रहनेपर युद्धकी कोई चर्चा नहीं है, जिसे देखकर आप प्रसन्न होंगे] // 38 // विश्वरूपकलनामुपपन्नं तस्य जैमिनिमुनित्वमुदीये / / विग्रहं मखभुजामसहिष्णुर्व्यर्थतां मदशनि स निनाय / / 36 / / विश्वेति / तस्योपेन्द्रस्य विश्वरूपकलनात् सर्वार्थसाक्षात्करणात् , यद्वा एकत्र मरस्यफूर्मानन्तरूपधारणादन्यत्र विश्वार्थरूपणात् , विश्वरूपाणि सूत्राणि तस्प्रण. यनात् (हेतोः), जैमिनिमुनिस्षमुदीये उत्पन्नम् / इण गतौ कर्तरि लिट / उपपन्नं तपयुक्तमित्यर्थः / कुतः, स उपेन्द्रः, मखभुजां विग्रहं विरोधमन्यत्र शरीरम, असा हिष्णुर्मदशनि मम वज्रायुधम्, नन्वन्त्र 'वज्रहस्तः पुरन्दर' इत्यादिवाक्यजातं,ग्यर्थतां स्वायुधेनैव तस्कार्यकरणानिष्प्रयोजनस्वम्, अन्यत्र विग्रहवदेवतानिरासेन अर्थवाद. स्वाभिरभिधेयरवं च निनाय / अतो जैमिनिमुनिरवं युक्तमित्यर्थः। प्रकृताप्रकृतश्लेषः / / ___उस विष्णुके ('सर्व विष्णुमयं जगत्' इस वचनके अनुसार) विश्वरूपको स्वीकार करनेसे ( पक्षान्तरमें-जैमिनिके द्वारा 'विश्वरूप' नामक सूत्रग्रन्थ बनाने से सिद्ध जैमिनिमुनित्व उत्पन्न होता है, (विष्णु विश्वरूप हैं तथा जैमिनि मुनि विश्वमें हैं; अतः उनका जैमिनिमुनित्व सिद्ध होना संगत ही है, क्योंकि देवताओंका (असुरों के साथ ) युद्ध होना नहीं सहते हुए ( अपने सुदर्शन चक्रसे असुरोंका संहारकर युद्धको समाप्त करते हुए ) उस विष्णुने मेरे वज्र को व्यर्थ मना दिया है ( असुर-संहाररूप मेरे वज्रका काम वह विष्णु ही कर देते हैं, अतः मुझे वज्र उठाना ही नहीं पड़ता। पक्षान्तरमें-देवताओं के शरीरको नहीं सहनेवाले (जैमिनि मुनिके मतमें देवता शरीरधारी नहीं हैं ) उत्त जैमिनी मुनिने मेरे वज्रको मारोपितार्थक ( अथवा जैमिनि, सुमन्तु मादि 6 को वज्रधारी बतलाकर 'वज्रपाणि इन्द्र है' इस वचनसे सिद्ध मेरे वज्रको निष्फल अर्थात् असत्य ) कर दिया है / [ जैमिनि मुनि देवशरीरको नहीं मानते हैं, किन्तु मन्त्रमय देवताशरीर मानते हैं और इन्द्र के आयुध वज्रको भी अर्थवाद. मात्र मानते हैं। विशेष प्रपञ्च इस श्लोककी टोकामें या जैमिनि मुनिके रचित ग्रन्थ में ही देखना चाहिये, विस्तार-भयसे उसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है ] // 39 // ईदृशानि सुनये विनयाब्धिस्तस्थिवान् स वचनान्युपहृत्य / प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी वाङ् नारदस्य निरियाय निरोजाः // 40 // ईशानीति / विनयाब्धिः स इन्द्रो मुनये ईशानि युद्धनिराशानि वचनानि Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 283 उपहस्य समय, तस्थिवान् तूष्णीं स्थितः / अथ नारदस्य प्राशुनिःश्वसितस्य पृष्ठे चरतीति पृष्ठचरी पखाद्वामिनी दीर्घनिश्वासपूर्विकेत्यर्थः / घरेष्टः / निरोनाः दीना वाक निरियाय निजंगाम // 40 // विनयके समुद्र इन्द्र ऐसी बातें ( श्लो० 38-39) मुनि नारदजीसे कहकर चुप हो गये। ( फिर युद्ध की आशा नहीं होने से ) लम्बी सांस लेकर वह ( नारदजी ) दोन वचन बोले। [अन्य कोई व्यक्ति भी अपनी अमीष्ट सिद्धिको नहीं पूरी शेती देखकर लम्बी सांस लेकर दोन वचन बोलता है ] // 40 // स्वारलातलभवाहत्रशङ्की निवृणोमि न वसन् वसुमत्याम् / द्यां गतस्य हृदि मे दुरुदर्कः क्षमातलद्वयभटाजिवितकः // 11 // स्वरिति / वसुमत्यां भूलोके वसन् स्वश्च रसातलं च स्वारसातले स्वर्गपाताले 'रोरि' इति रेफलोपेदीर्घः / तयोर्भवमाहवं शङ्कत इति तच्छती सन् / न निवृणोमि न सन्तुष्यामि / वां स्वर्ग गतस्य मे हृदि चमातले भूपाताले। 'अधः स्वरूपयोरखी तलम्' इत्यमरः / तयोदये भटानामाजिवितर्को युदशङ्का दुरुषको दुरुत्तरः / 'उदकः फलमुत्तरम्' इत्यमरः / एवं पातालगतस्य इतरलोकाजिवितर्क इति शेषः // 4 // मृत्युलोकमें रहता हुआ मैं स्वर्ग तथा पातालमें होनेवाले युद्धकी शंकासे सुखी नहीं होता हूँ, स्वर्गमें आये हुए मेरा मृत्युलोक तथा पातालमें वीरोंके युद्ध करनेका वितर्क करना निष्फल है ! [ परिशेषात-पाताल में गये हुए मेरा स्वर्ग तथा मृत्युलोकके वीरोंको परस्परमें युद्ध करने का वितर्क मी निष्फल है। प्रत्यक्ष युद्धको देखने से ही मुझे मुखप्राप्ति होती है, अतः मृत्युकोकमें रहता हुमा स्वर्ग तथा पाताळके वीरोंका, स्वर्गमें रहता हुआ मृत्युलोक तथा पातालके वीरोंका और पातालमें रहता हुआ स्वर्ग तथा मृत्युलोकके वीरोंका युद्ध होने का वितर्क कर मैं सुखी नहीं हो सकता क्योंकि मैं किसी एक लोकमें रहकर अन्य लोकमें होने वाले युद्धको प्रत्यक्ष नहीं देखनेके कारण सुखी नहीं हो सकूँगा ] // 41 // / वीक्षितस्त्वमसि मामथ गन्तुं तन्मनुष्यजगतेऽनुमनुष्व | कि भुवः परिवृढा न विवोढुं यत्र तामुपगता विवदन्ते / / 42 // वीचित इति / त्वं वीक्षितोऽसि / एतदेवागमनफलमित्यर्थः / तत्तस्मारफलान्तराभावात्। अथानन्तरं मा मनुष्यजगते गन्तुं मस्र्यलोकंगन्तुमित्यर्थः / स्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्र्यो चेष्टायामनध्वनि' इति चतुर्थी। अनुमनुष्व अनुजानीहि / तत्र मर्त्यलोके, तां दमयन्ती, विवोटुं परिणेतुम् उपगता भुवः परिवृद्धाः, प्रभवो भूपतयः 'प्रभौ परिवृढः' इति निपातः। न विवक्षन्ते न कलहायिष्यन्ते किम् ? अपितु सर्व एव विवादं करिष्यन्तीति भावः। सामीप्ये / लट / भावनादिसूत्रेण वदेरकर्मकस्वात् विम Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 नैषधमहाकाव्यम् / तावात्मनेपदम् / भैमी परिणेतुमागतानां राज्ञां तरसौन्दर्यमुग्धानामहमेवास्या अनुरूप इत्यादि विवादो भविष्यतीति भावः // 42 // तुम्हें मैंने देख लिया अर्थात् तुमसे भेंट-मुलाकात हो गयी, अब मुझे मयकोकमें जाने के लिये छुट्टी दो। वहां (मर्त्यलोकमें, अथवा-कुण्डिनपुरमें ) उस ( दमयन्ती) के साथ विवाह करने के खिये आए हुए राजालोग क्या विवाद नहीं करेंगे ? [ उस सुन्दरीके नहीं मिलनेपर उसको पानेवाले राजाके साथ अवश्यमेव अन्य राजालोग युद्ध करेंगे, अतः युद्ध देखनेका आनन्द मुझे अनायास ही मत्यलोकमें मिल जायगा, इस कारण अब मुझे वहां जाने दो) // 42 // इत्युदीर्य स ययौ मुनिरुवीं स्वर्पति प्रतिनिवर्त्य जवेन'। वारितोऽप्यनुजगाम स यन्तं तं कियन्त्यपि पदान्यपराणि // 43 // इतीति / स मुनिरित्युदीर्य स्वर्पतिमिन्द्रम्, 'महरादीनां पत्यादिषु' इति वैक. शिपको रेफादेशः। प्रतिनिवर्य जवेनोर्वी ययौ। स इन्द्रो वारितो निवतितोऽपि यन्तं गच्छन्तम् / इणो लटः शत्रादेशः / तं मुनिमपराण्यपि कियन्ति कतिचन पदानि / आसीममित्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / अनुजगाम // 43 // ___ यह (श्लो० 41-42 ) कहकर वह मुनि ( नारदजी ) इन्द्रको लौटाकर वेगसे भूलोक को चले ( पाठभेदसे-न्द्रको बलपूर्वक लौटाकर भूलोकको चले ) / मना करनेपर भी (वह इन्द्र ) कुछ पैर ( कदम ) जाते हुए (नारदजीकी इच्छा न होनेपर मी बलपूर्वक ) उनके पीछे चले / (सयत्न पाठमें यत्नपूर्वक वह इन्द्र ) खाते हुए नारदजीके पीछे चले। ('सजन्ता' पाठमें-मना करनेपर भी कुछ और पैर ( कदम ) पीछे 2 लगते अर्थात् चलते हुए इन्द्रको बलात लौटाकर नारदमी भूलोकको चले ) // 43 // पर्वतेन परिपीय गभीरं नारदीयमुदितं प्रतिनेदे / स्वस्य कश्चिदपि पर्वतपक्षच्छेदिनि स्वयमदशि न पक्षः // 44 // पर्वतेनेति / पर्वतेन मुनिना गिरिणा च गभीरं, नारदीयमुदितं नारदवाक्यं, परिपीय प्रतिनेदे प्रतिदम्चने तदेवानुकृतमित्यर्थः / पर्वते / सनिकृष्ट प्रतिनादो युक्त इति भावः / नदेलिट / 'अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि' इत्येत्वाभ्यासलोपौ / स्वयं तु न किशिनिवेदितवानिस्याह-पर्वतपाछेदिनीन्द्रे स्वस्य कश्चिदपि पक्षः साध्य प्रयोजन गरुष / 'पक्षः पार्श्वगरुत्साध्यसहायबलभित्तिषु' इति बैजयन्ती। स्वयं नादर्शि न रशिंतः। तस्साहचर्यमाप्रलोभादागस्य स्वस्य पृथक्साध्याभावात्तदुक्त मेवाणुकृतम् / न तु पृथकिचिन्निवेदितमित्यर्थः / पर्वतपरच्छेदिस्वादिन्द्रस्याने पर्वतेन स्वपक्षो न प्रकाशित इति ध्वनिः॥ 44 // 1. 'बल्लेन' इति पाठान्तरमा 2. 'सयानं, 'स यान्त 'सजन्ताम्' इति पाठान्तराणि। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 285 पर्वत मुनिने ( पक्षान्तरमें-पहाड़ने ) नारदमी (पक्षान्तरमें-जलद अर्थात् मेघ ) का गम्भीर ( अर्थगम्भीर, पक्षान्तरमें-उच्च ) कथन (पक्षान्तरमें-गरजना) सुनकर प्रति. नन्दन ( नारदजीका कथन ठीक है, ऐसा स्वीकार; पक्षान्तरमें-प्रतिध्वनि ) किया। पर्वतों के सिद्धान्तका खण्डन करनेवाले ( पक्षान्तरमें--पहाड़ोंका पंख काटनेवाले; इन्द्र) ने अपना कोई भी पक्ष (सिद्धान्त, पक्षान्तरमें-पंख नहीं दिखलाया। [ पर्वत मुनि नारदजी के साथ स्व में गये थे, अतः मित्रकी बातका समर्थन किया, पक्षान्तरमें मेषकी गरजना सुनकर पहाड़ने ( गुफासे ) प्रतिध्वनि की / अपने सिद्धान्तका इन्द्र के द्वारा खण्डन किये जाने की आशङ्कासे पर्वत मुनि ने स्वयं अपना कोई मत वहां नहीं दिया / बुद्धिमान् कोई भी व्यक्ति अपने मतको खण्डित होनेवाला मानकर चुप ही रह जाता है, वहां अपने मतका प्रतिपादन नहीं करता / पक्षान्तरमें-इन्द्र जब पर्वतोंका पंख काटते है सब पर्वतको अपना पंख इन्द्र के द्वारा काटने के भय से नहीं दिखाना स्वाभाविक ही है ] // 44 // पाणये बलरिपोरथ भैमीशीतकोमलकरग्रहणाहम् / भेषजं 'चिरचितानिवासव्यापदामुपदिदेश रतीशः // 45 // इन्द्रस्तु भैग्यामनुरकोऽभूदित्याह-पाणय इति / अथ नारवनिर्गमनान्तरं, रतीशः कामो बलरिपोरिन्द्रस्य पाणये चिरचितानां चिरसचितानाम, अशनिवासेन वज्राग्निसम्पर्केण याः व्यापदो विदाहाः तासां भैमीशीतकोमलकरस्य प्रहं ग्रहण मेवाह योग्यं, भेषजमौषधमुपदिदेश। वीराभिभवेन शृङ्गारः प्रवृद इति भावः / अत्र कामनिबन्धस्य भमीपाणिग्रहणस्यानिवासतापशमनार्थवोत्प्रेक्षा ग्याकप्र. योगाद् गम्या // 45 // इस ( नारदजी के जाने ) के बाद कामदेवने इन्द्र के हाथके लिये चिरकालतक वज्रके सञ्चित (पाठा० ग्रहण किये रहने से उत्पन्न ) महान् रोगके योग्य, दमयन्तीके ठंढे तथा कोमल हाथ का ग्रहण अर्थात् विवाह करना औषध बतलाया। [इन्द्र के हाथमें सर्वदा दाहक एवं कठोरवज्र रखने से दाह तथा कर्कशतारूप महान् रोग हो गया, उसको दूर करने के लिये कामदेवरूपी वैद्यने भैमीके शीतल तथा कोमल हाथको ग्रहण करना योग्य मौषध बतलाया अर्थात् इन्द्र दमयन्तीको पाने के लिए कामपीडित हो गये। अन्य भी व्यक्ति कर्कः शता तथा दाहकता शान्त करने के लिए ठंढा तथा कोमक पदार्थका उपयोग करते हैं] // 45 // नाकलोकभिषजो सुषमा या पुष्पचापमपि चुम्बति सैव / वेद्मि ताहगाभषज्यदसौ तद्वारसंक्रमितवैद्यकविद्यः / / 46 / / ननु कामस्य कुतो वैधावियेत्यत आह-नाकेति / नाकलोकभिषजोर श्विनोर्या सुषमा सौन्दर्य सैष पुष्पचापं काममपि चुम्बति स्पृशति, तस्मादपि / तावेव सुष 9. 'चिरता-' इति पाठान्तरम् / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 नैषधमहाकाव्यम् / मावन्ताविति भावः। असौ कामः सा सुषमैव द्वारं तेन सङ्क्रमिता वैवकं वैद्यस्य भैषज्यम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुज' / तदेव विद्या यस्मिन् सः। अतएव तारक स्ववैद्यसरशः सन् अभिषज्यत् चिकिरिलतवान् / भिषज्यतेः कण्ड्वादियगन्ताल्लङ्। वेदमीत्युस्प्रेक्षायाम् / वाक्यार्थः कर्म // 46 // ___ स्वर्गलोकके दोनों वैद्यों ( अश्विनीकुमारों ) की जो श्रेष्ठ शोभा है, वह कामदेवको स्पर्श करती है ( अश्विनीकुमारोंके समान कामदेव भी अत्यन्त सुन्दर है) उस (श्रेष्ठ शोभा) के दारा वैद्यक विद्याको प्राप्त करनेवाला यह कामदेव वैसा ( अश्विनीकुमारोंके समान, अथवाइन्द्र के हाथ के लिए दमयन्तीका पाणिग्रहण रूप ) चिकित्सा किया / [ कामदेवको स्वर्गवैद्य अश्विनीकुमारों के समान होने के कारण कामदेवका वैध होकर इन्द्र के लिए औषध बतलाना असमत नहीं है। अन्यत्र भी किसी व्यक्ति में किसी दूसरे व्यक्तिके एक गुणके साथ दूसरा गुण भी पहुँच पाता है ] | 41 // मानुषीमनुसरत्यथ पत्यौ खर्वभावमवलम्ब्य मघोनी / खण्डितं निजमसूचयदुच्चैर्मानमाननसरोरुहनत्या // 4 // अथेन्द्राण्या ईर्ष्यानुभावमाह-मानुषीमिति / अथेन्द्रस्य भैमीरागानन्तरं मघोनः सी मघोनी शची। 'पुंयोगादाण्यायाम्' इति डोष। 'श्वयुवमघोनामतद्धित' इति सम्प्रसारणे गुणः / पस्यो खर्वभावं नीचस्वमवलम्ब्थ मानुषी मानुषत्री, 'जातेरसी' इत्यादिना डीष / अनुसरत्यनुवर्तमाने सति, आननसरोव्हनत्या शिरोनमनेन, उच्चैहातं निज मानं सर्वोत्तरस्वाहंकारं खण्डितं मग्नमसूचयत् / आकारणव निज. निर्वेदमवेदयत् / न तु वाचा किश्चिदूचे / गम्भीरनायिकारवादिति भावः // 47 // इस (इन्द्रको दमयन्तीकी इच्छा होने ) के बाद इन्द्राणीने नीचताका अवलम्बनकर मानुषी ( दमयन्ती ) के पीछे पति इन्द्र के चलनेपर (इन्द्रद्वारा दमयन्तीको चाहने पर) मुखकमलको नम्रकर (अधोमुखी होकर ) अपने उच्च मान ( पतिकृत अत्यधिक भादर या इन्द्राणीरूप उच्चपद, ( पक्षान्तरमें-ऊँचा प्रमाण ) को खण्डित हुआ बतलाया। अथवानीचताका अवलम्बनकर मुखकमलको नम्रतासे पतिको मानुषीका अनुगमन करनेसे इन्द्राणी ने अपने उच्च मानको खण्डित बतलाया। अथवा-पतिके मानुषीके पीछे गमन करने पर इन्द्राणीने खर्वभाव ( दीनमाव ) को अवलम्बनकर मुख-कमलके नीचा करनेसे मान (पतिकृत मादरपूर्वक स्नेह) को खण्डित बतलाया। [यहां प्रथम अर्थमें-जिस इन्द्र ने वामन भाव (नीचता) को ग्रहण किया, उसी इन्द्रका मान (ऊंचाई) घटना चाहिये, किन्तु इन्द्रका मान न घटकर इन्द्राणीका घटा, यह आश्चर्य है। द्वितीय अर्थमें-इन्द्र यह समझते थे कि मैं इन्द्राणीको छोड़कर एक मानुषी ( कोई अन्य देवाङ्गना नहीं) के पीछे चल रहा हूं (पीछे चलनेसे दासभाव प्रकट होता है) अतः इन्द्राणीके सामने अपना मुख मी ऊँचा नहीं कर पाते थे। तृतीय अर्थमें-पतिको मानुषो के अनुगमन करनेसे इन्द्राणीको पतिका Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 287 विरह तथा सपत्नीका अनुगमनके समाचारसे अपार दुःख हुआ, मत एव उसका दीनभाव होना एवं लज्जा तथा कष्ट के होनेसे उल्लासहीन होनेसे मुखको नीचा किये रहना स्वाभाविक ही है] // 47 // यो मघोनि दिवमुच्चरमाणे रम्भया मलिनिमालमलम्भि | वर्ण एव स खलूज्ज्वलमस्याः शान्तमन्तरमभाषत भङ्गया // 48 // अथान्यासामपि कासांचिदप्सरसामीर्यानुभावानाह-य इत्यादि। मघोनीन्द्र 'श्वयुवमघोनाम्' इत्यादिना सम्प्रसारणे गुणः / दिवमाकाशम, उच्चरमाणे उत्पतति सति, 'उदश्वरः सकर्मकात्' इत्यात्मनेपदम् / रम्भया यो मलिनिमा मालिन्यम, अलमत्यन्तम्, अलम्भि अलामि / 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति वा नुमागमः। स वर्णो मलिनिमैव, अस्या रम्भायाः, अन्तरमन्तरङ्गम्, उज्ज्वलं रोषाइयुज्ज्वलं प्रज्व. लितं सत् मझ्या कयाचिद्रीत्या भवितव्यताप्राबल्यधियेत्यर्थः / शान्तं शमितं निर्वा. पितमित्यर्थः / 'वा दान्त' इत्यादिना निपातः / अभाषत खलु। निर्वाणालातमलि. नमित्यास्यदित्यर्थः / अन्तःकरणवैवयंमूलस्वाहातववर्यस्येति भावः // 48 // इन्द्रको स्वर्ग छोड़कर चलनेपर रम्मा को जो मलिनता ( उदासी, पक्षान्तरमेंकालिमा) हुई, वह वर्ण ( उदासी या कालिमा) ही प्रकारान्तरसे इस (रम्मा) के निर्मल (पक्षान्तरमें-शृङ्गार रस युक्त ) अन्तःकरणको शान्त (नष्ट अर्थात् कालिमायुक्त, पक्षान्तर मेंशान्त-रस युक्त) बतलाया / ( अथवा-"उसके शान्त अन्तःकरणको जलता हुआ (इन्द्र-विरह-जन्य दुःख या इन्द्र के नीचकमसे सन्तप्त) बतलाया / [उम्ज्वळसे थोड़ी-सी भी कालिमा शीघ्र मालूम पड़ने कगती है / अथवा-जो शृङ्गार रससे युक्त है वह शान्तरससे युक्त हुआ यह आश्चर्य है / जब इन्द्र दमयन्तीको पाने की इच्छाकर स्वर्गसे मस्य॑लोक जाने लगे तब रन्मा भी खिन्न हो गयी ] // 48 // जीवितेन कृतमप्सरसां तत्प्राणमुक्तिरिह युक्तिमती नः / इत्यनक्षरमवाचि घृताच्या दीर्घनिःश्वसितनिर्गमनेन / / 46 // जीवितेनेति / अप्सरसा नोऽस्माकं जीवितेन कृतं, कष्टरवादिति भावः / तत्तस्मा. दिहास्मिन्समये प्राणमुक्ति प्राणत्याग, एवं युकिमती युक्तेति घृताच्या नाम देण्या दीर्घनिःश्वसितस्य निर्गमनेन निष्क्रमणमुखेन, अनक्षरमशब्दप्रयोगं, यथा तथा अवाचि / वचेब्रुनो वा कर्मणि लुछ। उक्तमिवेत्यर्थः / अत एव ग्यमकाप्रयोगाद् गम्योरप्रेता // 49 // (अब ) हम अप्सराओंका जीना व्यर्थ है, अत एव प्राणों का छूट जाना (मर बाना) 1. 'खलज्ज्वलदस्याः' इति पाठान्तरम् / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 नैषधमहाकाव्यम्। हो ठीक है। इस प्रकार घृताचीने लम्मा श्वास निकलनेसे मुखसे बिना बोले ही कह दिया। [प्राण भी श्वासरूप हैं, अतएव अधिक दुःखके कारण लम्बा श्वास निकलनेसे मानो प्राणोंका बाहर निकल जाना ( मेरा मर जाना ) ही अच्छा है, ऐसा बिना मुखसे कुछ कहे केवल संकेतसे ही घृताचीने कह दिया। अन्य किसी मरणासन्न व्यक्तिका जब श्वास अत्यधिक बढ़ जाता है, तब वह मुखसे कुछ कहे बिना ही हाथ आदिके संकेतसे अपना मनोगत भाव कह देता है / इन्द्र-विरहकी मावी आशंकासे घृताची लम्बा श्वास लेने लगी] // 49 // साधु नः पतनमेवमितः स्यादित्यभण्यत तिलोत्तमयापि | चामरस्य पतनेन कराब्जात्तद्विलोलनवल जनालात् // 50 // साध्विति / तिलोत्तमयापि देण्या तस्य चामरस्य विलोलनेन आन्दोलनेन वलन् वलमानो भुजो बाहुरेव नालो यस्य तस्मात् , 'वलतरात्मनेपदमनित्यं ज्ञापकात्' इत्याह वामनः / चपिङो किरकरणं ज्ञापकम् / कराब्जात् पाणिकमळाचामरस्य पतनेन, अवयवपारवश्यादिति भावः / एवखामरवदेव नोऽस्माकमपि इतः स्वर्गात् पतनमेव साधु स्यादित्यमण्यत / मणितमिवेति पूर्ववदुस्प्रेक्षा भुजनालात् कराब्जा दिति सावयवरूपकेण संसष्टा // 50 // चामर डुलानेसे चल भुज-नालवाले हाथसे चामरके गिर जानेसे 'हमलोगों का यहां (स्वर्ग) से पतन हो जाना ही अच्छा है। ऐसा तिलोत्तमा नामकी अमराने भी कहा। [इन्द्र के भावी विरहकी आशंकासे इन्द्रको चामर डुलाती हुई तिलोत्तमाके हाथसे चिन्ता. बन्य परवशताके कारण चामर गिर पड़ा] // 50 // मेनका मनसि तापमुदीतं यत्पिधित्सुरकरोदवहित्थाम् / तत्स्फुटं निजहृदः पुटपाके पङ्कुलिप्तिमसृजद् बहिरुत्थाम् // 51 / / मेनकेति / मेनका नाम काचिद् देवी मनस्युदीतमुत्पन्न, तापमाधि, पिधिरसुः पिधातुमिग्छुः सती, अवहिस्थामाकारगुप्तिमकरोपिति यत् , तदाकारगोपनमेव, निज. हृदः स्वमनसः, पुटपाके गूढपाके, बहिरुस्थामुस्थितां, वाद्यामित्यर्थः / 'भातश्चोपसर्गे' इति कर्तरि कप्रत्ययः। पङ्कलिप्तिं पडलेप, स्फुटमसृजत् / पुटपाके बाह्यः पकलेपो. ऽन्तः पच्यमानद्रव्यस्येवाकारगोपनमेव बलात् क्रियमाणं गोप्यस्यान्तस्तापस्य ज्याकमभूदित्यर्थः॥५१॥ मेनकाने मनमें उठे हुए (पाठान्तरसे-बढ़े हुए ) सन्तापको बन्द रखने (छिपाने, पक्षान्तरमें-रोकने की इच्छा करती हुई जो भाकारगोपन किया ( भावको छिपाया ), वह अपने हृदयके पुटपाकमें मानो बाहरसे कीचड़को लपेटा। [किसी औषध का पुटपाक 1. 'चलद्-' पाठान्तरम् / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 281 करते समय उसका कोई लेशमात्र भी तत्त्व बाहर न निकल जाय, इसलिये उस भौषधको दो सकोरों में बन्दकर ऊपरसे कपड़कूट मिट्टी का लेप कर देते हैं, तब वह औषध लेशमात्र भी बाहर नहीं निकलने पाता और भीतरमें तप्त होकर जलता है। इसके प्रतिकूल किसी वस्तु या औषधका खुला पाक करते हैं तो उसकी सुगन्ध आदि बाहर फैल जाती है तथा वह वस्तु भी बल जाती है / इसी प्रकार प्रकृतमें मेनकाने सन्ताप तथा आकारगोपनरूप दो तकोरों के मध्यमें स्थित अपने हृदयरूपी औषधको पकाते हुए बड़े कष्टका अनुभव किया तथा वह कष्ट देर तक होता रहा, खुले हुये पाकके समान शीघ्र नष्ट नहीं हुआ। मेनकाको इन्द्र के भावी विरहसे अत्यन्त कष्ट हुआ ] // 51 // उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा तत्क्षणस्तिमितभावनिभेन | शक्रसौहृदसमापनसीम्नि स्तम्भकार्यमपुषद्वपुषैव / / 52 / / उर्वशीति / गुणैः सौन्दर्यादिभिवंशीकृतविश्वा रञ्जिताखिलप्रपञ्चा, उर्वशी नाम काचिद्देवी, तस्वणे तत्समये, यः स्तिमितभावःस्तैमिस्यं निक्रियानत्वलक्षणः स्तम्भो नाम सात्विकस्तस्य निभेन मिषेण / 'मिषं निभञ्च निर्दिष्टम्' इति हलायुधः / वपु. षैव सुहृदयशब्दाद्यवादिस्वादण्प्रत्यये हृद्भावासोभयपदवृद्धिः। अत एव 'सौहृददौ. हदशब्दावणि हृद्भाचौ' इति वामनः / शकसौहृदस्य समापनसीग्नि समाप्तिस्थाने, स्तम्भकार्य जाव्यकृत्यं, स्थूणाकृत्या, अपुषत् / 'स्तम्भः स्थूणाजडत्वयोः' इति विश्वः / स्तम्भोत्थानावधिकं मे शक्रसौहद मिति निर्णयमकरोदित्यर्थः। 'पुषादि' इत्यादिना श्लेरडादेशः॥५२॥ गुणसे संसारको वशीभूत करनेवाली उर्वशीने उस समय (इन्द्रका मानुषीको चाहना करने की बात सुननेके समय) जड़ताके व्याजसे इन्द्र के अनुरागकी समाप्तिको सीमाके स्तम्म ( स्तम्भरूप सात्त्विक भाव, पक्षान्तरमें-पत्थर भादिका खम्बा) को शरीरसे ही बतला दिया। [जिस प्रकार लोकमें किसी सीमाका निश्चय करने के लिये वहां पत्थर मादिका खम्बा गाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार इन्द्र के भावी विरहको सुनकर उर्वशी स्तम्भ नामक सात्त्विक भावको व्यक्त किया। उर्वशी इन्द्रके भावी विरह कल्पनासे जड़ हो गयी ] // 52 // कापि कामपि बभाण बुभुत्सुं शृण्वति त्रिदशभर्तरि किञ्चित् / एष कश्यपसुतामभिगन्ता पश्य कश्यपसुतः शतयज्ञः / / 53 / / अथ कासाश्चिदप्सरसां वागारम्भानाह-कापीत्यादि / कापि देवी, बुमुसुमिन्द्र जिगमिषितं देशं जिज्ञासमानां कामपि देवीं त्रिदशर्तरि इन्द्रे शृण्दति सत्येव / तच्छ्वणार्थमेवेत्यर्थः / किशिद्धमाण : किं तदाह-कश्यपसुतः शतयशो बहुयाजी एष इन्द्रः, कश्यपसुतां काश्यपी, चितिमभिगन्ता अभिगमिष्यति / गमलुट / पश्य / 1, 'शतमन्युः' इति पाठान्तरम् / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 नैषधमहाकाव्यम् / दिवं विहाय भुवं गच्छत्तीत्याश्चर्य पश्येत्यर्थः / स्वयं कश्यपसुतस्तरसुतां भगिनीमेव गच्छतीत्याश्य ग्यज्यते // 53 // देवराज इन्द्र के मुनते रहनेपर किसी देवाङ्गनाने इन्द्र के विषयमें माननेकी इच्छा करने वाली किसी अन्य देवाङ्गनासे कहा-'सौ (अश्वमेध ) .यश करनेवाला यह कश्यप मुनिका पुत्र (इन्द्र ) कश्यप पुत्री अर्थात् काश्यपी ( पृथ्वी ) को जाना चाहता है, देखो' / ( एक मुनिका पुत्र जिसने सौ अश्वमेष यशके फलस्वरूप दुर्लभ इन्द्रपद प्राप्त किया, वह पुनः पृथ्वी को जाना चाहता है, यह बड़ी मूर्खताकी बात है देखो। अथवा-एक महामुनिका पुत्र उसमें भी सौ यज्ञ करनेवाला यह कश्य+प= कश्यप ( मद्यपी) की पुत्रीके साथ संगम करना चाहता है, यह देखो, ऐसा तो एक पामर भी नहीं करेगा, उसमें भी एक मुनिपुत्र और महायाशिक ऐसा काम करे, यह बड़े खेद तथा आश्चर्यकी बात है। अथवा-कश्यप मुनिका सौ यज्ञ करनेवाला यह पुत्र कश्यप मुनिकी पुत्री ( अपनी बहन ) के साथ संगम करना चाहता है, इसका महानीचतापूर्ण यह कार्य देखो। अथवा-मद्यपानकर्ताका पुत्र मद्यपानकर्ताकी पुत्रीके साथ संगम करना चाहे, यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मद्यपानकर्ताके पुत्रका महायाशिक होकर भी ऐसा कार्य करना कोई आश्चर्य नहीं होता। वह पतित होनेसे जो कुछ नीचतम कार्य कर दे, वह थोड़ा ही है। पाठभेदमें-सौ क्रोध ( पक्षान्तरमें-सौ यज्ञ) लक्षणासे तज्जन्य सौ अपराध करनेवाला व्यक्ति ऐसा नीच कार्य करे यह कोई आश्चर्य नहीं है / इन्द्रने लोकापवादको भी कोई चिन्ता नहीं की ] // 53 // आलिमात्मसुभगत्वसगर्वा कापि शृण्वति मघोनि बभाषे। वीक्षणेऽपि सघणासि नृणां किं यासि न त्वमपि सार्थगुणेन // 54 // __ आलिमिति / आरमनः सुभगत्वेन सगर्वा सुभगमानिनीत्यर्थः / कापि, मघोनि शक्रे शृण्वति सत्येव, भालिं सखीं बभाषे / तदेवाह-नृणां मनुष्याणां वीक्षणेऽपि / किमुत समताविस्यर्थः / सघृणा सजुगुप्सासि / सा त्वमपि सार्थगुणेन सधधर्मेण, गतानुगतिकस्वरूपेणाविवेकिस्वेनेति यावत् / न यासि किम् ? विवेकेन चेन यास्य. वेत्यर्थः // 54 // इन्द्र के सुनते रहनेपर अपने सौन्दर्यका अभिमान करनेवाली किसी देवागनाने सखीसे कहा-'मनुष्यों को देखने में भी घृणा करती हो ? ( फिर सङ्गति करना कैसे सम्भव है ?), तुम भी इन्द्र के सहचर समुदायके गुणसे अर्थात सहचर पनकर ( भूलोकमें ) क्यों नहीं जाती हो 1 अर्थात् जाओ / [ जो तुम मनुष्यों में घृणाकर मर्यकोकको इन्द्र के साथ नहीं जाती और इन्द्र उसी मानुषी के साथ विवाह तक करने के लिए (केवळ देखने या सम्माषणमात्र करने के लिये ही नहीं ) मा रहा है, अतः तुम इन्द्रसे भी अच्छी हो। अथवा-..'क्या तुम गुण (प्रेमरूप रस्सी ) से बंधकर इन्द्रके साथ नहीं जाभोगी अर्थात अवश्य जामोगी। अथवा-सहचर गुणसे ( गतानुगतिक न्यायसे इन्द्र के साथ ) नहीं जाओगी क्या ? अर्थात Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 261 कुछ भी विचार होगा तो नहीं जाओगी। थोड़ा भी विवेक रखने वाला व्यक्ति गतानुगतिकताको छोड़कर विवेक द्वारा काम लेता है, कामान्ध इन्द्र वैसा नहीं करनेसे विवेकशून्य हो रहा है ] // 54 // अन्वयुद्युतिपयःपितृनाथास्तं मुदाथ हरितां कमितारः / वर्त्म कर्षतु पुरः परमे कस्तद्गतानुगतिको न महाघः / / 55 // अन्वयुरिति / अथेन्द्रप्रयाणानन्तरं, हरितां कमितारो दिशा कामयितारो दिक्प. तयः, इन्द्रानुयानाही इत्यर्थः / ज्यामयातमेतत् / अतिपयःपितृणां नाथा वहिवरुणयमाः, तमिन्द्रं, मुदा औत्सुक्येन, अन्वयुरनुयाताः / 'लङः शाकटायनस्यैव' इति झेर्जुसादेशः। तथा हि, एकः वरमेक एव पुरः, वर्म कर्षतु मार्ग करोतु / तस्य मार्गकर्तुः गतमनुगतिर्यस्य स महा? महामूल्यः दुर्लभ इति यावत् / न भवति / पुरोग एव दुर्लभस्तत्पृष्ठानुयायिनस्तु सर्वत्र सुलभा एवेति न किश्चिदन चित्रमित्यर्थः // 55 // इसके ( इन्द्र के दमयन्तीके साथ विवाहार्थ स्वर्गसे प्रस्थान करनेके ) बाद दिक्पाल द्युतिपति, पितृपति तथा जलपति ( क्रमशः-अग्नि, यम और वरुण ) भी हर्षसे (दमयन्ती. को देखने ) उस इन्द्र के पीछे चले / कोई एक व्यक्ति किसी नये मार्गको चालू कर दे, फिर उसके पीछे चलनेवाले व्यक्ति दुलंम नहीं है / [जो सर्वप्रथम किसी नये रास्तेको चालू करता है, संसार में वही व्यक्ति दुर्लम है, बाद में उसके पीछे चलने वाले भनेकों हो जाते हैं // 55 // प्रेषिताः पृथगथो दमयन्त्यै चित्तचौर्यचतुरा निजदूत्यः / तद्गुरुं प्रति च तैरुपहाराः सख्यसौख्यकपटेन निगूढाः / / 56 // प्रेषिता इति / अथो अनन्तरं, तैरिन्द्रादिभिः, चित्तचौर्ये दमयन्त्याश्चित्ताकर्षणे, चतुरा निजदूत्यः दमयन्त्यै पृथक प्रेषिताः / तद्गुरुं तस्पितरं भीमच प्रति, सस्यसौ स्यकपटेन मैत्रीसुखम्याजेन, निगूढाः गुप्ताः, उपहारा उपायनानि प्रेषिताः // 56 // इप्त के बाद उन लोगों ( इन्द्र, अग्नि, वरुण तथा यम) ने दमयन्तीके पास चित्तको वशीभूत करने में चतुर अपनी अपनी दूतियोंको (परस्पर में) गुप्त रूपसे अलग 2 भेजाअथवा राजा या उस नगरवासियोंसे छिपाकर...."दूतियों को भेजा / और उस दमयन्तीके पिताके लिये मित्रके सुखभाव या सुखाधिक्य के व्याजसे (बहुमूल्य होने के कारण ) चित्तको लुमानेवाले परस्पर में छिपाकर ( एक दूसरेको न जनाकर ) उपहार ( रत्न आदिका भेंट) भी भेजा। [ उनमें प्रत्येक लोकपालने यही सोचा कि मेरा दूती तथा उपहारका भेजना अन्य तीनों सहागत लोकपालों को मालूम नहीं है / लोकमें भी एक वस्तु के लिये इच्छा करनेवाले जब कई व्यक्ति होते हैं, तब वे परस्परमें एक दूसरेसे छिपाकर उसको पानेका यत्न करते हैं ] // 56 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 नैषधमहाकाव्यम् / चित्रमत्र विबुधैरपि यत्तैः स्वर्षिहाय बत भूरनुसने / द्यौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चरति यत्र हि चित्तम् // 57 / / चित्रमिति / विबुधैर्देवैः विद्वनिला, तैरिन्द्रादिभिः, स्वः स्वर्ग, विहाय, बत हन्त, भूरनुसने अनुसतेति षत् / अत्र चित्रं काफः, न चित्रमित्यर्थः / कुतः, अथवा चौः स्वर्गव, काचिदपि निरूढा प्रसिदा नास्ति / किन्तु यन्त्र चित्तं चरति रमते, सैव सा पौर्हि // 57 // देवता ( पक्षान्तरमें-विशिष्ट विद्वान् ) भी उन लोगोंने जो स्वर्ग छोड़कर पृथ्वीका अनुसरण किया अर्थात् पृथ्वीपर बाये, इसमें आश्चर्य है। (जब साधारण शान रखनेवाला व्यक्ति भी पृथ्वीको छोड़ स्वर्गलाम करनेका प्रयत्न करता है, तब विशिष्ट ज्ञानवान् हन लोगों ने उल्टे स्वर्गको छोड़कर पृथ्वीपर मागमन किया, यह आश्चर्यका विषय है। अथवा-....."आगमन किया, इसमें आश्चर्य है ? अर्थात् कोई भाश्चर्य नहीं (क्योंकि-) 'स्वर्ग' इस नामसे प्रसिद्ध कोई (स्थान आदि ) नहीं है, किन्तु जहाँपर जिसका मन चलता है अर्थात् जिस स्थानादिमें मन अनुराग करता है, उसके लिये वही स्वर्ग है। ( अतः देवताओंका स्वर्ग छोड़कर भूमिपर आना उचित ही है ) // 57 // शीघ्रलंधितपथैरथ वाहैलम्भिता भुवममी सुरसाराः / वक्रितोन्नमितकन्धरबन्धाः शुश्रुवुर्ध्वनितमध्वनि दूरम् / / 58 // शीघ्रति / शीघ्रं लंधितपरतिक्रान्साध्वभिा, रथवाहै रथाश्वैर्भुवं लम्भिताः प्रापिताः, अमी सुरसाराः सुरश्रेष्ठाः, वक्रिताचलिताः, उसमिताश्च कन्धराः प्रीवा:, यस्मिन् स बन्धः कापसंस्थानविशेषो येषां ते सन्तः, अध्वनि दूरं ध्वनि शुश्रुवुः // इसके बाद शीघ्र रास्ता तय करनेवाले घोड़ों ( या विमानादि सवारियों ) से भूमिपर पहुँचे हुए उन श्रेष्ठ देवताओंने गर्दनको टेढ़ाकर ऊंचा किये हुए, दूरके शब्दको सुना (अथवा-अन्य वार्तालापको छोड़कर अर्थात चुपचाप होकर दूरको ध्वनिको मुना // 58 // किं घनस्य जलधेरथवैवं नैव संशयितुमप्यलभन्त | स्यन्दनं परमदूरमपश्यन्निःस्वनश्रुतिसहोपनतं ते // 56 // किमिति / ते देवाः, किं धनस्य ध्वनितम्, मेघस्तनितम्, अथवा जलधेः ध्व. नितम्, एवं संशयितुमपि नालमन्तैव / एतावन्मात्रविलम्बोऽपि नास्तीत्यर्थः। 'शकष' इत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः। किन्तु, निःस्वनस्य पूर्वोक्तध्वनितस्य, अत्या श्रवणेन, सहोपनतं प्राप्तम्, अदूरमासन्नं स्यन्दनं परं रथमेवापश्यनिति / रथवे. गोक्तिः / अन्न सन्देहसहोक्स्योः संसृष्टिः // 59 // ये देवता जब तक 'यह मेषका शब्द है ? या समुद्रका' ऐसा सन्देह करने के लिये भी Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 263 समय नहीं पा सके, (तब तक ) ध्वनि सुनने के साथ ही पहुंचे हुए अत्यन्त समीपमें रथ को देखा। [ध्वनिके साथ ही रथके आनेसे उसका शीघ्र चलना तथा गम्भीर शब्द होना व्यक्त होता है ] // 59 // सूतविश्रमदकौतुकिभावं भावबोधचतुरं तुरगाणाम् / तत्र नेत्रजनुषः फलमेते नैषधं बुबुधिरे विबुवेन्द्राः // 10 // सूतेति / एते विबुधेन्द्रास्तत्र रथे सूतस्य सारथेः, विश्रमदो विधान्तिप्रदः, कौतुकिभावो विनोदिवं यस्य तं, विनोदार्थ स्वयं प्रतिपन्नसारथ्यमित्यर्थः / अत्र हेतुः तुरगाणां भाववोधचतुरम् अश्वहृदयवेदिनं, नेत्रजनुषो नेत्रदत्तायाः फलं, लोचनासेचनकमित्यर्थः / नैषधं निषधानां राजानं नलम् / जनपदशब्दात् सत्रियाः दण् / बुबुधिरे ज्ञातवन्तः // 60 // इन देवेन्द्रोंने उस रथपर सारथिको विश्राम देनेके कौतूहलवाले तथा घोड़ोंके भाव. शानमें चतुर भौर नेत्रके जन्म लेनेका फलभूत नलको जाना। [ सारथिको हटाकर स्व रथ हांकते हुए, घोड़ों के हृदयङ्गत आशयके ज्ञाता और नेत्रप्राप्तिका फल रूप अर्थात नेत्रों को आनन्दित करनेवाले नलको उस रथपर देवताओं ने देखा] // 60 // वीक्ष्य तस्य वरुणस्तरुणत्वं यदभार निबिडं जडभूयम् / नौचिती जडपतेः किमु सास्य प्राज्यविस्मयरसस्तिमितस्य // 61 // वीच्येति / वरुणस्तस्य नलस्य, तरुणरवं तारुण्यं, तारुण्यभूषितरूपमित्यर्थः / चीचय यविधिडं जडभूयं जढवं स्तम्माख्यं साविकमित्यर्थः / 'भुवो भावे' इति क्यप / धभार / प्राज्येन प्रभूतेन, विस्मयरसेनाद्धृतरसेन, जलेन च / स्तिमितस्य निमलस्य, जलपतेः स्तम्धपतेरति उलयोरभेदात् , सा जभूयं, विधेयप्राधान्यात् बोलिझता। औचिती उचितकर्म, न किमु भवस्येवेत्यर्थः / विस्मयरसाविष्टस्य स्तम्भसरवादिति भावः / जलसिकस्य स्वयं जडभावस्य जाड्यमुचितमिति व्यज्यते // __ वरुण नलका सौन्दर्य देखकर जो अत्यन्त महता (स्तब्धता, दीनता जलरूपता) धारण कर लिये वह अत्यधिक आश्चर्य रससे स्तम्धीभूत जलपति (जलाधीश, पक्षान्तरमें-जडा. धीश अर्थात् मूर्खराज ) के लिये उचित नहीं था क्या ? अर्थात् उचित ही था। [ वरुण नलके तारुण्य-सौन्दर्यको देखकर दमयन्तीके पाने की आशा छोड़कर खिन्न हो गए, अथवा-चिन्ताके कारण उत्पन्न जहतासे स्तब्ध हो गये। बडाधीश (मूर्खराज पक्षा०-अलपति) वरुणके लिये जमाव (जडता, पक्षा०-जलत्व ) धारण करना उचित ही है / / 61 // Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / रूपमस्य विनिरूप्य तथातिम्लानिमाप रविवंशवतंसः / कीर्त्यते यदधुनापि स देवः काल एव सकलेन जनेन // 62 // रूपमिति / रविवंशवतंसो यमा, अस्य नलस्य, रूपं सौन्दर्य, विनिरूप्य विभाव्य / तथा तेन प्रकारेण, अतिम्लानिमतिवैवर्ण्यम्, अतिकालिमानमित्यर्थः / आप / यद्यथा, अधुनापि स देवो यमः, सकलेन जनेन / काल एव काल इत्येव, कीर्यते / तथा ग्लानिमापेति पूर्वेणान्वयः। नानुभावकालिमयोगादयं कालो न तु प्राण्यायुःकलनादिति भावः / अत्र यच्छब्दस्य कारणपरत्वेन ब्याख्याने स्वभपेक्षितार्थाभिधानमनन्वयश्च स्यात् / प्रकारार्थत्वे तु न कश्चिद्विरोधः। प्रकारार्थवा निपातानामनेकार्थवादविरुद्धमित्यर्थः // 62 // सूर्य-कुल-भूषण यमने इस नलके रूप को अच्छी तरह देखकर उस प्रकारको अत्यन्त कालिमाको प्राप्त किया, जिससे आज भी उस देव ( यम ) को सब लोग 'काल' ( काला, पक्षान्तरमें-'काल' नामवाले ) ही करते हैं। [जो सूर्य कुलभूषण है, उसको अत्यन्त प्रकाशमान उज्ज्वछ होना चाहिये, किन्तु उस यमको इसके विपरीत काला होने में तात्कालिक नलको देखनेसे उत्पन्न अतिशय मलिनता ही कारण है। यम भी नलको देखकर दमयन्तीको पाने की आशा छोड़ अत्यन्त खिन्न हो गये ] // 32 / / यद् बभार दहनः खलु तापं रूपधेयभरमस्य विमृश्य | तत्र भूदनलता जनिकी मा तदप्यनलतैव तु हेतुः / / 63 / / यदिति / दहनोऽग्निरस्य नलस्य, रूपमेव रूपधेयं सौन्दर्यम् / 'नामरूपमागेभ्यः स्वार्थे धेयो वक्तव्यः' इति स्वार्थे धेयप्रत्ययः / तस्य भरं समृद्धि, विमृश्य विचार्य, तापं बभार खस्विति यत् / तत्र तापभरणे, अनलता अग्निवं, जनिकी जन्मकरी, उत्पादिका मा भूत् / नलरूपदर्शनजन्यतापे तस्या अप्रयोजकरवादिति भावः / किन्तु तदपि तथापि चित्रमनलतैवाग्नित्वमेव हेतुरिति विरोधः। नलवाभावहेतु. रिति परिहारः / अतएव विरोधाभासोऽलकारः // 63 // मग्निने इस नलके अत्यन्त सौन्दर्यको देखकर जिस सन्तापको ग्रहण किया, उसका उत्पादक अनलता (भग्नित्व ) नहीं हुमा ( स्वयं अपनेको सन्तप्त करना अर्थात् एक अग्नि का ही कर्ता तथा कर्म होना असम्भव है ), तथापि अनलता (अ+नलता अर्थात् नलाभाव ही उसका कारण हुआ। [अग्निने यह सोचकर सन्ताप धारण किया कि-यदि मैं नल होता तब दमयन्ती मुझे ही वरण करती, अब मुझे नल नहीं होनेसे वह इस नलको वरण करेगी, अतः नलाभाव ही उस अग्निका सन्ताप-कारण हुआ. अग्निस्व नहीं ] // 63 // कामनीयकमधःकृतकामं काममक्षिभिरवेक्ष्य तदीयम् / कौशिकः स्वमखिलं परिपश्यन् मन्यते स्म खलु कौशिकमेव / / 64 // Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 265 कामनीयकमिति / कौशिक इन्द्रः, अधःकृतकामं निरस्कृतमइन, तदीयं नलीयं, कामनीयकं कमनीयत्षं सौन्दर्यम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वु' / कामं प्रकामा मचिभिः। सहस्त्रेणेति भावः / अवेचय, अथ स्वमात्मानमखिलं यथा तथा, साकल्ये. नेत्यर्थः / परिपश्यन् कौशिकमुलूकमेव / 'महेन्द्रगुग्गुलुलुकग्यालमाहिषु कौशिकः' इत्यमरः / मन्यते स्म खलु / नलस्यात्मनश्चैतावदन्तरमित्यमस्तेत्यर्थः। तथा चास्य भैमीनिराशं मनो बभूवेति भावः // 64 // कौशिक (इन्द्र ) ने कामदेवको तिरस्कत करनेवाली नलकी सुन्दरताको नेत्रों (सहस्रनेत्रों) से अच्छी तरह देखकर अपने को सर्वत्र अच्छी तरह देखते हुए कौशिक ( उल्लू) ही मानते थे / [ 'नलके सामने मैं उल्लू के समान ही हूँ' ऐसा इन्द्र समझते थे। कौशिकका कौशिक होना उचित ही है / सहस्र नेत्र होनेसे नलकी सुन्दरता तथा अपनेको अच्छी तरह देखकर इन्द्रका वैसा मानना भ्रमशून्य ही था ] // 64 // रामणीयकगुणाद्वयवादं मूर्तमुत्थितममुं परिभाव्य / विस्मयाय हृदयानि वितेरुस्तेन तेषु न सुराः प्रबभूवुः // 65 // रामणीयकेति / सुरा इन्द्रादयः, अमुं नलं, मूत मूर्तिमन्तम्, उस्थितमुत्पन्नं रामः णीयकं सौन्दर्य, कामनीयकवरिसद्धं तदेव गुणस्तस्थायमेकमेवेति वादं प्रवाद, परि. भाज्य निजगदेकसुन्दरं मरवेत्यर्थः / हृदयानि चित्तानि, विस्मयायाद्भतरसाय, वितेरुदंदुः / तेन दानेन, तेषु हृदयेषु विषये न प्रबभूवुः तेषां नेशिरे / दत्तद्ग्ये स्वस्वनिवृत्तेरिति भावः / विस्मयाकृष्टचित्ता बभूवुरिति परमार्थः // 65 // (इन्द्र आदि चारों ) देवोंने सौन्दर्यगुणक अद्वैतवादरूप उत्पन्न मूर्तिमान् इस ( नल) को विचारकर ( 'ऐसा सौन्दर्य संसारमें कहीं नहीं देखा या सुना' ऐसा विचारकर अपने अपने ) हृदयको आश्चर्य के लिये दान कर दिया अर्थात वे माश्चर्ययुक्त हो गये, उस कारण उन ( अपने अपने हृदय ) पर उनका अधिकार नहीं रहा अर्थात् हृदयशून्य होकर वे देव यह नहीं सोच सके कि 'अब हमें क्या करना चाहिये / [अन्य भी कोई व्यक्ति किसीको अपनी कोई वस्तु देकर फिर उसका अधिकारी नहीं रहता, अतएव अपने अपने हृदयको विस्मयके लिये दानकर ( समर्पित कर ) विचारक हृदयपर इनका अधिकार न रहनेसे उनका विचारशून्य होना उचित ही है। ] // 65 // प्रेयरूपकविशेषनिवेशैः संवदद्भिरमराः श्रुतपूर्वैः / एष एव स नलः किमितीदं मन्दमन्दमितरेतरमूचुः // 16 // प्रेयरूपकमिति / अमरा इन्द्रायः, श्रुतपूर्वः पूर्व श्रुतैः, 'सुप्सुपा' इति समासः। सम्प्रति, संवदद्भिः प्रत्यक्षसंवादं व्रजद्भिः, प्रियरूपस्य भावः श्रेयरूपकं सौन्दर्यम् / 20 नै० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 नैषधमहाकाव्यम् / मनोशादित्वाद् वुम / तस्य विशेषेषु तत्तदवयवेषु / 'विशेषोऽवयवे व्यक्त' इत्युत्पलमालायाम् / निवेशस्संस्थानेर्लिङ्गैः सः श्रुतपूर्वो नल एष एव किमिति हस्त. निर्देशः / इतीदं वाक्यं मन्दमन्दं मन्दप्रकारं, 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विर्भावः / इतरेतरमूचुः॥६६॥ (इन्द्र आदि चारों ) देव पहले ( लोगोंसे ) सुने गये (और इस समय ) आपसमें मिलते-जुलते हुए सुन्दर रूपकी अधिकता होनेसे वह नल यही है क्या ?' ऐसा आपस में धीरे धीरे करने लगे // 66 // तेषु तद्विधवधूवरणाहं भूषणं स समयः स रथाध्वा / तस्य कुण्डिनपुरं प्रतिसर्पन भूपतेर्व्यवसितानि शशंसुः / / 67 / / तेविति / तस्य भूपतेनलस्य, सा प्रसिद्धा विधा प्रकारः सौन्दर्याचसाधारण. धर्मो यस्यास्तस्यां वध्या बरणे अहमुचितं भूषणं, स समयः स्वयंवरकाल, कुण्डि. नपुरं प्रतिसन् , तदभिमुखः स रथावा च व्यवसितानि नळोद्योगान् तेषु तान. चिकृत्य शशंसुः तेभ्यः शशंसुरित्यर्थः / आधारस्वविवक्षायां सप्तमी / एतैर्लिङ्गैरेतस्य स्वयंवरयात्रेयमिति निधिक्युरित्यर्थः // 17 // उस प्रकारकी ( सर्वलोकप्रसिद्ध ) वधूको वरण करनेके योग्य भूषण, वह ( स्वयंवर. का) समय और कुण्डिनपुरको जानेवाले उस नलके रथका मार्ग, उस राजा नलके प्रयत्नोंको देवताओंसे बता दिया / [ नलके भूधण, स्वयंवरका समय तथा उधर जाते हुए उनके रथको देखकर देवताओंने समझ लिया कि नल स्वयंवर में हो जा रहे हैं ] // 6 // धर्मराजसलिलेशहुताशैः प्राणतां श्रितममुं जगतस्तैः। प्राप्य हृष्टचलविस्तृततापैश्चेतसा निभृतमेतदचिन्ति / / 68 // धर्मति / जगतः प्राणतां प्राणस्वं जगजीवनस्वं, सप्रियतां वा / शितममं नलं, प्रायासाच, हृष्टाः जगत्प्राणभूतपुरुशदर्शनारसन्तुष्टाः, चलास्तवावण्यदर्शनानेम्यां श्लथानुरागाः, विस्तृततापा रागशैथिल्यादेव विस्तृतविरहतापाश्च तैस्तथोक्तैस्तैः प्रतधर्मराजसलिलेशहुताशैः चेतसा, निभृतं निगूढम् / एतदनन्तरश्लोकत्रये वयमाणमचिन्ति चिन्तितम् / अत्र यमो हृष्टो वरुणश्चलो वहिर्विस्तृततापः, क्रमात्तत्प्रति. पावनपरश्योत्तरश्लोकत्रयमिति कैश्चिद्' व्याख्यातम् / तदयुक्तम् / न ह्येतेषामेते धर्माः प्रतिनियताः। किंतु, त्रयाणामेकाभिप्रायेणाप्येते धर्मास्साधारणा, अत एवोत्तरश्लोक त्रयमपि सर्वविषयम् / अत एवान्तरश्लोके 'ना' इति बहुवचनोपादानम् / यदपि तद. नन्तररलोकदये एकवचनोपादानम्, तदपि प्रत्येकाभिप्रायादविरुद्धम् / किञ्च, इत्य. 1. 'प्रकाश'व्याख्याकारै'नारायणरित्यवधेयम् / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 267 वेत्य मनसेस्याधुपसंहारश्लोके परस्परमुखदर्शनोक्त्या त्रयाणामेकाभिप्रायावगमाष अस्मदुक्कमेव युक्तमुत्पश्यामः // 6 // संसारके प्राणरूप ( सौन्दर्यादिसे प्राणवर प्रिय, अथवा-पाछनादिके द्वारा प्राणदानकर्ता, अथवा-श्वासवायुरूप ) नलको पाकर प्रसन्न, चञ्चल और अधिक सन्तापयुक्त धर्मराज ( यम ), वरुण तथा अग्निने चित्तमें गुप्त मावसे यह विचार किया-[अथवा-नलको जगतका उक्तरूप होनेसे यमादिको ऐसे सुन्दर व्यक्तिके देखनेसे हर्ष, 'हम स्वयंवर में अब सम्मिलित हों या नहीं यह विचार भानेसे चञ्चलता, और दमयन्ती इस नलको छोड़कर हमलोगों को नहीं वरण करेगी' इस विचारसे अधिक सन्ताप हुमा / अथवा-नलके संसारका प्राणरूप तथा धर्मराजका लोकप्राणका अपहरणकर्ता होनेसे हर्षित होना, जलरूप वरुणका प्राण अर्थात् जगत्प्राण नलरूप वायुको प्राप्तकर मेघ के समान बनल होना, और मग्निका जगत्प्राण नलरूप वायुको प्राप्त करनेसे सन्ताप बढ़ना (अधिक प्रज्वलित होना) युक्तियुक्त ही है अर्थात् नलको स्वयंवर में जाते देख यमको क्रोध, वरुणको पबढ़ाहट तथा अग्नि को अधिक सन्ताप हुआ और वे मनमें इस प्रकार सोचने लगे यहाँ क्रमशः यमका हर्षित, वरुणका चम्चल और अग्निका सन्तप्त होना नारायणसम्मत यह अर्थ मस्लिनाथको अमीष्ट नहीं है; परन्तु अपने मतके पुष्टयर्थ जो हेतु प्रदर्शित किये हैं, वे कहाँ तक युक्ति. युक्त हैं, यह विचारक विद्वान् ही विचार करें] // 68 // नैव नः प्रियतमोभयथासौ यद्यमुं न वृणुते वृणुते वा / एकतो हि धिगममगुणज्ञामन्यतः कथमदःप्रतिलम्भः // 6 // चिन्ताप्रकारमेवाह-नैवेत्यादिना श्लोकत्रयेण / असौ दमयन्ती, अमुं नलं यदि न वृणुते वृणुते वा / उभयथापि पक्षद्वयेऽपि नोऽस्माकं प्रियतमा न भवस्येव / कुतः हि यस्मादेकतः प्रथमपचे अगुणज्ञाम धिक् / तस्सनतेरसुखावहत्वादिति भावः / अन्यतो नलवरणपक्षे कथमदःप्रतिलम्मः अमुष्याः परिग्रहः। परदारवादिति भावः॥ - 'यदि यह दमयन्ती इस नलको नहीं वरण करती है, अथवा वरण करती है। दोनों प्रकारसे वह प्रियतमा नहीं होगी, क्योंकि प्रथम पक्षमें अर्थात् नलको नहीं वरण करती है तो गुगको नहीं पहचाननेवाली इस दमयन्तीको धिक्कार है (ऐसा गुणकी अनभिशा दमयन्तीको मैं वरणकर कोई आनन्द नहीं कर सकूँगा) तथा दूसरे पक्ष में अर्थात् यदि दमयन्ती नलको वरण करती है तब इस दमयन्तीकी प्राप्ति मुझे किस प्रकार होगी ? // 69 // मामुपैष्यति तदा यदि मत्तो वेद नेयमियदस्य महत्त्वम् / ईटशी न कथमाकलयित्री मद्विशेषमपरान्नृपपुत्री / / 70 / / मामिति / इयं दमयन्ती, इयदेतावदस्य नलस्य, मत्तो मस्सकाशान्महरवमा. धिक्यं, न वेद यदि, तदा मामुपैष्यति / तर्हि स्वदूतदेवस्वाास्कर्षज्ञानास्वामेव वरि. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 नैषधमहाकाव्यम्। प्यतीत्यत माह-ईशीति / ईडशी सर्वापरोचनलगतविशेषानभिज्ञा नृपपुत्री अप. रादपरस्माशलादित्यर्थः / 'पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा' इति विकल्पास स्मादादेशः। मद्विशेष मदीयोत्कर्ष च कथमाकलयित्री ज्ञात्री / तृसन्तादीकारः / 'न लोक-' इत्या. दिना षष्ठीप्रतिषेधः // 7 // ____ यदि यह दमयन्ती इस नल के इस महत्वको नहीं जानती है, तब मुझे वरण करेगी। (किन्तु ) ऐसी ( विशेष गुणों को नहीं जाननेवाली ) राजकुमारी दमयन्ती अन्य राजाओंसे मेरी विशिष्टताको कैसे समझेगी ? [ यदि दमयन्ती मुझसे उत्कृष्ट गुणोंवाले नलको नहीं वरण करेगी, तो अन्य राजाओंसे उत्कृष्ट गुणवाले मुझे वरण करेगी? इसकी क्या माशा की जाय 1 अर्थात दमयन्तीको पाना अब असम्भव सा मालूम होता है ] // 70 // नैषधे बत वृते दमयन्त्या ब्रीडितो हि न बहिर्भवितास्मि | स्वां गृहेऽपि वनितां कथमास्यं ह्रीनिमीलि खलु दर्शयिताहे // 71 // नैवष इति / किंध, दमयन्या नैषधे नले, वृते सति, ब्रीडितः सन् बहिस्तावन भवितास्मि हि / बहिः कापि जनसमक्ष स्थातुं न शपयामीत्यर्थः / भवतेर्लुट / बतेति खेदे / गृहेऽपि, स्वां वनितां भायाँ, हिया निमीलति संकुचतीति हीनिमीलि / णिनिप्रत्ययः / स्यं कथं खलु दर्शयिताहे दर्शयिष्यामि / शेय॑न्तारकर्तरि लुट / 'अमि. वादिरशोरात्मनेपदे वेति वाच्यम्' इत्यणि का वनितायाः वैकल्पिकं कर्मत्वम् / अत्र गेरणादिसूत्रस्थयग्रहणसामर्थ्यलब्धाश्रयमाणकर्मस्वाभावेन तदविषयस्वात 'णिय' इत्यात्मनेपदमिति केचित् / अणिकर्तृकर्मश्रवणेऽपि तदतिरिक्तकश्रिवणादश्रयमाणकर्मस्वमस्त्येवेति प्रेरणादिसूत्रविषयश्वमेवेति भाष्यकारः। तदेतत्सम्य. ग्विवेचितमस्माभिः किरातार्जुनीयम्यास्याने घण्टापथे 'स सन्ततं बर्शयते गत. स्मयः' इत्यत्र // 71 // दमयन्तीके द्वारा मलको वरण करनेपर छज्जित मैं बाहर नहीं होऊंगा और लज्जासे सङ्कोचयुक्त भपमा मुख घरमें अपनी स्त्रीको भी कैसे दिखलाऊंगा ? // 71 // इत्यवेत्य मनसात्मविधेयं किञ्चन त्रिविबुधी बुबुधे न / नागनायकमपास्य तमेकं सा स्म पश्यति परस्परमास्यम् // 72 // इतीति / त्रयाणां विबुधानां समाहारस्त्रिविबुधी यमादिदेवत्रयम्, इति पूर्वश्लो. कत्रयोकप्रकारेण / मनसाऽवेत्यालोक्य, किञ्च नात्मविधेयं स्वकर्तव्यं न बुबुधे न वि. वेद / किश, सा त्रिविबुधी, तमेकं नाकनायकमिन्द्रमपास्य अपवार्य परस्परमास्यं पश्यति स्म / इतिकर्तग्यतामढायोऽपि केवलमन्योन्यमुखान्यपश्यनित्यर्थः // 72 // इस प्रकार ( श्लो० 69-71 ) तीनों देवों ( यम, वरुण तथा अग्नि ) ने मनमें विचार Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 266 कर अपना कर्तव्य नहीं समझा। (पाठभेदसे-इस प्रकार तीनों देवोंने मनमें अपना विशेष अर्यात नकसे अपने सौन्दर्यादिमें कमी समझकर ( क्या करना चाहिये, क्या नहीं) कुछ भी नहीं समझा / ( किन्तु ) एक उस स्वर्गाधिपति इन्द्रको छोड़कर वे तीनों एक दूसरे का मुख देखते रहे ( अथवा-एक उस स्वर्गाधिपति इन्द्र को छोड़ इस प्रकार मनमें विचार कर उन तीनोंने अपना कर्तव्य नहीं समझा, किन्तु परस्पर में एक दूसरे का मुख देखते रहे / वे तीनों किंकर्तव्यमूढ होकर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे) // 72 // किं विधेयमधुनेति विमुग्धं स्वानुगाननमवेक्ष्य ऋभुक्षाः / शंसति स्म कपटे पटुरुच्चैर्वञ्चनं समभिलष्य नलस्य / / 73 / / किमिति / कपटे परवाने, पटुः, ऋभुशा इन्द्रः। अधुना किं विधेयमिति विमु ग्यमितिकर्तव्यतामूढम / स्वस्थानुगानामनुयाथियां यमादीनामाननमवेचय तेषां दैन्यं हष्टवेत्यर्थः / नलस्य वचनं समभिलष्य अभिसन्धाय, उच्चैः शंसति स्म जगार // 73 // ____कपट करने में बहुत चतुर इन्द्र 'इस समय क्या करना चाहिये' इस विषयमें ज्ञानशून्य अपने अनुगामियों ( यम, वरुण तथा अग्निरूप साथियों ) को देखकर नलको वञ्चित करने का लक्ष्यकर कहने लगे-[अन्य भी कोई धूतं मनुष्य अपने साथियों को कर्तव्यमें मोहित जानकर उनको छोड़कर किसी प्रकार केवल अपना कार्य सिद्ध करना चाहता है ] // 73 / / सर्वतः कुशलभागसि कञ्चित्वं स नैषध इति प्रतिभा नः / स्वासनार्धसुहदस्तव रेखां वीरसेननृपतेरिव विदमः / / 74 / / सर्वत इति / सर्वतः सप्तस्वङ्गेषु, कुशलभागसि कचित् / 'कश्चित् कामप्रवेदने' इत्यमरः / न च स्वां न वेद्मीरयाह-वं स प्रसिद्धो नैषधः नल इति नोऽस्माकं, प्रतिभा प्रतीतिः / कुतस्तव, रेखामाकृति, स्वासनार्धसुहृदो ममार्धासनभाजो, वीर. सेननृपतेरिव तरसरशी विनः तत्साहश्यात्तरपुत्रो नलस्त्वमिति प्रतीम इत्यर्थः // 7 // 'तुम सब प्रकार (अपने सप्ताङ्ग राज्यादि, अथवा शरीरादिके विषय में ) कुशलयुक्त तो हो न 1 / 'तुम वह (लोक-प्रसिद्ध ) नैषध (निषषपति नक) हो' यह हम लोगों का अनुमान है। ( हमलोग ) अपने ( इन्द्र के ) आधे भासन के ( ऊपर बैठनेसे ) मित्र वोरसेन राजाके तुल्य लक्षण तुममें देखते हैं। [ एक दीपकसे जलाये गये दूसरे दीपकके समान पिताकी आकृति पुत्रमें होनेसे तुम्हारे पिता जो वीरसेन राजा स्वर्गमें मेरे साथ आधे भासनपर बैठनेसे मित्र थे, उनके लक्षण तुम्हारे में दीख पड़ते हैं, अतः मित्रपुत्र हानेके कारण अपरिचित मी तुमसे कुशन-पूछना अनुचित या माश्चर्यकारक नहीं है ] / / 74 // क्व प्रयास्यसि नलेत्यलमुक्त्वा यात्रयात्र शुभयाजान यन्नः / तत्तयैव फलसत्वरया त्वं नावनोमिदमार्गामतः किम् / / 5 / / Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 नैषधमहाकाव्यम् / क्वेति / हे नक, क प्रयास्यसीस्युक्त्वा पृष्ट्वा अलं, न प्रष्टण्यमित्यर्थः / 'अलं. खश्वोः' इत्यादिना बरवाप्रत्ययः। कुतः, यद्यस्मान्नोऽस्माकमन्त्र यात्रया इहागमा नेन, शुभया स्वदर्शनेन सफलया, अजन्यभावि / भावे लुछ। तत्तस्मात् , फलेन सस्वरया फलार्थिन्या तया, यात्रयैव का, स्वमिदमवनोऽर्धमधमार्गमागमितो न किम् ? / अस्मपथमेवेदं तवागमनमित्यर्थः // 75 // 'हे नल ! कहा जावोगे' यह कहना निरर्थक है, क्योंकि हमलोगोंकी यहांपर (इस मार्गमें या इस कार्यारम्भमें ) यात्रा शुभ हो गयी। सो तुम्हें फलमें शीघ्रता करनेवाली अर्थात् शीघ्र सफल होनेवाली इस यात्राने ही यहां आधे रास्तेमें नहीं ला दिया हैं क्या ? [ तुम्हारी सहायता शीघ्र सफल होनेवाली हमलोगोंकी यात्राने ही हमारा सहायक बननेके लिए यहां बीच रास्तेमें तुम्हें ला दिया है, इससे 'कहां जावोगे ?' यह पूछना व्यर्थ है। कौकिक व्यवहार के अनुसार भी कहीं जाते रहनेपर 'कहाँ जावोगे' इस प्रकार पृछना अशुभ माना जाता है ] // 75 // एष नैषध ! स दण्डभृदेष ज्वालजालजटिलः स हुताशः / यादसां स पतिरेष च शेषं शासितारमवगच्छ सुराणाम् / / 76 / / के यूयमत आह-एष इति / हे नैषध ! नल ! एष इति पुरोवतिनो हस्तेन निर्देशः। स प्रसिदो दण्डभृयमः, एष ज्वालजालैजरिलो बटावान् / ज्वालामालाकु. लीत्यर्थः / वयोवालकीलो' इत्यमरः / पिच्छादिस्वादिल / स हुताशोऽग्निः, एष च सपादसा पतिवरुणः, शेषं शिष्टं स्वमित्यर्थः / सुराणां शासितारम् अवगच्छ देवेन्द्रं विदि // 76 // हे नल ! यह दण्डधारी ( यम ) है, ज्वाला- समूहरूप जटाको धारण किए हुए ये अग्नि हैं, ये जलाधीश ( वरुण ) हैं और शेष ( मुझे ) देवतामोंका शासक अर्थात् देवराज इन्द्र समझो। ['दण्डभृत्' भादि विशेषण उनके प्रति भादराधिक्य दिखाने या इनकी माझा अनुबानीय है' यह नलको संकेत करने के लिये है, साथ ही अपने को सा देवोंका मी शासक बतलाकर इन्द्रने 'मेरी आशा विशेष रूपसे मनुल्लङ्घनीय है, अतः मैं भविष्य में बो दूत कार्य करनेको कहूँ, उसे तुम्हें अवश्य स्वीकार करना चाहिए। अन्यथा तुम्हें दण्ड भोगना पड़ेगा, क्योंकि नो देवोंका शासक है, उसे मनुष्यका शासन करना अत्यन्त सरक है' इस बातको भोर नलको संकेत किया है ] // 76 // अर्थिनो वयममी समुपैमस्त्वां किलेति फलितार्थमवेहि | अध्वनः क्षणमपास्य च खेदं कुर्महे भवति कार्यनिवेदम् // 7 // अर्थिन इति / हे नल ! अमी वयमर्थिनः सन्तस्या समुपैमः किल प्राप्नुमः खलु। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः समुपपूर्वादिणो लटि मस। इति फलितार्थमवेहि विधि।. पणमध्वनः खेदमपास्य अध्यक्षम नीत्वा भवति स्वयि कार्यनिवेदं कार्यविशेषनिवेदनम् / विदेण्यन्ताइम्प्रत्ययः / कुर्महे // 77 // संक्षेपमें फलितार्थ कथन यह है कि 'ये हमलोग याचक होकर तुम्हारे पास भा रहे हैं। कुछ समय तक रास्तेको थकावट दूरकर (थोड़ी देर मुस्ताकर ) आपसे हमलोग अपने कार्यकी प्रार्थना करेंगे' // 77 // ईदृशीं गिरमुदीर्य बिडौजा जोषमाप न विशिष्य बभाषे / नात्र चित्रमभिधाकुशलत्वे शैशवावधि गुरुर्गुरुरस्य // 78 // ईशामिति / विडोजाः इन्द्रः, ईदृशी सामान्यनिर्विष्टां, गिरमुवीर्य जोर्ष मौन. माप / 'तूष्णीं जोषं भवेन्मौनम्' इति हलायुधः। विशिष्य विविध्य, न बभाषे विशेषं नाचष्टेश्यर्थः, अत्रास्मिाभिधाकुशलरवे उतिचातुर्य, चित्रं विस्मयो न / कुतः, अस्येन्द्रस्य शैशवमवधिर्यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा तदारम्येत्यर्थः / गुरुरा. चार्यों गुरुबृहस्पतिः / वाचस्पतिशिष्यस्य वाग्मिावं किं चित्रमित्यर्थः। 'गुरुर्गीपति. पित्रादौ' इति वैजयन्ती // 70 // ऐसा वचन (श्लो० 74-77 ) कहकर इन्द्र चुप हो गये, विशेष रूपसे ('दमयन्ती के लिये मेरा दूत बनों इस प्रकार स्पष्ट रूपसे) नहीं कहे। (इन्द्रके) इस प्रकार कहने की चतुरतामें कोई आश्चर्य नहीं है, जिसके शिक्षक बचपनसे हो बृहस्पति है // 78 // अथिनामहृषिताखिललोमा स्वं नृपः स्फुटकदम्बकदम्बम् / अर्चनार्थमिव तच्चरणानां स प्रणामकरणादुपनिन्ये // 6 // अर्थीति / अधिनाम्ना अर्थिनामश्रवणेन, हृषिताखिललोमा रोमानिततनुः, 'होमसु' इति वैकल्पिक इडागमः / नृपः, स्वमात्मानं, तचरणानामर्चनार्थ स्फुटकदम्बकदम्बं विकसितनीपकुसुमवृन्दमिवेत्युस्प्रेक्षा। प्रणामकरणात्तयाजादुपनिन्ये समर्पयामास॥७९॥ __'अर्थी' अर्थात् इन्द्रादि याचकों के नाम ( अथवा-'याचक' इस शब्द ) से रोम-रोममें हर्षित नलने हर्षसे खिले हुए कदम्ब-समूहके समान अपनेको मानो उनकी पूजा करनेके लिये प्रणाम करनेसे चरणोंको समर्पण कर दिया। [ 'अर्थी' का नाम सुनकर हर्षसे नक विकसित कदमके समान रोमानित हो गये। फिर जैसे कोई देवतामोंके चरणों में पुष्प समर्पण कर उनकी पूजा करता है वैसे ही पुष्पित कदम-समूहके समान अपने शरीरको साष्टाङ्ग दण्डवत करनेसे उनके चरणोंपर रख दिया ] // 79 // Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 नैषधमहाकाव्यम् / दुर्लभं दिगधिपैः किममीभिस्तादृशं कथमहो मदधीनम् | ईदृशं मनसिकृत्य विरोधं नैषधेन समशायि चिराय // 50 // दुर्लभमिति / दिगधिपैरमीभिरिन्द्रादिभिः, दुर्लभं किं तादृशं दुर्लभ वस्तु कथं मदधीनं मदायत्तम्, अहो, ईशं विरोध मनसिकृत्य निधाय / 'अनत्याधान उरलि. मनसी' इति गतिसंज्ञापने 'कुगतिप्रादयः' इति समासे वो ल्यबादेशः / नैषधेन नलेन, चिराय चिरं समशायि संशयितम् / विद्यारितमित्यर्थः / भावे लुङ् // 8 // ('मेरे याचक बननेवाले ) इन दिक्पालों को क्या दुर्लभ है ? अर्थात् कुछ नहीं, (क्योंकि अपने प्रमावसे या स्वर्गस्थ कल्पवृक्षादिके द्वारा सब कुछ इनको सुझम ही है ) और वैसी (इन देवताओंसे दुर्लभ ) वस्तु मेरे अधीन कैसे है ?' ऐसी विरुद्ध बातों को मनमें रखकर बहुत देर तक नक संशय में पड़े रहे // 80 // जीवितावधि वनीपकमात्रैर्याच्यमानमखिलैः सुलभं यत् / अथिने परिवृढाय सुराणां किं वितीय 'परितुष्यतु चेतः / / 81 // विचारप्रकारमेवाह द्वादशरलोक्या-जीवितेत्यादि / यद्यस्मादखिलैवनीपकमा. त्रैय कैरिधाचकैः। 'वनीपको याचनको मार्गणो याचकार्थिनी' इत्यमरः। जीवि. तावधि प्राणपर्यन्तं, याच्यमानं वस्तु सुलभम् / सुराणां परिवृढाय प्रभवे अर्थिने, किं वस्तु वितीयं दवा, चेतः परितुष्यतु सन्तुष्येत् / प्राणान्तं वस्तु सर्वार्थिसाधा. रणं ततोऽधिकमिन्द्राय देयं किमस्तीति विचारितमित्यर्थः / वितरणे चेतसः कर्तृत्व विवचया वितरणपरितोषयोः समानकर्तृकत्वसिद्धिः // 8 // ___ बासप याचकों को मांगे गये ( मेरे ) प्राणतक सुलम है ( योग्य एवं अयोग्य पात्रका बिना विचार किये ही में सामान्य याचकों को भी सरलतासे अपने प्राण भी दे सकता हूँ) तब याचक देवराज (इन्द्र ) के लिये क्या (पाणोंसे भी अधिक कौन-सा पदार्थ ) देकर (मेरा) चित्त सन्तुष्ट होवे ? [ संसारमें जीवन ही सर्वश्रेष्ठ पदार्थ माना गया है, उसे बब मैं सामान्य याचकको भी अनायास ही दे सकता हूँ, तब अत्यन्त उत्तम पात्र याचक देवराज इन्द्र के लिये प्राणोंसे भी उत्तम वस्तु देना उचित है, किन्तु प्राणाधिक कोई वस्तु देने योग्य नहीं दीख पड़नेसे नल संशयमें पड़े रहे ] // 81 // भीमजा च हृदि मे परमास्ते जीवितादपि धनादपि गुर्वी / न स्वमेव मम सार्हति यस्याः षोडशीमपि कलां किल नोर्वी / / 2 / / नन्वस्ति लोकोत्तरं वस्तु भैमी, सा दीयतामित्यत आह-भीमजेति / उर्वी भूषस्या भैम्याः षोडशीमपि कलां नार्हति षोडशाशसाग्यमपि न प्राप्नोतीत्यर्थः। 1. 'मम तुष्यतु' इति पाठान्तरम् / Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 303 अत एव धनादपि / किंबहुना, जीवितादपि गुर्वी अधिका सा भीमजा दमयन्ती च। मे हदि हृदये, परं सम्यगास्ते / किंतु मम स्वमेव न भवति / अद्याप्यस्थकरणा. दस्वत्यादेयत्वात् / स्वरवेऽपि देयं दारसुताहसे' इति दाराणां दाननिषेधाच विचा. रस्तदवस्थ एवेति भावः // 82 // धन तथा मेरे प्राणोंसे भी श्रेष्ठ भीमकुमारी दमयन्ती केवल मेरे हृदय में है (वाहरमें नहीं है तथा बाहरसे स्थित वस्तुको ही किसी के लिये दिया जा सकता है, अथ च ) पृथ्वी(विशालतम ) भी जिसके सोलहवें भागके (रुपये में एक आना) भी योग्य नहीं, वह दम. यन्ती मेरा धन नहीं है [ वह दमयन्ती मेरे हृदयमें बसी हुई है, किन्तु विधिवत् पिताके द्वारा कन्यादान ( या उसके द्वारा स्वयंवरण) न करनेतक उसपर मेरा अधिकार नहीं है, अपने अधिकारकी वस्तुको ही कोई किसीके लिये दे सकता है, अधिकारसे बाहरकी वस्तुको नहीं / अथवा-जिस दमयन्तीके सोलहवें भागके योग्य मेरा स्वरूप ही नहीं है, फिर सम्पूर्ण पृथ्वी कैसे होगी 1 अथवा-मेरे जीवन तथा पृथ्वीरूप पनसे भी अधिक वह दमयन्ती मेरे हृदयमें ही रहती है, अत एव तथा स्त्री. पुत्रके दानका शास्त्रीय निषेध होनेते उसे नहीं दिया जा सकेगा-इन्द्र उसे नहीं पा सकते ] // 82 // मीयतां कथमभीप्सितमेषां दीयतां द्रुतमयाचितमेव / तं धिगस्तु कलयन्नपि वाञ्छामर्थिवागवसरं सहते यः // 3 // पुनर्विचारमेवाह-मीयतामिति / एषामभीप्सितं वस्तु कथं मीयतां ज्ञायेत / ज्ञानस्योपयोगमाह-अयाचितं यथा तथा द्रतं कथं दीयताम, दासब्यमित्यर्थः। तर्हि, अर्थिवाचैव विज्ञाय दीयतामित्यत आह-यो दाता वान्छामर्थ्याकांक्षां कलयन् जानन्नपि / भर्थिवागवसरं सहते यात्राकालं प्रतीक्षते, तं दातारं धिगस्तु / स गई इत्यर्थः // 83 // इन (इन्द्रादि ) का इष्ट कैसे जाना जाय ? ( या बिना माने हो) शीघ्र दे दिया जाय ('' के स्थानपर 'कथं पाठ ठीक है, उसी पाठमें 'विना बाने कैसे दे दिया जाय ? यह अर्थ प्रकरणसंमत होता है ) / याचकों की इच्छा ( 'यह मुझसे मांगना चाहता है। ऐसी इच्छा ) को जानता हुआ भी जो 'दाता' याचकके कहनेकी प्रतीक्षा करता है, उस दाताको धिक्कार है / [ श्रेष्ठ दातालोग 'याचक मुझसे मुंह खोलकर किसी वस्तुको मांगे, तब मैं उसको दूगा' ऐसा नहीं करते, किन्तु 'यह मुझसे मांगना चाहता है। इतना ही मानकर उसके लिये अपरिमित दान दे देते हैं, क्योंकि वे याचकके याचनाजन्य दोन वचनको सुनना पसन्द नहीं करते ] // 83 // 1. 'कथ-' इति पाठान्तरम् / Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 नैषधमहाकाव्यम् / प्रापितेन चटुकाकुविडम्बं लम्भितेन बहुयाचनलज्जाम् | अर्थिना यदघमीत दाता तन्न लुम्पति विलम्ब्य ददानः॥८४॥ शीघ्राप्रदाने दोषमाह-प्रापितेनेति / चटुकाकुभ्यां चटूकिकाकुयोगाभ्यां कर• णाभ्यां, विडम्बं विडम्बना हास्यत्वं, प्रापितेन, दात्रेति शेषः / बह्वधिकं, यथा तथा याचनेन देहीति वादेन, लज्जा लम्भितेन प्रापितेन, अत्रापि दात्रेति शेषः / आर्थिना करणभूतेन, उक्तरूपेणार्थिपीटनेनेत्यर्थः। यदघं पापमर्जति सम्पादयति, विलम्ब्य ददानो दाता, तबधं न लुम्पति न विहन्ति / तस्य पापस्य प्रायश्चित्तमपि नास्तीत्यर्थः // 84 // विलम्बसे दान देने वाला दाता चाटु ( 'मुझे कुछ दान दीजिये' इस प्रकार बार बार कहना अथवा-प्रियभाषण यथा-'आप बड़े धर्मात्मा हैं, दानी हैं। इत्यादि वचन ) यथा काकु ( दीनतापूर्ण वचन, यथा-'आप कृपापूर्वक मुझे कुछ देवें, मैं बहुत निर्धन एवं दुखित हूँ' इत्यादि वचन ) से हास्यपात्रता (या परामव) को प्राप्त करानेवाला और बहुत याचना करनेसे लज्जाको प्राप्त करानेवाला ( दाता ) याचकके द्वारा ( या याचकके कारणसे ) जिस पापको प्राप्त करता है, उसे ( दान के द्वारा) दूर नहीं करता (दान करनेसे उस पापका प्रायश्चित्त नहीं होता)। [ 'प्रकाश'-टीकाकारने-तृतीयान्त पदोंको भीं का विशेषण मानकर-चाटु तथा दोन वचन कहनेसे पराभूत तथा अनेक बार याचना करनेसे लज्जित दाता अर्थीसे जो पापार्जन करता है उस पापको दूर नहीं करता है। विलम्बसे दानको देनेवाला पुण्यार्जनके स्थानपर पापार्जन करता है। अतः शीघ्रातिशीघ्र दान करना ही श्रेयस्कर है ] // 84 // यत्प्रदेयम्पनीय वदान्यैर्दीयते सलिलमथिजनाय / याचनोक्तिविफलत्वविशङ्कात्रीसमूर्छन चकित्सितमेतत् // 5 // पदिति / वदान्यतृभिः, प्रदेयं देयद्रग्यमुपनीयार्थिजमाय सलिलं दीयत इति यत / एतरसलिलदानं याचनोकिविफष्ठत्वविशया देहीति पादवैफल्यशष्या त्रासो भयं तेन यन्मूर्छनं तस्य चिकित्सितमित्युस्प्रेक्षा। अन्यथा किमयं तस्सलिलदान. मिति भावः // 85 // दान योग्य वस्तुको ( याचकके ) समीप लाकर दान करनेवाला जो याचक के लिये ( उसके हाथपर सङ्कल्पका ) जल देता है, वह ( जलदान कार्य ) याचनाकी उक्तिके निष्फल होनेकी शंकासे उत्पन्न भयसे होनेवालो मूछोंको चिकित्सा है। ( पाठभेद-प्रार्थना या वह याचना) की उक्तिको निष्फलताको शंकासे बढ़नेवाली अकाल मृत्युको चिकित्सा है ) / [मूर्छा मानेवाले व्यक्तिपर पानी छिड़ककर जिस प्रकार उसकी मूर्छाकी चिकित्साकर 1. 'त्रासमूच्छंदपमृत्युचिकित्सा' इति पाठान्तरम् / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 305 मूख दूर करते हैं, उसी प्रकार हमारा मांगना व्यर्थ न होवे' इस प्रकारके सन्देहसे उत्पन्न भयसे आनेवाली मूच्छ की चिकित्सा दान देते समय याचकके हायपर दिया गया संकल्प का जल होता है / अर्थात् उस सङ्कल्पजलके हाथमें आते ही याचकको अपनी याचनाकी सफलता होनेसे संशय दूर हो जाता है ] // 85 // अर्थिने न तृणवद्धनमात्रं किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवजलदायी द्रव्यदानविधिरुक्तिविदग्धः / / 86 // अर्थिन इति / कुशवतो जलस्य दायो दानम् / ददातेघज / युगागमः / स प्रतिपाचत या अस्मिन्विधावस्तीति कुशवज्जलदायी सकुशजलदानप्रतिपादक इत्यर्थः / अत एवोकिविदग्धः / अभिधाग्यापारमन्तरेणार्थादेवार्थान्तरप्रतिपादनचतुर. इत्यर्थः / द्रग्यदानविधिर्धनदायकशाखमेवमाह। किमिति अथिने धनमान धनमेव / 'मानं कारस्न्येऽवधारणे' इत्यमरः / तृणवत्तणमिव न प्रतिपाद्यं न देयम् / किंतु जीव. नमपि जीवितमपि तथा देयमिति / सकुशं जलं देयमिति च गम्यते / अध्यनपेक्षि. तकुशजलदानं विदधतो द्रव्यदानविधेरयमेवाभिप्राय इति भावः // 86 // पवित्र कुशके साथ संकल्पजलको दिगनेवाली, बोध कराने में चतुर वस्तुको दान कराने की विधि अर्थात शास्त्रीय विधान, 'याचकके लिये तृणके समान धनको ही नहीं, अपितु प्राणों को भी देना चाहिये' ऐसा कहती है / ['कुशवत्सलिलोपेतं दानं सङ्कल्पपूर्वकम्' ( कुश तथा जलसे युक्त सङ्कल्पपूर्वक दान करे ) इस शास्त्रीय वचनमें पवित्र कुशाके साथ जल देकर दान करने का विधान है, अतः इस शास्त्रीय वचनका यह भाशय है कि-दाता जिस प्रकार तृणवत् (तृणके समान, पक्षान्तरमें-तृणयुक्त) धनको तुच्छ समझकर याचकके लिये देता है, उसी प्रकार जीवन (प्राण, पक्षान्तरमें-सङ्कल्पजल ) मी याचकके लिये देना चाहिये अर्थात याचकके लिये तृणवत् ( कुशायुक्त ) जसको ( पक्षान्तरमें-तृगके समान प्राणोंको ) मी देना चाहिये ] // 86 // पङ्कसङ्करविगर्हितमहं न श्रियः कमलमाश्रयणाय | अर्थिवाणिकमलं विमलं तद्वासवेश्म विदधीत सुधीस्तु // 87 // पङ्केति / पकः पापं कदमश्च / 'पलोऽस्त्री कर्दमैनसोः' इति वैजयन्ती / तत्सरेण विगर्हितं, कमलं श्रियः भाश्रयणाय नाहम् / तत्तस्मारसुधीविमलं निष्पकमाथिमाणि. कमलं तद्वासवेश्म लचमीनिवासस्थानं, विधीत / सर्वथा धनं पात्रपाणिष्वेव निक्षे. प्सम्यम् / न तु भूमाविति भावः / 87 // ___ कीचड़ ( पक्षान्तरमें-पाप ) के संसर्गसे दृषित ( पक्षान्तर में-निन्दित ) कमल लक्ष्मी ( पक्षान्तरमें-सम्पत्ति ) का भाश्रय अर्थात् निवासस्थान नहीं है, अत एव विद्वान् (दाता) निर्मल ( पक्षान्तरमें-सुपात्र होनेसे अनिन्दित ) याचकके इस्तकमलको उस Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 नैषधमहाकाव्यम् / लक्ष्मी ( पक्षान्तरमें-सम्पत्ति ) के रहनेका घर बनावे / [ 'लक्ष्मीका वासस्थान कमल है। यह शास्त्रवचन जलाशयसे उत्पन्न कीचड़युक्त मलिन कमलको लक्ष्मीका वासस्थान नहीं बतलाया, किन्तु सत्पात्र होनेसे अनिन्दित याचकके करकमलको लक्ष्मीका वासस्थान बतलाता है अतः विद्वान्को अपना धन मी सत्पात्रके करकमलमें देना चाहिये / कोई सामान्य भी व्यक्ति कीचड़से युक्त स्थानको अपना वासस्थान बनाना पसन्द नहीं करता, तो लक्ष्मी को कीचड़युक्त कमल क्यों पसन्द होगा 1 अर्थात् कदापि नहीं होगा ] // 87 / / याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य | तेन भूमिरतिभारवतीयं न द्रुमैर्न गिरिभिर्न समुद्रैः // 8 // याचमानेति / यस्य धनिनो जन्म याचमानजनमानसवृत्तेरर्थिजनमनोरयस्य पूरणाय न भवति / बतेति खेदे। तेनैकेनैव पापीयसा / इयं भूमिरतिभारवती। न द्रमादिमिबहुभिरपीत्यर्थः / तेभ्यः प्रजानां बहुपकारलामादिति भावः // 88 // जिसका जन्म याचना करते हुए मनुष्यके मनोरथको पूर्ण करने के लिये नहीं है, खेद है कि एक उसीसे यह पृथ्वी मारवाली है; वृक्षोंसे नहीं, पहाड़ोंसे नहीं और समुद्रोंसे नहीं। [ क्योंकि जड़ होते हुए भी वे वृक्षादि फल-फूल, धातु-औषध तथा रत्न आदि के द्वारा दान देते ही हैं। मनुष्यको अपना जन्म दान देकर सफल बनाना चाहिये ] // 88 // मा धनानि कृपणः खलु जीवन तृष्णयार्पयतु जातु परस्मै / तत्र नैष कुरुते मम चित्रं यत्त नार्पयति तानि मृतोऽपि / / 86 // मेति / कृपणः कष्टलुब्धो, जीवन प्राणन् , तृष्णया अतिगर्धनेन, जातु कदापि, परस्मै याचमानाय धनानि, ना (मा) पयतु न प्रयच्छत / एष कृपणस्तत्र जीवनपणानपंणे, मम चित्रं विस्मयं न कुरुते / किंतु, मृतोऽपि तानि धनानि, नार्पयति प्रयच्छतीति यसत्र चित्रं कुरुते विरोधात् / नापाणि नृपसम्बन्धीनि कुरुत इति तदा भासीकरणाविरोधाभासोऽलकारः // 89 // कृपण भीते-जी लोमसे धनको कमी किसीके लिये भले नहीं दे, उसमें मुझे आश्चर्य नहीं होता, किन्तु मरकर भी उस धनको जो नहीं देता है (पक्षान्तरमें-राजाके अधीन करता है ) यह आश्चर्य है। [यहाँपर 'नहीं देता है। इस पक्षमें मरने के बाद नहीं देनेसे आश्चर्य होना विरोध है, क्योंकि मरनेपर कुछ भी वस्तु किसीको दे सकना अशक्य हैं, 'राजाके अधीन कर देता है (मरनेपर शास्त्रीय वचनानुसार राजा उसकी सम्पत्तिको अपने अधीन कर लेता है ) यह विरोधका परिहार है / अथवा-जो जीता हुआ किसी को नहीं देता, वह मरनेपर राजाके लिये दे देता है, यह आश्चर्य है / जब मरनेपर लोमसे संचित धनको राजा ले ही लेता है और उससे कोई पुण्य या मात्मस्वार्थकी सिद्धि भी नहीं होती, तब जीते ही लोम छोड़कर मनुष्यको दान करना चाहिये ] // 89 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 पञ्चमः सर्गः माममीभिरिह याचितवद्भिर्दातृजातमवमत्य जगत्याम् / यद्यशो मयि निवेशितमेतन्निष्क्रयोऽस्तु कतमस्तु तदीयः // 10 // मामिति / जगत्यां भुवि भुवने वा। 'जगती भुवने भूभ्याम्' इति विश्वः / दातृ. जातमवमस्यावधीय, मां याचितवद्भिरमीभिर्देवैर्यधशो मयि निवेशितं स्थापितम, एतनिष्क्रयः एतस्य यशसो निक्रयः प्रतिनिधिभूतः। कतमस्तु पदार्थस्तदीयोऽस्तु इन्द्रादिसम्बन्धी स्यात् / किं वितीर्य अनृणो भविष्यामीत्यर्थः // 9 // . इस संसार में अन्य दाताओं के समुदायको छोड़कर मुझसे याचना करनेवाले इन्होंने (इन्द्रादिने ) मेरे जिस यशको स्थापित किया है ( अथवा-कल्पवृक्ष आदिके रहते उनको छोड़कर इस लोकमें मेरे जिस यशको स्थापित किया है ), उसका बदला (देने के योग्य) कौन वस्तु हो ? [ 'भूमिस्थ अन्यान्य दाताओं को या स्वर्गस्थ कल्पवृक्ष आदिको छोड़कर कहीं कभी नहीं याचना करनेवाले इन्द्रादिने भी नलसे याचना की थी' इस प्रकार जो मेरे अत्यन्त श्रेष्ठ यशको स्थापित किया है, उसका बदला चुकानेके लिये कोई वस्तु नहीं दीखती, जिसे देकर मैं इनसे ऋणमुक्त होऊँ / अधिक देना तो दूर रहा, याचना करने पर भी इनके द्वारा स्थापित महान् यशका बदला चुकाना ही मेरे लिये अशक्य प्रतीत हो रहा है ] // 90 // लोक एष परलोकमुपेता हा विहाय निधने धनमे कः / इत्यमुं खलु यदस्य निनीषत्यर्थिवन्धुरुदयद्दचित्तः // 11 // लोक इति / एष लोको जनः, हा कष्टं, निधने अन्त्यकाले, धनं विहाय, एकः एकाकी, परलोकमुपेता उपैष्यति / इणो लुट / इति हेतोरुश्ययमुघरकृपश्चित्तं यस्य सोऽध्यव, बन्धुरस्य लोकस्य, तद्धनम् अमं परलोकं, निनीषति नेतुमिच्छति खलु / अन्ये तु बन्धवा स्वयमेव सर्वस्वं गृह्णन्ति / नैवं प्रापयन्तीत्ययमेवापदन्धुः सङ्ग्राह्य इति भावः // 91 // यह जन मरनेपर धनको छोड़कर अकेला ( असहाय ) परलोकको जायेगा, हा कष्ट है, अतः दयायुक्त चित्तवाला याचक-बन्धु उस ( परलोकगत व्यक्ति ) के इस धनको इसके पास ( या परलोकमें ) पहुंचाना चाहता है। [ जैसे कोई व्यक्ति अपना सामान छोड़कर कहीं बाहर जाता है तो उसके सामान ( सब वस्तुओं) को उसके प्रिय बन्धु दयाकर उसके पास पहुँचा देते हैं, उसी प्रकार याचक मो अकेले परलोक में गये ( मरे) हुए व्यक्ति के सामानको 'दान की हुई वस्तु ही मरनेपर परलोकमें जीवको मिलती है' इस शास्त्रीय वचन के अनुसार स्वर्ग में पहुंचा देता है / अथवा-पुत्र-पौत्रादि बान्धव तो मरे हुए व्यक्ति के धनको स्वयं ले लेते हैं, किन्तु दयालु याचकरूप बन्धु उक्त शास्त्र-वचनानुसार उसे परलोकगत व्य विस के पास पहुंचा देता है, अतः पुत्र-पौत्रादिसे मी याचक बन्धु ही श्रेष्ठ हे, इस कारण याचकको तो अवश्य हो दान देना चाहिये ] // 91 // Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 नैषधमहाकाव्यम् / दानपात्रमधमणमिहैकग्राहि कोटिगुणितं दिवि दायि / . साधुरेति सुकृतैर्यदि कर्तुं पारलौकिककुसीदमसीदत् / / 62 // दानेति / साधुः सज्जनो वाधुषिकश्च / 'साधुः त्रिषु हिते रम्ये वाघुषो सजने पुमान्' इघि वैजयन्ती / इहास्मिन् लोके, एकं गृह्णातीत्येकग्राहि। विवि परलोके, एक कोटिगुणितं कोटिश आवृत्तं, दायि दातृ / 'वनधान्यहिरण्यानां चतुस्म्रिद्विगुणा मता' इति लोके वृद्धः परिमितिरस्ति / इदं स्वपरिमितदायीत्यर्थः। 'आवश्यकाध. मर्ययोणिनिः' इत्याघमण्ये णिनिप्रस्यपः। 'अकेनोभविष्यदाधमर्पयोः' इति षष्ठीप्रतिषेधाद् द्वितीया। दानपात्रं नामाघमण धनग्राहीति रूपकम् / 'उत्तमर्णाधमों द्वौ प्रयोक्तृग्राहको क्रमात्' इत्यमरः / मुहतैरेति यदि / तदा असीददविनश्यत् / परलोके भवं पारलौकिक, 'परलोकास्चेति वकण्यम्' इति भवार्थ ठकप्रत्ययः / कुसीदं वृद्धिजीवनं कर्तुः अलमिति शेषः / 'कुसीदं वृद्धिजीविका' इत्यमरः / 'नादत्त. मुपतिष्ठते' इति न्यायाददातः न किक्षिदामुष्मिकं सुखम् / दातुः पुनरनन्तरमिति सर्वथा अर्थिने दातम्यमिति भावः // 92 // एक लेकर स्वर्गमें करोड़गुना देनेवाले दानपात्ररूप अधमर्ण (ऋण लेनेवाले ) को पारलौकिक व्याजको विनाशरहित करने के लिये पुण्यों के द्वारा यदि कोई प्राप्त करता है तो सज्जन ही प्राप्त करता है। [इस लोकमें ऋण लेनेवाला कोई भी व्यक्ति मूल धन का व्याज दुगुना-चौगुना ही देता है तथा किसीके मर जानेपर वह मूल धन भी नहीं मिलता; किन्तु याचकरूप ऋण-ग्रहीता यहां पर एक लेकर 'पात्र के लिये दिया गया दान परलोक में अनन्तगुना प्राप्त होता हैं। इस शास्त्रीय वचन के अनुसार परलोक में करोड़ों गुना एवं कभी नष्ट नहीं होनेवाला म्याज देता है, अतएव ऐसा उत्तम ऋण-गृहीताको बड़े माग्यसे कोई सज्जन ही प्राप्त करता है / अत एव सत्पात्र में अवश्य दान देना चाहिये ] // 92 // एवमादि स विचिन्त्य मुहूर्त तानवोचत पतिर्निषधानाम् / अर्थिदुर्लभमवाप्य च हर्षाद्याच्यमानमुखमुलसितश्रि / / 63 // एवमादीति / स निषधानां पतिः नलः, एवमादि मुहूतमल्पकालं, विचिन्त्य, अथिमिदुर्लभं हर्षादुलसितश्रि वर्धमानश्रीकं, प्रसवमित्यर्थः / शैषिकस्य कपो वैभा. षिकरवानपुंसकत्वं हस्वस्वम् / याच्यमानमुखं दातृमुखं चावाप्य प्रसनमुखो भूत्वे. त्यर्थः, तानिन्द्रादीनवोचत / / 93 // ___ निषध देशवासियोंके राजा 'नल' इस प्रकार (इलो० 81..92 ) मुहूर्तमात्र विचारकर याचकों से दुर्लभ, याच्यमान (दाता ) के मुखको अत्यन्त शोमासम्पन्न ( हर्षित ) देखकर याचना करनेकी बात सुनकर नलके प्रसन्न मुखको देखकर ( 'हमारा कार्य सिद्ध होगा! इस आशासे हर्षित ) हुए उन (इन्द्रादि देवों) से बोले-॥ 93 // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 पञ्चमः सर्गः नास्ति जन्यजनकव्यतिभेदः सत्यमन्नजनितो जनदेहः / वीक्ष्य वः खलु तनूममृतादां हनिमजनमुपैति सुधायाम् / / 64 // नास्तीति / जन्यजनकयोः कार्यकारणयोयतिभेदो नास्ति, कार्य स्वोपादानाद. मिममित्यर्थः / जनदेहः भन्नजनितः मुकाहारपरिणामश्चेत्येतदुभयं सत्यमित्यर्थः / कुतः, अमृतभदन्तीस्यमृतादः / अदोऽनन्ने' इति विट प्रत्ययः / तेषाममृतादाममृतभुजा, वो युष्माकं, तनूं भूति, वीच्या रष्टिः सुधायां निमजनसुपैति खलु सुधामजन. सुखमनुभवतीत्यर्थः / जनदेहानामन्नजन्यरवे तहदेव युष्मदेहानामपि तथास्वे कथ. मेतत्सुधाकार्यकारित्वं न स्यादित्यर्थः / युष्मदर्शनादेव तावस्कृतार्थोऽस्मीति भावः॥ 'जन्य तथा जनक अर्थात् कार्य तथा कारणमें भेद नहीं है यह, और जन- शरीर अन्न ( भक्ष्य पदार्थ ) से उत्पन्न है, यह ( ये दोनों ) कथन सत्य हैं)। अमृत को खानेवाले आप लोगों के शरीरको देख कर ( मेरी ) दृष्टि अमृतने निमग्न हो रही है अर्थात् अमृतमें स्नान करनेसे जो सुख मिलता है, वह सुख आपलोगों को देखनेसे मिल रहा है। [यहां अमृत कारण तथा उन इन्द्रादिका शरीर अमृत मक्षण करके उत्पन्न होनेसे कार्य है, अतः उस अमृतमक्षी शरीरके देखनेसे अमृतदर्शनके समान आनन्द होना स्वाभाविक ही है। अथवा अन्न जन्य जन-देह मन्य जनक भेदसे रहित है ] // 94 // मत्तपः क नु तनु क फलं 'वा यूयमीक्षणपथं व्रजथेति | 'ईदृशान्यपि दधन्ति पुनर्नः पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति // 5 // मदिति / तनु स्वल्पं मत्तपः क ? / यूयमीक्षणपथं वजथेति फलं युष्मदर्शनरूपं महाफळं वा क ? वैरूप्यादिति भावः / अत एव विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः। अथवा ईशानि ईदृङमहाफलान्यपि दधन्ति पुष्णन्ति / 'वा नपुंसकस्य' इति नुमागमः / पुनःशब्दो वाक्यालङ्कारे / नोऽस्माकं पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति तानी. दानी फलन्तीत्यर्थः॥ 95 // ___ मेरा थोड़ा-सा तप कहां 1 ( महापुण्यसे प्राप्त होनेयोग्य ) आप लोग जो दृष्टिगोचर हो रहे हैं, यह फल कहाँ ? ( थोड़ेसे पुण्यके द्वारा अधिक पुण्यके मिलने योग्य आपलोगोंका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ) / ऐसे ( आपसे दर्शनरूप फलको उत्पन्न करनेवाले / अथवा-ऐसे फलरूपमें परिणत हुए ), हमारे पूर्वनों के पुण्य ही सर्वोत्कृष्ट हो रहे हैं (जिन के प्रभावसे आपलोगों के दर्शनका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है)। अथवा-सर्वोत्कृष्ट, हमारे पूर्वजोंके पुण्य ऐसे (भाप लोगों के दर्शनरूप फलमें) परिणत हो रहे हैं। [ 'ईदृशान्यपि फलानि ददन्ति' 1, 'यत्' इति पाठान्तरम्। 2. 'ईदृशान्यपि फलानि ददन्ति' इति 'ईदृशं परिणमन्ति फलं नः' इति पाठान्तरे। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / पाठान्तरमें ऐसे (दुर्लभ मापलोगों के दर्शनरूप) फलों को देते हुए, मेरे पूर्वजों के पुण्य उत्कृष्ट हो रहे हैं 'परिणमन्ति फलं नः' पाठान्तरमें-ऐसे फलको परिणत होते हुए..."] // 95 // प्रत्यतिष्ठिपदिलां खलु देवीं कर्म सर्वसहनव्रतजन्म | यूयमप्यहह पूजनमस्या यन्निजैः सृजथ पादपयोजः / / 66 / / प्रतीति / इला देवीं भूदेवता, सर्वसहनं विश्वावमानसहनमेव व्रतं येन सा सर्व सहेति ल्यायते / तस्माज्जन्म यस्य तसज्जन्यमित्यर्थः / क्रियत इति कर्म सुकृतं (कर्तृ) प्रत्यतिष्ठिपत् प्रतिष्ठापयामास खलु / तिष्ठतेरित्' इति गौ चल्युपधाया इकारः / यद्यस्माद्ययमपि निजः पादैरेव पयोजैरिति रूपकम् / अस्पा इलायाः पूजनं पूजां सुजथ कुरुभ्वमित्यर्थः / अहहेत्यद्भुते // 96 // सबके भारको सहन करनेके व्रतसे उत्पन्न कर्म (पुण्य ) ने इस (पृथ्वी) देवीको निश्चय ही प्रतिष्ठायुक्त कर दिया, यह आश्चर्य है ? क्योंकि ( पृथ्वीको कमी मी स्पर्श नहीं करने वाले दिक्पालरूप ) भापलोग भी अपने चरण कमलोंसे इस ( पृथ्वी देवी ) का पूजन कर रहे हैं / [ पृथ्वीने सबके भारको सहन करनेका व्रत ग्रहणकर उससे उत्पन्न पुण्यसे देवी पदको प्राप्त किया, इसी कारण चरणसे पृथ्वीका स्पर्श नहीं करनेवाले आपलोग आज अपने चरण कमलसे देवीपद पर प्रतिष्ठित पृथ्वीको पूजा कर रहे हैं। [अन्य मी व्यक्ति किसी देवीका पूजन कमोंसे करता है इस वाक्यसे आपलोगोंको इस भूलोकमें आनेका क्या उद्देश्य है ? यह प्रश्न ध्वनित होता है ] // 91 // जीवितावधि किमप्यधिक यन्मनीषितमितो नरडिम्भात् / तेन वश्चरणमर्चतु सोऽयं ब्रूत वस्तु पुनरस्तु किमीक् // 67 // जीवितेति / इतो नरडिम्भान्मानुषशिशोः जीवितावधि प्राणान्तं ततोऽधिकं वा किमपि मनीषितमीप्सितं यद्वस्तु सोऽयं नरम्भिा , तेन वस्तुना, वश्चरणमर्चतु पूजयतु / ईगलभ्यं वस्तु पुनः किमस्तु किं स्याद्, व्रत // 97 // ___ इस मानव-बालकसे प्राणोंतक या इससे भी अधिक जो अमिरूषित ( आपलोगोंका) हो, उस ( अमिलषित वस्तु) से यह मानव-बालक आपलोगों के चरण का पूजन करे, किन्तु ऐसी वह वस्तु कौन-सी है ? कहिये / [ प्राणों तक या प्राणाधिक भी कोई वस्तु इस मानवबालक अर्थात् मुझसे जो वस्तु मापलोगोंको अभिलषित हो, निःसङ्कोच होकर मांगे, मैं साधारण मानव-बालक होकर भी उस वस्तुको आपलोगों के चरणमें समर्पित करूँगा / आप. लोग मुझसे क्या चाहते हैं ? यह बतलाइये, मैं उसे अवश्य दूंगा] // 97 // एवमक्तवति मुक्तविशङ्क वीरसेनतनये विनयेन | वक्रभावविषमामथ शक्रः कार्यकैतवगुरुगिरमूचे / / 68 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 311 एवमिति / एवं वीरसेनतनये नले, विनयेन अफपटेन, मुक्तविश विसन्धमुक्त वति सति / अथ कार्येषु कर्तग्यायेंषु पानि कैतवानि कपटानि तेषां गुरुरूपदेष्टा शक्रः / वक्रभावः प्रतिकूलाभिप्रायः, तेन विषमा प्रतिकूलां गिरमचे उवाच // 98 // इस प्रकार वीरतनय नलके निर्भय होकर विनय के साथ कहनेपर काममें कपटाचार्य (मथवा-कार्यमें कपट करनेमें गुरुरूप ) इन्द्रने कुटिलतासे विषम (विषतुल्य ) वचन कहा // 98 // पाणिपीडनमहं दमयन्त्याः कामयेमहि महीमिहिकांशो!। दूत्यमत्र कुरु नः स्मरभौतिं निर्जितस्मर ! चिरस्य निरस्य // 16 // पाणीति / हे महीमिहिकाशो भूतलहिमांशो! 'प्रालेयं मिहिका च' इत्यमरः / वयं दमयन्त्याः पाणिपीडनमहं विवाहोत्सवं कामयेमहि अभिलषमहि। हे निर्जितस्मर ! अत एव स्मरभीति चिरस्प निरस्य दूरतो निरस्येत्यर्थः / 'चिराय घिररा. ब्राय चिरस्यायाधिरार्थकाः' इत्यमरः। अत्रोद्वाहकृत्ये नोऽस्माकं दूरस्यं दूतकम। 'दूतस्य भागकर्मणी' इति यत्प्रत्ययः / कुरु // 99 // हे पृथ्वीचन्द्र नरू ! हमलोग दमयन्तीका विवाहोत्सव चाहते हैं / ( देहसौन्दर्य और जितेन्द्रिय होनेसे ) कामको जीतनेवा! बहुत कालसे काम-भय ( कामजन्य विरहपीड़ा) को छोड़कर इस दमयन्तीके विवाहोत्सवरूप कार्यमें हमलोगोंका दूत कर्म करो। [जिते. न्द्रिय एवं सुन्दरतम होनेसे तुमने काम-विजय कर लिया है, अतः तुम्हें दमयन्ती विरह. सम्बन्धी कामपीड़ा नहीं होनी चाहिए, तथा इस गुणके कारण काम-विजयी होनेसे तथा काम-भयका त्याग कर देनेसे दूत कर्मके समय दमयन्तीको देखकर मी तुम्हारे मनमें कोई कामज विकार नहीं होगा और न तो कामजन्य पीडाका ही कोई मय रहेगा / अतः दमयन्तीके यहाँ हमलोगोंका दूत कर्म करने के योग्य हो और पृथ्वीचन्द्र होनेसे तुम हमलोगोंका दूत कर्म करके हमारे सन्तापका नाश करो। पक्षान्तरमें-इन्द्र अपने साथी यम आदि तीनों देवोंसे मी कपटकर केवल अपना दूत-कर्म करने के लिए नलसे कह रहे हैं, यथा-हे पृथ्वीचन्द्र ( नल ) ! मैं उत्सववाले दमयन्तीके विवाहको चाहता हूँ, हमलोगों में से (मेरा) दूत-कर्म करो, हे काम-विजयिन् ! इस विषयमें भयको छोड़ो (मथवाविरुम्बको छोड़ो अर्थात् दूत कर्म करने में विलम्ब मत करो), मुझसे भयको स्मरण करो अर्थात् दूत-कर्म नहीं करने पर या इस कार्य में विलम्ब करनेपर मैं तुम्हें शाप दूंगा, इस भयको तुम स्मरण रखो ] // 99 // आसते शतमधिक्षिति भूपास्तोयराशिरसि ते खप्लु कूपाः / किं ग्रहा दिवि न जाप्रति ते ते भास्वतस्तु कतमस्तुलयाऽस्ते // 10 // आसत इति / अपिपिति पिसी। विमापण्ययीभावः। शतं भूपाः भासते 21 नै० Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 नैषधमहाकाव्यम् / अपरिमिताः सन्तीत्यर्थः / अत्र स्वं तोयराशिरसि / ते भूपाः कूपाः खलु, भूपवसा. म्येऽपि तेषां तव च समुद्रकूपयोरिव महदन्तरमित्यर्थः। तथा हि-दिग्याकाशे। ते ते प्रहाचन्द्रादयो न जाग्रति न प्रकाशन्ते किम् ? किंतु कतमो ग्रहो भास्वतस्तुलया साम्येनास्ते / न कोऽपीत्यर्थः। तद्वत्तवापि न कोऽपि भूपस्तुरूप इति रशन्तानकारः। __भूतलपर सैकड़ों राना है, किन्तु (गाम्भीर्य, औदार्य मादि गुणों के कारण) तुम समुद्र हो, तथा वे ( भन्य राना ) कूप है / स्वर्गमें श्या वे-वे ग्रह नहीं चमकते हैं, किन्तु सूर्यके समान कौन ग्रह है ? अर्थात कोई भी नहीं है। [जिस प्रकार समुद्रकी अपेक्षा कूप अत्यन्त तुच्छ हैं, उसी प्रकार गाम्भीर्य और मौदार्य आदि गुणोंसे युक्त तुम्हारी अपेक्षा अन्य सैकड़ों राना अत्यन्त तुच्छ हैं तथा जिस प्रकार स्वर्गमें सूर्य के समान कोई ग्रह नहीं, उसी प्रकार भूलोकमें तुम्हारे समान कोई राजा भी नहीं। यही कारण है कि अन्य सैकड़ों राजाओंको छोड़कर 'याच्या मोघा वरमधिगुणे नाधमे कब्धकामा' (गुणी दातामें निष्फल मी याचना अच्छी है, किन्तु गुणहीन दातामें सफल भी यापना अच्छी नहीं) इस नीति के अनुसार हमलोग तुम्हीसे याचना कर रहे हैं ] // 100 // विश्वदृश्वनयना वयमेते त्वद्गुणाम्बुधिमगाधमवेमः / त्वामिहैव' विनिवेश्य रहस्ये निवृतिं न हि लभेमहि सर्वे ? // 101 // विश्वेति / विश्वं पश्यन्तीति विश्वस्यानि सर्वधीनि / शेय॑न्तात् क्वनिप। तानि नयनानि येषां ते वयमेवागाधं गम्भीरम, तव गुणाः स्यादाक्षिण्यवशिस्वस. त्यसन्धस्वादयः, तानेवाम्बुधिमवेमः अवगच्छामः / इणो से मस / हि यस्मात् , इहास्मिन् , रहस्ये रहस्यकृत्ये, स्वामेव विनिवेश्य नियोज्य, सर्वे वयं निर्वृतिं सुखं न लभेमहीति काकुः / लभेमझेव, प्रागुतगुणादयस्वादिति भावः // 101 // विश्वदर्शी नेत्रवाले अर्थात सर्वश हमलोग हो तुम्हारे मयाह (मौदार्य आदि ) गुणरूप समुद्रको जानते हैं। हम सब तुमको इस (दमयन्तोके पास दूत-कमरूप ) गुप्त कार्यमें नियुक्तकर सुख नहीं पायेंगे क्या ? अर्थात् अवश्य सुख पायेंगे (पाठभेदसे-हम सब तुमको इस गुप्त कार्यमें इस प्रकार विना नियुक्त किये सुख नहीं पायेंगे)। [ अतः तुम हमारे दूत-कर्मको करके हमें सुखी करो, अन्यथा यदि तुम दूत-कर्म नहीं करोगे तो हमें कष्ट होगा और उस अवस्थामें हम तुम्हें शाप दे देंगे। 'पूर्वोक्त कपटपूर्ण इन्द्रके वचनको भन्य यमादि देवता समझ न लें' इस कारण यहाँपर कपटाचार्य इन्द्रने 'स' (हम सब) पद कहा है ] // 101 // शुद्धवंशजनितोऽपि गुणस्य स्थानतामनुभवन्नपि शक्रः / क्षिप्नुरेरनमृजुमाशु सपक्षं सायकं धनुरिवाजनि वक्रः // 102 // 1. स्वामिहैक-' इति पाठान्तरम् / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 313 शुद्धेति / शुद्ध अवणे, वंशे कुले, वेणौ च / जनितोऽपि / 'वंशो वेणी के वर्ग' इति विश्वः / गुणस्य शौर्यादेः मौर्याच / 'सरवादी रूपादौ शौर्या दो तन्तुषु प्रयो. गज्ञाः / गुणशब्दः शिक्षिन्याम्' इति हलायुधः। स्थानतामाश्रयस्बममापि शकः ऋजुमकुटिलबुद्धिम् , अवक्र / सपक्षं सुहृदं सपत्रं च, एनं नलं, सापकं धनुश्चाप इच / 'अथास्त्रियो धनुश्चापौ-' इत्यमरसिंहामिधानारपुंलिप्रपोगः / अथवायं. शब्द उकारान्तोऽप्यस्तीति उणादी भ्रमशक्यादिसूत्रेण धनधातोः सौत्रे उप्रत्ययवि. धानात् / भाशु / क्षिप्नुः क्षेप्ता सन्, क्षिपेः क्नुः / 'न लोक-' इस्पादिना पष्ठीप्रति. षेधाद् द्वितीयैव / वक्रो जिह्मोऽजनि / श्लिष्टविशेषणेयमुपमेति केचित् / प्रकृताप्रकृत. श्लेष इत्यन्ये // 102 // ___ उत्तम कुल ( कश्यप मुनिके वंश ) में उत्पन्न भी, गुण ( दया, दाक्षिण्य भादि) की आश्रयताको जानते हुए ( नल गुणी हैं, अतः इनके साथ निष्कपट व्यवहार करना चाहिए, यह बात समझते हुए ) भी, (शुद्ध अन्तःकरण होनेसे ) सरल तथा माठों दिक्पाके अंशभूत होनेसे ( या यश आदि द्वारा सर्वदा देवों को सन्तुष्ट करनेसे) अपने पक्षको अर्थात् मित्र इस ( नल ) को ( अपने दूत कर्मके लिए दमयन्ती के पास ) भेजते हुए इन्द्र धनुषके समान कुटिल ( कपटी ) हो गये / धनुषपक्ष मैं-जैसे-दृढ़ बांससे बना भा भी, डोरी (प्रत्यश्चा) के स्थानको प्राप्त किया हुआ भी सीधे तथा पंखों सहित बाणको फेकनेवाला धनुष टेढ़ा हो जाता है, ( वैसे इन्द्र मी टेढ़े अर्थात् कपटयुक्त हो गये ) / [मको दमयन्तीके स्वयंवर में स्वयं सम्मिलित होते हुए जानकर भी इन्द्र ने उन्हें अपना इतकार्य करने के लिए दमयन्तीके पास भेजते हुए महाकपटपूर्ण कार्य करना चाहा] // 102 / / तेन तेन वचसैव मघोनः स स्म वेद कपटं पटुरुच्चैः / आचरत्तदुचितामथ वाणीमार्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः / / 103 / / तेनेति / उपचैः पीरतिकुशलः, ल नला, तेन तेन वचसव मघोनः इन्द्रस्य कपटं वेद स्म विवेद / अथ वेदानन्तरं, तदुचितां तस्य कपटस्योचितामनुरूपां वाणीमाचरत् / स्वयमपि कपटोक्तिमेवाकरोदित्यर्थः / तथा हि-कुटिलेषु विषये, आर्जवम. कौटिल्यं नीतिन हि / ततः कुटिलेनैव भवितव्यम् / अन्यथा महान्तमनमृच्छेदिति भावः // 103 // (श्लेषोक्ति तथा वक्रोक्तिको समझने में ) अत्यन्त चतुर उस नहने इन्द्रकी उन-उन बातों ( श्लो० 99-101 ) से ही कपटको जान लिया। ( अथवा-चतुर मलने उन-उन बातोसे ही इन्द्र के कपट अर्यात धूर्तताको जान लिया) इसके बाद उस (कपटन्यवहार ) के योग्य वचन कहा; क्योंकि कुटिलों में सरलता रखना नीति नहीं है / [ 'शठे पाठ्यं समाचरेत्' (शठमें शठता करनी चाहिए )' नीतिके अनुसार नल भी कपटी इन्द्रसे उपयुक्त बचन बोके-] // 103 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 नैषधमहाकाव्यम् / सेयमुषतरता दुरितानामन्यजन्मनि मयैव कृतानाम् / युष्मदीवमपि या महिमानं जेतुमिच्छति कथापथपारम् / / 104 // सेपमिति / सेयमन्यजन्मनि जन्मान्तरे, मवैव कृताना दुरितानामुच्चतरता महत्ता / तया किमपराद्धं, तदाह-या पापमहत्ता कथापथश्य वाग्वृत्तेः, पारं दूरमवाध्यमित्यर्थः / युष्मदीयमपि महिमानं प्रभावमाज्ञारूपं नेतुमुपवितुमिच्छति / पापातिरेकाधुष्मदाहोल्लङ्घनेच्छा मे जायते इति विनयोक्तिः / सर्वथा युष्मनियोगो न क्रिषत इति परमायः // 104 // दूसरे जन्ममें मेरे दी ( पूर्वजोंके नहीं ) द्वारा किये गये पापोंकी यह अधिकता है, जो ( मेरे जन्मान्तरोय पापोंकी अधिकता ) अत्यधिक एवं सर्वपूजित होनेसे (पक्षान्तरमेंअतिनिन्दनीय होनेसे) कहने में भी अशक्य भापलोगोंको महिमा ( पक्षान्तरमें-उत्साहपूर्ण दमयन्तीकी प्राप्ति करने के अभिमान ) को जीतना चाहती हैं। [भाप जैसे श्रेष्ठ दिक्पालों एवं देवेन्द्रकी भाशाके पालनका सुअवसर यबपि बड़े भाग्यसे मनुष्य को प्राप्त होता है, किन्तु मैं पूर्वधन्मकृत अपने ही पापाधिक्य के कारण उसका पालन नहीं कर सकता हूँ। पचान्तरमें-यह मेरा पूर्वजन्मकृत पापाधिक्य है कि आप से श्रेष्ठ दिक्पाल तथा देवराज इन्द्रतक भी ऐसे कपटपूर्ण बातोंको कह रहे हैं, अतः उन्हें समझ जाने के कारण मैं उनका पालन नहीं करूंगा, एवं दमयन्तीको पानेका जो उत्साहपूर्ण अभिमान आपलोगोंको है, उसे मैं नष्ट करूँगा। पहले (इलो० 95) नलने देवोंको याचनारूप सत्फल प्रान करने में सपने पूर्वजोंके तपको कारण बतलाया, और यहाँ उसके सर्वा विपरीत देवोंको बात न मानना रूप अप्सरकार्यमें भपने ही पूर्वजन्मकृत पार्पोको कारण बतलाया, इससे नलका श्रेष्ठ विवेक सूचित होता है ] // 104 // वित्त वित्तमखिलस्य न कुर्या धुर्यकार्यपरिपन्थि तु मौनम् / हीगिरास्तु वरमस्तु पुनर्मा स्वीकृतैव परवागपरास्ता // 105 // मदु कुटिकोक्तेवरं मौनमत आह-वित्तेति / हे देवाः, अमिलस्य जनस्य, चित्तं मित्त विदित्वा प्रत्यर्थः / तर्हि, कीहक चित्तं तदाह-भुति / धुर्यस्य इएसाधनस. मर्चस्व, कार्यस्योपायप्रयोगस्य, परिपन्यि विरोधि, मौनं तु कुर्माम् / किंतु गिरा परिहारोक्त्या हीरस्तु / वरम्, कार्यविरोधिनो मौमाजावहमपि परिहारबचनमेव साहित्यर्थः / तर्हि मौनादेव परिहारे किं प्रतिषेवरोरपेण तबाह-परेति / परस्य वाक प्रार्थनोकिरपरास्ता अप्रतिषिद्धा सती, स्वीकृतव पुनः। अप्रतिषिद्धमनुमत. मिति न्यायाधीकृतैव तु मास्तु // 105 // (बपि भापलोग) सबके मन ( मनोगत भाव ) को मानते हैं, ( तथापि मैं ) अभिलपित वामेष्ठ कार्य (दमयन्तीको प्राप्तिरूप ) का वावक मौन-भारण नहीं करूंगा। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 315 ( मेरे निषेध ) वचनसे कब्जा भने ही हो, (किन्तु ) निषेध नहीं किया गया दूसरों (आप लोगों ) का वचन स्वीकृत न होने पायै / [ यदि मैं निषेध नहीं करूंगा, तब 'मौनं स्वीकार-क्षणम्' सिद्धान्त के अनुसार आपलोगों के कहे हुए दमयन्तीके पास जाकर दूतकार्य करनेका पवन स्वीकृत समझा नायगा, अतः निषेध करना मेरे लिए लज्जाजनक भले ही हो, किन्तु दमयन्तीकी प्राप्तिमें वापक मौन-धारण नहीं करूँगा] // 105 // यन्मतौ विमलदर्पणिकायां सम्मुखस्थमखिलं खलु तत्त्वम् / तेऽपि किं वितरयेदृशमाज्ञां या न यस्य सहशी वितरीतुम् // 106 // तत्र तावत्ताशुपालभते-पदिति / येषां वो मतावेव विमणिकायो निर्मादशै, अखिलं तर वह पम्मुखस्थं प्रत्यहं खलु / ते सर्वज्ञा अपि यूयमीरशम्रता प्रकाराम् / 'त्यदादिषु--' इत्यादिना दृशेः काप्रत्ययः / आज्ञा किं वितश्य रस। कीरश्यत पाह-येति / या यस्य मे वितरीतुं दातुं, साशी थोग्या न। तस्माश्रयं ममोपाळभ्या इत्यर्थः // 106 // निर्मल दर्पणरूप, बिन भापलोगोंकी बुद्धि में सम्पूर्ण तत्व ( कर्तव्य तथा अकर्तभ्य कार्य) प्रत्यक्ष हैं, वे भापलोग, जिसे जो भाशा देना ठीक नहीं है, उसे ( मुझे) वह बाशा क्यों देते हैं ? [ पुन्दर, युवा तथा दमयन्तीका कामुक मेरे लिए दमयन्तीके पास आपलोगोंका दूत-कम करनेकी भाषाका पालन करना अयोग्य होनेपर मो उक्त आशा आपलोग क्यों मुझे दे रहे है ? यह भाषा मुझे देना आपलोगों को उचित नहीं है / ] // 106 // यामि यामिह वरीतुमहो तदूततां तु करवाणि कथं वः / ईशां न महतां बत जाता वचने मम तृणस्य घृणापि / / 107 // अथाष्टभिरयोग्पतामेवाह-यामीत्यादि / इहास्मिन् समये, यां भैमी वरीतुम् / 'वतो वा' इति दीर्घः / यामि गपछामि / तद्भूततां तु तस्यामेव विषये दूत्यं तु कथं वः करवाणि / महो ईशा महतां वः / तृणस्य तृणकल्पस्य, मम वडने प्रता. रणे, घृणा कृपा जुगुप्सा वापि, न नाता / बतेति खेदे // 107 // जिप्त दमयन्तीका वरण करनेके लिए मैं जा रहा हूँ, वह मैं उस दमयन्ती का दूत-कम कैसे करूँगा ? अर्थात् कमी नहीं करूंगा, अहो ( आपलोगों का ऐसा कहना माश्वर्य है)। ऐसे ( सर्वश एवं दिक्पाल होनेसे विश्वपूज्य ) बड़े आपलोगोंको तृण (रूप मुझ नल) को ठगनेमें दया ( या घृणा) नहीं हुई ? खेद 1 / [ बड़े लोगोंको पहले तो चित है कि वे किप्तीको ठगनेका विचार ही न करें, यदि करें मी तो उन्हें बड़े लोगों को ही ठगना चाहिए / मनुष्य होनेसे देवताभोंकी अपेक्षा भत्यन्त तुच्छ मुझे ठगने में तो भाप जैसे देवताभोंको दया होनी चाहिए ऐसा तुच्छ काम मैं क्यों करू' इस विषय में घृणा होनी चाहिए / अथवा-कपरका उत्तर कपटसे ही नल दे रहे हैं कि-बड़े लोगोंके समुदायमें Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 नैषधमहाकाव्यम् / ऐसे (दूसरोंको ठगनेवाले ) भापलोगों की पूजा करने में तृणवत तुच्छ मुझे घृणा नहीं माती ? अर्थात अवश्य जाती है ( ऐसे निन्दित कर्म करनेवाले भापलोगोंकी बड़ोंके साथमें पूजा करने में जब मुस-जैसे तुच्छ मनुष्य को भी घृणा हो रही है तो बड़े लोग आपलोगोंकी पूजा कैसे करेंगे ? भर्षात् कदापि नहीं करेंगे)। अथवा-ऐसे परवञ्चक भतएव असाधु भापकोगों की पूजा तणको बाति ( तुच्छों के बीच ) में भी करते मुझे घृणा होती है / माप. लोग तृणके समान मी पूज्य नहीं है अर्थात् दूसरेको ठगने के कारण अमहान् (तुच्छ) आपलोगोंसे तुण नविक पूज्य है, परन्तु आपलोग नहीं ] // 107 // - उद्ममामि विरहान्मुहुरस्या मोहममि च मुहर्तमहं यः / ब्रत वः प्रभवितास्मि रहस्यं रक्षितुं स कथमीगहवस्थः // 108 // उद्ममामीति। किश, योऽहमस्या भैम्याः विरहान्मुहुरुद्धमामि उन्माद्यामि मुहर्तमीपरकालं, मोहं मूच्छां च एमि प्राप्नोमि / ईगवस्थः सोऽहं वो युष्माकं, रहस्य रचितुंगोप्तुं, कचं प्रमवितास्मि प्रभविष्यामि, न शवपामीत्यर्थः / ब्रूत। ब्रुवो लोट। जो ( मैं ) इस ( दमयन्ती ) के विरहसे उन्मादयुक्त अर्थात पागल और दो बड़ी तक मूछित हो जाता हूँ, ऐसी अवस्थावाला मैं आपलोगोंके गुप्त सन्देशको छिपाने के लिए कैसे समय होगा ? कहिये / [ जैसे कोई पागल व्यक्ति किसीकी गुप्त बातको मी सबके समक्ष प्रकाशित कर देता है तथा मूच्छित व्यक्ति किसी आवश्यक बातको भी होशमें नहीं रहनेसे भूमाता है वैसे ही मैं भी भापकोगोंका रहस्य (दमयन्तीको वरण करने की इच्छा) को नहीं छिपा सकूँगा या भूल जाऊँगा, अतः मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजनेसे भापलोगोंका कार्य सिख होना तो दूर रहा, पहले ही सबको विदित होनेसे बिगड़ नायगा] // 1.8 // यां मनोरथमयी हृदि कृत्वा यः श्वसिम्यथ कथं स तदने / भावगुप्तिमवलम्बितुमीशे दुर्जया हि विषया विदुषापि // 10 // यामिति / योऽहं मनोरथमयी सङ्कल्परूपां, यो भैमी, हदि करवा श्वसिमि प्राणिमि / अथ सोऽहं तदने तस्याः भैग्याः पुरा, भावगुप्ति कामविकारगोपनमबल. वितं, कयमीशे शक्नोमि। तथा हि, विदुषा विवेकिनापि विषयाः शब्दादयो दुर्जया इत्यर्यान्तरन्यासः॥ 109 // __बो ( मैं ) सङ्कल्परूप जिस दमयन्तीको हृदयमें करके जीता हूँ, वह मैं उस दमयन्तीके भागे ( अपने रोमाञ्च, स्वेद, स्तम्म, स्वरभङ्ग, शरीरकम्पन, विवर्णता और रोदनरूप सारिखक) भावों को कैसे छिपा सकूँगा ! अर्थात् कदापि नहीं छिपा सकूँगा, क्योंकि विद्वान् मी विषयों को दुःखसे जीतते हैं। [भत एव मैं आपलोगोंका कार्य करने के योग्य कदापि नहीं हूं] // 109 // Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः यामिकाननुपमृद्य च माह तां निरीक्षितुमपि क्षमते कः / / रक्षिलक्षजयचण्डचरित्रे पुंसि विश्वसिति कुत्र कुमारी // 110 // यामिकानिति / किञ्चेति चार्थः / मारक मद्विषः, क्षत्रिय इत्यर्थः। कः यामान् रसन्तीति थामिकाः प्रहररक्षकाः रखतीति ठक / ताननुपमृध महत्वा। तां भैमी, निरीक्षितुमपि क्षमते। किं पुनरामाषितुमिति भावः। तथैव क्रियतां तत्राहरसीति / रविणां लक्षाणि तेषां जयेन मर्दनेन चण्डचरित्रे करकर्मणि, पुंसि कुमारी कन्या, कुत्र विश्वसिति, न कुनापीत्यर्थः। कोद्वाहप्रसङ्गः ।क चान्तःपुरमदंनमिति भावः // 110 // मेरे-जैसा ( सुन्दर या क्षत्रिय ) कौन पुरुष, पहरेदारोंको विना मारे ( अन्तःपुर में रानेवाली ) उस ( दमयन्ती ) को देख भी सकेगा ? ( बिना पहरेदारों को मारे सुरक्षित अन्तःपुरमें रहनेवाली दमयन्तीको देखना मो असम्मव है, उससे बात करने की कौन को 1) / लाखों पहरेदारों या रक्षक पुरुषों को जीतनेसे प्रचण्ड भाचरणवाले पुरुषमें कुमारी ( कोमल हृदयवाली दमयन्ती) विश्वास कैसे करेगी 1 अर्थात् कदापि ऐसे दारुण पुरुषमें विश्वास नहीं करेगी। [ अथवा-..."आचरणवाळे किस पुरुषमें कुमारी दमयन्ती विश्वास करेगी ? अर्थात किसी भी पुरुषमें विश्वास नहीं करेगी, मतः मुझसे दूत-कर्म कराना आपलोगोंकी स्वार्थानि करनेवाला है ] // 110 // आदधीचि किल दातृकृतार्घ प्राणमात्रपणसीम यशो यत् / आददे कथमहं प्रियया तत् प्राणतः शतगुणेन पणेन // 111 // आवधीचीति / प्राणमानं जीवितमेव, पणतीमा मूल्यावधियंस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा। 'पणो मूल्ये ग्लहे माने' इति वैजयन्ती। भादधीचि दधीचिमारभ्य अभिषिधावस्ययीभावः। किलेति प्रसिद्धी / दातृभिवंदान्यैः कृतार्घ निश्चितमूल्यम् / 'मूल्ये पूजाविधावर्घः' इत्यमरः / यपशः तपशः प्राणतो जीवाछत्तगुणेन प्रिययैव, पणेन मूल्येन, अहं कयमादे स्वीकरिष्यामि / हीनक्रयस्य परावय॑त्वादिति भावः। अत्र परिवृत्तिरलङ्कारः। 'समन्यूनाधिकानाञ्च यथा विनिमयो भवेत् / साकं समाधि. कन्यूनैः परिवृत्तिरसौ मता // ' इति लक्षणात् / तत्र प्राणैयंशलो न्यूनपरिवृत्तिः, हीनमूल्यत्वात् / प्रिपया यशसोऽधिकपरिवृत्तिरधिकमूल्यस्वादिति भावः // 11 // __ दधीचितक दाताओंने जिस यत्रका मूल्य-प्राणमात्र-दानस्वरूप सीमा निश्चित की है, उस यशको मैं प्राणों के चौगुने मूल्यसे अर्थात् दमयन्तीके दान करनेसे क्यों लूँ ? / [दधीचितक दातालोगोंने मी अधिकसे अधिक अपना प्राण दान करके भो महादानी होनेका यश पाया है, उसे प्राणों से सैकड़ोगुनी प्रिय दमयन्तीको ( उसके यहाँ मापके दूतकर्मद्वारा) देकर नहीं लेना चाहता। कोई भी चतुर व्यक्ति किसी वस्तुको उसके नियत मूल्यसे सौगुना Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 नैषधमहाकाव्यम् / मूल्य देकर उसे कदापि नहीं लेता है। मतः मैं भापका दूत-कर्म नहीं करूंगा। और याचक होकर मापने ब्राह्मण दधीचिके भी प्राण के लिये अर्थात ब्रह्महत्या करनेमें भी कुछ सङ्कोच नहीं किया, तब मुझ क्षत्रियकी पात ही क्या है?] // 111 // अर्थना मयि भवद्भिरिवास्यै कर्तुमर्हति मयापि भवत्सु | भीमजार्थपरयाचनघाटौ यूयमेव गुरवः करणीयाः // 112 // अर्थनेति / अस्यै दमयन्त्यै / तादर्षे चतुर्षी / मयि विषधे, भागिरिव ममापि भवरसु विषये अर्थना प्रार्थना कर्तुमहति कर्तव्येस्पः / अथ कथं कामुम्मुखारका. मिनीशिप्सेति चेयया भवता तथेत्याह-भीमजेति / भीमनार्या या परपाचनचाटुपरप्रार्थनारूपा नियोक्तिस्तस्यां यूयमेव गुरवः उपदेष्टारः करणीयाः। करोमि चेति भावः॥१२॥ इस दमयन्ती के लिए जिस प्रकार भापोगोंने मुझसे याचना की है, उसी प्रकार मैं आपलोगोंसे याचना करता हूँ। भीमकुमारी (दमयन्ती ) के दूसरेसे याचना एवं दोन बचन करने में (दीन वचन कहकर दमयन्तीको पाचना करनेमें ) भापळोग ही गुरु बनाने के योग्य हैं। [ यदि भापलोग देषता होकर मो मुझ जैसे एक सामान्य मनुष्यसे भी दमयन्ती के लिए याचना करते हैं, तब मैं एक साधारण मानव होकर दिक्पाल एवं देवाधिपति होने के कारण श्रेष्ठ भापलोगोंसे ही दमयन्ती की याचना करता हूं, क्योंकि नीति भी कहती है-'महाजनो येन गतः स पन्थाः' ] // 112 // अर्थिताः प्रथमतो दमयन्तीं यूयमन्वहमुपास्य मया यत् / / हीन चेद् व्यतियतामपि तद्वः सा ममापि सुतरां न तदस्तु // 113 // अथ प्रथमप्रार्थकरवाभिमाना, तर्हि स्वयमेव प्रथम इत्याह-अथिता इति / मया अन्वहमनुदिनम् / 'अनश्च' इत्यग्ययीभावः, समासान्तष्टच / यूपमुपास्य प्रथ. मतो दमयन्तीमर्थिताः / अर्थपतेवुहादिस्वादप्रधाने कर्मणि कः। इति यत् तत् , प्रथमप्रार्थनं म्पतियतां व्यतिक्रमतामपि / इणो लटः शत्रादेशः। वः हीन घेतहि सा होममापि सुतरां नास्तु मा भूत् // 113 // (यदि भापकोग यह कहें कि हमने दूत-कर्मके लिए पहले याचना की है, यह भी ठीक नहीं, क्योंकि ) पहले प्रतिदिन पूजा करके आपकोगोंसे मैंने दमयन्तीको याचना की है, इस ( दमयन्तीके लिए मेरी याचना ) बलान करनेवाले मापलोगोंको यदि हबा नहीं है तो वह ( लज्जा) मुझे भी स्वतः नहीं हो [ यदि भाप जैसे महान् दिक्पालोंको भी मेरी याचनाको पूर्ण न करने में लज्जा नहीं भाती है तो भक्त होनेके कारण मापलोगोंसे छोटे मुझको भी कब्जा भाना सचित नहीं क्योंकि गीतामें भी भगवान् कृष्णने कहा है'यबदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'] // 11 // Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 316 कुण्डिनेन्द्रसुतया किल पूर्व मां वरीतुमुररीकृतमास्ते / ब्रीडमेष्यति परं मयि दृष्टे स्वीकरिष्यति न सा खलु युष्मान् // 114 // कुण्डिनेति / कुण्डिनेन्द्र तथा दमयन्त्या। 'न लोक-' इत्यादिना निष्ठायोगे षष्ठीप्रतिषेधात् कर्तरि तृतीया। पूर्वमेव मां वरीतुमुररीकृतमजीकृतमास्ते / तया मदरणमङ्गीकृतं किलेरपर्थः / किति वार्तायाम् / कर्मणि का। भङ्गीकारस्य कथञ्चिदिच्छार्थस्वमङ्गीकृत्य, 'समानफर्तृकेषु तुमुन्' इति तुमुन्प्रत्ययः / ततो मयि दृष्टे परं ब्रीडमेष्यति / एवं च सा युष्मान स्वीकरिष्यति खलु // 14 // 'कुण्डिनपुराधीशको कन्या दमयन्तीने पहलेसे हो मुझे परण कर किया है। ऐसा निश्चित है / ( अतः सहसा ) मुझे देखनेपर वह ( सात्त्विक मावोंके उदय होनेसे ) लज्जित हो जायेगी और निश्चय है कि आपलोगों को वरण नहीं करेगी। [अब दमयन्सीने पहलेसे हो मुझे वरण कर लिया है, तब मेरा साक्षात्कार होने पर भापकोगों को वरण करना तो दूर, रहा, आपलोगों के वरण करनेके प्रस्तावको भी नहीं सुनना चाहेगी, मतः उसके लिए आपलोगों को इच्छा करना व्यर्थ ही है ] // 114 // तत्प्रसीदत विधत्त न खेदं दूत्यमत्यसदृशं हि ममेदम् | हास्यतैव सुलभा न तु साध्यं तद्विधित्सुभिरनौपयिकेन / 115 / / तदिति / तत्तस्मात् , प्रसीदत प्रसन्नाः स्थ, खेदं क्लेशं, न विधत्त न कुरुत / ममेदं दूस्यमत्यसदृशमस्यन्तायोग्एं, हि / कुतः ? भनौपयिकेन अनुपापेन, उपायं घिनेत्यर्थः / 'उपायाद्धस्वस्वञ्च' इति स्वार्थे ठक हस्वस्वं च / तद् दूत्यं विधिरसुभि. श्चिकीर्षुभिहस्यतैव मुलमा, साध्यं प्रयोजनन्तु न सुलभम् / भनुचितकर्मारम्भोऽनर्थाय भवेन्न फलायेत्यधः // 115 // इस कारण भापलोग ( मेरे ऊपर ) प्रसन्न होये, ('इस नल ने हमारा दूत-कर्म नहीं किया' इस कारण अपने मनमें ) खेद न करें। क्योंकि यह (दूत-कर्म ) मेरे लिए अत्यन्त अनुचित है / अनुथित उस (दूत-फर्मरूपी कार्य) को करनेकी इच्छा करनेवाळे आप लोगोंका (जन समाजमें) उपहास ही सुलभ होगा (दमयन्तीकी प्राप्तिरूप ), कार्य सुलभ नहीं होगा // 115 // ईशानि गदितानि तदानीमाकलय्य स नलस्य बलारिः / शंसति स्म किमपि स्मयमानः स्वानुगाननविलोकनलोलः // 116 / / ईदृशानीति / स बलारि इन्द्रः, तहानी नलस्येशानि गदितानि वाक्यानि, आकलग्य आकय / स्मयमानो मन्दं हसन् / स्वानुगानां यमादीनाम, आनन· Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 नैषधमहाकाव्यम् / विलोकने लोलो लोलुपस्सन् / स्ववाक्यानुमोदनार्थमिति भावः / किमपि किशिद्वा. क्यं शंसति स्म शशंस // 16 // उस समय नहके ऐसे (को० 104-115) कथनोंको सुनकर अपने अनुगामियों ( यमादि तीनों दिक्पालों ) का मुख देखते हुए (देखिये, यह नल मनुष्य होकर मी तथा पहले हमलोगों की याचना स्वीकार करके भी अब उसे पूरी नहीं कर रहा है, अतः अब आपलोगों की इस विषयमें क्या इच्छा है ?, भयवा-यह नल इतनी चतुरतासे वोल रहा है, इस अभिप्रायसे अपने साथियोंका मुख देखते हुए ) तथा कुछ मुस्कुराते हुए इन्द्र बोले (अथवा मुस्कुराते हुए कुछ बोले )- // 116 // नाभ्यधायि नृपते ! भवतेदं रोहिणीरमणवंशभवेन / लज्जते न रसना तव वाम्यादर्थिषु स्वयमुरीकतकाम्या // 117 // नेति / हे नृपते ! भवता इदम् / सेयमुक्तरेत्यादि प्रतिपेषवाक्यम् / रोहिणी. रमणवंशमवेन सोमवंश्येनेव नाग्यधाथि / किं स्वसोमवंश्येनेवाभिहितमित्यर्थः / प्रतिश्रुतपरित्यागादिति भावः। कुतः, अर्थिषु विषये स्वयमुरीकृतकाम्या अङ्गीकृत. मनोरथपूरणा तव रसना, वाक्यात् प्रातिकूण्यान्न लज्जते / ततो न सोमवंश्य इव प्रतिभासीत्यर्थः॥ 117 // हे राजन् ! चन्द्रवंशोत्पन्न आपने यह (को० 104-114) नहीं कहा ? अर्थात अवश्य का / स्व (इमलोगोंकी ) कामना अर्थात याचनाको स्वीकार करनेवाली मापकी जिहा आपके (हमलोगों ) से प्रतिकूल होने (पहले स्वीकार कर फिर बदल जाने ) से नहीं लज्जित होती ? अर्थात उसे अवश्य ही लज्जित होना चाहिए / [ चन्द्रवंशोत्पन्न व्यक्ति किसीकी याचनाको अस्वीकार नहीं करता और उसे स्वीकार कर यथावत पालन भी करता है आपने तो मानो 'आप चन्द्रवंशोरपन्न ही नहीं हैं। ऐसी बात कही / अथवारोहिणीरमण अर्थात् बैठके वंशमें उत्पन्न (पशु) आपने यह नहीं कहा ? आप पहले स्वीकारकर अब जो अस्वीकार कर रहे हैं, यह पशु के समान कार्य है, पशु भी पहले खाये हुए घास मादिको फिर जुगाली करने के लिए पेटसे बाहर वमन करता (निकालता) हुमा लज्जित नहीं होता, वैसे ही आप कर रहे हैं। अथवा-रोहिणीरमण ( मद्य पीनेवाले बरू. राम ) के वंशमें उत्पन्न मापने यह नहीं कहा 1 ठीक है जो मद्य पीनेवाले के वंशमें उत्पन्न व्यक्ति है, पहले यह किसी बातको स्वीकार कर बाद में अस्वीकार करने में लज्जित नहीं होता / अतः शुद्ध चन्द्रवंशोत्पन्न मापको ऐसा करना उचित नहीं है ] // 117 // भगुरश्च वितथं न कथं वा जीवलोकमवलोकयसीमम् / येन धर्मयशसी परिहातुं धीरहो चलति धीर ! तवापि // 118 / / मगुरमिति / हे धीर विद्वन् ! इमं जीवलोकं प्राणिजातम् / भारं विनश्वर, Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 321 'भाभासमिदो घुरच्' / वितथं दुःखमयस्वातिफलन / कथं वा नावलोकयसि न पश्यसि, न जानासीत्यर्थः। येनाज्ञानेन तवापि धीधर्मयशसी / अभंगुरावितथे अपीति भावः / परिहातुं चलति / अहो अस्थिरविषयलौक्यात् स्थिरसुकृतपरित्यागो भवाहशामनुचित इत्यर्थः // 114 // हे धीर नल ! तुम इस प्राणि-समूहको विनाशशील ( स्वप्न के समान ) निष्फल क्यों नहीं देखते हो 1 जिससे धर्म और यश ( दोनों ) को छोड़ने के लिये तुम्हारी बुद्धि चलाय. मान हो रही हैं, अहो! आश्चर्य है। [ संसारको विनश्वर एवं स्वप्न के समान असत्य जाननेवाले आपको, धर्म तथा यश दोनोंको तिलाञ्जलि देने का विचार करना कदापि शोमा नहीं देता। अतः भाएको हमारा दूत-कर्म अवश्य करना चाहिए ] // 118 // कः कुलेऽजनि जगन्मुकुटे वः प्रार्थकेप्सितमपूरि न येन / इन्दुरादिरजनिष्ट कलङ्की कष्टमत्र स भवानपि मा भूत् // 116 // ___ क इति / जगन्मुकुटे अगभूषणे, वः कुळे प्रार्थकेप्सितमर्थिमनोरथः येन नापूरि न पूरितम् / कोऽजनि जातः, न कोऽपीत्यर्थः / 'दीपजन-' इप्यादिना कर्तरि लुङि चिण / आदियुष्माकं कूटस्थ इन्दुः कलछी अननिष्ट जातः / कष्टं ! अन्न लोके भवा. नपि सकलको मा भूत् / अपकीति मा कुरुष्प्रत्ययाः॥ 119 // ___ आपके, संसारमें मुकुटरूप वंशमें कौन पैदा हुमा, जिसने याचककी अभिलाषा पूरी नहीं की ? अर्थात सभी ने याचकोंकी अभिलाषा पूरी की है। सर्वप्रथम चन्द्र हो कलङ्की (कलङ्कवाला, पक्षा०-मृगचिह्नित) हुआ, कष्ट है ! अब आप भी वह (कलङ्कयुक्त) न होइये। [आप. के जिस कार्यसे कुल में कलङ्क न लगे, ऐसा काम कीजिये / अथवा-आपके कुलमें आदि पुरुष अर्थात् केवल चन्द्रमा हो कलङ्को हुआ दूसरा नहीं, अतः आप हमलोगोंकी याचनाको अस्वीकार कर कलङ्की मत बनिये / अथवा-जब आपके कुरुका आदि पुरुष ही कहकी है, तब आपको भी हमारी याचनाको पहले स्वीकार करने के बाद फिर अस्वीकार करनेसे कलङ्की बनाना आश्चर्य नहीं है / आप हमारो याचनाको अस्वीकृत न करें] // 119 // यापदृष्टिरपि या मुखमुद्रा याचमानमनु या च न तुष्टिः / त्वादशस्य सकलः स कलङ्कः शीतभासि शशकः परमङ्कः // 120 // अथ विचार्यमाणे स्वमेव कलकी न शशाङ्क इत्याह-येति / स्वाहशस्य याच मान मनु अर्थिनं प्रति, याप्यपदृष्टिविकृतदर्शनं, या च मुखमुद्रा मौनं, या न तुष्टिरसन्तोषश्व, स सकलो विकारः कलकः / शीतभासि चन्द्रे, शशकः परं केवलमतः श्रीवत्सादिवत् चिह्न, न तु कला इत्यर्थः // 120 // ___ याचकको देखकर जो दुदृष्टि (बुरी निगाइसे देखना), जो मौन और जो सन्तोषाभाव है। वही तुम्हारे जैसे (धर्मारमा एवं धैर्यशाली पुण्यश्लोक ) व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण कलङ्क है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 नैषधमहाकाव्यम् / (वस्तुतः) चन्द्रमा ( तुम्हारे वंशका आदि प्रवर्तक) में भी कोई कलङ्क नहीं हैं, (किन्तु वह ) केवल शशक ( का चिह्न ) है / [ तुम्हारा वंशपवतंक चन्द्रमा कलङ्की नहीं, किन्तु याचकों को देखकर जो तुम प्रसन्न दृष्टिसे नहीं देखते, याचना पूरा करनेके लिए स्वीकार करके भी फिर उसे पूरा नहीं करते और ओ सन्तुष्ट नहीं होते; यह सब तुम्हारे जैसे व्यक्तिके लिये कलङ्क है, अतः तुम्हें हमलोगों के प्रति वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए ] // 120 // नाक्षराणि पठता किमपाठि प्रस्मृतः किमथ वा पठितोऽपि / इत्थमर्थिजनसंशयदोलाखेलनं खलु चकार नकारः / / 121 // किश्वमर्थिषु ते नास्ति वाद इत्याह-नेति / अपराणि पठता शैशवे मातृकार राण्यभ्यस्यता भवता, नकारो निषेधवाची नशब्दो नापाठि किम् / अथवा, पठितो. ऽपि प्रस्मृतो विस्मृतः / इस्थमर्थिजनस्य संशय एव दोला तया खेलनं क्रीडाम् / नकारश्वकार / अनाथिनामीहरुसंशयासम्बन्धेऽपि तरसम्बन्धोक्तेरतिशयोकिभेदः / स चोक्तसंशयोस्थापित इति सरः॥ 121 // मक्षरों ( वर्णमाला ) पढ़ते हुए तुमने 'न' अक्षरको नहीं पढ़ा क्या ? अथवा पढ़कर भी भूल गये / इस प्रकार 'न'कारने याचक लोगोंके सन्देहरूपी झूलेकी क्रीडा कर दी। [ झूळेमें दोनों ओर दो रस्सियाँ रहती हैं, पर 'यहाँ आपने 'न' अक्षरको नहीं पढ़ा या पढ़कर उसे भूल गये ?' ये दो संदेह ही दो रस्सियों हैं, उस प्रकार के झूलेपर 'न'कार मानों कोढा कर रहा है। आपने अब तक किप्तीको पाचना करनेपर 'नहीं' नहीं कहा, मतः अब भी हमलोगोंको 'नहीं' मत कीजिये ] // 121 // अब्रवीत्तमनलः क नलेदं लब्धमुन्मसि यशः शशिकल्पम् / कल्पवृक्षपतिमर्थिनमेनं नाप कोऽपि शतमन्युमिहान्यः // 122 // भनत्रीदिति / अथानलोऽग्निस्तं नलमप्रवीत् / हे नल ! इदं वषयमाणं, लन्धं हस्तप्राप्तं, शशिकल्पं चन्द्रप्रतिम, यशः, क्वोजमसि कुत्र त्यजसि। किं तयशस्त. दाह-इह लोके, अन्यस्त्वयतिरिका, कोऽपि कल्पवृक्षपतिममन्यार्थिनमित्यर्थः / एनं शतमन्युमिन्द्रं, अर्थिनं नाप / तदेतदस्तगतमिन्द्रवाध्यत्वयशो वृथा मा विनाः शयेत्पथः // 122 // भग्नि उस नलसे बोले-'हे नल ! चन्द्रमाके समान ( अत्यन्त निर्मळ ) प्राप्त यशको कहाँ छोड़ रहे हो ? इस लोकमें दूसरे किसीने (व्यक्तिने) मी कल्पवृक्षके स्वामी इस इन्द्रको याचक रूपमें नहीं पाया है। [यदि तुम इन्द्र की याचना पूरी नहीं करोगे तो ये दूसरे किसीसे याचनाकर दमयन्तीके यहाँ दूत-कर्मके लिए भेजेंगे, इस अवस्थामें 'कल्पवृक्षका स्वामी अर्थात् कल्पनामात्रसे दूसरेकी इच्छा पूर्ण करनेवालेका स्वामी तथा सौ यशोंको करनेवाळे, मतः सत्पात्र इन्द्र भी नलसे याचना किये थे ऐसा निर्मल यश इस Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः समय जो तुम्हें प्राप्त हो रहा है, वह दूसरेको प्राप्त हो जायेगा; अतः ऐसा (मिलते हुए उत्तम यशका त्याग ) करना तुम्हें उचित नहीं। और कदाचित् ये इन्द्र कल्पवृक्षसे ही दमयन्ती को चाहेंगे तो वह अपनी दानशीलतावश तथा अपना स्वामी होनेके कारण इनके लिए दमयन्तीको अवश्य दे देगा, इस अवस्थामें तुम्हें दमयन्ती नहीं मिल सकेगी, इस प्रकार तुम उक्त यशोलाम तथा दमयन्तीलाम दोनोंसे हाथ धो वैठोगे / इस कारण मी तुम्हें इनकी याचना पूरी करनी चाहिए / और भी-यदि तुम इनकी याचना पूरी नहीं करोगे, तब शतमन्यु अर्थात् सैकड़ों क्रोधवाळे होनेसे ये तुम्हे शाप भी दे देंगे, इस कारण भी इनकी याचना तुम्हें पूरी करनी चाहिए / यहाँ अग्नि भी इन्द्र के साथ कपटपूर्ण व्यवहार कर नल से कहते हैं कि-'ये इन्द्र कल्पवृक्ष के पति है अर्थात् कल्पवृक्षसे भी अपना काम पूरा करा सकते हैं तथा सैकड़ों कोध करनेवाले हैं अतः महाकोधी होनेसे पात्र है, अतः जिसकी याचना दूसरे भी पूरी कर सकें तथा महाकोधी होनेसे जो अपात्र है, उसको दान देकर जिसको कोई देने वाला नहीं तथा जो सत्पात्र है, उसको अर्थात् मुझे दान देना चाहिए अर्थात् आप मेरा दूत कर्म करें ] // 122 // न व्यहन्यत कदापि मुदं यः स्वःसदामुपनयन्नभिलाषः / तत्पदे त्वदभिषेककृतां नः स त्यजत्वसमतामदमद्य // 123 // नेति / स्वासदः स्वर्वासिनः। 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना विप / तेषां नः सम्बन्धी योऽभिलाषो मनोरथो मुदमुपनयन् स्वसिद्धया सन्तोषमावहन, कदापि न व्यहम्यत न विहतः। अध, पदे तद्ग्यवसिते, तरसम्पादकाधिकार इत्यर्थः / 'पदं व्यवसि. तत्राणस्थानलचमांघ्रिवस्तुषु' इत्यमरः / स्वदभिषेककृतास्वां स्थापयतां, नः सम्बन्धी सोऽभिलाषः / असमता असाधारण्यं, स्वसिद्धावनन्यापेक्षत्वमिति यावत्। तम्मदं त्यजतु / अद्य प्रभृति स्वार्थसाधने स्वयमेव समर्थाः सुरा इस्यहवारं मुश्चाम इत्यर्थः // 123 // स्वर्गनिवासी हम लोगों की जो अभिलाषा कभी नष्ट नहीं हुई, उसके स्थानपर आपको भभिषिक्त करते हुए हमलोगों की वह अभिलाषा आज असमानता ( मेरे समान कोई नहीं है ऐसे ) के अभिमानको छोड़ दें। [हमलोगों की अभिलाषा आजतक यह समझती थी कि मैं स्वतः पूरी होकर स्वर्ग-निवासी देवताको हर्षित करती हूं, अत एव मेरे समान कोई नहीं है, ऐसा उसको अभिमान हो गया, किन्तु आज आपसे याचना करनेके कारण उस ममिलाषा को अपना उक्त अभिमान छोड़ देना चाहिए। आप हमलोगोंकी अभिलाषा पूरी करें] // 123 // अब्रवीदथ यमस्तमदृष्टं वीरसेनकुलदीप ! तमस्त्वाम् / यत्किमप्यभिबुभूषति तल्किं चन्द्रवंशवसतेः सदृशं ते // 124 // अब्रवीदिति / अथ यमः अहष्टमसन्तुष्टं, तं नकमब्रवीत् / हे वीरसेनकुलदीप ! Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 नैषधमहाकाव्यम् / किमपि यत्तमो मोहोऽन्धकारश्च स्वामभिबुभूषति भभिभवितुमिच्छति / तचन्द्रवंशे वसतिः स्थितिर्यस्य तस्य ते सहशं किम् / न हि चान्द्रस्य तेजसस्तमसाभिभवो युक्त इत्यर्थः // 124 // इसके बाद ( दमयन्तीकी प्राप्तिमें बाधा मा मानेसे ) परहित उस नकसे यम बोले'हे वीरसेन वंशके दीपक नल ! तुमको मो कुछ (थोड़ा सा मतकणीय ) तम ( अज्ञान, पक्षान्तरमें-अन्धकार ) पराजित करना चाहता है, वह चन्द्रवंशमें रहनेवाले अर्थात् चन्द्रवंशोत्पन्न तुम्हारे लिए योग्य है क्या 1 अर्थात कदापि नहीं। [चन्द्रवंशी राजा कोग प्राण देकर भी याचकोंकी भाशा पूरी करते थे, मतः तुम्हें मी हमलोगों को निराश नहीं करना चाहिए / तथा-दीपकके पास एवं चन्द्रमामें रहनेवाले के पास अन्धकार होना उचित नहीं है, अतः तुम्हें मी अज्ञानमें न पड़कर हमलोगोंकी याचना पूरी करनी चाहिए / अथवाचन्द्रको तम अर्थात राहुसे पराजित होने के समान तुम्हारा ऐसा करना उचित ही है]॥१२४॥ रोहणः किमपि यः कठिनानां कामधेनुरपि या पशुरेव / नैनयोरपि वृथा भवदर्थी हा विधित्सुरसि वत्स ! किमेतत् // 125 // रोहण इति / यो रोहणो मणीनामाकरोऽदिः, सोऽपि कठिनानां मध्ये किमपि कठिनः। या कामधेनुः सापि पशुरेव / एनपोः पशुपाषाणयोरपि सम्बन्धी। द्विती. याटोस्चेनः' इतीदंशब्दस्य एतच्छन्दस्य वा अन्वादेशविषये इनादेशः / अर्थी वृथा विफली नामवत् / हे वरस, किमेतद्विषिरमुर्विधातुमिछुरसि। हेति विषादे। हा कष्टं पशुपाषाणाभ्यामपि तुच्छवृत्तिरसीत्यर्थः // 125 // जो कठिनों ( पक्षान्तरमें-निष्ठुरों ) में रोहण (रोहण नामक पर्वत, सुमेरु अथवा रत्नोंका उत्पत्तिस्थान वैदूर्य पर्वत ) है, यह कुछ ( अत्यन्त कठोर या अत्यन्त निष्ठुर या अत्यन्त कृपण ) है, तथा जो कामधेनु है, वह पशु (ज्ञानशून्य, पक्षान्तरमें-मूर्ख हो) है। इन दोनों के यहाँ भी कोई याचक निराश नहीं हुआ. तो हा ! हे वत्स ! तुम यह क्या करना चाहते हो ? [ अत्यन्त निष्ठुर तथा कृपण वैदूर्य या मेरु पर्वत और पशु एवं मूर्ख कामधेनु भी यदि अर्थियों को निराश नहीं करते तो अत्यन्त कोमल स्वभाववाले तथा विद्वान् तुमको ऐसा करनेकी ( याचना पूरी न करनेकी) इच्छा करना उचित नहीं है, 'चूंकि तुम बच्चे हो और पञ्चेको सावधान कर देना बड़ोंका धर्म है; अतः हम तुम्हें सावधान कर रहे हैं, यह 'वरस' शब्दसे ध्वनित होता है ] // 125 // याचितश्चिरयति क नु धीरः प्राणने क्षणमपि प्रतिभूः कः / शंसति द्विनयनी दृढनिद्रां द्राङ्निमेषमिषघूर्णनपूर्णा / / 126 / / पाचित इति / क्व नु कुत्र, धीरः सुधीर्याचितः सन् चिरयति विलम्बते / न कुत्रापि विलम्बत इत्यर्थः / कुतः, षणमपि प्राणने जीवने, प्रतिभूलग्नकः कः, न Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 325 कोऽषीत्यर्थः / दानिमेषमिषेण शीघ्रपथमपातम्याजेन, घूर्णनेन कनीनिकाभ्रमणेन पूर्णा दिनयनी नयनद्वन्द्वमेव, दृढनिद्रा मरणं, शंसति / नयनघूर्णनवरक्षणिकं जीवन मित्यर्थः // 126 // __याचना करनेपर धीर दाता कहाँ विलम्ब करता है ? अर्थात् कहींपर कोई धीर दाता विलम्ब नहीं करता, किन्तु याचना करते ही तुरन्त दे देता है / क्षणमात्र भी जीने में कौन मध्यस्थ (जिम्मेदार ) है 1 अर्थात् किसी व्यक्तिके क्षणमात्र जीने की जिम्मेदारी कोई नहीं उठा सकता / शीघ्र निमेष ( पलक गिरना) के व्याजसे घरनेसे परिपूर्ण दोनों नेत्र महानिद्रा अर्थात मरणको कह रहे हैं। [जितने समयमें निमेष होता है, उतने ही समयमें मरण हो जाता है, अत एव बुद्धिमान्को बिना विलम्ब किये याचककी अभिलाषा पूरी करनी चाहिए ] || 126 // अभ्रपुष्पमपि दित्सति शीतं सार्थिना विमुखता यदभाजि | स्तोककस्य खलु चञ्चुपुटेन ग्लानिरुल्लसति तद्घनसचे // 127 // अभ्रपुष्पमिति / शीतं शीतलमभ्रपुष्पमुदकम् / 'मेघपुष्पं धनरस' इत्यमरः / तद् धनपुष्पं, तदुर्लभं वरिस्वति च गम्यते। दिसति दातुमिच्छत्यपि / न तु परि. जिहीर्षतीत्यर्थः, घनसङधे मेघवृन्दे, भर्थिना याचकेन, स्तोककस्य चातकस्य / 'अथ सारङ्गः स्तोककश्चातकः समो' इत्यमरः / चक्षुपुटेन सा प्रसिद्धा विमुखता / पक्षिमु. खस्वं पराङ मुखत्यञ्च / अभाजीति यत् / तत्तस्माद्वमुख्यभजनात् / ग्लानिर्जलभरम. न्यरत्वं वैवण्य चोल्लसति स्फुरति / अत्रार्थिन एव वैमुख्ये दातरियं ग्लानिः किमत दातृवैमुख्ये / तस्माताहशस्य तवेदमयिवैमुख्यमनुचितमिति भावः // 127 // चातकके याचक मुखमें ( विलम्ब होनेसे ) जो विमुखता (पक्षीके मुखका भाव) हुई, उस कारण ठंडा जल देनेवाले मेघ-समूइमें मलिनता दिखलाई पड़ती है / पक्षान्तरमें-अपके याचकने नो विमुखता (निराशता ) धारण की, इस कारणसे दुलंम आकाश-पुष्प (वर्षाजल ) देने की इच्छा करते हुए मेघ समूहमें कालिमा अर्थात् जन्म भर के लिए कलङ्क हो गया है। [ तुच्छ तिर्यक् योनिमें उत्पन्न चातकके याचना करने पर थोड़ा विलम्बकर दुर्लम आकाश-पुष्प ( पक्षा०ठंडा जल ) देने के इच्छुक मेघ समूहमें भी जब कालिमारूप कलङ्क हो गया, तब हमलोग-जैसे सत्पात्रों को पहले देनेको कहकर फिर निराश करनेपर तुम्हें बड़ा कलङ्क लगेगा, अतः शीघ्र ही हमलोगोंकी याचना तुम्हें पूरी कर देनी चाहिए ] // 127 // ऊतिवानुचितमक्षरमेनं पाशपाणिरपि पाणिमुदस्य | कीर्तिरेव भवतां प्रियदारा दाननीरझरमौक्तिकहारा // 12 // अविवानिति / पाशपाणिवरुणोऽपि, पाणिमुदस्य उद्यम्य, एनं नलम्, उचितं युक्तम्, अखरं वाक्यम्, अचिवान् उक्तवान् / यदुक्तं तदाह-कीर्तिरिति / दाननी. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 नैषधमहाकाव्यम् / राणां झरः दानजलप्रवाह, स एव मौक्तिकहारो यस्यास्तथोका कीर्तिरेव भवतां युष्माकं प्रितदाराः प्रिपकलनम् / 'पं भूग्नि दाराः' इत्यमरः। एतेन भार्याया अपि कीतिः प्रियतमेति भावः / अतो दमयन्तीलोमा कीर्ति जहीत्यर्थः। अत्र रूपका. लङ्कारः // 128 // हाथमें पाश धारण करनेवाले अर्थात वरुण भी हाथ उठाकर इस नलसे उचित बात कहे-'आप ( -जैसे राजा, पाठान्तरमें-राजाओं) की दानमें दिये जानेवाले सङ्कल्पजल. प्रवाहरूपी मुक्ताहारयुक्त कीत्ति ही प्रिय स्त्री है / [ मतः तुम्हें दमयन्तीको वरण करनेकी भमिला। छोड़कर हमगेगोंका दूत- कर्म करके कोक्ति (रूपा उत्तम स्त्री) को प्राप्त करना चाहिए ] // 128 // चर्म वर्म किल यस्य नभेद्यं यस्य वजमयमस्थि च तौ चेत् / स्थायिनाविह न कर्णदधीची तन्न धर्ममवधीरय धीर ! // 126 // चमेति / यस्य कर्णस्य चमत्वक नभेषमभेयम् / नअस्य न-शब्दस्य 'सुप्सु. पा' इति समासः / वम कवचं किल / यस्य दधीचेरस्थि च वज्रमयं किल / किलेति प्रसिद्धौ। तो महासत्वमालिनी कर्णवधीची। इह अगति, स्थायिनी न चेत् / तर्हि, हे धीर धीमन् ! धर्म नावधीरय नावमन्यस्व / कर्णादीनामस्थिरत्वम् / तद्धर्मस्य च स्थैयं दृष्ट्वा स्वमपि तथैषाचरेत्यर्थः // 129 // जिस (कर्ण) का चमड़ा अभेष कवच होगा तथा निस (दोचि ) की अभेद्य हड्डी वज्रमय थी, वे कर्ण तथा दधीचि इस संसार में स्थिर नहीं (क्रमशः होंगे और हुए), इस कारणसे हे धीर ! ( बुद्धिमान् नक!) धर्मका त्याग मत करो। [ द्वापर युगमें होनेवाले राजा कर्ण अभेद्य कवच बनानेके लिए अपने शरीरका चमड़ा इन्द्रको दे देंगे, तथा सत्ययुगमें हुए महर्षि दधीचिने वृत्रासुरको मारने के लिए इन्द्रके याचना करनेपर वज्र बनाने के किये अपनी इड्डी दे दी थी, वे दोनों (कर्ण तथा दधीषि) इस संसारमें क्रमशः स्थिर नहीं रहेंगे भोर न रहे / यहाँ कर्ण तथा दधीचिको क्रमशः दापर तथा सत्ययुगमें होना मानकर उक्त व्याख्या की गयी है। किसी-किसी व्याख्याकर्ताका कस्प-भेद मानकर कर्ण तथा दधीचि-दोनोंको ही भूतकाल के भभिप्रायसे ही एक साथ वर्णन करना विरुद्ध नहीं है। इस व्याख्यामें दोनोंको मृत्युने नहीं छोड़ा, अतः तुम्हें भी हमलोगोंकी याचना पूरी कर धर्मामन करना चाहिए / यह अर्थ समझना चाहिए ] // 129 // अद्य यावदपि येन निबद्धौ न प्रभू विचलितुं बलिविन्ध्यौ / आश्रुतावितथतागुणपाशस्त्वाशेन विदुषा दुरपासः / / 130 // भोति / येन सस्पसबस्वाशेन, निबद्धो बलिवैरोचनिःसचविण्यश्च तौ। जय यावदेवरिन , विचलितुमपि प्रभू समयौँ न स्तः। आश्रुतस्य प्रतिज्ञा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 पञ्चमः सर्गः तार्थस्य अवितथता सत्यता, सैव गुणः, उत्कृष्टधर्मः सः एव पाशो बन्धः, स्वादशेन विदुषा स दुरपासः दुरुन्छेदः / बलिवियादिरशाम्तेन यावज्जीवनिबन्धेनापि प्रति. ज्ञातार्थनिर्वाहः कार्य इत्यर्थः // 130 // दैत्यराज बलि तथा विन्ध्य पर्यंत जिस ( सत्यप्रतिज्ञरूप गुणपाश ) से बंधे हुए भाज तक भी विचलित होने ( अपनी स्वीकृत बातको झूठा करने ) में समर्थ नहीं हुए अर्थात् जिस बातको स्वीकृत किये, उसका आजतक पालन कर रहे हैं। तब तुम्हारे-जैसे ('आस्थित' पाठमें -वैसे सुप्रसिद्ध ) विद्वान्को उस सत्यप्रतिशत्व-गुण-पाशका त्याग नहीं करना चाहिये / [ जब अत्यन्त उच्लबल स्वभाववाले दैत्योंका राजा बलि तथा जड़ एवं कठोरतम विन्ध्य पर्वत मी स्वीकार की हुह अपनी बातपर भाजतक डटे हुए हैं ( उसे झूठा नहीं करते ) तब आप भी हमलोगों के दूत-कर्मको स्वीकृतकर 'भङ्गोकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति' नीतिको स्मरणकर अन उससे पराङ्मुख मत होइये / पहले राजा बलि वामन भगवान्को तीन पैर भूमि दानकर उनसे वचनबद्ध होकर आजतक पाताललोकमें रहते हैं, तथा सुमेरुको जीतने की इच्छासे बढ़ते हुए विन्ध्य पर्वतको सूर्य-मार्ग रुकने की आशङ्कासे युक्त देवों की प्रार्थनासे दक्षिण दिशाको जाते हुए अपने गुरु अगस्त्य मुनिको साष्टाङ्ग दण्डवत् करनेवाला विन्ध्यपर्वत उनके कहनेसे भाजतक वैसे ही पड़ा हुआ है, ये दोनों पौराणिकी कथायें जाननी चाहिये ] // 130 // प्रेयसी जितसुधांशुमुखश्रीर्या न मुञ्चति दिगन्तगतापि / भङ्गिसङ्गमकुरङ्गहगर्थे कः कदर्थयति तामपि कीतिम् / / 131 / / प्रेयसीति / प्रेयसी प्रियतमा, जिता सुधांशुमुखानां चन्द्रादीनां श्रीर्यया सा। अन्यत्र, जितसुधांशुमुखश्रीर्यस्याः सा तथोका। या कीर्तिदिगन्तगतापि देशा. न्तरगतापि, न मुश्चति / तामपि कीर्ति भनिसनमः भंगुरसतिर्यस्यास्तस्याः कुरङ्गाशोऽर्थे तदर्थम् / तादथ्यऽग्ययीभावः / कुरिसतोऽर्थः कदर्थः / 'कोः कत्तःपुरुः चि' इति कुशब्दस्य कदादेशः, तं करोति कदर्थयति व्यर्थयतीत्यर्थः / को नामा. स्थिरार्थ स्थिरं जह्यादिति भावः // 131 // चन्द्रमा आदिको शोमाको बीतनेवाली ( पक्षान्तरमें-चन्द्रमुखी अर्थात चन्द्रमाके समान शोमायुक्त मुखवाली स्त्रीको शोमाको जीतनेवाली ) बो परमप्रिया ( कीर्तिरूपिणी सी) दिशाओं के अन्त अर्थात् बहुत दूरतक जाकर भी ( पतिको ) नहीं छोड़ती, उस कीर्ति (रूपिणी स्त्री) को मङ्गुर (विनाशशील ) सहवासवाली मृगनयनी (पक्षान्तरमें-मंगुर साथवाली लोकमोहिनी होनेसे निन्दित दृष्टिवाली ऐसी स्त्री) के किये कौन (पुरुष) पीडित करेगा ? अर्थात कोई नहीं। [कोतिरूपिणी स्त्री श्वेत होनेसे चन्द्र, तारा मादिको, 22 नै० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 नैषधमहाकाव्यम् / पक्षा-चन्द्रमुखी स्त्रीको भी जीतनेवाली है तथा दूरतम स्थानमें जाकर भी पतिका सहवास नहीं छोड़ती, अतः परमसाध्वी है / इसके विपरीत चन्द्रमुखी मृगनयनी स्त्री थोड़ी दूर जानेपर साथ छोड़ देती है। अथवा-कीति-भिन्न स्त्रीकी दृष्टि अन्यबनमोहिनी होनेसे निन्दनीय है, अतः यह स्त्री वैसी साध्वी नहीं है, इस कारण परमसाध्वी स्त्रीको सामान्य एवं अनिस्य सङ्गवाली सपत्नीके लिये कोई नहीं छोड़ता। साथ हो-त्रिकालदशी यम मविष्यमें कलिके प्रमावसे दमयन्तीका साथ छूटनेकी ओर भी संकेतकर कह रहे हैं कि वियुक्त होनेवाली दमयन्ती के लिये स्थायी रूपसे मिलनेवाली कीर्तिका त्याग मत करो] // 221 // यान 'वरं प्रति परेऽर्थयितार स्तेपि यं वयमहो स पुनस्त्वाम् | नैव नः खलु मनोरथमात्रं .. शूर ! पूरय दिशोऽपि यशोभिः // 132 / / यानिति / परे अन्ये जनाः, वरं प्रति इष्टलाभमुहिश्य, यानस्मामर्थयितारः / ताच्छील्ये तृन् / 'न लोक'-इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद् द्वितीया। ते वयमपि यं स्वामययितारः स्मः / अहो, स एवं पुनर्नोऽस्माकं, मनोरथमानं मनोरथमेव नैव पूरय / किंतु, हे शूर! यशोभिर्दिशोऽपि पूरय खलु / तस्मादस्मन्मनोरथपूरणेन ते दिगन्त विश्रान्ता कीर्तिर्भविष्यति / अन्यथा, अपकीतिरपि ताशी भविष्यतीति भावः // 132 // दूसरे लोग मी बिन (हमलोगों ) से अमीष्ट वरकी याचना करते हैं ( पाठभेदसेदूसरे लोग बिनसे केवल याचना करते है अर्थात देते कुछ भी नहीं), वे हमलोग तुमसे याचना करते हैं, यह आश्चर्य हैं। फिर वह तुम हे (दान-) शूर ! केवल हमलोगों के मनोरथको ही पूर्ण मत करो, किन्तु ( सबलोगोंको वर देनवाले इन्द्रादि दिक्पाल भी नलके यहाँ याचक बने, ऐसे ) यशसे दिशाओं को भी पूर्ण कर दो। [ हमलोगोंकी याचना पूर्ण करनेसे तुम्हारा यश सब दिशाओं में फैल बायेगा, अतः तुम्हें ऐसा अवसर नहीं चूकना चाहिए] // 132 // अर्थितां त्वयि गतेषु सुरेषु म्लानदानजनिजोरुयशःश्रीः / अद्य पाण्डु गगनं सुरशाखी केवलेन कुसुमेन विधत्ताम् // 133 // आर्थितामिति / अद्य सुरशाखी कल्पवृषः सुरेचस्मासु स्वयि विषये, अथितां गतेषु सत्सु म्लाना अर्यभावतीणा, दामजा दानजन्या, निजा उरुमहती यशःश्रीः 1. 'परम्' इति पाठान्तरम् / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 पञ्चमः सर्गः कीर्तिसम्पयस्य सः, तथा सन् , केवलेन कुसुमेन गगनं पाण्डु शुभं, विधताम् / न तु वितरणेन यशसा / स्वार्थिनामन्यार्थित्वेन तषिदानदानकथास्तमियादिति भावः // 133 // हमलोगोंके तुम्हारे यहाँ याचक होनेपर, मलिन हो गयी है दानजन्य विशालकीर्ति शोभा जिसकी, ऐसा कल्पवृक्ष भाकाशको केवल पुष्पोंसे ही इबेत करे / [ पहले सब लोगोंकी याचना पूरी करनेसे कल्पवृक्ष के यश तथा पुष्प दोनोंसे ही भाकाशमण्डल श्वेत होता था. किन्तु अब दिक्पाल हमलोगोंके तुम्हारे यहां याचक हो जानेपर कल्पवृक्षकी दानशन्य कीर्ति आजसे नहीं रह जायेगी, अतः वह केवल अपने पुष्पोंसे ही भाकाशमण्डलको श्वेत करेगी / हमारी याचना पूरी करके आजसे तुम कल्पवृक्षसे भी बड़ा दानी बन जावोगे] // 133 // प्रवसते भरताजनवैन्यवत् स्मृतिधृतोऽपि नल ! त्वमभीष्टदः / स्वगमनाफलतां यदि शङ्कसे __ तदफलं निखिलं खलु मङ्गलम् / / 134 / / अन यात्रावैफल्यशया ते सङ्कोचस्तावइनाशनीय एवेत्याह-प्रवसत इति / हे नल ! प्रवसते प्रयाणं कुर्वते, भरतः शाकुन्तलेया, अर्जुनो हैहया, वैन्यः पृथुः, तैस्तुल्यं तद्वत् / 'तन तुल्यं क्रिया चेहतिः' / स्मृत्या धृतः स्मृतिस्तः, स्मर्यमाणो. ऽप्यभीष्टदः इष्टार्थप्रदत्वं स्वगमनस्य स्वयात्रायाः अफलतां वैफल्य शङ्कसे यदि, तत्तहि, लोके निखिलं सर्वमपि मजलं यात्राकालिक स्वस्मरणलक्षणं मङ्गलाचरणमा फलं खलु / यथा च-वेन्यं पृथु हैहयमर्जुन शाकुन्तलेयं भरतं नलं च / एतान्न: पान्यः स्मरति प्रयाणे तस्यार्थसिद्धिः पुनरागमश्च // ' इति शास्त्रमप्रमाणं स्यादि. स्यर्थः / तथा च मस्मरणादन्येषामर्थसिद्धिस्तस्य तथाऽर्थसिद्धौ का सन्देह इति भावः // 134 // हे नल ! भरत (दुष्यन्तपुत्र ), (सहस्रार्जुन) और वैन्य ( राजा पृथु ) के समान स्मरण करनेपर यात्रा करते हुए व्यक्तिके अभीष्टको देनेवाले तुम यदि अपने जानेकी निष्फलताका सन्देह करते हो, तब तो वह सम्पूर्ण मङ्गक निश्चित ही निम्फल हो जायेगा। [ यात्रा करते समय भरत आदिके समान तुम्हारे नाम का स्मरणमात्र करनेसे यात्रा करनेवाले व्यक्तिका मनोरथ पूर्ण हो जाता है, अतः साक्षात् मङ्गलस्वरूप तुम्हारी ही यात्रा यदि निष्फल हो जायेगी तब तो अन्य लोगों के लिये उक्त मङ्गलकारक बचन भी निष्फल हो जायेगा, अतः तुम्हें हमलोगों के दूत-कर्म करने में निष्फल होनेकी शङ्का कदापि नहीं करनी चाहिये ] // 134 // Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 नैषधमहाकाव्यम् / 'इष्टं नः प्रति ते प्रतिश्रुतिरभूद्याद्य स्वराह्लादिनी धर्मार्था सृज तां श्रुतिप्रतिभटीकृत्यान्विताख्यापदाम् / त्वत्कीतिः पुनती पुस्त्रिभुवनं शुभ्राद्वयादेशनाद् द्रव्याणां शितिपीतलोहितहरिनामान्वयं लुम्पतु // 135 / / इष्टमिति / अच नोऽस्माकम, इष्टमिच्छां, याग प्रति / 'इष्टिांगेच्छयोः' इत्यमरपचे यजेरिषेश बियां किन् / 'वधि स्वपि-'इत्यादिना यजेः सम्प्रसारणम् / 'प्रश्व-' इत्यादिना षत्वम् / इषे किन्प्रत्ययापवाद इति काशिकायाम् / तया प्रयोगः प्रावल्यात् साधुस्वं द्रष्टव्यम् / स्वः स्वर्गम, अन्यत्र स्वरैरुदात्तादिभिरालादिनी धर्मोऽर्थः प्रयोजनमभिधेयं च यस्याः सा धर्मार्थी या प्रतिश्रुतिः / 'जीवितावधि किमा प्यधिक वेति श्लोकोक्तास्मन्मनोरथपूरणप्रतिज्ञा अभूत् , तां प्रतिश्रुति श्रुतिप्रतिभा टीकृस्य वेदप्रतिनिधीकृत्य, सत्यापयिस्वेत्यर्थ / अन्विताण्यापदां पज / सत्यत्वेन प्रतिप्रतिनिधीकृत्य प्रतिभूतिरित्यन्धर्थनामाचरां कुरु / सत्यप्रतिज्ञो भवेत्यर्थः / अस्य फलमाशीमखेनाह-स्वरकीर्तिरिति / स्वरकीतिः पुनस्स्वधशस्त, त्रिभुवनं भुवनप्रयं, समाहारे द्विगुरेकवचनम्, पात्रादिस्वामापुंसकत्वम् / पुनती पावयन्ती / पुनातेः शतरि डीप / द्रव्याणां नीलपीतादिद्रयाणां, शुभ्रः शुक्लगुणः / 'गुणे शुक्लादयः पुसि', इत्यमरः / तेनायादेशनादभेदापादनाच्छितिपीतादिनामभिर्वाचकपदैरन्वयं वाच्यत्वलक्षणं सम्बन्धं, लुम्पतु निवर्तयतु / अर्थिमनोरथपूर्त्या कीर्ति सम्पादये. त्यर्थः / अत्र नीलादीनी वस्तूनां स्वगुणस्यागेन कीर्तिगुणग्रहणात्तद्गुणालकारः। 'तद्गुणः स्वगुणत्यागादन्योत्कृष्टगुणाहृतिः' इति लक्षणात् // 135 // हमलोगों के मनोरथ ( पक्षान्तरमें-यज्ञ ) के प्रति मधुर स्वरसे माहलाहित करनेवाली ( अथवा-स्वर्गके समान भाादित करनेवाली, अथवा-अकारादिरूप स्वरवर्ण ( भाउ कल..."") से मालादित करनेवाली; ( पक्षान्तर में-उदात्त आदि स्वरों से आह्लादित करनेवाली, पाठभेदसे-देवताओं को आह्लादित करनेवाली ) जो धर्मार्थ तुम्हारी प्रतिश्रुति (प्रत्युत्तर, पक्षान्तरमें-श्रुति अर्थात् वेदकी प्रतिनिधि वाणी) हुई; उसे श्रुति (वेद) का प्रतिमट अर्थात् प्रतिद्वन्दी ( वेदतुल्य ) बनाकर सार्थक करो। तुम्हारी कही हुई वेदान्त का प्रतिपादन करने वाली अति, (श्रवण-मनन-आचरणादि द्वारा) तीनों लोकों (पक्षान्तर मेंत्रिभुवन अर्थात सत्त आदि तीनो गुणों से उत्पन्न + अत्यन्त गहन-संसार) को निवृत्ति के 1. 'इष्टिम्' इति पाठान्तरम् / 'तिलक-जीवास्वोस्तु 'इष्टिम्' इत्येव पाठोऽजी. कृतः' इति म. म. शिवदत्तोतिबिन्स्या, जीवातौ 'इष्टम्' इत्येव पाठमङ्गीकृत्य ग्याल्यानदर्शनात्। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः दारा पवित्र करती हुई निर्मलता ( पक्षान्तरमें-हो-हीन अद्वैत ब्रह्म) के विस्तार ( पक्षान्तरके-उपदेश ) से द्रव्यों ( सांसारिक पदार्थों) के मेचक (कपोतकण्ठवत् वर्णविशेष ), पीला, लाक तथा हरा इनके सम्बन्ध या नामको नष्ट करो। [हमलोगों के मनोरयके प्रति कहे हुए मधुर स्वरसे आह्लादित करनेवाले धर्मार्थ अपने प्रत्युत्तरको वेदतुल्य सार्थक कीजिये तथा इससे संसारको पवित्र करनेवाली फैलती हुई एकमात्र निर्मल कीर्तिसे समस्त वस्तुओंके कर्बुर, पीला, लाल और हरा-इन रंगोंको ना कीजिये अर्थात् अपनी कोर्तिसे संसारकी सभी वस्तुओं को श्वेत वर्णकी बनाइये / जो आपकी प्रतिश्रुति है, उसे अति ( वेद-वाक्य ) को प्रतिमट करना उचित ही है / वेदवाक्य भी यज्ञके उद्देश्यसे कहे जाते हैं, उस यज्ञके द्वारा बे देवोंको बाह्लादित करनेवाले होते हैं, अथवा-उदात्तादि स्वरोंसे देवतामों तथा श्रोताओं को आह्लादित करनेवाले होते हैं। वह श्रुति (वेट) सत्त्वादि गुणों से उत्पन्न एवं वनके समान अतिगहन संसारको पवित्र करती है तथा सर्वदोषवनित भदैत ब्रह्मका 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इत्यादि वेदान्त काक्यों का प्रतिपादन करती हुई 'अजामेको लोहितशुक्लकृष्णा......, इत्यादि प्रत्युक्त मायाका नाश करती है। तुमने पहले हमलोगोंसे याचना पूरी करनेका जो वचन कहा है, उसे वेदवाक्यके समान सत्यकर अपनी शुभ्र कीर्तिको संसारमें फैलामो] // 135 // यं प्रासूत सहस्रपादुदभवत्पादेन खञ्जः कथं स च्छायातनयः सुतः किल पितुः सादृश्यमन्विष्यति / एतस्योत्तरमद्य नः समजनि त्वत्तेजसा लङ्घने ___ साहस्रैरपि पंगुरंघ्रिभिरभिव्यक्तीभवन्भानुमान् // 16 // यमिति / यं शनैश्चरं, सहस्रं पादाः रश्मयोऽङ्घ्रयश्च यस्य सः, सहस्रपात् सूर्यः। 'पादा रश्म्यघ्रितुर्यांशाः' इत्यमरः / 'सख्यासुपूर्वस्य' इति समासान्तलोपः / प्रासूत प्रसूतवान् , सः छायात नयः शनैश्चरः। 'मन्दश्छायासुतः शनिः' इत्यमरः शेषः / कथं पादेन खो विकलः सन् / 'येनानविकार' इति तृतीया। उदभवदु. स्पसः 1 सुतः पितुः साहश्यमन्विष्यति किल प्राप्नोति खलु / एतस्य प्रश्नस्याच स्वत्तेजसा लङ्घने साहस्रैः सहसूसङ्ख्यैरपि / 'अण च' इति मत्वर्थीयोऽण्प्रत्ययः / अघ्रिभिः पङ्गः खञ्जः, पूर्ववत्ततीया / अभिव्यक्तीभवन् मानुमान् सूर्यः नोऽस्माक. मुत्तरं समजनि सनातः। जनेः कतरि लुङ् / 'दीपजन-' इत्यादिना जनेविण / चिणो लुक / अनास्थापनोः पङ्गुत्वोक्तेरतिशयोकिभेदः। तद्धेतुस्वन शनैश्वरपङ्गु. स्वस्येत्युस्प्रेचा इति तयोः सः // 136 // जिसको सहस्रपाद ( सहस्र पैरोंवाला, पक्षान्तरमें-सहस्र किरणोंवाला सूर्य ) ने Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 - नैषधमहाकाव्यम् / सत्पन्न किया, वह छाया-पुत्र ( शनैश्वर ) पैरसे लंगड़ा कैसे हुआ ?, क्योंकि पुत्र पिताके सदृश होता है / हमलोगोंको इस (सन्देह) का उत्तर भाज मिला कि तुम्हारे तेजोको सहन परों ( पक्षान्तरमें-किरणों ) से भी लापनेमें सूर्य पङ्गु ( लंगड़ा अर्थात् असमर्थ ) हो गया है। [ तुम्हारे तेजों को सहस्र पैरों ( पक्षा-किरणों ) से लांघने के लिये प्रतिज्ञा करके भी सूर्य अपनी प्रतिज्ञाको पूरी नहीं कर सकता, परन्तु आपने अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया, अतः सूर्यके तेजसे भी भापका तेव मधिक है ]' // 13 // इत्याकर्ण्य क्षितीशस्त्रिदशपरिषदस्ता गिरश्चाटुगर्भा वैदर्भीकामुकोऽपि प्रसभविनिहितं दूत्यभारं बभार | अङ्गीकारं गतेऽस्मिन्नमरपरिवृढः संभृतानन्दमूचे भूयादन्तर्धिसिद्धेरनुविहितभवच्चित्तता यत्र तत्र // 137 / / इतीति / चितीशो नलः, त्रिदशपरिषदः सरसाघस्य इत्येवंरूपाश्चाटुगर्भाः प्रिय. प्रायास्ता गिर आकर्ण्य वैदीकामुकः समपि 'लषपत-' इत्यादिना कमेरुका प्रत्ययः / अत एव 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् मधुपिपासुवद् द्वितीया समासः / प्रसमविनिहितं बलादारोपितं दृत्यमेव भारं बभार / अस्मिनले, भली. कारं गते सत्यमरपरिवृढो देवेन्द्रः / हे नरेन्द्र ! यत्र कुनापि, अन्तर्षिसिद्धेः अन्त. निशक्तेरमुविहितभवग्चित्तता अनुसतस्वन्मनस्कता, भूयात् भवचित्तानुसारेण सर्वत्र तवान्तर्भावशक्तिरस्तु इति सम्भृतामन्दं सहर्षमूचे। तिरस्करिणीविद्या प्रादा. दित्यर्थः // 137 // ___ भूमिपति नल दमयन्तीका कामुक होते हुए भी इस प्रकार (३लो. 117-136 ) चाटु (प्रिय भाषण अर्थात खुशामदी ) से युक्त, देव-समूहके उन वचनोंको सुनकर बलात रखे हुए दूत-कर्मरूप मारको ग्रहण किया ( देवों के दूत्यकमको दुःखसे स्वीकृत किया)। इसे नलके स्वीकार करनेपर देवराज इन्द्रने अत्यन्त मानन्दपूर्वक कहा कि-'अन्तर्धान होनेकी सिद्धि जहां-तहां तुम्हारी इच्छाके अनुसार होवे अर्थात् तुम जहां अन्तर्धान होना चाहो वहां अन्तर्धान हो जावो और जहां प्रत्यक्ष होना चाहो वहां प्रत्यक्ष हो मायो॥ 17 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचनातातस्य भव्ये महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्पञ्चमः / / 138 / Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 333 श्रीहर्षमित्यादि / सुगमम् / श्रीमत्याः विजयप्रशस्तेः प्रन्यविशेषस्य रचनातातस्य निर्माणकर्तुरित्यर्थः // 138 // इति मधिनायविरचिते 'जीवातु'समास्याने पञ्चमः सर्गः समाप्तः // 5 // कवीश्वरसमूहके....."किया, उसके रचित 'विजयप्रशस्ति' नामक ग्रन्थका सहोदर ......"यह पन्नम सर्ग समाप्त हुआ। शेष अर्थ चतुर्थ सम्वत् जानें // 238 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित'का पत्रम सर्ग समाप्त हुभा // 5 // इति साहित्य-व्याकरणाचार्य-साहित्यरस्म-रिसर्च स्कॉलर-मिश्रोप. नामक-पण्डित-श्रीहरगोविन्दशाविकृत मणिप्रमा' ग्याझ्यायां चतुर्थपञ्चमसौं समाप्तौ। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः दूत्याय दैत्यारिपतेः प्रवृत्तो द्विषां निषेचा निषधप्रधानः / स भीमभूमीपतिराजधानी लक्षीचकाराय रथस्यदस्य // 1 // दूत्यायेति / अथ दूत्याङ्गीकारानन्तर, द्विषां निषेद्धा निवारयिता, निषधानां जनपदानां, प्रधानः, मुख्याधिपतिरित्यर्थः। स नलः देत्यारिपतेः देवेन्द्रस्य, दूत. कर्मणे / 'दूतस्य भावकर्मणी' इति यत्प्रत्ययः / प्रवृत्त उद्यक्तः सन् , स रथस्यदस्य रथवेगस्य भीमभूमीपतिराजधानी कुण्डिननगरों, लक्षीचकार लक्ष्यमकरोत् / गमनं चकारेत्यर्थः॥१॥ अनन्तर शत्रुओंको निवारण करने में समर्थ और देवराज इन्द्रके दूत-कर्म करनेके लिये प्रवृत्त उस निषधराज नलने भीम राजाकी राजधानी ( कुण्डिनपुरी) को रथवेगका लक्ष्य बनाया अर्थात् कुण्डिनपुरीकी ओर रथको बढ़ाया // 1 // भैम्या समं नाजगद्वियागं स दूतधर्मे स्थिरधीरधीशः / पयोधिपाने मुनरन्तरायं दुर्वारमप्यौमिवीर्वशेयः / / 2 // भैम्येति / अधीशो मनोनियमनसमर्थः / अत एव, दूतधर्म दूतकृत्ये, स्थिरधीरचलबुद्धिः, स नलः, भैम्या समं सह / 'साकं सत्रा समं सह' इत्यमरः। वियोगम, और्वशेयः उर्वशीपुत्रो मुनिरगस्त्यः और्वशेयः कुम्भयोनिरगस्त्यो विन्ध्यकुटुनः' इति हलायुधः। पयोधिपाने दुर्वारम्, उर्ध्या अपत्यमौवों वरुणभयान्मातृगुप्त इति स्वामी / तमौर्व वडवानलमिव अन्तरायं नाजगणदन्तरायत्वेन नामन्यत / भैमी. वियोगमपि विषह्य प्रतिज्ञाभङ्गभयात् दूत्यमेव दृढतरमवलम्बितवानित्यर्थः / अन्त. रायविशेषणमुभयत्रापि योजनीयम् // 2 // स्थिरबुद्धि या वशी वह राजा नल, उर्वशी-पुत्र ( अगस्त्य मुनि) समुद्रपान करने में दुर्वार वडयाग्निको जिस प्रकार नहीं गिने ( उसकी चिन्ता नहीं किये), उसी प्रकार दूतधर्ममें (होनेवाले विकारादि सात्विक भावरूप ) दुर्वार दमयन्तीके विरहको नहीं गिने / [इन्द्रादिके दूतकर्म करनेपर मेरा दमयन्ती से सदा के लिये विरह हो जायेगा एवं उसे देखने पर होनेवाले सात्त्विक विकार आदि भावों को रोकना कष्टसाध्य होगा, इसकी नलने कोई चिन्ता नहीं की / अथ च-उर्वशी ( 'उरु अइनाति' इस विग्रहसे वहुत खानेवाली ) के पुत्र अगस्त्य मुनि को भी दुर्वार वडवाग्निकी बिना चिन्ता किये विशाल समुद्रको खाना अर्थात् पीना उचित ही है ] // 2 // नलप्रणालीमिलदम्बुजाक्षोसंवादपीयुपिपासवस्ते / तदध्ववीक्षार्थमिवानिमेषा देशस्य तस्याभरणीबभूवुः / / 3 / / नलेति / ते इन्द्रादयो देवाः, नल एव प्रणाली जलनिर्गममार्गः, तया मिलत् 16 नै० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 नैषधमहाकाव्यम् / प्रवहत्, अम्बुजाक्षीसंवादपीयूषं दमयन्तीसंवादामृतं, पिपासवः पातुमिच्छवःसन्तः। मधुपिपासुवत द्वितीयासमासः। तदध्ववीक्षार्थ नलमार्गप्रतीक्षार्थमिव अनिमेषाः सन्तः इत्युप्रेशा। तस्य देशस्य नलनिर्गमनप्रदेशस्याभरणीवभूवुः। तदागमन. पर्यन्तं तत्रैव तस्थुरित्यर्थः // 3 // __ नलरूप नालेसे आनेवाले कमलनयनी दमयन्तीका संवाद (रहस्यकथा ) रूप अमृतको पीनेके इच्छुक तथा मानों नलके ( आनेकी प्रतीक्षामें उनके मार्गकी एकटक ) देखने के लिये निमेषरहित वे इन्द्रादि देव उस स्थानके आभरण बन गये। [ दमयन्तीके यहांसे नल क्या संवाद लाते हैं ? यह सुननेके इच्छुक वे इन्छादि चारो देव उनके आगमन-मार्ग को रूप मुख किये एकटक देखते हुए वहीं ठहर गये ] // 3 // तां कुण्डिनाख्यापदमात्रगुणामिन्द्रस्य भूमेरमरावतीं सः। मनोरथः सिद्धमिव क्षणेन रथस्तदीयः पुरमाससाद // 4 // तामिति / तस्यायं तदीयः, नलीयः, स रथः, तां कुण्डिनमिति यदास्यापदं नामपदं, तन्मात्रेण गुप्तां छत्राम, अमरावतीमिन्द्रराजधानीम्, तत्कल्पामित्यर्थः / भूमेरिन्द्रस्य भीमभूपतेः, पुरं, मनोरथः सिद्धिमिव क्षणेन आससाद प्राप // 4 // उस नलका रप, जिस प्रकार मनोरथ ( मनरूपी रथ, अथवा-अभिलाष ) सिद्धिको प्राप्त करता है, उस प्रकार ( पृथ्वीके इन्द्र भीम ) की 'कुण्डिनपुर' नामसे गुप्त (या सुरक्षित ) अमरावतीको क्षणमात्र में प्राप्त किया। [ अथवा-वस्तुतः में राजा मीमकी वह राजधानी कुण्डिनपुरी नहीं थी, किन्तु अमरावती अर्थात् इन्द्रकी राजधानी थी और नाममात्रसे गुप्त होनेसे भिन्न प्रतीत होती थी। इससे रथका वेगातिशय तथा दूत-कर्ममें उनकी अधिक तत्परता और कुण्डिनपुरीकी शोभा-सम्पत्तिकी अधिकता व्यक्त होती है ] // 4 // भैमीपदस्पर्शकतार्थरच्या सेयं पुरीत्युत्कालकाकुलस्ताम् / नृपो निपीय क्षणमीक्षणाभ्यां भृशं निशश्वास सुरैः क्षताशः / / 5 !! मैमीति // नृपो नका, इयं भैमीपदस्पर्शेन कृतार्थरण्या सफलमार्गा, सा श्रूयमाणा पुरी कुण्डिनपुरीत्युत्कलिकया उत्कण्ठया, आकुल: पुभितः सन् / क्षणमीतणाभ्यां, तां पुरी, निपीय सतृष्णं दृष्ट्वा, सुरैः शताशः भिनाशः सन् भृशं निशश्वास // 'दमयन्तीके चरणों के स्पर्शसे कृतार्थ मार्गौवाली वही यह नगरी है' इस उत्कण्ठासे व्याकुल (क्षुब्ध अथवा व्याप्त ) राजा नल उस नगरी को क्षणमात्र अर्थात् थोड़ी देर देखकर लम्बा श्वास लेने लगे, क्योंकि देवोंने उनकी आशा नष्ट कर दी थी। अथवा- देखकर निश्वास लेने लगे, क्योंकि देवोंने उनको आशा अत्यन्त ( बिलकुल ही) नष्ट कर दी थी। [पहले तो दमयन्तीके सम्बन्धसे युक्त पुरीका स्मरणकर नलको उत्कण्ठा हुई, किन्तु अपने दूत-कर्म का स्मरणकर दमयन्तीके साथ वहां विचरण आदि करनेकी आशा नष्ट हो जानेसे उन्होंने दीर्घ श्वास लिया ] // 5 // Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 297 स्विद्यत्प्रमोदाश्रलवेन वामं रोमाञ्चभृत्पश्मभिरस्य चक्षुः। अन्यत्पुनः कंप्रमपि स्फुरन्तं तस्याः पुरः प्राप नवोपभोगम // 6 // अथैवं विद्यमानस्य तस्पेष्टसिद्धिसूचकं दक्षिणातिस्पन्दनं जातमित्याहस्विद्यदिति / अस्प नलस्य, वामं चक्षुः, प्रमोदाश्रुलवेन आनन्दबाष्पकणेन, स्विद्यत् स्विन्नं सत्, पचमभिः उन्मिषद्भिरिति शेषः / रोमानभृद्रोमाञ्चितं सत् , तस्याः पुरः नगर्याः, स्फुरन्तं प्रकाशमानं, नवोपभोगं अपूर्वदर्शनमाथसङ्गमञ्च प्राप। अन्यत् पुनर्दक्षिणं तु कम्प्रमपि कम्प्रश्च सत् तं प्राप / वामाषणः स्वेदरोमाशावेव / दक्षिणस्य तु वेपथुरप्यधिकः सात्विकः संवृत्त इत्यर्थः। प्रथमसङ्गमे कम्प्रस्वेदरोमाझा. दयो जायन्ते / पुरुषस्य दक्षिणालिस्पदनं शुभाय भवतीति निमित्तवेदिनः। अत्रानन्दापचमोत्क्षेपाधिस्पन्देषु स्वेदादिसात्त्विकरूपणाद्रूपकम् / तदुल्लासितनवोपभोगम्यवहारसमारोपात् पुरीचक्षुषोः स्त्रीपुंसत्वप्रतीतेः रूपकसङ्कीर्णा समासोक्तिर. लङ्कारः॥॥ " (दमयन्तीकी नगरीको देखनेसे उत्पन्न ) हर्षसे उत्पन्न थोड़ी आंससे 'खेद' नामक मात्त्विक भावकी, तथा पक्ष्म (पपनी-बरौनी ) के द्वारा 'रोमाञ्च' नामक सात्त्विक भावको धारण करता हुआ नलका बांया नेत्रने, और फड़कनेसे 'कम्प' नामक सात्त्विक भावको धारण करता हुआ दाहिना नेत्रने उस नगरी / ( 'कुण्डिनपुरी',-पक्षा० तद्रूप नायिका) के साथ नये उपभोगको किया। [ नव-नायिकाके साथ उपभोग करने से 'स्वेद रोमाञ्च तथा कम्प, नाम के सात्विक भाव होते हैं / वहां नगरीको नायिका तथा नलके नेत्रोंको नायक जानना चाहिये / पुरुषका वायर्यों नेत्र बरौनियोंमें आँसूसे युक्त हो तथा दाहिना नेत्र फड़के तो वह स्त्री-लाभ-सूचक शुभ शकुन होता है, ऐसा सामुद्रिक शास्त्र का सिद्धान्त है, अतः उक्त शकुन द्वारा भविष्य में नल को ही दमयन्ती पतिरूपमें वरण करेगी, ऐसा मुचित हुआ / अथवा-नल का वाया नेत्र ने बरौनियों से रोमाञ्च, को तथा हर्षजन्य आँस से स्वेद को धारण करता हुआ भी उस नगरीके उपभोग को नहीं ही प्राप्त किया अर्थात् आँसूसे भरे होने के कारण-नगरीको अच्छी तरह नहीं देख सका और दाहिना नेत्रने स्फुरित होनेसे कम्प, भाव को धारण करता हुआ उस नगरी के नये उपभोग को प्राप्त किया अर्थात् उस नगरी को पहला अवसर होने से अच्छी तरह से देखा। यहां पर जो नेत्र नलका वाम अर्थात् प्रतिकूल है, उसे नल-प्रिया दमयन्तीकी नगरीरूपिणो नायिका का उपभोग नहीं करना तथा जो नेत्र नलका दक्षिण अर्थात् अनुकूल है, उसे नल-प्रिया दमयन्तीका नगरीरूपिणी नायिकाका उपभोग करना नल के लिये अत्यन्त शुभ शकुन रथादसौ साथिना सनाथाद्राजावतीर्याशु पुरं विवेश / निर्गत्य बिम्बादिव भानवीयात्सौधाकरं मण्डलमंशुसंघः / / . || रथादिति / असौ राजा नलः सारथिना सनाथात् सहितात् रथादवतीर्य अंशु. सङ्घः अर्काशुसमूहः, भानवीयात् बिम्बानिर्गत्य सौधाकरं चान्द्र मण्डलमिव आशु Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 नैषधमहाकाव्यम्। पुरं कुण्डिनं विवेश / “सलिकमये शशिनि रवेदीपितयो मूलितास्तमो नैशम् / उपयन्ति दर्पणोदरनिहिता इव मन्दिरस्यान्तः // " इति शास्त्रादियमुपमा // . // ___उस नलने सारथि-युक्त रथसे उतरकर शीघ्र ही नगरमें प्रवेश किया, जिस प्रकार किरणसमूह सूर्य-निम्बसे निकलकर चन्द्रमण्डलमें प्रवेश करता है। [नगरमें प्रवेश करनेसे चन्द्रमाके समान नलकी शोभा हुई / ज्योतिष-सिद्धान्तके अनुसार सूर्य-मण्डलके प्रकाश से हो चन्द्रमण्डलमें प्रकाश होता है ] // 7 // चित्रं तदा कुण्डिनवेशिनस्सा नलस्य मूर्तिवृते नहश्या / बभूव तापत्रतर तथापि विकरस्येव यदस्य मृतिः // 8 // चित्रमिति / तदा तस्मिन्समये, कुण्डिनवेशिनः कुण्डिनप्रविष्टस्य नलस्य सा तथा दर्शनीया मूर्ति रश्या भदर्शनीया / नमर्यस्य नशब्दस्य 'सुप्मुपा' इति समासःपड़ते जाता, चित्रं विरोधादिति भावः / इन्द्रवराश्यत्वं गतत्वविरोधः / तवापरपापि अस्य मूर्तिविश्वकरश्यति यत्तचित्रतरं बभूव, हरयत्वाश्यत्वयोर्वि रोषादिति भावः / विश्वस्यकस्यैव श्या दृष्टिप्रियवेत्यविरोधः / अत्र विरोधाभासपोः संवृष्टिः॥८॥ उस समय कुण्डिनपुर में प्रवेश करनेवाले नलकी मूर्ति ( सबसे देखी जानेवाली या मुन्दरतम भाकृति ) अदृश्य ( पक्षा०-असुन्दर ) हो गयी, यह आश्चर्य है, तथापि इस नकी मूर्ति जो सबसे देखी जानीवाली ( पक्षा०-संसार में एकमात्र सुन्दर ) हो गयी, यह अधिक माश्चर्य है / [इन्द्रके दिये हुए वरदान ( 5 / 137 ) से नल नगर में प्रवेश करते समय अन्तर्धान हो गये ] // 8 // जनैर्विदग्धर्भवनैश्च मुग्धैः पदे पदे विस्मयकल्पपल्लीम् / विगाहमाना पुरमस्य दृष्टिरथाददे राजकुलातिथित्यम् // 1 // बनैरिति / अथास्य नलस्य, रष्टिविदग्धैरभिज्ञैः जनैः मुग्ध सुन्दरैः भवन पदे पदे विस्मयकत्सबल्ली भावार्यावहामित्यर्थः / पुरं विगाहमाना विभावयन्सी / राज प्राविधित्वमावदेशमादसी राजभवनं ददर्शेत्यर्थः॥९॥ इसके बाद चतुर मनुष्यों तथा मनोहर महलों से पग-पगपर विस्मयरूप कल्पलताको प्राप्त करती हुई माद चतुर मनुष्यों एवं मन्दर भवनोंको देखकर आश्चयित होती हुई इस नलको दृष्टिने क्रमशः राज-भवनके अतिथित्वको प्राप्त किया अर्थात् राजभवनको देखा। [अथवा प्रथम पाठा० चतुर......होती हुई इस नलकी दृष्टिने विलम्बसे राज-मवन...... देखी / भववा द्वितीय पाठा-चतुर...... प्राप्त करते हुए नलकी दृष्टि...... / अब नलने अन्डिनपुरीमें प्रवेश किया तब वहाँ पर पग-पग पर चतुर मनुष्यों तथा सुन्दर भवनोंको देकर कल्पलता प्राप्तिके समान भावर्य करते हुए वे बहुत देरके बाद राज-मवनके पास पा]॥९॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 षष्ठः सर्गः। लोनश्चरामीति हृदा ललग्जे हेला दधौ रक्षिजनेऽलसम्जे। द्रक्ष्यामि भैमीमिति संतुतोष दूत्यं विचिन्त्य स्वमसौ शुशोच / / 10 // लीन इति / असौ नलः, अस्पैः सजे समद्धे / 'सन्नद्धो वर्मितस्सज्जे' इत्यमरः / रविजने राजकुलरक्षकवीरवर्ग, हेलामवज्ञां दधाविति गर्वोक्तिः / लीनः (कष्टं शूरोऽपि) गूढश्वरामीति हेतोहृदा ललग्जे / भैमी द्रच्यामीति संतुतोष / स्वं स्वकीयं, दूत्यं विचिन्त्य शुशोचेति निर्वेदोक्तिः / अत्र गर्वलज्जाहर्षनिवेदानां बहुना भावानां परस्परोपमर्दैन समावेशानावशबलतोक्ता // 10 // ___ इस नलने हथियारोंसे सुसज्जित रक्षकों (पहरेदारों) में तिरस्कार धारण किया ( हथियारोंसे सुसज्जित होनेपर भी ये पहरेदार मेरा क्या बिगाड़ेंगे ? इस भावनासे उन्हें तिर• स्कारपूर्वक देखा ) / छिपकर (मैं) घूम रहा हूँ, यह (सोचकर) हृदयसे लज्जित हुए (यद्यपि ये पहरेदार मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, तथापि मैं राजा एवं शूरवीर होकर भी चोरके समान छिपकर ( इन्द्र के दिये वरदात ( 5 / 137 ) से अन्तर्धान होकर ) घूम रहा हूं, यह विचारकर मन ही मन वे लज्जित हुए / दमयन्तीको देबूंगा, ( यह सोचकर ) अत्यन्त तुष्ट हुए और अपनेको दूत सोचकर ( मुझे इन्द्रादि देवोंका दूत होनेसे दमयन्तीको अब अपनी प्रेयसी नहीं समझनी चाहिए, अतः देखनेसे आनन्दित होनेका विचार करना व्यर्थ है यह विचारकर) शोक करने लगे। [ यहां पर 'हृदा' पदका सब क्रियाओंके साथ सम्बन्ध होनेसे नलने उक्त चारों विचारों को हृदयसे (मनमें ) ही किया, प्रकटरूपसे हाथ-पैर आदि से कोई व्यापार नहीं किया, यह समझना चाहिये ] // 10 // अथोपकायोममरेन्द्र कार्यात्कक्ष्यासु रक्षाधिकृतैरदृष्टः / मैमी दिक्षुबहु निक्षु चक्षर्दिशन्नसौ तामविद्विशतः / / 11 // अथेति / अथानन्तरं, असौ नलः, कयासु गृहप्रकोष्ठेषु। 'कच्या प्रकोष्टे हादेः' इत्यमरः / रक्षायामधिकृतः, रक्षिजनः, अदृष्टस्सन् भैमी दिहतुः द्रष्टुमिच्छुः / अतएव दिन चतुर्बहु भूयिष्टं, दिदान विशङ्कस्सन् , तां पूर्वनिर्दिष्टां, उपकायों राजसदनम् / 'उपकार्या राजसद्मनि' इति विश्वः / अमरेन्द्राणां कार्यात् प्रयोजनात् हेतोरविशत् // इसके बाद देवताओं तथा इन्द्रके ( अथवा-प्राधान्यतः देवराज अर्थात् इन्दके ) कार्य (दमयन्ती प्राप्तिरूप कार्य, अथवा-अन्तर्षि होनेका वरदानरूप कार्य) से कक्षाओं (डयौढ़ियों) पर स्थित रक्षकों ( पहरेदारों ) से नहीं देखे गये, ( अत एव ) निर्भय, और दमयन्तीको देखने के इच्छुक इस नलने दिशाओं में नेत्रको बहुत फेंकते हुए नर्थात् सब और बार-बार देखते हुए उस राजभवन में प्रवेश किया // 11 // अयं क इत्यन्यनिवारकाणां गिरा विभुभरि विभुज्य कण्ठम् / दृशं दधो विस्मयनिस्तरङ्गां विलंधितायामपि राजमिहः // 12 / / अयमिति / विभुः समर्थः, राजा सिंह इव राजसिंहः राजश्रेष्ठः, उपमितसमासः / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नैषधमहाकाम्यम् / स नलः, अयं क इत्यम्यस्य स्वम्यतिरिकजनस्य, निवारकाणां, रविणा, गिरावाक्ये. न (हतुना) कण्ठं विभुज्य किं दृष्टोऽस्मीति शझ्या ग्रीवां विवलय्य वक्रीकृत्येत्यर्थः / विलंधितायामतिक्रान्सायामपि द्वारि / विस्मयेन कथमेते मामबाडुरित्याअर्येण / निस्तरङ्गां निर्निमेषां शं दधी। सिंहस्य ग्रीवाभङ्गेन लंधितावदर्शनं युक्तमिति भावः॥१२॥ समर्थ राजसिंह (राजोंमें सिंहके समान पराक्रमी, नलने ) दारके लांघ जानेपर भी "यह कौन है ?" इस प्रकार दूसरों को रोकनेवालों ( द्वारपालों ) के वचनसे (मुझको ही देखकर ये द्वारपाल मना कर रहे हैं क्या ?) इस कारण (गर्दनको पीछे मोड़कर आश्चर्य (इन्द्र के वरदानके प्रभावसे अन्तहित होनेपर भी मुझे इन लोगोंने कैसे देख लिया इस आश्चर्य ) से निश्चल दृष्टि डाली (निर्भय होकर देखा)। [ आगे बढ़े हुए किसी व्यक्तिको 'यह कौन है ? ऐसा कोई टोकता है तो वह वहींसे गर्दनको पीछेकी ओर मोड़कर देखता है, यह सर्वानुभव सिद्ध है / सिंहकी उपमा देनेसे नलकी शूरता तथा निर्भयता सूचित होती है तथा सिंह भी आगे चलता हुआ पीछेकी ओर गर्दनको मोड़कर देखता चलता है और इसी आधार पर "सिंहावलोकन' न्याय प्रचलित हुआ ] // 12 // अन्तःपुरान्तस्स विलोक्य वाला कांचित्समालब्धुमसंवृतोरुम् / निमालिताक्षः परया भ्रमन्त्या संघट्टमासाद्य चमच्चकार // 15 // अन्तरिति / स नलः, अन्तःपुरस्यान्तरभ्यन्तरे, अन्ययमेतत् / समालब्धुमुर्तयितुम् / असंवृतोरुमनाउछादितोरुदेशां, काशिद्धालां स्त्रियं विलोक्य, निमीलितात. स्सन पराङ्गनादर्शनपापभीत्येति भावः / भ्रमन्त्या तत्र सनरन्त्या परया स्भ्यन्तरेण संघट्टमभिघातं आसाथ, दूयोरपि दृष्टिप्रतिबन्धादिति भावः / चमचकार उल्लसति स्म / चमदित्यनुकारिशब्दः // 13 // अन्तःपुर (निवास) मै उद्वर्तन (तैल आदिकी मालिश या उबटन ) करनेके लिए जङ्घको उवारी हुई किसी स्त्री को देखकर ( नग्नस्त्रीका देखना शास्त्र-विरुद्ध होने के कारण ) आंखको बन्द किये हुए वे नल घूमती हुई दूसरी स्त्रीके साथ आघात (एक दूसरेका टक्कर) लगनेपर चकित हो गये / [इन्द्रके वरदानसे अन्तर्धान तथा परस्त्री-दर्शनका परिहार करने के लिए आंख मूंदे हुए स्थित नल जब स्वेच्छासे घूमती हुई किसी स्त्रीका ठोकर लगी तो 'अरे यह किसकी ठोकर लगी ?' यह सोचते हुए सहसा चकित हो गये ] // 13 // अनादिसर्गनजि वानुभूता चित्रेषु वा भीमसुता नलेन / जातैव यद्वा जितशम्बरस्य सा शाम्बरीशिल्पमलाक्ष दिक्षु // 14 // अनादीति / अनादौ सर्गसजि सृष्टिपरम्परायां वा, कचिजन्मान्तर इत्यर्थः / चित्रेषु आलेख्येषु, अनुभूता। अस्यन्तामनुभूतेऽर्थे भ्रमासम्भवादिति भावः / यद्वा, मास्वनुभन इति शेषः। किंतु, जितशम्बरस्थ मायिनोऽपि मायिनः, कामस्य शाम्ब. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। रीशिल्पं मायासृष्टिः / 'स्यान्माया शाम्बरी' मर जाव, सा भीमसुता नलेन दिनु अलति प्रतिदिशमलपवत / लोः कर्मणे अत्रालीकभैमीसाहाकारो जन्मान्तरानुभवावा केवलमदनमायाबलाद्वेति होता // 14 // __ अनादि सर्ग-परम्परामें या चित्रों में प्रत्यक्ष की गयी, या "शम्बर" नामक मायाकुशल दैत्यके विजयी कामदेवकी मायाकी चतुर रचना बनी हुई (माया द्वारा यथावत् सम्पादित) दमयन्तीको नलने दिशाओंमें देखा / [ अथवा-शम्बरारि ( कामदेव ) की मायाकी उत्तम रचना बनी हुई दमयन्तीको... ... ... | अथबा नलके द्वारा कामदेवकी मायाकी उत्तम रचना बनी हुई दमयन्तीको ...... / शत्रुको जीतने के बाद कोई विजेता उसकी सम्पत्तिको भो स्वाधीन कर लेता है, वैसे ही कामदेवने माया करनेमें चतुर शम्बर दैत्यको जीतकर उसकी मायाको भी स्वाधीन कर लिया है, अतएव वह (कामदेव) मी माया करनेमें अत्यन्त चतुर होकर नलके सामने मायारूपिणी दमयन्तीको सब दिशाओंमें दिखलाने लगा, मायाकल्पित वस्तुका सुन्दरतम होना तथा एक ही होनेपर सइ दिशाओं में दृष्टिगोचर होना पूर्णतः सङ्गत है / वैसे ही दमयन्ती भी नलको सब दिशाओं में दृष्टिगोचर हो रही थी। पहले नहीं देखी गयी वस्तुका दृष्टिगोचर होना असम्भव होनेसे अनादि सृष्टि-परम्परामें दमयन्तीको नल द्वारा दृष्टिगोचर होनेकी कल्पना की है, किन्तु पूर्वजन्मगत बातोंके स्मरणगोचर नहीं होनेसे चित्रोंमें दमयन्तीके दृष्टिगोचर होने की द्वितीय कल्पना की गयी है और चित्रगत प्राणीके जड़ होनेसे उसका देखना, चलना-फिरना तथा आलिङ्गन आदि करना असम्भव होनेसे कामद्वारा मायाकल्पित दमयन्तीको कहा गया है / जिस प्रकार गन्धर्वनगर को नहीं देखने पर भी उसका सर्वथा अभाव रहनेपर भी मायावश उसका अनुभव रोने लगता है, उसी प्रकार दमयन्तीका वास्तविकमें वहां अभाव होनेपर मी मनमें सतत कल्पित उसके राजभवन में उसका प्रत्यक्षवत् नलको अनुभव होना उचित ही है ] // 14 / / अलीकभैमीसहदर्शनान्न तस्यान्यकन्याप्सरसो रसाय / भेमोभ्रमस्यैव ततः प्रसादाभ्रेमीभ्रमस्तेन न तास्वलम्भि / / 15 / / अलीकेति / अन्याः कन्या अप्सरस इव / उपमितसमासः / अप्सरकल्पा अपि कन्याः तत्रत्याः स्त्रियः, अलीकभैम्या सह दर्शनाद्धेतोः तस्य नलस्य रसाय रागाय, नाभवन् / ततोऽपि तासामपकृष्टत्वादिति भावः / तर्हि, किं सारूप्यात्तास्वपि भैमीभ्रमो नाभूदत आह-भैमीति / तत इति सार्वविभक्तिकस्तसिः। ततः तस्य भैमी. भ्रमस्यैव प्रसादात्तेन नलेन तास्वन्तःपुरस्त्रीषु भैमीभ्रमो नालम्भि न प्राप्तः / अत्यन्तासादृश्यादिति भावः // 15 // सतत कल्पनाजन्य मोहके कारण असत्य ( अभाव रहनेपर ) भी दमयन्तीके साथ देखनेसे अप्सराओं के समान अन्य कन्याएँ (दूसरी स्त्रियाँ) उस नलके अनुरागके लिए नहीं हुई, क्योंकि उस दमयन्ती सम्बन्धी भ्रमके सामर्थ्यसे ही नलने उन स्त्रियों में भ्रमको नहीं, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 नैषधमहाकाव्यम् / प्राप्त किया। [ यद्यपि नलने वास्तविक दमयन्तीको कभी भी प्रत्यक्ष रूपसे नहीं देखा था, तथापि अन्य खियोंमें अप्सराओं के समान सौन्दर्य होनेपर भी दमयन्तीकी अपेक्षा अधिक न्यूनता होनेके कारण नलने दमयन्ती-भिन्न उन स्त्रियोंको दमयन्ती समझनेका भ्रम नहीं किया, अत एव उन स्त्रियोंका अप्सरस्तुल्य सौन्दर्य भी नलको अपने प्रति अनुरक नहीं कर सका] // 15 // मैमीनिराशे हृदि मन्मथेन दत्तस्वहस्ताद्विरहाद्विहस्तः। स तामलीकामवलोक्य तत्र क्षणादपश्यन्व्यषददिबुद्धः // 16 // भैमीति / भैम्या निराशे सुरैः सताशे, हृदि, मन्मथेन दत्तस्वहस्ताहत्तावलम्वा. अनितादित्यर्थः। विरहाद्विहस्तो विह्वलः, स नलः अलीकां तां भैमीमवलोक्य, पणात विबुद्धः निवृत्तभ्रमः, तत्र तामपश्यन् भ्यषदत् विषण्णोऽभूत्। सदेर्ला / लदित्वाच्चलेरकादेशः। 'सदिरप्रतेः' इत्यव्यवायेऽपि षत्वम् / भैमीशून्यविबोधात्त. द्वान भ्रम एव तस्याशास्योऽभवदिति भावः // 16 // दमयन्तीसे निराश, हृदयमें कामदेवके द्वारा हस्तावलम्ब अर्थात् सहारा दिये गये, विरहसे विहस्त अर्थात् व्याकुल नल वहां ( राजभवनमें, अथवा-हृदयमें ) उस असत्यदृष्ट दमयन्तीको देखकर क्षणभरमें सजग होकर (मुझ दूतको दमयन्ती-प्राप्तिका विचार करनेका कुछ अधिकार नहीं ऐसा विचार होनेपर ) उसे नहीं देखते हुए विषादसे युक्त हो गये / [जिस कामदेवने नलके लिये हाथ दिया उस कामदेवको विहस्त हाथसे हीन होना चाहिये था, किन्तु नल ही विहस्त ( हाथसे रहित। पक्षा०-व्याकुल ) हुए, यह आश्चर्य है / अथवा हृदयके दमयन्तीसे निराश होनेपर कामदेवके द्वारा...... / दूत-कर्म स्वीकार करनेसे भैमीके विषयमें निराश होनेसे शान्त विरहको कामदेवने फिर सहारा देकर बढ़ाया / विरहजन्य भ्रमसे नलने दमयन्तीको देखा, किन्तु दूत होनेके कारण क्षणमात्रमें ही भ्रम-नाश होनेपर दमयन्तीको नहीं देखा, इस प्रकार दमयन्तीको रहीं दिखलानेवाला वोध मुझे व्यर्थ ही हुआ, वह भ्रम नष्ट हो गया अत एव नलको कष्ट हुआ ] // 16 / / / प्रियां विकल्पोपहृतां स यावहिगीशसन्देशमजल्पदल्पम् / अरश्यवाग्भीषितभूरिभीरुभवो रवस्तावदचेतयत्तम् // 17 // प्रियामिति / स नलः, विकल्पोपहृतां विभ्रमोपनीता, प्रियां दमयन्ती, यावहिगीशसन्देशं इन्द्रादिवाचिकं, अल्पमजल्पदकथयत् / तावददृश्यया अलक्ष्यकर्तृकया, वाचा हेतुका, भीषिता वित्रासिताः। 'भियो हेतुभये षुक्' / ताश्च ता भूरयोऽनेका भीरवो भयशीलाः स्त्रियः ताभ्यो भवतीति तद्भवो रवः कलकलः, तं नलमचेतय. दबोधयत् / चेततेभीवादिकात् णिच् // 17 // ___उस नलने सङ्कल्पकल्पित (या भ्रम-कल्पित ) प्रिया दमयन्तीसे दिक्पालोंके संदेशको जबतक थोड़ा कहा तभी तक अदृश्य (भूतादिकथित) वचनसे अत्यन्त डरी हुई उन (बालाओं) के शब्दने उनको सचेत कर दिया। [ सङ्कल्पकल्पित दमयन्तीसे ही नल भ्रमवश इन्द्रादि Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। दिक्पालोंका सन्देश जवतक थोड़ा ही कह पाये थे कि 'यह शब्द कहांसे हो रहा है ? कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः डरी हुई कन्याओंने जब कोलाहल किया तब नल सावधान होकर चुप हो गये ] // 17 // पश्यन् स तस्मिन्मरुतापि तन्त्र्याः स्तनौ परिस्प्रष्टुमिवास्तवस्त्रो। अक्षान्तपक्षान्तमृगामास्यं दधार तिर्यग्वलितं विलक्षः // 18 / / पश्यन्निति / स नलः तस्मिन्नन्तःपुरे मरुतापि अचेतनेनापीति भावः। परि. स्प्रष्टुं संस्प्रष्टुमिव / अस्तवस्त्री अपनीतांशुको तन्न्याः स्तनी पश्यन् विलक्षो विल. जितस्सन् , अक्षान्तपक्षान्तमृगाइँ, अक्षान्तः असोढः पक्षान्ते पौर्णमास्यां मृगाङ्क: चन्द्रो पन तदास्यं; तिर्यग्वलितं साचीकृतम् / दधार धृतवान् / यत्राचेतनस्य वायोरपि चपलता तत्रायं निर्विकार एवेत्यहो जितेन्द्रियत्वमस्येति भावः // 18 // उस अन्तःपुरमें अचेतन वायु ( पक्षान्तरमें-'वायु' देव) से भी कृशाङ्गीके स्तनों को स्पर्श ( या नर्दन ) करने के लिए वस्त्रशून्य ( उघारे-नग्न ) किये गये स्तनोंको देखते हुए ( उत्तम नायक होनेसे परस्त्रीका स्तन देखना अनुचित होनेसे ) लजित या उदासीन होकर पूर्णचन्द्रको नहीं सहन करनेवाला ( नलका) मुख तिर्यक् भावको धारण कर लिया अर्थात् दूसरी ओर मुड़ गया। [नलका मुख पूर्णचन्द्र रूप है, तथा पूर्णचन्द्रके सामने अर्थात् चाँदनी ( उजेले ) में प्रच्छन्न कामुकका किसी स्त्रीके साथ स्तनमर्दनरूप संभोग करना असम्भव होनेसे वहांसे चन्द्ररूप मुखको हट जाना ही उचित है ] // 18 // अन्तःपुरे विस्तृतवागुरोऽपि बालावलोनां वालतेगणोपः। न कालसारं हरिणं तदक्षिद्वन्द्वं प्रभुबन्धुमभून्मनोभूः // 16 // अन्तरिति / अन्तःपुरे बालावलीनां स्त्रीसमूहानां, वबयोरभेदादोमसमूहानां च, वलितैः पुनः पुनः प्रवृत्तैः आवर्तितैश्च गुणानां कटाक्षविक्षेपादीनां सूत्राणां चौघेः विस्तृतवागुरः प्रसारितमृगवन्धनीकोऽपि / 'वागुरा मृगबन्धनी' इत्यमरः / मनोभूः स एव मृगयुरिति शेषः / तस्य नलस्यातिद्वन्द्वमेव कालसारम्, कृष्णसारम्, अक्षिद्वयन्तु कालेन कनीनिकाकाष्ण्येन सारं श्रेष्ठं, हरिणञ्च बन्धुमाक्रष्टं संयन्तुं च प्रभुः शक्तो नाभूत् / जितेन्द्रियत्वादस्येति भावः / अत्राच्यादिषु हरिणस्वादिरूपणान्मनोभुवो मृगयुत्वं गम्यत इत्येकदेशवर्तिरूपकम् // 19 // अन्तःपुरमें अपने बालाओं के समूहोंका नृत्यकर्मादि या अङ्गतोडना आदि गुण समूहोंसे ( पक्षा०-बाल-समूहोंके बटी हुई रस्सियोंसे ) जालको फैलाया हुआ भी कामदेव (रूपी व्याध ) काली कनीनिका ( आंखकी पुतली ) ही सारभूत है, जिसमें ऐसे श्वेतवर्ण, नलके दोनों नेत्रोंको ( पक्षान्तरमें-कालसारनामक ) दोनों हरिणोंको बांधने ( फँसाने ) में समर्थ नहीं हुआ। [बालोंकी बटी हुई रस्सियोंके जालको जंगलमें भी फैलानेवाला व्याध मृगोंको फँसा लेता है, और नगर या एक मकान में मृगोंको फंसाना तो अत्यन्त सरल है, किन्तु Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 नैषधमहाकाव्यम् / अन्तःपुरकी कन्याओंकी अगभङ्गी आदि भावोंको देखने पर भी नल जितेन्द्रिय होनेसे कामदेवके वशीभूत नहीं हुए ] // 19 // दोर्मूलमालोक्य कचं रुरुत्सोस्ततः कुचो ताबनुलेपयन्त्याः / नाभीमथैष श्लथवाससोऽनु मिमील दिक्षु क्रमकृष्चक्षुः // 20 // दोरिति / एष नलः, कर्च केशपाशं, लस्सोः रोक्षु बन्धुमिच्छोः, कस्याश्चिहोर्मूलं बाहुमूलमालोक्य / ततोऽनन्तरं, कुचावनुलेपयन्स्याः तो कुचावालोक्य, अथ रलथ. वाससः सस्तांगुकायाः नाभीमालोक्य, अन्वनन्तरं, दिक्षु पुरः पार्श्वभागेषु क्रमेण कृष्टचपुः प्रत्याहृतष्टिः सन् , मिमील निमीलिताशोऽभूत् / तत्र तथा यथेष्टचे? स्त्रीमण्डले तस्य पापभीरोनंबनिमीलनमेव प्राप्तमित्यर्थः // 20 // __ केशको बांधनेकी इच्छा करनेवाली किसी कन्याके ( दोनों हार्थोके ऊपर उठाने के कारण उसके ) बाहुमूल ( कांख ) को देखकर, इसके बाद दोनों स्तनोंपर कुलमादिका लेपन करती हुई उसके स्तनोंको देखकर फिर शिथिल वसोवालीकी नामीको देखकर इस नलने क्रमशः ऊपरसे नीचेकी ओर दृष्टि करते हुए अन्तमें दृष्टियोंको बन्दकर लिया। [ उक्त तीनों क्रियाएं क्रमशः एक ही वाला में अथवा विभिन्न क्रियायुक्त अनेक बालाओंमें देखकर नलने परस्त्रीके कक्ष, स्तन तथा नाभिके दर्शनका परिहार करने के लिए ऊपरसे नीचेकी ओर दृष्टि करते हुए अन्तमें परिहार न होनेपर उसे ( दृष्टिको) सर्वथा बन्द कर लिया। इससे भी नलका उत्तम नायक होना सिद्ध होता है ] // 20 // मीलन्न शेकेऽभिमुखागताभ्या धतु निपीडय स्तनसान्तराभ्याम् / स्वाङ्गान्यपेतो विजगौ स पश्चात्पुमङ्गसङ्गोत्पुलके पुनस्ते // 21 // मोलनिति / मीलनिमीलिताक्षः, स नलः, अभिमुखमन्योन्याभिमुखमागताभ्यां तथापि स्तनाभ्यां निमित्तेन सान्तराभ्यां सव्यवधानाभ्यां काभ्यांचित् स्त्रीभ्यां निपीव्य मध्ये निरुध्य धतुं ग्रहीतुं, न शेके शक्यो नाभूत् / स नलः, पश्चादपेतोऽपसृतः स्वानानि विजगौ; परस्त्रीसंस्पर्शदोषाद्विजगहें, निनिन्द / ते स्त्रियो पुनः, पुंसोजसनेन उत्पुलके उद्तरोमाने जाते // 21 // परस्पराभिमुख आती हुई दो बालिकायें (मध्यस्थित) नेत्र मदे हुए उस नलको अच्छी तरह नही पकड़ सकीं, किन्तु उन दोनोंके अत्युन्नत स्तन ही परस्परमें सट गये / फिर उन दोनों के बीचसे हटकर पुरुष-संसर्गसे रोमाञ्चयुक्त उन दोनों कन्याओंको देखकर उस नलने अपने शरीरावयवोंकी निन्दा की। [ अथवा-उन दोनोंसे अलग हटकर नलने अपने शरीरावयवोंकी निन्दा की तथा वे दोनों कन्याएं पुरुषस्पर्शसे 'रोमाञ्च' नामक सात्त्विक भावसे युक्त हो गयीं। उन दोनों कान्याओंके स्तन इतने बड़े थे कि उन दोनों कन्याओं के मध्यमें नलके रहनेपर भी ये परस्परमें सट गये, पर नलको वे दोनों अच्छी तरह पकड़ नहीं सकी, किन्तु केवल उनके शरीरका स्पर्शमात्र हुआ, जिससे सावधान बलने उनसे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 305 अलग होकर 'मेरे शरीरेने परस्त्रीका स्पर्श कर लिया. अतः ये बड़े दोषी है। इस प्रकार अपने शरीरावयवों की निन्दा की। उधर नलके शरीरका स्पर्श होनेसे उन दोनों कन्याओं को रोमाञ्च हो गया। इससे नलका अत्यन्त उत्तम नायकत्व सिद्ध होता है ] // 21 // निमीलनस्पष्टविलोकनाभ्यां कदर्थितस्ताः कलयन् कटाक्षः। स रागदर्शीव भृशं ललज्जे स्वतः सतां होः परतोऽपि गुर्षी / / 22 / ' निमीलनेति / निमीलनं च स्पष्टविलोकनश्च ताभ्यां कदर्थितः निषिद्धस्पर्शनढोषोद्वेजितः / स नलः, ताः स्रियः, कटाक्षः कलयन निर्विकल्पेन गृहन् / रागेण पश्यतीति रागदर्शी, स इव भृशं ललज्जे / कष्टं कामुकदृष्टया पश्यामीति भृशं परि. तप्तोऽभूदित्यर्थः / नन्वप्रकाशेऽर्थे का लज्जा तत्राह-सतां सत्पुरुषाणां परतोऽपि स्वत एव होगंर्वी. अकामादप्यकार्यकरणे परस्मादपि स्वस्मादेव लज्जते सज्जन इस्यर्थान्तरन्यासः॥ 22 // ( इस प्रकार ) भांख बन्द करने तथा स्पष्ट देखनेसे व्याकुल वह नल उन ( अन्तःपुरमें स्थित बालाओं ) को कराक्ष ( सङ्कुचित नेत्र ) से देखते हुए अनुराग-सहित देखनेवालेके समान अत्यन्त लज्जित हुए / क्योंकि आवरण-रहित सज्जनोंको दूसरोकी अपेक्षा अपनेसे अधिक लज्जा होती है / [ आंख बन्द करनेसे परस्त्रियों के धक्का आदि ( श्लो० 1321) लगनेसे तथा आंख खोलनेपर परस्त्रीके स्तन, जघन, नाभि आदिका दर्शन (श्लो० 18,20) जन्यदोष लगनेसे व्याकुल नलने आंखको कुछ संकुचित कर लिया अर्थात् न तो सर्वथा बन्द ही किया और न सर्वथा खोला ही, अतः जिस प्रकार रागी पुरुष परस्त्रीको थोड़े संकुचित नेत्रसे देखता है, वैसे वे अपनेको समझकर बहुत लज्जित हुए / यद्यपि दूसरे के सामने ही लोगोंको लज्जा हुआ करती है, किन्तु यह नियम साधारण व्यक्तियोंके लिये है, बड़े सज्जन व्यक्ति तो दूसरेके न रहनेपर भी स्वयं अपने मनमें ही अधिक लज्जित होते हैं, अतः अदृश्य होनेपर भी नल मन ही मन बहुत लज्जित हुए ] // 22 // रोमाञ्चिताङ्गीमनु तत्कटाक्षान्तेन कान्तेन रतेर्निसृष्टः / माघः शरोघः कुसुमानि नाभूतदयपूजां प्रति पर्यवस्यन् / / 23 / / / रोमाशितेति / रोमाञ्चिताङ्गीमनु पुमङ्गसङ्गात् पुलकितगात्रीमुद्दिश्य, तस्य नलस्य, कटाक्षः कटाक्षवीक्षणैः, भ्रान्तेन अयमस्यामनुरक्त इति मन्वानेन, रतः कान्तेन कामेन, निसृष्टः प्रयुक्तः कुसुमान्येव शरीघः तस्य नलस्य, धैर्यस्य निर्वि कारचित्तत्वस्य पूजां प्रति पूजायां पर्यवस्यन् पूजात्वेन परिणमन् / मोघो व्यर्थो नाभत् / शत्रोरपि गुणः पूज्यो भवेदिति भावः / अत्र नलधैर्यभनार्थ प्रयुक्तस्य कुसु. मजालस्य, न केवलं तदभाकरवं प्रत्युत तत्पूजकत्वमापनमित्यनर्थोत्पत्तिलक्षणो विषमालङ्कारः // 23 // ( नलके शरीर-स्पर्शसे ) रोमाञ्चयुक्त स्त्रीको लक्ष्य नलके कटाक्ष ( श्लो० 21 के अनुसार संकुचित नेत्रसे देखने ) से ( ये दोनों परस्पर अनुरक्त हो गये, ऐसा समावेसे) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 नेषधमहाकाम्बम् / अमयुक्त रतिपति (कामदेव ) के द्वारा छोड़े गये पुष्परूप बाण-समूह उस नलके धैर्यको पूजाके लिए चरितार्थ होकर व्यर्थ नहीं हुए। [ कामदेवके वाण छोड़नेपर भी नलके चित्तमें कोई विकार नहीं होनेसे यद्यपि बाणको व्यर्थ होना चाहिए था, किन्तु मुख्य लक्ष्य पूर्ण नहीं होनेपर भी नलके धैर्यकी पूजामें पुष्परूप वे बाण चरितार्थ हो गये, अर्थात् जैसे कोई व्यक्ति किसीके धैर्य आदि गुणकी पूजा करने के लिए पुष्प चढाता है, वैसे ही कामदेवके वे पुष्परूप बाण भी परस्पर अनुरागोत्पादन रूप मुख्य प्रयोजनके पूर्ण न होनेपर भी उन नलके धैर्यको पूजारूप अन्य प्रयोजनमें सफल हो गये। परस्त्रीमें अनुरागोत्पन्न न होनेके कारण शत्रुभूत कामद्वारा भी धैर्यको पुष्पोंसे पूजित होना उचित ही है ] // 23 // / हत्येव वत्म कामह भ्रमन्त्याः स्पर्शः स्त्रियाः सुत्यज इत्यवेत्य / चतष्पथस्याभरणं बभूव लोकावलोकाय सतां स दीपः // 4 // हिवेनि / सतां सः दीपः सुजनश्रेष्ठः, सतां भावानां प्रकाशकः प्रदीपश्च स नलः / इह अन्तःपुरे भ्रमन्त्यास्सनरन्त्याः स्त्रियाः स्पर्शः एकमभिन्नं वर्त्म हित्वैव सुत्यज इत्यवेत्य निश्चित्य लोकावलोकाय सनारिजनदर्शनाय / अन्यत्र, लोकानां जनानां व्यवहासय / चतुओं पथां समाहारः चतुष्पथं, 'तद्धितार्थ' इत्यादिना समा. हारे द्विगुः 'ऋक्पूरब्धः-' इत्यादिना समासान्तः / 'पथस्संख्याध्ययादेः' इति नपुंस. कस्वम् / तस्य आभरणं बभव / तत्र स्थित इत्यर्थः / क्लिष्टैकमार्गे स्त्रीसंवाधादक्लिष्टे चतुष्पथे स्थित्वा समन्तादवलोकितवानित्यर्थः। चतुष्पथस्थो दीपो लोकाव. लोकाय कल्पत इति ध्वनिः // 24 // सज्जनों के प्रकाशक ( पक्षान्तरमें-वर्तमान वस्तुओंको दिखलानेवाला) दीपरूप वह नल 'एक संकीर्ण मार्गको छोड़कर ही यहां ( अन्तःपुरमें ) घूमती हुई स्त्रीका स्पर्श सरलतासे छूट सकता है', ऐसा समझकर लोगोंको देखनेके लिए (पक्षा०-लोगाको यहां की सब वन्तुएं दिखलानेके लिए ) चौरास्तेके भूषण बने (चौरास्तेपर खड़े हो गये ) / [नलने सोचा कि स्त्रियां यहां पर इधर-उधर आती-जाती रहती हैं, अतः मैं संकीर्ण रास्तेको छोड़ कर यदि चोरास्तेपर खड़ा हो जाता हूं तो किसी स्त्रीका स्पर्श न होनेसे नुझे परस्त्रीस्पर्शजन्य दोष नहीं लगेगा अतः सज्जनोंके दीपकरूप से अन्तःपुरके लोगोंको देखनेके लिए चौरास्तेपर खड़े होकर उस प्रकार वहां की शोभा बढ़ाने लगे, जिस प्रकार चौरास्तेपर रक्खा हुआ दीपक आने-जानेवाले लोगोंके लिये वहांपर स्थित सब पदार्थोंको प्रकाशित करता हुआ उस चौरास्तेकी शोभा बढ़ाता है ] // 24 // उद्वर्तयन्त्या हृदये निपत्य नृपस्य दृष्टिन्यवृतदू द्रुतैव / वियागिरात कुचयोनखाङ्करैरर्धेन्दुलीलेंगलहस्तितेव // 25 // उद्वर्तयन्त्या इति / नृपस्य दृष्टिकद्वर्तयन्त्या गात्रमुन्माजयन्त्याः, हृदये वक्षसि, निपत्य अर्धेन्दुलीलरधचन्द्राभिख्या, कुचयोर्नखारैः कर्तृभिः, वियोगिषु वैरादिन्दु. रवप्रयुक्तविरोधात् / गले हस्तो गलहस्तः तद्वती कृता गलहस्तिता हस्तेन गले Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 307 गृहीत्वा नुन्नेवेत्युप्रेशार्थः। मवन्तात् करोतीति णिचि णाविष्वदावे विण्मतो. लक / ततः कर्मणि कः / 'अर्धेन्दुश्चन्द्रशकले गलहस्तनखाङ्कयोः' इति विश्वः / दुता त्वरितैव न्यवृतत् न्यवर्तिष्ट / पापभयादिति भावः // 25 // ( कुङ्कमादिसे ) लेप करती हुई किसी स्त्रीसे वक्षःस्थलपर पड़ी हुई नलकी दृष्टि दोनों स्तनोंपर अर्द्धचन्द्राकार नखचिह्नके द्वारा वियोगियों के साथ विरोध होनेसे मानों गलहस्तित ( गलेमें हाथ डालकर बाहर निकाली गयी अर्थात् 'गर्दनिया' दी हुई के समान ) झट लौट गयी / [ जैसे कोई व्यक्ति किसीके द्वारा गलेमें हाथ डालकर अपमानके साथ शीघ्र बाहर कर दिया जाता है, वैसे ही स्त्रियोंके दोनों स्तनोंपर अर्द्धचन्द्राकार नखछिहने वियोगी व्यक्तिके साथ वैर होनेसे नल इष्टिको भी शीघ्र बाहर कर दिया। चन्द्रमाका विरहियों के साथ वैर होना सुप्रसिद्ध है, अतः अर्द्धचन्द्राकार नखक्षतके द्वारा विरहिणी नलदृष्टिको सापमान बाहर करना उचित ही है। परस्त्रीके आवरणरहित स्तनोंसे पापभीरु नलने अपनी दृष्टिको शीघ्र हटा लिया ] // 25 // तन्वीमुखं द्रागांधगत्य चन्द्र वियोगिनस्तस्य निमीलिताभ्याम् / द्वयं द्रढीयः कृतमीक्षणाभ्यां तदिन्दुता च स्वसरोजता च / / 26 / / तन्वीति / तन्वीमखमेव चन्द्रं व्यस्तरूपकम् / द्रागधिगत्य हठात् दृष्ट्वा निमी. लिताभ्यामिति भावः / वियोगिनस्तस्येक्षणाभ्यां तस्य तन्वीमुखस्येन्दुता च स्वयोः सरोजता चेति द्वयं द्रढीयो दृढतरं कृतमित्युत्प्रेक्षा / अन्यथा कथं तत्सन्निधौ तयोनिमीलनमिति भावः।। 26 // चन्द्ररूप कृशाङ्गीके सुखको प्राप्त (देख) कर झट बन्द हुए नलके नेत्रोंने कृशाङ्गी मुखके चन्द्रत्व तथा अपने ( नेत्रद्वयको ) कमलत्व-इन दोनों बातोंको अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया। [चन्द्रतुल्य कृशाङ्गी-मुखको देखकर नलने अपने नेत्र झट बन्द कर लिये, इससे चन्द्रको देखकर कमल ही बन्द हो जाता है, तथा कमल चन्द्रको देखकर हो बन्द होता है इन दोनों बातोंको, अथवा-कृशाङ्गीका मुख चन्द्र ही है और नलके नेत्र कमल ही हैं-इन दोनों बातोंको उन्होंने दृढ़ कर दिया ] // 26 // चतुष्पथे तं विनिमीलिताक्षं चतुर्दिगेताः सुखमग्रहीष्यन् / संघट्य तस्मिन् भृशभीनिवृत्तास्ता एव तद्वर्त्म न चेददाम्यन् / / 27 / / नन्वङ्गसंघनानन्तरं तास्तं किमिति न गृह्यन्तीत्यत आह-चतुष्पथ इति / चतुप्पथे, विनिमीलिताशं तं नलम् / चतसृभ्यो दिग्भ्यः। एता आगताः। भाजपूर्वादिणः कर्तरि का, उत्तरपदसमासः। तास्सुखमक्लेशेन अग्रहीयन् गृह्णीयुः, तस्मिनले संघट्य अभिहस्य / आधारत्वविवक्षायां सप्तमी। भृशया गाढया भिय। निवृत्तास्ता एव तस्य नलस्य वर्म नादास्यन् न दधुश्चेत् / किंतु, स्वयमेव अस्य भूतशतया मार्ग दत्वा भयात् पलायितानां तासां, कुतस्तग्रहणधाष्टमित्यर्थः / क्रियातिपत्ती लुक // 27 // Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 नैषधमहाकाव्यम् / (पाप-जनक परस्त्री-दर्शन न होने के लिये ) चौरास्तेपर नेत्र बन्दकर खड़े हुए नल को चारो ओरसे आयी हुई सियां, उनका धक्का लगनेसे डरकर यदि अलग नहीं हो जाती तो उन्हें सुखपूर्वक अर्थात् अनायास ही पकड़ लेतीं // 27 / / / संघट्यन्त्यास्तरसात्मभूषाहीराकुरप्रोतदुलहारी। दिशा नितम्ब परिधाप्य तन्व्यास्तत्पापसन्तापमवाप भूपः // 8 // संघट्टयन्स्या इति / तरसा संघट्टपस्या अभिन्नस्यास्तन्म्याः, भास्मनो भूषाही. राणां भूषणवज्राणां, अङ्करेषु कोटिषु प्रोतं सावं दुकूलं हरतीति तद्धारी भूपः, नितम्ब तस्याः कटिं दिशा परिचाप्य संवस्य दिगम्बरं कृत्वा। तत्पापेन वखापहरणपापेन सन्तापमवाप // 28 // ( अपने शरीरके साथ ) बेगपूर्वक धका लगनेसे अपने भूषणमें जड़े हुए होराके किनारों में फंसे हुए ( स्त्रीके) वनको हरण करते हुए राजा नलने उस (खो) के नितम्ब को दिगम्बर ( वस्त्ररहित ) कर उस (परस्त्रीको वस्त्र-रहित करने ) के पापसे उत्पत्र सन्तापको धारण किया। [ यदि मेरे भूषणों में ये हीरे नहीं जड़े गये होते, या हीरा जड़े हुए इन भूषणों को मैं नहीं पहना होता, तब उनमें कपड़ेके नहीं फस जानेसे नही नहीं होती, अतः भूषणों को धारण कर मैंने पापका कार्य किया है, इस प्रकार राजा नलको दुःख हुआ ] // 28 // हतः कयापित्पथिकन्दु केन संघटय भिन्नः करजैः कयापि / कयाचनातः कुकुरमेन संभुक्तकल्पः स बभूव तामिः / / 29 // हत इति / स नलः, पथि कयाचित्कन्दुकेन हतः। कयापि संघव्य अभिहस्य करजैनखैर्भिः / कयाचन, कुचकुंकुमेन अक्तो लिप्तः। एवं ताभिः सम्भुक्तप्रायो बभूव // 29 // . मार्गमें अर्थात् चौरास्तेपर स्थित नलको किसी स्त्रीने गेंदसे मारा ( अदृश्य होने के कारण गेंद खेलती हुई स्त्रीका गेंद उनके शरीरसे टकरा गया) किसी स्त्रीने उनसे धक्का खाकर नाखूनोंसे खरोचा और किसी स्त्रीने ( धका लगनेस ) स्तनोंके कुङ्कमसे रंग दिया, इन ( अन्तःपुरकी स्त्रियों ) के द्वारा वे नल ( स्त्रियोंके साथ ) संभोग किये हुए के समान हो गये / [ स्वयं स्त्रियोंने ही सब कुछ किया नलने स्वयं कोई व्यापार नहीं किया, अतः उन्हें परस्त्री-सम्भोगजन्य दोष नहीं हुआ ] // 29 // छायामयः प्रैक्षि कयापि हारे निजे स गच्छन्नथ नेक्ष्यमाणः | तचित्तयान्तनिरचायि चार स्वस्यैव तन्व्या हृदय प्रविष्टः // 30 // छायामय इति / कयापि स्त्रिया निजे हारे छायामयः प्रतिबिम्बरूपः, स नलः, प्रैक्षि प्रेक्षितः। ईक्षतेः कर्मणि लुङ् / अथ गच्छन् अपसरन् , अत एव नेयमाणः अनिरीक्ष्यमाणः सन / स चित्ते यस्यास्तया तद्दर्भितचित्तया तन्व्या, स्वस्येव हृदयं प्रविष्ट इति अन्तरन्तःकरणे चारु साधु निरचायि निश्चितः। स छायानलः, तद्देशातिकमात्तस्या हारादेवापेतो न चित्तादिति सौन्दर्यातिशयोक्तिः // 30 // MO Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 206 किसी स्त्रीने अपने मुक्ताहार में प्रतिबिम्बित नलको देखा (फिर अन्यत्र ) जाते हुए उनको ( अपने हारने प्रतिबिम्ब रूप से भी) नहीं देखा, अतः उनके ( सौन्दर्याधिक्यमे ) नलगत चित्तवाली ( अथवा-अभी मैंने अपने हारमें प्रतिबिम्बित एक तरुणको देखा था, और अब वह नहीं दिखलायी पडता अतः कहां गया ऐसी चिन्तावाली ) कृशाङ्गीने 'वह मेरे हृदयमें ही प्रविष्ट हो गया है / इस प्रकारका ठीक ही निश्चय किया। [ उस नलकी सुन्दरता उस कृशाङ्गीके हृदयमें जम गयी अतः वह अपने हारमें प्रतिविम्बित नलको देख उन पर आसक्त होकर काम-पीड़ित हो गयी] // 30 // तच्छायसौन्दयनिपीतधैर्याः प्रत्येकमालिकदम् रतीशः / रतिप्रतिद्वन्द्वतमासु नूनं नामषु निर्णीतरतिः कश्चित् / / 31 / / तच्छायेति / रतीशः कामः तस्य नलस्य छाया तच्छायं, मणिकुष्टिमाविगतं तत्प्रतिबिम्बम् / “विभाषा सेनासुराग्छायाशालानिशानाम्" इति नपंसकरवम् / तस्य सौन्दर्येण निपीतधैर्या अमूः स्त्रीः प्रत्येकमेकैकामेवालिङ्गत् / अनोत्प्रेक्ष्यते-रतेः देव्याः प्रतिद्वन्द्वतमासु रतिसहशीध्वमूषु मध्ये स रतीशः, कयश्चिदपि निर्णीतरति. निश्चितनिजपत्नीको नाभूत् / नूनम्, अन्यथा कथं प्रत्येकमालिंगेदित्यर्थः / सर्वास्वपि मन्मथविकारः प्रादुर्भूत इत्यर्थः // 31 // (अपने हारों तथा मणिमय फर्श एवं दीवालों में प्रतिविम्बित ) नलके प्रतिबिम्ब के सौन्दर्यसे नष्ट धैर्यवाली उन प्रत्येक खियोंको रतिपति ( कामदेव ) ने आलिङ्गन किया, क्योंकि रतिकी प्रतिद्वन्द्विनी (रतिके समान) उन स्त्रियों में 'यही रति हैं। ऐसा निश्चय नहीं कर सका। [ एकको आलिङ्गन करनेपर अन्य स्त्रीको अत्यन्त सुन्दर देख उसे ही रति समझ उसका भी आलिङ्गन किया, इसी प्रकार सब स्त्रियों को कामने आलिङ्गन किया, जैसे कोई व्यक्ति भ्रमसे एक वस्तुको अपना समझकर पहले उसे लेता है, किन्तु फिर दूसरी वस्तुको अपना समझता है तो पहले ली हुई वस्तुको छोड़कर दूसरीको ले लेता है और वास्तविक निर्णय नहीं होने तक ऐसा ही करता है, वैसा ही रतितुल्य उन स्त्रियों में भी रतिका ठीक-ठीक पहचान न कर सकनेवाले कामदेवका आलिंगन भी अनुचित या दोषः जनक कार्य नहीं है "नलकी छायागत सुन्दरताको देखकर अन्तःपुर की सब स्त्रियां कानपीड़ित हो गयीं"] // 31 // तस्माददृश्यादपि नातिविभ्युस्तच्छायरूपाहितमोहलोलाः। मन्यन्त एकाहतमन्मथाज्ञाः प्राणानपि स्वान् सुहशस्तृणानि / / 3 / / तस्मादिति / सुदृशः स्त्रियः तच्छायारूपेण तत्प्रतिबिम्बसौन्दर्येणाहितः उत्पादितः मोहः चित्तभ्रमो यासां ता अत एव लोला आसक्ताः सत्यः। अदृश्यादपीति भयहेतूक्तिः। तस्मानलान्नातिबिभ्युः। शृङ्गारेण भयानकस्तिरस्कृत इत्यर्थः / तथाहिआरतमन्मथाज्ञा मन्मथपरतन्त्राः सत्यः, स्वान् स्वकीयान् , प्राणानपि तृणानि Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 नैषधमहाकाव्यम् / मन्यन्त एव / मन्यकर्मण्यनादरे चतुर्ष्या वैभाषिकत्वात् द्वितीया / प्राणानपि तृणी. कृत्य तदा तत्सङ्गमलालसानां तासां तस्माइयं कुत इति भावः // 32 // उन ( नल) के प्रतिबिम्बकी सुन्दरतासे उत्पन्न मोहसे चञ्चल या सतृष्ण ( उनको प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाली ) वे सुनयनाएँ उस अदृश्य नलसे भी अधिक नहीं डरी, और कामदेवकी आशाके वशीभूत ( कामपीड़ित ) उन स्त्रियोंने अपने प्राणोंको भी तृण समझा। [शृङ्गार तथा भयानक रस में परस्पर विरोध होने से उन स्त्रियों से कामवासना के कारण शृङ्गार रसका आविर्भाव होनेपर भयानक रसका न होना स्वाभाविक ही है, तथा जो अपने प्राणोंको भी तृण समझता है, उसको भय न होना उचित ही है। काम-पीड़ित होकर सब स्त्रियां अदृश्य नलको भी प्राण-पण से चाहने लगी ] // 32 // जागांत तच्छायरशां पुरा यः स्पृष्ट च तस्मिन्विससर्प कम्पः / द्रुतं गते तत्पदशन्दभीत्या स्वहस्तितश्चारुहशां परं सः / / 33 // जागर्तीति / पुरा पूर्व, तच्छायहां तप्रतिबिम्बदर्शिनीनां चारुशां, किप। यः कम्पो जागर्ति स्फुरति / ततस्तस्मिन् स्पृष्टे च सति विससर्प प्रससार / स कम्पः द्वतं शीघ्रं गते अपगते सति तस्य पदशब्दानीत्या का परं स्वहस्तवान् कृतः दत्त. स्वहस्तः, प्रबलीकृत इत्यर्थः, स्वहस्तशब्दान्मत्वन्तात् “तत्करोति" इति णिचि णाविष्टबद्भावे विण्मतोलक / ततः कर्मणि कः // 33 // उन ( नल ) की छाया को देखनेवाली सुलोचनाओं का जो कम्प पहले उत्पन्न हुआ, वह कम्प उस ( नल ) का स्पर्श करनेपर बढ़ गया (दर्शनसे कम्परूप सात्त्विक भाव का कम तथा स्पर्श से अधिक होना उचित ही है। ) किन्तु परस्त्री-दर्शनजन्य पाप न होनेके लिये वहाँसे नलसे शीघ्र हटनेपर उनके पैरों की ध्वनि से उत्पन्न भयसे सहारा दिये गये के समान वह कम्प अत्यन्त बढ़ गया। [प्रथम दोनो अवस्थाओं में उत्तरोत्तर बढ़नेवाला कम्प शृङ्गाररस में उत्पन्न था, पुनः तृतीयावस्थामें होनेवाले अत्यन्त अधिक कम्प भयानक रससे उत्पन्न था] // 33 // उल्लास्यतां स्पृष्टनलाङ्गमङ्गं तासां नलच्छार्यापवाऽपि दृष्टिः / अश्मैव रत्यास्तदनति पत्या छेदेऽप्यबोधं यदहर्षि लोम // 34 // उल्लास्येति / रत्याः पत्या कामेन स्पृष्टं नलाङ्गं येन तत्तासामामुल्लास्यतामुल्लासं प्राप्यताम् / उल्लासयतेः कर्मणि लोट / नलच्छायस्य नलप्रतिबिम्बस्य पिबा, तहर्शिनीत्यर्थः / 'पाघ्रा' इत्यादिना शप्रत्ययः, पिबादेशश्च / तासां दृष्टिरपि उल्लास्यताम्, तयोश्चेतनत्वादिति भावः / छेदे कर्तनेऽप्यबोधं बोधरहितम्, अचेतनं लोम, अहर्षि हर्षितमिति यत् / हृषेय॑न्ताकर्मणि लुङ्। तदश्मैव पाषाण एव, अनर्ति अश्मनर्तनप्रायं रोमहर्षणं कुर्वाणस्य कामस्य किमसाध्यमिति भावः / अत्र रोमहर्षणाश्मनर्तनवाक्यार्थयोर्यत्तच्छब्दावगतसामानाधिकरण्यानुपपत्या साहश्याक्षेपाद्वाक्या. थवृत्तिनिदर्शनालकारः। लक्षणं तूकम् // 34 // Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। रतिपति कामदेव नलके शरीर को स्पर्श करनेवाले उन खियोंके अङ्गोंको तथा नलके प्रतिबिम्बको देखनेवाले उनके नेत्रोंको (भले ही हर्ष होनेसे ) उल्लासित करे ( यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं किन्तु ) काटनेपर भी चेतनाशून्य रोमको जो उसने हर्षित कर दिया ( स्त्रियोंके शरीरको रोमाञ्च युक्त कर दिया ), वह पत्थर को ही नचा दिया। [ चेतनायुक्त शरीर या नेत्रको उल्लासित करना सामान्य बात है, किन्तु कामदेवने-जो बाल काटनेपर भी चेतनाहीन रहते हैं उनको हर्षित कर जड़ पत्थरको नचानेके समान आश्चर्यकारक काम किया / सब खियां नलके शरीर का स्पर्शकर तथा उनके प्रतिविम्बको देखकर रोमाञ्चित हो गयीं] // 34 // यस्मिन्नलस्पृष्ठकमेत्य हृष्टा भूयोऽपि तं देशमगान्मृगाक्षी / निपत्य तत्रास्य धरारजःस्थे पादे प्रसीदेति शनैरवादीत // 35 // यस्मिन्निति // मृगाक्षी यस्मिन् देशे नलस्य स्पृष्टक आलिङ्गनविशेषम् / “यद्योषितस्सम्मुखमागताया अन्यापदेशाद् व्रजतो नरस्य / गात्रेण गात्रं घटते तदेतदालिङ्गनं स्पृष्टकमाहुरायाः // " इति रतिरहस्येऽभिधानात् / एत्य प्राप्य, हृष्टा तं देशं भूयोऽप्यगात् / पुनः स्पशलोभादिति भावः / कितु तत्र देशे धरारजःस्थे भूपराग. निष्ठे अस्य नलस्य पादे पादप्रतिकृतौ निपत्य, प्रसीद मां पुनः स्पर्शनानुगृहाणेति शनैरवादीत् / न तु स्पर्श लेभे / तस्यापगमादिति भावः // 35 // ___मृगनयनी जिस स्थानपर नलके ( सन्मुख अन्य कार्यसे जाती हुइ उनके ) शरीरके स्पर्शसे 'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन को प्राप्तकर हर्षित हुई थी, उस स्थानपर ( उनके आलिङ्गन सुखको पाने के लिये ) पुनःगयी (किन्तु वहांसे नलके हट जाने के कारण उनके आलिजनके सुखको नहीं प्राप्त करनेसे ) वहांपर भूमिकी धूलिमें स्थिति ( चिह्नित) इस नलके पैरमें गिरकर ( प्रणामकर ) प्रसन्न होइये, ऐसा धीरेसे कहा / [ परकीया नायिका परपुरुषके स्पर्शसे सुखानुभव कर पुनः संभोगादिके लिये वहां जानेपर उसे प्रसन्न करनेके लिये पैरोंपर गिरकर दूसरा कोई न सुन ले इस कारण धीरेसे प्रार्थना करती है / वह स्त्री नलमें अत्यन्त आसक्त हो गयी ] // 35 // भ्रमन्नमुष्यामुपकारिकायामायास्य भैमीविरहाटकशीयान् / असो मुहः सोधपरम्पराणां व्यधत्त विश्रान्तिमुपत्यकासु // 36 // भ्रमन्निति / भैमीविरहात् क्रशीयान् अतिकृशोऽसौ नलः / अमुण्यामुपकारिकायां राजसमनीत्यर्थः / भ्रमन् सञ्चरन् , आयास्य परिश्रम्य, मुहुः सोधपरम्पराणाम्, उपत्यकास्वासन्नभूमिषु / अत्र सौधानां पर्वतसाधात् गौणोऽयं प्रयोगः। "उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः" इति त्यकन्प्रत्ययस्य पर्वतासन्नभूमिसंज्ञात्वेन विधानात् / “उपत्यकानेरासन्ना भूमि" रित्यभिधानात्तथैव प्रयोगाच्च / संज्ञात्वादेव कात्पूर्वस्येकाराभावः / विश्रान्ति व्यधत्त विश्रान्तोऽभूदित्यर्थः // 36 // 20 नै० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्तीके विरहसे अत्यन्त कृश यह ( नल ) अन्तःपुरसे घूमते-घूमते अत्यन्त थककर प्रासाद-समूहों के पास की भूमिमें बार-बार विश्राम किये / [ जैसे अत्यन्त दुर्बल व्यक्ति एक घरमें भी चलते चलते थककर बार-बार विश्राम करता है, वैसे विरहदुर्बल नलका भी वैसा करना उचित ही है // बहुत देरतक धूमते-घूमते थककर नल एक जगह बैठकर विश्राम करने लगे] // 36 // उल्लिख्य हंसेन दले नलिन्यास्तस्मै यथादर्शि तथैव भैमी / तेनाभिलिख्योपहृतस्वहारा कस्या न दृष्टाजनि विस्मयाय // 30 // किं चात्र विश्रान्तो विनोदाय भैमीप्रतिकृतिमालिख्याद्राक्षीदित्याह श्लोकद्वयेनउलिख्येति // नन्वदृष्टपूर्वा तां कथमलिखदिति शक्तां निरस्यबाह-पूर्व हंसेन नलिन्या दले भैमी यथा येन प्रकारेण उल्लिख्य तस्मै नलायादर्शि दर्शिता / तथैव तेन नलेन अभिलिख्य उपहृतस्वहारा कण्ठार्पितनिजमुक्ताहारा, तदा विलिखिते. त्यर्थः। दृष्टा सती कस्या विस्मयाय नाजनि न जाता, सर्वस्या अपि जाते. त्यर्थः॥३७॥ हंसने कमलके पत्तेपर चित्र बनाकर जैसी दमयन्तीको नलके लिये दिखलाया था, (विश्राम करते समय बैठे हुए ) उस नलने वैसा ही चित्र बनाकर उस (चित्रगत दमयन्ती) को अपना हार पहना दिया, हार पहनी हुई चित्रगत उस दमयन्तीको देखकर किस स्त्रीको आश्चर्य नहीं हुआ ? अर्थात् सभीको आश्चर्य हुआ। [ थककर विश्राम करते हुए नलने मनोविनोदके लिये पहले हंसके द्वारा कमलपत्रपर चित्रित दमयन्तीके समान ही दमयन्ती का चित्र बनाकर उसे अपना हार पहना दिया, उसे देख सभी अन्तःपुरकी स्त्रियां 'किसने राजकुमारीका चित्र बनाकर हार पहना दिया ?' इस प्रकार आश्चर्य करने लगों ] // 37 // कोमारगन्धीनि निवारयन्ती वृत्तानि रोमावलिवेत्रचिहा। सालिख्य तेनैदयत यौवनीयद्वाःस्थामवस्था परिचेतुकामा // 8 // कौमारेति // तेन नलेन यौवनस्येयं यौवनीया। वृद्धाच्छः / तस्यां द्वारि द्वारे, प्रमुखे च तिष्ठतीति यौवनीयद्वाःस्था। "खरवसानयोर्विसनीयः" इति रेफस्य विसर्जनीये तस्य वा सत्वम् / तामवस्थां दौवारिकदशां यौवनप्रवेशदशां च, परिचे. तुकामा अभ्यसितुकामा / अत एव रोमावलिरेव वेत्रं दण्डः तचिह्नं यस्याः सा। कौमारगन्ध एषामस्तीति कौमारगन्धीनि शैशवसंस्पर्शानि, वृत्तानि चापलानि, निवारयन्ती सा दमयन्ती आलिख्य ऐचयत / ईक्षतेः कर्मणि लङ् / वयःसन्धौ वर्तमानान्तामालिख्य अद्राक्षीदित्यर्थः / रूपकालङ्कारः // 38 // बाल-सम्बन्धी कुछ-कुछ आचरणों (चञ्चलता या बाल्यक्रीड़ा आदि ) को निवारण करती (छोड़ती ) हुई रोमावलीरूप बेतको छड़ीके चिहसे युक्त तथा युवावस्थासम्बन्धी द्वारपर स्थित अवस्थाको स्वीकृत या उससे परिचय करनेकी इच्छा करनेवाली दमयन्तीको लिख (चित्रित ) कर नल देखते रहे / [ दमयन्ती का बाल्य समाप्तप्राय है तथा वह अब युवा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। वस्थामें प्रवेश कर रही है, जैसे द्वारपालरूपमें स्थित अन्य कोई व्यक्ति छड़ी लेकर किसीको रोकता है, वैसे ही दमयन्ती भी इस बाल्यक्रीडादिको युवावस्थाके आरम्भमें नामिके नीचे उत्पन्न होती हुई रोमावलिरूप बेतको धारण की हुई रोक रही है तथा युवावस्थासंबंधी द्वारकी अवस्थाका परिचय ( युवावस्थामें प्रवेश ) कर रही है // 38 // पश्याः पुरन्ध्रीः प्रति सान्द्रचन्द्ररजाकत कोडकुमारचके / चित्राणि चक्रेऽध्वनि चक्रतिचिह्न तध्रिप्रतिमासु चक्रप / / 3 / / पश्या इति // सान्द्राणि चन्द्ररजांसि कर्पूरपांसवः / 'अथ कर्पूरमनियाम् / घनसारश्चन्द्रसंशः' इत्यमरः / तैः कृतक्रीडं कुमारचक्रं, बालसको यस्मिन् तस्मिन् अध्वनि चक्रवर्तिचिह्न सार्वभौमलक्षणं, तस्य नलस्य, अधिप्रतिमासु पादन्यासेषु। चक्रं चक्ररेखाः पश्यन्तीति पश्याः पश्यन्तीः, "पाघ्रा" इत्यादिना शप्रत्ययः पश्या. देशश्च / पुरन्ध्रीः प्रति स्त्रिय उद्दिश्य चित्राणि चक्रे / तासामाश्चर्याणि जनयामा. सेत्यर्थः // 39 // ___ सघन कर्पूर-धूलि में ( या सघन कर्पूर धूलिसे ) खेले हैं राजकुमार जिसमें ऐसे मार्गमें उस नलके पैरोंके चिह्नों में चक्रवर्तीका चिह्नभूत चक देखती हुई खियोंको आश्चर्यित कर दिया। [नल जिस मार्गसे गये वह मार्ग बहुत-सी कपुरधूलिवाला था तथा वहाँ पर पहले राजकुमार क्रीडा कर चुके थे, उस मार्गमें नलके पैरके चिह्न पड़ गये, उन चिह्नों में चक्रवर्ती के लक्षणभूत चक्रका चिह्न था, उसे देखकर स्त्रियां आश्चर्य करने लगी कि कौन चक्रवर्ती इस मार्गसे गया है, जिसके पैरोंके चिह्नमें यह चक्र दीख रहा है / उन खेलनेवाले राजकुमारोंके पादचिहकी अपेक्षा बड़ा होनेके कारण 'यह चिह्न किसी राजकुमारका ही है' यह सन्देह उन स्त्रियों को हुआ ] // 39 // तारुण्यपुण्यामवलाकयन्त्योरन्योन्यमेणेक्षणयोरभिख्याम् | मध्ये मुहूते स बभूव गच्छन्नाकस्मिकाच्छादनविस्मयाय // 40 // तारुण्येति // तारुण्यपुण्यां यौवनमनोज्ञाम् / 'पुण्यं मनोज्ञ' इति विश्वः। अन्योन्यमभिख्यां शोभामवलोकयन्स्योरेणेक्षणयोः मृगाच्योर्मध्ये गच्छन् महूर्तम् , ईष स्कालम्, आकस्मिकाच्छादनेन निर्हेतुकव्यवधानेन विस्मयाय वभूव / अत्र व्यवधान. कारणं विना व्यवधानोक्तेरकारणे कार्योत्पत्तिलक्षणो विभावनालङ्कारः॥४०॥ यौवनावस्थाकी मनोज्ञ शोभाको परस्पर देखती हुई दो मृगनयनी स्त्रियों के बीचमें जाते हुए वे नल क्षणमात्र आकस्मिक आवरण ( रुकावट ) होनेसे उनके आश्चर्यके लिये हुए। [इच्छानुसार अन्तद्धि सिद्धिके वरदान ( 5 / 137 ) पानेसे नलको अपनी इच्छाके अनुसार स्वयं अदृश्य होने पर भी उनकी छायाके अदृश्य नहीं होने तथा उनके शरीर तथा भूषण आदिका स्पर्श दूसरोंको होनेमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये ] // 40 // Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 नैषधमहाकाव्यम् / पुरः स्थितस्य कचिदस्य भूषारत्नेषु नार्यः प्रतिविम्बितानि / व्योमन्यहश्येषु निजान्यपश्यन् विस्मित्य विस्मित्य सहस्रकत्वः / / 11 / / पुर इति // कचिद्देशे नार्यः पुर स्थितस्य नलस्य अहश्येषु भूषारत्नेषु निजानि प्रतिविम्बितानि प्रतिबिम्बानि, व्योमनि शून्ये विस्मित्य विस्मित्य पुनः पुनः विस्मिता भूत्वा / सहस्रकृस्वः सहस्रवारमपश्यन् / अत्रापि निरालम्बनप्रतिबिम्ब दर्शनोक्तेरकारणे कार्योत्पत्तिलक्षणो विभावनालारः॥ 41 // त्रियोंने ( अपने ) आगे स्थित नलके भूषण-मणियोंमें अपने प्रतिबिम्बोंको अत्यन्त आश्चर्यित होकर हजारों ( अनेकों ) बार आकाशमें देखा / [ आकाशमें किसीकी कोई वस्तु कदापि प्रतिबिम्बित नहीं होती, किन्तु हमलोगोंका प्रतिबिम्ब आकाशमें दीख रहा है, अतः अन्तःपुरकी स्त्रियोंने बहुत बार आश्चर्यचकित होकर प्रतिबिम्बोंको देखा ] // 41 // तस्मिन् विषज्याधपथान्निवृत्तं तदङ्गरागच्छुरितं निरीक्ष्य / विस्मरतामापुरनुस्मरन्त्यः क्षिप्तं मिथः कन्दुकमिन्दुमुख्यः // 42 / / तस्मिमिति // इन्दुमुख्यः स्त्रियः, मिथः क्षिप्तम् , अन्योन्यं प्रति प्रेरितं किन्तु / तस्मिन्नले विषज्य लम्भित्वा अर्धः पन्थाः अर्धपथः, विशेषणसमासे समासान्तः / "अधं नपुंसकम्" इत्येकदेशसमास इति केचित् / तत्र समांशनिबन्धः / तस्मानिवृत्तं प्रत्यागच्छन्तं, तस्य नलस्याङ्गरागेण च्छुरितं रूषितं, कन्दुकं निरीक्ष्य अनुस्मरन्स्यः कुत एतदिति पुनःपुनरनुसन्दधाना विस्मरतां विस्मतत्वमापुः / “नमिकस्पिस्मि" इत्यादिना रप्रत्ययः // 42 // चन्द्रमुखियां परस्परमें एक दूसरेको लक्ष्यकर फेंका गया, किन्तु नलके शरीर में टकराकर आधे रास्तेमें ही गिरा हुआ तथा उनके शरीर-राग ( चन्दन आदि ) के व्याप्त गेंदको देख (किसका यह अङ्गराग इसमें लग गया ? तथा यह आधे रास्ते में ही क्यों गिर पड़ा? ऐसा ) विचार करती हुई आश्चर्यित हो गयीं // 42 // पुसि स्वभतव्योतरिक्तमूते भूत्वाप्यवाक्षानियमवातन्यः / छायासु रूपं भुवि तस्य वीक्ष्य फलं शोरानशिरे महिष्यः // 43 // पुंसीति / महिष्यो राजदाराः, स्वभर्तृव्यतिरिक्तभूते पुंसि परपुरुषे विषये अवी. चानियमेन अनिरीक्षासङ्कल्पेन, व्रतिन्यः व्रतवत्यो भूत्वा तस्य नलस्य भुवि कुट्टिमभूमौ छायासु प्रतिबिम्बेषु रूपं सौन्दर्य वीक्ष्य हशोः फलमानशिरे प्रापुः। “अत आदेः" इत्यभ्यासदीर्घः / “अश्नोतेश्च" इति नुडागमः // 43 // अपने पति ( राजा भीम ) के अतिरिक्त पुरुषको न देखनेका नियम पूर्वक व्रत पालन करनेवाली होकर भी पटरानियोंने मणिमय भूमि [ फर्श पर पड़ी हुई ] नलकी परछाहीं में उनका रूप देखकर नेत्रोंका फल प्राप्त कर लिया। [प्रतिबिम्बमें नलका रूप देखनेसे उनका व्रत-मङ्ग भी नहीं हुआ। तथा सुन्दरतमरूप देखनेसे उनके नेत्र भी सफल हो गये ] // 43 // Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 315 षष्ठः सर्गः। विलोक्य तच्छायमतर्कि ताभिः पतिं प्रति स्वं वसुधापि धत्ते / यथा वयं किं मननं नथेनं त्रिनेत्रनेत्रानलकीलनीलम् // 44 / / विलोक्येति // ताभिः राजमहिषीभिः, तस्य नलस्य, छाया अनातपरेखा तच्छायम् / नीलमिति शेषः / विलोक्य यथा वयं, स्वं स्वकीयं, पति भीम, प्रत्युदबु. दम् , मदनं दध्महे / तथा वसुधापि स्वं पति भीममेव प्रत्युद्बुद्धम् / किन्तु, त्रिनेत्रस्य ईश्वरस्य, नेत्रानलकीलैत्राग्निज्वालैः, नीलं कृष्णवर्णम् , एनं मदनं धत्ते किमित्यतर्कि उत्प्रेक्षितम् / नलच्छाये वसुधागते तस्मिन्मदनस्वोत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालङ्कारः / नलच्छायेऽपि स्त्रीणां मदनविभ्रमः, नले तु किमु वक्तव्यमिति शेषः॥४४॥ नलके प्रतिबिम्बको देखकर उन ( पटरानियों ) ने ऐसा तर्क किया-"जिस प्रकार अपने पति ( भीम ) के प्रति हमलोग मदनको ( हृदयमें ) धारण करती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपने पति ( भीम ) के प्रति शिवजीकी नेत्राग्निकी ज्वालासे श्यामवर्ण मदनको धारण करती है / [ अथवा-जिस प्रकार हमलोग लज्जावश भीमके प्रति कामको छिपाती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी अपने पति भीमके प्रति शिवजीके तृतीय नेन्नाग्निकी ज्वालासे श्यामवर्ण कामदेवको ( अन्तःकरणमें ) छिपाती है / भीमको भूपति होनेसे पृथ्वीका भी पति होना स्वयंसिद्ध है। छायाके श्यामवर्ण होनेसे यहां शिवनेत्राग्नि-ज्वालाका वर्णन है, अग्निकी ज्वालासे कोई भी पदार्थ श्यामवर्ण (धूम्रयुक्त) हो जाता है ] / / 44 // रूपं प्रतिच्छायिकयोपनीतमालोकि ताभिर्यदि नाम कामम् / तथापि नालोकि तदस्य रूपं हारिद्रभङ्गाय वितीर्णभङ्गम // 45 // नन्वेवं नलविलोकिनीनामासां कथं न परपुरुषनिरीक्षणे व्रतलोपस्तत्राहरूपमिति // प्रतिच्छायव प्रतिच्छायिका / स्वार्थ कः। “कात्पूर्वस्य" इतीकारः। तयोपनीतं रूपं छायात्मकं स्वरूपं ताभिः स्त्रीभिरालोकि यदि आलोकितं चेत् / कामं यथेच्छमालोक्यतां नाम / तथापि हारिद्गभङ्गाय हरिद्राखण्डाय वितीर्णभङ्गं दत्तपराजयम् , तत्स्वरूपमित्यर्थः / अस्य तत्प्रसिद्धं रूपं स्वरूपं नालोकि नालो. 'कितम् / साक्षाद्रपदर्शने दोषः, न प्रतिच्छायादर्शन इत्यर्थः // 45 // ___उन ( पटरानियों ) ने प्रतिबिम्बमें यद्यपि नलका स्वरूप ( या सौन्दर्य ) अच्छी तरह देखा, तथापि हल्दीके टुकड़े ( या सुवर्ण ) को ( अपनी सुन्दरतासे ) पराजित करनेवाले इस ( नल ) के उस ( अति प्रसिद्ध एवं अवर्णनीय ) रूपको नहीं देखा / / 45 // भवनहश्यः प्रतिबिम्बदेहव्यूह वितन्वन्मणिकुट्टिमेषु / / पुरं परस्य प्रविशन वियोगी योगीव चित्रं स रराज राजा // 46 // भवन्निति / वियोगी विरही अयोगी च / स राजा नलः, अदृश्यो भवन् स्वयमदृश्यः सन् मणिकट्टिमेषु मणिनिबद्धभूमिषु, प्रतिबिम्बदेहानां व्यूहं समूह, वितन्व सम्पादयन् / योगिपक्षे बहूनि योगशरीराणि युगपत् कल्पयन्। तथा परस्य राजा. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्तरस्य, पुरं नगरम् / अन्यत्र जीवान्तरस्य शरीरं परकायं प्रविशन् / 'पुरं पुरि शरीरे च' इति विश्वः / योगी अणिमादिसिद्धिमानिव, रराज चित्रम् // 46 // वियोगी ( दमयन्ती-विरहयुक्त ) नल अदृश्य होकर मणिमय भूमिमें प्रतिबिम्बसे अपने पक्षान्तरमें-दूसरेके शरीर में ) प्रवेश करते हुए योगी अर्थात् मुनिके समान शोभमान हुए, यह आश्चर्य है [ वियोगीका योगीके समान होना आश्चर्यकारक होता ही है। योगी भी अपने कायव्यूहका विस्तार करता है, अदृश्य होता है तथा वियोगी अर्थात् विषयोंसे विरक्त होता है ] // 46 // पुमानिवास्पशि मया भ्रमन्या छाया मया पुंस इव व्यलोकि / निवातकि मयापि कश्चिदिति स्म स स्त्रैणगिरः शृणोति / / 40 // पुमानिति / श्रमन्त्या मया पुमानिवास्पर्शि स्पृष्टः / मया पुस छायेव व्यलोकि विलोकिता। मयापि कश्चित् ब्रुवन् लपन्निव, अतर्कि तकितः / सर्वत्र कर्मणि लुङ। . इत्येवंरूपाः स्त्रैणस्य स्त्रीसमूहस्य गिरः / यद्वा, स्त्रीषु भवाः स्त्रैणाः गिरः। "स्त्रीपुंसाभ्यां नअस्नो भवनात्" इति भवार्थे नन्प्रत्ययः। स नलः, शृणोति स्म / “लट स्मे” इति भूते लट // 17 // ___ 'घूमती हुई मैंने पुरुषके समान किसीका स्पर्श किया, मैंने पुरुषके समान किसीका प्रतिबिम्ब देखा, मैंने पुरुषके समान किसीके शब्दका अनुमान किया' इस प्रकार (परस्परमें या दमयन्तीसे कहते हुए ) स्त्री-समूहके ( अथवा स्त्री-सम्बन्धी ) वचनको नलने सना / / 47 / / अम्बां प्रणम्योपनता नताङ्गी नलेन भैमी पथि योगमाप | स भ्रान्तभैमीषु न यां विवेद सा तं च नादृश्यतया ददर्श // 4 // अम्बामिति // नताङ्गी व्यानतगात्री भैमी / अम्बां मातरम् / 'अम्बा सवित्री जननी माता च' इति हलायुधः। प्रणम्योपनता सती, नलेन पथि योगमाप। किन्तु स नलो भ्रान्तभैमीषु अलीकभैमीषु मध्ये तां न विवेद विविच्य नाजानात् , सा च तं नलम् अदृश्यतया न ददर्श / अत्र रूपसाम्यादभ्रान्तभैम्याः भ्रान्तभैमीभिः सहाभेदाभिधानात् सामान्यालङ्कारः / “सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्त्वन्तरकता" इति लक्षणात् // 48 // माताको प्रणाम कर आयी हुई नताङ्गी दमयन्तीने रास्तेमें नलका स्पर्श अर लिया। तब नलने भ्रान्तिसे शतशः कल्पित दमयन्तीके बीच में उसको वास्तविक दमयन्ती नहीं विक रूपमें किसीने किसीको नहीं पहचाना ] // 48 // प्रसूप्रसादाधिगता प्रसूनमाला नलस्य भ्रमवीक्षितस्य / क्षिसापि कण्ठाय तयोपकण्ठे स्थितं तमालम्बत सत्यमेव / / 46 // Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। प्रस्थिति // प्रसूप्रसादाधिगता मातृप्रसादलब्धा / “जनयित्री प्रसूर्माता जननी" इत्यमरः / प्रसूनमाला पुष्पमालिका। तया भैन्या भ्रमवीडितस्य भ्रान्तिाष्टस्य नलस्य कण्ठाय लिप्ताप्युपकण्ठे समीपे स्थितं सत्यमेव तश्यमेव तं नलमालम्बत प्राप / मणिप्रभायां मणिबुद्धिन्यायादिति भावः // 19 // माता द्वारा प्रसन्नता से दी हुई पुष्पकी माला, भ्रान्तिसे देखे जाते हुए नलके कण्ठके लिये फेंकी गयी भी वारलविक नलको अवलम्बित हुई। [ नलको दमयन्ती सर्वदा सव दिशाओं में भ्रान्तिवश देखा करती थी, अतः उसी भ्रान्तिमें देखे जानेवाले नलको लक्ष्यकर दमयन्तीने माता द्वारा प्रसादरूपसे प्राप्त पुष्प मालाको फेंका और वह वास्तविक नलके गले में पड़ गयी / इस वर्णन द्वारा 'भविप्यमें दमयन्ती नलको ही जयमाल पहनावेगी' यह शकुन सूचित होता है ] // 49 // स्नग्वासनादृष्टजनप्रसादः सत्येमित्यद्भुतमाप भूपः / क्षिप्तामदृश्यत्वामतां च मालामालोक्य तां विस्मयते स्म बाला // 50 // नगिति // भूपो नलः, वासनया निरन्तरभावनया, दृष्टस्य जनस्य, अलीक भैग्याः प्रसादोऽनुग्रहभृता इयं स्रक सत्या सत्यभूतेति हेतोरद्भुतमाप। बाला भैमी च, क्षिप्तामात्मना न्यस्ताम् / अथ अदृश्यत्वमितां प्राप्तां तां मालामालोक्य आलोच्य विस्मयते स्म विस्मिताभूत् // 50 // सर्वदा भावनाके देखी जाती हुई दमयन्तीका प्रसाद यह माला सत्य है, इस कारण राजा ( नल आश्चयित हुए भ्रान्ति-दृष्ट व्यक्तिकी दी हुई वस्तु भी असत्य ही होती है, पर यह पुष्पमाला तो असत्य नहीं है, सो कैसे हुआ इस कारण नलको आश्चर्य हुआ) तथा फेंकी गयी पुष्पमालाको पुनः न देखकर वाला (दमयन्ती) भी आश्चर्ययुक्त हो गयी। ( मैंने जिस मालाको अभी फेंका, वह कहाँ अदृश्य हो गयी ? यह दमयन्तीको माय हुआ) // 50 // अन्योन्यमन्यत्रवदीक्षमाणौ परस्परेणाध्युषितेऽपि देशे / आलिङ्गितालीकपरस्परान्तस्तथ्यं मिथस्तौ परिषस्वजाते / / 51 // अन्योन्यमिति // तौ भैमीनलौ, परस्परेणाध्युषिते देशेऽपि अन्योन्यमिति कर्मनिर्देशः। नलो भैमी सा च नलमित्यर्थः / अन्यत्रवद्देशान्तर इवेक्षमाणी, अन्यत्र स्थायिनाविव पश्यन्तावित्यर्थः / आलिङ्गितमालिङ्गानम्, अलीकं यस्य तदालिङ्गिता. लीकम्, एतदालिङ्गनं मिध्यत्यभिमानं, परस्परस्यान्तरन्तःकरणं यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा / अव्ययोत्तरपदो बहुव्रीहिः / अव्ययं रेफान्तं क्रियाविशेषणम् / मिथोऽन्योन्यं तथ्यं यथार्थमेव / परिषस्वजाते श्लिष्यतः / “उपसर्गात्सुनोति" इत्यादिना षत्वम् / पूर्ववासनया परस्परचेष्टां मिथ्येति मन्यमानावेव तथ्यमचेष्टेता. मित्यर्थः // 51 // Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 नैषधमहाकाव्यम् / परस्पर एक स्थानपर स्थित वे दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) ने परस्परमें एक दूसरेको अन्यत्र स्थितके समान देखते हुए तथा यह आलिङ्गन मेरा पूर्ववत् भ्रान्तिवश ही हो रहा है ऐसा हृदयमें समझते हुए वास्तवमें सचमुच ही परस्पर आलिङ्गन कर लिया। [ अदृश्य नल एक स्थान पर ठहरे थे, दमयन्ती भी वहीं ठहरी थी, वहां दोनोंने परस्पर में एक दूसरेको देखते हुए आलिङ्गन कर लेनेपर भी मनमें यही समझा कि यह आलिङ्गन भी हमलोगोंका वैसा ही भ्रमजन्य है जैसा पहले कई बार हो चुका है ] // 51 // स्पर्श तमस्याधिगतापि भैमो मेने पुनर्धान्तिमदर्शनेन | नृपस्तु पश्यमपि तामुदीतस्तम्भो न धतु सहसा शशाक // 52 // ___ स्पर्शमिति // भैमी तं तथ्यं स्पर्शम् अधिगता प्राप्तापि / पुनरस्य नलस्य अदर्शनेनादृश्यत्वेन, भ्रान्ति मेने / अतो नलं धर्तुं न शशाकेति शेषः / नृपस्तु पश्यन्नप्युदीतस्तम्भो निष्क्रियाजस्वलक्षणः सात्विको यस्य, स सन् / तां भैमी, सहसा धर्तु ग्रहीतुं न शशाक / अन्यथा धरेदिति भावः / उदीतेति ईङ्गताविति दीर्पण 'ई' धातुना निष्पन्नम् / अत्र स्तम्भपदार्थस्य विशेषणगत्या धारणाशक्तिहेतुकरवात् पदाथहेतुकं काम्यलिङ्गमलङ्कारः // 52 // ___ नलके वास्तविक स्पर्शका अनुभव करनेवाली भी दमयन्तीने उनको नहीं देखनेसे उस स्पशको भ्रमजन्य ही माना, तथा उसे ( दमयन्तीको ) देखते हुए भी ये राजा (नल) जडता ( नामक सात्त्विक भाव ) के उत्पन्न होनेसे सरसा उस दमयन्तीको पकड़ नहीं सके // 52 // स्पर्शातिहर्षाहतसत्यमत्या प्रवृत्त्य मिध्या' प्रतिलब्धबोधौ / पुनर्मिथस्तध्यमपि स्पृशन्तौ न श्रद्दधाते पथि तौ विमुग्धौ // 55 // स्पर्शति / विमुग्धौ रागान्धौ, तौ दमयन्तीनलौ, पतिस्पर्शनातिहर्षोऽतिमात्रानन्दः, तस्माद्धेतोस्तदन्यथानुपपत्त्या, आहतया दृढीकृतया सत्यमत्या सत्योऽयं स्पर्श इति बुध्या प्रवृत्य पुनर्व्यापृत्य मिथ्याप्रतिलब्धबोधौ प्रवृत्तेऽपि स्पर्शालामान्मिथ्येति निश्चितबोधौ, मिथ्येति बुद्धवन्तावित्यर्थः / पुनरित्थमुभयदर्शनानन्तरं, मिथोऽन्योन्यं, तथ्यं यथार्थमपि स्पृशन्तावपि, न श्रद्दधाते न विशश्वसतुः / दधाते. लिटि तङ् / श्रच्छब्दस्य "श्रदन्तरोरुपसङ्ख्यानमि" त्युपसर्गत्वाद्धातोः प्राक् प्रयोगः // 53 // प्रथम स्पर्शसे उत्पन्न अत्यन्त प्र्षसे उसे सत्य मानकर फिर आलिङ्गनमें प्रवृत्त होनेपर स्पर्श न होनेसे 'वह स्पर्श भ्रान्तिजन्य था' इस मिथ्याबुद्धिसे प्रथम-स्पर्श-जन्य सत्य बुद्धिके दूर हो जानेपर फिर ( तृतीय बार ) वास्तविक स्पर्श करते हुए भी वे दोनोंने मोहित होकर इस ( वास्तविक तृतीय स्पर्शमें भी विश्वास नहीं किया इस सत्य स्पर्शको भी भ्रान्तिजन्य ही माना) // 53 // 1. 'मिथ्यामतिलब्धबाघौ' इति पाठान्तरम् / Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। सर्वत्र संवाद्यमबाधमानौ रूपश्रियातिध्यकरं परं तौ। न शेकतुः केलिरमाद्विरन्तुमलीकमालोक्य परस्परंतु // 54 / सर्वत्रेति // तौ भैमीनलौ, रूपश्रिया सौन्दर्यसम्पदा, सर्वत्र सर्वावयवेषु संवाचं मिथस्संवादाई, परस्परानुरूपमित्यर्थः / अत एव परमत्यन्तमातिथ्यकर मिथः सत्कारकारि / अलीकमसत्यं परस्परन्तु कर्म आलोक्य / अबाधमानौ मिथ्यस्यमन्यमानौ, केलिरसात् क्रीडारागाद्विरतुं निवर्तितुं न शेकतुः, किरवलीकेनापि परस्परेण क्रीडितुमाचकांक्षतुरित्यर्थः // 54 // वे दोगे ( दमयन्ती तथा नल ) सौन्दर्य-सम्पत्तिसे सब अवयवों में परस्पर संवादके योग्य ( परस्पर अविरुद्ध अर्थात् मिलता जुलता हुआ / अतएव परस्परमें एक दूसरेका) अत्यन्त सत्कार करनेवाले अलीकको परस्पर देखकर असत्य नहीं समझते हुए क्रीडासे विरत नहीं हुए / अथवा अत्यन्त सौन्दर्य-शोभासे परस्परको अत्यन्त सुखकारक बहुत स्थानों में ( स्पर्शादिसे ) सत्यरूप मानते हुए वे दोनों (दमयन्ती तथा नल) असत्यको भी परस्पर देखकर क्रीडारससे विरत नहीं हुए। [ कुछ स्थानों में असत्य स्पर्शादि होनेपर भी अनेक स्थानोंमें सत्य स्पर्शादि होनेसे उन दोनोंने कीडाका त्याग नहीं किया ] // 54 / / परस्परस्पर्शरसोर्मिसेकात्तयोः क्षणं चेतसि विप्रलम्भः / स्नेहातिदानादिव दीपिकाचिनिमिष्य किञ्चिद्विगुणं दिदीपे // 5 // परस्परेति / तयोभैमीनलयोः, चेतसि विप्रलम्भो विरहः, परस्परस्पर्शरसस्य अन्योन्यस्पर्शसुखस्य, ऊर्मिभिः सेकात् क्षणं स्नेहस्य तैलादेरतिदानाद्दीपिकार्चिी. पज्वालेव किञ्चिदीनिमिष्य निवार्य, द्वौ गुणावावृत्ती यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा द्विगुणम्, अधिकं दिदीपे प्रजज्वाल / सोऽप्युद्दीपक एवाभूदित्यर्थः // 55 // ____ उन दोनोंके चित्तमें स्थित विरह आपसके स्पर्श-रसकी अधिकताके सींचनेसे ( पक्षान्तरमें-स्पर्शानन्दरूपी जलके तरङ्ग के द्वारा सींचनेसे ) क्षणमात्र कुछ संकुचित सा होकर अधिक स्नेह (प्रेम, पक्षान्तरमें-तैल ) के देनेसे दीपकके लौके समान फिर द्विगुणित होकर उद्दीप्त होने ( बढ़ने पक्षान्तरसे-जलने ) लगा। [ जैसे अधिक तेल डालनेसे दीपकका लौ पहले कुछ बुझता-सा होकर फिर द्विगुणित होकर जलने लगता है, वैसे ही अधिक प्रेमसे स्पशोदि सुख द्वारा वैसे ही क्षणमात्र शान्त भी उन दोनोंका विरह तत्काल ही अत्यन्त उद्दीप्त हो गया / मिलन नहीं होनेपर विरह उतना दुःसह नहीं हो तो, जितना मिलन होनेके बाद दुःसह होता है ] // 55 // वेश्माप सा धैर्यवियोगयोगाद् बोधश्च मोहञ्च मुहुर्दधाना / पुनः पुनस्तत्र पुरः स पश्यत् बभ्राम तां सुभ्रवमुज्रमेण // 50 // देश्मेति // सा भैमी, धैर्यवियोगयोर्योगाद्यथासंख्यं मुहुर्बोधश्च मोहश्च दधानेति यथासंख्यालङ्कारः / वेश्म निजावासमाप / स नलस्तत्र तां सुभ्रवं भैमीम् उद्ममेण Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्रामस्या पुनः पुरोऽग्रे पश्यन् बभ्राम / प्रारयाशयेति भावः / एतेन चापलाल्यः सवारिभाव उक्तः / 'चापलं स्वनवस्थानम्' इति लक्षणात् // 56 // ___ वह दमयन्ती धैर्य तथा वियोगके संसर्गके ( क्रमशः ) शान ( 'यहां नल कहांसे आये ?' इस प्रकारका शान ) तथा मोह ( 'यह नल ही है। इस प्रकारका मोह / अथवा-मूर्छा) को वार-बार धारण करती हुई कुमारीगृहको चली गयी / तथा वे नल भ्रान्तिके कारण सुन्दर भौहोंवाली उसे ( दमयन्तीको ) बार-बार आगे देखते हुए ( दमयन्तीको पानेकी इच्छासे ) उस कुमारी-भवनमें घूमने लगे / [नलके इस कार्यसे 'चपलता' नामक सञ्चारी भाव सूचित होता है ] // 56 // पद्भ्यां नृपः सञ्चरमाण एष चिरं परिभ्रम्य कथं कथंचित् | विदर्भराजप्रभवानिवासं प्रासादमभ्रङ्कषमासमाद // 57 / / पद्भ्यामिति // एष नृपः पद्भ्यां सञ्चरमाणो गच्छन् / “समस्तृतीयायुक्तात्" इति तृतीया। चिरं परिभ्रम्य कथं कथञ्चित् पादचारक्लेशादतिकृच्छ्रेण, विदर्भराजः प्रभवः कारणं यस्यास्तस्याः वैदाः निवासम् / अझं कषतीत्यभ्रंकषमत्युनतम् / "सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कष" इति खच्प्रत्यये मुमागमः / प्रासादं सौधमाससाद // 5 // पैदल घूमते हुए इस राजा नलने देरतक घूमकर किसी प्रकार ( पैदल चलनेका कभी अभ्यास नहीं होनेके कारण बड़े कष्टले ) विदर्भराज-कुमारी ( दमयन्ती) के निवासस्थान (पाठान्तरसे-कुमारीके मनोहर ) प्रासादको प्राप्त क्रिया / / 57 // सखीशतानां सरसैविलासैः स्मरावरोधभ्रममावहन्ताम् / विलोकयामास समां स भैम्यास्तस्य प्रतोलीमणिवेदिकायाम् // 58 / / सखीति // नलस्तस्य प्रासादस्य प्रतोल्यां प्राङ्गणे या मणिवेदिका तस्यां सखी. शतानां सरसः सानुरागविलासै लाभिः स्मरावरोधभ्रममावहन्ती कायान्तःपुरधान्तिकरी भैम्याः सभामास्थानी विलोकयामास // 58 // ____ उस नलने उस राजकुमारी-भवनके प्राङ्गण ( या गली ) की वेदी ( चौतरे ) पर सैकड़ों सखियों के द्वारा शृङ्गार भावयुक्त विलाससे कामदेवके अन्तःपुरके भ्रमको पैदा करती हुई दमयन्तीकी सभाको देखा। [ दमयन्तीकी सखियोंको रतिके समान सुन्दरी होनेसे कामदेवके अन्तःपुरका भ्रम दर्शकोंको हो जाता था। वैसा ही नलको भी भ्रम हुआ] // 58 // कण्ठः किमस्याः पिकवेणुवीणास्तिस्रो जिताः सुचयात त्रिरखः। . इत्यन्तरस्तूयत कापि यत्र नलेन बाला कलमालपन्ती || 21 // अथ कण्ठ इत्यादिभिः चतुर्दशभिस्तां सभां वर्णयति-कण्ठ इति / यत्र सभायां कलं मधुरमालपन्ती कापि बाला। नलेन तिस्रो रेखा अस्य सन्तीति त्रिरेखः अस्याः कण्ठः पिकवेणुवीणास्तिस्रो जिताः सन्तीति सूचयति किमिति अन्तरन्तःकरणे अस्तू Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 321 यत स्तुता / अत्र कण्ठरेखात्रयस्य विशेषणगस्या निजपिकादित्रयविजयसूचकरवोस्प्रे. जाहेतुकरवारकाम्यलिजसकीर्णेयमुस्प्रेक्षा // 59 // जिस सभामें नलने बोलती हुई किसी ( दमयन्तीकी सखो) की, "तीन रेखावाला इसका कण्ठ कोयल, वंशी तथा वीणाको ( अपने मधुर स्वरसे ) जीत लेनेकी सूचना कर रहा है क्या ?" ऐसी मनमें प्रशंसा की। [नल दमयन्तीकी कम्बुकण्ठी किसी सखीका मधुर स्वर सुनकर मोहित हो गये / तीन रेखाओंसे युक्त कण्ठ 'कम्बुग्रीव' नामक शुभ लक्षणोंवाला होता है / ऐसा सामुद्रिक शास्त्रका वचन है ] // 59 // एतं नलं तं दमर्यान्त ! पश्य त्यजातिमित्यालिकुलप्रबोधान् / श्रत्वा स नारीकरवर्तिशारीमुखात् स्वमाशङ्कत यत्र दृष्टम / / 60 // एतमिति // स नलो यत्र सभायां, नारीकरवर्तिशारीमुखात् कान्ताकरगतशारिकामुखात् , हे दमयन्ति ! तमेतं नलं पश्य / आति पीडां त्यज / इत्येवंरूपान आलि. कुलप्रबोधाम् आलिकुलस्य सखीजनस्य, प्रबोध्यते एभिरिति प्रबोधान् आश्वासनोक्तीः, करणे घन्प्रत्ययः / श्रुत्वा स्वकीयात्मानं दृष्टमाशङ्कत / एतं नलं पश्येति निर्देशादेताभिदृष्टोऽस्मीति शङ्कितवानित्यर्थः / शारीवाक्ये नारीवाक्यभ्रमादिति भावः / अत एव भ्रान्तिमदलङ्कारो व्यज्यत इति वस्तुनालङ्कारध्वनिः // 60 // ___ जहाँपर नलने सखीके हाथपर बैठी हुई मैनाके मुखसे “हे दमयन्ती ! उस (चिराभिलषित ) इस नलको देखो (विरह-) पीडाको छोड़ दो" इस प्रकार ( दमयन्तीके प्रति कहे गये) आश्वासन वचनोंको सुनकर 'इन लोगों ने हमको देख लिया क्या ?' ऐसी आशङ्का की / [ यदि इन लोगोंने मुझे देखा नहीं होता तो ये सारिकाको ऐसा क्यों पढ़ाती ? अथवा-मैनाके वचनको ही नलने साक्षात् सखीका वचन समझकर वैसी आशङ्का की ] / यत्रैकयालीकनलीकृतालीकण्ठे मृषाभीमभवीभवन्त्या / तक्पथे दौहदिकोपनीता शालीनमाधायि मधूकमाला / / 61 // __ यत्रेति // यत्र सभायां, तददृक्पथे. नलदृष्टिपथे, मृषाभीमभवा आरोपितभैमी, अतया तया भवन्त्या एकया सख्या अलीकनलः आरोपितनलः, असः स कृता अलीकनलीकृता तस्या आल्याः सख्याः कण्ठे दौहदिकया धाच्या उपनीता या मधूकमाला, शालीनं लज्जामन्थरं यथा तथा आधायि आहिता / दधातेः कर्मणि लुङ / “आतो युक् चिण्कृतोः" इति युगागमः / एतेन भैम्याः स्वयंवरत्वरा नलेकतानत्वञ्च व्यक्तं सदस्य जीवातुरासीदित्यर्थः // 61 // जहाँपर दमयन्तीका वेष धारण की हुई एक सखीने नलका वेष धारण की हुई दूसरी सखीके गलेमें धाई ( पाठभेदसे-मालिन ) से लाई हुई महुएकी मालाको नलके सामने ही लज्जासहित डाल दिया / [ इससे स्वयंवरकी शीघ्रता तथा एकमात्र नलमें ही चित्तका होना तथा भविष्यमें द यन्ती लाभरूप शुभ शकुन सूचित होता है, अथवा-दमयन्तीको रिझाने के लिये उसकी सखियाँ भी उसकी अभिलषित क्रीडा करती थीं ] // 11 // Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्राभमानं तिलकं दधाना तद्वमिजास्येन्दुकृतानुषिम्बम् / सखीमुखे 'चन्द्रसखे ससर्ज चन्द्रानवस्थामिव कापि यत्र / / 62 // चन्द्रामिति / यत्र सभायां, कापि कान्ता, चन्द्राभं चन्द्रनिभं, आभ्रमभ्रविकारं तिलक चन्द्रसखे सखीमुखे तद्वता आभ्रतिलकवता, निजास्येन्दुना कृतमनुबिम्बं यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा दधाना रचयन्ती चन्द्रानवस्थां ससर्ज. वेत्युत्प्रेक्षा / अत्र तिलकक्रियोत्पत्तौ स्वच्छद्रव्यतया परस्पराभिमुखावस्थितदर्पणव. दितरेतराभूतिलकसंक्रान्तेरितरेतरतिलकचन्द्र परम्परानन्तत्वादनवस्थाक्रियानिष्पत्तिश्चेति भावः // 62 // ___एक सखी चन्द्रतुल्य सखीके मुखमें 'अभ्र' नामक अतिशय निर्मल द्रवद्रव्यसे चन्द्रके समान तिलक कर रही थी, और उस अभ्रनामक द्रवद्रव्यके तिलकसे युक्त चन्द्र समान उक्त (तिलक करनेवाली ) का मुख प्रतिबिम्बित हो रहा था, इस प्रकार बहुतसे चन्द्रमाके हो जानेसे जिस दमयन्ती-सभामें तिलक करनेवाले सखीने चन्द्रमाकी अनवस्था (अनादर, या असंख्यता, या दुर्दशा ) कर दी। [तिलक करनेवाली सखीका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलक ये दो चन्द्र हुए, जिसके मुखचन्द्र में चन्द्रतिलक करती थी, उसका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलक-ये भी दो चन्द्र हुए, दोनों सखियोंके उक्त दो-दो चन्द्र एक दूसरेमें प्रतिबिम्बित होनेसे प्रथम सखीका मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्यतिलक दूसरी सखीके मुखचन्द्रमें तथा चन्द्रतुल्य तिलकमें प्रतिबिम्बित हुआ, तथा उसी प्रकार उस द्वितीय सखीके भी वे सब चन्द्र पहली सखीके मुखचन्द्र तथा चन्द्रतुल्य तिलकमें प्रतिबिम्बत हुए। (इस प्रकार होनेसे) उस सखीने अनेक चन्द्रकी उस दमयन्ती-समामें उपस्थित कर चन्द्रमाकी अनवस्था कर दी / जहाँपर कोई वस्तु अधिक प्राप्त होती है, उसका उतना आदर नहीं होता, जितना आदर एक वस्तुका होता है / सब सखियोंका मुख चन्द्रमाके समान था ] / / 62 / / दलोदरे काञ्चनकतकस्य क्षणान्मषोभावुकवर्ण रेखम् / तस्यैव यत्र स्वमनङ्गलेखं लिलेख भैमी नखलेखिनीभिः / / 63 / / दलेति // यत्र सभायां, भमी, काञ्चनकैतकस्य स्वर्णकेतकीकुसुमस्य, दलोदरे पत्रमध्ये, क्षणात् झटिति मषीभावुकाः श्यामीभवन्त्यः, वर्णरेखा अक्षरविन्यासा यस्मिन् तम् / तस्य नलस्यैव कृते स्वं स्वकीयम्, अनङ्गलेखं कामसन्देशं, नखरेव लेखिनीभिः लेखनिकाभिः लिलेख // 63 // ___ जिस सभामें दमयन्तीने, सुवर्णकेतकीके भोतरवाले पत्तेपर नखरूपी कलमसे, क्षणमात्र में स्याही ( के समान काली ) होनेवाली वर्ण-रचना है जिसको ऐसे, नल-सम्बन्धी अपने कामपत्र (पतिके समीप भेजे जानेवाले कामवासनाजन्य प्रेमसूचक पत्र) को लिखा / 1. “चन्द्रसमे" इति पाठान्तरम् / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 323 [ दमयन्तीने सोने के समान पीले एवं कोमल केतकीके भीतरवाले पत्तेपर नाखूनसे नलसम्बन्धी जो पत्र लिखा, वह थोड़ी देर में ही स्याहीसे लिखे हुएके समान काला हो गया। कामिनियोंका अपने प्रेमीको पत्र लिखना तथा केतकी पत्रपर नखचिह्न करनेपर थोड़े समय के बाद उस नख चिह्नका काला हो जाना अनुभवसे सिद्ध है ] // 63 // विलेखितुं भीमभुवो लिपाषु सख्यातिविख्यातिभृतापि यत्र / अशाकि लीलाकमलं न पाणिमपारि कर्णोत्पलमक्षि नैव / / 64 // विलेखितुमिति // यत्र सभायां लिपीषु चित्रकर्मसु / कृदिकारादतिनो वा ङीष्वकन्यः / अतिविख्यातिभृता अतिचतुरयापीत्यर्थः / सख्या भीमभुवो भैम्याः लीला. कमलं विलेखितुम् अशाकि / भावे लुङ्। शकेत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः। पाणिं तु नाशाकि / तदपेक्षयोत्कृष्टत्वात् / तथा कर्णोत्पलं विलेखितुमपारि पर्याप्तं, पूर्वव. ल्लुङ् / “पर्याप्तिवचनेष्वलमथेष्वि"ति तुमुन् प्रत्ययः / अक्षि तु नापार्यव सर्वोपमानातीतत्वात्तल्लावण्यस्येति भावः // 64 // जिस दमयन्ती-सभामें चित्रकारी करनेके अत्यन्त निपुण कोई सखी चित्रपटपर दमयन्तीके लीलाकमलका चित्र बना देने पर भी उसके हाथका चित्र नहीं बना सकी, तथा कर्णो में भूषणभूत कमलोंका चित्र बना देनेपर भी उसके नेत्रोंका चित्र नहीं बना सकी। [ कोई व्यक्ति लौकिक वस्तुओंको ही चित्रित करने में समर्थ होता है / अलौकिक वस्तुकी चित्रित करनेमें समर्थ नहीं होता। दमयन्तीके हाथ तथा नेत्र अलौकिक ( अनुपम सुन्दर ) थे। अतएव चित्रकारी करने में अत्यन्त निपुण भी उसकी सखी उसके लीलाकमल तथा कर्णोत्पलके ही चित्रोंको बना सकी, हाथ तथा नेत्रको नहीं ] !! 64 // भैमीमुपावीणयदेत्य यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः / गन्धर्ववध्वः स्वरमध्वरोणतत्कण्ठनालकधुरीणवीणः / / 65 // भैमीति // यत्र सभायां, गन्धर्ववध्वो गन्धर्वाङ्गना एव / कलिप्रियस्य प्रियकल. हस्य नारदस्य / “वा प्रियस्य" इति बहुव्रीही प्रियशब्दस्य परनिपातः / प्रियशि. प्यवर्गः / स्वर एव मधु क्षौद्रं तेनारीणमरिक्तं पूर्णमिति यावत् / “त्वादिभ्यः" इति निष्ठानत्वम् / तेन तस्या भैम्याः कण्ठनालेन सह एकधुरं वहन्तीत्येकधुरीणाः समा इत्यर्थः। “एकधुराल्लुक च" इति खच्प्रत्ययः / ता वीणा यस्य सः सन्नेत्यागत्य भैमीमुपावीणयत् वीणया उपगायति स्म / “सत्यापपाशे"त्यादिना णिचि लङ / गानविद्यायां गन्धर्वीणामप्युपास्या भैमीत्यर्थः // 65 // जिस दमयन्ती-सभामें नारदजीका शिष्य -समुदाय तथा स्वररूप मधुसे परिपूर्ण उस ( दमयन्ती ) के कण्ठ-नालके सदृश वीणावाली गन्धर्व-स्त्रियाँ आकर वीणासे दमयन्तीकी स्तुति करती थीं। [ दमयन्तीका कण्ठस्वर इतना मधुर था कि नारदजीसे वीणा बजानेकी शिक्षा पायी हुई गन्धर्वकी स्त्रियाँ भी अपनी वीणाके स्वरका संवाद (ठीक-ठीक मिलान ) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 नैषधमहाकाव्यम् / करने के लिये दमयन्तीके पास आकर गान करती थीं। यहां 'कण्ठनाल' शब्दके कहनेसेजिस प्रकार नालके ऊपर कमल रहता है, उसी प्रकार कण्ठके ऊपर मुखके रहनेसे दमयन्ती का मुखको “कमल" होना सिद्ध किया गया है ] // 65 // नावा स्मरः किं हरभीतिगुप्तेः' पयोधरे खेलति कुम्भ एव / इत्यर्धचन्द्राभनखाहूचुम्बिकुचा सखी यत्र सखीभिरूचे / / 66 / / नावेति // यत्र सभायां, अर्धचन्द्राभनखातचुम्बी अर्धचन्द्राकारनखक्षतभाक्कु चो यस्याः सा सखी / स्मरःहरभीत्या गुप्तेः, गुप्त्यर्थमित्यर्थः सम्बन्धसामान्ये षष्ठी / पयसां शीराणां नीराणाश धरः पयोधरः कुचः / “पयः स्यात् क्षीरनीरयोः" इति विश्वः। तस्मिन्नेव कुम्भ इति व्यस्तं रूपकम् / नावा नखाङ्कनैवेति शेषः / खेलति वाहपरिहाराय विहरति किमिति रूपकसकीर्णेयमुत्प्रेक्षा इति सखीभिरूचे जिस दमयन्ती-समामें अर्द्धचन्द्राकार नख क्षतसे चिह्नित स्तोंवाली सखीसे सखियों ने कहा कि-"तुम्हारे स्तन ( पक्षा०-जलाधार ) रूप घटमें शिवजीसे डरकर आत्मरक्षा करनेवाला कामदेव नौकासे क्रीड़ा करता है क्या ?" [ नावके अर्द्धचन्द्राकार होनेसे शिवजीके दाहजन्य भयसे जलाधार शीतल स्थानमें कामदेवका आत्मरक्षार्थ निवास करना उचित ही है, अन्य भी कोई व्यक्ति दाहशान्ति के लिये शीतल जलमें नौकासे क्रीडा करता हुआ निर्भय होकर आत्मरक्षा करता है / अथवा-कामदेवने सोचा कि शिवजोके आधे शरीरमें पार्वतीजी हैं, अतएव उनके भयसे ( परलोके स्तनका स्पर्श शिवजी करेंगे तब उसे पार्वतीजी कदापि सहन नहीं करेंगी, इस भयसे ) शिवजी तुम्हारे स्तनका स्पर्श नहीं करेंगे, अतः तुम्हारा स्तन शिवजीके द्वारा भयसे अमदित होनेसे मेरे लिये अत्यन्त सुरक्षित स्थान है ऐसा मानकर निर्भय कामदेव वहाँ क्रीडा करता है / अथवा-(पार्वतीजीके डरसे) शिवजीके द्वारा नहीं स्पर्श की गयी हे सखि ! ( इस पक्षमें 'हरभीतिगुप्ते' यह शब्द सखीका सम्बुद्धि पद हो जायेगा / अथवा-शिवजीके भयरूप ईति- परचक्रसे अपनी रक्षा करने. वाला ( इस अर्थमें 'हरमोतिगुप्' यह शब्द कामदेवका विशेषण हो जायेगा तथा 'ते' यह षष्ठ्यन्त 'तव' के स्थानमें आदिष्ट होगा) // नखक्षतयुक्त स्त्रीस्तनको देखकर काम-वृद्धि होनेसे सखीने वैसे स्तनोंवाली सखीसे उपहासपूर्वक उक्त वचन कहा ] // 66 // स्मराशुगीभूय विदर्भसुभ्रवक्षो यदक्षोभि खलु प्रसूनैः। स्रजं सृजन्त्या तदशोधि तेषु यत्रकया सूचिशिखां निखाय // 6 // स्मरेति / प्रसूनैः कुसुमैः स्मराशुगीभूव कामवाणा भूत्वा विदर्भसुश्रुवो वैदाः वक्षो हृदयमक्षोभि क्षोभितं खल्विति यत् / तत् / क्षोभणवैरं, यत्र सभायां, तेषु प्रसूनेषु सूचिशिखां सूच्यग्रं, निखाय निकुट्य, स्रजं मालां, सृजन्त्या एकया 1. 'गुप्ते' इति पाठान्तरम् / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 325 कयाचिरकान्तया, अशोधि निर्यातितम् / हृदयच्छेदिनां हृदयच्छेद एव प्रतीकार इति भावः॥ 67 // जिस दमयन्ती-सभामें, फूलोंने कामबाण बनकर जो विदर्भकुमारी दमयन्तीके हृदयको पीडित किया, उस वैरका माला बनाती हुई एक स्त्रीने उन फूलोमें सूईका नोक चुभाकर बदला ले लिया। [ कामबाण बनकर जिन फूलोंने दमयन्तीके हृदयमें गड़कर उसे पीड़ित किया था, उनके हृदय ( बीच ) में सूई चुभाकर ही वैरका बदला लिया जा सकता है। यह विचारकर सखो दमयन्तीको पीड़ित करनेवाले पुष्पसे उसकी सखीने वैसा ही किया / अन्य भी कोई व्यक्ति पीडित करनेवाले शत्रुके शरीरमें शस्त्र छुपाकर वैरका बदला लेता है। दमयन्ती सभामें मालिन फूलोंकी माला गूथ रही थी ] // 67 // यत्रावदत्तामतिभीय भैमी त्यज त्यजेदं सखि साहसिक्यम् / त्वमेव कृत्वा मदनाय दत्से बाणान् प्रसूनानि गुणेन सज्जान् // 6 // __ यत्रेति / यत्र सभायां, तां स्त्रक्लष्ट्री, सखी, भैमी अतिभीय अत्यन्तं भीत्वा / भीधातोः क्त्वो ल्यवादेशः / अवदत् / किमिति, हे सखि ! इदम् / सहसा वर्तत इति साहसिकः अविमृश्यकारी, "ओजस्सहोऽम्भसा वर्तत" इति ठक् / तस्य कर्म साहसिक्यं, ब्राह्मणादित्वात् ष्यप्रत्ययः / त्यज त्यज / कुतः स्वमेव प्रसूनान्येव बाणान् गुणेन तन्तुना ज्यया च / 'गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येन्द्रियामुख्यतन्तुषु' इति वैजयन्ती / सज्जान् सक्तान् कृत्वा, मदनाय दरसे ददासि / तदेतत्स्वत एव दहतो वह्वेर्वायुना सन्धुक्षणमिति भावः // 68 // जिस दमयन्ती-सभामें अत्यन्त डरकर दमयन्तीने उस ( माला बनानेवाली ) से कहा कि-तुम विवेकशून्य कार्य करना ( माला गुथना ) छोड़ो-छोड़ो; (क्योंकि ) तुम्हों फूलों को गुणों ( धागों, पक्षा०-धनुषकी प्रत्यश्चाओं ) से सजाये हुए बाणोंको कामदेवके लिये देती हो / [ तुम ऐसी मेरी उपकार करनेवाली सखी हो कि बाणोंको प्रत्यञ्चासे युक्तकर मेरे बैरी कामदेवके लिये देनेसे मुझे पीडित करने में उसकी सहायता कर रही हो, अतः इस अविवेकपूर्ण कामको शीघ्र छोड़ दो। पुष्पमाला देखकर कामपीडा बढ़ने लगी, तब उसने सखीसे उपालम्भयुक्त उक्त वचन कहे ] // 68 // आलिख्य सख्याः कुचपत्रभङ्गोमध्ये सुमध्या मकरी करेण / यत्रावदत्तामियंमालि यानं मन्ये त्वदेकावलिनाकनद्याः // 69 // आलिख्येति / यत्र सभायां, सुमध्या कापि कान्ता सख्याः कुचयोः पत्रभङ्गीनां पत्ररचनानां मध्ये मकरी करेगालिख्य ता सखोमवदत् / किमिति, हे आलि सखि, इयं मकरी त्वदेकावलेरेव हारविशेषस्यैव / 'एकवल्येकष्टिका' इत्यमरः / नाकनद्या 1. 'मिदमालि' इति पाठान्तरम् / Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 नैषधमहाकाव्यम। मन्दाकिन्या इति रूपकम् / यानं वाहनं, 'मकरीवाहना गङ्गा' इति प्रसिद्धिः। मन्ये भनोस्प्रेक्षा / तस्याश्चोक्तरूपकेण सङ्करः // 69 // जिस दमयन्ती-समामें सुन्दर कटिवाली सखीने ( दूसरी) सखीके स्तनोंपर पत्ररच. नाके बीचमें हाथसे मकरीको चित्रितकर उससे कहा कि "हे सखी ! यह मकरी तुम्हारी एकावली ( एक लड़की मुक्तामाला ) रूप गङ्गाका मानों वाहन है / " [ एकावलीको स्वच्छतम होनेसे गङ्गा तथा तत्समीपवती स्तनस्थ मकरीको गङ्गाका वाहन होने की उत्प्रेक्षा चित्रकारिणी सखीने अपनी सखीसे परिहासमें की है ] // 69 / तामेव सा यत्र जगाद भूयः पयोधियादः कुचकुम्भयोस्ते / सेयं स्थिता तावकहच्छयाकुप्रियास्तु विस्तारयशःप्रशस्तिः / / 70 // तामिति // यत्र सा पूर्वोक्ता प्रसाधिका तामेव सखीं भूयो जगाद / किमिति / पयोधेर्यादो जलग्राहः समद्रसम्भव इत्यर्थः / किञ्च, तावकस्य हृच्छयस्य मकरध्व. जस्याङ्को मकरस्तस्य प्रिया दयित।। ते तव, कुचकुम्भयोः स्थिता, सेयं मकरी विस्तारयशसस्तयोरेव परीणाहकीतः प्रशस्तिः स्तुतिवर्णावलिरस्तु // 70 // जिस दमयन्ती-सभामें ( स्तनोंपर मकरी-रचना करनेवाली ) वह सखी उस सखीसे बोली कि-"तुम्हारे दोनों स.न-कलशोंपर समुद्री जन्तु तुम्हारे हृदयमें स्थित कामदेवके चिह्नभूत ( मकर की प्रिया) इन स्तनोंके विस्तारका कोर्तिलेख होवे / [ तुम्हारे स्तन इतने विशाल तथा अगाध हैं कि समुद्रको छोड़कर यह जल जन्तु यहां निवास कर तुम्हारे स्तनों के बड़े होनेकी कीर्तिको लिखितरूपमें स्थिर कर रहा है। तथा हृदय स्थित कामदेव चिह्न मकरके समीप ही उसकी प्रिया मकरीका भी रहना उचित ही है / अन्य भी कोई स्त्री अपने प्रियके पास ही सर्वदा रहना पसन्द करती है / 'प्रकाश'कारने कामदेव चिह्न 'मकर के स्थानपर 'मीन' अर्थ किया है ] // 70 // शारी चरन्तीं सखि मारयनामित्यक्षदाये कथिते कयापि / यत्र स्वघातभ्रमभीरुशारीकाकूत्थसाकूतहसः स जझे / / 71 // शारीमिति / यत्र स नलः, कयापि / कितवया इति शेषः / हे सखि, एनां चरन्ती भ्रमन्ती, शारीमतोपकरणं दारुविकारं, शारिकाख्यां शकुन्तिकामित्यान्तरेण शकुन्तिकाया भयोत्पत्तिः / 'शारी त्वक्षोपकरणे तथा शकुनिकान्तर' इति विश्वः / मारय प्रहर / इति अक्षदाये अक्षाः पाशकाः / 'अक्षास्तु देवकाः पाशकाच ते' इत्यमरः / तेषां सम्बन्धी दायो दानम् / 'दागो दाये यौतकादिधने वित्ते च पैतृक इति वैजयन्ती / तस्मिन् कथिते स्वघाते आत्ममारणे, भ्रमेण भ्रान्त्या, मीरोभीतायाः शार्याः शारिकायाः, काका विकृतस्वरेण उत्थः उत्थितः, साकृतः भावगर्भो हसो हासो यस्य सः, “स्वनहसोर्वा” इति विकल्पादप्प्रत्ययः / जज्ञे ज्ञातः // 71 // जिस दमयन्ती-सभामें 'हे सखी ! ( एक धरसे दूसरे घरमें ) चलती हुई इस सारी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सगः। 320 (गोटी-सतरंज आदिका मोहरा) को मारो, ऐसा शतरंज आदिके खेलनेमें किसी सखीके कहनेपर नल अपने मारे जानेके भ्रमसे डरनेवाली मैनाके दीनयुक्त वचन ( मुझे मत मारो,......) से साभिप्राय हँसने लगे / [ यद्यपि सखीने खेलमें मोहरेको मारनेके लिये कहा, किन्तु 'सारी' शब्दके समानार्थक होनेसे उसे अपने मारे जानेको कहा गया मानकर डरसे मैना 'मुझे मत मारो' आदि दीन वचन कहने लगी, वह सुन नलको हंसी आ गयी कि मोहरेको मारनेके कहनेपर भी यह मैना अपने मारे जानेकी शङ्कामें ऐसा दोन वचन कह रही है ] सभामें सखियां शतरंज आदि खेल रही थीं ] // 71 / / भमीसमापे स निरीक्ष्य यत्र ताम्बूलजाम्बूनदहंसलक्ष्मीम् / कृतप्रियादूत्यमहोपकारमरालमोहद्रढिमानमूहे / / 72 / / भैमीति / यत्र सभायां, नलो भैमीसमीपे ताम्बूलस्य जाम्बूनदहंसो हिरण्मय. हंसाकारः करकः तस्य लक्ष्मी निरीक्ष्य, कृतः प्रियाया भैम्या दूत्यमेव महोपकारो येन तस्मिन् मराले हंसे, मोहस्य भ्रमस्य द्रढिमानं दार्थम् ‘र ऋतो हलादेलंघो' रित्यकारस्य रभावः / ऊहे उठवान् / वहेः कर्तरि लिट् / “वचिस्वपि" इत्यादिना सम्प्रसारणम् // 72 // जिस दमयन्ती-सभामें वह नल दमयन्तीके पास में रखे हुए हंसाकार पानदानकी शोभाको देखकर प्रियाके यहाँ दूत-कर्म रूप महान उपकार करनेवाले इंसके अतिशय भ्रमसे ('प्रिया दमयन्तीके पास हमारा दूतकर्म करनेवाला यही हंस है क्या ? इस भ्रमसे) युक्त हो गये ! [हंसाकार वह पानदान ऐसा उत्तम बना था कि उसे देखकर नल-से चतुर व्यक्तिको भी सजीव हंसका भ्रम हो गया ] // 72 // तस्मिनियं सेति सखीममाजे नलस्य सन्देहमथ व्युदस्यन्'। अपृष्ट एव स्फुटमाचचक्षे स कोऽपि रूपातिशयः स्वयं ताम् // 73 // - तस्मिन्निति / अथ सभावलोकनानन्तरं तस्मिन् सखीसमाजे नलस्य सन्देहं का वात्र भैमीति संशयं व्युदस्यन् , स प्रसिद्धः कोऽपि रूपातिशयः सौन्दर्यविशेषः। स्वयमपृष्ट एव तां भैमी, सा भैमी इयमिति स्फुटमाचक्षे / आचख्यो / विश्वातिशा. यिसौन्दर्यसाक्षात्कारादियं दमयन्तीति निश्चिकायेत्यर्थः // 73 // ____ इस ( सभाको देखने ) के बाद उस सखी-समूहमें नलके ( 'इनमें कौन-सी दमयन्ती है, इस प्रकारके ) सन्देहको 'यह वही दमयन्ती है' इस प्रकार दूर करता हुआ उसी सौन्दयाधिक्यने बिना पूछे ही उस दमयन्तीको स्वयं ही कह दिया / [ पहले एकसे एक सुन्दरी सखियोंको देखकर नल 'इनमें कौन दमयन्ती हैं' यह निर्णय नहीं कर सके थे, किन्तु जब सभामें दमयन्ती आई तब उसके अतिशय सौन्दर्यको देखकर बिना पूछे ही नलने निश्चय कर लिया कि यही 'दमयन्ती' है ] // 73 / / 1. "ब्युदस्य" इति पाठान्तरम् / 2. "एवं" इति पाठान्तरम् / 210 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 नैषधमहाकाठबम् / मैमोविनोदाय मुदा सखोभिस्तदाकतीनां भुवि कल्पितानाम् / नातर्कि मध्ये स्फुटमप्युटीत तम्यानुबिम्ब मणि वेटिकायाम् / / 74 / / भैमीति / भैम्या विनोदायौत्सुक्यापनोदाय मुदा कौतुकेन, सखीभिभुवि भूतले, कल्पिताना तस्य नलस्याकृतीनां प्रतिकृतीनां मध्ये मणिवेदिकायां स्फुटमुदीतमपि तस्य नलस्य अनुबिम्ब नातर्कि न सर्कितम् / तत्रापि स्वकल्पिताकृतिसाम्यादिति भावः / अत एव सामान्यालङ्कारः तेन च भ्रान्तिमान् ग्यज्यत इस्यलकारेणालङ्कारध्वनिः॥ 74 // दमयन्तीके मन बहलावेके लिये भूमिपर बनाये गये नलके चित्रों के बीचमें, मणिमय फर्शपर सचमुच प्रतिबिम्बित नलकी छाया (परछाहीं) को भी सखियोंने नहीं लक्ष्य किया। [ सखियोंने दमयन्तीके मनको बहलानेके लिये नलके अनेक चित्र बनाये थे, नलके प्रतिविम्वित शरीरको भी बिलकुल समानाकार होनेसे उसे भी चित्र ही समझा। दमयन्तीके मनोविनोदके लिये सखियोंने बहुतसे नलके चित्र मणिमय वेदियों ( फर्टी) पर बनाये थे ] / / 74 // हुताशकीनाशजलेशदूतीनिराकरिष्णोः कृतकाकुयाच्याः / मैन्या वचोभिः स निजां तदाशां न्यवर्तयदूरमपि प्रयाताम् / / 7 / / हुताशेति / कृताः काका यात्राः प्रार्थना याभिस्ताः चित्तचालनचतुरोक्तीरि. त्यर्थः / हुताशकीनाशजलेशाः वद्वियमवरुणाः / प्रेतपतिः पितृपति कीनाश' इति हलायुधः / तेषां दूतीः निराकरिष्णोः परिहमस्याः। “अलं कृष" इत्यादिना इष्णु प्रत्ययः / “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद् द्वितीया / भैम्याः वचोभिः स नलो दूरं प्रयाताम् इन्द्रादिकपटेन लुप्तप्रायामपि निजां स्वकीयां तदाशां भैमीतृष्णा भ्यवर्तयत् निवर्तितवान् / पुनस्तत्प्रत्याशामकार्षीदित्यर्थः // 75 // दीनतापूर्वक याचना करनेवाली अग्नि, यम तथा वरुणकी दृतियोंको मना करनेवाली दमयन्तीकी बातोंसे बहुत दूर तक गयी हुई भी दमयन्ती विषयक अपनी आशाको नलने पुनः लौटाया [ इन्द्रादिका दूत-कर्म करने तथा दमयन्तीको इन्द्रादि द्वारा चाहनेके कारण नलको दमयन्तीके पानेकी आशा नहीं रह गयी थी, किन्तु अग्नि आदिकी दूतियोंको जब दमयन्तीने स्पष्ट मना कर दिया यह देख नलको फिरसे दमयन्तीकी प्राप्तिकी भाशा हो गयी / दूर तक भी गया हुआ भी कोई व्यक्ति जैसे वचनों ( बुलाने ) में वापस लौट भाता है, वैसे ही दूर तक गयी ( छूटी ) दुई नलकी आशा भी फिर लौट आयो ] // 75 / / विज्ञप्तिमन्तः समयः स मैन्यां मध्येसभं वासवशम्भलीयाम् / सम्माषयामास भृशं कृशाशस्तदालिवृन्दरभिनन्धमानाम // 76 / / विज्ञप्तिमिति // स नलो मध्येसभं सभाया मध्ये "पारे मध्ये षष्ठया वा" इत्यम्पनीमावे नपुंसकहस्वस्वम् / तदालिवृन्दैः भैमीसखीसबैरभिनन्धमानां, वासवश Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 329 षष्ठः सर्गः। मिलीयार, इन्द्रदूतीसम्बन्धिनी, कामिनोः सन्धात्री शम्भली / 'कुट्टनी शम्भली समे' इस्पमा भैम्यां विषये विज्ञप्ति वषयमाणं विज्ञापनम्, अन्तः समयः इन्द्रगौरवावणीकरिष्यतीति बिभ्यदेवेत्यर्थः / अत एव कृशाशः शिथिलभैमीप्राप्स्याशन सन् / भृशं सम्भावयामास ! अस्यवधानेन शुश्रावेत्यर्थः / विज्ञप्तिमिति किन् प्रत्यपान्तश्चिन्त्यः / “ण्यासश्रन्योयुष" इति तदपवादेन युचो विधानात् / अत एव "ज्ञप्तिविज्ञप्तिप्रभृतयोऽपशब्दषु परिगणिता भट्टपादः। तथाप्यभियुक्तप्रयोगो दुवारः // 76 // दमयन्तीकी समाके बीचमें दमयन्तीकी सखियोंके द्वारा अभिनन्दित की जाती हुई, इन्द्रकी दूती ( कुट्टिनी ) की विज्ञप्ति अर्थात् प्रार्थनाको मनमें भययुक्त तथा दमयंती-प्राप्तिकी कम आशा रखते हुए नलने सुना [ जब दमयन्ती को सभामें इन्द्रकी दूतीने दमयन्तीसे इन्द्रका सन्देश कहा, तब सखियोंने उसका अभिनन्दन किया-"जब देवराज इन्द्र भी तुम्हें वरण करना चाहते हैं तब उन्हें अवश्य वरण करना उचित है" ऐसा समर्थन किया, वह सुन नलके मनमें भय हो रहा था कि 'दमयन्ती सखियोंकी बातको तथा इन्द्रदूतीकी प्रार्थना को मानकर इन्द्रको ही वरण कर लेगी क्या ?' तथा इसी कारण दमयन्तीके पानेकी आशा छूट रही थी, ऐसे नलने इन्द्रदूतीकी प्रार्थना को सावधान होकर सुना] // 76 // लिपिन देवी सुपठा भुवीति तुभ्यं मयि प्रेषितवाचिकस्य / इन्द्रस्य दूत्यां रषय प्रसादं विज्ञापयन्त्यामवधानदानम् / / 77 // लिपिरिति // देवी लिपिदेवलिपिः / भुवि भूलोके, सुपठा पठितुं शक्या "ईष. दुः" इत्यादिना खलप्रत्ययः / नेति हेतोस्तुभ्यं, व्याहृतार्था वाग्वाचिकं, सन्देशवाक्यम् / 'सन्देशवाग्वाचिकं स्यात्' इत्यमरः / “वाचो व्याहृतार्थायाम्" इति ठक / तत्प्रेषितं येन तस्य इन्द्रस्य दूत्यां मयि विज्ञापयन्त्याम् / अवधानस्यैकाग्रयस्य दानमेव प्रसादं रचय अनुग्रहं कुरु // 77 // पृथ्वीपर देव-लिपि नहीं पढ़ी जा सकती' इस कारण तुम्हारे लिये सन्देश भेजनेवाले इन्द्रका सन्देश सुनाती हुई इन्द्रकी दूती ( मुझ ) पर अवधान-दानरूप प्रसाद करो ( सावधान होकर मेरो बात सुनने की कृपा करो) / [ यदि मर्त्यलोकवासी देवताओं का लेख पढ़ सकते तो इन्द्र स्वयं पत्र लिखकर तुम्हारे समीप भेजते, किन्तु बैसा करनेमें मनुष्यों के असमर्थ होने के कारण ही इन्द्रने तुम्हारे पास स्वयं पत्र न लिखकर अपना सन्देश कहने के लिये मुझे भेजा है, अतः सावधान होकर इन्द्रका सन्देश सुनो / अथवा-'भाग्यमें क्या लिखा है' यह कोई मर्त्यलोकवासी नहीं पढ़ सकता, किन्तु देवता पढ़ सकते हैं, अतः देवराज इन्द्र के जिस सन्देशको मैं कह रही हूँ उसे तुम सुनो] // 77 // सलीलमालिङ्गनयोपपीडमनामयं पृच्छति वासवस्त्वाम् / शेषस्त्वदाश्लेषकथाविनिद्रैस्तद्रोमभिः सन्दिदिशे भवत्यै // 78 / / सलीलमिति // हे भैमि, वासवस्त्वां सलीलं सविलासम्, आलिङ्गनया आलि. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 नैषधमहाकाव्यम् / मानेन। भाजपूर्वाबिजयतेश्वौरादिकायच। उपपीडमुपपीज्य गाढमालिय। "सप्तम्यां चोपपीड" इत्यत्र चकारात्ततीयोपपदी णमुलप्रत्ययः। "तृतीयाप्रमृतीन्य. न्यतरस्याम्" इति विकल्पादसमासः / अनामयं पृच्छति। "क्षत्रबन्धुमनामयम्" इति स्मरणादिति भावः / शेषः कार्यशेषस्तु त्वदाश्लेषकथया पूर्वोक्तवादालिङ्गनप्रसङ्गेन विनिद्रर्हषितैस्तस्येन्द्रस्य रोमभिर्भवत्यै संदिदिशे सन्दिशे सन्दिष्टः / कर्मणि लिट / त्वदालिङ्गनप्रार्थनैवान्तरं वक्तव्यः कार्यशेषोऽपीति भावः // 78 // ___ इन्द्रने विलासपूर्वक आलिङ्गनसे सम्यक् उपपीडितकर तुमसे अनामयको पूछा है तुम्हारे आलिङ्गनकी चर्चासे हर्षित इन्द्र के रोमोंने शेष सन्देशको तुम्हारे लिये कहा है / [ मनुस्मृतिके वचनानुसार क्षत्रियसे 'अनामय' पूछनेका धर्म होनेसे इन्द्रने आलिङ्गनपूर्वक तुम्हारा अनामय पछा है / तथा तुम्हारे आलिङ्गनके स्मरण होनेके कारण वे रोमाञ्चित होनेसे गद्गद होकर मुखसे और कोई बात नहीं कह सके हैं / तुम्हें इन्द्र हृदयसे चाह रहे हैं; अतः तुम उन्हींको स्वयंवर में वरण करना ] / / 78 // यः प्रेर्यमाणोऽपि हृदा मघोनस्त्वदर्थनायां हियमापदागः / स्वयंवरस्थानजुषस्तमस्य बधान कण्ठं वरण जैव' || 7 || य इति // हे भैमि, मघोनः इन्द्रस्य यः कण्ठस्त्वदर्थनायां विषये हृदा प्रेयमाणो. ऽपि हियमेवागोऽपराधमापत् / हीनस्याधिकं प्रति यामासङ्कोचेऽव्यपराध एवेति भावः / स्वयंवरस्थानजुषः स्वयंवरमागतस्य अस्येन्द्रस्य तमपराधिनं कण्ठं वरणस्रजा भर्तृवरणमालिकया त्वं बधान। ईशापराधिनामीहरबन्ध एव दण्ड इति भावः / सर्वथा लजां प्रविहाय प्रार्थनां कुर्वतो महेन्द्रस्य मनोरथपूरणं कार्यमिति तात्पर्यार्थः // 79 // (हे दमयन्ती ! ) इन्द्रके जिस कण्ठने तुम्हारी याचनाके लिये हृदयसे प्रेरित होते हुए भी लज्जारूप जिस अपराधको प्राप्त किया, स्वयंवरमें आये हुए इन्द्रके उस कण्ठको वरण मालासे ही (पाठभेदसे-वरणमालासे शीघ्र) बाँधो। [ हार्दिक इच्छा होनेपर भी लज्जावक्ष वे इन्द्र कण्ठसे कुछ नहीं कह सके, और मेरे द्वारा अपना सन्देश भेजा, अतः उस अपराधी कण्ठको स्वयंवरसे इन्द्रके आनेपर सब लोगों के सामने ही वरण-मालासे बांधकर कठोर दण्ड दो / अन्य भी किसी अपराधीको सबके सामने बाँधकर दण्डित किया जाता है, जिससे अन्य कोई कभी ऐसा अपराध न करे // इन्द्र तुम्हें हृदयसे चाहते हैं अतः स्वयंवरमें उन्हींको वरणमाला पहनाना ] // 79 // नैनं त्यज क्षीरधिमन्थनाचैरस्यानुजायोद्गमितामरैः श्रीः / अस्मै विमध्येक्षरसोदमन्यां श्राम्यन्तु नोत्थापयितं श्रियं ते || 80 // नेति // हे भैमि, एनमिन्द्रं, न त्यज / तथा हि, यैरमरैः अस्येन्द्रस्य अनुजाय १.'-सजाशु''-बजातु' इति पाठान्तरे / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 31 उपेन्द्राय / वादथ्ये चतुर्थी। क्षीराणि धीयन्तेऽस्मिन्निति क्षीरधिः क्षीरोदधिः। "कर्मण्यधिकरणे च" इति किप्रत्ययः। तस्य मन्थनात् मथनादुपायात् ; मन्थते. भौवादिकस्येदित्वान्नुमागमः / श्रीः रमा उद्गमिता उत्थापिता / ते अमराः अस्मै इन्द्राय / पूर्ववञ्चतुर्थी / इत्तुरस एवोदकं यस्य तमित्रसोदं नामाब्धिम् “उदकस्योदः संज्ञायाम्" इत्युदादेशः / विमथ्य मथित्वा अन्यां श्रियम् उत्थापयितुं न श्राम्यन्तु न प्रयस्यन्तु / द्वितीयया श्रिया त्वयैव उपेन्द्रवदिन्द्रस्यापि लक्ष्मीपतित्वे तयोरवैषम्याय देवतानां लक्ष्म्यन्तरसम्पादनप्रयासो न स्यादिति भावः / अत्रामराणां लचम्यन्तरोत्पादनप्रयत्नासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 40 // __इस इन्द्रको मत छोड़ी ( अवश्य वरण करो; क्योंकि ) जिन देवताओंने क्षीरसागरके मंथनसे इस इन्द्र के अनुज अर्थात् उपेन्द्र (विष्णु ) के लिये लक्ष्मीको निकाला, वे देवता इस इन्द्र के लिये इक्षुरस समुद्रको मन्थनकर दूसरी लक्ष्मीको निकालनेके लिये मत थकें / [ देवताओंने बहुत परिश्रमसे क्षीरसमुद्र के मन्थनसे लक्ष्मीको निकालकर इस इन्द्रके छोटे भाई विष्णुके लिये उसे दे दिया, अब यदि तुम इन्द्रको वरण नहीं करोगी तो बड़े भाई होने से अधिक पूज्य इस इन्द्र के लिये क्षीरसमुद्र से उत्पन्न लक्ष्मीसे भी अधिक सुंदरी लक्ष्मीको देने के लिये क्षीरसमुद्र से भी अधिक मधुर इक्षु-रस-समुद्रका मन्थनकर पूर्वापेक्षा श्रेष्ठ लक्ष्मीको निकालनेके लिये देवताओंको फिर परिश्रम करना पड़ेगा; अतएव तुम देवताओंको पुनः परिश्रम न करना पड़े, ऐसी कृपाकर इन्द्रको वरण कर लो। तुम विष्णुप्रिया लक्ष्मीसे भी अधिक सुन्दरी हो, अतः तुम्हें पाकर इन्द्र कृतकृत्य हो जावें] // 80 // लोकनजि द्यौर्दिवि चादितेया अप्यादितेयेषु महान्महेन्द्रः / / किंकर्तमर्थी यदि सोऽपि रागाजागति कल्या' किमतः परापि ||8|| लोकेति // लोकस्रजि स्वर्गादिलोकपंक्तौ द्यौः स्वर्गा महती। दिवि च अदित्या अपत्यानि पुमांसः आदितेयाः देवाः, महान्तः / कृदिकाराङीषन्तात् स्त्रीभ्यो ढक / आदितेयेप्वपि महेन्द्रो महान् / स महेन्द्रोऽपि रागात् किंकर्तुं सेवितुमर्थी इच्छुयदि / किंशब्दस्यास्य सर्वादिपठितस्य निपातितत्वाद्धातोः प्राक् प्रयोगः। अर्थयतेरिच्छार्थत्वात् समानकर्तृकेषु तुमुन् / अतोऽस्मादिन्द्रसेव्यत्वात् परा कक्ष्यापि उत्कृष्टावस्था च जागर्ति स्फुरति किम् ? न जागतीत्यर्थः / अत्र लोकादिषु पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरस्योत्कर्षोक्तेः सारालङ्कारः / उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सार इति लक्षणात् // 8 // (चौदहों ) भुवनों में स्वर्ग श्रेष्ठ है, स्वर्गमें देवता ( अदिति-कुमार ) श्रेष्ठ है, अदितिपुत्र देवोंमें इंद्र श्रेष्ठ हैं, वे इंद्र भी अनुरागसे ( बिना किसी प्रेरणा या दबावके तुम्हारा किङ्कर होना चाहते हैं ( तो) इससे आगे भो कोई श्रेणी जागरूक है ? अर्थात कोई नहीं। [इन्द्रके वरण करनेसे तुम्हें भूलोक छोड़कर श्रेष्ठ स्वर्गलोक मिलेगा, स्वर्गवासी गन्धर्व, Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाम्यम् / किवर, विद्याधर तथा रणमें मरकर देवस्वप्राप्त वीररूप देवयोनियों में भी मेह अदिति-पुत्ररूप देवयोनिको प्राप्त करोगी और उन अदिति--पुत्ररूप देवोंसे भी श्रेष्ठ महेन्द्र-पत्नी बनोगी तथा सर्वश्रेष्ठ वे महेन्द्र तुम्हारा दास होकर रहेंगे; अतः अग्नि, वरण तथा यमको भी छोड़. कर सर्वश्रेष्ठ इन्द्रको ही तुम वरण करना ] // 81 / / पदं शतेनाप मलेदिन्द्रस्तस्मै स ते याचनचाटुकारः / कुरु प्रसादं तदलं कुरुष्व स्वीकारद्धृनटनक्रमेण || 82 // पदमिति // इन्द्रः शतेन मखैः मखशतेन यत्पदमिन्द्रवलक्षणं स्थानमाप प्राप स इन्द्रस्तस्मै पदाय तरपदस्वीकारायेत्यर्थः / ते तव याचनेन प्रार्थनया चाटुकार: प्रियंवदः / जात इति शेषः / “न शब्दश्लोके"त्यादिना टप्रत्ययनिषेधात् कर्मण्यण। प्रसादमनुग्रहं कुरु / तदन्द्रं पदं स्वीकारकृता अंगीकारण्याकेन भ्रूनटनक्रमेण भूवि. क्षेपव्यापारेण, अलं कुरुष्व // 82 // इन्द्रने सौ ( अश्वमेध ) यज्ञों से जिस पदको पाया है, उस ( को देने ) के लिये तुमसे वह इन्द्र याचनारूप प्रिय वचन कह रहा है, तुम कृपा करो तथा उस इन्द्रपदको स्वीकारसूचक भ्रूचालन-श्रमसे सुशोभित करी / [ सौ अश्वमेध यज्ञोंसे प्राप्त पदको देने के लिये इन्द्र तुमसे याचना तथा खुशामद चाटुकारी कर रहे हैं, उसे तुम केवल भ्रूके सच्चालनरूप श्रमसे स्वीकार करो। तुम इन्द्रकी भी स्वामिनी हो, अतः स्वामिनीको किसी प्रार्थना की स्वीकृति देनेके लिये मुखसे बोलनेकी आवश्यकता नहीं होती, किन्तु स्वामी केवल भू-सञ्चालनसे ही स्वीकृति दे देता है / तुम इन्द्रको वरणकर महापुण्य-लभ्य इन्द्राणीपद प्राप्त करो और इसके लिये अपनी भ्रूको हिलाकर अपनी स्वीकृति दे दी ] // 82 // मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे देवे भवेदेवरि माधवे च / प्रेयश्श्रियां यातरि यच्च सख्यां तच्चेतसा भाविनी भावय त्वम / 8 // मन्दाकिनीति // भावयतीति भाविनि विचारचतुरे भैमि ? मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे क्रीडायां माधवे देवे उपेन्द्रे देवरि देवरे भर्तृभ्रातरि सति / स्यालाः स्युतिरः पत्न्याः, स्वामिनो देवृदेवरी' इत्यमरः / “दिवेः" इति ऋ प्रत्ययः / श्रियां श्रीदेभ्याम् / यतत इति यातरि / देवृभायाम् / 'भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम्' इत्यमरः / 'यतेवृद्धिश्च' इति तृन्प्रत्ययः / सख्यां सत्याश्च यच्छ्रे यो महो. स्कर्षः भवेत् / तत्त्वं चेतसा विभावय विचारय / अयाचितोपनतं महच्छ्यो न परिहर्तव्यमित्यर्थः / अत्र नन्दनविहारक्रियायाः माधवदेवृकत्वश्रीयातृकत्वगुणयोश्च सामस्त्येन योगपद्यात् समुच्चयालङ्कारभेदः / 'गुणक्रियायोगपये समुच्चय उदाहृतः इति लक्षणात् // 83 // हे विचारशील दमयन्ती ! स्वर्गङ्गा तथा नन्दनवनके विहारमें, लक्ष्मीपति देव (विष्णु Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। भगवान ) के देवर होने में ( पाठा०-देव इन्द्र के पति होने में और लक्ष्मी-पतिके देवर होने में), तथा लक्ष्मीकी पति-भ्रातृ-पत्नी रूपमें सखी होनेमें जो कल्याण होगा, उसे हृदयसे विचारो। [इन्द्रको वरण करने में तुम्हें मन्दाकिनीमें जलक्रीडा तथा नन्दनवनमें विहार करनेको मिलेगा, अग्नि आदि देवोंको वरण करोगी तो केवल मन्दाकिनीमें जलक्रीम करनेका आनन्द मिलेगा, परन्तु नन्दनवनमें विहार करनेका आनन्द नहीं मिलेगा। इन्द्रके वरण करनेपर लक्ष्मीपति विष्णु तुम्हारे देवर हो जायेंगे, किन्तु भग्नि आदिके वरण करने. पर विष्णुको देवररूपमें नहीं प्राप्त कर सकोगी तथा इन्द्र के वरण करनेपर लक्ष्मी तुम्हारी सखी होगी, अग्नि आदि किसीके वरण करनेपर सम्पत्तिरूप लक्ष्मीकी तो प्राप्ति होगी किन्तु साक्षात् लक्ष्मी सखी नहीं होगी। इसके अतिरिक्त यदि इन्द्रादि देवोंको छोड़कर भूमिष्ठ किसी राजकुमारका वरण करोगी तो उक्त सब सुखोंसे सर्वथा वञ्चित रह जाओगी, अतः किसी राजकुमारको तथा अग्नि आदि देवोंको छोड़कर इन्द्र को ही वरण करना ] // 83 // रज्यस्व राज्ये जगतामितीन्द्रायाच्याप्रतिष्ठां लभसे त्वमेव / लघूकृतस्वं बलियाचनेन तत्प्राप्तये वामनमामनन्ति // 4 // रज्यस्वेति / हे भैमि, जगतां राज्ये, त्रैलोक्याधिपत्ये, रज्यस्व अनुरक्ता भव / प्रार्थनायां लोट / रजेः स्वरितेवादात्मनेपदम् / इत्येवंरूपां यानां प्रार्थनामेव प्रतिष्ठा गौरवमिन्द्रात्वमेव लभसे / तथाहि तस्य त्रैलोक्यराज्यस्य प्राप्तये लाभाय बलेवैरोचनस्य याचनेन लघुकृतमल्पीकृतं, स्वामात्मा येन तं विष्णुमपीति शेषः / तं वामनं हस्वं लघु चामनन्ति / यदर्थ विष्णोरपि यात्रालाघवं प्राप्तम् / प्रार्थनां विना तदेव तुभ्यं दीयते देवेन्द्रेणेत्यहो ते भागधेयमित्यर्थः / व्यतिरेकेण दृष्टान्तालङ्कारः // 84 // 'तीनी लोकों के राज्यमें तुम अनुरक्त होवो अर्थात् तीनों लोकोंका राज्य करो' इस प्रकार इन्द्रसे याचना-गौरवको तुम्हीं पा रही हो, ( अन्य कोई स्त्री नहीं ) / जिस ( तीनों लोकों के राज्य ) को पाने के लिये बलि ( दैत्योंका राजा) के यहाँ याचना करनेसे अपनेको छोटा करनेवाले (विष्णुको विद्वान् लोग ) वामन कहते हैं / [ शत्रुभूत निकृष्ट दैत्योंके राजा बलिसे देवश्रेष्ठ साक्षात् विष्णुने जिस त्रैलोक्यके राजाकी याचनाकर अपनी आत्माको याचना करनेके कारणसे ही छोटा ( गौरव-हीन ) किया तथा उस त्रैलोक्यराज्यको इन्द्रके लिये दे दिया, उसी त्रैलोक्यराज्यको तुम्हें देनेके लिये इन्द तुमसे याचना कर रहे है, यह गौरव केवल तुम्हें ही प्राप्त हुआ है दूसरे किसी व्यक्तिको नहीं जिस त्रैलोक्यराज्यको सर्वश्रेष्ठ विष्णु अपनेसे निकृष्ट बलिसे माँगकर अपना गौरव नष्ट कर संसारमें वामन (छोटा ) कहलाये, उसी त्रैलोक्यराज्यको सर्वश्रेष्ठ देवराज इन्द्र अपनेसे निकृष्ट मानुषी तुमको प्रार्थना करते हुए देना चाहते हैं; अतः विष्णु तथा इन्द्रसे भी तुम्हारा गौरव अधिक हो रहा है। इस कारण तुम इन्द्रको ही वरण करना] // 84 / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 नैषधमहाकाव्यम् / यानेव देवाममसि त्रिकालं न तत्कृतघ्नीकृतिरौचिती ते / प्रसीद तानप्यनृणान्विधातुं पतिष्यतस्त्वत्पदयोखिसन्ध्यम् // 8 // यानिति // हे भैमि, यानेव देवानिन्द्रादीन् / त्रयः काला यस्मिन् कर्मणि तत् त्रिकालं, यथा तथा / नमसि त्रिसन्ध्यं नमस्करोषीत्यर्थः / तेषां देवानां कृतघ्नीकृतिस्तदीयप्रत्युपकारपरिहारेण कृतघ्नकरणं, ते तव, औचिती, औचित्यं न / त्वया देवा अकृतज्ञा न क्रियन्तामिति भावः / तिसृणां सन्ध्यानां समाहारस्त्रिसन्ध्यं, सन्ध्यात्रयेऽपीत्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। 'वा टाबन्त' इति नपुंसकत्वम् / त्वत्पदयोः पतिष्यतः नमस्करिष्यतः तान् देवानप्यनृणान् विधातुं प्रतिप्रणामस्वीकारेण अनृणान् कर्तु प्रसीद / तान् वृणीष्येत्यर्थः // 85 // जिन देवोंको ही त्रिकाल ( प्रातः, मध्याह्न, सायं ) नमस्कार करती हो, उन ( देवों) को ही कृतघ्न बनाना तुम्हें उचित नहीं है / ( इन्द्रको तुम्हारे वरण करनेपर ) तीनों (प्रातः, मध्याह्न तथा सायं) सन्ध्याओंमें तुम्हारे चरणोंपर गिरने अर्थात् आकर भविष्यमें नमस्कार करनेवाले उन देवोंको भी अनृण करनेके लिये प्रसङ्ग होवो। [ आजतक तुम जिन देवोंको प्रणाम करतो हो, वे तुम्हारे ऋणी हैं, जब तुम इन्द्रको वरण करोगी, तब वे देव इन्द्राणीको छोड़कर इन्द्र के साथ तुम्हारे पैरों पर नतमस्तक होकर प्रणाम करनेसे तुमसे अनृण ( ऋणमुक्त ) हो जायेंगे तथा कृतघ्न नहीं बनेंगे ! तुम इन्द्रको वरणकर स्वर्गमें इन्द्रके साथ अर्धासनपर बैठकर देवताओंकी प्रणम्या बनो] // 85 // इत्युक्तवत्या निहितादरेण भैमीगृहीता मघवत्प्रसादः / म्रपारिजातस्य ते नलाशां वासैरमेषामपुपूरदाशाम // 86 // इतीति / इतीत्थमुक्तवत्या शक्रदूत्या। आदरेण निहिता समर्पिता। भैम्या गृहीता स्वीकृता मघवतः प्रसादोऽनुग्रहभूता / त्ववतंसत्वेन अभिमतेति भावः। पारिजातस्य स्रङ मालिका नलस्याशां तृष्णां दिशं च ऋते विना। तस्यान्तस्य (नलस्य) विपरीतशङ्काकरत्वादिति भावः / 'आशा तृष्णादिशोः' इति विश्वः। यद्यपि, 'अन्यारादितरत' इति ऋतेशब्दयोगात् पञ्चम्येव विहिता, तथापि मतान्तरे द्वितीयाष्यस्तीत्याहुः / तथा, 'फलति पुरुषाराधनमृत' इति प्रयोगश्च / अशेषामाशां दिशम् / सर्वा अपीत्यर्थः जातावेकवचनम् / वासैनिजवासनाभिरपुपूरत् पूरितवती 'पूरी पूरण' इति चौरादिकस्य धातोरल्लोपित्वात् 'नाग्लोपिशास्वृदिताम्' इत्युपधाहस्वनिषेधः / अभ्यासहस्वः / द्वयोरण्याशयोरभेदाध्यवसायाद्विनोक्तिनिर्वाहः // 86 // ऐसा ( इलो० 77-85 ) कहनेवाली इन्द्रदूतीके द्वारा सादर दी गयी तथा इन्द्रका (प्रसाद मानकर, भूषण मानकर नहीं ) दमयन्तीसे ग्रहण की नयी पारिजातकी मालाने नलकी आशाको छोड़कर सब दिशाओं ( पक्षा०-इन्द्रदूतीकी आशा) को वास ( सुगन्धि, पक्षा०-दमयन्तीके पास आने ) से पूरा कर दिया / [अक्षा-ऐसा कहनेवाली इन्द्रसीके Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। द्वारा दी गयी तथा इन्द्रका प्रसाद समझकर दमयन्तीके द्वारा सादर ग्रहण की गयी...... / इन्द्रदूती द्वारा दी गयी पारिजत मालाको जब दमयन्तीने इन्द्र का प्रसाद मानकर सारले लिया, तब नलने सोचा कि “इन्द्र को भेजी हुई पारिजात-मालाको बड़े आदर के साथ दम. यन्ती ले रही है, अतः मालूम पड़ता है कि यह इन्द्र में ही अब अनुरक्त हो रही है, इस कारण इन्द्रको ही वरण करेगी, मुझे नहीं", ऐसा विचार कर आते ही नलदमयन्तीकी प्राप्तिसे निराश हो गये / इधर उस प्रकार आदरपूर्वक पारिजात-मालाको लेती हुई दमयन्तीको देखकर इन्द्रदूतीने सोचा कि दमयन्ती इन्द्रमें अनुरक्त होकर ही आदरके साथ उनकी माला ले रही है, अतः हमारी आशा पूरी हो गयी। किन्तु नल तथा इन्द्रदूती--दोनों ही भ्रममें थे, क्योंकि दमयन्ती 'मालाको ( देवराज इन्द्र प्रसाद को ) ग्रहण नहीं करनेसे पूज्य देवताका अपमान होगा' ऐसा बिचारकर ही पारिजात-मालाको लिया था 'इन्द्रने प्रेमपूर्वक मुझे भूषणोपहाररूपमें इस पारिजात-मालाको भेजा है। ऐसा समझकर भूषणरूपमें नहीं लिया था ] // 86 // आयें ! विचार्यालमिहेति कापि योग्यं सखि स्यादिति काचनापि' / ओंकार एवोत्तरमस्तु वस्तु मङ्गल्यमत्रेति च काप्यवोचत् // 7 // आर्य इति // आर्ये भमि, इहेन्द्रनरणे विचार्य अलम् / विचारो न कर्तव्य इति कापि सखी अवोचत् / सखि भैमि, योग्यमिदं युक्तं स्यादिति काचनाप्यवोचत् अत्र ओंकारोऽङ्गीकार एव मङ्गल्यमुत्तरमुत्तररूपं वस्त्वस्त्विति काप्यवोचत् // 87 // ( उस समय दमयन्ती से किसी सखीने ' हे आर्ये ! इस विषयमें बिचार मत करो अर्थात् इन्द्रको वरण करनेका निश्चय कर लो' ऐसा, किसी सखीने “यह ( इन्द्र वरणरूप कार्य ) योग्य है" ऐसा और किसी सखीने "इस ( इन्द्रको वरण करने के विषय ) में ( स्वीकृतिसूचक ) ॐकार ही मङ्गल वस्तु होवे" ऐसा कहा / [ सब सखियोंने इन्द्रको वरण करनेके लिये ही दमयन्तीसे कहा ] // 87 // अनाश्रवा वः किमहं कदापि वक्तुं विशेषः परमस्ति शेषः। हतीरिते भीमजया न दुतीमालिङ्गदालीश्च मुदामियत्ता ||8|| अनाश्रवेति / हे सख्यः, अह कदापि वो युष्माकं, अनाश्रवा अवचनकारिणी किं, परं किन्तु वक्तुं विशेषः शेषोऽस्ति / किंतु, वक्तव्यशेषः कश्चिदस्तीत्यर्थः / इति भीमजया भैम्या, ईरिते उक्ते सति दूतोमिन्द्रशम्भलीमालीभैमीसखीश्च मुदामियत्ता मिति लिङ्गन्न प्रापत् / स्वोक्तमगीकृत्य तत्र किञ्चिद्वरदानमपेक्षत इति भ्रान्त्या महान्तमानन्दमविन्दन्तेत्यर्थः // 88 // ___ "मैंने तुमलोगोंके कथनको कभी नहीं सुना है क्या ! अर्थात् सर्वदा मैंने तुमलोगों के कहने के अनुसार ही किया है, किन्तु कहने के लिए कुछ विशेष बाकी है' ऐसा दमयन्तीके ,"-नायि"इति पाठान्तरम् / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैपषमहाकाव्यम। कहनेपर इन्द्र-दूतीको तथा सखियोंको हकी परिमिति ( परिमिति हर्ष) ने नहीं मालिङ्गन किया अर्थात् अपरिमित हर्षने मालिङ्गन किया ( दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अपने कपनको सफल होते देख इन्द्रदूती तथा सखियों को अपरिमित हर्ष हुआ। दूतीने सोचा कि हमारा कथनको किसी नियमको करके ( वरदान मादि मांगकर ) दमयन्ती पूरा करना चाहती है इसी कारण 'कहने के लिये कुछ विशेष बाकी है। ऐसा कह रही है तो इसके शेष कथनको पूरा करनेसे हमारा कार्य सिद्ध हो जायगा अर्थात् यह इन्द्रको वरण कर लेगी यह सोच उसे अपरिमित आनन्द हुआ / अथवा-अपरिमित हर्षने नहीं आलिङ्गन किया, क्योंकि दमयन्तीने 'कुछ विशेष कहना बाकी है। ऐसा कह दिया था, अतः...अथवा-तुमलोगोंका कहना मैने कभी नहीं किया है क्या ? मुझे विशेष कहने के लिये और कुछ वाकी है क्या ? (इस प्रकार 'किम् ' शब्दका दोनों वाक्यों के साथ सम्बन्ध करे ) ऐसा दमयन्तीके कहनेपर......] // 88 // मेंमी व दूत्यं च न किजिदापमिति स्वयं भावयतो नलस्य / आलोकमानादि तन्मखेन्दोरभूम भिन्नं हृदयारविन्दम || 89 / / भैमीति // भमीञ्च दूत्यञ्च किचिकिचन तयोरेकञ्च / नापं न प्रापम् / आप्नोते. रडि मिप / स्त्रीरत्नलामी मा भूत् , परोपकारोऽपि न सिद्ध इत्यर्थः / इति स्वयमास्मनि भावयतो भैमीचित्तचलनभ्रान्त्या चिन्तयतो नलस्य, हृदयमेवारबिन्दं, तन्मु. खेन्दोः भैमीमुखचन्द्रस्यालोकमात्रात् दर्शनमात्रात् प्रकाशमात्राच / 'आलोको दर्श. नोद्योती' इत्यमरः / भिन्नं विदीर्ण विकसितश्च नाभूयदि नाभूत् किम् / तन्मुखदर्शनादनया विश्वास्य हतोऽस्मीति विदीर्णहृदयोऽभूदेवेत्यर्थः / इन्दुप्रकाशात् कथमनविन्द विकास इति विरोधश्च ध्वन्यते // 89 // "मैंने दमयन्ती या दूत कार्य-इन दोनोंमेंसे किसीको नहीं पाया" ऐसा स्वयं सोचते हुए नलका हृदय-कमल दमयन्तीके मुखच-द्रको देखने मात्रसे विदीर्ण नहीं हुआ क्या ? अर्थात् अवश्य विदीर्ण हुआ। ] अथवा-...हुए नलका हृदय कमल जो बिदीर्ण नहीं हुआ वह दमयन्तीके मुखचन्द्र के देखनेसे ही नहीं हुआ। नलने विचारोंकि प्रियारूपमें दमयन्तीको पानेसे तो मैं वञ्चित रहा ही किन्तु परोपकार तथा स्वयशोवृद्धिरूप श्रेयसे भी मैं वञ्चित रह गया, क्योंकि मेरे कार्यको यह दूती ही पूरा कर रही है, यह सोच ( अपनी समझके अनुसार, बास्तविकमें नहीं ) इंद्रानुरक्त दमयन्तीके मुख-चन्द्रको देखने रहनेपर भी नलका हृदय विदीर्ण हो गया, चन्द्रदर्शन होते रहनेपर भी कमलको विकसित होना कवि-समय विरुद्ध है / अतईव नारायणभट्ट-समस्त द्वितीय व्यख्यान ही ठीक प्रतीत होता है, उसके अनुसार उक्त बात सोचते हुए नलका हृदय-कमल उस दमयन्तीके मुखचन्द्रको देखने मात्रसे ही विदीर्ण ( खण्डित, पक्षा०-विकसित ) नहीं हुआ, अपितु सङ्कुचित रहा। चन्द्रमाको देखनेसे कमल विकसित नहीं होता, किन्तु सङ्कुचित ही रहता है ] / 89 // Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः / ईषस्मितक्षालितविभागा एक्संझया वारिततत्सदालिः / साजा नमस्कृत्य तयैव शकं तां भीमभूरुत्तरयांचकार // 10 // ईदिति // भीमाभैमी, ईषरिस्मतेन सन्दहासेन ज्ञालितो धौती सृक्विणी औष्ठप्रान्तावेव भागौ यया सा सती / प्रान्तावोष्ठस्य सृक्विणी' इत्यमरः / रक्संज्ञयैव वारिता निषिद्धास्तास्ताः पूर्वोक्तविरुद्धप्रलापिन्यः आलयः सण्यः, यया साप सती / तयेन्द्रदूतीदत्तया सजा सहैव / 'वृद्धो यूना' इति सूत्रकारप्रयोगादेव ज्ञाप. कात् सहशब्दाप्रयोगेऽपि सहार्थे तृतीया / शक्रं नमस्कृत्य, स्त्रजं शक्रश्च नमस्कृत्ये. त्यर्थः। न तु तामवतंसीकृत्य / तस्य नलस्य जीवनार्थमिति भावः / तामिन्द्रदूनीमु. तरयाश्चकार उत्तरमाचष्ट / 'तस्करोति तदाचष्टे' इति णिच // 90 // थोडे मस्करानेसे ओष्ठप्रान्तको श्वेत करनेवाली तथा नेत्रसङ्केतसे उन-उन सखियों को (जिन्होंने इन्द्रको वरण करने की सम्भति दी थी मना करती हुई उस दमयन्तीने उस(इन्द्रकी भेजी हुई पारिजात) मालाके साथ ही इन्द्रको प्रणाम कर दूतीको उत्तर दिया / अथवाइन्द्रको प्रणाम कर उस मालासे ही दूतीको उत्तर युक्त कर दिया अर्थात् इन्द्रने यह माला मुझे भक्त जानकर प्रसादरूप में भेजी है, न कि प्रेयसी जानकर पुष्पाभरणरूपमें, क्योंकि यदि दमयन्ती उस मालाको प्रिय इन्द्रद्वारा भेजा गया पुष्पाभरणोपहार समझती तो उसका भक्तिपूर्वक प्रगाम नहीं करती, अपितु हृदयसे लगाकर चुम्बनादिद्वारा इन्द्र में प्रेम प्रदर्शित करती। इसीसे दृतीके वचनका उत्तर दमयन्तीने दे दिया। जैसे कोई व्यक्ति किसीकी बातको स्वीकार नहीं करता तो उस बातको सुनकर थोड़ा-सा मुस्कुरा कर ही और समर्थक अपने बन्धुजनोंको संकेतसे ही रोककर उसके वातका उत्तर दे देता है, इन्द्रदूतीकी बातोका समर्थन करनेवाली सखियोको आँखके इशारेसे रोककर तथा दूतीकी ओर मुस्कुराकर तथा मालाको प्रणाम कर दमयन्ताने भी दूतीकी वातको स्वीकृत नहीं करनेका संकेत कर दिया ] / / 90 // स्तुतौ मघोनस्त्यज साहसिक्यं वक्तुं कियत्तं यदि वेद वेदः / वृथोनरं' साििण हृत्सु नृणामज्ञातृविनापि ममापि तस्मिन् // 91 / / स्तुताविति // हे दूति, मशन इन्द्रस्य स्तुतौ विषये साहसिक्यं साहसमविमृ. श्यकारित्वं त्यज, न स्तुहीत्यर्थः / कुतः अशक्यत्वादित्याह / तं शक्र कियदल्पं वक्तुं वेदयतीति वेदः, अतिरेव वेद वेसि, नान्यः / अतः स्तुतेविरमेति भावः / तर्हि किमस्योत्तरं तत्राह-नृणां हृत्सु विषये साक्षिणि साक्षिभूते 'साक्षात् द्रष्टरि संज्ञायाम्' इति इनिप्रत्ययः। तस्मिन्मघोनि अज्ञातनज्ञान् विज्ञपयति विबोधयतीति तथो. कम् / ममसम्बन्ध्युत्तरमपि वृथा। अज्ञस्योत्तराकांक्षा न सर्वज्ञस्येति भावः // 99 // (दूती ! ) इन्द्रकी प्रशंसा करनेका साहस छोड़ो, यदि उनको कुछ ( असम्पूर्णतया) जानता है तो वेद जानता है (इन्द्रकी महिमाको वेद भी सम्पूर्णतया नहीं जानता 1. 'मृषोत्तमम्' इति पाठान्तरम् / Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 नैषधमहाकाव्यम् / तो फिर दूसरे कैसे जान सकते है अतः इन्द्रकी महिमा बहुत बड़ी है ) / मनुष्यों के हृदयसाक्षी (मानव हृदयकी समस्त बातको जानेवाले अर्थात् अन्तर्यामी ) उस इन्द्रको, नहीं जाननेवालेको बतलानेवाला मेरा उत्तर व्यर्थ है / [ महामहिमशाली तथा सर्वान्तर्यामी इन्द्रसे मुझे कोई उत्तर देना व्यर्थ है, क्योंकि 'मेरा हृदय नलासक्त है, इस बातको जानते है] // 11 // आज्ञां तदीयामनु कस्य नाम नकारपारुष्यमुपेतु जिह्वा / प्रह्वा तु तां मूर्ध्नि निधाय मालां बालापराध्यामि विशेषवाग्भिः / / 12 / / तयाप्यविनयपरिहाराय किचिद्विज्ञापयामीत्याह-अज्ञामिति / तदीयामैन्द्री. माज्ञामनु तामुद्दिश्य कस्य नाम जिह्वा नकारो नजुच्चारणमेव पारुष्यमुपैतु प्रतिषेध. रोच्यं भजेत् / न कोऽपि तदाज्ञोलधनसाहसिकोऽस्तीत्यर्थः। किन्तु बालाशिशुरहं प्रह्वा नम्रा सती तामाज्ञामेव मालां मूनि निधाय, विशेषवाग्भिरतिवाग्भिरपराध्यामि अपराधं करोमि / स च बालचापलात् सोढव्य इत्यर्थः // 92 // उन इन्द्रकी आशाको लक्ष्यकर किसकी जिह्वा निषेध करने ( 'नहीं कहने की परुषता करेगी अर्थात् कोई भी उनकी आज्ञाको अस्वीकार नहीं करेगा। बाला मैं नम्र होकर उनकी मालाको शिरसे लगाकर ( नमस्कार का विशेष वचनोंसे अपराध कर रही हूँ [ अतः बालक समझकर इन्द्रभगवान् मुझे क्षमा करेंगे ] / / 92 / / तपःफलत्वेन हरेकपेयमिमं तपस्येव जनं नियुक्क्ते / भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावुपेयमाधुर्यमधैर्यसजि' | // 13 // तप इति / तपःफलत्वेन इन्द्रोपासनरूपस्य तपसः फलस्वनोपलक्षिता फलभूते. स्यर्थः / इयं मत्परिजिघृक्षारूपा कृपा हरेरिन्द्रस्य / इमं जनं मां तपस्येव पुनरपीन्द्रो. पासनायामेव नियुङक्ते प्रेरयति / "स्वराधन्तोपसृष्टादिति वक्तव्यम्" इत्यात्मनेपदम् / ननु महदेतत्फलं प्राप्तं किं तपसेत्याशंक्य, सत्यम्, तदेव स्वादु कर्तुमित्याहभवतीति / हि यस्मादुपायं प्रति प्रवृत्तौ साधनगोचरप्रवृत्तौ विषये उपेयस्य साध्यस्य माधुर्य स्वादुत्वमेव, अधैर्यमस्थैर्य सजयति कारयतीत्यधैर्यसज्जि भवति / पुनः साधनप्रवृत्तिचापलं कारयतीत्यर्थः / सिद्धान्नस्योपस्कार =(उपदंश) प्रवृत्तिकल्पेयं प्रवृत्तिरिति भावः // 93 // तपके फलसे परिणत इन्द्रको यह कृपा इस जन (मुझ ) को गिर तपमें ही नियुक्त कर रही हैं / प्राप्त करने योग्य ( फल ) की श्रेष्ठता उपाय करने के लिये प्रवृत्त होनेमें अधैर्य कर देता है / [ पूर्वजन्ममें की हुई इन्द्रोपासानारूप तपस्याका फल है कि इन्द्र मुझे चाह रहे हैं, अतः उनकी यह कृपा मुझे पुनः इन्द्रोपासना करने के लिये प्रेरित कर रही है कि मैं पुनः किये हुये इस तपके फल-स्वरूप नलको प्राप्त कर सकूँ, क्योंकि श्रेष्ठ फलको पाने के 1. “अधैर्यसर्जि" "अधैर्यकारि" इति पारतरे। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षषुः सर्गः। 339 लिये मनुष्य थैर्य छोड़कर उपायमें अधिकसे अधिक संलग्न हो जाता है। अत एव नल. प्राप्तिके लिये मुझे पुनः तपस्या करनी पड़ेगी ] // 93 // शुभूषिताहे तदहं तमेव पति मुदेऽपि ब्रतसम्पदेऽपि / विशेषलेशोऽयमदेवदेहमंशागतं तु क्षितिभृत्तयेह // 94 / / फलितमाह-शुश्रषिताह इति / तत्तस्मादर्थित्वादहं तमिन्द्रमेव पति शुषिताहे सेविष्ये / 'शुश्रूषा श्रोतुमिच्छायां परिचर्यावधानयोः' इति विश्वः / 'ज्ञाश्रस्मृदृशां सनः' इति शृणोतेः सन्नन्तात्तङि लुट / तासः सकारस्य हकारः। किंतु, मुदेऽपि सन्तोषाय च व्रतसम्पदेऽपि पातिव्रत्यसम्पत्त्यर्थञ्च क्षितिभृत्तया राजत्वेन इह कस्मिश्चिन्नरे अंशेन मात्रया आगतमवतीर्णम् / 'अष्टाभिश्च सुरेन्द्राणां मात्राभिनिर्मितो नृपः' इति स्मरणात् / अत एव, अदेवदेह देवदेहरहितं मानुषविग्रहं सन्तम् / न तु साक्षादिति शेषः (तं शुभूषिताह इति पूर्वेणान्वयः) / अयं विशेषलेशोऽल्पीयान् भेदः / स च सोढव्यः, अन्यथा मे व्रतलोपः स्यादिति भावः // 94 // ___ मैं हर्ष तथा पातिव्रत्यरूप व्रत-पालनके लिये राजा होनेसे ( इन्द्र के ) अंश भूत और देव-भिन्न ( मनुष्य ) शरीर वाले उस इन्द्रकी ही सेवा करूँगी, थोड़ा-सा यही विशेष हैं। [ राजाको अष्टदिक्पालके अंशभूत होनेसे नल भी इन्द्रके अंश ही हैं और देव न होकर मनुष्य है, अतः इतना थोड़ा-सा भेद होना यदि मुझ बालिका के लिये अपराध हो तो इस छोटेसे अपराधको भगवान् इन्द्र क्षमा करें, क्योंकि इतने मात्रके भेदसे ही मेरी तपस्या (पातिव्रत्य-पालन ) पूर्ण होती है तथा मुझे हर्ष भी होता है ] / / 94 // अौषमिन्द्रादेरिणी गिरस्ते सतीव्रतातिप्रातलोमतीवाः। स्वं प्रागहं प्रादिषि नामराय कि नाम तस्मै मनसा नराय / / 65 / / कथं व्रतलोपस्तदाह-अनौषमिति / हे इन्द्रदूति, सतीव्रतस्य पतिव्रताधर्मस्य अतिप्रतिलोमाः अत्यन्तप्रतिकूलाः / अत एव, तीव्रा दुःश्रवाश्च / ते गिरः इन्द्रे आदरिणी आदरवती अौषम्, इन्द्रो महती देवतेति भयभक्तिभ्यामश्रौषम् / न तु, रागादिति भावः / कथं तर्हि तमेव पतिं भजिष्यामीत्युक्तं तत्राह-प्राक् पूर्वमहं स्वमात्मानं, अमराय देवात्मने तस्म इन्द्राय न प्रादिषिन प्रादां नाम / किंतु, नराय नररूपिणे रलयोरभेदानलरूपाय च तस्मै मनसा प्रादिषि / ददातेलङि / “स्थाध्वो. रिच्च" इतीकार; / अतः साक्षादिन्द्रभजने मम व्रतलोपः स्यादेवेत्यर्थः // 95 // पातिव्रत्य व्रतके अत्यन्त प्रतिकूल होनेसे तुम्हारी कठोर बातको मैंने इन्द्रमें आदरयुक्त होकर सुना ( पाठा०--इन्द्रको अत्यन्त प्रशंसायुक्त तथा पातिव्रत्य व्रतके सर्वथा प्रतिकूल होनेसे तुम्हारी कठोर वातको मैने सुना। मैंने पहले मनसे अपनेको देवता इन्द्र के लिये नहीं दिया है, किन्तु नर (मनुश्य. पक्षा-रलयोरभेदः' सिद्धान्तके अनुसार नल) रूप इन्द्र 1. “दरिणीर्गिरस्ते” इति पाठान्तरम् / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम। (राजा होनेसे इन्द्रके अंशरूप ) के लिये मनसे दिया है। [देवरूप इन्द्रका सन्देश नहीं अननेसे एक प्रकार उनका अपमान होगा, मनुष्यको देवताका अपमान करना उचित नहीं, इसी विचारसे मैंने इंद्रका सन्देश सुना है, कुछ उनमें अनुराग होनेसे नक्त सन्देशको नहीं सुना है। यदि सानुराग होकर इन्द्रकी बात सुनती तो मनसे मनुष्य रूपमें स्थित इन्द्र अर्थात् नलके लिये अपनेको पहले समर्पण कर देनेके कारण परपुरुष-विषयक सन्देश मुननेसे मेरा पातिव्रत्यरूपधर्म नष्ट हो जाता ] // 95 // तस्मिन्विमृश्यैव घृते हुदैषा नैन्द्री दया मामनुतापिकाभूत् / नितिकामं भवसम्भवानां धीरं सुखानामवधीरणेव // 16 // तस्मिमिति / तस्मिन् नरे हृदा हृदयेन, विभृश्यैव वृते सति इदमेव साध्विति सम्यनिश्चिस्यैव प्रवृत्तेरित्यर्थः / एषा ऐन्द्री, दया परिजिघृक्षालक्षणा कृपा। निर्वातुकाम मोक्तुकामम, इदमेव साध्विति निश्चित्य मोक्षे प्रवृत्तमित्यर्थः / 'मुक्तिः कैवल्यनिर्वाण' इत्यमरः। धीरं निर्विकारचित्तं, विद्वांसम / भवसम्भवानां सुखानाम, अवधारणा सांसारिकसुखसंन्यास इव ममानुतापिका हा कष्टमसाधुकृतामति मम पश्चात्तापकारिणी नाभूत् / 'अकेनोर्भविष्यदाधमर्ययोः' इति षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया // 96 // " विचारकर ही हृदयसे उसे ( नलको ) वर गकर लेनेपर इन्द्रकी यह दया ( मुझसे विवाह करनेकी अभिलाषा ), मुक्ति चाहनेवाले धैर्यवान् या विवेकीको सांसारिक सुखोंको तिरस्कारके समान मुझको सन्तप्त करनेवाली न होवे / [जिस प्रकार मुक्ति चाहनेवाले विवेकी व्यक्तिको सांसारिक सुखोंका त्याग सताता नहीं अर्थात-"इन सांसारिक सुखों को त्यागकर व्यर्थ में मैं मुक्ति-लाभके झमेले में पड़ा" इस प्रकार विवेकी पुरुष पश्चात्ताप नहीं करता, उसी प्रकार मैंने नलको बहुत सोच-विचारकर पहले ही हृदयसे वरण कर लिया है, अतः 'इन्द्र मुझ पत्नीरूपमें स्वीकार करनेकी दया करने की कृपाकर रहे हैं इस बाससे मुझे पश्चात्ताप नहीं होता। मोक्षार्थी विवेकशील व्यक्तिके लिये जिस प्रकार सांसारिक सुख तुच्छ एवं व्यर्थ है, उसी प्रकार इन्द्रकी उक्त प्रार्थना भी मेरे लिये तुच्छ और व्यर्थ है // 16 // वर्षेषु यद्वारतमायधुर्योः स्तुवन्ति गाहस्ध्यमिवाप्रमेषु।। तत्रास्मि पत्युवरिवस्ययाहं शर्मोमिकिर्मीरितधर्मलिप्सुः // 17 // विमृश्य कृतमित्युक्तमयैनं विमर्शप्रकारमेव श्लोकचतुष्टयेनाह-वर्षेष्वित्यादि। आर्यधुर्याः श्रेष्ठाः आश्रमेषु ब्रह्मचर्यादिषु चतुर्पु गार्हस्थ्यं गृहस्थाश्रममिव / वर्षेष्वि. लावृतादिषु नवसु यदारतं वर्ष स्तुवन्ति प्रशंसन्ति / तत्र भारतर्षे अहं पत्युपरिव. स्यया शुश्रषया। 'वरिवस्या तु शुश्रषा' इत्यमरः / वरिवस्यतेः क्यजन्तात् 'भ प्रत्ययात्' इति आकारप्रत्यये टाप / शामिभिः सुखपरम्पराभिः, किर्मीरितं चित्रित तस्सहचरधर्म लिप्सुलब्धुमिल्छुरस्मि / शर्मशातसुखानि च / चित्रं किमरिकल्माष. शबलेताच कुर्वर' इति चामरः / / 57 / / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 541 आर्यश्रेष्ठ (मनुमादि ) चार आश्रमों में गृहस्थाश्रमके समान वर्षोंमें जिस मारतवर्षको प्रशंसा करते है', उस इस भारतवर्ष में पति ( नल ) की सेवाके द्वारा माल-तरसे चित्रित पनका काम करना चाहती हूँ / / 97 // / स्वर्गे सतां शर्म परं न धर्मा भवन्ति भूमाविह तब ते च / इष्टचापि तुष्टिः सुकरा सुराणां कथं विहाय त्रयमेकमोहे // 18 // ननु स्वर्गेऽपि सुखधौं स्त इत्यह आह-स्वर्ग इति / स्वर्गे सतां स्वर्गवासिनामित्यर्थः। शर्म परं सुखमेव (अस्ति)। धर्माः सुकृतानि न भवन्ति इहास्यां भूमौ तधर्म च ते च धर्माश्च भवन्ति सम्भवन्ति / किश्चह इण्ठ्या यागेन सुराणां सुष्टिरपि सुकरा सुसम्पाद्या / एवं सति कथं त्रयं शर्मधर्मतुष्टिरूपं विहायकं सुखमीहे। न चैतत् प्रेशावत्कृत्यमिति भावः / तस्मात् स्वर्गादपि भूलोक एव श्लाध्य इत्यर्थः // ___ स्वर्गमें निवास करनेवालोंको केवल सुख होता है, धर्म नहीं होते, इस भूमि पर वह सुख तथा वे धर्म-दोनों ही होते हैं / (मारत-भूमिमें निवास करते हुए) यशके द्वारा भी देवताओं का हर्ष ( उत्पादन ) किया जा सकता है, तो मैं तीन ( सुख, धर्म तथा सब देतताओंका हर्ष ) को छोड़कर एक ( केवल सुख ) क्यों चाहूँ ? [ भारतके भोग एवं कर्म भूमि होने से यहां रहकर सुख तथा धर्म दोनों ही साधन मुलम हैं, साथ ही भारत भूमिमें रहकर यशोंके द्वारा सब देवताओं को (केवल इन्द्र को ही नहीं) मी प्रसन्न किया जा सकता है, इस प्रकार नलको वरणकर भारतभूमिमें रहती हुई मैं मुख, धर्म तथा सब देवताओं को प्रसन्न रखना-तीनों कार्य सम्पादन कर सकती हूँ; इसके विपरीत यदि मैं इन्द्रको वरणकर लेती हूँ तो स्वर्गको केवल भोग-भूमि होनेसे वहां सुख मानकर लाम तो कर सकती हूँ, परन्तु धर्म तथा देव-हर्षोत्पादनका नहीं, बल्कि इन्द्रको वरण करनेपर-पहले हृदयसे नलको वरण कर लेने के बाद फिर मेरा पातिव्रत्य धर्म नष्ट ही जायेगा और यम, अग्नि एवं वरुण भी मुझपर रुष्ट हो जायेंगे, क्योंकि उन तीनों देवोंने 1. तदाह मनुः- "यथा वायु समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहत्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः / / यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्तेन चान्वहम् / गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माच्छ्रेष्ठतमो गृही // (377-78 ) 2. तथा च “वर्षेपराधम्" ( अमि, चिन्ता० 4 / 13) इत्यस्य व्याख्याने हेमचन्द्राचार्या माहुः "भारतं प्रथम वर्षे ततः किम्परुषं स्मृतम् / हरिवर्ष तथैवान्यन्मेरोदक्षिणतो द्विजः(१) / रम्यकं चोत्तरं वर्ष तस्यैवानु हिरण्मयम् / उत्तराः कुरवश्व यथा वे भारतं तथा / / भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं तु पश्चिमे / नवसाहस्रमकैकमंतषां द्विजसत्तम ! // इति / इलवृत्तञ्च तन्मध्ये मेरुरुत्थितः।" Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 नैषधमहाकाव्यम् / भी अपना-अपना सन्देश दूतियों के द्वारा भेजा था; अत मैं इन्द्र को वरणकर अपने पातिव्रत्य धर्मको नष्ट कर तथा अग्नि आदिको रुष्टकर स्वर्गमें केवल सुख पाना नहीं चाहती, किन्तु पूर्ववत् नलको ही वरणकर सुख प्राप्तिके साथ ही धर्मरक्षा तथा यज्ञके द्वारा इन्द्र और अग्नि आदि देवताओंके साथ ही अन्य सभी देवोंको प्रसन्न करना श्रेयस्कर समझती हूँ ] // 98 // साधोरपि स्वः खलु गामिताधोगामी' स तु स्वर्गमितः प्रयाणे / इत्यायति चिन्तयतो हदि द्वे द्वयोमदः किमु शर्करे न ||1|| इतोऽपि कारणात् भूलोक एव श्रेयानित्याह-साधोरिति / किंच, साधोःसुकृति.. नोऽपि स्वः स्वर्गादधोगामिता गमिष्यत्ता खलु। (साधुरपि कदाचिदधःपतस्येवे. त्यर्थः।) स साधुरितोस्मात् भूलोकात् , प्रयाणे तु स्वर्ग गामी गमिष्यति / "ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" इति गीतावाक्यात् / "भविष्यति गम्यादयः" इति गमिन्शब्दस्य भविष्यदर्थता / “अकेनो" इति षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / इतीत्थमायतिमुत्तरकालम् / 'उत्तरः काल आयतिः' इत्यमरः / हृदि चिन्तयतो विवेकिनो द्वयोः स्वभूलोकयोः। उदमुत्तरफलम् / 'उदकः फलमुत्तरम्' इत्यमरः। द्व शर्करे न किसु, शर्करे एवेत्यर्थः। एका शर्करा (इसम्भवा) शिलाशकलप्राया, मृत्प्राया अपरापीक्षुविकारा। तत्र क्रमाद्वाव. प्युदों दे शर्करे, तत्कल्पावित्यर्थः / अत एव निदर्शनालङ्कारभेदः। 'शर्करा खण्डविकृतावुपला शर्करांशयोः' इति विश्वः / / 99 // सज्जनका भी स्वर्गसे चलकर (क्षीणपुण्य होनेपर ) अधोगमन होता है तथा यहांसे (भूमिसे ) चलकर ( मरकर ) स्वर्ग-प्राप्ति होगी, इस प्रकार उत्तरफलको ( पाठा०-दोनों उत्तरफलोंको ) सोचते हुए ( व्यक्ति ) के हृदयमें दोनोंका फल दो शर्कराये ( प्रथम शर्करा कंकड, द्वितीय शर्करा शक्कर ) नहीं है क्या ? [ पुण्यक्षीण होने पर स्वर्गवासी सज्जन अधो लोकमें आता है, अतः यह तो अनिष्टकारक फल होनेसे कंकड़ रूप ( नीरस तथा कठोर ) है तथा मरकर सज्जन भूमिसे पुण्यातिशयसे स्वर्ग में जाता है, अतः इसका फल श्रेयस्कर होनेसे शक्कर रूप ( मधुर, एवं सरस ) है / अतः मैं नलको वरणकर भूमिमें ही रहना पसन्द करती हूँ] // 99 // प्रक्षीण एवायुषि कर्मकृष्ट नरान्न तिष्ठस्युपतिष्ठते यः / बुभुक्षते नाकमपध्यकल्पं धीरस्तमापातसुखोन्मुख कः // 10 // प्रतीक्षण इति / किंच यो नाकः कर्मकृष्ट कर्मार्जिते आयुषि प्रक्षीणे सत्येव नरान् मनुष्यानुपतिष्ठते सङ्गच्छते / तिष्ठति सति नोपतिष्टते "उपाद्देवपूजा" इत्यादिना सङ्गतिकरणे तङ्। आपाते प्रारम्भे, सुखोन्मुखं सुखप्रवणं, न तु परिणाम इत्यर्थः / 1. "गमी" इति पाठान्तरम् / 2. "इत्यायती" इति पाठान्तरम् / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 543 अत एव अपथ्यकल्पं अपथ्यानसदृशं, तं नाकं, स्वगं धीरो धीमान् , कः बुभुक्ते भोक्तुमिच्छति / अपथ्यान्नभोजनवदासन्नमरणाधिकारः नाकभोगः कस्मै नाम रोचत इत्यर्थः॥ 10 // __ जो स्वर्ग कर्मोपार्जित आयुके क्षीण होते ही मनुष्योंको प्राप्त होता है, आयुके रहते नहीं प्राप्त होता ( अथवा-पुण्यानुरूप स्वर्गमें स्थित कालरूप आयुके क्षीण.........। अथवा पाठा०-पुण्यकर्मके क्षयसे आयुके क्षीण......... / अथवा-......आयुके क्षीण होनेपर नहीं ठहरता है अर्थात् वह स्वर्ग पुण्यक्षय होने पर मनुष्यको अधोलोकमें भेज देता है), अपथ्यके समान तथा विचार नहीं करनेपर सुखकारक प्रतीत होनेवाले उस नाक ( स्वर्ग) को कौन विवेकशील पुरुष भोग करना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं / ( पाठा०अविचारित रमणीय सुखके लिए उद्युक्त कौन धीर पुरुष अपथ्यके समान सुखको भोगना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं)। [इस कारण वास्तविक सुख प्राप्तिके लिये मैं नलको वरणकर भारत भूमिमें ही रहना चाहती हूँ, इन्द्रको वरणकर अन्तमें अहितकर अपथ्य सेवन-तुल्य स्वर्ग-सुखको नहीं चाहती] // 10 // इतीन्द्रदूत्यां प्रतिवाचमधे प्रत्युह्य सैषाभिदधे वयस्याः / किञ्चिाद्ववक्षोल्लसदोएलक्ष्मीजिलापनिद्रहलपङ्कजास्याः / / 101 / / इतीति / सैषा भैमी, इतीत्यमिन्द्रदूत्यां विषये, प्रतिवाचं प्रत्युत्तरम् / अर्धे प्रत्युह्य मध्ये मध्ये निरुध्य, असमाप्यवेत्यर्थः / “उपसर्गाज्रस्व ऊहतेः" इति हस्वः / किञ्चिद्विवज्ञया यत्किञ्चिद्दक्तुमिच्छवा, उल्लसतः स्फुरतः, ओष्ठस्य लदम्या शोभया जितमनिद्रलं विकसत्पत्रं यस्य तत् / अपनिपूर्वाद् द्रातेः शतृप्रत्ययः। तच तत्पङ्कजञ्च तदिव आस्यं यासां ता वयस्याः सखीः अभिदधे उवाच / दधातेः कर्तरि लिटि तङः // 101 // - इस दमयन्तीने इन्द्रकी दूतीको उत्तर देना आधेमें ही रोककर ( इन्द्रवरणके पक्षमें ) कुछ कहने की इच्छाले हिलते हुए ओठोंकी शोभासे जीते गये विकसित पत्रवालं कमलके समान सुखवाली सखियोंसे कहा / [दमयन्ती जब इन्द्रकी दूतीसे कह रही थी, उसी समय सखियों के ओष्ठकम्पनसे इन्द्रको वरण करने के पक्ष में ये सखियां कुछ कहना चाहती हैं, अतः पहले इन आत्मीय लोगोंको ही सम्हालना ठीक है, ऐसा समझकर वह दमयन्ती दूतीसे कहने के बीच में ही रोककर सखियोंसे बोली-] // 101 // अनादिधाविस्वपरम्पराया हेतुन जस्स्रोतसि वेश्वरे वा / आयत्तधीरेष जनस्तदार्याः ! किमीहशः पर्यनुयज्य कार्यः / / 102 / / ' अनादीति / हे आाः, एष जनः अनादि यथा तथा, धाविन्याः प्रवहन्त्याः, स्वपरम्परायाः स्वदेहपरम्परायाः इत्यर्थः / तत्सम्बन्धिन्याः हेतुस्त्रजः हेतुभूनकर्म 1. 'अनादिधारिस्वपर- 'अनादिधाविश्वपर-' इति पाठान्तरे। 22 नै० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 नैषधमहाकाव्यम् / परम्परायाः स्रोतसि प्रवाहे वा / 'बुद्धिः कर्मानुसारिणीति वचनात् , ईश्वरे वा। एष एव कारयिते'ति श्रतः। आयत्तधीः / न तु स्वाधीनबुद्धिरित्यर्थः / निरीश्वरसेश्वरमतभेदात् पक्षद्वयोक्तिः, तत्तस्मात् , ईदृशः परतन्त्रः एष जनः, पर्यनुयुज्योपालभ्य / किं कार्यः कारयितुं शक्यः / कारयतेरचो यत् / अतः स्वयमपि दवपरतन्त्रा न पर्यनुयोज्येति भावः // 102 // - "हे मान्य सखियां ! यह जन ( मैं या संसार ) अनादिसे चलती हुई अपने या जीवमात्र के समूहके ( 'अनादिधारि-' पाठा०-'अनादिको धारण करनेवाला अर्थात् आदि रहित, 'अनादिधाविश्वपर-' पाठा०-' अनादिधारी संसार-समूहके ) शुभाशुभ कर्नरूप हेतुभूत परम्पराके प्रवाहमें या ईश्वरमें अधीन बुद्धिवाला है अर्थात् मैं या ससार-कोई भी स्वतन्त्र बुद्धिवाले नहीं है, किन्तु कर्मानुसार या ईश्वरेच्छानुसार बुद्धिवाले हैं / इस कारण ऐसे जन ( मुझसे या संसारसे ) क्या कोई आक्षेप या कोई प्रश्न करना उचित है ? अर्थात् कदापि नहीं। [ मैं या संसार कर्मानुसार अथवा ईश्वरेच्छानुसार ही सब कुछ करते हैं, स्वतन्त्र-बुद्धिसे कुछ नहीं करते, अथवा-अनादिसे चलनेवाले अनेक कल्पोंमें मेरा तथा नलका दाम्पत्यभाब चला आ रहा है, तदनुसार ही मैं नलको वरण करना चाहती हूँ, स्वतन्त्र बुद्धिसे नहीं / अतः तुम लोगोंकी 'तुम नलको क्यों वरण करती हो ? इन्द्रको क्यों नहीं वरण करती. इत्यादि प्रश्न या आक्षेप करना उचित नहीं है / तुमलोग मेरे विषयमें कुछ मत बोलो, सभी चुप रहो ] // 102 // नित्यं नियत्या परवत्यशेषे कः संविदानोऽप्यनुयोगयोग्यः / अचेतना सा च न वाचमर्हद्वक्ता तु वक्त्रश्रमकर्म भरते // 103 / / ननु देवपारतन्त्र्येऽपि मा मढः पर्यनुयोज्यः / विद्वांस्तु पर्यनुयोज्य एवेत्याशङ् क्य आह-नित्यमिति / अशेषे जने नित्यं सर्वदा नियत्या देवेन परवति परतन्त्रे सति संविदानो विद्वानपि / “समो गम्यच्छि” इत्यादिना विदेरात्मनेपदम् / कः अनुयोगयोग्यः उपालम्भाहः / विदुषापि नियतेरलध्यत्वादिति भावः / तहिं निय. तिरेव पर्यनुयुज्यताम्, तत्राह-अचेतना सा नियतिश्च वाचं पर्यनुयोगन्नाहेत् / अचेतनोपालम्भस्यारण्यरुदितकल्पत्वादिति भावः / तथाप्युपालम्भे दोषमाह-वक्ता अचेतनोपालब्धा तु वक्त्रस्य श्रमः श्रान्तिरेव, क्रियत इति कम वाग्व्यापारफलं तद् भुङ्क्ते / वाग्विग्लापनादन्यत्फलं न किञ्चिदस्तीत्यर्थः // 103 // ___सम्पूर्ण संसारके भाग्याधीन रहनेपर कौन व्यक्ति प्रश्न या आक्षेपके योग्य है ( 'ऐसा क्यों करते हो ?' इत्यादि प्रश्न या आक्षेप किसीसे नहीं करना चाहिये ) / अचेतन ( जड़ भाग्य भी आक्षेप या प्रश्नके योग्य नहीं ( क्योंकि अचेतनको कुछ कहनेसे ) कहनेवाला व्यक्ति मुख-श्रमरूप कर्मको भोगता है (कहनेवालेका मुख दुखता है, उसका फल कुछ नहीं होता है ) / अतः तुमलोग मेरे विषयमें कुछ मत कहो, क्योंकि तुमलोगोंका कहना निष्फल होगा // 103 // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 345 क्रमेलकं निन्दति कोमलच्छुः क्रमेलकः कण्टकलम्पटस्तम् / प्रीती तयोरिष्ट्रभजोः समायां मध्यस्थता नैकतरोपहासः // 104 // ननु सरेन्द्र विहाय नलस्वीकारे जगत्युपहास्यता स्यात्तत्राह-क्रमेलकमिति / कोमलमिच्छुः कोमलेच्छुः मृद्वाहारी गजाश्वादिः / “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधान्मधुपिपासुवद् द्वितीयासमासः / क्रमेलकमुष्ट्रन्निन्दति / 'उष्ट्र क्रमेलकमयमहाङ्गा' इत्यमरः / कण्टकेषु लम्पटो लोलुपः क्रमेलकः / 'लोलुपं लोलुभं लोलं लम्पटं लालसं विदुः' इति हलायुधः / तं कोमलेच्छु निन्दति / इष्टभुजोस्तयोईयोः प्रीती तुष्टो समायां तत्र एकतरस्योपहासो मध्यस्थता / माध्यस्थ्यं न / यस्य यदिष्टं तुष्टि. करं च तस्य तत्र प्रवृत्तौ सर्वस्याप्यात्मदृष्टान्तेन सन्तोष्टव्येऽप्युपहसन्तः स्वयमेवो. पहास्या भवन्तीति भावः // 104 // कोमल पदार्थको चाहनेवाला ( गौ, घोड़ा आदि या पुरुष आदि ) ऊंटकी निन्दा करता है, तथा कण्टकोंमें लालसा रखनेवाला ऊंट उस मधुर चाहनेवाले (गौ, घोड़ा, आदि या पुरुष ) की निन्दा करता है / अपने-अपने अभिलषित पदार्थको खानेवाले दोनोंके समान प्रेम होनेपर उन दोनों ऊँट या मधुर-भक्षक गौ-घोड़ा-आदि-में एकका उपहास करना मध्यस्थता अर्थात् पक्षपात-शून्यता नहीं है अर्थात् उन दोनों में से किसी एकको मला समझना तथा दूसरेका उपहास करना एकके विरुद्ध पक्षपात करना है। अथवा-स्वाभिलपित पदार्थ ( मधुर या कण्टक ) खानेवाले दोनों के प्रेमके समान होनेपर एकका उपहास नहीं करना चाहिये, किन्तु मध्यस्थ ( उदासीन-तटस्थ ) हो जाना चाहिये / [ मैं अपने अभीष्ट नलको अच्छा समझ रही हूँ, तथा यह दूती इन्द्रको हम दोनों का क्रमशः नल तथा इन्द्रमें, समान प्रेम है, इस कारण तुम लोगोंको मेरा या दूतीका उपहास छोड़कर तटस्थ रहना चाहिये] // 104 // गुणा हरन्तोऽपि हरेनरं मे न रोचमानं परिहारयन्ति / न लोकमालोकयथापवर्गास्त्रिवर्गमर्वाधाममुखमानम् // 105 / / ननु नलादपि गुणाधिके हरौ कथमरुचिरत आह-गुणा इति / सत्यं हरन्तोऽपि मनो हरन्तोऽपि हरेरिन्द्रस्य गुणाः मे मां, "रुच्यर्थानां प्रीयमाणः" इति चतुर्थी। रोचमानं मनोहरं तं नरं न परिहारयन्ति न त्याजयन्ति / कुतः, अपवर्गान्मोक्षा. दवाञ्चमपकृष्टं, त्रिवर्ग धर्मार्थकामानमुञ्चमानमत्यजन्तं, लोक नालोकयथ ? न पश्यथेति काकुः / न गुणमपेक्षते रागवृत्तिरिति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः // 105 // इन्द्रके मनोहर भी गुण मेरे लिये ( मुझे) रुचते हुए नर ( मनुष्य, 'रलयोरभेदः' सिद्धान्तके अनुसार 'नल' ) को नहीं छुड़ाते हैं अर्थात् मैं नलको ही चाहती हूँ, इन्द्रको नहीं। ( हे सखियो ! तुमलोग ) मोक्षसे हीन त्रिवर्ग ( अर्थ, धर्म और काम ) को नहीं छोड़नेवाले संसारको नहीं देखती हो / [ संसार जिस प्रकार मोक्षको छोड़कर उससे हीन Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 नैषधमहाकाव्यम् / त्रिवर्गका ही सेवन करता है, उसी प्रकार मैं भी इन्द्रको छोड़कर नलको ही चाहती हूं, इसमें केवल रुचि ही मुख्य कारण हैं, अतः तुम लोगोंको कुछ भी कहना नहीं चाहिये] // 105 // आकीटमाकैटभरि तुल्यः स्वाभीष्टलामात् कृतकृत्यभावः / भिमस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थ द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम / / 106 / / ननु महेन्द्रं प्राप्य कृतकृत्या भव, किं नलप्रार्थनया, दुःखायसेऽत आहभाकीटमिति / आकीटं कीटादारभ्य, आकैटभवैरि तत्पर्यन्तम् / उभयत्राप्यभिवि. धावस्ययीभावः / स्वाभीष्टलाभात् कृतकृत्यभावः, कृतार्थस्वाभिमानस्तुल्यः साधा. रणः। ममाप्यभीष्टलाभात् कृतकृत्यता नेन्द्रलाभादित्यर्थः / तीन्द्र एवेष्यतामित्यत आह-भिन्नस्पृहाणां भिन्नरुचीनां जनानामर्थमर्थ प्रत्यर्थम् / द्विष्टत्वमिष्टत्वञ्च द्वय. मपगता म्यवस्था घटत्वपटत्वादिवत् प्रतिनियमो यस्य तदपव्यवस्थमव्यवस्थमव्य. वस्थितम्। अपि त्वापेक्षिकम् / तस्मादिन्द्रोऽपि मया नेष्यतेको दोष इत्यर्थः // 106 // कीड़ेसे लेकर पुरुषोत्तम विष्णु भगवान् तक ( सबके लिये ) अपने-अपने अभीष्ट-लाभसे कृतकृत्यता होना सामान्य है / भिन्न-भिन्न वस्तु चाहनेवालों के वस्तु-वस्तुको विषयमें द्वेष भाव तथा प्रेमभाव अनियत है / ] अपने अभीष्टलाभसे छोटासे छोटा कीड़ा जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार अपने अभीष्ट लाभसे सर्वश्रेष्ठ विष्णु भगवान तक भी बड़ेसे बड़े प्राणी प्रसन्न होते हैं / मिन्न-भिन्न पदार्थोमें स्पृहा रखनेवालोंमें किसीको कोई पदार्थ अभीष्ट है तो दूसरेको वही पदार्थ अनभीष्ट है, अतः किसी बस्तुका अभीष्ट या अनभीष्ट होना निश्चित नहीं हैं / इसमें रुचि ही मुख्य कारण है, अतः मुझे नल ही रुचते हैं, इस कारणसे इस विषयमें तुम लोगोंको बोलना उचित नहीं // 106 // अमाध्वजाग्रामभृतापदन्धुं बन्धुयाद स्यात् प्रतिबन्धुमहः / जोषं जनः कार्यवितस्तु वस्तु प्रच्छथा निजेच्छा पदवीं मुदस्तु / 107 / / अप्राध्वेति / अग्रश्वासावध्वा चेति समानाधिकरणसमासः / अत एव 'अन. हस्ताग्रग्रहादयो गुणगुणिनोर्भेदाभावादिति वामनः। तस्मिन्नग्राध्वनि पुरोमार्गे, जाग्रत् स्फुरत् आसन्न इति यावत् / स चासौ निभृता नियता आपदेवान्धुः कूपः। 'पुंस्येवान्धुः प्रहिः कूप' इत्यमरः / तं प्रतिवन्धुम) निवारितुं शक्तों बन्धुः स्यायदि, स जनो बन्धुजनः कार्यवित् कार्यज्ञोऽपि / प्रश्नपर्यन्तं जोषमस्तु तूष्णीमास्ताम् / न तु मां निवारयेदित्यर्थः / कुतस्ताद ते कार्यविज्ञानं तदाह-मुदः श्रेयसः / पदवीं तु, निजेच्छेव प्रच्छया प्रष्टग्या। सैव मे प्रवर्तिका नान्यः कश्चिदस्तीत्यर्थः। वस्तु सत्यमयमेव परमार्थ इत्यर्थः / प्रच्छेर्द्विकर्मकत्वादप्रधाने कर्मणि 'ऋहलोर्ण्यत्' // 107 // सामने रास्तेमें स्थित नियत विपत्तिरूप कुआँ है जिसके ऐसे (बीच रास्तेमें स्थित समीपस्थ रूपमें गिरनेके समान विपत्तिमें शीघ्र ही अवश्य फँसने वाले ) बन्धुको मना करने Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 347 वाला है तो वह यदि बन्धु है तो कार्यशाता भी उस बन्धुको प्रश्न करने तक चुप रहना चाहिये, इसलिए मेरे विषयमें तुम लोगोंको नहीं बोलना चाहिए। श्रेयमार्गको अपनी इच्छाके प्रति पूछना ही ( वास्तविक ) वस्तु अर्थात् तत्त्व है / [ अथवा--रास्तेके आगेमें स्थित ढके हुए आपत्तिरूप कूप है जिसके ऐसा बन्धु यदि हो तो उसीको मना करना चाहिये ( मेरे विषयमें ऐसा नहीं है ) कार्यश बन्धुजनको तो चुप ही रहना चाहिए / अपनी इच्छा से ही हर्षके मार्गको वस्तुको हो तुम लोगोंको पूछना चाहिए। ] प्रथन अर्थमें-हितैषी बन्धुका कर्तव्य है कि यदि कोई बन्धु आपत्तिरूपमें गिरने वाला है तो उसे 'तुम इस मार्गसे मत जावो, अन्यथा सामने रास्तके मध्यवर्ती कूपमें गिर पड़ोगे अर्थात् इस अनिष्टकारक कार्यको मत करो, अन्यथा विपत्तिमें फंस जावोगे' इस प्रकार मना करना चाहिए / किन्तु मेरे विषयमें ऐसा नहीं होनेसे तुम लोगोंमेंसे अपनेको कार्यशका अभिमान करनेवाली किसी सखीको मुझे मना नहीं करना चाहिए, क्योंकि 'क्या मेरे लिए हितकारक है तथा क्या अनिष्टकारक है ? इस विषय में अपनी इच्छा ही हर्षकारक मार्गकी वस्तु हुआ करती है। द्वितीय अर्थ में-रास्तेमें तृण आदिसे आच्छादित होनेसे नहीं मालूम पड़नेवाले कूपमें किसी बन्धुको गिरनेकी आशङ्का हो तो हितैषी बन्धुको उसे मनाकर देना चाहिए कि 'इस मार्गमें तृणादिसे आच्छादित कूप है, उस रास्तेसे मत जाओ अन्यथा उसमें गिर पड़ोगे अर्थात् बिना समझे कोई बन्धु अज्ञानवश अनिष्टकर कार्य कर रहा हो तो उसे मनाकर देना चाहिए, किन्तु मेरे विषय में ऐसा नहीं है; मैंने नलको सर्वथा सोच-समझकर ही मनसे वरण किया है, उसमें कोई अनिष्ट नहीं होनेवाला हैं, अत एव तुम लोगोंको चुप रहना ही कार्यशता है / तुम लोगोंकी भी जिस पुरुषमें अनुरागरूप इच्छा होती है, वही ठोंक रास्ता होता है, अतः मेरे विषयमें भी वैसा ही समझना चाहिए / मेरे कार्य ( नलानुराग) को जाननेवाला व्यक्ति ( तुमलोग ) तो चुप रहो, तथा नहीं जानने वाला व्यक्ति (इन्द्रदूती) भले ही कुछ कहे, परन्तु उसका कोई महत्व नहीं] // 107 // इत्थ प्रतापाक्तिमति सखीनां बिलुप्य पाण्डित्यषलेन बाला। अपि तस्वपतिमन्त्रिसूक्ति दती बभाषेऽदतलोलमौलिम || 108 / / ___ इत्थमिति / बाला भैमी, इत्थं सखीनां प्रतीपोक्तिमति प्रतिकूलोक्तिबुद्धिमित्थं पाण्डित्वबलेन प्रागल्भ्यावलम्बेन विलुप्य निषिध्य श्रृताः स्वपतिमन्त्रिणः शक्रसचिवस्य बृहस्पतेः सूक्तयो वाचो यया तामपि "अहरादीनां पत्यादिषु" इति रेफादेशः। अद्भुतेन, अहो बृहस्पतेरपि प्रगल्भेत्याश्चर्येण लोलमोलिं कम्पशिरसं शिरः कम्पयन्तीमित्यर्थः / दूतीं बभाषे // 108 // बाला दमयन्तीने इस प्रकार (इलो० 102-107 ) सखियोंके प्रतिकूल कहनेके विचार को पाण्डित्यके बलसे निषेधकर स्वर्गाधीश इन्द्रके मन्त्री अर्थात् बृहस्पतिके सूक्तियोंको सुनी हुई तथा आश्चर्य से मर कको हिलाती हुई दूतीसे फिर बोली-[जिस प्रकार किसीके अधिक Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 नैषधमहाकाव्यम् / पाण्डित्यपूर्ण वचनको सुनकर कोई समझदार व्यक्ति आश्चर्यसे चकित होकर सिर हिलाने लगता है, उसी प्रकार ( दमयन्तीके पाण्डित्य-पूर्ण वचनको सुनकर 'अरे ! यह दमयन्ती तो बृहस्पतिके समान या उनसे भी अधिक पाण्डित्यपूर्ण बात कह रही है' ऐसा विचार आनेके कारण) दूती भी सिर हिला रही थी ] // 108 // परेतभतुमेनसैव दूती नभस्वतेवानिलसख्यभाजः / त्रिस्रोतसवाम्बुपतेस्तेदाश स्थिरास्थमायातवतीं निरास्थम् / / 106/ परेतेति / मनसैव आकर्षकेणेति शेषः। आगमनसाधनेनेत्यर्थः / एवं वायुगङ्गयो. रपि द्रष्टव्यम् / परेतभर्तुः यमस्य दूतीं, नभस्वता वायुनैव अनिलसख्यभाजोग्ने. दूती बिस्रोतसा गङ्गन्यैव अम्बुपतेर्वरुणस्य दूतीं स्थिरास्थं दृढाभिनिवेशं यथा तथा आशु शीघ्रमायातवती, सती, तदा अगमनक्षण एव निरास्थं पर्यहार्षम् / “अस्यति. वक्तिख्यातिभ्योऽ" इत्यस्यतेलुङि च्लेरङादेशः / 'अस्यतेस्थुक्' इति थुक् / यमा. दिदूत्यो दूरादेव निरस्ताः इन्द्रगौरवात्त्वया एतावन्तं काल समभाषीत्यर्थः / अत्र मनोवायुगङ्गानां क्रमाद्यमादिविधेयत्वेन तप्रियाथ ताभिरेवातिवेगवतीभिरत्र आनीता (यमादीनां दूत्यः) इत्युत्प्रेक्षार्थः // 109 // क्रमशः मन, वायु तथा गङ्गासे ('दमयन्तीको हम अवश्य अपने पक्षमें कर लेंगी' ऐसे) दृढ विश्वासपूर्वक आई हुई यम, अग्नि तथा वरुणके दूतियोंको शीघ्र ही मना कर दिया। [ अथवा-"दृढ़ विश्वासपूर्वक शीघ्र आई हुई... "दूतियोंको मना कर दिया। अथवा(नलमें दृढ़ आस्था करके मैंने ) उक्त दूतियोंको शीघ्र मना कर दिया। अथवा- मैने दृढ. विश्वासपूर्वक यमकी दूतीको मानो मनसे, अग्निकी दूतीकी मानो वायुसे तधा वरुणकी दूती को मानो गङ्गासे मना कर दिया है / [ परेवडिया प्राणहर्ता होनेसे प्राणके मनोऽधीन होनेसे हम-दूतीका मनरूपी वाहनसे आना अग्निके वायु-मित्र हीनेसे अग्नि-दूतीका वायुरूपी वाहनसे आना तथा वरुणके जलाधीश होनेसे वरुण-दूतीका गङ्गा-प्रवाहसे आना ( यमदूतीका मनोवेगसे, अग्निदूतीका वायुवेगसे तथा वरुणदूतीका गङ्गा-प्रवाह-वेगसे अत्यन्त शीघ्र आना प्रतीप होता है ) कार्यकी शीघ्रताके कारण उचित ही है। प्रकृतमें इन्द्रदूतोसे दमयन्तीका यह कहना है कि मैंने बहुत आशा लेकर आयी हुई यमादिकी दूतियों को पहले शीघ्र ही मना कर दिया, केवल देवराज इन्द्र के गौरवके कारण ( अनुरागके कारण नहीं ) तुमसे इन्द्रका सन्देश सुनकर तुम्हें मना कर रही हूं, अतः तुम्हें या इन्द्रको मनमें खेद नहीं करना चाहिये] // 109 // भूयोऽर्थमेनं याद मां त्वमात्थ तदा पदावालभसे मघोनः / सतीव्रतस्तीवमिमंत मन्तमन्तः परं वञिणि माजितास्मि ||110|| भूय इति / हे शक्रदूति ! त्वं भूयः पुनरेनमर्थमिन्द्रं वृणीष्वेत्यमुमर्थ मामात्थ 1. "त्वदाशु" इति पाठान्तरम् / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। 341 षे यदि / "ब्रुवः पञ्चानाम्" इत्यादिना सिपस्थादेशो ब्रुव आहश्च / “आहस्थ" इति हकारस्य थकारादेशः। तदा मघोनः पदावङघ्री। 'पदङघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / आलभसे हिनस्सि स्पृशसि वा / वज्रिणि इन्द्रे विषये अन्तरन्तरङ्गे परं श्रेष्ठं, गुणत्वेन गृह्यमाणमित्यर्थः / इमं तीव्र दुस्सहं मन्तुं निजाज्ञोबवनापराधम् / 'आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः / सतीव्रतैः पतिव्रतानियमैः मार्जितास्मि मार्जिज्यामि / मृजेलुटि मिप / पतिब्रताधर्मज्ञः सर्वज्ञो भगवान् मघवा मामस्मादपराधात्त्रास्यतीत्यर्थः // 11 // यदि तुम मुझसे इस विषय (इन्द्रको बरण करने) को फिर कहती हो तो इन्द्र के चरणोंका शपथ है (या इन्द्रके चरणोंकी हिंसा करती हो)। वज्रधारी इन्द्रसे हृदय में अत्यन्त तीव्र इस ( इन्द्रकी आज्ञाका अपालनरूप ) अपराधका तो सतीब्रतोंसे मैं यथावत् मार्जन करती हूँ। [इन्द्राशाका निषेध करना मुझे हृदय में बहुत तीव्र अपराध प्रतीत हो रहा है, परन्तु सतीव्रतसे विवश होकर मेरा ऐसा करना उचित जानकर इन्द्र भगवान् क्षमा करेंगे। अथवा-वरम् यथावत् अच्छी तरह हृदयमें स्थित इस अपराधको...... / अथवा अन्तःकरणमें नलको वर ( पति ) रूपमें रखनेके ( इन्द्र-मतानुसार ) तीव्र अपराधको / अथवासती होकर भी इन्द्ररूप परपुरुषके अनुराग-विषयक सन्देशको सननेसे 'तीव्र अपराधको हृदयस्थ वररूप ( लोकपालांश होनेसे ) इन्द्रमें सतीव्रतोंसे मार्जित करती हूँ, अर्थात् मैंने इन्द्रके सन्देशको केवल देवराजके गौरवकी दृष्टिसे सुना है, अनुरागवश नहीं, इसमें मेरा दृढ सतीव्रत ही प्रमाण है ] // 110 // इत्थ पुनवागवकाशनाशान्महेन्द्रदूत्यामवयातवत्याम् / विवेश लाल हृदयं नलस्य जीवः पुनः क्षीबमिव प्रबोधः / / 111 / / इत्थमिति / इत्थमुक्तप्रकारेण पुनर्वागवकाशनाशात् भूयोवचनावकाशनिवृत्तेः। इन्द्रदूत्यामवयातवत्यां गतायां नलस्य जीवोऽन्तरात्मा लोलं चलाचलं हृदयं क्षीवं मत्तम् / 'मत्ते शौण्डोत्कटक्षीबा' इत्यमरः / 'क्षीबृ मद' इति धातोः कर्तरि क्तः। 'अनुपसर्गात् फुल्लक्षीबकृशोल्लाघा' इति निपातनात्साधुः / प्रबोधो विवेक इव पुन• विवेश पुनर्जात इवाभूत् / तदा विशश्वास उच्छश्वास चेत्यर्थः // 111 // इस प्रकार (इलो 110 ) फिर कहने के अवसरका सर्वथा नाश हो जानेसे इन्द्र-दूतीके चले जानेपर उन्मत्तमें ज्ञान के समान नलके चञ्चल हृदयमें जीवने पुनः प्रवेश किया। [ इन्द्रदूतीके सन्देश तथा दमयन्ती-सखियों के द्वारा उसका समर्थन सुनकर नलका निजीवप्राय हृदय चञ्चल हो रहा था कि 'मुझे न तो प्रिया दमयन्तीका ही लाभ हुआ और न तो दूत-कर्म के श्रेय का हो' (दे० श्लो० 89), अतः यमादिके दूतोके समान इन्द्रदूतीको मी मना करने पर नलके जानमें जान आ गया कि अब मैं दूतकर्म कर यशोलाम करूँगा या प्रियपत्नीके रूपमें दमयन्तीको ही प्राप्त करूँगा। उन्मत्त व्यक्तिका भी हृदय चञ्चल रहनेपर ज्ञानशून्य रहता है तथा ज्ञान आने पर उसको शान्ति मिलती है ] // 111 // Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 नैषधमहाकाव्यम् / अषणपुटयुगेन स्वेन साधूपनीतं दिगधिपकृपयातादीदृशः समिधानात् / अलमत मधुबालारागवागुत्थमित्थं निषधजनपदेन्द्रः पातमानन्दसान्द्रः / / श्रवणेति / निधानां जनपदानाम्, इन्द्रो नलो दिगधिपानाम्, इन्द्रादीनां कृपया तिरोधानशक्तयनुग्रहरूपया आत्तात् प्राप्तादीदृशःसन्निधानादप्रकाशसान्निध्यात् स्वेन स्वकीयेन श्रवणपुटयुगेन साधूपनीतमपितमित्यनुकरीत्या बालाया भैम्याः रागवाग्भ्यः अनुरागवचनेभ्यः उत्था यस्य तत्तदुस्थं मधु क्षौद्रं, रसामृतमि. त्यर्थः / आनन्दसान्द्रः सुखमयः सन् पातुमलभत तत्पानं लब्धवानित्यर्थः। "शकएष" इत्यादिना तुमुन् प्रत्ययः // 12 // निषध-देशाधिपति नलने इन्द्र दिक्पालों ( इन्द्रादि ) की कृपासे प्राप्त सामीप्य (पाठा०संविधान-उपाय ) के कारण अपने कर्णपुटद्वयसे अच्छी तरह लाये गये तथा बाला दमयन्तीके अनुरागसे उत्पन्न इस प्रकार (इलो०-११०) के मधुको अत्यन्त आनन्दयुक्त होकर ( पाठा० --- अत्यन्त आनन्दपूर्वक ) पीने के लिये प्राप्त किया। नलने सोचा कि-यदि कृपाकर इन्द्रादि दिक्पाल अपने दूत-कर्ममें मुझे नियुक्त नहीं किये होते तो मुझे दमयन्तीके सानुराग मधुर वचनको अपने कानोंसे सुनने का यह सुअवसर नहीं मिलता, यह सोचकर नलने उस वचनको सुन बड़ा आनन्दानुभव किया / अन्य भी कोई व्यक्ति किसी सज्जनके द्वारा लाये हुए मधुको पात्रोंसे पीकर आनन्दित होता है // 112 // श्रीहर्ष कविराजराजमुकुटालकारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् / षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात् क्षोदक्षमे तन्महा. काठये चाणि नषधीयचरिते सोऽगमभास्वरः / / 113|| श्रीहर्षमिति / श्रीहर्षमित्यादि सुगमम् / सहजात् सोदरात् , समानकर्तृकादित्यर्थः / खण्डनखण्डता खण्डनखण्डाख्यात् ग्रन्थात् / यद्वा खण्डनं नाम ग्रन्थः / तदेव खण्डः इनुविकारः। 'स्यात् खण्डश्शकले चेतुविकारमणिदोषयोः' इति विश्वः। ततस्तस्मादपि क्षोदक्षमे संघर्षणसहे षष्टः सर्गः, अगमत् समाप्त इत्यर्थः // 13 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्याने षष्ठः सर्गः समाप्तः॥६॥ एक ग्रन्थकर्ता होनेसे सहज ‘खण्डन-खण्ड' नामक ग्रन्थसे या 'खण्डन' नामक ग्रन्थरूप शकरसे भी विचारयोग्य ( विचार करनेसे उत्तरोत्तर सरस, पक्षा०-शक्कर जितना घिसा जाता है उत्तरोत्तर उतना ही स्वच्छ तथा मधुर होता जाता है, ऐसा) यह षष्ठसर्ग पूर्ण हुआ। (शेष व्याख्या 4 // सर्गवत् समझना चाहिये // 113 // 1. “संविधानम्" इति पाठान्तरम् / २."-सान्द्रम्" इति पाठान्तरम् / Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः अथ प्रियासादनशीलनादो मनोरथ: पल्लवितश्विरं यः / बिलोकनेनैव म राजपुञ्या: पत्या भवः पूर्णवनभ्यमानि // 1 // अयेति / अथ इन्द्रदूतीगमनानन्तरम् / भुवः पत्या नलेन, "पतिस्समास एवं" इति नियमादसमासे विसंज्ञाऽभावात् धिकार्याऽभावः, प्रियाया दमयन्त्या; आसा. दनं प्राप्तिः, शीलनं परिचितिः, तदादौ विषये आदिशब्दादाश्लेषादिसङ्ग्रहः। यो मनोरथः चिरं चिरात्प्रभृति पल्लवितः सातपल्लवः, स मनोरथो राजपुच्या विलो. कनेनैव पूर्णवत् फलितवदभ्यमानि अभिमेने / तथा ननन्देस्यर्थः। मन्यतेः कर्मणि लुङ्॥१॥ . इन्द्रदूतीके लौट जानेके बाद राजा नलका, मनोरथ प्रिया दमयन्तीको पानेके परि. शीलन करने ( उन-उन अनोंके रूपादि-कल्पना करने। अथवा-...को पाने तथा परिशीलन ) आदि ( 'आदि' शब्दसे आलिङ्गन, सम्भोग आदिका संग्रह है) के विषयमें पहले पल्लवित हुआ था। उसको उन्होंने राजकुमारी दमयन्तीके सम्यक् प्रकारसे देखनेले ही पूर्णके समान मान लिया। [ दमयन्तीको प्राप्त न होने पर भी केवल उसको देखनेसे ही नलको दमयन्तीकी प्राप्तिका आनन्द हुआ ] // 1 // प्रांतप्रताक प्रथम प्रियायामथान्तरानन्दसुधासमुद्रे / ततः प्रमोटाश्रपरम्परायां ममउजतस्तस्यरसो नृपस्य / / 2 / / प्रतीति / तस्य नृपस्य दृशौ नेत्रे प्रथमं प्रियायां भैम्यां, तत्रापि प्रतिप्रतीकं प्रत्यवयवं ममजतुः तामवयवशो ददशत्यर्थः / अथ तदनन्तरं अन्तः अन्तरात्मनि य आनन्दसुधासमुद्रः तस्मिन् ममज्जतुः दर्शनफलमानन्दं अनुबभूवतुरित्यर्थः। करणे कर्तृत्वोपचारः। ततः प्रमोदाश्रपरम्परायामानन्दबाष्पप्रवाहे ममज्जतुः। अत्र हग्रपस्यैकस्याधेयस्य क्रमात्प्रियावयवाचनेकाधारवृत्तित्वकथनात् पर्यायालङ्कारभेदः "क्रमेणैकमनेकस्मिन्नाधारे वर्तते यदि / एकस्मिन्नर्थवानेक पर्यायालकृतिधिा" // इति लक्षणात् // 2 // ___ पहले नलकी दृष्टि प्रिया दमयन्तीके प्रत्येक अवयवमें, फिर अन्तःकरणमें उत्पन्न आनन्दसमुद्र में तथा इसके बाद आनन्दाश्रुपरम्परामें निमग्न हो गयी / [नलको प्रियाके प्रत्येक अवयवों को देखनेसे आन्तरिक आनन्द हुआ तथा दोनों आखोंमें हर्षसे आंसू आ गये // 2 // ब्रह्माद्वयस्यान्वभवत्प्रमाद रामाय एवाग्रानरोभितेऽस्याः। यथोचितीत्थं तदशेषदृष्टावथ स्मराद्वैतमुदं तथासौ॥ 3 // ब्रह्मेति / असौ नलः, अस्या भैम्याः, रोमान एव रोमाग्रमाने अग्रे प्रथमं निरी. 1. "-दन्वमानि"। इति पाठान्तरम् / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 नैषधमहाकाव्यम् / तिते दृष्टे सति यथा ब्रह्मैवाद्वयमद्वितीयं 'वस्तु तस्य प्रमोदं हगानन्दमन्वभवदि. त्यर्थः। आनन्दस्य ब्रह्माभेदेऽप्युपचारानेदव्यपदेशः। अथाऽग्रदर्शनानन्तरं तस्य रोग्णः अशेषडष्टौ कृत्स्नदर्शने सति, द्वयोर्भावो द्विता, द्वितैव द्वैतम् / प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण् प्रत्ययः / तद्रहितमद्वैतं स्मर एवाद्वैतमद्वितीयं वस्तु तस्य मुदमन्वभवत् / अत्र ब्रह्मानन्दात् स्मरानन्दोऽधिक इति विवक्षितम् / तथा रोमापि रोमानादधिकं, तत्र यथाल्पदर्शनादल्पानन्दः, अधिकदर्शनादधिकानन्द इति यथा तथा शब्दार्थः, इस्थमौचिती कारणानुरूपं कार्यजन्मोचितमेवेत्यर्थः। अत्र ब्रह्मानन्दस्मरानन्द. योरेकस्मिन्नेव क्रमेण वृत्तिकथनात् 'एकस्मिन्नथ वानेकम्' इत्युक्तलक्षणो द्वितीयः पर्यायालङ्कारभेदः // 3 // ___नलने इस दमयन्तीके रोमाग्रको पहले देखने पर अद्वैत ब्रह्मका आनन्द प्राप्त किया, फिर उसको ( दमयन्तीको या रोमको ) सम्पूर्ण देखकर जैसा उचित था, इस प्रकार कामदेवजन्य आनन्दको प्राप्त किया। [ सुन्दरी जिस दमयन्तीके केवल रोमाग्रमात्र देखनेसे जब अद्वैत ब्रह्मानन्द होता है, तब उसे शेष रूपमें देखनेसे कामदेवजन्य आनन्द होना उचित ही है। नलको दमयन्तीके देखनेसे जो आनन्द हुआ, उसको तुलनामें ब्रह्मानन्द भी तुच्छ प्रतीत होता था) // 3 // पलामतिक्रम्य चिरं मुखेन्दारालोकपीयूषरसेन तस्याः / नलस्य रागाम्बुनिधौ विढे तङ्गौ कुचावाश्रयति स्म दृष्टिः / / 4 / / वेलामिति / नलस्य दृष्टिः तस्या मुखेन्दोरालोको दर्शनं प्रकाशश्च / 'आलोको दर्शनद्योती' इत्यमरः / स एव पीयूषममृतं तस्य रसेन स्वादेन, रागाम्बुनिधौ अनुरागसमुद्रे पृथु महती वेलां कालं मर्यादां च / 'वेला कालमर्यादयोरपि' इति विश्वः / अतिक्रम्य विवृद्धे प्रवृद्ध सति तुङ्गौ कुचावाश्रयतिस्म / मुखलग्ना दृष्टिः रागवशात्कुचयोः पपातेत्यर्थः। अत्र दृष्टिविशेषणसामान्याञ्चन्द्रोदये समवृद्धौ तन्मज्जनभयादुत्सेधाश्रयजनप्रतीतेः समासोक्तिरलङ्कारः / तेन चाब्धिमजनभयादि. वेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यत इत्यलङ्कारेणालङ्कारध्वनिः // 4 // नलकी दृष्टिने उस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमाके दर्शनरूपी अमृतके रस ( पान या प्रेम ) से बड़ी मर्यादा ( तट, पक्षा०-दूत-कर्मसम्बन्धी मर्यादा) का उल्लङ्घन कर प्रेमरूपी समुद्र के बढ़नेपर ऊंचे दोनों का अवलम्बन किया। [ अन्य कोई व्यक्ति भी समुद्रके बढ़नेपर उच्च स्थानका आश्रय करता है। नल दमयन्तीका मुखचन्द्र देख अपने दूतकर्तव्य को भूल गये और उसके विशाल स्तनोंको सानुराग होकर देखने लगे ] // 4 // मग्नां सुपायां किमु तन्मुखेन्दोर्लग्ना स्थिता नत्कुचयोः किमन्तः / चिरेण तन्मध्यममुखतास्य दृष्टिः क्रशीयः स्खलनाद्भिया नु / / 5 / / मग्नेति / अस्य नलस्य दृष्टिस्तस्या भैम्याः मुखेन्दोस्सुधायां मना किमु, तत्कुचयोरन्तरभ्यन्तरे च लग्ना स्थिता किम् / उभयत्राप्यन्यथा कथं तावान् विलम्व इति Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामः सर्गः। भावः। किंच क्रशीयः कृशतरं तन्मध्यं कर्म स्खलनादिया नु भयेन किम् / चिरे. णामुञ्चत / रज्जुसञ्चारिवदिति भावः / उत्प्रेक्षात्रयस्य सजातीयस्य संसृष्टिः॥५॥ नलकी दृष्टि दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमाके अमृतमें मग्न हुई थी क्या ? अथवा--दमयन्तीके (मृणाल-मूत्रके लिये भी मध्यमें अवकाश-शून्य ) दोनों स्तनोंके बीचमें ( उलझ ) गयी थी क्या ? अथवा--( अत्यन्त पतला होने से ) गिरनेके भयसे उस दमयन्तीके अत्यन्त पतले मध्य भाग ( कटिप्रदेश ) को देरसे छोड़ा क्या ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति कीचड़ आदिमें फंसकर, संकीर्ण स्थानमें अँटक कर अथवा तार बा रस्सी आदिपर चलते समय गिरनेके भयसे बड़ी सावधानीसे जलकर उसे बहुत बिलम्बसे छोड़ता है / नल दमयन्तीके मुख और स्तनोंको देखने के बाद कृशतम कटिभागको बहुत बिलम्ब तक देखते रहे ] // 5 // प्रियाङ्गपान्था कुच योनिवृत्य निवृत्य लाला नलग्भ्रमन्ती।। बभौतमां तं मृगनाभिले पतमः समासादितदिग्भ्रमेव / / 6 / / प्रियेति / प्रियाया अङ्गेषु, पन्थानं गच्छतीति पान्था नित्यपथिका, 'पन्थो ण नित्यम्' इति पथो णप्रत्ययः, पन्थादेशश्च / लोला सतृष्णा नलस्य दृक दृष्टिः कुचयो. निवृत्य निवृत्य आवृत्य भ्रमन्दी तयोः कुचयोः मृगनाभिलेपः कस्तूरिकालेपनमेव तमः तेन समासादितः प्राप्तः दिग्भ्रमो 'यया सेवेत्युत्प्रेक्षा / बभौतमां अतिश. येन बभौ / 'तिडल' इति तमप्प्रत्यये 'किमेत्ति' इत्यादिना तिवादामुप्रत्ययः // 6 // प्रिया दमयन्तीके अङ्गोंकी पथिक-रूपिणी नलकी चञ्चल दृष्टि स्तनोंपर कस्तूरीके लेपरूपी अन्धकारसे दिशाको भ्रान्तिको पायी हुई के समान, बारम्बार लौटकर स्तनों पर घूमती हुई अत्यन्त शोभमान हुई / [ अन्य भी कोई पथिक अन्धकारमें दिग्भ्रम होनेसे बारम्बार लौट कर एक ही स्थान में आ जाता है / नल दमयन्तीके अन्य अङ्गोंको- देखते हुए पुनः पुनः उसके स्तनोंको देखने लगते थे ] // 6 // विभ्रम्य तच्चाहानतम्बचके दूतस्य हक तस्य खलु स्खलन्ता। स्थिरा चिरादास्त तदुरुरम्भास्तम्भावुपाश्लिष्य करेण गाढम / 7 / / विभ्रम्येति / दूतस्य तस्य नलस्य दृक् दृष्टिः तस्याश्चारु नितम्ब एव च तस्मिन् विभ्रम्य भ्रान्त्वा स्खलन्ती चलन्ती तस्य ऊरू एव रम्भास्तम्भौ करेणांशुना हस्तेन च गाढमुपाश्लिप्य स्थिरा निश्चला सती चिरादास्त उपविष्टा खलु / 'आसे. लङ' / अत्र दृष्टिविशेषणसाम्याद् भ्रमणक्रीडाकारिवालकप्रतीतेः समासोक्तिः / तस्याश्चोरुस्तम्भाविति रूपकेण सङ्करः / बालका हि क्रीडया चिरं चक्रमुभ्रान्ता स्खलन्ती निकटस्तम्भादिकमवलम्ब्य चरति // 7 // उस दमयन्तीके सुन्दर नितम्बरूफी चक्रमें ( पक्षा०-चक्रतुल्य नितम्बनें, या नितम्ब समूहमें ) घूमकर दूत उस नलकी दृष्टि वहांसे स्खलित हो ( फिसल ) कर उस दमयन्तीके कदलो-स्तम्भके समान ( पक्षा०-कदली-स्तम्भरूप ) ऊरुद्वयको हाथसे (पक्षा०-किरणसे) Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 नैषधमहाकाव्यम् / अच्छी तरह पकडकर बहुत विलम्ब तक रुकी रही। [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति चाकपर घूमते-घूमते वहांसे गिरता है तो किसी खम्भे आदिको हाथसे देर तक अच्छी तरह पकड़े रहता है, वैसे ही नलकी दृष्टिने किया। नल दमयन्तीका नितम्ब देखनेके बाद विलम्बतक दमयन्तीका केलेके खम्भोंके समान सुन्दर ऊरुओंको देखते रहे ] // 7 // पासः परं नत्रमहं न नत्र किमु त्वमालिङ्गय तन्मयापि / उरोनितम्बोरु कुरु प्रसादमितीव सा तत्पदयो: पपात // 8 // वास इति / हे भैमि, वासः परं वस्त्रमेव नेत्रम् आच्छादनम्, अहं नेत्रं न इति काकुः, नास्मि किमु अस्म्येवेत्यर्थः। 'नेत्रं पथि गुणे वस्त्रे तरुमले विलोचने' इति विश्वः / तत् तस्मात् नेत्रत्वाविशेषावं मया अपि, उरश्च नितम्बश्च उरू च तेषां समाहारः उरोनितम्बोरु / प्राण्यगत्वाद् द्वन्द्वकवद्भावः / तदालिङ्गन्याश्लेषय प्रसादमा. लिङ्गनानुग्रहं कुरु इतीव इति मनीषयेवेत्युप्रेक्षा / सा नलडष्टिस्तस्याः भैम्याः पदयोः पपात पदे अपि ददशेत्यर्थः॥८॥ (हे दमयन्ति ! केवल वस्त्र ही 'नेत्र' हैं, मैं नेत्र नहीं हूँ क्या अर्थात् मैं भी 'नेत्र' हूं, इस कारण मुझे ( नयन-वाचक 'नेत्र' को) भी वस्त्र-वाचक 'नेत्र के समान ) छाती, नितम्ब और ऊरुका आलिङ्गन करावो ( या प्रत्यक्ष दिखलावो ) मानो इस प्रकार कहती हुई नल-दृष्टि दमयन्तीके चरणोंपर गिर पड़ी। [ जैसे अन्य कोई व्यक्ति अपने समकक्ष व्यक्तिके समान स्थान पाने के लिये राजा आदि श्रेष्ठ अधिकारीके चरणोंपर गिरता है, वैसे नलदृष्टिने भी किया / नलकी दृष्टि भयन्तीकी छाती, नितम्ब और ऊरुको देखनेके बाद पैरों पर पड़ी] // 8 // शोयेथाकाममथोपहत्य स प्रयसीमालिकुल च तस्याः / इद प्रमोदाद्भुतसभृतेन महीमहेन्द्रो मनसा जगाद // 6 // दृशोरिति / अथ महीमहेन्द्रस्स नलो हशोः स्वाचणोः प्रेयसी भैमी, तस्या आलिकुलं सखीवर्ग च यथाकाममुपहृत्योपहारीकृत्य यथेच्छं दृष्ट्वेत्यर्थः / प्रमोदा. भुताभ्यामानन्दविस्मयाभ्यां संभृतेन पूर्णेन मनसा इदं वक्ष्यमाणं जगाद स्वगतमुवाचेत्यर्थः // 9 // ___ इसके वाद महीपति नल प्रिया दमयन्ती तथा उसके सखी-सनुदायको अच्छी तरह देखकर हर्ष नथा आश्चर्य से परिपूर्ण मनसे यह कहने अर्थात् विचारने लगे / / 9 // पदे विधातुर्याद मन्मथा वा ममाभिषिच्येत मनोरथा वा। तदा घटेतापि न वा तदेतत्प्रतिप्रतीकाद्भुतरूपशिल्पम् / / 10 / पद इति / विधातुः पदे ब्रह्मणः स्थाने, मन्मथो वा मम मनोरथो वा अभिषिज्येत यदि तदा तत्प्रसिद्धम् एतत् पुरोवर्ति प्रतिप्रतीकं प्रत्यवयद अद्भुतं रूपशि. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 355 ल्पम् आकारनिर्माणं घटेतापि न वा घटेत, तन्मनसापि निर्मातुमशक्यं किमुत ब्रह्मणेत्यर्थः / अत्र भैमीरूपशिल्पस्य प्रसिद्धब्रह्मसम्बन्धेऽप्यसम्बन्धोक्तेस्तथा मन्मथाद्यसम्बन्धेऽपि सम्भावनया तत्सम्बन्धोक्तेश्च, तद्पकातिशयोक्तिभेदौ // 10 // यदि ब्रह्माके पदपर कामदेवको या मेरे मनोरथको अर्थात् मुझको अभिषिक्त कर दिया जाता अर्थात् हम दोनों में से किसीको ब्रह्माका कार्य सौंप दिया जाता; तब ऐसा ( या इस दनयन्तीके ) प्रत्येक अवयवोंकी सुन्दरतासे आश्चर्यकारक कारीगरी (रचना) होती या नहीं होती / [ दमयन्तीका यह रूप लोकातिशायी एवं जगद्विलक्षण है ] // 10 // तरङ्गिणी भूमिभृतः प्रभुता जानामि शृङ्गाररसस्य सेयम् / . लावण्यपूराऽजनि यौवनेन यस्यां तथोच्चस्तनताघनेन / / 11 // तरङ्गिणीति / सेयं दमयन्ती भूमिभृतो भीमभूभर्तुरेव भूधरादिति श्लिष्टरूपकम् / भुवः प्रभव इत्यपादानत्वात्पञ्चमी। प्रभूता सम्भूता। शृङ्गाररसस्य तरङ्गिणी नदी जानामि इति वाक्यार्थः कम / इति जानामीत्यर्थः। उत्प्रेक्षा। तथाहि-यस्यां भैम्यां तथा तेन प्रकारेण उच्चस्तनता उन्नतकुचत्वम् / तथा घनेन सान्द्रेण संपूर्णेन यौवनेनेव, उच्चः तारं स्तनता गर्जता स्तनशब्द इति धातोभौंवादिकावटः शत्रादेः। घनेन मेधेन / 'घनो मेवे मूर्तिगुणे त्रिषु मूत निरन्तर' इत्यमरः। लावण्यपूरोऽजनि जनितः यौवनेन च लावण्यं वर्धत इति प्रसिद्धम् / मेघवर्धितपूरत्वं तरङ्गिण्यां युक्त. मिति भावः / यौवनेन धनेनेति व्यस्तरूपकम् / उच्चैस्तनताघनेनेति शब्दश्लेषः / तदुत्थापिता च भैम्याः शृङ्गारतरङ्गिणीत्वोत्प्रेति सङ्करः // 11 // वह दमयन्ती महोपाल भीमले उत्पन्न शृङ्गार रससे अभियुक्त है ( पक्षा०-वह पर्वतसे उत्पन्न शिखरसे निकले हुए जलवाली नदी है ), जिस दमयन्तीमें उच्चतम स्तनोंके भावसे बढ़े हुए यौवनसे लावण्यका प्रवाह उत्पन्न हो रहा है ( अथवा-बढ़े हुए यौवनसे लावण्य प्रवाह उत्पन्न हुआ और उच्चतम स्तन हुए / पक्षा०-जिस नदीमें अधिक गरजते हुए मेघसे जल का प्रवाह हुआ ) ! [ दमयन्तीके अत्युन्नत स्तनों में अधिक सौन्दर्य और बादमें कामवृद्धि हुई, और नदीमें मेघके गरजने के बाद तेज पानीका प्रवाह हुआ ] // 11 // अस्या वपुल्यूहविधानविद्यां किं द्योतयामास नवामवाप्ताम् / प्रत्यङ्गसङ्गस्फुटलब्धभूमा लावण्यसीमा यदिमामुपास्ते / / 12 / / अस्यामिति / अत्र सामर्थ्याद् ब्रह्मणः कर्तुरध्याहारः / ब्रह्मा अवाप्तां स्वभ्यस्तां नवामसाधारणी, वपुर्व्यहविधानविद्यां शरीरसंस्थानविशेषनिर्माणविज्ञानम् अस्या दमयन्त्यामेव द्योतयामास किम् / नूनं विधातुरात्मनः स्त्रीसृष्टिकौशलप्रकाशनार्थसृ. ष्टिरेषेवेत्युत्प्रेक्षा / यद्यस्मात् , प्रत्यङ्गसङ्गेन प्रत्यवयवव्याप्त्या, स्फुटं लब्धो भूमा 1. "नवां स कामः" इति पाठान्तरम् / Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 नैषधमहाकाव्यम् / विस्तारो यया सा लावण्यसीमा सौन्दर्यसर्वस्वमिमां दमयन्तीम् उपास्ते सेवते अस्यामेव वर्तत इत्यर्थः // 12 // (ब्रह्माने कहींसे ) प्राप्त नवीन शरीर-रचनाकी विद्याको इस दमयन्तीमें नहीं व्यक्त किया है क्या ? अर्थात् अवश्यमेव व्यक्त किया है, क्योंकि अङ्ग अङ्ग में वर्तमान रहनेसे स्पष्ट ज्ञात होती हुई अधिकतावाली लावण्यकी सीमा इस दमयन्तीकी सेवा करती है अर्थात् दमयन्तीके प्रत्यगामें अधिकतम सौन्दर्यसे ज्ञात होता है कि ब्रह्माने इसके लिये कहींसे नयी शरीर-रचना की विद्या प्राप्त की है / ( अथवा-इस दमयन्तीके प्रत्यङ्गमें स्पष्टतः वर्तमान आधिक्यवाली सौन्दर्य-सीमाने इस दमयन्तीमें कहींसे प्राप्त नवीन शरीर-रचनाकी विद्या को नहीं प्रकट किया है ? अर्थात् अवश्य ही प्राप्त किया है। क्योंकि...''इसकी सेवा करती है / अथवा-इस दमयन्तीके प्रत्यङ्गमें स्पष्टतः वर्तमान आधिक्य वाली सौन्दर्यसीमा जो इसकी उपासना करती है ( दासी या शिष्याके समान सेवा करती है ), अतः नयी ( वर्ण. नातीत ) शरीररचनाकी विद्याको प्राप्त किया है क्या ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति गुरुके समीप सर्वदा रहकर वर्णनातीत श्रेष्ठ विद्याको प्राप्त करता है। पाठा०-'कामदेव' कर्ता मानकर उक्त सब पक्षों में पूर्ववत् अर्थसङ्गति करनी चाहिये ] // 12 // जम्बालजालाकिमकषि जम्बूनद्या न हारिद्रानभप्रमेयम् / अप्यङ्गयुग्मस्य न सङ्गचिह्नमुत्रीयते दन्तुरता यदत्र / / 13 / / जम्बालेति / हरिद्रया रक्तं वस्तु हारिद्रं, 'हरिद्रामहारजनाभ्यामञ् वक्तव्यः' / तेन सदृशी तन्निभा प्रभा यस्याः सा इयं दमयन्ती जम्बूनद्या मेरुपार्ववर्तिवाहिन्या जम्बालजालात्पङ्कराशेर्जाम्बूनदत्वात् / 'निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमौ' इत्यमरः / नाकर्षि न कृष्टा किम् / सुश्लिष्टाङ्गत्वात् सर्वाङ्गेषु हेमकर्दमेन प्रमृष्टा किमित्यर्थः / कुतः ? यद्यस्मात् अत्रास्यां भैम्याम् अङ्गयुग्मस्य अवयवद्वयस्य सङ्गचिह्नं सन्धानचिह्नम् / दन्तुरता औन्नत्यमपि "दन्त उन्नत उरच" नोनीयते नाभ्युन्नीयते // 13 // ____ हरिद्रामें रंगे हुए ( या सुवर्ण ) के समान कान्तिवाली यह दमयन्ती जम्बू नदी ( मेरु पर्वतके समीपस्थ नदी या जामुनके रससे उत्पन्न नदी) के पक-समूहसे अर्थात् सुवर्णसे नहीं आकृष्ट हुई है क्या ? अर्थात् अवश्य आकृष्ट हुई है। क्योंकि इस दमयन्तीमें दो अङ्गों के जोड़की उच्चता-नीचता नहीं मालूम पड़ती है / [ जैसे पङ्क-समूहसे आकृष्ट-निकाली गयी वस्तुमें पङ्क लगे रहनेसे उसकी उच्चता-नीचता नहीं मालूम पड़ती; किन्तु वह वस्तु समतल मालूम पड़ती है, उसी प्रकार दमयन्तीके दो अङ्गों के जोड़ोकी उच्चता-नीचता भी (मांसल होनेसे) नहीं मालूम पड़ती, अतः यह दमयन्ती अवश्य ही जम्बूनदीके पङ्कसे आकृष्ट हुई है तथा सुवर्णतुल्य कान्ति होनेसे भी उक्त जम्बू नदीके सुवर्णमय पङ्क-समूहसे आकृष्ट होनेकी पुष्टि होती है / यह दमयन्ती स्वर्णकान्ति तथा अतिकोमलाङ्गी है ] // 13 // Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। सत्येव साम्ये सहशादशेषात् गुणान्तरेणोच्चकृषे यदङ्गैः / अस्यास्ततः स्यात्तुलनापि नाम वस्तु त्वमोषामुपमांवमानः / / 14 / / सतीति / यद्यस्मात् अस्या भैम्या अङ्गः कर्तृभिः साग्य सत्येव अशेषात्सदृशास्चन्द्रादेः “पञ्चमी विभक्ते" इति पञ्चमी / गुणान्तरेण केनापि गुणविशेषेणोच्चकृषे समानेषूत्कृष्टरभावीत्यर्थः / भावे लिट् / तत उन्नतत्वाद्धेतोः तुलना समीकरणमपि स्यान्नाम ? काकुः / स्यात् कि ? न स्यादवत्यर्थः। तथा हि-वस्तुतः परमार्थतस्तु अमीषामङ्गानामुपमा तुलना तस्या अवमानोऽपमानः उत्कृष्टानामसमानः सह समतापादनमवमान एवेत्यर्थः // 14 // जिस कारणसे इस दमयन्तीके प्रत्येक अङ्ग सम्पूर्ण समान (चन्द्र, कमल, बन्धूक आदि) से समानता रहनेपर ही अन्य गुणोंसे श्रेष्ठ हो गये, इस कारण इस दमयन्तीकी उनके साथ उपमा है ? अर्थात् नहीं है / ( अथवा-उपमा भले ही होवे, किन्तु ) वास्तविकमें तो इनकी उपमा अपमान ही है ( अथवा-उपमा देना इनका अपमान है ) / [ कवि-समयके अनुसार उपमेय पदार्थ कम गुणवाला तथा उपमान पदार्थ अधिक गुणवाला होता है तभी दोनोंका उपमानोपमेयभाव यथार्थ होता है, किन्तु वर्तुलता ( गोलाई ) आदि के कारण दमयन्तीके मुख तथा चन्द्र में समानता होने पर भी चन्द्रकी अपेक्षा दमयन्तोके मुखमें अधिक आझादकता, सर्वदा कलापूर्णता अर्थात् क्षयहीनता, कलङ्क-शून्यता आदि अधिक गुण है, इसी प्रकार नीलिमासे इन्दीवरको दमयन्तीके नेत्रों के समान होनेपर भी दमयन्तीके नेत्रों में कटाक्ष-विक्षेप आदि अधिक गुण है, तथा लालिमासे बन्धूक पुष्प (दुपहरियाका फूल ) को दमयन्ती के अधरके समान होने पर भी दमयन्तीके अधरमें अम्लानता, नित्य विकासिता, हास्यता आदि अधिक गुण हैं ( इसी प्रकार अन्यान्य अवयवों के विषयमें भी समझना चाहिये), अतः दमयन्तीके मुख आदि अवयवों का उपमेय तथा चन्द्र आदिको उपमान बनाना उनका तिरस्कार करना है, क्योंकि उपमान एवं उपमेयके गुणोंकी परस्पर समानता रहने तक उपमा देना तो सम्भव है, किन्तु उपमा में कम गुण और उपमेयमें अधिक गुण होनेपर उपमा देना उसका तिरस्कार करना है / लोकमें भी बहुत बड़े तथा बहुत छोटके साथ तुलना करना बड़ेका अपमान समझा जाता है ] // 14 // 'पुराकृतित्रणमिमां विधातुमभूद्विधातुः खलु हस्तलखः। येयं भवद्भावि पुरन्ध्रिसृष्टिः सास्यै यशस्तजयजं प्रदातुम् // 15 / / पुरेति / विधातुः स्रष्टुः, पुराकृतिः पूर्वसृष्टिः तत्र स्त्रैणं स्त्रीसमूहः पूर्वा स्त्रीसृ. ष्टिरित्यर्थः / इमां भैमी विधातुं स्रष्टुं हस्तलेखः अभूत् खलु / लेखनाभ्यासिभिह। स्तकौशलार्थमेव यल्लिख्यते स हस्तलेखः ताहशीयमिति निदर्शनानुप्राणिता पूर्वस 1. 'मापमानः' इति पाठान्तरम् / 2. 'पुराकृति स्त्रण-' इति पाठान्तरम् / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / ष्टिभैमीनिर्माणार्थाभ्यासरूपत्वोोता। किं च येयं भाविनीनां पुरन्ध्रीणां षष्टिः सा अस्य भैम्यैतासांपुरन्ध्रीणां जयेन जातं तज्जयज यशो प्रदातुमिति फलोत्प्रेक्षा // 15 // प्रथम रचनामें खो-समूह (पाठा०-प्रथम रचनारूप स्त्री-समूह) इस दमयन्तीकी रचना करने के लिये ब्रह्माका प्रथम अभ्यास था। (दूसरा भी कोई कारीगर किसी उत्तम पदार्थकी रचना करनेके लिये पहले अभ्यासार्थ उस निर्मातव्य पदार्थसे कम गुणवाले पदार्थकी रचना करता है)। और स्त्रियोंकी रचना हो रही है तथा भविष्यमें होगी वह तो इस दमयन्तीके लिये उन (वर्तमानमें होती हुई तथा भविष्यमें होनेवाली स्त्री-रचना) की विजयसे होनेवाले यशको देने के लिये है। [ पहले तो ब्रह्माने सुन्दरी इस दमयन्तीकी रचना करने के लिये अभ्यासार्थ उवंशी आदि देवाङ्गनाओंकी रचना की, तथा वर्तमानमें जो वे स्त्रियोंकी रचना कर रहे हैं और भविष्यमें जो स्त्रियोंकी रचना करेंगे, वह रचना, 'दमयन्तीने अपने सौन्दर्य से वर्तमान तथा भावी सब स्त्रियोंको जीत लिया है। ऐसा दमयन्तीका यश हो इस उद्देश्यले है / दमयन्तोके समान सुन्दरी भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल में कोई स्त्री नहीं है ] // 15 // भव्यानि हानीरगुरेतदङ्गात् यथा यथानति तथा तथा तः। अस्याधिकस्योपमयोपमाता दाता प्रतिष्ठां खलु तेभ्य एव / / 16 / / भव्यानीति / भव्यानि रम्याणि चन्द्राद्यपमानवस्तूनि, एतस्या भेम्याः, अङ्गात् मुखादेर्यथा यथा हानीरपकर्षान् "ग्लाम्लाजहातिभ्यो निर्वक्तव्य" इति जहाते. स्त्रियां निप्रत्ययःक्तिनोऽपवादः / अगुरगमन् , “इणो गा लुङि" इति गादेशे "गाति स्था" इत्यादिना सिचो लुक / “आत" इति मेर्जुमादेशः / तथा तथा तेश्चन्द्राद्यपमानैरनर्ति हर्षान्नृत्यं कृतमित्यर्थः / नन्वपकर्षे कथं हर्षः ? तत्राह-उपमाता कविः "मातेर्माङि वा तृन्"। अधिकस्योत्कृष्टस्यास्य भैम्यङ्गस्योपमया उपमानीकरणेन / अथ वा गत्यन्तराभावात् तैरेव तुलनया तेषामेवोपमानीकरणेनेत्यर्थः / तेभ्यश्चन्द्रादिभ्य एवं प्रतिष्ठा दाता दास्यति / ददातेलृट् / तथा च यथा कथंचित् प्रतिष्ठालङ्कारे उपमेयत्वेन वा, उपमायामुपमानत्वेन वा कविप्रसादाच्चन्द्रादीनां पुनः प्रतिष्ठा भविष्यति इत्यनीत्यर्थः // 16 // सुन्दर ( चन्द्रमा, कमल आदि ) पदार्थोंने इस दमयन्तीके शरोरसे जैसे-जैसे अर्थात् जितनी-जितनो ( पराजय होनेसे) हानि उठायो, वैसे-वैसे अर्थात् उतना-उतना ही अधिक उन्होंने नृत्य किया अर्थात् प्रसन्न हुए / ( हानि उठानेपर भी उनके प्रसन्न होनेका कारण यह था कि उन्होंने सोचा कि ) उपमा देनेवाला ( कवि आदि ) इस दमयन्ती-शरीरकी उपमासे उन्हीं लोगों ( चन्द्रमा, कमल आदि पदार्थों ) के लिये प्रतिष्ठा देगा। [ दमयन्तीशरीर के लिये अन्य उपमाका अभाव होनेसे उपमाता कवि आदि 'दमयन्तीका मुख चन्द्रमा सनान है, नेत्र कमलके समान है, इत्यादि उपमा देकर चन्द्रमा, कमल आदिकी ही प्रतिष्ठा बढ़ावेंगे, यही उन सुन्दर चन्द्रमा, कमल आदि पदार्थोके पराजयजन्य हानि होने र भी प्रसन्न होकर नृत्य करनेका कारण है ] // 16 / / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। नास्पशि दृष्टापि विमोहिकेयं दोषैरशेषैः स्वमियेति मन्ये / अन्येषु तैराकुलितस्तदस्यां वसत्यसापल्यमुखी गुणोषः // 10 // नेति / दृष्टापि विमोहिका दर्शनमात्रेणापि म्यामोहिकेनं दमयन्ती वशेषोंः स्वमिया अस्मानपि मोहयिष्यतीत्यास्मीयमयेनैव नास्पर्शि न स्पृष्टेति मन्ये / उत्प्रेक्षा / भीरवो हि भयहेतून स्पष्टुमेव बिभ्यतीति भावः। तत्तस्मात् दोषस्पर्शाभावात् / अन्येषु स्यन्तरेषु तैर्दोषैराकुलितः पीडितो गुणोधोऽम्बां मैम्बामसापन्येन अकण्टकत्वेन सुखी सन् वसति "प्रायेण सामग्रयविधौ गुणानामि" स्यपवादोऽस्यामेव दृष्ट इति भावः // 17 // देखनेसे भी (कामजन्यमावसे ) मोहित (पक्षा०-मूञ्छित) करनेवाली इस दमयन्ती फो सम्पूर्ण दोषोंने अपने भयसे स्पर्शतक नहीं किया, ऐसा मैं मानता हूँ। अत एव अन्य स्त्रियों में उन दोषोंसे व्याकुल गुण-समूह शत्रु रहित अर्थात् निष्कण्टक होनेसे निश्चिन्त होकर इस दमयन्तीमें रहता है / [ 'जो दमयन्ती केवल देखनेसे ही मोहित या मच्छित करती है उसके समीपमें रहनेसे न जाने हमारी क्या दुर्दशा हो जायेगी ?' इस भयसे दमयन्तीके पास एक भी दोष नहीं आया अर्थात् दमयन्ती समी दोघैसे अच्छता रहीं, तथा वे दोष अन्य स्त्रियोंमें रहते हुए वहां रहनेवाले गुण-समूहकों परस्पर वैरभाव होनेसे काट देने लगे, इस कारण कष्टदायक दोषोंसे रहित दमयन्तीको सुरक्षित स्थान समझकर वह गुणसमूह यहीं आकर बस गया / लोकमें मी भयप्रद स्थानको छोड़कर सुरक्षित स्थानमें लोग निवास करते हैं, अत एव दोषोंने भयप्रद दमयन्तीको छोड़कर अन्य खियों में तथा गुणोंने अन्य स्त्रियोंमें दोषों के रहनेसे उस स्थानको भयप्रद समझकर दमयन्तीमें निवास औमि प्रियाङ्गघृणयैव रूक्षा न वारिदुर्गात्तु वराटकस्य / न कण्टकैरावरणाच्च कान्तिधूलीभृता काञ्चनकेतकस्य / / 18 / / औज्झीति / प्रियांगै.मीगात्रैः वराटकस्य बीजकोशस्य कमलकर्णिकाया इत्यर्थः / 'बीजकोशो वराटकः' इत्यमरः / रूक्षा परुषा कान्तिपुणयैव रोक्ष्यजुगुप्सयैव औझि विसृष्टा / उज्झ विसर्गे कर्मणि लुङ / वारिदुर्गाद्वारिदुर्गस्थत्वात्तु न / किं च काञ्चनकेतकस्य धूलीभिर्भूता पूर्णा कान्तिरौज्ज्ञि रजःकीर्णत्वादेवोज्झिता कण्टकैरावरणात्तन / रोच्यादिदोषदूषितत्वाब भैमीकायकान्तिसाम्यमर्हति / महती तत्कायकांतिरित्यर्थः // 18 // प्रिया दमयन्तीके अङ्गोंने कमलगटेकी शोभाको 'रूक्ष ( तीघ्र, कठोर हैं। इस घृणासे छोड़ दिया, 'जलरूपी ( अथवा-कमलरूपी ) दुर्गमें बह कान्ति रहती है इस भयसे नहीं छोड़ा, और सुवर्ण केतकीपुष्पकी शोभाको 'यह धूलि (पराग ) वाली है। इस घृणासे ही छोड़ दिया, 'कॉटोंसे घिरी रहनेसे सुरक्षित होनेसे अजेय है। इस भयसे नहीं छोड़ा 230 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 नैषधमहाकाव्यम्। [ दमयन्तीको शरीर शोमा कमलकोष तथा केतकी पुष्पसे भो क्रमशः अधिक स्निग्ध तथा गौरवर्ण थी ] // 18 // प्रत्यङ्गमस्यामभिकेन रक्षा कर्तुं मघोनेव निजात्रमस्ति / घनश्च भूषामणिमूतिधारि नियोजितं तत् युतिकामुक च / / 16 / / प्रत्यामिति / अस्यां भैम्याम् / अभिकामयत इत्यभिकेन कामुकेन 'कमनः कामनोऽमिका' इत्यमरः / "अनुकाभिकामीकः कमिता" इति निपातनात्साधुः। मबोना इन्मेण प्रत्पर रक्षा कर्तु नियोजितं नियमितं भूषामणीनां वनमणीनां मूर्तिमाकारं पारपतीति तदारि निजावं वनं च तेषां मणीनां पतय एव कार्मुकं मणिध. मुबास्तीव इन्द्रनियोगात भूषामणितत्प्रभाम्याजेन अवरोधरतार्थ बज्रायुध धनुन प्रत्यामावृत्य तिष्ठतीवेत्युस्प्रेक्षा // 19 // ___ इस दमयन्तीमें कामुक इन्द्रने प्रत्येक अङ्गमें (दोषोंसे) रक्षा करनेके लिये भूषणोंमें जड़े दुए हीरा आदि मणियोंके रूपको धारण करनेवाला बज्र और उन मणियोंसे निकलती हुई कान्तिरूप धनुषरूप अपने शखको नियुक्त कर दिया है। [दमयन्तीके भूषणोमें जड़े हुए मणि बहुमूल्य हैं और उनसे चकाचौंध करनेवाली इन्द्रधनुष के समान अनेक रंगोंकी किरण निकल रही है, और वह दमयन्ती सब दोर्षोंसे रहित है ] // 19 // अस्याः सपक्षेकविधोः कचौधः स्थाने मुखस्योपरि वासमाप | * पक्षस्थतावनबहुचन्द्रकोऽपि कलापिनां येन जितः कलापः // 20 // अथासर्गसमाप्तेर्दमयन्त्याश्चिकुरादिपादनखान्तवर्णनमारभते-अस्या इत्यादि / अस्या भैग्याः कचौधः केशपाशः सपक्षः साशः सहृद्भूतश्चैक एव विधुश्चन्द्रो यस्य तस्य सपकविधो: "तृतीयाविषु भाषितपुंस्कं पुंववालवस्य" इति वैकल्पिकः पुंव. नावः / मुखस्योपरि वासं स्थितिमाष, स्थाने युक्तम् / कुतः येन कचौधेन परस्था: गरविष्ठाः स्ववर्याश्च तावन्तो बहवश्चन्द्रका मेचकाः चन्द्राश्च यस्य सोऽपि / 'समी चन्द्रकमेचको' इत्यमरः / चन्द्रपक्षे "शेषाद्विभाषा" इति कप / कलापिनां बर्हिणां कलापो बह जितः अनेकचन्द्रसहायविजयिनः एकचन्द्रविजयस्तदुपर्यवस्थानं च कि चित्रमित्यर्थः // 20 // जिसके समान होनेसे केवल चन्द्र ही जिसका सपक्ष ( पक्षवाला ) हैं, ऐसे दमयन्तीके मुखके ऊपर केश-समूहने निवास किया यह उचित ही है, जिस ( केश-समूह ) ने पंखमें स्थित बहुत चन्द्रक ( चन्द्राकार मैचक च्छवि चिह्न-विशेष, पक्षा०-चन्द्रमा) वाले भी मयूरोंके पुच्छ-समूहको जीत लिया / ( जिस केश-समूहने बहुत चन्द्रमा ( पक्षा० चंद्रक) से युक्त मयूर-पक्षको जीत लिया, उसे एक चंद्रमा ही जिसके पक्षमें हैं, उसके ऊपर रहना सर्वथा उचित ही है / लोकमें भी बहुत पक्षपातियोंवाले ब्यक्तिको जीतनेवालेके लिए एक Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। पक्षपातवाले व्यक्तिका जीतना अति सरल होता है // दमयन्तीके केश-समूहमें भी पुष्ष तथा रत्नजटित चन्द्राकार भूषण (क्लिप..... ) लगे रहनेसे वह मयूरपंखसे भी अधिक शोभित हो रहा हैं ] 20 // अस्या यदास्येन पुरस्तिरश्च तिरस्कृतं शीतरुचान्धकारम् / स्फुटस्फुरद्वङ्गकचच्छलेन तदेव पश्चादिदमस्ति बद्धम् // 21 // अस्या इति / अस्या भैम्याः आस्येनैव शीतरुचा मुखचन्द्रेण यदन्धक्रारं तमः / 'अन्धकारोऽस्त्रियां ध्वान्तम्' इत्यमरः / पुरो अग्रे तिरश्च पाश्वयोश्च तिरस्कृतं तदन्धकारमेवेदं स्फुटं स्फुरन् भङ्गः कौटिल्यं पराजयश्च येषां तेषां कचानां छलेन पश्चादद्धमस्तीत्युत्प्रेक्षा। तिरस्कृतो हि भग्नोस्साहः कचित्पृष्टभागे बद्धस्तिष्ठतीति भावः। इस दमयन्तीके मुख चन्द्रने सामने तथा तिर्छ या पाश्र्थो में जो अन्धकारको हटाया ( पक्षा०-पराजित किया ), वह अन्धकार ही स्फुरित होते हुए टेढ़े ( पक्षा०-पराजित ) केशों के बहानेसे मानो पीछे ( मुखके पीछेके भागमें, पक्षा०-हाथ पीछे करके अर्थात् मुश्क चढ़ाकर ) बँधा हुआ है / [ लोकमें भी पराजित ब्यक्तिके हाथोंको पीठके पीछे करके बाँध देते हैं, वैसे ही मुखसे पराजित अन्धकाररूप केश पीछे चोटी रूपमें बँधे हुए हैं। दमयन्ती के केश कुटिल तथा अत्यन्त काले हैं ] // 21 // अस्याः कचानां शिखिनश्व किन्नु विधि कलापौ विमतेरगाताम् / तेनायमेभिः किमपूजि पुष्पैरभत्सि दत्त्वा स किमधेचन्द्रम् / / 22 / / अस्या इति / अस्या भैम्याः कचानां केशानां शिखिनां बर्हिणश्च कालापौ केशपाशबहभारौ / 'कलापो भूषणे बर्हे तूणीरे सहते कच' इत्यमरः। विमतेमियो विवादाद्विधिमगातां स्वतारतम्यं प्रष्टुमगमतां किं नु। "इणो गा लुकि" इति गादेशः / तेन विधिना अयं केशपाशः एभिः पुष्पैरिति हस्तेन पुरोवर्तिनिर्देशः अपूजि किम् / महतः पूज्यत्वादिति भावः / स शिखिकलापः अर्धचन्द्रं चन्द्रकं गलहस्तं च दत्वा अभर्सि भर्तितः किं महाजनद्वेषिणो नीचस्य शास्यत्वादिति भावः। अर्धचन्द्रस्तु 'चन्द्रके गलहस्ते बाणभेदः' इति विश्वः / शिखिकलापस्य चन्द्रकवत्वं केशपाशस्य तत्कुसुमं ब्रह्मदत्तं शाश्वतमिति भावः / अत्रोत्तरोत्प्रेक्षयोः प्रथमोत्प्रेक्षासापेक्षत्वात् सजातीयसङ्करः // 22 // इस दमयन्तीके केशों के साथ विरोध होने के कारण मयूरके पंख ब्रह्माके पास (निर्णयके लिये) गये थे क्या ? (जो ) उस ( ब्रह्मा ) ने इस केशसमूहकी इन ( दमयन्तीके केशसमूहमें गूथे हुए ) पुष्पोंसे पूजाकी तथा उस (मयूरके पंख) को अर्द्धचन्द्र, (गर्दनिया पक्षा०-अर्द्ध चन्द्राकार चिह्न ) देकर बाहर निकाल दिया क्या ? / [ उत्तम तथा अधम गुणके ज्ञाता मध्यस्थ ब्रह्माने श्रेष्ठ गुणवाले दमयन्तीके केश-समूहके साथ स्पर्धा करनेवाले अधम गुणवाले मयूर-पक्षोंको देखकर श्रेष्ठ गुणवाले दमयन्ती केश-समूह की तो पुष्पोंसे पूजा की तथा अधम गुणवाले मयूर-पंखों को अर्द्धचन्द्र देकर बाहर निकाल दिया / लोकमें Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 नैषधमहाकाव्यम् / भी श्रेष्ठ व्यक्तिके साथ स्पर्धा करनेवाले अधम व्यक्ति को अर्द्धचन्द्र देकर (गर्दनमें हाथ डालकर ) बहिष्कृत कर देते हैं तथा श्रेष्ठ व्यक्ति की पुष्पादिसे पूजा (आदर-सत्कार ) करते हैं / दमयन्तीका केश-समूह मोरके पंखोंसे भी अत्यधिक सुन्दर था ] // 22 // केशान्धकारादथ हश्यफालस्थलाधचन्द्रास्फुटमष्टमीयम् / एतां यदासाद्य जगज्जयाय मनोभुवा सिद्धिरसाधि साधु // 23 // केशेति / केशः केशपाश एवान्धकारस्तस्मात् अथानन्तरं दृश्यो दर्शनार्हः फाल. स्थलं ललाटभाग एवार्धचन्द्रो यस्यास्सा इयं दमयन्ती अष्टमी / तत्राप्यन्धकारानन्तरहश्यार्धचन्द्रत्वात्कृष्णाष्टमी शुक्लपक्षे विपर्ययात्स्फुटमित्युत्प्रेक्षायाम् / कुतः? यस्मान्मनोभुवा जगजयाय एतामासाद्य साधु सिद्धिः जगजयसिद्धिः असाधि साधिता / कृष्णाष्टम्यां जैत्रयात्रायां जयसिद्धिरिति ज्योतिर्विदः। यथाह पितामहः"जयदा विजिगीषूणां यात्रायामसिताष्टमी। श्रवणेनाथ रोहिण्या जययोगो युता यदि // " इति // 23 // __केशरूपी अन्धकारके बाद (अथवा-नोचेके भागमें) सुन्दर दिखलायी पड़ते हुए ललाटरूपी चन्द्रमावाली यह दमयन्ती मानो (कृष्णपक्ष की ) अष्टमी है (क्योंकि कृष्णपक्षमें ही अन्धकार के बाद चन्द्र दृष्टिगोचर होता है, यहाँ केशरूप अन्धकारके बाद ललाट रूप चन्द्र दृष्टिगोचर हुआ है, अतः दमयन्ती कृष्णपक्षकी अष्टमी ही है ) क्योंकि इसे ( दमयन्ती को, पक्षा०-अष्टमी तिथिको ) प्राप्तकर कामदेवने संसारको जीतनेके लिये सम्यक् प्रकारसे सिद्धि को साधा / [अन्य भी व्यक्ति कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथि में मन्त्र-तन्त्रादि को सिद्ध करते हैं। पुष्पं धनुः किं मदनस्य दाहे श्यामीभवत्केसरमेषमासीत् / व्यधाद्विधेशस्तदपि कंधा किं भैमीभ्रवी येन विधिय॑धत्त // 24 // पुष्पमिति / मदनस्य दाहे दाहकाले, पुष्पमेव धनुः श्यामीभवन्तः केसराः किअल्का एव शेषो यस्य तदासीत् किम् / किञ्च ईशोहरतदपि ऋधा कोधेन द्विधा भ्यधात् द्वेधा ज्यभजत् किम् / येन द्विधा विभक्तेन पुष्पेण विधिर्वेधाः भैम्या प्रवी व्यवत्त असृजदित्युत्प्रेक्षा // 24 // ___पुष्पधन्धा ( कामदेव ) के दाहमें पुष्पके धनुष का भी (दाहके कारण) काला पुष्पपरागमात्र शेष रह गया, उसे भी शङ्करजीने क्रोधसे दो टुकड़ा कर दिया क्या ? (कृष्णवर्ण परागमात्रावशिष्ट एवं द्विधा खण्डित ) जिससे ब्रह्माने दमयन्तीके दोनों भौंहोंको बनाया / / [ दमयन्तीकी भौहें कृष्णवर्ण तथा कामचापके तुल्य जगन्मोहक है ] // 24 // भ्रूभ्यां प्रियाया भवता मनोभूचापेन चापे धनसारभावः / निजां यदप्लोषदशामपेक्ष्य संप्रत्यनेनाधिकवीर्यतार्जि / / 25 / / अभ्यामिति / किन प्रियायां भैम्या:भ्रभ्यां भवताभ्रयुगत्वेन परिणमता मनो. भुवनापेन धनसारमा छस्थिरांशत्वं कर्परत्वं च / 'सोरो वले स्थिरांशे च / अथ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः मर्ग:। 563 कर्पूरमस्त्रियाम् / घनसार' इति चामरः / आपे प्राप्तः / आप्नोतेः कर्मणि लिट् / यद्यस्मात्, निजामप्लोषदशामपेक्ष्य अदाहावस्थात इत्यर्थः / संप्रत्यनेन मनोभूचापेन अधिकवीर्यता अधिकपराक्रमोऽपि अर्जि प्रापि। कर्मणि लुक्छ / 'वीय परोक्रमे रेतसि' इति वैजयन्ती दग्धस्यापि स्मरचापस्य तद्भभूतस्य पूर्वाभ्यधिकपराक्रमदर्शनान्नूनं घनसारभावः प्राप्त इत्युप्रेक्षा // 25 // ___ प्रिया दमयन्तीके भ्रूद्वय बनते हुए काम-धनुषने धनुषमें दृढ़सारता (पक्षा०-कर्पूरभाव) को प्राप्त कर लिया, क्योंकि अपने नहीं जलनेके भावको देखकर इस समय (जलनेपर ) अतिशय पराक्रमको प्राप्त किया। [ कामचाप जलनेके पहलेकी अपेक्षा इस समय अर्थात् जलनेके बाद केशरमात्रावशिष्ट एवं खण्डित होने के बाद दमयन्तीका भ्रयुग बनकर जगविजयी होनेसे अधिक वीर्यशाली हो गया हैं / [ कर्पूर भी जलनेसे पहलेकी अपेक्षा जलने के बादमें अधिक शीतकर एवं सुगन्धियुक्त होता है / ] // 25 // स्मारं धनुर्यद्विधुनोज्ज्ञितास्या यास्येन भूतेन च लक्ष्मरेखा। एतद् भ्रवौ जन्म तदाप युग्मं लीलाचलत्वोचितबालभावम् / / 26 / / स्मारमिति / यत्स्मस्येदं स्मारं धनुः / अस्या भैम्या आस्येन भूतेन आस्यभावं गतेन विधुना चन्द्रेणोज्झिता, या लक्ष्मरेखा कलङ्करेखा च तयुग्मं तदुभयं कर्तृ। लीलाचलस्वयोर्विलापचञ्चलत्वयोरुचितो योग्यो बालभावः केशत्वं बवयोरभेदामिक्षशुस्वं च यस्मिन् जन्मनि तत्तथोक्तम् / एतस्या भैम्या ध्रुवौ जन्यभ्ररूपेणोत्पत्तिमाप। एतस्या मुखमकलङ्कचन्द्रः ध्रुवौ च स्मरधनुश्चन्द्रलक्ष्मणोरपरावतार इत्युत्प्रेक्षा // 26 // जो कामदेवका धनुष है यह तथा इस दमयन्तीका मुख बने हुए चन्द्रमाके द्वारा छोड़ा गया कलङ्क- इन दोनोंने विलाससे चञ्चलताके ( अथवा-विलास और चञ्चलताके ) योग्य केशभाववाले ( पक्षा०-बचपनवाले ) जन्मको प्राप्त किया है / ( एक तो मदन-दाहमें दग्ध उसका धनुष, तथा दूसरा दमयन्तीका मुख बनने के लिए चन्द्रमाने जो अपनी कलङ्करेखा छोड़ दी वह-इन दोनोंने ही दमयन्तीके दो भ्र रूपमें जन्म लिया है, जिस जन्ममें (भ्रूपक्षमें ) बिलास एवं चञ्चलतायुक्त केश हैं तथा ( जन्म पक्षमें ) बिलास एवं चञ्चलतायुक्त बचपन है / दमयन्तीका भ्रदय दग्ध काम-धनुष तथा चन्द्रकलङ्कके समान कृष्णवर्ण, विलासयुक्त एवं कामोत्पादक है ] // 26 // इपुत्र येणैव जगत्त्रयस्य विनिर्जयात्पुष्पमयाशुगेन / शेषा द्विवाणी सफलीक्रतेयं प्रियादगम्भोजपदेऽभिषिच्य / / 20 / / इष्विति / पुष्पमायाशुगेन कामेन का इपुत्रयेण करणेन जगत्त्रयस्य उभयप्राप्ती कर्मणीति, षष्ठी / विनिर्जयात् शेषा शिष्टा विष्वन्यस्मिन्नपयुक्त' इति वैजयन्त्यां शेषशब्दस्य विशेष्यलिङ्गता। इयं द्विवाणी बाणद्वयं समाहारे द्विगोर्डीप् / इयमिति हस्तनिर्देशः प्रियाया दृशोरेवाम्भोजयोः पदे स्थाने अभिषिच्य सफलीकृतेत्युत्-प्रेक्षा कुसुमबाणपरिणतिरेवास्थाष्टिषष्टिरन्ययमेतत्सकलयुवलोकयोभकत्वमिति भावः // Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / पुष्पवाण (कामदेव ) ने तीन वाणोंसे ही तीनों लोकोंको जीव लेनेसे शेष बचे हुए दो बाणोंको प्रिया दमयन्तीके नेत्रकमलके पद पर अभिषिक्त कर सफल किया है / [ कामदेवने तीन बाणोंसे तीन लोकों पर विजय पाकर शेष दो बाणों की व्यर्थता का निवारण करने के लिये उन्हें प्रियाके नेत्रेकमलपदपर प्रतिष्ठितकर सार्थक किया और तीन बाणोंसे तीनों लोकों पर विजय पाने की अपेक्षा दमयन्तीके नेत्र बने हुए दो बाणोंसे ही तीनों लोकोंपर विजय पाना इनकी अधिक सफलता है ] // 27 // सेयं मृदुः कोसुमचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टिग्रहणाहमध्या / तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुका मोहाय या दृष्टिशरोघवृष्टिम || 2 || सेयमिति / मृदुः कोमला मुष्टिग्रहणाहं हस्तेन ग्राह्य मध्यमवलग्नं लस्तकंच यस्यास्सा सेयं दमयन्ती स्मरस्य कौसुमी कुसुममयी चापयष्टिधनुदण्ड इत्युत्प्रेक्षा। कुतः ? येयं नोऽस्माकं मोहाय मूच्र्छनाय श्रीमतः शोभनादपाङ्गान्मुक्तां दृष्टीनामेव शराणामोघस्य वृष्टिं तनोति करोति, सा कथं न कामचापयष्टिरिति भावः // 28 // मध्यमें मुट्ठीसे ग्रहण करने योग्य अर्थात् अतिशय कृश कटिवाली (धनुषपक्षमें-मुट्ठीसे ग्रहण करने योग्य मध्य भागवाली ) कोमल (कोमलाङ्गी, धनुषपक्षमें-झुकनेवाली होनेसे नम्र ) कामदेवकी धनुर्लता है, जो यह ( दमयन्ती पक्षा०-धनुर्लता) हम लोगोंको मोहित करने के लिए शोमा-सम्पन्न नेत्रप्रान्तसे दृष्टि ( कटाक्ष ) रूपी बाण समूहोंकी वृष्टिको विस्तृत कर रही है। [ जैसे कामदेवकी मध्यमें पतली मुट्ठीसे ग्राम नम्र धनुर्लता पुष्पवा!की वर्षा कामियोंको मोहित करने के लिये करती है, उसी प्रकार कृश कटिवाली मृदु यह दम. यन्ती हमलोगोंको मोहित करने के लिए कटाक्ष वर्षा कर रही है ] // 28 // आपूर्णितं पदमलक्षिपद्म प्रान्तद्युतिश्वत्यजितामृतांशु / अम्या इवास्याश्चदिन्द्रनीलगोलामलश्यामलतारतारम् || 29 / / आपूर्णितमिति / आधुणितं प्रचलित पक्ष्मलं पक्ष्मवत् / "सिध्मादिभ्यश्च" इति लच / प्रान्तद्युतेः कनीनिकाप्रान्तकान्तेः, श्वैत्येन धावल्येन जितामृतांशु अवधीरितचन्द्रं चलत् इन्द्रनीलस्य गोलं मण्डलमिवामला श्यामला तारा स्थूला तारा कनीनिका यस्य तदस्या अक्षिपद्ममस्या अक्षिपद्ममिव असदृशमित्यर्थः / अनन्वयालङ्कारः / 'एकस्यैवोपमानोपमेयत्वेनानन्वयो मतः' इति लक्षणात् // 29 // ___ घुरता हुआ, श्रेष्ठ बरौनियोंसे युक्त, किनारे की शोभाकी वेतिमासे अमृतकिरण ( चन्द्रमा ) को जीतनेवाला और चञ्चल इन्द्रनील मणिके समान गोल निर्मल श्यामवर्ण बड़ी पुतलीवाला इस दमयन्ती का नेत्रकमल इस ( दमयन्तीके नेत्र कमल ) के समान है अर्थात् उक्त मुखवाले दमयन्तीके नेत्रकमलको उपमा संसारमें कहीं नहीं है // 29 // कर्णोत्पलेनापि मुखं सनाथं लभेत नेत्रद्युतिनिर्जितेन / यद्येतदीयेन ततः कृतार्था स्वचक्षुषी किं कुरुते कुरङ्गी / / 30 / / Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 365 कणेति / नेत्रगुत्या नेत्रकान्स्या निर्जितेनैतदीयेन भैम्याः संबन्धिना कर्णोत्पले. नापि सनाथं सहकृतं मुखं लभेत यदि, ततः कृतार्था कुरङ्गी स्वचक्षुषी किंकुरुते कद करोतीत्यर्थः। स्वमुखस्य तान्नेनसानाध्यं तावदास्तां तन्नेत्राभिभूतकोत्पल. सानाय्येऽपि तावत्यैव यत्या स्वचषी उपेक्षेत / तदपि दुर्लभमिति भावः // 30 // ___ मृगी दमयन्तीकी नेत्रशोमासे पराजित इस दमयन्तीके कर्णोत्पल ( कानोंके भूषण कमल ) से भी सनाथ ( युक्त, पक्षा०-नाथ सहित ) मुखको यदि पा जाय तब कृतकृत्य हुई वह मृगी अपने नेत्रोंको कदथित अर्थात् उपेक्षित कर देगी ( अथवा-नेत्रोंको क्या करेगी अर्थात् उसका त्याग ही कर देगी)। [दमयन्तीके नेत्रोंकी समानता करना तो मृगीके नेत्रों के लिये बहुत दूर की बात है, दमयन्तीके नेत्रोंसे पराजित कर्णभूषणरूप कमलोंकी भी समानता नहीं कर सकती हैं, अतः यदि उन कर्णभूषणभूत कमलोंसे भी उनका मुख सनाथ हो जाय तो वे अपनेको कृतकृत्य समझकर नेत्रोंकी उपेक्षा कर देंगी ] // 30 // त्वचः समुत्सायें दलानि रीत्या मोचात्वचः पञ्चषपाटनानाम् / सारैहोतविधिरुत्पलौघादस्याम दीक्षणरूपशिल्पी // 31 // स्वच इति / बिधिर्विधाता मोचारवचो रम्भारवचः। 'रम्भा मोचांशुमत्फला'इस्यमरः / पञ्च षड् वा पञ्चषाणि / “संख्ययाव्यय" इत्यादिना बहुधीहौ / “बहुव्रीही संख्येय" इति समासन्तो डच / तेषां पाटनानां विदलनानां रीत्या प्रकारेण तावत्पाटयित्वेत्यर्थः / त्वच एव दलानि समुत्सार्य पञ्चषाणि बाह्यावरणान्यपनी. येत्यर्थः / ततो गृहीतैस्तथोत्पलौघाच गृहीतैस्सारैः सितासिवर्णैर्लावण्यद्रव्यैः अस्यां दमयन्त्याम् ईक्षणरूपशिल्पी अक्षिसौन्दयंनिर्माता अभूदित्युप्रेक्षा // 31 // ब्रह्मा केलेके छिलकेसे क्रमशः पांच या छ छिलकों और कमल-पुष्पोंसे क्रमशः पांच या छः पत्रोंको अलग कर केलेसे तथा कमल-समूहसे लिये गये सारभूत वस्तुओंसे इनके नेत्रोंको रमणीय बनानेमें कलाकार बन गये / [ब्रह्माने इस दमयन्तीके नेत्रोंके गौर वर्णको केलेके पांच-छः छिलकोंको अलगकर उसके अन्तःसारसे तथा कमलके बाहरी पांच-छः पत्तों ( दलों) को अलगकर दमयन्तीके नेत्रोंकी नीलिमाको बनाकर कुशल कलाकार हो गये / दमयन्तीके नेत्र कदलीगर्मके समान गौर वर्ण तथा कमलपत्रके समान नीलवर्ण है / / चकोरनेत्रैणगुत्पलानां निमषयन्त्रेण किमेष कष्टः। सारः सधोद्वारमयः प्रयत्नैर्विधातमेतत्रयने विधातः / / 32 / / चकोरेति / विधातुरेतन्नयने विधातुं प्रयत्नैः कर्तृभिः चकोरनेत्रयोरेणदृशोर्मूगाणोः उत्पलानां च सुधोद्गारमयोऽमृतनिष्यन्दमयः। एषोऽग्रे दृश्यमानः सारो रसो निमेषो निमीलनं तेनैव यन्त्रेण निष्पीडनसाधनेन कृष्टः आकृष्टः किमित्युत्प्रेक्षा इस दमयन्तीके नेत्रोंको बनानेके लिये ब्रह्माके प्रयत्नोंने अर्थात् ब्रह्माने प्रयत्नपूर्वक चकोरके नेत्र, मृगीके नेत्र तथा कमलोंके अमृतका झरना रूप सार ( श्रेष्ठ द्रव्य ) निमेषरूपी Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / बन्न ( कोल्हू ) से खींचा (पेरकर निकाला ) है क्या ? [चकोरका नेत्र चन्द्रिकाका पान करनेसे, हरिणके चन्द्रमाके अङ्कमें निवास करनेसे तथा उत्पलका चन्द्रवंशी होनेके कारण रात्रिमें चन्द्रामृत-सम्बन्ध होनेसे उसके श्रेष्ठवस्तु का आकर्षण करना उचित ही है / लोकमें मी गन्ने आदिके सारभूत रसको कोल्हूमें पेरकर यत्नपूर्वक निकालते हैं दमयन्तीके नेत्र चकोरनेत्र हरिणनेत्र तथा कमलसे भी श्रेष्ठ हैं ] // 32 // ऋणीकृता कि हारणीमिरासीदस्याः सकाशान्नयनद्वयश्रीः / भूयोगुणेयं सकला बलाद्यत्ताभ्योऽनयाऽलभ्यत विभ्यतीभ्यः / / 33 / / ऋणीकृतेति / हरिणीमिरस्या दमयन्त्याः उत्तमर्णाया इति भावः। सकशाब. यनयस्य श्रीः शोभा ऋणीकृता ऋणत्वेन गृहीतासीत् किमित्युत्प्रेक्षा। यद्यस्मात् , अनया मेम्या बिभ्यतीभ्यः त्रस्यन्तीभ्यः, त्रासावस्थायां शोभातिशयः। अतिभीरुणा निःशेषमणं दीयत इति भावः / ताभ्यो हरिणीभ्यो भूयोगुणा द्वित्रिगुणेयं नयनशोभा सकला निश्शेषा बलादलभ्यत लब्धा // 33 // हरिणियोंने इस दमयन्तीके पाससे दोनों नेत्रोंकी कान्तिको ऋण लिया है क्या ? क्योंकि इस दमयन्तीने डरती हुई उन मृगियोंसे अनेक गुणित (कई गुना) व्याज सहित नेत्रद्वयकी शोभाको बलात्कारसे ग्रहण किया है। [ लोकमें भी प्रसिद्धि है कि उत्तमर्ण (ऋण दाता ] ऋणग्रहीताको ऋणरूपमें धनादि देकर बादमें डरते हुए ऋणग्रहीतासे ब्याजसहित कई गुना मूलधन बलात्कारपूर्वक ले लेता है। हरिणीके नेत्रोंसे दमयन्तीके नेत्रोंकी शोभा अनेक गुनी उत्तम है ] // 33 // दृशौ किमस्याश्चपलस्वभावे न दूरमाक्रम्य मिथो मिलेताम् / न चेत्कृतः स्यादनयोः प्रयाणे विध्नः श्रवः कूपनिपातभोत्या / / 34 // हशाविति / चपलस्वभावे चञ्चलशीले, अस्या भैग्याः दृशौ दूरमाक्रम्य अम्बुपर्यन्तं गत्वेत्यर्थः। मिथो न मिलेतां न सङ्गच्छेयाताम्, काकुः / मिलतेलिकि ततस्तामादेशः / किं त्वनयोईशोः प्रयाणे दूरगमने श्रवसी श्रोत्रे एव कूपाविति रूपकम् / तयोर्निपातानीत्या का विघ्नः कृतो न स्याच्चेत् / अत्र दृशोः कर्णान्तविश्रान्तयोः कूपपातभयहेतुकरवोत्प्रोक्षारूपकोज्जीवितेति सङ्करः॥३४॥ इस दमयन्तीके चञ्चल स्वभाववाले ( कर्णान्त विशाल) नेत्र दूर तक जाकर परस्परमें क्या नहीं मिल जाते ? अर्थात् अवश्य मिल जाते, किन्तु इन नेत्रोंके जानेमें कान-कृएमें गिरनेका भय बाधा नहीं करता [ दमयन्तीके नेत्र कानतक पहुँचे हुए हैं तथा चञ्चल स्वभाव वाले हैं / अतः वे और भी आगे बढ़कर परस्परमें (शिरके पिछले भागमें जाकर ) अवश्य मिल जाते, किन्तु कूपवत् गम्भीर कानमें गिरनेके भयसे वे आगे नहीं बढ़कर वहीं रुक गये हैं / ] जिस प्रकार कूएमें गिरनेके भयसे अन्य मी कोई व्यक्ति आगे नहीं बढता Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। उसी प्रकार दमयन्तीके नेत्रोंने भी किया है / दमयन्तीके नेत्र कर्णान्त विशाल तथा चल है॥३४॥ केदारभाजा शिशिरप्रवेशात्पुण्याय मन्ये मृतमुत्पलिन्या ! जाना यतस्नत्कुसुमेक्षणेयं यतश्च नत्कोरकदृक् चकोरः // 35 / / केदारेति / केदारः क्षेत्रविशेषः पर्वतविशेषश्च / तं भजतीति तद्भाक। 'केदारः पर्वते शम्भी क्षेत्रभेदालवालयोः' इति विश्वः। तयोत्पलिन्या शिशिरप्रवेशात शिश. रतुप्रवेशाद्धेतोः पुण्याय धर्माय मृतं मने। भावे तः। इत्युप्रेक्षायाम् / यतो यस्मात् केदारमरणादियं भैमी तस्या सत्पलिन्याः कुसुमे पुष्पे एव ईचणे यस्याः सा जाता / यतश्चकोरश्च तत्कोरकावेव शो यस्य स जातः। केदारक्षेत्रमरणादुत्तमजन्मलाभ इत्यागमः // 35 // खेत या आलबाल अर्थात् थालेमें ( पक्षा०-केदारेश्वर नामक शङ्करजीके समीपमें ) स्थित कमलिनी शिशिर ऋतु (पक्षा०-ठंडे जल) में प्रवेश करनेसे पुण्य अर्थात् धर्मकार्यके लिये मर गयी है, क्योंकि उस कमलिनीका पुष्प इस दमयन्तीका नेत्र हुआ और उस कमलिनी का कोरक चकोरका नेत्र हुआ अर्थात् दमयन्ती का नेत्र कमलिनीके पुष्पके समान तथा चकोरका नेत्र कमलिनीके कोरकके समान हुआ। [विना अधिक पुण्यके कमलिनीपुष्प तथा कमलिनी-कोरकको क्रमशः दमयन्ती तथा चकोर का नेत्र बनना असम्भव है / कमलिनी केदार ( क्यारी पक्षा०-केदार क्षेत्र ) में रहती तथा शिशिर ऋतु ( पक्षा - जल या ठण्डे) में नष्ट हो जाती है, अतः उसने बड़ी तपस्या की है, जिससे कारण उसके पुष्प तथा कोरकको दमयन्ती तथा चकोरके नेत्र बननेका शुभ फल मिला हुआ है। कोर क की अपेक्षा पुष्पकी शोभा अधिक होती है, अतः 'दमयन्तीके नेत्र चकोर-नेत्रसे भी अधिक सुन्दर है' यह भी ध्वनित होता है ] // 35 // नासादसोया तिलपुष्पतूण जगत्त्रयन्यस्तशरत्रयस्य / श्वासानिलामोदभरानुमेयां दधद्विवाणी कुसुमायुधस्य / / 26 / नासेति / अमुष्या इयमदसीया, नासा नासिका, जगत्त्रये न्यस्तं प्रयुक्तं शरत्रयं यस्य तस्य कुसुमायुधस्य सम्बधिनी निश्वासानिलस्य निश्वासमारुतस्य आमोदभरेण सौरभातिशयेन अनुमेयां द्विबाणी शिष्टं वाणद्वयम् / समाहारे द्विगोर्डीप / दधत् तिलपुष्पमेव तूणमिषुधिरित्युत्प्रेक्षा // 36 // तीन लोकों को जीतने की भावनासे तीन बाणों का प्रयोग कर देनेपर कुसुमायुध ( कामदेव ) के बचे हुए दो बाणों को अपने अन्दर धारण करती हुई, इस दमयन्तीकी नाक ही तिलपुष्पोंसे निर्मित मानो तूणीर ( तरकस ) है / क्योंकि इसकी नाकसे निश्वास पवन की अत्यन्त खुशबू निकल रही है इसीसे पता चलता है कि कामदेवने अपने बचे हुए दो पुष्प-बाणोंको इसी दमयन्तीकी नाक के अन्दर रखा है। यदि ऐसा न होता तो इसकी निश्वास वायुसे इतनी सुगन्धि नहीं निकलती // 36 // Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 नैषषमहाकाव्यम् / पन्धूकबन्धूमवदेतदस्या मुखेन्दुनानेन 'सहोजिहानम् / रागश्रिया शैशषयौषनीयां स्वमाह सन्ध्यामधरोष्ठलेखा // 37 / / बन्धूकेति / अस्या भैम्याः अधरोष्ठलेखा अनेन मुखेन्दुना सहोज्जिहानमुखम् / बन्धकबन्धूभवत् / बन्धुजीवकुसुमसमीभवत् एतपुरोवर्ति स्वमात्मानम् / 'आत्मनि स्वम्' इत्यमरः। रागश्रिया भारुण्यसम्पदा, शैशवयौवनयोरेतत्सम्ब. धिनी सन्ध्यामाह / अहोरात्रसन्धाविव वयःसन्धी भवा सन्ध्या स्वयमेवेति स्वरागसमृद्ध्या कथयति इवेत्युप्रेक्षाग्यअनाप्रयोगाम्या // 37 // इस दमयन्ती की यह नीचेकी ओष्ठरेखा अर्थात् ओष्ठ इस (सामने दृष्टिगोचर होते हुए ) मुख चन्द्रके साथ उत्पन्न होते ( उदय प्राप्त करते ) हुए राग ( लालिमा) की शोभासे दुपहरिया फूलके समाज होते हुए ( अपनेको बाल्य और यौवनके मध्यवर्तिनी) सन्ध्याको कहती है / [ दमयन्ती का बचपन समाप्त हो रहा है तथा युवावस्था प्रारम्भ हो रही है, और इस समय उसके अधरोष्ठ दुपहरिया फूल के समान लाल हो रहे हैं तथा मुख चन्द्रमाके समान हो रहा है / जिस प्रकार दिन और रात्रिके बीचमें लाल वर्ण की सन्ध्या होती है तथा उसी समय चन्द्रोदय भी होता है / अतः यहां बचपन और यौवनावस्थाको दिन-रात, मुखको चन्द्रमा तथा अधरोष्ठ रेखा को सन्ध्या होना बतलाया गया है ] // 37 // अस्या मुखेन्दोरधरः सुधाभुर्विम्बस्य युक्तः प्रतिविम्ब एषः / तस्याथ वा श्रीमभाजि देशे संभाव्यमानास्य तु विद्रुमे सा // 18 // अस्या इति / अस्याः भैम्याः एषोऽधरः अधरोष्ठः मुखेन्दोः सुधायाममृते भव. स्याविर्भवतीति सुधाभूः, बिम्बस्य बिम्बफलस्य प्रतिबिम्बः सदृशो युक्तः। न तु च बिम्बफलात्कश्चिद्विशेषोऽस्तीत्यर्थः। तस्य बिम्बफलस्य श्री: शोभा, द्रमभाजि द्रुमपति देशे सम्भाग्यमाना / अस्याधरस्य स्वसौ श्रीः विद्रुमे प्रवाले विगतद्रुमे च सम्भाव्यत इत्यर्थः / 'विद्रुमः पुंसि प्रवालं नपुंसकम्' इत्यमरः। विद्रुमसमश्रीरित्यर्थः // 38 // इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमाके अमृतमें उत्पन्न अधरोष्ठ बिम्बफलके सदृश है यह ठीक है, या काकुसे ....."बिम्बफलके सदृश है ? अर्थात् नहीं ( क्योंकि अधरोष्ठ मुखचन्द्रसुधामें उत्पन्न हैं और बिम्बफल सुधामें उत्पन्न नहीं है, अत एव यह इसके अधरोष्ठके सदृश कदापि नहीं हो सकता ) / इस बिम्बफलकी शोभा वृक्षस्थानमें (पक्षा०-जङ्गली देशमै ) सम्भावित हैं और इसकी ( दमयन्तीके अधरोष्ठकी ) शोभा विद्रुम अर्थात् मूगेमें पक्षा०वृक्षरहित स्थान अर्थात् नगरमें है, अतएव जङ्गली देशमें उत्पन्न होनेवाला नगरमें उत्पन्न होनेवालेकी समानता कदापि नहीं कर सकता / [ पाठ भेदसे-इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमें स्थित यह अधरोष्ठ अमृतमें उत्पन्न बिम्बफलका प्रतिबिम्ब ( सदृश ) है यह उचित है; श्वेतवर्ण मुखरूप चन्द्रमें सुधोद्भव अधररूप बिम्बफलका प्रतिविम्बित (पक्षा०-सदृश) 1. 'सहोजिहाना' इति पाठान्तरम् / Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 366 होना उचित ही है / अथवा-बिम्बफल सुधोत्पन्न नहीं होनेसे मुखचन्द्रमें स्थित सुधाखनि अधरोष्ठके समान कदापि नहीं हो सकता है। ('तो फिर अधरोष्ठ का सादृश्य कहां मिलेगा' इस शङ्काको दूर करनेके लिये कहते हैं)। अथवा-बिम्बफलकी शोभा वृक्षके आश्रय करनेवाले (लता) स्थानमें हैं बिम्बफल सुधोत्पन्न होनेपर भी वृक्षदेशस्थ होनेसे मुखचन्दस्थ अधर की शोभा नहीं कर सकता और विद्रुम अर्थात मूगेमें (पक्षा०-वृक्षहीन स्थानमें) इसके अधरोष्ठकी शोभा होना सम्भव है, पर यह भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रवाल अर्थात् मूगा वृक्ष रहित स्थानमें उत्पन्न होनेके कारण अधरोष्ठके सदृश होनेपर भी सुधोत्पन्न नहीं होनेसे अधरोष्ठके सदृश नहीं हो सकता। दमयन्ती का अधर बिम्बफल तथा मूगेसे भी अत्यन्त सुन्दर है ] // 38 // जानेऽतिरागादिदमेव विम्बं बिम्बस्य च व्यक्तमितोऽधरत्वम् / द्वयोविशेषावगमाक्षमाणां नाम्नि भ्रमोऽभूदनयोजनानाम् / / 36 / / जान इति / अतिरागादतिलौहित्याखेतोः इदं पुरोवत्येव बिम्बं बिम्बनामाह बिम्बस्य च इतोऽस्मादधरत्वमपकृष्टत्वमोष्ठत्वं च व्यक्तं तदेवाधरनामाहं प्रतीयत इत्यर्थः / एवं स्थिते द्वयोरनयोरधरबिम्बयोर्नाम्नो विषये विशेषावगमे इदमस्य नामेति निर्धारणे अक्षमाणामसमर्थानां जनानां भ्रमोऽभूत् / जाने जानामीत्युत्प्रेक्षा। अत्यधिक लालिमा होनेसे यही ( दमयन्तीका पुरीदृश्यमान ओष्ठ हो) बिम्बफल है, बिम्बफल का इससे अर्थात् इस दमयन्तीके ओष्ठसे (दमयन्तीके ओष्ठकी अपेक्षा लालिमा कम होनेसे ) अधरत्व ( नीचापन ) अर्थात् हीनता स्पष्ट है / इन दोनों (दमयन्तीका ओष्ठ और निम्बफल) के विशेष की जाननेमें असमर्थ या मुग्ध लोगोंको नाममें भ्रम हो गया है / ( अथवा-विशेषको जाननेमें असमर्थ लोगोंको इन दोनोंके नाममें भ्रम हो गया।) [ यह नियम है कि उपमान और उपमेयमें उपमान अधिक गुण तथा उपमेय कम गुणबाले होते हैं, अतः अधिक लालिमा होनेसे दमयन्तीके ओष्ठको उपमान एवं कम लालिमा होनेसे बिग्बफल उपमेय होना उचित है, किन्तु दोनोंके गुणों के तारतम्य नहीं समझने वाले लोगोंने दमयन्ती के ओष्ठको उपमेय मानकर अधर (बिम्बफलसे हीन ) और बिम्बफलको उपमान मान लिया; बस, यही कारण है कि लोकमें भी दमयन्ती का ओष्ठ 'अधर' कहलाने लगा / वस्तुतः में दमयन्तीके ओष्ठमें बिम्बफलसे भी अधिक राग (लालिमा, पक्षा०-अनुराग) है ] // 39 // ! मध्योपकण्ठावधरोष्ठभागौ भातः किमप्युच्छचसितो यदस्याः। तत्स्वप्नसंभोगवितीर्णदन्तदंशेन कि वा न मयापराद्धम् // 40 // मध्येति / यद्यस्मात् , अस्याः सम्बन्धिनी मध्यस्याधरमध्यप्रदेशस्य उपकण्ठौ सन्निहितौ अधरोष्ठस्य भागौ तदुभयपार्वे इत्यर्थः। किमप्युच्छ्रुसितौ किंचिदु. च्छूनौ भातः स्फुरतः / तत्तस्मात् , स्वप्नसम्भोगे वितीर्णो दत्तो दन्तदंशो दन्तक्षतं येन तेन मया नापराद्धं किं वा / स्वप्ने स्वकृतदन्तक्षतमेतदित्युत्प्रेक्षा // 40 // Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / (इस दमयन्तीके अधरोष्ठके ) मध्यभागके समीपवर्ती, कुछ सूजे हुए अर्थात् कुछ ऊँचे उठे हुए दोनों अधरोष्ठ जो शोभायमान हो रहे हैं, सो स्वप्नमें सम्भोगकालमें ( अधरपान करते समय ) दांतोंसे काटनेवाले मैंने ( अथवा-स्वप्न-सम्भोगकालमें दांतोंसे काटनेसे मैंने अपराध नहीं किया है क्या ! अर्थात् अवश्यमेव अपराध किया है / [ दमयन्तीके अधरोष्ठके दोनों प्रान्त स्वभावतः कुछ ऊँचे उठे हुए हैं, यह सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभ लक्षण है; किन्तु नल उस उठे हुए अधर-प्रान्तोंको स्वप्नकालीन सम्भोग में किये गये दन्तदंशन-जन्य समझकर अपना अपराध मानते हैं। दन्तदंशन करनेपर उस स्थानका शोथयुक्त होना सर्वानुभवसिद्ध हैं ] // 40 // विद्या विदर्भन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति कत्यन्तरभेदभाजः / इतीव रेखाभिरपश्रमस्ताः संख्यातवान् कौतुकवान्विधाता / / 41 // विद्या इति / कौतुकवान् विनोदी विधाता विदर्भेन्द्रसुतावा अधरोष्ठे कति विद्या अन्तरभ्यन्तरे अभेदभाजः भेदरहिताः सत्यो नृत्यन्ति विहरन्ति इति बुभुत्सयेति शेषः, इतिना गम्यमानार्थवादप्रयोगः। अपश्रमः श्रमरहितः सन् ताः विद्या रेखाभिः संख्यातवानिव गणितवान् किमित्युत्प्रेक्षा। अन्यथा वृथा रेखासृष्टिः स्यादिति भावः॥४१॥ ____ दमयन्तीके अधरोष्ठपर भेदोपभेदसहित कितनी विद्याएँ नाचती हैं अर्थात् दमयन्ती कितनी विद्याओं को जानती है', इस विषयमें कौतुक युक्त ब्रह्माने रेखाओंसे कामरहित होकर अर्थात् सरलतापूर्वक ( दमयन्तीकी विद्याओंको) गिना। [ दमयन्तीके अधरोष्ठपर जो रेखाएं हैं, वे दमयन्तीको भेदोपभेद सहित विद्याओंकी संख्या-सूचक चिह्न है अर्थात् दमयन्ती इतनी विद्याओं में निपुण थी / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी की गणना करते समय विस्मरण न होने के लिये रेखाओंके द्वारा सरलतापूर्वक उसे गिन लेता है ] // 42 / / संभुज्यमानाद्य यथा निशान्ते स्वप्नेऽनुभूता मधुराधरेयम् / असीमलावण्यरदच्छदेयं कथं मयव प्रतिपद्यते वा / / 42 // संभुज्यमानेति / इयं भैमी, अद्य मया निशान्ते निशावसाने अपररात्र इत्यर्थः / तत्कालस्वप्नस्य सत्यत्वादिति भावः / स्वप्ने संभुज्यमाना मधुराधरा मनोज्ञाधरा सत्यनुभूता दृष्टा मयैव इत्थमनेन प्रकारेण स्वप्नविकारेणैव असीमलावण्यो रदच्छदो दन्तच्छदो यस्याः सा सती कथं वा प्रतिपद्यते दृश्यते चित्रमित्यर्थः स्वप्नदृष्टस्यार्थस्य जागरे सत्यसंवादादाश्चर्यम् // 42 // प्रातःकालमें ( अथवा-गृहमें ) इसके साथ सम्भोग ( पक्षा०-इसका आस्वादन ) करते हुए मैंने मधुर ( मीठे-मीठे) अधरोष्ठवाली अनुभव किया ( पक्षा०-खाया ), उसे इस समय अनन्त ( बेहद ) सौन्दर्ययुक्त ओष्ठवाली इसे मैं कैसे देख रहा हूँ या प्राप्त कर रहा हूँ ? यह आश्चर्य है। [ स्वप्नमें देखी या पायी गयी वस्तु प्रायः प्रत्यक्षमें असत्य हुभा करती हैं, मतः इसे मैंने स्वप्नमें जैसा मधुर रसयुक्त अधरोठवाली अनुभव किया था, इस Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 371 समय भी वैसी ही इसे पा रहा हूँ, यह आश्चर्य है / अथवा प्रातःकाल (गौओंको खोलनेके समयमें ) देखा गया स्वप्न प्रायः सत्य होता हैं, ऐसा ज्योतिषशास्त्रका सिद्धान्त है, अतः इस दमयन्तीको जैसा मैंने स्वप्न में देखा, वैसा ही इस समय प्रत्यक्ष में प्राप्त कर रहा हूँ, यह आश्चर्य है / स्वप्नदृष्ट वस्तुको उसी रूपमें जागते हुए भी प्राप्त करनेपर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है / पक्षा०-जो अत्यन्त मधुकर ( मीठा) है, वह ओठ अत्यधिक नमकीन है, यह विरोध होना आश्चर्यजनक है, विरोध का परिहार 'जो अत्यन्त मधुर है, वह अत्यधिक सौन्दर्ययुक्त है, अर्थ करने से होता है ] // 42 // यदि प्रसादीकुरुते सुधांशोरेषा सहस्रांशमपि स्मितस्य / तत्कौमुदीनां कुरुते तमेष निमित्य' देवः सफलं स' जन्म || 43 / / यदीति / एसा भैमी, स्मितस्य निजमन्दहासस्य सहस्रांशं सहस्रतमांशमपि / वृत्तिविषये संख्याशब्दस्य पूरणार्थत्वं त्रिभागवत् / सुधांशोः प्रसादीकुरुते यदि दद्या. च्चेदित्यर्थः / तत्तर्हि स देवः सुधांशुः कौमुदीनां स्वचन्द्रिकाणां जन्म / तमेव स्मितलेशमेव निमित्य स्वकौमुदीषु निक्षिष्य "डुमि प्रक्षेपणे" इति धातोः समासे क्त्वो ल्यबादेशः / सफलं कुरुते / यथा बिन्दुमात्रगङ्गाजलमिश्रणेनान्यजलं भवति तद्दिति भावः / अत्र कौमुदीनां संभावनामात्रेण स्मितांशासम्बधेऽपि तत्सम्बन्धो. क्तेरतिशयोक्तिभेदः // 43 // यदि यह दमयन्ती अपने मुस्कान का हजारवां भाग भी चन्द्रमा को प्रसन्न होकर दे दे तो वह देव अर्थात् चन्द्रमा इस (मुस्कान का सहस्रांश) को (चाँदनीमें) मिलाकर उसके जन्मको सफल करे / [ पाठा०-उस मुस्कान को चाँदनीसे आरतीद्वारा पूजन कर जन्म को अर्थात् चांदनीके या अपने जन्मको सफल करता। एक बूंद गङ्गाजलसे जिस प्रकार बहुत-सी जलराशि पवित्र हो जाती हैं, उसी प्रकार दमयन्तीके सहस्र स्मितको चन्द्रिकामें मिलाकर चन्द्र भी जन्मको सफल करता। इस अर्थको श्री पं० जीवानन्दजीने "सर्वत्र पावनी गङ्गा त्रिपु स्थानेषु दुष्यति / म्लेच्छस्पर्श सुराभाण्डे कूपोदकविमिश्रणे // " वचनके आधारपर असमीचीन बतलाया है ? किन्तु उस तीनों स्थानोंको छोड़कर अन्य जलमें मिलाया हुआ थोड़ा भी गङ्गाजल सब जलको जिस प्रकार पवित्र कर देता है, उसी प्रकार यहां समझना चाहिये] // 43 // चन्द्राधिकैतन्मुख चन्द्रिकाणां दरायतं तत्किरणाद्धनानाम् | पुरः परिस्रस्तपृषद्वितीयं रदावलिद्वन्द्वति बिन्दुवृन्दम् // 44 // चन्द्रेति / तस्य त्तन्द्रस्य किरणादश्मेः चन्द्रकान्ते, घनानां सान्द्राणां तन्मुखस्य .. 1. "निमिच्छय" इति पठित्वा 'अर्थात्कौमुदीभिरेव पूजनं कृत्वा नीराजनं कृत्ये ति ब्याख्यातवन्तो नारायणभट्टाः 'प्रकाश' व्याख्यायाम् / 2. "स्वजन्मा" इति पाठान्तरम् / 3. "पुरःसरत्रस्त" इति पाठान्तरम् / Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्राधिकरवाचन्द्रिकाणामपि ततोऽधिकमिति भावः / अत एवाह-चन्द्राधिक स्यैतन्मुखस्य चन्द्रिकाणां सम्बन्धि दरायतमीषदीर्घ पुरः परिनस्तानि प्रथमतानि पृषन्ति बिन्दवो यस्य तद्वितीयं बिन्दुवृन्द रदावलिद्वन्द्वति तदिव भाचरति "सर्वप्रातिपदिकेभ्यः किप्" इत्याचारशिवन्तालट् / प्रथमनिस्सृता बिन्दुपक्रिधर• दन्तपक्तिः उत्तरानन्तरजातेत्युप्रेता // 44 // चन्द्रमाकी किरणोंसे सघन अर्थात् अधिक इस दमयन्तीके मुखकी चांदनी का कुछ अधिक एवं पहले गिरी हुई यूँदोंका दूसरा बूंदोंका समुदाय दोनों (ऊपर तथा नीचेवाले ) ओरके दन्तसमूहके समान हो रहे हैं / [दमयन्तीका मुख चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है, अतः उसकी चांदनी (प्रकाश-शोभा) भी चन्द्रमाकी चांदनीकी अपेक्षा सघन अर्थात् अधिक हैं ( अथवा-चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर दमयन्ती-मुख-चन्द्रकी चन्द्रिका ही मेघरूप है ), उक्त चांदनीसे ( अथवा-चांदनीरूप मेघसे ) पहले जो बिन्दुसमूह गिरे जो छोटे-छोटे थे वे तो दमयन्तीके नीचेवाले दांत हुए तथा पहले गिरे हुए बिन्दुसमूहसे कुछ बड़े-बड़े जो बिन्दुसमूह गिरे, वे दमयन्तीके ऊपर वाले दांत हुए / दमयन्तीके नीचेवाले दांत छोटे-छोटे तथा ऊपरबाले उनसे कुछ बड़े बड़े हैं, जो सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभसूचक है] // 44 // सेयं ममैतद्विरहातिमूर्छातमीविभातस्य विभाति सन्ध्या / महेन्द्रकाष्ठागतरागकी द्विजैरमीभिः समुपास्यमाना // 45 // सेति / महेन्द्रस्य काष्ठामुत्कर्ष गतोऽनुरागः / अन्यत्र पूर्वदिग्गतो रागो लौहित्यम् / 'काष्ठोत्कर्षे स्थिती दिशि' इत्यमरः / 'रागोऽनुरागे लौहित्ये' इति विश्वः / तस्य की जनयित्री अमीभिर्द्विजदन्तैः विप्रैश्च / दन्तविप्राण्डजा द्विजाः' इत्यमरः / समुपास्यमाना सेव्यमाना सेयं दमयन्ती मम एतस्या मैग्या, विरहाा वियोग पीडया या मूर्छा सैव तमी रजनी। 'रजनीयामिनी तमी' इत्यमरः / तस्या विभा. तस्य संबन्धिनी सन्ध्या प्रात:सन्ध्या विभाति / सन्ध्याधर्मसम्बन्धात्सन्ध्या खमु. प्रेक्ष्यते // 45 // इन्द्रके अनुरागको बढ़ानेवाली ( पक्षा०-इन्द्रदिशा अर्थात् पूर्वदिशामें लालिमाको करने वाली ) तथा इन दांतों ( पक्षा०-ब्राह्मणों ) से पूजित होती हुई यह दमयन्ती, इस दमयन्तीके विरहजन्य पीड़ासे उत्पन्न मेरी मूर्छारूपी रात्रिके प्रातःकाल की सन्ध्या ( रूपमें ) शोभमान हो रही हैं / [ जिस प्रकार प्रातःकालकी सन्ध्या पूर्व दिशाको लालिमा युक्त करनेवाली तथा रात्रिका नाश करनेवाली होती है, एवं ब्राह्मण लोग सन्ध्योपासनादिसे उसकी सेवा करते हैं; उसी प्रकार यह दमयन्ती भी इन्द्रके अनुरागको उत्पन्न करनेवाली है, दांतों से पूजित (शोभित) है और इसके विरहसे होनेवाली पीड़ाजन्य मेरी मूछारूपिणी रात्रिका नाश करनेवाली सन्ध्यारूप है अर्थात् प्रातःकालकी सन्ध्या जैसे रात्रिका नाश करती है, वैसे ही अब दमयन्ती-विरहजन्य पोडासे उत्पन्न मैरी मूच्छाका भी नाश हो जायेगा // 45 // Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। राजौ द्विजानामिह राजरन्ताः संविध्रति श्रोत्रियविभ्रमं यत् / उद्वेगरागादिमजावदाताश्चत्वार एते तदमि मुक्ताः // 46 // अथोच्चैश्चत्वारो ये दन्तास्तान् वर्णयति-राजाविति / यत् यस्मात् , इहास्यां द्विजानां दन्तानां विप्राणां च राजौ पडौ। उद्वेगं पूगफलम् / 'घोण्टा तु पूगः क्रमुको गुवाकः खपुरोऽस्य तु / फलमुगम्' इत्यमरः / तस्य रागो रक्तता। आदिशब्दात् खाद्यान्तरलेपसंग्रहः / अन्यत्रोद्वेगो व्यग्रता। रागो विषयाभिलाषः आदिशब्दाद देषादिसंग्रहः / तेषामुद्वेगरागादीना मृजया मार्जनेन / 'षिद्भिदादिभ्योऽह'। अव. दाताः शुद्धाः एते चत्वारो राजदन्ताः दन्तानां राजानो दन्तश्रेष्ठाः / “राजदन्तादिषु परम्" इति दन्तशब्दस्योपसर्जनस्य परनिपातः / श्रोत्रियाश्छन्दांस्यधीतवन्तः वेदपारगाः। 'श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ' इत्यमरः। “श्रोत्रियंश्छन्दोऽधीत" इति निपातः / तेषां विभ्रमं शोभां संविभ्रति तस्मान्मुक्ताः मौक्तिकानि अपवृत्ताश्च / 'मुक्ता तु मौक्तिके मुक्काः प्राप्तमुक्ता तु मोचित' इति विश्वः / अवैमि जानामि इति वाक्यार्थः कर्म / उत्प्रेक्षा // 46 // ___ इस दन्तपति सुपारीकी लालिमा ( या जलायी हुई सुपारी) आदि ( कत्था, सैधव, खरी, लवणादि ) के द्वारा रगड़नेसे निर्मल श्रेष्ट दांत ( पक्षा०-इस ब्राह्मणपतिमें उद्वेग (व्याकुलता), अनुराग आदि (द्वेष, ईर्ष्या, काम आदि अथवा-उत्कृष्ट वेगवाले अनुराग आदि ) के दूर करनेसे निर्मल ( अर्थात् पापहीन अन्तिम समयमें शोभमान जो चार ब्राह्मण ) वेदपाठियोंके भ्रमको उत्पन्न कर रहे हैं, इस कारणसे इन्हें (इन चार दांतोंको, पक्षा०-इन चार ब्राह्मणोंको ) मैं मुक्ता (मोतीके समान, पक्षा०-मुक्ति पाया हुआ) जानता हूं। [ जिस प्रकार ब्राह्मणों में भी वेदपाठी ब्राह्मण रागादिको छोड़ देते हैं, वे पापमुक्त होकर शीघ्र ही मुक्ति पा लेते हैं उसी प्रकार सुपारी, कत्था आदि दांतोंमें रगड़नेसे मोतीके समान स्वच्छ हो जाते थे, उनमें भी सामनेवाले हो चारो दांतोको अधिक रगड़ते हैं अतएव वे ही अधिक स्वच्छ भी रहते हैं। दमयन्तीके आगेवाले चारो दांत सुपारी आदिके रगड़ते रहनेसे मोतीके समान स्वच्छ है ] // 46 // शिरीषकोशादपि कोमलाया वेधा विधायाङ्गमशेषमस्याः / प्राप्तप्रकर्षः सुकुमारसर्गे समाश्यद्वाचि मृदुत्वमुद्राम् // 47 / / शिरीषेति / वेधाः विधाता शिरीषस्य कोशात्कुड़मलादपि कोमलाया अस्या भैम्याः, अशेषमङ्गविधाय सुकुमारसगै कोमलसृष्टौ पाप्तप्रकर्षों लोके लग्धोत्कर्पः सन् मृदुत्वमुद्रां मार्दवमङ्गीं वाचि भैमीवाण्यां समापयत् समापितवान् / सर्गतिशाय्यस्या वाड्माधुर्यमिति भावः / / 47 // ब्रह्माने शिरीषके कलिकासे भी अधिक सुकुमार शरीरवाली इस दमयन्तीके सम्पूर्ण अङ्गोंको बगाकर सुकुमार वस्तुके बनानेमें प्रतिष्ठा (नामवरी) प्राप्तकर सूकुमारताके Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 नैषधमहाकाव्यम् / अन्तिम सीमाको इसके वचनमें समाप्त कर दिया। [शिरीषपुष्प अत्यधिक सुकुमार ( कोमल ) होता है-जैसा कविकुलदिवाकर कालिदासने भी पार्वतीका वर्णन करते हुए कुमारसम्भवमें कहा है-"शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्यों बाहू तदीयाविति में वितर्कः / (1 / 41)" / तो कालिकामें स्वभावतः अधिक सुकुमारता होना सिद्ध है / ब्रह्माने दमयन्ती के अङ्गोंको शिरीषपुष्पकलिकासे भी अधिक सुकुमार बनाया, अतः सुकुमार पदार्थोकी रचनामें ख्याति पाकर उन्होंने दमयन्तीके वचनमें सुकुमारताकी समाप्ति कर दी अर्थात् दमयन्तीके वचनसे अधिक सुकुमारता ( मृदुता) अन्यत्र कहीं नहीं हो सकती, सुकुमारता की चरमसीमा दमयन्तीका वचन ही है, यह निश्चय कर दिया। दमयन्ती का वचन अत्यन्त मृदु है // 47 / / प्रसूनबाणाद्वयवादिनी सा कापि द्विजेनोपनिषत्पिकेन / अस्याः किमास्यद्विजराजतो वा नाधीयते मैक्षभुजा तरुभ्यः / / 48 // __नन्वितोऽपि मदुरा कोकिलवाणी, नेत्याह-प्रसुनेति / प्रसूनबाणमेवाद्वयमद्वितीयं वस्तु तद्वदतीति तत्प्रतिपादिका कापि उपनिषत् पिकवाग्रपा सा तरुभ्यः सकाशात् / भिक्षाणां समूहो भैतम् / 'भैक्षं भिक्षा कदम्बकम्' इत्यमरः। 'भिक्षा. दिभ्योऽण'। तदभुजा तगोजिना ब्रह्मचारिणो भिक्षाशित्वस्मरणादिति भावः / पिकेन पिकाख्येन द्विजेन पक्षिणा विप्रेण च, अस्या भैम्या आस्यमेव द्विजराजश्चन्द्रो ब्राह्मणोत्तमश्च / ततस्तास्मानाधीयते वा किम् ? अधीयत एवेत्यर्थः / अस्यामेवाधिक्योपलम्भादिति भावः / उत्प्रेक्षा // 48 // ( आम आदि ) वृक्षोंसे मिक्षा-समूहको खानेवाली अर्थात् आममञ्जरीरूप भिक्षा समूह को खानेवाली पक्षी कोयल इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमासे कामदेव रूप अद्वैतका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषत् विद्या अर्थात् तद्रूप दमयन्तीकी मधुरवाणीको नहीं पढ़ती है क्या ? अर्थात् पढ़ती ही है। पक्षा०-वृक्ष (रूप गृहाश्रमियोंसे माँगकर) भिक्षात्रको खानेवाला ब्राह्मण ( दमयन्तीके मुखरूप ) श्रेष्ठ ब्राह्मणसे (कामदेवरूप ) अद्वैत ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद् विद्याको नहीं पढ़ता है क्या ? अर्थात् अवश्य पढ़ता है। [जिस प्रकार ब्रह्मचर्यावस्थामें रहता हुआ एवं गृहाश्रमियोंके यहां मांगकर भिक्षान्नको खाता हुआ ब्राह्मणश्रेष्ठ ब्राह्मण ( आचार्य) के पास जाकर अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद्को पढ़ता है, उसी प्रकार कोयल भी आमके वृक्षोंसे भिक्षान्नरूपमें प्राप्त मारियों को खाकर एकमात्र कामका प्रतिपादन करनेवाली विद्या ( कामविद्या) को इससे मुखचन्द्रसे पढ़ती है अर्थात् इस दमयन्तीकी मधुरवाणीको सीखती है। दमयन्तीको वाणी कोकिलकी वाणीसे भी मधुर है ] // 48 // पद्मासद्मानमवेक्ष्य लक्ष्मीमेकस्य विष्णोः श्रयणात्सपत्नीम। मास्येन्दुमस्या भजते जिताजं सरस्वती तद्विजिगीषया किम् // 46 // पद्माङ्केति / सरस्वती वाग्देवता एकस्य विष्णोः पत्युरिति शेषः / श्रयणादा. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। श्रयणाखेतोः / समान एकः पतिर्यस्याः सा सपत्नी / “नित्यं सपरन्यादिषु" इति सीप नकारश्च, एतस्मादेव निर्देशारसमानशब्दस्य सभावः। तां लपी पमासमानं पद्मोत्सङ्गनिकेतनामवेक्ष्य तस्या लपम्या विजिगीषया जिताज पनविजयिन. मस्या आस्येन्दुमाननेन्दुं किं भजत इत्युत्प्रेक्षा / दुर्बलोऽपि वैरनिर्यातनार्थी प्रबल. माश्रयत इति भावः। सरस्वत्या विष्णुपत्नीत्वं पुराणप्रसिद्धम् / तथा स्वपिश्यते यथा पुरुषोत्तमस्य जगन्नाथस्य पाश्वेलचमीसरस्वत्यौ तयोः सुरतवादोपचारश्च // 49 // ___ सरस्वती एक विष्णु भगवाम्के आश्रयसे सपत्नी (सौत) लक्ष्मीको कमल-गृहवाली देखकर अर्थात् सपत्नी लक्ष्मीके सुन्दर कमलरूप गृहको देखकर उसको जीतनेकी इच्छासे कमल ( या चन्द्रमा) को जीतनेवाले इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रको सेवन करती है क्या ? / [ लक्ष्मी तथा सरस्वती दोनों ही विष्णु भगवान् की पत्नी होनेसे वे परस्परमें सपत्नी है, उनमें लक्ष्मीका निवासस्थान कमल है, अतएव सपत्नी लक्ष्मीके सुन्दर निवासस्थान कमलको देखकर सरस्वतीको स्वभावतः ईर्ष्या हुई कि 'मेरी सपत्नी लक्ष्मीका निवासस्थान सुन्दर कमल है, अतः उससे भी सुन्दर मेरा निवास स्थान होना चाहिए यह मनमें विचार आनेपर, चन्द्रोदय होनेपर कमलके सङ्कुचित होनेसे कमल-विजयी चन्द्रमाका भी विजेता दमयन्ती-मुखचन्द्रका सरस्वती सेवन करने लगी अर्थात् दमयन्तीके मुखमें निवास करने लगी। अन्य भी कोई स्त्री सपत्नीके ऐश्वर्यपर ईर्ष्या करके उससे अधिक ऐश्वर्य पाना चाहती है और उसे प्राप्तकर अधिक प्रसन्न होती है। सरस्वतीका वास दमयन्तीके मुखमें सर्वदा रहता है अर्थात् दमयन्ती बड़ी विदुषी नारी है ] // 49 // कण्ठे वसन्ती चतुरा यदस्याः सरस्वती वादयते विपश्चीम् / तदेष वाग्भूय मुखे मृगाक्ष्याः श्रोतुः श्रुतौ याति सुधारसत्वम् / / 50 / / कण्ठ इति / मृगाच्या अस्या भैग्याः कण्ठे वसन्ती नित्यसनिहिता, चतुरा सरस्वती विपञ्ची वीणां यद्वादयते वादयति तद्वादनमेव, स वीणाध्वनिरेवेत्यर्थः। मुखे वाग्भूय वाग्भूत्वा / अभूततद्भावे विः / “ऊर्यादिविडाचश्च" इति गतित्वात समासे क्त्वो ल्यबादेशः / श्रोतुः श्रुतौ श्रोत्रे सुधारसत्वं याति / व्यअकाप्रयोगाद् गम्योत्प्रेक्षा // 50 // इस दमयन्तीके कण्ठमें निवास करती हुई (वीणावादनमें ) चतुर सरस्वती जो 'विपश्ची'' नामकी अपनी वीणाको बजाती है, वही ( वह वीणावादन ही) मृगलोचनी दमयन्तीके मुखमें वचन रूपमें परिणत होकर सुननेवालेके कानमें अमृत रस बन जाता है। [इस दमयन्तीकी वाणी वीणाके समान मधुर एवं सुननेवालोंको मोहित करनेवाली हैं]॥५०॥ 1. तदुक्तं वैजयन्तीकोषे 'विश्वावमोस्तु महती तुम्बुरोस्तु कलावती। महती नारदस्य स्यात्सरस्वत्यास्तु कच्छपी // " इति / 24 30 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषषमहाकाव्यम् / विलोकितास्या मुखमुन्नमय्य किं वेधसेयं सुषमासमाप्तौ / धृत्युद्भवा यछिमबुके चकास्ति निम्ने मनागङ्गुलियन्त्रणेव / / 51 / / विलोकितेति / इयं दमयन्ती, सुषमायाः परमशोभानिर्माणस्य समाप्तौ वधसा अस्या मुखमुन्नमय्य विलोकिता / अस्याः सौष्ठवपरीक्षार्थमवलोकितमुखी किमित्यु. स्प्रेक्षा / कुतः ? ययस्मात् , मनाङनिम्ने ईषन्नते चिबुके अधरोष्ठाधःस्थमुखावयवे 'ओष्ठस्याधश्विबुकम्' इति हलायुधः। पृत्युनवा निपीस्यग्रहणसम्भवा, अल्गुलेः यन्त्रणा मुद्रणेव चकास्ति अङ्गुष्ठपदमिव भातीत्यर्थः / अङ्गुष्ठानं चिबुकाग्रे निधाय इतरागुलीभिरधोनिवेशिताभिरुन्नमय्य मुखमपश्यविवेति भावः // 51 // ____ अत्युत्कृष्ट शोभाके पूरा होनेपर ( अतिश्रेष्ठ शोभासामग्रियोंसे इस दमयन्तीको बना लेने पर ) ब्रह्माने उठाकर दमयन्तीके मुखको देखा है क्या ? ( अथवा-......"इस दमयन्तीके मुखको उठाकर देखा है क्या ?) जो थोड़े गर्तयुक्त अर्थात् कुछ दबे हुए ठुढीमें ग्रहण करनेसे उत्पन्न अङ्गुलि ( अंगूठेका निपीडनजन्य ) चिह्न शोभित हो रहा है। [जिस प्रकार कोई कारीगर किसी वस्तुको पूरा बना लेनेपर उसे धीरेसे उठाकर देखता है कि 'यह मेरी रचना सुन्दर हुई या नहीं' और उसमें सरसता अर्थात् तत्कालका बना होनेसे आईता रहनेसे बहुत धीरेसे उठाने या छ्नेपर भी थोड़ा-सा चिह्न पड़ जाता है या वहां वह वस्तु कुछ दब जाती है, उसी प्रकार ब्रह्माने भी परमशोभा सामग्रियोंसे दमयन्ती की रचनाकर इसके मुखको धीरेसे उठाकर सुन्दरताका परीक्षण ( जांच ) किया है, यही कारण है कि इसकी ठुड्ढी (मुखका निचला भाग) में थोड़ा-सा गढा हो (दव ) गया है। दमयन्तीका अङ्ग इतना सुकुमार है कि वह एक अङ्गुलिके निपीडन (दबाव ) को नहीं सह सकता, उसमें सदाके लिये चिह्न पड़ जाता हूँ / ठुड्ढीके नीचे मध्य भागमें थोड़ा-सा गढ़ा (दवा) रहना सामुद्रिक शास्त्र में शुभ लक्षण माना गया है ] // 51 / / प्रियामुखाभूय सुखी सुधांशुवसत्यसो' राहुभयव्ययेन / इमा दधाराधरविम्बलीलां तस्यैव बालं करपक्रवालम् / / 50 / / प्रियेति / असौ सुधांशुः प्रियामुखीभूय भैमीमुखं भूत्वा राहोर्विधुन्तुदात् भवव्ययेन भयनिवृत्या सुखी वसति / तस्य सुधांशोरेव बालं प्रत्याग्रं करचक्रवाल अंशुमण्डलमिमां दृश्यमानां अधरबिम्बलीलां दधार। अधरबिम्वं भूस्वा तिष्ठती. त्युत्प्रेक्षयोः संसृष्टिः // 52 // * यह चन्द्रमा प्रिया (दमयन्ती) का मुख होकर राहुसे निर्भय होनेसे सुखी होकर रहता है, उसी ( चन्द्रमा ) का बाल ( उदयकालीन ) किरण समूह अधर-बिम्बको लीला ( शोभा, पक्षा०-क्रीडा ) को धारण कर लिया है। [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति शत्रुके भयसे सपरिवार अपना रूप बदलकर सुखपूर्वक कहीं निवास करता है, उसी प्रकार किरणरूप परिवारके 1. "वसत्ययं” इति पाठान्तरम् / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। तहित चन्द्रमा दमयन्तीका मुख होकर यहां राहुसे भय नहीं होनेसे मुखपूर्वक निवास करता है / बालकोंका क्रीडा करना स्वाभाविक होनेसे चन्द्रमाके बाल अर्थात् उदयकालीन किरण-समूह मी दमयन्तीके अधरविम्बकी क्रीडा कर रहे हैं / दमयन्तीका मुखचन्द्रके तथा अधरोष्ठ सायंकालीन चन्द्रबिम्बके समान है ] // 52 // अस्या मुखस्यास्तु न पूर्णिमास्यं पूर्णस्य जित्वा महिमा हिमांशुम् | भ्रलचमखण्डं दधदमिन्दुर्भालस्कृतीयः खलु यम्य मागः // 53 // ___ अस्या इति / पूर्णिमायाः पौर्णमास्या आस्यं मुखीभूतं हिमांशुं जिस्वा पूर्णस्य समग्रस्य सतः अस्या भैम्या मुखस्य महतो भावो महिमा महत्त्वं नास्तु न स्यात् / काकुः / स्यादेव जेतुमहिमेत्यर्थः / किं च यस्य मुखस्य तृतीयो भागः तृतीयांशभूतः, भालो ललाटं भूरेव लचमखण्डः लान्छनैकदेशस्तं दधत् दधानः अर्धमिन्दुरर्धेन्दुः खलु / युक्तमर्धचन्द्रात्पूर्णचन्द्रस्य महावमिति भावः। अत्र मुखस्य पूर्णेन्दुत्वं भालस्यार्धचन्द्रत्वं च क्रमारपूर्णिमास्यं हिमांशुं भ्रलक्ष्मखण्डमिति च रूपकाभ्यामनुप्राणितमुत्प्रेच्यत इति रूपकसङ्कीर्णयोरुस्प्रेक्षयोः परस्परमुपकार्योपकारकमावा. दङ्गानिभावेन सङ्करः // 53 // पूर्णिमाके मुखरूप (पूर्णिमा-सम्बन्धी ) चन्द्रमाको जीत कर इस दमयन्तीके पूर्ण (सम्पूर्ण, पक्षा०-गोलाकार ) मुखकी महिमा नहीं होगी ? अर्थात् अवश्य होगी। भ्रूरूपी (चन्द्रमाके ) लाञ्छनके खण्डको धारण करता हुआ, जिस मुखका तृतीयांश (तीसरा भाग) ललाट आधा चन्द्रमा होता है। [ दमयन्तीका ललाट उसके मुख का तृतीया भाग (एक तिहाई हिस्सा) है और वह आधे चन्द्रमाके बराबर होनेसे अधिक है; चन्द्रमामें जो लान्छन है वह बहुत बड़ा है किन्तु दमयन्ती-मुखमें चन्द्र-लाञ्छनका एक टुकड़ा अर्थात् थोड़ा-सा हिस्सा है, अतः अधिक गुणयुक्त होनेसे दमयन्तीका पूर्ण मुख पूर्णिमाके सम्पूर्ण चन्द्रमाको जीतकर अवश्य महिमा पानेके योग्य है जिसका तृतीयांश आधेके वरावर है तथा कलङ्ग भी कम हैं, उसकी महिमा होना उचित ही है ] // 53 // व्यधत्त धाता मुखपद्ममस्याः सम्राजमम्भोजकुलेऽखिलेऽपि / सरोजराजो सृजतोऽदसीयां नेत्राभिधेयावत एव सेवाम् / / 54 // व्यधत्तेति / धाता अस्या मुखमेव पनम् / 'वा पंसि पद्मम्' इति पुंलिङ्गता। सम्राजमिति विशेषणात् / अखिलेऽप्यम्भोजकुले पनजाते विषये सम्राजं राजराजं व्यधत्त / अत एव राजराजत्वादेव नेत्राभिधेयौ नेत्रशब्दवाच्यौ सरोजानां राजानी सरोजराजो अमुष्य मुखपद्मस्य सम्बन्धिनीमदसीयां सेवां सृजतः कुरुतः। 'येनेष्टं 1. "पूर्णमास्यं" इति “पौर्णमास्यं" इति च पाठान्तरे / 2. “वदनाब्जमस्याः " इति पाठान्तरम् / Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधमहाकाव्यम् / राजसूयेन मण्डलस्येश्वरच यः / शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राट' इत्यमरः। अत्र नेत्राख्यसरोजराजसेव्यरवेन भैमीमुखपमस्य सम्राट्त्वोस्प्रेक्षेति सकरः // 54 // ब्रह्माने इस दमयन्तीके मुखकमलकी सम्पूर्ण कमल-समूहमें सम्राट (बादशाह, पक्षा०अधिक शोभनेवाला ) बनाया है, इसी कारण नेत्रसंशक दो कमलरूपी राजा इस ( दमयन्तीके मुख ) की (शोभा बढ़ाकर ) सेवा करते हैं। [सम्राटके अधीन होनेसे राजा लोगों का सम्राट की सेवा करना नीतिके अनुकूल ही हैं / दमयन्तीका मुख कमलसे भी अत्यधिक मन्दर है ] // 55 // दिवारजन्यो रविसोमभीते चन्द्राम्बुजे निक्षिपतः स्वजक्ष्मीम् / अस्या यदास्ये न तदा तयोः श्रीरेकश्रियेदं तु कदा न कान्तम् / / 5 / / दिवेति / चन्द्रश्चाम्बुजं च ते दिवारजन्योदिनराज्योर्यथासख्यं रविसोमाभ्यां भीते अपहारशकिनी सती स्वलचमी यदा अस्या भैम्या आस्ये निक्षिपतस्तदा तयो. दिवाचन्द्रस्य रात्रावम्बुजस्य च श्रीः शोभा न भवति / इदमस्या आस्यं तु कदा कस्मिन्काले दिवा नक्तं वा एकश्रिया चन्द्राम्बुजयोरन्यतरश्रिया न कान्तम्, अपि तु सर्वदा कान्तमेव / अत्रोक्तयथासङख्यसङ्कीर्णया भैमीमुखे चन्द्राम्बुजलचमीनिक्षे. पोत्प्रेक्षिताभ्यां कादाचित्कशोभाभ्यां मुखस्य / अकादाचित्कधीकरवेन व्यतिरेको ग्यज्यत इत्यलङ्कारेणालङ्कारध्वनिः // 55 // ___ दिन और रात्रिसे डरे हुए (क्रमशः) चन्द्रमा तथा कमल अपनी शोमाको जब इस दमयन्तीके मुखमें रखते हैं ( अथवा अपनी सम्पत्तिको धरोहर रखते हैं ). तब उन दोनों को अर्थात दिनमें चन्द्रमाकी तथा रात्रिमें कमल की शोभा नहीं होती है और यह दमयन्ती का मुख किस समय (दिन या रात्रिमें उन दोनोंमें से) एक (चन्द्रमा या कमल) की शोमासे सुन्दर नहीं रहता ? अर्थात् सर्वदैव ( चन्द्रमा या कमल की शोभासे ) सुन्दर रहता है। चन्द्रमा की शोमा दिनमें तथा कमलकी शोभा रात्रिमें नहीं होती, किन्तु दमयन्तीके मुखकी शोभा दिन-रात रहती है; अत एव दमयन्ती का मुख चन्द्रमा तथा कमलसे श्रेष्ठ है / लोक में भी किसी बलवान् से डरा हुआ व्यक्ति अपनी सम्पत्तिको किसी विश्वासपात्रके पास धरोहर रखकर निश्चिन्त हो जाता है। तथा भयकारणके दूर होनेपर धरोहर रखी हुई अपनी सम्पत्तिको माँगने आता है तो उसे वापस दे देता है / इस प्रकार दिन से डरा हुआ चन्द्रमा तथा रात्रिसे डरा हुआ कमल अपनी 2 शोभा रूप सम्पत्तिको दमयन्ती-मुखके पास धरोहर रूपमें रख देते ओर दिनके व्यतीत होने पर रात्रिमें चन्द्रमा तथा रात्रिके व्यतीत होने पर दिनमें कमल अपनी 2 शोभारूप सम्पत्तिको लेकर शोभित होते हैं / इस कारण दिनसे चन्द्रमाकी शोभासे तथा रात्रिमें कमलकी शोभासे अर्थात् सर्वदा ही दमयन्ती का मुख शोभित रहता है, अतएव नित्य शोभासम्पन्न होनेसे चन्द्रमा तथा कमलकी अपेक्षा दमयन्ती का मुख अधिक सुन्दर है ] // 55 / / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। अस्या मुखश्रीप्रतिबिम्बमेव जलाच्च तातान्मुकुराच्च मित्रात् / अभ्यर्थ्य धत्तः खलु पद्मचन्द्रौ विभूषण याचितक कदाचित् / / 56 / / अस्या इति / पनचन्द्रौ यथाक्रमं ताताजनकात् जलाचा मित्रादाकारसाम्यात सुहृदः मुकुराच अस्य मुखश्रियः प्रतिबिम्बमेव याचितकं याच्जानिवृत्तम / 'याजा. प्राप्तं याचितकम्' इत्यमरः। “अपमित्ययाचिताभ्यां ककनी" इति कन्प्रत्ययः। विभूषणं कदाचिदभ्ययं धत्तो दधाते खलु / एतदीयमेव सुहृल्लब्धमनयोचितकमामरणं न स्वाभाविकमित्युत्प्रेक्षा // 56 // कमल और चन्द्रमा (क्रमशः) पिता जल और मित्र दर्पणसे इस दमयन्तीके मुखकी शोभाके ( स्नानादिके समय जलमें तथा शृङ्गारके समय दर्पणमें प्रतिबिम्बित ) प्रतिबम्ब ( परछाहीं) को याचनाकर याचनामें मिले हुए भूषणको कभी 2 (दिनमें कमल तथा रातमें चन्द्रमा) धारण करते हैं / [ कमल जलसे उत्पन्न होता है, अतः जल कमलका पिता है तथा स्वच्छ कान्तिको समानता होनेसे दर्पण चन्द्रमाका मित्र है / दमयन्तीके मुखश्री की छाया स्नानादि करते समय जलमें तथा शृङ्गार करते समय दर्पणमें पड़ती है, अतः स्वशोभा-हीन कमल तथा चन्द्रमा कमशः पितृस्थानीय जल तथा मित्रस्थानीय दर्पणसे दमयन्तीके प्रतिविम्बित भुखश्रीकी छायाकी मंगनी मांगकर दिनमें कमल तथा रात्रिमें चन्द्रमा भाभूषणके रूपमें धारण करते हैं तथा मंगनी में मिले हुए होने के कारण हो उसे सर्वदा नहीं धारण करते / लोकमें भी जिसके पास कोई भूषण नहीं रहता, वह पिता और मित्रसे मंगनी मांगकर कभी 2 अपनेको उस भूषण से भूषित करता है, 'सर्वदा धारण करने पर उस भूषण का स्वामी फिर कभी नहीं देगा' इस भयसे उस भूषणको कभी 2 ही धारण करता है, सर्वदा नहीं / जब दमयन्तीकी मुखश्रीकी परछाहींके समान भी कमल तथा चन्द्रमाकी शोमा सर्वदा नहीं रहती, तब उसकी साक्षात मुखश्रीकी समानता वे दोनों कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं कर सकते, अतः दमयन्तीकी मुखश्री कमल तथा चन्द्रमासे बहुत हो अधिक है ] // 56 // अर्काय पत्ये खलु तिष्ठमाना भृङ्गैर्मितामक्षिभिरम्बुकेलौ / भैमी मुखस्य श्रियमम्बुजिन्यो याचन्ति विस्तारित पद्महस्ताः / / 57|| अर्कायेति / पत्ये भर्ने, अर्काय तिष्ठमानाः स्वाभिलाषं प्रकाशयन्त्यः कामुक्यः सत्य इत्यर्थः / “श्लाघह" इत्यादिना चतुर्थी "प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्व" इत्यात्मनेपदम् / अग्बुनिन्यः पद्मिन्यः अम्बुकेलौ जलक्रीडाकाले भृङ्गैरेवातिभिर्मितामुपलब्धां मुखस्य श्रियं नुखशोभा विस्तारिताः प्रसारिताः पद्मा एव हस्ता यासां ताः सत्यो भैमी याचन्ति खलु / स्वरितेत्वाद्याचेरुभयपदित्वम् / दुहादित्वाद् द्विकर्मकत्वम् / अत्र पद्मिनीनां भैमीमुखश्रीयानोत्प्रेक्षया मुखस्य पद्माधिक्यव्यतिरेकः प्रतीयते // 57 // पतिरूप सूर्य के लिये अपने आशयको प्रकाशित करती दुई, कमलिनियां (दमयन्तोकी) Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 नेपषमहाकाम्बम् / गलकीग ( के समय ) में भ्रमररूपी नेत्रोंसे देखी या मालूम की हुई दमयन्तीमुखको शोमा को कमलरूप ( पक्षा०-कमलतुल्य ) हाथको फैलाकर (दमयन्तीसे) मांग रही है ( अथवा............ पसार कर सूर्य से मांग रही है कि-'भाप दमयन्तीके मुख की शोभा हमलोगों को दें। पतिसे मांगी हुई वस्तु सरलतासे मिल जाती है, [कमलिनियों का पति सूर्य है, उनके प्रति कामुकी कमलिनियोंने अपने भ्रमररूप नेत्रोंसे जलकीरगके समय दमयन्तीके मुख की शोभाको देखकर उसे अत्यन्त सुन्दर होनेसे कमलरूप हाथ फैलाकर दमयन्तीसे याचना करती है कि-'हे दमयन्ती ! तुम अपने मुखकी शोमाको मुझ दो, जिसके द्वारा हमलोग अपने पति सूर्यको प्रसन्न ( अपनी ओर आकृष्ट ) कर सकें। अन्य भी कोई व्यक्ति अपने पास सुन्दर बस्तु नहीं रहनेपर दूसरे से मांगकर अपने को भूषित एवं पतिको आकृष्ट करता है।कीग-समयमें मांगी हुई वस्तु सरलतासे प्राप्त हो जाती है। दमयन्तीकी मुखशोभा कमलिनीसमूए से भी अधिक सुन्दर है / / 57 // अस्या मुखेनैव विलित्य नित्यस्पर्धी मिलहमरोषमासा / प्रसन्न चन्द्रः खलु नसमानः स्यादेव तिष्ठम् परिवेषपाशः / / 58 / / अस्या इति / निस्पं स्पर्धत इति निस्यस्पर्षी चना मिलती ज्याप्नुवन्ती कुहम मेष रोषभाः क्रोधप्रभा पस्प तेन / अस्या मुखेनैव विजिस्व प्रसाबहारकृस्य नय. मानो बध्यमानः तिछन् परिवेष एव पाशो बन्धनप्रग्रहो यस्य स स्यादेवेत्युरमेला // (उबटन या लेपके समय ) लगाये गये कुडमरूप क्रोधकान्तिवाले दमयन्तीके मुखके साथ सर्वदा स्पर्श करनेवाला चन्द्रमा बलात् बांधा जाता हुआ अर्थात् बाँधा गया परिवेष रूप (चन्द्रमाके चारों ओर दिखलायी पड़ने वाला गोलाकार घेरा) पाश (जाल या रस्सी) युक्त ( जालते बंधा हुआ ) रहता ही है / [ जिस प्रकार बलवानके साथ स्पर्धा करनेवाले दुर्बल व्यक्तिको वह बलवान् व्यक्ति क्रोधसे लाल 2 मुखकर उसे जोत कर रस्सीमें बांध देता है और वह बँधा हुआ पड़ा रहता है, उसी प्रकार अधिक शोभावाले दमयन्तीके मुखके साथ स्पर्धा करनेवाले चन्द्रमाको उस मुखने परिवेषरूप रस्सीसे बांधकर छोड़ दिया है ] / / 58 // विधोविधिषिम्बशतानि लोपं लोपं कुहूरात्रिषु मासि मासि | अभङ्गारश्रीकममुं किमस्या मुखेन्दुमस्थापयदेकशेषम || 5 || विधोरिति / विधिर्विधाता विधोश्चन्द्रस्य बिम्बशतानि मासि मासि मासे मासे "पहन्" इत्यादिना मासशब्दस्य मासिस्यमादेशः / कुहुरात्रिषु नष्टचन्द्ररात्रिषु लोपं लोपं लुप्त्वा लुप्स्वा आभीण्ये "णमुल " इति गमुलप्रत्ययः आभीषण्ये हे भवत इति वक्तव्यम् / “आभीषण्यं पौनःपुन्यम्" इति काशिका। अभङ्गुर श्रीकमनश्वरशोभं, "शेषाद्विभाषा" इति कप / अमुमस्या मुखेन्दुम् / एकशेषमेकमेव शिष्यमाणमस्थापयत् स्थापितवान् / किमित्युस्प्रेक्षा। ज्याकरणे सरूपाणामेकशेष. बदिति भावः // 59 // Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 281 - ब्रह्मा चन्द्रमाके सैकड़ों बिम्बोंको (क्षयशील कान्ति होनेसे) प्रत्येक महीने के कूहू (चन्द्रकला जिसमें बिलकुल ही नहीं दिखलायी पड़े वह अमावस्या) की रात्रियों में बार-बार नष्टकर स्थिर कान्तिवाले एक बचे हुये इस दमयन्तीके मुखचन्द्रको रचा है क्या ? / [लोकमें भी कोई शिल्पी आदि क्षीणकान्तिवाली निकृष्ट वस्तुओं को नष्टकर स्थिर कान्तिवाली केवल एक वस्तु. को ही रख लेता है। 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' (पा० सू० 1 / 264 ) से भी समान रूपवाले अनेक का नाश (लेप) होकर एक ही शेष रह जाता है और उसीसे उन लुप्तका भी कार्य सम्पन्न होता है, उसी प्रकार अविनाशशील कान्तिवाले दमयन्तीके मुखसे ही भाकाशस्थ अन्य चन्द्रसम्बन्धी भी कार्य सम्पन्न होता है। प्रत्येक मासमें क्षयशीलकान्तिवाले माकाशस्थ चन्द्र की अपेक्षा नित्य स्थित कान्तिवाला दमयन्तीका मुखचन्द्र ही श्रेष्ठ है ] // 59 कपोलपत्रान्मकरास केतु भ्यागिषुर्धनुषा जगन्ति / इहायलम्यास्ति रति मनोभू रण्ययस्यो मधुनाघरेण / / 60 // कपोलेति / मनोभूः कपोलपत्रात् पत्रभङ्गादेव मकराखेतोः सकेतुः केतुमान मकरध्वज इत्यर्थः / भूभ्यामेघ धनुषा जगन्ति जिगीषुः जेतुमिछुः अधरेणैव मधुना जीडेण वसन्तन च रज्ययस्योऽनुरक्तसखः इहास्यां रतिं प्रीति स्वदेवी चावलमयास्ति / जगजिगीषोः कामस्य सर्वापि साधनसम्पतिरस्यामेवास्तीत्यर्थः। अत्र पत्रमनादावारोप्यमाणस्य केस्वादेस्तादात्म्येन प्रकृतजगज्जयोपयोगिस्वात् परिणामालधारः / 'भारोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः' इति लक्षणात् // 10 // (इस दमयन्तीके ) कपोल में बनी हुई पत्ररचना रूप मकरसे पताकासहित तथा (दमयन्तीके ) दोनों भ्रूप धनुषसे संसार या विजयाभिलाषी कामदेव मधुतुल्य ( मधुर दमयन्तीके) अधरोष्ठसे प्रीतियुक्त ( पक्षा०-अधरोष्ठरूर मधु अर्थात वसन्तसे अनुरक्त ) होते हुए मित्रवाला कामदेव रति ( अनुराग, पक्षा०-अपनी प्रिया ) को लेकर इस दमयन्तीक मुखमें स्थित है / दमयन्तीका मुख कामदेवके जगद्विजय-सम्बन्धी सब सामग्रियोंसे पूर्ण हैं, यथा-दमयन्तांके कपोल में चन्दनादिसे बनायी हुई रचनामें मकर कामदेवकी पताका है, दमयन्तीका भ्र युगल कामदेवका धनुप है तथा मधुर और रक्तवर्ण अधर ही कामदेवका अनुरक्त वसन्त नामक मित्र है; अत एव इस दमयन्ती-मुख में ही अनुराग ( पक्षा०-रति नामक अपनी स्त्री ) को साथ लेकर कामदेव जगतका विजय हो रहा है अर्थात कामदेवके लिये जगद्विजयके साधन मकरयुक्त पताका, धनुष, मित्र वसन्त ऋतु और रति-ये सब विजय साधन एक दमयन्तीके मुख में उपलब्ध हो रहे हैं / ] हैं / / 60 / / वियोगमापाश्चित नेत्रपप्रच्छमान्वितोत्सगपयःप्रसूनौ / कणा किमस्या तितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपी विधिशिल्पमीएक् / / 61 / / वियोगेति / ईगपूर्व विधिशिल्पं ब्रह्मनिर्माणमस्याः कौँ वियोगेन हेतुना बाप्पाश्चितयोरभ्रयुक्तयोः नेत्रपमयोः / छस्यपटवभेदः / तेन छद्मनाग्विते मिलिते Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 नैषधमहाकाव्यम् / उत्सर्गपयःप्रसून दानोदकमिश्रकुसुमे ययोस्तौ रतितत्पतिभ्यां सम्प्रदाने चतुर्थी। निवेद्यावर्पणीयौ पूपावपूपौ किम् / 'पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात्' इत्यमरः / नैवेद्यसमपंणेन पुष्पाञ्जलिमुत्सृजन्ती साश्रुनेत्रयोगात्तत्कर्णयोस्ताहक्पुष्पयुक्तरतिस्मरनैवेद्यापूपत्वोत्प्रेक्षया सापह्ववया कर्णान्तविश्रान्तलोचनत्वं वस्तु व्यज्यते // 6 // विरहजन्य आंसूसे पूजित (या शोभित ) नेत्ररूप पद्मके बहानेसे दिये गये जल तथा पुष्पसहित, दमयन्ती के कान कामदेव तथा रति ( रूप देवद्वय ) के लिये समर्पण करने अर्थात चढ़ाने योग्य दो मालपूआ रूप हैं, ऐसा ब्रह्माने बनाया है क्या ? / [ किसी देवताको प्रसन्न करनेके लिये मालपूआ नैवेद्यरूपमें चढ़ाया जाता है, उसके माथ पूजनमें जल तथा पुष्पका होना भी आवश्यक है। यहां पर ब्रह्माने इन दोनों कानोंको कामदेव तथा रतिरूप देवदयके लिये समर्पण करने योग्य नैवेद्यस्थानीय दो मालपुए बनाये हैं, तथा उसके साथ जलस्थानीय विरहजन्य आँसू तथा पुष्पस्थानीय नेत्रकमल हैं, इस प्रकार कामदेव-दम्पतीको पूजनद्वारा प्रसन्न करनेके लिये सब पूजनद्रव्योंको ब्रह्माने एकत्रित किया है / दमयन्तीके कानोंको कामवृद्धि होती हैं ] // 61 // इहाविशद् येन पथातिवक्रः शास्त्रौषनिष्यन्दसुधाप्रवाहः / सोऽस्याः श्रवःपत्रयुगे प्रणाली रेखेव धावत्यभिकर्णकूपम् / / 62 / / इहेति / अनिवक्रः शास्त्राणामोघः समूहस्तस्य निष्यन्दः सारः एव सुधार वाहो येन पथा वर्मना यया प्रणाल्या इहास्यां भैम्यामविशत् प्रविष्टः, अस्याः, श्रवसी पत्रे दले इव श्रवःपत्रे तयोर्युगे युग्मे या रेखा वक्रप्रणाली सुधाप्रवाहपदः वीव / 'इयोः प्रणाली पयसा पदव्याम्' इत्यमरः / अभिकर्णकूपं धावति कर्णरन्ध्र. मभिगच्छति / यथा कुतचिनिःसृतं जलं वक्रगत्या कयाचिस्प्रणाल्या कश्चिन्निनदेशं मच्छति तदिति भावः / अत्र कर्णस्य रेखायां सुधाप्रणालीत्वमुस्प्रेषयते // 62 // अत्यन्त टेढ़ा (व्यङ्गयादिजन्य क्लिष्टता होनेसे दुर्योध, पक्षा०-टेढ़ा बहनेवाला) शास्त्रसमूहके सारभूत अमृत ( पाठा०-रस ) का प्रवाह जिस मार्गसे इस ( दमयन्तीके कानों) में प्रवेश किया, वह दमयन्तीके कर्णद्वयमें रेखारूपी प्रणाली ( उक्त सुधा प्रवाहका नाली, रूप मार्ग ) कानों के छिद्ररूप कूपमें अर्थात् कानोंके छिद्रसे जा रही है। जैसे सीधी या टेढ़ी नाली अर्थात् जलमार्ग रहता है, वैसे ही जलादि द्रव पदार्थोका प्रवाह भी होता है, अथवा जिस 2 मार्गसे जलादि द्रव पदार्थ वहते हैं वैसी ही टेढ़ी या सीधी नाली ( जलमार्ग) भी बन जाती है, उसी मार्गसे बहता हुआ जल कूएँ आदि निम्न स्थानोंमें प्रविष्ट हो जाता है / दमयन्तीके कानों में जो टेढ़ी मेढ़ी रेखायें दीख रही हैं, वे रेखायें नहीं, अपि तु शास्त्रसमूहके सारभूत अमृतप्रवाहके कान के छिद्रोंमें प्रवेश करनेके मार्ग हैं / दमयन्तीके कान टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओंसे युक्त हैं तथा दमयन्ती सत्र शास्त्रों के तत्त्वको जाननेवाली विदुषी है / ] // 62 // 1. "रसप्रवाहः" इति पाठान्तरम् / Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 सप्तमः सर्गः। अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्या श्रुती दधतुरर्धमर्धम् / कर्णान्तरुत्कीर्णगभीरलेखः किं तस्य संख्यैव न वा नवाङ्कः // 63 // अस्या इति / अस्याः श्रुती कौँ अष्टादश विद्याः वेदवेदाङ्गादिकानि वेद्यस्थानानि संविभज्य विधाकृत्य यदर्धमधं दध्रतुः बिभ्रतुः / कर्णस्यान्तर्गर्भ उत्कीर्ण उत्पा. दितः गभीरो दूरगतो लेखोऽवयवविन्यासः तस्याधस्य सङ्ख्यैव मूर्ता नवसङ्ख्यैव न किम् / यद्वा नवानामको नवाको बालसख्याचिह्न वा न भवति किम् / भवस्येवेत्यर्थः। उत्प्रेक्षा // 6 // इस दमयन्तीके दोनों कानोंने अठारह (विद्याओं ) को दो भागों में बांटकर आधा 2 धारण किया अर्थात् नव 2 विद्याओंको प्रत्येक कानने ग्रहण किया; कानने भीतर लिखे गये गम्भीर ( दृढ़तम-अमिट ) लेखवाला उस ( अठारह विद्याओंके आधे भाग) का नव अङ्कको संख्या ( अथवा-आश्चर्यजनक नया चिह्न रूप संख्या) ही नहीं है क्या ? / [ चार वेद (ऋक्, साम, यजुः और अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुत, ज्योतिष और छन्द), मीमांसा, न्याय, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्वविद्या, अर्थशास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र-ये अठारह विद्याएं हैं / दमयन्तीके दोनों कानोंने उस अठारह विद्याओंको दो भागों में बाँट कर नव-नव विद्याओंको प्रत्येक ने ग्रहण किया, वही नव की संख्या ब्रह्माने इसके कानोंके भीतरमें लिख दी है। अन्य भी कोई शिल्पी किसी वातको चिरस्थायी रहने के लिये शिला आदि पर उसे गम्भीर ( अमिट या चिरस्थायी) व में अस्ति कर देता (लिखा देता) है / दमयन्तीके कानोंमें नव नव संख्याके समान रेखा है, जो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभसूचक लक्षण है / ] // 63 // मन्येऽमुना कर्णलतामयेन पाशद्वयेन च्छिदुरेतरेण / एकाकिपाशं वरुणं विजिग्येऽनङ्गीकृताऽऽयासतती रतीशः / / 64 // मन्य इति / रतीशो रतिपतिः अमुना कर्णलतामयेन कर्णपाशरूपेण च्छिदुरा. दितरेण च्छिदुरेतरेणाभकुरेण / “विदिभिदिच्छिदेः कुरच्" इति कर्मकर्तरि कुरच / पाशद्वयेन पाशायुधयुग्मेन / 'पाशो बन्धनशस्त्रयोः' इत्यमरः / एकाकी अद्वितीयः पाशो यस्य तमेकाकिपाशम् / वरुणमनङ्गीकृता परिहृता, आयासततिः प्रयासपर. म्परा येन सोऽनायासः सन् विजिग्ये जिगाय / मन्य इत्युत्प्रेहायाम् / “विपराभ्यां जे." इत्यात्मनेपदम् / अधिकसाधनेनाल्पसाधनः मुजय इति भावः // 64 // कामदेवने ( दमयन्तीके ) कर्णलतारूप इन दो दृढ़ पाशों ( पाश नामक शस्त्रों ) से एक पाशवाले वरुणको अनायास ही जीत लिया है, ऐसा मैं मानता हूँ। [ कामदेवने दमयन्तीके कर्णपाशद्वयको अपना अस्त्र बनाकर एक पाशवाले वरुणको जीत लिया है। अतः 'वरुण कामुक होकर दमयन्तीको पानेकी आशासे उसके स्वयम्बरमें आयेगा, इस भविष्य Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / कथांशको सूचना इस पथके द्वारा मिलती है। दो शत्रोंवाले योगाद्वारा एक शखबाले योगा का अनायास पराजित होना स्वाभाविक ही है ] // 64 // आत्मंघ तातस्य चतुर्भुजस्य जातश्चतु:रुचिर.' स्मरोऽपि / तचापयोः कर्णलते भ्रगेऽये वशत्वगंशी चिपिटे' किमस्याः / / 4 / / आस्मेति / चतुर्भुजस्य चतुर्बाहोः तातस्य स्वजनकस्य विष्णोरास्मा स्वरूपमेव जातः / "भारमा वै पुत्रनामासि" इति श्रुतेः स्मरोऽपि चतुर्दोभिः चतुर्बाहुर्भिः हचिरः तस्य चतुर्थहोः स्मरस्य चापयोरस्या भ्रवोः अस्या एवं कर्गों लतेव वंशस्य स्वक्सारस्य स्वर्गशौ स्वग्भागमयो चिपिटे अनते ऋजू इत्यर्थः। "इनस्पिटविकचि ." इति ने पिटच प्रत्यये नेचिरादेशः / नासान्तवाचिना तस्वमात्र लण्यते / ज्ये मोज्यौं किम् / 'मौर्वी ज्या शिजिनी गुणः' इत्यमरः / अत्र स्मरस्य चतुर्भुजस्वं ततो भैमीवास्तचापगत्वं तस्कर्णयोरेव उपारवंच उस्प्रेच्यते // 15 // चार भुजाओवाले पिता ( श्रीकृष्ण भगवान् ) आस्मारूप उत्पन्न हुमा कामदेव भी चार भुजाओं वाला रुचिकर (पाठा०-उचित ही) दुआ है, अथवा-कामदेवका चतुर्भुज होना उचित . ( श्योंकि यह ) चतुर्भुज पिता (श्रीकृष्ण भगवान् ) का स्वरूप ही है / उस चतुर्नुज कामदेयके ( दमयन्तीका ) भ्ररूप दी धनुर्षोंकी, दमयन्तीके कर्णलतारूपी बांसके स्वक् ( ऊपरी ) भाग दो प्रत्यश्चापं. है क्या ? [ कामदेव के पिता कृष्ण भगवान् चतुर्भुज है, अत एव 'आत्मा के पुत्रनामासि' इस वेदवाक्य के अनुसार कामदेव भी चतुर्भुज उत्पन्न हुआ है, यह ठीक ही है, चतुर्भुज कामदेवके दो धनुष दमयन्तीके दोनों भ्र है तथा उनकी प्रत्यचा (डोरी) दमयन्तीकी दोनों कर्णलताई हैं / विना चढ़ाये हुए धनुको प्रत्यचा धनुषके कोणमें रहती है और दोनों कर्णलतापं. भी भ्रूद्वयरूप धनुषके कोणमें हैं। ] // 65 / / ग्रीवाद्भुतवावटुशोभितापि प्रसाधिता माणवकेन सेयम् / आतिग्यतामध्यवलम्बमाना संरूपताभागखिलोकाया // 33 // प्रीवेति / या ग्रीवा बटुना माणवकेन शोभिता अलंकृता न भवतीत्यवटुशोमिता / तथापि माणवकेन बटुना प्रसाधितेति विरोधः / 'अपिर्विरोधे। अषटुशो. मिता काटिकालंकृता / 'भवटुर्धाटा कृकाटिका' इत्यमरः। माणवकेन विंशतिसरेण मुक्ता हारेण प्रसाधितेति विरोधः। 'विंशतिसरो माणवकोऽल्पस्वात्' इति क्षीरस्वामी। 'भवेन्माणवको हारभेदे याले कुपूरुपे' इत्यभिधेयः / किश, आलिगयतामालिङ्गनीयस्वमवलम्वमानाप्याश्रयन्त्यपि सरूपताभाक सारूप्ययोगी अखिलोऽन्यून उर्वक मालिजयत्वम् इति भावप्रधानो निर्देशः / यस्याः सा। 'अब्दयालिग्योलकात्रयः' 1. "-हचितः" पाठान्तरम् / 2. "चिपिटी" इति पाठान्तरम् / 3. "सुरूपता... ''काया" इति पाठान्तरम् / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 385 इत्यमरः / 'हरीतक्याकृतित्वयो यवमध्यस्तथोकः। भालिङ्गायश्चैव गोपुरछः मध्यदक्षिणवामगा।' इति च / आलिङ्गयोऽप्यूर्वक इति विरोधः। आलिङ्गयता. मालिङ्गनीयस्वमूर्वक ऊर्ध्वभाग इत्याविरोधः / सेयं ग्रीवाद्भुतैवोक्तविरोधादुक्तलक्षणयोगित्वाचेति भावः / अत्र विरोधाभासयोः संसर्गात् सजातीयसंसृष्टिः॥ 66 // यह ( दमयन्तीकी ) ग्रीवा अर्थात गर्दन अदुभुत ही है, जो बालकसे शोभित नहीं होने पर भी माणवक (बालक ) से प्रसाधित अर्थात् सुशोभित है, यह विरोध है; इसका परिहार इस प्रकार है कि-जो गर्दन अवटु अर्थात् गर्दनको घाँटी या गर्दन के पिछले भाग से शोभित होने पर भी माणवक अर्थात् बीस (या सोलह या चालिस ) लदियोवाली मोती की मालासे अलङ्कृत है और भालिगयता ( गोपुच्छाकार मृदङ्ग भाव ) को धारण करती हुई समान रूपताको धारण करती है तथा सम्पूर्ण ऊर्जक ( यवमध्याकार मृदा) वाली है ( यहाँ भी विरोध है, क्योंकि ) जो गोपुच्छाकार अर्थात गावदुम है, वह समान रूपवाली तथा यवमध्यके समान (मध्यमें स्थूल और दोनों किनारों पर पतली), इस प्रकार तीन आकृतिवाली नहीं हो सकती, इस विरोधका भी परिहार इस प्रकार है कि-जो गर्दन आलिङ्गन योग्यताको धारण करती हुई भी समान रूपवाले अर्थात् सब भागों में बराबर ऊपरी भाग ( 'काया' पाठान्तरमें- ऊपरी शरीर मुख, नेत्र, नासिका ललाट आदि ) वाली है। ( 'मुरूपता' पाठा-सौन्दर्ययुक्त सम्पूर्ण ऊपरी भागवाली है / अथवा-'मानामरूपता सम्पूर्ण ऊपरी भाग ( या पाठभेदसे शरीर ) वाली है ) // 66 // कवित्वगानप्रियवादसत्यान्यस्या विधाता न्यधिताभिकण्ठे / रेखात्रयन्यासमिषादमीषां वासाय सोऽयं विवभाज सीमाः // 67 // कविश्वेति / विधाता अस्या अधिकण्ठं कण्ठे / विभत्तत्यर्थेऽध्ययीभावः। कवित्वं च गानं च प्रियवादश्च सत्यं च तानि चत्वारि न्यधित निहितवान् / सोऽयं विधाता अमीषां कवित्वादीनां चतुर्णा वासाय कण्ठे असङ्कीर्णस्थितये रेखात्रयन्यासमिपात कम्बुग्रीवा त्रिरेखा सती लचमसम्पत्तिरिति भावः / सीमा मर्यादा विबभाज मध्य. रेखात्रयविन्यासेन चतुर्धा विभक्तवान् , अविवादायेति भावः / अत्र ग्रीवागतभाग्य. रेखात्रये सीमाविभागचितत्वमुस्प्रेक्ष्यते // 6 // ब्रह्माने इस दमयन्ती के कण्ठमें कविता सङ्गीत, मधुर भाषा और सत्य को रख दिया है (फिर ) उसने इन चारों ( कविता आदि ) के निवास ( अपने-अपने मर्यादित नियमित स्थान पर रहने के लिए तीन रेखाओं को रखने के बहानेसे सीमाओका विभाजन कर दिया है। जिस प्रकार एक स्थान पर चार व्यक्तिओं के रहनेपर उनके रहने के स्थानकी सीमः ना देने पर वे परस्पर में कभी विवाद नहीं करते और अपने-अपने नियमित स्थानमें रहते , उसी प्रकार दमयन्तीके कण्ठमें कविता आदि को रखकर ब्रह्माने उनके अपने-अपने नियत पानपर ( पक्षा०-मर्यादापर ) रहने के लिए तीन रेखाओं के बहाने सीमा बना दी है Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 नैषधमहाकाव्यम् / तीन रेखा करनेपर स्थानके चार माग हो जाते है / दमयन्ती कविता सङ्गीत आदि पण्डिता तथा कण्ठमें तीन रेखा होने से कम्बुकण्ठी (शक्षके समान कण्ठवाली-अतएव शुम लक्षणयुक्त ) है ] ! 67 // बाहू प्रियाया जयतां मृणालं द्वन्द्वे जयो नाम न विस्मयोऽस्मिन् / उच्चस्तु तच्चित्रममुष्य भग्नस्यालोक्यते निर्व्यथनं यदन्तः // 68 / / बाहू इति / प्रियाया बाहू मृणालं अयतां नाम / जयतेोटि तसस्तामादेशः / अस्मिन् द्वन्द्वे युग्मे कलहे च / 'द्वन्द्वकलहयुम्मयोः' इत्यमरः / जयो नाम विस्मयोsद्भुतो न, किंतु भग्नस्य जितस्यामुष्य मृणालस्य अन्तर्गर्भ अन्तःकरणे च व्यथनस्याभावो निय॑थनमव्यथं छिद्रं च 'छिदं नियनं रोकम्' इत्यमरः / अर्थाभावे अन्य. यीभावः / यद्विलोक्यते तदुच्चमहञ्चित्रं भग्नोऽप्यन्यथ इति विरोधात् / छिद्रं विलोक्यत इत्यविरोधः / मृणालस्यान्तश्चिद्रत्वात्। विरोधाभासोऽलङ्कारः // 68 // प्रिया ( दमयन्ती ) के दोनों बाहु कमलनालको जीत ले, इस द्वन्द (बाहुओं, पक्षा०युद्ध ) में विजय होना आश्चर्य नहीं है। किन्तु यह बड़ा आश्चर्य है कि भग्न हुए (प्रियाके बाहुद्वयसे पराजित हुए; पक्षा०-तोड़े गये) इस (कमलनाल ) का हृदय (पक्षा०-भीतरी माग) व्यथारहित ( पक्षा०-छिद्रयुक्त) देखा जाता है। [ दमयन्ती के दो बाहु एक कमल. नालको जीत लें, इसमें आश्चर्य नहीं, क्योंकि दोसे एकका पराजित होना स्वाभाविक ही है अथवा-दमयन्तीके दो बाहु युद्ध में कमलनालको बीत लें, इसमें आश्चर्य नहीं, क्योंकि युद्ध में एक पक्षका पराजित होता स्वाभाविक ही है। किन्तु पराजित व्यक्तिका हृदय व्यथित हो जाता है, पर कमलनालका हृदय व्यथित अर्थात् व्यथायुक्त नहीं दिखलाई पड़ता यह बड़ा आश्चर्य है ( यहाँ विरोधालङ्कार है) उसका परिहार यह है कि तोड़े हुए कमल बालका भीतरी भाग छिद्रयुक्त दिखलायी पड़ता है। दमयन्तीके बाहु कमलनालसे भी मुन्दर हैं ] // 6 // अजीयतावतशुभंयुनाभ्यां दोभ्या मृणालं किमु कोमलाभ्याम् / निस्सूत्रमास्ते घनपङ्कमृत्सु मूर्तासु नाकीर्तिषु तन्निमग्नम् / / 66 / अजीयतेति / आवतोऽम्भसा भ्रमः स इव शुभंयुः शुभवती नाभिर्यस्याः सा। तस्या भैम्याः / 'शुभंयुस्तु शुभान्वितः' इत्यमरः / “अहंशुभमोर्यस्' इति शुभमिति मकारान्ताव्ययान्मत्वर्थीयो युस्प्रत्ययः / कोमलाभ्यां मृदुभ्यां दोभ्यां भुजाभ्यां मृणालमजीयत किमु मार्दवगुणेन जितं किमित्युत्प्रेचा / कुतः, धनासु सान्द्रासु पङ्करूपासु मृत्स्वेव मूर्तासु मूर्तिमतीष्वकीर्तिषु तन्मणालं निमग्नं निस्सूत्रं निर्व्यवस्थं निर्मर्यादं नास्ते किं काकुः / अपराजितवे कथमकीर्तिपकपात इति भावः // 69 // आवते (पानीका भौंर) के समान शुभलक्षणयुक्त नाभिवाली ( दमयन्ती ) के कामल दोनों बाहुओंने कमलनालको जीत लिया है क्या ? (क्योंकि ) वह (कमलनाल) सूत्ररहित Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 287 (धागेके बिना. पक्षा-निरवधि या निरपाय होकर) गाढ़ी कीचड़रूप मिट्टीवाले साकार अपयशमें डूबा या फंसा हुआ नहीं है ? अर्थात् फंसा हुआ है ही। [ बहुत कोमल कमलनालके भीतर सूत्र ( धागा ) नहीं होता है। जैसे पराजित व्यक्ति अपकीतिमें फंसा हुआ निरुपाय हो जाता है, उसी प्रकार दमयन्तीके वाहुओंसे पराजित कमलनाल गाढ़े कीचड़रूप साकार अपयशमें फंसा हुआ निरुपाय हो रहा है / कीतिका स्वरूप श्वेत तथा अपकीर्तिका काला होता है, अतएव यहां कृष्णवर्ण कीचड़के साकार अपकीर्ति कहा गया है / दमयन्तीके बाहु कोमल मृणाल ( कमलनाल ) से भी अधिक कोमल है // 69 // रज्यन्नखस्याङ्गुलिपञ्चकस्य मिषादसौ हैङ्गुलपद्मतूणे | हैमैकपुङ्खास्ति विशुद्धपर्वा प्रियाकरे पञ्चशरी स्मरस्य / / 70 / / रज्यदिति / रज्यन्तः स्वभावरकाः नखा यस्य तस्य / “कुषिरजोः प्राचां श्यन् परस्मैपदं च"। अङ्गुलिपश्चकस्य मिषात् असौ पुरोतिनी हैमाः सौवर्णाः एके केवला असाधारणाः पुङ्खाः कर्तर्याख्या मूलप्रदेशा यस्याः सा : 'कर्तरी पुच' इति यादवः / विशुद्धपर्वा निर्वणग्रन्थिः सरलग्रन्थिरित्यर्थः / स्मरस्य पञ्चशरी शरपञ्चकम् / समाहारे द्विगोर्डीप / प्रियाकरे भैमीपाणावेव हिङ्गुलेन रक्तं हैडलं तस्मिन्नेव पद्मतूणे मस्ति वर्तत इत्युत्प्रेक्षा // 70 // लालनखवाली पांच अङ्गुलियोंके बहानेसे स्वर्णमय पंखवाली विशुद्ध (छिद्रादि दोष रहित, पक्षा०-सीधी) पर्वो ( गाठों, पक्षा०-अङ्गुलिके पोरों) वाली कामदेव की यह पच्चबाणवली ( पांच बाण ) प्रियाके हाथ (रूप) हिङ्गुलसे रंगे हुए कमलरूप तरकसमें स्थित है : [ कामदेवके बाण पुष्पमय हैं, अतः तरकस मी पुष्पमय है, वह पुष्प रक्त कमल है, तरकसको भी हिङ्गुलते रंगा जाता है, प्रियाका हाय ही कामबाणोंको रखनेका तरकस है, लालवर्ण नख बाणों के पंख हैं और पांच अङ्गुलियां कामदेवके पांच बाण हैं / दमयन्तीका हाथ कामोत्पादक तथा हिङ्गुलसे रंगे हुए के समान अत्यन्त रक्त वर्णवाला है ] / / 70 / / / अस्याः करस्पशनगर्षिऋद्धिोलत्वमापत् खलु पल्लवो यः / भूयोऽपि नामाधरसाम्यगर्व कुर्वन् कथं वाऽस्तु स न प्रवालः // 7 // अस्या इति / यः पल्लवः किसलयः अस्याः करेण स्पर्शनं गृध्नातीति तद्गधिनी ऋद्धिः कान्तिर्यस्य स कृतस्पर्धः सनित्यर्थः / "ऋत्यकः" इति प्रकृतिभावः / बालत्वं शिशुत्वं प्रत्यग्रत्वं मूर्खत्वं चापत् खलु / 'मूर्खेऽर्भकेऽपि बालः स्यात्' इत्यमरः। अल्पोऽधिकस्पर्धी मूखों भवतीति भावः। भूयोऽपि नाम पुनरपि किल मूर्खत्वं प्राप्स्यतीत्यर्थः। अधरसाम्येन गर्व कुर्वन् अधरसाम्याभिमानं कुर्वन् सपल्लवःप्रवाल: प्रवालशब्दवाच्यः बवयोरभेदात् प्रकर्षण बालश्व कथं वा नास्तु न स्यात् ? स्यादेवेत्यर्थः / अल्पोऽधिकतरस्पर्धी त्वतिमूर्ख इति भावः / अधिकतरश्च करादधर रतिसर्वस्वत्वात् / तथा चाधरसाम्यं तावदास्ताम् / पलवस्य करसाम्यमपि दुरापास्तमित्यर्थः / ततश्च प्रवालशब्दस्थ पल्लवप्रवृत्तिनिमित्तमप्येतदेवेति भावः // 71 // Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाम्यम् / इस दमयन्तीके हाथको छूने ( समानता करने) के महालोमी पल्लवने निश्चय ही बालत्व (बचपन अर्थात् नवीनता) को प्राप्त किया (क्योंकि लाल वर्ण होनेसे नवीन पल्लव ही हाथकी समानता कर सकता है / अथवा-चालव अर्थात् मूर्खताको प्राप्त किया ( मूर्ख बन गया, क्योंकि जो पल्लव (पद् + लव = पल्लव ) लर्थात् दमयन्तीके पैरके लेश ( शुद्रतम भाग ) के बरावर है, वह ( दमयन्तीके परके क्षुद्रतम भागके समान वस्तु ) उसके हाथकी समानता करके मूर्ख ही कहलायेगी। और फिर (दमयन्तीके ) अधर की समानता का अभिमान करनेवाला वह पल्लव प्रवाल (अत्यधिक नवीन अर्थात अतिशय लाल वर्णवाला) होने के लिये अत्यन्त नया क्यों नहीं होगा। (क्योंकि अतिशय नवनीत्व(नया होकर) बहुत लालिमा प्राप्त किये विना वह अधर की समानता नहा कर सकता है) अथवा-दमयन्ती के अधर की समानता का अभिमानी वह पल्लव प्रवाल (प्र+वालप्रवाल) अर्थात् अधिक मूर्ख क्यों नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा। [जो पल्लव ( दमयन्तीके पैरके क्षुद्रतम भागके समान होनेसे) पहले हाथकी समानता करके मूर्ख बन चुका है, वही पल्लव फिर हाथसे भी श्रेष्ठ अधरकी समानता करने का अभिमान (इच्छा मात्र ही नहीं, किन्तु अभिमान भो) करे वह महामूर्ख क्यों नहीं होगा ! अर्थात् अवश्य होगा। लोकमें भी होनतम व्यक्ति मध्यम व्यक्ति की समानता करने की इच्छा करने पर मूर्ख तथा अत्युत्तम व्यक्तिको समान होने का अमि. मान करनेपर महामूर्ख समझा जाता है / दमयन्तीके हाथ ही पल्लवसे अधिक सुन्दर तथा रक्त वर्ण है तो फिर अधर का क्या कहना है ? अर्थात् वह तो पल्लवसे अधिक सुन्दर एवं रकवर्ण है ही] // 71 // अस्यैव सगोय भवत्करस्य सरोजसृष्टिमम हस्तलेखः / इत्याह घाता हरिणेक्षणायां किं हस्तलेखीकृतया तयास्याम् // 79 // अस्येति / अस्य भवरकरस्य भवत्याः पाणेः सर्गाचैव सरोजराष्टिः मम हस्तलेखो रेखाभ्यास इति विधाता अस्यां हरिणेषणायां भैम्यां हस्तलेखीकृतया अभ्यासीक. तया हस्तकृतपमरेखीकृतया च तया सरोजसध्या करणेनाह किम् ? भैम्यै कथयति किमित्युत्प्रेक्षा // 72 // "इस तुम्हारे हाथके बनाने के लिये ही कमलकी रचना मेरा हस्तलेख अर्थात् प्रथम रेखाभ्यास है" इस प्रकार ब्रह्मा मृगनयनी इस दमयन्तीमें हाथमें रेखा को गयो ( या हाथमें लिखी गयी ) उस कमल-रचना द्वारा कहते हैं क्या ? / [ दमयन्तोके हाथमें कमलाकार रेखा (चिह्न) है, अतः मालूम पड़ता है कि ब्रह्मा इस दमयन्तीके हाथ में कमलरेखा बनाकर 'हमने तुम्हारे हाथकी रचना करने के लिये ही अभ्यासार्थ रेखारूपसे हाथमें अङ्कित कमलकी सृष्टि की है' यह कह रहे हैं। दूसरा कोई भी शिल्पो उत्तम वस्तु बनाने के पले रेखा आदि बनाकर अभ्यास कर लेता है / दमयन्तीके हाथ कमलसे भी सुन्दर तथा कमल रेखाङ्कित होनेसे शुभ लक्षण सम्पन्न हैं ] // 72 // Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 सप्तमः सर्गः। किं नर्मदाया मम सेयमस्या दृश्याऽभितो बाहुलता मृणाली / कुचौ किमुत्तस्थतुरन्तरीपे म्मरोष्मशुष्यत्तरवाल्यवारः / / 73 / / किमिति / स्मरोष्मणा स्मरसन्तापेन शुष्यत्तरमतिशुष्यत् / बाल्यमेव वाः वारि यस्यास्तस्या भैम्या एव नर्मदायाः क्रीडाप्रदायाः रेवायाश्च सम्बन्धिनी। 'रेवा तु नर्मदा' इत्यमरः / अभित उभयतो दृश्या सेयं बाहुलता मृणाली विसलता किम् ? अत्र नर्मदाया विधेयप्राधान्यात् मृणाल्याः साक्षात् सम्बन्धात् “अभितः परितः" इत्यादिना द्वितीया नास्ति / कुचावेवान्तरीपे अपामन्तस्तटे 'द्रोपोऽस्त्रियामन्तरी यदन्तर्वारिणस्तटम्' इत्यमरः / "सुपसुपा" इति समासः। "क-पूः" इत्यादिना समासान्तोऽकारः / “दूधन्तरुपसगभ्योऽप ईत्" उत्तस्थतुलस्थिती किम् ? ऊर्ध्वकर्म. स्वात् परस्मैपदं रूपकोज्जीविता उस्प्रेक्षा // 73 // कामजन्य सन्ताप ( पक्षा०-कामरूपी सन्ताप अर्थात् धूप ) से अधिक सूख रहा है, शैशवरूप जल जिसका ऐसी तथा मुझे आनन्द देनेवाली इस दमयन्तीके ( पचा०-इस नर्मदा नामक नदीके ) दोनों ओर दिखलाई पड़ती हुई ( अथवा दर्शनीय अर्थात् सुन्दर ) बाहुलता विसलता है क्या ? और दोनों स्तन जलके भीतर ऊपर उठे हुए दो द्वीप अर्थात् टापू हैं क्या ? कुछ टीकाकारोंने "स्मरोष्मशुष्यत्तरवाल्यवारः" विशेषण पदको केवल उत्त. रार्द्ध के साथ ही अन्वय किया है)। [जिस नर्मदा नदीमें दोनों सुन्दर बिसलता दृष्टिगोचर होती है तथा धूपसे पानीके सूखनेसे दोनों ओर ऊपर उठे टापू दृष्टिगोचर होते हैं, उसी प्रकार कामके द्वारा दमयन्तीका बचपन दूर होता जा रहा है और स्तन बढ़ गये है, बाहुलता बिसलताके समान मालूम पड़ रही हैं ] // 73 // तालं प्रभु स्यादनुकर्तुमेतावुत्थानसुस्थी पतितं न तावत् / परं च नाश्रित्य तरुं महान्तं कुची कशाङ्गायाः स्वत एव तुङ्गौ // 7 // तालमिति / तावत् पतितं च्युतं तालफलं कर्तृ उत्थानेन ऊर्धावस्थानेन सुस्थौ सुप्रतिष्ठौ अपतितावित्यर्थः / एतौ कुचौ अनुकतुं न प्रभु समर्थं न स्यात् , पतिताऽ. पतितयोः कुतः साम्यमिति भावः / परं पतितं च महान्तमतितुङ्गं तरुमाश्रित्य, तुझं सदिति शेषः / स्वत एव तुङ्गौ कृशाङ्गन्याः कुचौ अनुकतुं न प्रभु / कुतः स्वाभाविको यदित्यर्थः / अस्वाभाविकस्वाभाविकौन्नत्ययोः कथं साम्यमिति भावः // 74 // ___ (पेड़से गिरा हुआ) तालफल सर्वदा ऊपर हुए अर्थात् उन्नत दमयन्तीके दोनों स्तनको समता ( बराबरी ) करनेमें समर्थ नहीं है अर्थात् समानता नहीं कर सकता, और दूसरा ( विन। गिरा हुआ ) तालफल बड़े पेड़का आश्रयकर स्वत एव विना किसीको आश्रय किये अपने आप ऊँचे इसके दोनों स्तनोंकी समता करनेमें समर्थ नहीं है। [ जो गिरा हुआ है वह उन्नतकी ओर जो दूसरेके आश्रयसे ऊँचा बना हुमा है वह स्वभावतः एव ऊँचा रहने Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / वालेकी समता नहीं कर सकता है; क्योंकि उनमें परस्परमें बहुत अन्तर है / दमयन्तीके दोनों स्तन तालके समान बड़े हैं तथा ऊपरको उठे हुए अर्थात् उन्नत हैं ] // 74 // एतत्कुनस्पधितया घटस्य ख्यातस्य शाखेषु निदशेनत्वम् / तस्माच्च शिल्पान्माणकादिकारी प्रसिद्धनामानि कुम्भकारः / / 5 / / एतदिति // एतत्कुचस्पर्धितया स्यातस्य लोके प्रसिद्धस्य घटस्य कुम्भस्य शास्त्रेषु निदर्शनत्वं तत्र तत्र दृष्टान्तत्वमजनि / किन मणिकादिकारी अलिअरादिमहाभाण्डनिर्माता कुलालः 'अलिअरः स्यान्मणिकः' इत्यमरः / तस्मादेव शिल्पात् घटनिर्माणात् कुम्भकार इत्येव प्रसिद्धनामाजनि / महत्संसर्ग इव तत्सहर्षोऽपि च्यातिकर इति भावः // 75 // इस दमयन्तीके स्तनोंका स्पी होनेसे प्रसिद्ध घड़ा शास्त्रोंमें दृष्टान्त बन गया (यथा" जो कृत्रिम है वह अनित्य है, जैसे-घड़ा" इस प्रकार अन्य वस्तुओंको छोड़कर केवल घड़ेका ही दृष्टान्त दिया जाता है (प्रसिद्धके साथ स्पर्धा करनेवाला अप्रसिद्ध भी प्रसिद्ध है। जाता है ) / और कुण्डा, कमोरा आदि बनाने वाला कुलाल दमयन्ती कुचदयस्पद्धी उर्स कारीगरी अर्थात् घड़ा बनानेसे ही 'कुम्भकार' अर्थात् कुम्हार नामसे प्रसिद्ध हो गया। [ यद्यपि कुलाल अर्थात् कुम्हार कुण्डा, मांड आदि बड़े, बड़े एवं कसोरा, पुरवा, दिआ, दिअरी आदि छोटे-छोटे भी बर्तनोंको बनाता है, किन्तु दमयन्तीके स्तनद्वयकी स्पर्धा करनेवाले घड़ोंको बचानेके कारण ही उसका 'कुम्भकार' नाम पड़ा है ] // 75 / / गुच्छालयस्वच्छतमोदबिन्दुवृन्दाममुक्ताफलफेनिलाङ्के। माणिक्यहारस्य विदर्भसुभ्रूपयोधरे रोहति रोहितश्रीः / / 76 // 'गुच्छेति ।माणिक्यमयस्य हारस्य रोहितश्रीः लोहिता कान्तिः विदभ्रसुभ्रपयोधरे भैमीकुचे रोहन्ति प्रादुर्भवन्ति / किम्भूते-गुच्छो हारविशेष आलय आश्रयो येषां तानि स्वच्छतमानि निर्मलतरा (मा) णि उदबिन्दुवृन्दवज्ज्लबिन्दुसमूहवदाभा येषां तानि मुक्ताफलानि तैः फेनिलः फेनयुक्त इव उज्वलतरोऽको मध्यो यस्य / मुक्ताहारमाणिक्यहाराभ्यां भैमीकुचौ शोभेते इति भावः / अथ च पयोधरे मेघे रोहितश्रीः ऋजुशक्रधनुःशोभा प्रादुर्भवतीत्युक्तिः / 'हारभेदा यष्टिभेदाद् गुच्छगुच्छार्द्धगोस्तनाः' 'इन्द्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजुरोहितम्' 'रोहिते लोहितो रक्तः' इत्यमरः / फेनिलः, मत्वर्थे 'फेनादिलच्च' इतीलच // 76 // / ___ 'गुच्छ' नामक हार के अत्यन्त निर्मल जलबिन्दु समूहके समान मोतियोंसे मानों फेनयुक्त, सुन्दर भ्र वाली विदर्भराजकुमारी दमयन्तीके स्तनपर ( पक्षा०-मेघमें ) माणिक्योंके 1. 'जीवातु' व्याख्याऽनुपलब्धरत्र 'नारायण' भट्टकृता 'प्रकाश' व्याख्येव मयोपयुक्ततया प्रकाशितेत्यवधेयं पाठकैरिति / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 सप्तमः सर्गः। हारकी लाल कान्ति (पक्षा०-सीधे०-इन्द्रधनुष की शोभा) प्रकटित हो रही है। .[ दमयन्ती के स्वच्छतम मोतियोंके हार की श्वेत कान्ति तथा माणिक्य मणियों के हारकी लाल कान्ति स्तनों पर पड़ती है, वह श्वेतफेनयुक्त मेघमें सरल इन्द्रधनुषकी लालकान्ति-जैसी मालूम पड़ती है। 32 या किसीके मतसे 70 लड़ियोंकी मुक्तामालाको 'गुच्छ' कहते हैं ] // 76 // निःशसोचितपंकजोऽयमस्यामुदीतो मुखमिन्दुबिम्बः ! चित्रं तथापि स्तनकोकयुग्मं न स्तोकमप्यश्चति विप्रयोगम् // 7 // निःशङ्केति / निःशङ्कं यथा तथा सङ्कोचितानि मुकुलितानि पङ्कजानि येन सोऽयं मुखमेवेन्दुबिम्बोऽस्यां भैम्यामुदीत उदितस्तथापीन्दूदयेऽपि स्तनावेव कोको चक्रवाकी / 'कोकश्चक्रश्चक्रवाकः' इत्यमरः। तयोर्यग्मं स्तोकमल्पमपि विप्रयोग नाञ्चति न गच्छति चित्रं मुखेन्दूदयेऽपि कुचकोकयोरवियोग इति रूपकोत्थापितो विरोधाभास इति सङ्करः॥ 77 // __निःशङ्क होकर पद्मको संकुचित करनेवाला यह मुखरूप चन्द्रबिम्ब ( या चन्द्रबिम्ब रूप मुख ) इस दमयन्तीमें उदित हुआ है, तथापि स्तनरूप चक्रवाकमिथुन अर्थात चकवाचकई नामक पक्षी जोड़े भी विरह को नहीं प्राप्त कर रहे हैं अर्थात् दोनों स्तन सटे हुए हैं, यह आश्चर्य है / दमयन्तीका मुख साक्षात् चन्द्रमा हैं अत एव उसने [दिनमें कमलबन्धु सूर्यके रहनेसे चन्द्रमा सूर्यके भयसे कमलको संकुचित नहीं कर पाता; किन्तु दमयन्तीके मुखचन्द्र को तो सूर्यसे कोई भय है ही नहीं, अतः यह ( दमयन्ती मुखचन्द्र) निश्शत होकर स्तन रूप कमलको संकुचित करता है, अतएव दमयन्तीका स्तनद्वय कमलके कोरकके आकार वाला है / चन्द्रमाके उदय एवं कमलके संकुचित होनेपर रात्रि हो जाती है और उस समय चकवा-चकईका परस्परमें विरह रहता है...वे एक साथ नहीं रहते, किन्तु यहां चन्द्रके द्वारा कमलके संकुचित होनेपर भी स्तनद्वयरूप चकवा-चकईकी जोड़ी परस्परमें थोड़ा भी या थोड़े समय के लिये भी अलग नहीं है ( दोनों स्तन बड़े-बड़े होनेके कारण परस्परमें मिले हुए हैं, ) यह आश्चर्य है / अथवा-सूर्यसे डरा हुआ प्राकृत चन्द्रमा केवल रातमें ही कमलोंको संकुचित करता है, दिनमें नहीं, अतएव रात्रिका समय होनेसे चकवा-चकईका परस्परमें वियोग होना (अलग हो जाना) ठीक है; इस दमयन्ती का मुखचन्द्रमाने तो सूर्यसे निश्शक होकर दिनमें भी कमलका सङ्कोच कर दिया है, अत एव रात न होनेसे चकवाचकईरूप ( स्तनद्वय ) का थोड़ा भी वियोग नहीं है / ( दोनों स्तन थोड़ा भी अलग-अलग नहीं है ), किन्तु विशाल होनेके कारण परस्परमें मिले हुये हैं, यह आश्चर्य है ? अर्थात् कोई आश्चर्य नहीं है, इस प्रकार काकुद्वारा द्वितीयार्थकी सङ्गति होती है। दमयन्तीके स्तन कमलाकार एवं चक्रवाकाकार तथा बड़े-बड़े होनेसे परस्परमें मिले हुए हैं ] / / 77 // आभ्यां कुचाभ्यामिभकुम्भयोः श्रीरादीयतेऽसावनयोः क ताभ्याम् | भयेन गोपायितमौक्तिकौ तौ प्रव्यक्तमुक्ताभरणाविमौ यत् / / 78 / / Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 नैषधमहाकाव्यम् / माभ्यामिति / आभ्यां कुचाभ्यामिमकुम्भयोः श्रीः शोभा सम्पच, आदीयते गृह्यते ताम्यामिभकुम्भाभ्यामनयोः कुचयोः असौ श्रीः कादीयते ? न कापि इत्यर्थः / यत् यस्मात् तो इभकुम्भौ भयेन कुचभीत्या गोपायितमौक्तिको अन्तर्गुप्तमुक्ताफलौ। गोपायतेः कर्मणि क्तः / इमौ कुचकुम्भौ अव्यक्त प्रकाशितं मुक्ताभरणं याभ्यां तो। यथा राज्ञा हृतधनो भयद्धनशेषं गोपायति राजा तु प्रकाशयति तद्वदित्यर्थः / इमकुम्भश्रिय पादानादखण्डितस्वश्रीकत्वाच ताभ्यामप्यधिको कुचकुम्भाविति भावः॥ ये (दमयन्तीके ) दोनों स्तन हाथीके ( मस्तकस्थ ) कुम्भ की शोभा ( पक्षा-सम्पत्ति अर्थात् धन ) ले लेते हैं और वे ( हाथीके कुम्भ ) इन ( दोनों स्तनों) की शोभा (पक्षा०सम्पत्ति ) को कहां लेते हैं ? अर्थात् नहीं लेते; क्योंकि उन हाथी के दोनों कुम्भोंने भयसे (राजरूप दमयन्तीके स्तन पुनः मेरी गज-मुक्तारूप सन्पत्तिको न छीन लें इस भयसे) अपने गजमुक्ताको भीतर छिपा रखा है तथा ये दमयन्तीके दोनों स्तन स्पष्ट दृश्यमान मुक्ताभूषणवाले हैं अर्थात अपने मुक्ताओंको बाहर दिखला रहे हैं / (राजा या बलवान् व्यक्ति प्रजाके धनको बलात्कार से छीन लेते हैं और उन्हें बाहर सबके सामने दिखलाते हैं, छिपाते नहीं; तथा दुर्बल प्रजा या दुर्बल व्यक्ति उस प्रकार धनके छीने जानेपर बचे हुए अपने धनको छिपाकर रखता है, क्योंकि उसे भय रहता हैं कि बचे हुए मेरे इस धनको भी वे फिर न छोन लें / उसी प्रकार नृपरूप दमयन्तीके स्तनद्वय प्रजारूप हाथीसे कुम्भद्यकी शोमा या धनको छीन कर गजमुक्ताभरणको बाहर धारण किये हुए हैं ( पक्षा०-गजकुम्म द्वयसे स्तनद्वय अधिक शोभावाले हैं ] और हाथीके कुम्भद्वयसे शेष बचे हुए गजमुक्ताको भीतर छिपा रखा है / दमयन्ती स्तनद्वय हाथीके कुम्भद्वयसे अधिक सुन्दर है ] // 78 // कराप्रजापच्छतकोटिरर्थी ययोरिमौ तौ तुलयेत् कुचौ चेत् / सर्व तदा श्रीफलमुन्मदिष्णु जातं वटीमप्यधुना न लब्धुम् // 7 // कराग्रेति / कराग्रे हस्तस्याने जाग्रत् प्रकाशमानः शतकोटिः वज्रं तत्सङ्खचं धनं च यस्य स महेन्द्रो ययोः कुचयोः कर्मणोरर्थी ताविमौ महेन्द्राभ्यर्थिती कुचौ कर्म वटी पुद्रकपर्दिकामपि 'वटः कपर्दै न्यग्रोधः' इति विश्वः / अपचयविवक्षायां स्त्री. लिमप्रयोगः। 'स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविवक्षापचये यदि' इत्यमराभिधानात् / लन्धुं न जातं न शक्तं निःस्वमित्यर्थः / सर्व श्रीफलं बिल्वफलं कर्तृ / 'बिल्वे शाण्डि. स्यशैलूषो मालरश्रीफलावपि' इत्यमरः / तुलयेदात्मनोपचिनुयाच्चेत् तदा उन्मदि शु उन्मादि स्यादित्यर्थः / "अलकृष" इत्यादिना इष्णुच् / उपमातीते वस्तुनि उपमात्वाभिमानः / तथा धनिकैकलभ्ये वस्तुनि निःस्वस्य लिप्सा चोन्माद एवे. स्यर्थः // 79 // जिसकी मुट्ठी में वज्र (पक्षा०-सौ करोड़ = एक अरब धन ) प्रकाशित हो रहा है अर्थात वर्तमान है, वह इन्द्र ( पक्षा०-अरबपति महानिक) जिन (दोनों स्तनों ) का Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 393 याचक है अर्थात् कामुक होनेसे स्वर्गाप्सराओंको छोड़कर मर्दन करना चाहता है (पक्षा०महायनिक होकर भी जिनसे याचना करता अर्थात् भिक्षा मांगता है ), उनकी समता फूटी कौड़ीकी भी नहीं पानेवाला सम्पूर्ण श्रीफल (बेल ) करे तो वह पागल है / अथवा-जिसकी मुठीमें...."याचना है, उनकी समता यदि उन्मादित करनेवाला अर्थात् पका हुआ सम्पूर्ण श्रीफल भी करे तो वह ( श्रीफल ) फूटी कौड़ी (लक्षणासे स्तनशोभाका लेशमात्र) भी नहीं पावे। [ दो स्तनोंकी समता पके हुए सम्पूर्ण (बहुत-से) बिल्वफल भी नहीं कर सकते तो फिर एक बिल्वफल कैसे कर सकता है ? अथवा-जिन स्तनोंको स्वर्गकी अप्सराओंको त्यागकर वज्रधारी इन्द्र या महाधनिक कोई अरबपति चाहता है, उसे एक निर्धन व्यक्ति चाहे तो अवश्य ही वह पागल समझा जावेगा / पके हुए विल्वफलसे भी सुन्दर सरस तथा 'स्तनातटे चन्दनपड्कुिलेऽस्या जातस्य यावद्युवमानसानाम् / हारावलीरत्नमयूखधाराकाराः स्फुरन्ति स्खलनस्य रेखाः / / 80 // स्तनेति / चन्दनेन पङ्किले पङ्कवति / "पिच्छादिस्वादिलच्"। अस्याः स्तनयोः अतटे प्रपाते / 'प्रपातस्त्वतटो भृगुः' इत्यमरः / जातस्य यावन्ति युवमानसानि तेषां सर्वेषां सम्बन्धिनः साकल्यार्थस्य यावच्छब्दस्य विशेषणसमासः। स्खलनस्य रेखा गमनमार्गा हारावलीरत्नानां मयूखधारा रश्मिपङक्तयः एवाकारा यासां ताः सत्यः स्फुरन्ति रत्नमयूखधारासु युवमानसस्खलनरेखाङ्कत्वमुच्यते // 80 // चन्दनसे पंकिल (कीचड़युक्त ) इस दमयन्तीके स्तनरूप अतट (प्रपात-झरनेके पानी गिरनेका बीहड़ मार्ग ) में सम्पूर्ण तरुणोंके मनके स्खलित होनेकी रेखाएं अर्थात् चिह 'दमयन्तीके) हारोंके रत्नोंकी किरणोंकी धारारूपमें स्फुरित हो रही हैं। [दमयन्तीके तन मानों एक पर्वत है, यह निरन्तर सौन्दर्यजलके बहते रहनेसे चन्दनलेपरूपी कीचड़से यक्त होकर पिच्छिल ( फिसलने योग्य स्थान ) हो रहा है, अतः वहां उसे देखकर सभी वरुण पुरुषोंका चित्त आकृष्ट होता है ( उसे मर्दनादिद्वारा भोग करना चाहता है) किन्तु वहांसे स्खलित हो जाता है (ठहरता नहीं, विछला (रपट ) कर गिर पड़ता है ), उसीके स्खलित होनेके चिह्नरूप ये हारके रत्नोंकी किरण-धारायें हैं / अन्यत्र भी ऊँचे स्थानसे कोई गिरता हैं तो उसके गिरनेके चिह्न पड़ जाते हैं। पाठभेदसे-चन्दनसे पदिल..... स्तनरूपी गढेमें...... / शेष अर्थ - पूर्ववत् है। दमयन्तीके स्तनोंको देखकर सभी तरुण पुरुष उसे पाना चाहते हैं, किन्तु किसीको वहां स्थान नहीं मिलता है ] // 80 / / क्षीणेन मण्येऽपि सतोदरेण यत् प्राप्यते नाक्रमणं बलिभ्यः / सर्वाङ्गशुद्धौ तदनणराज्ये विजृम्भितं भीमभुवीह चित्रम् / / 81 // .. "स्तनावटे" इति पाठान्तरम् / 2. "तदनगराज्यविजृम्भितम्" इति पाठान्तरम् / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 नैषधमहाकाव्यम् / क्षीणेनेति / इहास्यां भीमभुवि भैम्यां भयङ्करस्थाने च क्षीणेन कृशेन दुर्बलेन च मध्ये अवलग्ने प्रवलशत्रुमध्ये च सता वसतापि उदरेण त्रिवल्यधोभागेन अत एव वलिभ्यः त्रिवलिभ्यः / बवयोरभेदात् बलिभ्यो बलवद्भ्यश्च सकाशात् आक्रमणमभिन्याप्तिरभिभवश्च न प्राप्यते इति यत् तदनाक्रमणं चित्रं, बलिसमीपे दुर्ब. लस्यानाक्रमणं चित्रमित्यर्थः / किश्च सर्वेषामज्ञानां करचरणादीनां स्वाम्यमात्यादीनां च शुद्धौ सत्यामनङ्गस्य अङ्गहीनस्य कामस्य च राज्ये बिज़म्भितं तदिदमन्यचित्रमित्यर्थः / अत्र वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायाद्विरोधाभासः // 81 // इस भीमकुमारी दमयन्तीमें ( पक्षा०-भयङ्कर भूमिमें ) क्षीण अर्थात् अत्यन्त कृश (पक्षा०-दुर्बल ) और बीचमें स्थित (पक्षा०-कटि = कमरमें स्थित) उदर अर्थात् त्रिवलिका अधोभागस्थ पेट जो त्रिवलियोंसे ( पक्षा०-तीन बलवान् पुरुषोंसे ) आक्रान्त अर्थात् पीडित नहीं होता है; यह आश्चर्य है / सम्पूर्ण हाथ-पैर आदि अङ्गोंके ( पक्षा०-अमात्य, मित्र आदि सात राज्यागों के ) शुद्ध अर्थात् निर्दोष रहने पर अनङ्ग (अङ्गहीन, पक्षा०-कामदेव ) के राज्यमें अर्थात युवावस्थामें विलसित हो रहा है यह दूसरा आश्चर्य है / [ भयंकर भूमिमें दुर्वलके निवास करते रहनेपर भी उसपर तीन बलवानों का आक्रमण नहीं करना आश्चर्य है / अथवा-जो सर्वाङ्ग शुद्ध है वह अनङ्ग (अङ्गरहित ) राज्य है यह आश्चर्य है; यहां विरोध है, उसका परिहार 'कामदेवका राज्य है' अर्थ द्वारा करना चाहिये / अथवा-जो राजा भीम की भूमि है अर्थ राजा भीमके निषध राज्यमें 'अनङ्ग' (अनगदेशसे भिन्न ) राज्य है यह आश्चर्व है ? अर्थात् कोई आश्चर्य नहीं है / अथवा-जो भीम अर्थात् शिवजीकी भूमि है अर्थात् जहां शिवजीका राज्य है वहां कामदेवका राज्य है, यह आश्चर्य है / अथवाभयंकर अर्थात् जङ्गल और पर्वत आदिसे बीहड़ भूमिमें रहनेवाले दुर्बलपर बलवान् का आक्र. मण नहीं करना आश्चर्य है अर्थात कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वैसे बीहड़ स्थानमें रहनेवाला व्यक्ति वहां के सभी स्थानोंसे परिचित हवं भागने, दौड़ने में अभ्यस्त हो जाता है, अत एव वहां पर बलवान् भी बाहरी व्यक्ति आक्रमणकर सफल नहीं होता। अभी दमयन्तीकी नयी तरुणावस्था होनेसे त्रिवलियों में सक्ष्म रेखामात्र हैं, वे पेटपर लटक नहीं गयी हैं। हाथपैर आदि सम्पूर्ण अङ्ग सुडौल एवं हृष्ट-पुष्ट हैं और उनमें कामदेव का साम्राज्य हो रहा है ] // मध्यं तनूकृत्य यदीदमीयं वेधा न दण्यात् कमनीयमंशम / केन स्तनौ संप्रति यौवनेऽस्याः मृजेदनन्यप्रतिमाङ्गदीप्तेः // 82 // मध्यमिति / वेधा इदमीयमेतदीयं मध्यमवलग्नं तनुकृत्य निर्माणकाले हास. यित्वा कमनीयमंशमुद्धृतं भागं न दध्यात् यदि कचिन्न स्थापयेद्यदि, संप्रति यौवने अनन्यप्रतिमाऽनन्योपमाङ्गदीप्तिर्यस्यास्तस्याः भैग्याः स्तनौ केन सृजेत् ? नूनमुदरोतसारेण अस्याः स्तनौ निर्मितवानित्युत्प्रेक्षा // 2 // यदि ब्रह्मा इस दमयन्तीकी कटिको पतली करके सुन्दर भागको ( कहीं पर सुरक्षित ) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 365 नही रखते तो इस समय अर्थात् युवावस्थामें अनुपम अङ्गकान्तिवाली इस दमन्यतीके दोनों स्तनोंको किस ( सुन्दर सामग्री ) से बनाते / ( अथवा-ब्रह्मा कटिको पतली करके इस ( कटि ) के सुन्दर मागको ............ ) / [जिस प्रकार कोई शिल्पी किसी वस्तुको बनाते समय भविष्यमें बननेवाला वस्तु के लिये उसकी कुछ सुन्दर सामग्रियोंको सुरक्षित रखकर बादमें उन्हीं सुरक्षित सामग्रियोंसे दूसरी वस्तुको भी वैसी ही सुन्दर बनाता है, उसी प्रकार ब्रह्माने भी कटिको बनाते समय बनायी हुई सुन्दर सामग्रीसे इसके स्तनोंको बनाया है / यदि वह सम्पूर्ण सामग्रीको कटि भागके बनाने में ही व्यय कर देते तो पुनः दमयन्तीकी युवावस्था आनेपर अनुपम कान्तिवाली दमयन्तीके स्तनोंको बनानेके लिये संसार में सुन्दर सामग्री नहीं मिलनेसे उन्हें ऐसा सुन्दर नहीं बना सकते ' दमयन्तीकी कटि पतली ए सुन्दर है तथा स्तन भी बैसे ही सुन्दर हैं ] !! 82 // गौरीव पत्या सुभगा कदाचित् कीयमप्यतनूसमस्याम् / इतीव मध्ये निदधे विधाता रोमावलीमेचकसूत्रमस्याः // 23 // गौरीति / सुभगा भर्तृवल्लभा इयं दमयन्ती कदाचित् गौरीव पत्या भी सह अर्धतनूसमस्याम्, अर्धाङ्गसना की करिष्यतीति मवेति शेषः। विधाता अस्या मध्ये अर्धाङ्गमध्ये रोमावलीमेव मेचकसूत्रसीमानिर्णयार्थ नीलसूत्रं निदष इव निहितवात् किमित्युत्प्रेक्षा // 83 // __ सौभाग्यवती या सुन्दरी यह दमयन्ती पार्वतीके समान किसी समय (विवाह होनेपर ) पतिके साथ आधे शरीरको सङ्घटित करेगी, मानो इसी वास्ते ब्रह्माने इस दमयन्तीके ( शरीर के ) बीच में रोमावलीरूप नील एबं चमकदार सूत्र ( के चिह्न ) को रख दिया है / [ जैसे कोई शिल्पी काष्ठ आदिको बीचमें काले सूत्रसे चिह्नितकर विभाग कर देता है, वैसे ही ब्रह्माने दमयन्तीके शरीरके मध्यमे रोमावलि रूप काले सूतका चिह्न कर दिया है कि विवाह होनेपर यह दमयन्ती भी पार्वतीके समान पतिकी अर्धाङ्गिनी बनेगी ] // 83 // रोमावलीरज्जुमरोजकुम्भौ गम्भीरमासाद्य च नाभिकूपम् | मदृष्टितृष्णा विरमद्यदि स्यान्नैषां बतैषा सिच येन गुप्तिः / / 84 // रोमावलीति / मदृष्टेस्तृष्णा पिपासाऽपि रोमावलीमेव रज्जु सरोजावेव कुम्भी तथा गम्भीरं नाभिमेव कूपञ्चासाद्य लब्ध्वा तदा विरमेत् शाम्येत् / अमीभिरुपायैः लावण्यामृतमुत्य सुष्ठ पीत्वेत्यर्थः। एषां साधनानामेषा सिचयेन वस्त्रेण 'वस्त्र. न्तु सिचयः पटः' इति हलायुधः / गुप्तिश्छादनं न स्याद्यदि / बतेति खेदे / रूपका. लङ्कारः // 84 // __ मेरी दर्शनपिपासा ( दमयन्तीके ) रोमावलीरूप रस्सीको, स्तनरूपी घड़ोंको तथा नामि रूपी गम्भीर कूएको प्राप्तकर विरत अर्थात् पूर्ण हो जाती, यदि ये रोमावली आदि कपड़ेसे (पक्षा०-खड्गधारी पहरेदार पुरुषोंसे) गुप्त (ढके हुए, पक्षा०-सुरक्षित) नहीं होते। [ जिसे Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 नैषधमहाकाव्यम्। प्रकार रस्सी, घड़ा और गम्भीर कुएको पाकर भी खड़गधारी पुरुषोंसे राजकीय कृएके सुरक्षित रहनेसे मनुष्यकी प्यास शान्त नहीं हो सकती, उसी प्रकार इन रोमावली आदिके कपड़ेसे ढके रहने के कारण मेरी दर्शनेच्छा पूरी नहीं होती : अथवा-रोमावली आदि यदि कपड़ेसे ढके नहीं रहते तो उन्हें देखकर ( नग्न परस्त्रीको देखनेका शास्त्रों में निषेध होनेसे ) विराग हो जाता, अतः इनका कपड़ेसे ढका रहना ही अच्छा है / दमयन्तीकी रोमावली रस्सीके. समान लम्बी, स्तन घड़े के समान बड़े तथा नाभि कूएके समान गहरी है और कामुक पुरुष की कामतृष्णाको दूर करनेवाले हैं ] 11 84 // उन्मूलितालानबिलाभनाभिश्छिन्नस्खनच्छालरोमदामा। मत्तस्य सेयं मदनद्विपस्य प्रस्वापवप्रोचकुचास्तु वास्तु // 5 // उन्मूलितेति / उन्मूलितमुत्पाटितमालानं स्तम्भो यस्मात् बिलात् तद्विलं तदाभा तन्निभा नाभिर्यस्याः सा / छिन्नं त्रुटितं स्खलच्छवलमिव रोमदाम रोभाव. लियस्याः सा / प्रस्तापस्य वो निद्राहीं मृत्कूटाविव उनौ कुचौ यस्याः सा इयं दमयन्ती मत्तस्य मदनद्विपस्य वास्तु वसतिरस्तु स्यात् / औपम्यगर्भविशेषणं रूप. कम् // 85 // __(मदमत्त हाथीस ) उखाड़े गये बाँधनेके खूटके बिलके समान ( गहरी) नाभिवाली, टूटकर पड़ी हुई लोहेकी शृङ्खला ( हाथी बाँधनेका सीकड़ ) के समान रोमावली वाली और ( उस मत्त गजके ) सोने के लिये मिट्टीकी ढेरके बनाये चौतरेके समान ऊँचे स्तनोंवाली यह दमयन्ती मतवाले कामदेवल्प हार्थीका घर है। [ दमयन्तीकी नाभि बहुत गम्भीर, रोमावली लोहेकी शृङ्खलाके समान लम्बी और ऊँचे 2 स्तन साक्षात् कामदेवके स्थिर निबासस्थान हैं ] // 85 // रोमावलिभ्रकुसुमैः स्वमौर्वोचापेषुमिर्मध्यललाटमूहिन / व्यस्तैरपि स्थास्नुभिरेतदीयजत्रः स चित्रं रतिजानिवीरः // 86 // रोमावलीति / रतिर्जाया यस्य स रतिजानिः कामः स एव वीरः / 'जायाया नि। मध्ये ललाटे मूनि न मध्यललाटमूनि / प्राण्यङ्गत्वात् द्वन्द्वे नपुंसकता। तस्मिन् व्यस्तरसंहितः स्थास्नुभिः स्थायिभिः / 'ग्लाजिस्थश्च स्नुः / एतदीये रोमावली च भ्रवौ च कुसुमानि च तैरेव स्वस्व मौर्वीचापमिषवश्व तै. जेतैव जैत्री जयशीलः / प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण प्रत्ययः / चित्रं भिन्नदेशस्थैरपि चापादिभिर्विजयत इत्याश्चर्यमित्यर्थः / अत एव विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः / / 86 // ___1. क्वचिदेतदर्थकमेवाधस्तनं पचं दृश्यते "पाठान्तरमिदम्, पूर्वश्लोकेनैव गता. र्थत्वात् ; एवमङ्केऽपि न पठन्ति" इति सुखावबोधास्यव्याख्याकारो जिनराजः। तत्पधं यथा पुष्पाणि बाणाः कुचमण्डनानि ध्रुवौ धनुर्भालमलङ्करिष्णु / रोयावलीमध्यविभूषणं ज्या तयापि जेता रतिजानिरीशः // " इति / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। शूर रतिपति ( कामदेव ) कटि, ललाट तथा मस्तकमें अलग-अलग (क्रमशः) स्थित इस दमयन्तीके रोमावली, भ्र तथा पुष्परूप अपने प्रत्यञ्चा (धनुष की डोरी) रूप धनुष और बाणोंसे (तीनों लोक का) विजयी हो रहा है, यह आश्चर्य है। [अच्छासे अच्छा भी दूसरा कोई योद्धा प्रत्यञ्चा, धनुष तथा बाण-तीनों को एकत्र करके ही किसीको जीत सकता है, किन्तु यह कामदेवरूप योद्धाकी प्रत्यञ्चा दमयन्तीकी कटिमें रोमावली है, धनुष ललाटमें भ्र. है तथा बाण मस्तकमें पुष्प है। इस प्रकार तीनों अलग-अलग हैं, तथापि बह कामदेव त्रैलोम्य-विजयी हो रहा है, यह आश्चर्य है ] / / 86 // अस्याः खलु ग्रन्थिनिबद्धकेशमल्लीकदम्बप्रतिविम्बवेशात् / स्मरप्रशस्तीरजताक्षरेयं पृष्ठस्थली हाटकपट्टिकायाम् / / 8 // अस्या इति / अस्याः भैम्याः पृष्ठस्थली कायपश्चाद्भागः / 'पृष्ठं तु घरमं तनो' २त्यमरः / सैव हाटकपट्टिका हेमफलकं तस्यां ग्रन्थिना बन्धेन निबद्धेषु संयतेषु केशेषु यन्मल्लीकदम्ब मल्लीकुसुमनिकुरग्बं तत्प्रतिबिम्बस्य वेशात् प्रवेशाद्धेतोः इयं रजतारा रजतमयवर्णा स्मरप्रशस्तिः स्मरवर्णना खलु नैर्मल्यात् पृष्ठफलप्रतिबि. म्बितानि धम्मिल्लमल्लिकाकुसुमानि हेमफलकविन्यस्ता राजती मदनप्रशस्तिवर्णावलीव भातीत्युत्प्रेक्षा // 87 // इस दमयन्तीकी पीठरूपी सुवर्णपट्टिका ( सुनहला बोर्ड ) पर, गांठों में बाँधे अर्थात् गुथे हुए केशोंमें मल्लिकाके पुष्पोंके समूहके प्रतिबिम्बित होनेके बहानेसे रुपहले अक्षरोंमें काम. देवकी प्रशस्ति लिखी गयी है। [ दमयन्तीकी पीठ सुवर्णके समान गौर वर्णवाली तथा बोर्ड के समान समतल हैं, उसमें केशोंमें गुथे हुए मल्लिकाके पुष्प-समूह प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, ये कामदेवकी रजत-वर्णोंसे लिखित प्रशस्तिके समान मालूम पड़ते हैं / महापुरुषोंकी प्रशस्ति सुवर्णपटपर रजताक्षरोंमें लिखी जाती है ] / / 87 // चक्रेण विश्वं यदि मत्स्यकेतुः पितुर्जितं वीक्ष्य सुदर्शनेन / जगजिगोषत्यमुना नितम्बद्वयेन किं दुर्लभदशनेन / / 88|| चक्रेणेति / मत्स्यकेतुः कामः सुदर्शनेन सुदर्शनाख्येन सुलभदर्शनेन च पितुः विष्णोः चक्रेण विश्वं जितं वीक्ष्य यदि वीक्ष्य किल अमुना दुर्लभदर्शनेन नितम्बद्वयेन कटीफलकद्वयेनेव चक्रेण जगजिगीपति जेतुमिच्छति किमित्युत्प्रेक्षा // मकरध्वज कामदेव पिता ( श्रीकृष्ण भगवान् ) के सुदर्शन ( सुदर्शन नामक, पक्षा०देखने में सुन्दर ) चक्रसे संसारको यदि ( पाठा०-युद्ध में ) जीता गया देखकर घुलभ दर्शन 1. "-कदम्बम्" इति पाठान्तरम् / 2. "-युधि" इति पाठान्तरम् / 3. "नितम्बमयेन" इति पाठान्तरम् / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 नैषधमहाकाव्यम् / बाले इस ( दमयन्तीके ) नितम्बद्वयसे ( पाठा०-नितम्बरूप चक्रसे ) 'संसारको जीतना चाहता है क्या ? / [षिता भ्रीकृष्ण भगवान्ने यदि संसारको सर्वप्रत्यक्ष चक्र सुदर्शन चक्रसे जीत लिया तो मुझे अप्रत्यक्ष चक्रतुल्य गोलाकार दमयन्तीके नितम्बद्वयसे संसारको जीतना चाहिये / इस प्रकार कामदेव पितासे भी बढ़कर काम करना चाहता है ] // 88 // रोमावलीदण्डनितम्बचक्रे गुणञ्च लावण्यजल बाला / तारुण्यमूर्तेः कुचकुम्भकर्तुर्बिमति शङ्के सहकारिचक्रम् || 8 || रोमावलीति / बाला दमयन्ती तारुण्यमेव मूर्तिः स्वरूपं यस्य तस्य यौवनाख्यस्येत्यर्थः / कुचावेव कुम्भौ तयोः कर्तुः निर्मातुः कुम्भकारस्य रोमावल्येव दण्डः स च नितम्ब एव चक्र ते गुणः सौन्दर्यादिः तमेव गुणं सूत्रन्चेति श्लिष्टरूपकम् / लावण्यमेव जलञ्च सहकारिचक्रं सहकारिकारणकलापं बिभर्ति शके। रूपकोस्थापितेयमुरप्रेक्षेति सङ्करः // 89 // बाला दमयन्ती युवावस्थाके स्तनकलशको बनानेवाले (कुम्हार ) के लिये ( अपनी) रोमावलीको दण्ड, नितम्बको चक्र, अर्थात् कुम्हारका चाक, सौन्दर्य आदि गुणको सूत और लावण्यको पानी (इन घड़ा बनानेवाले के) सहकारी समूहको धारण करती है। [घड़ा बनानेके लिए दण्ड, चाक, सूत तथा पानीका होना आवश्यक है, अत एव दमयन्ती भी स्तनकलश बनानेवाले कुम्हारके लिये सब सामग्रियोंको उपस्थित करती है ] // 89 // अनेन केनापि विजेतुमस्या गवेष्यते किञ्चलपत्रपत्रम् / नोचेद्विशेषामितरच्छदेभ्यस्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन // 10 // अनेनेति / अस्याः सम्बन्धिना केनाप्यवाच्येनाङ्गेन मदनमन्दिरेणेत्यर्थः / चलपत्रपत्रमश्वत्थदलं 'बोधिगुमश्चकदल'' इत्यमरः / विजेतुं गवेष्यते अन्विष्यते किमित्युस्प्रेक्षा / 'मार्गत्यन्विष्यति गवेषयत्यन्विष्यति च' इति मनमः। नो चेन्नान्विष्यते चेत् तस्याश्वत्थपत्रस्य कुतः कस्मादन्यस्मात् भयेनेतरच्छदेभ्यः वृक्षान्तरपत्रेभ्यः, पक्षमीविभक्तेः / विशेषादतिशयात् कम्पस्तु अस्तु स्यात् / नान्यत्कम्पकारणं विद्म इत्यर्थः / बलिनान्विष्यमाणो दुर्बलो कम्पत इति च प्रसिद्धम् / अत्र सामुद्रिकाः। "अश्वत्थदलसङ्काशं गुह्यं गूढमपि स्थितम् / यस्याः सा सुभगा नारी धन्या पुण्यरवाप्यते" // 9 // ___ इस दमयन्तीका अवर्णनीय अर्थात् अतिसुन्दर (पक्षा०-अश्लील होनेसे नाम नहीं लेने योग्य ) कोई अङ्ग अर्थात् योनि पीपलके पत्तेको अच्छी तरह जीतनेके लिये ढूढ़ रहा है क्या ? नहीं तो किसके भयसे उस पीपलके पत्तमें दूसरे पत्तोसे अधिक कम्पन होता है। [ चूंकि पीपलका पत्ता अन्य पत्तोंकी अपेक्षा अधिक कांपता है, इससे अनुमान होता है कि दमयन्तीका सर्वसुन्दर अग्राह्मनामा अङ्ग उसको जीतनेके लिये खोज रहा है और इसीके भयसे वह कांप रहा है। अन्य भी कोई बलवान् पुरुष दुर्बलको जीतनेके लिये खोजता Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 366 रहता है तो वह उसके भयसे अधिक कांपता रहता है / दमयन्तीका योनि पीपल के पत्तेसे भी सुन्दरतम होनेसे सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुम लक्षणसे युक्त है ] ! 90 // भ्रश्चित्ररेखा च तिलोत्तमाझ्या नासा च रम्भा च यदुरुसृष्टिः / दृष्टा ततः पूरयतायमेकाऽनेकाप्सरःप्रेक्षणकौतुकानि || 91 // भूरिति / यत् यस्मात् अस्या भैग्या श्रृश्चित्ररेखा अद्भुतविन्यासा अप्सराश्व, नासा नासिका तिलात् तिलकुसुमात् उत्तमा तिलोसमा नामाप्सराश्च, तथा ऊरु. सृष्टिः रम्भा कदली अप्सराश्च / 'रम्भाकदल्यप्सरसोः' इति विश्वः / ततः तस्मात् इयमेकैव दृष्टा सती अनेकासामप्सरसां प्रेक्षणारकौतुकानि पूरयति ताशान् मानसोल्लासान् जनयतीत्यर्थः। अत्रैकस्यानेकात्मकताविरोधाभासनात् विरोधाभासालङ्कारः, स च श्लेषमूल इति सङ्करः // 9 // जिस कारण इस दमयन्तीकी भ्र चित्र रेखावाली ( पक्षा-चित्रलेखा नामकी अप्सरा) है, नाक तिलपुष्पसे उत्तम ( पक्षा०-तिलोत्तमा नामकी अप्सरा) है, और ऊरुरूप यष्टि केलेके स्तम्भके समान या तद्रूप ( पक्षा०-रम्मा नामकी अप्सरा )है; उस कारण अकेली यह दमयन्ती अनेक अप्सराओंके देखनेके कुतूहलको पूरा करती है। [इस दमयन्तीकी भ्र , नाक तथा ऊरुके देखने से क्रमशः चित्रलेखा, तिलोत्तमा और रम्भा नामक अप्सराओं को देखनेका आनन्द मिलता है, यही कारण है कि इन्द्र उन अप्सराओंको छोड़कर इस दमयन्तीको प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहे है / लोकमें भी देखा जाता हैं कि पृथक्-पृथक् स्थित भनेक वस्तुओंको छोड़कर एकत्रित उन सब वस्तुओंको प्राप्त करना चाहता है। ] // 91 // रम्मापि कि चिह्नयात प्रकाण्ड न चात्मनः स्वेन न चैतदरू। स्वस्यैव येनोपरि सा दधाना पत्राणि जागर्त्यनयोध्रमेण / / 12 // रम्भेति / रम्भा कदल्यपि आत्मनः प्रकाण्डंस्कन्धं स्वेन स्वात्मना स्वयमित्यर्थः / प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्घयानात् तृतीया। न चिह्वयति किमेतस्या ऊरू च न चिह्नयति किं मिथो व्यत्यासपरिहाराय द्वयोरन्यतरस्यापि चिह्नं न चकार किमित्युत्प्रेक्षा। कुतः, येन कारणेन सा रम्भा अनयोरूवोंभ्रमेणोरूनान्त्येत्यर्थः / स्वस्येव स्वकीयस्कन्धस्यव उपरि पत्राणि दलानि प्रतिपक्षोपरिधेयानि साक्षरपत्राणि च दधाना जागर्ति / अत्र सौन्दर्य सङ्कर्षिणी रम्भापि स्वस्मिन्नेव उरुभ्रान्त्या पत्रावलम्बनकरणात् भ्रान्तिमदलङ्कारः / तन्मूला चोक्तोत्प्रेक्षेति तयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 92 // ___ कदली ( केलेका वृक्ष ) अपने स्तम्बको स्वयं चिह्नित नहीं करती है क्या ? तथा इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको चिह्नित नहीं करती है क्या ? ( अपने इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको परस्परमें समान होनेसे भेद करने के लिए अपनेको तथा इसके ऊरुद्वयको भी अवश्यमेव चिह्नित करती है ), ( अथवा-कदली भी अपने स्तम्भ ( खम्ब) को अपना है ऐसा जानती है क्या ? तथा इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको 'ये दोनों ऊरु दमयन्तीके हैं। ऐसा नहीं जानती Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 नैषधमहाकाव्यम् / क्या ? ( अपने स्तम्बको अपना तथा दमयन्तीके ऊरुद्वयको दमयन्तीका ऊरुद्वय नहीं समझती है बया ? ) क्योंकि इन दोनों ( दमयन्तीके ऊरु ) के भ्रमसे अपने ऊपर पत्रोंको (पत्तों की, पक्षा०-प्रतिपक्षीके ऊपर रखने योग्य लिखित पत्रोंको) धारण कर रही है। (प्रति. पक्षीके ऊपर लिखितपत्र रखनेका नियम होनेसे कदलीने चाहा कि प्रतिपक्षी उक्त ऊरुद्वयपर मैं साक्षर पत्र रख दूं , किन्तु ऊरुद्धयके भ्रमसे उसने अपने ही ऊपर पत्रको रख लिया ) / [ केले के खम्वेके ऊपर पत्तेका होना सर्वप्रत्यक्ष है / दूसरा कोई व्यक्ति ढो वस्तुओं के समान आकार होनेसे भ्रममें पड़कर दूसरेमें करने योग्यको अपने में कर लेता है। दमयन्तीके ऊरु कदलीस्तम्भके समान रमणीय है ] // 92 // विधाय मूर्धानमधश्वरचेन्मुन्चेत्तपोभिः स्वमसारभावम् / जाडयच नाश्चेत् कदली बलीयस्तदा यदि स्यादिदमूरुचारुः ||3|| विधायेति / कदली रम्भा तपोभिः तपश्चर्याभिः मूर्धानमधश्वरमधोवर्तिनं विधाय शिरोबुध्न्योरुत्तराधरभाववैपरीत्यञ्च लब्ध्वेत्यर्थः / स्वं स्वकीयमसारभावं निःसा. रत्वञ्च मुञ्चेच्चेत् बलीयो जाड्यमेकान्तशैत्यश्च नाश्चेत् न गच्छेत् / तदानीम्, इदमह. चारुः अस्या उरू इव चारुः शोभना स्याद्यदि स्यादेवेत्यर्थः / अत्र कदल्याः अधःशिरस्वादिधर्मासम्बन्धेऽपि सम्बन्धसम्भावनया सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेद इति सर्वस्वकारः // 93 // यदि कदली मस्तक ( ऊपरी भाग ) को नीचेकी ओर करके तपस्यासे अपनी निःसारताको छोड़ देती तथा अत्यधिक अर्थात् नित्य रहनेवाली जडता (मूर्खता, पक्षा०-शीतलता) को छोड़ देती, तो इस दमयन्तीके ऊरु के समान सुन्दर हो सकती। [दमयन्ती ऊरुद्वय ऊपरमें मोटा तवा नीचेमें क्रमशः पतला है, कोमल होते हुए भी ससार ( बलयुक्त ) है और ग्रीष्ममें शीतल तथा शीतकालमें उष्ण है, किन्तु कदली इसके सर्वदा विपरीत (ऊपरमें पतला तथा नीचेसे मोटी, कोमल तथा निःसार और सब समयमें शीतल ) है, अतः वह सर्वदाके लिए ऊपरका भाग नीचे कर ले, कोमलताका त्यागकर सारयुक्त बन जाय तथा एकान्त शीतलताका त्यागकर दे, तब दमयन्तीके समान हो सकती है। अन्य भी कोई व्यक्ति किसी उत्तम व्यक्तिको समानता पाने के लिये तपस्याके द्वारा मस्तक नीचाकर अपनी असारता तथा जडताका त्यागकर उसकी समानता पाता है। दमयन्तीका ऊरुद्वय अनु. पम है // 93 / / ऊरुप्रकाण्डद्वितयेन तस्याः करः पराजीयत वारणीयः ! युक्त हिया कुण्डलनच्छलेन गोपायति स्वं मुखपुष्करं सः || 14 // अर्विति / तस्याः दमयन्त्याः ऊरुप्रकाण्डयोः ऊहश्रेष्ठयोः उरुस्तम्भयो, द्वितयेन वारणीयो वारणसम्बन्धी करो हस्तः पराजीयत पराजितः, स करः हिया स्वं मुखं मुखभूतं पुष्करमधे वक्त्रं पङ्कजा 'मुखं निःसरणे वक्त्रप्रारम्भोपाययोरपि / पुष्करं पङ्कजे Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 401 व्योग्नि पयःकरिकराग्रयोः' इति विश्वः / कुण्डलनस्य भुग्नीकरणस्य च्छलेन गोपा. यति पिधत्ते युक्तम् / सापहवोत्प्रेक्षा // 94 // ___ उस ( पक्षा०-कृशाङ्गी ) दमयन्तीके ऊरुस्तम्भद्वयने हाथीके हाथ (सूड ) को जीत लिया है, अतएव ( पराजित ) बह हाथ ( हाथीका सूड) लज्जासे अपने मुखकमल (पक्षा०मुखरूप पुष्करको हाथीके सूंड़ के अग्रभागको 'पुष्कर' कहते हैं ) लपेटने के बहानेसे छिपा रहा है, यह उचित ही है / [ लोकमें भी पराजित भलामानुष व्यक्ति लज्जासे अपने मुखको छिपाता है-सबके सामने मुख नहीं दिखाना चाहता ] // 94 // अस्यां मुनीनामपि मोहमूहे भृगुर्महान् यत्कुचशैलशीली / नानारदानादि मुखं श्रितोरुव्यामो महाभारतसर्गयोग्यः / 15 // अस्यामिति / अस्यां दमयन्त्यां मुनीनामपि मोहं भ्रान्तिमासक्तिमिति यावत् / ऊहे तकयामि / उत्प्रेक्षा / कुतः, यत् यस्मात् महानधिको भृगुप्रपातो मुनिविशेषश्च, यस्याः कुचावेव शैलौ शीलयति परिचिनोतीति तच्छीली मुखं नानाप्रकारैः रदैर्दन्तैराह्लादयतीति तत्तथोक्तम् / अन्यत्र नारदमुनिमालादयतीति नारदाह्वादि, तत् न भवतीति अनारदानादि, तत् नेति नानारदाहादि, नारदालादि इत्यर्थः / महाभाः महाप्रभः रतसगयोग्यः सुरतसम्पादनाहः। अन्यत्र महाभारतस्य इतिहासस्य सर्गे निर्माणे योग्यः क्षमो व्यासो विस्तारो द्वैपायनश्च श्रिता अरू सक्थिनी येन सः श्रितोरुः / 'सक्थि क्लीबे पुमानूः' इत्यमरः / अत्र श्लेषमूलया मुनिमोहोत्प्रेक्षया मुनयोऽप्यस्यां मुह्यन्ति किमुतान्ये इति वस्तु व्यज्यते // 95 // (मैं ) इस दमयन्तीमें मुनियों के भी मोह ( होने ) का तर्क करता हूँ, क्योंकि-बड़ा प्रपात ( जल गिरनेका तटरहित पर्वतीय स्थान-विशेष) स्तनरूपी पर्वतका परिशीलन करता है / ( पक्षा०-बड़े तपस्वी भूगु मुनि स्तनरूपी पर्वतका परिशीलन करते हैं, वहाँ रहते हैंतपस्याके लिये निवास करते हैं, या कामुक होकर उन्नत स्तनोंका मर्दन करना चाहते है / अथवा-अतट अर्थात् पर्वतीय प्रपात दमयन्तीके शील-स्वभावका परिशीलन करता है, किन्तु वह आज तक भी इन स्तनोंके स्वभावको नहीं प्राप्त कर सका है); ( दमयन्ती) का मुख अनेक अर्थात् बत्तीस दांतोंसे आह्लादित करनेवाला है ( पक्षा०-मुख नारदमुनिको आह्लादित करनेवाला नहीं हैं ऐसा नहीं, किन्तु आह्लादित करनेवाला ही है अर्थात् नारद मुनि भी इसको गान विद्या सिखाने या स्वयं सीखने के लिए इसके मुखको प्राप्तकर आह्वा. दित होते हैं, या-नारद मुनि भी कामुक होकर चुम्बनेच्छासे इस दमयन्तीके मुखको देखकर आह्लादित होते हैं ) और अत्यन्त कान्तियुक्त तथा रतिके योग्य (ऊरुका) विस्तार ऊरुका आश्रय कर रहा है अर्थात् ऊरुद्वयका विस्तार ( मोटापन ) अतिशय कान्तियुक्त एवं रति योग्य है [ पक्षा०-महाभारत नामक इतिहास ग्रन्थकी रचना करनेवाले ब्यास मुनि ( केलेकी छायाके भ्रमसे इसके ) ऊरुद्वयका आश्रय कर रहे हैं, या दमयन्तीका कामुक होकर भोगकी इच्छासे इसके ऊरुद्वयका आश्रय कर रहे हैं ] // 95 // Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 नैषधमहाकाव्यम् / क्रमोद्गता पीवरताधिजथं वृक्षाधिरूढिं विदुषी किमस्याः / अपि भ्रमीभङ्गिभिरावृताङ्गं वासो लतावेष्टितकप्रवीणम् // 96 / / क्रमेति / अस्याः भैभ्या अधिजङ्घ जङ्घयोः विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / क्रमेणानुपूः ात् उद्गता उदिता पीवरता पीनत्वं वृक्षाधिरूढमाश्लेषविशेष विदुषी किं ज्ञात्री किम ? "न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः। किञ्च भ्रमीभङ्गिभिर्वेष्टनविशेषैः आवृ. ताङ्गमाच्छादितगात्रं वासो वस्त्रमपि लतावेष्टितके आलिङ्गनविशेषे प्रवीणं किम् ? उभयत्राप्यन्यथा कथमित्थमाश्लिष्येदिति भावः / अनयोलक्षणमुक्तं रतिरहस्ये"रमणचरणमेकेनाङघ्रिणाक्रम्य भिन्नं, श्वसितमपरपादेनाश्रयन्ती तदूरुम् / निजमय भुजमेकं पृष्ठतोऽस्यार्पयन्ती, पुनरपरभुजेन प्राश्चयन्ती तदङ्गम् // तरुमिव कमितारं चुम्बनाधिरूढा, यदभिलषितरागात् तच्च वृतादिरूढम्। प्रियमनुकृतवलीविभ्रमा वेष्टयन्ती, दुममिव सरलाङ्गी मन्दसीका तदीयम् // वदनमुचितखेदा कम्पमाचुम्ब. नाथ, नमयति विनदन्ती तब्बतावेष्टितं स्यात् // " इति // 96 // इस दमयन्तीकी जवाओं में क्रमशः ऊपरको बढ़ती हुई स्थूलता ( मोटाई ) वृक्षकी वृद्धिके क्रम ( पक्षा०-आलिङ्गन विशेष ) को जानती है क्या ? तथा लपेटनेके क्रमसे शरीर को ढका हुआ वस्त्र लताके ( समान ) लिपटने के क्रम ( पक्षा०-आलिङ्गन विशेष ) में चतुर हैं क्या ? [ जिस प्रकार वृक्ष जड़में पतला तथा क्रमशः ऊपरमें मोटा होता है, वैसे ही इस दमयन्तीकी जवायें भी हैं / पक्षा०-ये अवायें 'वृक्षारूढ' नामक आलिङ्गनको जाननेवाली हैं तथा जिस प्रकार वृक्षमें लता लिपटी हुई रहती है, उसी प्रकार इसके शरीरमें भी वस लिपटा रहता है, पक्षा०- लतावेष्टितक' नामक आलिङ्गनको जानता है ] // 96 // अरुन्धतीकामपुरन्ध्रिलन्मीजम्भद्विषहारनवाम्बिकानाम् / चतुर्दशीयं तदिहोषितैव गुल्फयाप्ता यदहश्यसिद्धिः / / 37 || अरुन्धतीति / इयं दमयन्ती अरुन्धती वसिष्ठपत्नी च कामपुरन्ध्री रतिश्च लचमी: पमा च जम्भद्विषहाराः शचीच नवाम्बिका ब्राह्मीप्रभृतयो नवमातरश्च यासामहश्य. त्वसिद्धिरस्तीति प्रसिद्धिरिति भावः। तासांत्रयोदशानां चतुर्दशी इयमपि तदन्तः 1. टीकातिरिक्तमपि वृक्षारूढालिङ्गनलक्षणमन्यत्रेत्यमुक्तम् , तद्यथा"वृक्षारोहणवद्यत्र क्रमादाक्रम्यतेऽङ्गकम् / वृक्षाधिरूढकं नाम बुधा आलिङ्गनं विदुः // " इति / अन्यच्च-"बाहुभ्यां कण्ठमालिङ्गय कामिनी कान्त उत्थिते / / अङ्गमारोहते तस्य वृक्षारूढः स उच्यते // " इति // 2. लतावेष्टितकालिङ्गनलक्षणमपि टोकोक्तभिन्नमन्यत्रोक्तम् तद्यथा'सव्यापसव्ययोगेन लतावत्परिवेष्टनैः / यत्र प्रत्यङ्गमाश्लिष्टं लतावेष्टितकं तु तत् // " इति / अन्यच्च-"उपविष्टं प्रियं कान्ता सुप्ता वेष्टयते यदि / तल्लतावेष्टितं शेयं कामानुभबवेदिभिः // " इति / Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 406 पातिनीस्युत्प्रेक्षा / तत् तस्मात् तदन्तःपातिस्वात् इहास्यां दमयन्त्यां गुल्फो पाद. ग्रन्थी / 'तद्ग्रन्थिधुटिके गुल्फो' इत्यमरः / तयोद्वयेनाप्ता प्राप्ता या च सा अदृश्य. सिद्धिश्च यदश्यसिद्धिः येयं गुल्फयोरहश्यत्वसिद्धिरित्यर्थः / सतीति शेषः / यत्तदो. नित्यसम्बन्धात्सा उचितैव तत् सम्बन्धिनोऽपि तद्वत सिद्धिर्यक्तैवेत्यर्थः ।गूढगल्फरवं सीलक्षणं तदस्यामस्तीति भावः // 97 // __ अरुन्धती, कामपत्नी, रति, लक्ष्मी, इन्द्राणी तथा नव मातृकाएँ इनकी चौदहवीं यह दमयन्ती है, अतः उनकी जो अदृश्य सिद्धि है, वह इस दमयन्तीमें गुल्फ ( दोनों पैरों के नीचे जोड़पर दोनों ओर उठी हुई हड्डी अर्थात् गड्ढों ) को प्राप्त हुई है, वह उचित ही है / [ नव मातृकाएं-चामुण्डा आदि सप्त' माताएं और गौरी तथा सरस्वती-ये नव मातृकाएं हैं, अथवा-ब्रह्माणी, माहेशी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, माहेन्द्रो, चण्डिका और महालक्ष्मी नवमातृकाएं हैं / 'अरुन्धती आदि तेरह महादेवियोंको जिस प्रकार अदृश्य सिद्धि प्राप्त है वैसी ही चौदहवीं दमयन्तीके भी गुल्फोंमें अदृश्य सिद्धि प्राप्त है। अथवाअरुन्धती आदिको पातिव्रत्य धर्मके कारण जो अदृश्य सिद्धि प्राप्त है वह इस दमयन्ती के गुल्फोंमें प्राप्त हैं अर्थात् उनकी सिद्धि इस दमयन्तीके चरणोंपर लोटती है, अतएव उनसे भी यह दमयन्ती अधिक पतिव्रता है / अथवा-अरुन्धती आदिके गुल्फोंमें प्राप्त जो अदृश्य सिद्धि हैं, अर्थात् उनके गुल्फकी हड्डियां नहीं दिखलाई पड़तीं वह सिद्धि चौदहवीं इस दमयन्तीमें भी है अर्थात यह दमयन्ती मी गुल्फोंकी हड्डियोंके नहीं दिखलाई पड़नेसे अरुन्धती आदिके समान ही सामुद्रिकशास्त्रोक्त सुलक्षणावाली है / अथवा-अरुन्धती आदि तेरहों महादेवियोमें तो जो सिद्धि हैं वह सामान्य है क्योंकि यह दमयन्ती उनमें चौदहवीं है अर्थात् चतुर्दशी तिथि रूप है और उक्त अरुन्धती आदि तेरह देवियां प्रतिपदादि त्रयोदशी तिथि पर्यन्तके समान हैं, अत एव चतुर्दशी तिथिरूप इस दमयन्तीमें तो सिद्धि गुब्फोंमें प्राप्त है अर्थात् चरणों में लेटती है / या आप्त ( कभी नहीं व्यभिचरित होनेवाली अर्थात् बिल्कुल नियत) है, अत एव दमयन्ती उन अरुन्धती आदि महादेवियोंसे भी विशिष्ट है। दमयन्तीके पैरके दोनों गट्टोंके छिपे हुए होनेसे यह दमयन्ती सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभ लक्षणसे युक्त है ] // 97 // अस्याः पदी चारुतया महान्तावपेक्ष्य सौम्याजवभावभाजः। जाता प्रवालस्य महीरुहाणां जानीमहे पल्लवशब्दलब्धिः / / 98 // 1. तदुक्तम्- "म्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा। वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्त मातरः॥" इति / 2. तदुक्तमागमे-"ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा। वाराही नारसिंही च माहेन्द्री चण्डिका तथा।। महालक्ष्मीरिति प्रोक्ताः क्रमेणेता नवाम्बिकाः॥” इति / Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 नैषधमहाकाव्यम् / अस्या इति / चारुतया सौन्दर्यगुणेन महान्तौ अस्याः पदौ पादौ अवेच्य / 'पादः पदनिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / सौचयात् तदपेक्षयाऽत्पत्वादिति भावः। लवभावभाजोऽल्पत्वभाजो महीरुहाणां प्रवालस्य किसलयस्य पल्लवशब्दलब्धिः पदयां लवोऽल्प इति न्युत्पत्त्या पल्लवसंज्ञा प्राप्तिर्जाता जानीमह इत्युस्प्रेचामाह इत्यर्थः / “अस्मदोद्वयोश्च" इति विकल्पादेकस्मिन्नेव बहुवचनम् // 98 // सुन्दरतासे श्रेष्ठ इस दमयन्तीके चरणोंको देखकर ( दमयन्तीके चरणोंकी अपेक्षा) हीनताके कारण अल्पता ( लघुता ) को प्राप्त किये हुए, पेड़ोंके नवीन पत्तोंका 'पल्लव' ( दमयन्ती के पैरका लेश है जिसमें ऐसा ) नाम पड़ गया है, यह हमलोग समझते हैं [ पेड़ोंके नये 2 अरुण वर्ण पत्तोंकी अपेक्षा दमयन्तीके चरण अत्यधिक लाल हैं ] // 98 // जगद्वधूमुधसु रूपदपोद् यदेतयाऽधायि पदारविन्दम् / तत्सान्द्रसिन्दूरपरागरागैध्रुवं प्रवालप्रबलारुणं तत् / / 66 // जगदिति / यत् यस्मात् , एतया भैम्या रूपदर्पात् सौन्दर्यगर्वात् , द्वयमुभयं पदारविन्दं द्वे अपि पदारविन्दे इत्यर्थः। जगद्वधूमूर्धसु अधायि निहितं, धात्रः कर्मणि लुङ / "आतो युकचिणकृतोः" इति युगागमः / तत् तस्मात् , तेषु मुर्धसु ये सान्द्राः सिन्दूरपरागरागाः तैःप्रवालाद्विद्रुमादपि प्रबलारुगमधिकारुणंध्रवमित्युत्प्रेक्षा // 19 // जो इस दमयन्तीने सौन्दर्य के अभिमानसे संसार की स्त्रियों के शिरपर दोनों चरणों को रखा, उस कारणसे ( अथवा-वे ही दोनों चरण ) मानों उन संसार को स्त्रियोंके सघन सिन्दूरकी धूलिके रंग लालिमासे नवपल्लव ( या मूगा) से भी अधिक लाल हो गये हैं। संसारकी सधवा स्त्रियां जो शिरपर नवपल्लव या मूगेसे भी अधिक अरुण वर्ण सिन्दूरपराग धारण करती हैं, वह अधिक सौन्दर्यशालिनी दमयन्तीका चरणद्वय है। दमयन्ती जगत् की समस्त सुन्दरियों से भी अत्यधिक सुन्दरी है, तथा इसके चरणों की शोमा नवपल्लव, मूगा और सिन्दूरपरागके समान है / / 99 // रुषारुणा सर्वगुणैजेयन्त्या भैम्याः पदं श्रीः स्म विधवृणोते / ध्रषं स तामच्छलयद्यतः सा भृशारुणतत्पदभाग्विभाति // 10 // रुषेति / श्रीः लक्ष्मी रुषा पराजयक्रोधेन अरुणा सती सर्वगुणैर्जयन्स्या आस्मानमतिक्रामन्त्या भैग्याः पदं स्थानं विधेः सकाशात् वृणीते स्म वने / स विधिस्तां श्रियमच्छलयत् प्रतारितवान् ध्रुवं स्थानार्थविवक्षया पदप्रार्थनायामनिदानादिति भावः / 'पदं व्यवसितत्राणस्थानलसम्यज्रिवस्तुषु' इत्यमरः / यतः सा श्रीरेतत्पदभागे तस्याः भैम्याः अघ्रिभाक् सती शोभारूपेणेति भावः / भृशारुणा विभाति आरुण्यप्रत्यभिज्ञानात् तदाघिरेवैतत्स्थानमिति जानीम इत्यर्थः // 10 // क्रोधसे लाल लक्ष्मी (पक्षा०-शोभा) ने सम्पूर्ण गुणोंसे विजय करती हुई इस दमयन्तीके पद (स्थान, स्वरूप या शोभा ) को ( चरणको नहीं ) ब्रह्मासे वर माँगा (फिर) उस ब्रह्माने Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतमः सर्गः 405 उस लक्ष्मी ( पक्षा०-शोमा ) को अवश्य ही ठग दिया, क्योंकि वह ( लक्ष्मी, पक्षा०शोभा) अत्यन्त लाल (रक्तवर्ण) इस दमयन्तीके चरणोंको प्राप्त कर शोभती है / [ दमयन्तीसे पराजित लक्ष्मी या शोमाने तो ब्रह्मासे दमयन्तीके पद अर्थात् दमयन्तीका संसारमें जो स्थान या शोभा है वही मेरा भी हो ऐसा बर मांगा था, किन्तु ब्रह्माने उसे अत्यन्त रक्तवर्ण दमयन्तीके चरणों को प्रदान किया। अथवा-अत्यन्त अरुण वह लक्ष्मी या शोभा इस दमयन्तीके चरणोको प्राप्तकर शोमती है, इस पक्षमें 'भृशारुणा' शब्दका सम्बन्ध पहलेके समान दमयन्तीके चरणोंसे न होकर लक्ष्मी या शोभासे है, अतः लक्ष्मी दमयन्तीके चरणों की सेवा करती हुई शोमित होती है या दमयन्तीके चरणों की शोभा अत्यन्त लाल है, यह अर्थ होता है। ब्रह्माने लक्ष्मीको भी दमयन्ती का स्थान नहीं दिया, किन्तु उसकी चरण सेवाका स्थान देकर ठग दिया, अतः प्रतीत होता है कि लक्ष्मी भी दमयन्तीके स्थानको पानेकी योग्यता नहीं रखती, केवल उसके पैरों के भजन ( सेवन ) करनेकी ही योग्यता रखती है, यही कारण है कि ब्रह्माने लक्ष्मीको, ‘पद' शब्दका अर्थान्तर कर उक्त प्रकारसे ठग दिया] // यानेन तन्व्या जितदान्तनाथो पदाजराजो परिशद्धपाणी। जाने न शुश्रूषयितुं स्वमिच्छू नतेन मूर्ना कतरस्य राज्ञः / / 101 // यानेनेति / यानेन गत्या दण्डयात्रया च जितो दन्तिनाथो गजश्रेष्ठो गजपतिश्च याभ्यां तौ परिशुद्धः निर्दोषो वशीकृतश्च पाणिः पश्चाद्भागः पाणिग्राहश्च ययोस्तो तन्व्याः पदाजे एव राजानौ पदाब्जराजौ कतरस्य राज्ञः पत्युः परिपन्थिनश्च नतेन मानशान्तये रौद्रशान्तये च नम्रेण मूर्ना स्वमात्मानं सेग्यं शुश्रषयितुं सेवयितुमिच्छू अभिलाषुको न जाने / अत्र पदाब्जराजाविति रूपकस्य श्लेषेणाङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 101 // ___गमन (गज तुल्य गति, पक्षा०-विजय-यात्रा) से गजराजको विजय किये हुए तथा शुद्ध (निर्दोष, पक्षा०-वशमें किये गये) पाणि ( चरणका पृष्ठभाग, पक्षा०-पाणिग्राह नृप-विशेष ) वाले कृशाङ्गी (दमयन्ती) के दोनों चरणकमलरूपी राजा किस राजा (पतिभूत राजा, पक्षा०-पराजित राजा) के नम्र मस्तक से (प्रणयकलहमें दमयन्तीको मान त्याग करते समय नम्र मस्तकसे. पक्षा०-अनुचिताचरण के कारण कुपित विजयी राजा को प्रसन्न करने के लिये नम्र मस्तक से ) अपनी सेवा कराने के लिये इच्छुक हैं अर्थात सेवा कराना चाहते हैं, यह मैं नहीं जानता हूँ। [जिस प्रकार हाथीवाले राजाओं को विजयी एवं दोषहीन पाणिगत राजा वाला कोई राजा किसीपर कुपित होकर पैरोंपर नम्र मस्तक होकर प्रणाम करनेसे उसके द्वारा सेवा कराता है, उसी प्रकार अपनी गजपतिसे गजराजोंके विजयी एवं दोषरहित पृष्ठभागवाले दमयन्तीके चरणकमलरूप राजा विवाह होनेपर प्रणयकलहमें प्रिया दमयन्तीको मानत्याग करने के लिये पैरोंपर नतमस्तक पतिभूत किस राजाके द्वारा सेवा कराना चाहता है, यह ज्ञात नहीं है / दमयन्ती गजगामिनी है ] // 101 // Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 नैषधमहाकाव्यम् / कर्णाभिदन्तच्छदबाहुपाणिपदादिनः स्वाखिलतुल्यजेतुः / उद्वेगभागद्वयताभिमानादि हैव वेधा व्यधित द्वितीयम् // 10 // कर्णेति / स्वस्या यान्यखिलानि तुल्यानि शष्कुलीकमलायुपमानवस्तूनि तेषां जेतुः भाषितपुंस्कत्वात् पुंवद्गावः / कर्णश्चाति च दन्तच्छदश्च बाहुश्च पाणिश्च पदच कर्णातिदन्तच्छदबाहुपाणिपदम् / प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः, तदादिर्यस्य तत् आदि. शब्दात् कुचादिसंग्रहः / तदादिनोऽवयवजातस्य अद्वयताभिमानात् अद्वितीयत्वगर्वात् उद्वेगभाक रोषभाक् वेधा इहास्यामेव भैम्यां द्वितीयं कर्णादिकं व्यधित विहितवान् / तदवयवानामप्रतिमतया परस्परमेवौपम्यमासीत् / यथा कर्णस्येतरकर्णेन करस्येतरकरेणेत्यर्थः // 102 // अपने उपमानभूत समस्त वस्तुओंको जीतनेवाले कान, नेत्र, दांत, ओष्ठ, बाहु, हाथ और पैर आदि ('आदि' पदसे स्तन, जधन, अङ्गुल्यादि) के अपने समान दूसरेके न होनेके अभिमान होनेसे कुपित ब्रह्माने वहींपर अर्थात् कान आदिके समीपमें ही दूसरे कान आदि बना दियो / [दमयन्तीके कान, नेत्र, दांत, ओष्ठ, बाहु, हाथ और पैर आदि अपने उपमान भूत क्रमशः पाश, कमल, पल्लव, लता, पल्लव या कमल और कमल आदि को सौन्दर्यातिशयसे पराजित कर 'हमारे समान कोई भी संसारमें सौन्दर्यशाली नहीं है। ऐसा अभिमान करने लगे, यह देख ब्रह्मा घबड़ा गये और उन्हें क्रोध आ गया, इससे उन्होंने उसके पास ही वैसे ही सौन्दर्यशाली दूसरे कान, नेत्र आदिकी सृष्टि कर दी / अन्य भी कोई व्यक्ति अमि. मानी व्यक्ति के पास ही में उसके प्रतिद्वन्द्वी वैसे ही व्यक्तिको नियुक्त कर देता है कि फिर यह अभिमान न करे / दमयन्तीके वाम कानके समान दाहिना कान तथा दाहिने कानके समान बाँया कान है, इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये / दमयन्तीके कान आदिकी समानता परस्परमें ही एक दूसरेसे है, सांसारिक पाश, कमल, पल्लव आदि पदार्थोसे नहीं]12 तुषारनिःशेषितमजसमें विधातुकामस्य पुनविधातुः / पञ्चस्विहास्याधिकरेष्वभिख्याभिक्षाऽधुना माधुकरीसदृक्षा // 10 // तुषारेति / तुषारेण निःशेषितं नाशितमन्जसर्ग. पद्मसृष्टिं पुनर्विधातुकामस्य स्रष्टुकामस्य विधातुरधुना इहास्यां भैम्यां पञ्चसु आस्यं चावी च करौ च तेषु अधिकरणैतावत्त्वे चेत्येकवद्भावप्रतिषेधः / इहाधिकरणं समानाधारत्वाद्वर्तिपदार्थः / तस्यैतावत्त्वं पञ्चत्वमभिख्याभिक्षा शोभायाच्आ। 'अभिख्या नामशोभयोः' इत्य. मरः / माधुकरी नाम पञ्चभिक्षा तया सहक्षा सरशी "दृशेः क्सश्च वक्तव्यः" इति क्सप्रत्ययः / वर्तत इति शेषः। एतदास्यादिपञ्चके यावल्लावण्यं तावत् पछेषु नास्तीत्यर्थः // 103 // हिम (तुषार, पाला ) से सर्वथा नष्ट कमीकी पुनः रचना करनेके इच्छुक ब्रह्माकी, इस समय इस दमयन्तीके ( कमलसे अधिक शोभा सम्पत्तियुक्त ) मुख, दोनों चरण तथा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतमा पर्गः। दोनों हाथ-इन पाँचों में शोभाकी याचना मधुकरी मिक्षाके समान होती है। [ मधुकरी भिक्षा पांच गृहाश्रमियोंसे ली जाती है, यह शाल वचन है। दमयन्तीके मुख, चरणदय और पाणिद्वय कमलसे अधिक एवं नित्य शोभायुक्त रहनेवाले हैं ] // 103 // एष्यन्ति याषणनागिन्तान नृपाः स्मराताः शरणे प्रवेष्टुम् / इमे पदाब्जे विधिनापि' सृष्टास्तावत्य एषांगुलयोऽत्र' रेखाः / / 104 // एष्यन्तीति / स्मरार्ता नृपा इमे पदाम्जे शरणे प्रवेष्टुं यावन्ती गणमा पस्प तस्मात् यावद्णनात् पावरसपाकात् दिगन्तात् पावत् सहयाकेभ्यः दिगम्तेभ्य इत्यर्थः / जातावेकवचनम्, एष्यन्ति, अनामयोः पदाम्जयोः तावस्य एव तत्सइया एवाछय एव रेखाः मशः, स्वयंवरार्थमागामिमा राज्ञामपादानविक्सापासूचकरेखा इव दशालयः सृष्टा इस्युस्प्रेक्षा // 10 // कामपीडित राजालोग शरणभूत इन ( दमयन्तीके ) दोनों चरणों में प्रवेश करने के लिये जितनी दिशाओं के अन्तसे आगे, ब्रह्माने भी इन चरणोंमें उतनी ही अर्थात् दश भङ्गुलियोंको रेखारूपमें बना दी है ( पाठा०-............ अङ्गुलियां रेखा रूपमैं नहीं बना दी है ? अर्थात् बना दी है)। [ दमयन्तीके दोनों पैरोंकी दश अहुलियोंको ब्रह्माने इस भभिप्रायसे बनाया है कि दशों दिशाओं के अन्ततकके राजा कामपीडित होकर रक्षा पानेके लिये इन दोनों चरणों के पास आवेंगे] // 104 // "प्रियासखीभूतवतो मुदेवं व्यधाविधिः साधुक्शत्वमिन्दोः / एतत्पदच्छमसरागपप्रसौभाग्यभाग्यं कथमन्यथा स्यात् // 105 // प्रियेति / विधिविधाता प्रियायाः भैम्याः सखीभूतवतः मुहमतस्य अभूततमावे ग्विः, भवतेः कवतुप्रत्ययश्च / इन्दोरिदं साधुदशस्वं समीचीनावस्थरवं सम्यक दशानां परिपाकं मुदा सन्तोषेण व्यधात् विहितवानित्यर्थः / अन्यथाऽस्येन्दोः एतस्याः पदस्य छद्म च्छलं यस्य तस्य सरागपभस्य सौभाग्ये सौन्दर्ये भाग्य कथम्? एतबरणशोणसरोजसारश्यं कथमित्यर्थः // 105 // प्रिया दमयन्ती मित्र के ( पाठा० -पैरके नख ) बने हुए. चन्द्रमाकी अच्छी अवस्था ( पक्षा०-दश संख्यात्व ) को प्रसन्न ब्रह्माने कर दिया है / नहीं तो दमयन्तीके चरणके व्याजसे रक्तकमलकी शोभाको पानेका भाग्य चन्द्रमाको कैसे होता ? / [ जब प्रमा दमयन्तीके चरणोंकी रचनाकर रहे थे तब चन्द्रमा आकर उन चरणोंकी विनम्र भावसे सेवा करके चरणोंका मित्र बन गया अथवा-पाठान्तरसे दशनखरूप बनकर चरणोंकी 1. "विधिना निसृष्टा" इति पाठान्तरम् / 2. "न रेखाः" इति पाठान्तरम् / 3. "प्रियानखी" इति पाठान्तरमेव समीचीनं प्रतिभाति / 26 नै Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 नैषधमहाकाव्यम्। सेवा की / यह देख ब्रह्मा चन्द्रमापर प्रसन्न हो गये और हर्षसे चन्द्रमाकी दशा अच्छी कर दी। यही कारण है कि जो चन्द्रमा पहले पद्मकान्तिको रात्रिमें उसके मुकुलित हो जानेसे नहीं प्राप्त करता था, उस पद्मकान्तिको पानेका सौभाग्य प्राप्त कर लिया है, वे पद्म दमयन्तीके चरण ही हैं / अन्य भी किसी व्यक्तिपर जगत्सृष्टि-कर्ता ब्रह्मा प्रसन्न होते हैं तो उसकी अच्छी दशा कर देते हैं और उस व्यक्तिको सद्भाग्य प्राप्त हो जाता है / दमयन्तीके चरण-नख चन्द्रतुल्य तथा चरण अरुण पद्मतुल्य हैं ] // 105 // यशः पदान्गुष्ठनखौ मुख बिभर्ति पूर्णेन्दुचतुष्टयं या / कला चतुःषष्टिरुपैतु वासं तस्यां कथं सुध्रुवि नाम नास्याम् // 10 // यश इति / या सुभ्रर्यशः कीर्तिः पदाङ्गुष्ठयोनखौ मुखश्चेति पूर्णेन्दुचतुष्टयं बिभ. ति / तस्यामस्यां सुभ्रुवि सुन्दयां कलाना, षोडशभागानां विधानां च चतुरुत्तरा परिः चतुःषष्टिः वासं निवासं कथं नाम नोपैतु उपत्वेवेत्यर्थः / चन्द्रचतुष्टये प्रतिचन्द्र षोडशकलस्वाचतुःषष्टिकलासम्पत्तिरित्यर्थः / द्वयीनामपि कलानामभेदाध्यवसायेन अयं निर्देशः // 106 // ___ जो दमयन्ती यश, दोनों पैरों ( पाठा०-हाथों ) के अंगूठोंके दो नख तथा मुख--इन चार पूर्ण चन्द्रोंको धारण करती हैं, अतः सुन्दर भ्रवाली इस दमयन्ती में चौसठ कलाएं क्यों नहीं निवास करें। [दमयन्तीका यश, पैरके अंगूठोंके दोनों नख तथा मुख पूर्ण चन्द्ररूप हैं, उन्हें धारण करनेवाली दमयन्तीमें प्रत्येक पूर्ण चन्द्रमामें 16-16 कलाओंके होनेसे (1644 = 64 ) चौंसठ कलाएं दमयन्तीमें अवश्य ही रहती है / दमयन्ती 64 कलाओं में प्रवीण है ] // 106 // सृष्टातिविश्वा विधिनैव तावत्तस्यापि नीतोपरि यौवनेन | वैदग्ध्यमध्याप्य मनोभुवेयमवापिता वाक्पथपारमेव / / 107 / / सृष्टेति / इयं तावत् विधिनैव अतिविश्वा विश्वमतिक्रान्ता विश्वातिशायिनीत्यर्थः / 'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीययेति समासः। सृष्टा निर्मिता अथ यौवनेन तस्य विधिकृतातिशयस्याप्युपरि नीता ततोऽप्यतिशयं प्रापितेत्यर्थः / अथ मनोभुवा वेदग्ध्यं प्रागल्भ्यमध्याप्य वाक्पथस्य वाङमार्गस्य पारम्परतीरमवाङ्मनसगांचरत्वमेवावापिता / अत्र क्रमेणैकस्यानेकधर्मसम्बन्धकथनात् एकस्मिार्थवानेकमित्युक्त. लक्षणपर्यायभेदः // 107 // ___पहले तो ब्रह्माने ही इस दमयन्तीको संसारका अतिक्रमण करनेवाली अर्थात् विश्वातिशायिनी सुन्दरी बनाया, (फिर ) युवावस्थाने इसे उस विश्वातिशायि सौन्दर्य के ऊपर पहुँचाया अर्थात् उस विश्वातिशायि सौन्दर्यको और अधिक बढ़ाया, (फिर ) कामदेवने विदग्धता अर्थात् सब विषयों में चतुरताको पढ़ाकर इसे अवर्णनीय ही बना दिया / ( अन्य भी कोई पढ़ा हुआ चतुर व्यक्ति वाममयको अभ्यास कर लेनेपर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ शिक्षकोंको ..... Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। 406 प्राप्तकर अपनी ज्ञानराशिको उत्तरोत्तर बढ़ाकर संसारमें सबसे श्रेष्ठ बन जाता है / दमयन्ती विश्वातिशायि सौन्दर्यवाली युवावस्थाको प्राप्त तथा कामचातुरीमें अतिनिपुण है ) // 107 // इति स चिकुरादारभ्यैतां नखावधि वर्णयन् हरिणरमणीनेत्रां चित्राम्बुधौ तरदन्तरः / हृदयभरणोवेलानन्दः सखीवृतभीमजा. नयनविषयीभावे भावं दधार धराधिपः // 108 / / इतीति / इतीत्थं स धराधिपो नलो हरिणरमणीनेत्रामेतां भैमी चिकुरात् केश. पाशादारभ्य नखावधि पदाङ्गुष्ठनखान्तं वर्णयश्चित्राम्बुधौ आश्चर्यसागरे तरदन्तरः प्लवमानान्तरङ्गस्तथा हृदये भरणात् पूरणात् उढेलो निःसीमः आनन्दो यस्य स सन् सखीवृताया भीमजाया भैम्या नयनविषयीभावे हम्गोचरखे भावमभिप्राय दधार, तस्याः प्रत्यक्षीभवितुमैच्छदित्यर्थः // 108 // इस प्रकार ( श्लो० 20--106) मृगीतुल्य नेत्रवाली इस दमयन्तीके केशसे नखतक वर्णन करते हुए, आश्चर्यरूप समुद्रसे तैरते हुए अन्तःकरणवाले, (दमयन्तीके देखनेमात्रसे) हृदयके परिपूर्ण होनेसे तटाकान्त आनन्द (-रूप समुद्र) वाले होते हुए वे राजा नल सखियोंसे परिवृत भीमतनया ( दमयन्ती) के प्रत्यक्ष (सामने ) होनेका विचार किया अर्थात् प्रकट हो गये / [ जैसे समुद्र भीतर जलके भरजानेपर उसे तटके बाहर फेंक देता है, वैसे ही दमयन्तीको देखकर नलका हृदय पहलेसे ही आनन्दपूर्ण हो गया था, फिर उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गका वर्णन करने से वह आनन्दसागर उमड़ पड़ा। अष्टमसर्गके प्रथम श्लोकमें ( उस दमयन्तीके प्रत्यक्ष ( सामने प्रकट) होनेकी नलने इच्छा की) यह अर्थ ठीक नहीं होता, किन्तु 'प्रकटो जातः' (प्रकट हुए) यह नारायणभट्ट-सम्मत अर्थ युक्त प्रतीत होता है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिभ्रातर्ययं तन्महा काव्ये घारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः / / 106 / / श्रीहर्षमित्यादि / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिर्नामास्य कृतः प्रबन्धः तद्भातरि तरसमानकर्तृक इत्यर्थः // 109 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्याने सप्तमः सर्गः समाप्तः॥७॥ 1. "-भगिनी-" इति पाठान्तरम् / Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाम्पम् / इस प्रन्थकर्ता होनेसे गौडोवींशकुलशस्तिभणिति अर्थात् गौर देशके राजाके वंशकी प्रशंसाको करनेवाले ( पक्षा०-उक्त 'गोडगेवशकुलप्रशस्तिभणिति नामवाले अन्य विशेष / पाठा०-गौडोबीशकुलप्रशस्तिभगिनी' अर्थात् गौड देशके राजाके कुलकी प्रशंसा। पक्षा०'गौडोवीशकुलप्रशस्ति' नामक ग्रन्थविशेष रूपी बहन ) का सहोदर.. ... ... ."यह सप्तम सर्ग समाप्त हुआ। ( शेष अर्थ पूर्ववत् जानें ) // 109 // यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित' का सप्तम सर्ग समाप्त हुभा / / 7 / / अष्टमः सर्गः अथाद्भुतेनास्तनिमेषमुद्रमुनिद्ररोमाणममुं युवानम् / एशा पपुस्ताः सुटशः समस्ताः सुना च भीमस्य महीमघोनः // 1 // अयेति / अथ मलप्रादुर्भावानन्तरमद्भुतेन दमयन्तीसाचारकारजन्यविस्मया वशेन अस्ता निमेषमुद्रा निमीलनबन्धो यस्य तं निर्निमेषमित्यर्थः। उन्निद्ररोमाणं रोमाणमिति च विस्मयानुभावोक्तिः / युवानममुं नलमन्यत्राद्भुतेन नलरूपसा. साकारविस्मयेन अस्तनिमेषमुद्राः उन्निद्ररोमाणो युवतय इति परिणामः कार्यः। ता अमी सभासदः समस्ताः सुरशः खियः हशा पपुरतितृष्णया परित्यर्थः / तथा महीमघोनो भूदेवेन्द्रस्य भीमस्य सुता भैमी च पूर्वोत्कविस्मयानुभववती युवतिरचेति भावः / तं हशा पपाविस्यर्थः / भैम्याः पृथगुपादानं दर्शनस्यानुरागपू. करवलक्षणविशेषयोतनार्थः // 1 // इस ( नलके प्रत्यक्ष होने ) के बाद दमयन्ती-दर्शनजन्य आश्चर्यसे निमेषरहित तथा रोमानयुक्त इस युवक (नल ) को सम्पूर्ण सुलोचनाओं (सुन्दर नेत्रवाली सखियों) ने तथा राजा भीमकी पुत्री (दमयन्ती) ने सहसा (अर्थात् अतकितावस्थामें नलके वहां उपस्थित होने से उत्पन्न ) आश्चर्यसे निमेष रहित ( एकटक ) होकर नेत्रसे ( एकवचन 'नेत्र' शब्दका प्रयोग होनेसे कटाक्षपूर्वक) देखा। [ परम सुन्दरी दमयन्तीके देखनेसे आश्चर्यचकित नल निनिमेष एवं रोमानित हो ही रहे थे, किन्तु अन्तःपुरमें उनके सहसा प्रकट हो जानेसे सखियों सहित दमयन्ती भी आश्चर्य चकित होकर निमेषरहित दृष्टिसे युवक होने से दर्शनीय नलको देखने लगी। यहां 'सुदृशः' ( सुन्दर नेत्रवाली ) विशेषण देकर दृष्टिसे पान करना कहनेसे सुन्दर नेत्र होनेसे अधिक पान करने अर्थात् नलको देखने में सखियोंका सामर्थ्याधिक्य भी ध्वनित होता है / सब सखियोंके सहित दमयन्तीने नलको देखा] // 1 // Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मgम: सर्गः। कियरिचरं देवतमाषितानि निहोतुमेनं प्रभवन्तु नाम | पलाल जालैः पिहितः स्वयं हि प्रकाशमासादयतीक्षुडिम्मः / / 2 / / नम्बयमिन्द्रादिवास्यातिक्रमेण कथमासा प्रादुरासीदिस्यत्रोत्तरमाह-कियविति / दैवतभाषितानि भारस्य एवं दूस्यमाचरस्वरूपाणीन्द्रवाश्यादि किपधिरं कियन्त नहकालमित्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, अव्ययविशेषणस्वात् किमितिमपंसकलि. जानिर्देशः / 'क्रियाम्ययानां भेदकान्येकरऽपि' इति नपुंसकलिजशेषेव्यमरः / एन नलं निहोतुमाच्छादयितुं प्रभवन्तु शक्नुवन्तु नाम न शक्नुवन्त खस्वित्यर्थः / सम्भावनायो लोट् / तथाहि-पलालजालैः घीझावितृणपूगैः पिहितः संरक्षणार्थमा च्छादितः इडिम्भः इचप्ररोहः स्वयं स्वत एव प्रकाशं प्रादुर्भावमासादयति इचबहु. रस्येव कामिनोऽप्यतिप्रौढरागस्य दुर्वारो विकार इति भावः / अत्र नलेखुडिभयो. बिम्बप्रतिबिम्बभावेन समानधर्मनिर्देशाद्रष्टान्तालङ्कारः // 2 // देवताओं के कथन ( अन्तर्धानरूप वरदान, दे० 5 / 137) कितनी देरतक इस नलको रोकें, क्योंके पुमालसे ढका हुआ गन्ने (ईख) का अङ्कुर स्वयमेव प्रकाशित हो जाता ( बढ़कर उस पुआलके ऊपर आ जाता ) है / [ यहां पर 'गन्ने' के अंकुरका दृष्टान्त देकर कविने 'गन्ने' के अङ्करसे अन्तिम कालमें प्राप्त होनेवाले मधुर गुड-शर्करा आदिके समान नलका स्वयं प्रकट होनेका फल भी भविष्यमें मधुर अर्थात् उत्तम ही होगा, यह सूचित किया है ] // 2 // अपाङ्गमप्याप हशोर्न रश्मिनलस्य भैमीमभिलष्य यावत् / स्मराशुगः सुभ्रवि ताबदस्यां प्रत्यङ्गमापुङ्खशिखं ममज // 3 // अपाङ्गमिति / अस्य नलस्य दृशो रश्मिः भैमीमभिलष्य कामयित्वा यावदपाजन्तस्या अपाङ्गदेशमपि नाप भैमी तु नापेति किमु वक्तव्यं तावदेव स्मराशुगोऽस्यां सुभ्रवि भग्यां प्रत्यङ्गमापुङ्खशिखं समूलाग्रमित्यर्थः / अभिविधावव्ययीभावः / ममजेत्यन्योन्यरागोक्तिः / अत्र दृष्टिपातस्मरपातयोः कारणयोः पौर्वापर्यभङ्गोक्तिरि. त्यतिशयोक्तिभेदः // 3 // नलकी दृष्टि दमयन्तीकी अभिलाषा करके जब तक ( अतिनिकटवर्ती ) नेत्रप्रान्तको मी नहीं गयी ( फिर दूरस्थ दमयन्ती तक पहुँचनेकी बात ही क्या है ? ) तभी तक कामदेवका वाण सुभ्र दमयन्तीके प्रत्येक अङ्गमें फल (बाणाग्रभाग) लेकर पुखतक अर्थात् पूरा बाण प्रविष्ट हो गया। [ जबतक नल दमयन्तीको अच्छी तरह नहीं देख सके तभी तक प्रथमतः नलके लिए कामुकी दमयन्ती की कामवासना उन्हें देखकर अत्यन्त बढ़ गयी ] // 3 // यदक्रम विक्रमशक्तिसाम्यादुपाचरद् द्वावपि पश्चबाणः / चक्रे न वमत्यममुख्य कस्माद् वाणरन द्धविभागभाग्भिः / / 4 / / 1. 'वैमुख्य-' इति पाठान्तरम् / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 नैषधमहाकाव्यम् / पुनरप्यन्योऽन्यानुरागमेवाह-यदिति / पञ्चबाणो विषमेषुः द्वावपि भैमीनलौ अक्रममविद्यमानक्रमं युगपदित्यर्थः / विक्रमेण या शक्तिस्तस्याः साग्यात् साग्यमा. लम्ब्य स्यब्लोपे पञ्चमी / उपाचरत् उपाचचार विषमैः बाणैयुगपत् उभावप्यवैषम्येण प्रहृतवानिति / अमुष्य समोपचरणस्य अर्धार्धशो विभागभाजो न भवन्तीति तथोक्तः विषमसङ्ख्यैः अशक्यसमविभागरित्यर्थः। बाणैः शरः कर्तृभिः पञ्चभिरिति भावः / वैमत्यमसम्मतिः कस्मात् कथं न चक्रे कृतं महचित्रमिति भावः / अत्र विषमैयुगपदु. भयत्र समप्रहारविरोधस्य स्मरमहिम्ना समाधानाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः // 4 // पञ्चबाण (पांच बाणोंवाला अर्थात् कामदेव ) पराक्रमसे उत्साहका अवलम्बनकर ( अथवा-मानसिक उत्साहरूप बलके सामर्थ्य या समानतासे, अथवा-पक्षियों के आक्रमणमें जो शक्ति उसकी समानतासे अर्थात् जिस प्रकार कबूतर एक साथ खलिहान आदिमें उतरते और दानोंको चूँगते हैं उसकी समानतासे, अथवा-पक्षियोंकी बुद्धिके अर्थात् एक साथ दाना चुंगना उसकी समानतासे, अथवा-विक्रमतुल्य नल और शक्ति की तुल्यतासे, अथवा-विक्रमरूप नल और शक्तिरूपा दमयन्तीकी समानतासे ) एक साथ दोनों ( दमयन्ती-नल ) को प्रहृत किया, (अथवा-नल-दमयन्तीको विक्रम-शक्तितुल्य अर्थ में पूजित या सत्कृत किया ); वह (प्रहार करना) इस (कामदेव ) का पांच बाण होनेसे आधा विभाग करने के अयोग्य बाणोंसे विमतिभाव (विरुद्धभाव ) क्यों नहीं किया ? (यह आश्चर्य है ) [ यदि पञ्चबाण कामदेव दमयन्ती और नलको एक साथ बाणोंसे आहत नहीं करके आगे पीछे आहत करता तो जिसे पहले आहत करता उसमें अधिक अनुराग तथा जिसे बादमें आहत करता उसमें कम अनुराग सिद्ध होता; इस प्रकार दोनोंका परस्परमें समान अनुराग नहीं प्रतीत होता / इससे कामदेवने एक साथ ही दोनोंको आहतकर परस्पर में दोनों का समान अनुराग है, यह सिद्ध किया है / इसी प्रकार अपने बाणोंकी संख्या पांच होनेसे विना आधा-आधा विभाग किये अर्थात् विना ढाई-ढाई वाण किये दोनोंको पूरे पांच-पांच बाणोंसे आहत कर कामदेवने उनका परस्परमें समान अनुराग होना सिद्ध किया / यदि कामदेव पांच बाण होनेसे उनका ठीक आधा-आधा विभाग नहीं हो सकता था और जो बाण आधा होता वह खण्डित होनेसे निष्क्रिय हो जाता और यदि सब बाणो को आधा 2 विभाग करते तो सबके सब निष्क्रिय हो जाते और प्रत्येक बाणों के मादन आदि पृथक् धर्म होनेसे जिस बाणको आधा 2 करता तो उसका गुण नष्ट हो जाता या बाणों में भी परस्पर वैमत्य ( विरोध ) होता कि मुझे क्यों दो टुकड़ा किया दूसरे को क्यों नहीं किया तथा यदि नल या दमयन्तीमें से किसीको दो और किसीको तीन बाणों से आहत करता तब भी कम दो बाणसे जो आहत होता उसमें कम अनुराग तथा तीन बाणोंसे जो आहत होता उसमें अधिक अनुराग सिद्ध होता, अतः ऐसा न्यूनाधिक बाणोंसे प्रहार न करके दोनों को समान बाणोंसे हो तथा एक साथ ही कामदेवने जो प्रहार किया, यह आश्चर्य है] // 4 // Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 413 तस्मिन्नलोऽसाविति साऽन्वरज्यत् क्षणं क्षणं क्वेह स इत्युदास्त | 'पुरः स्म तस्यां वलतेऽस्य चित्तं दूत्यादनेनाथ पुनर्व्यवर्ति / / 5 / / तस्मिन्निति / सा भैमी तस्मिन् पुंसि असौ नल इति हंसादिमुखश्रतरूपसंवा. दाम्नल इति मत्वा क्षणं क्षणमल्पकालमत्यन्तसंयोगे द्वितीया। अन्वरज्यवनरक्ताs. भवत् / एतेन हर्षः सूचितः। पुरेस नलः केहेत्यसम्भावितमिति मत्वेत्यर्थः / इतिनैवो. तार्थवादप्रयोगः / क्षणमुदास्त उदासीना स्थिता / आसेः कर्तरि लङ्तङ। एतेन विषादः सूचितः, तथा चास्या भावसन्धिरासीदित्यर्थः / अथ नलस्य तस्यां भाव. सन्धिमाह-अस्य नलस्य चेतः पुरः प्रथमं तस्यां दमयन्त्यां वलते स्म चचालेति हषोंक्तिः। पुनः दूत्यादनेन का नलेन न्यवर्ति नीचकृत्ये स्थितस्य इदमनचितमिति बलात्कारेण निवर्तितमिति विषादोक्तिः, रागस्तु समग्ररूढ एवानयोरिति भावः // 5 // वह दमयन्ती उस ( नल ) में यह नल हैं यह मानकर अनुरक्त होती थी, वे यहां ( अन्तःपुर या इस नगरमें भी) कहां से या कैसे आ गये ? यह मानकर उदासीन हो जाती थी और उस नलका चित्त उस दमयन्तीमें पहले (पाठा०-बारबार) चञ्चल हो उठता था, किन्तु बादमें दूत होनेसे वे अपने चित्तवृत्तिको हटा ( रोक) लेते थे। [पहले तो दमयन्ती को हर्ष तथा बादमें नलके अन्तःपुरमें आनेकी सम्भावना न होनेसे दमयन्ती को तथा स्वयं देवों के दूत होनेसे दमयन्तीमें अनुराग करना अनुचित होनेसे नलको उदासीनता हो जाती थी। इस प्रकार पूर्व वचन ( श्लो० 4 के ) अनुसार दोनों में समान अनुराग व्यक्त किया गया है ] // 5 // २कयाचिदालोक्य नलं ललज्जे कयापि तद्भासि हुदा ममजे / तं कापि मेने स्मरमेव कन्या भेजे मनोभूवशभूयमन्या // 6 // अथ तत्सखीनामपि तदा शृङ्गारभावा बभूवुरित्याह-कयेति / कयाचित्कन्यया नलमालोक्य ललज्जे लज्जितं, भावे लिट / कयापि तद्भासि तलावण्ये हृदा ममज्जे हृदि तन्मयत्वं भावितमित्यर्थः / एतेन तत्प्राप्तिसङ्कल्पो गम्यते, भावे लिट। कापि कन्या तं नलं स्मरमेव मेने, इति विस्मयोक्तिः। अन्या कन्या मनोभुवो वशभूयं वशत्वं "भुवो भावे" इति क्यष / भेजे / एतेन औत्सुक्यं गम्यते // 6 // ___ नलको देखकर कोई ( पाठा०-कोई कुलीन ) सखी लज्जित हो गयी, कोई सखी उनके सौन्दर्य में हृदयसे मग्न हो गयी ( सौन्दर्यके देखने मात्रसे कामपराधीन होकर स्मरान्ध हो गयी), किसी सखीने उनको ( साक्षात् ) कामदेव ही माना और कोई सखी सर्वथा कामपरवश हो गयी // 6 // 1. "पुनः" इति पाठान्तरम् / 2. "तं वीचय काचिरकुलजा" इति पाठान्तरम् / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / कस्त्वं कुतो वेति न जातु रोकुस्तं प्रष्टुमध्यप्रतिभातिभारात् / उत्तस्थुरभ्युस्थिति बाबायेव निजासनान्नैकरसाः शाश्म्यः / 7 / / करवमिति / शाजपा विपः एकरसा मानन्दरस परवशाः सत्य इस्पर्धः / अत एवाप्रतिभाषा मप्रतिपतेरतिभारापतिमहत्वादिति कर्तग्यता मोहातिरेकाविस्पर्थः / तनलं करवं कुतो वा मागत इति प्रष्टुमपि जातु कदापिन शेकुः / किड अभ्युस्थि. तिवामपा प्रत्युत्थानेच्छयेवोत्तस्थुः मिजासनासु नोत्तस्थुः, तस्य तेजो विशेषाह ठाम्मनसेबोरस्थुः। न तु वपुषा रसपारवश्यादिति भावः // 7 // कशाशी बालाएँ एक रस (मानन्द के परवश, पाठा०-भनेकरस अर्थात भय, लज्जा और मानन्दके परवश ) हो ( अत एव ) प्रतिमा-हीन हो जानेसे 'तुम कौन हो ? कहांसे भाये हो ?' ऐसा नहीं पूछ सकी; किन्तु एक रस (पाठा०-अनेकरस) होकर (प्रतिभा-हीन हो जानेसे ) अभ्युत्थानकी इच्छासे अपने आसनसे (भी) नहीं उठी ( अपि तु नलके तेजो. विशेषसे मनसे ही अभ्युत्थान किया अर्थात् सभी नलको सहसा देखकर किंकर्तव्यविमूढ हो गयीं / पाठा०-..."अभ्युत्थानकी इच्छासे ही अपने आसनसे उठ गयी अर्थात् खड़ी हो गयीं ) / [अन्य भी कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट व्यक्तिके सहसा आनेपर उसका नाम तथा आनेका कारण निष्प्रतिभ होकर नहीं पूछता, किन्तु मानों विवश हो खड़ा हो जाता है]॥७॥ स्वाच्छन्द्यमानन्दपरम्पराणां भैमी तमालोक्य किमप्याप / महारयं निझरिणीव वारामासाद्य धाराधरकेलिकालम / / 8 / / स्वाच्छन्यमिति / भैमी तं नलमालोक्य किमप्यनिर्वाच्यमानन्दपरम्पराणां स्वाच्छन्द्यमुच्छलत्वम् / 'स्वच्छन्दो निरवग्रहः' इत्यमरः। मिर्झरिणी गिरिनदी धाराधरकेलिकालं मेघविहारकालं वर्षाकालमासाद्य वारा वारीणाम् / 'आपः स्त्री. भूग्नि वार्धारि' इत्यमरः। महारयमिवाप // 8 // दमयन्तीने उस नलको देखकर अनिर्वचनीय आनन्दाधिक्यको उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार पर्वतीय नदी वर्षाकालको प्राप्तकर जलके बड़े वेगको प्राप्त करती है। [ नलदर्शनसे दमयन्ती को वर्णनातीत आनन्द हुआ ] // 8 // तत्रैव मग्ना यदपश्यदो नास्या हगस्याङ्गमयास्यदन्यत् / नादास्यदस्यै यदि बुद्धिधारां विच्छिद्य विच्छिद्य चिरानिमेषः / / 9 / / तत्रेति। अस्या भैम्या हक दृष्टिरस्य नलस्य यत् अङ्गमग्रे प्रथममपश्यत् तत्रैव मन्ना सती अन्यदस्याङ्गं नायास्यत् नागमिष्यत् , यदि निमेषः पचमपातः चिराद्विरिछय विच्छिय विरमय्य विरमय्य बुद्धिधारांज्ञानपरम्पराम अस्पैशे नादास्यत्न दचात्। 1. 'न शक्नुवस्यः' इति पाठान्तरम् / 2. “वान्छयैव निजासनादेकरसाः" इति पाठान्तरम् / Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमः सर्गः। 415 क्रियातिपत्ती एनिमेषकृतबुद्धिविच्छेवायनान्तरमाप्तिा, न गयेति भावः॥ इस दमयन्तीकी दृष्टि इस नलके जिस अङ्गमें पहले पड़ी उसी में मग्न होकर (फॅस कर साडूनकर ) दूसरे अङ्गको नहीं प्राप्त होती अर्थात दूसरे भाको नहीं देखती, यदि निमेप ( पलकका गिरना) बहुत देर में रुक-रुककर इस (दमयम्ती या टि) का मुशिविद नहीं कर देता / [ बहुत बिलम्बतक एकटक देखते रहने के बाद पलक गिरनेसे युद्धि-विच्छेद होनेपर ही दमयन्ती नलके दूसरे 2 भङ्गों को देखती थी, पहले देखे जाते हुए अङ्गको देखने से सर्वथा सन्तुष्ट हो जानेके कारण दूसरे अङ्गको नहीं देखती थी ] // 9 // शापि सालिङ्गितमङ्गमस्य जग्राह नामावगतामहर्षेः / अङ्गान्तरेऽनन्तरमीक्षितेत निवृत्य सस्मार न पूर्वप्रम / / 10 / / शेति / सा भैमी इशा भालिङ्गिन्तं प्राप्तमस्य नलस्याङ्गमान्तरं अग्रावगतारहर्षेः पूर्वगृहीताजनितानन्दः तपारवश्येनेत्यर्थः / न जग्राह नाज्ञासीत् / अथ कथ. चिदनन्तरं अनान्तरे ईशिते गृहीते तु निवृस्य पूर्वाष्टमङ्गं न सस्मार / तस्य तस्य लोकोत्तरत्वादिति भावः // 10 // ____ उस दमयन्तीने नेत्रसे आलिङ्गित अर्थात् देखे हुए भी नलके अङ्गको पूर्वशात हर्पके कारण नहीं देखा और बादमें दूसरे अङ्गके देखनेपर पहले देखे हुए अङ्गका स्मरण नहीं किया। [ नलके जिस अङ्गको दमयन्ती देखती थी, उसको अत्यन्त रमणीय होने के कारण देखने लग जाती थी, पहले देखे हुए अङ्गका स्मरण तक भी वह नहीं करती थी / अन्य कोई व्यक्ति पूर्वदृष्ट वस्तुका स्मरण करता है, पर दमयन्तीने स्मरण नहीं किया यह आश्चर्य है। और अन्य भी कोई व्यक्ति उत्तम वस्तु प्राप्तकर पूर्वप्राप्त वस्तुका स्मरण नहीं करता। नलके अङ्ग एक दूसरेसे बढ़कर सुन्दर थे] // 10 // हत्वकमस्यापघनं विशन्ती तदुष्टरङ्गान्तरभुक्तिसीमाम् / चिरं चकारोभयलाभलोभात् स्वभावलोला गतमागतञ्च / / 11 / / हित्वेति / स्वभावलोला अभिमतविषयलाभे किमु वक्तव्यमिति भावः / तद्दा ष्टिभैमीदृष्टिरस्य नलस्य एकमपधनमवयवम् / “अपघनोऽङ्ग"मित्यवन्तो निपातः / हित्वा अङ्गान्तरभुक्तिसीमामवयवान्तरदेशं विशन्ती चिरमुभयोः लाभे लोभाद्र्धः नात् / “उभादुदात्तो नित्यम्" इत्यत्र पृथक्सूत्रकरणादेव नित्यमजादेशे सिद्धे पुनः नित्यग्रहणमुभयशब्दस्य वृत्तावप्ययजमिति कैयटः / गतमागतञ्च चकार / उभयो। रपि तथा रमणीयत्वादिति भावः // 11 // __ इस नलके एक अङ्गको ( देखने के बाद उसे ) छोड़कर दूसरे अङ्गके देखनेकी सीमामें प्रवेश करती हुई स्वभावतः चञ्चल दमयन्ती-दृष्टिने दोनों (अङ्गों ) के सौन्दर्य लाभ होने के लोभसे गमनागमन किया अर्थात् कभी पूर्वदृष्ट अङ्गको देखा तो कभी दूसरे भङ्गको देखा। [जो स्वभावतः चञ्चल है वह बार 2 इधर-उपर जाता-माता है, उसमें भी कदाचित Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 नैषधमहाकाव्यम् / अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति होने लगे तब तो वह ( स्वभाव चञ्चल व्यक्ति), अवश्य ही बार-बार इधर-उधर अर्थात् दोनों ओर आता-जाता है। उसी प्रकार दमयन्तीकी दृष्टि भी स्वभाव चञ्चल ( स्त्री की दृष्टिका चञ्चल होना गुण है, दोष नहीं ) होनेसे कभी नलके पूर्व पृष्ट अङ्गको देखती थी तो कभी नये दूसरे अङ्गको देखती थी, क्योंकि वह यह चाहती थी कि दोनों अङ्गोंमेंसे जो अङ्ग अधिक सुन्दर हो उसे मैं देखू, किन्तु बार-बार ऐसा करने. पर भी नलके दोनों या सभी अङ्गोंके एकसे एक सुन्दर होनेके कारण निर्णय नहीं कर सकने के कारण उसे बार-बार गमनागमन करना पड़ा। अन्य भी कोई अधिक लाभेच्छु व्यापारी अधिक लाभ होनेकी सम्भावना होनेपर या अधिक लाभ होते रहने तक एकसे दूसरे स्थानमें बार-बार गमनागमन करता है ] // 11 // निरीक्षितञ्चाङ्गमवीक्षित हशा पिबन्ती रभसेन तस्य / समानमानन्दमियं दधाना विवेद भेदं न विदर्भसुभ्रः / / 12 / / निरीक्षितमिति / इयं विदर्भसुभ्रवैदर्भी तस्य नलस्य सम्बन्धि निरीक्षितं च अवीक्षितं चाङ्गंशा रभसेन पिबन्ती तृष्णया पश्यन्ती समान मानन्दं दधाना भेदमिदं दृष्टपूर्वमिदमदृष्टपूर्वमिति विवेकंन विवेद / उभे अप्यनवद्यया अपूर्ववदेव पीते इत्यर्थः // उस नलके सम्यक् प्रकारसे देखे हुए. तथा नहीं देखे हुए अङ्गके सादर देखती एवं सनान आनन्दको धारण करती हुई विदर्भराजकुमारी दमयन्तीने (दोनोंमें) कोई भेद नहीं समझा। [ अन्य कोई भी व्यक्ति देखे हुए पदार्थमें अनुत्कण्ठित तथा नहीं देखे हुए पदार्थमें उत्कण्ठित रहता है, किन्तु नलके सब अङ्गों के एकसे एकके बढ़कर सुन्दर होनेसे दमयन्ती दृष्ट तथा अदृष्ट दोनों प्रकार के अङ्गों में कोई भेद नहीं जान सकी, अपितु उसने दोनों ही प्रकार के अङ्गों में समान आनन्दको प्राप्त किया / अन्य भी कोई योग साधनेवाली नारी वच. नादिसे घट तथा वेदवाक्यादिसे ब्रह्मका प्रत्यक्ष ( वास्तविक स्वरूपका ज्ञान ) होनेपर वेदादि वाक्योंसे विचारकर निःसारभृत घटादि का त्याग एवं ससार ब्रह्मका ग्रहण कर महान् आनन्द प्राप्त करती है / किन्तु दमयन्तीने दोनों अङ्गों में जो समान आनन्द प्राप्त किया, यह आश्चर्य है अथवा-जगन्मात्रके ब्रह्मस्वरूप होनेके कारण वह वस्तु पूर्वदृष्ट हो या न हो किन्तु योगसाधक वह व्यक्ति उक्त दोनों प्रकारकी वस्तुओंमें ब्रह्मानन्दको समान रूपसे प्राप्त करता है उसी प्रकार उक्त द्विविध अगों के नल सम्बन्धी होनेसे अभेद होने के कारण उनसे दमयन्तीको समान आनन्द प्राप्त हुआ, यह ठीक ही है ] // 12 // सूक्ष्मे घने नैषधकेशपाशे निपत्य निष्पन्दतरीभवद्भ्याम् / तस्यानुबन्धं न विमोच्य गन्तुमपारि तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् // 1 // सूचम इति / सूक्ष्मे तनीयसि घने सान्द्रे दृढे च नैषधस्य नलस्य केशपाशे केशकलापे केशापबन्धने च / 'धनं सान्द्रे दृढे हाथै पाशः पश्यादिबन्धने' इति विश्वः / निपत्य निष्पन्दतरीभवद्भ्यामेकत्र विस्मयादन्यत्र यन्त्रलग्नाच्च निश्चलीभवद्भयां Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः / 417 तस्याः भैम्याः लोचने एव खञ्जनौ नेत्रापमानपक्षिणी / 'खारीटस्तु खानः' इत्यमरः। ताभ्यां तस्य केशपाशस्य सम्बन्धिनमनुबन्धं तत्र सक्तिं बन्धनच विमोच्य मोचयित्वा गन्तुं नापारि न शेके / पारयतेर्भावे लुङ / श्लिष्टविशेषणं रूपकम् // 13 // महीन तथा धन नलके केश-समूहमें (पक्षा०-केशरूपी जालमें ) संलग्न होकर ( पक्षा०-गिरकर अर्थात् फँसकर ) निश्चल होते हुए (अनुरागसे निश्चल भावसे देखते हए, पक्षा०-जालसे छुटकर बाहर निकलनेमें असमर्थ होते हुए ) उस दमयन्तीके नेत्ररूपी दो खञ्जन पक्षी उस केशके अनुराग ( पक्षा०-बन्धन ) को छोड़कर अन्यत्र जाने ( पक्षा०जालसे छूटकर बाहर निकलने ) के लिये समर्थ नहीं हो सके। [जिस प्रकार खञ्जन (खजरीट ) पक्षी महीन एवं सघन केशनिर्मित जालमें फँसकर बाहर निकलने में असमर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार खञ्जनके तुल्य सुन्दर दमयन्तीका नेत्रद्वय महीन एवं धन नलके केश-समूहको देखनेमें संलग्न होकर अनुरागवश उसे छोड़कर दूसरे अङ्गको देखने में असमर्थ हो गया / सूक्ष्म एवं धन होनेसे शुभ लक्षणोंसे युक्त नलके केशसमूहको दमयन्ती सानुराग होकर देखने लगी] / / 13 // भूलोकमतुमुखपाणिपादपद्मः परारम्भमवाप्य तस्य / दमस्वसुदृष्टिग्मरोजराजिश्चिरं न तत्याज सबन्धुबन्धम / / 14 / / भूलोकेति / दमस्वसुदृष्टय एव सरोजानि क्रियाभेदाबहुत्वं तेषां राजिः भूलोक भर्तुस्तस्य नलस्य मुखं च पाणी च पादौ च मुखपाणिपादम् प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः। तदेव पद्मानि तैः सह परीरम्भमाश्लेषमवाप्य समाना बन्धवः सबन्धवः / 'जातिजनपद' इत्यादिना समानशब्दस्य 'स' भावः / तेषु बन्धमासक्ति चिरं न तत्याज / स्निग्धा हि बन्धवः चिरमनाश्लिष्य न मुश्चन्तीति भावः / पद्मत्वसजातित्वात् सबन्धुत्वम् // 14 // दमयन्तीके नेत्ररूप कमलसमूहने उस राजा नल के मुख, हाथ और चरणरूप कमलोंका आलिङ्गनकर अर्थात् देखकर समान बन्धुके बन्धन (अनुराग-बन्धन अर्थात् दर्शनासक्ति) को देरतक नहीं छोड़ा। [जिस प्रकार कोई व्यक्ति समान बन्धुको प्राप्तकर देरतक उसका आलिङ्गन करना नहीं छोड़ता, उसी प्रकार दमयन्तीके कमल तुल्य नेत्र नलके कमलतुल्य मुख, हाथ और पैरको देरतक देखते रहे / नलके मुखादि तथा दमयन्तीके नेत्रके कमलतुल्य होनेसे परस्परमें उनका समान बन्धुत्व होना उचित ही है ] // 14 // तत्कालमासन्दमयी भवन्ती भवत्तरानिर्वचनीयमोहा / सा मुक्तसंसारिदशारसाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्ग मृष्टम् / / 15 / / तत्कालमिति / तस्मिन् काले तत्कालम् अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / आनन्दमयी भवन्ती आनन्दात्मिका सती टिस्वादुभयत्र डीप / तथा च भवत्तरोऽतिशयेन भवन् 1. 'अमुक्त' इति पाठान्तरम् / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 नैषधमहाकाव्यम् / अनिर्वचनीपो निर्वस्तुमशयो मोहः अप्रतिपत्तिस्पा सा भानन्दमग्नेस्यर्थः / सा भैमी विमुक्तसंसारिणोदशे अवस्थे तपोषौं रसौ स्वादी ताम्या ही स्वादी पस्प तदहिस्यावतारक स्वादमित्यर्थः / म राबमुक्लासमुल्लासताममुक्त भुक्तवती / "भुजोऽनवमे" इति लुछता। आनन्दपारवश्यान्नैव किनिद्विवेदेश्यर्थः // 15 // ___ उस ( नलको देखने के ) समय ( नलके अलभ्य दर्शनलाभसे ) भानन्दस्वरूपा तथा अत्यन्त अनिर्वचनीय मोह (मशान या किंकर्तव्यमूढता, अथवा अतिशय सुरक्षित अन्त: पुरमें नल कैसे मा गये, वे नहीं है क्या ? इत्यादि भ्रम ) वाली उस दमयन्तीने ( प्रहमतुल्य नलदर्शनजन्य मानन्दसे ) मुक्त तथा ( मोह या भ्रम होनेसे ) संसारीकी अवस्थाओंसे शुद्ध उल्लास या मधुर विविध स्वारको प्राप्त किया। [ मुक्त व्यक्ति संसारी नहीं होता एवं संसारी रहता हुआ व्यक्ति मुक्त भी नहीं होता किन्तु दमयन्तीने एक साथ ही दोनों अवस्थाओंका आनन्द प्राप्त किया, यह आश्चर्य की बात है ] // 15 // दते न लश्रीभृति भाविभाषा कानीयं 'जानतेोत नूनम् / न स व्यधान्नैषधकायमायं विधिः स्वयं दूतमिमां प्रतीन्द्रम् / / 16 / / __अथ भैमीदूतसम्भाषणं विवतुर्नलेकबद्धप्राणायाः तस्यास्पदमनौचित्यं द्वाभ्यां परिहरति-दूत इत्यादि / नलस्य श्रियमिव श्रियं बिभर्तीति नलश्रीभृत् तत्सदृश इत्यर्थः / निदर्शनालङ्कारः। तस्मिन् दूते भाविभावा भविष्यदनुरागा इयं भैमी कलकिनी भग्नव्रता जनिता भविष्यतीति मरवा जनिधातोलृट् / विधिर्विधाता इमां भैमी प्रति नैषधस्य काय एव माया कप यस्य तं नलरूपधारिणं स्वयं साक्षादिन्द्र. मेव दूतं न संग्यधात् न कल्पितवान् , उक्तदोषपरिहारायैवेन्द्रस्य ताहशी वुद्धिं नाजीजनदित्यर्थः / नूनमिति वितर्के वस्तुविचारस्वान्नायमुत्प्रेक्षालङ्कारः। दूतभाव. तिरोहितस्यापि तस्य वस्तुनो नलस्वान्नायं कलङ्क इति भावः / / 16 // __ नलकी शोभा अर्थात् स्वरूपको धारण करनेवाले दूतमें भाबी भाव करनेवाली यह ( पतिव्रता ) दमयन्ती ( अन्य पुरुषमें भाव करनेसे ) निश्चय ही कलङ्कयुक्त न होगी, इस लिये उस ब्रह्माने इस दमयन्तीके स्वयं इन्द्रको ही नलरूपधारी दूत नहीं बनाया। [ यदि इन्द्र स्वयं नलका रूप धारण कर दूत बनकर दमयन्तीके यहां जायेंगे तो नलरूपधारी इन्द्रको वास्तविक नल समझकर अनुराग करनेके कारण पतिव्रता दमयन्तीको दोष लगेगा, इसी विचारसे ब्रह्माने इन्द्रको नलरूपधारी दूत बनाकर दमयन्तीके यहाँ नहीं भेजा। दूतरूपमें आने पर भी वास्तविक नल होनेसे उनमें अनुराग करनेवाली पतिव्रता दमयन्तीके पातिव्रत्य में कोई क्षति नहीं हुई ] / / 16 / / पुण्ये मनः कस्य मुनेराप स्यात्प्रमाणमास्ते यदधेऽपि धावत् / तचिन्ति चित्तं परमेश्वरस्तु भक्तस्य ष्यत्करुणो रुणद्धि / / 17 / / 1. "जनिमेति" इति पाठान्तरम् / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमः सर्गः। मन्विन्ऽपि समागते तदभिलाषेनोक्तदोषावकाशः कुत इत्याशय चित्तरः तीनां चणिकरवास तथा प्रदेयमित्याह-पुण्य इति / मुनेर्यतेरपि किमुताम्यस्येति भावः / कस्य मनः पुण्ये स्यात् पुण्य एवं प्रमाणं न कस्यापीत्यर्थः / कुतः, यस्मा. दघे पापेऽपि धावदुलं प्रवर्तमानं तम्मन एव प्रमाणं निश्चायकमास्ते / किन्तु हप्यस्करण उद्यरकपः परमेश्वर एव तधिम्ति पापचिन्तकं भक्तस्य विसं रुद्धि निवारयति / तस्मात् विधिविलसितमेवैतदिन्द्रचष्टितमिति भावः // 17 // किसी भी मुनिका चित्त पुण्यमें ( सत्कार्यमात्रमें ही) निश्चित रहता है ? अर्थात् किसी का भी नहीं, क्योंकि पाप ( कर्म ) में भी दौड़ता है (विग विचार किये प्रवृत्त होना चाहता है ), करुणाकर परमेश्वर या ब्रह्मा भक्तके उस (पाप या परमेश्वर ) की चिन्ता करने वाले चित्तको रोकते हैं अर्थात् पापकर्मसे बचा लेते हैं। [ अत एव विषय निःस्पृह मुनियों के चित्तकी प्रवृत्ति भी सहसा पापकी ओर होती है परन्तु वे भगवत्कृपासे पारसे बच जाते हैं तो विषयोन्मुख दमयन्ती का चित्त नलके निश्चय नहीं रहनेपर भी तद्रुप नलमें अनुरक्त होने पर मो भगवत्कृपासे वास्तविक नलमें अनुरक्त हुआ। इस कारण उसके पातिव्रत्य धर्मको लेशमात्र भी क्षति नहीं पहुंची ] // 17 // सालीकदृष्टे मदनोन्मविष्णुर्यथाप शाजीनतया न मौनम् / तथैव तथ्येऽपि नले न लेभे मुग्धेषु कः सत्यमृषाविवेकः / / 18 / / सम्प्रति धाष्टदोषं परिहरति-सेति / मदनोन्मविष्णुः उम्मदशीला "अलकृष" इत्यादिना इष्णुच / सा भैमी यथा अलीकदृष्टे मिथ्यारष्टे शालीनतया अष्टतया। "शालीनकौपीने अष्टाकार्ययोः" इति निपातः / मौनं नाप तदेव तथ्येऽपि नले न लेभे / एतत्सत्येऽनुचितमित्याशक्य अर्थान्तरन्यासेन परिहरति / मुग्धेषुमदनो। न्मादेषु सत्यमृषा सत्यासत्ययोविवेको विवेचना नास्तीत्यर्थः / अत एव न धाट. दोषोऽपीति भावः // 18 // कामोन्मत्ता वह दमयन्ती जिस प्रकार असत्यदृष्ट ( स्वप्न-भ्रमादिमें देखे गये ) नलमें भी अधृष्टतासे मौन नहीं रही, उसी प्रकार (अन्तःपुरमें दूतरूपसे आनेसे) सत्य दृष्ट ( वास्तविक देखे गये) नल में भी मौन नहीं रही अर्थात् नलको वहाँ देखकर बोली। [ठीक ही है--मोहित व्यक्तियों में वास्तविक या अवास्तविक का कौन विचार है अर्थात् कोई नहीं ( पाठा०- 'अत्यन्तसलज्ज' शब्द दमयन्तीका विशेषण है। सिदान्तवागीश महोदयने जो 'शालीन' शब्दका निर्लज्ज या अतिप्रगल्भ' अर्थ किया है, वह 'स्यादधृष्टे तु शालीनः' ( अमर 3 / 1 / 26 ), 'अथाधृष्टे शालीन शारदौ' ( हैम 3097 ), 'अधृष्टौ च प्रोक्तौ शालीन. शारदौ' (दला०-२१२२०); के वचनोंसे विरुद्ध होनेके कारण चिन्त्य है ] // 18 // 1. "शालीनतमा" इति पाठान्तरम् / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 नैषधमहाकाव्यम् / व्यर्थीभवद्भावपिधानयत्ना स्वरेण साथ श्लथगद्गदेन | संखोजने साध्वससन्नवाचि स्वयं तमूचे नमदाननेन्दुः / / 16 // व्यर्थीभवदिति / अथ द्विस्वादभावानन्तरं व्यर्थीभवन् भावविधाने आकारगोपने यत्नो यस्याः सा गोप्तुमशक्तेत्यर्थः / सा भैमी सखीजने साध्वसेन सन्नवाचि कुण्ठितमुखे कुण्ठिते सति, अन्यथा सखीमुखेनैव यादिति भावः / नमदाननेन्दुर्लजा. नम्रमुखी सती श्लथगद्देन स्खलितेन स्वरेण तं नलं स्वयमचे / कर्तरि लिङ् “ब्रुवो वचिः " // 19 // अपने भावको छिपानेमें असफल वह दमयन्ती भयसे सखियोंके चुप होनेपर (लज्जासे) नम्र मुखी होकर उस नलसे स्वयं बोली-[ नलको सहसा अन्तःपुरमें उपस्थित देखकर भयसे सखियों को बोलनेमें असमर्थ देखकर दमयन्ती नलसे बोली / अथवा सखियोंसे ही पूछनेके लिये वह कहती] // 19 // नत्वा शिरोरत्नरुचापि पाद्य सम्पाद्यमाचारविदातिथिभ्यः / प्रियाक्षरालीरसधारयापि वैधी विधेया मधुपर्कतृप्तिः / / 20 / / अथास्यातिथ्यं चिकीर्षुत्रिभिस्तस्कर्तव्यतामाह-नस्वेत्यादि / आचारविदा गृहस्थेन अतिथिभ्यो नत्वा पदयोर्निपत्य शिरोरत्नस्य रुचा कान्त्यापि पाद्यं पादार्थजलं “पादार्घाभ्यां च" इति यत्प्रत्ययः / सम्पाचं, किश प्रियाराल्या प्रियवाक्यकदम्बा केन या रसधारा आनन्दलहरी तयापि वैधी विधिप्राप्तमधुपर्केण या तृप्तिः सा बिधेया• सम्पाद्या मुख्यानुकल्पोऽप्यनुष्ठेय इति भावः // 20 // आचारश व्यक्तिको भतिथियों के लिये प्रणामकर चूडामणि-कान्तिसे भी पाथ ( चरणप्रक्षालनार्थ जल ) देना चाहिये और प्रियभाषणरूप रसधारासे भी विधिप्राप्त मधुपर्वकी तृप्ति करनी चाहिये / ( पाठा०-'भाषणद्वारा भी मधुपर्कतृप्ति करनी चाहिये' अत एव आप-जैसे महापुरुषसे मेरा बोलना नहीं है ) // 20 // स्वात्मापि शीलेन तृणं विधेय देय! विहायासनभूर्निजापि। आनन्द बाष्परपि करुप्यमम्भः पृच्छा विधेया मधुभिवचोभिः / / 21 / / स्वात्मापीति / किञ्च शीलेनाचारप्रमाणेन स्वदेहोऽपि। 'आत्मा जीवस्तौ देहः" इति वैजयन्ती / तृणं विधेयं तृणवदर्पणीयम्, निजापि आसनभूरुपवेशनस्थानं विहाय स्वयं तत उत्थाय देया, आनन्दबाष्पैरप्यम्भः पादोदकं कल्प्यम्, मधुभि. 1. "सखीचये साध्वसबद्धवाचि" इति पाठान्तरम् / 2. कचित्तृतीयचतुर्थपादयोय॑त्यासेन ("वैधी विधेया मधुपर्कतृप्तिः प्रियाक्ष. रालीरसधारयाऽपि" इत्येवं) तथा "उक्त्यापि युक्ता मधुपर्कतृप्तिनं तद्विरस्त्वाशि सृष्टता मे" इति पाठान्तरम् / Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 421 मधुप्रायः वचोभिः पृच्छा कुशलप्रश्नः / 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः। भिदादि. स्वादङ प्रत्ययः। विधेया कर्तव्या। 'तृणानि भूमिरुदकं वाक चतुर्थी च सूनृता। अप्रणोद्योऽतिथिः सायमपि वाग्भूतृणोदकै.' इति स्मरणात् तृणाद्यसम्भवे तत्स्थाने स्वशरीरादिकमपि देयम् / अशक्तस्यानुकल्पेनापि शास्त्रार्थसिद्धेरिति भावः // 27 // _ विनयादि शीलके द्वारा ( या सदाचार या स्वभावसे ) अपने शरीरको भी तृण बनाना चाहिये अर्थात् तृण जिस प्रकार अतिनम्र होता है उसी प्रकार अपने शरीरको नम्र करना चाहिये (प्रणामादिमे नम्र बनना चाहिये; पक्षा०-शरीरको तृणस्थानीय बनाना चाहिये ), अपने आसन की भूमिको भी छोड़कर देना चाहिये (स्थानान्तरके न होनेपर अपना आसन या भूमि छोड़कर उसे बैठने के लिये देना चाहिये ), आनन्दजन्य आंसूको जल ( पादप्रक्षालनार्थ जल ) बनाना चाहिये (जलके मिलनेकी सम्भावना नहीं होनेपर आनन्दजन्य आंसू को ही जल-स्थानीय समझना चाहिये, पक्षा०-अतिथिको देखकर हर्षित होना चाहिये।) और मधुर वचनोंसे (कुशलादि ) प्रश्न करना चाहिये। [ अतिथि से मधुर भाषणकर उसके स्थान, वंश, कुशल, आगमन कारण आदिके विषयमें प्रश्न करना चाहिये ] // 21 / / पदापहारेऽनुपनम्रतापि सम्भाव्यतेऽपा स्वरयापराधः / तत्कतुमर्हालिसञ्जनेन 'स्वसंभृतिप्राअलतापि तावत् / / 22 / / पदेति / पदोपहारे पादोपचारप्रस्तावे स्वरया वेगेन अपामुदकानां अनुपनम्रता असन्निहितत्वमपराधः अपचारः सम्भाव्यते अपराधत्वेन गृह्यत इत्यर्थः / तत् तस्मात् अञ्जलिसानेनाअलिबन्धेन तत्पूर्वकस्वमित्यर्थः / स्वस्यात्मनः संभृत्या सम्भरणेन सन्निधानेन प्राञ्जलता आजवं विधेयमिति यावत् , सापि तावत्कर्तुमर्हा आतिथ्यक्रियासामर्थ्य विनयाचरणेनापि तचित्तोपार्जनं कर्तव्यम् / अन्यथा प्रत्यवा. यादिति भावः // 22 // पादप्रक्षालनार्थ शीघ्र जल नहीं लाना अपराध माना जाता है, उसे करनेके लिये तबतक (या सर्वथा ) हाथ जोड़नेमे समीपमें अपनी उपस्थिति ( अथवा-स्वयं विनम्रता, अथवाआतिथ्य-सामग्री ) करनी चाहिये अर्थात् जल आने के पूर्व हाथ जोड़कर विलम्बसे जल आनेके अपराधकी क्षमा-याचना करनी चाहिये / ( अथवा-जल लाने के पूर्व स्वयं अतिथिके सामने हाथ जोड़कर उपस्थित नहीं होना अपराध समझा जाता है, अतः तबतक (जल आनेके पूर्व ) हाथ जोड़कर अतिथिके सामने नमस्कार कर उपस्थित होना चाहिये, इससे सम्पूर्ण अतिथि-सत्कार सम्पन्न हो जाता है) // 22 // पुरा परित्यज्य मयात्यसजि स्वमासनं तत्किमिति क्षणन्न / अनहमप्येतदलक्रियेत प्रयातुमीहा यदि चान्यतोऽपि / / 23 // पुरेति / मया स्वामात्मीवमासनं पुरा पूर्व स्वदर्शनषण एवं परित्यज्य तत 1. "सुसंभृति" इति पाठान्तरम् / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 नैषधमहाकाग्यम्। उत्थास्पर्धः / अस्यसनि भदापि तदेतदासनमनहमस्परलाग्यमपि परिमा भन्यतः कुतः प्रयातुमीहा बा तथापि किमिति णं मालक्रियेत भक्तजनानुकम्पया क्षणमात्रमत्रोपवेष्टण्यमिति भावः॥॥ मैंने पहले ही अपने आसनको छोड़कर ( आपके लिये) दे दिया है, तो अयोग्य भी इस आसन को यदि अन्यत्र जानेकी इच्छा हो तथापि क्षणमात्र ( थोड़े समय तक ) क्यों नहीं अलकृत करते हैं ? [ मेरा भाग्य इतना उत्तम नहीं कि भाप मेरे यहां पधारें, अतः यदि अन्यत्र जाना चाहते हों, तथापि आपके पधारते ही छोड़े गये मेरे भयोग्य आसनको भी आप थोड़े समय तक अलस्कृत करनेकी कृपा कीजिये ] // 23 // निवेद्यतां हन्त समापयन्तौ शिरीषकोषम्रदिमाभिमानम् / पायो कियदरमिमो प्रयासे निधिससे तुच्छदयं मनस्ते / / 24 / / निवेयतामिति / शिरीषकोषस्य ब्रदिमाभिमान माईवगर्व समापयन्तौ निवर्सयन्तौ इमो पादो। पादः पदनिश्चरणोऽत्रिपाम्' इत्यमरः। तुपवयं निष्कृपं ते मनः (कर्तृ) किय कियधिरमित्यर्थः / प्रयासे निषिरसते निधातुमिच्छति / बधातेः सन्नन्ताहटि तक। “सनिमीमा" इत्यादिना इसादेशः। अत्र "लोपोऽभ्यासस्य" इति अभ्यासलोपः / निवेद्यतां ज्ञाप्यतां वाक्यार्थः (कर्म) हन्तेस्यनुकम्पायाम् // 24 // शिरीष-पुष्पकी कोमलताके अभिमानको चूर करनेवाले अर्थात् शिरीष-पुष्पसे भी अधिक कोमल इन चरणों को निर्दय आपका मने कितनी दूरतक प्रयास (प्रयत्नसाध्य कार्य ) में लगावेगा अर्थात् आप कहाँ तक जावेंगे ? कृपाकर कहिये / / 24 // अनायि देशः कतमस्त्वयाध वसन्तमुक्तस्य दशां धनस्य / स्वदाप्तसङ्केततया कृतार्थी अध्यापि नानेन जनेन संज्ञा / / 25 / / अनायीति / अय स्वया कतमो देशो वसन्तमुक्तस्य वनस्य वशामनायि नीतो रिक्तीकृत इत्यर्थः / नयतेईिकर्मकत्वात् प्रधाने कर्मणि लुछा कि स्वदासिकेततया स्वयि लम्धसङ्गतिकतया कृतार्था सफला.संज्ञा नामानेन जनेन आस्मना श्रग्यापि श्रोतुमर्हापि न किमिति काकुः / कश्च भचोदयत् , कुतः आगतः, किश ते नामधेयं तनिवेदनेनाप्यनुप्राह्योऽयं जन इति भावः // 25 // आज आपने किस देशको वसन्तमुक्त वनकी अवस्थावाला बना दिया है ? आपके संकेतसे कृतार्थ नामको भी यह जन ( मैं दमयन्ती) नहीं सुन सकता है क्या ? [ आप कहांसे आ रहे हैं तथा आपका शुभ नाम क्या है ? ] !! 25 // तीर्णः किमोनिधिरेव नैष सुरक्षितेऽभूदिह यत्प्रवेशः। फलं किमेतस्य तु साहसस्य न तावदद्यापि विनिश्चिनोमि / / 26 / / तीर्णे इति / सुरक्षिते साधुगुप्ते अत्यन्तदुष्प्रवेश इत्यर्थः / इहान्तःपुरे प्रवेशोs. भूदिति पत् एष प्रवेशः अर्णोनिधिरर्णव एव तीर्णो न किम् ? अर्णवतरणतुल्यं न Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 423 किमित्यर्थः / किन्तु एतस्य साहसस्य फलं किमद्यापि चिरं विमृश्यापीत्यर्थः / तावन्न / विनिश्चिनोमि निश्चेतुं न शक्नोमीत्यर्थः। अत्रान्तःपुरप्रवेशार्णवतरणलक्षणवाक्या. र्थयोनिर्दिष्टसामानाधिकरण्यान्यथाऽनुपपत्या तत्तुल्यमिति सादृश्यातेपादसम्भवदस्तुसम्बन्धो वाक्यानिष्ठनिदर्शनाभेदः // 26 // 'जो अपने सुरक्षित अन्तःपुरमें भी प्रवेश किया है। यह समुद्रपार नहीं किया है क्या ? अर्थात् आपका सुरक्षित इस अन्तःपुर में प्रवेश करना बाहुसे समुद्र पार करने के समान है। किन्तु इस साहस का फल क्या है ( यहां आनेका इतना कठिन प्रयास आपने क्यों किया हैं ? ) यह मैं अबतक निश्चित नहीं कर सकी हूँ। [ आप सुरक्षित इस अन्तःपुरमें आनेके कठिन प्रयास करने का प्रयोजन बतलाइये ] / / 26 / / तव प्रवेशे सुकृतानि हेतुं मन्ये मदक्ष्णोरपि तावदत्र / नलक्षितो रक्षिभर्यदाभ्यां पीतोऽसि तन्वा जितपुष्पधन्वा // 27 // तवेति / अथवा अत्रान्तःपुरे तव प्रवेशे मदक्ष्णोः सुकृतान्यपि तावत् यावद. न्योऽपि हेतुः श्रोतव्य इति भावः / हेतुं कारणं मन्ये कुतः, यद्यस्मात् तन्वा मूर्त्या, जितपुष्पधन्वा जितकामः त्वं रक्षिभटै रक्षकयोधैर्न लक्षितः अलक्षितः सन् / नअर्थस्य नशब्दस्य "सुप सुपा" इति समासः। आभ्यां मदतिभ्यां पीतोऽतितृष्णया दृष्टोsसि / सुकृतविशेषं विना कथमीदृगभूतरूपसाक्षात्कारलाभ इति भावः // 27 // यहां आपके प्रवेश करनेमें मेरे नेत्रोंका पुण्य भी कारण है क्योंकि शरीर (की शोभा) से कामदेवको जीतनेवाले आपको पहरेदारोंने नहीं देखा, अतः मेरे नेत्र देख रहे हैं / [ यदि यहां आते हुए आपको पहरेदार देख लेते तो मैं आपका दर्शन नहीं पा सकती, अत एव मेरा अहोभाग्य है कि आप यहां तक आनेमें सफल हुए ] // 27 // यथाकृतिः काचन ते यथा वा दौवारिकान्धकरणी च शक्तिः / रुच्यो रुचीभिर्जित'काञ्चनीभिस्तथासि पीयुषभुजां सनाभिः / / 8 / / यथेति / यथा यतस्ते तव आकृतिमूर्तिः काचन अमानुषीत्यर्थः / यथा वा यतश्च द्वारि नियुक्का दौवारिकाः तत्र नियुक्त इति ठक् / “द्वारादीनां च" इत्यैजागमः / तेषाम् अन्धीक्रियन्ते अनयेति अन्धकरणी दृष्टिप्रतिबन्धिका "भाब्यसुभग" इत्या. दिना कृतः करणार्थे ख्युन्प्रत्ययः / “अरुर्विषत्" इ. दिना मुमागमः, ख्युन्नन्तत्वात् डीप। शक्तिश्च काचनेत्यनुषज्यते / किञ्च जितकाञ्चनीभिर्जितहरिद्राभिः / 'निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरवर्णिनी' इत्यमरः। समासान्तविधेरनित्यत्वात् "नद्यतश्च" इति कबभावः / टाबन्तपाठे जितकनकाभिरित्यर्थः। रुचीभिर्दीप्तिभिः, कृदिकारादतिनो वा वक्तव्यः, रोचत इति रुच्यो देदीप्यमानोऽसि "राजसूयसूर्य" इत्यादिना कर्तरि क्यवन्तो निपातः / तथा ततो मूर्तिप्रभावतेजोभिः पीयूषभुजां देवानां समाना 1. "काञ्चनाभि" इति पाठान्तरम् / 27 नै० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 नैषधमहाकाव्यम्। नाभिर्मुलं यस्य सनामिबन्धुरसि कचिदिव्यपुरुष उत्प्रेस इत्यर्थः। "ज्योतिर्जन. पद" इत्यादिना समानशब्दस्य सभावः // 28 // जिस कारण लोकोत्तर अनिर्वचनीय तुम्हारा रमणीय रूप है और द्वारपालोंको अन्धा. करनेका ( उनसे अदृष्ट होनेका ) लोकोत्तर अनिर्वचनीय सामर्थ्य है, उस कारणसे हल्दी ( पाठा०-सुवर्ण ) को जीतनेवाली कान्तियोंसे रुचिकर तुम अमृतभोजी देवताओं के समान हो / अथवा-....."सामर्थ्य है और हल्दी ( पाठा०-सुवर्ण ) की जीतनेवाली कान्तियोंसे रुचिकर हो, उस कारण तुम अमृतभोजी देवताओं के समान हो। [ सुन्दरतम सौन्दर्य, सामर्थ्य कान्तिसे मैं अपने देवता मानती हूं, आप कोई देवता हैं क्या ?] // 28 // न मन्मथस्त्वं स हि नास्तिमूतिर्न 'वाश्विनेयः स हि नाद्वितीयः / चिहै: किमन्यैरथवा तवेयं श्रीरेव ताभ्यामधिको विशेषः / / 56 / / नेति / त्वं देवेष्वपीति शेषः / मन्मथः कन्दर्पो नासि / हि यस्मात् स मन्मथः। अस्तिमूर्तिः विद्यमानमूतिः न भवतीति नास्तिमूर्तिः अनङ्गः सुबधिकारे "अस्तिजीरादिवचनम्" इति बहुव्रीही न-समासः / आश्विनेयोऽश्विनीपुत्रः न / हि यस्मात् सोऽद्वितीय एकाकी न / अथवा अन्यैश्विकैरभिज्ञानैः किम् ? किन्तु तवेयं श्रीः शोभैव ताम्यां द्वाभ्यामधिकोऽसाधारणो विशेषो व्यावर्तकधर्मः / तस्मादन्यः कोऽपि लोकोतरस्त्वमिति तत्त्वं किन्तु नलश्चेदसि धन्या भवामीति भावः // 29 // __आप मन्मथ ( कामदेव-मनको मथन करनेवाला) नहीं हैं, क्योंकि वह शरीरशून्य है ( अथच आप मानको मथन करनेवाले नहीं, अपितु हर्षित करनेवाले हैं, यह भी ध्वनित होता है ), अथवा-आप अश्विनीकुमार नहीं हैं, क्योंकि वह अकेला नहीं है ( सर्वदा दो रहते हैं, अकेला कभी नहीं रहते, और आप अकेले हैं ), अथवा दूसरे चिह्नों ( अशरीरी होना या द्वितीयसे सहित होना) से क्या ? अर्थात् कुछ प्रयोजन नहीं हैं; उन दोनोंसे ( अश्विनीकुमारसे, अथवा कामदेव तथा अश्विनीकुमारसे ) यह शोभा ही असाधारण विशेषता है अर्थात् आपकी जो लोकोत्तर अधिक शोभा है, उसीसे आपको देखकर किसीको कामदेव तथा अश्विनीकुमार होनेका सन्देह नहीं होता, अतएव उनके अशरीरी या सदा दो का साथ रहना-इन चिह्नोंसे कोई प्रयोजन नहीं है / [ कामदेव तथा अश्विनीकुमारसे अधिक सुन्दर आप कौन हैं ? ] // 29 // आलोकतृप्तीकृतलोक ! यस्त्वामसूत पीयुषमयूखमेतम् / कः स्पधितुं धावति साधु सार्धमुदन्वता नन्वयमन्यवायः / / 30 // आलोकेति / आलोकेन दर्शनेन त्वत्कर्मकेण उद्योतेन च / 'आलोकौ दर्शनोद्योती' 1. "-चाविनेयः-"इति पाठान्तरम् / 2. "-मेनम्-" इति पाठान्तरम् / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 425 इत्यमरः / तृप्तीकृतलोक ! सन्तर्पितलोकेति सम्बुद्धिः। यः अन्ववायो वंशः एतं स्वामेव पीयूषमयूखं चन्द्रमिति रूपकम्, असूताजनयत् / अत एवोदन्वता उदधिना सार्धम् / “उदन्वानुदधिश्च" इति निपातनास्साधुः / साधु सम्यक स्पर्षितुं धावति ननु अयमन्ववायः कः उदधितुल्यः ते वंशश्च क इति वक्तव्य इत्यर्थः / रूपकसकी. र्णोऽयमुपमालकारः। नन्विति सम्बोधने // 30 // हे दर्शन ( पक्षा०-प्रकाश अर्थात् चाँदनी ) से संसार ( पक्षा०-लोगों ) को तृप्त करनेवाले ! जो वंश अमृतकिरण अर्थात् चन्द्ररूप तुमको उत्पन्न किया है, वह कौन वंश समुद्रके साथ स्पर्धा करने के लिये सम्यक् प्रकारसे अग्रसर हो रहा है ? / [आपका वह कौन-सा वंश है, जो प्रकाशसे लोकतृप्तिकर चन्द्रमाको उत्पन्न करनेवाले समुद्र के साथ दर्शनसे जनतृप्तिकर आपको उत्पन्नकर स्पर्धा करने के लिये अच्छी तरहसे अग्रसर हो रहा है ? आप किस वंशमें उत्पन्न हुए हैं ? ] // 30 / भूयोऽपि बाला नलसुन्दरं तं मत्वाऽमर रक्षिजनाक्षिबन्धात् | आतिथ्यचाटून्यपदिश्य तत्स्थां श्रियं प्रियस्यास्तुत वस्तुतः सा / / इस्थं नलमेव मरवैतावदुक्त्वा पुनर्नलसदृशमन्यं मरवाऽन्यथा व्याहरतीत्याहभूयोऽपीति / भूयः पुनरपि सा बाला भैमी तं पुरुषं रक्षिजनस्याक्षिबन्धादन्धीकरणादमानुषत्वाद्धेतोर्नलसुन्दरममरं कञ्चिद्देवं मत्वा आतिथ्यान्यतिर्थ्यानि "अतिथेयः" / चाटूनि प्रियवाक्यानि अपदिश्य व्याजीकृत्य तस्मिन् पुरुष तिष्ठतीति तत्स्थां तनिष्ठां "सुपि स्थः" इति कः / प्रियस्य नलस्य श्रियं शोभा वस्तुतः पर. मार्थतो दृष्ट्वैव अस्तुत स्तुतवती / स्तौतेलङि तङ्। अत्रान्यधर्मस्यान्यसम्बन्धासम्भवेन प्रियमिति साहश्याक्षेपान्निदर्शनाभेदः / न चैवं परपुरुषगुणस्तुतिप्रसङ्गः, वस्तुतस्तथात्वेऽपि तस्यास्तथाभिमानाभावादिति // 31 // बाला वह दमयन्ती नलतुल्य सुन्दर उनको पहरेदारोंकी दृष्टिको व्यथें करनेसे देवता मानकर अतिथिसत्कारसम्बन्धी प्रिय कथन के बहानेसे उनमें स्थित प्रिय नलकी शोभाकी फिरसे प्रशंसा करने लगी। [बाला अर्थात् अपरिपक्क ज्ञानवाली होनेसे दमयन्तीका वास्तविक नलको भी कारण-विशेषसे देवता समझना उचित ही है ] / / 31 // वाग्जन्मवैफल्यमसह्यशल्यं गुणाधिके वस्तुनि मौनिता चेत् / खलत्वमल्पीयसि 'जल्पितेऽपि तदस्तु वन्दिभ्रमभूमितैव / / 32 / / अथ सर्वथापि स्तुतिकरणे कारणमाह-वागिति / गुणैरदद्भुतैः अधिके स्तुत्यह इत्यर्थः / वस्तुनि विषये मौनिता तूष्णींभावश्चेत् असह्यशल्यं दुस्सहशल्यप्रायं वाग्जन्मनो वाक्सत्ताया वैफल्यं स्यात् / अथैतत्परिहारायाह-अल्पीयसि जल्पिते अत्य. ल्पवचनेऽपि / भावे क्तः / खलत्वं दौर्जन्यमसहिष्णुत्वं स्यादित्यर्थः। तत्तस्माद्वन्दी 1. "जल्पिते तु" इति पाठान्तरम् / Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 नैषधमहाकाव्यम् / स्तुतिपाठकोऽयमिति भ्रमस्य भूमिता विषयित्वमेवास्तु / 'बन्दिनः स्तुतिपाठका' इत्यमरः / अवन्दिषु वन्दिभ्रमः श्रोतृदोषो न वाग्वैफल्यं खलत्वे एव स्तोतृदोषः। प्रत्युत सुगुणस्तुतिस्तस्य गुण एवेति तदङ्गीकरणमिति भावः // 32 // ___ अत्यधिक गुणयुक्त वस्तुके विषयमें चुप लगाना अर्थात् उसकी प्रशंसा न करना असह्य कॉटेके समान वचनके जन्मलेनेकी निष्फलता होती है ( अथवा-वह वचनके जन्मलेनेकी विफलता असह्य शल्यरूप होता है ) और थोड़ा बोलनेमें दुष्टता होती है; ( इस कारण ) वन्दियों के भ्रमका स्थान बनना ही ठीक है। [ अतिगुणवान् वस्तुके विषयमें कुछ नहीं बोलना बोलनेवाले के लिये शल्यतुल्य दुःखदायी होता है, तथा उसके विषय में थोड़ा बोलनेमें उसकी दुष्टता प्रकट होती है, इस कारण गुणसम्पन्न पुरुषकी विस्तृत प्रशंसा करनेवाले व्यक्तिको सुननेवाला भले ही वन्दी (भाट, चारण आदि) समझें, किन्तु उस गुणीकी प्रशंसा करना ही उचित है / इस पद्यको कविकी या स्वयं दमयन्तीकी ही उक्ति समझनी चाहिये] // कन्दप एवेदमावन्दत त्वां पुण्येन मन्ये पुनरन्यजन्म | चण्डोशचण्डाक्षिहुताशकुण्डे जहाव यन्मन्दिरमिन्द्रियाणाम् / / 33 / / / __ अथ स्तौति-कन्दर्प इत्यादि / कन्दर्प एव पुण्येन सुकृतवशेन इदं त्वां स्वः पमन्यजन्म जन्मान्तरं पुनरविन्दतेति मन्ये इत्युत्प्रेक्षा। अन्यथा कथमीग्रपमिति भावः / किं तत्पुण्यं तदाह-चण्डीशस्य हरस्य चण्डं करमति तृतीयनेत्रं तदेव हुता. शस्तस्य कुण्डमग्न्यायतनं तस्मिन्निन्द्रियाणां मन्दिरमिन्द्रियाणामाश्रयः शरीर. मिति यावत् / तज्जुहाव तेन पुण्येनेति पूर्वेण सम्बन्धः // 33 // जो ( कामदेवने ) शङ्करजीके भयङ्कर ( तृतीय ) नेत्ररूप अग्निकुण्डमें अपने शरीरको हवन कर दिया, उसी पुण्यसे कामदेव ही आपको पुनर्जन्मरूपमें प्राप्त किया है, ऐसा मैं मानती हूं। [ कामदेवको शङ्करजीने नहीं जलाया, किन्तु वह पहलेसे भी अधिक सुन्दर शरीर पानेके लिये अपने शरीरको शङ्करजीके तृतीय नेत्ररूपी अग्निकुण्डमें हवन कर पुनर्जन्ममें आपको पाया है / अन्य कोई भी व्यक्ति सामान्य वस्तुको अग्निकुण्डमें हवन करनेसे उत्पन्न पुण्यके द्वारा पहलेको अपेक्षा अधिक सुन्दर वस्तुको प्राप्त करता है / आप कामदेवसे भी अत्यधिक सुन्दर हैं ] // 33 // शोमायशोभिर्जितशेवशैलं करोषि लज्जागुरुमौलिमलम् / दम्रो हठाच्छोहरणाददस्रौ कन्दपमप्युज्झितरूपदर्पम् / / 34 / / शोभेति / किञ्च हठाद् प्रसह्य श्रियः सौन्दर्यस्य हरणाद्धेतोः शोभायशोभिः सौन्दर्यकीर्तिभिः जितशेवशैलं निर्जितकैलासमैलमिलाया अपत्यं पुरूरवसम् / "तस्येदम्" इत्यण्प्रत्ययः / पर्यवसानाद्विशेषलाभः / लज्जया गुरुमौलिं दुर्भरशिरसं करोषि / दनावश्विनीसुतावुदसावुद्तबाप्पौ करोषि, रोदयसीत्यर्थः / कन्दर्पमप्यु. मितरूपदपंकरोषि, कायकान्त्या सर्वानतिशय्य खेलसीत्यर्थः // 34 // Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 427 अष्टमः सर्गः। (आप) हठसे शोभाका हरण करनेसे सौन्दर्यकीर्तिसे कैलासको जीतनेवाले पुरूरवाको लज्जासे नतमस्तक करते हैं, हठसे..."जीतनेवाले अश्विनीकुमारोंको अश्रुयुक्त कर देते अर्थात् रुला देते हैं और हठसे जीतने वाले कामदेवको सौन्दर्याभिमानसे हीन कर देते हैं / / 34 // अवैमि हंसावलयो वलक्षास्त्वत्कान्तिकीर्तेश्चपलाः 'पुलाकाः / उड्डीय युक्तं पतिताः सवन्तीवेशन्तपूरं परितः प्लवन्ते // 35 // . अवैमीति / वलक्षा धवलाः हंसावलयः तव कान्तिकीर्तेः सौन्दयंकीर्तेः चपला: चलिताः पुलाकास्तुच्छधान्यानीत्यवैमि जानामीत्युत्प्रेक्षा। 'स्यात्पुलाकस्तुन्छधान्ये' 'वलक्षो धवलोऽर्जुनः' इति चामरः / अत एवोडीयोत्पत्य पतिताः सवन्तीनां निम्नगानां वेशन्तानां पल्वलानां च परं प्रवाहं परितः समन्ततः। “अभितः परितः" इत्यादिना द्वितीया। प्लवन्ते इति युक्तं पुलाकानां जलोपरि प्लवनमुचितमेवेत्यर्थः॥ (मैं ) श्वेत हंस-समूहको आपकी कान्तिकीतिका चन्चल पुआल ( पाठा०-बलाका) मानती हूँ, ( इसी कारण ) उड़कर पुनः गिरे हुए वे नदी तथा छोटे 2 गोंके ( जल) प्रवाहके चारो तरफ तैरते हैं / [ जिस प्रकार धान्यका निःसार भाग पुआल या पुआल की भुस्सी ( पुअरसी) उड़कर गिरनेपर नदियों तथा गढ़ोंके पानी पर तैरती रहती है, उसी प्रकार नदियों तथा छोटे जलाशयोंके जल के सब ओर रहनेवाले श्वेत हंस-समूहको भी मैं आपको कान्तिकीतिको पुआल या पुअरसी समझती हूँ, श्वेततम कान्तिकीर्तिके पुआलका श्वेत होना उचित है / आपको कान्तिकीर्ति हंस-समूहसे भी अतिशय स्वच्छ तथा गुणवती है ] // 35 // भवत्पदाङ्गुष्ठमपि श्रिता श्रीधं वं न लब्धा कुसुमायुधेन / जेतुस्तमेतत् खलु चिह्नमस्मिन्नर्धन्दुरास्ते नखवेषधारि // 36 // भवदिति / कुसुमायुधेन कामेन भवतः पदाङ्गुष्ठं श्रिता श्रीरपि न लब्धा न प्राप्ता ध्रुवम् ? भवच्छ्रिता श्रीस्तु दूरापास्तेति भावः। तथा हि-तं कामं जेतुः स्मरहरस्य तृन्नन्तत्वात् “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / तज्जेतुरिति समासपाठे तृजन्तेन षष्ठीसमासः साधुश्चायमेव पाठः / तृन्नर्थस्य ताच्छील्यस्यानुपयोगात् रतीशजेतुरिति देशान्तरपाठस्त्वयुक्त एव / प्रकृतार्थस्य सर्वनामोपादेयस्य स्वशब्दोपादाने पौनरुक्तयदोषादिति / हस्तेन निर्दिशन्त्याह-एतदर्धेन्दुरूपं चिह्नमस्मिन्नङ्गुष्ठे नखकैतवेनास्ते खल्वित्यपह्नवभेदः / अर्धेन्दुचिह्नधारणादयमपि कामजेता। यद्वा तचिह्नधारणात् तस्यापि स्मरस्य जेतेत्युभयथापि कथमेतच्छ्रीलाभः कामदेवस्येति भावः // 36 // 1. "बलाकाः" इति पाठान्तरम् / 2. “तज्जेतुरेतत्" इति “रतीशजेतुः” इति च पाठान्तरे / 3. “नखकैतवेन" इति पाठान्तरम् / Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 नैषधमहाकाव्यम् / मापके ( पैरके ) अङ्गुष्ठकी शोभाको निश्चय ही कामदेव नहीं पा सका, क्योंकि उस (कामदेव ) को जीतने वाले (शिवजी ) का यह अर्धचन्द्ररूपा चिह्न नख का वेष धारणकर इस ( अङ्गुष्ठ ) में है। [शिवजीका भालस्थ अर्द्धचन्द्ररूप चिह्न आपके चरणों के अंगूठे में है, अत एव स्वविजयी शिवजीके, भयसे कामदेव उस अंगूठेकी शोभाको भी नहीं पा सका तो फिर आपके सम्पूर्ण शरीर या अन्य किसी एक शरीरकी भी शोभाको कैसे पा सकता है ? अन्य भी कोई व्यक्ति अपने विजेताके चिहको देखकर भयसे वहां नहीं जाता है / अथवाजिस अर्द्धचन्द्ररूप चिह्नको शिवजी अपने शिरपर धारण करते हैं, वह चिह्न आपके चरणाअष्ठमें है, अतः कामविजयी शिवजीसे भी आपकी शोभाके श्रेष्ठ होनेसे आपके चर. णाङ्गुष्ठश्रीको कामदेवका नहीं पाना ठीक ही है ] / / 36 / / . राजा द्विजानामनुमासभिन्नः पूर्णा तनकृत्य तनुं तपोभिः / कुहषु रश्येतरता किमेत्य सायुज्यमाप्नोति भवन्मुखस्य / / 37 / / राजेति / द्विजाना राजा चन्द्रो याह्मणोसमश्च अनुमासं प्रतिमासं भिन्नोऽन्यः सन् अर्धेन्दुरम्यथैकस्य प्रतिकुहषु मुखसायुज्याभावादिति भावः। पूर्णा राकास्थिति भावः / सर्नु शरीरं तपोभिः प्रत्यहं देवताभ्यः कलासमर्पणरूपैरिति भावः / तनूकृत्य का अमावास्यासु स्येतरतामहरयतामेश्य भवन्मुखस्य सायुज्यमैक्यं प्राप्नोति किमित्युत्प्रेणा / यथा कश्चिद् ब्राह्मणः तीवेण तपसा ब्रह्मसायुज्यमामोति तददि. त्यर्थः / अन्यथा कथं कुषु न श्यत इति भावः // 37 // द्विजराज ( चन्द्रमा, पक्षा०-प्रामणश्रेष्ठ) प्रत्येक मासमें भिन्न होता हुआ पूर्ण ( सोलह कलाभोंसे परिपूर्ण, पक्षा०--हृष्टपुष्ट या समस्त ) शरीरको कृश करके 'कुहूँ' संशक अमा. वस्याओं में अदृश्य होकर आपके मुखका सायुज्य (समानता ) प्राप्त करता है क्या ? ! [ जिस प्रकार कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने समस्त शरीरको चान्द्रायण-सान्तपन आदि तपस्याओं से क्षीण कर अदृश्य होकर ब्रह्मसायुज्यको प्राप्त करता है, उसी प्रकार चन्द्रमा भी प्रत्येक मासमें सोलह कलाओंसे पूर्ण अपने शरीरको देवताओं के लिये प्रतिदिन एक एक कलासे समर्पण रूप तपस्यासे क्षीण करके 'कुहू' (सम्पूर्ण अदृश्य चन्द्रवाली अमावस्या तिथियों) में अदृश्य होकर आपके मुखके सायुज्य (एकीभाव अर्थात् सरूपता ) को प्राप्त करता है क्या ? / इस पद्यमें "अनुमासमिन्नः" शब्द देनेसे प्रत्येक मासमें भिन्न 2 चन्द्रमा है, एक ही चन्द्रमा प्रत्येक मासकी पूर्णिमाको पूर्ण तथा अमावस्याको क्षीण होता है ऐसा नहीं समझना चाहिये // 37 // 'कृत्वा दृशौ ते बहुवर्णचित्रे कि कृष्णसारस्य तयोगस्य / अदूरजापद्विदरप्रणालीरेखामयच्छद्विधिरर्धचन्द्रम // 38 // 1. "विधाय चित्रे तव धीरनेत्रे" इति पाठान्तरम् / 2. "-प्रणालीच्छलाद्' इति पाठान्तरम् / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 421 कृस्वेति / विधिविधाता बहुभिवर्णैः सितासितरूपैचित्रे सुदृश्ये तलक्षणस्वादिति भावः / ते तव शो कृत्वा निर्माय कृष्णसारस्य मृगस्य सम्बन्धियोः तयोरशोर. दरे समीपे जाग्रत्या विदरप्रणाल्याः स्फुटनमार्गस्य नेत्रप्रान्तवर्धचन्द्ररेखाविशेष. स्य रछलात् / 'विदरः स्फुटनं भिदा' इत्यमरः / अर्धचन्द्रं गलहस्तिकामयच्छत् तरसमकवानहरवादिति भावः / 'अर्धचन्द्रस्तु चन्द्रके गलहस्ते बाणभेदेऽपि' इति विश्वः / छलादयच्छदिति सापह्नवोस्प्रेक्षा व्य काप्रयोगाद्वन्या // 38 // ब्रह्माने बहुत वर्गों ( फूष्ण, श्वेत और रक्तरूप ) से विचित्र ( अथवा-आश्चर्यजनक) बनाकर कृष्णसार ( केवल कृष्ण अर्थात् काला ही जिसमें सारभूत है अन्य इवेत तथा रक्त नहीं ऐसे ) मृगके उन नेत्रों के पार्वस्थित गर्तरूप रेखाके बहानेसे अर्द्धचन्द्र (गलहस्त अर्थात् गर्दनियां ) दिया है क्या ? / [ आपके नेत्रोंको ब्रह्माने कृष्ण-श्वेत-रक्तवर्णसे बहुत विचित्र बनाया यह देख कृष्णसार (जिसमें केवल कृष्ण वर्ण ही सारभूत था, अन्य वर्ण नहीं थे ऐसे) मृगको आँखें आपकी आँखोंसे समानता करने लगीं, अतः भले-बुरेके परीक्षक ब्रह्माने उस मृगकी आँखों को गर्दनियां देकर बहिष्कृत कर दिया, वही चिह्न मृगों की भाँखों के नीचे गर्न ( गढा ) रूप रेखामें दृष्टि गोचर हो रहा है / अन्य भी किसी बड़ेकी बराबरी करनेवाले नीच व्यक्तिको न्यायकर्ता परीक्षक गर्दन में हाथ डालकर बाहर कर देता है ] // 38 // मुग्धः स मोहात् सुभगानदेहाहदद्वद्धृरचनाय चापम् / भ्रभङ्गजेयस्तव यन्मनोभरनेन रूपेण यदा तदाभूत् / / 36 // मुग्ध इति / भवद्भ्यो रचनाय निर्माणाय चापमुपादानस्वेन वदत् ब्रह्मण इति शेषः / 'नाभ्यस्ताच्छतुरिति नुम्प्रतिषेधः। स मनोभूमोहादविमृश्यकारिवलक्षणा. प्रवृत्तिनिमित्तान्मुग्धो मुग्धशब्दवाच्योऽभूत् सुभगात् सुन्दरादेहातु न / पूर्व कायः सौन्दर्यमुग्ध इत्युच्यते / सम्प्रति तु मौग्ध्यादित्यर्थः / 'मुग्धः सुन्दरमूठयोः' इति विश्वः / कुतः यद्यस्मात् तवानेनेति हस्तनिर्देशः। रूपेण सौन्दर्येण करणेन यदा तदा सर्वदेत्यर्थः / भ्रूभङ्गेण भ्रक्षेपमात्रेण जेयो जेतुं शक्योऽभूत् / कामस्थां रूपेण जेतुमशक्तोऽपि चापेनापि शक्नुयात् / सम्प्रति चापदानादुभयथापि भ्रष्टोऽभूदिति भावः // 39 // आपके भ्रद्वयकी रचना करने के लिए कामदेवने ब्रह्माको अपना चाप देता हुआ मोह (मूर्खता ) से मुग्ध ( मूढ ) हो गया, आपके सौन्दर्यसे मुग्ध (सुन्दर ) नहीं हुआ। इस कारण वह कामदेव सर्वदा आपके भ्रूभङ्ग मात्रसे ( केवल भ्रूको थोड़ा टेढ़ा करनेसे ही आपके) इस रूपके द्वारा जीतने योग्य हो गया। [चाप सहित होकर भी कामदेव जब आपको नहीं जीत सकता था नब अपने धनुषको आपके भ्रूद्वय बनाने के लिये देकर धनुषसे रहित वह आपको कैसे जीत सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं जीत सकता, वह क्षुद्रतम शत्रुके समान थोड़ा भ्रूभङ्ग करनेसे हो जीतने योग्य हो गया है / अन्य भी कोई मूर्ख अपना शत्रुके Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 नैषधमहाकाव्यम् / लिये देकर फिर शस्त्ररहित होनेसे उसे कदापि नहीं जीतता है। आपका भ्र द्वय कामधनुषके समान जगन्मोहक है ] // 39 // मृगस्य नेत्रद्वितयं त्वदास्ये विधौ विधुत्वानुमितस्य दृश्यम् / तस्यैव च' त्वत्कचपाशवेशः पुच्छे म्फुरच्चामरगुच्छ एषः // 40 // मृगस्येति / त्वदास्ये विधौ स्वन्मुपचन्द्रे दृश्यं दृग्गोचरीभूतं नेत्रद्वितयं विधुत्वेन चन्द्रत्वेनानुमितस्य चन्द्रस्य मृगाविनाभावादिति भावः। मृगस्यैव तदीयमेवेत्यर्थः। किश्च एषः तव कचपाशवेशः केशपाशसन्निवेशः तस्यैव मृगस्य पुच्छे वालधौ स्फुर। चामरगुच्छ इत्युत्प्रेक्षा / अन्यथा कथमनयोरीहशी शोभेति भावः // 40 // ___ आपके मुखरूपी चन्द्रमें दिखायी पड़ते हुए, चन्द्रत्वसे अनुमान किये गये मृगके ये दो नेत्र हैं ( अथवा-"चन्द्रमें चन्द्रत्वसे"नेत्र दिखायी पड़ते हैं ) तथा यह आपके केशपाश ( केश-समूह ) का वेश (रचना) उसी मृगके पूँछमें शोभित होते हुए चामर-गुच्छ हैं (अथवा-यह शोममान केशपाशवेश उस मृगका ही स्फुरित होते हुए चामरके गुच्छा. वाला पूँछ है ) [ आपका मुख चन्द्ररूप, नेत्रद्वय मृगनयनरूप और केश-समूह मृगपुच्छरूप हैं ] // 40 // आस्तामनङ्गीकरणाद्भवेन दृश्यः स्मरो नेति पुराणवाणी। तवैव देहश्रितया श्रियेति नवस्तु वस्तु प्रतिभाति वादः // 41 / / आस्तामिति / स्मरो भवेनेश्वरेणानङ्गीकरणादशरीरीकरणाद्धेतोदृश्योनेति पुराणवाणी पुरातनवादस्तावदास्ताम् / तवेव देहं श्रितया "द्वितीयाश्रितातीते" त्यादिना समासः। श्रिया सौन्दर्येण न दृश्य इति नवो नूतनो वादस्तु वस्तु परमार्थः प्रति. भाति ।तदेतिबमात्रमिदं तु प्रत्यक्षमित्यर्थः / अतःपराजयलज्जानिमित्तमस्यादृश्यत्व. मित्युत्प्रेता // 4 // 'कामदेव शिवजीके द्वारा ( भस्म करनेके कारण ) शरीर रहित करनेसे दृष्टिगोचर नहीं होता' यह पुराणवाणी ( पुराणोंमें लिखित वचन, पक्षा०-पुरानी बात ) रहे अर्थात् यों ही पड़ी रहे, आपके ही शरीरका आश्रय की हुई ( अथवा-शरीरका आश्रयकी हुई अर्थात् शरीर धारण की हुई आपकी ) शोभासे ही ( पराजयजन्य लज्जाके कारण) कामदेव दृश्य (दृष्टिगोचर, पक्षा०-सुन्दर ) नहीं है, यह नया ( अथवा-अपूर्व ) वाद ठीक ऊँचता है। [ अथवा-आपकी शरीर-शोभासे ही कामदेव अदृश्य हो गया है / अन्य कोई भी व्यक्ति किसीसे पराजित होकर लज्जावश किसीके सामने नहीं आता है / अथवा-प्रतिभाका नया अतिवाद ( अतिशयित कथन ) है। वाणी एवं स्त्री जीर्ण है तथा वाद एवं नया पुरुष है; अतः इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है / पुरानी पड़ी हुई बातकी अपेक्षा नयी बातमें 1. "चश्चत्कच....."पुच्छः" इति पाठान्तरम् / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 431 ही आस्था एवं विश्वास करना उचित है / आपकी शरीर शोभा कामदेव से भी बढ़ी-चढ़ी है ] // 41 // त्वया जगत्युच्चितकान्तिसारे यदिन्दुनाऽशीलि शिलोच्छवृत्तिः / आरोपि तन्माणवकोऽपि मौलौ स यवराज्येपि महेश्वरेण // 42 // स्वयेति / स्वया जगति उच्चितकान्तिसारे गृहीतलावण्यसर्वस्वे सति इन्दुना शिलोम्छावेव वृत्तिः जीविका / 'उन्छो धान्यकणादानं कणिकांशार्जनं शिलम्' इति यादवः / अशीलि शीलितेति यत् तत्तस्माद्धेतोः मनोरपत्यं पुमान् मानवः "तस्यापत्यम्" इत्यण्प्रत्यये णत्वम् / “अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरौत्सर्गिकः स्मृतः। नकार स्य तु मूर्धन्यस्तेन सिद्धयति माणवः // " तेन सोऽल्पो माणवकः / बालोऽपि स इन्दु. महेश्वरेण महादेवेन महाराजेन च मौलौ शिरसि तथा यज्वराज्ये द्विजराजत्वेऽप्या. रोपि आरोपित इत्युप्रेक्षा / प्रकृष्टधर्मः कस्मै फलाय न भवतीति भावः, त्रैलोक्या. हादवानन्द्रोऽपि तल्लावण्यलेश एवेति तात्पर्यार्थः // 42 // ___ आपसे अच्छी तरह चुने गये कान्तिके सारभूतवाले संसारके होने पर या संसारमें चन्द्रमाने जो शिल ( कटे हुए खेतोंमेंसे एक-एक मजरी अर्थात बालको चुंगना) और उञ्छ (कटे हुए खेतोंमें एक-एक दाना चुंगना) वृत्तिका जो परिशीलन ( एक बार ही नहीं अपितु सर्वदा ) किया, उस कारण छोटे बच्चे ( पक्षा०-प्राथमिक अवस्थावाले अर्थात् द्वितीयाके बालचन्द्र ) को भी महेश्वर (शिवजी, पक्षा०-महाराज या महापनिक ) ने मस्तकपर तथा यशकर्ताओं (द्विजों - ब्राह्मणों ) के राज्यपर अर्थात् द्विजराज पदपर स्थापित किया। [आपने संसारकी कान्तिके सारभूत पदार्थों को अच्छी तरह एक-एक करके चुंग लिये-( यहां चुगनेसे निःसार या अल्पसार पदार्थों का त्याग ध्वनित होता है) तो चन्द्रने बचे हुए उन सामान्य पदार्थों को ही अन्नके बालों तथा दानोंके समान उस प्रकार चुगा, जिस प्रकार मुनिजन अपनी जीविकाके लिये काटकर किसानों द्वारा धान्यके खेतोंसे ले जानेके बाद एक-एक वाल या दानों को चुंगते हैं (इस प्रकार जीविका करना तपस्या का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है ), उस पुण्य प्रभावसे शङ्करजीने बाल भी चन्द्रमाको अपने मस्तकपर रखा तथा द्विजराज (ब्राह्मणों का राजा = अतिश्रेष्ठ ) बनाया, अथवाकिसी महाराजने अपने मस्तक पर रखा और ब्राह्मण-श्रेष्ठ माना। अथवा-उक्त प्रकारसे शिल तथा उच्छवृत्ति द्वारा जीविका करनेवाले ब्रह्मचारी बालकको महाराज या महापनिक लोग भी माथे चढ़ाते ( पूज्य मानते ) और ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ समझते हैं / अथवा-महाधनिक लोग माणवक ( 20 लड़ीवाले बहुमूल्य हार') को कण्ठमें धारण करते हैं, किन्तु इसे मस्तकपर धारण किया यह अधिक आश्चर्य है / अथ च शिलोञ्छद्वारा जीवन-निर्वाह करनेसे 1. विविधहाराणां लतासंख्याबोधाय मत्कृता नामलिङ्गानुशासन ( अमरकोष ) स्यामरकौमुदी टिप्पणी ( 2 / 6 / 106, पृ० 223-224 ) द्रष्टव्या। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 नैषधमहाकाव्यम् / अधिक पूज्य होने के कारण मस्तकपर धारण किया जाना उचित ही है। आपकी शोमा संसारके सारभूत सुन्दर पदार्थों वाली तथा चन्द्रमाकी शोभा आपकी शोभासे अत्यन्त तुच्छ है, अतः जब अतितुच्छ शोभावाला चन्द्रमा जगत् का आलादक है तो फिर आपके विषय में क्या कहना है ? आप चन्द्रमासे भी अत्यधिक सुन्दर हैं ] // 42 // आदेहवाहं कुसुमायधस्य विधाय सौन्दर्यकथादरिद्रम् / स्वदशिल्पात्पुनरीश्वरेण चिरेण जाने जगन्धकम्पि / / 3 / / भादेहेति / ईश्वरेण शम्भुना कुसुमायुधस्य कामस्य देहदाहादारभ्य आदेहवाह मर्यादायामध्ययीभावः। जगल्लोकं सौन्दर्यकथादरिद्रं सोन्दर्यवार्ताशून्यं विधाय चिरेण स्वदस्य शिल्पानिर्माणात् विश्वं पुनरम्बकरिप अनुकम्पितं स्वया पुनः सौम्पर्षमरितं कृतमिति जान इस्युस्प्रेला / तब मतिमतः कामात् को भेद इति भाषः // 3 // शकरजी ने कामदेवके शरीर-दाहसे लेकर संसारको सौन्दर्यको चर्चासे शून्य बनाकर फिर बहुत दिनों के बाद आपके शरीरकी कारीगरी ( रचना ) से संसारपर दया की। [ पहले कामके शरीरको जलाने पर संसारमें कही सुन्दरता का नामतक शेष नहीं रह गया था, किन्तु बहुत दिनों बाद भापकी इस सुन्दरतम शरीरसे फिर संसारपर शङ्करजीने अनुग्रह किया है। मानो आप दूसरा काम ही है। अन्य भी कोई ईश्वर (ऐश्वर्य-सम्पन्न राजा आदि) किसी को दरिद्र बनाकर बादमें अनुग्रहकर उसकी पूर्ति कर देता है ] // 43 / / मही कृतार्था यदि मानवोऽसि जितं दिषा यामरेषु कोऽपि / कुलं त्वयालस्कृतमौरगम्चेमाधोडाप कस्योपरि नागलोकः / / 44 / / महीति / मनोरयं मानवो मनुष्योऽसि पदि "तस्येवम्" इत्यण्प्रत्ययः / मही कृ. तार्था / अमरेषु कोऽप्यसि पदि विवा लोकेन नितं सर्वोत्कर्षेण स्थितं नपुंसके भावे का। स्वचा औरगं कुलं मागकुलमलाकृतं चेत् नागोऽसि चेदित्यर्थः / अधः सर्वाध: स्थितोऽपि नागलोकः कस्य लोकस्योपरि न / सर्वस्याप्युपरि वर्तत इत्यर्थः। "उपर्पपरिष्टात्" इति निपातः॥४४॥ ___ आप यदि मानव है तो ( मृत्यु लोकमें निवास करने के कारण) भूमि कृतार्थ हो गयी, यदि देवताओं में कोई है तो स्वर्गने ( सबको ) जीत लिया, और यदि नागवंशको सुशोभित किये हैं अर्थात् नागवंशमें जन्म लिये हैं तो ( नागवंशका निवास स्थान होनेसे सबके) नीचे रहता हुआ भी नागलोक किसके ऊपर ( किस लोकसे श्रेष्ठ ) नहीं है ? अर्थात् स्वर्गमर्त्य आदि लोकोंसे नागलोक ( पाताल ) ही श्रेष्ठ है / [ आपके मानव होनेपर मही ( "मयते पूज्यते इति मही" इस विग्रहसे 'पूज्य' अर्थवाली भूमि ) वास्तविक अर्थवाली हो गयी और देवकुलोत्पन्न होनेसे दिव ( "दीम्यति = विजिगीषते इति द्यौः" इस विग्रहसे 'विजयी अर्थवाली दिव अर्थात् स्वर्ग ) भी विजयी हो गया और आपके नागवंशोत्पन्न होने Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बष्टमः सर्गः। 433 पर नागलोक 'न गच्छन्तीति अगाः, न अगाः नागाः, तेषां लोकः' इस विग्रहसे गमन. शील न होनेसे अधोभागस्थ भी नागलोक आपके जन्मस्थान होनेसे सर्वोपरि गामी हो गया / आप मानव, देव और नाग-इन मेंसे किसी वंश में उत्पन्न हुए हैं ] // 44 // सेयं न धत्तेऽनुपपत्तिमुच्चैर्मच्चित्तवृत्तिस्त्वयि निन्त्यमाने / ममौ स भद्र चुलुके समुद्रस्त्वयात्तगाम्भीर्यमहरूषमुद्रः / / 45 / / सेयमिति / स्वयि चिन्त्यमाने स्वरूपतो गुणतन विभाग्यमाने सति सेयं विभा घयन्ती मचित्तवृत्तिः उच्चैर्महतीमनुपपत्ति न धत्ते समुद्रस्यागरस्यधुलुके अनुपप. मतावृद्धिं न करोतीत्यर्थः / तत्र हेतुमुस्प्रेक्षते स समुद्रः स्वया आता गृहीता गाम्भीर्यमहत्वे एव मुद्रा चिह्न यस्य स सन् / अत एव चुलुके मुनिमुष्टिगर्भे ममी भद्र युक्त. मित्यर्थः / अन्यथा कथं तथा महतो गम्भीरस्य तस्य मुनिचुलकितेति भावः / मन्त्र मानहेतोरात्तस्यादिविशेषणगत्या निर्देशापदार्थहेतुकं काम्यलिगमलकारः / तस्सी. यमुस्प्रेक्षा भद्रमिति ब्यक्षकप्रयोगाद्वाच्या // 45 // ___ आपका ( गाम्भीर्य एवं महत्त्व का ) विचार करनेपर मेरी चित्तवृत्ति उसमें अनुपपत्ति ( युक्तिहीनता) को नहीं धारण करती है अर्थात् उस बातको असङ्गात नहीं समझती है। ( वह पात यह है कि ) आपके द्वारा महत्त्व तथा गाम्भीर्य की मर्यादाको ले लेने पर ( उन दोनों से हीन ) समुद्र ( अगस्त्य मुनिके) चुल्लूमें समा गया। ['इतने विशाल समुद्रको अगस्त्य मुनि ने बहुत ही होटे अपने चुल्लू में लेकर किस प्रकार पान कर लिया, यह बात पहले मेरे मन में युक्तिसंगत नहीं जान पड़ती थी, किन्तु अब यह बात युक्तिसंगत इसलिये जान पड़ती है कि आपने समुद्रके महत्त्व तथा गाम्भीर्यरूप मर्यादा को ले लिया है, अत एव वह समुद्र तुच्छ हो जाने के कारण अगस्त्य मुनिके चुल्लूमें समा गया / ' अन्यथा इतने बडे समुद्रका किसीके चुल्लूमें समा जाना सर्वथा असम्भव ही था। आप समुद्र से अधिक महत्त्व तथा गाम्भीर्य गुणसे युक्त हैं ] // 45 // संसारसिन्धानुबिम्बमत्र जागति जाने तथ वैरसेनिः। बिम्बानुषिम्बो हि विहाय धातुर्न जातु दृष्टातिसरूपसृष्टिः / / 46 / / संसारेति / किश्चात्रास्मिन् संसारसिन्धौ वैरसेनिः नलस्तवानुबिम्बं जागर्ति स्फुरतीति जाने तर्कयामीत्यर्थः / कुतः, हि तस्मादिम्बानुबिग्बो विहाय वर्जयित्वा धातुः अतिसरूपसष्टिः जातु कदाचिदपि न दृष्टा / अन्यथा कथमेतदत्यन्तसादृश्य. मित्यर्थः / भवान् नल एवेति मे प्रतिभातीति भावः // 46 // ___ 'इस संसाररूपी (निरवधि ) समुद्र में नल आपके प्रतिबिम्ब हैं। ऐसा मैं जानती हूँ, क्योंकि बिम्ब और अनुबिम्बको छोड़कर ब्रह्माकी अत्यन्त समान रूपवाली रचना कमी नहीं देखी गयी है / [ ब्रह्मा समान रूपवाली दो रचनाओं को कभी नहीं करते और आपकी भाकृति नल के अनुबिम्ब (प्रतिबिम्वित होनेवाली वस्तु) के समान है, मतएव प्रतिविम्बके Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 नैषधमहाकाव्यम् / छायारूप होनेसे आप नल ही ज्ञात होते हैं, नहीं ता नलके स्वरूपके साथ इतनी समानता क्यों है ?) / / 46 // इयत्कृतं केन 'महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुहिश्य तवापि पद्यारज सु पात्रजमारभेते // 47 // इयदिति / महीजगत्यां भूलोके केन जनेन इयदेतावन्महीयो महत्तरं सुकृतं कृतमहो, यं जननुद्दिश्य तवापि पादौ पद्यारजासु मार्गधूलिषु पद्मस्त्रज पनमालामारभेते कुर्वाते अहो, यं जनमुद्दिश्यागतस्त्वं स धन्यो वक्तव्य इति तात्पर्यम् // 47 // भूलोकमें किस आदमींने इतना अत्यधिक पुण्य किया है ? आश्चर्य है, जिसके उद्देश्य से ( अतिसुकुमार एवं सम्राट् ) आपके भी चरण मार्गकी धूलियोंमें (चिह्नों के द्वारा कमलमालाका आरम्भ करते हैं अर्थात चिह्नरूपसे कमल-मालाकी रचना कर देते हैं। पाठा०हे पृथ्वीपति (नल) से समान कान्तिवाले !) / [जिस आदमीके उद्देश्यसे चरणों में कमलचिह होनेसे चक्रवती आप पैदल ही मार्गकी धूलियोंमें चल रहे हैं, वह व्यक्ति भूलोकमें महापुण्यात्मा है] // 47 // / ब्रवीति मे कि किमियं न जाने सन्देहदोलामवलम्ब्य संवित् / कस्यापि धन्यस्य गृहातिथिस्त्वमलीकसम्भावनयाथवालम् // 18 // प्रवीतीति / इयं मे संवित् बुद्धिः सन्देहमेव दोलामस्मदुहेशेन वा अन्योद्देशेन वा भागतस्त्वमित्येवंरूपामवलम्ब्य आरा किं किं ब्रवीति किमपि किमपि तर्कयतीत्यर्थः / अतो न जाने न निश्चिनोमि / अथवा अलीकसम्भावनया मिथ्यावित. कैणालं तत्साध्यं नास्तीत्यर्थः। अत एव गम्यमानसाधनस्वापेक्षया करणत्वात् तृतीया इति न्यासोद्योतकारः। किन्तु कस्य धन्यस्य ममान्यस्य वा गृहातिथिरसि स्वमेवानुकम्पस्वेत्यर्थः॥४८॥ मेरी बुद्धि सन्देह (ये नल ही हैं, या दूसरा कोई है ? ये मेरे ही उद्देश्यसे यहां आये हैं या दूसरे किसीके उद्देश्यसे आये हैं, इत्यादि अनेक प्रकारके संशय ) रूपी झूलेका अवलम्बन कर अर्थात् उक्तरूपके अनेक सन्देहोंमें पड़कर क्या-क्या कह रही हैं ? यह मैं नहीं जानती। अथवा आप किसी धन्य (महापुण्यात्मा) के अतिथि हैं (पाठा०-आप किस धन्यके अतिथि है ? ), अन्यथा ( आप नल ही है या मेरे ही यहां आये हैं ऐसी) सम्भावना करना व्यर्थ है [ क्योंकि मेरे इतने अधिक पुण्य कहां हैं ? जो आप नल हों या मेरे उद्देश्य में यहां आये हों] // 48 // प्राप्तव तावत् तव रूपसृष्टं निपीय दृष्टिजनुषः फलं मे / अपि अनी नामृतमाद्रियेतां तयोः प्रसादीकुरुषे गिरश्चेत् / / 49 / / 1. 'महीमहेन्द्रमहः' इति पाठान्तरम् / 2. "कस्यासि" इति पाठान्तरम् / 3. "रूपसृष्टिं" इति पाठान्तरम् / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 435 प्राप्तैवेति / तावन्मे रष्टिः तव रूपेणाकारेण सृष्टमुत्पादितममृतं निपीय जनुषो जन्मनः फलं प्राप्तव / अथ श्रुती श्रोत्रे अप्यमृतं नाद्रियेताम पिबेतां किमिति काकु: पास्यत एवेत्यर्थः / चेयदि तयोः श्रुत्योः गिरं वाक्यं प्रसादीकुरुषे किमपि वदली. त्यर्थः। सर्वथा प्रश्नोत्तरदानं उचितमेवेत्यर्थः // 49 // पहले मेरी दृष्टिने आपके रूपसे सम्पादित अमृत (पाठा०-आपकी रूपरचना) का पानकर जन्मके फलको प्राप्त कर लिया, अब कान भी (आपके भाषणरूप) अमृत का आदर नहीं करेंगे क्या ? ( आपका वचनामृत नहीं सुनेंगे क्या ?) अर्थात् अवश्य आदर करेंगे, यदि आप ( अपने ) वचनको उन दोनों (कानों) को प्रसाद करेंगे। [ आप अपना वचना. इत्थ मधूत्थं रसमुन्दिरन्ती तदोष्ठबन्धूकधविसृष्टा / कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्जबाणी गणीमिषेणास्य मनो विवेश / / 50 // इत्यमिति / इत्थं मधुनः क्षौद्रादुत्थमुत्पन्नम् / 'आतश्योपसर्गे' इति कप्रत्ययः / रसं तस्सदृशं रसमुद्विरन्ती स्रवन्ती तस्या ओष्ठ एव बन्धूकं बन्धुजीवकुसुमम् / 'बन्धूको बन्धुजीवः' इत्यमरः / तदेव धनुः तेन विसृष्टा मुका प्रसूनाशुगस्य कुसुमेषोः पञ्चानां बाणानां समाहारः पत्रवाणी। "तद्धितार्थ" इत्यादिना समाहारे द्विगुः / अकारान्तोत्तरपदवास्त्रियां "द्विगोः" इति डीष / वाणीमिषेण वाग्व्याजेनास्य कर्णात् कर्ण प्रविश्य ल्यब्लोपे पशमी / अस्य नलस्य मनो विवेश कर्णद्वारा प्रविवेशेत्यर्थः॥५०॥ इस प्रकार ( 8 / 20-49) मधूत्पन्न रस अर्थात् मधुसदृश मधुर रस (या पुष्पराग) को बरसाती या निकालती हुई उस ( दमयन्ती) के ओष्ठरूप दुपहरियामें फूल तद्रप धनुषसे छोड़ी गयी पुष्पधन्वा ( कामदेव ) की पञ्चबाणी ( पांच बाणोंका समूह ) वाणी ( दमयन्तीवचन ) के व्याजसे इस नलके कान द्वारा (कानसे प्रवेशकर) मनमें प्रविष्ट हो गयी। [कामदेव द्वारा धनुषसे छोड़े गये पांचों बाणों के समान दमयन्तीकी वाणीसे नलके मनमें कामोद्दीपन हो गया ] // 50 // अमजदा'मजमसौ सुधासु प्रियं प्रियाया बदनान्निपीय | द्विषन्मुखेऽपि स्वदते स्तुतिर्या तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया / / 1 / / अमजदिति / असौ नलः प्रियाया वदनात् प्रियं प्रियवाक्यं निपीय सुधासु आमजं मजानं धातुमभिव्याप्येत्यर्थः। अभिविधावव्ययीभावः / “अनश्च" इति समासान्तष्टच / अमजदमृतास्वादसुखमन्वभूदित्यर्थः। तथा हि-द्विषन्मुखेऽपि तन्मुखतश्चेदित्यर्थः / या स्तुतिः स्वदते स्वादूभवति इष्टमुखे प्रियजनमुखे तु तस्याः स्तुतेर्मिष्टता स्वादुता अमेया अपरिच्छेद्या न किमिति काकुः ? अपि तु परिच्छेत्तुम 1. "-दाकण्ठमसौ” इति पाठान्तरम्। 2. "प्रमेया" इति पाठान्तरम् / Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 नैषधमहाकाव्यम् / शक्यवेत्यर्थः / अत्रेष्टमुखस्तुतेः द्विषन्मुखस्तुत्यपेक्षया कैमुस्येन स्वादुरवोत्कर्षप्रति. पादनादर्थापत्यलङ्कारः / तस्य वाक्यभूतस्य आमज्ज सुधामजनहेतुत्वाद्वाक्यार्थहे. तुकं काग्यलिङ्गमिति सकरः॥५१॥ ये ( नल ) प्रिया (दमयन्ती) के मुखसे प्रियवचनका पानकर (प्रिय वचनको सुनकर) 'मज्जा' नामक धातुतक ( पाठा०-कण्ठतक ) अमृतमें डूब गये / जो प्रशंसा शत्रुके मुख में अर्थात् शत्रुके द्वारा कहने पर भी रुचती है, फिर उसकी मधुरता प्रियके मुखमें (प्रियजनके मुखके द्वारा कहने पर) अपरिमित नहीं होगी क्या ? अर्थात् प्रियजनके द्वारा की गयी प्रशंसा अवश्यमेव मधिक रुचिकर होगी (पाठा०- उसकी मधुरता प्रियजनके मुखमें परिमित नहीं होगी अर्थात् अपरिमित ही होगी)। [ पहले तो शत्रुलोग किसीकी प्रशंसा करते ही नहीं और कोई शत्रु यदि किसीकी प्रशंसा करता भी है तो साधारण तथा थोडी ही करता हैं / इसके सर्वथा विपरीत प्रियजन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करते हैं, अतः यदि शत्रुकृत प्रशंसा भी रुचती है तो फिर प्रियजनकृत प्रशंसा कितना अधिक रचेगी इसका प्रमाण नहीं किया जा सकता। प्रिया दमयन्तीके मुखसे अपनी प्रशंसा सुनकर नलको अत्यधिक प्रसन्नता हुई। पौरस्त्यशैलं जनतोपनीतां गृहन् यथाहपीतरध्यपूजाम् / तथातिथेयीमथ संप्रतीच्छन्नस्या वयस्यासनमाससाद / / 5 / / पौरस्त्येति / अथ नलः अह्नः पतिः अहर्पतिः सूर्यः "अहरादीनां पत्यादिषूपस. जयानम्" इति रेफादेशः / यथा जनानां समूहो जनता। "ग्रामजनबन्धुसहायेभ्यस्तल्"। तथा उपनीतां समर्पिताम् अर्धार्थ जलमध्ये “पादार्धााञ्च" इति यत्प्रत्ययः। तदेव पूजां तां गृहन स्वीकुर्वन पुरो भवः पौरस्त्यः / “दक्षिणापश्चात् पुरसस्त्य. क"। तं शैलमुदयाद्रिमाससादेति शेषः / तथा अतिथिषु साधुमातिथेयीं पूजां, "पथ्यतिथिवसतिस्वपतेढं। सम्प्रतीच्छन् प्रतिगृह्णन अस्या भैम्याः वयसा तुझ्या सखी "नौवयोधर्मे"त्यादिना यस्प्रत्ययः / तस्या आसनमाससाद / न तु भैम्याः दत्यावस्थायामनौचित्यादिति भावः / उपमालंकारः // 52 // इसके बाद जनसमूहसे अर्पित अर्य-( अर्घार्थ जल ) पूजाको ग्रहण करते हुए सूर्य जिस प्रकार उदयाचलको प्राप्त करते ( उदयाचलपर आरूढ़ होते ) हैं, उसी प्रकार अतिथियोग्य पूजाको स्वीकार करते हुए वे ( नल ) इस ( दमयन्ती ) की सखीके आसनको ( पाठा०प्रियाके द्वारा दिये आसनको ) प्राप्त किया अर्थात् उसपर बैठे। [ स्वयं दूत होने के कारण दमयन्तीके आसनपर बैठना अनुचित होनेसे वे उसकी सखीके आसनपर बैठे ] // 52 / / अयोधि तद्धैर्यमनोभवाभ्यां तामेव भूमीमवलम्ब्य भैमीम् / आह स्म यत्र स्मरचापमन्तश्छिन्नं भ्रवौ तज्जयभङ्गवार्ताम् // 53 // अयोधीति / तस्य नलस्य धैर्यमनोभवाभ्यां कर्तृभ्यां तां भैमीमेव रणभूमिमिति व्यस्तरूपकम् / अवलम्ब्य प्राप्य अयोधि भावे लुङ्। यत्र युद्धे युद्धभूमौ वा अन्त. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 437 अष्टमः सर्गः। मध्ये च्छिन्नं ध्रुवौ भैमीभ्रुवावेव स्मरचापं पूर्ववपकं तयोधैर्यमनोभवयोर्जयभा. वार्तामाह स्म स्मरचापभङ्गात् स एव भग्न इति भावः / कथशिक्कामं निरुध्य धैर्यमेवावलम्बितवानित्यर्थः // 53 // ___ उस नलके धैर्य तथा कामदेवने उस दमयन्तीरूप युद्धभूमिका अवलम्बनकर ( दमय. न्तीको ही अपना-अपना विषय बनाकर ) युद्ध किया जिस (युद्धभूमि ) में बीच में कटा हुआ ( दमयन्तीका ) भ्र दयरूप कामधनुषने उन ( नलके धैर्य तथा कामदेव ) के (क्रमशः) जय तथा पराजयको बतला दिया। [ दमयन्तीका भ्र द्वय मध्यच्छिन्न कामधनुष था, अतएव टूटे हुए धनुषवाले कामदेवकी पराजय तथा नलके धैर्यकी विजय हुई जिसका धनुष टूटता है, उसका पराजित होना उचित ही है, यहां कामका धनुष टूट गया / अतः वही नल धैर्य के द्वारा पराजित हुआ अर्थात् नलने दूर होनेके कारण अपने सहज धैर्यसे दमयन्ती. विषयक कामवासनाको रोक लिया। दमयन्तीके भ्रदय बीचमें मिले हुए नहीं होनेसे सामु. द्रिकशास्त्र के अनुसार शुम लक्षणसे युक्त हैं यह भी सूचित होता है ] // 53 // अथ स्मराज्ञामवधीर्य धैर्यादूचे स तद्वागुपवीणितोऽपि / विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषीकरोति / / 54 / / अथेति / अथ स नलस्तस्या भैम्या वाचा उपवीणितो वीणया उपनीतोऽपि तद्वाग्वीणाकृष्टचित्तोऽपीत्यर्थः / "सत्यापपाश" इत्यादिना वीणाशब्दादुपगाने णिचि कर्मणि कः / धैर्याद्वैयं विधाय स्यब्लोपे पञ्चमी / स्मरस्याज्ञामवधीर्य अवज्ञाय उचे उवाच / तथा हि-विवेकानां धाराशतधौत क्षालितं सतां विदुषामन्तरन्तःकरणं कामो न कलुषीकरोति न विकत शक्नोतीत्यर्थः / अत्र पूर्वाधं स्मरधैर्ययोर्धावितचित्तस्य धैर्यनियमनास्परिसङ्घयालङ्कारः / “एकस्य वस्तुनो भावादनेकत्रैकदा यदा। एकत्र नियमः सा हि परिसङ्ख्या निगद्यते // " इति लक्षणात् / तस्योत्तरार्ध सामान्येन समर्थनात् सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यास इति सङ्करः // 54 // इसके बाद उस दमयन्तीके वाणीरूप वीणासे प्रशंसित भी नल धैर्यका अवलम्वनकर कामाशा ( कामवासना ) को दबाकर बोले; विचारकी संकड़ों धाराओंसे धोये गये, सज्जनों के अन्तःकरणको काम मलिन नहीं करता है / [ पहले नलको दमयन्तीकी वाणीरूप वीणासे प्रशंसित होनेके कारण दमयन्ती-विषयक काम-वासना उत्पन्न हुई, किन्तु उन्होंने अपना दौत्य विचारकर सहज धैर्यसे उस कामवासनाको दबा दिया, क्योंकि सज्जनों का मन सैकड़ों विवेक धाराओंसे अत्यन्त स्वच्छ रहने के कारण कामवासनासे कलुषित कभी नहीं होता / लोकमें भी जिसे सैकडों धारायुक्त जलसे धोया जाता हैं, वह अत्यन्त स्वच्छ रहता है ] / / 54 // हरित्पतीनां सदसः प्रतीहि त्वदीयमेवातिथिमागतं माम् / वहन्तमन्तगुरुणादरेण प्राणानिव स्वःप्रभुवाचिकानि // 55 // Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 नैषधमहाकाव्यम् / हरिदिति / मां गुरुणा आदरेण अतिप्रयत्नेन स्वःप्रभूणामिन्द्रादीनां म्याहृतार्था वाचो वाचिकानि सन्देशवाक्यानि / 'सन्देशवाग्वाचिकं स्यात्' इत्यमरः / “वाचो व्याहृतार्थायाम्" इति ठक् / प्राणानिव त्वदीयानेवेत्यर्थः / अन्तरन्तरात्मनि वहन्तं हरिस्पतीनामिन्द्रादिदिक्पालानां सदस आस्थानादागतं त्वदीयमेवातिथिं प्रतीहि स्वामेवोद्दिश्यागतं विद्धीत्यर्थः // 55 // ___ बड़े आदरसे स्वर्गाधीशोंके संदेशोंको ( अपने या उन्हींके ) प्राणों के समान हृदयमें धारण करते हुए तथा दिक्पालोंके सभासे आये हुए मुझको तुम तुम्हारा (अपना) ही अतिथि जानो / [इन्द्रादि दिक्पालोंके जिन वाचिक सन्देशोंको मैं हृदयमें आदरपूर्वक धारण कर रहा हूँ, वे प्राणों के समान प्रिय हैं, अतएव उनको सुनकर पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है, और मैं दिक्पालों के स्थानसे तुम्हारे ही यहाँ आया हूँ ] // 55 // विरम्यतां भूतवती सपर्या निविश्यतामासनमुज्झितं किम् / या दतता नः फलिना विधेया सेवातिथेयी पृथुरुद्भवित्री / / 56 // विरम्यतामिति / सपर्या पूजा भूतवती भूतैव।भवतेः क्तवतुप्रत्यये डीप / विरम्यतामवसीयतां भावे लोट् / निविश्यतां उपविश्यतां कि किमर्थमासनमुज्झितं स्यक्तम् ? फलिना फलवती, “फलबर्हाभ्यामिनज्वक्तव्यः" / विधेया कर्तव्या नोऽस्माकं या दूतता दूत्यं सैव पृथुमहती आतिथेयी अतिथिपूजा उद्भवित्री भाविनी // 56 / पूजा ( अतिथि-सत्कार ) हो गयी, (इससे ) विरत होवो, बैठो, (दूतरूप मुझे देखकर ) आसनको क्यों छोड़ दिया ? ( अतिथि-सत्कार करना गृहस्थमात्रका धर्म है, अतएक मैंने आसन छोड़ दिया है और आपका अतिथि-सत्कार करना चाहती हूँ, ऐसा मत कहो क्योंकि ) सफल की जानेवाली मेरी जो दूतता है, वही बड़ी ( महत्त्वपूर्ण ) अतिथि-पूजा / होगी। [ तुम अतिथि सत्कारको छोड़कर मेरी दूतताको जो सफल करोगी, वही मेरा बड़ा भारी अतिथि-सत्कार होगा। तुम मेरे दूत-कर्मको सफल करो] // 56 / / कल्याणि ! कल्यानि तवाङ्गकानि कच्चित्तमां चित्तमनाविलं ते / अलं विलम्बेन गिरं मदीयामाकर्णयाकर्णतटायताक्षि / / 57 / / कल्याणीति / हे कल्याणि ! भद्रे ! तवाङ्गकानि कोमलान्यङ्गानिकल्यानि पनि कच्चित्तमा ? कच्चिदिति प्रश्नार्थमध्ययम् / 'कच्चित्कामप्रवेदने' इत्यमरः / तस्मात् "अतिशायने तमबिष्ठनो" इति तमप् / “किमेत्तिङव्ययघात्" इत्यामुप्रत्ययः / किञ्च ते चित्तमनाविलमकलुषं कच्चित्तमाम् ? आकर्णतटाकर्णतटपर्यन्तं मर्यादायामन्ययीभावः / ततः "सुप्सुपा" इति समासे आकर्णतटायते अक्षिणी यस्याः सेति "बहुवीही सक्थ्यषणोः स्वाङ्गात् षच," "षिद्वौरादिभ्यश्च" इति डोप / “अम्नार्थनधीईस्वः" हे आकर्णतटायताक्षि ! विलम्बेनालं मदीयां गिरमाकर्णय // 57 // हे भद्रे ! तुम्हारे कोमल शरीर नीरोग ( स्वस्थ ) हैं न ? और तुम्हारा चित्त प्रसन्न Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बष्टमः सर्गः। 436 न ?; हे कानतक विशाल नेत्रोंवाली ( दमयन्ती) !( कार्य में बाधक होनेसे अधिक कुशल प्रश्नमें ) विलम्ब करना व्यर्थ है, मेरी बात सुनो। [ किसी कार्यको पूरा करनेके लिए शरीर का नीरोग एवं चित्तका प्रसन्न रहना अत्यावश्यक होनेसे तथा धर्मशास्त्रके वचनानुसार क्षत्रियसै नोरोग-सम्बन्धी कुशल पूछनेका विधान होनेसे प्रश्नान्तरमें अधिक समय न लगाकर उक्त विषयमें ही कुशल प्रश्न करनेके बाद अपनी देव-दूत-सम्बन्धिनी बात सुनने के लिये नल दमयन्तीको सावधान कर देते हैं ] // 57 / / कोमारमारभ्य गणा गुणाना हरान्त त दिक्षु धृताधिपत्यान् / सुराधिराजं सलिलाधिपश्च हुताशनचायमनन्दनञ्च / / 58 // कौमारमिति / हे भैमि ! कौमारं नव कुमारवय आरभ्य "प्राणभृजातिवयोवचनोगात्रादिभ्योऽम्" / ते तव गुणानां गणाः दिनु धृताधिपत्यान् दिशामधीशान् सुराधिराजमिन्द्रं सलिलाधिपं वरुणश्च हुताशनमग्निश अर्यमनन्दनं सूर्यतनयं यमञ्च हरन्ति आकर्षयन्ति // 78 / / कुमारावस्थासे आरम्भकर तुम्हारे गुणों के समूह दिशाओं में आधिपत्य ( स्वामित्व ) को धारण करनेवाले अर्थात् दिक्पाल-देवराज इन्द्र, जलाधीश वरुण, अग्नि और सूर्यपुत्र यमको आकृष्ट करते हैं / [ तुम्हारी कौमारावस्थासे ही तुम्हारे गुण-समूहको सुनकर उक्त इन्द्रादि चारो दिक्पाल तुमसे आकृष्ट हो गये हैं ] // 58 // चरचिरं शैशवयौवनीयद्वैराज्यभाजि त्वयि खेदमेति / तेषां रुचश्चौरतरेण चित्तं पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् // 56 // चरदिति / शैशवयोवनयोरिदं शैशवयौवनीयं, "वृदा" तब तत् ईराज्यं यो राज्ञोः (कर्म)ब्राह्मणादित्वात् ष्यअप्रत्ययः / तदाजि शैशवयौवनाम्यराज्य. याक्रान्तायामित्यर्थः। एतेनास्या वयःसन्धिरुतः, तस्यां त्वयि चिरं चरद्वर्तमानं तेषामिन्द्रादीनां चित्तं (कर्तृ) रुचः कान्तेश्चौरतरेण विरहितजोहारिणेत्यर्थः / पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् अपहृतधर्यधनं सत् खेदमति दैराज्ये प्रजानां चोरवाया जायत इति भावः / वयोद्वयद्वैराज्ये पञ्चेषुणा चोरेण तेषां धर्यवित्तं इतमिति रूप. कम् / तद्धेतुकत्वात् खेदस्य वाक्यार्थहेतुकं कायलिमिति सारः॥ 59 // बाल्य तथा तारुण्यकी (दो अवस्थारूप ) राज्यद्वयके प्राप्त अर्थात् वाल्य तथा तारुण्यकी अवस्थाओंके मध्यमें स्थित तुममें बहुत समयसे वर्तमान उन (इन्द्रादि चारो दिक्पालों) का (विरहियोंके मुखकी ) कान्ति की अतिशय चोरी करनेवाले पञ्चबाण (कामदेव ) से लूटे (अपहरण किये-चुराये) गये, धैर्यरूपी धनवाला चित्त कब तक खेदको प्राप्त करेगा ? [वाल्य-यौवनावस्था की सन्धिमें स्थित तुममें उन इन्द्रादि दिक्पालोंका चित्त आसक्त हो रहा है और विरही होनेसे उनकी कान्तिको चुराने ( नष्ट करने ) वाला एवं पांच बाण धारण करनेवाला कामदेवरूप डाकू उनके धैर्यरूपी धनको लूट लिया है। ऐसा (कान्ति 28 नै० Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 नैषधमहाकाव्यम्। एवं धैर्यसे हीन ) उन दिक्पालोंका चित्त कबतक खिन्न रहेगा अर्थात् तुम उनपर कबतक अनुग्रह करोगी? [ लोकमें भी दो राज्यों की सीमाके मध्यमें चलनेवाले व्यक्तिको सम्पत्ति को जब बाण आदि शस्त्र धारण करनेवाला कोई प्रसिद्ध चोर या डांकू लूट लेता है तब वह खिन्न रहता है। बाल्य-तारुण्यकी वयःसन्धिमें स्थित तुममें इन्द्रादि दिक्पालों के चित्त आसक्त हैं, तुम्हारे विरहसे उनकी कान्ति नष्ट हो गई है और उनका धैर्य छूट गया है ] // तेषामिदानी किल केवलं सा हृदि त्वदाशा विलसत्यजस्रम् / आशास्तु नासाद्य तनूरुदाराः पूवोदयः पूर्ववदात्मदारः / / 60 / / तेषामिति / इदानीं तेषामिन्द्रादीनां हृदि सा प्रसिद्धा त्वदाशा केवलं त्वय्यति. तृष्णा एव आशा दिक च / 'आशा दिगतितृष्णयोः' इति वैजयन्ती। अजस्त्रं विलसति किल विज़म्भते खलु / आत्मदाराः स्वभार्याः पूर्वादयः प्राच्यादयः आशा दिशस्तु उदारा दक्षिणा महतीश्च तनूरासाद्य पूर्ववत् हृदि न विलसन्ति / 'उदारो महति ख्याते दक्षिणे दानशौण्डके' इति वैजयन्ती। अपूर्वनायिकानुरक्त हृदि पूर्वना. यिकाश्चतुरा अपि न लगन्ति / तथा महत्यो दिशः परमाणौ हृदि न लगन्तीति च भावः। त्वदाशापरवशास्ते स्वकीयं प्राच्याद्याशापरिपालनाधिकारमपि विस्मृत्य स्थिता इति तात्पर्यार्थः / अत्रोभयोराशयोरेकत्र हृदि प्राप्तौ एकस्या भैम्याशाया एव तनियमनास्परिसङ्ख्या / यद्यप्येकस्य उभयत्र प्राप्तावेकत्र नियमनं परिसङ्घयेत्यालङ्कारिकाणां लक्षणं तथापि मीमांसकैरुभयोरेकन प्राप्तावेकस्यैव नियमनमित्यङ्गीकाराच्चमत्कारकारित्वाविशेषाच उपलक्षणत्वेनोभयाङ्गीकारे को विरोधः ? अथवा एकस्य हृदयस्य आशाद्वयप्राप्तावेकत्रैव नियमनाद्वापि लभ्यत इति सर्वथा परिसङ्ख्या सम. स्त्येव / सा च श्लिष्टशब्दोपात्तयोराशयोरभेदाध्यवसायाच्छलेषभित्तिकाभेदरूपाति. शयोक्त्युत्थापितेति सङ्करः॥ 60 // इस समय उन (इन्द्रादि दिक्पालों ) के हृदय, वह तुम्हारी ( त्वद्विषयिणी ) आशा ( अत्यधिक तृष्णा, पक्षा-दिशा) ही बढ़ रही है, स्वपत्नीरूप पूर्व आदि दिशाएँ उदार (अनुकूल, पक्षा०-विशाल ) शरीरको प्राप्तकर पहलेके समान नहीं विलसित होती हैं / [जिस प्रकार अपूर्व नायिकानुरक्त चित्तमें चतुर एवं अनुकूल नायिकाएँ भी नहीं रुचती हैं, उसी प्रकार विशाल भी पूर्व पत्नीरूप दिशाएँ उन उन इन्द्रादि दिक्पालों के परमाणु परिमित हृदयमें नहीं समाती है / तुम्हे पानेकी अतितृष्णाके प वश वे इन्द्रादि देव अपने दिक्पालत्वकार्यको भी भूल गये हैं ] // 6 // अनेन साधं तब यौवनेन कोटि परामच्छिदुरोऽध्यरोहत् / प्रेमापि तन्धि ! त्वयि वासवस्य गुणोऽपि चापे सुमनःशरस्य // 11 // अनेनेति / हे भैमि ! वासवस्य त्वरयसीमा निरवधिः प्रेमा अनुरागोऽपि 1. "णि रति पाठान्तरम। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 41 तवानेन यौबनेन सार्धमच्छिदुरोऽविच्छिन्नः सन् / “विदिभिदिच्छिदेः कुरच्। परां कोटिमुत्कर्षमध्यरोहत् / तथा सुमनःशरस्य पुष्पेषोश्चापे गुणो मौम्यपि परामु. तरां कोटिमटनिमध्यरोहत् / अत्युत्कर्षाश्रयः कोटयः' इत्यमरः। अत्र प्रेमगुणयोः प्रकृतयोरेव विशेषणसाम्येनौपम्योपगमात् केवलप्रकृतविषया तुल्ययोगिता तयोरेव परां कोटिमिति श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायरूपादतिशयोक्तिमूला यौवनेन साध. मिति सहार्थसम्बन्धोक्तेः सहोक्तिरित्यनयो सदरः॥६॥ ___ हे तन्वि ! ( पाठा०-हे भैमि !) तुममें इन्द्रका अखण्डित ( अतिशय दृढ ) प्रेम भी तुम्हारी इस युवावस्थाके साथ अत्यन्त अधिक बढ़ गया है तथा पुष्पवाण (कामदेव) की प्रत्यञ्चा भी धनुषकी दूसरी कोटी (किनारे) पर चढ़ गयी है / [ तुम्हारे युवावस्थाके प्रारम्भ से ही इन्द्रका तुममें प्रेम हो गया है, जैसे-जैसे तुम्हारी युवावस्था बढ़ती जाती है, वैसेवैसे तुममें इन्द्रका प्रेम भी दृढ़ होता जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु कामदेवने भी अपने धनुषके दूसरे किनारेपर प्रत्यञ्चा चढ़ा लिया है अर्थात् तुम्हारी बढती हुई युवावस्थाके साथ इन्द्रका प्रेम भी बढ़ता जाता है और वे क्रमशः अधिक काम-पीडित होते जाते हैं ] // 61 // प्राची प्रयाते 'विरह दधत्ते तापाच्च रूपाच्च शशाङ्कशङ्की / परापराधैनिदधाति भानौ रुषारुणं लोचनवृन्दमिन्द्रः // 6 // प्राचीमिति / इन्द्रस्ते विरहं दधत् दधानः सन् अत एव प्राची दिशं प्रयाते प्राप्ते भानावधिकरणे तापाचन्द्रस्यापि विरहितापकारकत्वादिति भावः। रूपाच्च उदयकाले उभयोरपि रक्तत्वादिति भावः / शशाङ्कशङ्की चन्द्र इति भ्रान्त्या परापराधै. श्चन्द्रदोषस्तापादिभिः हेतुभिः रुषाऽरुणं लोचनवृन्दं निदधाति क्रोधाइहनिव अधिसहस्रेणापीक्षत इत्यर्थः / क्रोधान्धस्य कुतः सापराधानपराधविवेक इति भावः / अत्र कविसम्मतसादृश्येन भानौ शशाङ्कभ्रमाद् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 62 // ___ तुम्हारे विरहको धारण करते हुए इन्द्र (पाठा०-ये इन्द्र तुम्हारे विरहसे) पूर्व दिशाको सूर्यके प्राप्त होनेपर सूर्योदय होनेपर सन्ताप तथा रूपसे चन्द्रोदय होनेपर विरही होने के कारण सन्तापसे तथा उदय कालसे रक्त वर्ण होने के कारण रूपसे सूर्यमें ही चन्द्रमा की शङ्का करते हुए अर्थात् सूर्यको चन्द्रमा मानते हुए दूसरेके अर्थात् चन्द्रमाके अपराधोसे ( सहस्र ) नेत्र-समूहको क्रोधसे रक्तवर्ण कर लेते हैं / [ प्रातःकाल जब रक्तवर्ण सूर्य उदय लेते है, तब तुम्हारे विरह से युक्त इन्द्र सन्ताप-कारक एवं लाल वर्ण होनेसे सूर्यको ही चन्द्रमा समझकर-यह चन्द्रमा मुझे बहुत सन्तप्त करता है, इस प्रकारके चन्द्र-सम्बन्धी अपराधके कारण क्रोधसे सूर्यपर ही आंखोंको लाल करते हैं, क्रोधी पुरुषको अपराधी तथा अनपराधी का विवेक नहीं रह जाता है। इन्द्र तुम्हारे विरहसे चन्द्रोदय होनेपर तो सन्तप्त 1. "विरहादयं ते" इति पाठान्तरम् / Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 नैषधमहाकाव्यम् / होते ही है, किन्तु सूर्योदय होनेपर भी अर्थात् दिनमें मी तुम्हारे विरहसे सन्तप्त होते रहते हैं ] // 62 // त्रिनेत्रमात्रेण रुषा कृतं यत्तदेव योऽद्यापि न संवृणोति / न वेद रुष्टेऽध सहस्रनेत्रे गन्ता स कामः खलु कामवस्थाम् / / 63 / / त्रिनेत्रेति / त्रिनेत्र एव त्रिनेत्रमात्रः। 'मानं कास्न्येऽवधारणे' इत्यमरः / तेन सन्मात्रेण रुषा यस्कृतमनङ्गत्वमिति भावः। तदेव यः कामोऽयापि न संवृणोति नाच्छादयितुं शक्नोतीत्यर्थः। स कामोऽद्य सहस्रनेने इन्द्रे रुष्टे क्रुद्ध सति कामवस्था दशां गन्ता गमिष्यति / गमेलुट / न वेद न जाने खलु / वाक्यार्थः कर्मः। “विदो लटो वा" इति मिपो णलादेशः / त्रिनेत्रमास्कन्ध नष्टः कामः सहस्रनेत्रं कथं जेष्यती. त्यर्थः। कामस्वस्कृते निःशङ्कमिन्द्रं दुःखाकरोतीति तात्पर्यार्थः // 63 // __ केवल तीन नेत्रोंवाले (शङ्करजी) ने क्रोधसे जो ( अनङ्गत्व = शरीराभाव ) किया, उसी (अनङ्गत्व ) को जो काम आज भी नहीं पूरा कर सका है तो सहस्र नेत्रोंवाले (इन्द्र) के रुष्ट होनेपर वह कामदेव किस (वर्णनातीत ) अवस्थाको प्राप्त करेगा, यह नहीं जानता हूँ / [जो कामदेव क्रोधसे तीन नेत्रोंवाले शङ्करजी के द्वारा की गयी अपनी क्षतिको बहुत दिन बीतनेपर भी आजतक पूरा नहीं कर सका, वह कामदेव हजार नेत्रोंवाले इन्द्रके रुष्ट होने पर जिस अवस्थाको पावेगा, वह कल्पनातीत ही है। लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी साधारण शत्रुद्वारा की गयी हानि की पूर्ति करनेमें असमर्थ है तो वह बड़े शत्रुके दारा की गयी हानिको पूरा कर लेगा यह सर्वथा असम्भव ही है / कामदेव इन्द्रको सर्वदा पीड़ित कर रहा है ] // 63 // पिकस्य वामात्रकताद्वचनोकाम स प्रभुनन्दति नन्दनेऽपि / बालस्य चूडाशशिनोऽपराधान्नाराधनं शीलति शूलिनोऽपि / / 61 / / पिकस्येति / सः प्रभुरिन्द्रः पिकस्य कोकिलस्य वाङमात्रकृतात् न तु कामवत् कायकृतादिति भावः। म्यलीकादप्रियान्नन्दने नन्दनाख्ये आनन्दकरेऽपीति गम्यते। बने न नन्दति किमुतान्यत्रेति भावः / किञ्च बालस्य कृशस्य चूडाशशिनोऽपराधात् अपकारात् सन्तापरूपात किमुत पूर्णेन्दोरिति भावः। शूलिनः शिवस्याप्याराधनं पूजां न शीलति नाचरति / “शीलसमाधौ" इति भौवादिकालट / इन्द्रो विरहपार. वश्यादावश्यकं किमपि कर्म न करोतीत्यर्थः। अत्रानन्दशिवाराधनसम्बन्धेऽप्यस. म्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 2 // प्रभु ( निग्रहानुग्रह-समर्थ ) वे इन्द्र कोयलके केवल वचनमात्रसे (कामके समान शरीरसे नहीं) किये गये अप्रिय कार्यसे ( आनन्दकारक ) 'नन्दन' ( नामक अपने उद्यान ) में मी आनन्दित नहीं होते हैं और बाल (एक कलामात्र ) ( शिवजीकी ) चूडामें स्थित चन्द्रमाके अपराषसे शिवजीका पूजन भी नहीं करते हैं / [ जो नन्दन अर्थात् आनन्द Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। दायक है, उसमें भी आनन्दित नहीं होना आश्चर्य है, अथवा लोकमें भी अप्रिय बोलनेवाले पुत्रमें कोई आनन्दित नहीं होता है / तथा केवल एक कलावाला हो चन्द्रमा इन्द्रको इतना अधिक सताता है कि वे उसी अपराध से नित्यकृत्यरूप शिवजीका पूजन भी छोड़ दिये हैं, फिर पूर्णिमाका चन्द्रमा होता तो इन्द्रको कितना कष्ट होता ?, अथवा-बाल शत्रुको भी उन्नत स्थानपर आश्रय देनेवाले शूलधारीके समीप कोई व्यक्ति नहीं जाता है। तुम्हारे विरहसे व्याकुल इन्द्रको पिककूजन नहीं रुचता, तथा उन्होंने नित्यकर्मरूप शिवपूजन भी छोड़ दिया है ] // 64 // तमोमयीकृत्य दिशः परागैः स्मरेषवः शकरशां दिशन्ति' / कुहगिरं चञ्चपुटं द्विजस्य राकारजन्यामपि सत्यवाचम् / / 65 / / तमोमयीति / स्मरेषवः कुसुमेषुबाणाः परागः रजोभिः करणर्दिशः शक्रदृशां सम्बन्धे तमोमयीकृत्य तत्प्रकृतवचने मयडन्तादभूततद्गावे च्विः / अत एव दिक्तम. सोरसम्बन्धे तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः / कुहः कुह्वाख्या गीः कूजितं यस्य / अन्यत्र तु कुहूरमावास्येति गीर्वचनं यस्य / 'कुहूः स्यात्कोकिलालापनष्टेन्दुकलयो. रपि' इति विश्वः / तस्य द्विजस्याण्डजस्य कोकिलस्येत्यर्थः / अन्यत्र विप्रस्य 'दन्तविप्राण्डजा द्विजा' इत्यमरः। चञ्चपुटं मुखं राकारजन्यां पूर्णिमायामपि सत्यवाचं दिशन्त्यादिशन्ति कथयन्तीत्यर्थः / राकायामपि कुह्वामिव तमन्धीकुर्वन्तीत्यर्थः / अत्र श्लिष्टोपात्तयोर्द्वयोरपि कुबोर्द्विजयोश्चाभेदाध्यवसायमुक्त्वा कुहूत्वसत्यवादित्वस्य विरुद्धस्यापि पूर्वोक्तातिशयोक्तिहेतुना सिद्धाक्यार्थहेतुकं काम्यलिङ्गं सत् श्लेषातिशयोक्तेर्विरोधैरङ्गैः संकीर्यते / तेन शक्रस्य राकायां कुहुभ्रान्स्या भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यत इत्यूह्यम् // 65 // कामदेवके बाण (पुष्पमय होनेसे ) परागों (पुष्प-मकरन्दों, पक्षाo-धूलियों) के द्वारा दिशाओंको अन्धकारमय बनकर 'कुहू' शब्द करनेवाले द्विज (पक्षी अर्थात् कोयल, पक्षा०-ब्राह्मण ) के चञ्चुपुट ( पक्षा०-मुख) को पूर्णिमा की रात्रिमें भी सत्यवचनवाला अर्थात् आज कुहू ( अदृष्ट चन्द्रकलावाली अमावास्या तिथि) ही है पूर्णिमा नहीं, ऐसा बतलाते ( पाठा०-करते ) हैं / [ कामदेवके वाण पुष्पमय हैं, अतः इन्द्रको लक्ष्यकर छोड़े गये उनके परागोंसे पूर्णिमा तिथिको भी इन्द्र अमावास्या ही समझते हैं, कोयल कुहू शब्द करता है तो उसके द्वारा कामपीडित इन्द्र पूर्णिमा तिथिको भी अमावस्या मानते हैं / अन्य कोई सिद्ध वचनवाला ब्राह्मण भी पूर्णिमाको अमावस्या कहता है तो वह अपने तपोबलसे उस अमावस्या तिथिको ही पूर्णिमा सिद्ध कर देता है। इन्द्र तुम्हारे कामुक होकर पिकवचन सुननेसे कामान्ध हो रहे हैं और काम उन्हे सन्तप्त कर रहा है ] // 65 // शरैः प्रसूनैस्तुदतः स्मरस्य स्मत स कि नाशनिना करोति / अभेद्यमस्याहह ! वर्म न स्यादनङ्गता चेगिरिशप्रसादः // 66 // 1. "सृजन्ति" इति पाठान्तरम् / Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 नैषधमहाकाव्यम् / शनैरिति / स इन्द्रः प्रसूनैरेव शरैस्तुदत आत्मानं विध्यतः स्मरस्य स्मरमित पर्थः / “अधीगर्थ"-इत्यादिना कर्मणि शेषे षष्ठी / अशनिना वज्रेण स्मर्तुं न करोति किं स्मृतिमात्रशेषं कुर्यादेव / किन्तु तस्य स्मरस्य गिरिशस्य प्रसादः प्रसाद लब्धमित्यर्थः / कार्यकारणयोरभेदोपचारः सोल्लुण्ठचैतदनङ्गता अभेद्यं वर्मेति रूपकम् / न स्याच्चेत् अहहेत्यद्भुते खेदे वा साङ्गत्वे पुनर्वज्रलक्ष्यलाभादेनं हन्यादे. वेत्यर्थः। तथा पीडयत्येनमनङ्गोऽपीति भावः // 66 // ___ इन्द्र पुष्परूप बाणोंसे पीडित करते हुए कामदेवको वज्र के द्वारा स्मरणीय क्या नहीं कर देता अर्थात् अवश्य ही कर देता, अहह ! अर्थात् आश्चर्य (या खेद) है, यदि शिवजी का प्रसादरूप (कामदेवकी) अनङ्गता ही उसका अभेद्य कवच नहीं होता ? [ कामदेव पुष्पमय अर्थात अतिशय कोमल भी बाणोंसे इन्द्रको सर्वदा पीडित कर रहा है, ऐसे कोमल शस्त्रवाले शत्रुको इन्द्र अतितीक्ष्ण बज्रसे अवश्य नामशेष कर देते अर्थात् मार डालते, किन्तु शिवजीने उस कामदेवको भस्मकर अनङ्ग ( शरीर-शून्य ) बना दिया है और वही अनङ्गता (शरीर-शून्यता ) उस कामदेवका दृश्य लक्ष्य नहीं होनेसे अभेद्य कवच हो रहा है, यही कारण है कि इन्द्र तीक्ष्ण वज्रसे भी उसपर विजय नहीं पाते हैं / अदृश्य लक्ष्यका भेदन करना किसी शूरवीरके लिये सम्भव नहीं होता है / इस प्रकार शिवजीने कामदेव को जलानेसे भनङ्ग बनाकर एक प्रकार वरदान ही दे दिया है, जो वह तीक्ष्ण वज्रधारी देवराज इन्द्रको भी निरन्तर पीडित करता जाता है और वे उसका कुछ नहीं कर पाते ] // 66 // धृताधृतेस्तस्य भवद्वियोगान्नानाद्रेशय्यारचनाय लूनैः / अप्यन्यदारिद्रयहराः प्रवालैर्जाता दरिद्रास्तरवोऽमराणाम् / / 67 / / तेति / अन्येषां दारिद्रयं हरन्तीत्यन्यदारिद्रयहरा अपि। हरतेरनुद्यमनेऽच / अमराणां तरवः कल्पद्रुमा भवत्या वियोगात्।सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावो वक्तव्यः। ताऽतिररतिर्येन तस्येन्द्रस्य नानाविधानामाशय्यानां शिशिरशयनानां रच. नाय लूनःप्रवालेः दरिद्रा रिक्ता जाताः, तापस्तु तथापि नापेत इति भावः / सुरवा माणां प्रवालदारिद्रयासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 67 // __तुम्हारे विरहसे अधीर उस (इन्द्र ) के अनेक आर्द्र ( ठण्डी या विरह सन्तापसे सूखी जाती हुई, या सन्तापके कारण सूखनेसे दूसरी-दूसरी) शय्याओंके लिये तोड़े गये नवपल्लवोंसे दूसरोंकी दरिद्रता दूर करनेवाले भी देववृक्ष ( कल्पतरु, मन्दार आदि ) स्वयं दरिद्र हो रहे हैं / [ तुम्हारे विरहसे सन्तप्त इन्द्रको इतनी अधिक नयी-नयी शीतल शय्या देववृक्षोंके नवपल्लव से बनायी जाती है कि उन देववृक्षोंके पल्लव तो समाप्त हो गये, किन्तु इन्द्रका सन्ताप दूर नहीं हुआ ] // 67 // १."-दनाई"-इति,-"दन्यान्य-" इति च पाठान्तरे। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। रवैर्गुणास्फालभवैः स्मरस्य स्वर्णाथकर्णी बधिरावभूताम् / गुरोः शृणोतु स्मरमोहनिद्राप्रबोधदक्षाणि किमक्षराणि // 6 // रवैरिति / स्वर्णाथस्य स्वर्गनाथस्येन्द्रस्य "पूर्वपदारसंज्ञायामगः" इति णत्वम् / कौँ स्मरस्य गुणास्फालभवैः ज्याघट्टनप्रभवै रवैः बधिरावभूताम् / एवं बाधिये सति गुरोर्वृहस्पतेः सकाशात् स्मरमोह एव निद्रा तस्याः प्रबोधे दक्षाण्यक्षराणि विवेकज्ञा. नोपदेशवाक्यानि शृणोतु शृणुयात् किम् ? न शृणोत्येवेत्यर्थः। त्वद्विरहमोहान्धमेनं बृहस्पतिरपि बोधयितुं न प्रभवतीति भावः // 68 // __ कामदेवके प्रत्यञ्चा (धनुषकी डोरा) के खींचनेसे होनेवाले शब्दों (धनुष्टङ्कारों) से स्वर्गाधीश ( इन्द्र ) के कान बहरे हो गये हैं, अत एव वे (इन्द्र) कामजन्य मोह-निद्राको दूर करनेमें समर्थ, गुरु ( बृहस्पति, पक्षा०-श्रेष्ठजन ) के अक्षरों अर्थात् वचनों ( उपदेशों) को क्यों (या कैसे ) सुनें / [ किसी महान् शब्द अर्थात् कोलाहलके होते रहनेपर बहरे (शब्दान्तर सुननेमें असमर्थ ) कानोंसे दूसरे गुरुजनोंकी भी बात नहीं सुनाई पड़ती है। इन्द्र तुममें इतना अधिक आसक्त हो गये हैं कि वे अपने गुरु बृहस्पतिके उपदेशोंको भी नहीं सुनते हैं ] // 68 // अनङ्गतापप्रशमाय तस्य कदर्यमाना मुहुरामृणालम् / मधौ मधौ नाकनदीनलिन्यो वरं वहन्तां शिशिरेऽनुरागम् // 6 // अनङ्गेति / नाकनद्याः स्वर्णद्या नलिन्यो मधौ मधौ वसन्ते वसन्ते तस्येन्द्रस्यानङ्गतापप्रशमाय मुहुरामृणालं मृणालपर्यन्तम् , अभिविधावव्ययीभावः / कदाः कुत्सितवस्तूनि, “कोः कत्तत्पुरुषेऽचि" इति कोः कदादेशः / कदाः क्रियमाणाः कद र्थ्यमानाः उत्पीड्यमानाः सत्य इत्यर्थः / तत्करोतीति ण्यन्तात्कर्मणि लटः शानजा. देशः। शिशिरेऽनुरागं वरम् / वरमिति मनाक प्रिये। वहन्ता वासन्तिकोपचाराणां तासां तत्र पूर्वोक्तोपद्रवमयादिति भावः / वहेः स्वरितेवादात्मनेपदम् // 69 // __उस ( इन्द्र ) के काम-सन्तापकी शान्तिके लिए प्रत्येक वसन्त ऋतुमें पीडित होती हुई, मन्दाकिनीकी कमलिनियां शिशिर ऋतुमें अधिक प्रेम करती हैं। [शिशिर ऋतुमें कमलिनियों के पुष्प तथा पत्ते ही नष्ट होते हैं, मृणाल (डण्ठल) नष्ट नहीं होते, किन्तु वसन्त ऋतुमें तुम्हारे विरहमें इन्द्र के अधिक कामसन्तप्त होनेपर उसकी शान्ति के लिए कमलिनीके मृणालोंको उखाड़-उखाड़कर उपयोग करनेसे वे अत्यन्त पीडित ( नष्ट ) हो रही हैं अत एव शत्रुभूत शिशिर ऋतुसे भी वे स्नेह करती हैं, क्योंकि वही शिशिर ऋतु उन कमलिनियों की रक्षा वसन्त ऋतुकी अपेक्षा अधिक करती है / लोकमें भी कोई व्यक्ति अत्यन्त पीडित होनेपर रक्षा करनेवाले शत्रुमें भी स्नेह करने लगता है। इन्द्र तुम्हारे विरहसे प्रत्येक वसन्त ऋतुमें अधिक कामजन्य सन्तापसे पीडित होते हैं ] // 69 // Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाम्बम् / दमस्वसा सेयमुपैति तृष्णा 'जिष्णोर्जगत्यप्रिमण्यलक्ष्मीम् / दृशां यदन्धिस्तव नाम दृष्टित्रिभागलोभानिमसौ विमति // 10 // दमेति / हे दमस्वसः ! दमयन्ति ! जिष्णोः शक्रस्य 'जिष्णुलेखर्षभः शक्रः' इत्यमरः / सेयं तृष्णा आशा जगति अग्रेभवमनिमम्, "अग्रादिपवाभिमज वक्तम्यः" तपतल्लेख्यं च तस्य लचमीमग्रगण्यतामुपैति अपूर्वस्वादिति भावः। कुतः यद्यस्माद्दृशामब्धिराकरोऽसाविन्द्रस्तव दृष्टेखिभागस्तृतीयांशः सायाशब्दस्य वृत्तिविषये पूरणार्थत्वाङ्गीकारात् / तत्र लोभेन तृष्णया आर्तिमाधि बिभर्ति नाम धत्ते खलु / तदेतदाब्यतमस्य कणिकालोभवचित्रीयत इत्यर्थः / तल्लेशलाभ एव स्वरष्टिसम्पत्तेः फलमित्यभिमानस्तस्येति भावः // 70 // हे दमयन्ति ! विजयशील ( पाठा०-इन्द्र ) की प्रसिद्ध अर्थात् अत्यन्त बढ़ी हुई यह तृष्णा ससारमें अग्रिम लेखकी शोभा ( अग्रगण्यता) को प्राप्त कर रहो है, जो नेत्रोंका समुद्र अर्थात् बहुत नेत्रोंवाला ( इन्द्र) भी तुम्हारे नेत्रके तृतीयांश (तिहाई भाग ) अर्थात् कटाक्षके लोमकी पीडाको धारण करते हैं। [ जो नेत्रोंका समुद्र है अर्थात् सहस्र नेत्रोंवाला है, वह भी तुम्हारे नेत्रके तृतीयांश ( तिहाई भाग ) के लोभसे पीडित हो रहा है / अतः यह बात संसार में सर्वप्रथम गिनी जायगी तथा संसार में भी जिसके पास हजारोंकी सम्पत्ति है वह एक तृतीयांशके लिए लोभकर दुःखित हो तो वह सर्वप्रथम गणनीय बात होगी। और देवोंका राजा इन्द्र भी तुम मानुषीको पानेके लिए दुःखित हो रहा है यह संसारमें सर्वप्रथम गणनीय बात होगी / इन्द्र तुम्हारे कटाक्ष की प्राप्तिके लोभसे पीडित हो रहे हैं ] // 70 // अग्नयाहिता नित्यमुपासते यां देदीप्यमानां तनुमष्टमूर्तेः / आशापतिस्ते दमयन्ति ! सोऽपि स्मरेण दासीभवितुं न्यदेशि / 01 / / अथ भगवतोऽग्नेरवस्थां वर्णयति-अग्नीति / अग्नयाहिता आहिताग्नयः, “वाहि. ताग्नयादिषु" इति निष्ठायाः परनिपातः।यां देदीप्यमानां जाज्वल्यमानां दीप्यमानां, दीप्यतेर्यङन्ताकर्तरि लट् / शानजादेशः / अष्टमूर्तेरीश्वरस्य तनुं नित्यमु. पासते, हे दमयन्ति ! आशापतिर्दिक्पतिः सोऽग्निरपि स्मरेण कत्रों तव दासीभवितुं न्यदेशि दासो भवेत्यादिष्ट इत्यर्थः // 71 // __ (अब (श्लो० 71 से 76 तक ) नल अग्निके दूतकार्यको आरम्भ करते हैं-) अग्निहोत्रीलोग अष्टमूर्ति ( शङ्करजी ) की देदीप्यमान जिस मूर्ति अर्थात् अग्निकी सर्वदा उपासना करते हैं, कामदेवने दिक्पाल उस अग्निको भी तुम्हारा दास बननेके लिये आज्ञा दे दी है। [ कामवशीभूत अग्नि भी, कामदेवको भस्म करनेके कारण शत्रु कामदेवकी भी 'तुम 1. "हरेः-" इति पाठान्तरम् / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 440 दमयन्तीका दास बनो' इस आशाका पालन करनेको तैयार हो रहा है। अग्नि मी तुम्हारा पति होकर दास बनने की इच्छा कर रहे हैं ] // 71 // त्वद्गोचरस्तं खलु पञ्चषाणः करोति सन्ताप्य तथा विनीतम् / स्वयं यथास्वादिततप्तभूयः परं न सन्तापयिता स भूयः / / 72 / / स्वदिति / पञ्चबाणः कामस्वद्गोचरस्त्वामेव लक्षीकृत्य इत्यर्थः। तमग्निं सन्ताप्य तथा तेन प्रकारेण विनीतं शिक्षितं करोति खलु / यथा येन प्रकारेण स्वयं स्वादित. मनुभूतं तप्तभूयं तप्तत्वं येन स सन् / “भुवो भावे" इति भावे क्यप। भूयः पुनः परमन्यं सन्तापयिता न सन्तापयिष्यति स्वयमनुभूतदुःखः स्वारमदृष्टान्तेन परं तथा न दुःखाकरोतीति भावः // 72 // कामदेव तुम्हें लक्ष्यकर उस अग्निको. सन्तप्तकर इतना अधिक विनीत कर रहा है कि सन्ताप-दुःखका स्वयं अनुभव किए हुए वे अग्नि फिर किसीको सन्तप्त नहीं करेंगे। [ अब तक अग्निको यह अनुभव नहीं था कि सन्तापसे कितनी अधिक पीड़ा होती है, अतः वे दूसरों को सन्तप्त किया करते थे, किन्तु अब तुम्हारे विरहमें कामदेवके द्वारा स्वयं सन्तापजन्य दुःखका अनुभव कर लेने पर वे इस बातको समझ जायेंगे कि सन्तापसे बहुत अधिक पीडा होती है, और भविष्यमें अपना दृष्टान्त रखकर दूसरे किसीको सन्तप्त नहीं किया करेंगे / लोकमें भी जब तक स्वयं दुख पाया हुआ व्यक्ति अपने अनुभूत दुःखके समान ही दूसरोंके दुःखको समझकर किसी को नहीं सताता है / तुम्हारे विरह में अग्नि कामपीडा से अत्यधिक सन्तप्त हो रहे हैं ] // 72 // अदाहि यस्तेन दशार्धषाणः पुरा पुरारेनयनालयेन / स निर्दहस्तं भवदक्षिवासी न वैरशुद्धरधुनाघमणः / / 3 // अदाहीति / यो दशार्धबाणः पन्चेषुः पुरा पुरारेनयनालयेन नयनाश्रयेण नेत्रा. ग्निना अदाहि दग्धः स पन्चेषुरधुना भवदनिवासी त्वन्नेत्रनिष्ठः सन् तमग्नि निर्दहन् वैरशुद्धेवैरनिर्यातनादधमणः ऋणी न अनृणोऽभूदित्यर्थः / यो यथा यस्यापकरोति स तस्य तथैव प्रतिकृत्य निर्वैरो भवतीति भावः // 73 // पहले शिवजीके जिस नेत्रस्थित अग्निने कामदेवको जलाया था, इस समय तुम्हारे नेत्रमें स्थित वही कामदेव उस (अग्नि) को अत्यन्त जलाता (तुम्हारे बिरहसे सन्तप्त करता) हुआ वैरका बदला लेनेसे ( उस अग्निका) ऋणी नहीं है [ पहल कामदेवको शिवजीके नेत्रमें स्थित अग्निने जलाया था, अब वही कामदेव तुम्हारे नेत्रमें रहता अर्थात् कटाक्षद्वारा अग्निको अत्यन्त सन्तप्त करता हुआ पुराने वैर का बदला चुका दिया है / जिस अग्निने पहले रुद्र ( शिव ) रूप पुरुषके नेत्रका आश्रय कर कामदेवको सामान्य रूपसे ही जलाया, इसकी अपेक्षा स्त्रीरूप तुम्हारे नेत्रमें स्थित कामदेव उस अग्नि को अत्यन्त (सामान्यरूपसे Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / नहीं किन्तु विशेष रूपसे ) जलाता हुआ वैरका बदला चुकानेसे अग्निकी अपेक्षा कामदेवका अधिक पुरुषार्थ प्रकट होता है / लोकमें भी ऋण लिया हुआ व्यक्ति मूल धनसे सूदके साथ अधिक धन देकर ऋणसे मुक्त हो जाता है / तथा जो किसी की थोड़ी हानि करता है वह व्यक्ति हानि करनेवाले व्यक्तिकी अत्यधिक हानिकर अपने वैरका बदला चुका लेता है / कामोद्दीपक तुम्हारे नेत्रों को देखकर अग्नि तुम्हारे विरहसे अत्यन्त सन्तप्त हो रहे हैं ] // 73 // सोमाय कुप्यमिव विप्रयुक्तः स सोममाचामति हूयमानम् / नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते / / 74 सोमायेति / विप्रयुक्तस्त्वद्वियुक्तोऽग्निः सोमाय चन्द्राय कुप्यन्निब जिघांसन्नि. वेत्यर्थः / "क्रुधदुह" इत्यादिना सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी / हूयमानं यज्ञे दीयमानं सोमं सोमरसमाचामति पिबति / तथा हि यत्र पुरुषे शत्रोर्नामापि जागर्ति प्रकाशते तं शत्रुनामधारिणं तेजस्विनः परावमानासहिष्णवः, 'अधिक्षपाद्यसहनं तेजः प्राणात्यये प्वपि'इति लक्षणात् / कतमे सहन्ते न केऽपीत्यर्थः। तेजस्विनां शत्रनामाप्य. सह्यमिति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपार्थान्तरन्यासः // 74 // विप्रयुक्त (विरहयुक्त, पक्षा०-ब्राह्मण से युक्त) वह (अग्नि) सोम (चन्द्रमा ) पर कोप करते हुएके समान, (यशोंमें) हवन किये जाते हुए सोम (सोमलता) को भक्षण करते हैं अर्थात् उसे नष्ट करते हैं / [ चन्द्रमापर क्रोधकर सोमलताको नष्ट करनेसे क्या लाम है ? यह शङ्का नहीं करनी चाहिये; क्योंकि ) जहां (जिस पुरुषमें ) शत्रुका नाम भी रहता है, उसको कौन तेजस्वी सहते हैं ? अर्थात् कोई भी तेजस्वी नहीं सहते / (तेजस्वियोंको शत्रुका नाम भी असह्य होता है अतः विरहमें अग्नि को पीड़ित करनेसे शत्रुभूत सोम अर्थात् चन्द्रमाके नामको सोम अर्थात् सोमलतामें देखकर यज्ञोंमें हवन की गयी सोमलता का अग्नि आचमन कर जाते हैं अर्थात् आचमन करनेके समान अत्यन्त सरलतासे नष्ट कर ( जला) देते हैं / चन्द्रमा भी अग्निको तुम्हारे विरहमें अत्यन्त पीड़ित कर रहा है ] / / 74 / / शरैरजनं कुसुमायुधस्य कदीमानस्तव कारणाय | अभ्यर्चयद्भिर्विनिवेद्यमानादप्येष मन्ये कुसुमाद्विभेति / / 75 / / शरैरिति / हे तरुणि ! तव कारणाय त्वदर्थे त्वत्कृते, तादयें चतुर्थी / कुसुमायुधस्य शरैः कुसुमबाणैरजस्रं कदर्यमानः पीड्यमान एषोऽग्निः अभ्यर्चयनिः पूज यद्भिविनिवेद्यमानात्समप्यमाणादपि कुसुमाद बिभेति मन्ये / उप्रेक्षा // 75 // तुम्हारे कारण ( पाठा०-हे तरुणि ! तुम्हारे लिए ) पुष्पबाण (कामदेव ) के बागों (पुष्पों ) से अत्यन्त पीड्यमान यह ( अग्नि, पाठा०-यह देव अर्थात् अग्नि ) पूजा करने वालों के द्वारा चढ़ाये गये (एक) पुष्प से भी डरता है / ऐसा मैं मानता हूं / [ पुष्पायुध काम 1. "तरुणि त्वदर्थे" इति पाठान्तरम् / 2. "एष देवः" इति पाठान्तरम् / Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 अष्टमः सर्गः। देवके पुष्पम्य बाणोंसे अग्नि इतना पीडित हो रहे हैं कि पूजामें चढ़ाये गये पुष्पको भी उसे काम-बाण समझकर भयभीत हो जाते हैं ] लोकमें भी किसीसे पीडित व्यक्ति पीड़ा देने के उद्देश्यसे नहीं आने पर भी उसे देखकर यह मुझे पीडित करनेके लिये ही आया है, ऐसा समझकर भयभीत हो जाता है ] // 75 // स्मरेन्धने वक्षसि तेन दत्ता संवतिका शैवजवल्लिचित्रा। चकास्ति' चेतोभवपावकस्य धूमाविला कीलपरम्परेव / / 76 // स्मरेन्धन इति / तेनाग्निना स्मरेन्धने कामाग्निदाटे वक्षसि दत्ता तापशा. न्तये न्यस्ता शैवलवल्लिभिश्चित्रा कर्बुरा संवर्तिका नवदलम् / 'संवर्तिका नवदलं वीजकोशो वराटकः' इत्यमरः। चेतोभवपावकस्य कामाग्ने माविला कीलपरम्परा ज्वालावलिरिव चकास्ति दीप्यते / 'वद्वयोर्खालकीलौ' इत्यमरः // 76 // उस ( अग्नि ) के द्वारा कामदेवके इन्धन ( अपनी) छातीपर रखा हुए शैवाल-लतासे चित्रित (कर्बुर) कमल कामाग्निके धूम-मलिन ज्वाला-समूहके समान शोभित होता है / [ कामदेव तुमसे विरहित अग्निके हृदयको जलाता है, अतः कामस्वरूप अग्निका इन्धन ( दाह्य पदार्थ ) अग्निका हृदय हुआ, इसके अतिशय सन्तप्त होनेसे अग्नि अपनी छातीपर शीतलताके लिये शैवालयुक्त कमल रख लिये, उनमें शैवाल तो कामरूप अग्निके धूमके समान तथा कमल पिङ्गलवर्ण ज्वालाके समान शोभते अर्थात् मालूम पड़ते हैं / तुमसे विर• हित अग्निको कामदेव अत्यन्त सन्तप्त कर रहा है ] / / 76 // पुत्री सुहृद्येन सरोरुहाणां यत्प्रेयसी चन्दनवासिता दिक् / धैर्य विभुः सोऽपि तवैव हेतोः स्मरप्रतापज्वलने जुहाव // 77 / / अथ यमस्य विरहावस्था वर्णयति-पुत्रीति / येन सरोरुहाणां सुहृत्सूर्यः पुत्री पुत्रवान् एतेनाभिजन उक्तः / चन्दनैर्मलयजैः दुमैर्वासिता सुरभिता दिक दक्षिणा यस्प्रेयसी यस्य प्रियतमा एतेन भोगसम्पत्तिरुक्ता / स विभुर्वैवस्वतोऽपि तवैव हेतो. स्त्वनिमित्तादेव / 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' इति षष्ठी। धैर्य स्मरस्य प्रतापज्वलने प्रतापानी जुहाव / परवशो वर्तत इत्यर्थः॥ 77 // ( अब (श्लोक० 77 से 79 तक ) नल यमका दूत कार्य करना आरम्भ करते हैं-) कमलों के मित्र (सूर्य) जिससे पुत्रवान् हैं तथा चन्दन (चन्दन वृक्ष, पक्षा०-चन्दनलेप) से सुवासित दिशा अर्थात् दक्षिण दिशा जिसकी परम प्रिया स्त्री हैं, सर्वसमर्थ वह ( यम ) भी तुम्हारे ही कारणसे ( अपने ) धैर्यको कामदेवके प्रतापरूपी अग्निमें जला दिये हैं। [प्रथम पादसे यमका उत्तम कुल तथा द्वितीय पादसे भोग सम्पत्तिका उल्लेख किया गया है। अतः उत्तम कुलोत्पन्न तथा भोग साधन सम्पन्न भी यम तुम्हारे लिये कामपीडित होकर अपना धैर्य छोड़ रहैं हैं / अथ च जिसके पिता (सूर्य) कमलों के मित्र हैं तथा परम प्रिया चन्दनसे 1. "रराज" इति पाठान्तरम् / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. नैषधमहाकाम्बम् / मुरमित है, वे दोनों शीतल पदार्थ (कमल तथा चन्दन) भी यमके कामज सन्तापको शान्त करनेमें असमर्थ हो रहे हैं, यह आश्चर्य है ] // 77 // तं दह्यमानैरपि मन्मथैधं हस्तैरुपास्ते मलयः प्रवालैः। कृच्छेऽप्यसौ नोज्मति तस्य सेवां सदा यदाशामवलम्बते यः // 8 // तमिति / मलयो मलयादिः मन्मथैधं कामाग्नीन्धनम् / 'काष्ठं दाविन्धनन्वेध' इत्यमरः / तं यमं दह्यमानैस्तदङ्गसङ्गात्पञ्चबाणैरपि प्रवालैः पल्लवैरेव हस्तैरुपास्ते तस्य शीतोपचारमाचरतीति भावः। युक्तञ्चैतदित्याह-यो जनः सदा यस्याशां देशम् अनुरागञ्चावलम्बते / असौ जनः कृच्छ्रे आपद्यपि तस्य सेवां नोज्झति न स्यजति / यो यदुपजीवी तस्य तत्सेवा विपत्स्वपि कुतमुचितेत्यर्थः। अर्थान्तर• न्यासः // 78 // __ मलय पर्वत कामदेवके इन्धनरूप उस ( यम ) की ( यमशरीरके अधिक जलते रहनेसे) जलते हुए भी ( अपने ) हाथरूप पल्लवोंसे सेवा करता है, जो (मलय पर्वत ) जिस (यम) की आशा ( दक्षिण दिशा, पक्षा०-भरोसा) का सर्वदा अवलम्बन करता है, वह (मलय पर्वत ) कष्ट में ( अपने हाथरूप पल्लवोंके जलते रहनेपर अथवा कामाग्निसे यमके दुःखित होनेपर ) भी उस ( यम ) की सेवाको नहीं छोड़ता है ( यह उचित ही है)। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति जिसका भरोसा रखता है या जिसके राज्यमें रहता है; उसके ऊपर कष्ट पड़नेपर स्वयं कष्ट सहता.हुआ भी उसकी सेवामें संलग्न रहता है / कामाग्निसे सन्तप्त यम अपने शरीर पर मलयाचलमें उत्पन्न पल्लवोंको शीतलता पानेके लिए रखते हैं, किन्तु वे सन्तप्त शरीरपर पड़नेसे जल जाते हैं / यम तुम्हारे लिए. अत्यन्त सन्तप्त हो रहे हैं ] // 78 // स्मरस्य कीत्येव सितीकृतानि तहोःप्रतापरिव तापितानि | अङ्गानि धत्ते स भवद्वियोगात् पाण्डुनि चण्डञ्चरजर्जराणि / / 76 / / स्मरस्येति / स यमो भवद्वियोगात्पाण्डनि चण्डेन तीव्रण उवरेण जजेराणि अत एव क्रमात् स्मरस्य कीा सितीकृतानि धवलीकृतानीव तस्य स्मरस्य दोःप्रतापैस्तापितानीव स्थितानीत्युभयत्राप्युत्प्रेक्षा / अङ्गानि धत्ते / अत्र यथास. खयोस्प्रेक्षयोः सङ्करः // 79 // वे यम तुम्हारे वियोगके कारणसे पाण्डुवर्ण तथा तीव्र ज्वरसे जर्जरित (अतएव क्रमशः) मानों कामदेवकी कीर्तिसे श्वेत किये गए तथा उस कामदेवके बाहु-प्रतापसे सन्तप्त शरीरों को धारण करते हैं / [ विरहियों के शरीरका पाण्डुवर्ण तथा जर्जरित होना प्रसिद्ध है, अत एव यमके भी शरीर के जर्जरित होनेमें कविने उत्प्रेक्षा की है कि यमके शरीर कामदेव की कीर्तिसे पाण्डु तथा बाहु-प्रतापसे जर्जरित हो गये हैं / श्वेत कीतिसे शरीरका श्वेत ('पाण्डु ) होना तथा प्रतापसे जर्जरित होना उचित ही है ] // 79 // . यस्तन्वि ! भर्ता घुमृणेन सायं दिशः समालम्भनकौतुकिन्याः। तदा सचेतः प्रजिघाय तुभ्यं यदा गतो नैति निवृत्य पान्थः / / 80 // Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टमः सर्गः। 151 अथ वरुणस्य विरहं वर्णपति-य इत्यादि / हे तन्वि! कृशामि! यो देवः सायं घुष्णेन कुमेन समालम्भने अनुलेपने कौतुकिन्याः कुतूहलवत्याः आतपारुण्यात् कुङ्कुमलिप्तवद्भासमानाया इत्यर्थः / दिशः प्रतीच्या भर्ता प्रातः प्राच्या अपि तथा• स्वात्तद्वयावृत्यर्थ स्वयं ग्रहणम् / स वरुणः तदा तस्मिन् काले तुभ्योतः प्रजिघाय प्रहितवान् / "हे स्वडि" इति कुत्वम् / यदा यस्मिन् काले गतःप्रयातः नित्यं पन्यानं गच्छतीति पान्थो निवृत्य नैति नायाति अपुनरावृत्तिलिबान्ननं चित्रास्वात्योः प्रहितवानित्युत्प्रेक्षा / “नन्दन्ति न निवर्तन्ते चित्रास्वात्योर्गता नरः" इति वच. नात् / अत एवात्र कवेः पान्थशब्दप्रयोगः “पथो ण नित्यम्" इति नित्याध्वगमने पथिन् शब्दात् णप्रत्ययपान्थादेशयोविधानात् / अत एव "नित्यग्रहणं प्रत्ययार्थ. विशेषणम्" इति काशिकायाम् / तश्चित्तं त्वय्येव सानन्दं विहरति न निवर्तत इति तात्पर्यम् // 80 // (अब ( श्लो० 80 से 83 तक ) नल वरुणके दूतकार्यको आरम्भ करते हैं-) हे तन्धि ! जो (वरुण ) सायङ्कालमें कुङ्कुमसे शरीर-लेपन करने वाली दिशा ( पश्चिम दिशा) के स्वामी हैं, वे ( वरुण ) भी तुम्हारे लिए मनको तब भेज दिये हैं, जब ( से लेकर अब तक ) गया हुआ वह पथिक अर्थात् वरुण का मन लौट कर नहीं आता है। [स्त्री पतिके साथ सम्भोग करनेकी इच्छासे सायङ्कालमें अपने शरीरमें जिस प्रकार कुङ्कुम आदिका लेप करती है उसी प्रकार अपने पति वरुणके साथ सम्भोग को चाहने वाली पश्चिम दिशा सायकालमें रक्तवर्ण हो जाती है, ऐसी उस पश्चिम दिशाके स्वामी वरुणने अपने मनको तुममें इस समय तक आसक्त कर रखा है कि तुमसे उसका मन अभी तक विमुख नहीं हुआ है। वरुण भी तुम्हें चाह रहे हैं ] / / 80 // तथा न तापाय पयोनिधीनामश्वामुखोत्थः क्षुधितः शिखावान् / निजः पतिः संप्रति वारिपोऽपि यथा हृदिस्थः स्मरतापदुःस्थः // 21 // तथेति / तथा चुधितः बुभुक्षितः / “वसतिधोः" इति निष्ठायामिडागमः / अश्वामुखोत्थः शिखावान वडवाग्निः पयोनिधीनां तापाय न भवति यथासौ स्मरदाहेन दुःखं तिष्ठतीति दुःस्थोऽस्वस्थो निजः पतिवरुणः हृदि तिष्ठतीति हृदिस्थः स्मर्यमाण एव वारीणि पातीति वारिपो वारिरक्षकोऽपि सन् तापाय भवति तथा साक्षात्कुक्षिस्थोऽपि वडवाग्निर्न तापयतीत्यर्थः। ईदृक्तापासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 81 // __कामसन्तापसे अस्वस्थ जल रक्षक भी हृदयस्थ ( स्मरणीय, पक्षा०-बीचमें स्थित ) अपना पति ( वरुण ) समुद्रोंको जैसे सन्तापकारक हो रहा है, वैसा ( हृदयस्थ, पक्षा०बीचमें स्थित एवं जल-रक्षक) वडवामुखसे उत्पन्न भूखा अग्नि अर्थात् क्षुधात वडवाग्नि मी समुद्रोंको सन्तापकारक नहीं होता है / [ वरुण तथा वडवाग्नि-इन दोनों के जल-रक्षकत्व तथा हृदिस्थत्वके समान होने पर भी समुद्रोंको वडवाग्नि वैसा सन्तप्त नहीं करता, जैसा कामसन्तप्त वरुण सन्तप्त करता है / समुद्रों के बीचमें वडवाग्नि रहता है / और जलाधीश होने Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 नैषधमहाकाव्यम् / से वरुण भी उनके हृदयमें निवास करते हैं, उनमें वडवाग्निके द्वारा समुद्रोंको उतना सन्ताप नहीं होता, जितना कमसन्तप्त वरुणके द्वारा होता है, अतः बडवाग्निकी अपेक्षा विरहाग्नि ही अधिक दाहक है / लोकमें मी सज्जन दास दु.खित या शोकसन्तप्त स्वामीको देखकर अधिक दु:खित या सन्तप्त होते हैं ] / / 81 // यत्प्रत्युत त्वन्मृदुषाहुवल्लीस्मृतिस्रजं गुम्फति दुर्विनीता | ततो विधत्तेऽधिकमेव तापं तेन श्रिता शैत्यगुणा मृणाली // 2 // यदिति / तेन वरुणेन श्रिता सन्तापशान्तये सेविता शैत्यमेव गुणो यस्याः सा शैत्यगुणा शीतलैकस्वभावेत्यर्थः / तथापि दुर्विनीता प्रतिकूलचारिणी मृणाली बालमृणालम् / अरूपत्वविवक्षायां स्त्रीलिङ्गता / 'स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविवक्षापचये यदि' इत्यमरः / “जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्" इति डीए / यद्यस्मात्तव मृदुवाहू वल्ल्याविव तयोः स्मृतीनां नजं मालां गुम्फति रचयति अजस्रं स्मारयतीत्यर्थः / ततस्त्वद्वाहुस्मारकत्वाद्धेतोः प्रत्युत वैपरीत्येन / प्रत्युत्तेत्युक्तवपरीत्य इति गणव्या. ख्यानम्। अधिकं तापमेव विधत्ते वितन्यते एतेनास्य ज्वरावस्थोक्ता। अत्र मृणाल्याः कविसम्मतसादृश्यावाहुवल्लीस्मारकत्वोक्तेः स्मरणालङ्कारः। तदुपजीवनेन तस्यास्तापशान्तिहेतोस्तद्विपरीततापकार्योत्पत्तिकथनाद्विरुद्धकार्योत्पत्तिलक्षणो विषमा. लङ्कारभेद इत्यनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 82 // ___ उस वरुणके द्वारा धारण की गयी शीतल गुणवाली (फिर भी सन्ताप करनेसे) दुविनीत अर्थात् दुष्टस्वभाववाली मृणाली जिस कारण तुम्हारे बाहुलताके स्मरण-मालाको गूथती है अर्थात् तुम्हारे बाहुलताके स्मरणोंको दिलाती है, अतएव वह अधिक सन्तापको देती है। [ लोकमें भी लाभके लिए रखा गया दुर्जन लाभकी जगह हानि ही करता है / तापशान्तिके लिये धारण की हुई मृणाललता समान सादृश्य होनेसे तुम्हारी बाहुवल्लीका स्मरण कराकर वरुणके सन्तापको घटानेकी अपेक्षा बढ़ाती ही है ] // 82 // न्यस्तं ततस्तेन मृणालदण्डखण्डं बभासे हृदि तापभाजि / तच्चित्तमग्नर्मदनस्य बाणैः कृतं शच्छिद्रामव क्षणेन / / 83 // न्यस्तमिति / ततस्तदनन्तरमपि तेन वरुणेन तापभाजि हृदये न्यस्तं मृणालदण्डस्य बिसकाण्डस्य खण्डं शकलं तस्य वरुणस्य चित्ते मग्नमदनस्य वाणेः क्षणेन शतं छिद्राणि यस्य तत्तथा कृतमिव प्रतिकूलाचरणरोषाच्छतधाप्रणीतमिव बभासे। उत्प्रेक्षा॥८३॥ __ सन्तापयुक्त हृदयमें (छातीपर) उस ( वरुण ) के द्वारा रखा गया मृणालदण्डका टुकड़ा उस ( वरुण ) के चित्तमें धसे हुए काम-वाणोंसे मानों तत्काल किये गये सैकडों छिद्रोंसे युक्त किये गयेके समान शोभित होता है। [ स्वभावतः सच्छिद्र कमल नाल-खण्ड वरुणके मनमें निमग्न कामबाणोंसे छिद्रयुक्त किया गया-सा ज्ञात होता है / तुम्हारे विरहसे वरुण काम-बाणोंसे जर्जरित हो रहे हैं ] // 83 // Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्ग: इति त्रिलोकीतिलकेषु तेषु मनोभुवो विक्रमकामचारः। अमोघमख् भवतीमवाप्य मदान्धतानर्गलचापलस्य / / 81 // इतीति / हे भैमि ! भवतीमेवामोघमस्त्रमवाप्य मदान्धतया अनर्गलचापलस्य उच्छङ्खलचेष्टितस्य मनोभुवः कामस्य त्रिलोकीतिलकेषु त्रिभुवनभूषणेषु तेविन्द्रादिषु विषये इतीत्थं विक्रमस्य कामचारः स्वाच्छन्ग्रवृत्तिर्वर्तत इति शेषः / __तीनों लोकके भूषणरूप उन ( इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण ) में तुम अमोघ अस्त्रको प्राप्तकर ( स्थित ) मदान्धतासे निर्बाध चपलतावाले कामदेवके इस प्रकार ( श्लोक० 58 से 83 तक वणित क्रमसे ) पराक्रम की स्वेच्छाचारिता हो रही है / [ लोकमें भी अन्य कोई मदान्ध व्यक्ति सफल अस्त्र पाकर तथा चपलताके वशीभूत होकर निर्वाध रूपसे श्रेष्ठ लोगों में भी अपना दुर्व्यवहार करने लगता है, और मदान्ध होनेसे चञ्चल व्यक्तिका बड़े लोगोंमें उचितानुचितकी विचार छोड़कर दुर्व्यवहार करना कोई आश्चर्य नहीं है; अथ च-मदान्ध होनेसे चपल हाथीका श्रेष्ठ लोगों में भी अपना पराक्रमका स्वच्छन्द प्रयोग करना आश्चर्य नहीं है / मदान्ध कामदेव तुमको साधन बनाकर त्रैलोक्य श्रेष्ठ इन्द्रादिको निरन्तर पीड़ित कर रहा है ] // 84 // सारोऽथ धारेव सुधारसस्य स्वयंवरः श्वो भविता तवेति / सन्तर्पयन्ती दमयन्ति / तेषां अतिः श्रुती नाकजुषामयासीत् / / 8 / / सार इति / अथानन्तरसमये हे दमयन्ति ! तव स्वयंवरः श्वः परेऽह्नि भविता भविष्यतीति श्रुतिर्वार्ता / 'श्रुतिः श्रोत्रेप्यथाम्नाये वार्तायां श्रोत्रकर्मणि' इति विश्वः / सुधारसस्य सारः सारभूता धारेव सन्तर्पयन्ती नाकजुषामिन्द्रादीनां श्रुती श्रोत्रे अयासीत् प्राप / “सारोत्थे"ति पाठे सारप्रभवेत्यर्थः // 85 // __ हे दमयन्ति ! 'तुम्हारा स्वयम्वर कल होगा' यह बात अमृत रसके सारभूत (पाठा०सारोत्पन्न ) धाराके समान सन्तृप्त करती हुई उन स्वर्गनिवासियों (इन्द्रादि देवों) के दोनों कानोंमें पहुँचती है अर्थात् इन्द्रादि देवोंने तुम्हारे स्वयम्बर के समाचारको बड़े आनन्दके साथ सुना है // 85 // समं सपत्नीभवदुःखतीक्ष्णैः स्वदारनासापथिकैर्मरुद्भिः। अनङ्गशौयोनलतापदुःस्थैरथ प्रतस्थे हरितां मरुद्भिः // 86 // सममिति / अथ स्वयंवरवार्ताश्रवणानन्तरमनङ्गस्य शौर्यानलेन प्रतापाग्निना यस्तापस्तेन दुःस्थैरस्वस्थैर्हरितां दिशां सम्बन्धिभिर्मरुद्भिर्देवैरिन्द्रादिभिः स्वस्वामिभावसम्बन्धे षष्ठीसमासः / समानः पतिर्यस्याः सासपत्नी / “नित्यं सपत्न्यादिषु" इति लोप नकारश्च / तद्भवेन दुःखेन तीक्ष्णैःसहैः स्वदाराणां नासासु पन्थानं गच्छं. न्तीति पथिकैः पान्थैर्मरुद्भिः समं वायुभिः सह 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः / प्रतस्थे प्रस्थित भावे लिट् / शच्यादिभिरिन्द्रादिकलत्रैरागामिसापत्न्यदुःखादीर्घमुष्णन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / निःश्वसितमित्यर्थः / अत पवनामरप्रस्थानयोः कार्यकारणभावात्तदङ्गलपणातिशयोक्युस्थापितः सहोक्त्यलंकारः / “सहार्थेनान्वयो यत्र भवेदतिशयोजितः / कल्पितो. पम्यपर्यन्ता सा सहोक्तिरिहोच्यते // " इति लक्षणात् // 86 // इस ( स्वयम्बर-समाचार सुनने ) के बाद कामदेवके प्रतापाग्निरूप सन्तापसे पीड़ित दिक्पाल (इन्द्रादि), सपत्नीजन्य दुःखसे तीव्र ( तेज और उष्ण, पक्षा०-असम) अपनी ( अपनी ) सियोंके नासामागंगामी वायुओंके साथ चल दिये। [ तुम्हारे स्वयंवरके समा. चारते जब इन्द्रादि देव चलने लगे तब उनकी खिोंने हमारी सपत्नी ( सौत ) लाने के लिये ये हमारे पति जा रहे हैं, इस दुःखसे नालके रास्ते लम्बा-लम्बा निःश्वास छोड़ा। स्व-स्व-पत्नियोंके उष्ण तथा तीव्र निःश्वास वायुके साथ गमन करनेसे कविने उनके ( दमयन्ती लाभरूप ) कार्यको सिद्धि में अशकुन होना सूचित किया है / लोकमें भी आनेके समय में छींक होनेसे जनताको अनिष्ट होता है / ] / / 86 // अपास्तपाथेयसुधोपयोगैस्त्वच्चुम्बिनैवे स्वमनोरथेन / क्षुधश्च निर्यापयता तृषाच स्वादीयसाध्वा गमितः सुखं तैः / / 7 / / अथास्तेति / पथि साधु पाथेयम् / 'पाथेयं संवलं स्मृतम्' इति यादवः / “पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ड" / तचासौ सुधा च तस्या उपयोगोऽपास्तो यैरिन्द्रादिभिः चुधं बुभुक्षां तर्ष तृष्णां पिपासां निर्वापयता शमयता स्वादीयसा अमृतादपि स्वादु. तरेण स्वच्चुम्बिना भवद्वोचरेण स्वयं मनोरथेनैवावा सुखं गमितो नीतः, अमृत. मप्युत्सृज्य स्वद्धयानमात्रसम्बन्धाः प्राप्ता इत्यर्थः // 87 // ___ पाथेय ( रास्तेका कलेवा) रूप अमृतका उपयोग ( पाठा०-उपभोग ) नहीं किये हुये उन (इन्द्रादि देवों ने ) भूख और प्यासको दूर करते हुए तथा ( अमृतसे भी) अधिक स्वादिष्ठ त्वद्विषयक मनोरथ ( तुम्हें पानेकी आशा, पक्षा०-मनरूपी रय ) से ही ( पाठा०मानो मनोरथसे अर्थात् दमयन्तीको प्राप्तकर इस-इस प्रकार रमण करेंगे, इत्यादि कल्पना से ) मार्गको सुखपूर्वक (पूरा) तय कर लिया है / [भूख-प्यासकी शान्ति के लिये पथिक मार्गका पाथेय लेकर चलता है, किन्तु इन्द्रादि देवोंने अमृतरूप उत्तम पाथेयका भी उपयोग नहीं किया ( उसे साथमें भी नहीं लाये); क्योंकि त्वद्विषयक मनोरथसे ही उन्हें भूख-प्यासने नहीं सताया, अतएव उनका मार्ग सुखपूर्वका पूरा हो गया। 'मनोरथ' शब्दके प्रयोगसे वे इन्द्रादि देव तुम्हारे लिये मनके समान अतितीव्रगामी रथसे आये अर्थात् अत्यन्त शीघ्र यहां पहुंचे। मनके समान रथका तीव्रवेग होनेसे मार्गमें उनका समय बहुत कम लगा, इस कारण मी वे इन्द्रादि मार्गमें भूख-प्याससे पीड़ित नहीं हुए तथा अमृत-जसे श्रेष्ठ पाथेयका भी उपयोग नहीं किया / अन्य भी पथिक तीव्र वेगसे चलनेवाली सवारीके द्वारा अपने अभीष्ट स्थानको सुखपूर्वक शीघ्र पहुँच जाता है तथा रास्तेमें बहुत समय नहीं 1. "सुधोपभोगैः” इति ततोऽग्रे "त्वच्चुम्बिनेव" इति च पाठान्तरम् / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 455 लगनेसे भूख-प्याससे व्याकुल नहीं होनेके कारण पाथेयका भी उपभोग नहीं करता ) // 87 // प्रिया मनोभूशरदावदाहे देवीस्त्वदर्थेन निमजद्भिः / सुरेषु सारैः क्रियतेऽधुना तैः पादार्पणानुग्रहभूरियं भूः // 88 / / प्रिया इति / त्वमेवार्थः प्रयोजनं तेन निमित्तेन प्रिया दयिताः देवीः शच्यादि. दाराः मनोभुवः कामस्य शरा एव दावो दावाग्निस्तस्य दाहे विरहानले निमजयनिः सद्भिः सुरेषु सारैःश्रेष्ठरिन्द्रादिभिरधुना इयं भूर्विदर्भदेशः पादार्पणमेवानुग्रहस्तस्य भूः स्थानं क्रियते / कुण्डिनोपकण्ठ एव तिष्ठन्तीत्यर्थः // 88 // __ तुम्हारे लिये प्रिय देवियो ( या देवी अर्थात् सती प्रियाओं ) को काम-बाणरूप दावानलके दाहमें मग्न करते अर्थात् विरहके कामबाणाग्नि से पीडित करते हुए, देवोंमें प्रधान वे ( इन्द्रादि ) इस समय इस ( कुण्डिनपुरीकी) भूमिको चरणके अर्पणरूप अनुग्र: इका स्थान बना रहे हैं [ जो देव पृथ्वी पर कभी नहीं चरण रखते थे, वे देवश्रेष्ठ इन्द्रादि तुम्हारे लिये इस भूमि पर पधारे हुए हैं और उनकी प्रिया देवाङ्गनाएँ विरह पीडित हो रही हैं ] // 88 // अलस्कृतासममहीविभागैरयं जनस्तैरमरैर्भवत्याम् / अवापितो जङ्गमलेख्यलक्ष्मी निक्षिप्य सन्देशमयाक्षराणि / / 86 // अलङ्कृतेति / अलङकृत आसन्नमहीविभागो भूप्रदेशो यैस्तैः समीपं गतेस्तैर. मरैरयं जनः स्वयमित्यर्थः। भवत्यां विषये स्वां प्रतीत्यर्थः। सन्देशमयाक्षराणि सन्देशरूपाणि वाक्यानि निक्षिप्य अर्पयित्वा जङ्गमलेख्यस्य चललेख्यस्य लक्ष्मीमा वापितः तेषामहं सन्देशहर इत्यर्थः // 89 // (इस कुण्डिनपुरोकी ) समीपस्थ भूमि के हिस्सेको सुशोभित किये हुये अर्थात् कुण्डिनपुरीके पासमें ठहरे हुए उन इन्द्रादि देवोंने एस आदमीको अर्थात् मुझे तुममें अर्थाद तुम्हारे लिये सन्देशमय अक्षरोंको रख ( या लिख ) कर चल लेखकी शोभा को प्राप्त कराया हैं / अर्थात् तुम्हारे लिये अपना सन्देश मुझे सुनाकर जङ्गम (चलनेबाला) लेख बनाया है। [ कुण्डिनपुरीके पासमें ही ठहरे हुए इन्द्रादिने तुम्हारे लिये अपना मौखिक सन्देश मेरे द्वारा भेजा है ] / 89 // एकैकमेते परिरभ्य पीनस्तनोपपीडं त्वयि सन्दिशन्ति | त्वं मूच्छतानः स्मरभिल्लशल्यैर्मुदे विशल्यौषधितिरेधि / / 90 // एकैकमिति / एते देवाः एकैकं प्रत्येकमेवेत्यर्थः / वीप्सायां द्विरुक्तिः / “एक बहुवीहिवदि"ति बहुव्रीहिवद्रावास्सुलोपः क्रियाविशेषणं चैतत् / अन्यथैकत्वनपुंसकत्वानुपपत्तेः / केचित्पुस्तकेषु 'प्रत्येकमित्येव पाटः। पीनस्तनयोरुपपीड्य पीनस्तनोपपीडं "सप्तम्यां चोपपीटरुधकर्षः" इति णमुल्प्रत्ययः। परिरभ्यालिङग्य सन्दिशन्ति 1. "-लेख-" इति पाठान्तरम् / 2. "प्रत्येकमेते" इति पाठान्तरम् / 21 0 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 नेषधमहाकाव्यम् / वाचिकं कथयन्ति / किमिति-स्मर एवं भिल्लोऽन्त्यजभेदः / 'मूलाश्लेषादयो भिल्ला कथ्यन्ते छन्त्यजातयः' इति हलायुधः / तस्य शल्यैः शरैर्मूर्च्छतां मुह्यतां नोऽस्माकं मुदे त्वं विशल्या उद्धृतशल्या च सा औषधिर्वल्ली विशल्यकरणी लता / एधि भव अस्तेर्लोपमध्यमकवचनं "ध्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च" इत्येकारः / “हुझल्भ्यो हेर्षिः(१)" "धि च" इति सकारलोपः // 90 // ये (इन्द्रादि चारों देव ) एक-एक ( पाठा०-प्रत्येक ) बड़े-बड़े स्तनोंको उपपीडित करते हुए आलिङ्गनकर तुम्हारे विषयमें अर्थात् तुमको सन्देश भेजे हैं कि-तुम कामदेवरूप भील (मारनेवाला व्याधा ) के बाणोंसे मूच्छित होते हुए हमलोगोंको विशल्य (बागरहित करनेवाली ) नामक औषधि-लता बनो / अर्थात् हम लोगोंको वरणकर हमलोगोंकी कामपीडा दूर करो // 90 // त्वकान्तिमस्माभिरयं पिपासन मनोरथाश्वासनय कयैव / निजः कटाक्षः खलु विप्रलभ्यः कियन्ति यावद्भण गसराणि // 91 / / अथ षोडशभिः श्लोकः सन्देशमेवाह-वदित्यादि / हे भैमि ! त्वत्कान्ति स्वबा. वण्यामृतं पिपासन् पातुमिच्छन् , पिबतेः सनन्ताबाटः शत्रादेशः / अयं निजोऽस्मदीयः कटाक्षोऽस्माभिः कियन्ति वासराणि यावत् कियदिनपर्यन्तमित्यर्थः। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, अवधौ यावच्छब्दः / एकया मनोरथेन मनोरथप्राप्या या आचा. सना तयैव अयं ते मनोरथ इदानीमेव प्राप्स्यत इत्येवमुपसान्त्वनयैव विप्रलभ्यः प्रतार्यः खलु ? भण पथिकैस्तृषित इवेति भावः / अलं कालयापनया, दिवो वयमनुकम्पनीया इति तात्पर्यार्थः // 91 // ___ तुम्हारे सौन्दर्यको पीनेकी इच्छा करनेवाले इस अपने कटाक्षको हमलोग कितने दिनोंतक केवल एक ही मनोरथके आश्वासन (तुम्हें प्रिया दमयन्ती अवश्य प्राप्त होगी, ऐसी सान्त्वना ) से वश्चित करते रहेंगे ? यह निश्चितरूपसे कहो / [जिस प्रकार मार्गमें चलते-चलते प्यासे हुए बच्चेको 'थोड़ी दूर चलनेपर शीघ्र ही पानी मिलेगा' इस प्रकार सान्त्वना देकर कुछ समयतक ही उसे वञ्चित किया जा सकता है, कई अर्थात् अनेक दिनोंतक नहों, उसी प्रकार हमलोगों का कटाक्ष अर्थात् दृष्टि तुम्हारे सौन्दर्यको प्यासी है, उसे तुम्हारे प्राप्तिरूप मनोरथपूर्णताके आश्वासनसे हमलोग कितने दिनोंतक वञ्चित करते रहेंगे ? यह निश्चित कहो, क्योंकि बहुत दिनोंतक उसे एक ही आश्वासनसे वञ्चित करते रहना हमलोगोंके लिए अशक्य है / अतः तुम शीघ्र हमलोगों को स्वीकृत करो ] // 91 // . (१)चिस्यमिदम् "धि च" इति सकारलोपानवकाशात् / अत्र हि वसोरे. बावभ्यासलापश्चति एरवे तस्याभीयतयाऽसिद्धस्वेन हेादेशे "श्नसोरखोप" इति भलोपे 'एधि' इत्यस्य सिद्धत्वादिति बोध्यम् / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 अष्टमः सर्गः। 'निजे सृजास्मासु भुजे भजन्त्यावादित्यवर्गे परिवेषवेषम् / 'प्रसोद निर्वापय तापमङ्गैरनङ्गलोलालहरीतुषारैः // 12. निज इति / हे भैमि ! निजे स्वीये भुजे बाहू आदित्यवर्ग सुरवर्गे सूर्यवर्ग चास्मासु परिवेषस्य वेष्टनस्य सूर्यपरिधेश्च वेषमाकारं भजन्त्यो सृज कुरु / मालिने स्यर्थः / 'परिवेषो रवेः पार्श्वमण्डले वेष्टने तथा' इत्यजपालः। प्रसीद प्रसन्ना भव अनअलीलालहरीभिर्मदनविहारोर्मिभिः तुषारैः शीतलैरङ्गैस्तापं निर्वापय शमय // 12 // तुम अपना भुजाओंको आदित्य समूह (देव-समूह, पक्षा०-सूर्य-समूह) हमलोगोंमे परिवेष (वेष्टन, पक्षा०—सूर्यमण्डलका घेरा) को शोभावाली बनाओ। (पाठा०-यदि हमलोगोंपर तुम्हारी कृपा है तो आवो, शीघ्र अङ्कपाली (कण्ठमें बाहुको वेष्टितकर आलिङ्गन ) को दो) प्रसन्न होवो, (पाठा०-हे सुन्दर अङ्गोंवालो) काम-लीलाकी तरङ्गोंसे शीतल ( अपने ) अङ्गोंसे (हमलोंगोके कामजन्य ) सन्ताप जो ठण्डा करो। [ सूर्य-समूहमें परिवेषका होना, तथा तरङ्गोंकी शीतलतासे सन्तापका शान्त होना उचित ही है / सकाम तुम्हारे शरीर-स्पर्शसे हमलोगोंका सन्ताप दूर हो जायेगा, अतः अविलम्ब प्रसन्न होकर हमलोगोंका आलिङ्गन करो] / / 92 // दयस्व नो घातय नैवमस्माननङ्गचाण्डालशरैरदृश्यैः / / भिन्ना वरं तीक्ष्णकटाक्षबाणैः प्रेमस्तव प्रेमरसात्पवित्रैः / / 93 / / दयस्वेति / हे भैमि ! नोऽस्माकं दयस्व अस्माननुकम्पस्वेत्यर्थः / “अधीगर्थद. येशां कर्मणि" इति षष्ठी / अदृश्यैरलक्ष्यैरनङ्ग एव चाण्डालस्तस्य शरैरेवमस्मान् न घातय न मारय / किन्तु प्रेमैव रसोऽनुरागो जलं च तस्मात्पवित्रैः शुद्धस्तव तीक्ष्णैः कटारेव बाणैर्भिन्ना विदारिताः सन्तःप्रेमः म्रियामहे / प्रपूर्वादिणो लहुत्तमबहुवच. नम् / वरं मनाक प्रियम् / जीवनासम्भवे वरं चाण्डालहस्तमरणात्तीर्थमरणमिति भावः॥ 93 // (तुम ) दया करो, अनङ्ग ( काम, पक्षा०-शरीरहीन होनेसे अदृश्य (रूप चाण्डालके अदृश्य बार्णोसे हमलोगोंको मत मरवावो / तुम्हारे प्रेमरस ( पक्षा०-जल) से पवित्र ( पूर्ण, पक्षा०-शुद्ध ) तीक्ष्ण कटाक्षरूप बाणोंसे विदीर्ण हमलोग भले ही (या अच्छी तरह ) प्रसन्न होंगे। [ चाण्डालके अपवित्र बाणोंसे मरनेकी अपेक्षा जलके द्वारा धोनेसे पवित्र तीक्ष्ण बागेसे मरजाना हमलोग अच्छा मानते हैं / तुम्हारे विरहमें हमलोग अदृश्य काम-बाणोंसे आहत हो रहे हैं, अतः वैसा न करके तुम स्वयं ही प्रत्यक्षमें आकर प्रेमपूर्ण तीक्ष्ण कटाोंसे हमलोगों पर प्रहार करो, उस सानुराग तीक्ष्ण कटाक्षप्रहारसे हमलोग (मरकर) बहुत प्रसन्न होंगे। लोकमें भी किसीसे प्रेरित 1. "अनुग्रहोऽस्मासु यदि त्वदीयस्तदेहि देहि द्रुतमकपालीम्" इति पादयस्थाने कचित्पाठः / 2. "तन्वति" इति पाठान्तरम् / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 नैषधमहाकाव्यम् / चण्डालके अदृश्य बाणोंसे पीडित होनेवाला व्यक्ति उसकी अपेक्षा प्रत्यक्षमें आये हुए उस प्रेरक व्यक्तिके तीक्ष्ण बाणोंसे मर जाना उत्तम मानता है ] // 93 // स्वदथिनः सन्तु परस्सहस्राः प्राणास्तु नस्त्वचरणप्रसादः। विशङ्कसे कैतवनतितकचेदन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् // 14 // त्वदिति / हे भैमि ! स्वामर्थयन्त इति त्वदर्थिनः त्वत्कामुकाः सहस्रात् परे परस्सहस्राः सहस्राधिकसङ्ख्याका इत्यर्थः / 'परश्शताधास्ते येषां परा सङ्घया शता. धिका' इत्यमरः / पञ्चमीति योगविभागात् समासः, राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य सहस्रशब्दस्य परनिपातः। पारस्करादित्वात् सुडागमः / सन्तु, नोऽस्माकं प्राणास्तु त्वचरणयोः प्रसादोऽनुग्रहः वयं त्वदेकायत्तजीविता इत्यर्थः। अथ कैतवनतितं कपटनाटकं विशङ्कसे चेत् अन्तश्चरो हृदयान्तर्वर्ती पञ्चशरः प्रमाणम्, काम एवात्र माक्षी। स हि महती देवतेति भावः // 94 // सहस्रोंसे अधिक लोग तुम्हें चाहनेवाले ( भले ही) हों, किन्तु हमलो के प्राण तुम्हारे चरणोंके प्रसाद हैं ( तुम्हारे चरणों के प्रसन्न होनेपर ही हमलोग जीवित रह सकते हैं, अन्यथा नहीं); यदि तुम (हमलोगोंके इस कथनमें) कपटभाषण की आशङ्का करती हो तो ( इस विषयमें हमलोगों के भीतर स्थित ) कामदेव ही प्रमाण अर्थात् साक्षी है / [ भीतर तक घूमनेवाला तथा देवरूप होनेसे कामदेव ही हमलोगोंकी वातकी सत्यरूपमें प्रमाणित करेगा, अतः ऐसे प्रामाणिक साक्षीके रहते तुमको हमलोगोंकी बातमें आशङ्का नहीं करनी चाहिये / तुम्हारे बिना हमलोग नहीं जीवेंगे, अतः कृपाकर हमलोगोंको वरण करो] // 94 // [ 'नास्माकमस्मान्मदनापमृत्योस्राणाय पीयूषरसायनानि | सुधारसादभ्यधिकं प्रयच्छ प्रसीद वैदभि ! निजाधरं नः॥१॥] अस्माकमिति / हे वैदर्भि दमयन्ति ! मदनः कामो धत्तरो वा स एव अपमृत्युः रकालमरणं तस्मात्त्राणाय रक्षणाय पीयूषममृतमेव रसायनानि रसायनभेषजानि न समर्थानीति शेषः / अस्माकमि'त्यस्य मदनापमृत्युना त्राणेन पीयूषरसायनेर्वाऽपि सम्बन्धो यथेष्टं कार्यः। ततो हेतोः प्रसीद अस्मासु प्रसन्ना भव / कीदृशी प्रसन्नतेत्या. ह-सुधेति / सुधाऽमृतमेव रसो रसायनौषधं माधुर्यादिषड्सा वा तस्मादभ्यधिक मतिशयितमपमृत्युवारणे आस्वादने वेत्यर्थः / निजाधरं स्वाधरं प्रयच्छ देहि, पाना. येति शेषः / अत्र 'प्रसीद' पदोपादानाद्देवानामतिशयितं दीनवचनमिति सूच्यते / 1. अयं श्लोको वक्ष्यमाण (1104) श्लोकार्थक एवं म० म० शिवदत्तशर्ममिष्टिप्पण्यां क्वाचिकत्वेनोल्लिखित इति मयाऽप्यसौ देव-राष्ट्र-वाण्योः क्रमशो व्याख्यातोऽनूदितश्चेति बोध्यम् / परंतैः "अस्माक'....” इति पाठ उल्लिखितोऽपि न यथार्थसङ्गतिक इति मया तत्र "नास्माक'....." इति पाठः परिवर्तितः। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 459 अन्योऽपि अपमृत्युभीतो मानवो रसायनौषधसेवनापि त्राणमलभमानस्तस्मादुत्तमं रसायनं सेवित्वा प्राणरक्षणं कामयते / स्त्रीणामधरेऽमृतस्थितिः “केचिद्वदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणां केचिद्वदन्ति वनिताऽधरपल्लवेषु।" इति कविजनोक्त्या प्रसिद्धव / नित्यं सेव्यमानस्य महागुणस्यापि भेषजादेर्गुणास्तत्सेविनः पुरुषस्य सात्म्यं प्रतिपद्य न तथा रोगप्रशमनार्थ शक्ता भवन्ति यथा नवीनभेषजमित्यतोऽपि नित्यसेव्यमान. स्वलॊकस्थामृतापेक्षया दमयन्त्यधरस्थामृतभेषजयाचनं देवानां नासङ्गतमित्यवधेयम् // हे दमयन्ति ! इस मदन ( कामदेव ) रूप अपमृत्यु ( अकालमृत्यु या दुर्गतिपूर्वक मृत्यु ) से बचाने के लिये हमलोगोंका अमृतरूपी रसायन औषध नहीं समर्थ है ( अतः) प्रसन्न होवों, अमृतरूपी रस (रसायन औषध, पक्षा०-षड्स भोजन ) से भी अधिक ( अपमृत्युनाशक होनेसे अथवा माधुर्यातिशययुक्त होनेसे श्रेष्ठ ) अपना अधर ( हमलोगोंको पान करनेके लिये ) दो। [ 'प्रसीद' पदके कहनेसे अपमृत्युसे भयभीत देवोंकी अतिदीनता सूचित होती है / जिस प्रकार लोकमें भी जब कोई व्यक्ति रसायन औषधोंके सेवन करनेसे स्वास्थ्यलाभ नहीं करता तो उन रसायनोंको त्यागकर उनसे अधिक गुणकारी रसायनको किसी दूसरेसे आर्त होकर माँगता है, उसी प्रकार दमयन्तीके बिरहसे कामपीड़ित देवोंका अमृतसेवनसे अपनी पीड़ा शान्त होती हुई न देखकर दमयन्तीसे कामपीड़ा-शामक अधरामृतकी याचना करना उचित ही है / तथा यह भी देखा जाता है कि जिस औषधका नित्य सेवन किया जाता है वह उन रोगों के लिये सात्म्य हो जाता है ( उसका रोगपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे किसी विषेले पदार्थको नित्य खानेवाला ब्यक्ति उससे नहीं मरता और दूसरा (नहीं खानेवाला) तत्काल मर जाता हैं ), अतः अमृत देवताओंका नित्य भोज्य पदार्थ होने के कारण सात्म्य होनेसे उनकी कामपीड़ारूपी रोगके दूर करनेमें सर्वथा अनुपयुक्त है। इस कारण भी उक्त देवोंका दमयन्तीके अधरस्थ अमृतरूपी दूसरी दवाका पानकर कामपीड़ारूपी अपना रोग शान्त करनेकी इच्छा करना उचित ही है। स्त्रियों के अधर तथा स्वर्ग में अमृतकी स्थिति कविसमयके अनुसार निर्णीत है ] // 94 // अस्माकमध्यासितमेतदन्तस्तावद्भवत्या हृदयं चिराय / बहिस्त्वयालकियतामिदानीमुरो मुरं विद्विषतः श्रियेव / / 35 // अस्माकमिति / भवत्या पूज्यया। भवतेर्डवतुप्रत्ययः / “उगितश्व" इति ङीप / स्वयाऽस्माकमेतदन्तर्वति हृदयं स्वान्तं चिराय चिरात्प्रभृति अध्यासितं तावदधिष्ठितमेव / अवधारणे तावच्छब्दः / निरन्तरचिन्तयेति भावः / किं त्विदानी बहिर्वा. ह्यमपि हृदयं वक्षः 'हृदयं वक्षसि स्वान्तम्' इति विश्वः / मुरं मुरस्य विद्विषतो विष्णोरुरो हृदयं 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः / “द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् "न लोके" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / श्रियेवालक्रियताम् // 95 // Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / पूज्य आप हमलोगों के इस हृदय ( अन्तःकरण, पक्षा०-भीतर ) में स्थित है ही; अतः भाप बहिदृश्यमान हृदय ( छाती ) को उस प्रकार अलकृत करें जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु के हृदयको अलस्कृत करती है / [चिरकालसे निवास किये हुए स्थानको पुनः सर्व प्रत्यक्षमें सुशोभित करनेमें तुम्हें निषेध नहीं करना चाहिये, क्योंकि विष्णुके भीतर हृदयमें चिरकालसे स्थित लक्ष्मी उनके बाहर हृदयको भी सुशोभित करती है। तुम्हें हमलोग बहुत समयसे हृदयसे चाहते हैं, अतः अब तुम हमलोगोंको स्वीकार करनेकी कृपा करो] // 95 / / दयोदयश्चेतसि चेत्तवाभूदलङ्करु द्यां विफलो विलम्बः / भुवः स्वरादेशमथाचरामो भूमौ धृति यासि यदि स्वभूमौ / / 66 / / दयेति / तव चेतसि दयोदयः दयाविर्भावः अभूच्चेत् यां स्वर्गमलङ्गुरु विलम्बो विफल इत्यर्थः / 'शुभस्य शीघ्रम्' इति न्यायादिति भावः / अथाथवा स्वभूमौ स्वजन्मस्थाने भूमौ भूलोके ति सन्तोषं यासि यदि तर्हि भुवो भूमेः स्वरादेशं स्वर्गसंज्ञामाचरामः वयं चात्रैव स्थास्याम इत्यर्थः / स्वाधिष्ठित एव स्वर्ग इति भावः।। ___ तुम्हारे चित्तमें ( हमलोगोंके ऊपर ) यदि दयाका उदय हुआ हैं तो ( तुम ) स्वर्गको अलंकृत करो, विलम्ब करना निष्फल ( व्यर्थ ) अर्थात् विलम्ब मत करो। अथवा अपनी उत्पत्तिकी भूमि अर्थात् अपनी जन्मभूमिमें (निवास करनेसे ) यदि तुम सन्तुष्ट होती हो तो हमलोग पृथ्वीको ही स्वर्ग बना देंगे अर्थात् पृथ्वीपर ही तुम्हारे साथ रहते हुए हमलोग इसे स्वर्गकी भोग-सामग्रियोंसे पूर्ण कर देंगे ( पाठा०-यदि तुम्हें अपनी जन्मभूमिमें अनुराग है तो हमलोग पृथ्वीको ही स्वर्ग बना देंगे)। [ तुम्हारी इच्छाके अनुसार हमलोग स्वर्ग या पृथ्वी-दोनोंमेंसे कहीं भी तुम्हारे साथ रहनेके लिये तैयार हैं, इस कारण शीघ्र ही हमलोगोंको स्वीकार कर तुम बतलाओ कि कहां रहना चाहती हो ? ] 96 // धिनोति नास्मान् जलजेन पूजा त्वयान्वहं तन्वि ! वितन्यमाना। तव प्रसादाय नते तु मौलौ पूजास्तु नस्त्वत्पदपकुजाभ्याम् / / 17 // धिनोतीति / हे तन्वि ! त्वया अन्वहमनुदिनं वीप्सायामध्ययीभावे "अनश्च, नपुंसकादन्यतरस्याम्" इति समासान्तः, "अह्वष्टखोरेव" इति टिलोपः / वितन्यमाना क्रियमाणा जलजेन जातावेकवचनम् / जलजैः पूजा अस्मान् न धिनोति न प्रीणयति / किन्तु तव प्रसादाय प्रसादार्थ नते नने मौलौ मलि त्वत्पदपङ्कजाभ्यां नोऽस्माकं पूजा अस्तु / प्रणयापराधेषु त्वत्पादताडनार्थिनो वयमिति भावः // 97 // हे तान्व ! तुम्हारे द्वारा प्रतिदिन कमलोंसे विशिष्ट रूपसे की जानेवाली पूजा हमलोगों को प्रसन्न नहीं करती है, (अतएव, प्रणयकुपित ) तुम्हें प्रसन्न करनेके लिए नम्र हमलोगोंके मस्तकोंपर तुम्हारे चरण-कमलोंसे पूजा होवे / [ तुम देव मानकर हमलोगोंकी जो कमलोंसे पूजा करती हो, हमलोग प्रसन्न नहीं हैं, अतः तुम्हारे स्वीकार कर लेनेपर पति होकर 1. "इमामेव देवालयतां नयामो भूमौ रतिश्चेत्तव जन्मभूमौ" इति पाठान्तरम् / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 461 हमलोग प्रणयमें कुपित हुई तुमको प्रसन्न करने के लिये जब तुम्हारे चरण कमलोंपर मस्तक झुकावेंगे तब तुम उन चरण-कमलोंसे हमलोगोंके मस्तकके ऊपर प्रहारकर [ पक्षा०हमलोगोंके मस्तकपर चरणरूप कमलोंको रखकर जो पूजा करोगी उसीसे हमलोग सन्तुष्ट होंगे, सामान्य कमल-पुष्पकी अपेक्षा अतिशय श्रेष्ठ चरण-कमलों द्वारा की गयी पूजासे हम. लोग अधिक प्रसन्न होंगे। हमलोगोंको तुम पतिरूपमें स्वीकार करो // 97 // स्ववितीणः कारवाम वामनेत्रे ! भवत्या किमुपासनासु / अङ्ग ! त्वदङ्गानि निपीतपीतादणि पाणिः खलु याचते नः // 18 // __ स्वर्णरिति / हे वामनेत्रे! चारुलोचने ! भवत्या त्वया निजोपासनासु पूजासु वितीर्णैः समर्पितैः स्वर्णैः कनककमलादिभिः किं करवाम न किमपीत्यर्थः। यतः स्वर्णाचलवासिनो वयमिति भावः / किन्तु, अङ्गेत्यामन्त्रणे, निपीतो गृहीतः पीताया हरिद्राया दर्पः कान्तिगवों यैस्तानि, 'निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरणिनी' इत्यमरः / त्वदङ्गानि नोऽस्माकं पाणिर्याचते खलु / पीतदति पुंल्लिङ्गपार्ट पीतानां स्वर्णादिद्रव्याणां दर्पमिति व्याख्येयम / स्वर्णादुत्कृष्टवस्तुसम्भवे अपकृष्ट. स्वर्णस्वीकारो न युक्त इति भावः / साधुश्चायमेव पाटः / अन्यथा स्वर्णसञ्चारिणां स्वदङ्गेषु स्वर्णादुत्कर्षे वक्तव्ये हरिद्रामात्रादुत्कर्षोक्त्यनौचित्यादिति // 98 / / हे सुलोचने ! ( हमलोगोंकी ) पूजाओं में दिये ( दक्षिणा रूपमें चढ़ाये ) गये सुवाँसे हमलोग क्या करेगे अर्थात् पूजामें चढ़ाये गये उन सुवर्गों की सुवर्ण पर्वत ( सुमेरु पर्वत ) पर निवास करनेवाले हमलोगोंको कोई आवश्यकता नहीं है / हे अङ्ग ( हे प्रिये ) ! हमलोगोंका हाथ सुवर्ण आदि पीले पदार्थों के अभिमानको अच्छी तरह नष्ट करनेवाले तुम्हारे अङ्गोंकी याचना करता है। [ जो हमलोग स्वर्णपर्वत पर निवास करते हैं तो पूजामें अर्पित थोडे-से सुवर्णोकी चाहना करना हमलोगों के लिये उचित नहीं है, हां, तुम्हारे जिन अङ्गों ने पीले-पीले सुवर्ण आदि श्रेष्ठ द्रव्यों के अभिमानको सर्वथा चूणित कर दिया है, उन्हें ही हम चाहते हैं / तुम्हारे गौर वर्णवाले अङ्ग सुवर्णादिसे भी अधिक सुन्दर एवं पोले हैं, अतएव हमलोग उन्हें ही चाहते हैं। पीले वर्णवाले पदार्थोके दर्पका अतिशय पान करनेवालेको उनकी अपेक्षा अधिक पीला होना उचित ही है, अतः उन्हीं श्रेष्ठ अङ्गोंकी हम याचना करते हैं, याचकको निराश करना अनुचित होनेसे तुम अपने सुवर्णातिशय गौर अङ्गोंको देकर हमारी याचना पूरी करो] / / 98 / / वयं कलादा इव दुविदग्धं त्वद्गीरिमस्पधि दहेम हेम | प्रसूननाराचशरासनेन सहैकवंशप्रभवभ्र ! बभ्र / / 99 / / वयमिति / प्रसूननाराचशरासनेन कामचापेन सह एकवंशप्रभवे एककारणोत्पन्ने अत्यन्ततत्सदृशे इति यावत् / ध्रुवी तस्याः सा तद्भरित्यूङन्तोत्तरपदो बहुव्रीहिः / अन्यथा अनूङन्तस्य भ्रशब्दस्योवस्थानस्यानदीत्वात् सम्बुद्धावम्बार्थत्यादिना Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 नैषधमहाकाव्यम् / नदीहस्वो न स्यात् / ननु उडन्त इत्युक्तं कथमूकारादिति चेत् , सत्यम्, अप्राणि. जातेश्चारज्ज्वादीनामित्यत्र "अलाबूः कर्कन्धूः" इति भाष्यकारेणोदाहरणादूकारादः प्यूङस्त्येवेति ज्ञायते / अत एव वामनः-"ऊकारादप्यूप्रवृत्ते"रिति / तदेतत् सम्यग्विवेचितमस्माभिः कुमारसम्भवसञ्जीविन्यां, "विमानना सुभ्र ! कुतः पितृहे' इत्यत्र / तस्याः सम्बुद्धिः एकवंशप्रभवश्रु ! वयं कलाः स्वर्णखण्डान् द्यन्ति खण्डय. न्तीति कलादाः स्वर्णकारा इव / 'कलादा रुक्मकारकाः' इत्यमरः / तव गौरिग्णा सह स्पर्धत इति तत्स्पर्धि अत एव प्रबलविरोधितया दुर्विदग्धमविदग्धं बुद्धिशून्यं च बभ्रु पिङ्गलम् / 'बभ्रु स्यात् पिङ्गले त्रिषु' इत्यमरः / हेम सुवर्णे दहेम / त्वदङ्गस्पर्धापराधादविशुद्धेश्चास्माकं दाह्यस्वर्णसमपंणात् सर्वानवद्यासमर्पणमेव सन्तर्पण. मिति भावः // 99 // ___ हे कामदेवके चापके साथ एक वश ( कुल, पक्षा-बांस ) में उत्पन्न सुन्दर भौंहोंवाली ! सुवर्णकार ( सुनार ) के समान हमलोग तुम्हारे ( शरीरकी ) गौरताके साथ स्पर्धा करनेवाले ( अतएव अर्थात् बड़ेकी समानता करनेसे ही ) दुविनीत पिङ्गल वर्णवाले सुवर्गको जलाते हैं / [ तुम्हारे शरीरकी शोभासे कम शोभावाले सुवर्ण शरीरको गौरताके साथ स्पर्धा करनेके कारण अग्निमें जलते हैं, हमलोग तुम्हारे हैं, अतएव तुम्हारे शरीरके प्रतिस्पर्धीको अग्निमें डालकर दण्डित करते हैं / अतएव हमलोगोंको सामान्य सुवर्णकी आवश्यकता नहीं हैं, अपितु स्वर्णाधिक सुन्दर अपना शरीर देकर हमलोगोंको कृतार्थ करो] // 19 // सुधासरःसु त्वदनङ्गतापः शान्ता न नः किं पुनरप्सरस्सु / निर्वाति तु त्वन्ममताक्षरेण सुनाशुगेषोर्मधुशीकरेण // 00 / / सुधेति / हे भैमि ! सुधासरःसु अमृतसरसीषु नोऽस्माकं त्वत्कृतानङ्गतापो न शान्तः अप्सरःस्वपां सरःसु उर्वश्यादिवेश्यासु वा किं पुनः किमुत ? किन्तु सूनाशुगेपोः कामबाणस्य मधुशीकरण मकरन्दबिन्दुना तत्सदृशेनेत्यर्थः। तव ममताक्षरेण ममताभ्यञ्जकवाक्येन मदीया यूयमित्येवंरूपेण निर्वाति शाम्यति / यद्विरहादयं तापः स तत्सङ्गमैकसाध्यो नोपायान्तरसाध्य इत्यर्थः // 10 // __ हे दमयन्ती ! अमृत सरोवर में स्नान करने पर भी हमलोगोंका त्वत्कृतकामताप शान्त नहीं हुआ, अतः रम्भा आदि वेश्याओं के साथ रमण करनेसे उसको शान्त होने की आशा ही नहीं। किन्तु काम बाणके मकरन्द बिन्दुके सदृश तेरे मम्ता व्यञ्जक ( तुम मेरे हो ) वाक्य से वह शान्त होता है / [ तेरे विरहसे जो हमलोगोंका ताप है, वह केवल तेरे संगमसे ही निवृत्त हो सकता है, अन्यथा नहीं ] // 100 / / खण्डः किमु त्वाद्दर एव खण्डः कि शर्करा तत्पथशक रैव / कृशाङ्गि! तद्भङ्गरसास्थकच्छणन्नु दिक्षु प्रथितं दिक्षुः / / 101 / / .खण्ड इति / हे कृशाङ्गि ! खण्डः खण्डशकरा त्वदिर एव त्वद्वचस एव खण्डः Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 463 शकलः किमु ? 'स्यात्खण्डः शकले चेविकारमणिदोषयोः' इति विश्वः। तथा शर्करा सिताख्यंशर्करा तस्या गिरः पन्थास्तत्पथः तस्मिन् मागें शर्करा शिलाशकलप्रचुरमृदेव किम् ? 'शर्करा खण्डविकृतावुपला कर्परांशयोः' इत्युभयत्रापि विश्वः / दिनु प्रथितं प्रख्यातमिचरिच्वाख्यं तत् तृणं तव गिरः स्वद्विरः भङ्गी भगवान् तरङ्गितो रसः शृङ्गारादिरुदकं च तदुत्थं कच्छे अनूपे तृणं नु ? उत्सेति पाठे रसोत्सो रसप्रवाहः तस्य कच्छतृणं किमित्यर्थः / 'जलप्रायमनूपं स्यात् पुंसि कच्छस्तथाविधः' इत्यमरः / सर्वत्रान्यथा कथं खण्डादीनामीङमाधुर्यमिति भावः। किंवादयस्तूत्प्रेक्षायामत्रोत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टत्वात्सजातीयसंसृष्टिः। अत्र द्रव्ये वैशेषिककार:-"मत्स्य. न्दिकाः खण्डसिताः क्रमेण गुणवत्तमाः / यथा यथा हि नेमल्यं मधुरत्वं तथा तथा // धौतत्वाधिर्मलत्वाच तथा सिततमक्रमात् / वालुकेव भृशं सूक्ष्मा सुस्निग्धा सित. पिंगला // मत्स्याण्डाकृति सादृश्ययोगान्मत्स्यन्दिका स्मृता / स्फटिकोपलखण्डाभः खण्डस्तच्छर्करा समा // शर्करा निर्मला सैव सिता तु सितशर्करा / निर्मलेव सिता सा तु राजराज इतीरिता" // इति // 101 // हे कृशाङ्गि ! तुम्हारी वाणी का खण्ड ( लेशमात्र ) खण्ड (खांड़ ) है क्या ?, उस ( तुम्हारी वाणी ) के मार्गकी शर्करा ( छोटे छोटे कङ्कड़) शर्करा ( शक्कर अर्थात् चीनी) है क्या ? और उस ( तुम्हारी वाणी ) की मङ्गी (व्यङ्गयादि पूर्ण रचना ) के रस ( शृङ्गारादि रस, पक्षा०-जल ) के किनारेमें उत्पन्न जो तृण है, वह दिशाओमें ( चारों तरफ अर्थात् सर्वत्र ) इक्षु अर्थात् गन्ना कहलाया क्या ? / तुम्हारी वाणीके खण्ड होनेसे ही वह खण्ड (खांड ) कहलाया और उसमें माधुर्य हुआ, तुम्हारी वाणीके रास्तेमें शर्करा छोटे-छोटे ( कङ्कड़ ) रूप होनेसे ही वह शर्करा ( शक्कर ) कहलाया और उसी सम्बन्धसे उसमें माधुर्य आया तथा तुम्हारी वाणीके शृङ्गारादिरसपूर्ण ( या जलपूर्ण ) तट प्रान्तज तृणही सर्वत्र क्षु (गन्ना ) कहलाया और उसमें भी उसी वाणीके सम्बन्धसे मधुरता आयी / तुम्हारी वाणीकी अपेक्षा खांड़, शक्कर तथा गन्नेके अत्यन्त तुच्छ होनेसे वे उस बाणीके खण्ड, मार्गके कङ्कड़ तथा तटोत्पन्न तुच्छ तृण रूप हैं, एवं तुम्हारी उस वाणीके सम्बन्धसे ही उनमें भी मधुरता आ गयी है / तुम्हारी वाणी खांड़, शकर तथा गन्नेसे भी अत्यधिक मधुर है ] // 101 / / ददाम कि ते सुधयाधरेण त्वदास्य एव स्वयमास्यते यतः / विधुं विजित्य स्वयमेव भावि त्वदाननं तन्मखभागभोजि // 102 / / किञ्च नेष्टदानेन त्वदाराधने शक्ता वयं किन्तु स्वत्करुणैकशरणा इत्याशयेनाहददामेति / ते तुभ्यं किं ददाम कि वितराम दातव्यं किमपि नास्तीत्यर्थ। अमृतमस्तीति चेत् तवैवास्तीत्याह / कुतः यतो प्रस्मात् कारणात् सुधया अधरेणाधररूपेण त्वदास्य एव स्वयं साक्षादास्यते स्थीयते, भावे लट् / यज्ञभागोऽस्तीति चेत् 1. "हिसा" इति पाठान्तरम्। 2. "चन्द्रं" इति पाठान्तरम् / Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 नैषधमहाकाव्यम् / सोऽपि ते जयलभ्य इत्याह-वदाननं कर्तृ विधं चन्द्रं स्वयमेव परानपेक्षं विजित्य तस्य विधोमंखे यागे भागमंशं भोक्तुं शीलमस्येति तद्भोजि भावि भविष्यत् तत्स्था. नाधिपत्यादत्र धर्मलाभ इति भावः // 102 // ___ तुमको हमलोग क्या दें ( तुमको देने योग्य कोई उत्तम पदार्थ हम लोंगके पास नहीं है, जिसे देकर हमलोग तुम्हें प्रसन्न कर सकें ), क्योंकि (पाठा० निश्चयसे) अधररूप अमृत तो तुम्हारे मुखमें स्वयं निवास करता है ( अतः देवभोज्य अमृत भी अपूर्व पदार्थ न होनेसे तुमको देना ठीक नहीं हैं, तुम्हारा मुख चन्द्रमाको जीतकर स्वयं ही उस ( चन्द्रमा ) के यज्ञ भागको प्राप्त करेगा ( अतः स्वयं प्राप्य यश भाग भी तुमको देना ठीक नहीं अँचता) [समस्त श्रेष्ठ बस्तुओंसे तुम्हें सम्पन्न रहने के कारण कोई भी वस्तु तुम्हें देने योग्य नहीं है, जिसे देकर हमलोग तुम्हें प्रसन्न कर सकें] // 102 / / प्रिये ! वृणीष्वामरभावमदिति पोदनि वचो न किन्नः। त्वत्पादपद्म शरणं प्रविश्य स्वयं वयं येन जिजीविषामः // 10 // त्वदायत्तमेवेत्याह-प्रिय इति / हे प्रिये ! दमयन्ति ! अस्मदस्मत्तः अमरभाव. ममरत्वमविनाशित्वं च वृणीष्वेत्येवंरूपं नोऽस्माकं वचः त्रपामुदश्चतीति अपोदचि लज्जावहं न भवति किम् ? भवत्येवेत्यर्थः / कुतः, येन कारणेन पादावेव पद्मे ते एव शरणं प्रविश्य रक्षकं प्राप्य वयं स्वयमनामयं जिजीविषामो जीवितुमिच्छामः / स्वयं पुधितस्यानार्थिनस्तुहातुः शुद्धैषज्यप्रतिज्ञावत् परिहासास्पदमेवेति भावः // 103 // 'हे प्रिये ! हम लोगोंसे ( तुम ) अमरत्व का वर मांगों ऐसा हम लोगों का कहना लज्जा-पूर्ण बात नहीं है क्या ? अर्थात् अवश्यमेव लज्जा पूर्ण बात हैं; क्योंकि तुम्हारे चरणकमलमें शरण पाकर हम लोग स्वयं जीना चाहते हैं। [ स्वयं दूसरेके चरणों में शरण प्राप्तकर जीनेकी इच्छा करनेवाला व्यक्ति उसीको अमरत्व का वरदान देना चाहे तो वह वचन लज्जास्पद ही होगा ] // 103 / / / अस्माकमस्मान्मदनापमृत्योस्त्राणाय पीयूषरसोऽपि नासौ। प्रसीद तस्मादधिकं निजन्तु प्रयच्छ पातुं रदनच्छदन्नः // 104 // न चामृतसेविनां वः कुतो मरणप्रसक्तिरिति वाच्यमित्याह-अस्माकमिति / हे दमयन्ति ! अस्मान्मदनादेवापमृत्योः सकाशादस्माकं त्राणाय रक्षणाय असौ पीयूषरसोऽपि नालम्, किन्तु तस्मात् पीयूषरसादधिकं निजं त्वदीयं रदनच्छदमोष्टं पातु नोऽस्मभ्यं प्रयच्छ देहि प्रसीद प्रसन्ना भव // 10 // ___ यह अमृतरस ( पाठा०-अमृतरूपी रसायन औषध ) भी हम लोगोंको इस कामदेव रूप अपमृत्यु ( अकाल मरण या दुर्गतिपूर्वक मरण ) से बचानेके लिये नहीं हैं, ( कामदेव हम लोगों को दुर्गत करके मार डालेगा और अमृत उससे हम लोगोंको नहीं बचा सकेगा), इस कारण उससे अधिक ( श्रेष्ठ अमृत युक्त ) अपना अधर पान करनेके लिए हम लोगोंके Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। दो, प्रसन्न होवो। [ यदि कोई साधारण औषध रोगीकी प्राणरक्षा नहीं करता, तब उससे भी अधिक श्रेष्ठ औषध उस रोगीको पिलाकर उसकी प्राणरक्षा करना उचित माना जाता है, अतः अमृत पीनेसे हम लोगों के प्राणरक्षा नहीं हो सकती, इस कारण तुम अमृतसे भी अधिक गुणवाले अपने अधरामृतका पान कराकर हम लोगोंकी प्राणरक्षा करो] // 104 / / प्लुष्टश्चापेन रोपैरपि सह मकरेणात्मभूः केतुनाऽभू. द्वत्तां नस्त्वत्प्रसादादय मनसिजतां मानसो नन्दनः सन् | भ्रभ्यां ते तन्वि ! धन्वी भवतु तव सितै त्रमल्लः स्मितैस्ता दस्तु त्वन्नेत्रच चत्तरशफरयुगाधीनमीनध्वजाङ्कः // 105 / / प्लुष्ट इति / हे तन्वि ! दमयन्ति ! आत्मना स्वयमेव भवतीत्यात्मभूः कामः स्वैः स्वकीयैः चापेन रोपैर्बाणः, 'पत्री रोप इषुद्धयोः' इत्यमरः। मकरेणैव केतुना च सह प्लुष्टो दग्धोऽभूत् / स आत्मभूरथेदानीं तव प्रसादाद्धेतोः नोऽस्माकं तव च सम्भूयेत्यर्थः। "त्यदादीनि सनित्यम्" इति युष्मदस्मदोरेकशेषे परशेषः / मानमो मनासम्बन्धी नन्दनः पुत्रः आनन्दयिता च सन् / 'नन्दतो हर्षक सुते' इति विश्वः। मनसिजातो मनसिजस्तस्य भावस्तत्ता तां "सप्तम्यां जनेर्डः" "हलदन्तात्सप्तम्या: संज्ञायाम्" इत्यलुकाधत्तां दधातु "तुह्मोस्तातङडाशिष्यन्यतरस्याम्"। प्लुष्टः दग्ध आत्मभूर्भवस्वस्तु मनसोऽप्यात्मत्वादित्यर्थः / “आत्मा देहमनोब्रह्मस्वभावरतिबु. द्धिषु" इति विश्वः / त्वय्यस्मासु च कामस्तुल्यवृत्तिरस्त्विति भावः / किञ्च ते तव भ्रभ्यां धन्वी चापवान् भवतु / धन्वन्शब्दावीह्यादिपाठादिनिः / तव सितैर्निमलैः स्मितैर्ह सितैः जैत्रा भल्ला यस्य सः जित्वरेषुः स्ताद्भवतु अस्तेर्लोटि तेस्तातडादेशः / तव नेत्रे एव चत्तरावतिचञ्चलौ शफरौ तयोर्युगं तदधीनस्तल्लभ्यो मीनरूपो ध्वज एवाको लान्छनं यस्य सोऽस्तु त्वन्नेत्राभ्यां मीनध्वजवानस्त्वित्यर्थः / अत्र यथा. संख्यसङ्कीणों रूपकालंकारः। स्रग्धरा वृत्तम् // 105 // आत्मभू ( स्वयम् या मनसे उत्पन्न होनेवाला = कामदेव ) धनुष, बाणों तथा मकररूप पताका के साथ दग्ध हो गया अर्थात् जल गया; फिर वह तुम्हारी तथा हम लोगोंकी प्रसनतासे अर्थात् हम दोनोंके सहयोगसे मनः सम्बन्धी पुत्र (पक्षा०-मनका आनन्दाता) होता हुआ मनसिजभाव को धारण करे मनके मी आत्मा होनेसे फिर आत्मभू बने ) / और हे तन्वि ! ( वह मनसिज ) तुम्हारे भूदयसे धनुषवाला होवे, श्वेतवर्ण मुस्कानोंसे विजयी भालोंवाला होवे और तुम्हारे नेत्ररूपी शोभमान (या चञ्चल) मीनद्वयवाली पताकाके चिह्न से युक्त अर्थात् उक्तरूप मीनद्वयचिहित पताका वाला बने / [चाप, बाण तथा पताकाके साथ भस्म हुआ भी कामदेव हमारे तथा तुम्हारे साथसे मनसे उत्पन्न, मनको आनन्दित करनेवाला तथा उक्त प्रकारसे धनुष आदिसे पुनः युक्त होवे ] // 105 / / Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 नैषधमहाकाव्यम् / स्वप्नेन प्रापितायाः प्रतिरजनि तव श्रीषु मग्नः कटाक्षः श्रोत्रे गीतामृताब्धौ त्वगपि ननु तनूमञ्जरीसौकुमायें / नासा श्वासाधिवासेऽधरमधुनि रसज्ञा चरित्रेषु चित्तं नमस्तन्वनि ! कैश्विन करणहरिणैर्वागुरा लम्भितामि // 106 // स्वप्नेनेति / हे तन्वनि ! तनून्यङ्गानि यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः / “अङ्गगावकग्ठेभ्यः" इति डीप / कृशाङ्गि! प्रतिरजनि रजन्यां रजन्यां, वीप्यायामव्ययीभावः / स्वप्नेन (का)प्रापितायाः स्वप्नदृष्टायाः तव श्रीषु सौन्दर्यलहरीषु नोऽस्माकं कटाक्षो मग्नः गीत एवामृताब्धौ सुधासमुद्रे श्रोत्रे मग्ने, तनूः मूर्तिरेव मञ्जरी कुसु. मगुच्छः तस्याः सौकुमाय मार्दवे त्वगपि मग्ना / ननु श्वासाधिवाले निश्वासमारुतसौरभे नासा मग्ना अधरमधुन्यधरामृते रसज्ञा रसना मग्ना चरित्रेषु चेष्टासु चित्तं मग्नं तत् तस्मात् कैश्चित करणैरिन्द्रियैरेव हरिणस्त्वं वागुरा मृगबन्धिनी रज्जुः न लम्भिता न प्राप्तासि सर्वेरपि प्रापितेत्यर्थः / अस्माकं सर्वेन्द्रियसम्मोहनं ते रूप. शिल्पमिति भावः। अन्न चतुर्थपादार्थस्य पूर्वषड्वाक्यार्थहेतुकत्वाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गं तच्च करणहरिणरित्यादिरूपकेण सङ्कीर्यते / पूर्वोक्तमेव वृत्तम् // 106 // हे तन्वि ! प्रत्येक रात्रिमें स्वप्नमें देखा गया तुम्हारी शोभाओं में कटाक्ष ( हम लोगोंकी दृष्टि ), गीतरूप अमृत समुद्रमें दोनों कान, निश्चित रूपसे शरीरमज्जनकी सुकुमारताम त्वक् ( चर्मेन्द्रिय ), श्वासवायु की विशिष्ट सुगन्धिमें नाक, अधरामृतमें रसशा ( रसको जानने वाली जीभ ) और चरित्रोंमें चित्त (मन) डूब गया; इस कारणसे तुमने हम लोगोंके किन इन्द्रियोंको जाल में नहीं फंसा लिया है ? अर्थात् हम लोगोंकी सभी इन्द्रिय ( नेत्र, कान, त्वक् , नाक, जीभ और मन) रूप हरिणियाँ तुम्हारी शरीर-शोभादि रूप जालमें फँस गयी है [ अथवा-जिस कारणसे प्रतिरात्रिको स्वप्नमें देखी गयी तुम्हारी शोभामें हम लोगोंकी दृष्टि डूब गयी, अतः दर्शन-शक्तिसे शून्य होने के कारण हम लोगों का कान आदि इन्द्रियरूप हरिणियाँ तुम्हारे गीत-समुद्रादिरूप जाल में फंस गयीं / दृष्टिहीन व्यक्तिका जाल में फँसना अत्यन्त सरल होता है / हम लोगों की प्रत्येक इन्द्रियाँ तुम्हारे वशीभूत हो रही है, अत एव तुम हम लोगोंको वरण करनेकी कृपा करो ] // 106 / / इति धृतसुरसाथेवाचिकस्रङनिजरसनातलपत्रहारकस्य / सफलय मम दूततां वृणीष्व स्वयमवधार्यदिगीशमे कमेषु // 13 // इतीति / इतीत्थं कृता सुरसार्थस्येन्द्रादिवृन्दस्य वाचिकस्रक सन्देशवाक्यपरस्परा येन तस्य निजस्य रसनातलस्यैव पत्रस्य लेखस्य यो हारकस्तस्य मम दूततां सफलय सफलां कुरु, एषु मध्ये एक दिगीशं स्वयमात्मनवावधायं निश्चित्य वृणीप्व वृणीथाः। वाचिको व्याख्यातः / अत्र नलदूत्यसाफल्यस्य वरणवाक्याथहेतुकत्वात Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। 467 पूर्ववदलङ्कारः। स च रसनातलपत्रस्व यो हारकस्तस्येति रूपकेण सङ्कीर्यते / पुष्पिताग्रा वृत्तम् // 107 // इस प्रकार ( श्लो० 57 से 106 तक) देवसमूहके वाचिक (मौखिक सन्देश ) रूप मालाको अपने जिह्वातलरूपी पत्रपर धारण (अङ्कित ) कर यहां उसे पहुँचानेवाले मेरी दूतता को सफल करो, स्वयं निश्चयकर उनसे किसी एकका वरण करो / [ मैंने उन इन्द्रादि देवोंके मौखिक सन्देशको जिह्वातलरूपी पत्रपर धारणकर तुम्हारे पास पहुंचा दिया है, अब तुम स्वयं ही बिचारकर उनमेंसे किसी एकको स्वीकार करो; क्योंकि मैंने इन्द्रादि चारों देवोंकी दूतता करना स्वीकार किया है, अतः उनमें से किसी एकको स्वीकार करने के लिये अपना निर्णय देना या विशेष रूपसे समर्थन करना मेरा अन्याय पूर्ण पक्षपात होगा, इससे तुम स्वयं ही निर्णयकर उन चारों से किसी एकको स्वीकार करो // 107 // आनन्दयेन्द्रमथ मन्मथमनमग्नि केलीमिरुधर तनूदार ! नूतनाभिः / आसादयोदितदयं शमने मनो वा नो वा यदीत्थमथ तद्वरुणं वृणीथाः / / आनन्दयेति / हे तनूदरि ! कृशोदरि! नूतनाभिरभिनवाभिः केलीभिः क्रीडाभिः मन्मथमग्नमिन्द्रमानन्दय, अथवा तादृशमेव अग्नि ताभिरुद्धर, अथवा शमने यमे उदितदयं जातानुकम्पं मनः आसादय निवेशय / इत्थं नो वा यदि अथ तत्तर्हि मन्मथमग्नं वरुणं वृणीथाः वृणीष्व / 108 // हे कृशोदरि ! इन्द्रको आनन्दित करो, अथवा मन्मथमम (मनको मथन करनेवाले कामदेवमें डूबे हुए ) अग्निका नयी-नयी केलियोंसे उद्धार करो ( ऊपर निकालो अर्थात रक्षा करो ), अथवा यममें दयायुक्त मनको लगावो और यदि ऐसा नहीं है अर्थात् इन्द्र, अग्नि और यमको नहीं चाहती हो तो वरुण को वरण करो। [इन इन्द्रादि चारों देवों में से किसी एकका वरणकर हमारी दूतताको सफल करो] // 108 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्यागादयमष्टमः कविकुलादृष्टाध्वपान्थे महा काव्ये चाणि वैरसेनिचरिते सर्गो निसर्गोत्रलः // 10 // श्रीहर्षमित्यादि / कवीनां कुलेन समूहेन अदृष्टे अध्वनि यत्पान्थं नित्यपथिक तस्मिन चारुणि शोभने वैरसेनेनलस्य चरिते तस्य श्रीहर्षस्य महाकाव्ये निसर्गो. ज्ज्वलोऽयमष्टमः सर्गः अगात् सम्पूर्ण इति भावः॥ 109 // इति मल्लिनाथसूरविरचिते 'जीवातु' समाख्याने अष्टमः सर्ग समाप्तः // 8 // कविकुल समूहके..."किया, उसके रचित, तथा कवि-समूहसे पहले नहीं देखे गये मार्गमें नित्य गमन करनेवाले अर्थात् कवि-समूहोंके अदृष्टपूर्व रचनाओंसे पूर्ण सुन्दर नैषध चरित्र महाकाव्यमें यह अष्टम सगै समा हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गवत् जानें। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः इतीयमक्षिवावभ्रमे गितैः स्फुटामनिच्छां विवरीतुमुत्सुका / तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छयाऽशृणोदिंगीशसन्देशगिरो न गौरवात् / / 1 / / अथ दमयन्तीवृत्तान्तं वक्तुं विततबहुतरदूतवाक्यश्रवणजनितामिन्द्राद्यनुरागशङ्कां तावद्वारयति-इतीति / इयं दमयन्ती अक्षिणी च ध्रुवौ च अचिभ्रुवं द्वन्द्वकवद्भावः / “अचतुर" इत्यादिना समासान्तादिनिपातनात् साधुः। तस्य विभ्रमो विकारः स एव इङ्गितं चेष्टा तैरेव स्फुटां व्यक्तामनिच्छमिन्द्रादिविषयामिति शेषः / तथा विवरीतुं वाचा निषेधुमुत्सुका उद्युका सती / 'इष्टार्थोद्युत उत्सुकः' इत्यमरः / निषेधस्य ज्ञानपूर्वकत्वात् तज्ज्ञानार्थमशृणोदित्यर्थः। किन तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छया नलवागमृतपिपासया चेत्यर्थः। दिगीशसन्देशगिरः अशृणोत् / मात्रपदग्यावर्त्यमाह-गौरवादिति / न तु दिगीशादीनां गौरवात्। अस्मिन् सर्गे वंशस्थवृत्तम् / लक्षणन्तूक्तमादिमसर्गे // 1 // ____ उस दमयन्तीने नेत्र तथा भ्रूके विकार (या विलास) की चेष्टाओंसे स्पष्ट अनिच्छा (इन्द्रादिमें या उनके सन्देश सुननेमें प्रेमके अमाव ) को विशेषरूपसे प्रकट करनेके लिये उत्कण्ठित हो केवल नलकी उक्तिमात्रको सुननेकी इच्छासे ही दिक्पालोंके सन्देशवचनोंको सुना, ( उन दिक्पालोंका सन्देश महत्त्वपूर्ण होनेसें सुनना ही चाहिये इत्यादि ) गौरवसे नहीं सुना / ( अथवा-..."इच्छासे ही सुना, दिक्पालोंके सन्देशवचनके गौरवसे नहीं सुना)। [ जिस कार्यको करनेकी इच्छा नहीं रहती, उससे सम्पद बातको भो सुनते समय मनुष्यके नेत्र तथा भ्रू आदि अनिच्छासे सङ्कोचादि द्वारा विकृत हो जाते हैं, उसी प्रकार नलोक्त दिक्पाल-सन्देशोंको सुनते समय दमयन्तीने नेत्र एवं भ्रको विकृतियुक्त कर उनके सन्देश पालनेकी अनिच्छा प्रकटकी, किन्तु अन्तःपुरमें प्रविष्ट इस व्यक्तिको आकृति नलतुल्य सौम्य है अतः इसके वचन भो अतिशय मधुर होनेसे अवश्य सुनने चाहिये, इस भावनासे उसके कहे हुए दिक्पालोंके सन्देशोंको उसने सुना, दिक्पालेका सन्देश होनेसे यह अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा या नहीं सुननेसे हमें पाप होगा इत्यादि गौरवका ध्यानकर अथवादेवोंका सन्देश नहीं सुननेसे वे हमें शापसे दण्डित करेंगे इस भयसे डरकर नहीं सुना। दमयन्तीने दिक्पालोंके सन्देशको सुनते समय ही नेत्र-म-विकारके द्वारा उनमें अपनो अनिच्छा प्रकट की] // 1 // तदर्पितामतवद्विधाय तां दिगोशसन्देशमयों सरस्वतीम् / इदं तमुर्वीतलशीतलद्यति जगाद वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी // तदिति / वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी दमयन्ती तेन नलेनार्पितां प्रयुक्तां दिगीशसन्देश मयों तदूपां सरस्वती वाचमश्रुतवद्विधायाश्रुतामिव करवा / “तेन तुल्यं क्रिया चेद्व तिः"। उर्वीतलशीतलयुति भूलोकचन्द्रं तंनलमिदं वक्ष्यमाणं जगाद गदितवतो // 2 // Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 469 विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) उस नलके द्वारा कही गयी दिक्पालों के सन्देर्शोसे मरी हुई उस वाणीको अनसुनीकर भूतलचन्द्र उस नलसे बोली-[ दिक्पालोंके सन्देशमें आस्था नहीं रहनेसे दमयन्तीका उसे अनसुनी करना ठीक ही है / जब दूरतम आकाशका चन्द्रमा भी भुतलस्थ लोगोंका आह्लादक होता है, तब भूतलस्य चन्द्रमा नलके अत्यन्त समीप होनेसे भूतलवासियोंके लिये आह्लादित होना आश्चर्य नहीं है ] // 2 // मयाङ्ग ! पृष्टः कुलनामनी भवानमू विमुच्यैव किमन्यदुक्तवान् / न मह्यमत्रोत्तरधारयस्य किं ह्रियेऽपि सेयं भवतोऽधमर्णता // 3 // मयेति / हे अङ्ग! भोः श्रीमन् ! मया भवान् कुलनामनी पृष्टः सन् पृच्छतेदहादिस्वादप्रधाने कर्मणि क्तः, 'अप्रधाने दुहादीना'मिति वचनात् / किं किमर्थमम कुलनामनी विमुच्य अन्यदुक्तवान् किमप्यसङ्गन्तमिव प्रलपसीति भावः। तदकथने को दोषस्तत्राह-नेति / अत्र कुलनामप्रश्ने मह्यमुत्तमर्णायै इति शेषः / "धारेरुत्त. मर्ण" इति सम्प्रदानस्वाचतुर्थी / धारयतीति धारयः "अनुपसर्गालिम्पबिन्दधारि". इत्यादिना शप्रत्ययः / उत्तरस्य धारयः तस्य भवतः तव सेयमधमः ऋणेन अधमणः। मयूरव्यंसकादित्वात् तत्पुरुषः। तस्य भावस्तत्ता सा हियेऽपि न किम् ? लोके उत्तमणेन याच्यमानस्याधर्मस्य तदप्रदानं लज्जायै भवस्येव, भवतस्तु सापि नास्तीति भावः // 3 // हे अङ्ग ! (मात्मीय बन्धो ! ) मुझसे कुल तथा नाम पूछे गये आप उन (कुल तथा नाम ) को छोड़कर (इन्द्रादिके संदेशरूप अप्रासङ्गिकवात ) दूसरा कुछ क्यों कहे ? ( ऐसा कहना आपको उचित नहीं था। इस ( उत्तर देनेके विषय ) में मेरे उत्तररूपी ऋणको धारण किये हुए आपका यह ऋणित्व अर्थात् ऋण धारण करनेका भाव क्या लज्जा के लिए नहीं है अर्थात् लज्जाके लिए हैं ही। [किसीसे ऋण लेकर मांगनेपर भी उसे नहीं चुकाना साधारण व्यक्तिके लिए भी लज्जाकी बात होती है तो आप-जैसे सत्पुरुषके लिये तो ऐसा करना बहुत ही लज्जाकी बात है। क्योंकि मैंने आपसे आपका कुल तथा नाम पूछा है, अतः आप उनका उत्तर जबतक नहीं देते हैं तबतक एक प्रकारसे उत्तर देने के लिये मेरे ऋणी हैं और अपना कुल तथा नाम बतलाकर ही ऋणमुक्त हो सकते हैं, किन्तु आपने अपना कुल तथा नाम न कहकर जो दिक्पालोंका सन्देश-बहुल अप्रासङ्गिक बातें कहीं, उससे आपको लज्जा आनी चाहिये, कोई भी भला आदमी किसी भी भले आदमीसे उचित प्रश्नका उत्तर न देकर ऐसी-वेसिर-पैरकी बातें नहीं कहता, अतः आपने यह उचित नहीं कि हैं] // 3 // अरश्यमाना कचिदीक्षिता क्वाचन्ममानुयोगे भवतः सरस्वती। क्वचित्प्रकाशां क्वचिदस्फुटार्णसं सरस्वती जेतुमना: सरस्वतीम् / / 4. अदृश्यमानेति / ममानुयोगे प्रश्ने विप / 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः। कचित् कुलनामविषये अरश्यमाना अप्रकाशितेत्यर्थः। कचित् कुत आ. कस्य Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 नैषधमहाकाव्यम् / स्वमित्यत्र ईशिता दृष्टा प्रकाशितार्थेति यावत् ईडशी भवतः सरस्वती कचित् प्रकाशोदकां कचिदस्फुटाणसमप्रकाशोदकां सरस्वतीं वाचं सरस्वती नदीं च। 'सरस्वती नदीभेदे गोवाग्देवतयोगिरि। स्त्रीरत्ने चापगायाश्च' इति विधः / जेतुं मनो यस्याः सा जेतुमनाः। "तुं काममनसोरपि" इति मकारलोपः। अत्र नलवाचः सरस्वतीनदीधर्मसम्बन्धात्तजिगीषोत्प्रेक्षा व्यक्षकाप्रयोगाद्म्या। तया चोपमा व्यज्यत इत्यलङ्कारेणालङ्कारध्वनिः॥४॥ मेरे प्रश्न ( आपके कुल तथा नामको पूछने ) के विषय में कहीं पर (कुल-नाम नहीं बतलानेसे ) नहीं दिखलायी देती हुई तथा कहीं.पर ('कहांसे यहांपर आये हैं। इस प्रश्नका 'दिक्पालोंकी सभासे आये हुए मुझे अपना ही अतिथि समझो ( 8155) ऐसा उत्तर देनेसे ) दिखलायी देती हुई आपकी वाणी कहीं पर (बाहर जलप्रवाह होनेसे ) दिखलायी देती हुई तथा कहींपर ( भीतर जल-प्रवाह होनेसे ) नहीं दिखलायी देती हुई सरस्वती नदीको जीतना चाहती है। जिस प्रकार सरस्वती नदीका जलप्रवाह कहीं पर दिखलायी देता है और कहीं पर नहीं दिखलाई देता, उसी प्रकार आपने कुल तथा नामको तो नहीं बतलाया और कहांसे आये हैं ? इस प्रश्नका उत्तर ( 8155) बतलाया; अतएव अप्रासङ्गिक बातको छोड़कर अपना कुल तथा नाम बतलाइये ] // 4 // गिरः श्रुता एव तव श्रवःसुधाः श्लथा भवनाम्नि तु न अतिस्पृहा / पिपासुता शान्तिमुपैति वारिणा न जात् दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि / / गिर इति / श्रवः सुधाः कर्णामृतानि तव गिरः श्रुता एव, किन्तु भवसाग्नि विषये श्रुतिस्पृहा श्रवणेच्छा न श्लथा न निवृत्ता। न च सुरसन्देशश्रवणादेव तनिवृत्तिरित्याह-तथा हि पिपासुता पिपासेत्यर्थः / वारिणा वारिपानेनैव शान्तिमुपैति अधिकादनल्पादपि दुग्धात् क्षीरात् मधुनः क्षौद्राद्वा, जातु कदापि न शाम्यति, तद्वदनापीति / दृष्टान्तालङ्कारः // 5 // कानोंकों ( सन्तृप्त करनेसे ) अमृत आपके वचन ( मैंने ) सुने, (किन्तु) आपके नामके विषयमें कानोंकी अभिलाषा अर्थात् 'आपका नाम क्या है ? ऐसी इच्छा शिथिल नहीं हुई / इतना अधिक आपके मधुर वचन सुननेपर भी मैं आपका नाम सुनना चाहती हूं; क्योंकि प्यास पानीसे ही शान्त होती है, अधिक दूध या शहदसे कभी नहीं / [जिस कारण अधिक भी दूध या मधुसे प्यास नहीं शान्त होती, किन्तु पानीसे ही शान्त होती है, उसी प्रकार आपके नाम सुननेकी मेरी इच्छा दूसरी बातोंसे नहीं शान्त होतो; अतएव कृपाकर अपना नाम बतलाइये / यहाँपर प्यासका दृष्टान्त देनेसे यह सूचित होता हैं कि प्यासे व्यक्ति को जल पिलानेसे ही पुण्य होता है, अधिकसे अधिक दूध या शहद देने या पिलानेसे नहीं, उसी प्रकार अपना नाम बतलानेसे मेरी तद्विषयिणी इच्छाकी निवृत्ति करके आप पुण्य लाभ कीजिये, दूसरी बातें कहनेसे कुछ लाभ नहीं है, प्याऊ लगाकर प्यासे व्यक्तियोंकी प्यासको पानी द्वारा शान्त करनेसे पुण्यलाभ होनेकी बात सर्वविदित है ] // 5 // Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 नवमः सर्गः। विभर्ति वंशः कतमस्तमोऽपहं भवादशं नायकरत्नमीदृशम् / / तमन्यसामान्यघियाऽवमानितं त्वया महान्तं बहु मन्तुमुत्सहे / / 6 // बिभर्तीति / तमोऽपहं भवाशमीदृशं नायकरत्नं राजश्रेष्ठं हारमध्यमणिं च / 'नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि' इति विश्वः। कतमो वंशः कुलं वेणुश्च / 'वंशो वेणी कुले वर्गे' इति विश्वः / बिभर्ति ? किमर्थमिति चेत् / अन्यसामान्यधिया पूर्व सर्वसाधारणबुद्धया अवमानितं दृष्टं तथाप्यद्य त्वया महान्तं तमुत्कृष्यमाणं वंशं बहु मन्तुं बहु कर्तुमुत्सहे, सर्वोऽपि हि वंशो मान्यैः पुरुषधौरेयैरेव प्रकाशते न स्वरूपत इति भावः / अत्र मध्यमणिरूपार्थान्तरप्रतीतिवनिरेव / अत्र वेणोर्मकायो। नित्वे प्रमाणम् / 'करीन्द्रजीमूतवराहशङ्खमत्स्या'ब्धिशुक्स्युद्भववेणुजानि / मुक्काफलानि अथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि' // इति // 6 // कोन वंश (सूर्य या चन्द्रमाके कुलमें कौनसा कुल, पक्षा०-कौन-सा बांस ) अन्धकार ( अज्ञान या क्रोध-नाशक आप-जैसे ( परमश्रेष्ठ ) नायक रत्न ( नायकोंमें रत्नतुल्य पक्षा०-मालाके मध्यमें स्थित श्रेष्ठ मणि) को धारण करता है अर्थात् आप किस वंश ( पक्षा-रत्नोपादक बाँसमें उत्पन्न हुए हैं ? अन्य साधारण बुद्धिसे अपमानित तथा आपसे महान् अर्थात् महत्त्वको प्राप्त उस (कुल, पक्षा०-बांस) का मैं बहुमान ( अधिक सरकार ) करने के लिये उत्साह करती हूं। [ कोई भी कुल या बांस आरम्भसे स्वयमेव उन्नत नहीं रहता है, पहले वह सर्वसामान्य दृष्टि से देखे जानेके कारण अपमानित ही रहता है किन्तु उसे उस वंशमें उत्पन्न कोई महापुरुष ही उन्नत करता है। अतएव आप बतलाहये कि आपने किस वंशमें जन्म लेकर उसे उन्नत किया है ? ] // 6 // इतीरयित्वा विरतां पुनः स तां गिरानुजग्राहतरां नराधिपः / विरुत्य विश्रान्तवती तपात्यये घनाघनश्चातकमण्डलीमिव // 7 // इतीति / इतीरयित्वा इत्थं व्याहृत्य विरतां तूष्णीभूतां तां भैमी स नराधिपः नलः तपात्यये ग्रीष्मान्ते विरुत्य पिपासया आक्रन्द्य विश्रान्तवती विरतां चातकानां मण्डली समूहं धनाधनो वर्षकाब्द इव / 'वर्षुकाब्दो घनाधनः' इत्यमरः। पुनगिरा वचनेन गर्जितेन चानुजग्राहतरामतिशयेनानुगृहीतवान् / आदरात् प्रत्युवाचेत्यर्थः / "किमेत्ति" इत्यादिना आम्प्रत्ययः // 7 // वह राजा नल, ऐसा ( श्लो० 3-6 ) कहकर चुप हुई उस दमयन्तीपर ग्रीष्मकालके वाद बोलकर विश्रान्त ( प्याससे थकी) चातकमण्डलीपर बरसनेवाले मेघके समान अतिशय अनुग्रह किया। [जिस प्रकार ग्रीष्म कालके बाद बोलते-बोलते प्याससे थककर चातकसमूहके चुप हो जानेपर मेघ वहुत गरज और बरसकर उसे अनुगृहीत करता है उसी प्रकार नलके वंश तथा नाम सुनने के लिए बहुत समयसे उत्सुक एवं बार-बार पूछकर चुप हुई 1. "-रस्याहि-" इति पाठः समीचीनो भाति, अहेरपि रत्नोपलब्धेर्दर्शनात् / 30 नै० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्ती को नलने पुनः बोलकर अनुगृहीत किया। नल दमयन्तीके वार-बार पूटनेपर पुनः बोले-] // 7 // अये ! ममोदासितमेव जिह्वया द्वयेऽपि तस्मिन्ननतिप्रयोजने। गरौ गिरः पंझवनार्थलाघवे मितञ्च सारश्च वचो हि वाग्मिता II अये इति / अये ! दमयन्ति ! न विद्यते अतिप्रयोजनमधिकप्रयोजनं यस्मिन् तस्मिन् द्वयेऽपि कुलनाम्नोर्युगलेऽपि मम जिह्वया उदासितं माध्यस्थ्येन स्थितं, 'नपुंसके भावे कः'। तथा हि-पल्लवनं विस्तरणं वृथाशब्दप्रलपनमिति यावत् / तचार्थलाघवञ्च वकन्यार्थसङ्कोचन गिरः वाचः गराविव विषप्रायावुभावित्यर्थः / मितमल्पातरं सारं महार्थशवचो वाक्यं वाग्मिता वक्तृत्वम्, अन्यथा वाचालता स्यादिति भावः / “वाचो ग्मिनिः" / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥ हे दमयन्ति ! विशेष प्रयोजनसे हीन उन दोनों ( कुल तथा नामके कहने ) में मेरी जिह्वाने उदासीनता धारणकी अर्थात् विशेष प्रयोजन नहीं होनेके कारणसे ही मैंने अपना कुल तथा नाम नहीं कहा, ( क्योंकि बातको) अत्यन्त बढ़ाना और अर्थका सङ्कोच करना ( थोड़ेमें कहने योग्य बातको बहुत बढ़ाकर कहना तथा बहुत अर्थवाली बातको थोड़े अर्थ में कहना)-ये दोनों ही बचनके विष (विषतुल्य ) हैं, ( अत एव विषतुल्य ऐसी बातको माध्यस्थ्य धारणकर छोड़नाही उचित है ); क्योंकि (शब्दमें ) परिमित तथा ( अर्थमें ) सारयुक्त वचन ( कहना ) ही पाण्डित्य है / [ पूछने परभी निःसार बातका उत्तर देना अनुचित मानकर ही मैंने मेरे वंश तथा नामके विषयमें तुम्हारे पूछने पर भी उत्तर नहीं दिया है ] // 8 // वृथा कथेयं मयि वर्णपद्धति कयानुपूर्या समकेति केति च . क्षमे समक्षव्यवहारमावयोः पदे विधातुं खलु युष्मदस्मदी / / 3 / / कुलनामकथनं वृथत्युक्तं, तब नामकथनस्य वैयर्थ्यमाह-वृथेति / का वर्णपद्धतिरक्षरपरितः / कयानुपूर्व्यानुक्रमेण मयि समकेति संज्ञात्वेन संकेतितेतीयं कथा प्रश्नोक्तिश्च वृथा। किमुतोत्तरमिति भावः। नामरूपापरिज्ञाने कथमावयोमिथः संवादस्तत्राह-आवयोस्तव मम चेत्यर्थः / त्यदायेकशेषे यत्परं तदिति वचनादस्मदः शेषता। अक्षणोः समीपे समक्ष सम्मुखेन। समीपार्थेऽव्ययीभावे शरत्प्रभृतित्वात् समासान्तः / व्यवहारं मिथःसंकथां विधातुं युष्मच्चास्मञ्च युष्मदस्मदी पदे त्वमहमित्येतौ शब्दावित्यर्थः / तमे समर्थे खलु // 9 // 'मुझमें कौन वर्णसमूह ( कौन-कौन-से अक्षर ) किस आनुपूर्वी ( क्रम ) से संकेतित है; यह चर्चा ( प्रश्न ) भी व्यर्थ है ( तो तत्सम्वन्धी उत्तर तो सर्वथा व्यर्थ है ही। क्योंकि ) हम दोनों के प्रत्यक्ष व्यवहार ( बातचीत ) करने के लिये युष्मद् और अस्मद् शब्दके पद 1. "गरः" इति पाठान्तरम् / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 473 ही समर्थ हैं, [ 'तुम यह कहो, मैंने यह कहा' इत्यादि प्रकारसे ही प्रत्यक्षमें बातचीत होनेसे नाम तथा वंशका भी परिचय देना व्यर्थ है ] // 9 // यदि स्वभावान्मम नोज्वलं कुलं ततस्तदुगावनमोचिती कुतः। अथावदातं तदहो विडम्बना यथा तथा प्रेष्यतयोपसेदुषः // 10 // अकथने च कारणमाह-यदीति / मम कुलं स्वभावादुज्ज्वलमकलईन यदि, ततस्तर्हि तस्य कुलस्योद्भावनं प्रकटनं कुत औचिती औचित्यं नोचितमित्यर्थः / धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् औचिती व्याख्यातव्या। अथावदातमुज्ज्वलं तथापि यथा तथा कथशिदपि प्रेष्यतया किकरतया उपसेदुषः प्राप्तस्य मम तत् कुलोनावनं विडम्बना परिहासः। अहो // 10 // यदि मेरा वंश स्वभावसे ही निर्मल (निदोष-श्रेष्ठ) नहीं है तो उसका कहना किस प्रकार उचित है ? अथवा ( यादे मेरा वंश स्वभावतः ) निर्मल है तो दूत बनकर आये हुए मेरा उसको कहना विडम्बना है, अहो ! आश्चर्य है / [ यदि मेरा वंश नीच है तो नीच अर्थात् सदोष उस वंशका परिचय देना कैसे सम्भव है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपना भी दोष नहीं बतलाता तो भला वंशका दोष कैसे बतला सकता है ? और यदि मेरा निर्मल कुल है तो भी में इस समय दूसरे का दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूँ और किसी उच्च कुलमें उत्पन्न किसी व्यक्तिका किसीके दूतका कार्य करना अच्छा नहीं समझा जाता, इस दृष्टिसे भी उच्च कुल होने पर भी इस समय तुमसे बतलाना मेरे कुलका उपहास ही है; यही कारण है कि मैं अपना नाम तथा वंश नहीं बतलाता ] // 10 // इति प्रतीत्यैव मयावधीरिते तवापि निर्बन्धरसो न शोभते / हरित्पतीनां प्रतियाचिकं प्रति श्रमो गिरां ते घटते हि संप्रति // 11 // इतीति / इतीत्थं प्रतीत्य कुलनामकयनं वृथेति निश्चित्यैव मयाऽवधीरिते उपेक्षिते सति तवापि निर्बन्धरसो निर्बन्धेच्छा न शोभते / किंतु सम्प्रति हरिपती. नामिन्द्रादीनां प्रतिवाचिकं प्रतिसन्देशं प्रत्युत्तरं प्रतीत्यर्थः। ते तव गिरां श्रमः प्रयत्नः वाग्व्यापारो घटते युज्यते हि // 11 // इस ( श्लो० 8-10) विश्वाससे ही मुझसे तिरस्कृत ( उत्तर नहीं दिये गये) प्रश्नके विषय में तुम्हारा भी अधिक आग्रह नहीं शोभता है ( अथवा-इस विश्वाससे ही मैंने : कुल-नाम ( के उत्तर देने ) का तिरस्कार किया है अर्थात् कुल-नाम नहीं बतलाये हैं, तुम्हारा भी ( उस विषयमें ) अधिक आग्रह नहीं शोभता है। अत एव इस समय दिक्पालोंके प्रतिवाचिक ( सन्देशका प्रत्युत्तर ) के प्रति तुम्हारे वचनों का श्रम उचित है अर्थात् इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देश का उत्तर देना युक्त है / [निरर्थक मेरे नाम तथा कुलके उत्तरके लिये आग्रह छोड़कर प्रासङ्गिक दिक्पालोंके सन्देशोंका उत्तर देना युक्त है ] // 11 // Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 नैषधमहाकाव्यम् / तथापि निर्बध्नति ! तेऽथवा स्पृहामिहानुरुन्धे मितया न किं गिरा। हिमांशुवंशस्य करीरमेव मां निशम्य किं नासि फलेग्रहिग्रहा // 12 // ___ तथापीति / तथापि वैयर्थेऽपि निर्बध्नति ! निर्बन्धकारिणि ! बध्नातेः शत्रन्तादुगितश्चेति डीबन्तात् सम्बुद्धिः / इहार्थे ते तव स्पृहां वान्छां मितया गिरा नानुरुन्धे नानुवर्ते किम् ? अनुरोत्स्याम्येवेत्यर्थः / कुलस्वरूपमात्रं कथयामीत्यर्थः / रुधेर्लटि तक। मां हिमांशुवंशस्य करीरं सोमकुलाङ्कुरमेव निशम्य फलं गृह्णातीति फलेग्रहिः सफलः ग्रहः आग्रहो यस्याः सा सफलाभिनिवेशा नासि किम् ? तावता न तुष्यसि किमित्यर्थः / “फलेग्रहिरात्मम्भरिश्चे"ति निपातनात् साधुः // 12 // ___ अथवा तथापि ( कुल तथा नामके नहीं बतलानेका कारण कहनेपर भी ) हे आग्रहशीले ( आग्रह करनेवाली दमयन्ति ) ! परिमित वचनसे ( थोड़े शब्दोंमें उत्तर देनेसे ) इस विषय में तुम्हारी उत्कट इच्छाको (मैं) क्यों न रोक दूं ? ( अथवा-इच्छा का क्यों नहीं अनुरोध करूं अर्थात् अनुकूल बनकर उत्तर दे दूं ?) चन्द्रवंश ( चन्द्रकुल, पक्षा०-चन्द्ररूप बांस ) का करीर ( बालक, पक्षा०-अङ्कुर अर्थात् कोपल ) ही मुझको सुनकर तुम सफल आग्रह वाली नहीं हो क्या ? अर्थात् अवश्य ही सफल आग्रहवाली हो। [जिस प्रकार बांसमें बड़ेबड़े बांस उत्पन्न होते हैं, उनमें छोटे-से कोपलका कोई विशिष्ट स्थान नहीं रहता, उसी प्रकार चन्द्रवंशमें बहुतसे बड़े राजा हो चुके हैं, उनमें मैं एक बालक ( अप्रसिद्ध सामान्य व्यक्ति) हूँ, मेरा कोई विशिष्ट स्थान नहीं है / इस प्रकार कहते हुए नलने अपनेको प्रकाशित नहीं किया है, अपि तु अपनेको साधारण बतलाकर छिपाया है ] // 12 // महाजनाचारपरम्परेडशी स्वनाम नामाददते न साधवः। 'अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनर्जनः किलाचारमुच विगायति / / 13 // कुलमुक्तं नाम तु वाच्यमित्याह-महाजनेति। महाजनानां सतामाचारस्य परम्परा सम्प्रदायः ईदृशी / तामेवाह-साधवः सन्तः स्वनाम नाददते न गृह्णन्ति नाम / नामेति प्रसिद्धौ-"नामानुकीर्तनं पुंसामात्मनश्च गुरोः स्त्रियाः। दिनमेकं हरत्यायु"रिति निषेधादिति भावः / अतो निषेधात् तत् पुनस्तन्नाम तु अभिधातुं नोत्सहे न शक्नोमि / "शकष" इत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः / तथा हि-जनो लोक आचारमुचमाचारत्यजं विगायति किल गर्हते खलु // 13 // ___महापुरुषोंके आचारकी ऐसी परम्परा है कि सज्जन लोग अपना नाम नहीं लेते, इस कारण मैं उसे ( नामको ) कहने के लिये उत्साह (इच्छा) नहीं करता हूं अर्थात् नहीं कहना चाहता हूँ; क्योंकि आचार छोड़नेवालेकी लोक निन्दा करता है / [अतएव मैं बड़ोंके आचार 1. “ततो-" इति पाठान्तरम् / 2. तदुक्तम्-"आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकपणस्य च / श्रेयस्कामो न गृहीयाज्ज्येष्ठापत्यकलत्रयोः // " इति / Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 405 का त्यागकर आत्मनिन्दा कराना नहीं चाहता, इसी कारण अब तुम्हें भी मेरे नाम जाननेके लिए आग्रह नहीं करना चाहिये ] // 13 // अदोऽयमालप्य शिखोव शारदो बभूव तूष्णीमहितापकारकः / / अथाऽऽस्यरागस्य दधा पदे पदे वचामि हंसीव विदर्भजाददे // 14 // अद इति / अहितानामरीणामपकारकः अपकर्ता अन्यत्राहीनां तापकारकोsतिहिंसाकरः / श्यं नलः शरदि भवः शारदः, “सन्धिवेलाधतुनक्षत्रेभ्योऽण"। शिखी केकीव अदः इदं वचनमालप्य व्याहृत्य तूष्णीं बभूव। अथानन्तरमस्य वाक्यस्य सम्बन्धिनि पदे सुप्तिङन्तरूपे पदे विषये रागस्य श्रवणेच्छाया दधातीति दधा धरित्री प्रत्यक्षरं सुधास्त्रावित्वादविच्छिन्नतृष्णेत्यर्थः / “ददातिदधात्योर्विभाषा" इति दधातेरप्रत्यये श्लाविति द्विर्भावः, 'अजाद्यतष्टाप्' / अन्यत्र पदे पदे चरणद्वये आस्ये चन्चुपुटेरागस्य लौहित्यस्य दधा। 'राजहंसास्तु ते चन्चुचरणैर्लोहितैः सिता' इत्यमरः। विदर्भजा वैदर्भी हंसीव वचांस्याददे उवाचेत्यर्थः। शरदि निःशब्दाः शिखिनः राजहंसाः शब्दायन्ते तद्वदिति भावः // 14 // शत्रुओंका अपकारक ( शत्रुओंको मारनेवाले, पक्षा-भोक्ता होनेके कारण सर्पोको सन्तप्त करनेवाले ), शारद (निपुण, पक्षा०-शरत्कालीन ) मोरके समान ये नल यह वचन ( श्लो० 8-13) कहकर चुप हो गये। इस (नलके चुप होने ) के बाद इस (नल) के पद-पद ( सुबन्त-तिङन्तरूप प्रत्येक पद ) में अनुरागको धारण करनेवाली विदर्भेशकुमारी दमयन्ती ( पक्षा०--शरद् ऋतु आनेसे इस मयूर के चुप होनेके बाद मुख-राग (चोंचकी लालिमा) को प्रत्येक चरणों में धारण करती हुई हंसी अर्थात् राजहंसी ( राजहंसकामुख और पैर लाल होते हैं ) के समान वचनको ग्रहण किया अर्थात् बोली। [ वर्षा ऋतुमें मयूरकी बोली प्रिय होती है, शरद् ऋतुमें मयूरकी बोलीमें रूक्षता आ जाती है और वह शरद् ऋतुके आनेपर चुप हो जाता है तथा राजहंसी मधुर बोलने लगती है। यहां नलको मयूर तुल्य कहनेसे उनके वचनमें कुछ रूक्षता तथा दमयन्तीको राजहंसीतुल्य कहनेसे उसके वचनमें मधुरता सूचित की गयी है तथा नलके केवल अपना वंशमात्र ही बतलाकर मौन धारण करनेसे उनके वचनमें शरत्कालीन मयूरके समान रूक्षता और अग्रिम वचनोंमें नलकी प्रशंसा करते हुए ही पुनः नाम-विषयक प्रश्न करनेसे दमयन्तीके वचनोंमें शरत्कालीन राजहंसी-वचनके समान मधुरताका होना उचित ही है। तथा शरत्कालमें मयूरस्थानीय नलका उक्त प्रकारसे रूक्ष वचन बोलकर चुप होना और उसके बाद राजहंसीस्थानीय दमयन्तीका मधुर बचन बोलनेका आरम्भ करना भी उचित ही है ] // 14 // सुधांशुवंशाभरणं भवानिति श्रुतेऽपि नापैति विशेषसंशयः / कियत्सु मौनं वितता कियत्सु वाङ्महत्यहो वञ्चन चातुरो तव / / 15 / / Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् ____ सुधांश्विति / भवान् सुधांशुवंशाभरणमिति श्रुतेऽपि विशेषविषये संशयस्तत्रापि क इति सन्देहो नापैति अतो विशेषो वक्तव्य इति भावः। अथावाच्यत्वामोच्यते तर्हि कियद्वाच्यं तदेव विविच्यतामित्याह-कियत्स्वर्थेषु मौनं कियत्सु विषयेषु वाग्वितता विस्तृता न किञ्चिदत्र नियामकमस्तीति भावः। किंतु तव वञ्चनचातुरी प्रतारणाचातुर्य महती। अहो! औचितीवचातुरी व्याख्येया॥१५॥ 'आप चन्द्रवंशके आभरण हैं। यह सुननेपर भी ( मेरा ) विशेष सन्देह ( ये नल हैं या दूसरा कोई है, इस प्रकारका नाम-विषयक सन्देह ) दूर नहीं होता है ( अतः आप अपना नाम बतलाकर मेरा सन्देह सर्वथा दूर कर दीजिये ), कुछ विषयों ( नाम आदि ) में मौन तथा कुछ विषयों ( कहांसे आये, कहां आये इत्यादि ) में अत्यन्त विस्तृत (हम इन्द्रादि दिक्पालोंके पाससे तुम्हारे ही यहां अतिथि आये हैं, उनके संदेश लाये हैं इत्यादि बहुत विस्तृत) आपकी बोलनेकी चतुराई है, यह आश्चर्य है। [ आप मेरे कुछ प्रश्नोंका उत्तर न देकर तथा कुछ प्रश्नोंका बढ़ाचढ़ाकर उत्तर देकर जो मुझे ठगनेकी चतुरता कर रहे हैं, इससे मुझे बड़ा आश्चर्य होता है ] // 15 // मयापि देयं प्रतिवाचिकं न ते स्वनाम मत्कणेसुधामकुर्वते / परेण पुसा हि ममापि सङ्कथा कुलाब लाचारसहासनासहा / / 16 // अथ यदुक्कं नामकथनं निषिद्धमिति तत्र प्रतिबन्दी गृहाति-मयापीति / स्वनाम मम कर्णसुधां कर्णामृतमकुर्वते अश्रावयते इत्यर्थः / ते तुभ्यं मयापि प्रतिवाचिकं प्रतिसन्देशनं न देयं, कुतः, हि यस्मान्ममापि परेण पुंसा सङ्कथा सम्भाषणं कुलाबलानां कुलाङ्गनानामाचारस्य सहासनं सहवासस्तस्य न सहत इत्यसहा अक्षमा। 'पचायच'। कुलस्त्रीसमाचारविरुद्धत्यर्थः॥ 16 // ___ अपने नामको मेरे कानोंमें अमृत नहीं बनाते हुए (अपना नाम मुझसे नहीं बतलाते हुए) आपके लिए मैं भी प्रत्युत्तर ( इन्द्रादि दिक्पालोंके संदेशका उत्तर ) नहीं देती हूं, क्योंकि परपुरुषके साथ विशेष गोष्ठी अर्थात् सम्भाषण कुलाङ्गनाके आचारके सहवासके विरुद्ध है। [जिस प्रकार नाम-ग्रहण आपके लिये सज्जनाचार-विरुद्ध ( श्लो०--१३) है, उसी प्रकार परपुरुषके साथ सम्भाषण करना भी मेरे लिए कुलीन स्त्रियोंके सदाचार के विरुद्ध है; अतएव जब तक आप अपना नाम नहीं बतलायेंगे, तब तक मैं भी आपके वचनोंका उत्तर नहीं दूंगी ] // 16 // हृदाभिनन्दा प्रतिवन्धनुत्तरः प्रियागिरः सस्मितमाह स स्म ताम् | वदामि वामाक्षि! परेषु मा क्षिप स्वमीशं माक्षिकमाक्षिपचः // 17 // __ हृदेति / स नलः प्रियाया गिरो वाक्यानि हृदा हृदयेन अभिनन्द्यानुमोद्य प्रतिवन्या पूर्वश्लोकोक्त्या अनुत्तरः तां प्रियां सस्मितमाह स्म उक्तवान् / 'लट् स्म'इति भूते लट् / हे वामाक्षि! चारुलोचने! वदामि। मक्षिकाभिः कृतं माक्षिकम् / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 477 नवमः सगः। 'मधुभेदो मधु चौद्रं माक्षिकादि' इत्यमरः / तेन कृतमित्यर्थे संज्ञायामित्यण्प्रत्ययः / तदाक्षिपत् निराकुर्वत् तत्सदृशमिस्यर्थः / ईदृशं लोकोत्तरं स्वं वचः परेषु परपुरुषेषु मा क्षिप मा निधेहि सत्यं कुलस्त्रीणां परपुरुषसम्भाषणमनुचितमङ्गीकृतं च स्वयं तु न परपुरुष इति भावः // 17 // (परपुरुषके साथ सम्भाषण करना कुलाङ्गनाओं के आचारसे विरुद्ध होने के कारण मैं भी आपसे अपना नाम नहीं बतलानेतक उत्तर नहीं दूंगी, इस प्रकारके दमयन्तीके वचनरूप ) प्रतिवन्दीसे अनुत्तर ( उत्तर देने में असमर्थ ) ये नल प्रिया ( दमयन्ती ) के वचनोंको ( अथवा-प्रिय वचनोंको अर्थात् मेरा नाम जानने के लिए यह इतना आग्रह कर रही है तथा परपुरुषसे भाषण नहीं करना चाहती ऐसी प्रिय बातोंको ) सुनकर मुस्कान के साथ उस दमयन्तोसे बोले-रे वामाक्षि ! ( सुन्दर नेत्रवाली, या कटाक्ष करनेसे टेढ़े नेत्रबालो, दमयन्ति ! ) मैं कहता हूं अर्थात् अपना नाम बतलाता हूं / मधुको तिरस्कृत करता हुआ ऐसा ( अनिर्वचनीय ) अपना वचन दूसरों (परपुरुषों ) में मत कहो। [ अथवा-सस्मित अर्थात् हंसते-हंसते मधुको तिरस्कृत..............। अथवा-उक्तरूप वचन परपुरुषसे मत कहो, किन्तु इन्द्रादि दिक्पालोंसे ही कहो / अथवा--ऐसे आत्मीय मुझको परपुरुषोंमें मत फेंको अर्थात् मुझे परपुरुष मत समझो, किन्तु इन्द्रादिके दूत होनेसे आत्मीय ही समझो, अतएव इन्द्रादिके सन्देशका उत्तर मुझे देने में कुलाङ्गनाचारका भङ्ग मत समझो / अथवा-मधुका तिरस्कार करनेवाला अर्थात् अतिशय मधुर वचन दूसरोंसे मत कहो, किन्तु मुझले ही कहो / अथवा--मुझे परपुरुषमें मत फेंको अर्थात् परपुरुष मत समझो किन्तु नल ही समझो ] // 17 // करोषि नेमं फलिनं मम श्रमं दिशोऽनुगृह्णासि न कञ्चन प्रभुम् / त्वमित्यमोसि सुरानुपासितुं रसामृतस्नानपवित्रया गिरा // 18 // करोषीति / हे भैमि ! भीमजे! मम इमं श्रमं सुरकार्यप्रयासं फलिनं फलवन्तं 'फलवान् फलिनः फली' इत्यमरः "फलवर्हाभ्यामिनज्वक्तव्यः।" न करोपि कथं, कञ्चनैकमपि दिशः प्रभुं दिगीशं नानुगृहासि, त्वमित्थं रसो माधुर्यमेवामृतं तत्र स्नानेनावगाहेन पवित्रया पूतया गिरा सुरानुपासितुमर्हसि साताधिकारत्वाद्देवपू. जाया इति भावः॥१८॥ मेरे इस परिश्रम ( इन्द्रादि का दूत वनकर यहां तक आनेका प्रयास ) को सफल नहीं करोगी ? ( अपितु सफल करना चाहिये ), किसी एक दिक्पालको (स्वयंवर में वर ग करने का आश्वासन देकर ) अनुगृहीत नहीं करती हो ? अर्थात् करना चाहिये / तुम इस प्रकार से ( प्रतिवन्दी बनाकर ) माधुर्यरसरूपी अमृतसे स्नान करनेके कारण पवित्र वचनले देवोंकी ( इन्द्रादि चारों दिक्पालोंकी या इनमेंले किसी एक दिक्पालकी ) उपासना करनेके योग्य हो अर्थात् मुझको जैसे प्रतिवन्दी ( श्लो० 15) बना दिया है, वैसे देवताओं Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / को वरणकः उन्हें प्रतिवन्दी बनाकर उनको सेवा करो [चारो दिक्पालों से किसी एकको वरण करनेका प्रतिसन्देश देकर उनका सम्मान करो ] // 18 // सुरेषु सन्देशयसीहशी बहुं रसस्रवेण स्तिमितां न भारतीम् / मदपिता दर्षकतापितेषु या प्रयातु दावादितदाववृष्टिताम् / / 16 // सुरेष्विति / ईदृशी लोकोत्तरांबहु प्रभूतां रसस्रवेण रसप्रवाहेण स्तिमितां भरितां भारती सुरेषु न सन्देशयसि सन्देशं न करोषि / सन्देशशब्दात् तत्करोतीति ण्यन्तालटि सिप / या भारती दर्पण कन्दर्पण तापितेषु तेषु मयार्पिता सती दावादिता दावाग्निदग्धाऽरण्ये या वृष्टिः तत्तां प्रयातु सन्तापसंहरणात् तत्सदृशी भवेदिति निदर्शनालङ्कारः / 'दवदावी वनारण्यवह्रीं' इत्यमरः // 19 // / ___ माधुर्य रसके क्षरण से परिपूर्ण अथवा वक्रोक्त्यादिसे सरस ऐसी बहुत-सी वाणीको देवोंमें नहीं सन्देश देती हो ( तुम ऐसी वाणी का सन्देश देवों के लिए दो ), मेरे द्वारा अर्पण की गयी अर्थात् स्नायी गयी ( अथवा तुम्हारे द्वारा मुझमें अर्पणकी गयी अर्थात् इन्द्रादिके लिये प्रतिसन्देशरूपमें मुझसे कही गयी ) जो वाणी कामदेवसे सन्तप्त उन (देवों ) में दावाग्निसे पीडित वनमें वृष्टिके समान होती है। [जिस प्रकार दावाग्निसे जलते हुये वन के सन्ताप को वृष्टि शान्त करती है, उसी प्रकार मुझसे प्रतिसन्देशरूपमें कही गयी माधुर्यरसपूर्ण तुम्हारी वाणी कामानल-सन्तप्त देवोंके सन्ताप को दूर करेगी; अतएव तुम्हें देवोंके लिये सन्देश देना उचित है ] // 19 // यथा यथेह त्वं दपेक्षयाऽनया निमेषमप्येष जनो विलम्बते / रुषा शरव्यीकरणे दिवौकसां तथा तथाऽद्य त्वरते रतः पतिः // 20 // यथा यथेति / हे भैमि ! एष अयं जनः स्वयमित्यर्थः / यथा यथा यावत् यावदित्यर्थः / इह त्वत्समीपे त्वदपेक्षया त्वदनुरोधेन निमेषमपि विलम्बते, रतेः पतिः कामो रुषा दिवौकसां देवानां शरव्यीकरणे लक्ष्यीकरणे तथा तथाऽद्य त्वरते, अतः चिप्रमेव प्रतिवाचं देहीत्यर्थ // 20 // ___ यह जन अर्थात् मैं तुम्हारी उत्तर देनेके अनुरोध से (पाठा०-अपेक्षासे अर्थात् तुम्हारे उपेक्षासे, प्रतिसन्देश नहीं देनेसे ) जैसे-जैसे निमेषमात्र भी विलम्ब करता है, वैसे-वैसे रतिपति (कामदेव) देवोंको बाणों का निशाना बनाने में आज शीघ्रता करता है / [ अतएव तुम बहुत शीघ्र अर्थात् निमेषमात्र भी विलम्ब न कर उत्तर दो] // 20 / / इयच्चिरस्यावदधन्ति मत्पथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिन निर्ममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेष्यगुणोऽपि यत्र न // 11 // इयदिति / मत्पथे मदागमनमार्गे इयच्चिरस्य इयच्चिरमित्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे 1. “त्वदुपेक्षया-"इति पाठान्तरम् / Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। द्वितीयार्थेऽव्ययम् / 'चिराय चिररात्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थका' इत्यव्ययेऽवमरः। अवदधन्ति अवहितानि सन्ति / "वा नपुंसकस्य" इति शतुर्नुमागमः / इन्द्रनेत्राणि (कर्म) अशनिवज्रो न निर्ममौ किम् ? नूनं, वज्रमयानीत्यर्थः। अन्यथा कथमीदग्विलम्बनसहत्वमिति भावः। सत्वरकायें क्षिप्रकर्तव्ये मन्थरं मन्दं मां धिगस्तु ममेयं निन्दा प्राप्तेत्यर्थः। कुतो यत्र मयि परेषां प्रेष्यः कर्मकरः तस्य यो गुणः क्षिप्रकारिवलक्षणः सोऽपि न स्थितः / त्वदीयप्रत्युत्तरविलम्बनान्ममेयमदक्षता प्राप्तेत्यहो कष्टं परप्रेष्यभाव इति भावः // 21 // ___ इतने विलम्ब तक मेरे मार्गमें सावधान अर्थात् मेरे मार्गको देखती हुई इन्द्रकी आंखों को वज्रने नहीं बनाया क्या ? ( वज्र ने ही इन्द्रकी आंखोंको इतना दृढ़ बना दिया है कि वे इतना विलम्ब करने पर भी मेरे मार्गको देखते रहनेमें समर्थ हो सकी हैं / अन्यथा बे इतना विलम्ब सहन करने में कभी भी समर्थ नहीं होती)। शीघ्र किये जानेवाले कार्यमें शिथिल मुझको धिक्कार है, जिसमें दूसरेके दूत (अथवा--श्रेष्ठ दूत ) का गुण भी नहीं हैं / [ भेजे गये दूतको शीघ्र वापस जाकर भेजनेवालेसे उसके कार्यकी सिद्धि या असिद्धि होनेका समाचार कहना चाहिये, किन्तु तुम्हारे उत्तर देनेसे विलम्ब करनेके कारण ही मुझमें यह दोष आ रहा है, अतएव तुम शीघ्र दिक्पालोंके सन्देशका उत्तर देकर मुझे वापस करो] // 21 // इदं निगद्य क्षितिभर्तरि स्थिते तयाऽभ्यधायि स्वगतं विदग्धया / अधिस्त्रि तं दूतयतां भुवः स्मरं मनो दधत्या नयनैपुणव्यये // 22 // इदमिति / क्षितिभर्तरि भूपे इदं निगद्य स्थिते तूष्णीं भूते सति स्त्रीष्वधिस्त्रि विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावे नपुंसकहस्वः / भुवः स्मरं भूलोकमन्मथं तं पुरुषं दूतयतां दूतकृत्ये निषिद्धमत्यतिसुन्दरमेनं दूतं कुर्वतामित्यर्थः। यथा भरतः-'नोज्ज्वलं रूपवन्तं च नार्थवन्तं न चातुरम् / दूतं वापि हि दूती वा बुधः कुर्यात्कदाचन // ' इति / नयनैपुणव्यये नीतिचातुर्यशून्यत्वे मनो दधत्या निदधत्या एते नीतिशून्या इति जानन्त्येवेत्यर्थः / अत एव विदग्धया कुशलया दमयन्त्या स्वगतमप्रकाशं यथा तथा आत्मन्येवाभ्यधायि अभिहितं, 'सर्वश्राव्यं प्रकाशं स्यादश्राव्यं स्वगतं मतम्' इति दशरूपके लक्षणात् / अहो बुद्धिमान्द्यमेषां यदेनं कामं दूत्ये नियुक्तवन्त इति भावः॥ 22 // ___ इस प्रकार ( श्लो० 17-21) कहकर राजा (नल ) के ( मौन धारणकर) स्थित होनेपर पृथ्वीके कामदेव उसको स्त्री ( मुझ दमयन्ती ) में दूत करते हुए अर्थात् दूत बनाकर भेजते हुए ( इन्द्रादि ) की नीतिकी निपुणताकी समाप्तिमें मन ( अपने मन ) को धारण करती हुई अर्थात् भूलोकमें कामदेवरूप उस पुरुषको मुझ स्त्रीके विषयमें दूत बनाकर भेजनेसे इन्द्रादि नीति-शानसे शून्य हैं ऐसा अपने मन में समझती हुई, ( अत एव ) चतुर Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 नैषधमहाकाव्यम् / उस दमयन्तीने स्वगत ( आप ही आप-दूसरेके द्वारा नहीं सुनने योग्य ) कहा / [ अथवा....भेजते हुए इन्द्रादिके मनको नीति-निपुणतासे हीन धारण करती हुई ( समझती ) हुई ... ... ... | इतने सुन्दर तथा चतुर ब्यक्तिको मेरे पास दूत भेजनेवाले इन्द्रादि दिक्पाल नीतिमें चतुर नहीं हैं, ऐसा समझकर दमयन्तीने अपने-आप कहा] // 22 // जलाधिपस्त्वामदिशन्मयि ध्रुवं परेतराजः प्रजिघाय स स्फुटम् / मावतैव प्रहितोऽसि निश्चितं नियोजितश्चोर्ध्वमुखेन तेजसा // 23 // स्वगतवाक्यमेवाह-जलेति / जलाधिपो वरुणः लडयोरभेदात् जडाग्रणीश्च मयि विषये मां प्रतीत्यर्थः / त्वामदिशदतिसृष्टवान् ध्रुवम् ? / स प्रसिद्धः परेतराजो यमः प्रेतमुख्यश्च त्वां प्रजिघाय प्रहितवान् स्फुटमसन्दिग्धम् / मरुतो देवाः तद्वता मरुत्वता इन्द्रण वातुलेन च / 'मरुतौ पवनामरौं' इत्यमरः। प्रहितोऽसि निश्चितमूर्ध्वमुखेन तेजसा अग्निना स्थूलदृशा च नियोजितः प्रेषितोऽसि / ते च प्रेषितवन्तः त्वञ्च प्रेषितः सत्यमेवैतत् निष्फलोऽयमारम्भ इति स्वगतमुवाचे. त्यर्थः॥ 23 // मेरे विषयमें ( अत्यन्त सुन्दरी एवं युवती मेरे पास ) तुमको ( लोकोत्तर सुन्दरतम युवकको ) निश्चय ही जलाधीश ( वरुण, पक्षा०-'डलयोरभेदः, इस वचनके अनुसार जड़ों अर्थात् मूखों के राजा) ने भेजा है। स्पष्ट ही उस ( प्रसिद्ध ) परेतराज ( यम, पक्षामर हुए लोगों अर्थात् अचेतनोंके राजा = अतिशय अचेतन ) ने भेजा है / ( तुम ) निश्चय ही मरुत्वान् ( इन्द्र, पक्षा०-वायु-समूह ) से ही भेजे गये हो। ऊपर मुखवाले तेज ( अग्नि, पक्षा०-ऊपर मुखवाले पिशाच ) से ही (दूत कार्य में ) नियुक्त हुए हो। [ ऊपर मुखवाले व्यक्तिका नीचेकी वस्तु का देखना असम्भव होनेसे ऊर्ध्वमुख अग्निने तुम्हारी सुन्दरताको नहीं देखा, यह ठीक ही है ) / वरुण, यम, इन्द्र तथा अग्नि बस्तुतः ये क्रमशः जडोंका राजा, मृतकों ( अचेतनों ) का राजा, वायुसमूह ( आँधी ) और ऊर्ध्वमुख पिशाच ही हैं, जिन्होंने भलोकके कामदेवरूप तमको मेरे पास दूतरूप में भेजते हुए यह नहीं विचारा कि इस युवक सुन्दर पुरुषको देखकर युवती एवं सुन्दरी दमयन्ती आसक्त हो जायेगी और यदि हम लोगोंको वरण करना चाहतो भी होगी तो इसे देख हम लोगोंको वरण काने का विचार छोड़कर इसे ही वरण कर लेगी, अतः इसे वहां भेजना उचित नहीं हैं ] // 23 // अथ प्रकाशं निभृतस्मिता सती सतीकुलस्याभरणं किमप्यसौ। पुनस्तदाभाषणविभ्रमोन्मुखं मुखं विदर्भाधिपसम्भवादधे / / 24 / / अथेति / अथ स्वगतोक्त्यनन्तरं सतीकुलस्य पतिव्रतावर्गस्य किमप्यनिर्वाच्यमाभरणमलङ्कारभूता असौ विदर्भाधिपसम्भवा वैदर्भी निभृतस्मिता गम्भीर स्मिता सती प्रकाशं यथा तथा पुनस्तेन सहाभाषणमेव विश्रमो विनोदः तत्रोन्मुखमुत्सुकं मुखमास्यमादधे आबभाषे इत्यर्थः // 24 // Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः / 481 इसके ( पूर्व श्लोकोक्त स्वगत भाषण ) के बाद परोक्ष रूपसे स्मित की हुई, पतिव्रता और पतिव्रता-समूहका कोई ( अनिर्वचनीय ) भूषण-स्वरूप यह विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) ने फिर उस (नल ) के साथ सम्भाषणके विलासमें उत्कण्ठित मुखको प्रकटरूपसे धारण किया अर्थात् वहां उपस्थित सखी आदि सब लोग द्वारा सुन सकें ऐसे बोली / (अथवा अतिनिर्मल या प्रसन्न मुखको धारण किया, 'सती' तथा 'सती कुलका आभरण' कहनेसे दमयन्तीने पहले जिस पुरुष (नल) को मनसे वरण कर लिया है, अब दिक्पालोंका सन्देश सुनकर भी अपने निश्चयपर ही दृढ़ रहेगी यह सूचित होता है पुनः बोलने में नलके साथ सम्भाषण करनेकी उत्कण्ठा ही कारण है, इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देशका गौरव नहीं ] // 24 // वृथापरीहास इति प्रगल्भता ननेति च त्वाशि वाग्विगहणा। भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरादतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते // 25 // वृथेति / भवति पूज्ये त्वाशि विषये वृथा परीहास इति वाक / “उपसर्गस्य घयमनुष्ये बहुल" मिति परेर्दीर्घः। प्रगल्भता प्रागल्भ्यं दोषावहेत्यर्थः। कार्यकारणयोरभेदोपचारः। ननेति च वागत्यन्तनिषेधोक्तिश्च, आभाचण्ये द्विर्भावः। विगर्हणा गोक्तिः स्यादित्यर्थः / अनुत्तरात् उत्तरांप्रदानात् अवज्ञा अनादरदोषो भवति / अतो हेतोस्ते तुभ्यं प्रतिवाचं प्रत्युत्तरं प्रदित्सुः प्रदातुमिच्छुरस्मि। परमा र्थतस्तु प्रत्युत्तरानहमेव दाक्षिण्यात्ते वदामीति तात्पर्यम् // 25 // आप-जैसे ( श्रेष्ठ व्यक्ति ) में 'यह धृष्टता है' ऐसा कहना परिहास है ( अथवा'यह परिहास है' ऐसा कहना धृष्टता है ), 'नहीं नहीं' ऐसा वचन निन्दा है, आपके विषय में उत्तर नहीं देनेसे ( आपका ) अपमान होता है इस कारण मैं आपका उत्तर देना चाहती हूँ / ( यदि मैं आपसे 'आप मेरे साथ धृष्टताकर यह बात कह रहे हैं' ऐसा कहूँ तो मेरी सखियां मेरा परिहास करेंगी कि ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तिके साथ इस प्रकारका अनुचित वचन दमयन्ती कह रही है, इसे ऐसे अपरिचित पुरुषके साथ ऐसा बर्ताव करना नहीं चाहिये, ) अथवा-यदि मैं आप-जैसे श्रेष्ठ व्यक्तिसे 'आप मेरे साथ परिहास कर रहे हैं' ऐसा कहूँ तो मेरी सखियां एक अपरिचित व्यक्तिके साथ ऐसा कहने पर मुझे धृष्ट समझेंगी। बार-बार यदि मैं आपको निषेध करती हूँ तो उक्त प्रकार से वे सखियां मेरी निन्दा करेंगी, इसी कारणसे में आपकी बातोंका उत्तर देना चाहती हूँ, इन्द्रादि दिक्पालों के सन्देशका महत्वपूर्ण समझकर नहीं उत्तर देना चाहती / इन्द्रादि दिक्पालोंकी अपेक्षा मैं आपको ही गौरवकी दृष्टि से देखती हूँ ] // 25 // कथं नु तेषां कृपयापि वागसावसावि मानुष्यकलाञ्छने जने / स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वराः कया न वाचा मुदमुद्रिन्ति वा // 26 // Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 नैषधमहाकाव्यम् / कथमिति / तेषामिन्द्रादीनां कृपयापि (का) मनुष्यस्य भावो मानुष्यकम् / "योपधाद् गुरूपोत्तमाः / तदेव लान्छनं कलको यस्य तस्मिन्निर्दोषजनविषयेऽस्मिनित्यर्थः। असौ वागस्मान् वृणीष्वेति वचनं कथमसावि सूता अनुचितमित्यर्थः। सूतेः कर्मणि लुङ् / वा अथवा ईश्वराः स्वामिनः स्वभावभक्तिप्रवणं जनं प्रति कया वाचा मुदं नोद्विरन्ति भक्तवात्सल्यात् नीचमपि भकजनमत्युच्चयापि वाचा बहु कुर्वन्ति कृपालवः स्वामिन इत्यर्थः / तथा च तद्वचनमुपचारत्वेन गृह्यते / न तु कर्तव्यतयेति भावः // 26 // ____मनुष्यत्वसे लाञ्छित ( चिह्नित पक्षा०-लान्छन 'दोष' ) युक्त जनमें अर्थात् मुझमें उन ( इन्द्रादि दिपालोंकी यह वाणी 'तुम मुझे वरण करो' यह कहना ) कृपासे भी क्यों नहीं है / अथवा स्वभावतः भक्तितत्पर ( भक्तजन ) के प्रति प्रभुलोग किस वचन से हर्षको प्रकट नहीं करते, स्वाभाविक भक्तिमें तत्पर सदोष व्यक्तिको भी जिस किसी वाणीसे अपनाकर सर्व-समर्थ ( ऐश्वर्य-सम्पन्न ) लोग अपना हर्ष प्रकट करते ही हैं, अत एव मानुषी होनेसे लाञ्छनयुक्त ( सदोष ) मुझसे लाञ्छनरहित ( निर्दोष ) देवता वरण करनेकी जा याचना करते हैं वह एकमात्र मेरी स्वाभाविक भक्तिसे प्रसन्न उनका मेरे ऊपर हर्पित होकर कृपा करना ही है। वे देवता केवल मेरे नमस्कार करनेके योग्य हैं, वरण वरनेके योग्य नहीं ] // 26 // अहो महेन्द्रस्य कथं मयौचिती सुराङ्गनासङ्गमशोभिताभृतः। हृदस्य हंसावलिमांसलभियो बलाकयेव प्रबला विडम्बना // 27 // __ अहो इति / सुराङ्गनासङ्गमेन शोभत इति तच्छोभि तस्य भावस्तत्ता तां बिभर्तीति तद्भुतो महेन्द्रस्य हंसावल्या मांसला मांसवती सान्द्रतरेति यावत् / सिध्मादित्वालच / सा श्रीर्यस्य तस्य हृदस्य सरसो बलाकयव मया निमित्तेन प्रबलो महती विडम्बना परिहासः कथमौचिती न कथञ्चिदित्यर्थः / अहो, सति सुरस्त्रीजने मानुषीमनुसरतो महेन्द्रस्यामृतमप्यवधीोदकपानप्रवृत्तिरपि सम्भाव्यत एवेति भावः // 27 // देवाङ्गना ( इन्द्राणी, उर्वशी आदि अप्सराओं) के सङ्गमको शोभाभावको धारण करनेवाले महेन्द्रको बलाका ( बकपंक्ति या बकस्त्री) से हंसावलि ( हंस-समूह ) से पूर्ण शोभावाले तालाबके समान मुझसे बड़ी भारी विडम्बना ही है, अहो यह आश्चर्य है / [ हंस-पक्तिसे शोभित रहनेवाले तडागको एक बलाकासे शोभित करनेकी बातके समान देवाङ्गनाओंके साथ सम्भोग करनेवाले इन्द्रका तुच्छतम मुझ मानुपीको चाहना परिहासमात्र है, अथ च हंसकी अपेक्षा बलाकाके समान देवाङ्गनाओंकी अपेक्षा अतितुच्छ होने से इन्द्रके द्वारा मेरी चाहना करना मेरा केवल परिहास है अतः ऐसा कदापि नहीं हो सकता] // 27 // Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 453 पुरःसुरीणां भण केव' मानवी न यत्र तास्तत्र तु सापि शोभिका / अकाबनेऽकिञ्चननायिकामके किमारकूटासरणेन न श्रियः // 28 // पुर इति / सुरीणी सुरस्त्रीणां, "जातेरस्त्रीविषयादि" त्यादिना डीए। पुरोऽग्रे मानवी मानुषी केव न कापि / तुच्छेत्यर्थः / इवशब्दो वाक्यालङ्कारे भण वद / किंतु यत्र लोके ताः सुरस्त्रियो न सन्ति तत्र सा मानव्यपि शोभत इति शोभिका शोभमाना, "प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्ये"तीकारः / अकाञ्चने काश्चनाभरणरहिते, अकारान्तोत्तरपदो बहुव्रीहिः। नास्ति किञ्चनास्येत्यकिञ्चनो निःस्वः / उच्चावचाकिञ्चनाऽकुतोभयानीति मयूरव्यंसकादिषु निपातनात्तत्पुरुषः / तस्य नायिका भार्या तस्या अङ्गाके देहे आरकूटस्य रीतिर्विकार आरकूटम् / 'रीतिः स्त्रियामारकूटम्' इत्यमरः। तेनाभरणेन श्रियः शोभा न / किन्तु, सरस्त्रीविहारिणो महेन्द्रस्य मानुषीकामुकत्वं काञ्चनाभरणचुञ्चोरारकूटाभरणस्पृहेव महत्परिहासास्पदमित्यहो कष्टमिति भावः। अत्र दृष्टान्तालङ्कारः // 28 // देवियोंके आगे मानुपी क्या है ( पाठा०-किससे, किस गुणसे श्रेष्ठ है ? अर्थात् किसी भी गुणसे श्रेष्ठ नहीं है ) अर्थात् कुछ नहीं है-बहुत तुच्छ है। जहांपर वे (देवियां) नहीं हैं, वहांपर वह (मानुषी ) शोभती है, सुवर्णसे वर्जित निर्धन व्यक्तिकी स्त्रीके शरीरमें पीतलके एक भूषणसे भी शोमा नहीं होती है क्या ? अर्थात् अवश्य होती है। [निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते"नीतिके अनुसार जहां देवियां नहीं है, वहीं अर्थात् देवियों से हीन भूलोकमें ही मैं सुन्दरी हूं किन्तु देवियों के सामने अर्थात् देवियोंसे परिपूर्ण स्वर्गमें मेरा सौन्दर्य किसी गणनामें नहीं है, अत एव देवाङ्गनाओंको छोड़कर मुझे चाहना इन्द्रके लिये स्वर्णका त्यागकर पीतलके एक भूषणकी इच्छा करने के समान असम्भव या उपहासास्पद है ] // 28 // यथा तथा नाम गिरः किरन्तु ते श्रुती पुनमें बधिरे तदक्षरे / पृषकिशोरी कुरुतामसङ्गतां कथं मनोवृत्तिमपि द्विपाधिपे // 26 // यथा तथेति / यथा तथा येन तेन प्रकारेण ते गिरः किरन्तु वर्षन्तु नाम / किन्तु, मे मम श्रुती श्रोत्रे पुनस्तदक्षरे तासां गिरां वर्णमात्रेऽपि विषये बधिरे। अश्रुतप्रायं तदित्यर्थः / तथाहि-पृषत्किशोरी कुर-युवतिः। 'पृषञ्च पृषतो बिन्दौ कुरङ्गेऽपि च कीर्तितः' इत्यजपालः / द्विपाधिपेऽपि श्रेष्ठगजेऽपि असङ्गतामयुक्तां मनोवृत्तिमभिलाषं कथं कुरुतां कुर्यात् , तत्प्रायमिदं नो मनीषितमिति भावः / अत्रापि दृष्टान्तालङ्कारः॥ 29 // ___ वे ( इन्द्रादि दिक्पाल ) जैसे-तैसे ( जिस किसी तरह से या इच्छासे ) बातें कहें ( किन्तु मेरे ) कान उनके अक्षर ( एक भी अक्षर के सुननेमें, फिर अधिक बातोंको कौन 1. "केन" इति "कैव" इति च पाठान्तरम् / Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 नैषधमहाकाव्यम् / कहे ? ) बहरे हैं। ( पक्षा-वेद भी जैसे-तैसे अर्थात् अप्रामाणिक तथा अनर्गल बातें ग्रहण नहीं करते ) / बालमृगी गजराजमें अनुचित मनोवृत्तिको भी कैसे करे ? / [ जब निकृष्ट पशुजातीय एवं बाल अर्थात् अबोध मृगी भी श्रेष्ठतम गजराजकी अनुचित इच्छा नहीं करती तो भला मैं मनुष्य होकर श्रेष्ठतम इन्द्रादिकी इच्छा कैसे कर सकती हूं, अत एव मैं उनकी उटपटाग ( बे-सिर-पैरकी ) वातोंका एक अक्षर भी नहीं सुनती, पूरी बातें सुनना तो असम्भव ही है ] // 29 // अदो निगद्यैव नतास्यया तथा श्रुतौ लगित्वाभिहितालिरालपत् / प्रविश्य यन्मे हृदयं द्वियाह तद्विनियंदाकर्णय मन्मुखावना // 30 // अद इति / अदः इदं वचो निगयोक्त्वैव नतास्यया अवनतमुख्या तया दमयभ्या श्रुतौ श्रोत्रे लगित्वा आसमा भूत्वाभिहिता कथिता आलिः सखी आलपत् आलपितवती। किमित्यत आह-इयं दमयन्ती हिया लजया मे मम हृदयं प्रविश्य यहच आह अते / मम मुखेनैवाध्वना विनिर्यद्विनिर्गच्छत् तद्वचः आकर्णय शृणु // 30 // यह (इलो० 25-29) कहकर झुकी हुई उस ( दमयन्ती ) के द्वारा कानके पास जाकर कही गयी सखी बोली-(हे दूत) लज्जासे मेरे हृदय में घुसकर ( इस दमयन्तीने ) जो कहा, मेरे मुखरूपी मार्गसे निकलते हुऐ उसे तुम सुनो / [ इतना कहनेके बाद दमयन्तीने झुककर लज्जासे स्वयं न कहकर सखीके कानमें कहा कि 'अब तुम्ही कहो'। फिर वह सखी दूतसे बोली। चित्र आदिमें नलका रूप जैसा दमयन्तीने देखा था तथा नलने भी अपने वंश एवं नामका परिचय देते हुए कहा था, उससे ये नल ही हैं ऐसा दमयन्तीको प्रायः विश्वास हो गया था, अतएव लज्जाभूषण एक कुलाङ्गनाके लिये पति या परपुरुष के सामने स्वयं ही अपना प्रेम प्रकट करने में लज्जा होना अनुचित है, अतः दमयन्तीने झुककर सखोके कानमें अपने नल-विषयक प्रेमकी बात कहने के लिये कहा तो उसकी सखी दमयन्तीकी ओरसे बोलने लगी। लोकमें भी लज्जाशील कोई व्यक्ति अपनी बात स्वयं नहीं कहकर अपना मनोभाव जाननेवाले प्रिय मित्रादिके द्वारा कहलाता है / ] विभेति चिन्तामपि कर्तुमीहशी चिराय चित्तार्पितनैषधेश्वरा / मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थितिलवादपि त्रुट्यति पापलात् किल // 31 // बिभेतीति / चिराय चिरात्प्रभृति चित्तेऽर्पितः स्थापितो नैषधेश्वरो नलो यया सा स्त्री ईदृशीं परविषयां चिन्तामपि कर्तुं बिभेति / कुत इत्यत आह-मृगालस्य तन्तु. रिव च्छिदुरा च्छेदशीला, "विदिभिदिच्छिदेः" इत्यादिना कर्मकर्तरि कुरच। सत्याः पतिव्रताया या स्थितिः मर्यादा सा लवादल्पादपि चापल्याहौल्याद्धेतोः त्रुट्यति किल त्रुटति खलु / “वा भ्राशे" त्यादिना श्यन्प्रत्ययः // 31 // Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 401 ( सखी दमयन्तीकी ओरसे कह रही है, अतएव सखीका कथन दमयन्तीका ही कथन समझना चाहिये ) चिर कालसे चित्तमें निषधराज ( नल ) को स्थापित की हुई मैं ऐसा (इन्द्रादि दिक्पालोका वरण करूं या नहीं) विचार भी करने में डरती हूँ (फिर वरण करना तो दूर की बात है, क्योंकि ) मृणाल तन्तुके समान शीघ्र टूटनेवालो पतिव्रता मर्यादा लेशमात्र भी चञ्चलता करनेसे अवश्य ही टूट जाती है / [ बहुत दिनोंसे मैंने नलको अपने नित्तमें स्थापित किया है, अतः इन्द्रादिके वरण करने या न करनेका विचार करने में भी मुझे भय लगता है कि जिस मनमें नल बहुत दिनोंसे रहते हैं, वे उसके गतिविधिको अच्छी तरह समझते हैं और यदि उस मनने दूसरेको वरण करने या नहीं करनेका विचार भी किया तो निषधेश्वर एक विशाल देशका राजा होनेसे उसको ( मुझे) बहुत कठोर दण्ड देंगे, मनके द्वारा ही किसी बातका विचार करना सम्भव होनेसे वहां बहुतकालसे स्थित एक राजाके लिये उसकी स्थिति जानना अत्यन्त सरल बात है और यह भी कारण है कि सती स्त्रीके मनमें भी परपुरुषको वरण करने या न करनेका विचार आनेसे उसके सतीत्वकी मर्यादा टूट जाती है, अतएव मैं इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देशपर मनसे विचार भी नहीं करना चाहती, कार्यसे उन्हें स्वीकार करना तो दूर की बात है, साक्षात् कार्यरूपमें स्वीकृत किये हुएका त्याग करना सर्वथा असम्भव ही है। मैंने निषधेश्वर नलको बहुत समयसे मनसे वरणकर लिया है, अतः इन्द्रादिको वरण करनेका विचार भी नहीं करूंगी] // 31 // ममाशयः स्वप्नदशाज्ञयापि वा नलं विलयतरमस्पृशयदि / कुतः पुनस्तत्र समस्तसाक्षिणी निजैव बुद्धिर्विबुधैन पृच्छयते // 32 // ममेति / अथवा ममाशयश्चित्तवृत्तिः स्वप्नदशायाः स्वप्नावस्थायाः आज्ञयापि वा नलं विलय इतरं पुरुषं यदि अस्पृशत् प्राप्तवान् / सहि समस्तस्य साक्षिणी निजा स्वकीया बुदिरेव तत्र विषये कुतः पुनर्विबुधैः इन्द्रादिभिः न पृच्छयते नानुयुज्यते / सर्वसाक्षिणः स्वयं किं न जानन्तीत्यर्थः॥३२॥ ___अथवा मेरो चित्तवृत्ति स्वप्नावस्थाकी आज्ञासे (स्वप्नावस्थामें ) भी नलको छोड़कर यदि दूसरेका स्पर्श करे ( मनसे स्वप्नमें भी यदि मैं नलके अतिरिक्त किसी की इच्छा करूं तो ) इस विषय में सबकी साक्षिणी अर्थात् सबके मनोभावको जाननेवाली अपनी बुद्धिसे ही विबुध (इन्द्रादि देव, पक्ष-विशिष्ट पण्डित ) वे क्यों नहीं पूछते हैं ? / [ 'सती दमयन्ती स्वप्नमें भी नलके अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुषका विचार करेगी क्या ? इस बातको सब कुछ जाननेवाली अपनी बुद्धिसे ही विशिष्ट ज्ञानी इन्द्रादि देव क्यों नहीं समझ लेते ? अर्थात् स्वयं बुद्धिमान् रहते हुए भी इन्द्रदिने जो सन्देश आपके द्वारा मेरे लिये भेजा है, वह अबुद्धिपूर्वक ही भेजा है और अबुद्धिपूर्वक किया गया कार्य कदापि सफल नहीं होता है / इन्द्रादिके अबुद्धिपूर्वक किये गये प्रस्तावको मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगी] // 32 // Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 नैषधमहाकाव्यम् / अपि स्वमस्वप्नमसूषुपन्नमी परस्य दाराननवैतुमेव माम् / स्वयं दुरध्वाणवनाविकाः कथ स्पृशन्तु विज्ञाय हृदापि ताहशीम् / / अपीति / अमी इन्द्रादयः देवाः अस्वप्नं स्वप्नवर्जितं स्वमात्मानं मां परस्य दाराननवैतुमज्ञातुमेव असूषुपन् स्वापितवन्तः / स्वापेरें चङि "युतिस्वाप्यो"रिति सम्प्रसारणम् / अन्यथा सर्वज्ञानां तेषामस्मिन्नेवांशे कथमज्ञानमित्यर्थः / तदेवोपपादयति-स्वयं दुष्टोऽध्वा दुरध्वः, “उपसर्गादध्वन" इति समासान्तोऽच ।स एवार्णवस्तस्य नावा तरन्तीति नाविकाः कर्णधाराः सन्तः “नौ द्वयचष्ठन्" इति ठन्प्रत्ययः / कथं तादृशीं मां हृदा विज्ञायापि स्पृशन्तु स्पृशेयुः। स्वयममार्गनिवारकाणां तत्पवृत्तिरनहेति भावः // 33 // ये ( इन्द्रादि देव ) मुझे परस्त्री ( दूसरेकी अर्थात् नलकी स्त्री ) नहीं समझनेके लिये ही अस्वप्न अर्थात् नहीं सोनेवाले ( देवोंको नहीं नींद आना पुराणादिमें प्रसिद्ध है) अपनेको सुला दिया क्या ? ( क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो) कुमार्गरूपी समुद्रके कर्णधार ( समुद्रमें यात्रा करनेवालोंको सुरक्षित पार करनेवाले नाविकके समान कुमार्गमें प्रवृत्त मनुष्यको रोककर सन्मार्गमें प्रवृत्त करनेवाले वे इन्द्राद दिक्पाल ) हृदयसे वैसी (परस्त्री ) जानकर भी ( अथवा-परस्त्री जानकर भी हृदयसे ) कैसे स्पर्श करते ? कुमार्गसे बचानेवाले वे देव हृदयसे मुझे परस्त्री जानकर भी हृदयसे दूषित करना चाहते हैं, अतः मालूम पड़ता है कि सर्वदा जागरूक रहनेवाले वे इन्द्रादि देव 'यह दमयन्ती दूसरेकी स्त्री है' इस बातको नहीं जाननेके लिए मानो सो गये थे, और सोये हुए. पुरुपद्वारा किया गया कार्य अबुद्धिपूर्वक होता है उसपर कोई बुद्धिमान् व्यक्ति विचार भी नहीं करना चाहता, अतएव अबुद्धिपूर्वक किये गये इन्द्रादिके कार्यपर विचार करना मूर्खता है / / अनुप्रहः केवल एष मादृशे मनुष्यजन्मन्यपि यन्मनो जने / स चेद्विधेयस्तदमी तमेव मे प्रसद्य भिक्षां वितरीतुमीशताम् // 34 // अनुग्रह इति / मनुष्येषु जन्म यस्य तस्मिन्नपि माहशे जने यन्मनश्चित्तं वर्तते एष केवलोऽनुग्रह एव किन्तु सोऽनुग्रहो विधेयः कर्तव्यश्चेत्तत्तर्हि अमी इन्द्रादयो देवाः प्रसन्ना भूत्वा मे मह्यं तं नलमेव मिक्षां वितरीतुं दातुम्, "ऋतो वा" इति दीर्घः / ईशतामीश्वरा एव भवन्तु / नलसङ्घटनेनैवानुग्राह्योऽयं जनो नान्यथा मन्तव्य इति भावः // 34 // ___ मनुष्यसे उत्पन्न मेरे जैसे ( सामान्य ) व्यक्तिमें जो ( इन्द्रादि दिक्पालोंका ) मन ( अनुरक्त ) है, यह केवल ( मुझपर उन लोगोंका ) अनुग्रह है और यदि वह अनुग्रह ( उन देवोंको मुझपर ) करना है तो प्रसन्न होकर ( वे ) उसी (नल ) को मेरे लिए भिक्षा देनेके लिए होवें / [तुच्छ मानुषी मुझपर देवोंके मनका अनुरक्त होना कृपा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 457 करना मात्र है, अतएव वे इन्द्रादि देव उस नलको ही तिरूपमें शिक्षा देकर कृपाको चरितार्थ करें ] // 34 // अपि द्रढीयः शृणु मे प्रतिश्रुतं स पीडयेत् पाणिमिमं न चेन्नृपः। हुताशनोद्वन्धनवारिवारितां निजायुषस्तत्करबै स्ववैरिताम् // 15 // अपीति / हे धीर ! द्रढीयः दृढतरं मम प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञामपि शृणु। तामेव प्रतिज्ञामाह-स नृपः नलः इमं मदीयं पाणिं न पीडयेत् न गृहीयाचेत्तर्हि निजस्यायुषः स्वेनाश्मना वैरितां शात्र हुताशन उन्धनवारि चतैःवारितां निवृति करवे करवाणि // 25 // __ और, (तुम) मेरी अत्यन्त दृढ़ प्रतिशाको सुनो; यदि वे राजा ( पक्षा०--मानवरक्षकअतएव वे नल मानवके नाते मेरी रक्षा अवश्य करेंगे यह ध्वनिता होता है ) इस हाथको पीडित नहीं किये अर्थात् मेरे विवाह नहीं किये तो मैं अपनी आयुके अपने शत्रुभावको अग्नि, उद्वन्धन ( डाल आदि ऊँचे स्थानों में बांधना ), या पानी निवृत्तकर लूगी अर्थात् अग्निमें जलकर, डाल अदिमें अपनेको बांधकर या पानीमें डवकर वैरी अपनी आयुको नष्टकर दूंगी अर्थात् मर जाऊंगी / [ 'यदि मेरे दुर्भाग्यवश या इन्द्रादिके अनुरोध वा बलप्रयोगके कारण यदि नल मुझसे विवाह नहीं करेंगे तो मैं अग्नि आदि के द्वारा आत्मइत्या कर लूगी, किन्तु दूसरे किसीका वरण नहीं करूंगी' यह मेरी दृढ़ प्रतिक्षा सुन लो और इतना सुनने पर भी आप पुनः कहेंगे तो वह अनुचित ही नहीं, अपि तु असफल भी होगा ] // 35 // निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा। धनाम्बुना राजपथेऽतिपिच्छिले कचिद्बुधैरप्यपथेन गम्यते / / 36 // न चात्मनो ब्यापादनमयुक्तमित्यत्राह-निषिद्धमिति / यत्रापदि यदि सती धा क्रिया सर्वथा सर्वप्रकारेण नावति न रखति / तत्र निषिद्धमप्याचरणीयम्। तथा हि राजपथे राजवाध्यामपि धनाम्बुना सान्द्रोदकेन मेघ्रजलेनातिपिच्छिले पतिले सति बुधैः विद्वनिः अपथेनामार्गेणापि चित्प्रदेशे गम्यते / “पथो विभाषा" इति समासान्तः / "अपथं नपुंसकम् / " सर्वथा बीणां प्राणत्यागेनापि पातिव्रत्यं रक्षणीयमिति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः॥३६ // आपत्तिमें निषिद्ध ( कार्य ) भी करना चाहिये, जहां ( जिस आपत्तिमें या जिस स्थान वा समयमें) श्रेष्ठ कार्य सर्वथा नहीं बचा सकता हो / अधिक जलसे राजमार्ग ( सड़क या प्रशस्त रास्ते ) के पङ्कयुक्त होनेपर विद्वान् (विवेकशील व्यक्ति ) भी कहींपर मार्गको छोड़कर चलते हैं / आत्महत्या करना शास्त्रविरुद्ध होनेपर भी आपत्तिसे छुटकारा न हो पकनेको अवस्थामें वह आत्महत्या करना भी शास्त्र विरुद्ध नहीं होता है, अतएव नलकी 31 नै० Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 नैषधमहाकाव्यम् / प्राप्ति न होनेपर कामसन्ताप नहीं सह सकनेके कारण मुझे आत्महत्या कर लेना ही आपत्तिसे छुटकारा पानेका एकमात्र सरल उपाय है, नलके अतिरिक्त दूसरे किसीका वरण करना नहीं ] // 36 // स्त्रिया मया वाग्मिषु तेषु शक्यते न जातु सम्यग्विवरीतुमुत्तरम् / तदा मद्राषितसूत्रपद्धती प्रबन्धृतास्तु प्रतिबन्धृता न ते / / 3 / / स्त्रियेति / वाग्मिषु वावदूकेषु तेविन्द्रादिषु विषयेषु स्त्रिया मया उत्तरं सम्यक यथा भवति तथा विवरीतुं प्रपञ्चयितुं जातु कदाचिदपि न शक्यते / तत् तस्मात् कारणात् अत्र मद्राषितानां वचनानामेव सूत्राणां 'पद्धती मार्गे विषये ते तव प्रब. न्ता प्रबन्धकर्तृत्वमस्तु, प्रतिबन्ध्ता प्रतिबन्धकर्तृत्वं नास्तु / उभयत्रापि तृजन्ताइन्धेस्तल / अस्मिनिषेधोत्तरे ममानुकूलो भव, न प्रतिकूल इत्यर्थः // 37 // स्त्री में विद्वान् उन ( इन्द्रादि देवों ) के विषयमें सम्यक् प्रकारसे उत्तर देनेके लिये कदापि समर्थ नहीं हूं, इस कारण मेरे भाषण सूत्रसमुदायमें आप प्रवन्धकार (विशद व्याख्या करने वाला ) बनें, प्रतिबन्धक ( बाधक ) न बनें। [मैं स्त्री जाति स्वल्प बुद्धिवाली हूँ और वे इन्द्रादि दिक्पाल पुरुष जाति एवं बुद्धिमान् है, अतः उनके प्रति में विस्तारपूर्वक उत्तर नहीं दे सकती; इस कारण आप संक्षेप में कहे गये मेरे उत्तर को उनके सामने संक्षिप्ताक्षर सूत्रोंकी विस्तृत भाष्य तथा वातिकादि व्याख्यानके समान स्पष्ट रूपसे कह दें, किन्तु मेरे उत्तर का प्रतिकूल अर्थ कहकर बाधक न बनें। जिस प्रकार संक्षिप्ताक्षर सूत्रों के अनुसार उसके व्याख्यानभूत भाष्य या वार्तिक आदि प्रबन्ध किये जाते हैं, प्रतिकूल नहीं, उसी प्रकार आप भी मेरे उत्तरोंके अनुकूल ही इन्द्रादिसे कहें, प्रतिकूल न कहें ] // 37 / / निरस्य दूतः स्म तथा विसर्जितः प्रियोक्तिरप्याह कदुष्णमक्षरम् / कुतूहलेनेव मुहुः कुहूंरवं विडम्य डिम्भेन पिका प्रकोपितः / / 38 // ___ निरस्येति / स दूतः तथा तेन प्रकारेण निरस्य न्यक्कृत्य विसर्जितः सन् कुतहलेन हेतुना डिम्भेन शिशुना मुहुः कुहरवं विडम्ज्य अनुकृत्य प्रकोपितः पिकः 'इति कोः कदादेशः / अक्षरं वाक्यमाह // 38 // उस प्रकार (इलो 30--37 पाठा०-दमयन्ती तथा दमयन्तीकी ओरसे बोलने वाली उसकी सखीसे ) खण्डनकर प्रेषितप्राय ( प्रायः भेजा गया-सा ) प्रिय भाषण करनेवाला भी दूत (नल), बालक द्वारा कौतूहलसे बार बार 'कूहू' शब्दका अनुकरण कर रुष्ट किये गये कोकिलके समान कुछ कटु अक्षर ( अप्रिय वचन ) कहने लगा-( अथवा-खण्डितकर विसजिंत दूत उस प्रकार प्रियभाषी भी दूत' ) / [ जब कोयल बोलता है, तब बालक उसक शब्दको सुननेके लिये उसके शब्दका अनुकरण 'कहू-कुहू' शब्द करते हैं, उससे वह अधिक Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 486 क्रुद्ध हो जाता है ऐसी कोयलकी प्रकृति है; उसी प्रकार दूत नल भी दमयन्ती बारवार आग्रह करने पर कुछ रूक्षतायुक्त वचन बोले ] // 38 // अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते त्वमप्यमीभ्या विमुखीति कौतुकम् / कवा निधिनिर्धनमेति किश्च तं स वा कवाट घटयनिरस्वति / / 36 // अहो इति / ते इन्द्रादयोऽपि स्वागनु त्वामुद्दिश्य मनस्तन्वते कुर्वन्ति अहो आश्चर्य त्वमपि अमीभ्य इन्द्रादिभ्यः विमुखी पराम्मुखीति यत्कौतुकं चित्रमित्यर्थः / किञ्चक वा लोके निधिर्निर्धनमेति, क वा स निर्धनः कदाचिदैवयोगादागतमपि तं निधिं वा कवाट घटयन् निरस्यति द्वारं पिधाय निषेधतीत्यर्थः / ईशं वश्वेष्टितमिति दृष्टान्तालकारः // 39 // वे ( अतिशय श्रष्ठ इन्द्रादि ) तुम्हारे प्रति (या-पीछे ) मनको बढ़ाते हैं अर्थात् तुम्हें चाहते हैं, यह ( उत्तम देवोंका निकृष्ट मानुषीको चाहना ) आश्चर्य है। तुम भी उन (श्रेष्ठ इन्द्रादि ) से पराङ्मुख हो, यह बड़ा आश्चर्य है। निधि दरिद्रको कहां आती है ? अथवा वह दरिद्र किवाड़ बन्दकर (पाठा०-वह दारेद्र वचनरूपी किवाड़ बन्द करता हुआ) उसको कहां रोकता है ? / [ 'हान व्यक्तिको श्रेष्ठ व्यक्ति चाहे' यह आश्चर्य की बात है और वह हीन व्यक्ति श्रेष्ठ व्यक्तिके चाहने पर भी उससे विमुख रहे ( उसे न चाहे )' यह और आश्चर्य की बात है। इस कारण 'इन्द्र के चाहने पर भी तुम उन्हें नहीं चाहती' यह बड़े आश्चर्य की बात है; क्योंकि दरिद्र व्यक्तिके पास महानिधि कहीं भी नहीं आती, और उसके आनेपर दरिद्र उसे रोकनेके लिये किवाड़ बन्द नहीं करता ये दोनों बातें एकसे एक बढ़कर आश्चर्यान्वित करनेवाली हैं। तुम्हें इन्द्र का चाहना दरिद्र के पास निधि आनेके समान तथा तुम्हारा उन्हें मन! करना आये हुए निधिको रोकनेके लिये किवाड़ बन्द करनेके समान है। ऐसा न कहीं देखा हो गया और न सुना ही गया, अतः तुम्हारा देवों से विमुख होना सर्वथा अनुचित है ] // 39 / / सहाखिलस्त्रीषु वहेऽवहेलया महेन्द्ररागाद्गुरुमादरं त्वयि / स्वमीशी श्रेयसि मंमुखेऽपि तं परामुखी चन्द्रमुखी! न्यवीवृतः॥४०॥ सहेति / हे चन्द्रमुखि ! महेन्द्रस्य रागदेतोः। त्वयि गुरुं महान्तमादरमखिलस्त्रीषु विषये अवलेहया अनादरेण सह वहे त्वय्यादरमन्यास्वनादरं चबहानि, स्वामेव भाग्यवतीं मन्य इत्यर्थः। वहेः स्वरितेवादात्मनेपदं, सहोक्तिरलबारः / ईदृशि श्रेयसि सम्मुखे अभिमुखे सत्यपि त्वं पराङ्मुखी सती, तं पूर्वोक्तमादरं न्यवीवृतः निवर्तितवत्यसि / वृतेर्णी चङि सिचि रूपम् / “उरदि"त्यकारे सन्वनावे चाभ्यासेकारः॥ 40 // हे चन्द्रमुखि ! तुममें इन्द्र के अनुराग करनेसे मैं सम्पूर्ण स्त्रियों में अनादरके साथ अधिक 1. "वाकवाटम्" इति पाठान्तरम् / 2. "किम्" इति पाठान्तरम् / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 नैषधमहाकाव्यम् / आदर (ता हूं ( अथवा-हे चन्द्रमुखि ! इन्द्रके... साथ तुममें अधिक आदर करता हूं) ऐसे कल्याणके सामने आनेपर भी तुम विमुख होती हुई ( उस कल्याणसे मुंह मोड़ती हुई) उसको वापस लौटा रही हो ( पाठा०-विमुख होती हुई क्यों वापस लौटा रही हो ? ) / [ 'देवराज इन्द्र भी तुममें अनुराग करते हैं, इस कारण तुम ही परम सुन्दरी हो, अन्य स्त्रियां नहीं, इस कारण मैं तुमको अधिक आदर तथा दूसरी स्त्रियोंको अनादरसे देखता हूँ, परन्तु ऐसे सामने आये हुए कल्याणको पराङ्मुखी होकर लौटानेसे मैं अब तुम्हें अभागिनी मानता हूँ, पूर्वोक्त श्लोक ( 38) के अनुसार नलने कुछ कटु वचन कहा ] // 40 / / दिवौकसं कामयते न मानवी 'नवीनमश्रावि तवाननादिदम् / कथं न वा दुर्ग्रह दोष एष ते हितेन सम्यग्गुरुणापि शाम्यते / / 41 // दिवौकसमिति / मानवी मानुषी, दिवौकसं देवं न कामयते नापेक्षत इति इदं नवीनमश्रुतपूर्व वचस्तवाननादश्रावि श्रुतम् हन्त, एप ते तव दुर्ग्रहदोषः सूर्यादिग्रहः दोषश्च / 'अथार्कादिनवग्रहाः' इति वैजयन्ती / हितेनाप्तेनानुकूलेन च गुरुणा पित्रा न निवर्यते / शमेय॑न्तात्कर्मणि लट / गुरुरात्मवतां शास्ता, "किं कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ" इति वचनादपत्यशासने ग्रहान्तरनिरासे च गुवोरेवाधिकारादिति भावः / अत्राभिधायाः प्रकृतार्थनियन्त्रणादप्रकृतार्थप्रतीति निरेव न श्लेषः // ___ 'मानुषी देवको नहीं चाहती है' यह नवीन (नयो बान, पाठा०-विचित्र वात) तुम्हारे मुखसे ( मैंने ) सुनी, ( संसार में सभी लोग अपनेसे श्रठ की चाहना करते है। इस सर्वसम्मत सिद्धान्तसे विपरीत होने से तुमने विलकुल ही नयी बात कही ) / तुम्हारे इस दुराग्रह ( बुरे हट ) दोषको हित ( हितकारी) पिता आदि गुरुजन भी क्यों नहीं अच्छी तरह शान्त ( दूर ) करते हैं ? अथवा-तुम्हारे अच्छी तरहसे हितकारी पिता आदि गुरुजन इस दुराग्रह दोषको क्यों नहीं शान्त करते हैं ? / [तुम्हारे हितैषी पिता आदि गुरुजनको चाहिये कि तुम्हारे इस दुराग्रह को छुड़ाकर तुम्हें इन्द्र आदि देवों में से किसी एकको वरण करनेका उपदेश दें / अथवा-तुम्हारे इस दुष्ट ग्रह अर्थात् शनि-सूर्य आदिके दोष अर्थात् तज्जन्य पीड़ा आदिको ( केन्द्र या उच्च स्थानमें रहनेसे) हितकारक गुरु ( बृहस्पति ग्रह ) क्यों नहीं सर्वथा शान्त करते हैं ? अथवा-तुम्हारे बरण-सम्बन्धी इन्द्रादिके आग्रह दोषको ( उनके आचार्य) गुरु भी क्यों नहीं सर्वथा दूर करते ? तुम्हारा दुराग्रह हितकारक पिता आदि, अथवा श्रेष्ठस्थान ( केन्द्र ) आदिपर स्थित होनेसे हित ( उस दोषका नाशक ) बृहस्पति ग्रह क्यों नहीं सर्वथा शान्त करता ? अथ च इन्द्र के तुम्हारे विषयमें अनुरागको अपना शिष्य मानकर बृहस्पतिरूप गुरु क्यों नहीं सर्वथा दूर करेगा ?, अथवा-सर्वत्र 'सम्यक' शब्दका सम्बन्ध 'हित' शब्दके साथ करके अर्थ लगाना चाहिये ] // 41 / / 1. "विचित्र" इति पाठान्तरम् / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 461 अनुमहादेव दिवौकसां नरो निरस्य मानुष्यकमेति दिव्यताम् / भयोऽधिकारे स्वरितत्वमिष्यते कुतोऽयसां सिद्धरसस्पृशामपि // अथ मानुषीं देवा न ग्रहीष्यन्तीति यदि तदपि नेत्याह-अनुग्रहादिति / दिव. मोको येषां चौरोको येषामिति वा पृषोदरादित्वात्साधुः / तेषां दिवौकसां देवाना. मनुग्रहादेव नरो मानुष्यकं मनुष्यभावं निरस्य “योपधाद्गुरूपोत्तमाबु" इति बुनि “यस्ये"ति लोपे "प्रकृत्याऽके राजन्यमनुष्ययुवान" इति प्रकृतिभावा"दपत्यस्य च तद्धितेऽनाती"ति यलोपाभावः। दिव्यतामेति तत्परिग्रहादेवभूयमपि ते भवितेति भावः / तथा हि-रसः पारदः / 'देहधात्वम्बुपारद' इति रसशब्दार्थेषु विश्वः / स हि संस्कारबलालोहान्तरसुवर्णीकरणे समर्थः सिद्धरस उच्यते। तत्स्पृशामयसामपि तत्स्पर्शात्स्वर्गीभूतायसामपीत्यर्थः / अयोऽधिकारे अयःप्रस्तावे स्वरितत्वमधिकृतत्वं तेषु परिगणनेति यावत् / "स्वरितेनाधिकार" इति वैयाकरणपरिभाषाश्रयणादेवं व्यपदेशः / स्वृ शब्दोपतापयोरिति धातोदेवादिकात् सः। कुत इण्यते नेण्यत एवेत्यर्थः। रसस्पृष्टायसः स्वर्णीभाव इव तवापि तत्स्पृष्टाया देवत्वमेव न मानुष. स्वमित्यर्थः / अत्र दृष्टान्तालङ्कारः स्पष्टः // 42 // मनुष्य देवोंके अनुग्रहसे ही मनुष्यभाव को छोड़कर दिव्यभाव ( देवत्व ) को पाता है अर्थात् मनुष्यसे देव वन जाता है / औषवादि से सिद्ध पारद ( पारा) का स्पर्श करने वाले लोहोंका लोहेके अधिकार ( प्रस्ताव ) में (पाठा०—विकारमें अर्थात् लोहेके बने पदार्थोमें ) गणना कहां से होती है अर्थात् नहीं होती। [ जिस प्रकार औषधसे तैयार किये गये पारद के स्पर्शसे जब लोहा सोना बन जाता है, तब उसे लोह नहीं कहा जाता, किन्तु सोना कहा जाता है; उसी प्रकार जब इन्द्रादि देवोंमें से किसीको वरण कर लेगी, तब तुम मानुपी न रह कर देवी बन जाओगी, क्योंकि देवोंके अनुग्रहसे जब सामान्य मनुष्य भी देव बन जाता है तब जिस तुमको देव बड़े अनुरागसे चाहते हैं, उस तुमको मानुषी नहीं रहने देंगे, किन्तु देवी बना लेगें, अत एव देवोंके स्वीकार करने पर तुम मानुषी से देवी ‘बन जावोगी तब मानुषी देवों को नहीं चाहती यह तुम्हारा कहना भी असङ्गत है तथा"स्वरितेनाधिकारः ( पा० स० 1 / 311)" इस पाणिनिके सूत्र द्वारा अधिकारका अभाव करने पर फिर कहांसे अधिकार हो सकता है ? / देवोंके अनुग्रहसे तुम देवी बन जावोगी, अतः देवोंको वरण करो] // 42 // हरि परित्यज्य नलाभिलाषुका न लजसे वा विदुषिनवा कथम् / उपेक्षितेक्षोः करमाच्छमीरतादुरं वदे त्वां करभोरु ! भो इति / / 43 // हरिमिति / हरिमिन्द्रं देवं परित्यज्य नलं नरमभिलाषुका ताच्छील्येनाभिलपन्ती "लषपत" इत्यदिना उकञ्। “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात्कर्मणि द्विती. यायां गम्यादिपाठात्समासः। अत एव विदुषी ज्ञात्री "विदेः शतुर्वसुः" "उगित Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 नैषधमहाकाव्यम् / श्वेति" डीप। ब्रवीतीति बुवा विदुष्या ब्रुवा विदुषीब्रुवेति कर्मणि षष्ठीसमासः / विदुषीमात्मानं ख्यापयन्ती पण्डितम्मन्येत्यर्थः। “घरूपकल्पचेल वगोत्रमतहतेषु ड्योऽनेकाचो ह्रस्वः” इति ह्रस्वः, ञः पचायच। एतस्मादेव निपातनाद्गुणवच्या देशयोरभावः / इदृशी त्वं कथं न लजसे मणिं विहाय काचग्रहणवत्कथं न लज्जाकरमित्यर्थः। अत एवाद्य त्वामहमेवं व्याकरिष्यामीत्याह-उपेक्षितेति / उपेक्षितेक्षोः परिहतेनुकाण्डात् शमीरताच्छमीभक्षणलालसात् करभादुष्टात् उरुं मौड्यनाधिकानत्वाम्भोः! करभोरु ! हे करभोविंति सम्बोध्य वदे वक्ष्यामि। भासनादिसूत्रेण ज्ञानार्थे तक। न तु करभाकरभागविशेषः तद्वदुरूयस्या इति व्युत्पत्येत्यर्थः / 'करभो मणिबन्धादिकनिष्ठान्तर उष्ट्रकः' इत्युभयत्रापि विश्वः / अथ सम्बोधनार्थकाः स्युः प्याट पाडङ्ग हे है भोः' इत्यव्ययेष्वमरः। चादिपाठान्निपातसंज्ञायाम् 'ओत्' इति प्रगृह्यत्वात् प्रकृतिसन्धिः / अनन्ययपक्षेऽपि भवच्छन्दतकारस्य रुत्वादिकार्ये यलोपस्यासिद्धत्वादवादेशनिवृत्तौ भो इत्येव सन्धिः, किन्त्वत्र स्त्रीसम्बोधने स्त्रियाम् "उगितश्च" इति ङीप्प्रत्यये भवतीति सम्बुद्धिः स्यात् / न तु भो इति / करभोवि. त्यत्र करभ इवोरू यस्या इति "उरूत्तरपदादौपम्य"इत्यूप्रत्ययः / करभादुरुः करभोरुः इति पक्षे तु मनुष्यजातिविवचायां ब्रह्मबन्धूरित्यादिवत् / “ऊङतः" इत्यूङप्रत्यये नदीहस्वः। यथाह वामनः-"मनुष्यजातेविवक्षाविव" इति / अहो कष्टमुष्ट्रचेष्टितवत् त्वच्चेष्टितं हास्यास्पदं जातमिति भावः // 43 // इन्द्र को छोड़कर नल ( राजा नल, पक्षा०-नरसल नामका तृण विशेष; या 'रलयो रभेदः' इस वचनके अनुसार नर अर्थात् मनुष्य अर्थात् नरसल तृणके समान तुच्छ नर) को चाहती हुई तथा अपने को पण्डिता कहती हुई तू क्यों नहीं लज्जित होती ? हे करभोरु ! गन्नेको छोड़कर ( कड़वी तथा कण्टकादिवाली ) शमांमें अनुरक्त ऊंटसे अधिक ( ऊंटसे भी अधिक हीन बुद्धिवाली ) तुझे क्यों न कहू ? [ इन्द्रको छोड़कर तृणतुल्य तुच्छ मानवको चाहने वाली तुममें बुद्धिका लेश भी नहीं है, अतः फिर भी अपनेको बुद्धिमती समझने में तुम्हें लज्जा आनी चाहिये और इस कारण 'तुम मानुषर्षी होने मात्रसे करभोरू ( ऊंटसे बड़ी ) हो, हाथीके सुंड या हाथके मणिवन्यसे कनिष्ठा अङ्गुलितकके भागविशेषके समान सुन्दर जघन होनेसे 'करभोरू' नहीं हो। अथ च ऊंटसे भी बड़ी अर्थात् अधिक मूर्खा हो' ऐसा मैं क्यों न कहूँ अर्थात् तुम्हारे विषयमें ऐसा कहना अनुचित नहीं है / अंटको भी कभी-कभी ऊंचे-नीचेका ज्ञान होता है, परन्तु तुममें उतना भी नहीं है; अतः तुम ऊंटसे भी हीन ज्ञानवाली हो ] // 43 // विहाय हा सर्वसुपर्वनायकं त्वयातः किं नरसाधिमभ्रमः / मुखं विमुच्य श्वसितस्य धारया वृथैव नासापथधावनश्रमः // 44 / / 1. “त्वया एतः” इति "वृथा इतः" इति च पाठान्तरे / Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 413 विहायेति / किश्च हा बत! स्वया सर्वसुपर्वनायकं देवेन्द्रं विहाय नरे मनुष्ये साधिमभ्रमः साधुत्वभ्रान्तिः / पृथ्वादिपाठात् साधोरिमनिप्रत्ययः। किं किमर्थमादृतः ? अथवा नियतिः केन लक्ष्यत इत्याशयेनाह-श्वसितस्य धारया निश्वासपरम्परया (का) मुखं मुखद्वारं विपुलं विमुच्य वृथैव नासापथेन नासारन्ध्रणातिक्लिष्टेन धावनश्रम आहतः खल्विति शेषः / तद्वत्तवापि ईदृशी भवितव्यतेति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः॥४४॥ सब देवोंके प्रभु ( इन्द्र) को छोड़कर तुमने मनुष्यमें श्रेष्ठताके भ्रमका क्यों आदर किया अर्थात् मनुष्यको श्रेष्ठ क्यों समझा ! ( अथवा-'रलयोरभेदः' इस नियमके अनुसार नलको श्रेष्ठ क्यों समझा ?) अथवा-'किंनर- पद को एक मान कर निन्दित मनुष्य ( अथवा-निन्दित नल, अथवा देवापेक्षासे हीन 'किन्नर' देव योगि-विशेष ) को श्रेष्ठक्यों समझा !; पाठा०-धारण किया, व्यर्थ में धारण किया ? मुख छाड़कर श्वास धारा ( श्वासप्रवाह ) को नाकके मार्गसे चलने का प्रयास करना व्यर्थ है। [ सब देवों के स्वामी इन्द्रको छोड़ कर मनुष्य (य! नल या किन्नर ) को उनसे श्रेष्ठ समझने का आग्रह करना विशाल मुखबिलको छोड़कर सङ्कीर्ण नाकके बिलसे श्वास लेनेके श्रमके समान व्यर्थ श्रम बड़ाना है; अत एव तुम ऐसे भ्रममें न पड़कर देवराज इन्द्रको वरग करो ] // 44 / / तपऽनले जुह्वति सूरयस्तनूदिवे फलायान्यजनुभविष्णवे / करे पुनः कति सैव विह्वला बलादिव त्वां वलसे न बालिशे!॥४५॥ __ तप इति / किञ्च सूरयः सन्तः अन्यस्मिन् जनुषि जन्मान्तरे भविष्णवे भाविन्य। 'भूष्णु विष्णुविता' इत्यमरः / “भुवश्च" इति इष्णुचप्रत्ययः। "भाषायाम. पीष्यते" भाषितपुंस्कत्वात् पुंवद्भावः / दिवे स्वर्गायैव फलाय तनूः शरीराणि तपोऽनले जुह्वति त्यजन्ति / “अदभ्यस्ता" दित्यदादेशः / त्वां पुनः सा प्राणान्तिकतपःसाध्या द्यौरेव विह्वला उत्सुका मती बलाद्वलात्कारादिव करे कर्षति हे बालिशे ! मूढे ! 'शिशावशे च बालिशः' इत्यमरः / न वलसे न चलसि नेच्छसीत्यर्थ / अह ते दुर्बुद्धिरिति भावः // 45 // विद्वान् लोग दूसरे जन्म में होने वाले स्वर्ग ( की प्राप्ति रूप ) फलके लिये तप ( चान्द्रायगादि व्रत तपश्चर्यारूप ) अग्नि में अपने शरीरोंको हवन करते हैं अर्थात् चान्द्रायाणादि ब्रत करने में शरीरको कृश करते हैं, वही ( इन्द्रादि रूप स्वर्ग) ब्याकुल होकर तुम्हें बार बार मानो हठसे खींच रहा है; ( किन्तु ) हे मूर्ख ! ( तुम उसे ) नहीं चाहती ( यह आश्चर्य है)। [जिस स्वर्गको पाने के लिये विद्वानलोग भी ( मूर्ख नहीं या एक ही विद्वान् नहीं; अपि तु बहुत-से विद्वान् ) तपस्यादिके द्वारा अपनेको हवन कर देते हैं, वही स्वर्ग अपने यहां आश्रय देने के लिये हठपूर्वक इन्हें बार बार खींच रहा है, फिर भी तुम उसे नहीं चाहती, यह बड़ी मूर्खता है / तुम अपनी मूर्खतापूर्ण दुराग्रह छोड़कर इन्द्रादिका वरण करो] / / 45 / / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 नैषधमहाकाव्यम् यदि स्वमुन्धुमना बिना नलं भवेभवन्ती हरिरन्तरिक्षगाम् / दिविस्थितानां प्रथितः पतिस्ततो हरिष्यति न्याय्यमुपेक्षते हि कः // 46 / / ___ अथ यदुक्कं नलालाभे हुताशनोद्वन्धनादिना मरिष्यामीति तत्रोत्तरमाहयदीत्यादिना चतुष्टयेन / हे मुग्धे ! नलं विना नलालाभे स्वमात्मानमुद्धन्धुं मनो यस्याः सा उद्वन्धुमनाः पाशेन मर्तुकामा। "तुं कामभनसोरपि" इति मकारलोपः। भवेर्यदि स्याश्चेत् ततोऽन्तरिक्षगां भवती दुर्मरणदोषादन्तरिक्षगतां सती स्वामिति शेषः। दिविस्थितानामन्तरिक्षगतानां स्वर्गतानां च प्रथितः पतिः प्रसिद्धः स्वामी हरिरिन्द्रो हरिष्यति ग्रहीष्यति जन्मान्तरेऽपि त्वां न त्यच्यतीत्यर्थः / तथा हिन्याय्यं न्यायप्राप्तं वस्तु क उपेक्षते न कोऽपीत्यर्थान्तरन्यासः / अस्वामिकद्रव्यस्य राजगामित्वं न्याय्यमिति भावः॥ 46 // ( अब दूत नल पूर्व ( 5.35 ) श्लोकोक्त दमयन्तीके वचन का खण्डन क्रमशः चार श्लोकों ( 5 / 46-49 ) में कर रहे हैं-यदि तुम नलके विना अपनेको बाँधनेकी ( शाखा आदिमें बांधकर मरने) की इच्छा करती हो तो अन्तरिक्ष जाती हुई तुमको स्वर्ग का स्वामी (इन्द्र ) वहां से अर्थात् अन्तरिक्षसे हरण कर लेंगे, न्याययुक्त वस्तु की कौन उपेक्षा करता है ? [आत्महत्या कर जब तुम अन्तरिक्ष में जाने लगोगी तब तुम्हें स्वर्गपति इन्द्र ग्रहण कर लेंगे, क्योंकि 'विना स्वामीकी वस्तु जिस राजाके राज्यमें जाती है, वह उस राज्यको स्वामी की हो जाती है। इस प्रकारसे भी इन्द्र तुम्हें प्राप्त कर लेंगे, और इन्द्रका वह कार्य न्यायसंगत होगा अतः तुम स्वयं ही इन्द्रको वरण कर लो] // 46 // निवेक्ष्यसे यद्यनले नलोज्झिता सुरे तदस्मिन्महती 'दयाहता। चिरादनेनार्थनयापि दुर्लभं स्वयं त्वयेवाम ! यदङ्गमयते // 47 // निवेच्यस इति / हे मुग्धे! नलेनोज्झिता सती अनले निवेक्ष्यसे यदि जीवितनैस्पृहादग्नि प्रवेश्यसि चेदित्यर्थः / आधारत्वविवक्षया सप्तमी "नेविंश" इत्यात्मनेपदम् / तत् तर्हि अस्मिन्ननले अनलाख्ये सुरेऽपि तदधिष्टातरि देवे च भूतमात्र इति भावः। महती दया आहता कृता स्वीकृतेत्यर्थः। कुतः यद्यस्मादनेनानलेन चिरादर्थनया याच्यापि दुर्लभमङ्गं शरीरम्, अङ्ग! अयि ! त्वयैव स्वयमात्मनैव अयंते दीयते तथा स स्फुटतममेव जीवग्राहं ग्रहीष्यतीति भावः / अत्र नलालाभे जीवितजिहासोरनलग्रहणबुद्धिरूपानर्थोक्तेविषमभेदः / 'विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रानर्थस्य वा भवेत् / विरूपघटना चासो विषमालकृतिस्निधेति" लक्षणात् // 47 // यदि नलसे त्यक्त ( नलले अविवाहित ) तुम अनल ( अग्नि, पक्षा०-नलभिन्न ) में नियुक्त होओगी अर्थात् अग्निमें प्रवेश करोगी, तब इस देव अर्थात् अग्नि पर तुमने वड़ी दया का आदर किया अर्थात् दया की ( पाठा०-दया धारण की; क्योंकि ) चिर कालसे 1. "दया कृता" इति, “दया ता" इति च पाठान्तरम् / Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gx नवमः सर्गः। याचनासे भी दुर्लभ ( अपने ) शरीरको हे अङ्ग ! इस अग्नि के लिये, स्वयं समर्पण कर दोगी। [इस समयमें अग्नि तुम्हारे शरीरकी याचना कर रहे हैं, पर तुम नहीं दे रही हो, और बादमें नलके विवाह न करने पर अपने शरीरको मरने के लिए अग्निमें छोड़ना अर्थात् अग्निके लिये स्वयं समर्पण करना, अग्निपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, क्योंकि नायकके द्वारा आलिङ्गनादिके लिए नायिकासे याचना करने पर न देना तथा वादमें स्वयं अपनेको समर्पण करना नायकके विशेष आनन्दका कारण माना जाता है। क्या करने पर क्या परिणाम होगा, तुम यह नहीं समझती, अत एव मैं तुम्हें इतना कह रहा हूं यह वात आत्मीयता सूचक 'अङ्ग' पदसे ध्वनित होती है ] / / 48 / / जितं जितं तत्खलु पाशपाणिना विना नलं वारि र्याद प्रवेक्ष्यसि / तदा त्वदाख्यान बहिरप्यसूनसौ पयःपतिर्वक्षसि वक्ष्यतेतराम् // 46 // जितमिति / हे मुग्धे ! नलं विना वारि प्रवेच्यसि यदि मरणार्थमिति शेषः / अथेदानीं पाशः पाणौ यस्य तेन पाशपाणिना वरुणेन प्रहरणार्थेभ्यः परे निष्ठासप्तम्यौ भवतः / जितं जितमभीचगं जितं खलु / भावे क्तः। "नित्यवीप्सयोरि"ति नित्यायें द्विर्भावः 'नित्यमाभीचण्ये' इति काशिका। तदा वारिप्रवेशकाले असौ पयःपतिर्वरुगोऽपि त्वदाख्यान त्वन्नामकान् / बहिरप्यसून् बहिर्वर्तिनः प्राणान् वक्षसि वक्ष्यते। तराम् / वहेः स्वरितेत्त्वात् लटि सकि तरप्यामुप्रत्ययः। सोऽपि त्वां जीवग्राहं ग्रहीष्यतीत्यर्थः। अत एव पूर्व एवालङ्कारः॥४८॥ ___ यदि तुम नलके विना (नलके नहीं मिलने पर मरने के लिए ) पानीमें प्रवेश करोगी तो वरुणने अवश्य ही जीत लिया ( क्योंकि ) उस समय ( पानीमें प्राणत्याग करने के लिए तुम्हारे प्रवेश करने पर ) पानीके स्वामी ये वरुण तुम्हारे नाम वाले अर्थात् दमयन्ती नामक तुम्हारे प्राणोंको बाहर भी हृदयमें वहन करेंगे। [ अब तक तो वरुण तुमको भीतर अन्तःकरणमें ही ग्रहण करते हैं, किन्तु जब तुम मरनेके लिये जलमें प्रवेश करोगी तब वे वरुण तुमको बाहर भी हृदयसे आलिङ्गन करेंगे, यह उनकी बड़ी भारी विजय होगी] !!48 / / करिष्यसे यद्यत एव दूषणादुपायमन्यं विदुषी स्वमृत्यवे / प्रियातिथिः स्वेन गतागृहान् कथं न धर्मराजंचरितार्थयिष्यसि ||5|| करियस इति / अथ विदुषी पण्डिता विदग्धा त्वं यदि तु अत एव दूषणादेतस्मादेवोद्वन्धनादिना स्वमृत्यवे स्वमरणाय अन्यमुपायमनशनादिकं करियले, तदा प्रियातिथिरतिथिप्रिया त्वं स्वेन स्वत एव गृहान् धर्मराजगेहं गता सती धर्मराजं वैवस्वतमतिथिसत्तममिति भावः। कथं न चरितार्थयिष्यसि न कृतार्थ करि. प्यसि / कर्तव्यमेवेदं कृतयुगधर्मत्वात् स्वयं गत्वार्थिमनोरथपूरणस्येति भावः // 49 // यदि इसी दोष ( उद्वन्धन, अग्नि-प्रवेश और जल प्रवेश करनेसे क्रमशः इन्द्र, अग्नि और वरुण मुझे प्राप्त कर लेंगे इस दोष ) से पण्डिता तुम किसी दूसरे उपाय ( मरनेका Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम्। यत्न ) को करोगी तो अतिथिको प्रिय मानने वालो तूं घरपर आये हुए धर्मराज ( यम ) को क्यों नहीं कृतार्थ करोगी ? [ नलके नहीं मिलनेपर उद्वन्धनादि मरण-साधनोंको उक्त कारणों ( 2 / 46-48 ) से दूषित समझ कर यदि तुम कीसि दूसरे उपायका अवलम्बन करेगी तब मरने पर यमके यहाँ सबका जाना निश्चित होनेसे वे चिराभिलषित तुम्हें पाकर कृतार्थ हो जायेंगे; अत एव किसी प्रकार भी नलको न पाकर मरने में इन्द्रादि दिक्पालोंमें से कोई एक तुम्हें पा लेगा यह सोच कर तुम्हें नलको वरण करनेका दुराग्रह छोड़कर . इन्द्रादिमें से किसी एकका वरण कर लेना ही श्रेयस्कर है ] // 49 // / निषेधवेषो विधिरेष तेऽथवा तवैव युक्ता खलु वाचि वक्रता / विजम्भितं यस्य किल धनेरिदं विदग्धनारीवदनं तदाकरः // 40 // निषेधेति / हे विदग्धे ! अथवा तव एष इन्द्रादिनिषेधो निषेधवेषो निषेधाकारो विधिरङ्गीकार एव / तथा हि-वाचि वचने वक्रता वक्रोक्तिचातुरी व्यङ्गयोक्तिचातुरीति यावत् / सा तवैव युक्ता खलु / कुतः, इदं वक्रवाक्यं वञ्चनाचातुर्य यस्य ध्वने. यंकवृत्तेर्विजृम्भितं विजृम्भणं, "नपुंसके भावे क्तः" / विदग्धनारीवदनं सूक्तिचतुर स्त्रीमुखं तदाकरस्तस्य ध्वनेरुत्पत्तिस्थानमित्यर्थान्तरन्यासः। ततः स्थूणानिखनन न्यायेन विधिमेव द्रढयितुमेतन्निषेधनाटकमिति निषेधेन विधिरेव व्यज्यत इति भावः॥५०॥ ___ अथवा निषेधरूप में यह तुम्हारी स्वीकृति ही है अर्थात् तुम इन्द्रादि को स्वीकार हो कर रही है ( क्योंकि ) तुम्हारे ही वचनमें व्यङ्गयोक्ति उचित है / जिस ध्वनि-(ध्वनि' नामक उत्तम काव्य ) का यह विजृम्भित (विलास ),है, चतुर स्त्रियोंका मुख उस (धनि ) का खजाना है अर्थात् चतुर स्त्रियोंके मुखसे ही उत्तमरूपसे व्यङ्गयके बाहुल्य की प्राप्ति देखी जाती है / [ तुम व्यङ्गयपूर्वक निषेध करती हुई भी इन्द्रादिको स्वीकार हा कर रहा हो ऐसा मैं मानता हूँ ] // 50 // भ्रमामि ते भैमि ! सरस्वतीरसप्रवाहचक्रेषु' निपत्य कत्यदः / अपामपाकृत्य मनाक कुरु स्फुट कृतार्थनायः करमः सुरात्तमः / / 51 // एवं सुरस्वीकारपक्षमेव सिद्धवत्कृत्य निर्वध्य पृच्छति-भ्रमामीति / हे भैमि! ते तव सरस्वती वाक नदीभेदश्च तस्या रसः शृङ्गारो जलञ्च तस्य प्रवाहस्तस्य चक्रेषु पुटभेदाख्यावर्तेषु वक्रोक्तिरूपेश्वित्यर्थः / वक्रेविति पाठेऽप्ययमेवार्थः / 'चक्राणि पुटभेदाः स्युरित्यत्र' 'वक्राणीति' पाठस्यापि स्वामिनाङ्गीकारात् / कति क्रियन्त्यमूनि चक्राणि यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा निपत्य भ्रमामि मुह्याम्यावर्ते च / अत्र वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायान्निपातनादिक्रियानिर्वाहः / अलं वक्रोक्त्येति तात्पर्य किन्तु कतमः सुरोत्तमः कृतार्थनीयो वरणीयः ? एतदेव त्रपां मनागपाकृत्य शिथिली. 1. "वक्रेषु' इति पाठान्तरम् / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 467 नवमः सर्गः। कृत्य स्फुटं कुरु व्यकं ब्रहीत्यर्थः। नात्र लजितम्यम्, "आहारे व्यवहारे च त्यक्त लजः सुखी भवेदिति" न्यायादिति भावः // 5 // हे दमयन्ती ! तुम्हारी वाणीने रस माधुर्य ( पक्षा०-सरस्वती नदोका जल ) के प्रवाह ( वक्रोक्ति आदि पक्षा०-धारा ) के चक्रों ( समूहों, पक्षा०-भंवरों ) में गिरकर कब तक घूमूंगा भ्रममें पड़ा रहूंगा ( पक्षा०-चक्कर लगाता रहूँगा ) ? ( अतः ) लज्जाको थोड़ा कम कर स्पष्ट करो ( अथवा-लज्जाको कम कर थोड़ा स्पष्ट करो अर्थात् संकेत करो कि-) किस देव श्रेष्ठको ( वरण करनेसे ) कृतार्थ करोगी? [जिस प्रकार कोई व्यक्ति नदीके जल प्रवाहके भँवरमें पड़कर चक्कर काटता रहता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे रसयुक्त वाणीके वक्रोक्त्यादिके समूहमें पड़कर यह नहीं निर्णय कर सका हूँ कि तुम्हारा स्पष्ट आशय क्या है ? अर्थात् किस देवश्रेष्ठ ( दिक्पाल होनेसे या तुम्हारे वरण करनेसे देवश्रेष्ठता प्राप्त होना उचित ही है ) को घरण करोगी ? अतः थोड़ा सङ्कोच छोड़कर स्पष्ट कहो ] // 51 / / मतः किमैरावतकुम्भकैतव प्रगल्भपीनस्तनदिग्धवस्तव / सहस्रनेत्रान्न पृथक मते मम त्वदङ्गालक्ष्मीमवगाहितुं क्षमः / / 52 / / अथैकस्मिन्नेव नामग्राहमनुरागमष्टभिः पृच्छति-मत इत्यादि। हे भैमि ! ऐरावतकुम्भयोः कैतवेन मिषेणेत्यपह्नवभेदः / प्रगल्भौ कठोरो पीनौ च स्तनौ यस्यास्तस्याः दिशः प्राच्याः धवः पतिरिन्द्रस्तव मतः सम्मतः किम् ? किंशब्दः प्रश्ने / "मतिबुद्धि" त्यादिना वर्तमाने क्तः। 'क्तस्य च वर्तमाने' इति तद्योगात्तवेति षष्ठी। युक्तञ्चतदित्याह-मम मते मत्पक्षे त्वदङ्गस्य लक्ष्मी लावण्यसम्पदमवगाहितुं सम्बग्ग्रहीतुं सहस्रनेत्रात् सहस्राक्षात् पृथगन्योऽपि इत्यर्थः। “पृथग्विने" त्यादिना पक्ष पञ्चमी / क्षमो न। अत्रोत्तरवाक्यार्थेन पूर्ववाक्यार्थसमर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्य. लिङ्गम् / 'हेतोर्वाक्यार्थहेतुत्वे काम्यलिङ्गमुदाहृतम्' इति लक्षणात् / तस्य पूर्वोक्ता. पह्नवेन संसृष्टिः // 52 // ऐरावतके कुम्भ ( मस्तकस्थ मांसपिण्ड ) के व्याजसे कठोरस्तनवाली दिशा (54 दिशा ) का पति अर्थात् इन्द्र तुम्हें अभीष्ट है क्या ?, मेरे मतमें इन्द्र के विना ( दूसरा कोई ) तुम्हारे शरीरकी शोभाको देखने में समर्थ नहीं है। [ तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर में शोभा फैला हुई है, उसे एक साथ सम्यक् प्रकारसे देखनेके लिये अधिक ( सहस्र ) नेत्रों वाला इन्द्र ही समर्थ हो सकता है, दूसरा कोई दो नेत्रवाला नहीं; अत एव तुम इन्द्रको चाहती हो तो' मेरी भी इसमें सम्मति है ] / / 52 // प्रसीद तस्मिन् दमयन्ति ! सन्ततं त्वदङ्गसङ्गप्रभवैजगत्प्रभुः / पुलोमजालोचनतीक्ष्णकण्टकैस्तनुं घनामाननुतां स कण्टकैः / / 53 / / प्रसीदेति / हे दमयन्ति ! तस्मै इन्द्राय प्रसीद प्रसन्ना भव / क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी। जगत्प्रभुः स इन्द्रः सन्ततं तनुं निजाङ्गं निजाङ्गसङ्गप्रभवैरत एव पुलोमजायाः शच्याः Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાક नैषधमहाकाव्यम् / लोचनयोस्तीचणकण्टकैर्निशितबर्बुरादिद्रुमावयवविशेषस्तथा व्यथाकरैः सपत्नीभावैरित्यर्थः। कण्टकैः पुलकैः 'वेणी दुमाङ्गे रोमाशे पुद्रशत्रौ च कण्टकः' इति उभय. त्रापि वैजयन्ती। घनां सान्द्रामातनुतां करोतु, शस्याः सपरनी भवेत्यर्थः। अत्र पुलकेषु कण्टकत्वारोपापलङ्कारः // 53 // हे दमयन्ति ! उन ( इन्द्र ) के लिये प्रसन्न होवो, संसारके स्वामी ( वे इन्द्र ) तुम्हारे शरीरके सङ्ग ( आलिङ्गनादि स्पर्श ) से उत्पन्न ( तथा सौतमें प्रेम करनेसे इन्द्राणीके नेत्रों के लिये तीक्ष्ण काँटे ) रोमाञ्चोंसे शरीरको सर्वदा परिपूर्ण करें। [तुम्हारे आलिङ्गनादिसे जब इन्द्र के शरीरमें पूर्णतया रोमाञ्च होगा, तब सौतमें प्रेम करनेके कारण वह रोमाञ्च इन्द्राणीके नेत्रों के तीक्ष्ण काँटोंके समान मालूम पड़ेगा। अथ च-सौतके शरीरसे उत्पन्न सन्तानको पतिके क्रोडमें देखनेसे दूसरी सौतके नेत्रोंमें काँटे-जैसा चुभता है, उसे वह नहीं सहन करती, अतः तुम्हारे शरीरके सङ्गसे उत्पन्न कण्टक ( रोमाञ्च, पक्षा०-सन्तान ) को पति इन्द्रके शरीरमें देखनेसे इन्द्राणीको काँटे चुभने-जैसी वेदना होगी। तुम इन्द्रको वरण करो] // 53 // अबोधि तत्त्वं दहनेऽनुरज्यसे स्वयं खलु क्षत्रियगोत्र जन्मनः / विना तमोजस्विनमन्यतः कथं मनोरथस्ते वलते विलासिनि // 54 // अबोधीति / हे विलासिनि ! विलासशीले ! "वौ कषलसकत्थस्रम्भ" इति घिनुपप्रत्ययः। तत्त्वं त्वन्मनोरथस्वरूपमबोधि बुद्धम् / कर्मणि लुङ / तदेवाह-स्वयं त्वमित्यर्थः। दहने जातवेदसि अग्निदेवे अनुरज्यसे अनुरक्तासि खलु। रओवादि. कात् स्वरितेन कर्तरि लट् / “अनिदिताम्" इत्यादिना अनुनासिकलोपः। कुतः, क्षत्रियगोत्रे जन्म यस्यास्तस्यास्ते ओजस्विवंशजाया इत्यर्थः / मनोरथः ओजस्विनं तमग्निं विनाऽन्यतोऽन्यत्र सार्वविभक्तिकस्तसिः। कथं वलते प्रवर्तते न कथमपीस्यर्थः / एतेनोभयोरोजस्वित्वेन समागमानुरूण्याद्दहनानुरागित्वं ते युक्तमिति समर्थनाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गं व्यक्तमेव // 54 // स्वयं ( विना किसीकी प्रेरणा किये ही ) अग्निमें अनुरक्त हो रही हो तुम्हारे मनोरथका स्वरूप मैंने समझ लिया। क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न हुई तुम्हारा मनोरथ ( अभि विना दूसरे ( तेजते हीन किसी व्यक्ति ) में प्रवृत्त होता है ? अर्थात् नहीं होता है / [ तुम क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न होनेसे तेजस्विनी हो, और तेजस्विनीका तेजस्वी व्यक्ति में ही अनुराग होना उचित है, क्योंकि तेजस्वी व्यक्तिका मनके तुल्य रथ या चाहना अन्य किसी ब्राझगादि शान्त व्यक्ति के प्रति कभी नहीं जाता, अतः तम्हाराअग्निमें स्नेह करना ठीक है। 1. "असंशयं रज्यसि जातवेदसि" इति पाठान्तरम् / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 469 त्वयैकपन्या तनुतापशकुया ततो निवत्यं न मनः कथम्चन | हिमोपमा तस्य परीक्षणक्षणे सतीषु वृत्तिः शतशो निरूपिता / / 55 / / न च दाहाजेतव्यमित्याह-स्वयेति / एकपत्न्या मुख्यपतिव्रतया, अत एव त्वया तनुतापशङ्कया देहदाहसम्भावनया वा ततोऽग्नेर्मनः कथशन कथविदपि न निवत्यं न निवर्तयितव्यं, वृतेय॑न्ता "दचो यदि" ति प्रत्ययः। कुतस्तस्याग्नेः परीक्षणक्षणे अग्निदेवेन पातिव्रत्यपरीक्षावसरे सतीषु विषये हिमेनोपमा साम्यं यस्यास्सा वृत्तिः / शतशः शतकृत्वो निरूपिता निर्धारिता, न तु घुणाक्षरवत् सदित्यर्थः / तस्मात् त्वया न भेतव्यं प्रत्युत स एव साध्वीं स्वां दग्धुं बिभेतीति भावः / बत्र पूर्ववाक्यस्यैकपत्रीपदार्थहेतुकत्वात्पदार्थहेतुकमेकं काम्यलिजम, तस्याप्युत्तरवाक्यार्थहेतुकत्वाद्वाक्यार्थहेतुकञ्चेत्यनयोः सकारः॥ 55 // मुख्य प्रतिव्रता तुमको ( अपने ) शरीरके सन्तापकी शक्कासे उस (अग्नि ) से मनको किसी प्रकार नहीं लौटाना चाहिये अर्थात् तुम्हें अग्निमें ही अनुरक्त करना चाहिये (क्योंकि ) परीक्षा ( सतीत्व आदिकी परीक्षा ) के समयमें उस (अग्नि ) का व्यवहार पतिव्रताओं ( के विषय ) में सैकड़ों बार ( अथवा-सैंकड़ों पतिव्रताओंमें ) हिम (बर्फ) के समान ( ठण्डा ) निश्चित हो चुका है / [ यह प्रसिद्ध एवं सबके अनुभवसे सिद्ध बात है कि अग्नि सन्तापकारक है, परन्तु जब-जब सतियोंकी परीक्षा हुई है तब तक उनके विषयमें अग्नि सन्तापकारक अर्थात् उष्ण न होकर शीतल हो गयी है, और तुम मी सतियों में प्रधान हो, अतः, तुम्हें अग्निसे पीडा होनेका भय नहीं करना चाहिये ] / / 55 // स धर्मराजः खलु धर्मशीलया त्वयास्ति चित्तातिथितामवापितः। ममापि साधु प्रतिभात्ययं क्रमश्चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः // 56 / / स इति / अथवा स प्रसिद्धो धर्मराजो यमः धर्म शीलयतीति धर्मशीला धर्मचारिणी / "शीलिकामिभच्याचरिभ्यो नः" / तथा त्वया चित्तातिथितां चित्तगो. चरत्वमवापितोऽस्ति खलु ? कामितः किमित्यर्थः। खलुशब्दो जिज्ञासायाम् / 'निषेधवाक्यालङ्कारजिज्ञासानुनये खलु' इत्यमरः। तथा चेदरमिस्थाह-ममाप्ययं क्रमः क्रमणं प्रवृत्तिः साधु यथा तथा प्रतिभाति परिस्फुरति / तथा हि-योग्येन सह योग्यस्य समागमः सम्बन्धश्चकास्ति शोभते, उभयोर्धार्मिकस्यादिति भावः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः / / 56 // __ धर्मशील तुमने धर्मराजको मनका अतिथि बनाया है अर्थात् तुम धर्मराजको मनसेचाहती हो ? / मुझे भी यह क्रम (प्रवृत्ति ) अच्छी जचती है; क्योंकि योग्यके साथ योग्यका ( ही ) सङ्गम शोभता है / [ 'धर्मशील तुम धर्मराजको चाहती हो' इस विषयमें मेरी भी सम्मति है, अत एव तुम धर्मराज ( यम) को अवश्य वरण करो] // 56 // 1. “साधुः" इति पाठान्तरम् / Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 नैषधमहाकाव्यम् / अजातविच्छेदलवैः स्मरोत्मवैरगस्त्यभासा दिशि निर्मलविष / धुतावधि कालममृत्यहिता निमेषवत्तेन नयस्व केलिभिः / / 57 // अजातेति / हे भैमि ! अगस्त्यभासा निर्मलस्विषि दिशि दक्षिणस्यां दिशीत्यर्थः / तेन धर्मराजेन सह / “वृद्धो यूने"ति ज्ञापकात् सहाप्रयोगेऽपि सहार्थे तृतीया। अविद्यमानं मृत्युशङ्कितं मरणशङ्का यस्याः सा सती अन्तकस्यैवात्मदासस्वादिति भावः / अजातो विच्छेदलवो विघ्नलेशो येषु तैः स्मरोत्सवैः सम्भोगैरेव केलिभिर्विनोदैः धुतोऽवधिरन्तो यस्य तमनन्तकालं निमेषवत् निमेषतुल्यं नयस्व यापय / वरान्तरस्वीकारे दुर्लभमिदं सौभाग्यमिति भावः // 57 // अगस्त्य ( अगस्त्य मुनि या अगस्त्य नक्षत्र ) के प्रकाशसे निर्मल कान्तिवाली दिशा ( दक्षिण दिशा ) में उस ( यम ) के साथ ( यमके ही अपना पति होनेसे ) मृत्युकी शङ्कासे रहित होकर लेशमात्र भी भङ्ग नहीं होने वाली कामके उत्सस्वरूप (पाठा०-कायसे उत्पन्न) क्रीडाओंसे निरवधि अर्थात् अनन्त समयको निभेपके समान व्यतीत करो। [ अगस्त्य नुनि प्रसन्न होकर यम की दक्षिण दिशाको निर्मल करते हैं, उस दिशामें, और लोगोंके मारनेवाले होनेपर भा पति होनेसे अपने मरनेकी शङ्का छोड़कर निरन्तर होनेवाली कामक्रीडासे अनन्त समयको निमेषमात्र समयके समान ( सुख का बहुत अधिक समय भी अत्यन्त थोड़ा ज्ञात होता है अतः अधिक आनन्ददायक होने से अनन्त समय भा तुम्हें निर्भपके बराबर मालूम पड़ेगा ) व्यतीत करो। तुम धर्मराजको वरण कर अनन्त समय तक उनके साथ कामक्रीडा करो] // 57 // शिरीषमृद्वी वरुणं किमीहसे पयःप्रकृत्या मृदुबर्गवासवम् / / विहाय सर्वान् वृणुते स्म किन्न सा निशापि शीतांशुमनेन हेतुना / / 8 / / शिरीषेति / अथवा शिरीषमृद्धी त्वं पयःप्रकृत्या जलस्वभावेन वरुणशरीरस्य तथावात् कारणगुणवशेनेत्यर्थः। मृदुवर्गे वासवमिन्द्रं श्रेष्टं वरुणमीहसे किमिच्छसि वा? तदपि योग्यमेवेति शेषः। तथा हि-सा मृदुस्वभावा निशापि अनेनैव मृदुस्वभावस्वेन हेतुना कारणेन / “सर्वनाम्नस्ततृतीया च" इति तृतीया / सवाँस्तीचगान् सूर्यादीन् विहाय शीतांशु न वृणुते स्म किम् ? वृणुत एव / दृष्टान्तालकारः // 58 // शिरीष ( के फूल ) के समान कोमल तुम जल-प्रकृतिके होनेसे कोमल पदार्थों के इन्द्र अर्थात् सबसे अधिक कोमल वरुणको चाहती हो क्या ? वह (विख्यात रात्रि भी इसी कारण सबोंको छोड़कर ( कठिन पदार्थों या सूर्य आदि कठिन ग्रहों ) को छोड़कर ठण्डे किरणों वाले चन्द्रमा को नहीं वरण करती है क्या ? अर्थात् अवश्य वरण करती है / [जिस प्रकार कोमल स्वभाववाली रात्रि अन्य ग्रह या कठिन पदार्थों को छोड़ कर कोमल चन्द्रमा को वरण करती है, उसी प्रकार शिरीषके पुष्पोंके समान कोमलाङ्गी तुम जलस्वभाव 1. "स्मरोद्भवैः” इति पाठान्तरम् / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। होनेसे अतिशय कोमल वरुणको वरण करना चाहती हो तो यह चाहना उत्तम है। [ मृदु प्रकृति होने के कारण तुम भी अन्य इन्द्र, अग्नि, यमको छोड़कर अतिशय कोमल प्रकृति वरुण को वरण करो] // 58 // असेवि यस्त्यक्तदिवा दिवानिशं श्रियः प्रियेणानणुरामणीयकः। सहामुना तत्र पयःपयोनिधौ कृशोदरि ! क्रीड यथामनोरथम् // 56|| असेवीति / हे कृशोदरि ! अनणु महद्रामणीयकं रमणीयत्वं यस्य सोऽतिरमणीयो यः पयःपयोनिधिः त्यक्ता द्यौः येन तेन श्रियः प्रियेण लचमीपतिना दिवा च निशा च दिवानिशमहोरात्रयोरित्यर्थः / द्वन्द्वैकवद्भावे अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। असेवि सेवितः। तत्र पयःपयोनिधौ क्षीराब्धौ अमुना वरुणेन सह यथामनोरथं यथेच्छ क्रीड, लक्ष्मीनारायणवदिति भावः // 59 // ___ लक्ष्मांके पति ( विष्णु ) ने स्वर्गको छोड़कर रात-दिन अतिशय सौन्दर्यवाले जिसका आश्रय किया है, हे कृशोदार ? उस क्षीरसमुद्र ( या समुद्र ) में इस ( वरुण ) के साथ इच्छानुसार क्रीडा करो। [ स्वर्गको भी छोड़कर विष्णु भगवान् रात-दिन पयोनिधिमें रहते है, अतः ज्ञात होता है कि वह स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है, और वह पयोनिधि इस वरुणको स्वीकार करनेसे इच्छापूर्वक क्रीडा करने के लिए तुम्हें प्राप्त हो रहा है, अतएव तुम वरुणको स्वीकारकर पयोनिधि विष्णुके समान क्रीडा करो ] / / 59 // इति स्फुटं तद्वचसस्तयादरात् सुरम्पृहारोपविडम्बनादपि / करासुप्तककपोलकर्णया अतच तद्भाषितमश्रुतच तत् // 60 // इतीति / इतीत्थं स्फुटं स्फुटार्थ तत्पूर्वोकं तद्भाषितं नलवाक्यं तद्वचसो नल. वचसः आदरात् सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। तद्वचनस्यानुरागाच्चेत्यर्थः / सुरेब्विन्द्रादिषु स्पृहाया अभिलापस्यारोप एव विडम्बनं परिहासः तस्मादपि करणात् कराके करोस्सने सुतं विश्रान्तमेकं कपोलकर्ण द्वन्द्वादौ श्रुतस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादेककपोल एककर्णश्च यस्यास्तयेत्यर्थः / तया दमयन्त्या श्रुतमश्रुता सुरस्पृहारोपरोषात् करतलेनकं कर्ण पिधाय नलादरादेकेन श्रुतं नतु द्वाभ्यामित्यर्थः। एककपोलरोधस्तु चिन्तावशादिति मन्तव्यम् / अत्रादरविडम्बनयोः श्रुताश्रुताभ्यां हेतुहेतुमद्भावेन यथासङ्ख्यसम्बन्धात् यथासङ्ख्यालङ्कारः // 60 // इस प्रकार ( श्लो० 38-59 ) स्पष्ट नलके वचनको एक हाथ पर कपोल तथा कानको रखी हुई उस (दमयन्ती) ने उस (नलाकृति दूत) के वचनको आदरसे तथा देवों में स्पृहाके आरोपकी विडम्बनासे क्रमशः सुना भी और नहीं भी सुना / [ दमयन्ती नलाकृतिको दूतमें देखकर उनके वचनको सुनने में उत्सुक थी और यहदूत इन्द्रादि देवों में स्पृहा रखनेवाली निःसार बातें कह रहा है जिनको कि पतिव्रताधर्मके विपरीत होनेसे नहीं सुनना चाहती थी, इस प्रकार हाथके ऊपर कपोल तथा कान रखे हुए दमयन्तीने नलाकृति सुन्दर होनेके आदरसे Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / उस वचनको सुना तथा देवविषयक स्मृहासे परिपूर्ण होनेसे निःसार उस बातको नहीं सुना। हाथपर कपोल तथा कानके रखनेसे पतिव्रता दमयन्तीने एक कान बन्द कर लिया था, अतः एक कानके द्वारा सुना गया वचनका आधा सुना जाना उचित ही है। हाथपर कपोल रखनेसे दमयन्तीका उक्तबातको सुनते हुए चिन्तित होना सूचित होता है ] / / 60 // चिरादनध्यायमवामुखी मुखे ततः स्म सा वासयते दमस्वसः / कृतायतश्चाविमोक्षणाथ तं क्षणाद्वभाषे करुणं विचक्षणा / / 61 / / चिरादिति / ततो नलवाक्यानन्तरं सा दमस्वसा दमयन्ती अवामुखी चिन्ता. भरात् नम्रमुखी सती मुखे वाचि चिराचिरमनध्यायं मौनम्, "अध्यायन्याये" त्यादिना धमन्तो निपातः। “गातेबुद्धि" इत्यादिन अणिकतु: कर्मत्वम् / वासयते स्म वासितवती, लटि "लट् स्मे" इति भूते लट् / “न पादम्" इत्यादिना वसेlन्तात्तस्य परस्मैपदप्रतिषेधात् “णिचश्चे" त्यात्मनेपदम् / किन्तु विचष्ट इति विचक्षणा वस्त्री सा“अनुदात्तेतच हलादे" रिति युप्रत्यये टाप / 'असनयोश्वप्रतिषेधो वक्तव्यः" इति ख्यामादशाभावः / कृतमायतवासस्य विमोक्षणं विमोचनं यया सा सती दीर्घ निश्वस्येत्यर्थः / मोक्षयतेश्चीरादिकात् ल्युट / तं नलं क्षणात् क्षणं विलम्ब्येत्यर्थः। करुणं दीनं यथा तथा बभाषे एते मौनश्वासावाङमुखत्वादयश्चिन्तानुभावा ज्ञयाः। "ध्यानं चिन्ता हितानाप्तेः शून्यताश्वासतापकृ" दिति लक्षणात् // 6 // उसके बाद नीचे मुखकी हुई दमयन्तीने चिरकाल तक मुख में अनध्याय को बसाया अर्थात् कुछ समय तक चुप रही। इस ( चुप रहने ) के बाद लम्बी सांसको छोड़ती हुइ चतुर दमयन्ती क्षम (मुहूर्त ) भरमें करुण ( करुणायुक्त, अथवा-करुण पूर्वक-अथवा( 'अकरुण' पदच्छेद करके ) अकरुण अर्थात् निष्ठुर, वचन बोली--मौन धारण करनेसे अधोमुखी होना तथा दीर्घ श्वास छोड़नेसे दूत-वचन सुननेसे दमयन्तीका चिन्तित होना सूचित होता है / दीर्घश्वास छोड़नसे आँधी का आना और उसमें क्षणमात्र अनध्याय रखनेके बाद ही अध्ययनका आरम्भ करना धर्मशालके अनुसार उचित होनेसे दमयन्तीका वैसा ही करना उसके 'विचक्षण' विशेषणको आचिस्य-प्रतीति कराता है ] / / 61 / / विभिन्दता दुष्कृतिनी मम श्रुति दिगिन्द्रदुर्वाचिकसूषिसञ्चयैः / प्रयातजीवामिव मां प्रति स्फुट कृतं त्वयाप्यन्तकदूततोचितम् / / 62 // विभिन्दतेति / दुष्कृतिनी पापिष्ठां पापोक्तिग्राहित्वादिति भावः / मम श्रुति श्रोत्रं दिगिन्द्राणामिन्द्रदीनां दुर्वाचिकानि दुष्टसन्देशा एव सूचयस्तासां सञ्चयैः समूहैर्विभिन्दता विदारयता परपुरुषप्रसङ्गत्वादिति भावः। त्वयापि प्रयातो जीवो जीवितं यस्थास्तां प्रेतामिव मां प्रति स्फुटं व्यक्तं यथा तथा अन्तकदूतताया यमदूतत्वस्योचितं (कम)कृतम् / पतिव्रतानां परपुरुषवार्तापि यमयातनाया नातिरिच्यत इति भावः॥ तुमनं भी अथात् नलके समा शुन्दर एव सजन लो तुमने नहीं सुनने योग्य (इन्द्रादि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 503 पर पुरुषों के सन्देशको सुननसे ) पापी मेरे कानोंको दिक्पालोंके दुष्ट सन्देशरूपी सूर्योके समूहोंसे छेदते हुए ( अत एव ) मरी हुई के समान मेरे प्रति स्पष्ट ही यमदूतके योग्य काम किया है / यह [ सती होनेके कारण मेरे कानोंको परपुरुष सम्बन्धी कोई बात नहीं सुननी चाहिये; किन्तु मेरे कानोंने सुनकर पाप किया है और मैं मृतप्राय हो गई हूं, तथा सुन्दर आकृति होनेसे मधुरभाषी होना उचित होने पर भी तुमने ऐसे कर्णकटु सन्देश रूपी सूइयों से मेरे कानोंको मर्माहत करते हुए यमदूतका ही वास्तवमें कार्य किया है / यमदूत भी मरे हुए व्यक्तिके अङ्गों में बहुत-सी सूइयोंको धसा-धसाकर उसे पीडित करते हैं। 'दुष्कृतिनी'शब्द को 'मां' शब्दका विशेषण मानकर 'पापिनी मेरे प्रति' भी अर्थ हो सकता है / अथवा'अदुष्कृतिनी' अर्थात् पाप रहित कानोंको....| तुम इन्द्र आदि चारो दिक्पालोंके दूत होकर भी केवल यमके दूतका कार्य किया, यह सर्वथा अनुचित किया / अन्य भी बौद्ध आदि सर्वथा दोष हीन श्रुति अर्थात् वेदको दुष्ट वचनोंसे दूषित करते हैं ] // 62 // त्वदास्यनिर्यन्मदलीकदुयशोमसीमयत्वाल्लिपिरूपभागिव / श्रुतिं ममाविश्य भवदुरक्षरं सृजत्यदः कीटवदुत्कटा रुजः // 6 // स्वदिति / त्वदास्यानियत् निर्गच्छत् ममालीकमारोपितत्वान्मिथ्याभूतं दुर्यशो दुःसमज्या तदेव मसी तन्मयत्वाल्लिपिरूपभाक् लिप्यक्षरतां प्राप्तमिव स्थितमदः इदं भवतो दुरक्षरमतः किमित्यादि दुर्वाक्यं कीटवहंशादिजन्तुवत् मम श्रुतिं श्रोत्रमाविश्य उस्कटा महत्तराः रुजाव्यथाः सृजति जनयति / रूपकोत्प्रेक्षासङ्कीर्णेयमुपमा॥ ___ तुम्हारे मुखसे निकली हुई मेरी मिथ्या कीर्तिरूपी मषी (स्याही ) मय होनेसे लिपी (लेख ) रूपको प्राप्त ( पाठा०-..."मसीमयी तथा लिपिरूपको प्राप्त, अथवा..... मसीमय तथा सुन्दर लेखरूपको प्राप्त), यह आपका दुष्ट अक्षर (वाला वचन ) मेरे कानमें घुसकर कीड़ेके समान तीव्र पीडा करता है / [ आपका मुख मसीपात्र ( दावात ) तुल्य है उससे इन्द्रादिके अनुराग विषयक मेरे अपयशके तुल्य मसीमय ( अपयशके कृष्णवर्ण होनेसे उसको मसी ( स्याही ) कहना उचित ही है ) अर्थात् स्याहीसे लिखा गया, तुम्हारा कहना, दुष्ट अक्षर वाला है और उसके सुननेसे मेरे कानों में ऐसी तीव्र पीडा हो रही है, जैसे बाहर से कानके भीतर प्रवेश किया हुआ कीड़ा तीव्र पीड़ा करता है / तुम्हारा सन्देश कर्णकटु एवं मुझ पतिव्रता के लिए अपकीर्तिकारक है, अतः उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगी] // तमालरूचेऽथ विदर्भजारता प्रगाढ मौन्त्रतयैकया सखी। त्रपांसमाराधयतीयमन्यया भवन्तमाहस्म रसज्ञया मया।। 64 // तमिति / अथानन्तरं विदर्भजेरिता दमयन्तीचोदिता आलिः सखी तं नलमूचे / किमिन्यत आह-सौम्य ! इयं सखी मी प्रगाढं दृढं मौनव्रतां यस्यास्तया एकया 1. "मसीययं सल्लिपि-'' इति पाठान्तरम् / 2. "स्वरसज्ञया" इति नारायण अर्यास्यातं पाटान्तरं युक्तमिति बोध्यम् / 220 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 नैषधमहाकाव्यम् / रसझया जिलयात्रा समाराधयति भजत / देवताराधने मौनं युक्तमिति भावः / मया मपया अन्यया रसज्ञया जिह्वया कामाभिज्ञया च भवन्तमाह स्म / अनन्तरवाच्य लज्जया स्वयं वक्तुमशक्ता मन्मुखेन वक्तीत्यर्थः // 64) इस ( दमयन्तीके इतना ( इलो० 62-63 ) कहने के ) के बाद दमयन्तीसे प्रेरित सखी बोली- (पक्षा०-दृढ मौनरूप व्रतको धारण करने वाली ( अर्थात् बिलकुल मौन एक रसशा (जीभ, पाठा०-अपनी जीभ ) से लज्जाको आराधना (मौन रहकर लज्जाको धारण ) करती है, तथा दूसरी रसशा (अपने रस अर्थात् अभिप्रायको जाननेवाली, पाठा०अपनी रसशा ) मुझसे अर्थात् मेरे द्वारा आपके प्रति कहलाती है / [ मेरी सखी दमयन्ती स्वयं कहने में लज्जित होकर अपने अभिप्रायको मेरे द्वारा आपके प्रति कइला रही है। दृढ व्रतमें आसक्त व्यक्तिको कार्यान्तरासक्त होनेले आराध्यदेवकी आरथिनामें त्रुटि होनेका भय होनेसे उसका उस कार्यान्तरमें अपने भावको जाननेवाले दूसरे व्यक्तिको नियुक्त करना उचित ही है ] // 64 // 'तमचितुं संवरणमा नृपं स्वयंवरः सम्भविता परेचवि / ममासुभिर्गन्तुमनाः पुरःसरैस्तदन्तरायः पुनरेष वासरः // 6 // स्वयमेव दमयन्ती भूत्वाह-तमित्यादि / मम संवरणस्नजा तं नृपं नलमर्चितु. मर्चयितुमर्चतेभीवादिकात्तुमुन् / परेचवि परेऽहनि "सपः परुत्" इत्यादिना निपातनात् साधुः / स्वयंवरः सम्भविता सम्भविष्यति / किंतु पुरः सरन्तीति पुररसराः पुरोगास्तैः "पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सते"रिति टप्रत्ययः। ममासुभिः प्राणैः सह गन्तुं मनो यस्य स गन्तुमनाः प्रागानादाय गन्तुकाम इत्यर्थः / "तुं काममनसोरपि" इति मकारलोपः / एष वासरः पुनः वासरस्तु तस्य स्वयंवरस्यान्तरायो विश्नः / दिनमा• अविलम्बोऽपि दुःसह इति भावः / एतेन कालजमवलपगमौरसुक्यमुक्तम् // 65 // मेरी वरणमालासे उस राजा ( नल) की पूजा (वरणमाला पहनाकर उन्हें वरणद्वारा उनका आदर ) करने के लिये कल स्वयंवर होगा, आगे जाने वाले मेरे प्राणों के साथ जानेकी इच्छा करनेवाला ( मुझे पहले मारकर व्यतीत होनेवाला ) यह ( आजका ) दिन उस (स्वयंवर) का विध्नरूप है। [ जिस राजा नलके लिये मेरी इतनी उत्सुकता है कि ब्यतीत होता हुआ भो यह दिन मुमूर्षु व्यक्ति के प्राणों के समान नहीं व्यतीत हो रहा है अर्थात् एक दिनका बिलम्ब भी मुझे असह्य हो रहा है, तो उनको छोड़कर मैं इन्द्रादिको वरण करूंगी यह कैसे सम्भव है ? अर्थात् कदापि ऐसा होना सम्भव नहीं ] // 65 // तदद्य विश्रम्य यालुरोध मे दिनं निनीषामि भवद्विलाकिनी / नखै किलाख्यायि विलिख्य पक्षिणा तदैव रूपेण प्रमः स मत्प्रियः // 66 // 1. नारायगभट्टैरिमौ श्लोकौ (65-66) "श्लोकहयमेकान्वयम्" इत्युक्त्वा सहैव म्याल्याती। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 505 ततः किमत आह-तदिति / ततस्मात् औत्सुक्यावय विश्रम्य मे मम दयालुरेषि भव, अपास्मद्गेहे निवासेन मामनुगृहाणेत्यर्थः। अस्तेर्लोटि सिपि "हुसभ्यो हेर्षिः", "बसोरेदारभ्यासलोपवे"येकारः। तनिवासस्य फलमाह-भवन्तं विलो. कत इति भवधिकोकिनी सती दिन निनीषामि, स्वद्विलोकनेन दिनं नेतुमिरछामीत्यर्थः। मदर्शनात् कथं ते कालयापनमित्याशङ्कयाह-स मप्रियो नलः पषिणा दूतहंसेन नखैर्विलिरुप तथैव रूपेणाकारेण समः सरश आख्यायि किल, आण्यातः खलु / ण्यातेः कर्मणि लुछ। चिणो युगागमः। अतस्त्वदर्शनात् दिनं नेष्यामि / सदृशदर्शनादीनां कालविनोदनसाधनस्वादियोगिनामिति प्रागेवोक्तम. नुसन्धेयम् // 66 // ( केवल आजका दिन नल-वरणमें विघ्नस्वरूप हो रहा है ), अतएव आज विश्रामकर दिनको विताना चाहती हूँ। पक्षी अर्थात् राजहंसने नखोंसे लिखकर आपके ही रूपके समान उस मेरे प्रिय ( नल) को बतलाया है, [ अतएव प्रियके समानाकार आपको उस हृदयस्थ प्रियकी बुद्धिले देखने से मुझे पर पुरुष-दर्शनजन्य दोष भी नहीं लगेगा, इस प्रकार आपको देखते रहनेते मेरे प्राणोंको बचाकर आप दयालु बनिये] // 66 / / हशोद्वयी ते विधिनास्ति वञ्चिता मुखेन्दुलक्ष्मी तब यन्न यीझते / असावपि श्वस्तदिमां नलानने विलोक्य साफल्यमुपैतु जन्मनः // 6 // अग्रेह विश्रामे न केवलं ममैव साफल्यं किन्तु तवापित्याह-शोरिति / सौम्य ! विधिना स्रष्टा ते तव शो यो वनितास्ति विफलीकृता वर्तते / यत् यस्मात् तव मुखेन्दुलचमी न वीक्षते स्वमुखस्य स्वचक्षुषा द्रष्टमशक्यत्वादिति भावः। तत्तस्मादसौ ते दुय्यपि श्वः परेऽहनि इमां त्वन्मुखलदमों नलानने विलोक्य उभयनिष्ठत्वात् समानधर्मस्येति भावः / जन्मनः सात्यमुतु / अत्र इते सुरबुद्धया दूतनलमुखलचम्यो देऽप्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिभेद्रः // 67 // तुम्हारी भी दोनों आँख भाग्य ( या ब्रह्मा ) से वञ्चित ( ठगी गयो ) है जो तुम्हारे मुखको शोखाको नहीं देखती हैं, इससे ये आँखें भो नल के मुख में इस शोभाको देखकर जन्म को सफलताको प्राप्त करें। [ कोई भी व्यक्ति अपने मुखको शोमाको अपने नेत्रोंसे नहीं देखता और दर्पण आदिमें भी प्रत्यक्ष शोभाको नहीं देखता, किन्तु उसके प्रतिविम्बको देखता है, अतः यदि तुम आज यहां रहकर विश्राम कर लोगे तो मेरे प्राण बचानेसे परोपकार करनेका पुण्यभागी बनोगे तथा अपने मुखको कान्तिको ही भेरे प्रिय नलके मुख में देखकर अलभ्यलाभ ( क्योंकि ऐसा दूसरे के लिये असम्भव ही है ) होनेसे अपने नेत्रों को भी सफल कर लोगे। इस कारण आज तुम्हें 'एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा' या 'एक पन्थ दो काज' इस नीतिवचनोंका अनुसरणकर यहां रुक जाना चाहिये] // 67 // Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 नैषधमहाकाव्यम् / ममैव पाणौकरणेऽग्निसाक्षिकं प्रसङ्गसम्पादितमङ्ग ! सङ्गतम् / न हा सहाधीतिधृतः स्पृहा कथं तवार्यपुत्रीयमजयमर्जितुम // 68 / / / ममैवेति / किञ्च अङ्ग ! भो ! मम पाणौकरणे पाणिग्रहण एव “नित्यं हस्ते पाणावुपयमने" इति पाणी शब्दस्य गतित्त्वात् “कुगतिप्रादय" इति समासः। अग्निसाक्षिकं यथा तथा विवाहाग्निसन्निधावेवेत्यर्थः। प्रसंगात् स्वयंवरप्रसंगात् सम्पादितं संगतमुभयोरानुरूप्याद्युक्तम् / आर्ययोः श्वशुरयोः पुत्र आर्यपुत्रो भर्ता नलः तदीयमार्यपुत्रीयं, "वृद्धाच्छः" न जीर्यतीत्यजयं संगतं रामसुग्रीवयोरिव स्थिरसख्यमित्यर्थः / “अजय संगत"मिति यत्प्रत्ययान्तो निपातः / अर्जितं सम्पाद. यितुं सहाधीतिः सब्रह्मचारिता तां धारयतीति भृत् सारूप्यभृदित्यर्थः / ध्धातोः क्विप / तस्य तव स्पृहा कथं नास्ति / हेति विषादे / सर्वथा स्पृहणीया तत्संगतिरित्यर्थः॥ 68 // हे अङ्ग ! मेरे विवाहमें ही आग्न-साक्षिपूर्वक प्रसङ्ग ( इन्द्रादिके दूतकार्य-सम्बन्धी सुअवसर ) से प्राप्त यह ( नलके साथ आपकी ) मैत्री है ( इन्द्रादिके दूतकार्यके सुअवसरमें मेरे विवाहमें ही अनायास प्राप्त तथा विवाहकी अग्निके मामने होनेसे दृढतम मैत्री तुम्हारी नलके साथ हो जायगी समानकी मैत्री समानके साथ अनायास ही होनेसे यह अवसर तुम्हें नहीं खोना चाहिये ) / कुल-शील-रूप आदिसे समान तुम्हारा तथा श्रेष्ठ मातापितावाले नलकी कभी शिथिल नहीं होनेवाली मित्रताको प्राप्त करनेके लिये तुम्हें चाह क्यों नहीं होती ? हाय ! खेद है। ( अथवा-हे अङ्ग १................"प्रसङ्गसे प्राप्त दोनों के योग्य होनेसे योग्यतम, श्रेष्ठ माता-पिताके पुत्र ( नल) की दृढ़ मित्रता पानेकी चाहना तुम्हें क्यों नहीं होती ? हाय ! खेद है)। [संसारमें एक कार्यके प्रसङ्गमें अनायास ही यदि दूसरा कार्य भी सिद्ध होनेकी आशा होती है तो बुद्धिमान् व्यक्ति उस लाभका त्याग नहीं करते, अतएव तुम्हें इस इन्द्रादि दूतकार्य के प्रसङ्गसे अनायास प्राप्त मैत्रीका त्याग नहीं करना चाहिये। साथ ही जैसे तुम उत्तम कुलोत्पन्न एवं शील सम्पन्न हो, वैसे नल भी हैं अग्निके साक्षी होनेसे वह मैत्री अत्यन्त दृढतम होगी, ऐसे उत्तम लाभको तुम नहीं चाहते यह खेद एवं आश्चर्य है / और नलके साथ तुम अध्ययन किये हो अर्थात् कुल-शीलादिके समान होनेसे तुम दोनोंका सतीर्थ्य-भाव है तथा सतीर्थ्य के साथ मैत्री करना भला कौन नहीं चाहता ? तथा जिस प्रकार इन्द्रादिके साथ मेरा विवाह कराने के लिये तुम प्रयत्नशील हो, वैसे नल के साथ भी विवाह कराने के लिये तुम्हें प्रयत्न शील होना चाहिये, क्योंकि इन्द्रादि देव तो केवल 1-1 दिशाओं के पति हैं और नल राजा सब दिक्पालोंका अंश होनेसे इन्द्र आदिकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, अतएव तुम एक रात रहकर नलले मित्रता अवश्य करो। 'अङ्ग पदके सम्बोधन करनेसे-'तुम मेरे अङ्गतुल्य अनि निकटके व्यक्ति हो अतः इतना अधिक तुमको मैं कह रही हूँ' यह ध्वनित होता है ] // 68 // Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 507 दिगीश्वरार्थं न कथञ्चन त्वया कदर्थनीयास्मि कृतोऽयमञ्जलिः | प्रसद्यतां नाद्य निगाद्यमीदशं दधे दशौ बापरयास्पदे भृशम् / / 66 / / दिगीश्वरेति / किञ्चाहं त्वया दिगीश्वरार्थ कथञ्चनापि कदर्थनीया निवन्धनीया नास्मि, अयमञ्जलिः कृतः प्रार्थये त्वामित्यर्थः / प्रसद्यतां प्रसन्नेन भूयतां, भावे लोट / अद्य ईदृशं दिगीशसन्देशरूपं न निगाद्यं न वाच्यम्, "ऋहलोर्यत्" "गदमदे"त्यादिनानुपसर्गादेव यतो विधानात् / किं बहुना-भृशं बाप्परयास्पदे अश्रुवेगाश्रयो दृशौ दधे धारयामि रोदिमीत्यर्थः / नैवं दुःखकर्तुमुचितमिति भावः // 69 // ___ तुम दिक्पालों के लिये मुझे किसी प्रकार मत कर्थित करो ( सताओ) मैं हाथ जोड़ती हूँ, प्रसन्न होवो, आज ऐसा मत कहो, क्योंकि ( ऐसा करनेसे मैं ) अधिक अश्रुयुक्त नेत्रबाली होती हूँ अर्थात रोने लगती हूँ। [ कल ही मेरे शुभ विवाहका स्वयंवर है, अतएव प्रसन्नता के अवसरपर मुझसे तुम दिक्पालों के अनुराग आदिका वर्गन कदापि न करो, क्योंकि वैसा करनेसे मैं पीड़ाके वेगको नहीं रोक सकनेके कारण रो पड़ती हूँ और विवाह-जसे शुभ कार्यमें रोना अमङ्गलसूचक है, अतः मैं हाथ जोड़ती हूँ, तुम मेरे ऊपर कृपा करो और इस सम्बन्ध में आगे कुछ मत कहो ] // 69 // वृणे दिगीशानिति का कथा तथा त्वयोति ने नलभामपीहया / सतीव्रतेऽग्नौ तृणयामि जीवितंस्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः 70|| वृणे इति / किञ्च दिगीशान् वृणे इति का कथा, अत्यन्तासम्भावितमित्यर्थः / तथा हि-नलस्य मां कान्तिमपि त्वनिष्ठामिति शेषः / त्वयीति त्वयि परपुरुषे स्थिते इति हेतोः तथेहया तादृगनुरागेण नेते / इह त्वयि या नलभा तां नलभामिति केचित् योजयन्ति / नन्वेवं सुरावधीरणे बलविद्वरोध इत्याशङ्कयाह-सतीव्रते पातिव्रत्ये एवाग्नी जीवितं तृणयामि तृणाकरोमि, जीवितास्पृहाणां पतिव्रतानां न कुतश्चिद्भयमिति भावः। स्मरभयन्तु दुरापास्तमित्याह-स्मरस्तु तत्प्रसिद्धं किं वस्त्वस्तुकः पदार्थो भवेत् न कोऽपीत्यर्थः / कुतः यः स्मरो मस्म भस्मीभूतः व्रतैकजीविनां सोऽपि तुच्छः किं करिष्यतीत्यर्थः। चारित्रैकपरायणाः सत्यो न किञ्चिद्गयन्तीति भावः // 70 // ___ 'मैं दिक्पालोंको वरण करूँगी' इसकी क्या बात है ? ( दिक्पालोंको वरण करनेकी कोई बात ही नहीं है ), तुममें नलकी कान्तिको भी.( मैं ) वैसा ( अनुरागके साथ ) चेष्टा ( कटाक्षादि ) से नहीं देखती हूँ ( अथवा-यहां स्थित तममें नलकी कान्तिको भी मैं उस प्रकार ( नल-विषयक अनुरागके समान ) नहीं देखती हूँ। अथवा-यहां स्थित तुममें नलकी कान्तिको भी मैं वैसी ( जैसी हंसने नखसे नलका चित्र बनाकर दिखलाया था वैसी) कान्तिको भी नहीं देखता हूँ / इस प्रकार इन्द्रादि दिक्यालोंके वरण नहीं करने में उनके साथ विरोध होने का भी मुझे भय नहीं है, क्योंकि नलके नहीं मिलने पर ) सतीव्रत Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषपमहाकाव्यम् / रूपी अग्निमें ( अथवा-तीव्रता (काष्ठादिके अधिक एवं सूखा होनेसे मषिक ज्वाला) सहित अग्निमें ) जीवनको तृणतुल्य कर दूंगी अर्थात् पपकती अग्निमें तृणके समान शीघ्र अलकर मर जाऊंगी। कामदेव तो क्या वस्तु है ? अर्थात् कुछ नहीं, जो (कामदेव) भस्ममात्र अर्थात् भस्मवत् अकिश्चित्कर है अथवा-जो कामदेव भस्म है वह क्या वस्तु है ? अर्थात् अत्यन्त तुच्छ वस्तु है / अथ च-जो 'स्मर' (स्मरणीय-स्मृतिमात्रमें होने योग्यकाममें आने योग्य नहीं अर्थात् मृत) है वह क्या वस्तु है ? अतएव कामदेव भस्मवत् होने से सामान्य व्यक्तिका भी कुछ नहीं कर सकता तो मुझ जैसी सतीका क्या कर सकता है ? // न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स धर्मचिन्तामणिज्झितो यया / कपाल कोपानलभस्मनः कृते तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं तया // 1 // न्यवेशीति / हे सौम्य ! यो धर्माख्यः चिन्तामणिर्जिनेन देवेन अर्हता रत्नत्रितये जैनपरिभाषया सदृष्टिज्ञानवृत्ताख्ये रत्नत्रये न्यवेशि निवेशितः "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि 'धर्म धर्मेश्वरा विदु"रिति तैरुक्तत्वात् / विशेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् / स धर्मचिन्तामणिः यया स्त्रिया कलापि हरः तत्कोपानलभस्मनस्तदुपस्य कामस्य कृते, कृत इति तादध्यऽव्ययम् / उडिझतत्यक्तः तया स्त्रिया तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं विस्तृतम् / कामाख्यभस्मान्धतया चरित्रत्याधिया स्त्रिया स्वकुलमेव भस्मसात् कृतं भवे. दित्यर्थः / अहो नलकवताया ममा महेन्द्रादिनामग्रहणमपि न कार्यमिति भावः॥ __ जिनेन्द्र ( या बुद्ध ) ने जिस (धर्मरूप चिन्तामणि ) को रत्नत्रय ( तीन रत्नोंसम्यन्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र रूप तीन रत्नों ) में रखा है; उस धर्मरूपी चिन्तामणिको जिस स्त्रीने कपालधारी ( शिवजी, पक्षा०-कपाल धारण करनेसे अकिञ्चन व्यक्ति-विशेष ) के क्रोधाग्निसे भस्म अर्थात् कामदेव के लिये छोड़ दिया ( कामवशीभूत होकर चरित्रका त्यागकर दिया), उस स्त्रीने अपने वंशमें वही भस्म फैला दिया। [ जिनेन्द्रने सम्यक् चरित्ररूपी धर्मचिन्तामणि तीन रत्नों ( रत्नत्रय ) में गिरा है, ऐसे उत्तम पदार्थको जिसने कपालधारी ( अकिञ्चन भिक्षुक ) के क्रोधाग्निसे भस्म अर्थात् अपने निर्मलकुलको दूपित कर देती है अतः मैं अपने चरित्ररूपी धर्मका त्यागकर कुल में कलह नहीं लगाऊंगी अर्थात् एक बार नलको वरणकर लेनेपर पुनः इन्द्रादिमेंसे किसीको वरण नहीं करूँगी ] // 71 // निपीय पीयूषरसौरसीरसौ गिरः स्वकन्द पहुताशनाहुतीः। * कृतान्तदूतं न तया यथोदितं कृतान्त मेव स्वममन्यतादयम् / / 72 / / निपीयेति / असौ नलः पीयूषरसस्यामृतरसस्य उरसा निर्मिता औरसीः आरमजाः सदृशीरित्यर्थः। "उरसोऽणचे"त्यण्प्रत्ययः। संज्ञाधिकारादभिधेयनियम इति काशिका। स्वकन्दर्पहुताशनस्य निजकामाग्नेराहुतीरुटीपनीगिरो भैमीवाक्यानि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 506 निपाप स्वमात्मानं तया भैम्य पथोदितं यथोक्तं तवनातक्रमणेनेत्यर्थः। "पथासास्पे" इत्यव्ययीभाषः। कृतान्तदूतं नामन्पत किवदयं निर्दय पथा तथा स्वं कृतान्तमेवामन्यत / दूतधर्मस्वात् निर्वाशिय वयामीप्यमन्यतेत्यर्थः // 72 // ये ( नल ) अमृत-रस-तुल्य तथा अपनी कामाग्निकी आहुतिरूप अर्थात् बढ़ानेवाली वाणी ( दमयन्तीका कथन ) सुनकर उसने जैसा यमका दूत कहा था (श्लो० 66) वैसा नहीं, किन्तु अपनेको निर्दय यम हा माना ( अथवा-अपनेको सम्यक् प्रकार यम ही माना ) / [ यमदूत तो केवल प्राणियोंको यमके समीप पहुँचा देते हैं, उन्हें निर्दयतापूर्वक दण्डित करनेवाला तो यम ही है, अतएव मैने ऐसी पतिव्रताको इन्द्रादिका सन्देशसे जो कष्ट पहुँचाया है वह निर्दय यमके कार्य जैसा है। ऐसे निर्दयतापूर्वक इन्द्रादिके दूतकर्म करनेपर भी उनमें अननुरक्त तथा अपनेमें अनुरक्त दमयन्तीको देखकर नलका कामोद्दीपन होना उचित ही हैं ] // 72 // स भिन्नमर्मापि तदातिकाकुभिः स्वदूतधर्मान्न विश्न्तुमैहत / शनैरशंसन्निभृतं विनिश्वसन विचित्रवाक्सिशिवाण्डनन्दनः ||3|| स इति / विचित्रवाच चित्रांशखण्डिनन्दनो बृहस्पितिः। 'जीव आशिरसो वाच स्पतिश्चित्रशिखण्डिजः' इत्यमरः / स नलस्तस्याः भैग्या आा, निमित्तेन काकुभि करुणोक्तिभिभिन्नमर्मापि विदी हृदयोऽपि स्वतधर्मादनापटभूताद्विरन्तुं नहत नैच्छत् / किन्तु स्वेच्छाभङ्गानिभृतं विनिश्वसन शनरत्वरया अशंसवात् // 73 // उस दमयन्तीके पीडायुक्त वचनोंसे भिन्नमर्मवाले भी वे ( नल ) अपने दूत-धर्म विरत नहीं हुए। धीरेसे ( दमयन्तीसे छिपाकर ) दीर्घश्वास लेते हुए, आश्चर्यजनक बातों (के कहने ) में बृहस्पति वे नल बोले-(अथवा-विरत नहीं हुए और दीर्घश्वास... ... ... वे नल ( कामपीड़ित होने के कारण ) धीरेसे बोले-)। [दमयन्तीके वचनोंसे कामपीड़ित होनेपर भी नल का दूत-कर्मसे विरक्त न होना उनका धीरोदात्त नायक होना सूचित करता है। दिवोधवस्त्वां यदि कल्पशाखिनं कदापि याचेत निनाङ्गनालया। कथं भवरस्य न जीवितेश्वरी न मोघयामः स हि भोरु / भूकहः / / 74 // दिव इति / वक्ष्यमाणविभिषिकानुगुए.मामन्त्रयते-हे भीरु ! भयशीले ! "श्रियः क्रुक्लुको" इति क्रुकप्रत्ययः / “ऊत" इत्यूछ / अम्बार्थनोहत्वः” / दियोधयः स्वर्पतिरिन्द्र. कदापि निजागनालयं कल्पशाखीनं त्वयात यदि दुह्यादिपाटाद द्विकर्मकत्वम् / तदा कथमस्येन्द्रस्य जीवितेश्वरी न भवः भवेत्यर्थः / कुतः हि यस्मात्स भूरहः कल्पवृक्षः न मोघयाच्न सफलप्रार्थनः // 74 / / (सामादि चार उपाशेंके प्रयोगसे निपुण नल अष्टम सर्गमें इन्द्रादि दिवालोंका 1. "निजाङ्गणालयम्" इति पाठान्तरम् / 2. "जीवितेश्वरा" इति "प्रकाश" सम्मतं पाठान्तरम् / Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्तीमें अनुराग वर्णन करनेसे साम, इस सर्गमें "अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते" इत्यादि श्लोकों ( 9 / 39-45) से उन देवोंका अनुग्रह कहनेसे दान, "यदि त्वमुद्वन्धुमना विना नलम्" इत्यादि श्लोकों ( 9 / 46-49 ) से भेदका प्रदर्शन करने के बादभी यहाँसे भेद तथा दण्डका प्रयोग करते हुए दमयन्तीको इन्द्रादिके पक्षमें लानेकी चेष्टा करते हैं-) हे भीरु ! यदि स्वर्गाधीश (इन्द्र) अपने आँगन में स्थित अर्थात् अत्यन्त निकटस्थ कल्पवृक्षसे तुमको कभी याचना करेंगे तो तुम इस ( इन्द्र ) की प्राणेश्वरी (पत्नी) कैसे नहीं होवोगी अर्थात् तुम्हें अवश्य ही इन्द्रकी पत्नी होना पड़ेगा; क्योंकि वह कल्पवृक्ष याचनाको विफल करनेवाला नहीं है। [इन्द्र स्वर्गके पति हैं और उनके आँगनमें ही कल्पवृक्ष है, अतएव तुम्हारे अस्वीकार करनेपर भी यदि इन्द्र चाहेंगे तो कल्पवृक्षसे तुम्हें माँगेंगे और दूसरे की किसी भी याचनाको विफल नहीं करनेवाला वह कल्पवृक्ष अपने स्वामी इन्द्रकी याचनाको कदापि विफल नहीं करेगा और तुम्हें इन्द्र के लिए दे देगा तो तुम्हें इन्द्रकी पत्नी बनना ही पड़ेगा, अतः अच्छा मार्ग यही है कि तुम स्वयं इन्द्रको स्वीकार कर लो ] // 74 / / शिखी विधाय त्वदवाप्तिकामनां स्वयं हुतस्वांशहविः स्वमूर्तिषु / क्रतुं विधत्ते यदि सार्वकामिकं कथं स मिथ्यास्तु विधिस्तु वैदिकः / / शिखीति / शिखि अग्निः त्वदवाप्तिकामनां विधाय स्वमूर्तिषु स्वविग्रहेषु आहवनीयादिषु स्वयमेव हुतं स्वांशं स्वदेवताकं हवियेन सः सार्वकामिकं सर्वकामप्रयोजनकं, "प्रयोजनमि"ति ठक् / क्रतुं विधत्ते यदि तदा स वैदिको वेदावगतो विधिरनुष्ठानं कथं तु मिथ्यास्तु निष्फलः स्यात् / अत्र स्वशब्दत्रयेण क्रमादग्नेरेव कर्तृदेवताहवनीयादिरूपताप्रतिपादनात् कर्मणि प्रमादानवकाशः सूचितः। तस्माद्वेदप्रामाण्यादनलसादसीति सिद्धमिति भावः // 75 // ___ तुम्हें पाने की इच्छाकर अपनी मूर्तियों ( दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्निरूप अग्नित्रय ) में अपने अंशभूत हविष्यको स्वयं हवन करनेवाला अग्नि यदि सार्वकामिक ( सर्वकार्यसाधक ) यज्ञ करेंगे तो वह वैदिक विधि (यज्ञानुष्ठान क्रिया) मिथ्या कैसे होगी ? / [ यहाँपर अग्निको ही यजमान, देवता और आवहनीयका तीन 'स्व' शब्दों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। जो अग्निदेव दूसरों के द्वारा किये गये यज्ञका फल उन्हें देकर वैदिक विधिको सत्य करते हैं, तो वे तुम्हें पाने के लिए स्वयं यज्ञ करके अवश्य पा लेंगे, अतः अग्निको पहले स्वेच्छाओंसे तुम स्वीकार कर लो] // 75 // सदा तदाशामधितिष्ठतः करं वरं प्रदातुं वलिताबलादपि / मुनेरगस्त्याद् वृणुने स धर्मराड् यदि त्वदानि भण का तदा गतिः / / सदेति / स धर्मराज्यमः सदा सर्वदा तस्य धर्मराजस्याशां दिशम, दक्षिगाम्धितिष्ठतोऽधिवसतः / अत एव बलादपि वरमेव करं वलिं प्रदानुं वलितात् प्रवृत्ता. दगस्स्यान्मुनेस्त्वदाप्तिं त्वत्प्राप्तिं वृणुते यदि, तदा का गतिः ?.भण / वाक्यार्थः कर्म // Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 511 यम सर्वदा उन ( धर्मराज ) की दिशामें रहनेवाला तथा कर (राज-भाग ) देनेके लिये आये हुए अगस्त्य मुनिसे बलपूर्वक भी तुमको वर मांग लेंगे ( अथवा-बलपूर्वक स्वयं धर्मराजके पास कर देनेके लिए आये हुए अगस्त्य मुनिसे तुमको वर मांग लेंगे) तो क्या गति होगी ? कहो। [ अगस्त्य मुनि सर्वदा धर्मराजकी दिशा दक्षिगमें रहनेसे उनके प्रजारूप हैं, अतएव वे कर देने के लिए धर्मराजके पास आयेंगे तो धर्मराज तुम्हें पानेका ही वरदान कररूपमें अगस्त्य मुनिसे बलपूर्वक ( राजाका बलपूर्वक प्रजासे कर लेना अनुचित नहीं है ) भी मांगेंगे तो तुम्हें यमराजके लिये अगस्त्यजी अवश्य ही दे देंगे, इस प्रकार तुम धर्मराजके हाथसे किसी तरह नहीं बच सकती, अतः तुम धर्मराजको स्वयं स्वीकार कर लो। 'धर्मराज' शब्द के प्रयोगसे उनका वह कार्य धर्म विपरीत नहीं हो वह भी ध्वनित होता है ] 76 // क्रतोः कृते जाप्रति वेत्ति कः कति प्रभोरपां वेश्मनि कामधेनवः / / त्वदर्थमेकामपि याचते स चेत् प्रचेतसः पाणिगतैव वर्तसे // 77 ||77 // ___ क्रतोरिति / किञ्च क्रतोः कृते क्रत्वर्थमपां प्रभोः वरुणस्य वेश्मनि कति कामधे. नवो जाग्रति वर्तन्ते को वेत्ति ? असङ्ख्याकाः सन्तीत्यर्थः। स वरुणस्त्वदर्थ त्वसि. घ्यर्थ तत्रकामपि गां याचते चेत् , दमयन्ती देहीति प्रार्थयते चेत् तर्हि प्रचेतसो वरुणस्य पाणिगतैव वर्तसे / तदा कस्त्वां मोचयिष्यतीति भावः // 77 // ___ यज्ञ के लिये वरुण के घर में कितनी कामधेनु हैं यह कौन जनता है ? अर्थात् वहुत-सी है, ( अतः ) वह वरुण तुम्हारी याचना यदि एक ( कामधेनु ) से भी करेंगे तो तुम प्रचेता ( वरुण, पक्षी०-उत्कृष्ट चित्तवाले ) के हाथ में ही हो। [जिस किसी अपरचित व्यक्तिकी भी याचना को एक भी कामधेनु पूरी कर देती है, तो जिस वरुणके घर में ही सर्वदा अनेक कामधेनु हैं, उनमें से एक कोई भी स्वामी वरुणके याचना करनेवर तुम्हें उनके लिए दे देगी, अतएव तुम स्वयं ही वरुणको पहलेसे हो प्रसन्नतापूर्वक वरण कर लो। न सन्निधात्री यदि विघ्नसिद्धये पतिव्रता पत्युरनिच्छया शची / स एव राजव्रजवैशसात् कुतः परस्परस्पर्धिवरः स्वयंवरः / / 78 // नेति। किञ्च पतिव्रता शची पत्युरिन्द्रस्यानिच्छया असम्मत्या कारणेन विघ्नसिद्धये स्वयंवरविघातार्थं सन्निहिता न यदि न स्यात् चेत् / विशसति हिनस्तीति विशसो हिंसकः, पचाद्यच। तस्य कर्म वैशसं, युवादित्वादंग प्रत्ययः / राजवजस्य राजन्यकस्य वैशसान्मिथो विरोधाद्धेतोः परस्परस्पर्धिनोऽन्योन्यसङ्घर्पिण वरा वोढा. रो यस्मिन् स तथोक्तः स्वयंवर एव कुनः कुतस्तरां नलवरणमिति भावः / स्वयंवरे शचीसन्निधानादविघ्नसिद्धिरिति शास्त्रम् / तथा च रघुवंशे-'सान्निध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः' इति // 78 // Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 नेपषमहाकाम्यम् / ("दिवोपवस्वा यदि कल्पशाखिन" भादि चार डोकों 9-74-77 से प्रत्येक देवक विषयमें भेदका प्रतिपादनकर उपाय-प्रयोग-निपुण नल भव दणका प्रतिपादन करते है-) पतिव्रता इन्द्राणी पतिकी अनिच्छा (इन्द्रकी इच्छाको तुम्हें नहीं पूरी करने ) से विनको साधने (दूर करने ) के लिए यदि ( स्वयंवरस्थल में ) नहीं रहेगी तो राज-समूहकी क्रूरता (तुम्हें प्राप्त करने के लिए द्वेष ) से परस्पर वरणार्थियोंवाला वह स्वयंवर ही कहाँ से अर्थात् कैसे होगा ? अर्थात् कदापि नहीं होगा। [ स्वयंवर में इन्द्राणी उपस्थित रहकर विघ्ननिवारण करती है, यह शास्त्र-वचनसे प्रमाणित है। इन्द्राणी पतिव्रता है, अतः सपत्नीरूपमें तुम्हें पानेकी इच्छा करनेवाले इन्द्रको बुरा नहीं मानेगी और तुम्हारे द्वारा इन्द्रकी इच्छा पूरी नहीं होगी तब इन्द्र यह चाहेंगे कि इन्द्राणी स्वयंवरमें जाकर विघ्ननिवारण न करें और पतिव्रता इन्द्राणी भी पतिदेवकी स्वयंवर में इन्द्राणीके सम्मिलित होनेकी इच्छा नहीं होने से नहीं आवेगी तो परस्परमें तुम्हें वरण करने के इच्छुक राजाओंमें सङ्घर्ष होनेसे तुम्हारा स्वयंवर ही निविप्न पूरा नहीं हो सकेगा अतएव तुम्हें इन्द्रका वरणकर लेना चाहिये ] // 78 // निजस्य वृत्तान्तमजानतां मिथी मुखस्य रोषात् परुषाणि जल्पतः / मृध किमच्छकदण्डताण्डवं भुजाभुजि क्षोणिभुजां दिदृक्षसे / / 76 / / निजस्येति / मिथो रोषात् परुपाणि जल्पतो निजस्य मुखस्य वदनस्य वृत्तान्तमजानतां रोषाध्यात् स्वोक्तमप्यविजानतां क्षोणिभुजां सम्बन्धि अच्छत्रका आयुधभङ्गेनापनीतच्छना ये दण्डास्तेषां ताण्डवं तदेव मृधं युद्धं दण्डादण्डीत्यर्थः / तथा तेषामपि भङ्गे भुजाभ्यां भुजाभ्यां प्रवृत्तं युद्धं भुजाभुजि युद्धं च गम्यमानार्थत्वात ध-शब्दप्रयोगः "तत्र तेनेदमिति सरूपे" इति बहुव्रीहाविच कर्मव्यतिहारे इतीच्प्रत्ययः / तिष्टाइगुपाठादव्ययीभावसंज्ञा / दिदृक्षले द्रष्टुमिच्छसि "जश्रुस्मृदृशां सनः" इत्यात्मनेपदम् // 79 // __ आपस में कटु वचन बोलते हुए अपने मुखके वृत्तान्तको ( भी ) क्रोधके कारण नहीं जानते ('किसके प्रति क्या कहना चाहिये' इस वातको नहीं समझते ) हुए ( अथवाक्रोधले आपसमें कटु बोलते हुए अपने मुखके व्यापारको नहीं समझते हुए ) राजाओं की (शस्त्रके छिन्न-भिन्न हो जानेके वाद, छत्ररहित छत्रोंके दण्डों के ताण्डव अर्थात् छत्रों के दण्डों की लड़ाई तथा उसके भी टूट जानेपर बाहुकी ) लड़ाई अर्थात् मल्लयुद्धको देखना चाहती हो क्या ? ( अथवा..."राजाओंका शस्त्राने छत्ररहित दण्डोंके ताण्डवपाला वाहुबुद्ध देखना चाहती हो क्या ?) [ इन्द्रागीके स्वयंवर में विघ्ननिवारणार्थ नहीं आनेपर वहाँ राजारों में भयङ्कर युद्ध होगा] // 79 // अपार्थयन याज्ञिकफूत्कृतिश्रमं अलेषा चेपुषा तु नानलः / अलं नलः कतुमनाग्नसाक्षिको विधि विवाहे तव सारसाक्षि ? कम् / / 8 / / Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। अपार्थपतिति / हे सारसारि ! सरोरुहाति ! 'सारसं सरसीहहम्' इत्यमरा। तब विवाहे अमकोऽग्निः याशिकाय फरकृति पाजकफूरकृतिश्रमं समिन्धनप्रया. समपार्थयन् व्यर्थयम् एषा रोषेणैव अपने पाषा स्वरूपेण तु न बचेत् तदा मलः अम्पमावादग्निसालिको न भवतीस्पनम्मिसाधिकरतं कं विधिमनुष्ठान कर्तु मशक्कन कधिदित्यर्थः // 8 // याजक (हवनकर्ता पुरोहित आदि ) के फूंकनेको व्यर्थ करता हुआ अग्नि यदि क्रोधसे जले तथा शरीर ( ज्वाला ) से नहीं जले तो नल तुम्हारे विवाह में अग्निसाक्षित्वके विना किस विधि (लाजा होम आदि कार्य ) को करने के लिये समर्थ होगा ? अर्थात् किसी विधिको करने में समर्थ नहीं होगा। [ क्रोधके कारण अग्निके हवनकर्ताओं द्वारा फूंकने पर भी नहीं जलनेसे नलके साथ तुम्हारा सविधि विवाह नहीं हो सकेगा, अतः तुम अग्निको वरण करलो]॥ पतिपरायाः कुलजं वरस्य वा यमः कमप्याचरितातिथि यदि | कथं न गन्ता विफलीविष्णुतां स्वयंवरः साध्वि! समृ द्धमानपि भृत्वृ" इत्यादिना खच "अद्विषदजन्तस्य मुम्"। तस्या वरस्य वोढुर्वा कुलजं कमपि / जनमतिथिमभ्यागतमाचरिता यदि मारयिष्यति चवित्यर्थः / “अनद्यतने लुट्" / हे साध्वि ! समृद्धिमान् सर्वसाधनसम्पनोऽपि स्वयं वियते अरिमन्निति स्वयंवरः स्वयंधरकर्म। "ग्रहवृहनिश्चिगमश्चेत्यप्रत्ययः / विफलीभविष्युतां "भुवश्च"इति इप्णुप्रत्ययः / कथं न गन्ता, गमिष्यत्येवेत्यर्थः / गमेछुट / वृथा नलेकासक्तिहतासीति भावः // 8 // यम पतिको वरण करनेवाली तुम्हारे या पति ( नल ) के कुलमें उत्पन्न ( किसी बान्धव ) को यदि अतिथि बना लेंगे अर्थात् तुम्हारे या नलके कुलमें उत्पन्न किसी व्यक्तिकी मृत्यु हो जायेगी तो हे पतिव्रते ! समृद्धियुक्त भी स्वयंवर कैसे होगा ? अर्थात् अशीचके कारण स्वयंवर रुक जायेगा, अतएव तुम नलको वरण करनेका दुराग्रहकर यमको रुष्टकर अपने या नल्को कु.ल में उत्पन्न किसी आत्मीय बान्धकी मृत्युका कारण बननेकी मूर्खतः न करो] // 81 // अपर्श पतिः स्वामित या परः सुरः स ता निषेधेद्यति नैषधक्र.धा। नलाय लोभायत पाणयेऽपि तत् पिता कथं त्वां वद संप्रदास्यते / / 2 / / अपामिति / हे साध्वि ! अपांपतिः स प्रसिद्धः परः सुरः स्वामितश अप्पतित्वाम्नैपधे नले ऋधा क्रोधेन ता अपो निषेधेत् प्रतिबनीयात् यदि ताहि लोमन आयतपाणये प्रसारितहस्तायापि लोल्याज्जलं विना जिभतेऽपीत्यर्थः / दलाय पिता भीमस्त्वां कथं सम्प्रदास्यते न कथञ्चिदित्यर्थः / वद / वाक्यार्थः कर्म // 82 // वे दूसरे देव अर्थात् वरुण स्वामी होनेसे नल-विषयक क्रोधके कारण जलको यदि मना कर देंगे तो तुम्हारे पिता लोभ ( तुम्हें पानेके लोभ से हाथ फैलाये हुए नलके लिये Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् कैसे देंगे ? कहो / [ कन्यादानका जल के साथ करनेका शास्त्रीय विधान होनेसे स्वामो वरुणके निषेध करनेपर तुम्हारे पिता तुम्हारा कन्यादान नहीं कर सकेंगे, इस प्रकार तुम नलको नहीं प्राप्त कर सकोगी, अतः वरुणको हो वरण कर लो ] // 82 // इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय / सुरेषु विध्नै कपरेषु को नरः करस्थमप्यर्थमवाप्तुमोश्वरः // 3 // सम्प्रति हितार्थसंग्रहकारिकामाह-इदमिति / हे दमयन्ति ! मया इदं महद्धितं ते तव तुभ्यं वाभिहितं, मोहं मौढयं विहाय चिन्तय विमृश। तथा हि-सुरेषु विघ्न एवेकः परंप्रधानं येषां तेषु विघातकेषु सत्सु की नरः करस्यमप्यर्थ वस्त्ववाप्तुमोश्वरः शक्तः, न कोऽपीत्यर्थान्तरन्यासः। तस्मादलं दुरन्तेन बलवदिरोधेनेति भावः // 83 // हे दमयन्ति ! मैंने यह (श्लो०७४-८२ ) तुम्हारे लिये बहुत बड़ा हितकारक वचन कहा है, तुम मोह ( नल के मोह ) को छोड़कर विचार करो / देवोंके एकमात्र विध्न के लिये तैयार होनेपर कौन आदमी ( पक्षा -"रलयोरभेदः" नोति के अनुसार कौन नल) हाथमें स्थित वस्तुको पाने के लिये समर्थ होता है ? अर्थात् कोई नहा / [ यदि किसी काममें मनुष्य भी विध्न करता है तो प्रायः वह काम भो पूरा नहीं होता, तो फिर देवों ( एक ही नही,) किन्तु अनेक ( या 4 चार ) देवों के केवल विन्न करने में ही लग जाने पर किसी मनुष्यकी शक्ति नहीं है कि हाथ में आयो हुई भो वस्तुको प्राप्त कर ले / अतएव तुम मेरो हितकारी वचन मानकर तथा नलका मोह छोड़कर इन्द्रादि दिक्पाल में से किसीको वरण करो] // 83 // इमा गिरस्तस्य विचिन्त्य चेतसा तथेति सम्प्रत्ययमासमाद सा। निवारितावपहनारनिझरे नमोनमस्यत्वमलम्भय दृशौ // 4 // इमा इति / सा दमयन्ती इमास्तस्य दूतस्य गिरश्वेतसा विचिन्त्य पर्यालोच्य तथेति सम्प्रत्ययं विश्वासमाससाद / अथ निवारितावग्रहो निष्प्रतिबन्धो नीरनिझरो ययोस्ते दृशौ लोचने नभोनभस्यत्वं श्रावणभाद्रपदत्वम् / 'नभाः श्रावणिकश्च सः, स्युर्नभस्यप्रौष्ठपदभाद्रभाद्रपदाः समाः' इत्यमरः / अलम्भयत् प्रापयदित्युपमातिशयोक्ती। तत्र लभेः प्रान्त्यर्थत्वेऽपि तदुपसर्जनगत्यर्थविवदायां “गतिबुद्धी"त्यादिना अणिकर्तुः कर्मत्वं, गत्युपसर्जनप्राप्त्यर्थत्वे तु कर्मत्वं नास्त्येव / यथा माधे “सितं सितिम्ने"त्यत्र / यदाह वामनः-"लभेत्यर्थत्वागिणच्यणौ कर्तुः कर्मत्वाकर्मत्वे" इति / लभेश्चेति नुमागमः // 8 // ___उस दमयन्तीने उस नलके इन वचनों ( 974-82 ) का मनसे अर्थात् मनोयोगपूर्वक ( अच्छी तरह ) विचार 'वैसा ही है। ऐसा विश्वास कर लिया ( अथवा-मनले वैसा ही है, यह मनसे निश्चय कर लिया) और बादमें वर्षा के प्रतिबन्धसे रहित ( अतएव ) जल-प्रवाहयुक्त नेत्रोंको श्रावण-भाद्रपद मास विना लिया। [सूखाके नहीं पड़ने पर जिस Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 515 प्रकार श्रावण-भाद्रपद मासमें वर्षा होनेसे जल प्रवाहरूपसे वहने लगता है, वैसे ही दमयः न्तीके नेत्रों से अनवरोध अश्रुधारा गिरने लगी। दमयन्ती नलकी बातपर विश्वासकर बहुत रोने लगी] // 84 // स्फुटोत्पलाभ्यामलि दम्पतीव तद्विलोचनाम्यां कुचक्रड़मलाशया : निपत्य बिन्दू हदि कज्जलाविलौ मणीव नीलो तरलौ 'विले सतुः॥ 5 // __ स्फुटेति / अथ कजलेनासनेनाविलौ मलिनौ बिन्दू अश्रुबिन्दू तद्विलोचनाभ्यामेव स्फुटोत्पलाभ्यामलिदम्पतीव भृङ्गमिथुनमिव कुचकुड़मलयोरःशया लौल्येन हृदि बसि निपत्य तरलौ चञ्चलो हारमध्यगौ नीलो मणी इव इन्द्रनीलरत्ने इव / "ईदादीनां प्रगृह्यत्वे मणीवादीनां प्रतिषेधो बतष्य" इत्युभयत्रापि प्रगृह्यत्वनिषेधात् सब दीर्घः / विलेसतुः विरेजतुः / “अत एकहरुमध्येऽनादेशादेलिटी" त्येत्वाभ्यासलोपो॥ विकसित कमलद्वयसे ( अधिक मुगिन्ध पानेकी आशासे उड़कर ) कृष्णवर्ण भ्रमरमिथुन जिस प्रकार कमलकलिका पर बैठने को जाता है उसी प्रकार उस दमन्तीके नेत्रद्वयसे स्तन-कुडमलकी प्राप्तिकी भाशासे, कज्जलसे काले आंसूके बूंद हृदयपर गिरकर चञ्चल एवं नीले रंगके रत्न अर्थात् नीलम मणिके समान शोभने लगे। [दमयन्तीके नेत्र विकसित कमल, स्तन कमलकलिका, कजल कृष्ण अश्रुविन्दुदय भ्रमरदम्पति एवं हृदय पर लटकते हुह नीलमके दो दानों के समान है। [ भ्रमरमिथुन विकसित कमलके रसका पानकर विकसित होनेवाले कमलपर चलाजाता है / अमरमिथुन समान कज्जल कृष्ण अश्रुविन्दुद्य दमयन्तीके हृदयस्थ स्तनपर गिरा]॥ 85 // धुता पतत्पुष्पशिलीमुखाशुगैः शुचेस्तदासीत् सरसी रसस्य सा / रयाय बद्धादरयाश्रधारया सनालनीलोत्पललीललोचना // 86 // धुतेति / पतद्भिः पुष्पशिलीमुखाशुगैः पुष्पवाणैर्विशिखैरन्यत्र पतन्तः पुष्पाणि शिलीमुखा अलयश्च येषां तैराशुगैर्वायुभिः / धुता कम्पिता। 'अलिवाणौ शिलीमुखौ, आशुगौ वायुविशिखौ' इति चामरः / रयाय बद्धादरया रययुक्तया अश्रुधारया निमित्तेन सनाल नीलोत्पलस्य लीलेव लीला ययोस्ते लोचने यस्याः सा भैमी तदा शुचेः रसस्य शृङ्गारस्य सम्बन्धिनि अन्यत्र शुचेीप्मस्य सम्बन्धिनि, कार्यादिति भावः / ग्रीष्मशृङ्गारयोः शुचिरित्यभिधानात् रसस्य जलस्य सरसी सर असीत् / अत्र भैम्याः शृङ्गारसरसीत्वेन ग्रीष्माम्बुसरसीत्वेन च रूपणाद्रपकालङ्कारः। तस्य श्लेषो. पमाभ्यामनाभ्यां सहरः स्पष्टः॥८६॥ गिरते हुए पुष्पबाण ( कामदेव ) के बाणोंसे ( अथवा-पुष्पोंपर गिरते अर्थात् आते हुए भ्रमरों तथा वायुओंसे या भ्रमरयुक्त वायुओंसे, अथवा-हंसादि पक्षियों भ्रमरों तथा 1. "विरेजतुः" इति 'प्रकाश' कौरसम्मतं पाठान्तरम् / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाम्बम् / वायुओंसे, अथवा-धुतापतत्.......'पदमें 'आपतत्' पदच्छेद करके 'गिरते हुए के स्थानमें 'आते हुर' अर्थ समझना चाहिये ) पोडित ( पक्षा-कम्पित ) तथा बेग के लिये आययुक्त अर्थात् अतेवेगात अश्रुधाराले नालसहित कमडके समान नेपाली वह (दमयन्ती ) उस समय 'विप्रलम्भ' नामक शृङ्गार रस (पक्षा०-प्रोमके जल या निर्मल जल, या शोकरस ) का तडाग बन गयो थी / नेत्रले धाराप्रवाह अश्रु गिरनेते नेत्र कमलके समान, अश्रुधारा कमलनाल के समान वर्णित है, प्रोग्म ऋतु में पानोके कम रहने से कमलनाल दिखलायी पड़ता तथा जल निर्मल हो जाता है और वह सनाल कमल काम्पत होने लगता है। [ दमयन्ती उस समय कामगीड़ित होकर धारा-प्रवाह आंसू गिराती हुई रोने लगी ] // 86 // अयोध्रमन्ती रुरतो गक्षमा सप्तम्भमा लुपरतिः स्वजन्मतिः।। व्यधात्प्रियावातिविघातनिश्चयान्मृदनि दूना परिदेवितानि सा / / अथेति / अथ स्मरविकारोदयानन्तरं प्रियावाप्तिविघातस्य प्रियप्राप्तिप्रतिबन्धस्य निश्चयात् दूना परितप्ता "स्वादय ओदित" इत्योदिवातिदेशात् "ओदितश्च" इति दूडो निष्ठानत्वम् / अत एव सा दमयन्ती उभ्रमन्ती उन्मायन्ती रुदति आश्रगि मुन्नती गतवमा नष्टधैर्या ससम्भ्रमा सत्वरा लुसा रतिर्विषयान्तरस्पृहा यस्याः सा स्खलन्ती मतिस्तस्वावधारगशक्तिर्यस्याः सा सती मुनि परहृदयद्रावगानि परिरे वितानि विलापवचनानि व्यधात् / अय प्रियावाप्तिविघातप्रयुक्तचिन्ताविषादभावा उद्घामदय इत्युनुसन्धेयम् // 87 // इसके बाद प्रिय ( नल ) को प्राप्त नहीं होने के निश्चयबालो वह दमयन्ती, उन्मादित होतो हुई, रोतो हुई, दुःख सहने में असमर्था या धर्यहोन, ( जोवनको भारभूत मानने से ) बड़ाई हुई, (किसी अन्य विषय ) स्नेह न करतो हुई, किंकर्तव्यमूह तथा परितप्त होती हुई सुननेवालोंको दया करनेवाला विलाप करने लगा // 87 // स्वरस्व पञ्चेबुहुताशनात्मनस्तनुष्य मदस्मवयं यशश्वर / विधे ! परेहाफलभक्षणतो पताच तृष्यन्नसुभिर्ममाफलैः / / 5 / / अथ त्रयोदशभिः श्लोकैः परिदेवितान्येवाह-स्वरस्वेत्यादि / हे पश्चेषुहुताशन ! कामाग्ने ! स्वरस्व स्वरितो भव / मदस्मनाबयं राशिमेवात्मनस्ते यशश्वयं यशोराशि सनुन्ध विस्तारय स्त्रीवधख्याति सम्पादयेत्यर्थः। हे विधे! विधातः ! परेषामीहाफ. लस्य क्रियाफलस्य भक्षणे व्रती नियमो सन् न तु तपस्यन्तरवदन्यफलमतगवतीस्यर्थः / अयाफलै लानवाप्स्या निष्फलैर्ममासुभिः प्राणैः तृप्यन् तृप्तः सन् पत पतितो भव / स्त्रीवधपातकी भवेत्यर्थः // 8 // (अतिसन्तापकारक होनेसे ) हे कामरूप अग्नि ! शीघ्रता करो, मेरे भस्ममय ( मेरे चेतामें जल जानेसे भस्मबहुल ) कीर्तिसमूहको फैलावो, हे विधे! दूसरेको चेष्टाके फलको Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। नष्ट करनेवाला अर्थात् दूसरोंके अभीष्टफलमें प्रतिबन्धक तुम मेरे निष्फल (निरर्थक) प्राणोंसे तृप्त होते हुए पतित हो जावो [दूसरोंकी चेष्टाके फलको नष्ट करनेका व्रत रखनेवाले तुम तद्विरुद्ध मेरे प्राणोंसे तृप्त होते हो-मुझ निरपराधिनी लीका वध करते हो-स व्रत. भङ्गरूपी पापके कारण पतित हो जावो अर्थात् नरक चले जावो या स्वर्ग हो जाबो: व्रतके भङ्ग होनेसे पतित होना उचित ही है / अथवा-दूसरोंके अभीष्ट फलको नष्ट करने में मर्वदा लगे रहने एवं मुझ स्त्रीके प्राणोंसे तृप्त होनेके कारण तुम पतित हो जावो ] // 88 // भृशं वियोगानलतप्यमान ! किं विलीयसे न खमयोमयं यदि। स्मरेषुभिर्भेद्य ! न बामप्यसि बीषिन स्थान्त ! कथं न दीर्यसे ||6| भृशमिति / हे भृशं वियोगानलेन तप्यमान ! दयमान ! हे स्वान्त ! हृदय ! श्वमयोमयं यदि किं न विलीयसे अयोधनस्यापि तापात् विलयन दर्शनाइयोमयमपि नासीति भावः / हे स्मरेषुभिर्भय ! अत एव वमपि नासि वत्रस्य लोहले. पयस्वाभावादिति भावः / किन्तु कथं न दीर्यसे न विदलसि वनादन्यस्य लोहलेण्यस्वादिति भावः / न ब्रवीषीति काकुः। किमिति न ये स्वरस्वरूपमित्यर्थः // 89 // ____ हे विरहाग्निमें सन्तप्त होते हुए ( हृदय ) ? यदि तुम लोहमय हो तो क्यों नहीं दवित होते हो ? ( अग्निमें तपता हुआ लोहा द्रवित हो जाता हैं और तुम द्रवित नहीं होते हो अतः तुम लोहमय नहीं हो अर्थात् लोहसे भी कठिन हो)। [ हे कामाग्निसे भिन्न होने योग्य हृदय ! तुम वज्र भी नहीं हो ( क्योंकि वज्र पुष्पवाणोंसे कभी भेद्य नहीं होता ), क्यों नहीं विदीर्ण होते हो, नहीं बोलते हो अर्थात् तुम्हें बोलना चाहिये कि तुम्हारा स्वरूप क्या है ? ] // 89 // विलम्बसे जीवित ! किं द्रव वृत्त' बलत्यहस्ते हृदयं निकेतनम् / जहासि नाद्यापि मृषा सुखासिकामपूर्वमाजस्यमहो तवेशम्।।१०॥ विलम्बस इति / हे जीवित ! प्रागवायो ! किं विलम्बसे द्रुतं द्रव शीघ्र गछ। कुतः, यतस्ते तव अदो निकेतनमावासगृहं हृदयं ज्वलति प्रज्वलति / अचापीदानीमपि मृषा वृथा सुखासिकां सुखासनं धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल वक्तव्यः / न जहासि। दह्यमाने गेहे न वस्तव्यमित्यर्थः। तथा तव जीवनस्य ईदृशमालस्यमपूर्व नूतनमहो। हे जोवित ! क्यों विलम्ब करते हो ? शीघ्र भागी ( क्योंकि ) तुम्हारा घर (निवास स्थानभूत ) यह हृदय ( कामाग्निसे ) जल रहा है; अब भी सुखपूर्वक बैठनेको नहीं छोड़ते हो, तुम्हारा ऐसा यह आलस्य विचित्र है। [ महा आलसी भी व्यक्ति घरमें आग लगते ही सुखपूर्वक नहीं बैठा रहता, किन्तु शीघ्र घरसे भाग जाता है, किन्तु विरहाग्निसे अपने निवासस्थानरूप हृदयके जलते रहनेपर भी तुम नहीं निकलते ( मैं नहीं मर जाती) ऐसा आलस्य करनेसे बड़ा आश्चर्य होता है। कामाग्निपीड़ित प्राणोंको त्यागकर मेरा मर जाना ही अच्छा है ] // 90 // Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 नैषधमहाकाव्यम् / दृशौ ! मृषापातकिनो मनोरथः कथं पृथू वामपि विप्रलेभिरे। प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति पातकं स्वमभिः क्षालयतं शतं समाः // 11 // दृशाविति / हे दृशौ ! मृषापातकिनोऽनृतपातकिनो मनोरथ नलदिदृत्तारूपाः पृथु महत्यी विप्रलम्भानहें इत्यर्थः। वां युवामपि कथं विप्रलेभिरे वञ्चयामासुः। साहसिकाः किन्न कुर्युरित्यर्थः / मनोरथा वां विफला इत्यर्थः / किञ्च प्रियश्रियो नलसौन्दर्यस्य प्रेक्षणघाति दर्शनघातकं स्वं स्वकीयं पानकं जन्मान्तरकृतमिति भावः / अश्रभिः शतं समाः वत्सरान् / अत्यन्तसंयोगो द्वितीया / क्षालवतं गुरुपापं गुरुप्रायवित्तापनोद्यमित्यर्थः / अहो मे दर्शनाशापि निरस्तेति भावः // 91 // हे दोनों नेत्र ! असत्य ( सर्वदा संसारको ठगने ) से पातकी ( पतित ) मनोरथोंने विशाल ( बड़े, पक्षा०-श्रेष्ठ ) भी तुम दोनोंको कैसे ठग लिया ? ( अथवा-पातकी मनोरथोंने असत्यसे विशाल भी तुम दोनोंको कैसे ठग लिया ? अथवा-तुम दोनोंके पातकी मनोरथाने......।) 'हम तुम दोनोंको नलका दर्शन करा देंगे' ऐसा विश्वास देकर नलका दर्शन न करानेसे असत्यभाषी मनोरथोंने तुम दोनोंके साथ अन्याय किया। नेत्रों के बड़े तथा मनोरथोंके उनसे छोटे होनेसे बड़े नेत्रोंके छोटे मनोरथोंके द्वारा ठगा जाना अत्यन्त अनुचित है / प्रिय (नल) की शोभाके देखनेका विनाशक अपने पापको आंसुओं (पक्षा०जलों ) से सैकड़ों वर्ष धोवो / [ जिस प्रकार कहीं धब्बा लग जाता है तो उसे पानीसे कई बार धोया जाता है / उसी प्रकार नल शोभाका दर्शन नहीं करनेसे जो पाप हुआ है, सैकड़ों वर्षों तक रोनेसे उसका प्रायश्चित्त करो। नलके दर्शन तक या उसके अभावमें जीवनभर तुम्हें रोना पड़ेगा] // 91 // प्रियं न मृत्युम लभे त्वदीप्सितं तदेव न स्यान्मम यत्त्वमिच्छसि / वियोगमेवच्छ मनः ! प्रियेण मे तव प्रसादान्न भवत्यसा // 12 // प्रियमिति / हे मनः ! तव ईप्सितमाप्तुमिष्टं प्रियं नलभे तदलामे ईप्सितं मृत्यु मरणञ्च न लभे तस्मात् त्वं मम यदिच्छसि तन स्यादित्यन्वयव्यतिरेकदर्शनादिति भावः / अतो मे प्रियेण वियोगमेवेच्छ तव प्रसादादसौ वियोगो मे मम न भवति नलप्राप्त्यभावे मरणमेव मे शरगमित्यर्थः। अत्र संयोगार्थ वियोगप्रार्थनाद्विचित्रा. लङ्कारः / “विचित्रं स्वविरुद्धस्य फलस्याप्त्यर्थमुद्यमः" इति लक्षणात् / / 92 // हे मन ! ( मैं ) तुम्हारे प्रिय ( नल ) को नहीं पाती हूं और तुम्हारे अभिलषित मृत्युको भी नहीं पाती हूँ, तुम जो चाहते हो वही मेरा कार्य नहीं होता है अर्थात् तुम्हारी इच्छाके विपरीत ही मेरा सब कुछ होता है, (अत एव तुम) प्रिय (नल ) से विरह की इच्छा करो, कि तुम्हारी प्रसन्नतासे मेरा वह ( नलके साथ विरह ) भी न होवे [तुम जिस नल या मृत्युको चाहते हो उनमें से एक भी नहीं हो रहा है-सर्वथा उसके विपरीत ही हो रहा है. अतएव तुम यदि नलका विरह चाहोगी तो उसके भी विपरीत Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 519 होनेसे नलके साथ मैरा संयोग हो जायेगा और यह कार्य तुम्हारी कृपासे होगा, अतएव दम वैसा ही करो ] // 92 / / न काकुवाक्यैरतिवामम द्विषत्सु याचे पवनन्तु दक्षिणम् | दिशापि मद्भस्म किरत्व यं तया प्रियो यया वैविधिर्वधावधिः // 1 // नेति / द्विषत्सु चन्द्रादिवैरिमध्ये अतिवाममतिवक्रमङ्गजं कामं काकुवाक्यैः कर णोक्तिभिः / न याचे न प्रार्थये, किन्तु दक्षिणं दक्षिणदिग्भवं दाक्षिण्यवन्तं च पवन याचे, किमिति ? अयं पवनो यया दिशा प्रियो नलः सञ्चरते तया दिशा तहिभागेनापि मदस्म किरतु क्षिपतु ।प्रार्थनायां लोट् / ननु दक्षिणोऽपि शत्रुपक्ष्यः कथमुपकरिष्यति तत्राह-वैरविधिर्वैराचरणं वधावधिर्मरणान्तः 'मरणान्तानि वैराणी'ति न्यायादित्यर्थः। शत्रुओंमें ( चन्द्र, चन्दन, काम, मलयानिल आदि बहुत-से शत्रुओंमें ) अत्यन्त वाम अर्थात् प्रतिकूल ( अथवा-स्त्रीका या स्त्री वचनका उल्लङ्घन करनेवाला, अथवा-रति है सुन्दरी जिसकी ऐसा, अथवा-रति ( स्वस्त्री) का सुन्दर पति, अथवा-रति अर्थात् विरही लोगों के अनुरागमें प्रतिकूल ) अङ्गज अर्थात् कामदेव (पक्षा०-पुत्र) से दीन वाक्यों द्वारा मैं याचना नहीं करती हूँ, किन्तु दक्षिण ( अनुकूल, पक्षा०-दाक्षिण्य गुणसे युक्त, या दक्षिण दिशासे आनेवाले ) पवनसे याचना करती हूँ। ( प्रतिकूल आचरण करनेवाले पुत्रसे भी कोई याचना नहीं करता, किन्तु दक्षिण ( दाक्षिण्य गुण युक्त, या अनुकूल ) शत्रुसे भी दीन वचन कह कर याचना कर लेता है, मेरी याचना यह है कि यह दक्षिण पवन मेरे भस्म ( मेरे मरनेके बाद चितामें जलानेसे उत्पन्न भस्म ) को उस दिशामें फेंके अर्थात् उड़ावे, जिस दिशामें प्रिय ( नल ) हैं, ( क्योंकि ) वैरका अन्त मरणतक होता है / [ मरनेके बाद भी किसीसे कोई बैर नहीं रखता, अतः दक्षिण पवन (मलयानिल) के अपना शत्रु होने पर भी मैं उससे दीन वचन कहकर प्रार्थना करती हूँ कि दक्षिण दिशामें स्थित विदर्भ देशसे मेरे मृत शरीरके भस्मको उत्तर दिशा में स्थित निषध देशमें उड़ाते हुए पहुँचा कर नलके साथ सम्बद्ध देशमें मेरे भस्मको पहुंचानेसे मुझे कृतार्थ करे ] / / 93 / / अमूनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः कियत् सहिष्ये न हि मृत्यरस्ति मे | स मां न कान्तः स्फुटमन्तस्मिता न तं मनस्तच्च न कायवायवः / / 5 / / अमूनीति / गच्छन्ति विपरिवर्तमानान्यमूनि युगानि न क्षणः एकोऽप्ययं क्षणो युगसहस्रायत इत्यर्थः। कियत् सहिष्ये, मृत्युमरणश्च मे नास्ति हि स कान्तस्तु अन्तः अन्तरात्मनि मां नोज्झिता नोज्झिष्यति, स्फुटं तं कान्तं मनश्च नोसितम् तन्मनश्च कायवायवः प्राणा नोज्झितारः / हन्त का गतिरिति भावः // 94 // ___ ये युग बीत रहे हैं, क्षण ( एक क्षणका समय ) नहीं बीत रहा है ( अथवा-कष्टप्रद ये युग बीत रहे है, हर्षकारक एक क्षण भी नहीं बीत रहा है। क्षणमें एकवचन, युगमें बहु. वचन तथा 'गम्' धातुमें वर्तमानका प्रयोग होनेसे एक क्षणका समय भी अनेकों युगोंके Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 नैषधमहाकाव्यम् / समान होकर बीत रहा है, अभी बीत नहीं गया है न मालूम कबतक बीतेगा ? यह ध्वनित होता है, कब तक मैं ( दुःख ) सहूंगी, मेरी मृत्यु भी नहीं हैं। ) क्योंकि निश्चय ही कान्त (प्रिय, या मनोरम नल ) अन्तरात्मामें मुझे नहीं छोड़ेगा, और उसे (नलको) मेरा प्रकार ) परम्पराके सर्वदा बने रहनेसे मेरी मृत्यु भी दुर्लभ हैं // 94 // मदुप्रतापव्ययसक्तशीकरः सुग.! स वः केन पपे कृपार्णवः / उदेति कोटिन मुदे मदुत्तमा किमाशु सङ्कल्पकणश्रमेण वः॥१५॥ मदिति / हे सुराः! मदुप्रतापव्यये मदतितीव्रसन्तापशान्ती सक्ता ज्याप्ताः शीकरा यस्य स प्रसिद्धो वो युष्माकं कृपार्णवः केन पपे पीतः। अगस्त्येन प्रसिद्धार्णव इवेति भावः / स्वल्लोभेनैव पीत इत्यत्राह-सङ्कल्पकणश्रमेण अभिध्यानलेशप्रयासेन मत्तोऽप्युत्तमा कोटिः च्यन्तरमित्यर्थः। वो युष्माकं मुदे आशु नोदेति किमु शच्या. दिवदिति भावः / तस्मादनुकम्पनीये जने विपरीताचरणमनुचितमिति तात्पर्यार्थः // हे देवो ! मेरे तीव्र ( नल-विरहजन्य ) सन्तापके नाश करनेमें समर्थ बिन्दुवाला आप लोगोंका कृपासमुद्र किसने पी लिया हैं 'एक जल-समुद्रको तो अगस्त्य मुनिने पी लिया था' यह पुराणादिमें उल्लिखित वचनोंसे ज्ञात है, किन्तु आप लोगों के जिस कृपा समुद्रका एक बूंद भी हमारे सन्तापको दूर करने में समर्थ हैं, उसे किसने पी लिया अर्थात् आप लोग मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ? आप लोगों के लेशमात्र सङ्कल्प ( इच्छा ) के परिश्रमसे शीघ्र ही मुझसे उत्तम करोड़ों स्त्रियां आप लोगों के हर्षके लिए नहीं उत्पन्न हो जायेंगी क्या ? [ अर्थात् यदि आप लोगोंके थोड़ी-सी इच्छा मात्र करनेसे मुझसे भी उत्तम करोडों स्त्रियां उत्पन्न होकर आप लोगों को हर्षित कर सकती हैं तो एक तुच्छ मुझे चाहकर आपलोग क्यों पीड़ित कर रहे हैं, अतः कृपाकर मुझे चाहना छोड़ दीजिये ] // 95 // ममव वादिवमदिनः प्रमह्य वर्षा ऋतौ प्रसञ्जिते / कथ न शृण्वन्तु सुषुप्य देवता भवत्वरण्येरुदितं न मे गिरः // 96 // अथ मदीयमार्तघोषं देवा नाकर्णयन्तीत्यत्राह-ममैवेति / वा अथवा अह्नि च दिवा च अहर्दिवमहरहरित्यर्थः / ममैवाश्रदुर्दिनैरवर्षरित्यर्थः। प्रसह्य वलाद्वर्षासु ऋतौ वर्पतो 'स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा' इत्यमरः / “ऋत्यक" इति प्रकृति भावः / प्रसञ्जिते प्रवर्तिते सति देवताः सुष्टु सुप्त्वा सुषुप्य / “वचिस्वपी" त्यादिना सम्प्रसारणम्। “सुविनिर्दुर्व्यः सुपिसूतिसमा" इति षत्वम् / मे गिरः कथं नु शृण्वन्तु सुपुप्तस्य तदयोगादत एव मे गिरः कथमरण्येरुदितम् / "क्षेपे" इति समासः / "तत्पुरुचे कृति बहुलम्" इति सप्तम्या अलुक / न भवतु। विवेयप्राधान्यादेकवच. नम् / सम्भावनायां लोट / निष्फलं वचनमरण्यरुदितप्रायमित्यर्थः। वर्षासु भगवतो हरेः स्वापादन्यत्रापि देवतात्वसामान्यादारोग्यम्पपदेशः / अत्र तत्कालस्य वर्षास्वेन Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 521 देवतानां स्वापेन चासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिद्वयम्, तथा तद्विरामरण्यरुदितासम्मवेन सारश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः तेन सङ्कीर्णः // 96 // ___ अथवा रात-दिन मेरे ही अनुरूपी दुर्दिनों (मेघाच्छन्न दिनों) से वर्षा ऋतुके होनेसे सोकर देवलोग मेरी प्रार्थनाको कैसे मुनें ?, ( अतएव ) मेरे वचनका अरण्यरोदन ( जंगलमें रोना) कैसे नहीं हो ? अर्थात् अरण्यरोदन होवे ही / / वर्षा ऋतुमें देवताओंका सोना पुराणादि वचनोंसे प्रतीत है, उस वर्षा ऋतुको रात-दिन रोनेसे आंसुओंके द्वारा दुर्दिन बनाकर मैंने ही उत्पन्न किया है, अतएव मेरे द्वारा ही उत्पादित वर्षा ऋतुमें वे देवता सो रहे हैं और सोया हुआ कोई भी व्यक्ति किसी की बात नहीं सुनता, यही कारण है कि सोये हुए वे देवता लोग मेरी प्रार्थनाको नहीं सुन रहे हैं और वह अरण्य-रोदन (सून-सान स्थानमें विलाप ) हो रहा है, अतएव इसमें मेरा ही अपराध है, देवता लोगोंको कृपाकी कमी मेरे ऊपर नहीं है ] 96 // इयं न ते नैषध ! एक्पथातिथिस्त्वदेकतानस्य जनस्य यातना / हदे हदे हा न कियद्गवेषितः स वेधसागोपि खगोऽपि वक्ति यः // 10 // इयमिति / हे नैषध ! इयं त्वदेकतानस्य स्वस्परस्य 'एकतानोऽनन्यवृत्तिः' इत्य. मरः / जनस्य स्वस्यैवेत्यर्थः / यातना तीव्र वेदना ते तव दृक्पथातिथिन हग्गोचरो न, देशविप्रकर्षादिति भावः / किञ्च यः खगो हंसो वक्ति नलाय मयातनां निवेदयेत् स खगोऽपि वेधसा अगोपि कापि गुप्तः / कुतः, हृदे हृदे सर्वेषु जलाशयेष्वित्यर्थः / वीप्सायां द्विरुक्तिः / किया गवेषितो नान्विष्टः / हा बतेत्यर्थः // 97 // हे नल ! तुम्हारेमें परायण अर्थात् तुम्हारे अधीन जीवनवाले मनुष्य की अर्थात् मेरो यह यातना ( कठिनतम पीडा ) तुम्हारे दृष्टिगोचर नहीं है / अर्थात् तुम्हें दूर देश में रहनेसे तुम इस यातना को नहीं देख रहे हो ( अथवा-..... दृष्टिगोचर नहीं है ? अर्थात् मेरे अन्तःकरणमें होनेसे तुम स्वाश्रित मेरी तीव्र यातनाको अवश्य देख रहे हो, परन्तु यह अर्थ-कल्पना पथके उत्तरार्द्धसे होनेसे हेय है ) हाय ! खेद है कि जो पक्षी ( राजहंस ) भी ( मेरी इस यातनाको तुमसे जाकर ) कहता, उसे ब्रह्माने छिपा लिया है; ( क्योंकि ) प्रत्येक तडागों में मैंने उसे कितना नहीं खोजा ? [अर्थात् प्रत्येक तडागोंमें खोजनेपर भी वह हंस नहीं मिला, अतः मालूम पड़ता है कि उसे उसके स्वामी ब्रह्माने छिपा लिया है और स्वाभिमक्त वह हंस भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, अन्यथा यदि वह मिल जाता तो अवश्य मेरी इस यातनाको तुम्हें सुनाता और तुम आकर शीघ्र मुझे इस पीडासे नुक्त करते, परन्तु ब्रह्माको यह इष्ट नहीं हैं, उसी कारण उसने उस हंसका कहीं छिपा लिया है ] / / 97 / / ममापि कि ना दयसे दयाधन ! त्वदनिमग्नं यदि वेत्थ मे मनः / निमज्जयन् सन्तमसे पराशयं विधिस्तु वाच्यः क तवागसः कथा / / 18 / Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 नैषधमहाकाव्यम्। ममापीति / हे दयाधन ! कृपानिधे ! मम मनस्वदधिमग्नं स्वधारणशरणं वेत्या यदि वेत्सि चेत् "विदो लटो वा" इति सिपस्थलादेशः / ममापि किं नो दयसे ममापि किं नानुकम्पसे, "अधीगर्थदयेशां कर्मणि" इति षष्ठी / अथवा परस्याशयं हृदयं सन्तमसे महामोहान्धकारे / 'विष्वक्सन्तमसम्' इत्यमरः। “अवसमन्धेभ्यस्तमसः" इति समासान्तोऽप्रत्ययः। निमज्जयन् विधिस्तु वाच्य उपालभ्यः, तवा. गसोऽपराधस्य कथा छ / विधिना ज्यामोहितो मामिमां न वेस्थ, न तु निर्दयत्वा. दित्यर्थः॥ 98 // हे दयाधन ( परमदयालो नल ) ! यदि मनको तुम्हारे ( नलके ) चरणों में मग्न जानते हो तो मुझपर दया क्यों नहीं करते ? ( अथवा-मेरे समक्ष क्यों नहीं उदय लेते अर्थात् प्रकट होते ? / अथवा) दूसरेके अभिप्राय ( पक्षा०-अन्तःकरण ) को घने अन्धकार ( पक्षा०-अज्ञान ) में डुबानेवाला भाग्य ही निन्दाके योग्य है, तुम्हारे अपराधकी कौन बात है ? अर्थात् कोई नहीं। [ मेरे दुर्भाग्यके कारण ही तुम्हें स्वयं या इसके द्वारा मेरी यातना नहीं मालूम है, अतः इसमें तुम्हारे अपराधकी कोई बात नहीं है, तुम्हारे पास तक मेरी इस यातनाका समाचार पहुँचने में बाधक भाग्यका ही यह दोष है, अतः वही निन्दनीय है, तुम नहीं] // 98 // कथावशेष तव सा ते गतेत्युपैष्यति श्रोत्रपथं कथं न ते / दयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे तदापि तावद्यदि नाथ ! नाधुना // ur कथेति / हे नाथ ! तव कृते स्वदर्थ सा दमयन्ती कथैवावशेषोऽवसानं तं गतेति तव प्रोत्रपथं कथं नोपैष्यति उपैष्यत्येवेत्यर्थः / तदापि तच्छ्रवणकालेऽपि दयाणुना कृपालेशेन मां समनुग्रहीष्यसे तावदनुग्रहीष्यस्येवेत्यर्थः / “ग्रहोऽलिटी"तीटो दीर्घः / अधुना न यदि न चेत् मास्तु पश्चादनुशोचनमपि महाननुग्रह इति भावः // 99 // हे नाथ ! वह ( दमयन्ती) तुम्हारे अर्थात् नलके लिए मर गयी यह (समाचार) कानोंतक क्यों नहीं जाय अर्थात अवश्य जायगा ( 'मेरे लिये दमयन्ती मर गयी इस पातको लोगोंके द्वारा तुम अवश्य सुनोगे / अतः) यदि इस समय मुझे अनुगृहीत नहीं करते हो तो उस समय ( मरनेके बाद ) भी लेशमात्र दयासे अच्छी तरह अनुगृहीत करोंगे, ऐसी मैं सम्भावना करती हूँ / [ मेरे मरनेपर भी कुछ शोक करना भी मेरे लिये तुम्हारा बड़ा अनुग्रह होगा। दूसरा भी कोई स्वामी अशान या दूरस्थ होनेके कारण स्वामिभक्तके ऊपर यदि अनुग्रह नहीं करता, किन्तु उसी स्वामीके निमित्त मरे हुए उस स्वामिभक्त व्यक्तिके लिये अवश्य पश्चात्ताप आदि करके उसे अनुगृहीत करता है ] // 19 // ममादरीदं विदरीतुमान्तरं तदथिकल्पद्रुम ! किञ्चिदथेये / भिदा हदि द्वारमवाप्य मैव मे हतासुभिः प्राणसमः समङ्गमः / / 100 / / ममेति / हे नाथ ! ममेदमान्तरं हृदयं विदरीतुं, “वृतो वा' इति दीर्घः / आवरि Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 नवमः सर्गः। आदरवत् , तत्तस्माद्विदारणाद्धेतोः हे अर्थिकल्पद्रुम ! किशिदर्थये याचे / किमिति ? प्राणसमः प्राणतुल्यः स्वं हृदि भिदा भेदमेव / "षिनिदादिभ्योऽ"।द्वारमवाप्य मागं लब्ध्वा मे मम हतैस्स्वदप्राप्स्या विफलैरसुभिः सममेव मा गमः मा निर्गच्छ गमेलक। "पुषादी" स्यादिना ब्लेरकादेशः। “न माख्योग" इस्यडागमाभावः। प्राणोत्क्रमणकाले स्वया जन्मान्तरेऽपि त्वत्प्राप्तिकामाया मे हृदयानापयातव्यम् / "यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् / तं तमेवेति कौन्तेय! सदा तद्भावभावितः" इति भगवचनादिति भावः // 10 // मेरा यह अन्तःकरण विदीर्ण होने के लिये तैयार है अर्थात् शीघ्र विदीर्ण होना चाहता हैं, इस कारण हे याचकों के कल्पवृक्ष ( नल ) ! मैं कुछ अर्थात् बहुत छोटी याचना करती हूँ ( याचकोंके कल्पवृक्ष होनेसे तुम मेरी याचनाको भी निष्फल नहीं करोगे यह मुझे विश्वास है / वह याचना यह है कि- ) हृदयमें भेदनरूप द्वारको प्राप्तकर ( तुम्हें नहीं सम्भव है कि तुम्हारे विना हृदयके विदीर्ण होनेपर हतभाग्य मेरे प्राण विदारणरूप द्वारसे निकल जायेंगे, किन्तु तुम भी उसी द्वारसे मत निकल जाना अर्थात् जन्मान्तरमें भी तुम में ही मैं हृदयसे अनुरक्त होकर पुनः प्राप्त करूं, यही मेरी याचना है ] // 10 // इति प्रियाकाकुभिरुन्मिषन भृशं दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतः / नृपं स योगेऽपि वियोगमन्मथः क्षणं तमुभ्रान्तमजीजनत पुनः / 1101 / / इतीति / दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतो निरुद्धः स वियोगमन्मथो विप्रलम्भशृङ्गारः / इतीत्थं प्रियायाः काकुभिः करुणोक्तिभिः उन्मिषन्नुबुद्धः सन् तं नृपं योगे सन्निधाने सत्यपि क्षणं पुनभ्रान्तमुद्घान्तचित्तमुन्मत्तचित्तमिति यावत् / अजी. जनदकार्षीदित्यर्थः। उन्मत्तचित्तविभ्रमः सन्निधिविप्रयोगः सर्वथा विकरोतीति भावः // 101 // दिक्पालों के दूतकर्मसे हृदय में शान्त विरहमन्मथ अर्थात् विप्रलम्भशृङ्गारने साक्षात्काररूप संयोगमें भी इस प्रकार ( 9 / 88-100 ) प्रिया दमयन्तीके दीनवचनों से अत्यन्त बढ़ता हुआ क्षणमात्र उस राजा (नल) को फिर अतिशय उन्मादित (या विह्वल) कर दिया / / 101 / / महेन्द्रदूत्यादि समस्तमात्मनस्ततः स विस्मृत्य मनोरथस्थितैः / क्रियाः प्रियाया ललितः करम्बिता विकल्पन्नित्थमली मालपत् / / 102 / / ___ अथोन्मादानुभावः प्रलापः प्रवृत्त इत्याह-महेन्द्रेति / तत उन्मादोदयानन्तरं। स नल आत्मनो महेन्द्रदूत्यादि समस्तं सर्वकृत्यं विस्मृत्य मनोरथस्थितैः सङ्कल्प विकल्पितविलासैः करम्बिता मिश्रिताः प्रियायाः क्रियाः शृङ्गारचेष्टा विकल्पया लोचयन्नित्थं वक्ष्यमाणप्रकारेणालीकमबुद्धिपूर्वकमालपत् // 102 // इसके बाद वे नल अपने सम्पूर्ण इन्द्रादिदूतकर्मादिको भूलकर मनोरथसे कल्पि। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 नैषधमहाकाव्यम् / विलासोंसे मिश्रित प्रियाकी क्रियाओं ( विलाप चेष्टाओं, या शृङ्गार चेष्टाओं ) को विचारते हुए बिना समझे ( अज्ञानपूर्वक ) कहने लगे- [ उन्मादके कारण प्रणयकलए आदिकी सम्भावना करते हुए दमयन्तीसे कहने लगे / उन्मादयुक्त व्यक्तिका अपना कर्तव्य भूलनातथा प्रलाप करना अनुचित नहीं होनेसे नलका भी इन्द्रादिके दूतकर्मको भूलकर अशानपूर्वक दमयन्तीके सामने प्रलाप करना दोषजनक नहीं हुआ ] // 102 // अयि ! प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते विलिप्यते हा मुखमप्रविन्दुभिः / पुरस्त्वयालोकि नमनयन्न किं तिरश्चललोचनलीलया नलः // 103 // अथ प्रलापमेवाष्टादशभिराह-अयीत्यादि / अयि प्रिये ! भैमि ! कस्प कृते के प्रति विलप्यते / भावे लट् / मुखम् अश्रुबिन्दुभिर्विलिप्यते / प्रदूष्यते / कर्मणि ल हेति खेदे। पुरोऽग्रे नमन् प्रणमन् अयं नलस्वया तिरश्चलतः तिर्यक प्रसरतो लोच. नस्य लीलया विलालेन साचीकृतरष्टयेत्यर्थः / नालोकि न बटः किम् ? अपरोके परोक्षवटुपालम्भो न युक्त इत्यर्थः // 103 // हे प्रिये ! किसके लिये अर्थात् क्यों विलाप करती हो? हाय ! तुम्हारा मुख आँसुओंकी बूंदोंसे लिप्त (व्याप्त) हो रहा है, सामने नम्र होते हुए इस (नल) को अर्थात मुझे तुमने तिर्थक चञ्चल कटाक्षसे ( अथवा-तिर्यक् चञ्चल नेत्र-विलास कटाक्षादि से) युक्त तुमने नम्र होते हुए अर्थात् (प्रणयपित तुमको प्रसन्न करनेके लिये ) चरणों में प्रणाम करते हुए इस नलको अर्थात् मुझे नहीं देखा क्या ? [प्रणयकुपित होनेसे तुम्हारे नेत्र कुटिल हो रहे हैं आँसुओंसे भर गये हैं, यही कारण है कि तुमको प्रसन्न करनेके लिये सामने अपने चरणों पर झुके हुए भी मुझको तुमने नहीं देखा है, अतएव अब रोना बन्द करो और प्रसन्न होवो ] // 103 / / चकास्ति बिन्दुच्युतकातिचातुरी घनाश्रुपिन्दुतिकैतषात्तव / मंसारसाराक्षि ! ससारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः / / 10 / / घकास्तीति / मसारसाराधिन्दनीलमणिश्रेष्ठी साविधाषिणी यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः। हे मसारसाराति ! धनाश्रुबिन्दुनुतेः सान्द्राश्रुविन्दुच्युतेः। कैतवात्तव 'बिन्दोरनुस्वारस्य च्युतमेव ज्युसकं बिन्दुच्युतकं विचित्रवाक्यभेदः तत्राति चातुरी घकास्ति भाति, ततस्तचातुर्यादेव संसारं भवं संसारशब्दश्चात्मना स्वसामयेन च ससारं सारवन्तं च्युतानुस्वारश्च तनोपि / असंशयं संशयो नास्तीत्यर्थः। अर्थाभावेs. * ग्ययीभावः / त्वया मे संसारसाफल्यमिति भावः / अत्र कैतवशब्देनाश्रुविन्दुच्युते. स्तान्प्यापह्नवेन वर्णात्मकबिन्दुच्युतकत्वारोपादपलवभेदः, तदुपजीवनेन संसारमिति 'श्लिष्टपदोपात्तप्रागुक्तार्थद्वयाभेदाध्यवसायेन बिन्दुच्युतकाण्यकाव्यकरणोरप्रेक्षणात् श्लेषमूला सापह्नवोत्प्रेक्षा सा चासंशयमिति व्यञ्जकप्रयोगाद्वाच्येति // 104 // 1. "मसारताराक्षि" इति पाठान्तरम् / Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 525 हे नीलमके समान श्रेष्ठ नेत्रोंवाली ( पक्षा०-नीलमके समान पुतलियोंसे युक्त नेत्रोंवाली) ! सघन ( अविरल ) अश्रुबिन्दुओंके गिरने के बहानेसे (पक्षा०-सघन अश्रुरूप मिन्दुके नहीं रहनेसे ) बूंदोंको गिरानेकी अत्यन्त चतुरता ( पक्षा०-'बिन्दुच्युतक' नामक शब्दालकारवाले विचित्र काव्यकी अत्यन्त चतुरता) शोमती है / जिस ( चतुरता ) से तुम 'संसार' ( जगत, पक्षा०-'संसार' शब्द ) को अपने द्वारा निश्चय ही 'ससार' (सारयुक्त पक्षा०-बिन्दु अर्थात् अनुस्वारके नहीं रहनेसे 'ससार' शब्द ) कर रही हो। [ तुम अविरल अश्रुबिन्दुओंको जो गिरानेका बहाना कर रही हो, यह तुम्हारी बिन्दुओंको गिराने ( पक्षा०-बिन्दुच्युतक शम्दालङ्कारयुक्त विचित्र काव्यरचना करने) में चतुरता है अर्थात् तुम सबसे अधिक अलीक रोदनमें चतुर हो / उस चतुरतासे ही (असार भी ) संसार ( पक्षा०-'संसार' शब्द ) को तुमने 'ससार' (श्रेष्ठ वस्तुसे युक्त, पक्षा०-'संसार' शब्द ) कर दिया, अतएव संसारमें तुम्हारे-जैसा अलीक रोदन करने में कोई चतुर नहीं है / यह तुम्हारा अलीक रोदन भी बहुत ही शोभित हो रहा है। जिस रचनामें किसी शम्दके बिन्दु अर्थात् अनुस्वार हटा देनेसे उस शब्दका दूसरा अथ हो जाता है, वह 'विन्दुच्युतक' नामक शब्दालङ्करसे युक्त विचित्र काव्य होता है ] // 104 / / अपास्तपायोहाह शायत कर कराषि लीलानालन किमाननम् / तनोषि हारं कियणः वरदोषनिर्वासितभूषणे हृदि // 105 / / भपास्तेति / हे प्रिये ! कि किमित्यपास्तं त्यक्तं पायोरुट लीलापयोरुहं येन तस्मिन् करे शायितं स्थापितमारोपितमाननमेव लीलामलिनं करोषि, लीलाकमल. परिहारेण करकपोलकरणे किं कारणमित्यर्थः / भदोषाण्येव निर्वासितानि परित्या कानि भूषणानि पेन तस्मिन् हदि भक्षुणः सवैरश्रुधाराभिरेव हारं कियत्तनोषि ? किमर्थ रोविषीत्यर्थः // 105 // (विरहके कारण ) लीलाकमलसे शून्य हाथ में मुखको ( रखकर उसे ) लीलाकमल क्यों बना रही हो ? ( चिन्ताको छोड़कर लीलाकमलको हाथसे ग्रहण करो, हाथ अर्थात् हथेलीपर मुख मत रखो ) / विना अपराधके ही निकाले गये हारोंवाले अर्थात् हाररहित हृदय में आँसुके गिरानेसे हारको कब तक बनाओगी ? [ सापराध व्यक्तिको निर्वासित किया 1. तद्यथा-"धर्माधर्मविदः साधुपक्षपातसमुद्यताः। गुरूणां वंचने निष्ठा नरके यान्ति दुःखिताम् // " इति / अस्य 'ये धर्ममेवाधर्म विदन्ति, साधुजनानां पक्षस्य नाशाय उद्यताः, गुरूणां वचने प्रतारणे संलग्नाः सन्ति; ते नरके दुःखं प्राप्नुवन्ति' इति सामान्योऽर्थः / 'वंचन' शब्दगस्यानुस्वारस्य नाशे 'ये धर्ममधर्मश्च जानन्ति, साधुजनाना पक्षपातामुखताः सन्ति, गुरूणां वचने सादराः सन्ति, हे नर ! ते के नरा दुःखं प्राप्नुवन्ति न केपीत्यर्थः' इत्यन्योऽर्थो विन्दुनाशेन जायत इतीदं पथं बिन्दुच्युतकाख्यशब्दालङ्कारयुतं विचित्रं काव्यमिति बोध्यम् / Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 नैषधमहाकाव्यम् / (बाहर निकाला ) जाता है, किन्तु तुमने अपराध नहीं करनेपर भी हारोंको निकाल दिया है और उनके स्थान पर अश्रुबिन्दुओंको अविरल गिराकर हार-सा बना रही हो, यह अनुचित है, अतः रोना बन्द करो, हृदयको हारसे अलकृत करो ] // 105 // रशोरमङ्गल्यमिदं मिलजलं करेण तावत् परिमार्जयामि ते / अथापराधं भवदघ्रिपङ्कजदयोरजोभिः सममात्ममौलिना // 106 // दृशोरिति / इदं ते दृशोरचणोर्मिलदुरपद्यमानममङ्गस्यममङ्गलकारि जलमश्रु तावत् करेण परिमार्जयामि परिमार्मि, मृजेश्चौरादिकाल्लट् / अथाश्रमार्जनानन्तरम्, अपराधमात्मवञ्चनदोष भवदध्रिपङ्कजद्वयीरजोभिः समं त्वचरणकमल रेणुभिः सहेति सहोक्त्यलङ्कारः / आत्मनो मौलिना मुकुटेन प्रणामेनेत्यर्थः / परिमार्जयामि // 106 // (तुम्हारे ) नेत्रों में लगे हुए अमङ्गलकारक इस जल ( आंसू ) को पहले ( अथवासम्यक् प्रकारसे ) हाथसे परिमार्जित (दूर) करता हूँ अर्थात् पोछता हूँ / इसके बाद तुम्हारे चरणकमलद्वयकी धूलिके साथ (अपने किये गये तुम्हारे वञ्चनारूप ) अपराधको अपने मस्तकसे परिमार्जित ( दूर ) करता हूँ। [ रोना अशुभ है, अतः तुम मत रोवो, तथा यदि मेरे अपराधके कारण तुम रो रही हो तो उस अपराधको चरणकमलोंपर मस्तक रखकर क्षमा कराता हूं, अत एव तुम मेरा अपराध क्षमाकर प्रसन्न हो जावो ] // 106 // मम त्वदच्छाधनखामृतातेः किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी / उपासनामस्य करोतु रोहिणी त्यज त्यजाकारणरोषणे ! रुषम् / / 107 // ममेति / हे अकारणमेव रोषणे ! कोपने ! "क्रधमण्डार्थेभ्यश्च" इति युच्प्रत्ययः। रोहिणी लोहितवर्णा, "वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो न" इति डीप नकारश्च / मम किरीटमाणिक्यमयूखानां मारी सैव रोहिणी चन्द्रप्रिया सैव तारा अस्य पुरःस्थितस्य तवाच्छाधिनखस्यैवामृतातेश्चन्द्रस्योपासनां करोतु, रोहिण्याश्चन्द्रसेवौचित्यादिति भावः / रुषं रोषं त्यज अभीषणन्त्यजेत्यर्थः। "नित्यवीप्सयोः" इति नित्यार्थे द्विर्भावः। नित्यमभीक्षणम् / "प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मना" मिति भावः। रूपका. लङ्कारः॥ 107 // "मेरी रोहिणी ( लाल वर्ण, पक्षा०- रोहिणी' नामक तारा) मुकुटमें माणिक्योंके किरणों का समूह या मञ्जरीके समान कान्ति इस ( प्रत्यक्षस्थित ) तुम्हारे निर्मल चरण-नख. 'रूपी चन्द्रमाकी सेवा करे, हे निष्कारण क्रोध करनेवाली प्रिये ! क्रोधको छोड़ी छोड़ो। [ मैं तुम्हारे चरणों पर मस्तकसे प्रणाम करता हूँ, तुम बहुत शीघ्र क्रोधको छोड़ो निष्कारण क्रोध मत करो / चन्द्रमा की स्त्री 'रोहिणी' नामकी तारा चन्द्रमाकी जिस प्रकार उपासना करती है, उसी प्रकार मेरी रक्तवर्ण मुकुटमें जड़े हुए माणिक्योंकी लालवर्णवाली कान्ति तुम्हारे चरणोंकी उपासना करती है, अतएव इस सेवासे निष्कारण क्रोधको छोड़कर तुम मेरे ऊपर शीघ्र ही प्रसन्न हो जावो] // 107 / Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। तनोषि मानं मयि चेन्मनागपि त्वयि श्रये तद्वहुमानमानतः / विनम्य पत्रं यदि वतसे कियनमामि ते चाण्ड ! तापदावधि / / 108 तनोषीति / हे चण्डि ! अतिकोपने ! मनागीषदपि मानं मयि रोषमपि तनोषि चेत् / तत्तर्हि स्वयि विषये आनतः सन् बहुमान श्रये सन्मानं कुर्वे, प्रतिकोपाशक्ते. रिति भावः / अतिकोपं चेति गम्यते / किञ्च वक्त्रं कियत् किञ्चिद्विनम्य विनमय्ये. स्यर्थः / अन्तर्भावितो णिजः / वर्तसे तदा ते पदावधि पादपर्यन्तं नमामि / पूर्वोक एवाभिप्रायः // 108 // __ यदि तुम मुझमें थोड़ा भी मान करती हो, तो मैं तुम में नम्र होकर अधिक मान ( पक्षा०-सत्कार ) करता हूँ / ( और ) हे चण्डि ( कोपशीले प्रिये ) ! यदि मुखको (रोषके कारणसे ) कुछ अर्थात् थोड़ा भी झुकाकर रहती हो तो मैं ( अपने मुखको ) तुम्हारे चरणों तक झुकाता हूँ / [ तुम्हारे थोड़े मानको बहुत मानसे तथा थोड़ी मुखकी नम्रताको चरणों तक अपने मुखको नम्रकर क्रमशः तुम्हारे मान तथा क्रोधको दूर करता हूं / अतएव मान तथा क्रोध छोड़कर तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होवो ] // 108 // प्रभुत्वभूम्नानुगृहाण वा न वा प्रणाममात्राधिगमेऽपि कः श्रमः। क याचतां कल्पलतासि मां प्रति क दृष्टिदाने तब बद्धमुष्टिता / / 10 / / प्रभुत्वेति / हे भैमि ! प्रभुत्वभूम्ना प्रभुत्वप्रयुक्तगौरवेणानुगृहाण वा न वा, किन्तु प्रणाममात्रस्याधिगमे स्वीकारेऽपि कः श्रमः को भार इत्यर्थः / अथ सोऽपि माभूत दर्शनमात्रेणापि किं नानुगृह्णासीत्याह-क्वेति / याचतामर्थिनां कल्पलतासि, क्व ? स्वं क्वेत्यर्थः / असीतित्वमर्थवाक्यालङ्करणयोर्युष्मदर्थानुवादेऽपीति गणव्याख्यानात्। मां प्रति रष्टिदाने बद्धमुष्टिता लुब्धता क्व? 'स्याबद्धमुष्टिः कृपणे कृपणादिपु चेष्यते' इति विश्वः / विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः // 109 // ( मेरे जीवनका एकमात्र आधार होनेसे मेरे ऊपर तुम्हारा पूर्ण प्रभुत्व है, अतएव उस ) प्रभुत्व की बहुलतासे (मुझे ) अनुगृहीत करो या न करो किन्तु केवल ( मेरे ) प्रणाममात्र के स्वीकार करनेमें कौन प्रयास है ? ( प्रभु प्रजा या दासजन पर अनुग्रह करे या न करें; किन्तु दासके प्रणामको तो स्वीकार करता ही है, अतएव तुम मेरे अपराधको क्षमा करो या न करो; किन्तु मेरे प्रणामको तो अवश्य स्वीकार करो)। याचना करने वालों की कल्पलता हो यह कहां ? ( तथा ) मेरे प्रति दृष्टिमात्र देने अर्थात् एक नजर देखने में भी तुम्हारी बद्धमुष्टिता ( कृपणता, पक्षा०-कुछ नहीं देना पड़े इसके लिए मुट्ठी बांध लेना) कहां ? अर्थात् दोनोमें महान् अन्तर है, अतः तुम केवल कटाक्षमात्रसे भी देखकर मुझे अनुगृहीत करो // 109 // स्मरषुषाधां सहस मृदुः कथं हृदि द्रढीयः कुचसंघृते तव | निपत्य वैसारिणकेतनस्य वा व्रजन्ति बाणा विमुखोत्पतिष्णुताम् / / 110 / / Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂરક नैषधमहाकाव्यम् / स्मरेति / हे भैमि ! मृदुः मृदङ्गी त्वं स्मरेषुबाधां कामबाणग्यथा कथं सहसें ? अथवा विसरतीति विसारी स एव वैसारिणो मरस्यः "विसारिणो मत्स्ये" इति स्वार्थप्रत्ययः / तत्केतनस्य कामस्य बाणा: द्रढीयोभ्यां दृढतराभ्यां कुचाभ्यां संवृते तव हृदि नित्य विमुखाः कुचप्रतिहत्या पराङ्मुखाः / अत एवोत्पतिष्णवः उत्प. * तनशीला:' "अलडकृषि" स्यादिना इष्णुप्रत्ययः / तत्तां ब्रजन्ति वा, अन्यथा कथ. मुपेक्षस इति भावः // 110 // सुकुमारी तुम कामदेवके बाणोंकी पीडाको क्यों सहती हो ? अथवा मीनकेतन अर्थात् ( कामदेवके वाण दृढ स्तनोंसे संवृत तुम्हारे हृदयमें गिरकर अर्थात् लगकर विमुख होते (लौट जाते, या मुड़ जाते ) तथा उछल जाते हैं / [ जिस प्रकार कठिन पत्थर आदिमें गिरे हुए वाण या कील आदि मुड़ते तथा उछल जाते हैं, उसी प्रकार दृढ स्तनरूप कवचसे सुरक्षित तुम्हारे हृदयमें कामवाण कोई असर नहीं करते हैं, 'अन्यथा सुकुमारी तुम कामदेवके स्मितस्य संभावय सृक्षणा कणान विधेहि लीलाचलमनलं भ्रवोः / अपाङ्गरध्याथिकी हेलया 'प्रसघ सन्धेहि दृशं ममोपरि / / 111 / / स्मितस्येति / स्मितस्थाकणाम्मदहासलेशान् सूक्षणा भोष्ठप्रान्तेन / 'प्रान्ता. बोस्य सफणी' इत्यमरः / सम्भावय सम्मानय भ्रवोरशलमन्तं लीलया चलं चालं विधेहि / तथा अपाङ्गारच्या कटाजमार्गः / तत्र पन्थानं गपछतीति पथिकी समा. रिणी "पथः कन्" इति कन्प्रत्यये "षिद्वौरादिभ्यश्च" इति की / शं ममोपर्यपरिधात्, “षष्ठयतसर्थप्रत्ययेने"ति षष्ठी / हेलया प्रसह्य बलात् सन्धेहि प्रसा. रवेत्यर्थः / "यसोरेदावभ्यासलोपश्चे" त्येकारः॥ 111 // ओष्ठप्रान्तसे मधुर हासके लेशोंको सुशोभित, करो, भ्रदयके प्रान्तको लीलासे चञ्चल करो अर्थात् विलासपूर्वक भ्रूक्षेप करों, नेत्रप्रान्तरूपी मार्गमें नित्य चलनेवाली अर्थात् कटाक्ष करनेवाली दृष्टिको मेरे ऊपर अर्थात् मुझे लक्ष्यकर बलात्कारसे ( पाठा०-प्रसन्न होकर विलाससे या अनाराससे ) फेंको अर्थात् मुझे कटाक्षपूर्वक देखो (पाठा०-प्रसन्न होवो ) // 111 // समापय प्रावृषमभुषिप्रषां स्मितेन विश्राणय कौमुदीमुदः / रशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी विकामिपकेनहमस्तु ते मुखम / / 11 / / समापयेति / किश्वाश्रुविषां प्रावृषं वर्षतुं घृष्टिमित्यर्थः / समापय मा रोदीरित्यर्थः / प्रावृट्समाप्तेः फलमाह-स्मितेन मन्दहासेन कौमुदीमुदो विश्राणय वितर / श्रण दान इति चौरादिकाल्लोट / दृशावेव खजनद्वयी खजनपक्षियुगमितो 1. "प्रसच" इति "प्रसीद" इति च पाठान्तरम् / Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 529 मयि खेलतु प्रसरतु, ते मुखं विकासि पोरूहमस्तु, प्रसन्नं भवस्वित्यर्थः // 12 // ___अश्रु-बिन्दुओके वर्षाकालको समाप्त करो अर्थात रोना बन्द करो, मधुर हासके द्वारा चन्द्रिका हर्षको ( मुझे ) दो, चञ्चल होनेसे नेत्ररूप दो खञ्जन पक्षी इधर ( मेरे पास, या मेरे ऊपर ) खेलें और तुम्हारा मुख विकसित कमल होवे [ वर्षाकाल के समाप्त होने पर शरद् ऋतुकी निर्मल चांदनीका होना, खजन पक्षीका खेलना और कमलका विकसित होना उचित ही है, अतः तुम रोना बन्दकर इंसो, कटाक्षसे देखो और प्रसन्नमुखी होवो] // 112 // सुधारसोद्वेलनकेलिमक्षरमजा सृजान्तर्मम कर्णकूपयोः / दृशौ मदीये मदिराक्षि ! कारय स्मितश्रिया पायसपारणाविधिम् / / 11 / / सुधेति / हे मदिराति ! मदकराषि! "इषिमदी" स्यादिना औणादिकः किरात्ययः / अक्षरस्रजा वर्णावल्या वाम्गुम्फेन कर्णकूपयोरन्तः सुधारसस्योहेलनकेलिमुन्मजनलीला सृज / आलपेत्यर्थः / किश मदीये रशी स्मितश्रिया करणेन पायसपा. रणाविधि पायसभोजनविधिमपि कारय / 'परमानन्तु पायसम्' इत्यमरः / "इक्रोरन्यतरस्याम्" इति विकल्पादणि कतुंः कर्मस्वम् // 113 // वर्णों की माला (वचन-समूह ) से मेरे कर्णकूपदयके भीतर अमृतरसकी अतिशय क्रीड़ा को करो अर्थात् अपने वचनामृतसे मेरे कानोंको तृप्त करो, हे मतवाले नेत्रोंवाली ! मेरे दोनों नेत्रों को मधुर मुस्कानकी शोभासे खीरकी पारणा करावो [ माज तक मेरे नेत्रोंने तुम्हारे दर्शनामावरूप उपवास ब्रत किया है, अतः मधुर मुस्कानसे तुम्हें पायस (दूधसे बने पदार्थखीर ) से पारणा करावा अर्थात् मधुर मुस्कानको दिखाकर उन्हें सन्तुष्ट करो। व्रतीको खीर की पारणासे सन्तुष्टकर तुम करना उचित ही है] // 113 // ममासनार्धे भव मण्डनं नन प्रिये मदुत्साविभूषणं भव / भ्रमाद् भ्रमादालपमा ! मृष्यतां विना ममोरः कतरत्तवासनम् // 114 / ममेति / हे प्रिये ! ममासनाधै मण्डनं भव / तत्रोपविशेत्यर्थः। नन / अत्यनुचितमेतदित्यर्थः / किंतु मदुस्साविभूषणं भव, अङ्कमारोहेत्यर्थः। तदपि नेस्याहभ्रमाद्भमादाल भ्रमादालपं भ्रमादालपमित्यर्थः / लपेर्लङ / अङ्ग भो! मृष्यता सम्यता, किन्तु ममोरो वक्षो विना तवासनं कतरत् किमस्ति ? 'चापले भवत इति वक्तव्यमिति ननेत्यादौ चापले विर्भावः ।चापलं संभ्रमाभिवृत्तिः सम्भ्रमश्चानी. चित्यभयादिति / अत्र भैग्याः क्रमेणाधारवृत्तिकथनात्पर्यायालङ्कारः। 'एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्यायः' इति सर्वस्वकारलक्षणात् // 114 // मेरे सिंहासनपर भूषण बनो अर्थात् सिंहासनको अलङ्कृत करो, नहीं नहीं, मेरे उत्सङ्ग ( अङ्क, क्रोड अर्थात् गोदी ) का विशिष्ट अलकार बनो, हे अङ्ग ! यह भी अत्यन्त भ्रमसे ( मैंने ) कहा ( पाठा०-हे अङ्ग ! मैंने भ्रमसे कहा), क्षमा करो, मेरे वक्षःस्थलके अतिरिक्त Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारा आसन कौन-सा है ? अर्थात कोई बहों। (तुम्हारे योग्य आसन मेरा वक्षःस्थल ही है, मेरा सिंहासन या उत्सङ्ग नहीं / उनें तो मैंने भ्रमसे कह दिया था, अतः उसकी क्षमा चाहता हूँ ) // 114 / / अधीतपञ्चाशुगवाणषचने ! स्थिता मदन्तर्बहिरेषि चेदुरः / स्मराशुगेभ्यो हदयं विभेतु न प्रविश्य तत्त्वन्मयसंपुटे मम // 115 / / किचोरःस्थलायवस्थानेषु ममापि कामादभवमित्याह-अधीतेति / अधीता अभ्यस्ता पञ्चाशुगस्य पञ्चेषोर्बाणानां वशना प्रतारणाविद्या यथासा तथोक्ता तस्याः सम्बुद्धिः। प्रायेण मनस्विनां लज्जावशंवदतया मदनवनताच्छील्यादित्थं सम्बोध्यते स्वहृदयप्राणसामर्थ्य सूचनार्य हे भैमि ! त्वं मदन्तर्ममाभ्यंतरे स्थिता अवस्थिता / अथ बहिरुरश्चैषि प्राप्नोषि चेत् तत्तर्हि मम हृदयं (कर्तृ) स्वन्मये त्वदास्मके संपुटे पेटिकायां प्रविश्य स्मराशुगेभ्यः स्मरशरेभ्यो न बिभेतु। त्वया गुप्तस्य मे कुतः कामास्त्रभयमित्यर्थः // 115 // ___हे कामबाणको वञ्चना करनेकी विद्याको पढ़ी हुई दमयन्ती ! मेरे अन्तःकरण अर्थात् हृदय के भीतर में स्थित तुम यदि बाहर ( वक्षःस्थलपर ) आवोगी तो त्वद्रूप सम्पुट ( बक्स आदि ) में प्रवेशकर मेरा हृदय कामदेवके बाणों से नहीं डरेगा। (सर्वदा अन्तःकरणमें स्थित यदि बाहर आकर आलिंगन करोगी तो मुझे कामदेव पीड़ित नहीं करेगा, क्योंकि बाहर-भीतर रूप दो सम्पुटों में प्रवेश करने के कारण कामबाणोंसे मेरा हृदय निर्भय हो जायगा) // 115 // परिष्वजस्वानवकाशवाणता स्मरस्य लग्ने हृदयद्वयेऽस्तु नौ / दृढा मम त्वत्कुचयोः कठोरयोउरस्तटीयं परिचारिकोचिता / / 11 / / परिष्वजस्वेति / हे प्रिये ! परिष्वजस्व मालिका तथा सति लग्ने मिथोघटिते नौ आवयोहृदयद्वये स्मरस्यानवकाशा नीरन्ध्रत्वानिरवकाशा बाणा यस्य तस्य भावस्तत्ता अस्तु / इत्थमालिङ्गानं स्मरशरप्रवेशानवकाशकारकमिति भावः। किन दृढा कठोरा ममेयमुरस्तटी कठोरयोस्त्वस्कुचयोः परिचारिका उचिता युक्ता / समा• नगुणयोः सम्बन्धी युक्त इत्यर्थः / अत्र समालङ्कारः। “सा समालकृतियोगे वस्तुनोरनुरूपयोः" इति लक्षणात् // 116 // ___(तुम मेरा ) आलिङ्गन करो, हम दोनों के हृदयद्वयके मिल (परस्परमें अत्यन्त चिपक) जाने पर कामवाणके प्रवेश करनेका भी अवकाश (खाली स्थान) नहीं रहेगा / दृढ़ (मजबूत या विशाल ) भेरी यह उरस्तटोको तुम्हारे कठिन दोनों स्तनोंकी सेविका होना उचित है। योग्य व्यक्तियों का परस्पर समागम होना उचित ही है / [ परस्परमें अत्यन्त चिपके हुए 'किसी स्थान या शरीर आदिमें तीसरे किसी सूक्ष्म वस्तुके प्रवेश करने की आशङ्का नहीं रहती; अतः तुम मेरा गाढ आलिङ्गन करो, जिससे कामपीडा दूर हो जाय ] // 116 // Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 'शुभाष्टवर्गस्त्वदनङ्गजन्मनस्तवाघरेऽलिख्यत यत्र लेखया। मदीयदन्तक्षतराजिरजनः स भूर्जतामर्जतु बिम्बपाटलः // 17 // शुभेति / यत्र यस्मिन तवाघरे रेखया रेखाभिरित्यर्थः। जातावेकवचनम् / स्वदनङ्गजन्मनः स्वदीयमन्मथोदयस्य सम्बन्धी शुभाष्टवर्गःशुभसूचकाष्टवर्गो ज्योति. श्शास्त्रप्रसिद्धः अलिख्यत रेखारूपेण लिखितः। रेखारूपस्यैव शुभावेदकत्वात् बिन्दुरूपस्य वैपरीत्याच्चेति भावः / मदीयदन्तक्षताना राज्या रञ्जनैः बिम्बफलवत् पाटलः सोऽधरः भूर्जतां भूर्जपत्रत्वमर्जतु भजतु / अर्जेभीवादिकालोट् / अत्राधररे. खाणामष्टवर्गरेखावमधरस्य भूर्जपत्रत्वं चोत्प्रेक्ष्यते / तेन च कामोदयस्य शुभो. दत्वं व्यज्यते / जन्मकालग्रहाधीनमाविशुभावेदको रेखाबिन्दुलेख्यचक्रविशेषो. दार्यों ग्रहसन्निवेशविशेषोऽष्टवर्गः // 117 // तुम्हारे कामकी उत्पत्ति ( पक्षा०-विना शरीरसे उत्पन्न अर्थात् मानसपुत्र ) का शुभ अष्टवर्ग रेखाओंसे जिस तुम्हारे अधरमें (ज्योतिषी विद्वान् या ब्रह्मा द्वारा) लिखा गया. है, मेरे दन्तक्षतसमूहके द्वारा रंगने से विम्बफलके समान लाल वह अधर भूर्जपत्र बने / [ पुत्रकी कुण्डली में आठ रेखाओंवाला अष्टवर्ग ज्योतिषी विद्वान् लिखते हैं, उनमें रेखाओंका रहना शुभ तथा बिन्दुओंका अशुभ माना जाता है और वह कुण्डली भोजपत्रपर लिखी जाती है। यहां तुम्हारे अधरमें रेखायें अष्टवर्ग रेखायें हैं और मेरे दन्तक्षत-समूहके द्वारा रंगनेसे तुम्हारा अधर ही भूर्जपत्र है / तुम्हारे अधरमें रेखाओंका होना सामुद्रिक शास्त्रा. नुसार शुभसूचक है / प्राचीन कालमें वर्तमान काल-जैसी कागजकी सुलभता नहीं रहनेसे यहां जन्मपत्री ( कुण्डली ) को भूर्जपत्र पर लिखनेका वर्णन किया गया है / प्राचीन कालके लिखित ग्रन्थ अब भी ताडपत्र आदिमें ही उपलब्ध होते हैं // 117 // तवाधराय स्पृहयामि यन्मधुम्रवैः श्रवःसाक्षिकमाक्षिका गिरः। अधित्यकासु स्तनयोस्तनोतु ते ममेन्दुरेखाभ्युदयाभुतं नखः // 118 // तवेति / किञ्च तवाधराय स्पृहयामि / अधरं पातुमिच्छामीत्यर्थः। "स्पृहेरी. प्सित" इति सम्प्रदानत्वाचतुर्थी। कुत इति चेत्-यस्याधरस्य मधुस्त्रवैःमाक्षिकद्रवैः तब गिरो वचनानि श्रवसी श्रोत्रे साक्षिणी यस्य तच्छवासाक्षिकं माक्षिकं यासु ताः / श्रोत्रपेया इति भावः / भवन्तीति शेषः। किञ्च ते स्तनयोरधित्यकासू-भागेषु 1. "प्रकाश" व्याख्यायां'न वर्तसे..... (9 / 119) इत्यस्यानन्तरं व्याख्यातो 'जीवातु' व्याख्याने सर्वत्रानुपलम्भात् कैक्षिश्यकश्चायं श्लोकः' 'अयि प्रिये कस्य.. (9 / 103)' इत्यस्य व्याख्यायामतः 'प्रलापमेवाष्टादशभिराचष्टे' इत्युक्त्वा एतच्छलोकं विना तदष्टादशश्लोकपूर्यभावान्मद्रपुरस्थराजकीयपुस्तकालयस्थग्रन्थेऽस्य 'जीवातु' व्याख्योपलम्भादयं श्लोकोऽत्र स्थापित इत्यवधेयम् / 'जीवातु' व्याख्यामेधयमानेन पं० जीवानन्दशर्मणाप्ययं श्लोको न व्याख्यातः। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम्। उपत्यकादेरासमा भूमिलमविस्यका' इत्यमरः / उपाधिभ्यां त्यकशासबारूढयोः' इति स्यकन्प्रत्ययः / एतेन स्तनयोरद्रिरूपणं गम्यते / मम नखः इन्दुरेखाभ्युदयाद्भुतं चन्द्रकलोदयचित्रं तनोतु / कुचकुम्भयो खाता कर्तुमिच्छामीत्यर्थः // 118 // (मैं ) तुम्हारे अधरको चाहता हू अर्थात् अपरका पान करना चाहता हूं, जिसके मधु. शरणसे तुम्हारे वचन-कान है साक्षी, जिसका ऐसे मधु हैं। तुम्हारे स्तनयरूप पर्वतके ऊपरी भागों में मेरा नख रेखाके उदयसे आश्चर्यका विस्तार करे अर्थात् स्तनोंपर नखक्षत भी करना चाहता हूँ / [ पर्वतके शिखरपर जिस प्रकार वक्र चन्द्रोदय होता है, उसी प्रकार तुम्हारे अतिविशाल स्तनोंके ऊपर नखक्षतकर पर्वतपर वक्र चन्द्रोदय होने के आश्चर्य का विस्तार करना चाहता हूँ ] // 118 // न तसे मन्मथनगटिका कथं प्रकाशरोमावलिसूत्रधारिणी। तवाङ्गहारे रुचिमेति नायकः शिखामणिश्च द्विजराइविदूषकः / / 11 / / नेति / हे भैमि ! त्वं मन्मथेन कविना कृता नाटिका रूपकविशेषो मन्मथना. टिका सती कथं न वतंसे, वर्तस एवेत्युप्रेक्षा। यन्मयोहीपनेति च प्रतीयते / उभयं श्लिष्टविशेषणेरुपपादयति-प्रकाशं स्फुटं रोमावलि. सूत्रमिव रोमावलिसूत्रं तद्धा. रिणी अन्यत्र सूत्रधारः कथाप्रस्तावकः तद्वती सत्रधारिणी तव अङ्गहारे मुक्ताहारे नायको मध्यमाणिक्यं रुचिं शोभामेति अन्यत्र नायकः कथानायकोऽाहारे अङ्गविक्षेपे रुचिं प्रीतिमेति / शिखामणिः शिरोरत्नश द्विजराजश्चन्द्रस्य विशेषेण दूषको निन्दको विदूषकस्ततोऽपि रमणीय इत्यर्थः। अन्यत्र द्विजराट् ब्राह्मणो विदूषको नायकस्य हास्यप्रायो नर्मसचिवः शिखामणिरादरणीय इत्यर्थः। एवं सूत्रधारादियोगात् कथं न नाटिकासीत्यर्थः। अन्यत्र यौवनालवारादियुक्ता कथं न मन्मथो. हीपनेत्यर्थः / "आलम्बनगुणश्चैव तच्चेष्टा तदलस्कृतिः / तटस्थश्चेति विज्ञेयश्चतु. धोहीपनक्रमः" / इति लक्षणात् // 119 // शोभमान ( नाभिके अधोमागस्य ) रोमसमूहरूप सूत्रको धारण करनेवाली तुम कामोन्मादिनी नहीं हो क्या ? अर्थात् कामोन्मादिनी ही हो, तुम्हारे शरीर अर्थात् हृदयके हारमें (अथवा-हे अङ्ग ! तुम्हारे हारमें मध्यभागस्थ बड़ा मनिया (हार का दाना ) शोभा पा रहा है तथा (निर्मल, गोलाकार तथा आह्लादक होनेसे ) चन्द्रमाको अत्यन्त तिरस्कृत करनेवाला मुकुट का मणि ( अथवा--चोटीमें स्थापित मणि-विशेष ) शोभित हो रहा है / नाटिका' पक्षमें--स्पष्टतया रोमावलीरूप सूत्रधार (नान्दीके बाद कथांशको सर्वप्रथम सूचित 1. नाटिकालक्षण साहित्यदर्पण उक्तं विश्वनाथेन तद्यथा"नाटिकाक्लप्तवृत्ता स्यात्स्त्रीमाया चतुरङ्किका। प्रख्यातो धोरललितस्तत्र स्थानायको नृपः।। स्यादन्तःपुरसम्बद्धा सङ्गीतव्यापृताऽथवा / नवानुरागा कन्याऽत्र नायिका नृपवंशजा // सम्प्रवर्तेत नेताऽत्यां देव्यास्त्रासेन शक्तिः / देवी पुनर्भवेज्ज्येष्ठा प्रगल्भा नृपवंशजा / / पदे पदे मानवती तदशः सङ्गमो द्वयोः / वृत्तिः स्यात्कैशिकी स्वल्पविमाः सन्धयः पुनः।" Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। करनेवाला पात्र-विशेष ) वाली कविको नाटिका (उपरूपकभेद गत लघुनाटक-विशेष) नहीं हो क्या ? अर्थात् अवश्य हो; तुम्हारे अङ्गहार अर्थात नृत्यमें नायक अर्थात् मुख्य पात्र प्रीतिको पा रहा है, तथा शिखामणि (नायकपूज्य चूड़ामणि ) द्विजराज (ब्राह्मणादि वर्णत्रयका राजा अर्थात् ब्राह्मण ) विदूषक ( नायकका नर्मसचिव हास्यकारक पात्र विशेष ) है ] // 119 // गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनः प्रसीद शुश्रषयितुं मया कुचौ / निशेव चान्द्रस्य करोत्करस्य यन्मम त्वमेकासि नलस्य जीवितम् // 120 / / गिरा इति / गिरा सम्भाषणेनानुकग्पस्व चुम्बनैर्दषस्व दयां कुरु, मया कुची शुश्रषयितुं प्रसीद, अन्यथा कथमहं जीवेयमित्याशयेनाह-यत् यस्मात् चान्द्रस्य करोत्करस्य किरणसमूहस्य निशेव नलस्य मम स्वमेका जीवितमसि चन्द्रस्य दिवापि जीवनसम्भवात् करग्रहणं तस्य निशैकशरणरवादिति द्रष्टव्यम् // 120 // __ वचनसे अनुकम्पा करो अर्थात मुझसे बातें करके मुझे अनुकम्पित करो, चुम्बर्नोसे (चुम्बनोंको देकर ) दया करो, मुझसे स्तनोंकी शुश्रूषा करानेके लिये प्रसन्न होवो, चन्द्रसम्बन्धी किरण-समूहों का रात्रिके समान नलका अर्थात् मेरा एकमात्र तुम्ही जीवन हो। (जिस प्रकार किरण-समूहोंसे युक्त चन्द्रमाका जीवन रात्रि हैं, उसी प्रकार मेरा प्राणाधार एकमात्र तुम्ही हो अत एव सम्भाषण कर चुम्बन देकर तथा स्तन-मर्दन कराकर मुझे अनुगृहीत करो; अन्यथा मैं नहीं जी सकता हूं ] // 120 // मुनियथात्मानमथ प्रबोधवान् प्रकाशयन्तं स्वमसावबुण्यत | अपि प्रपन्नां प्रकृति विलोक्य तामवाप्तसंस्कारतयाऽसृजद्विरः // 12 // मुनिरिति / अथैवं भ्रान्त्यनन्तरमसौ नलो मुनिर्यथा मुनिरिव प्रबोधवानुत्पत्रतत्त्वावबोधः सन्नात्मानं स्वं स्वरूप प्रकाशयन्तं सन्तमबुध्यत, नलरूपता प्रकाशिते. त्यबुद्धेत्यर्थः / अथ प्रपन्नां प्राप्तां तां प्रकृति स्वभावं विलोक्यापि ज्ञात्वापि अवाप्तः उद्बुद्धः संस्कारो निजदूतत्वस्मारकवासना येन तस्य भावस्तत्ता तया गिरो दूत्या. नुगणान्येव वाक्यान्यसृजदवोचदित्यर्थः / यथा मुनिर्योगलब्धात्मतत्वावशेधोऽपि वासनावशात् बाह्यमनुसन्धत्ते तथा नलोऽपि प्रकटितात्मा पुनः संस्कारवशात् दूत्यमेवानुसरन्नुवाचेत्यर्थः // 121 // ___ इसके बाद (गत श्लोकमे अपना नाम प्रकाशित करने के बाद) यह नल मुनिके समान प्रबोधयुक्त हुए अपने स्वरूप ( 'मैं नल हूँ' ऐसा) को प्रकाशित करते हुए समझ ( यह नल ही हैं, ऐसा जान ) कर प्रकृतिस्थ रोदन तथा विलापादिसे रहित उस दमयन्ती ( अथवादूतधर्मसे उबुद्ध अपनी प्रकृति ) को देखकर फिर संस्कारको प्राप्त करने ( 'मैं दूत हूं' अतः अपने दत-कार्यको छोड़ना उचित नहीं हैं, ऐसे संस्कारके उत्पन्न होने ) से वचन बोले Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 नैषधमहाकाव्यम् / [ शास्त्रादि अभ्यास तथा योग आदिके द्वारा संसारके आवागमन को दूर करने में समर्थ शानको पाया हुआ योगी अपनेको स्वप्रकाश सच्चिदानन्दस्वरूप 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ। ऐसा जान लेता है, और वैसा जानकर पूर्व संस्कारोंसे या प्राप्त ब्रह्मशानसे सत्त्वादि गुणत्रयरूप एवं संसारोत्पादिनी अनादि अविद्याको पृथग्भूत जानकर 'मैं पहले मनुष्य था' इत्यादि जानता है और इस प्रकार आत्मा तथा प्रकृति को विवेकके द्वारा जानकर बातें करता है, उसी प्रकार नलने दमयन्तीके विलापादिसे उन्मादित होकर पहले दूतधर्मको भूल कर बोलते हुए जब नाम बतलाकर अपना परिचय दे दिया, तब दूत-सम्बन्धी संस्कारके फिर उबुद्ध होनेसे दूतोचित वचन बोलने लगे] // 121 // अये मयात्मा किमनिहतीकृतः किमत्र मन्ता स तु मां शतक्रतुः / पुरः स्वभक्त्याथ नमन् हियाविलो विलोकिताहे न तदिनितान्यपि / __ अये इति / अये इति विषादे / 'अये विषादे क्रोधे च' इति विश्वः / मया आत्मा स्वरूपं किं किमर्थमनितीकृतः प्रकाशितः, अत्रात्मप्रकाशने स शतक्रतुरिन्द्रस्तु मां कि मन्ता मस्यते / अथ पुरोऽग्रे स्वभक्त्या नमन् प्रणमन् हिया आविलः कलुषः सन् तस्येन्द्रस्येजितानि चेष्टितान्यपि न विलोकिताहे न विलोकयिष्यामि / लुटीट् / तन्मु. खमवलोकितुमपि नोत्सहे इत्यर्थः // 122 // ____ अरे ! मैंने अपने स्वरूपको क्यों प्रकाशित कर दिया अर्थात् 'मैं नल हूं' ऐसा दमयन्ती को क्यों जना दिया ( यह तो बड़ा अनुचित हो गया ) इस (मेरे दूतकर्मके) विषयमें शतक्रतु (इन्द्र, पक्षा०-सैकड़ों अर्थात् बहुत अधिक क्रोध करनेवाले) क्या मानेंगे ? अर्थात्मुझे अपने दूत-कर्मसे भ्रष्ट ही मानेंगे पहले ( दूत कर्मको स्वीकार करते समय ) तथा इस समय ( अपना कर्तव्यपालन न करनेके कारण ) लज्जासे नम्र मैं उनकी चेष्टाओं (क्रोध. जन्य भ्रमण आदि विकारों ) को भी नहीं देगा, दुःख है / [ कर्तव्यसे भ्रष्ट होने के कारण में इन्द्र के सामने लज्जासे मुख भी ऊपर नहीं उठा सकूँगा। लोकमें भी कर्तव्यभ्रष्ट दास स्वामीके सामने मुख नहीं उठाता ] / / 122 / / स्वनाम यन्नाम मुधाभ्यधामहं महेन्द्रकायं महदेतदुमितम् | हनूमवाद्यैर्यशसा मया पुनर्विषां हसैदूतपथः 'सितीकृतः // 123 // स्वेति / यद्यस्मात् मुधा वृथैव स्वनाम अभ्यधान्नाम ? अवोचं खलु ? तन्महदे, तन्महेन्द्रकार्यमुज्झितं त्यक्तम् / अहो हनूमदाचैः दूतपथो यशसा सितीकृतो धव. लीकृती मया पुनर्विषां हसैहोसः, "स्वनहसोर्वा" इत्यप्प्रत्ययः / सितीकृतो धवली. कृतः। यशोवद्धासस्यापि धवलस्वादिति भावः। विश्वेश्वरीये तु हासस्य धावल्येऽपि शत्रुहासस्य मालिन्यापादकत्वादित्याशयेन मेचकीकृतमिति व्याख्यातम् / "सितो 1. "शितीकृतः" इति पाठान्तरम् / Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 535 धवलमेचको" इत्यमरः / अत्र हनूमदग्रहणं पूर्वकल्पाभिप्रायमन्प्रथा कृतत्रेतावतार• पुरुषयोः पौर्वापयविराधादिति // 23 // मैंने जो अपना नाम व्यर्थमें प्रकट कर दिया, यह महेन्द्रका बडा कार्य छोड़ दिया। हनुमान् आदिके द्वारा ( ठीक 2 दूतकार्य करके ) यशसे श्वेत किये गये मार्गको मैंने शत्रुओंकी हँसी ( उपहास ) से श्वेत ( पाठा०-काला अर्थात् दूषित ) कर दिया / [ हनुमान् आदि दूतोंने अपना दूतकार्य यथोचित करके यश प्राप्त किया तथा मैंने अपने नामको यहां वतलाकर बड़ा अनुचित किया, अतः मेरे शत्रु 'इन्द्रादि दिक्पालोंका दूतकार्य स्वीकार कर नलने वहाँ पर अपना ही कार्य सिद्ध किया, या इन्द्रादिका कार्य नहीं किया ऐसा उपहास करेंगे, इस प्रकार कर्तव्यभ्रष्ट होकर मैंने शत्रुओंका उपहास प्राप्त किया ] // 123 // धियात्मनस्तावदचारु नाचरं परस्तु यद्वेद स तद्वदिष्यति / जनावनायोद्यमिनं जनार्दनं क्षये जगजीवपिवं वदन् शिवम् / / 124 धियेति / अथवा तावदात्मनो धिया बुद्धिपूर्वकमित्यर्थः / अचार्वसाधु नाचरं एवं स्थिते परोऽन्यो जनो यदचारु वदिष्यति तत्त जनानामवनाय रक्षणायोद्यमिनः प्रत्ययः / अथ सये कल्पान्ते जगजीवानां पिबतीति पिबं संहर्तारं रुद्रमिति शेषः / "पाघ्रादिना" शप्रत्ययः / शिवं शान्तं वदन् , शिवमशिवमशिवं शिवा वदनित्यर्थः / स पर एव वेद / अनर्गलो लोकस्तावदास्तां ममानपराधित्वमन्तर्यामिसालि. कमिति भावः // 124 // ( अथवा- ) यह कार्य (स्व-नाम-प्रकाशन ) मैंने बुद्धिसे नहीं किया अर्थात् अबुद्धिपूर्वक ( उन्मादित होनेसे अचानपूर्वक ) किया (अतः मेरा कोई अपराध नहीं है, फिर भी ) लोगोंकी रक्षाके लिए प्रयत्नशील (विष्णुको) जनार्दन ( मनुष्योंको पीडित करनेवाला ) तथा प्रलयकालमें संसारके प्राणों को पीने (नष्ट करने ) वाले ( रुद्रको) शिव (मङ्गल करनेवाला ) कहनेवाले दूसरे व्यक्ति (या शत्रु ) जो (मशानपूर्वक नाम प्रकाशित करनेसे दोषरहित होनेपर भी मुझे सदोष ) कहेंगे, वह मैं जानता हूँ। लोग अनर्गल बातें कहा करते हैं, उसे रोकनेका कोई उपाय नहीं है / / 124 // स्फुटत्यदः किं हृदयं त्रपाभरात् यदस्य शुद्धिविबुधैविबुध्यताम् / विदन्तु ते तत्त्वांमद तु दन्तुरखनानने कः करमर्पयिष्यति // 125 / / स्फुटनीति / अदो हृदयं त्रपाभराल्लज्जातिभारान् स्फुटति किम् ? स्फुटिष्यति किम् ? "आशंसायो भूतवच" इति चकारादाशंसायां भविष्यदर्थे वर्तमानवप्रा त्ययः / यद्यस्मात् स्फुटनादस्य हृदयस्य शुद्धिर्विबुधैदवैविबुध्यतां ज्ञायताम् / अतः स्फुटनमाशास्यमित्यर्थः / परन्तु ते विबुधास्तत्त्वं हृदयशुद्धि विदन्तु, तथापि दन्तुर 30 . Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 नैषधमहाकाव्यम् / मतिर्विषमन्तदेवाह-जनानने कः करमपंयिष्यति न कोऽपीत्यर्थः / कयाधिदेवताप्रस्यायनेऽपि जनप्रत्यायनं दुष्करमिति तात्पर्यार्थः // 125 // ('दमयन्तीके सामने अपने नामको प्रकाशितकर मैंने इन्द्रादि दिक्पालोंका दूतकार्य नहीं किया' इस ) लज्जाके बोझ ( अधिकता ) से यह मेरा हृदय क्यों विदीर्ण हो रहा है ( ऐसा होना उचित नहीं है ) क्योंकि विबुध ( इन्द्रादिदेव, पक्षा०-विशिष्ट ज्ञानवालेपण्डित ) इसकी अर्थात् मेरे हृदयकी शुद्धिको अच्छी तरह जाने / वे देवता प्रकाशमान ( सर्वान्तर्यामी होनेसे स्पष्ट दिखलाई पड़ता हुआ) इस तत्व ( मेरी निष्कपट वृत्ति ) को जानें, लोगों के मुखकर हाथ कौन रखेगा ( लोगों के मुखको कौन बन्द करेगा ? ) अर्थात् कोई नहीं। [ दुनियां के लोग चाहे कुछ कहें सर्वान्तर्यामी देवता मेरो निष्कपट वृत्तिकी जानते हैं अतः मुझे लज्जित एवं दुःखित नहीं होना चाहिये ] // 125 // मम श्रमश्चेतनयानया फली बलीयसाऽलोपि च सैव वेधसा। न वस्तु देवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकर्तुमीश्वरः / / 126 / ममेति / मम श्रमो दूत्यप्रयासः अनया चेतनया स्वरूपनिगूहनबुद्धया फली सफलः स्यात् , बलीयसा बलवत्तरेण वेधसा देवेन सा चेतनेवालोपि नाशिता च। तथा हि-दैवस्य स्वरसात् स्वेच्छातो विनश्वरं वस्त्वयं सुरेश्वरः शक्रोऽपि प्रतिक नेश्वरो न शक्त इत्यर्थान्तरन्यासः। ईरशी भवितव्यतेति भावः // 126 // ___ इस चैतन्य ('मैं दूत हूं' ऐसे शान ) से मेरा परिश्रम (दूतकर्म ) सफल है, उस (चेतना) को बलवान् दैवने ही नष्ट कर दिया (देववश मेरा चैतन्य ही नष्ट हो गया, अन्यथा मैं अपना नाम कदापि प्रकाशित नहीं करता, अतः मेरा कोई अपराध नहीं है। क्योंकि ) देवेच्छासे नाशशील पदार्थको देवेन्द्र भी ठीक करनेके लिये समर्थ नहीं है तो मनुष्य होकर मैं कैसे ठीक कर सकता हूँ। [ अतः मुझे अपनेको कर्तव्यभ्रष्ट नहीं मानना चाहिये ] // 126 // इति स्वयं मोहमयोमिनिर्मितं प्रकाशनं शोति नैषधे निजम् / तथा व्यथामग्नतहिषीर्षया दयालुरागाल्लघु हेमहंसराट् // 127 / / - इतीति / इतीत्थं नैषधे नले मोहमयोर्मिणा अज्ञानविलसितेन निर्मितं निजमास्मीयं स्वयं प्रकाशनं स्वस्वरूपप्रकटिनं प्रति शोचति व्यथमाने सति दयालुहेमहं. सराट सुवर्णराजहंसः तथा व्यथामग्नस्य तस्य नलस्योदिधीर्षया उद्धर्तुमिच्छया, धरतेरुत्पूर्वात् समन्तात् स्त्रियामप्रत्यये टाप / लघ क्षिप्रमागादागतः॥ 127 // ___ इस प्रकार ( श्लो० 122-126 ) मोहरूपा महातरङ्गोंसे निर्मित ( अपने नामके) प्रकाशनको नलके सोचते ( उस विषयको लेकर पश्चात्ताप करते ) रहनेपर दयालु सुवर्णमय राजहंस उस प्रकारकी अनिर्वचनीय अर्थात बड़ी पीड़ामें फंसे हुए उस नलका उद्धार करने की इच्छासे शीघ्र आ गया / / 127 // Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। नलं स तत्पक्षरवोलवीक्षिणं स एष पक्षीति भणन्तमभ्यधात् / नयादयनामति मा निराशतामसन् विहातेयमतः परं परम् // 18 // नलमिति / स राजहंसः तस्य हंसस्य पक्षरवेण निमित्तेनोवं वीक्षत इति चीक्षिणं तथा एष स सर्वोपकारी पक्षीति भणन्तमेव नलमभ्यधात् अभिहितवान् / हे अदय ! निर्दय ! एनां दमयन्तीमतिनिराशतां नैराश्यं मा नय प्रापय। कुतः अतः परमियं परं केवलमसून प्राणान् विहाता विहास्यति / जहातेलट / तदेतत्प्राणत्राणकाक्षिणा त्वया नैवमाशाच्छेदः कार्य इत्यर्थः // 128 // ___ उस राजहंसने, उस ( राजहंस ) के पंखों के शब्दसे ऊपर देखनेवाले तथा यह वही पक्षी ( मेरा पूर्व परिचित ए परमोपकारी राजहंस ) है, ऐसा कहते हुए नलसे कहा कि तुम इस ( दमयन्ती) को प्राप्त ( स्वीकृत ) करो-हे निर्दय ! इस ( दमयन्ती) को अत्यन्त निराश मत करो ( क्योंकि यदि तुम इस प्रकार ( श्लो० 122-126 ) अपने नामको प्रकाशित करनेके लिए खेद करोगे तो) इसके बाद यह दमयन्ती केवल प्राणोंको ही छोड़ेगी अर्थात् मर जायेगी ( और इस कारण तुम्हें स्त्रीवधजन्य पाप लगेगा, अतएव अब इसे स्वीकार करनेको दया करो ) ( अथवा..."हे निर्दय ! 'अतिमा इयम् अनिराशताम्' अर्थात् अपनी शोभासे लक्ष्मीको जीतने वाली इस दमयन्तीको निराश मत करो। अथवा............"इसे स्वीकार करो / 'हे अतिम ! इयम् अनिराशताम्' अर्थात् 'अतिक्रान्त ( अत्यधिक ) शोभावाले नल ! इसे निराश मत करो'। तुम अत्यन्त सुन्दर हो और यह भी अत्यन्त सुन्दरी है; अतः योग्यका योग्यके साथ ही समागम होना उचित होनेसे इसे निराश न करो, स्वीकार करो। [अन्यथा तुम्हें पतिरूपमें प्राप्त नहीं करनेसे यह शीघ्र ही मर जायेगी और इसके विरहमें तुम भी अपना प्राण-त्याग कर दोगे; इस प्रकार दोनोंका जीवन व्यर्थमें चला जायेगा, अतः विकल्प छोड़कर अब तुम इसे स्वीकार करने की दिया करो // 128 // सुरेषु पश्यन्निजसापराधतामियत्ययस्यापि यदर्थसिद्धये।। न कूटसाक्षीभवनोचितो भवान सतां हिचेतःशुचितात्मसाक्षिका // 12 // सुरेष्विति / हे नल ! भवान् तदर्थस्य सुरकार्यस्य सिद्धये इयदेतावत् प्रयस्याप्यायस्यापि, यसु प्रयत्न इति धातोः समासे क्त्वो ल्यबादेशः। सुरेषु विषये निजां सापराधतामेव पश्यन् उत्प्रेक्षमाणः सन् कूटसाक्षीभवनस्य कपटसाक्षीभावस्य / अभूततन्द्रावे चिः। उचितो न अनपराधिन्यात्मपराधोत्प्रेक्षित्वमेव कूटसाक्षित्वं तत्ते अनुचितमित्यर्थः। तथा हि-सतां चेतःशुचिता चित्तशुद्धिः आत्मसाक्षिका स्व. प्रमाणिका हि / स्वयं प्रमितेऽथे किं विचारणयेत्यर्थः // 129 // ___ उन ( इन्द्रादि दिक्पालों ) के लिये इतना प्रयास करके भी देवताओं के विषयमें अपने अपराध ( मैंने दमयन्तीके सामने अपना नाम प्रकाशितकर देवताओं के साथ विश्वासघात Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 नैषधमहाकाव्यम् / किया, ऐसे अपने दोष) को देखते हुए आप कपटसाक्षी ( असत्य भाषण करनेवाला गवाह ) नहीं होते हो अर्थात तुम निष्कपट कार्यकर्ता ही होते होः क्योंकि सज्जनोंके मनकी शुद्धि (निष्कपटता) आत्मसाक्षिणी रहती है। [ सज्जन व्यक्ति कपटयुक्त व्यवहार करके दूसरेके मालूम नहीं होने पर भी अपने मनमें स्वयं ही लज्जित होते हैं / अतः तुम्हारा मन अपने कर्तव्यपालनसे शुद्ध है तो दूसरे लोगों के निन्दा या उपहास आदि करनेकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ] // 129 / / इतीरिणापृच्छच नलं विदर्भजामपि प्रमातेन खगेन सान्त्वितः / मृदुभाष भगिनी दमस्य स प्रणम्य चित्तेन हरित्पतीन्नृपः // 130 // इतीति / इतीरिणा इत्थंवादिना नलं विदर्भजामपि भैमी चापृच्छयामन्त्र्य प्रया. तेन प्रयाणप्रवृत्तेन खगेन हंसेन सान्वितो बोधितः स नृपश्चित्तेन हरित्पतीनिन्द्रादीन् प्रणम्य मृदुरार्दचित्तः सन् दमस्य भगिनीं बभाषे // 130 // उक्त प्रकार (श्लो० 128-129 ) से कहनेवाला तथा नल और दमयन्तीसे भी पूछकर ( अनुमति लेकर ) गये हुए पक्षी (हंस ) से आश्वासित वह राजा ( नल ) मनसे ( 'अब मेरा कोई कर्तव्य शेष नहीं है, अतएव आपलोग मुझे क्षमा करें। ऐसा मनमें ही कहते हुए ) दिक्पालों को प्रणामकर दयाल होते हुए दमयन्तीसे बोले-॥ 130 // ददेऽपि तुभ्यं कियतीः कदर्थनाः सुरेषु रागप्रसवावकशिनीः / अदम्भदत्येन भजन्तु वा दयां दिशन्तु वा दण्डममी प्रमागसा // 130 // दद इति / हे प्रिये सुरेषु विषये रागप्रसवे अनुरागजनने अवकेशिनीः बन्ध्या असमर्था इत्यर्थः। 'बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः। कियतीरियत्तारहिता इत्यर्थः / कदर्थनाः कुत्सनाः / अश्लीलप्रयोगानिति यावत् / तुभ्यं केवलं प्रियार्हाय इति भावः / ददेऽपि ददाम्यपि अतिगर्हितमाचरामीत्यर्थः / अपि गर्दायाम् / 'अपि सम्भावनाप्रश्नशकागर्हासमुचये' इति विश्वः / किञ्चैवं सति अमी देवाः अदम्भेना. कपटेन दूत्येन दूतकर्मणा / 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे' इत्यमरः / दयां वा भजन्तु आगसा अपराधेन मम दण्डं दण्डनं वा दिशन्तु, इतः परमिमां तु न कदर्थयामीति भावः // 31 // देवोंमें अनुरागको उत्पन्न करने में वन्ध्य अर्थात् निष्फल, तुम्हें भी कितनी ( अधिक परिमाणयुक्त ) पीडा दूँ ? (इन्द्रादि देवोंके विषय में इतना अधिक कहनेपर भी तुममें उनके प्रति अनुरागाङ्कर उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत तुम्हें और मुझे भी पीडा होती है, अतएव अब देवताओमें अनुरागकर उन्हें वरण करनेके लिये कोई भी बात कहकर तुम्हें पीडित नहीं करूँगा), निष्कपट दूतता करनेसे ये ( इन्द्रादिदेव ) मुझपर दया करें अथवा मेरे अपराधों ( कार्यसिद्धि नहीं करनेसे मेरे दोषों ) का दण्ड दें। [ देवलोग निष्कपट दूतकार्य करके भी मेरे असफल होनेपर यदि दया न करके मुझे अपराधी समझकर दण्ड Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 56 देंगे, उसे मैं सहन कर लूंगा, किन्तु देवोंके वरण करनेके विषयमें कुछ भी कहकर तुमें दु:खित नहीं करूँगा) // 131 // अयोगजामन्वभवं न वेदनां हिताय मेऽभूदियमुन्मदिष्णुता / उदेति दोषादपि दोषलाघवं कशत्वमज्ञानवशादिवैनसः / / 132 // अयोगजामिति / इयमुन्मदिष्णुता उन्मत्तता। "अलङ कृम्" इत्यादिना इष्णुः प्रत्ययः / मे हितायोपकारायाभूत् / कुतः, अयोगजां वियोगोत्था वेदनां नान्व. भवम् / तथा हि-अज्ञानवशात् अज्ञानबलादेनसः पापस्य कृशत्वं ज्ञानकृतापेक्षयारूपत्वमिव दोषादुन्माददोषादपि दोषस्य वियोगदुःखस्य लाघवमरूपत्वमुदेति नस्मादोषोऽपि कदाचिदुपकरोतीति भावः // 132 // ___ यह उन्मादशीलता भी मेरे हित के लिए हुई, ( क्योंकि मैंने ) विरहजन्य वेदनाको नहीं पाया ( उन्मादीको किसीके प्रियाप्रियके कारण पीड़ा नहीं होती, अतः मुझे भी उन्मादसे जो पीडाका अनुभव नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ)। अज्ञान के कारण पापके लाघवके समान (एक) दोपके कारण भी ( दूसरे) दोषका लाघव होता है / [जानकारीमें पाप करनेसे जितना दोष लगता है, उतना दोष अजानकारी में पाप करनेसे नहीं लगता, अतएव एक दोषसे भी दूसरे दोषमें अपेक्षाकृत कमी होती ही है। प्रकृतमें-यदि मुझे उन्माद नहीं होता तो मुशे और अधिक पीड़ा होती, उन्गाद होना मेरे लिए अच्छा ही हुआ ] // 132 // तवेत्ययोगस्मरपावकोऽपि मे कदर्थनात्यर्थतयागमयाम् : प्रकाशमुन्माद्य यदद्य कारयन्मयात्मनो मामनुकम्पते स्म सः // 13 // तवेति / हे प्रिये ! इतीत्थं तव कदर्थनानां मदीयाप्रियोक्तिरूपकुत्सनानामत्यर्थः तया अत्याधिक्येन हेतुना मे मम सम्बन्धी अयोगे.यः स्मरपावकः कामाग्निः सोऽपि दयामगमत् दयालुरभूदित्यर्थः / यद्यस्मादद्य स कामाग्निः (प्रयोजककर्ता) उन्माद्य मामुन्मत्तं कृत्वा मया प्रयोज्येन आत्मनो मत्स्वरूपस्य प्रकाशं प्रकाशनं कारयन स्वामनुकम्पते स्म / तस्मात् कामाग्नेरपि दयोत्पन्नेत्युत्प्रेक्षा / किं बहुना उन्मादप्र. सादात उभावप्यावां कृतार्थों स्व इति तात्पर्यार्थः // 133 // तुम्हारी ( मेरे द्वारा कहे गये अप्रिय वचनोंसे उत्पन्न ) पीड़ाके आधिक्यसे मेरे विरहा. नलने मी दया की, क्योंकि मुझे उन्मादितकर वह विरहानल मुझसे अपना अर्थात् नलका प्रकाशन करता हुआ तुम्हें अनुकम्पित करता है। [त्वद्विषयक विरहानल यदि मुझे पीडित नहीं करता तो मैं न तो उन्मादित ही होता और न अपने स्वरूपका ( 'मैं नल हूँ' इस प्रकार ) प्रकाशन ही करता, इस अवस्थामें मेरे विरहसे तुम मर जाती और तुम्हारे बिना मैं भी मर जाता, इस कारण विरहानलने अधिक पीड़ा देनेसे मुझे उन्मादितकर जो मेरे स्वरूपको मुझसे ही प्रकाशित कराया ( मेरा नाम मुझसे ही कहलवाया), वह उसने Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 नैषधमहाकाव्यम्। 'अपने प्रिय नलको मैं प्राप्त कर लूगी' ऐसा निश्चय होनेसे तुम्हारे प्राण बच जायेंगे और तुम्हारे प्राण बच जानेसे मेरे भी प्राण बच जायेंगे, अतएव विरहानलने मुझे पीडाधिक्यसे उन्मादितकर तथा मेरे नामको प्रकाशित कराकर बड़ी दया की ] // 133 // अमी समीहै कपरास्तवामराः स्वकिङ्करं मामपि कर्तुमीशिषे / विधार्य कार्य सृज मा विधान्मुधा कृतानुतापस्त्वयि पाणिविग्रहम / / अमी इति / अमी अमरास्तव समीहायां त्वत्कृतानुरागे एकपरा एकाग्रास्ते च स्वामपेक्षन्ते इत्यर्थः / त्वञ्च मामपि स्वकिङ्करं निजदासं कर्तुमीशिषे शक्नोषि अपि शब्दात्तानपीत्यर्थः / “ईशः से" इतीडागमः / किन्तु विचार्य विमृश्य कार्य सृज उत्पादय / अतः अनुतापः पश्चात्तापः कृतः सन् त्वयि पाणिविग्रहं पाणिग्राहककृत्यं मुधा माविधात् माकार्षीत् / अविमृश्यकरणात्पश्चात्तापस्ते मा भूदित्यर्थः। विपूर्वा. इधातेलुङि "न माड्योग" इत्यडभावः // 134 // ___ ये देव तुम्हारी अभिलाषामें ही तत्पर है अर्थात् ये देव ही तुम्हें चाहते हैं, तुम उन्हें नहीं चाहती, तुम मुझे भी ( 'भी' शब्दसे देवोंको भी वरणकर ) अपना दास बनानेके लिये समर्थ हो अर्थात् 'मैं तुममें अनुराग नहीं करता' यह बात नहीं है, किन्तु मैं तुम्हें यद्यपि चाहता हूँ तथापि मेरा अनुराग अप्रयोजक है, ( देवोंको या मुझे पतिरूपमें वरणकर दास बनानेमें तुम स्वतन्त्र हो, अतएव अब ) विचार कर कार्य करो, जिससे तुझे किये गये वरणरूप कार्यका पश्चात्ताप बादमें विरोध न करे / [ देवोंको वरण करनेपर में नलको ही वरण करती तो अच्छा होता ऐसा तथा मुझे वरण करनेपर 'मैं देवोंको वरण करती तो अच्छा होता' ऐसी व्यर्थमें पश्चात्ताप न होवे, इस कारण सोचकर कार्य करो / इसी प्रकार देवोंमें भी इन्द्रको वरणकर मैं यम अग्नि, वरुण तथा नलमें-से किसीको वरण करती तो अच्छा होता इत्यादि सबके सम्बन्धमें कल्पना कर लेनी चाहिये ] // 134 // उदासितेनेव मयेदमुद्यसे भिया न तेभ्यः स्मरतानवान्नवा / हितं यदि स्यान्मदसुव्येन ते तदा तव प्रेमणि शुद्धिलब्धये / / 135 / / एतच्च माध्यस्थेनैवोच्यते न तु पक्षपातेनेत्याह-उदासितेनेति / उदासितेनौ. दासीन्येन माध्यस्थ्यैनैवेत्यर्थः, भावे क्तः कर्तरि वा / उदासितेन मध्यस्थेनैव मया इदं पूर्वोक्तमुद्यसे / वदेः कर्मणि लटि यकि, “वचिस्वपी" त्यादिना सम्प्रसारणम् / तेभ्यः सुरेभ्यो भिया वा स्मरतानवात् कामप्रयुक्तकााद्वा न। युवादित्वादग्प्र. त्ययः / तस्माद्विमृश्य कुर्विति भावः। अथ विमृश्यैव कुर्वे त्वद्वरणमेवेति निश्चयस्त. वाह-मदसुव्ययेन मत्प्राणसमर्पणेन ते तव हितं पथ्यं प्रियं यदि स्यात् / तदा मत्प्रा. णसमर्पणमिति शेषः / तव प्रेमणि विषये शुद्धिलब्धये आनृण्यलाभाय भवति / त्वत्कृतानुरागोपकारस्य प्राणसमर्पणमेव प्रत्युपकार इति भावः // 135 // मैं मध्यस्थ अर्थात् तटस्थ होकर ही यह ( इलो० 134 ) वचन तुमसे कहता हूँ, उन Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। ( देवों ) के भयसे नहीं, या कामदौर्बल्यके कारण ( अथवा-काम दौर्बल्यके भय ) से नहीं; यदि मेरे प्राणों के व्यय ( मरने ) से भी तुम्हारा हित हो तो ( वह मेरा मरण ) तुम्हारे प्रेममें शुद्धि पाने ( अनृण होने ) लिए होवे / [ मैंने पूर्ववचन किसी पक्षपातसे, देवोंके भयसे या अपनेमें कामकी शिथिलता होनेसे नहीं कहा है किन्तु तटस्थतासे ही कहा है कि 'देवों तथा मुझमें से किसी एकको वरण करो'। हां, तुम यह भी मत चिन्ता करो कि यदि मैं इनको ( नलको') नहीं वरण करूंगा तो मर जायेंगे, क्योंकि यदि मेरे मरनेसे तुम्हारा हित हो तो उस लिये मैं सहर्ष तैयार हूँ। अर्थात् मैं अपने प्राणोंसे तुम्हारा हित चाहता हूँ, क्योंकि ऐसा करनेसे मैं तुम्हारे प्रेमका ऋणी नहीं रहूंगा ] // 135 / / 'इतीरितैनषधस॒नृतामृतविदर्भजन्मा भृशमुल्ललास सा / तोरधिश्रीः शिशिरानुजन्मनः पिकस्वरैदूरविकस्वरैर्यथा // 136 / / इतीति / इतीथमीरितैरभिहितेनैषधस्य नलस्य सूनृतैः सत्यप्रियवाक्यैरेवामृतैः सा विदर्भजन्मा वैदर्भी शिशिरमनु जन्म यस्य तस्य शिशिरानुजन्मनः शिशिरा. नन्तरभाविनः ऋतोर्वसन्तरिधिका श्रीर्दूरविकस्वरैरतिश्लाध्यैः पिकस्वरैर्यथा कोकिलकूजितैरिव भृशमुल्ललास जहर्ष / अत्र सूनृतानामुपमानभूतकोकिलालापवत्तादा. त्मिकत्वेनातिश्राव्यस्वद्योतनाथ वसन्तस्य शिशिरानुजन्मत्वेन व्यपदेशः // 136 // ____ इस प्रकार ( श्लो० 131-135 ) कहे गये पाठा०-ऐसे इन नलके सत्य तथा अमृत. वत् प्रिय वचनोंसे वह विदर्भकुमारी दूर तक पहुँचनेवाले कोयलके स्वरोंसे वन्सतऋतुकी अधिक शोभाके समान अत्यन्त हर्षित हुई / [ नलका मुझमें अनुराग है, देवोंसे यह डरते नहीं, ये नल ही है, इत्यादि कसे ?"नी हर्षित हुई पिकस्वर के साथ नल वचनकी तथा वसन्तश्रीके साथ दमयन्तीकी उपमा देनेसे नलके वचनका पिकस्वर के समान मदनोहीपक एवं मधुर होना और दमयन्तीका वसन्त ऋतुकी विशिष्ट शोमाके समान प्रिय होना ध्वनित होता ] // 136 // नलं तदावेत्य तमाशये निजे घृणां विगानञ्च मुमोच भीमजा। जुगुप्समाना हि मनो दूतं तदा सतीधिया देवतदूतधावि सा / / 17 / / ___ नलमिति / तदा नलस्य स्वरूपगोपनकाले देवतदूते धावति प्रवर्तत इति देवतदूतधावि यथा तथा द्रुतं मनः सतीधिया पतिव्रतात्वाभिमाननेन हेतुना जुगुप्समाना बीभत्समाना भीमजा तदा नलस्य स्वरूपकथनकाले तं दूतं नलमवेत्य बुद्ध्वा निजे आशये घृणां परपुरुष इति जुगुप्सां विगानमात्मनिन्दां च मुमोच // 137 // ___ उस समय ( नलके अपने स्वरूपको छिपाने के समय ) देव-समूहके दूतकी तरफ दौड़नेवाले अर्थात् 'यह देवोंका दूत है' ऐसा समझनेवाले मनको सती बुद्धिसे जुगुप्सित करती हुई ( 'सती मैं देवदूत इस पुरुषसे सम्भाषण कैसे करू' इस प्रकार जुगुप्सित करती 1. "इतीहशैः" इति पाठान्तरम् / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 नैपषमहाकाव्यम् / हुई, पाठा०-सतीबुरिसे बलात्कारसे लौटाती हुई) उस भीमकुमारी दमयन्तीने उस समय ( नलके भात्मस्वरूपको प्रकट कर देनेपर ) उसे (उस दूतको ) नल जानकर अपने मनमें जुगुप्सा और निन्दाको छोड़ दिया / [ यह मन स्वभावतः बुरा है, इस कारण यह जुगुप्सा तथा अनुचित करनेवाला है, ऐसी निन्दा उत्पन्न हुई थी, अथवानलको पानेकी आज्ञा न रहनेसे शरीरमें घृणा और सतीका परपुरुष उसमें भी कामुकों के दूतके साथ सम्भाषण करनेसे निन्दा उत्पन्न हुई थी। दमयन्तीने नलभिन्न देवदूतके प्रति अपने मनके अनुगमन करनेसे उस मनके विषयमें पहले जुगुप्सा तथा अनुचित कर्ता होनेसे निन्दा की, किन्तु नलके निश्चय होनेके बाद 'इस नलमें जो मेरा मन अनुरक्त हुआ' यह उत्तम ही हुआ इस कारण हर्षित हुई ] // 137 // मनोभुवस्ते भावतां मनः पिता निमब्जयन्नेनसि तन्न लज्जसे / अमुद्रि सत्पुत्रकथा त्वयेति सा स्थिता सती मन्मानन्दिनी धिया / / मनोभुव इति / हे मन्मथ ! मनोभुवो मनोजन्यस्य ते भाविनां संसारिणां मनः पिता, तत् पितरं मनः एनसि एवं दुश्चिन्तापापे निमजयन लज्जसे / त्वया एवं पितृद्रोहिणा सत्युत्राणां कथा पितृनकताख्यातिरमुद्रि मुद्रिता निवारिता इत्येवं सा भैमी धियान्तःकरणेन मन्मथनिन्दिनी सती स्थिता / तूष्णीं स्थिता सती कथधित् किश्चिदुवाचेत्यर्थः // 138 // (सती दमयन्ती कामसे कहती है कि-) मनोभू अर्थात् मनसे उत्पन्न होनेवाले तुम्हारा पिता प्राणियोंका मन है, उसे (पितृस्थानीय मनको) पाप (परपुरुषाभिलाषरूप पाप) में डुबाते अर्थात् लगाते हुए तुम लज्जित नहीं होते ? अर्थात् ऐसा अनुचित कार्य करते हुए तुम्हें. लज्जा आनी चाहिए / तुम अर्थात् तुम्हारे-जैसे कुपुत्रोंने सुपुत्रोंकी कथा ( उत्तम पुत्रोंसे पिता पुण्यलोकको प्राप्त करते हैं, ऐसी कथा ) को समाप्तकर किया है / इस प्रकार बुद्धिसे कामदेवकी निन्दा करती हुई पतिव्रता वह दमयन्ती स्थित हुई ( नलके निश्चय हो जानेपर कामदेवकी निन्दा करनेसे विरत हुई,-कुछ बोली ) // 138 // प्रसनमित्येव तदङ्गवणना न सा विशेषात् कतमदित्यभूत् / तदा कदम्ब निरवर्णि रोमभिमुदश्रणा प्रावृषि हर्षमागतः // 139 / / प्रसूनमिति / सा प्रसिद्धा तदङ्गवर्णना भैमीशरीरस्तुतिः प्रसूनं सामान्यतः पुष्पमेवाभूत् , किन्तु तत्प्रसून कतमत् किंजातीयमिति विशेषात् विशेषोल्लेखाचाभूत् / सस्काले मुदश्रुणा प्रावृषि वर्षासु आनन्दवाप्पवर्षे सतीत्यर्थः / हर्ष विकासमागतः प्रावृषेण्यत्वात् कदम्बकुसुमविकासस्येति भावः / लोमभिः लोमव्याजेनेत्यर्थः / कदम्बं कदम्बकुसुममिति निरवर्णि निरैक्षि प्रत्यक्षेणैवालक्षीत्यर्थः / 'निर्वर्णनन्नु निध्यानं दर्शनालोकनेक्षणम्' इत्यमरः / तदा पुलकितं तदङ्गं बालकदम्बकल्पमासी. दित्यर्थः / एतच "स्तम्भप्रलयरोमाश्याः स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू। अश्रुवैस्वर्यमित्यष्टौ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। सात्त्विकाः परिकीर्तिताः // " इत्युकसकलसाविकोपलपणमिति द्रष्टव्यम् / तदस्य कदम्बाभेदोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 39 // (पहले ) 'पुष्प है। इतना ही दमयन्तीके शरीरका वर्णन हुआ, वह पुष्प कौन-सा (किस नामका ) है ?, इस प्रकार विशेष रूपसे वह ( दमयन्तीके शरीरका वर्णन ) नहीं हुआ / तब ( नलका निश्चय हो जानेपर हर्षाश्रुसे वर्षा ऋतुके होनेपर हर्षित रोमाञ्चों से अर्थात् दमयन्तीके हर्षाश्रु गिरने के बाद रोमाञ्च युक्त होनेपर) वह पुष्प 'कदम्ब' हैं, यह वर्णन हुआ। [ वर्षाकालमें कदम्ब पुष्पको विकसित होनेसे हर्षाश्रुके बाद रोमाञ्चित दमयन्तीशरीरको कदम्ब पुष्प माना गया है ] // 139 // मयव सबोध्य नलं व्यलापि यत्स्वमाह मद्बुमिदं विमृश्य तत् / असाविति 'भ्रान्तिमसाइमस्वसुः स्वभाषितस्वोभ्रमविभ्रमक्रमः // 140 / मयेति / मया नलमेव सम्बोध्य व्यलापीति यत् तदिदं मद्विलपितं विमृश्या. लोच्यासो नलः मबुद्धं स्वसम्बोधनलिङ्गेन मया ज्ञातमेव स्वमात्मानमाह / 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वम्' इत्यमरः / अनया ज्ञातस्य मे किं गोपनेनेति मत्वा नलोऽहमिति कथितवानित्यर्थः / आहेति भूते जलन्तभ्रमादिति वामनः / अत्र तु वर्तमान सामीप्यादा गतिरिति / दमस्वसुः या भ्रान्तिस्तां भ्रान्तिमसो नलः स्वेन भाषितः कथितः स्वोभ्रमविभ्रमाणां स्वोन्मादविलसितानां क्रमः 'अये प्रिये' इत्यादिश्लोकोक्तप्रकारो येन स सन् असात् असासीत् अच्छेत्सीदित्यर्थः। स्यतेलङि "विभाषा घ्राधेटशाच्छासः" इति वा सिचो लुक / उन्मादादात्मप्रकाशनमिति नलवाक्यादे. वावगमात्तु स्वेन ज्ञात्वा दूतभ्रान्तिनिवृत्तेत्यर्थः // 140 // मैंने अर्थात् दमयन्तीने ही नलको सम्बोधितकर (इलो० 97-100 ) जो विलाप किया और इस नलने उस (विलाप ) को मुझसे जाने गये अपनेको ( दमयन्तीने मुझे पहचान लिया तभी मुझे नाम लेकर सम्बोधित कर रही है, ऐसा मानकर अपनेको ) जो प्रकाशित किया (इलो० 103-120), ऐसे दमयन्तीके भ्रमको, स्वयं (नल द्वारा ही) बतलाये गये ( श्लो० 122-126 ) हैं अपने उन्मादविलास ( अथवा-उन्माद तथा बिलास ) जिसके द्वारा ऐसे नलने दूर ( पाठा०-कम ) कर दिया [ 'मुझसे पहचाने गये अपने (नल ) को जानकर ही नलने मेरे सामने अपनेको प्रकट किया, ऐसे भ्रमको दमयन्तीने छोड़ दिया ] // 140 / / विदर्भराजप्रभवा ततः परं त्रपासखी वक्तुमलं न सा नलम् / पुरस्तमूचेऽभिमुखं यदत्रपा ममज्ज तेनैव महाहदे ह्रियः / / 141 / / विदर्भेति / सा विदर्भराजप्रभवा वैदर्भी ततः परं नलोऽयमिति ज्ञानानन्तरं पायाः सखी लज्जिता सती नलं वक्तुं साक्षात् सम्भाषितुं नालं न शशाक / कुतः, 2. "-मशा-" इति पाठान्तरम् / Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 नैषधमहाकाव्यम् / पुरः पूर्वमनपा निम्रपा सती तं नलमभिमुखं यथा तथा उच इति यत् तेनैव हेतुना हियो महादे महति लजाद इत्यर्थः / घटस्य रूपमितिवत् कथचि दनिर्देशः। ममज्ज मन्ना // 141 // इसके बाद लज्जित विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) नलसे अधिक नहीं बोल सकी, क्योंकि उस नलके आगे लज्जारहित होकर (नलका परिचय नहीं होनेसे ) सङ्कोचको छोड़कर जिस कारणसे बोली, उस कारणसे ही लज्जाके महारुद ( विशाल तडाग ) में अर्थात् लज्जारूपी महातडागमें डूब गयी। [ पुरुषका यथार्थ परिचय नहीं रहनेपर पहले बहुत बढ़-चढ़कर उससे बातें करना और बादमें परिचय होते ही अत्यन्त लज्जित होना त्रियों का स्वभाव होनेसे दमयन्तीका भी अत्यन्त लज्जित होना उचित ही है ] // 141 / / यदापवार्यापि न दातमुत्तरं शशाक सख्याः श्रवसि प्रियाय सा / विहस्य सख्येव तमब्रवीत्ता हियाधुना मौनधना भवप्रिया / / 142 / / यदेति / सा भैमी, यदा अपवार्य व्यवधायापि सख्याः श्रवसि श्रोत्रे प्रियायोत्तरं दातुं न शशाक तदा सख्येव विहस्य तं नलमब्रवीत् / किमिति अधुना भवप्रिया भैमी ह्रिया मौनधना बद्धमौना, न तु वैराग्याद्वेषाद्वेति भावः // 142 // जब वह ( दमयन्ती ) कोई आड़ करके ( पर्दा करके या कुछ मुखको तिर्छा करके अर्थात् नलकी दृष्टि से छिपाकर ) भी सखीके कान में नलका उत्तर नहीं कह सकी; तब हंसकर सखीने ही कहा कि-"आपकी प्रिया इस समय लज्जासे मौनधना [ मौन ही है धन जिसका ऐसी अर्थात् मौन धारण करनेवाली ( लज्जासे चुप ) हो गयी है ] // 142 // पदातिथेयांल्लिखितस्य ते स्वयं वितन्वती लोचनानमरानियम् / जगाद यां सैव मुखान्मम त्वया प्रसनबाणोपनिषनिशम्यताम् / / 143 / / ___ पदेति / इयं भवप्रिया लिखितस्य चित्रगतस्य ते पदयोरातिथेयानतिथिषु साधून् पाद्यभूतानित्यर्थः / “पथ्यतिथिवसतिस्वपतेढा"। लोचननिर्झरान् बाप्पा पूरान् वितन्वती यां प्रसूनबाणोपनिषदं कामरहस्यं जगाद त्वंदागमात् प्रागिति शेषः / सैव प्रसूनबाणोपनिषन्मम मुखात् त्वया स्वयं निशम्यतां श्रयताम् // 143 // अविरल बहते हुए आंसुओंको (चित्रादिमें ) लिखे गये आपके चरणोंका आतिथव ( अतिथिके विषयमें सद्व्यवहारी ) बनाती हुई अर्थात् चित्रादिमें लिखित आपके चरणों में गिरकर बहुत रोती हुई इस दमयन्ती ने जिस (कामोपनिषद् अर्थात् कामविषयक सत्यवचन) को कहा है, उसी कामोपनिषद को मेरे मुखसे सुनिये-[ में स्वकपोलकल्पित कुछ नहीं कर रही हूं, जो कुछ कह रही हूं, वह उपनिषदचनके समान सत्य वचन है; अतः उसे आपको सुनना और उसपर विश्वास करना चाहिये ] // 143 // असंशयं स त्वयि हंस एव मां शशंस न त्वद्विरहाप्तसंशयाम् / क चन्द्रवंशस्य वतंस ! मद्वधान्नृशंसता संभविनी भवारशे / / 144 / / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 545 असंशयमिति / हे चन्द्रवंशस्य वतंसावतंस ! “वष्टि वागुरिरखोपमवाप्योरुप. सर्गयोः" इत्यकारलोपः / स हंसः त्वद्विरहेणाप्तसंशयां प्राप्तप्रायसन्देहां मां त्वयि विषये न शशंसैव असंशयम् / अन्यथा भवादृशे स्वद्विधे “त्यदादिषु" इत्यादिना कञ्प्रत्ययः। “आ सर्वनाम्न" इत्याकारादेशःमद्वधा तोर्नृशंसता घातुकत्वं स्त्रीवध. पातकित्वमिति यावत् / 'नृशंसो घातुकः करः' इत्यमरः / क सम्भविनी सम्भवति न कापि सम्भवितेत्यर्थः / सज्जनस्य दयानिधेस्तव नेहकार्य युक्तमिति भावः॥१४४॥ हे चन्द्रवंशके भूषण ( नल ) उस हंसने ही तुमसे तुम्हारे वियोगसे प्राणसंशयको प्राप्त इस दमयन्तीको प्रायः कहा है, किन्तु आप-जैसे ( कुलीन तथा शूरवीर व्यक्ति ) में ऐसी ( अवर्णनीय ) क्रूरता कहांसे सम्भव है ? अर्थात् कदापि नहीं सम्भव है / [ एक सामान्य व्यक्ति भी किसी सामान्य व्यक्तिको मारनेकी इच्छा नहीं करता तो आप-जैसे शूरवीर तथा कुलीन आदमी स्त्रीवधरूपी कर कार्य करे यह कदापि सम्भव नहीं है; अतः इसमें आपका कोई दोष नहीं है ] // 144 / / जितस्त्वयास्येन विधुः स्मरः श्रिया कृतप्रतिज्ञौ मम तौ वधे कुतः। तवेति कृत्वा यदि तन्जितं मया न मोघसङ्कल्पधराः किलामराः // 14 // जित इति / विधुश्चन्द्रस्त्वया आस्येन जितः / स्मरः श्रिया सौन्दर्येण जितः। कुतः कारणात् तौ विधुस्मरौ मम वधे कृतप्रतिज्ञौ त्वयि जेतरि स्थिते निरपराधां मां किमिति मारयत इत्यर्थः / अथ तवेति त्वदीयेति कृत्वा यदि तत्तहिं मया जितं त्वां विना जीवनाभावात् मरणमेव मे प्रियमित्यर्थः / सेत्स्यति चैतदित्याह-अमरा मोघसङ्कल्पस्य धरन्तीति धराः, “पचाद्यच" न किल / सत्यसङ्कल्पाः खलु देवाः, देवौ च विधुस्मराविति भावः / अत्र नलापकारासमर्थयोर्विधुस्मरयोस्तदीयजनाप. कारकथनात् प्रत्यनीकालङ्कारः / “बलिना प्रतिपक्षस्य प्रतीकारे सुदुष्करे / यस्तदीयतिरस्कारः प्रत्यनीकं तदुच्यते // " इति लक्षणात् // 145 // तुम्हारे मुखने चन्द्रमाको तथा शोभाने कामदेवको जीत लिया है, वे दोनों मेरे बधके लिये क्यों प्रतिज्ञा किये हुए है ? 'यदि मैं तुम्हारी हूं' ऐसा समझकर ( वे चन्द्रमा तथा कामदेव ) मुझे सता रहे हैं तो मैंने जीत लिया, देवतालोग असफल सङ्कल्पको नहीं धारण करते / [ तुम्हारे मुख तथा शोभाने या तुमने उन चन्द्रमा तथा कामदेवके साथ विरोध किया है, परन्तु वे दोनों निरपराध मुझे क्यों सता रहे हैं ? कहो / जिस प्रकार विजित व्यक्ति विजेता व्यक्तिको नहीं सता सकने के कारण उसके आश्रित अन्य व्यक्तियों को सताया करता है, उसी प्रकार यदि तुम्हारे मुख तथा शोभासे विजित क्रमशः चन्द्रमा तथा कामदेव तुम्हें सताने में असमर्थ होनेसे तुम्हारा जानकर मुझे सता रहे हैं तो यह बात मुझे परम हर्ष देनेवाली है, अतः मैंने भी जीत लिया, क्योंकि देवता मनमें कभी असफल या असत्य बात नहीं धारण करते अर्थात् 'सत्यसङ्कल्पधारी देवता भी मुझे तुम्हारा मानते हैं' यह मेरे लिये बड़ी प्रसन्नताका विषय है ] // 145 // Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषषमहाकाव्यम् / निजांशुनिर्दग्धमदङ्गभस्मभिर्मुधा विधुर्वाञ्छति लान्छनोन्मृजाम् | त्वदास्यतां यायात तावतापि किं वधूवषेनैव पुनः कलङ्कितः // 146 // निजेति / विधुश्चन्द्रः निजैरंशुभिः निर्दग्धस्य मदङ्गस्य मच्छरीरस्य भस्मभिर्लान्छनोन्मजां स्वकलङ्कपरिमार्जनम्, "षिद्भिदादिभ्योऽ”। मुधा वृथैव वान्छति, नलमुखसान्यार्थमिति शेषः / तथा हि-हे प्रिय ! वधूवधेन मधपातकेनैव पुनः कलङ्कितः सन् तावतापि मदङ्गभस्मनोन्मार्जनेनापि त्वदास्यतां त्वत्तुल्यतामित्यर्थः / यास्यति प्राप्स्यति किम् ? न यास्यत्येवेत्यर्थः / अत्र विधोनलास्यसाम्याय भेम्यङ्ग. भस्मभिः स्वकलङ्कमार्जनाद्वधूवधकलङ्कप्राप्तिकथनादनर्थोत्पत्तिरूपो विषमालङ्कारः॥ __ चन्द्रमा अपने किरणोंसे बिलकुल जलाये गये मेरे शरीरके भस्मोंसे ( अपने ) लान्छन को मार्जित ( भस्मसे रगड़कर कलङ्कको दूर ) करना व्यर्थमें ही चाहता है, क्योंकि स्त्रीवधसे पुनः कलङ्कित ( वह चन्द्रमा) उतनेसे भी तुम्हारे मुखश्रीको प्राप्त करेगा क्या ? अर्थात् कदापि नहीं प्राप्त करेगा। [जिस प्रकार लोकमें कोई व्यक्ति भस्मसे रगड़कर बर्तन आदिके धब्बेको दूर करना चाहता है, उसी प्रकार चन्द्रमा मी मुझे जलाकर उस मेरे शरीर के भस्म से अपना कलङ्क दूरकर तुम्हारे मुखकी शोभाको पाना चाहता है, किन्तु वह मेरे शरीरके भस्मसे अपने कलङ्कको उक्त प्रकारसे दूर कर लेने पर भी स्त्री का वध करनेसे पुनः कलङ्कित हो जायेगा अतः तुम्हारे मुखको शोभाको वह चन्द्रमा कदापि नहीं पा सकता / चन्द्रमा मुझे मरणान्त पीडा दे रहा है ] // 146 // प्रसीद यच्छ स्वशरान् मनोभुवे स हन्तु मां तैधुतकौसुमाशुगः / त्वदेकचित्ताहमसून विमुखती त्वमेव भूत्वा तृणवज्जयामि तम् / / 14 / / प्रसीदेति / हे प्रिय ! प्रसीद स्वशरान्मनोभुवे कालाय यच्छ देहि / “पाघ्रा"दिना दाणों यच्छादेशः / स कामो धुतकौसुमाशुगः त्यक्तकुसुमबाणस्तैस्वच्छरेमा हन्तु हिनस्तु / तस्योपयोगमाह अहं त्वय्येकस्मिंश्चित्तं यस्याः सा सती असून् प्रणान् विमुञ्चती त्यजन्ती, "आच्छीनद्यो म्" इति विकल्पान्नुमभावः / अत एव त्वमेव भूत्वा, 'यं यं वापि स्मरन् भावम्' इत्यादिगीताप्रामाण्यादिति भावः / तं कामं तृणवत्तणतुल्यं जयामि जेष्यामीत्यर्थः / आशंसायां वर्तमानवत्प्रत्ययः // 147 // प्रसन्न होवो, अपने बालों को कामदेवके लिए दों, वह कामदेव अपने ( कोमल ) पुष्पके बाणों को हटाकर उन ( लोहमय तथा अतितीक्ष्ण आपके बाणों ) से मुझे मार डाले / तुम्हारे (ध्यान ) में परायण में प्राणोंको छोडती हुई नल ( नलरूप ) हो होकर उस ( काम ) को तृणके समान ( अतिसरलतासे ) जीत लूगी / [ कामदेव मुझे पुष्पमय वाणों से पीडित कर रहा है, मार नहीं रहा है, अतः यदि तुम लोहमय तथा अतितीक्ष्ण अपने बाण कामदेवको दे दोगे तो वह अपने अल्पसार पुष्पमय बाणोंसे मुझे पीडित करना छोड़कर आपके दिये हुए उन बाणोंसे मझे शीघ्र मार डालनेमें समर्थ होगा और इस प्रकार मरने के Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। समय तुम्हारे में संलग्न चित्तवाली में त्वद्रुप ( नल हो ) हो जाऊँगी और फिर सरलतासे तृणतुल्य कामदेवको जीतकर उससे बदला चुका लूंगी। कामदेव मुझे अत्यन्त पीडित कर रहा है, अत एव ऐसे मरना अच्छा है ] // 147 // श्रुतिः सुराणां गुणगायनी यदि त्वदनिमग्नस्य जनस्य किं ततः / स्त वे रवेरप्सु कृताप्लवैः कृते न मुद्धती जातु भवेत् कुमुदती / / 148 / / ननु श्रतयोऽपि देवानेव गायन्ति किमिति तत्तेषु वेदवेधेषु विगानमत आहश्रुतिरिति / श्रुतिवेदोऽपि सुराणां गुणगायनी गुणस्तोत्र्येव यदि, कर्तरि ल्युट् , टित्त्वात् डीए / स्वदवौ मग्नस्य स्वच्चरणकशरणस्य जनस्य स्वस्येत्यर्थः। ततः किं तैर्देवैः कोऽर्थः इत्यर्थः / तथा हि-अप्सु कृताप्लवैः कृतावगाहैः जनैः रवेरकस्य स्तचे स्तोत्रे कृते सति कुमुदान्यस्यां सन्तीति कुमुदती कुमुदिनी, "कुमुदनडवेतसेभ्यो डमतुप" टिलोपे जीप / जातु कदापि मुदस्यास्तीति मुदती मोदवती विकासवती न भवेत् , कथमपीति शेषः / दृष्टान्तालंकारो लक्षणन्तूक्तम् // 148 // वेद यदि देवोंका गुणगान करते हैं तो तुम्हारे चरणों में लीन उन वेदोक्त गुणगानों या देवों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं / जलमें स्नान किये हुए (ब्राह्मण आदि) के सूर्यकी स्तुति करनेपर कुमुदती कभी भी नहीं हर्षित होती। [ जो जिसमें मग्न है, उसके गुणगानसे उसे प्रसन्नता होती है, अतः तुममें मग्न में वेदस्तुत देवों को भी नहीं चाहती हूँ | कथासु शिष्ये वरमद्य न ध्रिये ममावगन्तासि न भावमन्यथा / स्वदर्थमुक्तासुतयाशु' नाथ मां प्रतीहि जीवाभ्यधिक ! त्वदेकिकाम् / / कथास्विति / हे नाथ ! कथासु शिष्ये कथामात्रशेषा भवामि मरिष्यामीत्यर्थः / शिष असर्वोपयोग इति धातोर्दैवादिकात् प्राप्तकाले कर्तरि लट् / वरं मनाक् प्रियम् अद्य न धिये न स्थास्ये न जीविष्यामीत्यर्थः। घङ अवस्थाने इति धातोस्तौदादिकात् प्राप्तकाले कर्तरि लट / "रिङशयग्लिङ" इति रिकादेशः। अन्यथा जीवेन परीक्षणे मम भावमाशयं नावगन्तासि नावगमिष्यसि, गमेर्लटि सिप। स्वदर्थे तुभ्यं मुक्तासुतया त्यक्तप्राणतया आशु मां हे जीवाभ्यधिक! अत एव त्वमेवैको मुख्यो यस्यास्तां त्वदेकिका स्वदेकशरणामित्यर्थः। शैषिके कपि कात्पूर्वस्येकारः। प्रतीहि जानीहि // 149 // ___आज (इतनी पीडा देनेवाले दिनों में) भले ही कथाशेष हो जाऊंगी अर्थात् मर जाऊंगी किन्तु रहूँगी ( जीऊँगी ) नहीं; अन्यथा ( मेरे जीवित रहने पर तुम ) मेरे भावको नहीं जानोगे अर्थात् 'दमयन्तो मुझे प्राणपणसे चाहती है' ऐसा नहीं मानोगे। हे नाथ ! ( पाठा०-हे असुनाथ अर्थात् हे प्राणनाथ अथवा- हे सुन्दरनाथ ) ! तुम्हारे लिए प्रार्गोको छोड़नेसे हे प्राणाधिक ! मुझे एकमात्र तुम्हारेमें परायण शीघ्र जानो। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति 1. "सुनाथ" इति "तया सुनाथ" इति च पाठान्तरम् / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अल्पमूल्य वस्तुको छोड़ कर बहुमूल्य वस्तुको पाना चाहता है, अतः मैं भी तुम्हारी अपेक्षा तुच्छ अपने प्राणों को छोड़कर भी तुम्हें पाना चाहती हूँ / स्वामी (पाठा०-श्रेष्ठ स्वामी) भी अपने स्वामीके लिये प्राणत्याग करनेवाले दासपर कृपाकर उसे अपनाता है, अतएव आप भी मुझे शीघ्र अपनाइये / मेरे लिये ही दमयन्तीने प्राणत्याग किया है। ऐसा लोगोंसे मालूम करके ही दमयन्ती मुझे प्राणाधिक मानती थी, इसी लिए मेरे वास्ते उसने अपना प्राणत्याग कर दिया' ऐसा तुम्हें भी विश्वास होगा, अन्यथा नहीं ] // 149 // महेन्द्रहेतेरपि रक्षणं भयाद्यदर्थिसाधारणमनभृव्रतम् / प्रसूनबाणादपि मामरक्षतः क्षपं तदुच्चेरव कीणिनस्तव // 150 // महेन्द्रेति / महेन्द्रहेतेर्वज्रायुधादपि यद्भयं तस्माद्रक्षणं, "भीत्रार्थानां भयहेतुः'. इति क्रमादुभयत्रापादानत्वात् पञ्चमी। अधिष्वार्थमात्रेषु साधारणमस्त्रभृतां व्रतं प्रसूनमेव बाणो यस्य स कुसुमबाणः कामस्तस्मादपि मां स्त्रियमिति भावः अरक्षतः अत एवावकीर्णिनः क्षतव्रतस्य / 'अवकीर्णी शतव्रतः' इत्यमरः। तव तदुच्चैर्महत् व्रतं तं सर्वाभयदानवतिनस्ते पुष्पभृतः स्युपेक्षणे महत्कष्टमापनमित्यर्थः // 150 // महेन्द्र ( सामान्यतः इन्द्र नहीं, किन्तु बड़े 'इन्द्र' ) के शत्र ( वज्र ) के भयसे ( भी डरे हुए व्यक्तिकी) रक्षा करना' यह सामान्यतः ( 'स्त्री की रक्षा करना' इत्यादि किसी व्यक्ति-विशेषमें पक्षपात छोड़कर ) शनधारियों का व्रत हैं, (किन्तु पुष्पबाण अर्थात् कामदेव पक्षा०-कोमल पुष्पोंके वाण ) से भी मेरी रक्षा नहीं करते हुए तुम्हारा वह ( सर्वसाधारणको रक्षा अर्थात् इन्द्रके बाणोंसे भी डरे हुए की रक्षा करनेका) व्रत अच्छी तरह क्षतव्रत भग्न हो गया। [ जब महेन्द्र के शस्त्र ( वज्र ) से भी डरे हुए व्यक्तिको पक्षपात से रहित होकर रक्षा करना शत्रधारियोंका व्रत है, तब सामान्य फूलके बाणोंसे भी मरी रक्षा नहीं कर सकनेवाले व्रतभ्रष्ट मापका वह व्रत सर्वथा भग्न हो गया। अतएव तुम ऐसा न करके पुष्पवाण (कामदेव ) से मेरी रक्षा करो] // 150 // तवास्मि मां पातुकमप्युपेक्षसे मृषामरं हामरगौरवात् स्मरम् / अवेहि चण्डालमनङ्गमङ्ग ! तं स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा हि सः॥ तवेति / तवास्मि स्वदीयाहमस्मि, शरणागतत्राणं विहितमिति भावः / एवं सति मां घातुकं शरणानयस्त्रीहन्तारमपीत्यर्थः / "लषपते" स्यादिना उका, “न लोके"त्यादिना कर्मणि षष्ठीनिषेधात् द्वितीया / अत एव मृषामरमलीकामरं स्मरममरमिति गौरवादुपेक्षसे हा कष्टम् ! किं तु अङ्ग ! भोस्तमनङ्गं चण्डालमवेहि / कुतः, हि यस्मात्सोऽनङ्गः स्वकाण्डकारस्य, स्वेषुकारस्य मधोर्वसन्तस्य पुष्पकरत्वात् स्वस्य पुष्पाशुगत्वाच्चेति भावः / 'काण्डोऽस्त्री दण्डबाण' इत्यमरः / सखा हि इषु. कारस्य पण्डालविशेषत्वात् तत्संसर्गिणोऽपि चण्डाला एवेत्यर्थः // 15 // Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। मैं तुम्हारी हूँ, मुझे मारनेवाले झूठे अमर ( देव बने हुए ) कामदेवको देवके गौरवसे उपेक्षा करते हो, हाय ! खेद है / हे अङ्ग ( सर्वथा आत्मीयजन ) ! उस कामदेवको चण्डाल जानो, क्योंकि वह अपने ( कामदेवके ) बाणों ( पुष्पमय बाणों ) को वनानेवाले वसन्तका मित्र है। [ कामके बाणों को बनानेवाला वसन्त ऋतु चण्डाल है, अतः उसका साथ करनेवाला कामदेव भी संसर्ग दोषसे चण्डाल है, और वह तुम्हारा आश्रय करनेवाली अर्थात् शरणमें आयी हुई मुझे मार रहा है. तथा उसे अमर ( देव ) जानकर तुम उसकी उपेक्षा कर रहे हो, यह ठीक नहीं है ] // 15 // लघौ लघावेव पुरः परे बुधैविधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः / तृणे तृणेढि ज्वलनः खलु ज्वलन क्रमात् करीषद्मकाण्डमण्डलम् // 152 / / लघाविति / बुधैस्तज्ज्ञः पुरः पूर्व लघी लघावेव लघुप्रकारेऽल्पप्रकार एव / "प्रकारेगणवचनस्ये"ति द्विर्भावः / परे शत्रौ पूर्वादिभ्यो विकल्पात् सर्वनामाभावः। आत्मतेजसः स्वप्रतापस्योत्तेजनमुद्दीपनं विधेयम् / तथा हि-ज्वलनोऽग्निः स नन्द्या. दिवाल्ल्युप्रत्ययः / तृणे ज्वलन् क्रमारकरीषाः शुष्कगोमयाः, 'गोविड्गोमयमस्त्रियां तत्त शुष्कं करीषोऽत्री' इत्यमरः / तेषां दुमकाण्डानां वृक्षस्कन्धानाश मण्डलं समूह तृणेति हिनस्ति दहति खस्वित्यर्थः / तृहि हिंसायां लट् “रुधादिभ्यः श्नम्" "तृणह इम" गुणढत्वादिकार्यम् / विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 152 / / विदानोंको पहले छोटे-छोटे शत्रुपर ही अपने तेजको उत्तेजित करना चाहिये। क्योंकि वासमें जलती हुई अग्नि क्रमसे कण्डा (सूखा उपला अर्थात् गोहरी) तथा वृक्षोंके स्कन्धसमूहको नष्ट करता ( जलाता) है। [जिस प्रकार सर्वश्रेष्ठ तेजस्वी अग्नि भी अतिशय क्षुद्र शत्रु घासकी भी उपेक्षा नहीं करता और उसे नष्ट करते हुए क्रमशः वृक्ष-स्कन्धरूप बड़े-बड़े शत्रुओंको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम्हें भी कामदेवको छोटा शत्रु समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये / तुम मुझे कामदेवसे बचामो ] // 152 // सुरापराषस्तव वा कियानयं स्वयंवरायामनुकम्प्रता मयि / गिरापि वक्ष्यन्ति मुखेषु तर्पणादिदं न देवा मुखलजयैष ते // 15 // सुरेति / तव स्वयमेव वृणोतीति स्वयंवराः, “पचायच्" / तस्यां मयि अनुकम्प्रता अनुकम्पित्वं "नमिकम्पि" इत्यादिना ताच्छील्ये रप्रत्ययः / भावार्थे तल प्रत्ययः / अयं कियान् सुरापराधः तत्प्रेषितस्यापि मया वृतत्वात्ते कोऽपराध इत्यर्थः / अथापरास्वेऽपि मखेषु तर्पणात् प्रीणनात् देवास्ते मुखलजयैव मुखदा. क्षिण्येनैव इदमपराद्धवं गिरापि न वचयन्ति / अपिशब्दान्मनसापि न स्मरिप्यन्तीत्यर्थः॥ 153 // ___ स्वयं ( किसीके कहने-सुननेसे नहीं) वरण करनेवाली मुझमें दया करना अर्थात मेरी प्रार्थनासे पत्नीरूप मुझे स्वीकार करना देवों के विषयमें कितना अपराध है अर्थात् कोई बड़ा Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / अपराध नहीं, किन्तु अत्यन्त छोटा अपराध है / (मुझ पत्नी होनेपर) यशोंमें सन्तुष्ट करनेसे मुख ( सम्मुख-सामनेमें) लज्जासे वे देव (अथवा-तुम्हारे मुखलज्जासे देव वचनसे भी ( और हृदयसे भी ) यह ( अपराध-विषयक बात ) नहीं कहेंगे। [ मैं किसीके कहनेसुननेसे तुम्हें वरण नहीं करती, किन्तु स्वेच्छासे करती हूँ. और तुम देवोंके दूतरूपमें यहाँ आकर उनके कामकी उपेक्षा करके अपना काम करते, तब देवों के प्रति तुम बड़ा अपराधी होते; किन्तु तुमने ऐसा नहीं किया, बल्कि देवोंके दूतका कार्य अच्छी तरह किया, फिर भी मैं तुम्हारे दूतकार्यसे प्रभावित नहीं होकर यदि स्वयं तुम्हें वरण करती हूँ तो इसमें तुम्हारा कोई बड़ा अपराध नहीं है और इस तुच्छ अपराधको भी वे देव, जब हम दोनों यज्ञोंमें उन देवोंको हविष्यादिसे तृप्त करेंगे तो लज्जा के कारण वे मुखसे भी नहीं कहेंगे और न हृदय में ही रखेंगे अर्थात् परमदयालु वे देवता सन्तुष्ट होकर तुम्हारे इस तुच्छ अपराधको उस प्रकार सर्वथा भूल जायेंगे, जिस प्रकार सामान्य अपराध करनेवाले दास पर उसके उत्तम कार्यसे अत्यन्त सन्तुष्ट स्वामी भूल जाता है; अतः तुम देवोंके अपराधको आशका छोड़कर मुझे स्वीकृत करो] // 153 / / व्रजन्तु ते तेऽपि वरं स्वयंवरं प्रसाद्य तानेव मया वरिष्यसे / न सर्वथा तानपि न स्पृशेड्या न तेऽपि तावन्मदनस्त्वमेव वा // 154 / / व्रजन्विति / अथवा हे नल! ते देवा अपि ते तव सम्बन्धिनं स्वयंवरं वजन्तु वरं साम्वेवैतदित्यर्थः / कुतः, मया तानेव प्रसह्य प्रसन्नान् कृत्वा परिष्यसे / न च ते दुराधर्षा इस्याह-सर्वथा-तान् देवानपि दया न स्पृशेदिति न। किंतु स्पृशे. देवेत्यर्थः / सम्भवस्य निषेधनिवर्तने द्वौ नम्प्रतिषेधौ स्तः। तेऽपि तावन्मदानस्त्वमेव वा न / लोके त्वां मदनं च विना न कोऽपि निष्कृप इति भावः // 154 // वे-वे अर्थात् सब देव भी श्रेष्ठ स्वयंवरमें ( अथवा-स्वयंवरमें भले ही) वें, मैं उन्हें ही प्रसन्न कर तुम्हें वरण करूंगी। क्या उन्हें भी जैसी तुम्हें दया नहीं आती वैसे दया नहीं छुएगी अर्थात् दया नहीं आयेगी ? अर्थात् अवश्य दया आवेगी; क्योंकि वे (देव) भी कामदेव या तुम नहीं हो। [ एक कामदेव ही ऐसा निर्दय है कि मुझे अत्यन्त पीडित कर रहा है, दूसरे तुम ऐसा निर्दय हो कि स्वयं वरण करनेकी इच्छावाली भी मुझे स्वीकृत नहीं करते, किन्तु वे इन्द्रादि देवता तुम दोनों-जैसे निर्दय नहीं है, जो मेरी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर दया न करें जब वे इस स्वयंवरमें आकर मुझपर दया करके तुम्हें वरण करने के लिए मुझे आदेश दे देंगे, तब तो देवोंके प्रति तुम्हारे तुच्छतम अपराधकी भी * आशङ्का नहीं रह जायेगो ] // 154 // इतीयमालेख्यगतेऽपि वीक्षिते त्वयि स्मरवीडसमस्ययाऽनया | पदे पदे मौनमयान्तरीषिणी प्रवर्तिता सारधसारसारणी / / 155 / / इतीति / हे सौम्य ! भालेल्यगते चित्रगतेऽपि त्वयि वीक्षिते सति स्मरबीडयोः Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 551 समस्यया समष्टया अनया भैम्या पदे पदे वचने स्थाने स्थाने अन्तर्गता आपाऽस्यैत्यन्तरीपमन्तस्तटं 'द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपं यदन्तर्वारिणस्तटम्' इत्यमरः / "शक्पू" इत्यादिना समासान्तोऽप्रत्ययः। "द्वयन्तरुपसर्गेभ्योऽप ई"दितीकारः। मौनमयं मौनरूपमन्तरीपं यस्याः सा मौनान्तरीपोदतेत्यर्थः। सर्वधन्वीतिवदिन्नन्तो बहुब्रीहिः, "अटकुप्वाङि" त्यादिना णत्वम् / इतीयं उक्तरूपा सारपसारस्य मधुसा. रस्य सारणी स्वल्पनदी / 'सारणी स्वल्पसरित्' इति विश्वः / प्रवर्तिता चित्रगतस्य तवाग्रे एवं मधुवर्षिणी वागुक्तेत्यर्थः / अत्र विषयस्य वाचोऽनुपादानेन विषयिण्याः सारघसारण्या एवोपनिबन्धात्तयोर्भेदेऽप्यभेदोक्तेश्वातिशयोक्तिभेदः // 155 // चित्रगत भी तुम्हें देखकर कामदेव तथा लज्जाके संक्षिप्त मिश्रणसे युक्त ( यह मेरी सखी दमयन्ती कामके वशीभूत होकर बोलना चाहती है, किन्तु लज्जावश नहीं बोलती) पद-पद ( बात-बात, पक्षा०-स्थान-स्थान ) में अर्थात् प्रत्येक बात (पक्षा-स्थान) में मौनमय अन्तरीप ( टापू-जलवेष्टित शुष्क स्थान-विशेष ) वाली यह दमयन्ती मधुके सारभूत पदार्थकी नदी (पाठा०-............"पदार्थको बहानेवाली ) हो जाती है। [ जिस प्रकार नदी टापुओंमें स्थान-स्थानपर रुक-रुककर बहती है, उसी प्रकार यह दम. यन्ती आपको चित्रमें भी देखकर काम एवं लज्जाके वशीभूत होकर बात-बातमें सरस मधुधारावाली नदीके तुल्य हो जाती हैं / अतएव जब यह चित्रमें भी आपको देखकर कामवशीभूत हो जाती है तो प्रत्यक्ष आपको देखनेपर अपने ( नल ) में इस दमयन्तीका अनुराग न होनेकी आशङ्का करना सर्वथा अनुचित है ] // 155 / / चण्डालस्ते विषमविशियः स्पृश्यते दृश्यते न ख्यातोऽनङ्गस्त्वयि निजभिया किन्नु कृत्ताङ्गुलीकः / कृत्वा मित्रं मधुमधिवनस्थानमन्तश्चरित्वा सख्याः प्राणान् हरति हरितस्त्वद्यशस्तज्जुषन्ताम् // 156 / / चण्डाल इति। हे नल ! विषमविशिखः कामस्ते तव सम्बन्धी चण्डालः 'वध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाज्ञये ति स्मरणात् / माङमारणार्थमेव त्वया भृतः कोऽपि चण्डाल इत्यर्थः / अत एव न दृश्यते न स्पृश्यते च एकत्रानङ्गत्वादन्यत्र शास्त्रनिषेधाच्छेति भावः / किं च निजभिया स्वीयापराधदण्डभयेन त्वयि विषये त्वामुद्दिश्य कृत्ताङ्गुलीकः / अपराधेऽपि त्राणार्थ छिन्नाङ्गुलीकः। “नद्यतश्च” इति कष / “पद्यमङ्गुलिविच्छेद उरोविन्यस्यमतरम् / तशामकरणं चेति दास्यमेतच्चतुष्टय" मिति दासचिह्नत्वादिति भावः / अत एवाङ्गुलिविहीनत्वादनङ्गः ख्यातः किं नु ? अतः किमत आह-मधुं वसन्तमपि मित्रं कृत्वा सहायश्च कञ्चन सम्पाद्येत्यर्थः। अन्तरन्तःकरणमेव अधिवनस्थानमरण्यदेशं चरित्वा भ्रान्त्वा सख्याः स्वसख्या भैग्याः प्राणान् हरति तत्स्त्रीजन्यं त्वद्यशो दुर्यश इत्यर्थः। हरितो दिशो जुषन्तां 34 // नै० Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम / सेवन्तां दिगम्तविभान्तमश्वित्यर्थः। अत्र कामस्य चण्डालधर्मयोग्यचडालरवेनो प्रेक्षणादुस्प्रेक्षा ब्यक्षकाप्रयोगादम्या। मन्दाक्रान्तावृत्तमुक्तम् // 156 // ___तुम्हारा विषमवाण ( पाँच पाणोंवाला ) कामदेव चण्डाल है, वह स्पर्श तो करता है, किन्तु दिखलायी नहीं देता, तुम्हारे विजय होते रहनेपर वह अना ( अगसे रहित ) विख्यात है, फिर कटी हुई अङ्गुलिवाला होनेकी क्या बात है ? वनभूमिमें वसन्तको मित्र बनाकर भीतर (हृदयके भीतर ) में घुसकर सखी ( दमयन्ती) के प्राणों को हर रहा है, दिशाएँ ) ( ऐसे मित्रवाले ) तुम्हारी कीर्तिका सेवन करें। [ पक्षा०-विषम (विषतुल्य या विषमें बुझे हुए बाणोंवाला त्वत्सम्बन्धी चण्डाल ( भयकर बाणों को ग्रहण करनेवाला) है, बह स्पर्श करता ( छूकर पीड़ित करता ) है, किन्तु दिखलायी नहीं देता। तुम्हारे द्वारा . उसका विजय करते रहनेपर वह अनङ्ग (शरीररहित ) कहलाता है तो कटी हुई अङ्गुलि. वाले ( चण्डालकी अङ्गुलिका कटा हुआ रहना शास्त्रों में वर्णित है) का क्या कहना ? अर्थात् शरीर रहित चण्डालरूप कामदेव जब मुझे इतना पीडित कर रहा है तो सम्पूर्ण शरीरयुक्त केवल एक अङ्गुलिसे रहित चण्डाल कितना अधिक पीड़ित करेगा ? उसका क्या कहना है ? जल अर्थात् द्रव पदार्थों में मदिराको मित्र बनाकर अर्थात् पीकर घरमें धुसकर वह तुम्हारा चण्डाल ( मेरी ) सखी दमयन्तीके प्राणोंको हरण कर (मार ) रहा हैं, दिशाएँ तुम्हारी कीत्ति अर्थात् व्यङ्गयसे अपकीति को धारण करें। यदि तुम दमयन्तीको अनुगृहीत नहीं करोगे तो वह मर जायेगी और तुम्हारी अपकीति सब दिशाओं में फैल जायेगी; मतएव तुम इसे अनुगृहीत कर इसकी प्राणरक्षा करो] // 156 / / अथ भीमभुवैव रहोऽभिहितां नतमौलिरपत्रपया स निजाम् / / अमरैः सह राजसमाजगतिं जगतीपतिरभ्यपगम्य ययौ // 147 // अथेति / अथ भैमीवाक्यश्रवणानन्तरं जगतीपतिनलः भीमभुवैव भैल्यैव रहो रहस्यभिहितां निजामात्मीयाममरैः सह राजसमाजस्य राजसभाया गतिं प्राप्तिमप. त्रपया स्ववरणलज्जया नतमौलिनम्रमुखः सन् अभ्युपगभ्याङ्गीकृत्य ययौ। तोटक. वृत्तम् / "इह तोटकमम्बुधिसैः कथित"मिति लक्षणात् // 157 // इसके बाद ( मैं जिस दूत-कार्यके लिए आया था, वह पूरा नहीं हुमा, अपि तु मुझे अब देवोंका प्रतिपक्षी बनकर स्वयंबर में आना पड़ेगा ऐसी) लज्जासे नतमस्तक राजा ( नल ) एकान्तमें भीमनन्दिनी ( दमयन्ती) के द्वारा ही कहे गये देवोंके साथ राजसमा ( स्वयंवर ) में अपना आना स्वीकार कर चले गये // 157 / / श्वस्तस्याः प्रियमाप्तुमुधुरधियो धाराः सृजन्यारया. सम्रोनम्रकपोलंपालिपुलकैतस्वतीरश्रणः / चत्वारः प्रहराः स्मरातिमिरभूत् सा यद् क्षपा दुःक्षपा तत्तस्यां कृपयाखिलेव विधिना रात्रिलियामा कृता // 158 // Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। 553 व इति / परेऽहनि प्रियं नलमातमुद्धरधियः सन्त्रबुद्धेः अत एव रयात् प्रवाहवेगासनाचोचन्नाव दन्तुरा इत्यर्थः। तैः कपोलपाख्योगण्डभित्योः पुलकैरोमा. तस्वतीः वेतसलतावलीः, "कुमुवनडवेतसेभ्यो ड्मतुप, मादुपधायाश्चे" त्यादिना मकारस्य वकारः / अश्रुणो धारा आनन्दबाष्पप्रवाहान् सृजन्त्या जनयन्त्यास्तस्य भैग्याः यत् यस्मात् कारणात् चरवारः प्रहरा अपि चतुर्याममात्रापीत्यर्थः / साक्षपा स्मरातिभिः स्मरपीडाभिदुःक्षपा दुरतिवाहाभूत् , तत् तस्मादस्यां भैग्यां कृपया कृपयैवेत्यर्थः / विधिना वेधसा अखिलेश सर्वापि रात्रिस्त्रियामा यामत्रयवत्येव कृता / सत्यमिति शेषः / गम्योत्प्रेक्षा // 158 // कल प्रिय ( नल ) को पाने के लिये उत्कण्ठित बुद्धिवाली और कपोल भिात्तपर ऊंचनीच रोमाञ्चोंले बेंतयुक्त नदीरूप अश्रु-धाराओंको बहाती हुई ( नदीमें ऊंचे-नीचे बेंत रहते हैं और कपोलभित्तिमें ऊंचे-नीचे रोमाञ्च हो रहे हैं ) उस दमयन्तीकी वह चार प्रह. रोवाली ( एक ) रात्रि काम-पीडाओंसे कष्टसे क्षीण होगी, अतएव उसपर कृपा करनेवाले ब्रह्माने सम्पूर्ण रात्रिको ( चार प्रहरोंवाली सम्पूर्ण रात्रिकी एक प्रहर घटाकर ) 'त्रियामा' अर्थात् तीन प्रहरवाली कर दिया। [ रात्रि यद्यपि चार प्रहरोंकी होती है, तथापि उसे 'त्रियामा' कहते हैं इसीपर कविकुल शिरोमणि 'श्री हर्ष' ने उत्प्रेक्षा की है कि विरहिणी दमयन्तीके लिए चार प्रहरवाली एक रात्रिको भी व्यतीत करना दुःशक्य जानकर कृपालु ब्रह्माने सम्पूर्ण रात्रिको चार प्रहरके स्थान में तीन प्रहरका बना दिया है। लोकमें भी कोई दयालु व्यक्ति किसी दुखियाके दुःखसे दयार्द्र होकर उसके कठिन कार्यको सरल कर देता है ] // 158 // तदखिलमिह भूतं भूत्यगत्या जगत्या: पतिरभिलपति स्म स्वात्मदूतत्वतत्त्वम् / त्रिभुवनजनयाववृत्तवृत्तान्तसाक्षात् कृतिकृतिषु निरस्तानन्दमिन्द्रादिषु द्राक / / 156 / / तदिति / जगत्याः पृथिव्याः पतिर्नलः इह दमयन्तीसमदं भूतं वृक्षं तदखिलं स्वात्मनः स्वस्य दूतत्वं तत्त्वं दूतस्वरूपं त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनं, "तद्धितार्थे" त्यादिना समाहारे द्विगुः / 'द्विगुरेकवचनं' पात्रादित्वान्न स्त्रीत्वम् / तस्मिन् जनानां यावन्तो वृत्ता यावद्वृत्तं "यावदवधारण" इत्यव्ययीभावः / याव. वृत्तञ्च ते वृत्तान्ताश्च तेषां साक्षात्कृतौ साक्षात्करणे कृतिषु कुशलेविन्द्रादिषु विषये द्राक सपदि निरस्तानन्दं तेषामिष्टविघाताद्विहतसन्तोषं यथा तथा भूतगत्या सत्यभङ्गया / 'युक्त चमादावृते भूतं प्राण्यतीते समे त्रिषु' इत्यमरः। अभिलपति स्म कथितवान् / मालिनीवृत्तम् / “ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः" इति लक्षणात् // 159 // Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 नैषधमहाकाष्पम् / जगतीपति (राजानक) ने यहां (दमयन्तीके पास, या दमयन्तीके विषयमें ) हुए उस सम्पूर्ण अपने दूरकार्यके सार (या यथार्थता) को बीते हुए क्रमसे ( वहां जिस क्रमसे जैसी-जैसी बात-चीत हुई थी उसी क्रमसे / अथवा-भूतगति-अन्तर्धान होकर वहां जानेके कारण भूत-तुल्यगतिसे बीते हुए सम्पूर्ण अपने दूतकार्यके सारको देवोंके कार्य सिद्ध करने में असफल होनेके कारण) आनन्दरहित होकर तीनों लोकोंके मनुष्योंके समस्त बीते हुए वृत्तान्तोंको साक्षात्कर (प्रत्यक्ष ) करनेवाले इन्द्र ल्यादि देवोंसे शीघ्र कह दिये। [ तीनों लोकोंके लोगों के बातोंको प्रत्यक्ष करने तथा निष्कपट होकर समस्त बात स्पष्ट कह देनेसे इन्द्र आदिको नलपर सन्देह करने या रुष्ट होनेका कोई अवसर ही नहीं आया ] // 159 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं ___श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् | संदृब्धार्णववर्णनस्य नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः // 160 // श्रीहर्षमिति / सन्हब्धं प्रथितमर्णववर्णनमर्णववर्णनाक्यप्रबन्धो येन तस्ये. त्यर्थः / 'प्रथितं प्रन्थितं हन्धम्' इत्यमरः // 160 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्याने नवमः सर्गः समाप्तः // 9 // __ कवीश्वर-समूहके ... ... ... .."किया, "अर्णववर्ण" नामक ग्रन्थके रचयिता उसके, रचित सुन्दर नलके चरित अर्थात् "नैषध चरित... ... .."यह नवम सर्ग समाप्त हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान जाननी चाहिये // 160 // यह “मणिप्रभा” टीकामें "नैषधचरित" का नवम सर्ग समाप्त हुआ // 9 // Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः रथैरथायुः कुलजाः कुमाराः शस्त्रेषु शास्त्रेषु च दृष्टपाराः। स्वयंवरं शम्बरवैरिकायव्यूहश्रियः श्रीजितयक्षराजाः // 1 // अथ स्वयंवरवृत्तान्तं वर्णयति-रथैरित्यादि। अथ नलप्रयाणानन्तरं कुलजाः कुलीनाः शस्त्रेषु शस्त्रविद्यासु शास्त्रेषु त्रय्यादिषु च दृष्टं पारं यैस्ते दृष्टपाराः पार• दृश्वानः शम्बरवैरिणः कामस्य, यः कायव्यूहः शम्बरासुरजयार्थ मायया गृहीतो यः शरीरसमूहः, तस्य श्रीरिव श्रीः शोभा येषां ते कन्दर्पकल्पा इत्यर्थः। श्रिया सम्पदा जितो यक्षराजः कुबेरः यैस्ते कुमारा राजकुमाराः 'कन्या वरयते रूपमित्यायुक्तसमग्रगुणसम्पन्ना इत्यर्थः / रथैः साधनैः स्वयं वियतेऽस्मिन्निति स्वयंवरस्तम् / 'ऋदोरप' / स्वयंवरभुवं, तदा आयुः आयाताः। आङ पूर्वाद्यातेर्लङि 'लङः शाकटायनस्यैवेति' वैकल्पिको झेर्जुसादेशः। अत्र कायव्यूह. श्रिय इति निदर्शना, श्रीजितयक्षराजाश्च व्यतिरेकः इत्यलङ्कारयोः संसृष्टिः / अस्मिन् सगे उपेन्द्रवजेन्द्रवज्रातदुपजातयश्च वृत्तानि // 1 // ___ इसके बाद (धनुष आदि ) शस्त्र तथा ( वेद आदि ) शास्त्रविद्यामें पारङ्गत, कामदेवकी शरीरशोभाके समान शोभावाले, सम्पत्तिसे कुबेर को जीतनेवाले श्रेष्ठकुलोत्पन्न राजकुमार रथोंसे स्वयंवर स्थानको आये। [ 'कन्या वर के सौन्दर्य, माता सम्पत्ति, पिता विद्या, बान्धवजन श्रेष्ठ कुल चाहते हैं। इस' नीति के अनुसार स्वयंवरमें आये हुए राजकुमारोंमें सभी उक्त गुण रहनेसे तथा हाथी घोड़ा आदि वाहनोंको छोड़कर रथों के द्वारा आनेसे . उनकी विवाह-योग्यता सूचित होती है। शास्त्रकी अपेक्षा शस्त्रकी ही क्षत्रियों के लिये प्रमुखता व्यक्त करने के लिये यहां शस्त्रविद्याको पहले तथा शास्त्रविद्याको बादमें कहा गया है ] // 1 // नाभूदभूमिः स्मरसायकानां नासीदगन्ता कुलजः कुमारः। नास्थादपन्था धरणेः कणोऽपि बजेषु राज्ञां युगपव्रजत्सु // 2 // नेति / कुलजः कुलीनः, कोऽपीति शेषः / कुमारः स्मरसायकानामभूमिरविषयो नाभूत् तथा अगन्ता स्वयंवराप्रयाता च नाभूत् / किञ्च राज्ञां व्रजेषु युगपद्वजत्सु सत्सु धरणेः कणोऽपि भूलेशोऽप्यपन्था अपथं मार्गशून्य इत्यर्थः 'पथो विभाषा' इति विकल्पात् समासान्ताभावः / नास्थात् न स्थितः, 'गातिस्थेत्यादिना सिचो लुक / अत्र राज्ञां कात्स्येन स्मरेषुविषयवस्वयंवरगन्तृत्वाभ्यां सकलभूमेः पथित्वेन चासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिभेदः // 2 // 1. तदुक्तम्-'कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् // बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः // ' इति / 35 नै० Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 नैषधमहाकाव्यम् / कोई भी सत्कुलोत्पन्न कुमार कामबाणके लक्ष्यसे हीन नहीं रहा और ( स्वयंवर में ) नहीं आनेवाला नहीं रहा अर्थात् सभी कुलीन कुमार दमयन्तीके स्वयंवर का समाचार सुनकर कामबाणसे पीड़ित हो स्वयंवरमें आये / राज-समूहके एक साथ चलते ( स्वयंवर में आते ) रहनेपर भूमिका थोड़ा-सा भाग भी मार्गहीन नहीं रहा अर्थात् पृथ्वीका सब भाग राजाओं के स्वयंवर में आनेसे मार्ग बन गया। (दमयन्तीके स्वयंवरका समाचार सुनकर कामबाणपीड़ित सभी राजकुमार पृथ्वीके सब भागोंसे स्वयंवर में पहुँचे ] // 2 // योग्यैर्बजद्भिर्नृपजां वरीतुं वीरैरनः प्रसभेन हर्तुम्। द्रष्टुं परैस्ताननुरोधुमन्यैः स्वमात्रशेषाः ककुभो बभूवुः // 3 // योग्यैरिति / योग्य रूपयौवनादिना सम्बन्धाः नृपजां भैमी वरीतुम् / 'वृतो वा' इति दीर्घः। अनहैं: रूपयौवनादिशून्यैः, वीरैः प्रसभेन बलेन हर्तुं परैः कैश्चिनिःस्पृहैः केवलं द्रष्टुमेव स्वयंवरमिति शेषः, अन्यैस्तु तान् राजन्यादीननुरोदु. मुपासितुं व्रजद्भिः करणैस्तद्राजन्यरित्यर्थः। ककुभो दिशः स्वमात्रशेषाः स्वरूपमात्रावशिष्टा बभूवुः / अत्रापि ककुभां स्वमात्रशेषत्वासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तरति. शयोक्तिभेदः // 3 // (श्रेष्ठवंश आदिसे ) योग्य कुछ राजकुमार दमयन्तीको वरण करनेके लिये, (श्रेष्ठवंश आदिसे ) अयोग्य (किन्तु ) शूरवीर कुछ राजकुमार दमयन्तीको बलात्कारसे हरण करने के लिये, ( उक्त दोनों गुणोंसे हीन ) कुछ लोग दमयन्ती या स्वयंवरको देखनेके लिये और कुछ लोग आये हुए उन लोगोंकी सेवा करनेके लिये; इस प्रकारके आते हुए उन लोगोंसे सब दिशाएं खाली हो गयीं / [ स्वयंवरमें आनेवाले लोगोंमें कुछ राजकुमार ऐसे थे जो अपने श्रेष्ठवंश तथा गुणोंसे दययन्तीको न्यायपूर्वक वरणकर ले जाना चाहते थे, उक्त गुणोंसे हीन होनेसे अयोग्य कुछ शूरवीर राजकुमार दमयन्तीको बलात्कारसे हरणकर ले जाना चाहते थे जो न तो श्रेष्ठवंश आदिवाले थे और न शूर वीर ही थे ऐसे कुछ लोग दमयन्तीको या स्वयंवरको देखने मात्र के लिये आ रहे थे और कुछ लोग वहां आये हुए उन सबोंकी सेवाके लिए आ रहे थे; इस प्रकार झुण्ड के झुण्ड आते हुए लोगोंसे सब दिशाएँ खाली हो गयीं। दमयन्तीके स्वयंवर में किसी न किसी निमित्तसे सब दिशाओंसे बहुत लोग आये ] // 3 // लोकैरशेषैरवनिश्रियन्तामुद्दिश्य दिश्यैर्विहिते प्रयाणे / स्ववर्तितत्तज्जनयन्त्रणातिविश्रान्तिमापुः ककुभा विभागाः॥४॥ लोकैरिति / अवनिश्रियं भूलोकलचमी तां भैमीमुहिश्याभिसन्धाय दिश्यैदिक्षु भवा, 'दिगादिभ्यो यत्'। अशेषैलॊकैर्जनः प्रयाणे विहिते सति ककुभां विभागाः 1. 'परिकर्तुमन्यैः' इतिपाठान्तरम् / अनुरोधुमित्यत्र उपरोधुमिति च पाठान्तरम्। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। अंदेशाः / स्ववर्तिनां स्वनिष्ठानां तेषां तेषां जनानां यन्त्रणया सम्बन्धेनातः पीडायाः विश्रान्ति विरतिमापुः, भारराहित्यात् सुखावस्थानं चक्रुरित्यर्थः // तद्वदलच्यतेत्युस्प्रेक्षा गम्या // 4 // ___पृथ्वीको शोभा दमयन्तीके उद्देश्यसे दिशामें होनेवाले सब लोगोंके वहाँसे यात्रा करनेपर दिशाओं के विभागोंने अपने यहां रहनेवाले उन-उन आदमियों के सम्बन्ध (या सङ्कीर्णतापूर्वक निवास ) से उत्पन्न पीड़ाकी विश्रान्तिको प्राप्त किया अर्थात् अपनेअपने यहां रहनेवाले लोगों के स्वयंवर में चले जानेसे दिशाओंने थोड़ा हल्कापन प्राप्त किया // 4 // तलं यथेयुन तिला विकीर्णाः सैन्यैस्तथा राजपथा बभूवुः / भैमी स लब्धामिव तत्र मेने यः प्राप भूभृद्भवितुं पुरस्तात् // 5 // तलमिति / यथा विकीर्णा उपरि क्षिप्तास्तिलास्तलं भूतलं नेयुः नाप्नुयुः सैन्यैः सैनिकः। 'सेनायां समवेता ये सैन्यास्ते सैनिकाश्च ते' इत्यमरः। 'सेनाया वे'ति ण्यप्रत्ययः। राजपथा राजमार्गास्तथा तिलमात्रावकाशरहिता बभूवुः। ताइक्स. म्बन्धासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धस्योक्तरतिशयोक्तिभेदः। किञ्च तत्र समये यो भूभृ. द्राजा पुरस्ताद्भवितुं गन्तुं प्राप प्राप्तः स राजा भैमी लब्धामिव मेने / यदि पूर्वगतो भवेयं तर्हि स्वयं भैमी लप्स्य इत्यभिमानादपूर्विकया सर्व समाजग्मुरित्यर्थः // 5 // ( ऊपर में ) विखरे गये तिल भी भूमिपर नहीं गिर सके, इस प्रकार राजमार्ग (सड़के) सेनाओंसे व्याप्त हो गये अर्थात् ठसाठस भर गये। ( उस प्रकार ठसाठस भरनेसे तिल गिरनेके भी स्थानसे शून्य ) उस राजमार्गमें जो राजा आगे पहुँच सका, उसने दमयन्ती को प्राप्त हुई-सी समझा। [ जिस प्रकार अत्यन्त सङ्कीर्ण राजमार्गमें सब राजा अहमहमिका ( 'मैं आगे पहुँचूँ' 2 ऐसी इच्छा ) से आगे पहुँचकर दमयन्तीकी प्राप्ति समझते थे] // 5 // नृपः पुरःस्थैः प्रतिरुद्धवा पश्चात्तनैः कश्चन नुद्यमानः / यन्त्रस्थसिद्धार्थपदाभिषेकं लब्ध्वाप्यसिद्धार्थममन्यत स्वम् // 6 // नृप इति / पुरःस्थैर्जनैः प्रतिरुद्धवर्मा निरुद्धमार्गः पश्चात्तनैः पश्चाद्भवैः पृष्ठत आगतेरित्यर्थः / 'सायं चिरमि"त्यादिना ट्युलप्रत्ययस्तुडागमश्च / नुद्यमानःप्रेर्यमाणः कश्चन नृपः यन्त्रस्थस्य तैलाकर्षणयन्त्रलग्नस्य सिद्धार्थस्य सर्षपस्य पदे स्थाने अभिषेकं लब्ध्वापि सर्षपत्वं प्राप्यापीत्यर्थः / स्वमात्मानमसिद्धार्थमसर्षपममन्यतेति विरोधः / अपिशब्दो विरोधद्योतनार्थः / असिद्धार्थ भैमीप्राप्तिरूपसिद्धिरहितममन्यतेत्यविरोधाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः। अत्र संमर्दै यन्त्रस्थसर्षपवद्विशीर्णस्य मे कुतोऽर्थसिद्धिरित्यमन्यतेत्यर्थः // 6 // ___ आगे चलनेवालोंसे रुके हुए मार्गवाला तथा पीछे चलनेवालों से ( आगे बढ़ने के लिये ) प्रेरित किया जाता हुआ कोई राजा कोल्हू में पड़े हुए सरसोंके स्थानमें अभिषिक्त होकर Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 नैषधमहाकाव्यम् / भी अपनेको असफल (दमयन्तीकी प्राप्ति) से वञ्चित माना। [ पक्षा०-यन्त्रस्थित सिद्धार्थ (सिद्ध मनोरथवाले ) के स्थानमें अभिषेकको प्राप्तकर भी अपनेको असिद्धार्थ ( असफल मनोरथवाला ) माना, यह विरोध होता है, इसका परिहार ऊपर के अर्थसे हो जाता है / धक्के में दोनों ओरसे कोल्हूके सरसों के समान दबाया गया कोई राजा बहुत दुःखी हुआ अथवा-सङ्कीर्ण भागमें सरसों के समान पीसे जाते हुए मुझे दमयन्ती कैसे प्राप्त होगी ? अर्थात् नहीं प्राप्त होगी इस प्रकार दुःखी हुआ ] // 6 // राज्ञां पथि रत्यानतयानुपूर्वीविलङ्घनाशक्तिविलम्बभाजाम् / आह्वानसंज्ञानमिवाग्रकम्पैर्दधुर्विदर्भेन्द्रपुरीपताकाः // 7 // राज्ञामिति / विदर्भेन्द्रपुरी कुण्डिनपुरं तस्यां पताकाः अग्रकम्पैः स्वाग्रचलनैः पथि मार्गे स्त्यानतया संहततया सैन्यसङ्कीर्णतयेत्यर्थः / 'संयोगादेरातो धातोर्यण्वत' इति स्स्यायतेनिष्ठानत्वम् / आनुपूर्वीविलङ्घनाशक्त्या अक्रमचङ्कमणाशक्त्या विलम्ब भाजां राज्ञामाह्वानसंज्ञानमाकारणचेष्टां दधुरिवेत्युत्प्रेक्षा // 7 // ___कुण्डिनपुरीकी पताकाएँ ( वायुसे ) आगे हिलनेसे मार्गमें अत्यन्त सङ्कीर्णतासे क्रमको (क्रमशः गतिको ) उलङ्घन करनेमें असमर्थ होनेसे विलम्ब करनेवाले राजाओंको बुलानेका सङ्केत करती थी। [लोकमें भी भीड़से पिछड़े हुए व्यक्तिको जिस प्रकार कोई व्यक्ति हाथ आदिसे आगे बढ़नेका संकेत करता है, उसी प्रकार कुण्डिनपुरीको वायुप्रेरित पताकाओंने भी भीड़से आगे बढ़ने में असमर्थ राजाओंको शीघ्र आगे बढ़ने का संकेत किया। राजाओंने दूरसे कुण्डिनपुरीकी पताकाओंको देखा ] // 7 // प्राग्भूय कर्कोटक आचकर्ष सकम्बलं नागबलं यदुच्चैः। भुवस्तले कुण्डिनगामिराज्ञां यद्वासुकेश्चाश्वतरोऽन्वगच्छत् // 8 // प्रागिति / भुवस्तले भूपृष्ठे कुण्डिनगामिनाम् / श्रितादिषु गमिगम्यादीनामुपसङ्खयानात् द्वितीयासमासः। राज्ञां सम्बन्धि सकम्बलं सप्रावारमुच्चैर्महद्यन्नागबलं गजबलं (कर्म) कर्क इति पदच्छेदः / अस्तीत्यटकः शीघ्रं गन्ता, हृद्यगर्तिवा / 'बहुल. मन्यत्रापी'त्यौणादिकः क्युन्प्रत्ययः। कर्क श्वेताश्वः। 'पृष्ठयः स्थौरी सितः कर्कः' इत्यमरः / जातावेकवचनम् / प्राग्भूय अग्रसरो भूत्वा प्रागिति च्यन्तस्य गतित्वाद्गतिसमासे क्त्वो ल्यम् / आचकर्ष आकृष्टवान् / अश्वपूर्वं गजा गच्छन्तीति प्रसिद्धम् / तन्नागबलमश्वतरो गर्दभादश्वायामुत्पन्नो वेसराख्यो वाहनविशेषः। 'वत्सोक्षाश्वर्ष. भेभ्यश्च तनुत्वे' इति तरप्प्रत्ययः। तस्य तनुत्वमन्यपितृकतेति काशिका / सोऽन्वगच्छत् / अत्रापि जातावेकवचनम् / अग्रतोऽश्वास्ततो गजास्ततोऽश्वतराजग्मुरित्यर्थः। अन्यत्र भुवस्तले रसातले कुण्डिनगामिनः वासुकेर्वासुकिमहानागस्य सम्बन्धि, सकम्बलं कम्बलाख्यनागेन्द्रसहितम् / 'कम्बलो नागराजे स्यात् सास्राप्रावारयोरपि' 1. 'नुपूर्व्या' इति पाठान्तरम् / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। इत्युभयत्रापि विश्वः / यदुच्चैर्नागबलमहिसैन्यं 'ग्रहाभ्राहिगजे नागाः' इत्युभयत्रापि वैजयन्ती। कर्कोटको नाम नागविशेषः प्राग्भूयाचकर्ष तं नागबलमश्वतरो नाम नागविशेषोऽन्वगच्छत् / 'अश्वतरो वेसरे च नागराजान्तरेऽपि च' इत्युभयत्रापि विश्वः। कम्बलकर्कोटकाश्वतरादियुक्तो वासुकिश्च सबल आगत इत्यर्थः / अनोभयोः करिनागबलयोः प्रकृतत्वात् केवलं प्रकृतिश्लेषः // 8 // भूतलपर कुण्डिनपुरीको जानेवाले, राजाओंके झूल-सहित जिस महान् हाथियों के समूहको शीघ्रगामी ( या हृद्गामी ) सफेद घोड़ेने आगे होकर आकृष्ट किया, उस हाथियों के समूहको खच्चरों के समूहने अनुगमन किया। (पहले घोड़े, मध्यमें हाथी और पीछे खच्चर चलते थे)। ( पक्षा०-पृथ्वीके नीचे अर्थात् पातालमें स्थित, कुण्डिनपुरीको जाने वाले वासुकि ('वासुकि' नामक सर्पराज ) के कम्बल नामके सर्पके सहित जिस महान् नागसेना ( सर्पोके समूह ) को कर्कोटक नामके सर्पने आगे होकर आकृष्ट किया, उस नागसेनाका अश्वतर नामके सर्पने अनुगमन किया ) [ पातालवासी सर्पराज वासुकि भी 'कर्कोटक, कम्बल, अश्वतर' नामक सोँकी सेनाओं के साथ कुण्डिनपुरी में पहुँचे ] // 8 // . आगच्छदुर्वीन्द्रचमूसमुत्थैर्भूरेणुभिः पाण्डुरिता मुखश्रीः। विस्पष्टमाचष्ट दिशां जनेषु रूपं पतित्यागदशानुरूपम् // 9 // आगच्छदिति / आगच्छतामुन्द्रिाणां राज्ञाञ्चमूसमुत्थैर्भूरेणुभिः पाण्डुरिता धूसरीकृता दिशां मुखश्रीः पतित्यागदशानुरूपं भर्तृप्रवासावस्थोचितरूपं प्रोषिते मलिना कृशेत्युक्ताकारं जनेषु विषये विस्पष्टमाचष्ट जनेभ्यः प्रकटीचकारेत्यर्थः / अत्रा. न्यधर्मस्यान्यत्रासम्भवादिशां प्रोषितभर्तृकारूपमिव रूपमिति सादृश्याक्षेपादसंभव. द्वस्तुसम्बन्धाख्यो निदर्शनाभेदः हरिद्वधूनामिति देशान्तरपाठे रूपकं व्यक्तम् // 9 // ( कुण्डिनपुरीको ) आते हुए भूपालोंकी सेनासे उड़ी हुई धूलियोंसे पाण्डुरित दिशाओं के मुखकी शोभाने (परदेशमें जाने के कारण अथवा सपत्नीको वरण करने के कारण) पतियों के त्यागकी दशाके अनुकूल अवस्था अर्थात् मलिनता युक्त अवस्थाको लोगों में स्पष्ट रूपसे कह दिया अर्थात् प्रकट कर दिया / [ पतियोंको परदेशके लिये प्रस्थान करने पर या सपत्नी लाने के लिये प्रस्थान करनेपर स्त्रियों का मुख मलिन होना ठीक ही है / कुण्डिनपुरीको आनेवाले राजाओंकी सेनाओंकी धूलिसे सब दिशाएं मलिन हो गयीं ] // 9 // आखण्डलो दंडधरः कृशानुः पाशीति नाथैः ककुभां चतुर्भिः। . भैम्येव बद्ध्वा स्वगुणेन कृष्टैर्यये तदुद्वाहरसान्न शेषैः // 10 // अथेन्द्रादिलोकपालवृत्तान्तमाह-आखण्डल इति / आखण्डलः इन्द्रः, दण्डधरो यमः, कृशानुरग्निः, पाशी वरुण इति प्रसिद्धैः चतुर्भिः ककुभां नाथैः भैम्याः स्वगुणेन 1. 'कृष्टैः स्वयंवरे तत्र गतं न शेषैः' इति पाठान्तरम् / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 नैषधमहाकाव्यम् / स्वसौन्दर्यगुणेनैव गुणरज्ज्वेति श्लिष्टरूपकं बद्ध्वा कृष्टैरिवेत्युत्प्रेक्षा / तदुद्वाहरसा - मीपरिणयरागादेव यये कुण्डिनं प्रति यातम् / यातेर्भावे लिट् / शेषैरवशिष्टः नैऋतादिभिः षडभिन यये // 10 // ___ इन्द्र, यम, अग्नि और वरुण-ये चारों दिशाओं (क्रमशः पूर्व, दक्षिण, अग्निकोण और पश्चिम दिशाओं) के स्वामी दमयन्तीके द्वारा अपने गुण (सुन्दरता आदि गुण, पक्षा०-रस्सी) बांधकर खींचे गयेके समान उस ( दमयन्ती) के साथ विवाह के अनुरागसे आये ( पाठा-उस स्वयंवर में आये ); शेष ( नैऋत्य, वायु, कुबेर, आदि छः) दिक्पाल नहीं आये // 10 // मन्त्रैः परं भीमपुरोहितस्य तबद्धरक्षं विशति क रक्षः। तत्रोद्युमं दिक्पतिराततान यातुं ततो जातु न यातुधानः / / 11 / / अथ षडभिनताधनागमने कारणमाह-मन्त्ररित्यादि। भीमस्य भीमभूपतेः पुरोहितस्य मन्त्रैः रक्षोनमन्त्रैर्बद्धरक्षं कृतरक्षणं तत् पुरं कुण्डिनपुरं रक्षो राक्षसः क्व विशति न छापीत्यर्थः। ततो रक्षाबन्धाद्धेतोः यातुधानो नैर्ऋतः, दिक्पतिः जातु कदापि तत्र पुरं यातुं गन्तुमुधमं नाततान न चकार // 11 // (शेष 6 दिक्पालोंके स्वयंवर में नहीं आनेका कारण कहते हैं-) राजा भीमके पुरोहितके मन्त्रोंसे सुरक्षित कुण्डिनपुर में राक्षस कहां प्रवेश करें अर्थात् कहीं भी नहीं। इसी कारणसे (नैऋत्यका) दिक्पाल राक्षसने अर्थात् नैर्ऋत्यने वहां (कुण्डिन पुर में ) जाने के लिये कभी उद्योग नहीं किया। [ मन्त्रोंसे सुरक्षित स्थानों में राक्षसोंका प्रवेश नहीं करना शास्त्रवचनसे सिद्ध है। जिस प्रकार लोकमें कोई मनुष्य स्वयं प्रवेश नहीं कर सकने योग्य स्थानमें प्रवेश करनेके लिये कभी उद्योग नहीं करता है। उसी प्रकार नैर्ऋत्य दिशाके पतिका मन्त्ररक्षित कुण्डिनपुरमें अपना प्रवेश अशक्य मानकर वहां जाने के लिये उद्योग नहीं करना उचित ही है ] // 11 // कर्तुं शशाकाभिमुखं न भैम्या मृगं गम्भोरुहनिर्जितं यत् / तस्या विवाहाय य यौविदर्भान् तद्वाहनस्तेन न गन्धवाहः // 12 // कर्तुमिति / गन्धवाहो वायुः भैम्या गम्भोरुहाभ्यां नयनारविन्दाभ्यां निर्जितं मृगं स्ववाहनमृगमभिमुखीकर्तुं न शशाकेति यत् तेनाशक्तत्वेन तद्वाहनो मृगवाहनः सन् इति शेषः / तस्या भैम्या विवाहाय विदर्भान् जनपदान् न ययौ / वाहनं विना गन्तुमशक्यत्वादिति भावः // 12 // वायु दमयन्तीके द्वारा मुख -कमलसे जोते गये मृगको दमयन्तीके सग्मुख नहीं कर सके; उसी कारण मृगवाहन वायु उसके साथ विवाह करने के लिये विदर्भदेशको नहीं गये / [ दमयन्तीने अपने नेत्र-कमलसे मृगको जीत लिया है, वायुदेवका वाहन वह मृग एक वार पराजित होनेसे वायुके द्वारा प्रेरित होनेपर भी दमयन्तीके सामने मुख नहीं कर Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 561 सका, इसी कारण ( वाहनके अभावसे ) वायव्य दिक्पाल वायुदेव बिना वाहनके स्वयंवर में जाना अनुचित होनेसे दमयन्तीके साथ विवाह करने के लिये विदर्भ देशको नहीं गये, एकवार हारे हुए मृगका पुनः उसके सामने नहीं जाना उचित ही है ] // 12 // जातौ न वित्ते न गुणे न कामः सौन्दर्य एव प्रवणः स वामः। स्वच्छस्वशैलेक्षितकुत्सबेरस्तां प्रत्यगान स्त्रितरां कुबेरः // 13 // ननु श्रुतवित्तादिसम्पन्नः कुबेरः किमिति न यातस्तत्राह-जाताविति / कामः कुमार्याः, अभिलाषः, जातावभिजने कौलीन्ये इत्यर्थः / प्रवणो न तत्परः, वित्ते धने च न प्रवणः, गुणे श्रुतशीलादौ च न प्रवणः, किन्तु सौन्दर्य एव प्रवणः। कुतः ? स कामो वामो वक्रः, सुन्दरश्च इत्यर्थः / अत एव भणन्ति-'कन्या वरयते रूपमिति / तस्मात् स्वच्छे स्फटिकमयत्वाद्विम्बग्राहिणि स्वशैले कैलासे ईक्षिता कुत्सा गर्दा यस्य तद् बेरं शरीरं यस्य सः, सम्यगवगतस्वकौरूप्य इत्यर्थः। स कुबेरः स्त्रित. रामुत्कृष्टस्त्रीं त्रैलोक्यसुन्दरीमित्यर्थः / 'नद्याः शेषस्थान्यतरस्यामिति घादिपरो ह्रस्वः / तां दमयन्ती प्रति नाऽगात्, कोरूप्यलज्जया न गत इत्यर्थः // 13 // ____कामदेव या कुमारी-विषयक इच्छा ( श्रेष्ठ ) जातिमें नहीं तत्पर है, (श्रेष्ठ ) धनमें नहीं तत्पर है और (श्रेष्ठ ) गुणमें नहीं तत्पर है, किन्तु सुन्दरतामें ही तत्पर है; (क्योंकि ) वह काम वाम (प्रतिकूल, पक्षा०-सुन्दर ) है, ( ऐसा विचार कर ) निर्मल पर्वत ( स्फटिकके समान स्वच्छ कैलास पर्वत ) में अपने कुरूप शरीरको देखे हुए कुवेर स्त्री-श्रेष्ठ दमयन्तीके प्रति ( उसके साथ विवाह करने के लिये स्वयंवर में ) नहीं आये। [ 'कन्या वरयते रूपम्' वचनके अनुसार कन्या केवल सुन्दरताको ही प्रमुखता देती है, श्रेष्ठ जाति, धन या गुणको नहीं, अतः जाति, धन तथा गुणमें उत्तम होते हुए भी उत्तर दिक्पाल कुबेर सुन्दर नहीं होनेसे स्वयंवरमें नहीं आये ] // 13 // भैमीविवाहं सहतेऽस्य कस्मादध तनुर्या गिरिजा स्वभर्तुः / तेन वजन्त्या विदधे विदर्भानीशानयानाय तयान्तरायः // 14 // भैमीति / गिरिजा पार्वती स्वभर्तुरीश्वरस्य भैमीविवाहं कस्मात् सहते न कस्मादपीत्यर्थः / असहने कारणमाह-या भर्तुरद्धं तनुःसमांशपरत्वान्नपुंसकत्वं, 'पुंस्य?sधं समेंऽशके' इत्यमरः / भर्तुरर्धाङ्गभूता कथं सापत्न्यं सहत इति भावः / तेना. सहनेन निमित्तेन विदर्भान् जनपदान व्रजन्त्या तया देव्या ईशानस्येश्वरस्य यानाय विदर्भान् प्रति प्रयाणाय अन्तरायो विघ्नो विदधे विहितः। अचलत्यर्धे कथमन्तिरं चलेत् चलने वा शरीरं विशीर्यंत निष्क्रियं वा स्यात् / तस्मादीशानदिक्पालो नायात इत्यर्थः // 14 // जो पार्वती शिवजीका आधा शरीर है, वह ( सपत्नी होनेसे ) दमयन्तीके विवाहको कैसे सहन करती ? अर्थात् नहीं सहन करती; इसी कारण विदर्भ देशको जाती हुई उस Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / पार्वतीने ईशान (शिवजी) की यात्रामें विघ्न कर दिया। [ ईशान कोणके स्वामी शिवजी का आधा शरीर पार्वतीका और आधा अपना है, पत्नी भागवाले आधे शरीरको छोड़कर जाना असम्भव या निष्क्रिय होनेसे दमयन्तीके विवाहकी इच्छा रहनेपर भी शिवजी विदर्भ देशको नहीं जा सके // सपत्नी लानेको असहन करना स्त्रियोंका स्वभाव होता है, अतः पार्वतीका भी वैसा करना उचित ही है ] // 14 // स्वयंवरं भीमनरेन्द्रजाया दिशः पतिर्न प्रविवेश शेषः। प्रयातु भारं स निवेश्य कस्मिन्नहिर्महीगौरवसासहिः कः // 15 // स्वयंवरमिति / दिशः पतिर्दिक्पालः शेषः शेषाहिः भीमनरेन्द्रजाया भैम्याः स्वयंवरं न प्रविवेश / कुतः स शेषो भारं भूभारं कस्मिन्निवेश्य निधाय प्रयातु न कस्मिन्नपीत्यर्थः। तथा हि महीगौरवं महीभारं सासहिभृशं सोढा / 'सहिवहिचलिपतिभ्यो यङन्तेभ्यः किकिनौ वक्तव्यौ' इति किकिनौ तयोलिड्वद्भावात् 'न लोक' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया। अन्योऽहिः सर्पः कोऽस्ति न कोऽपीत्यर्थः // 15 // दिशा (नीचेकी दिशा अर्थात् पाताल ) के स्वामी शेषनाग भीमराजकुमारी ( दमयन्ती ) के स्वयंवर में नहीं प्रवेश किये अर्थात् नहीं आये; (क्योंकि ) वह (पृथ्वीके) भारको किसपर रखकर आते, पृथ्वी के भारको अच्छी तरह सहन करनेवाला कौन (दूसरा) सर्प है ? अर्थात् कोई नहीं / [ लोकमें भी अपने कार्यभारको अपने सदृश व्यक्तिपर सौंपकर ही कोई बाहर जाता है, अन्यथा नहीं; अतः अधोदिक्पाल शेषनाग भी पृथ्वी के भारको उठाने में समर्थ किसी सर्पके नहीं मिलनेसे दमयन्तीके साथ विवाहकी इच्छा होनेपर भी उसके स्वयंवर में नहीं जा सके ] // 15 // ययौ विमृश्योर्ध्वदिशः पतिर्न स्वयंवरं वीक्षितधर्मशास्त्रः। ब्यलोकि लोके श्रुतिषु स्मृतौ वा समविवाहः क्व पितामहेन // 16|| ययाविति / वीतितं सम्यक् परिशीलितं धर्मशास्त्रं येन स ऊर्ध्वदिशः पतिर्ब्रह्मा विमृश्यायुक्तमिति निश्चित्येव स्वयंवरं न ययौ। तथा हि पितामहेन ब्रह्मणा पितुः पित्रा च समं विवाहः / 'पितामहो विरिञ्चिः स्यात्तातस्तु जनकोऽपि च' इति विश्वः / लोके व व्यलोकि दृष्टः ? श्रुतिषु वेदेषु स्मृतौ धर्मशास्त्रे वा क श्रुतः ? न वापीत्यर्थः / 'असपिण्डां यवीयसीम्' इति स्मरणादिति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थन.. रूपोऽर्थान्तरन्यासः // 16 / / ___ धर्मशास्त्रोंको देखे हुए ऊपर दिशाके स्वामी ब्रह्मा विचार कर स्वयंवर में नहीं गये, लोकमें, वेदमें अथवा मन्वादि स्मृति में पितामह ( बाबा =पिताके पिता, पक्षा०-ब्रह्मा ) के साथ विवाह कहां देखा गया है ? अर्थात् कहीं नहीं। [धर्मशास्त्रज्ञ ऊर्ध्वदिक्पाल पितामह का विचार कर उक्त कार्य करना उचित ही है ] // 16 // Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 5633 मीनिभैरस्तं स्वमवेत्य दूत्या मुखात् किलेन्द्रप्रमुखा दिगीशाः / स्पन्दे मुखेन्दौ च वितत्य मान्द्यं चिंत्तस्य ते राजसमाजमीयुः // 17 // भैमीति / अथ पूर्वोक्ताश्चत्वार एव इन्द्रप्रमुखा दिगीशा दूस्याः स्वप्रेषितदूतिकायाः मुखात् स्वमात्मानं भैम्या निरस्तं परिहृतमवेत्य ज्ञात्वा चित्तस्य मान्द्यं विषादजाडयं स्पन्दे गत्यां मुखेन्दौ च वितत्य प्रकाश्य विषादात् मन्दगतयो विवर्णमुखाश्च. भूत्वेत्यर्थः / एतेन सानुभावो विषाद उक्तः। राजसमाजमीयुः किल // 17 // इन्द्र आदि दिक्पाल दूतोके मुखसे दमयन्तोके द्वारा अपनेको निरस्त ( अस्वीकृत) जानकर चित्तकी (पाठा०-धीरे-धीरे ) मन्दता (विषादज जड़ता) को गमन तथा मुखचन्द्र में भी विस्तृतकर अर्थात् विषादसे मन्दगति एवं उदासीन मुख होकर वे राजसमूहमें पहुँचे // 17 // नलभ्रमेणापि भजेत भैमी कदाचिदस्मानितिशेषिताशा / अभून्महेन्द्रादिचतुष्टयी सा चतुर्नली काचिदलीकरूपा // 18 // अथोपायान्तरवैफल्यादिन्द्रादयःतां वञ्चयित्वा ग्रहीतुं प्रवृत्ता इत्याह-नलेति / अथ राजसभाप्राप्त्यनन्तरं सा महेन्द्रादीनां चतुष्टयो भैमी कदाचित् कस्याञ्चिद्वेलायां नल इति भ्रमेण भ्रान्त्याप्यस्मान् भजेत वृणीतेत्येव शेषिताशा एतावन्मात्रावशेषित मनोरथा सती। उपायान्तरोपगमादिति भावः / अलीकरूपा काल्पनिकस्वरूपा अत. एव काचिदनिर्वाच्या चतुर्नली नल चतुष्टयी अभूत् / चत्वारोऽपि नलरूपं दधुरियर्थः। 'तद्धितार्थेत्यादिना समाहारद्विगावकारान्तोत्तरपदत्वात् स्त्रियां 'द्विगो रिति ङीप // 'दमयन्ती नलके भ्रमसे (नल समझकर ) भी हमलोगोंको वरण कर ले' एकमात्र इस बची हुई आशावाले इन्द्र आदि चारों दिक्पाल असत्य रूपवाले कोई अर्थात् अनिर्वचनीय ( अपूर्व) चार नल बन गये / [ इन्द्रादिने कपट से नल का रूप धारण कर लिया ] // 18 // प्रयस्यतान्तद्भवितुं सुराणां दृष्टेन पृष्टेन परस्परेण / तद्वैतसिद्धिन बतानुमेने स्वाभाविकात् कृत्रिममन्यदेव // 19 // प्रयस्यतामिति / असः स भवितुं तद्भवितुं नलीभवितुं तच्छब्दात् 'अभूततद्भावे चिः' / प्रयस्यतां प्रयतमानानां यस्यतेः देवादिकाल्लटः शत्रादेशः। सुराणां सम्ब. न्धिनि द्वयोर्भावो द्विता, द्वितैव द्वैतं, प्रज्ञादित्वात् स्वार्थे ऽण्प्रत्ययः। तस्य नलस्य वैतं तसिद्धिद्वितीयनलस्वसिद्धिः / तदत्यन्तसारूप्यसिद्धिरिति यावत् / दृष्टेन असौ नलतुल्यो जातो न वेति जिज्ञासितेन, परस्परेण नानुमेने। अतिप्रयासेनापि नलतुलां नारोहदेवेति भावः। बतेति खेदे। तथा हि-स्वाभाविकात् स्वभावसिद्धाद्रुपात् क्रियया निर्वृत्तं कृतकं रूपं 'ड्वितःवित्रः,' 'क्त्रेमम्नित्यम्'इति वित्रर्मप च / अन्यद्विलक्षणमेव हीनमेवेत्यर्थः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥१९॥ 1. 'चिरस्य' इति पाठान्तरम् / Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / नल होने ( नलका रूप धारण करने ) के लिये प्रयत्न करनेवाले देवोंके परस्परमें देखने तथा पूछनेसे नल के द्वितीय रूपकी सिद्धि नहीं हुई खेद है; (क्योंकि ) स्वाभाविकसे कृत्रिम (बनावटी) दूसरा अर्थात् हीन ही होता है। [नलका रूप धारणकर उन इन्द्रादि देवोंने परस्परमें देखा तथा एक दूसरेसे 'मैं नलके समान हो गया क्या' ऐसा पूछा तो स्वयं भी उन्हें अपना-अपना रूप नल के समान नहीं मालूम पड़ा तथा स्वेतर देवत्रयने भी "यह रूप वास्तविकमें नलतुल्य नहीं बना' ऐसा कहा। इस प्रकार वे इन्द्रादि देव नलका रूप धारणकर भी खेद है कि नलके समान नहीं हो सके ] // 19 // पूर्णेन्दुमास्यं विदधुः पुनस्ते पुनर्मुखीचरनिद्रमजम् / स्ववक्त्रमादर्शतलेऽथ दर्श दर्श बभजन तथातिमञ्जु // 20 // पूर्णेन्दुमिति / ते देवाः पुनः पूर्णेन्दुं पूर्णचन्द्रमेवास्यं विदधुः मुखं चक्रुः / तथा पुनरनिद्रं विकचमब्जं पद्मं मुखीचक्रः। नलमुखसाम्यलाभाय पुनश्चन्द्रेण पद्मेन च मुखानि निर्ममुरित्यर्थः / अथानन्तरं स्ववक्त्रमादर्शतले दर्पणान्तर्दर्श दशं दृष्ट्वा दृष्ट्वा पुनः पुनदृष्ट्वेत्यर्थः / आभीचण्ये णमुल् द्विवचनं च। तथा नलमुखवदतिमञ्ज अतिसुन्दरं नेति बभञ्जर्भग्नं चक्रुः निनिन्दुरित्यर्थः / अत्र पूर्णन्द्वादिकारणसामान्येऽपि विवक्षितकार्यानुत्पत्तिकथनाद्विशेषोक्किरलङ्कारः / 'तत्सामग्रयामनुत्पत्तिनिगद्यत' इति लक्षणात् // 20 // उन इन्द्रादि देवोंने बार-बार पूर्ण चन्द्रमाको मुख बनाया तथा बार-बार खिले हुए कमलको ( नलके मुखकी समानता पाने के लिये ) मुख बनाया और दर्पणमें बार-बार अपने मुखको देखकर वैसा अर्थात् नलके समान अत्यन्त मनोहर नहीं है ( इस कारण ) उसे बिगाड़ दिया ( या उस बनावटी मुखकी ) निन्दा की। [ नलके मुखको पूर्ण चन्द्रमाके समान मानकर इन्द्रादि देवों ने पहले अपने मुखको पूर्ण चन्द्रमासे बनाया, किन्तु दर्पणमें देखनेसे नलके मुख की सुन्दरता अपने मुखमें नहीं होनेसे 'नलके मुखको विकसित कमलके समान सुन्दर मानकर उस पूर्ण चन्द्रनिर्मित अपने मुखको बिगाड़कर उसके स्थानमें विकसित कमलसे अपना मुख बनाकर फिर दर्पणमें देखनेसे फिर भी नलके मुखकी सुन्दरता अपने मुखमें नहीं आनेसे उसे भी बिगाड़कर फिर उसके स्थानमें पूर्णचन्द्रसे अपने मुखको बनाया। इस प्रकार अनेकबार पूर्ण चन्द्रमा तथा विकसित कमलसे अपने मुखको बना-बनाकर दर्पणमें देखने पर नलके मुखको सुन्दरता अपने मुखमें नहीं आने से उसे बार-बार बिगाड़ा और अपनी रचनाकी निन्दा की। लोकमें भी कोई कारीगर किसी वस्तु के समान बनाते हुए उसे बार-बार देखता और उसके समान नहीं होने पर उसे बिगाड़कर पुनः बनाता है, और फिर भी वैसा नहीं होनेपर निन्दा करता है ! बार-बार पूर्ण चन्द्रमा तथा विकसित कमलसे मुखको बनानेपर भी वे इन्द्रादि देव नलके मुखकी सुन्दरता अपने मुखमें नहीं ला सके ] // 20 // Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 565 तेषां तथा' लन्धुमनीश्वराणां श्रियं निजास्येन नलाननस्य / नालं तरीतुं पुनरुक्तिदोषं बर्हिर्मुखानामनलाननत्वम् // 21 // तेषामिति / तथा तेन प्रकारेण निजास्येन प्रयोज्येन नलाननस्य श्रियं लब्धं लम्भयितुमिति णिजों ग्राह्यः। यद्वा निजास्येन साधनेन तां श्रियं लब्धं प्राप्तमनीश्वराणामसमर्थानां बहिर्मुखानामग्निवक्त्राणाम्, अग्निमुखा वैदेवाः'इति श्रुतेः। बर्हि मुखाः ऋतुभुजः', 'बहिश्शुष्मा कृष्णवर्मा' इति चामरः / तेषामिन्द्रादीनां सम्बन्धि, अनलाननत्वं वह्निमुखत्वम्, अथ च नलस्याननमिव आननं येषां ते नलानना इत्युपमानपूर्वपदो बहुव्रीहिः / ते न भवन्तीत्यनलाननाः तेषां भावः इत्यनलाननत्वं नलाननतुल्याननराहित्यं, पुनरुक्तिदोषम् 'अग्निमुखा वै देवाः' इति श्रुत्या तेषां वह्निमुखत्वे पूर्व सिद्धेऽपि पुनर्वह्रिमुखत्वसम्पादन मिति पुनरुक्ति,ः अथ च पूर्व नलरूपाप्राप्त्या नलाननतुल्याननराहित्ये सिद्धेऽपि पुनरलीकनलीभूत्वा चन्द्रादिनाऽपि नलसदृशाननत्वाप्राप्त्या अनलाननत्वमिति पुनरुक्तिरित्येतादृशपुनरुक्तिदोषमित्यर्थः, तरीततु परिहत्तु', नालं न समर्थः, न तु नलाननत्वसम्भावनापीत्यर्थः। द्वयोरप्यनलाननत्वयोर्भेदेऽपि श्लिष्टैकपदोपादानमहिम्नैकत्वाभिमानात्पौनरुक्त्यव्यपदेशः। अत्र नलाननश्रीलिप्सूनां तेषां न केवलं तदलाभः प्रत्युत दुस्तरतरपुनरुक्तिदोषरूपा. नर्थोत्पत्तिश्चेति द्वितीयो विषमालङ्कारभेदः / 'यत्रानर्थस्य वा भवेदिति लक्षणात् // उस प्रकार ( नलके समान अपना मुख बनानेसे / पाठा०-तब अर्थात् नलके समान अपना मुख बनाते समय ) नलके मुखकी शोभाको अपने मुखसे प्राप्त कराने ( या करने ) के लिये असमर्थ उन अग्निमुख अर्थात् देवों का अनलाननत्व (अग्निमुखत्व, पक्षा-नलभिनमुखत्व ) पुनरुक्ति दोषको दूर करने के लिये समर्थ नहीं हुआ। [ देव पहले अनलमुख (अग्निमुख ) ( पक्षा०-नलमिन्नमुख ) थे, वे अपना मुख नलके समान सुन्दर बनानेकी चेष्टा करने पर भी अनलानन ( अग्निमुख, पक्षा-नलासदृशमुख ) ही रह गये अर्थात् अन. लाननत्वको छोड़ने के लिये बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे देव नलाननत्वको प्राप्त नहीं कर सके; किन्तु अनलाननत्वरूप पुनरुक्ति से युक्त ही रहे / अन्य भी कोई अपण्डित व्यक्ति पुनरुक्ति दोषको दूर करने में जैसे समर्थ नहीं होता है, वैसे वे देव भी बहुत चेष्टा करनेपर भी अनलाननत्वको नहीं दूर कर सके ] // 21 // प्रियावियोगकथितात् किमैलाच्चन्द्राद्गृहीतैर्ग्रहपीडिताते / ध्माताद्भवेन स्मरतोऽपि सारैः स्वल्पयन्ति स्म नलानुकल्पम् // 22 // प्रियेति / ते देवाः प्रियावियोगेनोर्वशीविरहामिना क्वथितात् दग्धादैलादिलात्मजात्पुरूरवसः कर्परादेरिवेति भावः। तथा ग्रहपीडितादाहुनिष्पीडिताञ्चन्द्राच्च यंत्रनिष्पीडितात्तिलसर्षपादेरिवेति भावः। भवेन हरेण ध्मातात् स्मरतोऽपि कामाच्च 1. 'तदा' इति पाठान्तरम् / 2. -तादिवैला-' इति पाठान्तरम् / Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंषधमहाकाव्यम् / मुखमारुतसन्धुक्षिताग्निदग्धात् खदिरकाष्ठादेरिवेति भावः। गृहीतैरुपात्तैः सारै साधनैः स्वमात्मानं नलस्यानुकल्पं प्रतिनिधि कल्पयन्ति स्म किमित्युत्प्रेक्षा। अन्यथा तदनु। कल्पतापि कुत इति भावः। अन्येनापि कथनपीडिताग्निदाहादिना वस्तुसारः समाः कृष्यते / एतेन प्रियावियोगादिजन्यक्कथनादिरहितैलचन्द्रादितोऽपि नलस्य सौन्दयाधिक्यं व्यज्यते / 'मुख्यः स्यात् प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः' इत्यमरः // प्रिया ( उर्वशी) के वियो ।से क्वथित पुरूरवासे (क्वयित करनेसे सिद्ध कर्पूरादिके समान ), ग्रह अर्थात् राहुसे पीडित चन्द्रमासे (कोल्हू में पेले गये तैल के समान ), और शिवजी के द्वारा जलाये गये कामदेवसे (फूंककर जलायी गयी खैर आदिकी लकड़ी के समान) भी लिये हुए सारभूत पदार्थसे वे देव अपनेको नलके समान बनावेंगे क्या ? / [ जिस 'प्रकार लोकमें कोई कारीगर आदि क्वाथकर, निचोड़कर तथा अग्निमें फूककर तैयार किये गये सारभूत पदार्थसे किसी दूसरेके समान सुन्दर वस्तु बनाता है, उसी प्रकार वे देवता उक्त ऐल, चन्द्र तथा कामसे सार लेकर अपनेको नलके समान सुन्दर बना सकते हैं, क्योंकि प्रिया-विरह क्वथन रहित ऐल (पुरूरवा ), ग्रहनिष्पीडन रहित चन्द्र तथा शिवध्यानरहित कामदेवके तुल्य नल तीनोंसे अधिक श्रेष्ठ हैं ] // 22 // नलस्य पश्यत्वियदन्तरं तैभैमीति भूपान् विधिराहृतास्यै / स्पर्धा दिगीशानपि कारयित्वा तस्यैव तेभ्यःप्रथिमानमाख्यत् // 23 // नलस्येति / विधिब्रह्मा नलस्य तैर्भूपैः सह इयत् एतत् परिमितम्, अन्तरं तार• तम्यम्, इयं भैमी पश्यस्विति हेतोः एतान् भूपानाहृत आहृतवान् / हरतेलुङि तङ् 'हस्वादङ्गात् इति सिज्लोपः। किंच दिगीशानपि स्पर्धा कारयिस्वा नलरूपधारणादिद्वारा दिगीशैरपि नलेन सह मत्सरकारयित्वेत्यर्थः 'हकोरन्यतरस्या'मिति विकल्पादणिकर्तुः कर्मस्वम् / तस्य नलस्यैव तेभ्य इन्द्रादिभ्योऽपि 'पंचमीविभक्ते' इति पंचमी / प्रथिमानमाधिक्यमस्य भैम्य आख्यदाख्यातवान् / ख्यातेलुडि 'अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङि'ति ग्लेरडादेशः / त्रैलोक्यातिशायि लावण्यमस्येति भैमी प्रत्याययितुमेव ब्रह्मा स्वयम्वरव्याजेन त्रिलोकीमेकत्राचकरेत्युत्प्रेक्षा // 23 // 'दमयन्ती (अन्यान्य आये हुए राजाओं के साथ ) इतने (पाठा-इस) अन्तर दिक्पालों के द्वारा स्पर्धा कराकर उन दिक्पालोंसे नलकी ही श्रेष्ठताको दमयन्तीके प्रति बतलाया [ 'सब राजाओंमें नल ही श्रेष्ठ हैं। इस बातको दमयन्ती राजाओंको विना प्रत्यक्ष देखे नहीं जान सकती थी, इस कारण ब्रह्माने नलसे राजाओंकी न्यूनता बतलाने के लिये स्वयंवरमें राजाओंको दमयन्तीके सामने बुलाया। नलके हमलोगोंकी अपेक्षा अधिक सुन्दर होनेसे विना नलका रूप ग्रहण किये अपना देवरूप ग्रहणकर स्वयंवर में जानेसे हमलोगोंको दमयन्ती नहीं वरण करेगी, किन्तु नलको ही वरण करेगी, अत एव नलके साथ देवोंके Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। द्वारा स्पर्धा कराकर ब्रह्माने दमयन्तीसे यह स्पष्ट सूचित कर दिया कि इन्द्रादि देवताओंसे भी नल ही अधिक सुन्दर है, क्योंकि कोई भी चतुर व्यक्ति अपने कार्यको साधने के लिये बड़ेके साथ ही स्पर्धा करता है छोटेके साथ नहीं, अत एव तुम ( दमयन्ती ) सर्वश्रउ नलको ही वरण करो] // 23 // सभा नलश्रीयमकैर्यमाद्यैर्नलं विनाऽभूभृतदिव्यरत्नैः / भामाङ्गणमाघुणिके चतुर्भिर्देवद्रुमैौरिव पारिजाते // 24 // सभेति / सभा सा राजसभा नलश्रियो यमकैः पुनरुक्ताकारैस्तद्पधारिभिरित्यर्थः / तानि दिव्यानि रत्नानि यस्तै रत्नाभरणभूषितरित्यर्थः। यमाद्यैश्चतुर्भिनलं विना तदा नलस्यानागमनात्तेन विनाभूतैरित्यर्थः / अत एव पारिजाते पारिजाताख्ये देवद्रुमे भामायाः सत्यभामायाः अङ्गणस्य चत्वरस्य प्राघुणिके अतिथौ सति, तया उपहृते सतीत्यर्थः / 'आवेशिकः प्राघुणिक आगन्तुरतिथिः स्मृतः' इति हलायुधः / धृतदिव्यरत्नैर्मूलादग्रपर्यन्तंभूतमुक्तादिदिव्यरत्नैः, चतुर्भिर्देवद्रुमैर्मन्दारादिभिः, 'पञ्चैते देवतरवो मन्दारः पारिजातकः / सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्' इत्यमरः। द्यौः स्वर्ग इवाभूत् अभादित्यर्थः, मन्दारादिषु सत्स्वपि पारिजातं विना यथा यौन शोभते, तथा नलरूपधारिषु यमादिषु सत्स्वपि नलं विना स्वयंवरसभा न शुशुभे / सभायामिन्द्रादयः समागता नलो नागत इति भावः // 24 // वह सभा ( राजसभा) नलकी शोभाके यमक अर्थात् नलकी शोभाके प्रतिनिधिरूप (नलरूप नहीं ) तथा दिव्य रत्नोंको पहने हुए यम आदि चारों दिक्पालोंसे 'पारिजात' ( नामक देववृक्ष ) के सत्यभामाके आंगनेमें अतिथि होनेपर अर्थात् सत्यभामा के यहां अतिथिरूप में पारिजातके जानेपर ऊपरसे नीचे तक दिब्य रत्नोंसे लदे हुए चार देववृक्षों (मन्दार, सन्तान, कल्पवृक्ष तथा हरिचन्दन ) से युक्त स्वर्ग ही हुई / [ जिस प्रकार पारिजातके विना दिव्यरत्नों से युक्त भी मन्दार आदि चार देववृक्षों के रहने पर भी स्वर्गकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार दिव्य रत्नोंको पहने हुए भी नलरूपधारी यमादि चार दिक्पालों के पहुंचने पर भी उस राजसभा ( स्वयंवर ) को शोमा नहीं हुई / यम आदि चारों दिक्पाल स्वयंवर में नलका रूप धारणकर पहुँच गये और नल नहीं पहुँचे ] 24 / / तत्रागमद्वासुकिरीशभूषाभस्मोपलेहस्फुटगौरदेहः / फणीन्द्रवृन्दप्रणिगद्यमानप्रसीदजीवाद्यनुजीविवादः // 25 // तत्रेति। ईशभूषा योगपट्टसम्पादनार्थ तत्र वासात् ईश्वराभरणभूतः, अत एव भस्मन उपलेहेनोपलेपेन तदङ्गरागभस्मसङक्रमणेन स्फुटगौरदेहः शुभ्राङ्गः वासुकिः फणीन्द्रवृन्दैः सर्पराजगणैः प्राणि गद्यमानो व्याहियमाणः, 'नेर्गदनदे' त्यादिना णत्वम् / प्रसीदजीवशब्दावादिय॑स्य सोऽनुजीविवादः सेवकजन 36 नै Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 565 नैषधमहाकाव्यम् / कोलाहलः यस्य स आदिशब्दाजयादि शब्दसंग्रहः वासुकिः तत्र स्वयंवरे आगमदागतः // 25 // - शिवजीका भूषण तथा (शिवजीके शरीरस्थ; पाठा०-शिवजीके योगपट्ट-सम्पादनार्थ निवास करनेसे, द्वितीय पाठा०-शिवजीके भूषण भस्मके लेपसे शुभ्र अर्थात् गौर वर्ण शरीरवाला और कर्कोटक आदि नागराजों से कहे जाते हुए 'प्रसीद जीव' ( प्रसन्न होवो, जीवो) आदि अनुचरोक्त वचनोंवाला वासुकि वहांपर ( स्वयंवर स्थल में ) आया। [ पहले श्लोक (108) से वासुकिके पातालसे चलनेका तथा इस श्लोकसे वासुकिके स्वयंवर में पहुँचनेका वर्णन होनेसे पुनरुक्ति दोष नहीं है ] // 25 // द्वीपान्तरेभ्यः पुटभेदनं तत् क्षणादवापे सुरभूमिपालैः।। तत्कालमालम्भि न केन यूना स्मरेषुपक्षानिलतूललीला // 26 // द्वीपान्तरेभ्य इति / तत् पुटभेदन कुण्डिनपुरं द्वीपान्तरेभ्यः, प्लक्षादिभ्यः, अपा. दाने पञ्चमी / सुराश्च भूमिपालाश्च तैः, अथवा सुरभूमयः देवभूमयः द्वीपान्तरलक्षणाः / देवानां भोगदेहशालिस्वेन द्वीपान्तराणाञ्च भोगभूमित्वेन सुरभूमित्यव्यपदेश इति भावः पालयन्ति ये तैः राजभिरित्यर्थः, तणावापे आप्तम् / तथा हि तस्मि. न्काले तत्कालं स्वयम्बरकालमित्यर्थः। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। केन यूना स्मरे पूगां पानिलेन तूलस्य कार्पासादेलीला इव लीला विलासः नालम्भि न प्रातः / 'चिण्भावकर्मणो' रिति लभेः कर्मणि लुङि चिण। 'विभाषा चिण्णमुलोः' इत्युपसृष्टाद्वैभाषिको नुमागमः। अनाखिलयूनां कामुकत्वेन कुण्डिनप्राप्तिरूप. कारणेन द्वीपान्तरस्थभूपानां झटिति कुण्डिनप्राप्तिरूपकार्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः / स च तूललीलेति निदर्शनासङ्कीर्णः // 26 // ___उस कुण्डिननगरको दूसरे (प्लक्ष, शाक आदि) द्वीपों से देवता तथा राजा लोग अथवा (दीपान्तर रूप ) देवभूमिके पालनेवाले राजालोग ) शीघ्र आ गये; (क्योंकि ) उस समय कौन युवक कामबाणके पङ्खकी हवासे रूई की लीला ( समानता ) को नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् सभी युवकों ने किया। जिस प्रकार वायु वेगसे प्रेरित रूई उड़कर शीघ्र एक स्थानसे सुदूर दूसरे स्थानमें पहुँच जाती है, उसी प्रकार कामबाण-पीडित द्वीपान्तरवासी राजा लोग भी शीघ्र ही कुण्डिन नगर में पहुँच गये ] // 26 // रम्येषु हर्येषु निवेशनेन सपर्यया कुण्डिननाकनाथः / प्रियाक्तिदानादरनम्रताद्यैरुपाचरच्चारु स राजचक्रम् // 27 // रम्येष्विति। सः कुण्डिननाकनाथः कुण्डिनेन्द्रो भीमः राजचक्रं राजमण्डलं रम्येषु हर्येषु निवेशनेन स्थापनेन सपर्यया अयपाद्यादिपूजया तथा प्रियोक्तिः प्रियवचनं दानं गन्धमाल्यताम्बूलादिसमर्पणमादरः समादरः सम्मानो वा, नम्रता Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। ... 566 विनयाचरणमेवमाद्यैरुपचारैरायशब्दागोजनादिसंविधानसङ्ग्रहः / चारु सम्यगु. पाचरत् सन्तोषितवान् // 27 // कुण्डिनके स्वामी राजा भीमने सुन्दर प्रासादोंमें ठहराने, अय-पादाय॑ आदि, प्रिय भाषण, पान, माला, चन्दनादिलेप आदिके दान, आदर-सत्कार तथा नम्रता आदिसे राज-समूहका उत्तम सत्कार किया // 27 // चतुःसमुद्रीपरिखे नृपाणामन्तःपुरे वासितकीर्तिदारे / औदार्यदाक्षिण्यदयादमानां चतुष्टयीरक्षणसोविदल्लाः // 28 // युक्तं चैतदित्याह-चतुरिति / चतुःसमुद्रयेव परिखावलयं यस्य तस्मिन् वासिताः स्थापिताः कीर्तय एव दाराः कलत्राणि यस्मिन् तस्मिन् नृपाणां राज्ञामन्तःपुरे पृथिवी. पुरे इति भावः / औदार्य त्यागः दाक्षिण्यं परिचित्तानुवर्तनं दया कृपा दम इन्द्रिययमनं तेषां चतुष्टय्येव रक्षणे रक्षणार्थ, सौविदल्लाः कञ्चुकिनः / 'सौविदल्लाः कञ्चकिनः' इत्यमरः / औदार्यादिगुणचतुष्टयेन नृपाणां कीर्तिः रचयते, तद्विहीनानां कुतः कीर्ति रिति भावः / स्वकीर्तिरक्षणार्थं तेन राज्ञा भीमेन ते राजानः सत्कृता इति तात्पर्यम् / रूपकालङ्कारः // 28 // चार समुद्ररूप परिखा ( खाई ) वाले तथा कीर्तिरूपिणी स्त्रियोंको जहां ठहराया गया है ऐसे राजाओं के ( भूमिरूपी ) अन्तःपुरमें उदारता, दाक्षिण्य ( अनुकूल व्यवहार करना ), दया और इन्द्रिय संयम-ये चारों ( अन्तःपुरकी) रक्षामें कञ्चुकी (कन्चुकी तुल्य ) हैं / [ जिस प्रकार अन्तःपुरस्थ स्त्रियोंकी रक्षा कञ्चुकी करता है, उसी प्रकार कीर्तिरूपिणी स्त्रीकी रक्षा उदारता आदि चारों करते हैं / इनके बिना कोतकिी रक्षा नहीं हो सकती, इसी कारण चक्रवर्ती होकर भी राजा भीमने अपनेसे अवर ( हीन ) राजाओं का भी उक्त प्रकार ( 10 / 27 ) से सत्कार किया // 28 // अभ्यागतैः कुण्डिनवासवस्य परोक्षवृत्तेष्वपि तेषु तेषु / जिशासितस्वेप्सितलाभलिङ्गं स्वल्पोऽपि नावापि नृपैर्विशेषः।।२९।। अभ्यागतैरिति / अभ्यागतैर्नृपैः कुण्डिनवासवस्य कुण्डिनेन्द्रस्य भीमस्य सम्बइन्धिषु परोक्षवृत्तेषु गूढनिष्पन्नेष्वपि अपिना प्रत्यक्षवृत्तानां परिग्रहः, तेषु तेषूपचारेषु जिज्ञासितस्य ज्ञातुमिष्टस्य प्रयत्नान्वेषणीयस्य इत्यर्थः / जानातेः सन्नन्तात् कर्मणि क्तः / स्वेप्सितलाभस्य भैमीलाभस्य लिङ्गं चिह्नं गमकभूतः इति भावः। स्वल्पोऽपि विशेष उपचारतारतम्यं नावापि न लब्धः, यस्मिन् नृपे उपचारविशेषः परिलक्ष्येत तस्मै एव भैमी दास्यतीति हेतोः महानुपचारविशेषः कस्य क्रियते इति परिज्ञाने. च्छायां नृपैः कुत्रापि तद्विशेषो नावगतः. भीमेन सर्वेषां राज्ञां तुल्य एव समादरः कृतः, तत एव सर्वेऽप्यमंसत यत् भैमीलाभो ममैव भविष्यतीति भावः // 29 // आये हुए राजाओंने कुण्डिनेश्वर के उन-उन परोक्ष (प्रिय भाषण आदि) Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम्। व्यवहारों में भी जानने के लिये अभीष्ट ( दमयन्ती प्राप्तिरूप अपने अभीप्सित ) लाभका कोई थोड़ा भी विशेष नहीं पाया। [ आये हुए राजाओंने सोचा था कि 'राजा भीम स्वयंवर में आये हुए जिस राजाका अधिक सस्कार करेंगे उसीके लिए दमयन्ती भी देंगे' अतः इस बातका पता लगानेपर उन्होंने किसी राजाके प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे किये गये सत्कार में थोड़ी भी न्यूनाधिकता नहीं देखी, अतएव, समस्त राजा यही समझते थे कि मुझे ही दमयन्ती मिलेगी; अथवा-गुप्त सत्कार-विशेषसे भीम राजाका अभिप्राय बहुत दुरूह था, अतः किसीको कुछ अनुमान नहीं हो सका कि दमयन्ती अमुक राजाको मिलेगी। राजा भीमने स्वयंवर में आये हुए सब राजाओंका समान रूपसे सत्कार किया ] / अङ्के विदर्भेन्द्रपुरस्य शङ्के न सम्ममौ नैष तथा समाजः। यथा पयोराशिरगस्त्यहस्ते यथा जगद्वा जठरे मुरारेः / / 30 // सर्वेषां राज्ञां कुण्डिननगरे समावेशो जात इत्याह-अङ्क इति / विदभन्द्रपु. रस्य कुण्डिनपुरस्याङ्के अभ्यन्तरे एष समाजोराजसङ्खोऽगस्त्यहस्ते पयोराशिः समुद्रः यथा मुरारेः जठरे जगद्वा यथा तथा न सम्ममौ न सम्मितः इति न, किन्तु तथैव सम्ममावित्यर्थः / शङ्क इत्युत्प्रेक्षायाम् / मुनिहस्तहरिकुत्यौपम्येन अल्पेऽपि पुरे समाजस्य महतः सम्मानोत्प्रेक्षणादुपमोत्प्रेक्षयोः सङ्करः / तेनाधाराधेययोरनानुः रूप्यलक्षणाधिकालङ्कारस्तन्महत्त्वमस्यद्भुतं वस्तु च व्यज्यते // 30 // ___विदर्भराजकी नगरी कुण्डिनपुर में अगस्त्य मुनिके हाथ (चुल्लू ) में समुद्र के समान और विष्णुके उदर में संसारके समान यह राज-समूह नहीं समाया ऐसा नहीं, अपि तु समाया ही / [ स्वयंवर में आये हुए सब राजा विशाल कुण्डिनपुरीमें बड़े आनन्दसे निवास किये ] // 30 // पुरे पथिद्वारगृहाणि तत्र चित्रीकृतान्युत्सववाञ्छयैव / नभोऽपि किर्मीरमकारि तेषां महीभुजामाभरणप्रभाभिः // 31 // पुर इति। तत्र पुरे उत्सववाग्छया विवाहोत्सवाभिलाषेण पन्थानो द्वाराणि गृहाणि च तान्येव चित्रीकृतानि तेषामभ्यागतानां महीभुजामाभरणप्रभाभिः नभो. ऽपि किरिं चित्रमकारि। अपिशब्दात् पथिद्वारगृहाणि च चित्रीकृतानीति किं वाच्यम् ? 'चित्रं किरिकल्माष शबलैताश्च कर्बुरे' इत्यमरः। अत्र समृद्धिमद्वस्तु वर्णनादुदात्तालङ्कारः // 31 // ___ उस नगर में उत्सवकी इच्छासे राजमार्गके द्वारों के घर (अथवा-राजमार्ग, द्वार, तथा घर; अथवा-राजमार्ग के द्वार वाले घर ) चित्रित ( रंग-विरंगी सजावटासे युक्त ) किये ही गये थे ( इसमें आश्चर्य नहीं है, किन्तु ) उन राजाओंके भूषणोंकी कान्तियों ( किरणों ) से आकाश भी ( 'अपि' शब्दसे उक्त राजमार्गके द्वारोंके घर भी) चित्रित कर दिये गये ( यह आश्चर्य है ) // 31 // Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। विलासवैदग्ध्यविभूषणश्रीस्तेषां तथाऽभूत् परिचारकेऽपि / अज्ञासिषुः स्त्रीशिशुबालिशास्तं यथागतं नायकमेव कश्चित् // 32 // विलासेति / तेषां राज्ञां परिचारके सेवकेऽपि विलासानां कटाक्षविक्षेपादिशृङ्गारचेष्टानां, वैदग्ध्यस्य वक्रोक्त्यादिभाषणे चातुर्यस्य विभूषणानां च श्रीः सम्पत्तिः तथा अभूत् यथा स्त्रियः शिशवो बालिशाः अज्ञाश्च / 'शिशावज्ञे च बालिश' इत्यमरः। तं परिचारकमागतं कञ्चिन्नायकं राजानमेव अज्ञासिषुरमंसत / विवेकिनस्तु तत्त्वत एव जानन्तीति भावः / राजभृत्याश्च राजकल्पा इति राज्ञामेश्वोक्तरतिशयोक्तिः // 32 // उन राजाओं के सेवकों में भी विलास ( शृङ्गारपूर्ण कटाक्ष आदि), चातुर्य तथा भूषणों (रत्नादि जड़े हुए सुवर्णालङ्कारों) की शोभा वैसी थी; जिससे स्त्री, बालक-मूर्ख (स्वल्पज्ञ) लोग आगे हुए उसीको कोई नायक ( राजा) समझ लिया। [स्वयंवर में आये हुए राजाओं के सेवक भी कटाक्षादि शृङ्गारभावसे पूर्ण, चतुर तथा बहुमूल्य भूषण पहने थे अतएव सामान्य बुद्धिवाले उन्हें भी राजकुमार ही समझते थे] // 32 // 'अस्वेदगात्राश्चलचामरौधैरमीलनेत्राः प्रतिवस्तुचित्रैः / अम्लानमाला विपुलातपत्रैर्देवा नृदेवाश्च भिदां न भेजुः / / 33 // अथ श्लोकद्वयेन राज्ञां देवानां च भेदो दुर्लक्ष्य इत्याह-अस्वेदेत्यादि। चलचा. मराणामोधैरस्वेदानि गात्राणि येषां ते तथोक्ताः, वस्तूनि वस्तूनि प्रतिवस्तु, वीप्सायामव्ययीभावः / चित्रैरद्भुतैः 'विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्यचित्रम्' इत्यमरः। मीला मीलकाः। 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियामप्रत्यये टाप / तदगृहीतानि अमीलानि अनिमिषाणि, यद्वा न मीलन्तीत्यमीलानि, पचायच। तानि नेत्राणि येषां ते तथोक्ताः अनि. मिषदृष्टय इत्यर्थः / तथा विपुलैरातपत्रेनिमित्तैरम्लानमाला देवा इन्द्रादयः नृदेवा राजानश्च भिदां भेदं, 'षिद्भिदादिभ्योऽङ। न भेजुः। देवपने सर्वत्र उपलक्षणे तृतीया; राजपक्षे हेतौ तृतीया। देवानां स्वेदाद्यभावस्य स्वाभाविकत्वात् चामरौवादीनामुपलक्षितत्वं राजपक्षे तु स्वेदाभावस्यास्वाभाविकत्वेन चामरौघादीनां तत्तसाधनत्वं बोध्यम् / अत्रास्वेदगात्रादिपदार्थानां विशेषणगत्या देवभेदाभावहेतुत्वात् पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः // 33 // ( स्वभावतः ) पसानेसे रहित शरीरवाले तथा चलते हुए चामरसमूहोंसे युक्त देव और चलते हुए चामरों के समूहों ( की हवा ) से पसीनेसे रहित शरीरवाले राजा, ( स्वभावतः ) निमेषसे रहित तथा प्रत्येक पदार्थों में विचित्र देव और प्रत्येक (विचित्र ) पदार्थों ( के देखने ) से आश्चर्यित राजा, एवं ( स्वभावतः) मलिन नहीं होनेवाली 1. 'न स्वेदिनश्चामरमारुतैर्न निमेषमात्राः प्रतिवस्तुचित्रः / म्लानस्रजो नातपवारणेन देवा नृदेवा विभिदुन तत्र // ' इत्येवं पठित्वा 'प्रकाश' कृताऽयं श्लोको व्याख्यातः। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 नैषधमहाकाव्यम्। मालाओं वाले तथा विशाल छत्रों वाले देव और विशाल ( बड़े-बड़े ) छत्रों ( के होने ) से नहीं मुझायी हुई मालाओंवाले राजा (परस्परमें ) भेदको नहीं प्राप्त किये। [ देवोंको स्वभावतः पसीना नहीं होता, नेत्रों के पलक नहीं गिरते तथा उनकी माला नहीं मुझाती, ऐसे वहां उपस्थित इन्द्रादि देवोंमें तथा बहुत-से चामरोंकी हवासे सूखनेके कारण पसीना रहित, अनेक प्रकार के विचित्र-विचित्र प्रत्येक पदार्थोको आश्चर्यचकित होकर एकटक देखनेसे पलकको नहीं गिराते हुए और विशाल छत्रोंको लगानेसे धूपका प्रभाव नहीं पड़नेके कारण नहीं मुझयी हुई मालावाले राजाओंमें कोई भेद नहीं रहा। उक्त कारणों से समानधर्मा हो जानेसे 'ये देव हैं तथा ये मनुष्य हैं। यह कोई नहीं पहचान सका / 'नारायणभट्ट' कृत 'प्रकाश' व्याख्यासम्मत पाठान्तर में भी प्रायः ऐसा ही अर्थ समझना चाहिये // 33 // अन्योऽन्यभाषानवबोधभीतेः संस्कृतिमाभिर्व्यवहारवत्सु / दिग्भ्यः समेतेषु नरेषु वाग्भिः सौवर्गवर्गो न नरैरचिह्नि // 34 // अन्योऽन्येति / दिग्भ्यः समेतेषु समागतेषु नरेषु मनुष्येषु अन्योऽन्येषांभाषाणामनवबोधेन निमित्तेन भीतेः सङ्कोचात् संस्कारेण निवृत्ताः संस्कृत्रिमा, 'डिवतः क्रिः' 'क्त्रेमप च नित्यम्' ताभिर्वाग्भिर्व्यवहारोऽभिवादनव्यापारः तद्वत्सु देवभाषयेक भाषमाणेष्वित्यर्थः / स्वर्गः, भवाः इति सौवर्गाः, देवाः, भावार्थ 'तत्र भवः' इत्यण, 'द्वारादीनाञ्च' इत्यैजागमः आद्यस्वरस्य वृद्धिनिषेधश्च तेषां वर्गः समूहः सौवर्गवर्गो देवसमूहः, नरैः कुण्डिनवासिभिः, नाचिति देवत्वेन नाज्ञायि, चिह्नशब्दात् 'तत्करोति' इति ण्यन्ताल्लुङि णाविष्ठवगावे 'विन्मतो क्' इति मतुपो लुक / भेदे अभेदलक्षणाऽतिशयोक्तिः // 34 // परस्परकी भाषाओंके ( विभिन्न होनेसे ) नहीं समझने के डरसे संस्कृत भाषाओंसे व्यवहार करनेवाले अर्थात् संस्कृत भाषा बोलनेवाले एवं दिशाओंसे आये हुए उन राजाओंमें देव-समूह (इन्द्र आदि चारों देवताओं) को लोगों ने नहीं पहचाना / [ देवलोग स्वभाषा होनेसे सर्वदा संस्कृत ही बोलते थे तथा अनेक देश-देशान्तरोंसे आये राजालोग भी अपने-अपने देशकी भाषाओंको बोलनेसे सब लोग नहीं समझ सकेंगे इस विचारसे संस्कृत ही बोलते थे। अत एव देवों तथा राजाओंकी भाषा में एक संस्कृतका ही व्यवहार उस स्वयंवर में होनेसे वहां की जनताने देवोंको राजा ही समझ लिया। किसीने उन्हें 'ये देव हैं। ऐसा नहीं पहचाना] // 34 // ते तत्र भैम्याश्चरितानि चित्रे चित्राणि पौरैः पुरि लेखितानि / निरीक्ष्य निन्युर्दिवसं निशाञ्च तत्स्वप्नसम्भोगकलाविलासैः // 35 // त इति / ते सर्वे नृपाश्च तत्र तस्यां पुरि कुण्डिने पौरैः चित्रे आलेख्ये लेखितानि चित्राणि नानाविधान्याश्चर्याणि 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः / भैम्याश्चरितानि Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 573 निरीचय दिवसं निन्युः / तस्याः सम्बन्धिभिः स्वप्ने याः सम्भोगकलाः सुरतचेष्टास्ता एव विलासाः विनोदास्तनिशाञ्च निन्युः / एतेन जागरावस्थोक्ता // 35 // ___ उन्होंने ( देव तथा राजाओं ) ने उस नगरमें नागरिकों ( नगरवासी चित्रकारों ) से चित्रित आश्चर्यकारक दमयन्तीके चित्रोंको देखकर दिनको और उस ( दमयन्ती) के स्वप्न में सम्भोगकी कला ( चुम्बनादि ) के विलासोंसे रात्रिको बिताया। [ स्वभावतः कभी नहीं सोनेवाले देवोंके कामभ्रमको ही यहां स्वप्नावस्था माननी चाहिये / दमयन्तीको पानेकी चिन्तामें वहां पहुंचे हुए देवों तथा राजाओंको नींद नहीं आती थी ] // 35 // सा विभ्रमं स्वप्नगतापि तस्यां निशि स्वलाभस्य ददे यदेभ्यः / तदर्थिनां भूमिभुजां वदान्या सती सती पूरयति स्म कामम् // 36 // सेति / सती सा भैमी तस्यां निशि स्वयंवरात्पूर्वरात्रौ स्वप्नगताऽपि अपि सम्भावनायां जागरे तु सम्भावितत्वादिति भावः / एभ्यो देवेभ्यो राजभ्यश्च स्वलाभस्य स्वप्राप्तेर्विभ्रमं भ्रान्तिमलीकसङ्गतिमित्यर्थः / ददे दत्तवतीति यत्तत्तस्मादलीकदानाधेतोर्वदान्या सतीभवन्ती। स्वप्राप्तिदानाद्वदान्यत्वं प्राप्तेमिथ्यात्वात्पतिव्रता च सती. त्यर्थः। अर्थिनां भूमिभुजाच कामं मनोरथं पूरयति स्म। एवं स्वकामुकानेकलोकोत्तरयुव समदायेऽपि सा नलैकजीवितैव सती स्थितेत्यर्थः। पतिव्रतायाः स्वकामुकानां सर्वेषां कामपूरकत्वं विरुद्धं, तस्याः स्वप्नदर्शनस्य अलीकत्वात् तेन तथाविधसर्वकामपूरणेऽपि दोषाभावात् परिहारः॥३६ // उस (स्वयंवर के पूर्व दिनवाली) रात्रिमें स्वप्न में भी देखी गयी उस पतिव्रता दमयन्तीने अपनी प्राप्ति ( दमयन्तीलाभ ) का जो विभ्रम ( विलास, पक्षा०-विशिष्ट भ्रम ) इन ( देवों तथा राजाओं) के लिये दिया, वह अर्थी ( दमयन्तीको चाहने वाले ) राजाओं ( पक्षा०-भूमिपर आये हुए देवताओं ) के काम ( मनोरथ ) को दानशीला होकर पूरा कर दिया। [ पतिव्रता दमयन्तीके लिये विलाससे समस्त राजाओंका काम पूरा करना असम्भव होनेसे विरोध होता है और विशिष्ट भ्रम देने एवं स्वप्नमें दर्शन देनेसे उसका परिहार हो जाता है / अपने ( दमयन्ती ) को कामुक अनेक युवकों के समूहों के रहते भो वा दमयन्ती एकमात्र नलको ही चाहती थी। स्वयंवर-दिनके पूर्ववाली रात्रिमें सब राजाओंने स्वप्नमें दमयन्तीको देखकर उसके साथ विलास करनेका अनुभव किया। दिनमें चिन्तित वस्तु का रात्रिमें स्वप्नमें देखना सर्वानुभवसिद्ध बात है ] // 36 // वैदर्भदूतानुनयोपहूतैः शृङ्गारभङ्गीष्वनुभाववत्सु।। स्वयंवरस्थानजनाश्रयस्तैर्दिन परत्रालमकारि वीरैः॥ 37 // वैदर्भेति / परन दिने परेऽहनि वैदर्भस्य भीमनृपतेर्दूतैरनुनयेन प्रार्थनेनोपहूतैः १.-'वद्भिः' इति-'यद्भिः' इति-'विद्भिः' इति च पाठान्तराणि, तत्रान्त्य एवं साधुः प्रतिभाति / Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 नैषधमहाकाव्यम् / शृङ्गारभङ्गीषु रतिभावविजम्भणेषु येऽनुभावाः कटाक्षविक्षेपादयस्तद्वत्सु / 'शृङ्गारभङ्गीष्वनुभाववद्भिरिति पाठे शृङ्गारचेष्टाः प्रकाशयद्भिरित्यर्थः। तैर्दिगन्तागतैर्वी रैः स्वयंवरस्थानभूतो जनाश्रयो मण्डपः / 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः' इत्यमरः। अलमकारि अलंकृतम् / स्वयंवरस्थान प्राप्तमित्यर्थः // 37 // विदर्भराज (भीम) के दूतोंके द्वारा विनयपूर्वक बुलाये गये (सूचित) शृङ्गार चेष्टाओंमें अनुभाव युक्त ( पाठा०-अनुमाव कराते हुए, अनुभाववाले, अनुभावके ज्ञाता) वे वीर स्वयंवर में आये हुए राजा लोग स्वयंवरमण्डपको अलकृत किये अर्थात् स्वयंवरके मण्डप में पहुंचे // 37 // भूषाभिरुच्चैरपि संस्कृते यं वीक्ष्याकृत प्राकृतबुद्धिमेव / प्रसूनबाणे विबुधाधिनाथस्तेनाथ साशोभि सभा नलेन // 38 // भूषेति / विबुधाधिनाथ इन्द्रो यं नलं वीक्ष्य भूषाभिभूषणैरतिशयेन संस्कृतेऽलंकृ. तेऽपि, 'सम्परिभ्यां करोती भूषणे'इति सुडागमः। प्रसूनबाणे मन्मथे प्राकृतबुद्धिं पृथ. ग्जनबुद्धिमेव / नीचबुद्धिमेवेत्यर्थः, 'प्राकृतस्तु पृथग्जनः' इत्यमरः / अकृत कृतवान्, न तु सुन्दरबुद्विमित्यर्थः / कृतः कर्तरि लुङि तङ / 'हस्वादङ्गादिति सिचो लोपः / अथ राजागमनानन्तरं तेन नलेन सा सभा अशोभि / शोभां गमिता अलकृते. त्यर्थः / शोभयतेः कर्मणि लुङ्गीविबुधाधिनाथः पण्डितश्रेष्ठः सन्नपि संस्कृते प्राकृतबुद्धिं संस्कृतभाषिते प्राकृतभाषितत्वबुद्धिमकृतेति विरोधाभासः सूच्यते // 38 // विबुधराज ( देवों के स्वामी इन्द्र, पक्षा०-विशिष्ट जाननेवालों के स्वामी अर्थात् महाविशेषज्ञ ) इन्द्रने जिसको देखकर श्रेष्ठ भूषणोंसे अलङ्कृत भी कामदेवको साधारण ही माना, इस नलने उस सभाको बादमें सुशोभित किया। [ पहले सब राजा लोग तथा देवों के स्वयंवर मण्डप में जानेके बाद नल भी पहुंचे। उन्हें देखकर विशिष्ट जाननेवाल के राजा अर्थात् श्रेष्ठ विशेषज्ञ इन्द्र बहुमूल्य भूषणों से अलकृत कामदेवको भी नलसे तुच्छ समझा / विबुधराज पण्डितश्रष्ठ होकर भी 'संस्कृत (देववाणी ) को प्राकृत समझा' यह विरोधाभास है तथा पूर्वोक्त अर्थ (अलकृत कामदेवको तुच्छ समझा) से उसका परिहार होता है ] // 38 // धृताङ्गरागे कलिताशोभा तस्मिन् सभा चुम्बति राजचन्द्रे / गता बताक्ष्णोर्विषयं विलङ्घ य क क्षत्रनक्षत्रकुलस्य लक्ष्मीः // 39 // तेति / पृतोऽङ्गरागोऽनुलेपनमेवाङ्गरागः अङ्गस्य चन्द्रविम्बस्य, रागो रक्तता येन तस्मिन् , राजचन्द्रेनले कलितद्यशोमां कलिता प्राप्ता, यशोभा स्वर्गीयशोभा आकाशशोभा च यया तां, सभा चुम्बति प्राप्ते सति, क्षत्राणि क्षत्रिया एव, नक्षत्राणि तत्कुलस्य लचमीरणोर्विषयं विलय दृष्टिपथमतीत्य, क कुत्र, गता? बतेत्याश्चर्ये; 1. 'कान्तिः' इति पाठान्तरम् / Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। नक्षत्रकुलमिव नलोदये सर्व क्षत्रकुलं निष्प्रभं जातमित्यर्थः / धुशोभेत्यत्र शोभेव शोभेति सादृश्याक्षेपात् निदर्शना, तया सहाङ्गाङ्गिभावेन रूपकस्य सङ्करः // 39 // अङ्गराग ( कुङ्कुम आदिका शरीरलेप, पक्षा०-अपने बिम्बरूप शरीर में लालिमा ) को धारण किये हुए उस राजचन्द्र ( राजाओंमें चन्द्रमाके समान नल, पक्षा०-राजा नल) रूप चन्द्रमाके स्वर्गकी शोभाको प्राप्त (अथवा-स्वर्गको शोभित करनेवाली) सभा (स्वयंवर सभा) को प्राप्त करने पर क्षत्रियरूप नक्षत्रों ( अथवा-क्षत्रियों और अक्षत्रियों अर्थात् देवताओं) की शोभा नेत्र विषयका उल्लङ्घनकर कहां चली गयी ? अर्थात् कहां अदृष्ट हो गयी, खेद है ! [ जिस प्रकार चन्द्रमाके आकाशमें उदय होते ही नक्षत्रों ( ताराओं) की कान्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् वे चन्द्रमाके सामने फीके पड़ जाते हैं, उसी प्रकार स्वयंवर मण्डपमें नलके पहुँचते ही क्षत्रिय राजा (तथा देवों) की शोभा नष्ट हो गयी अर्थात् इतने अधिक सुन्दर नलको छोड़कर दमयन्ती हमलोगोंको नहीं वरण करेगी यह विचारकर अन्य राजाओं ( तथा देवों ) का मुख फीका पड़ गया ] // 39 // 'प्राक् दृष्टयः क्षोणिभुजाममुष्मिन्नाश्चर्यपर्युत्सुकिता निपेतुः / अनन्तरं दन्तुरितभ्रुवान्तु नितान्तमोर्ध्याकलुषा गन्ताः // 40 // प्रागिति / प्राक् पूर्वम् , अमुष्मिनले, क्षोणीभुजां राज्ञां, दृष्टयः पूर्णदृष्टयः, आश्चयेण विस्मयपारवश्येन, पर्युरसुकिताः उत्कण्ठिताः सत्यः, निपेतुः, अनन्तरं तु दन्तु. रितभ्रुवां द्वेषाद्विषमितभ्रुवां, हगन्ताः कोणदृष्टयः, नितान्तमीjया कलुषाः सन्तो निपेतुः / अत्रौत्सुक्येयप्रियुक्तानां पूर्णापूर्णदृष्टीनां द्वयीनां क्रमेणैकस्मिन्नाले निपतनोतेर्द्वितीयः पर्यायभेदः / एकमनेकस्मिन् अनेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्याय इति सूत्र. णात् तथौत्सुक्येालक्षणविस्मयद्वेषसञ्चारिभावनिबन्धनात् भावालङ्कारः प्रियो ऽपरपर्याय इति द्वयोः संसृष्टिः // 40 // (नलके अत्यन्त सुन्दर होने से ) आश्चर्य से उत्कण्ठित, राजाओंकी दृष्टि उस नलपर पहले ( पाठा०-शीघ्र ) गिरी और बादमें कुटिल भ्रूवाले ( उन राजाओं) के अत्यधिक ईर्ष्यासे कलुषित नेत्रप्रान्त अर्थात् अपूर्ण दृष्टि ( उन नलपर ) गिरी। [ अथवा-इसके बाद कुटिल भ्रवाली स्त्रियों के अत्यन्त ईर्ष्यासे अर्थात् 'मैं पहले देखू' इस प्रकारकी अहमहमिकासे कलुषित कटाक्ष बादमें गिरे अर्थात् राजाओंके देखनेके बाद खियोंने नलको कटाक्षपूर्वक देखा / नलके सभामें आते ही अत्यन्त सुन्दर होनेसे उनको राजाओंने आश्चर्यित हो पहले उत्कण्ठासे देखा और 'इतने अधिक सुन्दर नलको छोड़कर दमयन्ती हम लोगोंको नहीं वरण करेगी' ऐसा विचार करते ही बादमें ईर्ष्यासे मलिन दृष्टि प्रान्तसे देखा / ईकिलुषित दृष्टिका पूर्ण रूपसे नहीं देखना स्वभावसिद्ध है ] // 40 // 1. 'द्राक्' इति पाठान्तरम् / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / सुधांशुरेष प्रथमो भुवीति स्मरो द्वितीयः किमसावितीमम् / दसस्तृतीयोऽयमिति क्षितीशाः स्तुतिच्छलान्मत्सरिणो निनिन्दुः // 4 // सुधांशुरिति / मत्सरिणः परशुभद्वेषिणः, क्षितीशाः भुवीति किमिति च पदवयस्य सर्वत्रान्वयः कार्यः, भुवि भूतले, एषः प्रथमः नवावतीणः, सुधांशुः मुख्य. चन्द्रः, किम् ? इति असौ भुवि द्वितीयः स्मरः किम् ? इति, अयं तृतीयः दस्त्रः आश्विनेयः, भुवि किम् ? इति च, दस्रयोर्द्वित्वेऽप्येकत्वविवक्षया एकवचनं, दयेकस्वेऽपि द्वित्वविवक्षायां द्वौ चन्द्रावविरुद्धम, पुष्पवत् दारादिशब्दवन्नियतवचनत्वा. भावात् / इतीत्थम्, इमं नलं, स्तुतिच्छलात् निनिन्दुः असमानसमीकरणेन स्तुति. लोकोत्तरस्य निन्दैवेति भावः / चन्द्रत्वाद्यत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टिः // 41 // मत्सरी ( दूसरेके शुभमें द्वेष करनेवाले ) राजालोग यह पृथ्वीपर नवीन 'चन्द्रमा हैं क्या ? (अथवा-पृथ्वीपर नया दूसरा चन्द्रमा है क्या ?), यह पृथ्वीपर दूसरा कामदेव है क्या ?, यह पृथ्वीपर तीसरा अश्विनी-कुमार है क्या ? इस प्रकार ( उस नलकी ) प्रशंसाके व्याजसे निन्दा की। [पहले तो नलकी चन्द्र आदि कहकर राजाओंने प्रशंसा की, बादमें यह नल है, चन्द्रमा आदि नहीं है ऐसा कहकर उन नलकी निन्दा की ] // 41 // आधं विधोर्जन्म स एष भूमौ द्वैतं युवाऽसौ रतिवल्लभस्य / नासत्ययोर्मूर्त्तिरियं तृतीया इति स्तुतस्तैः किल मत्सरैः सः // 42 / / __ आधमिति / स एष नलः, भूमौ भूतले, विधोरिन्दोः, आद्यं जन्म प्रथमावतार इत्यर्थः, युवाऽसौ रतिवल्लभस्य कामस्य, द्वैतं द्वित्वं, द्वितीयकाम इत्यर्थः, इयं नलरूपा, नासत्ययोरश्विनोः, तृतीया मूर्तिः, इति स नलः, मत्सरैमरसरवद्भिः, 'मत्स. रोऽन्यशुभद्वेषस्तद्वत् कृपणयोरपि' इत्यमरः / 'अर्श आदिभ्योऽङ्' इति मत्वर्थीयो. ऽकारः / तैः स्तुतः किल ? स्तुतः खलु ? पूर्वश्लोकेन पुनरुक्तमपि कविना लिखि. तत्वात् स्थितं पूर्ववत् // 42 // ____ 'वह अर्थात् सुप्रसिद्ध यह ( नल ) पृथ्वीपर चन्द्रमाका पूर्वावतार है, यह युवक (नल) रतिपति (कामदेव ) का द्वैत है अर्थात् पृथ्वीपर दूसरा कामदेव है, यह मूर्ति ( मूर्त नल ) तृतीय अश्विनीकुमार है। इस प्रकार मत्सरी उन राजाओंने उस नलकी प्रशंसा की // 42 // इहेदृशाः सन्ति कतीति दुष्टैदृष्टान्तितालीकनलावली तैः / आत्मापकः किल मत्सराणां द्विषः परस्पर्धनया समाधिः // 43 // इहेति / दुष्टैः खलैः तैपैः, इह सभायाम, ईदृशाः नलसदृशाः,कति कियन्तोऽपि, सन्तीति अलीकनलावली इन्द्रवरुणयमानलपतिः, दृष्टान्तिता दृष्टान्तीकृता, तथा 1. मायानलोदाहरणान्मियस्तैरूचे समाः सन्त्यमुना कियन्तः' इति पाठान्तरम्। 2. 'परस्पर्द्धितया' इति पाठान्तरम् / Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। च अलीकनलावली निर्दिश्य अत्र सभायां बहवो नलेन तुल्यरूपा विद्यन्ते, तत" कथं नलमेव पुनः पुनः वर्णयथ ? इति भावः। ननु नलसहशानां बहूनां सत्त्वेऽपि स्वस्य कथं रूपोत्कर्षः ? इत्यत आह-मत्सराणां मत्सरिणाम, आत्मनोऽपकर्षे शत्रुसकाशात् न्यूनत्वे सति, द्विषः प्रतिपक्षस्य, परेण पुरुषान्तरेण, स्पद्धनया सङ्घर्षणया, कोटयन्तरसाधारण्यापादनेनेत्यर्थः, स्वार्थे ण्यन्तात् युच / समाधिः किल आत्मापकर्षपरिहारः खल्वित्यर्थः, एतादृशाः कति सन्तीति समानकोट्यन्तरोद्धाटनेन दूषयित्वा तुष्यन्तीति समुदायार्थः। अर्थान्तरन्यासः // 43 // दुष्ट उन्होंने ( उन राजाओंने ) 'यहांपर ऐसे कितने अर्थात् अनेक हैं' ऐसा कहकर असत्य नल-समूह (नलरूपधारी इन्द्रादि चारो देव ) का दृष्टान्त अपने उक्त वचनके समर्थन में उदाहरण दिया / ( पाठा०-उन्होंने मायानलों ( नलरूपधारी इन्द्रादि देवों ) के उदाहरणसे 'इस ( वास्तविक नल ) के समान कितने अर्थात् अनेक हैं। ऐसा आपस में कहा ) / मत्सर ( दूसरेके भलेमें द्वेष ) करनेवालों का शत्रुसे अपनी हीनता रहने पर दूसरेकी स्पर्द्धासे समाधान होता है। [ नलको देखकर उनसे अपनेको तुच्छ मानकर ईर्ष्यालु, राआओंने नलरूपधारी इन्द्रादि चारो देवोंको दिखाकर कहा कि-इस (वास्तविक नल) के समान कई हैं, अतः इसके सौन्दर्यका कोई महत्त्व नहीं है। लोकमें भी स्वयं शत्रुकी समता नहीं कर सकनेपर दूसरों के साथ उस शत्रुकी समता करके अपने चित्तका समाधान किया जाता है ] // 43 // गुणेन केनापि जनेऽनवद्ये दोषान्तरोक्तिः खलु तत् खलत्वम् / रूपेण तत्संमददूषितस्य सुरैर्नरत्वं यददूषि तस्य // 44 // गुणेनेति / केनापि गुणेन अनवद्ये अगो, सर्वगुणसम्पन्ने इत्यर्थः, 'अवधपण्ये" त्यादिना निपातनात् साधुः / जने दोषान्तरोक्तिः कस्यचिदनवद्यधर्मस्य दोषत्वेनोद्धाटनमित्यर्थः, तत्खलत्वं तदेव तस्य वक्तर्दुष्टत्वं खलु / कुतः ? यद् यस्मात् , रूपेण सौन्दर्येण, तस्यां संसदि तथा संसदा वा अदूषितस्य, प्रत्युत स्तुतस्यैवेति भावः, तस्य नलस्य सम्बन्धि, नरत्वं मनुष्यत्वं, सुरैरिन्द्रादिभिः, अदूषि अतिसौन्दर्यशाली अपि नरोऽयं न तु देव इति दोषत्वेनोद्घाटितमित्यर्थः / दूषयतेः कर्मणि लुङ / सामान्योक्तस्य खलत्वस्य नरत्वदूषणेन समर्थनाद्विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥४४॥ किसी अर्थात् अनिर्वचनीय ( अथवा-किसी एक भी) गुण से मनुष्य के अनिन्दनीय रहनेपर भी दोषान्तर ( दूसरे दोष, अथबा-गुणको ही दोष ) बतलाना वह दुष्टता है / जो देवोंने उस सभामें ( अथवा-उस समासे ) अदूषित (दूषित नहीं, प्रत्युत प्रशंसित ) उसः नलके नरत्व ( मनुष्यभाव, पक्षा०-नलभाव ) को दूषित किया / [ सभामें प्रशंसित गुणवान् भी यह नल 'नर' अर्थात् मनुष्य है देव नहीं है इस प्रकार जो देवोंने नलके अदोषको भी दोष बतलाया यह उनकी दुष्टता थी] // 44 // Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 नैषधमहाकाव्यम् / नलानसत्यानवदत् स सत्यः कृतोपवेशान् सविधे सुरेशान् / नोभाविलाभूः किमु दर्पकश्च भवन्ति नासत्ययुजौ भवन्तः ? // 45 // नलानिति / सत्यः स नलो यथार्थनलः, असत्यान् नलान् अलीकभूतान् , नलरूपधारिणः इत्यर्थः, सविधे समीपे, कृतोपवेशान् उपविष्टान् , सुरेशान् सुरेन्द्रादीन् , अवदत् ; किमिति ? हे धन्याः। भवन्तः असत्यौ सत्यरहितौ न भवत इति 'नासत्या. चश्विनौ दस्रो'इति निपातनान्नङो नलोपाभावः / ताभ्यां युज्यते इति तद्युजौ तद्युक्ती, 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना किंप् / उभाविलायामिलादेव्यांभवति इति इलाभूरेलः पुरू. रवाः, विप, दर्पकः कामश्च, न भवन्ति किमु ? इति प्रश्नः / 'शेषेप्रथमः' इति प्रथम. पुरुषः, चत्वारो यूयमश्विनौ पुरूरवाः कामश्च किं न भवथ इत्यपृच्छदित्यर्थः, तेषु निजरूपदर्शनादन्येषामिव स्वस्यापि विस्मयावेशाच इत्थमप्राक्षीदिति भावः // 45 // उस वास्तविक नलने पासमें बैठे हुए अवास्तविक नल बने हुए देवों (पाठा०सुन्दर वेषवाले अवास्तविक नलों ) से कहा-आपलोग पुरूरवा तथा कामदेव-ये दोनों और दोनों अश्विनीकुमार नहीं हैं क्या ? / [जिस प्रकार नलको देखनेसे दूसरों को आश्चर्य हुआ था, उसी प्रकार नलरूपधारी असत्य नलोंको देखकर ( वास्तविक ) नलको भी आश्चर्य हुआ, अत एव उन्होंने उनसे उक्त प्रश्न किये ] // 45 // अमीतमाहुः स्म यदत्र मध्ये कस्यापि नोत्पत्तिरभूदिलायाम् / अदर्पकाःस्मः सविधेस्थितास्ते नासत्यतां नापि बिभर्ति कश्चित्॥४६॥ ___ अमी इति / अथामी देवाः, तं नलम्, आहुः स्म ऊचुः, 'लट स्मे' इति भूते लट / उत्तरश्लोके 'तेभ्यः परानः परिभावयस्व' इति वच्यते, तत्र हेतुमाह,-यदिति / यत् यस्मात् कारणात् , ते तव, सविधे समीपे, स्थिताः, ये वयमिति शेषः, अत्रैतेषु चतुर्यु अस्मासु, मध्ये कस्यापि इलायां बुधकलने इलादेव्यां, भूमौ च, उत्पत्ति - भूत् , अत्र न कोऽप्येकः पुरूरवाः न कोऽपि च भौमः इत्यर्थः, किन्तु अदर्पका दर्प कात् कामाद्भिन्नाः, दर्पशून्याश्च तव सौन्दर्यातिशयदर्शनेन गर्वशून्या इत्यर्थः, स्मः भवामः, कश्चिन्नासत्यताम् आश्विनेयत्वं सत्यत्वञ्च, न बिभर्ति अस्मासु न कोऽपि नासत्यः, अथ च तव रूपधारणात् न कोऽपि सत्यः किन्तु सर्व वयमसत्या इत्यर्थः / नासत्यावश्विनौ दनौ' इत्यमरः। नासत्यतां सत्यतां बिभर्तीति किन्त्व. सत्यनला वयमित्यर्थान्तरम् // 46 // इन इन्द्रादि देवोंने उस (नल ) से कहा कि-(जो ) हमलोग तुम्हारे पासमें बैठे हैं, इन ( हम चारों ) में किसीकी उत्पत्ति 'हला' नामकी स्त्री (पक्षा०-पृथ्वी) में नहीं हुई है अर्थात् हम चारोंमें-से कोई इला-पुत्र पुरूरवा नहीं है ( पक्षा०-पृथ्वीपर कोई 1. 'उभौ किमैलश्च न दर्पकश्व' इति पाठान्तरम् / 2. 'तमीदृग्जगुरत्र' इति पाठान्तरम्। 3. 'नात्र' इति पाठान्तरम् / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। नहीं उत्पन्न हुआ है अपितु स्वर्गमें उत्पन्न हुआ है अर्थात् हम देव हैं, मनुष्य नहीं हैं ).. और हमलोग कामदेव नहीं हैं ( पक्षा०-निर भिमानी हैं ), इन (हमलोगों ) में कोई अश्विनीकुमारके भावको नहीं धारण करता है अर्थात् कोई अश्विनीकुमार नहीं है, ( पक्षा०-कोई असत्यता नहीं धारण करता है ऐसा नहीं है अर्थात् असत्यता धारण करता ही है अर्थात् हम सभी असत्य नल हैं सत्य नल नहीं हैं ) अथवा-('ना' पदच्छेद करके ) हमलोगोंमें कोई मनुष्य ( अपने नलत्वको प्रमाणित करने के लिये देवोंने अपनेको मनुष्य कहा है ) असत्य नहीं है-हमलोग सच्चे अर्थात् वास्तविक नल ही हैं। [ इन्द्र आदिने वाक्छलसे कपटपूर्वक नलसे कहा कि हमलोग पुरूरवा, कामदेव. और अश्विनीकुमार-इन में कोई नहीं हैं; किन्तु हम नल हैं ] || 46 // तेभ्यः परानः 'परिभावयस्व श्रिया विदूरीकृतकामदेवान् / अस्मिन् समाजे बहुषु भ्रमन्ती भैमी किलास्मासु घटिप्यतेऽसौ // 47 // तेभ्य इति / पूर्वश्लोकस्थयच्छब्दापेक्षया तदो व्यवहारः / तत्तस्मादिलाभवता. धभावात्, श्रिया सौन्दर्यण, विदूरीकृतकामदेवान् अधरीकृतमन्मथान् , नोऽस्मान, तेभ्यः ऐलादिभ्यः परानन्यान् , परिभावयस्व निश्चिनुष्व, अन्यच्च-हे सौम्य / श्रिया विदरीकृतकामदेवान्नोऽस्मांस्तेभ्यः परानुत्कृष्टान् , विद्धि / अस्तु तावत् , अत्र किमर्थमागताः ? तत्राह-असौ भैमी अस्मिन् समाजे राजसङ्घ, बहषु मध्ये भ्रमन्ती पर्यटन्ती, अस्मासु घटिष्यते संयोच्यते, तथा बहुषु अस्मासु नलरूपेविति भावः, अत एव भ्रमन्ती नल इति भ्रान्तिमती सती, अस्मासुघटिष्यते सङ्गमिष्यते, किल इति सम्भावनायाम, इत्याशयेनात्रास्माकमागमनमिलि भावः / अवार्थद्व.. (तुम ) शोभासे कामदेवको तिरस्कृत करनेवाले हमलोगोंको उन (पुरूरवा, कामदेव, अश्विनीकुमारों) से भिन्न जानो। इस समाजमें बहुतों में ( अनेक राजाओंमें, अथवासमानरूपवाले हम पाचों में ) घूमती हुई (पक्षा०-भ्रमसन्देह करती हुई ) यह दमयन्ती हमलोगों ( में-से किसी एक ) में सङ्गत होगी अर्थात् वरण करेगी। [दमयन्तीको वरण करनेके दुरभिप्रायसे हमलोग यहां स्वयंवर में आये हैं ] // 47 // असाम यन्नाम तवेह रूपं स्वेनाधिगत्य श्रितमुग्धभावाः / तन्नो धिगाशापतितान्नरेन्द्र ! धिक चेदमस्मद्विबुधत्वमस्तु / / 48 // असामेति / हे नरेन्द्र ! यत् यस्मात् , तव नाम रूपञ्च स्वेन आत्मना, अधिगत्य ज्ञात्वाऽपि, श्रितमुग्धभावाः स्वीकृतमूढभावाः सन्तः, इह स्वयंवरे असाम, भवाम, तिष्ठामेति यावत् , अस्तेर्लोट , तत्तस्मात् , आशापतितान भैमीलाभाशया आपतितानागतान् , नः अस्मान् , धिक् , इदञ्चास्माकं विबुधत्वं देवत्वं विपश्चित्वञ्च धिगस्तुः 1. 'परिकल्पयस्व' इति पाठान्तरम् / Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 नैषधमहाकाव्यम्। अन्यच्च-यत्तव रूपमधिगत्य त्वद्वेशं धारयित्वा, श्रितमुग्धभावाः लब्धसौन्दर्याः सन्तः, 'मुग्धः सुन्दरमूढयोः' इति विश्वः / असाम नाम दिव्यामहे खलु, 'अस गतिदीप्त्यादानेष्विति धातोर्लोट' तत्तस्मात् , नोऽस्माकम्, आशापतितां दिकपतित्वं ‘धिक , 'आशा तृष्णादिशोरपि' इति विश्वः, इदमस्मद्विबुधत्वञ्च धिक, तुच्छव्यापारत्वादिति भावः / 'विबुधः पण्डिते देवे' इति विश्वः / पूर्व एवालङ्कारः // 48 // हे नरेन्द्र ! तुम्हारे नाम तथा रूपको स्वयं जानकर (या साक्षात् देखकर) मूढभावापन्न हमलोग जिस कारण यहां ( स्वयंवरमें ) हैं अर्थात् आये हैं, उस कारण आशा (दमयन्तीको पानेका विश्वास ) से आये हुए ( अथवा-गिरे हुए ) हमलोगों को धिक्कार है और हमलोगों के इस विशिष्ट पाण्डित्यको भी धिक्कार है। पक्षा०-हे नरेन्द्र जिस कारण तुम्हारा रूप धारणकर सौन्दर्यको प्राप्त किये हुए हमलोग शोभित हो रहे हैं, उस कारण हमलोगों के दिक्पालत्वको-( अथवा-आशासे ( ही दमयन्तीके पतिभाव ) को अर्थात् हमलोगोंको दमयन्तीका पति होना केवल आशामात्र ही है, वास्तविक विचारनेपर दमयन्तीके पति बननेका कोई लक्षण हमलोग अपने में नहीं देखते हैं )-धिक्कार है और इस देवभावको भी धिक्कार है / पुनः, पक्षा०-अपने में ( सब कुछ प्रयत्न करनेपर भी ) तुम्हारे रूपको नहीं प्राप्तकर ( अब हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये ऐसे ज्ञानसे रहित होनेसे ) किंकर्तव्यमूढ होनेसे ( अब नलको ही दमयन्ती वरण करेगी ऐसी ईर्ष्यासे ) तुम्हारे नाम ( या प्रसिद्धि ) को जिस कारणसे हमलोग नष्ट करते हैं ( तुम्हारेसे अतिरिक्त हमलोगोंके भी नलका रूप धारण करनेसे तुम्हारी नाम ( या प्रसिद्धि ) नहीं रहने देते हैं ), उस कारण ( इस प्रकार नलका रूप धारण कर यहाँ आनेसे दमयन्ती हमलोगोंको वरण करेगी इस ) आशासे यहां आये हुए हमलोगोंको धिक्कार है, और देवत्वको भी धिक्कार है। ( अथवा-हे 'स्वेन' अर्थात् हे ज्ञातियों में श्रेष्ठ; अथवाहे धनके स्वामी ! ) // 48 // सा वागवाज्ञायितमा नलेन तेषामनाशङ्कितवाक्छलेन / स्त्रीरत्नलाभोचितयत्नमग्नमेनं न हि स्म प्रतिभाति किश्चित् // 49 // सेति / अनाशङ्कितवाक्छलेन अनाकलितदेववाकपटेन, नलेन तेषां देवानां, सा वाक पूर्वोक्ता व्याजोक्तिः, अवाज्ञायितमाम अतिशयेनावज्ञाता, देववाक्यस्य पुरः स्फूर्तिक एवार्थो गृहीतो न तु तात्विक इत्यर्थः / 'जानातेरवपूर्वात् कर्मणि लुङि' 'तिङश्च' इत्यनेनातिशयाथै तमप प्रत्ययः, ततस्तस्य घसंज्ञा, ततः किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्ष' इत्यनेनामुप्रत्ययः। कुतः ? हि यस्मात् , स्त्रीरत्नलाभे यः उचित. यत्रो योग्यव्यापारो देवताऽनुध्यानादिः। तत्र मग्नम् आसक्तम्, एनं नलं प्रति, किञ्चित् किमप्यन्यत् , न प्रतिभाति स्म न स्फुरति स्म; व्यासङ्गो हि महान् विवे. - कप्रतिबन्धक इति भावः // 49 // Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 581 उन इन्द्रादिके वाक्छलको नहीं विचारनेवाले नलने उसे ( देवताओंकी बातको) नहीं समझा अर्थात् उसका सीधा ही अर्थ समझा विशेष कपटको नहीं। क्योंकि स्त्रीरत्व ( दमयन्ती ) को पाने के उपायमें संलग्न इन नलको कुछ भी स्फुरित नहीं हुआ। [ स्वयं दमयन्तीको पाने के यत्नमें नलके संलग्न रहनेसे अन्यासक्त चित्तवाले नलने देवोंके कहनेका गूढाभिप्राय नहीं समझा, अन्यासक्त चित्त गूढाभिप्राय शानमें प्रतिबन्धक होता ही है ] // 49 // या स्पर्द्धया येन निजप्रतिष्ठां लिप्सुः स एवाह तदुन्नतत्वम् / कः स्पर्द्धितुः स्वाभिहितस्वहानः स्थानेऽवहेलां बहुलां न कुर्यात् ? // 50 // देववाक्यावज्ञा प्रति हेत्वन्तरमाह-य इति / योऽपकृष्टः, येनोत्कृष्टेन सह, स्पर्द्धया संघर्षणेन, निजप्रतिष्ठामुत्कर्ष, लिप्सुःलब्धुमिच्छुः, लभेः सनन्तादुप्रत्ययः,सः स्पर्द्ध मान एव, तस्योत्कृष्टपुरुषस्य, उन्नतत्वमुत्कृष्टत्वम्, आह ब्रवीति, तच्चेष्टयव तस्याप. कृष्टत्वं स्फुटीभवतीत्यर्थः। तथा हि, कः प्रेक्षावान् , स्वेनैवाभिहिता स्वहानिः स्वापकर्षो येन तस्य, स्पर्द्धितुर्बहुलां भूयसीम्, अवहेलामवज्ञां, न कुर्यात् ? कुर्यादे. वेत्यर्थः / रीढावमाननावज्ञाऽवहेलनमसूर्तणम्' इत्यत्रावहेलयेति क्षीरस्वामी स्थाने युक्त 'युक्त द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः / भैमीलाभार्थ नलरूपधारणरूपया इन्द्रादि दुश्चेष्टया नलस्य महानुत्कर्ष एव आसीत्, ततः नलेन तेषामवज्ञा युक्तैवेति भावः // ____ जो (निकृष्ट व्यक्ति ) जिस उत्कृष्ट व्यक्ति के साथ स्म से अपनी प्रतिष्ठाको चाहता है, वही ( निष्कृष्ट व्यक्ति ) उस ( उत्कृष्ट व्यक्ति ) की श्रेष्ठताको जिस कारणले कहता है अर्थात् अपकृष्ट व्यक्तिकी चेष्टाएं ही उत्कृष्ट व्यक्तिकी श्रेष्ठताको व्यक्त करती हैं, उस कारणसे स्वयं ( अपनी ) निकृष्टताको बतलानेवाले स्पर्द्धालुके विषयमें कौन (बुद्धिमान् व्यक्ति ) अधिकतम उपेक्षा नहीं करता है अर्थात् सभी उपेक्षा करते हैं। [ जो कोई स्वल्पगुणी व्यक्ति जिस किसी श्रेष्ठगुणी व्यक्ति के साथ स्पर्धाकर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता है, वही व्यक्ति अपनी हीनता तथा दूसरेकी श्रेष्ठताको स्वयं कह देता हैं, इस कारण हीन व्यक्ति के विषयमें अवज्ञा करना (उनकी बातोंको कोई महत्त्व नहीं देना) श्रेष्ठ व्यक्तिके लिये उचित ही है। प्रकृतमें दमयन्तीको पाने के लिये अपना वास्तविक रूप तथा नाम छोड़कर इन्द्रादि चारो देवोंने नलका रूप तथा नाम धारण कर स्वयं ही नलकी श्रेष्ठता स्वीकार कर ली, अत एव नलका उनकी बातों का महत्त्व नहीं देना अर्थात् उपेक्षा करना उचित ही है ] // 50 // गीर्देवतागीतयशःप्रशस्तिः श्रिया तडित्वल्ललिताभिनेता। मुदा तदाऽवैक्षत केशवस्तं स्वयंवराडम्बरमम्बरस्थः / / 51 // गीरिति / तदा तस्मिन् काले, केशवो विष्णुः, गीर्दैवतया वाग्देवतया, गीता यशःप्रशस्तिः कीर्तिप्रबन्धो यस्य सः, श्रिया लक्ष्मीदेव्या स्वशरीरस्थया, तडित्वतः सविद्युतो मेघस्य, ललितस्य विलासस्य, अभिनेता अनुकर्ता सन्, अम्बरस्थः तं Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 नैषधमहाकाव्यम् / स्वयंवराडम्बरं स्वयंवरसभायोजनं, मुदा हर्षेण, अवैक्षत, किमुतान्य इति भावः / लचमीसरस्वतीसहितः नारायणः स्वयंवरं द्रष्टुमाजगाम इति निष्कर्षः // 51 // उस समय सरस्वती देवीसे वर्णित कीर्ति तथा गौरववाले ( या कीर्ति प्रशंसावाले ) तथा श्री ( स्वपत्नी, पक्षा०-पीताम्बर युक्त शरीर शोमा ) से बिजलीसे युक्त मेघकी शोभाका अभिनय करनेवाले अर्थात् बिजलीयुक्त मेघके समान शोभावाले आकाशस्थ विष्णु भी स्वयम्बरका वह आयोजन हर्षसे देखने लगे। [उस स्वयंवरको देखने के लिये विष्णु भगवान् भी आकाशमें विराजमान हुए ] // 51 // अष्टौ तदाऽष्टासु हरित्सु दृष्टीः सदो दिक्षुर्निदिदेश देवः / लैङ्गीमदृष्ट्वाऽपि शिरःश्रियं यो दृष्टौ मृषावादितकेतकीकः // 52 // अष्टाविति / तदा तस्मिन् काले, सदा स्वयंवरसभां, दिदृतुः द्रष्टुमिच्छुः, आगत इति शेषः, देवश्चतुर्मुखः, अष्टासु हरिसु दिनु, अष्टौ दृष्टीः निदिदेश प्रेरयामास, अष्टदिगाहृतजनताऽवलोकनार्थः। यो देवः, लैङ्गी ज्योतिर्लिङ्गसम्बन्धिनी, शिरः श्रियं लिङ्गस्योत्तरावधिमित्यर्थः, अदृष्ट्वाऽपि दृष्टौ लिङ्गशिरोदर्शनविषये, मृषा वदतीति मृषावादिनी सा कृता मृषावादिता मृषावादीकृतेत्यर्थः, मृषावादिशब्दात्तत्करोतीति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, पुंवद्भाव-टिलोपाद्यथं णाविष्ठवद्भावोपसङ्ख्यानाटिलोपः, केतकी. येन स कूटसाक्षीकृतकेतकीकुसुम इत्यर्थः 'नवृतश्च' इति कप्समासान्तः / पुरा किल ब्रह्मा ज्योतिर्लिङ्गस्य शिरोदेशमदृष्ट्वाऽप्यद्राक्षमित्यसत्यमुक्त्वा तत्र शिवशिरःपतितं केतकीकुसुमं 'शिवशिरःस्थितं मां ब्रह्मा तत आनीतवान्' इति कूटसाक्षीचकारेति पौराणिकी कथाऽत्रानुसन्धेया। तथा च शिवशिरःपारमिव स्वयंवरागतजनतासागरमष्टाभिदृष्टिभिः पश्यन्नपि नापश्यदिति निष्कर्षः // 52 // ___ उस समय सभाको देखने के इच्छुक देव अर्थात् चतुर्मुख ब्रह्माने ( आठो दिशाओंसे आये हुए लोगोंको देखनेके लिये ) आठो दिशाओंमें दृष्टि डाली, जिस ( ब्रह्मा ) ने ज्योति. लिङ्गके शिरकी शोभा नहीं देखकर भी ( उस लिङ्गके ) देखने में केतकी (नामक पुष्प ) से झूठा कहलवाया था। [जिस प्रकार ब्रह्माने विशालतम ज्योतिलिङ्गके शिरोभाग ( ऊपरी हिस्से ) को विना देखे भी देखा हुआ बतलाया, उसी प्रकार विशालतम स्वयंवरको भी आठ नेत्रोंसे देखते हुए भी पूर्णतः नहीं देख सके ] / पौराणिकी कथा-अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए शिवजीकी आज्ञासे उनके ज्योतिर्लिङ्गके पाद तथा शिरके मागको देखने के लिए क्रमशः विष्णु तथा ब्रह्मा क्रमशः पाताललोक तथा स्वर्गमें गये और वहांसे लौटकर विष्णुने "मैंने आपके ज्योतिर्लिङ्गका पाद अर्थात् नीचेका भाग नहीं देखा' ऐसी सच्ची बात कह दी, किन्तु ब्रह्माने 'मैंने आपके ज्योतिलिङ्गका शिर अर्थात् ऊपरी भाग देख लिया है' ऐसी झूठी बात कही और अपने कथनकी सत्यता प्रमाणित करने के लिये 'आपके ज्योतिर्लिङ्गके शिरपर स्थित मुझको ये Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 583 ब्रह्मा लाये हैं' ऐसा केतकी पुष्पसे असत्य कहलवाकर झूठा साक्षी दिलवाया ( इसी कारण तबसे केतकीके पुष्पका अपने पूजनमें शिवजीने सर्वथा त्याग कर दिया ), यह पुराणकी कथा जाननी चाहिये // 52 // एकेन पर्यक्षिपदात्मनाऽद्रिं चक्षुर्मुरारेरभवत् परेण / तैर्द्वादशात्मा दशभिस्तु शेषैर्दिशो दशालोकत लोकपूर्णाः // 53 // एकेनेति / द्वादश आत्मानो रूपाणि यस्य स द्वादशात्मा सूर्यः एकेन आत्मना रूपेण, अदि मेरुं, पर्यक्षिपत् प्रदक्षिणीकृतवान् , परेणात्मना, मुरारेविष्णोः, चक्षुर्दक्षिणनेत्रम्, अभवत्, शेषैरवशिष्टैः, दशभिस्तैरात्मभिस्तु, लोकपूर्णाः जनसम्पूर्णाः, दश दिशोऽलोकत आलोकितवान् // 53 // . द्वादशात्मा ( बारह आत्मावाले सूर्य ) एक (आत्मा ) से सुमेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा किये, दूसरे ( आत्मा ) से विष्णुका नेत्र हुए और शेष दश आत्माओंसे लोगों ( स्वयंवर में आये हुए जनसमूहों ) से पूर्ण दशो दिशाओंको देखा [ सूर्यही बारह आत्माएं ये हैंविधाता', मित्र, अर्यमा, वरुण, मित्र, भग, अंशु, पूषा, विवस्वान् , पर्जन्य, त्वष्टा और विष्णु। हरिवंश पुराण, मार्कण्डेय पुराणके काशीखण्ड तथा अन्यान्य शास्त्रों में वर्णित सूर्यके अन्यान्य नाभोंको मत्कृत 'मणिप्रभा' नामक अनुवादयुक्त 'हरिदास सं० सीरीज बनारस' से प्रकाशित अमरकोषके परिशिष्ट में देखना चाहिये ] // 53 // प्रदक्षिणं दैवतहय॑द्रिं सदैव कुर्वन्नपि शर्वरीशः। द्रष्टा महेन्द्रानुजदृष्टिमूल् न प्राप तदर्शनविघ्नतापम् // 54 // प्रदक्षिणमिति / शर्वरीशश्चन्द्रः, दैवतानां हम्य वासगृहम् , अनि मेरु, सदैव प्रदक्षिणं कुर्यन्नपि महेन्द्रानुजस्य उपेन्द्रस्य विष्णोः, दृष्टिमूर्त्या वामनेत्ररूपेण, द्रष्टा सन् तस्य स्वयंवरस्य, दर्शनविघ्नेन यस्तापस्तं न प्राप; चन्द्रस्य स्वयमनागतत्वेऽपि तत्र विष्णोरागतत्वात्तद्वामनयनरूपेणाद्राक्षीदेवेति कुतस्तस्यादर्शनक्लेश इत्यर्थः॥५४॥ देवों के प्रासादरूप पर्वत अर्थात् सुमेरुकी सर्वदा प्रदक्षिणा करते हुए भी निशापति (चन्द्रमा) विष्णु (वामन भगवान् ) के नेत्ररूप होनेसे दमयन्तीके देखने में विघ्न ( दमयन्तीको नहीं देखने ) के दुःखको नहीं पाया। [ वामनरूपी विष्णु भगवान्को नेत्ररूप होनेसे चन्द्रमा यद्यपि सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते रहे, किन्तु स्वयंवरमें विष्णु भगवान्के साक्षात् उपस्थित रहनेसे (1051 ) दमयन्तीको देखने के सुखको पाते रहनेसे मैंने उसके नहीं देखने के दुःखका अनुभव नहीं किया ] // 54 // विलोकमाना वरलोकलक्ष्मी तात्कालिकीमप्सरसो रसोत्काः / जनाम्बुधौ तत्र निजाननानि वितेनुरम्भोरुहकाननानि // 55 // 1. तदुक्तम्-विधातृमित्रार्यमणो वरुणेन्द्रभगांशवः।। पूषा विवस्वान् पर्जन्यस्त्वष्टा विष्णुर्दिनेश्वराः // इति / Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 नैषधमहाकाव्यम् / विलोकमाना इति / रसेन रागेण, उत्का उन्मनसः, दर्शनरसोत्सुकाः सत्यः, 'उत्क उन्मनाः' इत्यमरः। उक्त इति निपातसिद्धम्, तात्कालिकी तत्कालभवां वर. लोकलक्ष्मी परिणेतृजनशोभां, विलोकमानाः अप्सरसस्तन जनाम्बुधौ सभास्थजन. रूपाणवे, जलाशये एव कमलसम्भवात् जनेऽम्बुधित्वारोप इति भावः; निजाननानि स्वमुखानि, अम्भोरुहकाननानि कमलवनानि, वितेनुः दधुः; तदन्तर्गतानि तन्मु. खानि पद्मानीव रेजुरित्यर्थः, तथा चाप्सरसोऽपि स्वयंवरसभां द्रष्टुमागता इति भावः // 55 // शोभाको देखती हुई अप्सराएँ उस जन-समुद्रमें अपने मुखोंको कमलोंका बन बना दिया / [ जनरूप समुद्र में उक्त अप्सराओंके मुख कमलवन के समान शोभते थे। अप्सराएँ भी स्वयंवरको देखने के लिये आयीं ] // 55 // न यक्षलक्षैः किमलक्षि ? नो सा सिद्धैः किमध्यासि सभाऽऽप्तशोभा ? / सा किन्नरैः किं न रसादसेवि ? नादर्शि हर्षेण महर्षिभिश्च ? // 56 // नेति / तदा आप्तशोभा लब्धकान्तिः, सा सभा यक्षाणां लक्षः शतसहस्रैः, नालक्षि नादर्शि किम् ? सिद्धैर्वा नाध्यासि नाध्यासिता किम् ? किन्नरैः रसात् रागात् , सा सभा, नासेवि न सेविता किम् ? महर्षिभिः हर्षण नादर्शि च न दृष्टा किम् ? तथा च सर्वैरदर्शीत्यर्थः / सर्वत्र कर्मणि लुङ // 56 // शोभाको प्राप्त अर्थात् शोभित वह सभा आदर ( अनुराग ) से लाखों यक्षोंसे नहीं देखी गयी क्या ? अर्थात् देखी गयी, सिद्धोंसे अध्यासित नहीं हुई क्या ? ( सिद्ध नहीं आये क्या ? ) अर्थात् सभामें सिद्ध भी आये किन्नरोंसे सेवित नहीं हुई क्या ? अर्थात् किन्नरोंसे भी सेवित हुई तथा महर्षियों से नहीं देखी गयी क्या ? अर्थात् महर्षियोंने भी उसे देखा। [ उस स्वयंवर में लाखों यक्ष आये, सिद्ध आये किन्नर आये, तथा महर्षि भी आये] / / 56 / / वाल्मीकिरश्लाघत तामनेक-शाखात्रयीभूरुहराजिभाजा। क्लेशं विना कण्ठपथेन यस्य दैवी दिवः प्राग्भुवमागमद्वाक् / 57 / / वाल्मीकिरिति / तां सभा वाल्मीकिमुनिः, अश्लाघत अस्तुत, अनेकाः शाखाः कथकाः, आश्वलायनादिवेदविभागाः इति यावत् , वृक्षाश्यवविशेषाश्च यस्याः सा अनेकशाखा, त्रयाणां वेदानां समाहारः त्रयी, अनेकशाखा चासौ यी च अनेकशाखात्रयी, सा एव भूरुहराजिः तरुपतिः, तां भजतीति तद्भाक् तेन, 'भजोण्विः' 'शाखा वेदप्रभेदेषु बाहौ पार्श्वद्रमाङ्गयोः' इति वैजयन्ती। पथिकविश्रामवृत्तवतेत्यर्थः, यस्य कण्ठ एव पन्थाः तेन कण्ठपथेन दैवी वाक छन्दोमयी सरस्वती, 'मा निषाद ! प्रतिष्टां त्वम्' इत्यादिरूपेण क्लेशं विना अनायासेन, दिवः स्वर्गात् , प्राक भुवं भूलोकम, आगमत् आगता एव, छन्दोबद्धा सरस्वती येन प्रथमं भूलोकमवतारिता तेनादिकविनापि स्तुतेत्यर्थः // 57 // Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 585 . दशमः सर्गः। बाल्मीकिने अनेक शाखाओं ( कठ, आश्वलायन आदि) वाली वेदत्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद ) रूप वृक्षपतिवाले कण्ठमार्गसे अक्लेशपूर्वक उस सभाकी प्रशंसा की; जिसकी संस्कृत वाणी ('मानिषाद ....' इस श्लोक रूपमें ) पहले स्वर्गसे पृथ्वीपर अवतीर्ण हुई थी। [लोकमें भी कोई व्यक्ति अनेक शाखाओंसे युक्त वृक्षवाले मार्गसे सुखपर्वक लम्बे मार्गको पार कर लेता है। आदिकवि बाल्मीकि मुनि ने भी उस सभाकी प्रशंसा की। पौराणिक कथा-पहले वाल्मीकि मुनि मध्याह्न समयमें स्नान करने तमसा नदीको जा रहे थे, तब परस्पर में कामासक्त क्रौञ्च पक्षीकी जोड़ीमें से नर (पुरुष) को बाणसे मारते हुर व्याधको देखकर सर्वप्रथम वेदातिरिक्त लौकिक छन्दमें 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादे कमवधीः काममोहितम् // ' श्लोक पढ़ा // 57 // प्राशंसि संसद् गुरुणाऽपि चार्वी चार्वाकतासर्वविदूषकेण / आस्थानपट्टे रसनां यदीयां जानामि वाचामधिदेवतायाः॥५८॥ प्राशंसीति / चार्वी चारुः रम्या, 'वोतो गुणवचनात्' इति ङीप। संसत् सभा, चार्वाकतया चार्वाकसिद्धान्तितया, नास्तिकतया हेतुना इत्यर्थः, सर्वविदूषकेण वेदा. दिसर्वशास्त्रखण्डकेन, गुरुणा बृहस्पतिनाऽपि, प्राशंसि, किमुत अन्यैरिति भावः, नास्तिकप्रतारणार्थ चार्वाकशास्त्रं प्रणीय बृहस्पतिना वेदादिशास्त्रं दूषितमिति प्रसिद्धिः। यदीयां रसनां जिह्वां, वाचामधिदेवतायाः सरस्वत्याः, आस्थानपट्टम् आस्थानपीठं, सिंहासनमित्यर्थः, जानामि, 'आसनान्तरपीठयोः पट्टम्' इति विश्वः / सर्वविदूषकेण वाचस्पतिनाऽपि स्तूयते इति सभाशोभायाः परमोत्कर्ष इति भावः // ___चार्वाकभाव ( नास्तिकता ) से सब ( वेदादि शास्त्र, पक्षा०-पदार्थमात्र ) को विशेषरूपसे दूषित ( खण्डित ) करनेवाले बृहस्पतिने भी सुन्दर उस सभाकी प्रशंसा की, जिसकी जिह्वाको मैं सरस्वती देवीका सिंहासन जानता हूँ अर्थात् जिसकी जिह्वा पर सरस्वती देवी सर्वदा निवास करती हैं। [ सबको दूषित करनेवाले बृहस्पतिने भी : जिस सभाकी प्रशंसा की उस सभाकी शोभामें किसको सन्देह हो सकता है ? / नास्तिकोंको ठगने के लिये बृहस्पतिने सब वेदादिका खण्डन किया है, प्रेसी प्रसिद्धि है ] // 58 // नाकेऽपि दीव्यत्तमदिव्यचाचि वचःस्रगाचार्यकवित् कवियः। दैतेयनीतेः पथि सार्थवाहः काव्यः स काव्येन सभामभाणीत् // 59 / / नाकेऽपीति / यः काव्यः अतिशयेन दीव्यन्त्यः दीव्यत्तमाः देदीप्यमानाः, 'तसिलादिष्वाकृत्वसुचः' इति पुंवद्भावः / दिव्यवाचः संस्कृतवाचः यस्मिन् तादृशे, नाके स्वर्गेऽपि, वचःस्रजां वाग्गुम्फनानाम्, आचार्यकम् आचार्यकत्वं, 'योपधाद्गुरू. पोत्तमाद् वु', तद्वित् कवितामार्गोपदेष्टा, कविः स्वयं कवयिता च, दित्याः अपत्यानि पुमांसो दैतेयाः दैत्याः, दितिशब्दात् 'कृदिकारात्' इति ङीषन्तात् 'स्त्रीभ्यो ढक' Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 . नैषधमहाकाव्यम् / अन्यथा 'दित्यदिति-' इत्यादिना ण्यप्रत्ययस्य पूर्वविप्रतिषेधेन ढगपवादिकत्वात् , लिङ्गविशिष्टपरिभाषा स्वनित्येति गतिः, भाष्यवात्तिकयोरनुक्तत्वादसाधुरिति केचित्, अभियुक्तप्रयोगादभियौक्तिकप्रसिद्धश्च तनाद्रियन्ते, तेषां नीतेः पथि दैत्यनीतिमार्गे, साथ वहतीति सार्थवाहः अग्रणीः, पथप्रदर्शकः इत्यर्थः, कर्मण्यण , स काव्यः कवेरपत्यं शुक्रः, 'कुर्वादिभ्यो ण्यः' सभां तां स्वयंवरसभां, काव्येन प्रबन्धेन, अभाणीत् अवर्णयत् / 'काव्यं ग्रन्थे ग्रहे काव्ये' इति विश्वः // 59 // ___ जो कवि ( शुक्राचार्य ) अत्यन्त शोभमान संस्कृत वचनवाले स्वर्ग में वचनमालाके गुम्फनमें आचार्य (संस्कृत काव्यरचनोपदेश ) को जाननेवाले तथा दैत्योंकी नीति के पथ. प्रदर्शक हैं, उस शुक्राचार्यने (वक्ष्यमाण ) कविता (10 / 60-65 ) से सभाका वर्णन किया / [ शुक्राचार्यने मी स्वयंवर सभाकी प्रशंसा की ] // 59 / / अमेलयद्भीमनृपः परं न नाकर्षदेतान् दमनस्वसैव / / इदं विधाताऽपि विचित्य यूनः स्वशिल्पसर्वस्वमदर्शयन्नः // 60 // अथ षड्भिस्तकाव्यमेवाह-अमेलयदित्यादि। एतान् यूनः, युवजनान् , भीमनृपः परं केवलं, न अमेलयत् स्वयंवरार्थ न मेलितवान् , तथा दमनस्वसा दमयन्त्येव, नाकर्षत् , स्वगुणेनेति शेषः, किन्तु विधाताऽपि विचित्य एकत्र सगृह्य, इदं पुरोवर्ति युवरूपं, स्वशिल्पसर्वस्वं स्वनिर्माणकौशलसम्पदं, नः अस्माकम् , अदर्शयत् / राज्ञः प्रयत्नात् भैमीसौन्दर्यसम्पदा ब्रह्मणः स्वनिर्माणकौशलप्रकाशन. व्यसनाच्चेदं युवमेलनं न त्वेकस्मादित्युत्प्रेक्षा // 6 // ___ अब यहाँसे श्लोक 65 तक पूर्व श्लोकोक्त कविता ( काव्य ) को कहते हैं केवल राजा भीमने ही इन युवकोंको एकत्रित नहीं किया है और दमयन्तीने ही इन युवकों को आकृष्ट नहीं किया है; (किन्तु ) ब्रह्माने भी विचारकर अपनी कारीगरीके सर्वस्व (समस्त कौशल) हम लोगोंको दिखा दिया है। [ राजा भीमके प्रयत्न, दमयन्तीकी सौन्दर्यसम्पत्ति तथा ब्रह्माकी स्वशिल्पकौशल प्रदर्शित करने की इच्छा यह युवकोंका सम्मेलन हुआ है ] // 60 // एकाकिभावेन पुरा पुरारियः पञ्चतां पञ्चशरं निनाय / तद्भीसमाधानमनुष्य-काय निकायलीलाः किममी युवानः 1 // 61 // एकाकीति / यः पुरारिः पुरा एकाकिभावेन असहायत्वेन हेतुना, पञ्चशरं कन्दर्प, पञ्चानां भावः पञ्चता, सा भौतिकस्य शरीरस्य स्वस्वांशस्य स्वेषु स्वेषु प्रवेशः, मरणमिति यावत् , ता निनाय, अमी युवानः अमुष्य कामस्य सम्बधिन्यां तस्मात् पुरारेः, भियः समाधानं निवारणं, निवारका इत्यर्थः, कार्यकारणयोरभेदोपचारः कायनिकायलीलाः शरीरसमूहविलासाः, कामकायव्यूहाः इति यावत् , किम् ? पूर्व महादेवः सहायहीनं कन्दपं संजहार इति कन्दर्पस्यासहायत्वात् ततो भयमासीत् , Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। .. 587 इदानीम् एतद्युवशरीरैरात्मनो बहुत्वात् ततो न भयमिति भावः। इयमुत्प्रेक्षा / सर्वे कामकल्पा इति निष्कर्षः // 61 // जिस शिवजीने पहले कामदेवको अकेला होनेसे मारा था, ये युवक ( राजा लोग) इस ( कामदेव ) के, उस शिव-सम्बन्धी भयका प्रतिकार अर्थात् निवारण करनेवाले शरीरसमूहका विलास है क्या ? [पहले कामदेवको अकेला (असहाय) होनेसे शिवजीने मार दिया उसी शिवजी के भयको निवारण करनेवाले ये युवक राजा उस कामदेवके शरीरके विलास हैं / असहायको एक बलवान् व्यक्ति मार देता है, किन्तु अनेक व्यक्तियोंको वह नहीं मार सकता; अतः अब ये अनेक कामदेव होकर शिवजीसे निर्भय हैं / ये युवक कामदेवके समान सुन्दर हैं ] // 61 // पूर्णेन्दुबिम्बाननुमासभिन्नानस्थापयत् कापि निधाय वेधाः / तैरेव शिल्पी निरमादमीषां मुखानि लावण्यमयानि मन्ये // 62 // पूर्णेति / शिल्पी निर्माणकुशली, वेधाः अनुमासं मासि मासि, भिन्नान् नाना. भूतान् , पूर्णेन्दुबिम्बान् संसारस्यानादित्वादसङ्खयानिति भावः' क्वापि निधाय निक्षिप्य, आच्छायेति यावत् , आस्थापयत् स्थापितवान् , चिरमरक्षदित्यर्थः। अथ तैः पूर्णेन्दुबिम्बैरेव, अमीषां यूनां, लावण्यमयानि मुखानि निरमात् निर्मितवानिति मन्ये / उत्प्रेक्षा // 62 // ____ कारीगर ब्रह्माने प्रत्येक मासमें भिन्न 2 पूर्णचन्द्रबिम्बको कहीं ( गुप्त स्थान में ) छिपाकर रख दिया, उन्हीं ( पूर्व स्थापित पूर्णचन्द्रबिम्बों ) से सौन्दर्ययुक्त इन मुखोंको बनाया है, ऐसा मैं मानता हूँ [अन्य भी कोई कारीगर बहुत उत्तमोत्तम पदार्थोको किसी गुप्त स्थान में बनाकर रख देता है और बादमें उनके द्वारा किसी कल्पनातीत सुन्दर पदार्थकी रचना करता है / इन युवकों के मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर हैं ] // 62 // मुधाऽर्पितं मूर्द्धसु रत्नमेतैर्यन्नाम तानि स्वयमेत एव / स्वतः प्रकाशे परमात्मबोधे बोधान्तरं न स्फुरणार्थमर्थ्यम् / / 63 // मुधेति / एतैः नृपैः, मूर्द्धसु रत्नं मुधा अर्पितं शिरोमणिर्वृथा धृतः इत्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात् , एते स्वयमेव तानि रत्नानि, नाम खलु, तथोत्कृष्टा इत्यर्थः / 'रत्नं स्वजातौ श्रेष्ठऽपि' इत्यमरः, किं रत्नधारणेनेति वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायेन वैयोक्तिः / तथा हि, स्वतः प्रकाशे, परमात्मबोधे परमात्मविषयके तत्स्वरूपे वा ज्ञाने विषये, स्फुरणार्थं, तज्ज्ञानप्रकाशनार्थं, बोधान्तरम् अनुव्यवसायादिरूपं ज्ञानान्तरं, न अयं नापेक्ष्यम् / दृष्टान्तालङ्कारः // 63 // इन्होने मस्तकों पर व्यर्थ ही रत्न (रत्न जड़े हुए मुकुट) रखा है, क्योंकि ये वे (रत्न) ही हैं / परमात्मज्ञानके स्वतः प्रकाशित हो जाने पर स्फुरण करनेके लिये दूसरा ज्ञान Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 नैषधमहाकाव्यम् / इन युवकोंका शिरपर रत्नान्तरका धारण करना व्यर्थ है। ये सभी युवक रत्नके समान सुन्दर हैं ] // 63 // प्रवेक्ष्यतः सुन्दरवृन्दमुच्चैरिदं मुदा चेदितरेतरं तत् / न शक्ष्यतो लक्षयितुं विमिथं दसौ सहस्त्रैरपि वत्सराणाम् // 64 // प्रवेच्यत इति / दसौ अश्विनौ, उच्चैः महत् , इदं सुन्दरवृन्दं रमणीयवर्ग, मुदा कौतुकेन, प्रवेक्ष्यतः अन्तःप्रविष्टौ भविष्यतः, चेत् तत्तहि, विमिश्रं मिलितम् , इतरेतरम् अन्योऽन्यं स्वभ्रातृरूपं, वत्सराणां सहस्रैरपि लक्षयितुं मदीयः अयमेव भ्राता इति विविक्ततया ग्रहीतुं, न शक्यतः शक्तौ न भविष्यतः तत्र सभायां स्थिताः सर्वे राजानः अश्विनीकुमारतुल्या इति भावः / अत्र दत्रयोः सौन्दर्यगुणसामान्येन सुन्दरवृन्दकतादात्म्यात् सामान्यालङ्कारः, सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्त्वन्तरकता' इति लक्षणात् // 64 // ___ यदि अश्विनीकुमार अत्यन्त हर्ष से इस सुन्दर-समूहमें प्रवेश करेंगे तो मिश्रित ( ८काकृति होनेसे इनमें मिले हुए ) पर स्परको हजारों वर्षों में पहचानने के लिये वे समर्थ नहीं होंगे। ( लोकमें भी अत्यन्त समान वस्तुमें मिली हुई कोई चीज नहीं पहचानी जा सकता, ये सभी युवक अश्विनीकुमार के समान सुन्दर हैं ] / / 64 // स्थितैरियद्भिर्युवभिविंदग्धैर्दग्धेऽपि कामे जगतः क्षतिः का ? / एकाम्बुबिन्दुव्ययमम्बुराशेः पूर्णस्य कः शंसति शोषदोष ? // 65 / / स्थितैरिति / विदग्धैः प्रगल्भैः अदग्धेश्व, स्थितैः इयद्भिः, एतावद्भिः, युवभिः, उपलक्षितस्येति शेषः, जगतः कामे दग्धेऽपि का क्षतिः ? न्यूनता न काऽपीत्यर्थः / तथा हि, पूर्णस्य अम्बुराशेः एकाम्बुबिन्दुव्ययं कः शोष एव दोषस्तं शंसति ? न कोऽपि दोषत्वेन शंसतीत्यर्थः; यथा समुद्रस्य एकबिन्दुजलव्यय समुद्रः शुष्कः इति न कोऽपि कथयति, तथा कामसदृशानां बहूनाम् एतेषां विद्यमानतायाम् एकस्य कामस्य नाशे पृथिव्याः का क्षतिः? इति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः / / 65 // विदग्ध ( चतुर, पक्षा-नहीं जले हुए ) इतने युवकोंके रहनेस ( एक ) कामदेवके जलने पर, भी संसारकी क्या हानि हुई ? अर्थात् कोई नहीं / भरे हुए समुद्र के जलके एक बूंदके व्ययको कौन सूखना कहता है ? अर्थात् कोई नहीं। [ समुदमें अपार जल रहनेसे जिस प्रकार उसके एक बिन्दुके नष्ट होने पर भी कोई व्यक्ति समुद्रको सूखा हुआ नहीं कहता, न उससे कोई हानि होती है, उसी प्रकार कामदेव तुल्य इतने ( बहुत अधिक अर्थात् अगणित ) युवकों के रहते ( या युवकोंसे परिपूर्ण संसारका ) एक कामदेवके जल जानेपर भी कोई हानि नहीं समझनी चाहिये ये सभी युवक कामदेव के समान सुन्दर हैं ] 1. इति स्तुवन् हूकृतिवर्गणाभिर्गन्धर्ववर्गेण स गायतैव। . ओङ्कारभूम्ना पठतैव वेदान् महर्षिवृन्देन तथाऽन्वमानि // 66 / / Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 दशमः सर्गः। इतीति / इतीत्थं, स्तुवन् स काव्यः, गायतैव गन्धर्ववर्गेण हूकृतीनां वर्गणाः पुनः पुनरुच्चारणानीत्यर्थः, ताभिः अन्वमानि अनुमोदितः, कर्मणि लुङ्, तथा वेदान् : पठतैव महर्षिवृन्देन ओङ्कारभूम्ना प्रणवभूयस्त्वेन, अन्वमानि अनुमोदितः / अत्र गानार्थंहङ्कारैः वेदपाठाथैः ओङ्कारैश्च काव्यवाक्यानुमोदनं कृतमिवेत्युत्प्रेक्ष्यते / 'ओमित्यनुमते प्रोक्तं प्रणवे चाप्युपक्रमे' इति विश्वः // 66 // इस प्रकार ( 10 / 60-65) स्तुति ( स्वयंवरकी प्रशंसा ) करते हुए 'शुक्राचार्यका गाते हुए गन्धर्वोने वार-वार हुङ्कार-समूह ( 'हूँ हूँ' ऐसा कहने ) से समर्थन किया तथा वेदोंको पढ़ते हुए महर्षि-समूहने ॐकार की बहुलता ( स्वीकृति-सूचक ॐ शब्दको बार-बार ) उच्चारण करनेसे समर्थन किया। [ लोकमें भी जिस प्रकार किसी की बातका समर्थन 'हूँ हूँ' तथा 'ॐ ॐ' कह कर किया जाता है, उसी प्रकार शुक्राचार्यके सभावर्णनका समर्थन गाते हुए गन्धर्षों तथा वेद पढ़ते हुए महर्षियोंने वार-वार क्रमशः 'हूँ' तथा 'ॐ ॐ कह कर किया। गायनमें 'हूँ हूँ' की तथा वेदाध्ययन में ॐ ॐ' का बाहुल्य होना उचित हो है / गन्धर्वो तथा महषियोंने शुक्राचार्य कृत स्वयंवर-प्रशंसाको उचित बतलाया ] है // 66 // न्यवीविशत्तानथ राजसिंहान् सिंहासनौघेषु विदर्भराजः। शृंगेषु यत्र त्रिदशैरिवैभिरशोभि कार्तस्वरभूधरस्य // 67 // न्यवीविशदिति / अथ विदर्भराजः भीमः, तान् राज्ञः सिंहानिव राजसिंहान् राजश्रेष्ठान् , सिंहासनौघेषु न्यवीविशत् उपवेशयामास, विशेणौँ चङ, यत्र येषु सिंहासनेषु, एभिः राजसिंहैः, कार्तस्वरभूधरस्य हेमाद्रेः सुमेरोः, शृङ्गेषु त्रिदर्शः देवैरिव, अशोभि शोभितम् / भावे लुङ् // 6 // इसके बाद विदर्भराज (भीम ) ने उन राजसिंहोंको सिंहासनोंपर बैठाया, जिन पर ये ( राजसिंह ) स्वर्ण पर्वत अर्थात् सुमेरुको चोटियों पर ( स्थित ) देवों के समान शोभते थे / स्वयंवर मञ्च सुमेरुशिखर तुल्य अत्युन्नत तथा स्वर्णमय और युवक राजा लोग देवतुल्य थे] // विचिन्त्य नानाभुवनागतांस्तानमर्त्य सङ्कीर्त्यचरित्रगोत्रान् / कथ्याः कथङ्कारममी सुतायामिति व्यषादि क्षितिपेन तेन // 68 // विचिन्त्येति / तेन क्षितिपेन भीमेन, नानाभुवनेभ्यः नानाप्रदेशेभ्यः, आगतान् तान् यूनः, मत्स्यैः सङ्कीर्णानि कीर्तयितुं शक्यानि, चरित्राणि गोत्राणि कुलानि नामानि च येषां ते न भवन्तीति तथोक्ताः तान् तथाविधान् , विचिन्त्य अमी युवानः, सुतायां विषये, कथङ्कारं केन प्रकारेण, 'अन्यथैवं कथम्' इत्यादिना णमुल, कथ्याः कथनीयाः, इति हेतोः, व्यषादि विषण्णेन जभावि, भावे लुङ् / 'प्राकसिता. दडव्यवायेऽपि'-'सदिरप्रतेः' इति षत्वम् , एतेषां चरित्रगोत्रादीनि नरलोकैवर्णयितुमशक्यत्वात् दमयन्ती कथं ज्ञास्यतीति विषण्णो बभूवेति भावः // 68 // वे राजा (भीम ) अनेक लोकों ( देशों ) से आये हुए उन राजाओंको देवताओंसे Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 नैषधमहाकाव्यम् / वर्णनीय (अथवा-मनुष्योंसे अवर्णनीय ) चरित्र तथा गोत्रवाला विचारकर दमयन्तीके विषयमें 'इन ( राजाओं) का किस प्रकार वर्णन किया जायेगा' इस कारण चिन्तित हुए / [इन स्वयंवर में आये हुए राजाओं के चरित्र तथा वंशका वर्णन मनुष्यों के द्वारा न हो सकनेसे ( अथवा-देवों के द्वारा ही हो सकने से ) इनके चरित्र तथा कुल-परम्पराको पूर्णतया दमयन्तीसे किस प्रकार कहा जायेगा और विना उसे पूर्णतया मालूम किये इनमेंसे किसीको कैसे वरण करने के लिये चुनेगी ? यह सोचकर राजा भीम बहुत खिन्न हुए ] // श्रद्धालुसङ्कल्पितकल्पनायां कल्पद्रुमस्याथ रथाङ्गपाणेः / तदाऽऽकुलोऽसौ कुलदैवतस्य स्मृति ततान क्षणमेकतानः // 69 / / श्रद्धाल्विति / अथ विषादानन्तरम् , आकुलः असौ भीमः, तदा श्रद्धालूनां भक्तानां, 'स्पृहिगृहि-'इत्यादिना आलुचप्रत्ययः, सङ्कल्पितकल्पनायाम् ईप्सितार्थसम्पादने, कल्पद्रुमस्य इच्छापूरकस्य, कुलदेवतस्य वंशपरम्परोपासितस्य, रथाङ्गपाणेः नारायणस्य, स्मृति स्मरणं, क्षणं व्याष्य एकतानः अनन्यवृत्तिः सन् , ततान, 'एकतानोऽनन्यवृत्तिः' इत्यमरः // 69 // उस समय व्याकुल उस (राजा भीम) ने श्रद्धालुके मनोरथकी सिद्धि में कल्पवृक्षरूप कुलदेव विष्णुका क्षणमात्र एकाग्रचित होकर स्मरण किया। [ सम्पूर्ण मनोरथको पूरा करनेवाले कुलदेव विष्णुके अतिरिक्त दूसरा कोई मेरी अभिलाषा पूरी नहीं करेगा, यह सोचकर विष्णुका एकाग्र मनसे स्मरण किया ] // 69 // तचिन्तनानन्तरमेव देवः सरस्वती सस्मितमाह स स्म / स्वयंवरे राजकगोत्रवृत्त-वक्त्रीमिह त्वां करवाणि वाणि!॥ 70 // तदिति / तस्य भीमस्य, चिन्तनानन्तरं स्मरणानन्तरमेव, स देवो हरिः, सर• स्वती सस्मितमाह स्म / 'लट स्मे' इति भूते लट , किमिति ? हे वाणि ! इह स्वयंवरे वृत्तानां चरित्राणाञ्च, वक्त्रीम् आख्यात्री, करवाणि, प्रैषार्थे लोट् , अहमिति शेषः // ____उन ( भीम ) के स्मरण करने के बाद ही देव (विष्णु भगवान् ) ने मुस्कराते हुए सरस्वतीसे कहा-'हे सरस्वति ! इस स्वयंवरमें तुमको मैं राजाओं के वंश तथा चरित्रको बतलानेवाली बनाता हूँ। [ राजाओंके कुल तथा चरित्रका वर्णन करने के लिये तुभ स्वयंवर में जावो ] // 70 // कुलश्च शीलञ्च बलश्च राज्ञां जानासि नानाभुवनागतानाम् / एषामतस्त्वं भव वावदूका मूकायितुं कः समयस्तवायम् ? // 71 // कुलमिति / हे वाणि! नानाभुवनागतानां राज्ञां कुलञ्च शीलञ्च बलञ्च जानासि, अतः कारणात् , स्वम् एषां वाबदूका वक्त्री, वंशवीर्यादि गुणतो वर्णयित्रीत्यर्थः, भव, 'वावदूकोऽतिवक्तरि' इत्यमरः। वावदूक इत्यस्य यङलुगन्तात् वदेः 'उलूका Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 561 दयश्च' इत्यनेन औणादिक ऊकप्रत्ययः, कुर्वादिगणे वावदूकशब्दपाठात् ऊकप्रत्यय इति माधवः तथा हि, तव मूकायितुं मूकवदाचरितुं, तूष्णीं स्थातुमित्यर्थः, मूकशब्दादाचारार्थे क्यजन्तात् 'कालसमयवेलासु तुमुन्' अयं कः समयः ? को वाऽवसरः ? अपि तु न कोऽपि इत्यर्थः। वाग्मिनाम् अवसरे तूष्णीम्भावो न युक्त इत्यर्थान्तरन्यासः // 71 // ___ अनेक लोकोंसे आये हुए इन राजाओंके वंश, शील तथा पराक्रमको जानती हो; अतः तुम ( उनका ) वर्णन करनेवाली बनो, तुम्हारे चुप रहने का यह कौन-सा समय है। [बोलने के समयमें वावदूकको चुप रहना उचित नहीं, अत एव तुम स्वयंवर में जाकर इन स्वयंवरागत राजाओंके कुल, शील तथा पराक्रमका वर्णन करो ] // 71 / / जगत्रयीपण्डितमण्डितैषा सभा न भूता न च भाविनी वा। राज्ञां गुणज्ञापनकैतवेन सङ्ख्यावतः श्रावय वाङमुखानि // 72 // वागवसरत्वमेवाह-जगदिति / हे वाणि! जगत्रय्यां ये पण्डिताः वाचस्पत्यादयः तैः अशेषैः मण्डिता एषा सभा न भूता न च भाविनी वा, अतो राज्ञां गुणज्ञापनकैतवेन गुणप्रकाशनच्छलेन, संख्यावतः पण्डितान् , वाङमुखानि उपन्यासान् , 'संख्यावान् पण्डितः कविः' इति, 'उपन्यासस्तु वाङ्मुखम्' इति चामरः / श्रावयः; पण्डितमण्डलीविलसिते विदुषां बाग्विजम्भणम् उचितं, तत्रापि तूष्णीम्भावे वाग्विफलत्वमयोग्यता च स्यादिति भावः // 72 // तीनों लोकों के पण्डितोंसे शोभित यह ( ऐसी) सभा न हुई है और न होगी, ( अत एव ) राजाओंके गुण बतलानेके व्याजसे पण्डितोंको ( अपना ) उपन्यास सुनाओ। [ पण्डितोंके सामने विद्वानोंका बोलना उचित है, वहां भी यदि वे नहीं बोलें तो उनका वचन निष्फल होता है और उनकी अयोग्यता प्रमाणित होती है, अत एव तुम्हें ऐसे सुन्दर अवसर पर नहीं चूकना चाहिये ]' / / 72 // इतीरिता तच्चरणात् परागं गीर्वाणचूडामणिमृष्टशेषम् / तस्य प्रसादेन सहाशयाऽसावादाय मूर्नाऽऽदरिणी बभार ||73 // इतीति / इति इत्थम्, ईरिता विष्णुना आज्ञप्ता, असौ वाणी, तस्य हरेः नारायणस्य, चरणात् गीर्वाणानां देवानां, चुडामणिभिः शिरोरत्नः, मृष्टस्य प्रोमिळूतस्य, शेषम् अवशिष्टं, परागं रेणुं, तस्य आज्ञया आज्ञारूपेण, प्रसादेन अनुग्रहेण, सह आदाय मूद्धर्ना आदरिणी आदरवती सती, बभार // 73 // (विष्णु भगवान्से ) इस प्रकार (1070-72 ) कही गयी यह (सरस्वती देवी) उन (विष्णु भगवान् ) के चरणसे देवों के मुकुटमणियों के द्वारा पोंछने से बचे हुए परागको उन ( विष्णु भगवान् ) की आज्ञारूप प्रसन्नताके साथ मस्तकसे लेकर ( स्वीकारकर ) आदरवती हुई / [ सरस्वतीने विष्णु भगवान्के चरणोंपर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनकी आशाको आदरपूर्वक प्रसाद रूपमें ग्रहण किया ] // 73 / / Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 नैषधमहाकाव्यम् / मध्येसभं साऽवततार बाला गन्धर्वविद्याम'यकण्ठनाला / त्रयीमयीभूतवलीविभडा साहित्यनिवर्तितहकतरङ्गा // 74 // मध्येसभमिति / सा वाणी, मध्ये सभायाः मध्येसभं 'पारेमध्ये षष्ठया वा' इत्यव्ययीभावः, अवततार। कीदृशी ? बाला बालस्त्रीरूपधारिणी, गन्धर्वविद्या गानविद्या, तन्मयस्तद्विकारः, कण्ठनालः यस्याः सा, त्रयीमयीभूताः विधाभूताः, अन्यत्र-वेदविकारीभूनाः, वलीविभङ्गाः त्रिवलीसर्वस्वानि यस्याः सा, साहित्येन कवित्वेन, निर्वतिता निष्पादिताः, दृशः दृष्टयः, तरङ्गा इव यस्याः सा // 74 // ___गान विद्यामय ( गान विद्यासे बने हुए, पाठा०-गान विद्याको धारण करनेवाले ) कण्ठनालवाली, त्रयीमयी (ऋक-यजुः-सामरूप वेदत्रयसे रची गयी) वलि-विलासवाली तथा साहित्य ( काव्य, नाटक,चम्पू आदि ग्रन्थ ) से बने हुए तर गोंके समान ( अथवातरङ्गरूप ) दृष्टिवाली बालाका रूप धारणकी हुई वह ( सरस्वती ) सभाके बीच में उतरी अर्थात् सभामें पहुँची। [ सरस्वती देवीके कण्ठको नाल कहनेसे उसके ऊपर में स्थित सरस्वती देवीके मुखको कमल माना गया है ) // 74 / / आसीदथर्वा त्रिवलित्रिवेदी-मूलात् विनिर्गत्य वितायमाना। नानाभिचारोचितमेचकश्रीः श्रुतिर्यदीयोदररोमरेखा / / 75 // अथ चतुर्दशश्लोक्या वाग्देवीमेव वर्णयति, आसीदिति / अथर्वा श्रुतिः अथर्ववेदः, तिस्रो वलयः त्रिवलिः, त्रिलिप्रसिद्धिः संज्ञा चेदिति वामनः, तद्रूपा त्रिवेदी, सैव मूलं तस्मात् विनिर्गत्य वितायमाना वितन्यमाना, तनोतेरनुनासिकस्य विकल्पादात्वम्, अथर्वणस्तु त्रययुद्धार इति प्रसिद्धिः। नानाविधानाम् अभिचाराणां हिंसाकर्मणाम्, उचिता पापातिशयात् युक्ता, मेचकश्रीः कृष्णकान्तिर्यस्याः सा, अन्यत्र-अनाभिचारो न भवतीति नानाभिचारः नाभिसञ्चरणमित्यर्थः, तस्य उचिता सा च सा मेचका श्रीर्यस्याः सा तथोक्ता, यदीया यस्याः सरस्वत्याः सम्बन्धिनी, उदरे रोमरेखा रोमराजिः, आसीत् // 75 // त्रिवलारूप वेदत्रयीके मूलसे निकलकर बढ़ती हुई, अनंक अभिचार ( मारण-मोहनउच्चाटन आदि पाप ) कर्मक योग्य मेवक पक्षा०-नाभि में प्रवेश करने योग्य मेचक( कृष्ण-नील ) वर्णवाली जिस सरस्वतीकी उदरकी रोमपति अथर्ववेद था। ( अथर्ववेद त्रयी ( ऋक्-यजुष तथा सामवेद से उद्धृत होना, एवं अभिचार कर्मकारक होना, एवं श्याम वर्ण होना पुराणों में प्रसिद्ध है ) / / 75 / / / शिव साक्षाच्चरितं यदीयं कल्पश्रियाऽऽकल्पविधिर्यदीयः। यस्याः समस्तार्थनिरुक्तिरूपैर्निरुक्तविद्या खलु पर्यणसीत् // 76 / / १'-धर-' इति पाठान्तरम् / Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 563 शिक्षेति / शिक्षा तदाख्यग्रन्थ एव, साक्षात् स्वयमेव, यदीयं चरितम् अभूत् , परोपदेशरूपत्वादिति भावः। यदीयः आकल्पविधिः प्रसाधनविधिः, कल्पश्रिया कर्मकाण्डभूतया कल्पसूत्रलक्ष्म्या, निवृत्त इति शेषः / निरुक्तविद्या खलु एव यस्याः समस्तार्थानां सर्ववेदार्थानां, निरुक्तिरूपैः निर्वचनभङ्गिभिः, पर्यणसीत् तद्पेण आसीदित्यर्थः / णमेलुङ 'अस्तिसिंचोऽऽपृक्ते-इतीडागमः, 'यमरमनमातां सक च' इति सक इडागमश्च 'इट ईटि' इति सिचो लोपः, 'उपसर्गादसमासेऽपिणोपदेशस्य' इति णत्वम् / / 76 // निश्चित रूपस साक्षात् शिक्षा ( वेदाङ्गभूत ग्रन्थ-विशेष, पक्षा०-परोपदेश ) ही जिस ( सरस्वती ) का चरित्र हुई, कल्प ( वेदाङ्गभूत कर्मकाण्डप्रतिपादक ग्रन्थ-विशेष ) की शोभासे जिस ( सरस्वती) का भूषण कार्य सम्पन्न हुआ अर्थात् साक्षात् 'कल्प' हा जिसका भूषण था, और सम्पूर्ण वेदोंके अर्थकी निरुक्ति (निर्वचन) रूपोंसे जिस ( सरस्वती ) की निरुक्त विद्या ( वेदका 'कर्ण' स्थानीय ग्रन्थ-विशेष ) परिणत हुआ[६ वेदाङ्गों में-से 'शिक्षा' उस सरस्वती देवीका चरित, 'कल्प' भूषण तथा निरुक्त समस्तार्थ निर्वचन हुए ] // 76 // जात्या च वृत्तेन च भिद्यमानं छन्दो भुजद्वन्द्वमभूत् यदीयम् / श्लोकार्द्धविश्रान्तिमयीभविष्णु पर्वद्वयीसन्धिसुचिह्नमध्यम् // 77 // जात्येति / जात्या मात्रावृत्तरूपेण आर्यादिना च, वृत्तेन वर्णवृत्तरूपेण अक्षरसंख्यातेन उक्थादिना च, भिद्यमानं द्विधाभूतं, तथा श्लाकार्द्ध विश्रान्तिमयीभविष्णु विश्रान्तिरूपतामापन्नं, छन्दः छन्दोग्रन्थः, यदीयं पर्वणोः कर्पूरपूर्वोत्तरभागयोः, द्वयी तस्याः सन्धिः तेन सुचिह्नं सुव्यक्तं, मध्यं कर्पूरस्थान यस्य तादृशं, भुजद्वन्द्वम् अभूत् , द्विविधं छन्दो भुजयुगत्वेन श्लोकार्द्धविश्रान्तिः कर्पूरत्वेन पर्यणसीदित्यर्थः / / . लाकक आधम विश्राम ( पूर्ण विराम ) रूप दो ग्रन्थियोका सन्धि ( जाड़ ) रूप सुन्दर चिह्नसे युक्त तथा जाति ( आयो आदि मात्रा छन्द) तथा वृत्त (श्री, इन्द्रवजा, शिखरिणी आदि वर्णच्छन्द ) रूपसे दो भागों में विभक्त छन्द ( वेदाङ्गभूत 'छन्दःशास्त्र' नामक ग्रन्थ-विशेष ) जिस ( सरस्वती) की दो भुजा हुए। [ श्लोकके मध्यमें विश्राम ( पूर्ण यति ) ही उस सरस्वती देवीकी भुजाके कोहनी-नामक बीचके जोड़ थे, इस प्रकार मात्रा तथा वर्ण भेदसे दो भागों में विभक्त छन्दःशास्त्र ही उस सरस्वती के दोनों हाथ हुआ]। असंशयं सा गुणदीर्घभाव-कृतां दधाना विततिं यदीया / विधायिका शब्दपरम्पराणां किञ्चारचि व्याकरणेन काञ्ची / / 78 // असंशयमिति / किञ्च गुणस्य पट्टसूत्रस्य, दीर्घभावेन दैर्येण, कृतां वितति विस्तारं, दधाना, अन्यत्र-गुणश्च दीर्घश्च भावप्रत्ययश्च कृत्प्रत्ययश्च तेषां विततिं. दधानेनेति विभक्तिविपरिणामः, शब्दपरम्पराणां शिञ्जित परम्पराणां, विधायिका जनयित्री, अन्यत्र-सुप्तिङन्तशब्दपरम्पराणां विधायकेन साधकेनेति विभक्तिविप. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 नैषधमहाकाव्यम् / रिणामः, सा प्रसिद्धा, यदीया काञ्ची व्याकरणेन अरचि रचिता, असंशयं संशयाभाव इत्यर्थः, 'अव्ययं विभक्ति-' इत्यादिना अर्थाभावेऽव्ययीभावः // 78 // पट्टसूत्रकी लम्बाईसे किये ( पक्षा०-गुण, दीप, भावप्रत्यय और कृत्प्रत्ययोंके ) विस्तारको धारण करती हुई और शब्दपरम्पराको करनेवाली अर्थात् बजनेवाली (पक्षा'राम, पाक' आदि शब्द-समूहको सिद्ध करनेवाली) जिस ( सरस्वती) की करधनी ( कटिभूषण काञ्ची) व्याकरण ( वेदाङ्गभूत मुख-स्थानीय ग्रन्थ-विशेष ) से बनायी गयी थी। [ 'देवेन्द्र, देवोद्यान' आदि पदोंमें 'आद्गुणः' (पा० सु. 6-1.87 ) से 'गुण', 'दैत्यादि, श्रीश' इत्यादि पदोंमें 'अकः सवर्णे दीर्घः' (पा० सू० 6-1-102 ) आदि सूत्रोंसे 'दोघ', 'भूयते' इत्यादि पदों में लाकर्मणि च भावे चाकर्म केभ्यः' (पा० सू० 3-469 ) आदि सूत्रोंसे भावमें प्रत्यय, और 'कर्तव्य, करणीय' आदि पदोंमें 'तव्यत्तव्यानीयर:' (पा० सू० 3.1.96 ) आदि सूत्रोंसे 'तव्य एवं तव्यत्' आदि 'कृत्' संज्ञक प्रत्यय व्याकरणानुसार होते हूँ तथा वह व्याकरण शास्त्र 'राम' कृष्ण, नन्दन, गमन' आदि शब्दोंकी रचना ( सिद्धि) करता है / व्याकरण वेदोंका मुख माना गया है, अत एव उसका शब्द करना अर्थात् बोलना उचित ही है ] // 78 // स्थितैव कण्ठे परिणम्य हार-लता बभूवोदिततारवृत्ता। ज्योतिर्मयी यद्भजनाय विद्या मध्येऽजमङ्कन भृता विशङ्के // 79 // स्थितेति / कण्ठे वाचि, अन्यत्र-ग्रीवायां, परिणम्य रूपान्तरं प्राप्य, स्थिता, उदिता उक्ताः, तारा अश्विन्यादयो येषु तानि, वृत्तानि पद्यानि यस्यां सा, अन्यत्रउदिततारा प्रकाशितशुद्धमौक्तिका, सा च सा वृत्ता च वर्तला च तथोक्ता, 'तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरणे शुद्धमौक्तिके'-'वृत्तं पद्ये चरित्रे त्रिष्वतीते दृढनिस्तले' इति च विश्वामरी, अङ्गानां शिक्षाकल्पादीनाम, अन्यत्र-करादीनां मध्ये मध्येऽङ्गं, 'परि मध्ये' इत्यादिनाऽव्ययीभावः, अङ्केन एकद्वयादिसंख्यया चिह्नन, भृता पूर्णा, अन्यत्र-अङ्कन क्रोडेन, वक्षसा इत्यर्थः, भृता धृता, भरतेबिभत्तश्च कर्मणि क्तः 'अङ्क कोडेऽन्तिके चिह्ने' इति वैजयन्ती। ज्योतिर्मयी नक्षत्रप्रधाना, अन्यत्रभास्वती, 'ज्योतिरग्नौ दिवाकरे। पुमान् नपुंसकं दृष्टौ स्यानक्षत्रप्रकाशयोः' इति मेदिनी, विद्या ज्योतिर्विद्यैव, यद्भजनाय यस्याःसरस्वत्याः सेवनाय, हारलता बभूव इति विशङ्के इत्युत्प्रेक्षा // 79 // . कण्ठ ( वचन, पक्षा०-गर्दन ) में स्थित, उदयप्राप्त तारा-( अश्विन्यादि नक्षत्र) सम्बन्धि वृत्त ( श्लोक या शुभाशुभ फलका कथन ) वाला ( पक्षा०-चमकती हुई मध्य मणिवाली तथा गोल ), अङ्ग ( वेदोंके शिक्षा आदि 6 अङ्ग, पक्षा०-शरीर ) में अङ्क ( सङ्ख्या या गणना अर्थात् गिनती, पक्षा०-क्रोड अर्थात् गोद) से पूर्ण ज्योतिर्मयो ( नक्षत्र-प्रधान अर्थात ग्रहों तथा नक्षत्रोंके विचार करनेवाला, पक्षा०-धमकती हुई ) विद्या अर्थात ज्योतिःशास्त्र ही जिस ( सरस्वती) की सेवाके लिये हारलता ( हारकी लड़ी) Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 565 बनी है, ऐसा मैं समझता हूँ। [ सरस्वती देवीके वचनमें स्थित अश्विन्यादि तारा-सम्बन्धी शुभाशुभ फलका निर्देशक शिक्षादि वेदाङ्गोंमें गणना या अङ्करूपसे पूर्ण ज्योतिशास्त्र ही सरस्वती देवीकी सेवाके लिए उसके कण्ठमें मध्यमणियोंवाली तथा गोल, शरीरके मध्य में अङ्क (क्रोड ) में पड़ी हुई हार लता बनी-सी मालूम पड़ती है ] / / 79 / / अवैमि वादिप्रतिवादिगाढ-स्वपक्षरागेण विराजमाने / तौ पूर्वपक्षोत्तरपक्षशास्त्रे रदच्छदौ भूतवती यदीयौ // 80 / / अवैमीति / वादिप्रतिवादिनोः गाढेन निविडेन, स्वपक्षे रागेण अभिनिवेशेन, अन्यत्र-अन्तःपावरक्तत्वेन, विराजमाने पूर्वपक्षोत्तरपक्षशास्त्रे यदीयौ तौ प्रसिद्धौ, रदच्छदौ ओष्ठौ, भूतवती बभूवतुः, भवतेः क्तवतुप्रत्ययः, अवैमि उत्प्रेक्षे। भत्र ओष्ठावपि वादिनावभिवदनव्यापारवन्ती पूर्वोत्तरीभूतो चेति द्रष्टव्यम् // 8 // वादी तथा प्रतिवादीके दृढ अपने पक्षके आग्रह (पक्षा०-गाढ पक्षद्वय अर्थात् प्रान्तद्वयकी लालिमा ) से शोभमान पूर्वपक्ष तथा उत्तर पक्षके शास्त्रद्वय जिस ( सरस्वती) के दोनों ओठ बन गये हैं, ऐसा मैं जानता हूँ। [ जिस प्रकार वादी तथा प्रतिवादी अपने-अपने दृढ पूर्वापर पक्ष (मत ) का आग्रहपूर्वक स्थापन करते हुए बोलते हैं, उसी प्रकार सरस्वतीके पूर्वापर ( ऊपर-नीचे ) स्थित पक्षद्वय ( दोनों प्रान्तों ) में राग अर्थात लालिमायुक्त दोनों ओठ भी बोलते हैं, ऐसी उत्प्रेक्षा करता हूँ ] // 80 / / / ब्रह्मार्थकर्मार्थकवेभेदात् द्विधा विधाय स्थितयाऽऽत्मदेहम्।। चक्रे पराच्छादनचारु यस्या मीमांसया मांसलमूरुयुग्मम् / / 81 // ब्रह्मेति / पराच्छादनचारु उत्कृष्टवसनाभिरामं, मांसमस्यास्तीति मांसलं पीवरं, सिध्मादित्वात् लच, यस्याः सरस्वत्याः, ऊरुयुग्मं परेषां प्रतिवादिनाम्,आच्छादनेन तिरस्करणेन, चारु शोभनम् आत्मदेहं स्वस्वरूपं, चार्विति विशेषणानपुंसकं ग्राम, 'कायो देहः क्लीबपुंसोः' इत्यमरः ब्रह्मैवार्थः प्रतिपाद्यार्थो यस्य सः, कर्मैवार्थः प्रतिपाद्यार्थो यस्य सः 'शेषाद्विभाषा' इति कपि भावप्रधानो निर्देशः' ताभ्यां ब्रह्मकाण्ड. कर्मकाण्डाभ्यां, यो वेदस्य भेदः द्वैविध्यं तस्माद्धेतोः द्विधा विधाय पूर्वोत्तरमीमांसा. रूपेण द्विविधं कृत्वा, स्थितया प्रतिष्ठितया मीमांसया द्वैविध्यया चक्रे कृतमिति गम्योत्प्रेक्षा // 8 // __ अन्य (वैशेषिक-बौद्धादि ) के मतके खण्डन करने से ( पक्षा०-श्रेष्ठ वस्त्र से ढकनेसे चतुर (या सुन्दर ), परिपुष्ट ( पक्षा०-मांसल = मांसपूर्ण ) जिस ( सरस्वती देवी ) के ऊरुद्वयको, ब्रह्मप्रयोजनक तथा कर्मप्रयोजनक अर्थ ब्रह्म तथा कर्मका प्रतिपादक वेदभेदसे अर्थात् ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्ड नामक वेद-विभागसे अपने देहको दो विभागकर (पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा नामसे प्रसिद्धकर ) स्थित मीमांसाने बनाया है। [वेदार्थ-प्रतिपादन मीमांसा करती है, वह ईश्वरको नहीं मानती; उसके 'पूर्वमीमांसा Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 नैषधमहाकाव्यम् / तथा उत्तर मीमांसा-ये दो भेद हैं, वे ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्ड कही जाती हैं। यह मीमांसा वेदस्वरूपा ही है, अतः वेदने ही अपना ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्डरूप दो विभागकर स्थित मीमांसासे परमतखण्डन करनेवाला एवं पुष्ट ( दूसरेसे अखण्डनीय (पक्षा०-उत्तम वस्त्राच्छादित होनेसे सुन्दर एवं मांसल ) सरस्वती देवीकी दोनों जवाओं को बनाया है ] 81 // उद्देशपर्वण्यपि लक्षणेऽपि द्विधोदितैः षोडशभिः पदार्थैः / आन्वीक्षिकी यद्दशनद्विमाली तां मुक्तिकामाकलितां प्रतीमः // 82 // उद्देशेति / यस्याः सरस्वत्याः, दशनानां द्वयोर्मालयोः समाहारो द्विमाली दन्तपतिद्धयी, 'आबन्तो वा' इति स्त्रीत्वे 'द्विगोः' इति ङीप, तामेव आकलितां गुम्फितां, मुक्तैव मुक्तिका, मुक्ताशब्दात् स्वार्थ कप्रत्ययेन 'केऽणः' इति हस्वे तस्य 'भाषितपुंस्काच' इति कात् पूर्वस्येत्वम् , तां मुक्तावलीम् इत्यर्थः, उद्देशो नामतः कीर्तनंतस्य पर्वणि अवसरेऽपि, समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणं तस्मिन्नपि, द्विधो. दितैः उद्देशतया लक्षणतया च निर्दिष्टेरित्यर्थः, अन्यत्र-उद्देशपर्वणि उद्देश्यपर्वदिवसे, तथा लक्षणे सामुद्रिकलक्षणे च, द्विधोदितैः द्वैगुण्येनोक्तैः, अत एव द्वात्रिंशत्संख्यकैरित्यर्थः, उभयषोडशदशनत्वस्य भाग्यलक्षणत्वादिति भावः; षोडशभिः पदार्थैः प्रमाणादिनिग्रहस्थानान्तैः उपलक्षिताम; मुक्ति मोक्षं कामयन्ते इति मुक्ति कामाः मुमुक्षवः, 'शीलकामिभच्याचारेभ्यो णः' इति णप्रत्ययः तैराकलिताम् अभ्यस्तां, प्रमाणादिसूत्रेण एतेषां तत्त्वज्ञानात् निःश्रेयसाधिगम इत्युक्तत्वादिति भावः; तां प्रसिद्धाम् , अनु पश्चात , वेदश्रवणानन्तरमित्यर्थः, ईक्षा परीक्षणमित्यन्वीक्षा, सा प्रयोजनमस्या इत्यान्वीक्षिकी तर्कविद्या 'प्रयोजनम्' इति ठक, तां प्रतीमःजानीमः,प्रतिपूर्वादिणो लट,द्विरावृत्तषोडशपदार्था द्वात्रिंशहन्तपतियुगलत्वेन परिणता इत्युत्प्रेक्षार्थः। प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरभेदोपचारत्वात् आन्वीक्षिक्येव तथा परिणतेत्युक्तं दशनद्विमालीमेवाकलितां मुक्तिकामिति श्लिष्टपदोपात्तेन रूपकत्वे. नोत्प्रेक्षायाः सङ्करः // 82 // नाम-निर्देश तथा लक्षण-निर्देश ( पक्षा०-सामुद्रिक शास्त्रोक्त लक्षण निर्देश ) के अवसर में दो बार कहे गये सोलह पदार्थों से उपलक्षित, जिस सरस्वती देवीके दाँत की दोनों पंक्तियोंको ( हम ) मुक्ति चाहनेवालोंसे सेवित ( पक्षा०-गुयी हुई मोती) तक विद्या अर्थात् न्यायविद्या समझते हैं। [न्याय शास्त्र के अनुसार-'प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, बाद, जल्प, बितण्डा, हेत्वामास, छल, जाति और निग्रह स्थान ये सोलह पदार्थ हैं, इनको नाम तथा लक्षण क्रमसे बार-बार कहनेपर ये बत्तीस हो जाते हैं, वे ही बत्तीस पदार्थ सरस्वती देवी के दाँतोंको दोनों पंक्तियां हैं, जिन्हें मुमुक्षु लोग ग्रहण करते हैं या जो गुथी हुई मोतियों के समान हैं] // 82 / / Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 567 तर्का रदा यद्वदनस्य ता वादेऽस्य शक्तिः क ? तथाऽन्यथा तैः / पत्रं क्व दातुं गुणशालिपूगम् ? व वादतः खण्डयितुं प्रभुत्वम् / / 83 // पुनर्दन्तानेव तर्कत्वेनापि उत्प्रेक्षते, तर्का इति / यद्वदनस्य सम्बन्धिनः रदाः दन्ताः, 'रद ना दशना दन्ता रदाः' इत्यमरः, तर्का उहाख्याः प्रमाणानुमापकज्ञानविशेषाः, तन्मयाः इत्यर्थः, ताः उत्प्रेक्ष्याः; अन्यत्र-तर्कवत् कर्कशा इत्यर्थः / तथाहि, अस्य वदनस्य, दन्तैस्तकेश्व, अन्यथा विना, वादे कथायामभिवदन. व्यापारे च, तथा तादृशी, शक्तिः क्व ? दन्तैस्तश्च विना वादः कत्त न शक्यते इत्यर्थः; एवं तर्केविना वादतः वादनिमित्तात् , पत्रं प्रतिवादिने स्वपक्षसमर्थकं पत्रम्, अथवा प्रतिवादिनः प्रतिज्ञापत्रं, दातुं, व शक्तिः ? दन्तैर्विना च अदतः भक्षयतः, पत्रं ताम्बूलीदलादिकं, दातुं खण्डयितुं, शक्तिः क्व वा? सामर्थ्य न भवतीत्यर्थः; द्यतेश्च तुमुन् , तर्केविना गुणशालिनां प्रतिभादिगुणवतां वावदूकानां, पूगं वृन्द, वादतो वादेन, खण्डयितुं भक्तुम्, अन्यत्र-वा इति छेदः, दन्तैर्विना अदतो भक्षयतः, 'पदादयः पृथक् शब्दाः' इति मतेन न विद्यन्ते दतो दन्ता यस्य इत्यदतः दन्तरहितस्य वा, गुणशालि रसाढयं, पूगं पूगीफलं, 'पूगः क्रमुकवृन्दयोः' इत्यमरः, खण्डयितुं शकलयितुं, प्रभुत्वं सामर्थ्य, क वा ? श्लेषध्वनितेयं दन्तानां तर्कपरिणतत्वेन उत्प्रेक्षेति सङ्करः // 83 // ___ जिस ( सरस्वती देवी ) के मुखके दांतोंको तर्क (न्याय शास्त्र ) समझना चाहिये, उन ( तर्को) के बिना इस ( मुख ) की बाद ( शास्त्रार्थ, पक्षा-बोलने या भाषण करने, अथवा-'व और द' इन दो अक्षरों के उच्चारण करने ) में वैसी अनिर्वचनीय शक्ति कहां अर्थात् कहां से है ? और वादनिमित्तसे ( प्रतिवादीके लिये ) पत्र देने अर्थात् उसके ऊपर पत्रालम्बन करने के लिये ( प्रतिवादीके मतको खण्डन करने के लिए), ( अथवा-खाते हुए पक्षा०-( दन्तर हित इस मुखका ) गुणों ( कषाय आदि गुणों ) से शोभमान पत्र (पानके पत्ते ) को खण्डन करने (चवाने) के लिए, अथवा-कषायादि गुणोंसे युक्त पूग ( सुपारी) को खण्डन करने के लिए शक्ति कहाँ है ? / अथवा-बाद (शास्त्रार्थ ) से गुणों ( विद्वत्ता आदि गुणों ) से शोभमान (विद्वानों ) के समूहको खण्डन करने के लिए शक्ति कहांसे हैं ?.) / [ न्याय शास्त्र के बिना शास्त्रार्थ करने तथा दांतोंके बिना बोलने या 'वा तथा द' इन दो अक्षरोंका उच्चारण स्थान क्रमशः दन्तोष्ठ एवं दन्त होनेसे दांतों के विना उक्त दोनों अक्षरोंको उच्चारण करने में मुखकी शक्ति नहीं हो सकती तथा बाद में प्रतिवादीके खण्डन करने या खाते हुए मुखकी कषाय ( कसैलापन ) आदि गुण युक्त पत्ते (पान के पत्ते ) का, अथवा-कषायादि गुणशाली सुपारीका खण्डन कर के, अथवाविद्वत्तादि गुणशालियों ( विद्वानों ) के समूहका बाद (शास्त्रार्थ ) से खण्डन करने में मुखकी शक्ति कहां हो सकती है। अथबा-बिना दांतवाले मुखकी उक्त गुणशाली पत्रके या सुपारोके खण्डन करनेकी शक्ति कहां हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। कठोर Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 नैषधमहाकाव्यम् / दांतोंके द्वाराही कठोर सुपारी का खण्डन किया जा सकता है // सरस्वती देवीका मुख तर्कशास्त्रसे रचा गया है ] 83 // सपल्लवं व्यासपराशराभ्यां प्रणीतभावादुमयीभविष्णु / तन्मत्स्यपद्माद्युपलक्ष्यमाणं यत्पाणियुग्मं ववृते पुराणम् // 84 // सपल्लवमिति / व्यासपराशराभ्यां प्रणीतभावात् प्रणीतत्वात् , उभयीभविष्णु महापुराणोपपुराणतां प्राप्तं, 'भुवश्च'इतीष्णुच यद्यप्यष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवती. सुतः, तथाऽपि 'पुराणं वष्णवं चक्रे यस्तं वन्दे पराशरम्'इत्यादि प्रसिद्धमेवमुक्तम् / तत् प्रसिद्धं, मत्स्यपद्मादि मत्स्यपद्मपुराणादिसंज्ञादिः, आदिशब्दात् कूर्मस्कन्दादीनां सङग्रहः; अन्यत्र-मत्स्यपद्मादिसामुद्रिकरेखादिः, आदिशब्दात् ध्वजकुलिशादि. सङ्ग्रहः, तैः उपलक्ष्यमाणं निर्दिश्यमानमित्यर्थः, सपल्लवं कथाऽऽख्यायिकादिना सविस्तरं, 'पल्लवं स्वस्त्री प्रकोष्ठे चापि विस्तृतौ' इति वैजयन्ती, अन्यत्र-सह सदृशं पल्लवेन सपल्लवं किसलयसदृशम् / 'अव्ययं विभक्ति-'इत्यादिना सहशब्दस्य गुणीभूतसादृश्यार्थेऽव्ययीभावः / 'अव्ययीभावे चाकाले' इति सहशब्दस्य सभावः, 'सहसादृश्यसाकल्ययोगपद्यसमृद्धिषु' इति विश्वः, पुराणं मत्स्यपद्मादि, यस्याः सरस्वत्याः, पाणियुग्मं ववृते पाणिपद्मत्वेन परिणतमित्यर्थः / उत्प्रेक्षा // 84 // व्यास तथा पराशरके द्वारा रचित होनेसे द्विगुणत्व (पुराण तथा उपपुराण भाव ) को प्राप्त होनेबाला, मत्स्य तथा पम आदि (कूर्म, वराह आदि नाम) से उपलक्ष्यमाण ( कहा जानेवाला / पक्षा०-मत्स्य, पद्म आदि (ध्वजा, कुलिश आदि ) शुभ लक्षणोंसे युक्त ) तथा कथा, आख्यायिका आदिसे युक्त (पक्षा०-शृङ्गार से युक्त। अथवापल्लवके समान ) पुराण जिस ( सरस्वती देवो ) की दोनों भुजाएं हैं अर्थात् उक्त गुणवाले पुराणही सरस्वतीकी दोनों भुजाओंके रूप में परिणत हैं // 84 / / आकल्पविच्छेदविवर्जितो यः स धर्मशास्त्रव्रज एव यस्याः / पश्यामि मूर्द्धा श्रुतमूलशाली कण्ठे स्थितः कस्य मुदे न वृत्तः 1 // आकल्पेति / आकल्पं कल्पान्तपर्यन्तं, विच्छेदेन विवर्जितः अविच्छिन्नसम्प्रदायीत्यर्थः; अन्यत्र-आकल्पः अलङ्कारादिः, तद्विच्छेदविवर्जितः तत्सहितः, नित्यः भूषित इत्यर्थः, श्रुतिर्वेद एव, मूलं प्रमाणं, तेन शालते; अन्यत्र-श्रुतिमूलाभ्यां कर्णमूलाभ्यां, शालते इति तथोक्तः, 'वेदे श्रवसि च श्रुतिः' इत्यमरः, अथवा-श्रयते यः स श्रुतिः शब्दः, तस्य ग्रहणे मूलं कारणं, कर्णों इत्यर्थः, ताभ्यां शालते; कण्ठे स्थितो मुखस्थितः, अन्यत्र-कण्ठोपरि स्थितः, यो धर्मशास्त्राणां मन्वादिस्मृतीनां, ब्रजः स एव यस्याः देव्याः, मूर्द्धा वृत्तः संवृत्तः, परिणत इत्यर्थः, अन्यत्र-वृत्तः वर्तलः, मूर्द्धा कस्य मुदे न ? सर्वस्यापि स्यादेवेत्यर्थः / पश्यामि इति उत्प्रेक्षे, अहमिति शेषः // 85 // Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। जो कल्पान्त तक नाश रहित (पक्षा०-अलङ्कारके विच्छेदसे रहित अर्थात् नित्य अलङ्कार युक्त), तथा वेदमूलक होनेसे ( पक्षा०-कर्ण प्रान्तोंसे ) शोभनेबाला है, वह धर्मशास्त्र समूहही जिस ( सरस्वती देवी ) का कण्ठस्थित मस्तक किसके हर्ष के लिए नहीं हुआ अर्थात् सबके ( अभ्यस्त, पक्षा०-कण्ठ ग्रीवापर स्थित ) एवं गोलाकार हर्षके लिए हुआ, ऐसा देखता हूँ // 85 / / भ्रवौ दलाभ्यां प्रणवस्य यस्यास्तद्विन्दुना भालतमालपत्रम् / तदर्द्धचन्द्रेण विधिर्विपञ्ची-निक्काणनाकोणधनुः प्रणिन्ये / / 86 // अथ नागरलिपेरोङ्काराक्षरमाश्रित्योत्प्रेक्षते, भ्रुवाविति / विधिः ब्रह्मा, प्रणवस्य, ओङ्कारस्य, दलाभ्याम् उभयप्रान्तरेखाभ्यां, यस्याः देव्याः, ध्रुवी, यथा तस्य बिन्दुना बिन्द्वाकाररेखया, भाले ललाटे, तमालपत्रं तिलकं, 'तमालपत्रतिलक-चित्रकाणि विशेषकम्' इत्यमरः, तस्य प्रणवस्य, अर्द्धचन्द्रेण अर्द्धचन्द्राकाररेखया, विपच्याः वीणायाः, 'वीणा तु वल्लकी विपश्ची' इत्यमरः निकाणनाये वादनार्थ, कोणधनुः कोणसंज्ञकं धनुराकारं वाद्यसाधनञ्च, 'कोणो वीणादिवादनम्' इत्यमरः, प्रणिन्ये निर्ममे / 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' इति णत्वम् उत्प्रेक्षा // 86 // __ ब्रह्माने जिस ( सरस्वती देवी ) के भ्रदयको प्रणव ( नागरी लिपिके अनुसार ॐकार ] के दो खण्डोंसे, उस (प्रणव ) के बिन्दु अर्थात् अनुस्वारसे ललाटस्थ तमालपत्र अर्थात् तिलकको और उस ( प्रणव ) के अर्धचन्द्रसे विपञ्ची (सरस्वतीकी विपञ्ची' नामक वीणा ) के बजानेवाले धनुराकृति 'कोण' (धनुही...) को बनाया है // 86 // द्विकुण्डली वृत्तसमाप्तिलिप्याः कराङ्गुली काञ्चनलेखनीनाम् | कैश्यं मसीनां रिमतभाः कठिन्याःकाये यदीये निरमायि सारैः // 87 / द्विकुण्डलीति / यदीये काये देहे, द्वयोः कुण्डलयोः समाहारो द्विकुण्डली कर्ण: कुण्डलद्वयं, वृत्तायाः वर्तलायाः, समाप्तिलिप्या अवसानरेखायाः, बिन्दुद्वयरूपायाः विसर्गाकाराया इति यावत् , सारैः श्रेष्ठांशैः, निरमायि निर्मिता, माङो लुङि 'आतो युक चिणकृतोः' इति युगागमः, लेख्यान्ते समाप्तिव्यञ्जको विसर्गः लिख्यते, स एवं कुण्डलद्वयत्वेन परिणत इत्यर्थः / विसर्गस्य रूपं यथा-'शृङ्गवत् बालवत्सस्य बालिकाकुचयुम्भवत् / नेत्रवत् कृष्णसर्पस्य स विसर्ग इति स्मृतः।' तथा च कराङ्गुली करामुल्यः, जातावेकवचनम् , काञ्चनलेखनीनां सौवर्णलेखनीनां सारैः, तथा केशानां समूहः कैश्यं, 'केशाश्वाभ्यां यजछावन्यतरस्याम्' इति यजप्रत्ययः, मसीनां सारैः, तथा स्मितभा मन्दहासकान्तिः, कठिन्याः खटिकायाः, 'खटिकायान्तु कठिनी' इति विश्वः / सारैः निरमायि इत्युत्प्रेक्षा // 87 // . ___ (ब्रह्माने ) जिस (सरस्वती) के शरीर में दोनों कुण्ड लोंको गोलाकार वर्णसमाप्तिसूचक रेखा ( विसर्ग, या मातृका ग्रन्थ की समाप्ति लिपि) के सारोंसे, हाथकी अङ्गुलियोंको सोनेकी 28 नै Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 नैषधमहाकाव्यम् / कलमके सारोंसे, केश-समूहको स्याहियों के सारोंसे और स्मित-कान्तिको खड़िया (श्यामपट = ब्लैंकवोर्डपर लिखनेका च क ) के सारोंसे बनाया है ? // 87 // या सोमसिद्धान्तमयाननेव शून्यात्मतावादमयोदरेव / विज्ञानसामस्त्यमयान्तरेव साकारतासिद्धिमयाखिलेव / / 88 // येति। या देवी, सोमसिद्धान्तः कापालिकदर्शनम् , अथ च-सोमस्य इन्दोः, सिद्धान्तः अखण्डरूपश्च, तन्मयम् आननं यस्याः सा इव स्थिता; तथा आत्मानो न सन्तीति वादः शून्यात्मतावादः माध्यमिकबौद्धविशेषदर्शनं, तन्मयं तदेव, उदरं यस्याः सा तादृशीव, अथ च-शून्यात्मता निस्वरूपता, तदादो नास्तिवादः, तन्मयमुदरं यस्याः सा अतिकृशोदरीत्यर्थः, 'नासिकोदर-' इत्यादिना विकल्पादनी. कारः, विज्ञानस्य निराकारविज्ञानमात्रस्य, सामस्त्यं साकल्यम् इति योगाचारबौद्धविशेषमतं, तन्मयं तदेव, अन्तरं यस्याः सा इव, अथ च-विज्ञानसामस्त्यमर्थवि. शिष्टज्ञानसम्पत्तिश्च, तन्मयमन्तरं यस्याः सेवा तथा साकारता साकारविज्ञानवादी सौत्रान्तिकः ज्ञानानां नीलपीताधाकारता, तसिद्धिस्तन्मयाः, अथ च-शोभनाकारतासम्पत्तिश्च तन्मयाः अखिलाः सर्वाः यस्याः सेव, स्थितेति शेषः, इति सर्वत्रो. स्प्रेक्षा; एवम्भूता सरस्वती मध्येसभम् अवततार इति 74 श्लोकोक्तक्रियापदेन अन्वयः // 88 // कुलकम् / रूप मुखवाली, शून्यतावाद (माध्यमिक दर्शन, पक्षा०-अभाववाद ) रूप उदरवाली, विज्ञानसामस्त्य (निराकार विज्ञानमात्रवादी बाह्यालापी योगाचार, पक्षा०-विशिष्ट ज्ञान ) रूप चित्तवाली और साकारतासिद्ध ( साकारज्ञानवादी सौत्रान्तिक ज्ञान नील-पीतादिरूपतासे सिद्ध, पक्षा०-सुन्दर आकृति) रूप सम्पूर्ण अवयवोंवाली हुई। [ जिस सरस्वतीका मुख पूर्ण चन्द्र के समान था, कटि अत्यन्त पतली थी, वह स्वयं विशिष्ट ज्ञानयुक्त एवं परमसुन्दरी थी] // 88 // भीमस्तयाऽगद्यत मोदितुं ते वेला किलेयं तदलं विषय | मया निगाद्यं जगतीपतीनां गोत्रं चरित्रञ्च यथावदेषाम् // 89 // भीम इति / अथ तया देव्या सरस्वत्या, भीमो भीमभूपतिः, अगद्यत उक्तः / किमिति ? हे राजन् ! इयं ते तव, मोदितुं हर्ष कर्त्त, वेला किल समयः खलु, 'कालसमयवेलासु तुमुन्' तत्तस्मात् , विषध खेदित्वा, अलं विषादो न कर्त्तव्य इत्यर्थः, 'अलंखल्वोः इत्यादिनाक्त्वाप्रत्ययः। कुतः,? एषां जगतीपतीनां राज्ञा,गोत्रं कुठं नाम च, 'गोत्रं नाम्नि कुलेऽपि च' इति विश्वः, चरित्रञ्च मया निगाचं वक्तव्यम् , अहं वषयामीत्यर्थः / 'ऋहलोण्यत्' 'गदमद' इत्यादिसूत्रे अनुपसर्ग एव यतो विधानात् // 1. विचित्रमेषाम्' इति पाठान्तरम् / Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 601 उस ( सरस्वती देवी) ने राजा भोमसे कहा-'निश्चित रूपसे यह तुम्हारे हर्षका समय है, इस कारण विषाद (1068) मत करो, ( क्योंकि ) इन राजाओंके यथायोग्य अर्थात् ठीक-ठीक ( पाठा०-विचित्र ) गोत्र तथा चरित्रको मैं कहूँगी। [ पहले (10 / 68) अनेक लोकोंसे आये हुए एवं देवोंसे वर्णनीय कुल तथा चरित्रवाले राजाओं को देखकर राजा भीम विषादयुक्त हो गये कि इनके गोत्र तथा चरित्रका ठीक-ठीक वर्णन तो मनुष्यसे हो ही नहीं सकता और बिना ठीक-ठीक वर्णन किये दमयन्ती किस प्रकार उत्तम-हीनका ज्ञानकर तदनुसार अपने योग्य वरका निर्णय कर सकेगी' इस विषादको दूर करने के लिए सरस्वती देवीको भक्तवत्सल विष्णु भगवानने बुलाकर कहा कि-'समामें आए हुए राजाओंके कुल-चरित्रका तुम वर्णन करो' (1071-72) तदनुसार सरस्वती देवीने समामें पधारकर राजासे उक्त वचन कहा ] // 89 // अविन्दतासौ'मकरन्दलीलां मन्दाकिनी यच्चरणारविन्दे / अत्रावतीर्णा गुणवर्णनाय राक्षां तदाक्षावशगाऽस्मि काऽपि // 90 // का स्वम् ? किमर्थमागता च ? इत्याकाङ्क्षायामाह, अविन्दतेति / असौ प्रसिद्धा, मन्दाकिनी यस्य पुंसः, चरणारविन्दे पादपझे, मकरन्दलीलां पद्ममधुविलासम्, अविन्दत, तस्य पुंसः श्रीविष्णोः, आज्ञाया वशगा वशवर्तिनी, काऽपि या काचित्, अस्मि अहं, राज्ञां गुणवर्णनाय अत्र स्वयंवरसभायाम्, अवतीर्णा, अस्मि इति शेषः, किं विशेषचिन्तया ? इति भावः // 90 // इस प्रसिद्ध गङ्गाने जिसके चरणकमलमें मकरन्द ( पद्म-पराग) के विलासको प्राप्त किया है, उस (विष्णु ) की आज्ञाके वशवर्तिनी कोई मैं यहांपर राजाओंके गुणके वर्णनके लिए आयी हूँ // 9 // तत्कालवेयैः शकुनस्वराद्यैराप्तामवाप्तां नृपतिः प्रतीत्य / तां लोकपालैकधुरीण एष तस्यै सपर्यामुचितां दिदेश॥ 91 // तत्कालेति / लोकपाल: इन्द्रादिभिः सह, एकधुरं वहतीत्येकधुरीणः समानस्कन्धः, 'एकधुराल्लुकच' इति खप्रत्ययः लोकपालसदृश इत्यर्थः, एष नृपतिर्भामः, अवाप्ताम् अकस्मात् सभायां प्राप्तां, तां वाग्देवी, तत्काले वेधैः वेदयितुं शक्यः, शकुनं शुभाशंसिनिमित्तं, 'शुभाशंसिनिमित्ते च खगे च शकुनं विदुः' इति शाश्वतः, स्वरः नासानिलः, आद्यशब्दादतिस्पन्दादिसङ्ग्रहः, तैरुपायैः, आप्तां हितां, प्रतीस्य निश्चित्य, तस्यै उचितां सपर्या पूजां, दिदेश समर्पयामास // 91 // लोकपात्र ( इन्द्र आदि ) के एक धुराको धारण करनेवाले (इन्द्रादि लोकपालों के समान ) इस राजा ( भीम ) ने उस समयके जानने योग्य शकुन ( पक्षी आदिका शब्द) 1. 'विन्दत्यसव्ये' इति पाठान्तरम् / Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 नैषधमहाकाव्यम् / तथा स्वर (नासिका स्वर ) आदि (दक्षिणनेत्रका स्फुरण आदि) के द्वारा आयी हुई उसे हितकारिणी मानकर उसकी पूजा की // 91 // दिगन्तरेभ्यः पृथिवीपतीनामाकर्षकौतूहलसिद्धविद्याम् / ततः क्षितीशः स निजां तनूजां मध्येमहाराजकमाजुहाव / / 92 // दिगिति / ततो देवीपूजानन्तरं, सः क्षितीशः भीमः, दिमन्तरेभ्यः पृथिवीपती. नाम् आकर्षकौतूहले आकर्षकर्मणि, सिद्धविद्यां सिद्धमन्त्रस्वरूपाम्, अमोघवृत्ति मित्यर्थः, सौन्दर्येण सर्वाकर्षणकारिणीमिति भावः, निजां तनूजां मध्येमहाराजकं महतो राजसमूहस्य मध्ये, आजुहाव आहूतवान् , ह्वयतेर्लिटि 'अभ्यस्तस्य च' इति द्विर्भावात् प्राक सम्प्रसारणे रूपसिद्धः, भीमः सभायां दमयन्तीम् आनयामास इति भावः // 92 // * इस ( सरस्वती देवी की पूजा करने ) के बाद उस राजाने भिन्न-भिन्न दिशाओंसे राजाओंके आकृष्ट करनेके कौतूहलमें ( मन्त्रादि द्वारा) सिद्ध विद्यारूपा अर्थात् अपने सौन्दर्यके द्वारा विभिन्न दिशाओंसे राजाओंको आकृष्ट करनेमें मन्त्रसिद्ध विद्याके समान अपनी पुत्री ( दमयन्ती ) को महाराजाओं के बीचमें बुलाया // 92 // दासीषु नासीरचरीषु जातं स्फीतं कमेणालिषु वीक्षितासु / स्वाङ्गेषु रूपोत्थमथाद्भुताब्धिमुद्वेलयन्तीमवलोककानाम् / / 93 // अथ षोडशश्लोक्या दमयन्ती वर्णयति-दासीस्वित्यादि। कीदृशम् ? नासीरे चरन्तीति नासीरचरीषु अग्रेसरीषु, चरेष्टः, टिस्वात् ङीप, दासीषु परिचारिकासु, वीक्षितासु सतीषु, जातम् उत्पन्नं, क्रमेण आलिषु, सखीषु, वीक्षितासु स्फीतं प्रवृद्धं, 'स्फायः स्फी निष्ठायाम्' इति स्फीभावः, अथानन्तरं,रूपोत्थं सौन्दर्यजन्म, अवलोककानां प्रेक्षकाणाम् , अद्भुताब्धि विस्मयसागरं, स्वाङ्गेषु दमयन्त्या अवयवेषु, वीक्षितेषु सत्सु उद्वेलयन्तीम् उद्वेलं कुर्वती, वेलामतिलङ्घयन्तीमित्यर्थः, भैमी 'पपावपाङ्गरथ राजराजिः' इति 108 श्लोकोक्तेन अन्वयः। उद्वेलशब्दात् 'तत्करोति' इति ण्यन्ताच्छतरि डीप। अत्र एकस्मिन्नद्भुताब्धौ क्रमेणानेकेषां जातत्वस्फीतत्वोढेल. त्वानांवृत्तिकथनात् पर्यायालङ्कारभेद: 'एकस्मिन्ननेकमनेकस्मिन्नेकम् इति लक्षणात्।। ( यहांसे 16 श्लोकों तक (10.93-108) दमयन्तीका वर्णन करते हैं, अतः इन श्लोकोंका ...पपावपाडैरथ राजराजिः' (10 / 108)' श्लोकस्थ क्रियापदके साथ अन्वय है) आगे चलनेवाली दासियों में उत्पन्न, क्रमशः ( इसके उपरान्त क्रमसे ) देखी गयी सखियोंमें बढ़े हुये और अनन्तर अपने (दमयन्तीके ) अङ्गोंमें सौन्दर्यजन्य देखनेवालों के आश्चर्यसमुद्रको बढ़ाती हुई ( दमयन्तीको राजसमूहने कटाक्षोंसे देखा )- // 93 // स्निग्धत्वमायाजललेपलोप-सयत्नरत्नांशुमृजांशुकाभाम् / नेपथ्यहीरद्युतिवारिवर्ति-स्वच्छायसच्छायनिजालिजालाम् / / 94 // Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 603 स्निग्धस्वेति / पुनः किम्भूताम् ? स्निग्धत्वाय मासृण्यगुणाय, मायाजलं जल. गर्भताऽऽख्यो दोषः, 'रागस्वासश्च बिन्दुश्च रेखा च जलगर्भता। सर्वरत्नेष्वमी पञ्च दोषाः साधारणा मताः // ' इति वाग्भटः / तथा लेपः वर्णोत्कर्षकारी द्रव्यविशेष. संयोगः, तयोः लोपः अभावः, ताभ्यां सयत्नानि कृतप्रयासानि, कथमपि तानि अनङ्गीकुर्वाणानि इत्यर्थः, यानि रत्नानि, उपलक्षणमेतत्, गुणसम्पत्तिदोषविरहाभ्यां शुद्धानीत्यर्थः, यती प्रयत्ने इति धातोः 'श्वीदितो निष्ठायाम्' इति इण्प्रतिषेधः, तेषां रत्नानाम् अंशुमजा किरणप्रसादः, सेव अंशुकाभा वस्त्रप्रभा यस्यास्तां, तथा नेपथ्यहीरद्यतिवारिवर्तिस्वच्छायम् आभरणवज्रप्रभाम्बुगतस्वप्रतिबिम्बं, 'विभाषा सेना' इत्यादिना छायाशब्दस्य नपुंसकत्वम, तेन सच्छायं सवर्ण, निजालिजालं जनसादृश्योत्प्रेक्षया तासामपि तत्समानसौन्दर्य वस्तु व्यज्यते // 94 // चिकनाहट, कृत्रिम जल तथा लेप ( मांडी-कलप ) के अभावमें प्रयत्नशाल रत्नोंकी विशुद्ध किरण के समान वस्त्रवाली ( अथवा-चिकनाहटके लिये कृत्रिम जल तथा लेपके अभावार्थ...) और भूषणों के हीराओंकी कान्तिरूपी जलके मध्यगत (प्रतिबिम्बित ) समान कान्तिवाली सखियोंके समूहवाली ( दमयन्तीको कटाक्षोंसे राजसमूहने देखा ) / [ दमयन्तीके वस्त्रकी चिकनाहट कृत्रिम जल तथा लेपके बिना ही रत्नप्रभाके जल के द्वारा वनी हुई थी और उसके भूषणोंमें जड़े गये हीराओंमें दमयन्तीके समान सौन्दर्यवाली सखियोंके समूहका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, ऐसी दमयन्तीको राज समूहने कटाक्षोंसे देखा ] विलेपनामोदमुदागतेन तत्कर्णपूरोत्पलसर्पिणा च. रतीशदूतेन मधुवतेन कणें रहः किञ्चिदिवोच्यमानाम् // 95 / / विलेपनेति / पुनः किम्भूताम् ? विलेपनस्य चन्दनाद्यङ्गरागस्य, आमोदेन सौर. तत्सर्पिणा तद्न्धाकृष्टेन च, रतीशदूतेन कामसन्देशहारकेण, तदुद्दीपकेनेत्यर्थः, मधुव्रतेन भ्रमरेण, कर्णे किञ्चित् रहः रहस्यं, नल एव सभ्येषु सुन्दरतमः अतः स एव वरणीय इत्यादिरूपम, उच्यमानामिव कामदेवसंदिष्टं किमप्युपदेश्यमानामिव स्थिताम् इत्युत्प्रेक्षा / एतेन तस्यास्तदा किलकिञ्चितादिशृङ्गारचेष्टाविर्भावो व्यज्यते // अङ्गराग ( चन्दन-कर्पूरादिका लेप ) की सुगन्धिसे उत्पन्न हर्षसे आया हुआ, उस ( दमयन्ती ) के कर्णभूषण-कमलके पास उड़ता हुआ कामदेवका दूत भ्रमर कानमें मानो कुछ ( गुप्त काम-सन्देश कह रहा था ( ऐसी दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) // विरोधिवर्णाभरणाश्मभासा मल्लाजिकौतूहलमीक्षमाणाम् / स्मरस्वचापभ्रमचालिते नु ध्रुवौ विलासाद् वलिते वहन्तीम।।१६।। विरोधीति / पुनः किम्भूताम् ? विरोधिवर्णानां श्वेतकृष्णादिनानावर्णानाम , Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 नैषधमहाकाव्यम् / आभरणाश्मनां भूषणमणीना, या भासः तासां, महाजिकौतूहलं मल्लयुद्धकौतुकं, परस्पराक्रमणसंरम्भमिति यावत्, ईक्षमाणां, पुनर्विलासात् वलिते स्त्रीस्वभावालीलाचलिते, तत्रोत्प्रेक्षा-स्मरेण तुल्यतया स्वचापभ्रमाचालिते नु आदातुं कम्पिते इव स्थिते इत्यर्थः; चल कम्पने इति मिरवेऽपि 'ज्वललझलनमामनुपसर्गात् वा' इति विकल्पनाद्धस्वाभावः, एवम्भूते भ्रवौ वहन्तीं धारयन्तीम् // 96 // विरुद्ध रङ्गोंवाले भूषणोंमें जड़े गये रत्नोंकी कान्तियोंके मल्लयुद्ध ( कुश्ती ) के कौतुकको अर्थात् अनेक रङ्गोंके भूषण-जटित रत्नोंकी कान्तियों के परस्पर मिश्रणको कौतुकके साथ देखती हुई और मानो कामदेवके द्वारा अपने धनुषके भ्रमसे सञ्चालित (स्त्री-स्वभावजन्य), विलाससे टेढ़े किये गये भ्रद्वयको धारण करती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके भूषणों में अनेक परस्पर विरुद्ध रङ्गोंके रत्न जड़े गये थे, उनकी कान्ति परस्परमें मिलकर चाकचिक्य उत्पन्न करती थी, वह एक प्रकार उनके मल्ल-युद्धके समान मालूम पड़ता था उसे दमयन्ती देखती थी तथा विलासपूर्वक उसका कटाक्ष कामदेवद्वारा चलाये गये धनुषके समान प्रतीत होता था अर्थात् उसका कटाक्ष देखकर दर्शक कामपीड़ित हो जाते थे ] // 96 // सामोदपुष्पाशुगवासिताङ्गी किशोरशाखाप्रशयालिमालाम् / वसन्तलक्ष्मीमिव राजभिस्तैः कल्पद्रुमैरप्यभिलप्यमाणाम् / / 97 / / . सामोदेति / पुनः किम्भूताम् ? सामोदम् अतिमनोहरतदङ्गरूपवस्तुलाभेन सहर्ष यथा तथा, पुष्पाशुगेन कामेन, वासितम् अधिष्ठितम, अङ्गं वपुर्यस्यास्लाम, अन्यत्र-सामोदपुष्पाणि सुगन्धिकुसुमानि, आशुगो मलयानिलश्च, तैः वासिताङ्गी सुरभीकृताङ्गीम्, 'आमोदो हर्षगन्धयोः' 'भाशुगौ वायुविशिखौ' इति विश्वामरी, पुनः किशोरशाखाः कोमलाङ्गलयः, अग्रशया अग्रपाणयो यासां तादृश्यः, आलिमालाः सखीपक्कयो यस्यास्तां, 'पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः अन्यत्र-किशोरशाखानां नवपक्षवानाम, अग्रेषु ये शेरते इति तच्छायाः, 'अधिकरणे शेतेः' इत्यच प्रत्ययः, तादृश्यः अलिमाला भृङ्गश्रेणयः यस्यां तां, तैः राजभिः कल्पद्रुमैरपि सर्वाभिलाषपूरकरपीति भावः अभिलष्यमाणां वसन्तलचमीमिव, स्थितामिति शेषः यथा सर्वामिलाषपूरकैरपि कल्पवृक्षर्वसन्तलघमीरपेचयते तद्राजभिरपीति सात्विकोक्तिः।। हर्षयुक्त कामदेवसे अधिष्ठित (संयुक्त) शरीरवाली (पक्षा०-गन्धयुक्त पुष्प तथा मलयानिल, अथवा-गन्धयुक्त पुष्पोंकी हवासे सुवासित शरीरवाली) और पतली-पतली अङ्गुलियोंवाले हार्थोसे युक्त सखियों के समूहवाली (पक्षा०-पतली-पतली डालियों अर्थात् टहनियों के अग्रभाग (फुनगी) पर स्थित भ्रमरोंके समूहवाली ) कल्पद्रुमर्मोसे भी अभिलषित वसन्तलक्ष्मीके समान ( याचकोंके लिये ) कल्पद्रुमरूप ) राजाओंसे चाही जाती हुई ( उम दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) // 97 // Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 605 दशमः सर्गः। पीतावदातारुणनीलभासां देहोपलेपात् किरणैर्मणीनाम् / गोरोचनाचन्दनकुङ्कमैण-नाभीविलेपान् पुनरुक्तयन्तीम् // 98 // पीतेति / पुनः किम्भूताम् ? पीता गौराः, अवदाता:शुक्लाः, अरुणा रक्ताः, नीला: कृष्णाश्च, भासो दीप्तयो येषां तेषां, मणीनां किरणैः देहस्य शरीरस्य, उपलेपात् अनुलेपनात्, गोरोचनादिचतुष्टयलेपान् पुनरुक्तयन्तीं सावात् पुनरुक्तान् कुर्वतीम् / एणनाभिः कस्तूरी। दमयन्त्याः पीतादिमणिप्रभयागोरोचनाद्यनुलेपनानां विफलत्वं साधितमिति भावः / अत्र गोरोचनाद्यनुलेपचतुष्टयस्य यथासंख्यसम्बन्धेन पीतादिमणिकिरणकैतवकथनात् यथासंख्यसङ्कीर्णसामान्यालङ्कारः। लक्षणमुक्तम् // पीली, श्वेत, लाल तथा नीली कान्तियोंवाले रत्नों के किरणों से शरीर पर लेप होने के कारण अर्थात् दमयन्तीके शरीर के ऊपर उक्त चार रङ्गोवाले रत्नोंकी कान्ति पड़नेसे गोरोचन चन्दन, कुडम और कस्तूरीके विलेपनों ( अङ्गरागों) को पुनरुक्त करती ( दुहराती) हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) / [ यहांपर क्रमशः पीले रंगवाले पुखराजसे गोरोचनके, श्वेत रङ्गवाले स्फटिक या हीरेसे चन्दनके, लाल रगवाले माणिक्यसे कुङ्कुमके और नीले रङ्गवाले नीलमसे कस्तूरीके लेपको पुनरुक्त किया जाना समझना चाहिये ] // 98 // स्मरं प्रसूनेन शरासनेन जेतारमश्रद्दधती नलस्य / तस्मै स्वभूषादृषदंशुशिल्पं बलद्विषः कामुकमर्पयन्तीम् / / 99 // स्मरमिति / पुनः किम्भूताम् ? प्रसूनेन पुष्पमयेन, शरासनेन धनुषा, अति. कोमलेन पुष्पचापेन करणेन इत्यर्थः, नलस्य जेतारं जैन, स्मरम् अश्रद्दधतीं स्मरः पुष्पमयकोमलधनुषा नलं कथमपि जेतुं न शक्नुयादिति अविश्वसतीम्, अत एव तस्मै स्मराय, स्वभूषापदंशुभिः निजाभरणमणिकिरणः, निर्माणं यस्य तादृशं, तनिर्मितमित्यर्थः, बलद्विषः कामुकम् इन्द्रचापम्, अर्पयन्तीम्, इन्द्रधनुरिव नाना. वर्णा तस्या आभरणरत्नशोभेति भावः / वीरधौरेयः नलः पुष्पचापदुर्जय इति मत्वा नलजयाय स्वाभरणमणिकिरणकल्पितम् ऐन्द्रं धनुः द्रढीयस्तस्मै कन्दपाय ददाना. मिव स्थितामित्युत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 99 // पुष्पमय बाणासे कामदेवको नलका विजय कर सकनेवाला नहीं मानती हुई, अत एव अपने भूषणके पत्थरों (रत्नों) के किरणोंसे बने हुए इन्द्रधनुषको अर्पण करती हुई ( दमयन्तीको राजसमूहने कटाक्षोंसे देखा)। [नल दुर्जेय योद्धा हैं, अत एव कोमलतम पुष्पमय बाणोंसे कामदेव उनको नहीं जीत सकेगा और इस कारण वे बिना कामवशीभूत हुए हमें नहीं प्राप्त हो सकेंगे, अत एव उनको जीतने के लिये दमयन्तीने अपने भूषणों में गड़े गये पत्थररूप रत्नोंकी किरणों से बने हुए होनेसे अत्यन्त दृढतम इन्द्रधनुष कामदेवके लिये समर्पण करती हुई-सी मालूम पड़ती है। दमयन्तीके भूषणों में जड़े गये रत्नोंकी कान्ति इन्द्रधनुषके समान रंग-बिरंगी थी) // 99 // Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 नैषधमहाकाव्यम् / विभूषणेभ्यो वरमंशुकेषु ततो वरं सान्द्रमणिप्रभासु | सम्यक् पुनः क्वापि न राजकस्य पातुं दृशा धातृकृतावकाशाम् / / विभूषणेभ्य इति / पुनः किम्भूताम् ? विभूषणेभ्यो वरं प्रथम विभूषणेषु आसज्य ततोऽधिकं यथा तथा, अंशुकेषु वस्त्रेषु, सक्तया इति शेषः, ततो वरमधिकं सान्द्रमणिप्रभासु, सक्तया इति शेषः, राजकस्य राजसमूहस्य 'गोत्रोक्ष-' इत्यादिना वुञप्रत्ययः, दृशा दृष्टया, सम्यक पातुं पुनः स्थैर्येण भूषणादिकं पुनः ईतितुं, क्वापि कुत्रापि, न धातृकृतावकाशां धात्रा विधात्रा, कृतोऽवकाशो दर्शनावकाशो यस्या एवम्भूतां, दमयन्त्याः किमपि अङ्ग स्थिरतया द्रष्टुं राजकदृष्टेरवकाशो विधात्रा न विहितः इत्यर्थः, उत्तरोत्तरविषयाकृष्टा पूर्वपूर्वविस्मरणेन राजकदृष्टिन क्वापि क्षण मवस्थितेति भावः / अत्र विभूषणानामुत्तरोत्तरोत्कर्षद्वारेण राजकदृष्टेः क्रमेण विभूषणाद्यनेकाधारसम्बन्धोक्तेः सारालङ्कारः; 'उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सारः // 10 // - भूषणों की अपेक्षा श्रेष्ठ विभूषणों में, उन विभूषणोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ वस्त्रों में तथा उन वस्त्रोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ सघन मणिकान्तियोंमें आसक्त राजाओंकी दृष्टि कहीं भी अच्छी तरह पान करने अर्थात् देखने के लिये भाग्य (या ब्रह्मा ) के द्वारा प्राप्त अवकाशवालो नहीं हुई / ( उक्त ऐसी दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) अथवा-'नारायणी' टीकाके अनुसार 'अवरम्' पदच्छेद करके-विभूषणों के बाद वस्त्रों में, उन वस्त्रों के बाद सघन मणिकान्तियों में तथा फिर कहीं भी अर्थात् दमयन्तीके किसी अवयवको भी अच्छी तरह [ जब कि दमयन्तीके श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर तथा श्रेष्ठतम विभूषण, वस्त्र तथा सघन मणिकान्तियों मेंसे किसीको भी क्षणमात्र स्थिर होकर राजा लोग अच्छी तरह नहीं देख सके तब उसके शरीरको अच्छी तरह देखना तो बहुत दूरको बात है / अथवा-विभूषण, वस्त्र, मणिकान्ति समूहसे आच्छादित दमयन्ती-शरीरको राजालोग नहीं देख सके। अथवा-विभूषणादिसे आच्छादित दमयन्ती-शरीरको यथावत् नहीं देख सकनेके कारण राजाओंकी उत्कण्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती गयी, आच्छादित वस्तुको देखनेके लिये उत्कण्ठाका बढ़ना स्वाभाविक होता है ] // 100 / / प्राक पुष्पवर्षेवियतः पतद्भिर्द्रष्टुं न दत्तामथ तद्विरेफैः।। तद्भीतिभुग्नेन ततो मुखेन विधेरहो ! वाञ्छितविघ्नयत्नः // 101 / / प्रागिति / पुनः किम्भूताम् ? प्राक प्रथम, वियतः अग्धरात् , पतद्भिः पुष्पवर्षे दमयन्त्या रूपदर्शनेन तदुपरि सन्तुष्टदेवगणमुक्तकुसुमवर्षणैः, अथ अनन्तरं, तद्विरेफैः तत्पुष्पाकृष्टभृङ्गः, ततोऽनन्तरं तनोतिभुग्नेन भृङ्गभयननेण, मुखेन च द्रष्टुं न दत्ताम् एतैः प्रतिबद्धदर्शनामित्यर्थः, राजकस्येति शेषः। तथा हि, विधेः दैवस्य, वान्छितविघ्नयरना वान्छितार्थविधातव्यसनिता, अहो! आश्चर्यरूपः, इत्यर्थान्तर• Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। न्यासः एकस्या राजदृष्टेः क्रमेण भैमीदर्शनप्रतिबन्धकपुष्पवृष्टयाग्रनेकाधारसम्बन्धोस्थेन पर्यायेण सङ्करः // 101 // . पहले ( दमयन्तीके अतिशयित सौन्दर्यको देखकर सन्तुष्ट देवों द्वारा) आकाशसे को हुई पुष्पवृष्टियोंसे, इसके बाद ( उन पुष्पोंके गन्धसे आकृष्ट होकर ) आनेवाले भ्रमरोंसे और उन (भ्रमरोंके काटने ) के भयसे फेरे ( दूसरी ओर घुमाये ) हुए मुखसे राजसमूहके नहीं देखने दी गयी (दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ); खेद है कि दैव अभिलषितमें विघ्न करनेका प्रयत्न किया करता है // 101 // एतद्वरं स्यामिति राजकेन मनोरथातिथ्यमवापिताय / सखीमुखायोत्सृजतीमपा ङ्गात् कर्पूरकस्तूरिकयोः प्रवाहम् // 102 / / एतदिति / पुनः किम्भूताम् ? एतत् सखीमुखं, वरं स्याम् अस्माकम् एतन्मु. खत्वे सति भैमीदृष्टिलाभः सेत्स्यति अतो राजस्वापेक्षया अहं तदात्मको वरं भवेयं, 'प्रार्थनायां लिङ्' इति राजकेन राजसमूहेन, मनोरथस्य भातिथ्यम् अतिथित्वम् , अभिलाषविषयताम् इति भावः, ब्राह्मणादित्वात् ष्यप्रत्ययः। अवापिताय प्रापिताय, सखीमुखाय अपाङ्गात् नेत्रप्रान्तात् , कर्पूरस्य कस्तूरिकायाश्च स्वार्थे कः, 'केऽज इति ईकारस्य ह्रस्वः, प्रवाहं श्वेतकृष्णकान्तिप्रवाहम् , उत्सृजती प्रवर्तयन्ती, सखीमुखमेव कटाक्षः वीक्षमाणामित्यर्थः। 'आच्छीनद्योर्नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः। दृष्टीनां सितासितत्वेन निर्देशः, अत एव विषयनिगरणेन विषयिमात्रोपनिबन्धात् भेदे अभेदरूपातिशयोक्तयलङ्कारः // 102 // __'मैं दमयन्तीकी सखीका श्रेष्ठ मुख बन जाऊँ' ऐसा राज-समूहके द्वारा मनोरथके अतिथित्वको प्राप्त कराये गये अर्थात् ऐसा चाहे गये सखीके मुखके लिए नेत्र-प्रान्तसे कपूर तथा कस्तूरीके प्रवाहको छोड़ती हुई अर्थात् उक्त प्रकारके सखी-मुखको देखती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके सखियोंका मुख बने बिना मुझे दमयन्तीके कटाक्षावलोकनका सुख नहीं मिल सकता, अत एव 'मैं दमयन्तीकी सखीका मुख बन जाऊँ' ऐसी इच्छा राज-समूहने की, उस सखी-मुखको दमयन्ती श्वेत-नील कटाक्षसे देखती थी, ऐसी दमयन्तीको राजसमूहने देखा ] // 102 / / स्मितेच्छुदन्तच्छदकम्पकिश्चिदिगम्बरीभूतरदांशुवृन्दैः। आनन्दितोर्वीन्द्रमुखारविन्दैर्मदं नुदन्ती हृदि कौमुदीनाम् // 10 // स्मितेति / पुनः किम्भूताम् ? आनन्दितानि मां प्रतीयं प्रसन्नेति बुद्धया हृष्टानि अन्यत्र-विकसितानि; उर्वीन्द्रमुखारविन्दानि राजमुखरूपपद्मानि येस्तैः, अत एवं स्मितेच्छोः ईषद्धास्योदयुक्तयोः, दन्तच्छदयोः अधरौष्ठयोः, कम्पेन किचिदिगम्बरीभूतैः ईषत्प्रकाशीभूतः, यद्वा-दिशाम् अम्बरीभूतैः आग्छादनस्वरूपः, दिग्ग्यापिभिरित्यर्थः- रदांशूनां दन्तकान्तीनां, वृन्दैः कौमुदीनां हृदि, स्थितमिति शेषः, मदं Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 नैषधमहाकाव्यम् / गर्व, नुदन्ती खण्डयन्ती, कौमुदीमधुरमन्दहासामित्यर्थः, कौमुद्यो हि पद्मविकासने असमर्थाः, एतैः रदांशुवृन्दैस्तु नृपमुखपद्मानि विकासितानि इति भावः, व्यतिरेका. लकारश्च // 103 // . राजाओंके मुखकमलको आनन्दित करनेवाले, मुस्कुरानेके इच्छुक ओष्ठद्वय (या अधर) के हिलानेसे थोड़ा दिखलायी पड़नेवाले दाँतोंके किरणसमूहोंसे चाँदनीके हर्षे ( पाठा०गर्व ) को खण्डित करती हुई [ दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा। अथवा-....... पड़नेवाले दाँतरूप सूर्य-समूहोंसे। इस पक्षमें सूर्य-समूहद्वारा कमलोंको आनन्दित करना तथा चाँदनीके हर्ष ( या गर्व) को नष्ट करना उचित ही है // चाँदनी से भी अधिक सुन्दर मन्दहासवाली दमयन्ती थी] // 103 // प्रत्याभूषाच्छमणिच्छलेन यल्लग्नतन्निश्चल लोकनेत्राम् / हाराग्रजाग्रद्गरुडाश्मरश्मि-पीनाभनाभीकुहरान्धकाराम् // 104 // प्रत्यङ्गेति / पुनः किम्भूताम् ? प्रत्यङ्गं प्रत्यवयवं, ये भूषाच्छमणयः अलङ्कारस्थ. निर्मलरवानि, तेषां छलेन येषु अङ्गेषु लग्नानि तेषु अङ्गेषु निश्चलानि, हर्षपारवश्यादिति भावः, खमकुब्जवत् समासः, लोकनेत्राणि दर्शनोत्सुकजननेत्राणि यस्यास्ता. मिव वस्तुतः नानाविधरनालङ्कारभूषितामिति भावः / अत्र दमयन्तीदर्शनोस्सुकानां नेत्राण्येवैतानि, न तु रत्नानीति सापह्नवोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्म्या। पुनः हाराने जाग्रतः प्रकाशमानस्य,गरुडाश्मनः गरुत्मनस्य,रश्मिभिः पीनाभं सान्द्रप्रभं,नाभी. कुहरान्धकारं यस्यास्ताम् / अत्र मरकतच्छायस्यान्धकारैः साम्योक्तेःसामान्यालङ्कारः। प्रत्येक अङ्गो के भूषणों के निर्मल रत्नों के व्याजसे जहाँ पड़ी वहींपर निश्चलदर्शकनेत्रोंवाली तथा मोतियों के हारके अग्रभागमें देदीप्यमान गारुत्मत मणिकी आभासे परिपुष्ट नाभिरूपी गुफाके अन्धकारवाली ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके प्रत्येक अङ्गोंपर जहां दृष्टि पड़ती थी-वहीं निश्चल हो जाती थी, उसके प्रत्येक अङ्गके भूषणों में बड़े गये निर्मल रत्न ही मानो दर्शकों के नेत्र हों ऐसा प्रतीत होता था, आशय यह है कि दमयन्तीके प्रत्येक अङ्ग रस्नोंसे जड़े गये भूषणोंसे अलंकृत थे, जो दर्शकोंके निश्चल नेत्रसे प्रतीत हो रहे थे / और हारके अग्रमागमें गारुत्मतमणिके द्वारा दमयन्तीकी गम्भीर नामिका अन्धकार और अधिक बढ़ रहा था दमयन्तीकी नामि अत्यन्त गहरी थी ] // 104 // तद्ौरसारस्मितविस्मितेन्दुःप्रभाशिरःकम्परुचोऽभिनेतुम् / विपाण्डुतामण्डितचामराली-नानामरालीकृतलास्यलीलाम्॥१०५।। तदिति / पुनः किम्भूताम ? तस्याः भैम्याः, गौरसारस्मितेन विशदोत्कृष्टमन्द. हासेन, विस्मितायाः विस्मयाविष्टायाः, इन्दुप्रभायाः चन्द्रिकायाः, शिरस्कम्परुचोs. मिनेतुम् , अनुक मिव; इत्युत्प्रेक्षा; विपाण्डतामण्डिता धावल्यशोभिताः, चामराख्यः चामरपङ्क्तय एव, नाना मराल्यः हस्यः, ताभिः कृता लास्थलीला नृत्यचेष्टा Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606. दशमः सर्गः। यस्यास्तां, निजमन्दहासजनितविस्मयकम्प्यमानचन्द्रिकाशिरकम्पचारुचामरचयवीज्यमानामित्यर्थः // 105 // / उस ( दमयन्ती ) के गौर वस्तुका सारभूत अर्थात् अत्यन्त गौरवर्ण स्मितसे आश्चर्यित चन्द्रकान्तिके (उस स्मितकी प्रशंसार्थ) शिरः कम्पनकी शोभाको दिखलाने के लिये स्वच्छतासे सुशोभित चामर-समूहरूप अनेक हंसियों द्वारा की गयी है लास्य-लीला (नृत्य-विशेष ) जिसकी ऐसी ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) [ अत्यन्त गौरवर्ण दमयन्ती-स्मितको देखकर चन्द्रिका उसकी प्रशंसाके लिये शिर हिला रही है, इस बातका अभिनय स्वच्छताभूषित चामरसमूहरूप हंसियों नृत्य-विशेषसे जिसकी कर रही हैं, ऐसी दमयन्तीको राजसमूहने देखा ] // 105 // तदनभोगावलिगायनीनां माये निरुक्तिक्रमकुण्ठितानाम् / स्वयं धृतामप्सरसां प्रसाद द्वियं हृदो मण्डनमर्पयन्तीम् / / 106 // तदङ्गेति / पुनः किम्भूताम् ? सैवाङ्गं कायार्थतया शरीरं यासां ताः तदनाः तद्विषया इत्यर्थः, 'शब्दादौ मूर्तिभिः ख्याती' इति लक्षणात्; तासां भोगावलीनां, प्रबन्धविशेषाणां, गायन्यः गायिकाः, कर्तरि ल्युट् , जीप, तासां, मध्ये गानमध्ये निरुक्तिक्रमेषु निष्कृष्टोचारणप्रकारेषु, कुण्ठितानां लुप्तप्रतिभानाम् , अप्सरसा स्वयं धृतां हृदः स्वान्तस्य वक्षसश्व, मण्डनम् अलङ्कारभूतां, हियं लज्जामेव, प्रसादं पारि. तोषिकम् , अर्पयन्तीं प्रयच्छन्ती, तदोषज्ञानेन ताः अपि हेलयन्तीमित्यर्थः, गायकेभ्यः स्वतवस्त्रालङ्कारादिकं प्रीत्याप्रयच्छन्तीम् इति भावः। तस्याः सौन्दर्यस्तुतिकरणासामर्थ्यादप्सरसोऽपि लज्जिता इति तात्पर्यम् / अत्र तु हीदानमेव तहानमि-- त्युत्प्रक्षा हिया अपि स्वयं धृतस्वादलङ्कारत्वात् तदायत्तत्वाच्चेति बोद्धव्यम् // 106 // उस ( दमयन्ती) के अङ्गोंकी भोगावली (चन्दन-कर्पूरादि) उसके प्रतिपादक ग्रन्थकी स्तुतिगायिकाओंके बीचमें निरुक्तिक्रममें कुण्ठित अर्थात् पूरा वर्णन करने में असमर्थ अप्सराओंके लिये स्वयं धारण को हुई खो-हृदयका भूषण लज्जाको प्रसाद देती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। (दमयन्तीके शरीरके भोगावलीका वर्णन करती हुई मैनका आदि अप्सराएँ उसका पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकी तो स्त्रीहृदयका भूषणभूत लज्जा-जिसे दमयन्तीने भी स्वयं स्त्री होनेसे धारण कर रखा था-को उन अप्सराओं के लिये प्रसादरूपमें दे रही थी, अर्थात् जिसके अङ्गोंकी भोगावली पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकनेके कारण अप्सरा भी लज्जित होती थी, उस दमयन्तीको राजसमूहने देखा / लोकमें भी कोई स्तुतिपाठकोंके लिये अपने शरीरमें पहने हुए भूषणादिको पारितोषिक रूपमें देता है ] // 106 // तारा रदानां वदनस्य चन्द्रं रुचा कचानाञ्च नभो जयन्तीम् / आकण्ठमणोतियं मधूनि महीभृतः कस्य न भोजयन्तीम् ? // 107 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 नैषधमहाकाव्यम् / तारा इति / पुनः किम्भूताम् ? रदानां दन्तानां, रुचा कान्त्या, ताराः नक्षत्राणि वदनस्य रुचा चन्द्र, कचानां केशानां, रुचा नभश्व जयन्तीम्, अत एव कस्य महीभृतोऽक्षणोतियं चतुर्द्वयं, मधूनि क्षौद्राणि, आकण्ठम् , आगलम् , अतितरामित्यर्थः, न भोजयन्तीम् ? न पाययन्तीम् ? अपि तु सर्वस्यैवेत्यर्थः। नअर्थस्य नशब्दस्य 'सुप्सुपा' इति समासः। 'गतिबुद्धि' इत्यादिना अणिकत्तुंरक्षिद्वितयस्य कर्मत्वम् / "निगरणचलनार्थेभ्यश्च' इति परस्मैपदम् दमयन्तीरूपदर्शनेन राजनेत्राणाम् अमृते. नेव तृप्तिर्जाता इति भावः। सकलराजलोकलोचनासेचनकमासीत् सा इति निएकर्षः। अनोत्तरवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गं, तञ्च ताराद्यपमाभिः सङ्कीर्यते, तस्य नभो जयन्ती न भोजयन्तीमिति यमकेन संसृष्टिः॥ 107 // दाँतोंकी कान्तिसे ताराओंको, मुखकी कान्तिसे चन्द्रको और बालोंकी कानिसे आकाशको जीतती हुई किस राजाके दोनों नेत्रोंको कण्ठ तक अर्थात् मर पेट मधु भोजन नहीं कराती हुई अर्थात् सबको भरपेट भोजन कराती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) [ अतिसुन्दर उसके रूपको देखकर सभी राजा अमृत भोजन किये हुएके समान पूर्णतया तृप्त हो गये ] // 107 // अलकृताङ्गाद्भुतकेवलाङ्गी स्तवाधिकाध्यक्षनिवेद्यलक्ष्मीम् / इमां विमानेन सभां विशन्ती पपावपाङ्गरथ राजराजिः // 108 // कुलकम् / अलकृतेति / पुनः किम्भूताम् ? अथ आह्वानानन्तरम् , अलकृताङ्गेभ्यः भूषिताङ्गेभ्यः, अद्भुतानि आश्चर्याणि, केवलानि अनलकृतानि, अङ्गानि यस्यास्तां स्तवात् स्तुतेः, अधिकाः स्तोतुमशक्याः, अध्यक्षनिवेद्याः प्रत्यक्षगम्याः, लचम्या शोभाः यस्यास्ताम् , इति बहुवचनान्तोत्तरपदो बहुव्रीहिः, अन्यथा एकवचनान्त. लक्ष्मीशब्दस्य उरःप्रभृतिकस्वात् कप्रसङ्गः, शैषिकस्तु वैभाषिकः विमानेन नरवाटेन चतुरस्त्रयानेन, संभां विशन्तीम् , इमां भैमी, राजराजिः नृपश्रेणी, अपाङ्गः नेत्र. 'प्रान्तः, पपी अत्यादरेण सविलासमद्राक्षीदित्यर्थः // 108 // इति कुलकम् / __ अलङ्कृत शरीरकी अपेक्षा आश्चर्यजनक अनलकृत (भूषणरहित) शरीरवाली, प्रशंसा करनेकी अपेक्षा प्रत्यक्ष दर्शनीय शोभावाली पालकीसे सभा में प्रवेश करती हुई इस ( दमयन्ती ) को राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा // 108 // आसीदसौ तत्र न कोऽपि भूपस्तन्मूर्तिरूपोद्भवदद्भुतस्य / / उल्लेसुरङ्गानि मुदा न यस्य विनिद्ररोमाकुरदन्तुराणि / / 109 // .. अथ तामद्धतचेष्टां वर्णयति-आसीदिति / तत्र सभायाम् , असौ ईदृशः, भूप: कोऽपि नासीत्, तस्याः भैम्याः, मूर्तिरूपेण अङ्गसौन्दर्येण, उद्भवन् अद्भुतः अद्भुतरसो Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। यस्य एवम्भूतस्य, यस्य भूपस्य, अङ्गानि मुदा हर्षेण, विनिद्रैः उदितैः, रोमाङ्करैः पुलकैः' दन्तुराणि विषमाणि सन्ति, न उल्लेसुः न उल्हसितानि, सर्वस्यापि अङ्गानि उल्लैसुरेवेत्यर्थः // 109 // उस सभामें ऐसा कोई राजा नहीं था, उस ( दमयन्ती) के शरीरसौन्दर्यसे उत्पन्न होते हुए आश्चर्यसे युक्त जिस राजाके शरीर हर्षसे उत्पन्न रोमाञ्चसे विषमित न हो गये हों। 1 उस स्वयंवरमण्डपमें दमयन्तीके शरीरके सौन्दर्यसे आश्चर्यित सभी राजाओंके शरीर हर्षसे पुलकित हो गये ] // 109 // अङ्गाष्ठमूर्ना च नीपीडिताग्रा मध्येन भागेन च मध्यमायाः / आस्फोटि भैमीमवलोक्य तत्र न तर्जनी केन जनेन नाम // 110 // अङ्गुष्ठेति / तत्र सभायां, भैमीम अवलोक्य अङ्गुष्ठस्य मूद्धर्ना अग्रेण, मध्यमायाः मध्यमाङ्गले. मध्येन भागेन च निपीडितम् अग्रं यस्याः सा तर्जनी केन नाम जनेन. नास्फोटि ? न वादिता? न अभाजि ? इति यावत् / स्फुट भेदन इति धातो: चौरादिकात् कर्मणि लुङ , सर्वेणापि अद्भुतानुभावस्फोटिका कृतैवेत्यर्थः // 110 // उस स्वयंवरसभामें दमयन्तीको देखकर किस आदमीने अङ्गुष्ठ के अग्रभाग तथा मध्यमाअलिके मध्यभागसे दबायी गयी तर्जनीको नहीं चटकाया अर्थात्. सभी आदमीने चटकाया। [लोकातिशायी आश्रर्यजनक पदार्थको देखने पर उक्त प्रकारसे तर्जनीको प्रायः सभी लोग चटकाते हैं ] // 110 // * अस्मिन् समाजे मनुजेश्वराणां तां खञ्जनाक्षीमवलोक्य केन / पुनः पुनर्लोलितमौलिना न भ्रुवोरुदक्षेपितरां द्वयी वा ? // 111 // अस्मिन्निति / अस्मिन् समाजे सभायां, खञ्जनस्य इव अक्षिणी यस्या दृशौ, तां भैमीम् , अवलोक्य लोलितमौलिना आश्चर्यात् कम्पितकिरीटेन, केन वा मनुजेश्वरेण राज्ञा, भ्रवोयी भ्रद्वयं, पुनः पुनर्न उदक्षेपितराम ? सर्वेण अतिशयेन उत्क्षिप्ता एवेत्यर्थः, क्षिपेः कर्मणि लुङि तिङन्तात् घात् आमुप्रत्ययः। अत्र शिरःकम्पभ्रविकारावद्भुतानुभावावुक्तौ // 111 // इस ( राजाओं के ) समाजमें खञ्जनके समान नेत्रवाली उस (दमयन्ती ) को देखकर (उसके प्रशंसाथ ) बार बार शिर हिलाते हुए किस राजाने भ्रूद्वयको नहीं ऊपर किया अर्थात् दमयन्तीको देखकर उपस्थित राजसमाजमें-से सभी राजाने आश्चर्यसे शिरः कम्पन किया तथा भ्रद्वयका उत्क्षेपण भी किया // 111 // स्वयंवरस्याजिरमाजिहानां विभाव्य भैमीमथ भूमिनाथैः / इदं मुदा विह्वलचित्तभावादवादि खण्डाक्षरजिह्मजिह्वम् / / 112 // अथ राज्ञां वागारम्भाः प्रवृत्ता इत्याह-स्वयंवरस्येति / अथ अनन्तरं, स्वयंवरस्य अजिरं चत्वरप्रदेशम, आजिहानां प्राप्नुवन्ती, हाजः कर्तरि शानच,भैमी विभाव्य Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 नैषधमहाकाव्यम् / निर्वयं, भूमिनाथैः राजभिः, मुदा हर्षेण हेतुना, विह्वलचित्तभावात् व्यग्रचित्तस्वा. द्धेतोः, इदं वक्ष्यमाणं, खण्डाक्षरम् , भोक्तवर्णम् अत एव जिह्मजिई कुण्ठजिई यथा तथा, अवादि उक्तम् / कर्मणि लुङ / / 112 // इसके बाद स्वयंवराङ्गनमें आयी हुई दमयन्तीको जानकर राजाओंने चित्तकी व्याकुलतासे पूर्णतया नहीं कहनेसे कुटिल जिह्वायुक्त हो हर्ष से यह कहा-[ दमयन्तीके स्वयंवरमें आते ही कामपरक्श राजालोग पूर्णतया कुछ कहने में अशक्त होनेपर भी हर्षसे कहने लगे] // 112 // रम्भादिलोभात् कूतकर्मभिर्भूः शून्यैव मा भूत् सुरभूमिपान्दैः। इत्येतयाऽलोपि दिवोऽपि पुंसां वैमत्यमत्यप्सरसा रसायाम् // 113 // - अथ विंशतिश्लोक्या वागारम्भानेव वर्णयति-रम्भेत्यादि / रम्भादिषु अप्सरःसु, लोभात् कृतं कर्म यागादि यस्तैः, सुरभूमिपान्थैः स्वर्लोकपथिकैः, 'पथो ना नित्यम्' इति नाप्रत्ययः, भूरेव शून्या मा भूदिति हेतोः, अतिक्रान्ताः सौन्दर्यादिना अप्सरसो यया सा तया अत्यप्सरसा, एतया भैम्या, दिवः पुंसामपि देवानाम् अपि, रसायां भूलोके, वैमत्यं वैराग्यम् , अलोपि लुप्तम् इव, इत्युत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयो. गात् गम्या। लुपेः कर्मणि लुङ, अत्यप्सरसः भैम्याः सौन्दर्यात् स्वर्लोकम् अति छेकानुप्रासः, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रासः, तयोः पूर्वोक्तोत्प्रेक्षायाश्च संसृष्टिः // 113 // रम्भा आदि ( अप्सराओ को पाने ) के लोभसे कर्म ( अग्निष्टोमादि यज्ञ ) करनेवाले स्वर्गपथिकों (स्वर्गाभिलाषिओं) से भूमि (मृत्युलोक ) ही सूना न हो जाय' इस वास्ते अप्सराओंको अतिक्रमण करनेवाली अर्थात् अप्सराओंसे अविक सुन्दरी इस ( दमयन्ती) ने स्वर्गके पुरुषों ( इन्द्रादि ) के भूमि ( मृयुलोका) में विपरीत विचार ( अनिच्छा ) को नष्ट कर दिया है। [ स्वर्ग में भी ऐसो सुन्दरियों के न होने से इन्द्रादि भो स्वर्गको छोड़कर भूमिको स्वर्गसे उत्तम मानकर यहां आये हैं और रम्भादि अप्सराओं के लोमसे ज्योतिष्टो. मादि यज्ञकर स्वर्ग पाने के इच्छुकोंसे भूमि सूनी नहीं हुई है ] // 113 // रूपं यदाकर्ण्य जनाननेभ्यस्यत्तदिगन्ता वयमागमाम | सौन्दयेसारादनुभूयमानादस्यास्तदस्माद् बहुना कनीयः / / 114 / / रूपमिति / वयं जनाननेभ्यः यद्पं सौन्दर्यम् , आकर्ण्य तच्च तच असौ दिगन्तश्च, वीप्सायां द्विर्भावः, तस्मात् तस्मात् दिगन्तात् प्राच्यादिदिक्प्रान्तात् , आगमाम भागताः स्मः, गमेलुङि चेरङादेशः, तत् रूपम् , अस्मादनुभूयमानात् , प्रत्यक्षपरिदृश्यमानात् , सौन्दर्यसारात् 'पञ्चमी विभक्त' इति पञ्चमी, बहुना भूम्ना प्रथिम्ना, भावप्रधानो निर्देशः कनीयः अल्पीयः, यादृशं रूपं लोकमुखात् श्रुतं तदपेच्याऽधिकरूपलावण्यं दृश्यते इति भावः / 'युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्' इति विकल्पात् कनादेशः // 114 // . हम लोगों के मुखसे जिस रूपको सुनकर उन उन दिशाओं के अन्तिम भागोंसे आये हैं, Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 613 इस दमयन्तीका वह रूप प्रत्यक्ष अनुभव किये जाते हुए इस सौन्दर्यसारसे अधिक कम है। [ लोकमें लोगोंसे प्रशंसित वस्तु प्रायः सुन्दर कम होती है, किन्तु इस दमयन्तीके रूपकी लोगोंने जैसी प्रशंसा की थी, उसकी अपेक्षा इसके रूपको हम अधिक श्रेष्ठ देख रहे हैं, यह आश्चर्यकी बात है। ] // 114 // रसस्य शृङ्गार इति श्रुतस्य क नाम जागत्ति महानुदन्वान् / कस्मादुदस्थादियमन्यथा श्रीावण्यवैदग्ध्यनिधिः पयोधेः ? // 11 // * रसस्येति / शृङ्गार इति श्रुतस्य प्रसिद्धस्य रसस्य शृङ्गाररसस्य सम्बन्धे इत्यर्थः, महान् उदन्वान् उदधिः, 'उदन्वानुदधौ' इति निपातनात् साधुः, क नाम जागर्ति कुत्रापि किल प्रदेशे विद्यते एवेत्युत्प्रेक्षा। कुतः ? अन्यथा शृङ्गारार्णवाभावे लावण्य. वैदग्ध्ययोः सौन्दर्यचातुर्ययोः, निधिरियं पुरोवर्तिनी भैमीरूपा, श्रीलंचमीः, कस्मात् अत इयं भैमीरूपा श्रीः शृङ्गाररससमुद्रादेवोत्पन्नेति ताशसमुद्रः कुत्रापि देशे वर्तते एवेति भावः / अत्रेयं श्रीरिति विषयनिगरणेन विषयिमात्रनिबन्धना देऽप्यभेदात् सातिशयोक्तिरेतन्मूला च पूर्वोक्तशृङ्गाररससागरसद्भावोत्प्रेक्षेत्यनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः॥ 115 // (नव रसों में ) 'शृङ्गार' ऐसे नामसे सुने गये रसका विशाल समुद्र कहां है ? ( कहीं न कहीं अवश्य ही है ), नहीं तो सौन्दर्यकी चातुर्यके निधि यह ( दमयन्तीरूपिणी) लक्ष्मी किस समुद्रसे निकली है ? / [ जिस प्रकार समुद्रसे लक्ष्मीके निकलनेका वर्णन पुराणों में है, उसी प्रकार श्रीतुल्या इस परम सुन्दरी दमयन्तीको देखकर शृङ्गारके विशाल समुद्र के कहीं न कहीं होनेका कार्यकारणभावसे अनुमान होता है। दमयन्ती पुराणवर्णित श्रीसे भी अधिक सुन्दरी है ] // 115 // साक्षात् सुधांशुर्मुखमेव भैम्या दिवः स्फुटं लाक्षणिकः शशाङ्कः / एतद्धृवौ मुख्यमनङ्गचापं पुष्पं पुनस्तद्गुणमात्रवृत्या // 116 / / सुधांशुःभैमीमुखमेव ओष्ठरूपसुधासम्बन्धात् मुख्यवृत्त्या सुधांशुपदाभिधेयमेवेत्यर्थः, दिवोऽन्तरिक्षस्य, शशाङ्कःचन्द्रस्तु, लाक्षणिको लक्षणागम्यो लान्छनकश्च, शैषिकष्ठक, लक्षणावृत्या सुधांशुपदेन बोध्यः, न तु अभिधावृत्त्येत्यर्थः, अभिधेयार्थापेक्षया लक्ष्यार्थस्य जघन्यत्वेन एतस्या मुखचन्द्रापेक्षया गगनस्थचन्द्रस्य जघन्यत्वमिति भावः, स्फुटमित्युत्प्रेक्षा। तथा एतस्याः ध्रुवावेव मुख्यं प्रधानं, मुखवृत्या अभिधेय. मित्यर्थः, अमोघत्वादिति भावः, 'दिगादिभ्यो यत्' इति भावार्थ यत्प्रत्ययः, अथ च मुखे भवं मुख्यं, भ्ररूपमिति यावत् , अनङ्गचापं कामधनुः / पुष्पं पुनः यत् पुष्पम् भनङ्गचापत्वेन ब्यवहियते तत्तु, तयोभ्रुवोः, यो गुणः उद्दीपकत्वादिः, तन्मात्रवृत्या Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 नैषधमहाकाव्यम् / तत्सहशगुणवत्वादिस्यर्थः, पुष्पेऽनङ्गचापत्वव्यवहारस्तु गौण एवेति भावः / उपमा। अनापि स्फुटमित्यनुषङ्गादुत्प्रेक्षेति द्वयोनिरपेक्षत्वात् संसृष्टिः // 116 // दमयन्तीका मुख ही साक्षात् (निकटस्थ होनेसे प्रत्यक्ष, या हमलोगोंका भोग्य, या मुख्य उपमानभूत ) सुधांशु अर्थात् चन्द्रमा (या अमृतपूर्ण चन्द्रमा) है; आकाशका मुख तो लक्षणासे बोध्य शशाङ्क ( चन्द्रमा, पक्षा०-सकलङ्क) है। इस ( दमयन्ती ) के दोनों भौहें मुख्य (प्रधान, मुखमें होनेवाला, या अभिधासे बोध्य ) कामधनुष है; पुष्प तो उस (भ्रद्वय ) के गुण-मात्र ( केवल कामोद्दीपकत्वादि गुण, या भ्रदयगत वक्रत्व और उन्मादकत्व रूप दो गुणोंमें-से केवल उन्मादकत्व गुण, केवल मौवीं अर्थात् धनुषकी डोरी होनेसे या गोणी लक्षणासे-अभिधा शक्तिसे नहीं) कामधनुष है। [ दमयन्तीका मुख सदा गोलाकार, निष्कलङ्क, अधरामृतसे संयुक्त, उन्मादक आदि अनेक गुणों से युक्त होनेसे साक्षात् अर्थात् प्रत्यक्ष दृश्यमान (या समीपस्थ हम कामिजनोंसे उपभोग्य ) सुधांशु ( अमृतपूर्ण कान्तिवाला अभिधावृत्तिसे बोध्य चन्द्रमा) है, स्वर्गका मुख चन्द्रमा तो निश्चित रूपसे लाक्षणिक ( लक्षणा वृत्तिसे बोध्य अर्थात् अवास्तविक या कलङ्कयुक्त) है; अतएव दमयन्तीमुख ही प्रधान तथा उपमानभूत चन्द्रमा है और आकाशस्थ चन्द्रमा अप्रधान उपमेयभूत है। इसी प्रकार दमयन्ती के दोनों भौहें मुख्य अर्थात् अभिधावृत्तिसे बोध्य होनेसे प्रधान ( या मुखभव अर्थात् मुखमें होनेवाले ) कामधनुष हैं और पुष्पको जो कामधनुष कहा जाता है वह तो उन दोनों भौहोंमें जो गुण ( टेढ़ापन तथा मादकपन या डोरी होना ), उसके व्यवहारसे कहा जाता है, अतः गौणीवृत्तिसे है, लक्षणावृत्ति तथा गौणी त्तिकी अपेक्षा अभिधावृत्तिसे बोध्य पदार्थकी प्रधानता होनेसे दमयन्तीके दोनों भौहें ही मुख्य कामधनुष है पुष्प तो गौणीवृत्तिसे बोध्य होनेसे अप्रधान कामधनुष है वा उसकी डोरी होनेसे कामधनुष है / विशेष अर्थकी कल्पना 'प्रकाश' आदि संस्कृत टीकाओंमें देख लेनी चाहिये, विस्तारभय तथा क्लिष्टकल्पनामात्र होनेसे उन्हें यहां नहीं लिखा गया है ] / / . लक्ष्ये धृतं कुण्डलिके सुदत्या ताटङ्कयुग्मं स्मरधन्विने किम् ? | सब्यापसव्यं विशिखा विसृष्टास्तेनैतयोर्यान्ति किमन्तरेण ? // 117 // लक्ष्य इति / सुदत्या भैम्या, ताटङ्कयोः कर्णभूषणयोः, युग्मं स्मर एव धन्वी, ब्राह्मणादित्वादिनिः, तस्मै, तादर्थं चतुर्थी, लच्ये शरव्यभूते, कुण्डल्यावेव कुण्डलिके चक्रे, धृतं किम् ? ताटङ्कयुग्ममेव शरव्यचक्रत्वेन धृतवती किम् ? इत्युप्रेक्षा / अत एव तेन स्मरधन्विना, सव्यम् अपसव्यञ्च यथा तथा विसृष्टाः विमुक्ताः, विशिखाः बाणाः, एतयोः शरव्यचक्रयोः, अन्तरेण यान्ति प्रसरन्ति किम् ? इत्युत्प्रेक्षा सापेक्षस्वात् सङ्करः / सव्यसाचिनो धानुष्काः शरव्यद्वये शरान् मुञ्चन्ति इति प्रसिद्धिः / भ्रूचापयोजिताः कटाक्षबाणाः कर्णताटङ्ककुण्डलाभ्यन्तरेण निर्यान्तीति भावः // 117 // सुन्दर दाँतोंवाली दमयन्तीने दो ताटङ्क ( कर्णभूषण-विशेष ) का रूप, कामदेवरूपी Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 615 धनुर्धारी के लिये लक्ष्यभूत.दो कुण्डलोंको धारण किया है क्या ?, उस ( कामदेव ) से दहने-बांय के क्रमसे छोड़े गये बाण इन दोनों (कुण्डलों ) के बीचसे (पाठा०-बीच में ही ) निकलते हैं। [ लोकमें भी कुशल धनुर्धारी दहने-बांयें-दोनों ओरसे बाण छोड़ते हैं तथा उनके बाण कानों के कुण्डल के बीचसे निकल जाते हैं, जिससे उनका लक्ष्यवेधमें सिद्धहस्त होना प्रमाणित होता है, ऐसा ही यहां कामदेवको कुशल धनुर्धारी कहा गया है] // तनोत्यकीर्ति कुसुमाशुगस्य सैषा बतेन्दीवरकर्णपूरौ / यतः श्रवःकुण्डलिकाऽपराद्ध-शरं खलः ख्यापयिता तमाभ्याम् // 118 // __ तनोतीति / सैषा भैमी, इन्दीवरकर्णपूरावेव तद्पामित्यर्थः, कुसुमाशुगस्य अकीर्तिम् अपकीत्तिम्, तनोति ताभ्यां तस्याकीत्तिम् जनयतीत्यर्थः; आयुर्घतमितिवत् कार्यकारणयोरभेदोपचारः, कारणेन्दीवरगुणादकीर्तिश्च कालिमेति भावः, वतेति खेदे। कुतस्तत्कारणम् ? तदाह-यतः खलः कश्चिद्दोषान्वेषी दुर्जनः, आभ्यां कामशराभ्याम् इन्दीवर कर्णपूराभ्याम्, इमावेव निदर्येत्यर्थः, ल्यब्लोपे पञ्चमी, तं कुसुमशरं, श्रवसोः कर्णयोः, कुण्डलिके ताटङ्करूपे लक्ष्ये चक्रे इत्यर्थः, ताभ्याम, अपराद्धशरं च्युतनीलोत्पलरूपसायकम्, 'अपराद्धपृषत्कोऽसौ लक्ष्यायश्च्युतसायकः' इत्यमरः, ख्यापयिता ख्यापयिष्यति, कर्तरि लुट , इन्दीवरयोरपि कामशरत्वात् कुण्डलिकाबहिर्भागे लग्नत्वाच्च एतद्दृष्टान्तेनैवान्यत्रापराद्धपृषत्कदोषोद्घाटनसौकर्यात्तयोरकी. र्तिकारणत्वोत्प्रेक्षेत्यर्थः // 118 // वह दमयन्ती नील कमलों के दो कर्णभूषण-रूप कामदेव की अपकीर्ति फैलाती है यह खेद है; क्योंकि दुष्ट जन इन ( दो नीलकमलों के कर्णभूषणों) के द्वारा कानके कुण्डलरूप लक्ष्यको वेध नहीं करने वाले उस ( कामदेव ) को प्रसिद्ध करेंगे अर्थात् कहेंगे। [ कुशल धनुर्धारी के बाण कानके कुण्डलों के बीचसे निकल जाते हैं, यह पूर्व श्लोकमें कहा जा चुका है। यहां पर यह कहा जाता है कि दमयन्तीने दो नील कमलों के कर्णभूषण जो धारण किये हैं, ये उनको दुष्ट लोग 'कामदेवके द्वारा छोड़े गये नील कमल रूप दो पुष्प बाण दमयन्तीके कर्णकुण्डलों के बीचसे नहीं निकलकर लक्ष्यभ्रष्ट होकर (ठीक निशाना नहीं मारकर ) कानपर ही रुक गये हैं, अतएव यह कामदेव लक्ष्यवेधमें निपुण नहीं है' ऐसी कामदेव की अपकीर्ति ( बदनामी ) करेंगे। नीलकमलोंको कामदेवके बाणों का पुष्पमय होनेसे कामबाण तथा अपकीर्तिके काली होनेसे उनका अपकीर्ति मानना ठीक ही है / दमयन्तीके नीलकमलरूप कर्णपूरोंको देखकर काम-वृद्धि होती है ) // 118 / / रजःपदं षटपदकीटजुष्टं हित्वाऽऽत्मनः पुष्पमयं पुराणम् / अद्यात्मभूराद्रियतां स भैम्या भ्रयुग्ममन्तधृतमुष्टि चापम् // 119 // रज इति / अद्य आत्मभूः स कामः, रजसा पदं स्थानं, परागाश्रयं काष्ठचूर्णाश्र. यञ्चेत्यर्थः, षट्पदैरेव कीटैः क्रिमिभिः, जुष्टं सेवितं,-घुणादिसेवितश्चेत्यर्थः, पुराणं 36 नै० Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 नैषधमहाकाव्यम् / जीणं, पुष्पमयमात्मनश्चापं हित्वा त्यक्त्वा, अन्तर्मध्ये, तमुष्टि मुष्टिपिहितत्वाददृश्यमध्यमित्यर्थः, भैम्या भ्रयुग्मं भ्रद्वयरूपं चापमेव, आद्रियताम् अङ्गीकरोतु, अमोघस्वात् नूतनत्वाच्चेति भावः // 119 // आज वह ( प्रसिद्ध ) कामदेव रज ( पुष्पपराग, पक्षा०-घुनी हुई लकड़ी की धूल ) का स्थान, भ्रमररूप कीड़े अर्थात् घुनसे सेवित, पुष्पमय अर्थात् अतिशय कोमल ( अदृढ ) पुराने अपने धनुषको छोड़कर दमयन्तीके भ्रूद्वयरूप बीचमें मुठीमें पकड़ा गया ('अतएव बीचमें अदृश्य ) चाप का आदर करे / [ पुरानी एवं धुन लगी हुई निर्बल वस्तुको छोड़कर नवीन वस्तुका आदर करना कामदेवके लिये उचित ही है ] // 119 // पद्मान् हिमे प्रावृषि स्वारीटान् क्षिप्नुर्यमादाय विधिः क्वचित् तान् | सारेण तेन प्रतिवर्षमुच्चैः पुष्णाति दृष्टिद्वयमेतदीयम् / / 120 // पद्मानिति / विधिः स्रष्टा, यं सारं, पद्मगतमुस्कृष्टांशु तथा खञ्जरीटगतमुत्कृष्टां. शञ्चेत्यर्थः, आदाय तानिःसारान् , पद्मान् हिमे शिशिरकाले, तथा खञ्जरीटान् खञ्जनपक्षिणः, प्रावृषि वर्षत्तौं, कचित् क्वापि, क्षिप्नुः प्रक्षेपणशीलः सन् , क्षिप्तवा. नित्यर्थः, 'सिगृधि' इत्यादिना क्नुन्प्रत्ययः, 'न लोक' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् द्वितीया, तेन सारेण प्रतिवर्ष प्रतिवरसरम्, एतदीयं दृष्टिद्वयम् उच्चैः पुष्णातीत्युस्प्रेक्षा; अन्यथा कथमीहशो शोभेति भावः / / 120 / / ब्रह्माने ( कमलपुष्प तथा खजरीट पक्षीसे ) जिस सारको लेकर कमलोंको हेमन्त कालमें तथा खजरीटों को वर्षाकालमें कहीं ( अदृश्य स्थानमें ) फेंक दिया, उसी सास्से इस (दमयन्ती ) के दोनों नेत्रोंको ( वह ब्रह्मा ) प्रतिवर्ष अधिक पुष्ट ( सुशोभित ) करते हैं / [ दमयन्तोके नेत्र कमल तथा खञ्जरीटसे भी सुन्दर हैं ] // 120 // एतदृशोरम्बुरुहैविशेष भृङ्गो जनः पृच्छतु तद्गुणज्ञौ / इतीव धात्राकृत तारकालि-स्त्रीपुंसमाध्यस्थ्यमिहाक्षियुग्मे // 121 / / - एतदिति / जनः उभयतारतम्यजिज्ञासुः लोका, एतदृशोः भैमीदृष्टयोः, अम्बुरुहै। सह विशेषं तारतम्यं, तद्गुणज्ञौ अम्बुरुह-नेत्ररसज्ञो, भृङ्गो भृङ्गी च भृङ्गश्च तो, पृच्छतु पृच्छेत् , दुहादित्वात् द्विकर्मकत्वम, इतीव इति मत्वेव, धात्रा इह एतदीये, अक्षियुग्मे तारके कनीनिके एव, अलिस्त्रीपुंसौ अलिदम्पती, अचतुरादिना समासा. न्तनिपातः, तयोर्माध्यस्थ्यं पद्मानि उत्कृष्टानि उत एतन्नेत्रे उत्कृष्टे इति लोकानां संशये अकूटसाक्षित्वम्, अक्षिमध्यवर्तित्वञ्च, अकृत कृतवान्, करोतेः कर्तरि लङ् तङि 'हस्वादङ्गात्' इति सकारलोपः, विवादपदतत्वज्ञो मध्यस्थश्च साक्षी संशयच्छेत्ता च भवति; तथा चालिदम्पती पद्मं विहायात्राधिष्ठानेन पद्मापेक्षया एतन्नेत्रयोः रम. णीयत्वं व्यञ्जयतः, तस्मात् एतन्नेत्रे पद्मापेक्षया मनोहरे भ्रमरवन्नीलकनीनिकाविशिष्टे Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 617 चेति भावः / भैमीहगम्बुरुहतारतम्यकथनाय धात्रा स्थापितमलिमिथुनमिव भाति कनीनिकायुग्ममित्युत्प्रेक्षा // 121 // 'लोग कमलों की अपेक्षा इस ( दमयन्ती ) के नेत्रों की विशेषताको उसके गुणोंको जानने वाले भ्रमरदम्पतीसे पूछे' मानो इसी लिये ब्रह्माने तारका ( नेत्रोंकी पुतलियां) रूप भ्रमरमिथुन ( भ्रमरी-भ्रमर ) की मध्यस्थता ( मध्यमें ठहरना; पक्षा०-साक्षी बनना ) को इस नेत्रद्वयमें किया। [ जो जिसके गुणको जानता है तथा मध्यस्थ अर्थात् किसी का पक्षपात नहीं करनेवाला होता है, वही उसके गुणको ठीक-ठीक बतला सकता है, दमयन्तीके नेत्र द्वयमें पुतलियां नहीं हैं, किन्तु वह भ्रमर मिथुन है और इस भ्रमर मिथुनने हीन गुणवाले नीलकमलको छोड़कर उत्तम गुणवाले इन नेत्रों का आश्रय किया है, इसीसे स्पष्ट है कि कमल श्रेष्ठ हैं या दमयन्ती के नेत्र ? / दमयन्तीके नेत्र नीलकमलसे भी सुन्दर हैं ] / / ब्यधत्त लौधौ रतिकामयोस्तद्-भक्तं वयोऽस्या हृदि वासभाजोः। / तदग्रजाग्रत्पृथुशातकुम्भ-कुम्भौ न सम्म्भावयति स्तनौ कः ? // 122 // व्यधत्तेति / तयोः रतिकामयोः, भक्तं विधेयं, वयः यौवनं कत्त, अस्याः भैम्याः, हृदि वासभाजोः निवसतोः, रतिकामयोः, कृते इति शेषः, सौधौ प्रसादौ, व्यधत निर्ममे, अन्यथा तयोस्तत्र निवासायोग्यत्वमिति भावः; यस्मात् हेतोः को जनः, स्तनौ, अस्या इति पूर्वानुषङ्गः, तयोः सौधयोः, अग्रे जानती प्रकाशमानौ, पृथू पी. वरौ च, शातकुम्भकुम्भौ कनककलशो, न सम्भावयति ? न वितर्कयति ? सर्वोऽप्ये. वमुत्प्रेक्षत एवेत्यर्थः // 122 // ____ इस ( दमयन्ती ) के हृदयमें निवास करनेवाले रति तथा कामदेवके भक्त युवावस्थाने दो महल बना दिये हैं, ( अत एव ) कौन मनुष्य उन (दोनां महलों ) के ऊपर प्रकाशमान विशाल दो सुवर्ण कलश ( दमयन्तोके ) दोनों स्तनोंको नहीं मानता ? अर्थात् सभो मनुष्य हृदयस्थ रति-कामके महलोंके ऊपर शोभमान दो विशाल सुवर्ण कलशोंके समान दमयन्तीके दोनों स्तनों को मानते हैं / [ दमयन्ती सुवर्णकलशके समान गौर वर्ण तथा विशाल स्तनोंवाली तथा सर्वदा रति-कामदेवसे पूर्ण है ] // 122 // अस्या भुजाभ्यां विजितात् बिसात् किं पृथक करोऽगृह्यत तत्प्रसूनम? / इहेक्ष्यते तन्न गृहं श्रियः कैर्न गीयते वा कर एव लोकैः ? // 123 // अस्या इति / अस्याः, भैम्याः, भुजाभ्यां विजेतृभ्यामिति भावः, विजितात् बिसात् मृणालात् , पृथक प्रत्येकमेव, तत्प्रसून, बिसप्रसून, पद्ममेवेत्यर्थः, करो बलिहस्तश्च, अगृह्यत किम् ? गृहीतं किम् ? इत्युत्प्रेक्षा; 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः, जेतुर्जितात् करग्रहणमेव तत्करस्य पद्मत्वञ्चोचितमिति भावः / तथा हि, इहा. प्या भुजयोः, तत् करत्वेन गृहीतं पद्म, कैलॊकैर्जनैः, श्रियो लक्ष्म्याः शोभायाश्च, गृहम आलयः, नेच्यते ? वा अथवा, कर एव करशब्देनव, न गीयते ? नोच्यते ? Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / सर्वैरपि तथा कीर्यते इत्यर्थः। एतद्धस्तस्य श्रीगृहत्वात् पद्मत्वं करत्वप्रसिद्धबिसात्म कत्वेन ग्रहणं सिद्धमित्युत्प्रेक्षा युक्ता // 123 // इस ( दमयन्तीके ) बाहुओंने पराजित मृणाल (कमलनाल) से उसके पुष्प अर्थात् कमलको अलग कर ( दण्डरूपमें राजग्राह्य भाग, पक्षा०-हाथ ) लिया है क्या ? ( क्योंकि-) इन बाहुओं में शोभाका स्थान ( पक्षा?-लक्ष्मीका निवास स्थान ) वह ( कमलपुष्प ) नहीं देखते हैं ? और हाथ ( पक्षा०-दण्डरूपमें ग्राह्य राजग्राह्य भाग) नहीं कहते ? अर्थात् सभी लोग वैसा देखते तथा कहते हैं / [विजयी का पराजितसे कर लेना राजनीतिके अनुकूल एवं लोकप्रसिद्ध है। दमयन्तीके बाहुओंने कमलनालको पराजित कर उसके पुष्प (कमल ) को कररूपमें ग्रहण किया, इसी कारण दमयन्तीके बाहुओं को लोग लक्ष्मीका घर ( पक्षा०-शोभाका स्थान ) कमल के समान देखते तथा उन्हें 'कर' लेनेसे 'कर' अर्थात् बाहु ( हाथ ) कहते हैं / दमयन्तीके बाहु श्रीगृह ( लक्ष्मीका घर, पक्षा०-शोभाका स्थान ) है, कमलका श्रीगृह होना लोकप्रसिद्ध है, तथा पराजित कमलनालसे 'कर' ( राजग्राह्य भाग) लेनेसे उन दमयन्ती के बाहुओंको 'कर' (बाहु = हाथ ) कहा जाना भी उचित ही है | छमेव तच्छम्बरजं बिसिन्यास्तत्पद्ममस्यास्तु भुजाग्रसन। उत्कण्टकादुद्गमनेन नालादुत्कण्टकं शातशिखैन के र्यत् / / 124 // छद्मवेति / बिसिन्याः कमलिन्याः सम्बन्धि, तत् पद्मं, शम्बरजं शम्बरात् जलात् जातं, छद्मवालीकमेव, अथ च शम्बरदनुजजातं, छद्मव मायैव, न तु पारमार्थिकमिः त्यर्थः, 'दैत्ये ना शम्बरोऽम्बुनि' इति वैजयन्ती, तु किन्तु, अस्याः भैम्याः, भुजाग्रं सद्म स्थानं यस्य तादृशं, तत् पद्मं पारमार्थिकं पद्ममित्यर्थः; कुतः ? यत् यस्मात् , उत्कण्टकात् उद्गताः कण्टकाः सूचयः पुलकाश्च यस्य तस्मात् , नालात् पद्मदण्डात् भुजदण्डाच्च, उद्गमनेन प्रादुर्भावेण हेतुना, शातशिखैः तीक्ष्णाः , नखैः उत्कण्टकम्, एतत्पाणिपद्ममिति शेषः, बिसपद्मन्तु उत्कण्टकनालादुद्भतमपि नोत्कण्टकं पभे कण्टकविरहात्, किन्तु भैमीपाणिपद्ममेव प्रकृतपनं सकण्टकत्वात्, यतः कारणगुणाः कार्यगुणमारभन्ते इति शास्त्रात् सकण्टकनालकार्यस्य सकण्टकत्वेन भवितव्यमिति भावः / भैमीपाणिपद्मस्य प्रसिद्धपद्मव्यतिरेकोक्त्या व्यतिरेकालङ्कारः // 124 // __पद्मिनीके कमल शम्बर जात ( पानी में उत्पन्न, पक्षा-शम्बर नामक मायावी दैत्यकी की हुई ) माया ही है और इस दमयन्तीके भुजाग्रमें स्थित कमल वास्तविक कमल हैं; क्योंकि कण्टक युक्त कमलनाल ( पक्षा-रोमाञ्चयुक्त भुजासे निकलने के कारणसे तीक्ष्णाग्र नखों ( तेज अग्र भागवाले नखों के न होनेसे ) भुजाग्रस्थित कमल उत्कण्टक ( कांटोंसे युक्त, , पक्षा०-रोमाञ्चसे युक्त ) और कमल पुष्प कण्टकयुक्त नहीं है, किन्तु कण्टकर हित है। [ कारणानुसार कार्योत्पत्ति होनेसे कारणभूत कण्टकयुक्त कमलनालसे कण्टकयुक्त कमलपुष्प उत्पन्न होना उचित था, किन्तु वैसा नहीं होनेसे वह अवास्तविक कमल है और कण्टकयुक्त अर्थात् रोमाञ्चयुक्त दमयन्ती भुजासे उत्पन्न दमयन्ती भुजाग्रगृह वासी कमल तीक्ष्णाग्र नखों के Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 दशमः सर्गः। बहानेसे कण्टकयुक्त है, अतएव यही वास्तविक कमल है। कमलसे अधिक सुन्दर एवं तीक्ष्ण नखवाले दमयन्तीके हाथ हैं ] // 124 // जागर्ति मर्येषु तुलार्थमस्या योग्येति योग्यानुपलम्भनं नः / यद्यस्ति नाके भुवनेऽथवाऽधस्तदा न कौतस्कुतलोकबाधः ? // 125 // जागर्तीति / मर्येषु, अस्याः भैम्याः, तुलार्थ तुलायै, औपम्याय इत्यर्थः, योग्या अहाँ, काचिदस्तीति शेषः, इति अत्र, नः अस्माकं, योग्यानुपलब्धिरेव बाधकप्रमाणं, जागर्ति विलसति; तथा च मयैषु यदि एतत्सादृश्ययोग्या रमणी स्यात् , तदा उपलभ्येत इत्यनुपलब्धिरेव तत्र तदभावसाधिकेति भावः। नाके स्वर्गे, अथवा अधो. भुवने पाताले च, यदि अस्ति, एतत्सदृशीति शेषः, तदा तर्हि, कौतस्कुतानां कुतः कुतः स्वर्गादिलोकात् आगतानां 'तत आगतः' इत्यणप्रत्ययः, अव्ययात् टिलोपः, कस्कादित्वात् सः, लोकानां देवनागादिरूपाणां, बाधः अत्र सम्मर्दः, न स्यात् ? इति शेषः, तत्रत्या नागच्छेयुः ? इत्यर्थः, अतः अनुपलब्ध्यर्थापत्तिभ्यामस्यास्त्रिलोक्यामपि तुलाभावो निश्चित इति निष्कर्षः। अत एवोपमानलोपाल्लुप्तोपमालङ्कारः // 125 // ___ 'इस दमयन्तीकी समानताके लिये कोई स्त्री योग्य मर्त्यलोकमें है। इस विषयमें योग्य को प्राप्ति न होना ही हमलोगों को प्रमाण है। यदि स्वर्ग में अथवा पाताल में है तो कहांकहां से अर्थात् सर्वत्रसे आये हुए लोगों की भीड़ नहीं होती। [ यदि दमयन्तोके समान कोई स्त्री मृत्युलोकमें होती तो मर्त्यलोकवासी हम लोगों में से कोई भी उसे देखता और आजतक किसीने इसके समान सुन्दरी अन्य किसी स्त्री को मर्त्यलो कमें नहीं देखा है, अतएव इसके समान सुन्दरी कोई स्त्री मर्त्यलोकमें है ही नहीं। तथा स्वर्ग या पाताल में भी इसके समान सुन्दरी कोई स्त्री होती तो वहां से इस दमयन्तीको पाने के लिये इतने लोग नहीं आते, अतः यह प्रमाणित होता है कि इस दमयन्तीके समान सुन्दरी स्त्री तीनों लोकों में नहीं है ] // 125 // नमः करेभ्योऽस्तु विधेर्न वाऽस्तु स्पृष्टं धियाऽप्यस्य न किं पुनस्तैः / स्पर्शादिदं स्याल्लुलितं हि शिल्पं मनोभुवोऽनङ्गतयाऽनुरूपम् // 126 / / नम इति / विधेः स्त्रष्टः, करेभ्यः हस्तेभ्यः, नमः नमस्कारोऽस्तु, यैरिदं शिल्पमा कल्पीति भावः / 'नमःस्वस्ति' इत्यादिना चतुर्थी, वा अथवा, नास्तु, नम इति पूर्वानुषङ्गः, कुतः ? अस्य विधेः, धिया मनसाऽपि, न स्पृष्टम्, इदं शिल्पमिति शेषः, तैः करैः किं पुनः ? वाच्यमिति शेषः, न स्पृष्टमिति भावः। हि यस्मात् , स्पर्शात् करस्पर्शात् , इदम् अतिकोमलं, शिल्पं लुलितं तत्र तत्र मृदितं स्यात् , किन्तु अनङ्गतया अङ्गराहित्येन हेतुना, मनोभुवः कामस्य, अनुरूपंयुक्तम् , इदं शिल्पमिति शेषः; हस्ताद्यवयवस्पर्श विनैव निर्माणसम्भवात् त्रैलोक्यविजयिनः तस्य अनङ्गत्वेन विनिर्माणशक्तिसम्भवाच्चेति भावः / अत्र भैमीशिल्पस्य विधिकरणसम्बन्धेऽपि Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 नैषधमहाकाव्यम् / असम्बन्धोक्तरतिशयोतिस्तत्सापेक्षा चेयम् अनङ्गसृष्टित्वोस्प्रेक्षेति सङ्करः // 126 // ___ ब्रह्माके हाथोंको नमस्कार है, ( जिन्होंने इस दमयन्ती को रचा है ), अथवा नमस्कार नहीं है, ( क्योंकि ) इस [ ( ब्रह्मा ) की बुद्धिने भी इस शिल्प का स्पर्श नहीं किया है फिर हार्थोंने कहांसे स्पर्श किया ? ( ब्रह्मा ऐसे सुन्दर रूपको बनानेकी बुद्धि से भी कल्पना नहीं कर सकते तो हाथसे बनाना तो असम्भव ही है। अथ च निरवयव बुद्धि भी जिसका स्पर्श नहीं कर सकती, उसका स्पर्श सावयव हाथ कैसे कर सकते हैं ?, और स्थूलबुद्धि वैदिक ब्रह्माकी बुद्धि का ऐसी सुन्दरी बनाने का विचार करना असम्भव ही है)। क्योंकि स्पर्शसे यह शिल्प धब्बोंसे युक्त हो जाता अतः अनङ्ग होने से कामदेवके योग्य यह शिल्प है, अर्थात् अगर हित कामदेवने ही इसे बनाया है, यही कारण है कि इसमें किसी अङ्गका स्पर्श नहीं होनेसे लेशमात्र भी कहीं पर धब्बा ( कोई चिह्न ) नहीं है। इस कारण इस सुन्दर रूपको बनानेवाले कामदेवको ही नमस्कार है / दमयन्तीका शरीर सर्वत्र समान रूपसे सुन्दर है ] // इमा न मृद्वीमसृजत् कराभ्यां वेधाः कुशाध्यासनकर्कशाभ्याम् / शृङ्गारधारां मनसा न शान्ति-विश्रान्तिधन्वाध्वमहीरुहेण / / 127 // __ कुतोऽपि हेतोर्न वैधसृष्टिरियमित्याह, इमामिति / वेधाः स्रष्टा, मृवी कोमला. ङ्गीम्, इमां कुशाध्यासनेन कुशाक्रमणेन, कर्कशाभ्यां कराभ्यां नासृजत् , अयोग्य स्वादिति भावः। तथा शृङ्गारधारां शृङ्गाररसवाहिनीम् इमां, शान्तेः विषयविरतेः, विश्रान्त्ये धन्वाध्वमहीरुहो मरुमार्गवृक्षः, 'समानौ मरुधन्वानौ' इत्यमरः। तेन विविक्तेन विषयरसानभिज्ञेन, मनसाऽपि, नासृजत् इति पूर्वानुषङ्गः, स्वयमशृङ्गा. रिणः शृङ्गारिणीसृष्टयशक्तेरिति भावः / अत्र विधिकरणमनासम्बन्धाभावेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिसंसृष्टिः // 127 // ब्रह्माने इस सुकुमारी ( दमयन्ती ) को कुशधारण करनेसे कर्कश हार्थोसे नहीं रचा है और शृङ्गार-प्रवाहरूपिणी इस ( दमयन्ती ) को शान्ति (विषय-विरक्ति ) की विश्रान्तिके लिये मरुमार्गस्थ वृक्षरूप ( अत्यन्त नीरस एवं कठोर ) मनसे भी नहीं रचा है। [ कर्कश हाथोंसे सुकुमारो की तथा विषयविरक्त एवं नीरस मनसे शृङ्गार प्रवाहवाली दमयन्ती ब्रह्मा की रचना नहीं हो सकती है ] // 127 // / उल्लास्य धातुस्तुलिता करेण श्रोणौ किमेषा स्तनयोर्गुरुर्वा / तेनान्तरालैस्त्रिभिरङ्गुलीनामुदीतमध्यत्रिबलीविलासा // 128 // उल्लास्येति / एषा दमयन्ती, श्रोणी नितम्बदेशे, गुरुः गुर्वी, 'वोतो गुणवचनात्', इति विकल्पात् ङीषभावः, स्तनयोः कुचयोः, वा गुरुः ? इति संशय इति शेषः, इति. शब्दस्य गम्यमानार्थत्वादप्रयोगः, धातुः करेण उत्तानपाणिना, उल्लास्य नीवीम् अपसार्य, उदरे गृहीत्वा उन्नमय्येत्यर्थः, तुलिता समं धारितेत्युत्प्रेक्षा; तेन तुलनेन, अङ्गुलीनां चतसृणां त्रिभिः अन्तरालैः अभ्यन्तरैः, उदीतः उद्गतः, इण् गताविति Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . दशमः सर्गः। . धातोः कर्तरि क्तः, मध्ये मध्यदेशे, त्रिबलीविलासो बलिन्नयशोभा यस्याः, सा, जाता इति शेषः, अतो नूनं तुलितेत्यर्थः // 128 // यह ( दमयन्ती) नितम्ब देशमें भारी है या स्तनद्वय में भारी है, इसकी परीक्षाके लिये ब्रह्माके हाथने उठाकर तौला है क्या ?, उससे ( चार अङ्गुलियों ) के मध्यगत तीन भागोंसे उत्पन्न मध्यमें त्रिवलियों के विलासवाली यह दमयन्ती हो गयी है। ['नितम्बदेश तथा स्तनद्वयमें कौन-सा भारी है' इस परीक्षा के लिये उत्तानित हस्ततलकी चारों अङ्गुलिवों पर ब्रह्माने दमयन्तीको रखकर तौला, उन्हीं चारों अङ्गुलियों के मध्यगत तीन भागोंसे दमयन्ती की त्रिवलि बन गयी। दमयन्ती विशाल नितम्ब तथा स्तनोंवाली एवं सुम्दर त्रिवलि. वाली है ] / / 128 // * निजामृतोद्यन्नवनीतजाङ्गीमेतां क्रमोन्मीलितपीतिमानम् / कृत्वेन्दुरस्या मुखमात्मनाऽभून्निद्रालुना दुर्घटमम्बुजेन // 129 // निजेति / इन्दुः निजम् आत्मीयम् , अमृतं पीयूषं, क्षीरदध्यादिगोरसश्च, 'अमृतं थ्योग्नि देवान्मे मोक्षे हेम्नि च गोरसे' इति वैजयन्ती, तस्मात् उद्यत् उत्पद्यमानं, नवनीतं दधिसारः, 'दधिसारो नवनीतम्' इति हलायुधः, तज्जमङ्गं यस्यास्ताम्, अत एव क्रमोन्मीलित पीतिमानं नवनीतवदेव क्रमाविर्भूतपीतवर्णाम् , एतां भैमी, कृत्वा निर्माय, निद्रालुना रात्रौ निमीलनशीलेन, अथ च अलसेन, अम्बुजेन पझेन, अस्या मुखं, दुर्घटं साधु न साध्य, विविच्य इति शेषः, आत्मना अभूत् स्वयमेवाभूदित्युस्प्रेक्षा; अन्यथा दमयन्त्याः कथमीदृशी अङ्गलावण्यसम्पत्तिः चन्द्रवदनत्वञ्चेति भावः। चन्द्रमा अपने अमृत ( सुधा, अथवा-दूध-दही आदि गोरस ) से निकले हुए मक्खन से उष्पन्न अङ्गोंवाली तथा क्रमशः बढ़ते हुए पीलापन ( पक्षा० गौर वर्ण) वाली इस ( दमयन्ती ) को बनाकर ( रात्रि में ) बन्द होनेवाले कमलसे दुर्घट अपनेसे ( स्वयं ही ) मुख बन गया। [ कमल रात्रिमें बन्द हो जाता है, अतएव दमयन्तीका मुख कमलसे नहीं रचा गया है / दमयन्ती अत्यन्त गौर वर्ण वाली, अत्यन्त सुकुमारी तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली है ] // अस्याः स चारुमधुरेव कारुः श्वासं वितेने मलयानिलेन / अमूनि पुष्पैर्विदधेऽङ्गकानि चकार वाचं पिकपञ्चमेन / / 130 // अस्या इति / चारुः चतुरः, सः प्रसिद्धः, मधुर्वसन्त एव, नान्यः इति भावः, अस्याः भैम्याः, कारु: शिल्पी, यतो मलयानिलेन उपादानेन, अस्याः श्वासं निःश्वासमारुतं, वितेने चकार; पुष्पैरमूनीति हस्तनिर्देशः, अङ्गकानि विदधे वाचं पिकपञ्चमेन कोकिलस्वरेण, 'पिकः कूजति पञ्चमम्' इति वचनात् , चकार ससर्ज, इत्युत्प्रेक्षा; अन्यथा कथमेषामीहशानि सौरभमार्दवमाधुर्याणीति भावः // 130 // चतुर यह प्रसिद्ध वसन्त ही इस ( दमयन्ती ) का शिल्पी ( बनानेवाला कारीगर ) है; उसने मलयबायुसे इसके श्वासको बनाया, पुष्पोंसे इन कोमल अङ्गोंको बनाया तथा कोमलके Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 नैषधमहाकाव्यम् / पञ्चम स्वरसे बचनको बनाया। [ दमयन्तीका श्वास मलयानिलके समान सुगन्धियुक्त, अङ्ग चम्पा आदि फूलों के समान गौर वर्ण तथा कोमल और वचन कोयलके समान मधुर है // कृतिः स्मरस्यैव न धातुरेषा नास्या हि शिल्पीतरकारुजेयः / रूपस्य शिल्पे वयसा स वेधा निर्जीयते स स्मरकिङ्करेण // 13 // कृतिरिति / एषा भैमी, स्मरस्यैव कृतिः सृष्टिः, धातुः न, कृतिरिति शेषः, हि यस्मात् , अस्याः भैम्याः, शिल्पी निर्माता, इतरकारुभिः शिल्प्यन्तः जेयो जय्यः, अस्याः शिल्पिना अपराजितेन एव भवितव्यमित्यर्थः ब्रह्मा तु पराजित इत्याहरूपस्य शिल्पे रूपनिर्माण विद्यायां, स च वेधाः स्मरकिङ्करेण कन्दर्पाधीनेन वयसा यौवनेनापि, निर्धीयते, बाल्यशरीरापेक्षया यौवनशरीरस्याधिकरमणीयत्वादिति भावः; अतस्तत्स्वामिना स्मरेण असौ जित इति किमु वक्तव्यम् इति युक्त्या स्मर. कृतिरेवैषेत्युत्प्रेक्षा / स्वभावरमणीयं तद्पं यौवनमदनाभ्यां जगन्मोहनं जातम् इति तात्पर्यम् // 13 // ____ यह दमयन्ती कामदेवकी ही रचना है ( कामदेवने ही इसे रचा है ) ब्रह्माकी नहीं, क्योंकि इस ( दमयन्ती ) के कारीगरको दूसरा ( कारीगर ) नहीं जीत सकता। रूपके वनाने में तो कामदेवके किङ्कर अवस्था (युवावस्था ) ने ही ब्रह्माको सर्वथा जीत लिया है (फिर उस युवावस्थाके स्वामी कामदेवके द्वारा ब्रह्माका जीता जाना स्वतः सिद्ध है)। [ ब्रह्मा बालक रूपवाले वालककी रचना करता है और युवावस्था उस रूपको अतिरमणीय बना देता है, क्योंकि युवावस्था में बाल्यावस्थाको अपेक्षा सुन्दर रूप हो जाता है; और वह युयावस्था कामदेवके वश में रहने से किङ्की है, इसलिए यह कल्पना की जाती है कि रूपनिर्मागमें स्मरकिङ्करी युवावस्थासे पराजित ब्रह्माकी रचना यह दमयन्ती नहीं हो सकतो, किन्तु अजेय कामदेवकी ही रचना हो सकती है ] // 131 // गुरोरपीमा भणदोष्ठकण्ठ-निरुक्तिगर्वच्छिदया विनेतुः। श्रमः स्मरस्यैष भवं विहाय मुक्तिं गतानामनुतापनाय // 132 // गुरोरिति / अथ गुरोः बृहस्पतेरपि, इमां भैमी, भणत् वर्णयत्, ओष्ठकण्ठम् ओष्ठः कण्ठश्च प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः / 'न लोका-' इत्यादिना षष्टीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया, तयोः निरुक्तिगर्वच्छिदया सौन्दर्यातिशयादिवर्णनविषयेऽसाधारणवक्तत्वा. हङ्कारखण्डनेन, 'षिद्भिदादिभ्योऽङ्' इत्यङ, विनेतुः शिक्षयितुः; ताच्छील्ये तृच प्रत्ययः, स्वया निर्वक्तुम् अशक्यमस्या रूपनिर्माणमेवेति शिक्षयितुरिति भावः, स्मरस्यैष श्रम ईपनिर्माणप्रयासः, भवं संसारबन्धं, विहाय मुक्तिं गतानामनु तापनाय भैमीसद्भावेन सदानन्दमयत्वात् संसार एव मोक्षः, वयं संसारं त्यक्त्वा वृथा मुक्ताः स्म इति पश्चात्तापजननाय, भवतीत्युत्प्रेक्षा, तया किमुतान्येषामित्यर्थापत्तिय॑ज्यते / दमयन्तीसम्बन्धरहितां मुक्ति धिगिति भावः // 132 // Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। .. 623 .. इस दमयन्तीका वर्णन करते हुए, बृहस्पतिके भी दोनों ओष्ठ तथा कण्ठको पूर्णतया वर्णन करने में असमर्थ होनेसे शिक्षित करनेवाले ( पाठा०-शिक्षित करने के लिए ), कामदेवका यह परिश्रम ( दमयन्ती की रचनारूप परिश्रम ) संसारको छोड़कर मुक्ति पाये हुए लोगों के पश्चात्तापके लिये है। [दमयन्तीके रहने पर संसार में हो मोक्ष है, अत: 'संसारको छोड़कर हमलोग क्यों मुक्त हु.' इस प्रकार के पश्चात्ताप करने के लिए ही दमयन्तीको बनाने का परिश्रम कामदेवने किया है / इस दमयन्ती का पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकनेसे बृहस्पति को मा कामदेव शिक्षा देनेवाला है या शिक्षा देने के लिये कामदेवका उक्त श्रम है ] // आख्यातुमक्षिवजसर्वपीतां भैमी तदेकाङ्गनिखातदक्षु / गाथासुधाश्लेषकलाविलासैरलञ्चकाराननचन्द्रमिन्द्रः // 133 // आख्यातुमिति / अथ इन्द्रः अक्षणां व्रजेन नलरूपधार्यपि निजशक्त्या नेत्रसह. स्रण, सर्वषु अङ्गेषु, पीताम् आदरदृष्टां, भैमी तस्याः, भैम्याः, एकस्मिन्नेवाङ्गे निखाते प्रवेशिते दृशौ येषां तेषु द्विनेत्रेषु मनुष्येषु विषये, आख्यातुं तेभ्यः कथयितुं, सर्व विशेषज्ञो हि अज्ञेषु सविस्तरं कथयतीति भावः, गाथासुधायाः श्लोकामृतस्य, श्लेषकलायाः श्लेषालङ्कारविद्यायाः, विलासैः, अन्यत्र-अमृतसम्पर्केण षोडशभाग. विलासैश्च, आननमेव चन्द्रः तम् अलञ्चकार श्लिष्टार्थेन वक्ष्यमाणश्लोकेन चाकथ. यदित्यर्थः // 133 // ___ इस ( राजाओं के ऐसा ( 10 / 113-132 ) कहने ) के बाद इन्द्रने नलका रूप धारण कर (अपनी विशेष शक्तिके द्वारा) सहस्र नेत्र-समूहसे अच्छी तरह देखकर उस (दमयन्ती) के एक शरीर में गढ़ाये हुए नेत्रोंवाले ( राजाओं ) से कहने के लिए श्लोकरूपी अमृतकी श्लेषकला (अमृतके सम्बन्धसे सोलहवें भाग) के विलासोंसे अपने मुखचन्द्रको अलङकृत किया अर्थात् इन्द्र श्लेषयुक्त मधुर श्लोक बोले-[ दो नेत्र होनेसे दमयन्तीके एक किसो अङ्गको देखनेवाले लोगों की अपेक्षा नल का रूप ग्रहण कर स्वयंवर में आनेपर भी अपनी देवी शक्तिसे सहस्र नेत्रों के द्वारा दमयन्ती के सम्पूर्ण शरीरको अच्छी तरह देखकर उसके विषयमें विशेष ज्ञाता होकर उन सामान्य ज्ञाताओंके कहने के लिये श्लेषपूर्ण अमृततुल्य मधुर श्लोक बोले-इन्द्रने श्लेषालङ्कार युक्त मधुर श्लोक कहे- ] // 133 / / स्मितेन गौरी हरिणी दृशेयं वीणावती सुस्वरकण्ठभासा। हेमैव कायप्रभयाऽङ्गशेषस्तन्वी मतिं कामति मे न काऽपि / / 134 // तमेव श्लोकमाह-स्मितेनेति। इयं भैमी,स्मितेन गौरी गौरीसंज्ञा काचिद्देवाङ्गना, सिता च, 'गौरोऽरुणे सिते पीते' इति वैजयन्ती। मे मतिं क्रामतीत्युत्तरेणान्वयः; एवमत्तरत्रापि दृशा दृकशोभया, हरिणी काचिद्देवाङ्गना, कुरङ्गी च; सुस्वरकण्ठभासा समधुरकण्ठध्वनिसम्पत्या, वीणावती अप्सरोविशेषः, वीणायुक्ता च; कायप्रभया अङ्गाकान्त्या, हेम अप्सरोविशेषः सुवर्णश्च, अनेषु शेषैः अवशिष्टाङ्गः, तन्वी मेनकाऽपि Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 नैषधमहाकाव्यम् / अप्सरोविशेषोऽपि, मति कामति एतस्या अङ्गावि दृष्ट्वा मेनका अप्सरा अपि स्मय॑ते इति भावः, अथ च काऽपि तन्वी उपमानार्हा स्त्री, मे मतिं न क्रामति बुद्धिं नारोहति, अमर्यमयोचितार्थद्वयमाश्रित्यावादीदिति द्रष्टव्यम् / अत्र एकस्या भैम्या गौरीत्यादिरूपेणोल्लेखादुल्लेखालङ्कारः; 'नानाधर्मबलादेकं यदि नानेव गृह्यते। नानारूपसमुल्लेखात् स उल्लेख इति स्मृतः // ' इति लक्षणात् , स च श्लेपप्रतिभोत्थापित इति सङ्करः / एतावतैव कविनाऽपि श्लेषकलाविलासरित्युक्तम्, अस्य च ग्रहीतृभेदात् कारकभेदाच्चोत्थानादत्र स्मितानुकारकभेदादुत्थानमिति सङ्ग्रेपः॥१३४॥ यह ( दमयन्ती ) स्मितसे गौरी ( पार्वती या गौरी नामकी कोई अप्सरा, पक्षा०गौर वर्णवाली ) है, दृष्टि से हरिणी ( हरिणी नामकी अप्सरा, पक्षा०-मृगी) है, सुस्वर कण्ठकी कान्तिसे वीणावती ( वीणावती नामकी अप्सरा या सरस्वती, पक्षा-वीणावाली अर्थात् वीणाके समान मधुर कण्ठवाली ) है, शरीरकान्तिसे हेमा ( हेमा नामकी अप्सरा; पक्षा०–'हेम एव' पदच्छेदसे सुवर्ण ( ही है, शेष अङ्गोंसे तन्वी अर्थात् कृशोदरी मेनका भी मेरी बुद्धिपर आक्रमण करती है [ पक्षा०-कोई तन्वी अर्थात् कृशोदरी स्त्री मेरी बुद्धिमें नहीं आती है ) / [ किसी एक अंशसे इस दमयन्तीकी समानता उन-उन अप्सराओं में होनेपर भी इसके सर्वांश पूर्ण होनेसे कोई भी अप्सरा इसकी समानता नहीं कर सकती है] | इति स्तुवानः सविधे नलेन विलोकितः शङ्कितमानसेन / व्याकृत्य मयोचितमर्थमुक्तेराखण्डलस्तस्य नुनोद शङ्काम् // 135 / / इतीति / इति स्तुवानः गौरीप्रभृत्यप्सर:स्वरूपत्वेन भैमी वर्णयन् , आखण्डल: इन्द्रः, सविधे समीपे, शङ्कितमानसेन अमयोंचितार्थोपन्यासात् नूनमयं मदीय. रूपधारी इन्द्र एवेति शङ्कितचित्तेन, नलेन विलोकितः सन् उक्तेः स्मितेनेत्यादिना वाक्यस्य, मयोचितमर्थ गौरीत्यादिशब्दानां सितत्वादिरूपं, व्याकृत्य व्याख्याय, तस्य नलस्य, शङ्कां नुनोद // 135 / / इस प्रकार ( 10 / 134 श्लेषपूर्ण वचनसे ) प्रशंसा करते हुए, शङ्कित चित्तवाले पार्श्ववर्ती नलसे देखे गये इन्द्रने मनुष्य के योग्य अर्थको. बतलाकर ( 'गौरी' इत्यादि शब्दोंका 'गौरवर्ण' आदि मानव-सङ्गत अर्थ बतलाकर) उस (नल) के सन्देहको दूर किया। [ 'यदि इस दमयन्तीको अप्सराके रूपमे यह वर्णन करता है, अत एव अवश्य मेरा रूप धारण कर आया हुआ इन्द्र है' इस प्रकार शङ्कित चित्तवाले नलकी शङ्काको मनुष्योचित दूसरे अर्थोको कहकर दूर किया ] // 135 / / स्वं नैषधादेशमहो ! विधाय कार्यस्य हेतोरपि नानलः सन् / किं स्थानिवद्भाबमधत्त दुष्टं ताकृतव्याकरणः पुनः सः 1 // 136 / / __ अत्र कविराह-स्वमिति / स इन्द्रः कार्यस्य भैमीलाभरूपकार्यस्य, हेतोर्निमित्तं, 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' इति षष्ठी, स्वम् आत्मानं, नैषधस्त्र नलस्य, आदेशं नलात्मकादेश, Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। विधाय कृत्वा, नलो न भवतीत्यनलः, नञसमासः अनलः न भवतीति नानल:नलः एव सन् , नलरूपधारी सन्नित्यर्थः, पुनः पश्चात् , नलस्य इन्द्रशङ्कानन्तरमित्यर्थः, ताहक तथा कृतं मयोचितं कृतं, व्याकरणं रागपारवश्योक्तस्यान्यथाविवरणं येन सोऽपि सन् , स्वोक्तेरन्यथा व्याकुर्वाणः सन्नित्यर्थः, स्थानी प्रसक्तिमान् यत्रादेशो भवति स इत्यर्थः, तद्वत् इन्द्रवदित्यर्थः, किं किमर्थ, दुष्टं पापिष्ठभावं, परस्त्रीवाञ्छामित्यर्थः, अधत्त ? अहो ! महेन्द्रस्यापि दुर्व्यसनितेत्याश्चर्यम् ; इन्द्रेण नलस्वरूपधारिणा सता नलस्यादुष्टस्वभावोऽपि धर्तमुचितः, किन्तु तं विहाय परप्रतारणरूपस्वकीयदुष्टस्वभावो त इत्येवाश्चर्यमिति भावः। अन्यच्च-ताहक्कृतव्याक. रणो महेन्द्रव्याकरणकर्तापि सन , सः पण्डितः इन्द्रः, नैषधादेशं विधाय तद्रूपधा. रणेन तदादेशो भूत्वा, न अल अनल , स न भवतीति नानल पूर्ववत् समासः अलित्यर्थः, तस्य अलसम्बन्धिनः कार्यस्य हेतोः तदर्थ, दुष्टं निषिद्धं, स्थानिवद्भावं स्थानिवदादेशं, 'स्थानिवदादेशोऽनविधौ' इत्यनेनालसम्बन्धिकार्ये स्थानिवदादे. शस्य निषेधादिति भावः, किं कथम् अधत्त? इति अहो! आश्चर्यम् !! अन्यच्चताहककृतव्याकरणः, तथाकृतसंस्कारः, स इत्ययं शब्दः, स्वं स्वकीयम् , आदेशं विधायेति खण्डविश्लेषः, त्यदाद्यत्वं प्राप्येत्यर्थः, नानलः कार्यस्य हेतोः अल आश्रितहलङयादिलक्षणस्थानिकार्याथ, किम् इति दुष्टम् अल्विधाविति प्रतिषेधादनुपपन्नं, स्थानिवद्भावमधत्त ? अहो ! विरुद्धमित्यर्थः। अत्रोक्तस्य विरोधात् प्राथमिकार्थेनैक समाधानेन विरोधाभासोऽलङ्कारः, स च श्लेषप्रतिभोत्थापित इति सङ्करः, तृती. याथै, ना इति विशेष्यस्य अपि सिद्धं तत् मृग्यं तदपि वाच्यस्य विरोधाभासस्यैव साधकत्वात् वाच्यसिद्धयङ्गमित्यनुसन्धेयम् // 136 // इन्द्रने अपनेको नलका आदेश ( दमयन्तीके परिहार वचनको अन्यथा ( हृदयमें अप्सराओंसे सम्बद्ध अभिप्राय रहते हुए भी मानवोचित ) अर्थ बतलाकर, पाठा०दमयन्तीके प्रति नलको दूत बनाकर भेजना व्यर्थ होनेपर ) कार्य (दमयन्तीकी प्राप्ति ) के लिये नलमिन्न नहीं होता हुआ अर्थात् नल होता हुआ तथा वैसा ( दमयन्तीविषयक अनुरागके अधीन होकर विपरीत ) व्याख्यान करता हुआ स्थानी (जिसके स्थानपर आदेश होता है, वह स्थानी कहलाता है ) के समान दुष्ट भाव (परस्त्रीविषयक चाहना) को क्यों धारण किया हैं ? / ( पक्षा०-वैसे व्याकरण (प्रसिद्ध महेन्द्र व्याकरण) को बनानेवाला यह इन्द्र (नलके रूपको धारणकर ) नैषधादेश होकर 'अल' ('अल' नामक वर्णसमूह के प्रत्येक अक्षरका बोधक प्रत्याहार विशेष ) से अभिन्न 'अल' कार्य के लिये दुष्ट ('स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' ( पा० सू० 11:56 ) के विरुद्ध ) स्थानिवद्भावको क्यों धारण किया, ऐसा करना प्रसिद्ध व्याकरणकर्ताके लिये आश्चर्य या खेदको उत्पन्न करता है। अथवा-इन्द्रको स्वयं नलका रूप ग्रहण कर नलके स्वभाव ( परस्त्री-विषय चाहना का या कपटयुक्त अन्यथा अर्थ करनेका अभाव ) का भी ग्रहण करना उचित था, किन्तु इन्द्रने Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 नैषधमहाकाव्यम् / नलादेश होकर ( नल का रूप धारण कर ) भी अपने कहे हुए वाक्यके मनोगत वास्तविक अर्थ को छिपाकर अन्यथा अर्थ कहना इन्द्रत्वावस्थामें रहने के समान दुष्ट भावको प्रकट करता है। अथवा-ना (मनुष्य ) नल एबं विद्वान् भी उस प्रकार अन्यथा अर्थ का स्थानी (इन्द्र पद ) के समान क्यों दुष्ट भाव धारण किया ? क्योंकि इन्द्र का यज्ञ-तप आदिमें विघ्न-डालनेसे दुष्ट स्वभाव होना तो कथञ्चित् उचित हो सकता है परन्तु मनुष्य नल एवं विद्वान् होकर भी कामके लिए इन्द्र के स्वभावको नहीं छोड़ना और अपनी बातको अन्यथा समझना उचित नहीं है / अथवा-विद्वान् भी इस इन्द्रने वैसा प्रसिद्ध व्याकरणकतो होते हुए भी 'ध' आदेश ('नहो धः' पा० सू० 8 / 2 / 34 से ) करके 'अल' प्रत्याहारसम्बन्धी कार्यमें 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' (पा० सू० 111 / 56 ) से स्थानिवत् कार्यका निषेध होनेपर भी स्थानिवद्भाव नहीं किया क्या अर्थात् अवश्य ही किया। 'स्थानिवत्-' सूत्रसे, अलाश्रित कार्यमें स्थानिवद्भावका निषेध होने पर भी 'पथिममध्यभुक्षामात्' ( पा० सू० 61185 ) सूत्रसे अल करनेपर स्थानिवद्भावसे आये हुए हलत्वका आश्रयकर 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल' (पा० सू० 6 / 1 / 68) से सु लोप नहीं होता है, किन्तु उक्त महावैयाकरण इन्द्रने वहांपर मी स्थानिवद्भाव किया है, यह आश्चर्य है। अथवा-अपनेको नैषधादेश ( नलके स्थान पर ) करके कार्यके वास्ते वैसे विशिष्ट आकारवाला देवत्वको छोड़कर मनुष्य नल होते हुए इन्द्रने दुष्ट स्थानिवद्भावको क्यों धारण किया अर्थात देवभावको छोड़कर मनुष्यभाव क्यों ग्रहण किया यह आश्चर्य है ] / / इयमियमधिरथ्यं याति नेपथ्यमञ्ज विशति विशति वेदीमुर्वशी सेयमुाः / इति जनजनितैः सानन्दनादविजघ्ने नलहृदि परभैमीवर्णनाकर्णनाप्तिः // 137 // इयमियमिति / नेपथ्येन प्रसाधनेन, मञ्जः मनोज्ञा, उाः पृथिव्याः, उर्वशी भूतलोवंशी, सेयं दमयन्ती, इयम् इयमिति पुरोनिर्देशः, सम्भ्रमे द्विरुक्तिः अधिरथ्यं रथ्यायां, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः, याति रथ्यायां गच्छतीत्यर्थः। वेदी स्वयंवर. वेदिकां, विशति विशति इति एवं, जनैः दर्शकजनैः, जनितैः कृतः, सानन्दनादैः सहर्षघोषैः कत्तेभिः, नलहृदि परेषां समीपस्थजनानां, भैमीवर्णनस्य आकर्णनाप्तिः श्रवणसुखलाभः, विजघ्ने विहतः, दमयन्तीसन्दर्शनेन सम्भ्रान्तानां लोकानां कलरवेण भन्यजनकृता दमयन्तीरूपवर्णना नलेन न श्रुता इति भावः / मालिनी. वृत्तम् // 137 // यह दमयन्ती गली (स्वयंवरमण्डपके मार्ग) में जा रही है, पृथ्वीको उर्वशी यह स्वयंवरवेदीपर प्रविष्ट हो रही है ( अथवा-भूषण-मनोहारिणी तथा पृथ्वी की उर्वशी यह दमयन्ती गली में जा रही है तथा वेदीपर जा रही है। इस प्रकार मनुष्योंके कहे गये Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 627 सानन्द स्वरोंसे नलके हृदयमें उत्कृष्ट दमयन्तीके वर्णन सुनने की प्राप्ति अथवा-दूसरे अर्थात् अन्य राजा लोग (या यम, बरुण, अग्नि) के द्वारा दमयन्तीके वर्णन सुनने की प्राप्ति में बाधा हो गयी। [ दमयन्तीके देखनेसे उत्पन्न लोगों के हर्षनादसे संसम्भ्रम लोगों को देखकर नल भी स्वयं ससम्भ्रम होकर अन्यके वर्णनका सुनना बन्द कर दिया ] // 137 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तर्केष्वप्यसमश्रमस्य दशमस्तस्य व्यरंसीन्महाकाव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 138 // श्रीहर्षमिति / तर्केष्वपीति न केवलं कवितायामेवेत्यर्थः। गतमन्यत् // 138 / / कवीश्वर-समूहके........"किया, न्यायशास्त्रमें भी अनुपम अभ्यास रखनेवाले अर्थात् न्यायशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् उसके रचित सुन्दर नलके चरित्र............"यह दशम सर्ग समाप्त हुआ // 137 // यह 'मणिप्रभा' टीका में 'नैषधचरित' का दशम सर्ग समाप्त हुआ // 10 // एकादशः सर्गः तां देवतामिव मुखेन्दुलसत्प्रसादामक्ष्णारसादनिमिषेण निभालयन्तीम् / लाभाय चेतसि धृतस्य वरस्य भीमभूमीन्द्रजा तदनु राजसभां बभाज॥ तामिति / तदनु तस्मादानन्दनादोत्थानादनन्तरमित्यर्थः, अनुशब्दस्य लक्षणार्थे कर्मप्रवचनीयत्वात् तद्योगे द्वितीया। भीमभूमीन्द्रजा भैमी, मुखेन्दुषु, राज्ञामिति भावः, देवतायां मुखेन्दो च, लसन् प्रसादः प्रसन्नता, भैम्यागमनजन्यहर्ष इति यावत् , पक्षे कासितं वरय इत्यादि अनुग्रहवचनं यस्यास्तां, तस्यै वरं प्रदातुमुद्यतामिति भावः, 'प्रसादोऽनुग्रहे काव्यप्राणस्वास्थ्यप्रसत्तिषु' इति विश्वः / तथा रसात् अनुरागात् , अनिमिषेण निमेषशून्येन, अक्षणा चक्षुषा, निभालयन्तीम् ईक्षमाणां, 'दर्शनेक्षणनिध्याननिर्वर्णननिभालनम्' इति वैजयन्ती। भल निरूषणे इति धातो. चौरादिकाच्छतरि ङीप् / यद्यपि प्रायेणायं धातुरात्मनेपदी, यदाह भट्टमल्लः,-निभा. लयते ईक्षते' इति, तथापि अस्य भुवादिषु अपि पाठादुभयत्र पठितादुभयपदी इति मतमाश्रित्यायं परस्मैपदप्रयोग इति द्रष्टव्यम् पक्ष-स्वभावतो देवतानाम् अनि मिषेण चक्षुषा रसात् साधकस्य भक्त्यतिशयात् भक्तं जनं पश्यन्ती, तां राजसभां राजसमूह, 'सभा धुतसमूहयोः। गोष्ठयां सभ्येषु शालायाम्' इति हैमः / 'सभा राजाऽमनुष्यपूर्वा' इत्यत्र 'पर्यायस्यैवेष्यते' इति नियमात् सभाया अनपुंस Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 नैषधमहाकाव्यम् / कत्वम् / देवतामिव चेतसि तस्य चिन्तितस्य, वरस्य वोढुर्नलस्य, देवदेयार्थस्य च 'वरो ना रूपजामानोर्देवादेरीप्सिते वृतौ' इति वैजयन्ती। लाभाय प्राप्त्यर्थं, बभाज प्राप, सिषेवे च / अस्मिन् सर्गे वसन्ततिलकं वृत्तं, लक्षणमुक्तम् // 1 // इस ( मनुष्योंके हर्षनाद होने) के बाद भीमराजकुमारी ( दमयन्ती) राजाओं के मुखचन्द्रोंसे विलसित होती हुई प्रसन्नतावाली, प्रेमसे निमेषरहित नेत्रसे देखती हुई चित्तमें ग्रहण किये हुए पति ( नल ) की प्राप्ति के लिये देवताके समान उस सभामें पहुँची। देवता पक्ष में-......( दमयन्ती) ने अपने ( देवताके ) मुख चन्द्रसे विलसित होती हुई प्रसन्नतावाली अर्थात् प्रसन्न मुखचन्द्रवाली ( देवता होने के कारण) निमेष-रहित नेत्रसे स्नेह-पूर्वक देखती हुई देवताकी अभिलषित वरदान पाने के लिये सेवा की // 1 // तनिर्मलावयवभित्तिषु तद्विभूषारत्नेषु च प्रतिफलनिजदेहदम्भात् / दृष्टया परं न हृदयेन न केवलं तैः सर्वात्मनैव सुतनौ युवभिर्ममज्जे // ___तदिति / तैर्युवभिः सुतनौ दमयन्त्यां , दृष्टया परं दृष्टयैव, न केवलं ममज्जे न -मग्नं, भावे लिट् / हृदयेन हृदयेनैवापि, केवलं ममज्जे, किन्तु निर्मलासु अवयव. भित्तिषु गण्डस्थलादिषु, तस्या विभूषारत्नेषु च प्रतिफलतां निजानां देहानां दम्भात् तत्क्षणप्रतिफलितशरीरव्याजात् , 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छमकेतवे' इत्यमरः / सर्वात्मना एव सर्वाङ्गेनैव, ममज्जे; दृङ्मनोमज्जनं तावदास्तां किन्तु प्रतिविम्बग्याजेन सर्वाङ्गमज्जनं जातमिति सापहवोत्प्रेक्षा // 2 // युवक (राज-समूह ) सुन्दर शरीर वाली ( दमयन्ती) में केवल दृष्टिसे ही निमग्न नहीं हुए और केवल हृदयसे निमग्न नहीं हुए; किन्तु उस ( दमयन्ती के निर्मल ( अतिगौर वर्ण, कपोल आदि ) अङ्गों में तथा उसके भूषणों के रत्नों में प्रतिबिम्बित अपने शरीरके बहानेसे सम्पूर्ण शरीरसे ही निमग्न हो गये। [युवक राजा लोग उस सुन्दरी दमयन्तीमें केवल दृष्टि या हृदयमात्र से ही आसक्त नहीं हुये, किन्तु उसके निर्मल अङ्गों व भूषण जटितमणियों में प्रतिबिम्बित सम्पूर्ण शरीर के बहाने मानो सम्पूर्ण शरीर ही आसक्त हो गया। दमयन्तीको देखकर सभी युवक सर्वतोभावसे मोहित हो गये, दमयन्तीके निर्मल शरीर एवं भूषणों के मणियों में सबके शरीर प्रतिबिम्बित हो गये ] // 2 // द्यामन्तरा वसुमतीमपि गाधिजन्मा यद्यन्यमेव निरमास्यत नाकलोकम् / चारुः स यादृगभविष्यदभूद्विमानस्तादृक्तदभ्रमवलाकितुमागतानाम्।। धामिति / गाधेर्जन्म यस्य स गाधिजन्मा विश्वामित्रः, 'अवयों बहुव्रीहियधिकरणो जन्माधुत्तरपदः' इति वामनः / द्यां वसुमतीमपि अन्तरा स्वर्गभूम्योः अन्त राले, 'अन्तराऽन्तरेण युक्ते' इति द्वितीया अन्यमेव नाकलोकं स्वर्गान्तरं, निरमास्यत यदि निर्मिमीते चेत् , 'माङः क्रियातिपत्तौ लुङ' स नाकलोकः, याहक चारुः अभवि.. ज्यत् भवेत् , 'पूर्ववल्लुङ् तत् स्वयंवरसभोपरिस्थम्, अभ्रम् अन्तरिक्षं कर्त, अवलो Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः। 624 कितुं, स्वयंवरमिति शेषः, आगतानां देवानामिति शेषः, विमानैः तादृक् तथा चारु, अभूत् ; स्वयंवरसभाया ऊर्ध्वमाकाशमण्डलं देवानां विमानैः अन्तरिक्षसृष्टस्वर्गसहशं शुशुभे इति भावः। अन्नाभ्रस्यान्तराले नाकलोकासम्बन्धेऽपि सम्भावनया तत्सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिभेदः / अभूतोपमेति केचित् // 3 // गाधि-पुत्र विश्वामित्र आकाश तथा पृथ्वी के बीचमें यदि दूसरा ही स्वर्गलोक बनाते और वह जैसा सुन्दर होता, वह अन्तरिक्ष स्वयंवर सभाको देखनेके लिये आये हुए देवों के विमानोंसे वैसा सुन्दर हुआ। [ दमयन्ती के स्वयंवरको देखने के लिये देवलोग भी विमानों पर बैठकर अन्तरिक्षमें विराजमान हुए ] / पौराणिक कथा-वसिष्ठमुनिके शापसे चाण्डाल बने हुए त्रिशङ्क राजाको विश्वामित्र मुनि पूर्व विरोधके कारण यज्ञ कराकर सशरीर स्वर्ग भेजने लगे तो चाण्डाल त्रिशङ्कका स्वर्गमें पहुँचना अनुचित होनेसे देवताओंने उन्हें नीचे गिरनेको कहा, तदनुसार वे नीचे गिरने लगे तो विश्वामित्र मुनि क्रोधित हो अपने तपोबलसे स्वर्ग-मर्त्यलोकके बीच में दूसरा ही स्वर्ग लोक बनाने लगे और अन्तमें ब्रह्माके निषेध करनेपर उस कार्य को बन्द कर दिया // 3 // कुर्वद्भिरात्मभवसौरभसम्प्रदानं भूनालचक्रचलचामरमारुतौघम् / आलोकनाय दिवि सञ्चरतां सुराणां तत्रार्चनाविधिरभूदधिवासधूपैः॥४॥ ___ कुर्वद्भिरिति / भूपालचक्रस्य राजलोकस्य, चलानां चलता, चामराणां मारुतस्यौघं प्रवाहम् , आत्मभवसौरभस्य स्वजन्यगन्धस्य सम्प्रदानं सम्प्रदानपात्रं, कुर्वद्भिः स्वसौरभं तत्र सङ्क्रामयद्भिरित्यर्थः, अधिवासधूपैः वासनार्थधूपैः, आलो. कनाय स्वयंवरदर्शनाय, दिवि आकाशे, सञ्चरतां सुराणां देवायां, तत्र स्वयंवरे, अर्चनाविधिः पूजाकृत्यम्, अभूत् , राज्ञां चामरवायुभिः अधिवासधूपा आकाशव्या. पिनोऽभूवन् इति भावः / अत्राधिवासधूपस्य सुरार्चनाऽसम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्त रतिशयोक्तिभेदः // 4 // राज-समूहके चलते हुए चामरोंके वायु-समूह को स्वजन्य सुगन्धि देते हुए सुगन्धित धूपोंसे स्वयंवर को देखने के लिये आकाशमें चलते हुए देवों की पूजा हुई। [ स्वयंवर में अनेक प्रकारके धूप जलाये गये थे जिनकी सुगन्धि राजाओंकी चामरोंकी हवा को भी सुगन्धित कर रही थी, आकाश तक पहुंचे हुए उनकी सुगन्धिसे विमानों पर बैठकर स्वयंवर देखने के लिये घूमते हुऐ देवोंकी पूजा हुई। धूपसे देवताओं की पूजा करना उचित ही है ] // 4 // तत्रावनीन्द्रचयवन्दनचन्द्रलेपनेपथ्यगन्धमयगन्धवहप्रवाहम् / आलीभिरापतदनङ्गशरानुसारी संरुध्य सौरभमगाहत भृङ्गवर्गः // 5 // तत्रेति / तत्र स्वयंवरे, आलीभिः श्रेणीभिः श्रेणीसम्बन्धात् आपततः आग. Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 नैषधमहाकाव्यम् / च्छतः, अनङ्गशरान् अनुसरतीति तदनुसारी तत्सदृशः, भृङ्गवर्गः अवनीन्द्रचयस्य राजलोकस्य, चन्दनं चन्द्रः कर्पूरञ्च 'अथ कर्पूरमस्त्रियां घनसारः चन्द्रसंज्ञः' इत्यमरः / तयोलेपः, स एव नेपथ्यम् अलङ्कारः, तस्य यो गन्धस्तन्मयस्य तत्प्रचुरस्य, गन्ध. वहस्य वायोः, प्रवाहं संरुध्य मध्ये मार्गमावृत्य, अथवा-आलीभिः स्वीयश्रेणीभिः, तादृशवायुप्रवाहं संरुध्य अन्यत्र कुत्रचित् गन्तुमदत्त्वा इत्यर्थः, सौरभम् आमोदम् , अगाहत विलोडितवान् उपभुक्तवान् वा। सौगन्ध्यलोभात् भ्रमराः श्रेणीभूताः सन्तः सभायां विचरन्ति स्म इति भावः // 5 // ___ उस स्वयंवर में राज-समूहके चन्दनाधिक कर्पूर के लेप ( अङ्गराग ) रूप भूषणसे गिरते ( या आते हुए ) कामबाणके सदृश भ्रमर समूह ने भोग किया / ( अथवा-पतियों में अर्थात् पतिबद्ध होकर गिरते हुए....")। [ अन्य भी कोई व्यक्ति बहते हुए किसी पदार्थ को वस्त्रादिसे रोककर उसका उपभोग करता है। पंक्तिबद्ध भ्रमर-समूह की अधिक लम्बाई तथा कामोद्दीपक होनेसे कामबाण की उत्प्रेक्षा की गयी है। सुगन्धिकी अधिकतासे सर्वत्र भ्रमर-समूह उड़ रहे थे। ] // 5 // उत्तुङ्गमङ्गलमृदङ्गनिनादभङ्गीसर्वानुवादविधिबोधितसाधुमेधाः / सौधनजःप्लुतपताकतयाऽभिनिन्युर्मन्ये जनेषु निजताण्डवपण्डितत्वम्॥ __उत्तङ्गेति / उत्तङ्गाः अतिताराः, ये मङ्गलमृदङ्गनिनादाः माङ्गलिकविवाहमुरजध्वनयः, तद्भङ्गीनां तत्प्रकारविशेषाणां, सर्वानुवादविधिना प्रतिध्वनिरूपेण कृत्स्नप्रत्युशारणेन, बोधिता निवेदिता, साध्वी उत्कृष्टा, मेधा धारणाशक्तिः यासां ताः तथोक्ताः 'धीर्धारणावती मेधा' इत्यमरः, परोक्तसर्वविशेषानुवादस्य मेधाकार्यत्वात् तस्याः तल्लिङ्गत्वमिति भावः; सौधस्रजः प्रासादपङक्तयः, प्लुतपताकतया चलन्पताकतया, चलत्कररूपपताकयेति भावः, जनेषु सभास्थितेषु विषये, समीपे वा, निजताण्डव. पण्डितत्वं स्वस्य नृत्यकौशलं, 'ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यञ्च नर्त्तने' इत्यमरः; अभिनिन्युः व्यञ्जयन्ति स्म, मन्ये वाक्यार्थः कर्म / मृदङ्ग प्रतिध्वानात् पताका. चलनाच्च नर्तकीवत् वाक्यानुवादं हस्ताभिनयं चऋरिवोत्प्रेक्षा, सौधपङक्तिषुः नर्तकीव्यवहारसमारोपात् समासोक्तिः अलङ्कारश्च // 6 // ऊँचे मङ्गलमय मृदङ्गके स्वरों की भङ्गो के सम्पूर्ण अनुवाद करने ( प्रतिध्वनित होने के कारण ज्यों का त्यों कहने ) से श्रेष्ठ बुद्धिका प्रदर्शन किये हुए महलों के समूहोंने चञ्चल ध्वजाओंसे लोगों के सामने अपने नृत्य के पाण्डित्य अर्थात् नृत्यकला चातुर्यको दिखलाया। [विवाहार्थ मङ्गलमय मृदङ्ग बज रहे थे उनका उच्च स्वर महलों में प्रतिध्वनित हो रहा था तथा ऊपर में पताकाएं वायुसे हिल रही थी तो ऐसा मालूम पड़ता था कि ये महल मृदङ्ग के स्वरोंको अनुवाद करते ( दुहराते ) हुए अपनी नृत्यकला का चातुर्य लोगों को दिखला Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 631 एकादशः सर्गः। रहे हैं। अन्य भी कोई चतुर नर्तकी मृदङ्ग आदि बाजाओं के स्वरोंको ज्यों के त्यों अनुवाद करती अर्थात् गाती हुई हाथ आदि अङ्गों को हिलाकर अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन बनताके समक्ष करती है / तथा दूसरा कोई बुद्धिमान् शिष्य भी गुरुके वचनों का सम्पूर्णतया अनुवाद (दुहरा) कर हाथ आदिके द्वारा सङ्केत करता हुआ अपनी तीव्र बुद्धिका परिचय लोगोंको देता है ] // 6 // सम्भाषणं भगवती सदृशं विधाय वाग्देवता विनयबन्धुरकन्धरायाः। ऊचे चतुर्दशजगजनतानमस्या तत्राश्रिता सदसि दक्षिणपक्षमस्याः॥७॥ सम्भाषणमिति / चतुर्दशानां जगतां समाहारश्चतुर्दशजगत्, तत्र जनतायाः जनसमूहानां, नमस्या नमस्कार्या, 'नमोवरिव-' इति क्यचि धातुसंज्ञायामचो यत्, 'क्यस्य विभाषा' इति क्यचो लोपः भगवती वाग्देवता सरस्वती, तत्र सदसि, विन. येन बन्धुरकन्धरायाः नम्रग्रीवायाः, 'बन्धुरी नम्रविषमौ' इति वैजयन्ती, अस्याः भैम्याः, दक्षिणपतं दक्षिणपार्श्वम् , अथ च अनूकूलपक्षम् , आश्रिता आस्थिता, पूज्यत्वाइक्षिणपार्श्वस्थिता सतीत्यर्थः, सडशं तत्कालोचितं, सम्भाषणं विधाय 'आग. च्छ वस्से ! पश्य' इत्यादि वाक्यमुक्त्वा, ऊचे वच्यमाणमुवाच / दक्षिणपक्षमित्य. नेन दमयन्तीपक्षपातित्वं सूचितम् // 7 // उस स्वयंवर में भगवती (षड्गुण' ऐश्वर्यादिवाली) तथा चौदह भुवनों की जनताके द्वारा पूजा ( या नमस्कार ) के योग्य सरस्वती विनयसे नम्र कन्धरावाली इस ( दमयन्ती) के दक्षिण पक्षका आश्रयकर अर्थात् पूज्य होनेसे दहने पार्वमें खड़ी होकर ( अथवाअनुकूल पक्षको लेकर ) उचित ( उस समयके योग्य ) भाषा कर के बोली-॥ 7 // अभ्यागमन्मखभुजामिह कोटिरेषा येषां पृथक्कथनमब्दशतातिपाति / अस्यां वृणीष्व मनसा परिभाव्य कश्चिदयं चित्तवृत्तिरनुधावति तावकीना। अभ्येति / हे वस्से ! इह स्वयंवरे, मखभुजां देवानाम् , एषा कोरिः अनन्तस. वया, अभ्यागमत् अभ्यागता, येषां मखभुजां, पृथक् प्रत्येकमेव, कथनं वर्णनम्, अब्दानां वत्सराणां, शतानि अतिपतति अतिक्रामतीति तथोक्तं, तावता कालेनापि कत्त' न शक्यते इत्यर्थः, अस्यां सुरकोट्यां, यं कश्चित् सुरं, तवेयं तावकीना स्वदीया, 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यो खञ्च' इति खम् / 'तवकममकावेकवचने' इति तवकादेशः, चित्तवृत्तिः अनुधावति अनुयाति, मनसा परिभाव्य आलोच्य, तं वृणीष्व स्वीकुरु इत्यर्थः // 8 // यहां ( स्वयंवरमें ) ये करोड़ों देव आये हुए हैं, जिनका अलग-अलग वर्णन करनेमें 1. 'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इति स्मृतः // 1 // इति कथिताः षड भगा यस्याः सा 'भगवती'। 400 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632 नैषधमहाकाव्यम् / सैकड़ो वर्ष बोत जायेंगे ( तब भी यथावत् वर्णन नहीं हो सकेगा, अत एव इनका अलगअलग वर्णन करना ठीक नहीं)। मनसे विचारकर इनमें किसीको स्वीकार करो, जिसपर तुम्हारा चित्तवृत्ति दौड़े अर्थात् जिसे तुम्हारा चित्त पसन्द करे। [ 'तुम्हारी चित्तवृत्ति दौड़े, उसे मनसे विचारकर स्वीकार करो' ऐसा दमयन्तीसे कहकर सरस्वती देवीने देवोंके वरण करने में अपनी असम्मति प्रकट की अर्थात् 'इनका वरण करना ठीक नहीं' यह सङ्केत किया ] // 8 // एषां त्वदीक्षणरसादनिमेषतैषास्वाभानिकानिमिषतामिलिता यथाऽभूत्। आस्ये तथैव तव नन्वधरोपभोगैः मुग्धे! विधावमृतपानमपि द्विधाऽस्तु॥ एषामिति / एषां सुराणां, त्वदीक्षणे रसात् अनुरागात् , एषा प्रत्यक्षपरिदृश्यमाना, अनिमेषता निमेषराहित्यं, यथा स्वाभाविक्या 'स्त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पुंवद्भावः / न निमिषतीत्यनिमिषा 'इगुपधलक्षणः कः' तेषां भावस्तत्ता अनिमिषता निनिमेषता, तया मिलिता सङ्गता सती, द्विधा द्विगुणिता, अभूत् , तथैव ननु अयि, मुग्धे! सुन्दरि ! विधौ चन्द्रे ,अमृतपानमपि तव आस्ये आस्यचन्द्रे, अधरोपभोगैः अधरामृतपानः, मिलितं सत् द्विधाऽस्तु द्विगुणितमस्त्वित्यर्थः; स्वभावतो निमेष. रहिता देवा यथा स्वदर्शनकार्येण निमेषशून्या जाता, तथा चन्द्रामृतपायिनोऽपि स्वदधरामृतपायिनो भवन्तु इति भावः। अनानिमिषत्वामृतपानयोद्वैविध्यासम्ब. न्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिः // 9 // हे सुन्दरि ! इन ( देवों ) का तुम्हारे देखने के प्रेमसे यह निमेषाभाव जिस प्रकार स्वाभाविक निमेषाभावसे मिलकर पुनरुक्त हुआ है, उसी प्रकार चन्द्रमामें अमृतपान करना भो तुम्हारे मुख में अधर के उपमोग (अधरामृत पान करने) से पुनरुक्त हवे [ देव स्वभावतः निमेष-रहित होते हुए भी फिर तुम्हारे देखने के प्रेमसे जैसे फिर अनि मेष हो गये, वैसे ही चन्द्रमें अमृतपान करनेवाले ये तुम्हारे मुख में फिर अधरामृत पान करें ] // एषां गिरेः सकलरत्नफलस्तरुः सःप्रागदग्धभूमिसुरभेः खलु पञ्चशाखः। मुक्ताफलंफलनसान्वयनाम तन्वान्नाभाति बिन्दुभिरिव च्छरितः पयोभिः॥ एषामिति / सकलानि रत्नान्येव फलानि यस्य स सर्वरत्नप्रसूतिरित्यर्थः, फलनं सस्यस्वेन सम्पादनं, 'फलं निष्पत्तौ' इति धातोयुट , तेन सान्वयम् अन्वर्थ, नाम यस्य तन्मुक्ताफलं तन्वन् मुक्ताफलं तादृशं कुर्वन् , मुक्तानां शुक्तयादिसम्भू. तत्वेन तासां फलत्वं न उपपन्नं, किन्तु कल्पवृक्षप्रसूतत्वेनैव फलत्वमुपपन्नमिति मुक्ताफलस्य नाम सार्थकमेव कुर्वन्निति भावः, एषां सुराणां सम्बन्धी, स प्रसिद्धः, तरुः कल्पवृक्षः, प्राक पुरा, दुग्धा भूमिरेव सुरभिः गौः, गोरूपधरा भूमिः ओषधि. रत्नादीनि दुग्धा इत्यर्थः, येन तस्य; तदुक्तं,-'प्रमाणं श्रूयते दुग्धा पुनर्दिव्यैर्वसु. 1. 'पयोब्धेः' इति वा पाठः। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 633 न्धरा / ओषधीश्चैव भास्वन्ति रत्नानि विविधानि च ॥वत्सस्तु हिमवानासीद् दोग्धा मेरुमहागिरिः // इति; गिरेमरोः सम्बन्धी, पयोभिः क्षीररूपैः, बिन्दुभिः छुरितः सर्वतो व्याप्तः, पञ्चशाखः पाणिरिव, आभाति खलु इत्युस्प्रेक्षा। 'पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः, अथ च पञ्च शाखाः वृक्षावयवविशेषाः यस्य सः शाखापञ्चकविशिष्टः पाणिना विना गोदोहनस्य असम्भवात् कल्पवृक्षः सुमेरोः कर आसीत् , दोग्धुः पाणिः दुग्धबिन्दुभिर्दिग्धो भवतीति प्रसिद्धः, अत्र रत्नानामेव दुग्धत्वात् कल्पवृक्षस्य च रत्नादिसम्पर्कात् सुतरां मेरोः कर एव कल्पवृक्षः इत्यर्थः; सुरवरणेन कल्पवृक्षः तथा मेरुस्ते हस्तगामी भविष्यतीति भावः // 10 // समस्त रत्नरूपी फलवाला अर्थात् समस्त रत्न देनेवाला, फलनेसे सार्थक नामवाले मुक्ताफल ( मोती) को विस्तृत करता हुआ अर्थात् मोतियोंसे व्याप्त, इन ( देवों ) का वह (सुप्रसिद्ध ) वृक्ष ( कल्पवृक्ष ) पहले गोरूपधारिणी पृथ्वीको दुहनेवाले सुमेरु पर्वतके दुग्धरूप ( पाठा-समुद्रके ) विन्दुओं से व्याप्त हाथ ( पक्षा०-पांच शाखाभोंसे युक्त) के समान शोभता है। [ गोदोहनके लिये तत्पर सुमेरु पर्वतका हाथ कल्पवृक्ष हुआ हाथमें भी पांच अङ्गुलियां होती हैं और कल्पवृक्ष पांव शाखाओंवाला माना गया है, गोदोहन करनेपर हाथमें दुग्धकी बूंदोंका छोटा पड़ना उचित है, उन्हीं की कल्पवृक्षों फले (लगे) हुए मुक्ताफल से उत्प्रेक्षा की गयी है। गोपाल का सहचर बतलाकर इन दोन. में भी सरस्वती देवीने वरण करनेकी अयोग्यता सूचित की है। 'पृथु राजासे आदिष्ट गोरूप धारिणी पृथ्वीसे मेरु पर्वतने रत्नों तथा ओषधियोंको दुहा था' ऐसा शास्त्रीय वचन है] // 10 // वक्त्रेन्दुसन्निधिनिमीलिदलारविन्दद्वन्द्वभ्रमक्षममथाञ्जलिमात्ममौली / कृत्वाऽपराधभयचञ्चलमीक्षमाणा साऽन्यत्र गन्तुममरैः कृपयाऽन्वमानि।। वक्त्रेन्द्विति / अथ सरस्वतीवाक्यानन्तरं, वक्त्रेन्द्रोः सनिधिना सन्निधानेन, निमीलीनि सङ्घचन्ति, दलानि पत्राणि ययोस्तयोः अरविन्दयोर्द्वन्द्वस्य युग्मस्य, भ्रमक्षमभ्रान्तिजननशक्ति, सङ्कुचद्दलपमयुगलतुल्यमित्यर्थः, अञ्जलिम् आत्ममौलौ स्वमूनि कृत्वा देवान् नमस्कृत्येत्यर्थः, अपराधात् अवरणाद्धेतोः, यद्भयं सुरेभ्यः शापादि. भयं, तेन चञ्चलं यथा तथा ईक्षमाणा देवान् पश्यन्ती, सा भैमी, अमरैः कृपया अन्यत्र गन्तुम् अन्वमानि अनुमता, दमयन्तीं स्वजातिमनुष्येषु अनुरागिणीं ज्ञात्वा यत्र ते अनुरागस्तं वृणु, मा भैषीरिति कृपयाऽनुमतेत्यर्थः; प्रणिपातप्रसाद्याः खलु महान्त इति भावः / अत्राञ्जली वक्त्रेन्दुसन्निधिसङ्कुचितारविन्दयुगलभ्रान्तिवर्णनात् रूपकानुप्राणितो भ्रान्तिमदलङ्कारः इति सङ्करः। 'कविसम्मतसादृश्याद् वस्स्वन्तर. प्रतिबिम्बनं भ्रान्तिमान्' इति लक्षणात् // 11 // इस ( सरस्वती देवीके ऐसा ( 1138-10 ) कहने ) के बाद मुखचन्द्र के समीपमें 1. 'निमील' इति पाठान्तरम् / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 नैषधमहाकाव्यम् / बन्द होनेवाले ( पाठा-होते हुए ) दलों वाले दो कमलों के भ्रमको उत्पन्न करनेवाली अञ्जलिको अपने मस्तकपर करके अर्थात् मस्तकपर अञ्जलि रखकर अपराध करनेके भयसे चञ्चलतापूर्वक देखती हुई दमयन्तीको देवोंने कृपाकर अन्यत्र जानेकी अनुमति दे दी। [अन्य भी कोई दयालु व्यक्ति हाथ जोड़कर मस्तकपर रखने तथा समय देखने पर उसकी इच्छानुसार कार्य करनेकी अनुमति दे देता है, अतः दयालु देवोंका वैसा करना उनके अनुरूप हो हुआ। मुखरूपी चन्द्र के समीप हस्तरूपी कमलदलका बन्द होना उचित ही है। दमयन्ती उन देवोंको छोड़कर आगे बढ़ी ] // 11 // तत्तद्विरागमुदितं शिविकाऽधरस्थाःसाक्षाद्विदुः स्म न मनागपि यानधुर्याः। आसन्ननायकविषण्णमुखानुमेयभैमीविरक्तचरितानुमया' नु जशुः / 12 / / तत्तदिति / शिविकायाः यानविशेषस्य, अधरस्था अधःस्थिताः, यानस्य धुर्याः धूर्वहाः, शिविकावाहिनः इत्यर्थः, शिवभागवतवत् समासः 'धुरो यडढको' इति यत्-प्रत्ययः उदितम् उत्पन्न, तत्तत् विरागं तस्याः भैम्यास्तेषु तेषु नायकेषु विषये विरागम् अपरागं, मनाक ईषदपि, साक्षात् प्रत्यक्षं, न विदुःन विन्दन्ति स्म 'विदो लटो वा' इति लिट 'झेर्जुस्' इति जुसादेशः, 'लट स्मे' इति भूते लद किन्तु आसमानां पुरोवर्तिनां, नायकानां विषण्णैः ग्लानियुक्तः, मुखैरनुमेयानां भैम्या विरक्तचरिताना प्रत्याख्यानसूचकनमस्कारादिरूपचेष्टितानाम्, अनुमया अनुमानेन, 'आतश्वोपसर्गे' इत्यङ, नु एव, जजुः अज्ञासिषुः, तत्तद्विरागमिति शेषः, नायकमुख. चेष्टया भैमीवैराग्यमनुमितवन्त इत्यर्थः // 12 // पालकी के नीचे रहनेवाले ( ढोनेवाले ) कहार उन-उन देवों के बिषयमें उत्पन्न हुई (दमयन्तीकी) विरक्तिको बिलकुल नहीं जाने ( दमयन्तीके पालकीमें ऊपर बैठनेसे तथा कहारों के नीचे रहनेसे दमयन्ती को नहीं देख सकने के कारण उसके भावको नहीं जानना उचित ही हैं ), किन्तु समीपस्थ नायकों (देवों) के उदासीन मुखके द्वारा अनुमान करने योग्य दमयन्तीके स्नेहाभावके आचरणों ( नमस्कार आदि ) से अनुमान करनेवाले के (पालकी ढोनेवाले कहार ) निश्चय ही जान गये ( पाठा०-बाद में आगे बड़े)। [पार्श्वस्थ देवों के मलिन मुखसे दमयन्तीके स्नेहाभावका अनुमान कर वे देव 'आगे चलो' ऐसी आज्ञा नहीं पानेपर भी आगे बढ़ गये, इससे उनकी चतुरता सूचित होती है ] // 12 // रक्षास्वरक्षणमवेक्ष्य निजं निवृत्तो विद्याधरेष्वधरतां वपुषैव भैम्याः / गन्धर्वसंसदिन गन्धमपि स्वरस्य तस्या विमृश्य विमुखोऽजनि यानिवर्गः। रक्षःस्विति / यानं वाहनमस्तीति यानिनः शिविकावाहिनः, तेषां वर्गः समूहः, रतःसु राक्षसेषु, निजं स्वकीयम्, अरक्षणं विनाशनम्, अवेक्ष्य विविच्य; तेषां हिंना १.-मया तु जग्मुः' '-ऽनुजग्मुः' इति वा पाठान्तरम् / Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 635 स्वात् तेषु गमनमनुचितं निश्चित्येत्यर्थः, निवृत्तः तेभ्यः पराङ्मुखोऽभूत् , राक्षसानां समीपगमने ते यदि अस्मान् भक्षयेयुः इति भयेन तेषां समीपेऽपि न जग्मुः इति भावः / विद्याधरेषु देवयोनिभेदेषु, भैम्याः भैमीतः; 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी, वपुषा एव अधरतां निकृष्टत्वं, विमृश्य निश्चित्य, तथा गन्धर्वाणां संसदि संघ, तस्याः भैम्याः स्वरस्य गन्धमपि लेशमपि, न विमृश्य लेशस्याप्यभाव ज्ञात्वा इत्यर्थः, नार्थेन नशब्देन सुप्सुपेति समासः, 'गन्धो लेशे महीगुणे' इति वैजयन्ती, विमु. खोऽजनि पराङ्मुखो जातः। जनेः कर्तरि लुङ्, 'दीपजन-' इत्यादिना कर्तरि चिणादेशः // 13 // पालकी ढोनेवाले कहारोंका समुदाय ( शिविकावाहक लोग ) राक्षसों में अपनी स्क्षाका अभाव देखकर ही लौट गया ('ये राक्षस हमें खा जायेंगे' इस भयसे वहां नहीं गया), बिद्याधरों ( अश्वमुख एवं नरशरीर वाले तथा नरशरीर एवं अश्वमुखवाले ) में दमयन्तीके शरीरकी अपेक्षा नीचता (कम सौन्दर्य ) को और गन्धर्ब-समहमें उस ( दमयन्ती) के [राक्षस, विद्याधर तथा गन्धर्वो के अयोग्य होनेसे वहां दमयन्तीके शिविकावाहक नहीं गये ] // दीनेषु सत्स्वपि कृताफल वित्तर:र्यक्षैरदर्शि न मुखं प्रपयैव तस्याम् / ते जानते स्म सुरशाखिपतिव्रता किं तां कल्पवीरुधमधिक्षिति नावतीर्णाम् / / ___दीनेविति / दीनेषु दरिद्रेषु, सत्सु विद्यमानेषु अपि, कृता अफला निष्फला, वित्तरक्षा धनगुप्तिः यैस्तैः कृपणैः, यक्षः पयैव तस्यां भैम्यां विषये, मुखं न अदर्शि न दर्शितं, शेय॑न्तात् कर्मणि लुङ्, तथा हि, ते यक्षा, तां दमयन्तीम्, अधिक्षिति हिती विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः, अवतीर्णाम् उत्पन्नां, सुरशाखिपतिव्रतां सुरशाखिना पत्युः कल्पवृक्षस्येव, व्रतम् इच्छापूरकत्वलक्षणं यस्यास्ताम् , अथ-च कल्पवृक्षस्व. रूपक-नलपत्नी, कल्पवीरुधं कल्पलतां, न जानते स्म किम् ? बहुदात्री तां ज्ञातवन्त एव; ततः तेषां निधिगोषकानाम् अतिवदान्यायास्तस्याः कुतो वरणवार्ताऽपीति भावः। अस्या वदान्यतया तेषां युक्ता लज्जेति कारणात् कार्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरः न्यासः॥१४॥ ___ दोनजनोंके रहनेपर भी व्यर्थमें धनको बचाये हुए यक्षोंने लज्जासे दमयन्तीके पास ( पाठा०-दमयन्तीसे लज्जा होनेसे ) मुख ही नहीं दिखलाया, क्योंकि वे ( यक्ष ) उस ( दमयन्ती ) को पृथ्वीमें अवतार ली हुई अर्थात् पृथ्वी में उत्पन्न कल्पवृक्षकी पत्नी कल्पलता नही जानते थे क्या ? अर्थात् अवश्य जानते थे। देववृक्ष कल्पतरु स्वर्ग में रहता है, किन्तु अभिलषित फल देनेवाली यह दमयन्ती उस कल्पतरु की पतिव्रता पत्नी की तरह हैं, इस अत्यन्त दानशीला दमयन्तीके सामने धनकी व्यर्थ रक्षा करनेवाले यक्षोंको लज्जा आयी 1. भैम्यां, मैम्याः, इति पाठान्तरे / Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 नैषधमहाकाव्यम् / मत एक वे स्वयंवरमें नहीं आये। अन्य भी कोई कृपण व्यक्ति दानीके सामने आनेमें लज्जित होता है ] // 14 // जन्या'स्ततः फलभृतामधिपं सुरौघान्माञ्जिष्ठमञ्जिमविगा हिपदौष्ठलक्ष्मीम् तां मानसं निखिलवारिझरान्नवीना हंसावलीमिव घना गमयाम्बभूवुः॥ ___जन्या इति / ततोऽनन्तरं, जनीं वधूं वहन्तीति जन्याः वधूभृत्याः, 'जन्या भृत्या नवोढाया' इति केशवः / 'संज्ञायां जन्या' इति यत्-प्रत्ययान्तो निपातः, मञ्जिष्ठया रागद्रव्यविशेषेण रक्तं माञ्जिष्ठं 'तेन रक्तम्' इत्यण , तस्य मञ्जिमानं रामणीयक, विगाहते इति तद्विगाहिनी तादृशरक्तवर्णेत्यर्थः, पदौष्ठस्य पदयोरोष्ठयोश्च, लक्ष्मीः शोभा यस्यास्ताम्, विशेषणमेतत् हंसावल्यामपि योज्यम्, 'ओस्वोष्ठयोः समासे वा' इति पररूपं वक्तव्यम्, तां भैमी, नवीनाः घनाः मेघाः, हंसावली हंसश्रेणी, निखिलात वारिझरात् जलप्रवाहात् , मानसं मानसाख्यं सर इव, सुरौघात् सुरौघं विहाय, इति ल्यब्लोपे पञ्चमी, 'जलधरसमये मानसं यान्ति हंसाः' इति कविसमयप्रसिद्धिः; फणभृतामधिपं वासुकिं, गमयाग्बभूवुः निन्युः // 15 // इसके बाद वधू ( दमयन्ती ) के भृत्य (या वाहक, पाठा०-यानवाहक ) मजीठके रङ्ग के समान सुन्दरतायुक्त पैरों और ओठोंकी शोभावाली उस दमयन्तीको देव-समूहसे हटाकर सर्पराज ( वासुकि ) के पास उस प्रकार ले गये, जिस प्रकार नये मेघ हंसपंक्तिको समस्त जलप्रवाहसे हटाकर मानसरोवर ले जाते हैं ] // 15 // यस्या विभोरखिलवाङ्मयविस्वरोऽयमाख्यायते परिणतिर्मुनिभिः पुनःस उद्गत्वरामृतकरार्द्धपरार्द्धयभालां बालामभाषत सभासततप्रगल्भा // 16 // ___ यस्या इति / अयम् अखिलवाङ्मयविस्तरः शब्दप्रपञ्चः, मुनिभिासादिभिः, विभोः महाशक्तः, यस्याः देव्याः सरस्वत्याः, परिणतिः रूपान्तरम् , आख्यायते, सभासु सतत प्रगल्भा सा देवी सरस्वती, उद्वरस्य उदित्वरस्य, उदीयमानस्य इत्यर्थः, 'गत्वरश्च' इति गमेः करबन्तो निपातः, अमृतकरस्य इन्दोः, अर्द्धमिव परा. र्यमुस्कृष्टं, भालं ललाटं यस्यास्तां, बाला भैमी, पुनः अभाषत उक्तवती // 16 // ___मुनि लोग इस समस्त शब्दप्रपञ्चको महाशक्तिवाली जिस (सरस्वती देवी) का पणिाम अथेन रूपान्तर कहते हैं, समामें निरन्तर प्रगल्भ वह ( सरस्वती) देवी उदय लेते हुए अर्द्धचन्द्र के समान श्रेष्ठ ललाटवाली बाला ( दययन्ती ) से बोली-॥ 16 // आश्लेषलग्नगिरिजाकुचकुंकुमेन यः पट्टसूत्रपरिरम्भणशोणशोभः / यज्ञोपवीतपदवीं भजते स शम्भोः सेवासु वासुकिरयं प्रसितः सितश्रीः॥ __आश्लेषेति / यो वासुकिः, आश्लेषात् आलिङ्गनात् , लग्नेन सक्तेन, गिरिजाया: पार्वत्याः, कुचयोः कुङ्कुमेन पट्टसूत्रस्य परिरम्भणात् परिवेष्टनादिव, शोणशोभः अरुण 1. 'यान्याः ' १,-'मवगाहि-' इति पाठान्तरम् / Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 637 कान्तिः सन्, शम्भोर्यज्ञोपवीतस्य पदवीं पदं,भजते; यज्ञोपवीतञ्च शुभं प्रन्थिस्थाने पदृसत्रेण रक्तवर्ण भवतीति प्रसिद्धिः सेवासु शम्भोः परिचर्यासु, प्रसितस्तत्परः, 'तत्परे प्रसितासको' इत्यमरः, सितश्रीःशुभ्रकान्तिः, स वासुकिरयमिति पुरोवर्तिनिर्देश वासुकेः सततं शम्भुसेवातत्परतया सम्भोगाद्यसम्भवाषवरणीय इति भावः। __ आलिङ्गनस संसक्त ( लग हुए ) पावेताके स्तनकुङ्कुमस ५दृसूत्रस वाटतके समान लाल वर्ग की कान्तिवाला जो शङ्करजीके यशोपवीतके स्थानको प्राप्त किया है अर्थात् यशोपवीतसा बना हुआ है, शङ्कर जीकी सेवामें तत्पर (पाठा०-प्रसिद्ध ) एवं श्वेत वर्णवी कान्तिवाला वही यह वासुकि है। [यज्ञोपवीत भी श्वेत होता है तथा उसके ग्रन्थि-स्थानमें रक्त पट्टसूत्रसे लालवर्णकी कान्तिवाला होता है। चतुर्वर्णत्वके अधिकारको लेकर देवोंमें भी ब्रहा. शिव, विष्णु तथा अश्विनीकुमार को क्रमशः 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होना' पुराण में वर्णित है, मजीठसे रंगा हुआ या वैसे वर्णका यज्ञोपवीत क्षत्रियके लिये धारण करने का शास्त्रीय विधान होनेसे क्षत्रिय वर्ण ज्ञकर जीका वासुकिको रक्त यज्ञोपवीत रूपमें पहनना उचित ही है / 'सर्वदा शङ्करजी की सेवामें तत्पर रहनेसे यह सम्भोगके योग्य नहीं है। ऐसा सरस्वती देवीने दमयन्तीसे सङ्केत किया ] // 17 // पाणी फणी भजति कङ्कणभूयमैशे सोऽयं मनोहरमणीरमणीयमूर्तिः। कोटीरबन्धनधनुर्गुणयोगपट्टव्यापारपारगममुं भज भूतभत्तुः // 18 // पाणाविति / मनोहरैः मणीभिः रमणीयमूर्तिः सोऽयं फणी वासुकिः, ऐशे ईश. सम्बन्धिनि, पाणौ करे, कङ्कणभूयं कङ्कणत्वं, 'भुवो भावे' इति क्यप, भजति प्राप्नोति; भूतभत्तः महादेवस्य, कोटीरबन्धनं कपर्दबन्धनं, जटाजूटग्रन्थिबन्धनमिति यावत् , धनुषो गुणो मौर्वी,योगपट्टश्व तेषां व्यापारस्य भवनलक्षणस्य, पारगं पारीणं, तत्तत्कार्य कुशलमिति भावः, अमुं वासुकिं, भज वृणीष्व; ताविशेषणे. नास्य वरणायोग्यत्वं सूचितम् / अत्रैकस्य वासुके अनेकेषु कोटीरादिषु क्रमेण वृत्तेः पर्यायभेदः / अथानुभावविशेषाद् योगपद्यसम्भवे तु समुच्चयः // 18 // ___मनोहर मणिया ( नागमणियों ) से रमणीय मूर्तिवाला प्रसिद्ध यह सर्प शङ्करजीके हाथमें कङ्कणभावको प्राप्त करता है अर्थात् कङ्कण बनता है (पाठा०—विशाल यह फणी ( वासुकि नामक सर्प) मनोहर मणियोंसे रमणीय कङ्कणभावको प्राप्त करता है। अथवामनोहर मणियों वाला, बिशाल एवं वह ( प्रसिद्ध ) यह फणी शङ्करजीके हाथमें रमणीय")। शङ्करजीके जटाजूट ( जटासमूह ) बांधने, धनुषकी डोरी तथा योगपट्टके कार्यको पूरा करनेवाले उस ( वासुकि ) को सेवन (वरण ) करो। [ जटाजूटका बन्धनादि व्यापारोपयुक्त वासुकिको बतलाकर सरस्वतीदेवीने वरणके अयोग्य होने का संकेत किया है ] // 18 // धृत्वैकया रसनयाऽमृतमीश्वरेन्दोरप्यन्यया त्वदधरस्य रसं द्विजिह्वः / आस्वादयन् युगपदेष परं विशेषं निर्णेतुमेतदुभयस्य यदि क्षमः स्यात् / / Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 638 नैषधमहाकाव्यम् / - स्वेति / द्विजिह्वो रसनाद्वयवान्, एष परम् एष वासुकिः एव, एकया रसनया जिह्वया, ईश्वरेन्दोः हरशिरश्चन्द्रस्य, अमृतम्, अन्यया रसनया, स्वदधरस्यापि रसम् अमृतं, धृत्वा युगपदास्वादयन् एतदुभयस्य एतस्य रसदयस्य, विशेषमन्तरं, निर्णेतुं यदि क्षमः समर्थः, स्यात् , नान्यः कश्चित् क्षमः इत्यर्थः / इन्द्वमृतादेतदधरा. मृतमेव ज्याय इति भावः // 19 // ___एक जिह्वासे शङ्करजीके चन्द्रमाके अमृतको तथा दूसरी जिह्वासे तुम्हारे अधर के रसको ग्रहणकर सम्यक् प्रकारसे एक साथ ही स्वाद लेता हुआ इन दोनों की उकृष्ट विशेषताका निर्णय करने के लिये यदि समर्थ हो सकता है तो यह वासुकि ही समर्थ हो सकता है / [राजाओं का चन्द्रामृत-पान करना असम्भव है, तथा देवोंका चन्द्रामृत पान करना सम्मव होनेपर भी दो जिह्वा नहीं होनेके कारण एक साथ चन्द्रामृत तथा तुम्हारे अधरका पान करना असम्भव है, किन्तु यह वासुकि दो जिह्वा होनेसे शिवमस्तकस्थ चन्द्र तथा तुम्हारे अधरके अमृतका एक साथ पान कर दोनों के तारतम्य (श्रेष्ठाश्रेष्ठत्व ) के निर्णय करने में यही समर्थ हो सकता है, अन्य राजा या देवता आदि नहीं // 19 // आशीविषेण रदनच्छददंशदानमेतेन ते पुनरनर्थतया न गण्यम् / बाधां विधातुमधरे हि न तावकीने पीयूषलारघटिते घटतेऽस्य शक्तिः॥ ___ आशीविषेणेति / आशीषि दंष्ट्रायां विषमस्येत्याशीविषः विषधरः, पृषोदरादि. स्वात् साधुः, 'स्त्री त्वाशीहिताशंसाऽहिदंष्ट्रयोः' इत्यमरः, तादृशेन, एतेन वासुकिना ते पुनः तव तु, रदनच्छदस्य अधरस्य, दंशदानं दंशनकरणम्, अनर्थतया न गण्यम् अपमृत्यवाद्यनिष्टहेतुत्वेन न मन्तव्यं, चुम्बने विषसञ्चारसम्भावनया एतद्वरणं न त्याज्यमिति भावः; कुतः? हि यस्मात् , पीयूषसारेण घटिते निर्मिते, तावकीने स्वदीये, अधरे बाधां दंशेन पीडां, विधातुम् अस्य दंशनस्य वासुकेर्वा, शक्तिन घटते न सम्भवति, अमृतघटितस्य कुतो विषभयमिति भावः // 20 // __ आशीविष ( तालुगत दांतमें विषवाले) इस ( वासुकि ) से अधरच्छेदन ( रतिकालमें अधरामृत पान करते समय काटना) को अनर्थकारक (मृत्युकारण ) मत मानों ( अर्थात् महाविषयुक्त यह वासुकि मेरे अधर में दंशन करेगा तो मेरो मृत्यु हो जायेगी ऐसी सम्भावना मत करो), क्योंकि अमृतके सारसे युक्त तुम्हारे अधर में बाधा पहुंचाने के लिये इस (वासुकि) की शक्ति नहीं चल सकती। [ अमृतमें विषका प्रभाव नहीं पड़नेसे वैसे अनर्थकी शङ्का मत करो] // 20 // तद्विस्फुरत्फणविलोकनभूतभीतेः कम्पञ्च वीक्ष्य पुलकञ्च ततोऽनु तस्याः। सातसात्विकविकारधियः स्वभृत्यान् नृत्यान्यषेधदुरगाधिपतिर्विलक्षः।। तदिति / ततोऽनु वाणीवाक्यानन्तरं, तस्य वासुकेः, विस्फुरतां स्फारयता, फणानां विलोकनेन भूतभीतेः सञ्जातसाध्वसायाः, तस्याः दमयन्त्याः, कम्पं वेपथु Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 631 पुलकञ्च वीक्ष्य सजाता सात्त्विकविकारधीः शृङ्गारसात्त्विकभ्रमबुद्धिः येषां तान् , स्वभृत्यान् विलक्षो भैमीभावज्ञानलजितः, उरगाधिपतिः वासुकिः, नृत्यात् आनन्द नर्तनात , न्यषेधत् न्यवारयत् , स्वस्वामिवैलच्यात् भैमीवैराग्यप्रतीतेस्ते खिमा इत्यर्थः। अत्र भृत्यानां भैमीभयसात्विकेषु शृङ्गारसारिखकभ्रान्त्याभ्रान्तिमदलकारः। 'स्तम्भप्रलयरोमाञ्चा:स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू। अश्रुवस्वर्यमित्यष्टौ सात्विकाःपरिकीर्तिताः इस ( सरस्वती देवीके ऐसा (11 / 17-20) कहने के बाद उस ( वासुकि) के स्फुरित फणाओंको देखनेसे डरी हुई उस ( दमयन्ती ) के कम्पन तथा बादमें रोमाञ्चको देखकर ( दमयन्ती में वासुकिके प्रति स्नेह-सूचक) सात्त्विक विकारको समझनेवाले ( अत एव हर्षसे ) नृत्य करते हुए अपने भृत्योंको लज्जित वासुकिने मना किया / [दमयन्ती वासुकिके स्फुरित होते हुए फणाओंको देख डरकर कम्पिता हो गयी और बाद में तत्काल ही रोमाञ्चित भी हो गयी, ये दोनों कार्य भयजन्य थे, किन्तु वासुकिके भृत्योने समझा कि हमारे स्वामी में अनुरक्त होनेसे दमयन्तीको काम तथा रोमाञ्च नामक सात्त्विक भाव हो गये हैं, अत एव यह मेरे स्वामीको अवश्य वरण करेगी, और ऐसा समझकर वे हर्षित हो नाचने लगे, यह देख दमयन्ती की विरक्ति को ठीक-ठीक समझने तथा अपने भृत्यों के उक्त कार्यसे लज्जित वासुकिने उन्हें झट मना कर दिया ] // 21 // तहशिभिःस्ववरणे फणिभिनिराशैःनिःश्वस्य तत् किमपि सृष्टमनात्मनीनम्। यत्तान् प्रयातुमनसोऽपि विमानवाहा हा हा ! प्रतीपपवनाशकुनान्न जग्मुः।। / तदिति / तद्दर्शिभिः वासुकिवृत्तान्तसाक्षात्कारिभिः, अत एव स्ववरणे निराशैः कैमुत्यपराहतैरित्यर्थः, फणिभिः अन्यैः कर्कोटकादिनागैः, निःश्वस्य निःश्वासं कृत्वा, तत् निःश्वसितरूपं, किमपि अवाच्यम् , आत्मने हितम् आत्मनीनम् 'आत्मविश्व महाननर्थहेतुराचरित इत्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मानिःश्वासकारणात् , तान् फणिनः प्रति, प्रयातुमनसः गन्तुकामा अपि, विमानं वहन्तीति विमानवाहाः दमयन्तीशिविकावाहिनः, कर्मण्यण , प्रतीपपवनः प्रतिकूलवायुः एव, यत् अशकुनम् अयात्रिकचिह्न तस्मात् हेतोः, न जग्मुः दूरत एव तान् परिजह्वरित्यर्थः, अत एव हा हेति खेदे // 22 // उसे ( स्वामी वासुकिके प्रति दमयन्ती के स्नेहाभावको ) देखनेवाले ( अत एव ) अपने को वरण करने में निराश ( हमारे स्वामी को ही जब दमयन्तीने वरण नहीं किया तो हमें क्यों करेगी' इस विचार से निराश ) सर्पो ( कर्कोटक आदि दूसरे सौ) ने (दुःखके कारण) लम्बा श्वास लेकर ( फुफकार छोड़कर ) कुछ अपने लिये अहितकारक कार्य किया, क्योंकि उधर ( उन साँकी ओर ) जानेके इच्छुक भी शिविकावाहक प्रतिकूल वायुरूप अशकुन होनेसे बहुत खेद है कि नहीं गये / ( संभव था कि यदि उन कर्कोटकादि सपौकी ओर Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 नैषधमहाकाव्यम् / शिविकावाहक दमयन्ती को ले जाते तो कदाचित् वह उनमें से किसीको वरण कर लेती, किन्तु विषमय उनके उष्ण श्वास वायुको अशकुनसूचक वायु मानकर शिविकावाहक नहीं गये यह तो उन सर्पोके रही-सही अपनी आशापर भी पानी फेर कर अपने हाथों ही अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी अर्थात् अपना हो अहित किया। प्रतिकूल वायुको अशकुन सूचक शास्त्रकारों ने माना है // 22 // हीसङ्कुचत्फणगणादुरगप्रधानात् ता राजसङ्घमनयन्त विमानवाहाः / सन्ध्यानमहलकुलात्कमला विनीयकहारमिन्दुकिरणाइव हासभासम्।। हीति / विमानवाहाः शिविकावाहिनः, तां दमयन्ती, ह्रिया लज्जया, सङ्कुचन् फणगणो यस्य तस्मात् उरगप्रधानात् उरगराजात् वासुके, विनीय अपनीय, इन्दु. किरणाः हासभासं विकासलदमी, सन्ध्यायां नमबलकुलात् सङ्कुचत्पत्रचयात् , कमलात् पनात् , विनीय अपनीय कलारं सौगन्धिकमिव, राजसङ्घ नृपसमूहम , अनयन्त प्रापयन् / डिपवादात्मनेपदं 'नीवह्योहरतेश्च' इति वचनाद् द्विकर्मकत्वम् / उपमालङ्कारः // 23 // शिविकावाहक लज्जासे सङ्कुचित होते हुए फणा-समूहवाले सर्पराज (वासुकि) से हटाकर उस ( दमयन्ती ) को उस प्रकार गज-समूहमें ले गये, जिसप्रकार चन्द्रकिरण सन्ध्याकालसे बन्द होते हुए पंखड़ियोंवाले कमलसे विकसित होती हुई दीप्तिको हटाकर कलार (रक्तकमल-रात्रि में विकसित होनेवाली सौगन्धिक ) के पास ले जाते हैं // 23 // देव्याऽभ्यधायि भव भीरु ! धृतावधाना भूमीभुज ! स्त्यजत' भीमभुवो निरीक्षाम् / आलोकितामपि पुनः पिबतां दृशैता मिच्छाऽपगच्छति न वत्सरकोटिभिर्वः // 24 // देव्येति / देव्या वाग्देव्या सरस्वत्या, अभ्यधायि अभिहितम् ; किम् ? तदाहहे भीरु ! भयशीले ! भीरुशब्दात् 'उडुतः' इत्यूप्रत्यये सम्बुद्धौ नदीह्रस्वः, धृतमवधानं यया सा भव अवहिता शृण्वित्यर्थः / हे भूमीभुजः! भूपाः! यूयञ्च भीमभुवः भैम्याः निरीक्षाम् ईक्षणं, 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियाम् अ-प्रत्ययः, त्यजत मा कुरुत; कुतः ? युष्मासु पश्यत्सु दमयन्ती ह्रीपारवश्यात् युष्मान् प्रति दर्शनं न दास्यति, अतो नैनां विलोकयत इति भावः; आलोकिताम् ईक्षितां, दृष्टामपीत्यर्थः एतां पुनः ईशा पिबताम् आस्थया पश्यतां, वो युष्माकं, वत्सरकोटिभिः अनन्ताब्देरपि इच्छा दर्शनेच्छा, न अपगच्छति, अतो मद्वाक्यमवहिताः शृणुतेत्यर्थः // 24 // देवी ( सरस्वती देवी) ने ( क्रमशः दमयन्ती तथा राजाओंको सावधान करते हुए.) कहा-हे भीरु ! ( वासुकिके देखनेसे या भय के स्त्रीसहज होनेसे डरने वाली दमयन्ती ) 1. 'भजत' इति पाठान्तरम् / Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। सावधान हो जाव, (तथा ) हे राजालोग ! भीमकुमारी ( दमयन्ती) का देखना छोड़ो (पाठा०-देखो / क्यों कि ) देखी गयी भी दमयन्तीको फिर देखते हुए तुम लोगोंकी इच्छा करोड़ों वर्षों तक भी पूरी नहीं होगी। [ 'त्यजत' पाठमें-परम सुन्दरी दमयन्नीको बारबार करोड़ों वर्षों तक देखते रहनेपर देखनेकी इच्छा बनी ही रहेगी। अतएव यदि इसे. बराबर तुगलोग देखते ही रहोगे तो सम्भव है कि लज्जाशीला दमयन्ती तुम लोगों को अच्छी तरह नहीं देख सकनेके कारण वरण भी न करे, तथा पहले इसे देख ही लिया है अतः अब इसे देखने का अवसर दो, जिससे यह तुम लोगोंको देखकर वरण कर सके। 'भजत' पाठमें-परमसुन्दरी....."बनी ही रहेगी, इसलिये इच्छानुसार देखो देखते रहनेपर भी बिरसता नहीं आनेवाली है ] // 24 // लोकेशकेशवशिवानपि यश्चकार शृङ्गारसान्तरभृशान्तरशान्तभावान् / पञ्चेन्द्रियाणि जगतामिषुपञ्चकेन सशोभयन् वितनुतां वितनुर्मुदं वः / / ___ लोकेशेति।योऽनङ्गः, लोकेशकेशवशिवान् ब्रह्मविष्णुमहेशानपि, शृङ्गारेण शृङ्गार. रसेन, सान्तरः सावकाशः, विरल इत्यर्थः, भृशो गाढः, आन्तरः आभ्यन्तरः, शान्तभावः शान्तरसो येषां तान् रागजर्जरितवैराग्यान्, चकार; पञ्चानां सङ्घः पञ्चकं, 'सङ्ख्यायाः संज्ञासङ्घसूत्राध्ययनेषु' इति कन्प्रत्ययः, इषूणां पञ्चकेन जगतां पञ्चेन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, सङ्कोभयन् व्याकुलयन् , स वितनुः अनङ्गः, वो युष्माकं, मुदं वितनुतां विस्तारयतु; विश्वविजयिनो भगवतः कामदेवस्य प्रसादः कस्य न श्लाध्यः ? इति भावः // 25 // संसार ( संसारियों ) के पञ्चेन्द्रियोंको पाँच बाणोंसे अत्यन्त क्षभित करते हुऐ जिसने ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशके भी अत्यन्त दृढ़ आन्तरिक विरक्तिको शृङ्गार रससे शिथिल कर दिया, वह कामदेव आपलोगों के हर्षको बढ़ावे / ( अथवा-जिसने ब्रह्मा, शिथिल कर दिया, संसार करता हुआ वह कामदेव आपलोगों के हर्षको बढ़ावे ) / [ सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय करनेवाले ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश भी जिसके वशवी हो गये, उसके लिये आप लोगोंको वशीभूत करने में कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, अतएव आप लोग दमयन्तीको देखना छोड़ दीजिये जिससे यह निःसङ्कोच आपलोगोंको देखकर वरण कर सके, पूर्व श्लोकके 'भजत' पाठमें-अत एव आपलोग इस दमयन्तीको इच्छापूर्वक देखते रहिये // 25 // पुष्पेषुणा ध्रुवममूनिषुवर्षजप्तहुङ्कारमन्त्रबलभम्मितशान्तिशक्तीन् / शृङ्गारसर्गरसिकद्वयणुकोदरि ! त्वं द्वीपाधिपान् नयनयोनय गोचरत्वम् / / पुष्पेषुणेति / रसोऽस्यास्तीति रसिकम् , 'अत इनिठनौ' इति ठन्प्रत्ययः, द्वावण कारणत्वेनास्यास्तीति घणुकम् अणुद्वयारब्धद्रव्यं, शैषिकः क-प्रत्ययः, द्वयणुकादिः प्रक्रमेण कार्यद्रव्यारम्भ इति तार्किकाः; शृङ्गारस्य सर्गे निर्माणे, रसिकं प्रवृत्तं, यत् Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642 नैषधमहाकाव्यम् / इयणुकं तद्वदेवोदरं यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः; शृङ्गारभावोद्दीपका अतिकृशोदरीति भावः, त्वं पुष्पेषुणा ध्रुवं सत्यम् , इषुवर्षे बाणमोक्षकाले, जप्तः उच्चारितः, यो हुकारः कोपप्रयुक्तः, स एव मन्त्रस्तस्य बलेन सामर्थ्येन, भस्मिता भस्मीकृता, 'तत् करोति-'इति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, शान्ति शक्तिः इन्द्रियविग्रहसामथ्वं येषां तान् , अमून् द्वीपाधिपान् पुष्करादिद्वीपपालकान् राज्ञः, नयनयोर्गोचरत्वं दृष्टि विषयस्वं, नय पश्येत्यर्थः // 26 // हे शृङ्गाररचनामें अतिशय प्रवृत्त द्वयणुकके समान ( या द्वयणुक रूप ) अर्थात् अत्यन्त 'पतले उदर ( कटि ) वाली ( दमयन्ती )! कामदेवके द्वारा बाणवृष्टि करने में जपा गया ( पाठा-जपरूप ) हुङ्कार रूप मन्त्र-बलसे नष्ट हुई इन्द्रिय-निग्रहादि शक्तिवाले अर्थात् हुङ्कार करते हुए कामदेवके बाणवर्षा करनेसे बढ़ी हुई इन्द्रिय-शक्तिवाले ( कामवशीभूत ) इन सातों द्वीपोंके राजाओंको नेत्रोंका विषय करो अर्थात् देखो / [जैसे 'हुँ, फट' आदि मन्त्रका जप करता हुआ कोई व्यक्ति प्रतिपक्षीकी शक्तिको नष्ट कर देता है, उसी 'प्रकार कामदेवने हुङ्कारका उच्चारण करते हुए बाणोंकी वर्षाकर इनकी जितेन्द्रियत्व रूप शक्तिको नष्ट कर कामवशीभूत कर दिया है। बाण छोड़ते समय 'हुम्' शब्दका उच्चारण करना अनुभवगम्य विषय है ] // 26 // स्वादूदके जलनिधौ सवनेन सार्द्ध भव्या भवन्तु तव वारिविहारलीलाः / द्वीपस्य तं पतिममुं भज पुष्करस्य निस्तन्द्रपुष्करतिरस्करणक्षमाक्षि!॥ स्वाद्विति / हे निस्तन्द्रपुष्करतिरस्करणक्षमाति ! उन्निद्रपद्मविजयसमर्थनेत्रे / कमलायताक्षीत्यर्थः, पुष्करस्य पुष्कराख्यस्थ द्वीपस्य, पतिं सवनम्, अमुं भज वृणीष्व, ततः स्वादूदके जलनिधी मधुरोदकसमुडे, सवनेन सवनाख्येन राज्ञा, साद्ध तव भव्याः मनोहराः, वारिविहारलीलाः जलक्रीडाविनोदाः, भवन्तु सन्तु // ह विकसित कमल के तिरस्कार में समर्थ नेत्रवाली ( कमलविजयी नेत्रोंवाली दमयन्ती)! स्वादिष्ट जलवाले समुद्रमें 'सवन' नामक इस राजाके साथ तुम्हारी जलविहारकी क्रीड़ाएँ सुन्दर हों, उस 'पुष्कर' द्वीपके पति इस ( 'सवन' राजा ) को वरण करो। [ यह 'पुष्कर' द्वीपका राजा है इसका 'सवन' नाम है, इसको वरणकर उस द्वीपके स्वादु जलवाले समुद्रमें इस राजाके साथ सुखद जलक्रीडा करो] // 27 // सावर्तभावभवदद्भुतनाभिकूपे ! स्वभौममेतदुपवर्त्तनमात्मनैव / स्वाराज्यमर्जयसिन श्रियमेतदीयामेतद्गृहे परिगृहाण शचीविलासम्॥ सावतैति / रोग्णाम् अम्भसाच भ्रमः आवतः, आवर्तेन सह वर्तमानः सावतः तस्य भावः तेन सावर्तभावेन सावर्त्तत्वेन, भवत् प्रादूर्भूतम् , अद्भुतम् आश्चर्य यस्मात् स चित्रीयमाणः, नाभिरेव कूपो यस्याः सा तस्याः सम्बुद्धिः सावतत्यादि कूपे सावर्त्तत्वं चित्रमिति भावः, एतस्य राज्ञः सवनस्य, उपवर्त्तनं देशः, 'देशविषयौ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 643 तूपवर्त्तनम्' इत्यमरः, आरमनैव स्वयमेव, भौमं भूमिभवं, स्वःस्वर्गः, अतः एतदीयां श्रियं स्वाराज्यं स्वर्गराज्य, 'रोरि' इति रेफलोपे'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोsगः' इति दीर्घः, बार्जयसि ? इति काकु, अर्जयस्येवेत्यर्थः, एतद्गृहे शचीविलासं शचीसौभाग्यं गृहाण स्वीकुरु / एतद्भरेव स्वर्गः, एतद्राज्यमेव स्वाराज्यम, अयमेवेन्द्रः, त्वमेवे-- न्द्राणी भवेति रूपकालङ्कारः // 28 // __ हे आवर्त ( नाभिकी नीचेवाली रोमावलीका दक्षिण भागमें 'घुमाव, पाठा०-जलका चकोह ) के सहित होनेसे आश्चर्यकारक नाभिरूप कूपवाली (गम्भीर नाभिवाली दमयन्ती) इस राजाका देश साक्षात् भूमिष्ठ ( भूमिपर स्थित ) स्वर्ग है, इस ( राजा या देश) की स्वर्ग-राज्य रूप लक्ष्मीको नहीं प्राप्त करती हो ? अर्थात् प्राप्त करो / इसके घर में इन्द्राणीके विलासको ग्रहण करो। [ कूपमें जलके चकोहका होना आश्चर्यजनक होनेसे 'अद्भुत' पदकी चरितार्थता है / इस राजाका देश भूस्वर्ग, सम्पत्ति स्वर्गराज्य, यह राजा इन्द्र है, और तुम इसे वरण कर इन्द्राणी बनो] // 28 // देवः स्वयं वसति तत्र किल स्वयम्भूर्यग्रोधमण्डलतले हिमशीतले यः। स त्वां विलोक्य निजशिल्पमनन्यकल्पं सर्वेषु कारुषु करोतु करेण दर्पम्।। देव इति / तत्र पुष्करद्वीपे, हिमवच्छीतले न्यग्रोधः वटवृक्षः, 'न्यग्रोधो बहुपा. इटः' इत्यमरः, तस्य मण्डले मण्डलाकारे तले अधस्तले, स्वयम्भूः यः देवः ब्रह्मा, स्वयं साक्षात् , वसति किल खलु, स देवः ईषदसमाप्तमन्यदन्यकल्पम् अन्यसदृशं; तन्न भवतीत्यनन्यकल्पम् अनन्यसाधारणम्, 'ईषदसमाप्तौ कल्पप' प्रत्ययः, निज. शिल्पं स्वनिर्माणं, स्वां विलोक्य स्वल्लक्षणं निजशिल्पकायं दृष्ट्वेत्यर्थः, सर्वेषु कारुषु. शिल्पिषु मध्ये, करेण करप्रदर्शनेन, द करोतु गर्व करोतु, मदन्यशिल्पकतरेवं रूपनिर्माणदतो हस्तो नास्तीति स्वहस्तं प्रदर्श्य गर्व करिष्यतीत्यर्थः, स्रष्टः कीतिकरं ते रूपनिर्माणशिल्पमिति भावः // 29 // ___ वहां ( 'पुष्कर' द्वीपमें ) बर्फके समान शीतल ववृक्षके नीचे साक्षात् 'ब्रह्मदेव' रहते हैं; वे अनन्य साधारण अपनी कारीगरीरूप तुम्हें देखकर हाथसे अन्य शिल्पियों (कारीगरों) में अमिमान करें। [ मैंने अपने हाथसे इस दमयन्तीको सुन्दरी बनाकर जैसी उत्तम कारीगरीको दिखलायी, वैसी कारीगरी आजतक किसी दूसरे कारीगरने नहीं दिखलायी, ऐसा अपने हाथकी कारीगरीके विषय में अभिमान करें] // 29 // न्यग्रोधनादिव दिवः पतदातपादेर्यग्रोधमात्मभरधारमिवावरोहैः / तं तस्य पाकिफलनीलदलद्युतिभ्यां द्वीपस्य पश्य शिस्निपत्रजमातपत्रम्।। ___ न्यग्रोधनादिति / दिवः अन्तरिक्षात् , पततः आपततः, आतपादेः, आदिशब्दात् वर्षादेश्व, न्यक निम्नीभूय, अधः स्थित्वा इत्यर्थः, रोधनानिवारणादिव, न्यग्रोधं न्यग्रोधशब्दवाच्यम्, इति पचायच, उत्प्रेक्षेयम्, उत्तरार्द्धवच्यमाणातपत्रत्वोस्प्रेक्षोप.. Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 नैषधमहाकाव्यम् / योगिनी; तथा अवरोहन्तीत्यवरोहाः शाखाभ्यः अधोलम्बिन्यःशिफाः,शाखामूलानी. त्यर्थः, 'शाखाशिफाऽवरोहः स्यात्' इत्यमरः, तैः, अवरोहरूपैरवष्टम्भरित्यर्थः, आत्मनः स्वस्थ, भरं धरतीति आत्मभरधारः, तमिव भूमिस्पृष्टेरवरोहरूपैरवलम्बनैः आत्मा. नमवष्टभ्य इव स्थितमित्युत्प्रेक्षा, धरतेः कर्मण्यणप्रत्ययः, किञ्च पाकः एषामस्तीति 'पाकिनां पक्कानां, फलानां नीलदलानां नीलपलाशानाच, यतिभ्यां रक्तश्यामकान्ति. भ्यां निमित्तेन, तस्य द्वीपस्य पुष्करद्वीपस्य सम्बन्धि, शिखिपत्र मयूरपिच्छोद्भवम्, आतपत्रं तद्वत् स्थितम्, इति निमित्तगुणजातिस्वरूपोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्म्या, अस्याश्व प्रथमोस्प्रेक्षयाऽङ्गाङ्गिभावेन सजातीयसकरः, द्वितीयया सजातीयसंसृष्टिः -तं प्रसिद्धं न्यग्रोधवृत्तं, पश्य; एतद्राजवरणादेवंविधोऽद्भुतदर्शनोत्सवलाभो भविव्यतीति भावः // 30 // ___ आकाशसे गिरते ( नीचे आते ) हुए धूप आदि ( वर्षा आदि ) के नीचे स्थित होकर रोकने से ( या नीचे आनेसे रोकनेसे अर्थात् धूप-वर्षा आदिको नीचे नहीं आने देनेसे) 'न्यग्रोध' अर्थात् वटवृक्ष, वरोहों ( वटवृक्षकी ऊपरवाली शाखाओंसे नीचेकी ओर लटककर भूमि तक पहुँची हुई स्तम्माकार डालियों ) से अपने भारको धारण करनेवाला है, उस * ('पुष्कर') द्वीपके, पके हुए फलों तथा नीले ( अत्यन्त श्याम वर्ण) पत्ते की शोभासे मोरके पलोंसे बने छत्ररूप उस ( वटवृक्ष ) को देखो। वह वृक्ष ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो उसने ऊपर से नीचे तक लटकी हुई बरोहोंसे अपने भारको अपने ऊपर स्वयं सम्भाल रक्खा हो, तथा पके हुए फलों एवं अत्यन्त श्यामवर्ण पत्तोंसे मयूर के पंखों का बनाया गया छाता हो और वह वटवृक्ष इतना सघन है कि उसके नीचे धूप या वर्षा आदि नहीं आती अत एव उसका 'न्यग्रोध' ('न्यक् रुणद्धि' अर्थात् नीचे आनेसे धूप आदिको रोकनेवाला, अथवा नीचे स्थित होकर धूप आदिको रोकनेवाला ) नाम सार्थक है अर्थात् वह वटवृक्ष बहुत सधन शीतल छाया वाला है, ऐसे विचित्र उस वटवृक्षको इस राजाकी पत्नो बनकर देखो ] // 30 // न श्वेततां? चरतु वा भुवनेषु राजहंसस्य न प्रियतमा कथमस्य कोर्तिः। चित्रन्तु तद्विशदिमाऽद्वयमादिशन्ती क्षीरञ्च नाम्बु च मिथः पृथगातनोति॥ नेति / राजहंसस्य नृपश्रेष्ठस्य, अस्य सवनस्य, प्रियतमा इष्टतमा, कीर्तिः, अन्यत्र-राजहंसस्य कलहंसस्य, 'राजहंसो नृपश्रेष्ठे कादम्बकलहंसयोः' इति विश्वः, कीर्तिः शुभ्रत्वात् कीर्तिरूपिणी, प्रियतमा तत्कान्ता वरटा, कथं न श्वेतताम् / कथं न धवलीभवतु ? अपि तु श्वेतैव भवतु, 'विता वर्णे' इति द्युतादौ पठ्यते, तस्मालोट भुवनेषु लोकेषु सलिलेषु च, 'भुवनं सलिलं लोकः' इति विश्वः, कथं वा न चरतु ? तु किन्तु, विशदिमाऽदयं धावल्याद्वैतम्, आदिशन्ती जनयन्ती, कीर्तिरिति शेषः, स्वप्रभयेति भावः, क्षीरच अम्बु च मिथोऽन्योऽन्यं पृथग्विभक्तं, नातनोति न करोति, इति Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 645 यत्तचित्रम् !! हंसानां क्षीरनीरविवेकस्य जातिधर्मत्वेऽपि तद्विवेकामावो विरुद्ध इति भावः / स चाविवेकः कीर्तेर्धावल्येन तव्रत्यजलानामपि क्षीरसदृशशुस्वात् धावश्यगुणतो न स्वरूपत इति विरोधसमाधानाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः, तथा विशदिमाs. द्वयमादिशन्तीत्यनेन सामान्यालङ्कारः, 'सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्वन्तरकता' इति तस्य विशेषणगत्या क्षीरनीराविवेकहेतुत्वात् पदार्थहेतुकं कायलिज, पूर्वार्द्ध च श्वैत्यभुवनचारित्वराजहंसप्रियतमात्वाख्याश्लिष्टौ श्लिष्टप्रस्तुतकीर्तिविशेषणसाम्यादप्रस्तुतराजहंसप्रतीतेः श्लेषसङ्कीर्णाऽर्थसमासोक्तिरित्यतैस्त्रिभिः सहालाकि भावेन पूर्वोत्तस्य विरोधाभासस्य सङ्करः // 3 // इस राजहंस ( राजश्रष्ठ 'सवन' ) की अत्यन्त अभीष्ट कीर्ति श्वेतताको क्यों नहीं प्राप्त होवे अर्थात् श्वेत क्यों नहीं होवे और संसारों में क्यों नहीं जावे ? अर्थात् श्वेत मी होवे तथा संसारों में भी जावे (अथवा "कीर्ति श्वेत क्यों नहीं होवे और संसारोंमें क्यों नहीं जावे ?) पक्षा-इस राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ मरालकी प्रियतमा हंसी श्वेतता..... और भुवनों (जल ) में क्यों नहीं घूमे,......) किन्तु विशदिमा (श्वेतता=सपेदीके अद्वैतको करती हुई अर्थात् श्वेत बनाती हुई दूध तथा पानीको परस्परमें जो अलग नहीं करती है, यह आश्चर्य है / [ राजहंसप्रिया हंसीका श्वेत होना तथा भुवन (जल) में घूमना एवं राजश्रष्ठ इस 'सवन' की अभीष्टतम कीर्तिका श्वेत होना एवं भुवनों (समस्त लोको ) में घूमना तो समान है; किन्तु एकमें मिले हुए श्वेत दूध-पानीको अलग कर देती है और इस राजश्रेष्ठ 'सवन' की कीर्ति दोनोंको श्वेत बनाती हुई दूध-पानीको अलग नहीं करती यह आश्चर्य है ] // 31 // शूरेऽपि सूरिपरिषत्प्रथमार्चितेऽपिशृङ्गारभङ्गिमधुरेऽपि कलाकरेऽपि / तस्मिन्नवद्यमियमाप तदेव नाम यत् कोमलं न किल तस्य नलेति नाम।। शूरे इति / इयं दमयन्ती, शूरे वीरेऽपि, सूरिपरिषत्सु विद्वत्सभासु, प्रथमार्चिते अग्रपूज्येऽपि, शृङ्गारभङ्गिमधुरे शृङ्गारविलासकान्तेऽपि, कलाकरे सकलविद्यानिधानेऽपि, तस्मिन् सवनाख्ये राज्ञि, कोमलं कर्णामृतं, किल प्रसिद्धं, नलेति नामधेयं, तस्य सवनस्य, न नास्ति, इति यत् , तदेव नलनामराहित्यमेव, अवधं दूषणम्, आप नाम जग्राह खल्वित्यर्थः; अनलत्वातिरिक्तमरुचिकारणं कशिदपि नाभूदिति भावः / नलानुरागात् हि एवं गुणवन्तमपि तं नृपतिं न वरणयोग्यत्वेन स्वीकृतवती इति निष्कर्षः // 32 // इस ( दमयन्ती) ने शूर भी, विद्वानों की समामें सर्वप्रथम आवृत भी, शृङ्गार-रचनासे मनोहर भी और कलाकार (गीतादि 64 कलाओं के विद्वान् ) भी उस ('सवन नामक राजा) में एक वही दोष पाया कि उनका मधुर 'नल' नाम नहीं था। [शूरता, शृङ्गारप्रियता तथा कलापाण्डित्य गुणोंके रहनेपर भी 'नल' नहीं होनेसे दमयन्तीने उस 'सवन' राजाको वरण नहीं किया ] // 32 // Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 नैषधमहाकाव्यम् / भूषल्लिकिश्चननिकुञ्चितमिङ्गितं सा लिङ्गं चकार तदनादरणस्य विज्ञा। राशोऽपि तस्य तदलाभजतापवह्नश्चिह्नीबभूव मलिनच्छविभूमधूमः / / भूवल्लीति / विशेषेण जानातीति विज्ञा अभिज्ञा, 'इगुपधज्ञाप्रीकिरः का', सा दमयन्ती, भ्रवल्ल्याः भ्रलतायाः, किञ्चन किञ्चित, निकुञ्चितं सङ्कोचः, किश्चनेति किश्चिदर्थेऽव्ययं, तस्य विशेषणसमासः, तदेवेङ्गितं, चेष्टितं, तस्मिन् सवने, अनादर. णस्य लिङ्गं चकार भ्रनिकोचनेनैव तदनादरंसूचितवतीत्यर्थः, तस्य राज्ञोऽपि, मलिनच्छविभूमा वैवर्ण्यभूयस्त्वं, स एव धूमः, तस्याः दमयन्त्याः, अलाभेन जातस्तजः तस्य तापवः सन्तापाग्नेः, चिह्वीबभूव अनुमापको जात इत्यर्थः, अन्यत्र धूमं दृष्ट्वा वहिरनुमीयते, अत्र तु सवननृपे देहस्य श्यामवर्णरूपधूमं दृष्ट्वा दमयन्त्यप्राप्तिजन्य. तापवह्निरनुमीयते इति भावः। अत एवानुमानालङ्कारः 'साध्यसाधन निर्देशोऽनुमानम्' इति लक्षणात ; किन्तु इह धूमाग्न्यो रूपकशब्दात्मकयोरलङ्कारगर्भीकरणे विच्छित्तिविशेषाश्रयणात् तर्कानुमानाद्भेदः // 33 // ... विशेषज्ञा इस ( दमयन्ती ) ने भ्रलताके थोड़ा-सा संकोचरूप चेष्टाको (पाठा०भूलताकी चेष्टारूप आकार-रचनाको, अथवा-भ्र लताकी चेष्टाको और आकृतिभङ्गो अर्था। अङ्गुलि आदि अङ्गोंके चटकाने = मरोड़नेको उस ('सवन' राजा) के अनादर अर्थात् स्वीकार नहीं करनेका चिह्न बनाया और उस राजाका (मुखकी) मलिन कान्तिकी अधिकतारूपी धूम उस ( दमयन्ती) के नहीं पानेसे उत्पन्न सन्तापाग्नि(कामाग्नि) का चिह्न हुआ। (दमयन्तीने भ्र को थोड़ा सङ्कुचित कर उसको वरण करने में अनिच्छा प्रकट की तथा यह देख उस राजाका मुख मलिन पड़ना ही दमयन्तीको नहीं पानेसे उत्पन्न कामाग्निके अनुमान कराने. वाला चिह्न हो गया अर्थात् वहां उपस्थित जन-समूहने उस राजाके मुखको मलिन देखकर दमयन्तीको नहीं पानेसे उत्पन्न उस राजाके कामसन्तापका अनुमान कर लिया ] // 33 // राजान्तराभिमुखमिन्दुमुखीमथैनां जन्याजना हृदयवेदितयैव निन्युः। अन्यानपेक्षितविधौ न खलु प्रधानवाचां भवत्यवसरः सति भव्यभृत्ये // राजान्तरेति / अथ जन्याजनाः भृत्यजनाः, जन्या व्याख्याताः, हृदयवेदितया दमयन्त्याः चित्तज्ञतयैव, प्रेरणां विनैवेत्यर्थः, इन्दुमुखीम् एनां भैमीम, अन्यो राजा राजान्तरं, सुप्सुपेति समासः, तस्य अभिमुखं यथातथा निन्युः / स्वामिप्रेरणां विना कथं निन्युरत आह-अन्यानपेक्षितः अनपेक्षितान्या, स्वाम्यादेशनिरपेक्ष इत्यर्थः, बहुव्रीहौ 'सर्वनामसङ्ख्ययोरुपसङ्ख्यानम्' इति अन्यशब्दस्य पूर्वनिपातः, विधिः कार्यस्य अनुष्ठानं यस्य तस्मिन् स्वतः समर्थे, भव्ये सुयोग्ये, 'भव्यं शुभे च सत्ये च योग्ये भाविनि च त्रिषु' इति मेदिनी, भृत्ये कर्मकरे, सति प्रधानवाचा स्वाम्यादेशा. नाम्, अवसरो न भवति न अस्ति खलु इत्यर्थान्तरन्यासः // 34 // 1. '-वेल्लितमथाकृतिभनिमेषा' इति पाठान्तरम् / 2. 'जनीम्' इति पा० / Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। वधू ( दमयन्ती) को ले चलनेवाले जन (शिविकावाहक ) हृदयके भावको जानने के कारण ही चन्द्रमुखी इस ( दमयन्ती) को दूसरे राजाके सामने ले गये। दूसरे की अपेक्षासे रहित कार्यमें ( अथवा-दूसरेकी अपेक्षासे रहित कार्यवाले) भृश्य-समूहके रहनेपर स्वामीको बोलने अर्थात् आदेश देनेका अवसर नहीं आता है / [ स्वामीके आदेश न देनेपर ही उनका हृद्गत भाव समझनेवाले भृत्य कार्यको पूरा कर देते हैं अत एव उन्हें आदेश देनेका अवसर नहीं आता ] // 34 // ऊचे पुनर्भगवती नृपमन्यमस्यै निर्दिश्य दृश्यतमतावमताश्विनेयम् / आलोक्यतामयमये!कुलशीलशालीशालीनतानतमुदस्य निजास्यबिम्बम्।। उचे इति / भगवती भारती, पुनः भूयः, दृश्यतमतया दर्शनीयतमत्वेन, सौन्दर्यातिशयेन इति यावत् , अवमतौ अवधीरितो, आश्विनेयौ अश्विनीकुमारी येन तम्, अन्यं नृपम् अस्यै भैम्यै निर्दिश्य हस्तेन प्रदश्य, अये ! भैमि, कुलेन शीलेन सद्वृत्तेन च, शालते इति तच्छाली, अयं नृपः, शालीनतया लज्जया, 'शालीनकौपीने अष्टाकार्ययोः' इति ख-प्रत्ययान्तो निपातः, नतं निजास्यबिम्ब निजमुखमण्डलम्, उदस्य उन्नमय्य, आलोक्यताम् इत्यूचे उक्तवती, ब्रतेः कर्तरि लिटि तङ, लजा परित्यज्य अयं दृश्यताम् इति भावः // 35 // इस ( 'सवन' राजाकों वरण नहीं करने ) के बाद भगवती ( सरस्वती देवी ने ) अतिशय सौन्दर्यसे अश्विनीकुमारोंको तिरस्कृत किये हुए अर्थात् अश्विनीकुमारोंसे भी अधिक सुन्दर दूसरे राजाको इस ( दमयन्ती ) के लिये दिखाकर कहा-हे दमयन्ति ! लज्जासे नम्र अपने मुखबिम्बको उठाकर कुल तथा सदाचारसे शोभमान इस राजाको देखो // 35 // एतत्पुरःपठदपश्रमवन्दिवृन्दवाग्डम्बरैरनवकाशतरेऽम्बरेऽस्मिन् / उत्पत्तुमस्ति पदमेव न मत्पदानामर्थोऽपिनार्थपुनरुक्तिषु पातुकानाम्।। एतदिति / एतस्य पुरः अग्रे, पठताम् अपश्रमवन्दिनां यथार्थगुणवर्णने श्रमः शून्यानां स्तावकानां, वृन्दस्य वाग्डम्बरैः वागाटोपैः, अनवकाशतरे अत्यन्तनिरव. काशे, अस्मिन् अम्बरे अन्तरिक्ष, मत्पदानां मद्वाक्यानां, 'पदं शब्दे च वाक्ये च' इति विश्वः, उत्पत्तमेव पदम् अवकाशः, नास्तीत्यतिशयोक्तिः, आकाशगुणः शब्द इति तार्किकाः; कथश्चिदुत्पत्तौ अपि अर्थपुनरुक्तिषु अभिधेयपौनरुक्त्येषु, पातुकानां पतता, वन्दिवाक्यैः पुनरुक्तार्थानामित्यर्थः, 'लषपत-' इत्यादिना उकअप्रत्ययः, मत्पदानाम् अर्थोऽपि प्रयोजनमपि, नास्ति, गतार्थत्वादितिभावः; अस्य वन्दिकृताः स्तवाः यथार्थकतया मम अतीव सम्मताः, अतः एनं वृणीष्व इति तात्पर्यम् // 36 // इस (राजा ) के सामने स्तुति करते हुए अश्रान्त बन्दि-समूहके बचनाडम्बर ( वाग्विस्तार ) से निरवकाश इस आकाशमें मेरे वाक्यों ( अथवा-सुबन्त-तिङन्तरूप पदों पक्षा०-मेरे पैरों) के उत्पन्न होने (पक्षा०-ठहरने ) का स्थान ही नहीं है, ( और कश्चित् Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 नैषधमहाकाव्यम् / हो भी जाय तो इस बन्दि-समूहके वागाडम्बरके ) अर्थको पुनरुक्ति करनेवाले ( उन मेरे पदों ) का कोई प्रयोजन भी नहीं है। [इस राजाकी निरन्तर स्तुति करनेवाले बन्दिसमूहके वागाडम्बरसे 'शब्द गुणवाला' आकाश इतना ठसा-ठस भर गया है कि मेरे वचनों के उत्पन्न होनेका स्थान ही नहीं है, पक्षा०-जन-समूहादिसे ठसाठस भरे हुए स्थानमें पैर रखनेका भी स्थान नहीं है। तथा मैं जो कुछ कहूँगी वह सब इसके बन्दिसमूहके द्वारा वर्णित होनेसे पुनरुक्त हो जायेगा अत एव उसमें कुछ कहने की आवश्यकता मी नहीं है / इस राजाके बन्दि-समूह जो कुछ वर्णन कर रहे हैं, वही मुझे भी सम्मत है, अत एव इसे वरण करो // 36 // नन्वत्र हव्य इति विश्रुतनाम्नि शाकद्वीपप्रशासिनि सुधीषु सुधीभवन्त्याः। एतद्भुजाविरुदवंदिजयाऽनयाऽपि किं रागिराजनिगिराऽजनि नान्तरंते?|| नन्विति / ननु भैमि ! अत्र अस्मिन् , हव्य इति. विश्रुतनाम्नि प्रख्यातनामधेये, शाकद्वीपं प्रशास्तीति तत्प्रशासिनि तत्स्वामिनि, राजनि विषये, सुधीषु विद्वत्सु, सुधीभवन्त्याः विदुषीभवन्त्याः , ते तव, अन्तरम् अन्तरात्मा, अनया श्रयमाणया, एतस्य भुजाविरुदवन्दिभ्यो बाहुप्रशस्तिस्तोतृभ्यः; 'गद्यपद्यमयी राजस्तुतिविरुदमुच्यते' इति; जाता तज्जा तया, गिराऽपि रागि अनुरागवत् , नाजनि नाजनिष्ट किम् ? इति प्रश्नः, जनेः कर्तरि लुङि 'दीपजन-' इत्यादिना विकल्पात् चिण प्रत्ययः, 'चिणो लुक' इति तस्य लुक // 37 // शाकद्वीपका शासन करनेवाले 'हव्य' नामसे प्रसिद्ध इस राजाके विषय में पण्डितों में पण्डिता बनती हुई तुम्हारा हृदय ( पाठा०-"विषयमें तुम्हारा हृदय ) इस (राजा) की भुजाके प्रशंसक बन्दियों के इस वचनसे भी अनुरागी नहीं हुआ क्या ? ( अथवा अनुरागी क्यों नहीं हुआ ? ) अर्थात् अवश्य अनुरागी होना चाहिये // 37 // शाकः शुकच्छदसमच्छविपत्रमालभारी हरिष्यति तरुस्तव तत्र चित्तम् / यत्पल्लवोघपरिरम्भविजृम्भितेन ख्याता जगत्सु हरितो हरितः स्फुरन्ति / / शाक इति तत्र शाकद्वीपे, शुकच्छदसमच्छवीनां कीरपक्षसदृशदीप्तानां, पत्राणां मालां पकिं, भरतीति तन्मालभारी, 'इष्टकेषीकामालानां चिततूलमालभारिषु' इति हस्वः, शाकस्तरुः शाकवृक्षः, 'शेगुन' इति प्रसिद्धवृक्षविशेषः इत्यर्थः, तव चित्तं हरि'ष्यति / हरितो दिशः, शाकतरोः, पल्लवस्य ओघानां राशीनां, परिरम्भविजम्भितेन व्याप्तिमहिम्ना, हरितः हरिद्वर्णाः सत्यः।'हरितः / मृगे ना कनके क्लीवं दिशि स्त्री हरिते विषु' इति विश्वः, जगत्सु ख्याताः हरित इति ख्याताः, स्फुरन्ति प्रथन्ते / दितु हरिच्छब्दप्रवृत्तेः हरितवर्णनिमित्तायाः शाकतरुपखवच्छायाच्छुरणनिमित्तत्वा 1.-'भवन्स्या' इति पाठे 'गिरा' इत्यस्य विशेषणमिदम् / Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। . . सम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तस्तद्रूपातियोक्तिः, तया च तस्य तरोः ख्यातिः व्यज्यते इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 38 // जहाँ (जिस शाकद्वीपमे ) तोतेके पङ्ख के समान कान्तिवाले पत्रसमूहको धारण करनेवाला 'शाक' नामक वृक्ष तुम्हारे चित्तको हरण ( आकृष्ट ) करेगा। जिस ( 'शाक' वृक्ष) के पत्तों के सम्बन्ध विस्तार से हरित (हरे) वर्णवाली बनी हुई दिशाएँ संसार में (हरित्' ऐसे ) अन्वर्थ नामवाली प्रसिद्ध हो गयी हैं [ इस विशाल 'शाक' वृक्षके पत्तोंसे हरी बनने के कारण दिशाओंका नाम 'हरित्' प्रसिद्ध हो गया है, ऐसे वृक्षको देखकर तुम्हारा चित्त आकृष्ट हो जायेगा, अतएव इस रम्नाको वरणकर उस 'शाक' वृक्षको देखनेका सुअवसर मत छोड़ो ] // 38 // स्पर्शन तत्र किल तत्तरुपत्रजन्मा यन्मारुतः कमपि सम्मदमाददाति / कौतूहलं तदनुभूय विधेहि भूयःश्रद्धां पराशरपुराणकथान्तरेऽपि // 39 / / स्पर्शनेति / तत्र द्वीपे, किल तस्य तरोः पत्रेभ्यो जन्म यस्य तज्जन्मा मारुतः स्पशन स्पर्शमात्रेण, कमप्यनिर्वचनीयं, सम्मदम् आनन्दम्, आददातीति यत् तदानन्ददानरूपं, कौतूहलं, कौतुकं, विस्मयजनकव्यापारमित्यर्थः, 'कौतूहलं कौतुकञ्च कुतुकञ्च कुतूहलम्' इत्यमरः, अनुभूय भूयः पुनरपि, पराशरपुराणे विष्णुपुराणे, यत् कथान्तरम् अन्या कथा तन्त्र, श्रद्धां विधेहि विश्वासं कुरु, तत्रैव सकलभूगोलवृत्तान्तकथनादेकदेशसंवादस्य यथार्थत्वेन तदुक्तकथान्तराणामपि विश्वसनीयत्वादिति भावः। अत्र विष्णुपुराणवाक्यं-'शाकस्तत्र महावृक्षः सिद्धगन्धर्वसेवितः। यत्पत्र. वातसंस्पर्शादाह्लादो जायते परः // इति // 39 // __ वहाँ (शाकद्वीपमें) उस वृक्ष (शाकवृक्ष) के पत्तोंसे उत्पन्न वायु किसी (अनिर्वचनीय) हर्षको जो पैदा करती है, उस कौतुकका अनुभव करके पराशरोक्त (विष्णु-) पुराणकी अन्य कथाओंमें भी श्रद्धा ( अथवा-अत्यधिक श्रद्धा ) करो। [विष्णु पुराणमें पराशरने समस्त भूगोलके वर्णन-प्रसङ्गमें शाकद्वीपके पत्तोंके आह्लादकारक होनेका जो वर्णन किया है, उसे प्रत्यक्ष अनुभव कर के उस पुराणमें कही गयी शेष कथाभागको भी सत्य मानकर फिर श्रद्धा करो, अर्थात् यद्यपि पुराणों में तुम्हें इस समय भी श्रद्धा है, किन्तु उसमें लिखित कथाको प्रत्यक्ष देखकर उस श्रद्धाको फिर दृढ करो, अथवा-( 'भूयसी चासौ श्रद्धा चेति ताम्' ऐसा कर्मधारय समास करके 'भूय:श्रद्धाम्' पदको एक शब्द मानकर ) 'अधिक श्रद्धा हो // 39 // क्षीरार्णवस्तव कटाक्षरुचिच्छटानामध्येतु तत्र विकटायितमायताक्षि!। वेलावनीवनततिप्रतिबिम्बचुम्बिकिर्मीरितोर्मिचयचारिमचापलाभ्याम् / / क्षीरेति / हे आयताक्षि ! तत्र शाकद्वीपे, क्षीरार्णवस्तव कटाक्षरुचिच्छटानां कटा. क्षकान्तिजालानां, 'वृन्दं जालं चक्रवालं जालकं पेटकं छटा'इति वैजयन्ती, विकटा Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / यितं विकटभावम्; अतिशयमित्यर्थः, 'कटः श्रोणौ द्वयोः पुंसि किलि अतिशये शवे' इति मेदिनी, यद्वा-विशालभावं, सौन्दर्यविलसितमित्यर्थः, 'विशाले विकराले च विकटं कवयो विदुः" इति शाश्वतः, विकटशब्दालोहितादिक्यङन्ताद्भावे क्तः / लोहि. तादिराकृतिगणः, वेलावनी कूलभूमिः, 'वेला कुलेऽपि वारिधेः' इति शाश्वतः, तत्र या वनततिर्वनपङ्क्तिः, तस्याः प्रतिबिम्बं चुम्बति स्पृशतीति तच्चुम्बी तस्य तद्यु. तस्य इति यावत्, अत एव किर्मीरितस्य कर्बुरितस्य, नानावर्णमिश्रितस्येति यावत् , 'चित्रं किौरकल्माषशबलैताश्च कर्बुरे' इत्यमरः, ऊर्मिचयस्य तरङ्गपङक्तः, चारिमा चारुता, 'पृथ्वादिभ्य इमनिज वा' इति इमनिचि 'टेः' इति टेर्लोपः / चापलं चाश्चल्यं, युवादित्वादण-प्रत्ययः ताभ्यां, स्मारकाभ्याम् , अध्येतु स्मरतु, अनुकरोतु इति यावत् , 'इक स्मरणे' इत्यस्माल्लोटि शेषत्वविवक्षायाम् 'अधीगर्थ-' इत्यादिना षष्ठीविधानात्तदभावे कर्मणि द्वितीया, तव चक्षुषोः कटाक्षेषु परितः श्वैत्यं मध्ये नीलत्वं चपलता च अतः क्षीरसमुद्रोऽपि तत्सदृशो भवतु इति भावः / अत्र किर्मी रितोर्मिचयस्य सितासितस्वसादृश्यात् तद्विलासस्य कटाक्षविलसितस्मारकत्वात् स्मरणालङ्कारः // 40 // हे विशाल नेत्रोंवाली ( दमयन्ति ) ! वहां ( उस शाकद्वीपमें ) तटको भूमिमें स्थित वनराजिके प्रतिबिम्बको धारण किया हुआ क्षीरसमुद्र ( अतएव ) कर्बुर ( चितकबरे ) तरङ्गसमूहकी सुन्दरता तथा चञ्चलतासे तुम्हारे कटाक्षों की शोभाकी छटा ( परम्परा) के विलासका स्मरण अथवा-[स्वतः श्वेतवर्ण तथा तटभूमिस्थित प्रतिबिम्बित वनराजिसमूहसे कर्बुरित (कृष्णवर्ण) एवं चञ्चल तरङ्गसमूहवाला क्षीरसमुद्र तुम्हारे कृष्ण नील चञ्चल कटाक्ष के समान सुन्दरता प्राप्त करे ] // 40 // कल्लोलजालचलनोपनतेन पीवा जीवातुनाऽनवरतेन पयोरसेन / अस्मिन्नखण्डपरिमण्डलितोरुमूर्तिरध्यास्यते मधुभिदा भुजगाधिराजः / / कल्लोलेति / अस्मिन् क्षीराणवे कल्लोलानां तरङ्गाणां जालस्य वृन्दस्य चलनेन चलनाडा उपनतः प्राप्तस्तेन / जीवातुना उज्जीवकेन 'जीवातुर्जीवनौषधम् इत्यमरः। अनवरतेनाविच्छिन्नेन पय एव रसस्तेन स्वादुक्षीरेण पीवा पीवरः, स्थूलकाय इत्यर्थः / 'पीङ्' धातोः 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते' इति कनिपि 'घुमास्थागापाजहातिसां हलि' इतीकारः / अखण्डं सम्पूर्ण यथा स्यात्तथा परिमण्डलिता परितो वेष्टिता, कुण्डलितेति यावत् , उर्वी विशाला मूर्तिः यस्य येन वा सः। भुजगानां सा. णामधिराजः शेषः / मधुं तन्नामकं दैत्यं भिनत्तीति तेन विष्णुना अभ्यास्यते अधिशय्यते / कर्मणि प्रत्ययत्वेन 'अधिशीस्थासां कर्मे ति कर्मणो भुजगाधिराजशब्दात्प्रथमा, मधुमिच्छब्दारकर्तरि तृतीया च बोध्या। अत्र क्षीरसागरे श्रीविष्णुशेषराजो. परि शेत इत्यर्थः // 4 // Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 651 इस (क्षीरसमुद्र ) में तरङ्ग-समूहके चलनेसे समीपमें लाये गये, जिलानेवाले एवं अविच्छिन्न दुग्धरस ( के पीने ) से मोटे तथा मण्डलाकार किये हुए सम्पूर्ण शरीरवाले सर्पराज ( शेषनाग ) पर श्रीविष्णु सोते हैं // 41 // त्वद्रूपसम्पदवलोकनजातशङ्का पादाब्जयोरिह कराङ्गुलिलालनेन | भूयाञ्चिराय कमलाकलितावधाना निद्रानुबन्धमनुरोधयितुं धवस्य॥४२॥ स्वदिति / इह क्षीरार्णवे तव रूपमेव सौन्दर्यमेव सम्पत् रूपस्य सम्पद्वा, तस्या अवलोकनेन दर्शनेन जातोत्पन्ना शङ्का सन्देहो यस्याः सा, इमां मदपेक्षया परमः सुन्दरी विलोक्य मदर्ता श्रीविष्णुः कदाचिदिमामङ्गीकुर्यादिति शङ्कया युक्तेत्यर्थः / कमला लचमीः पादाब्जयोश्चरणकमलयोः कराङ्गलिभिालनेन संवाहनकार्येण धवस्य पत्युः, श्रीविष्णोरिति यावत् / निन्द्रानुबन्धं निद्रासातत्यमनुरोधयितुं वर्धयितुं चिराय चिरकालं यावत् दत्तमवधानं यया सा, सावधानेति भावः / भूयाद्भवेत् / मत्पतिः श्रीविष्णुः लोकैकसुन्दरीमिमां दमयन्तीं दृष्ट्वा मोहितस्सन्निमां श्रयेदिति शङ्कया तचरणयोः संवाहनेन चिरकालं निद्रितमेव तं कर्तुं सावधाना भवस्वित्यर्थः॥ 42 // इस (क्षारसमुद्र ) में तुम्हारे रूपकी शोभाको देखकर शङ्कायुक्त लक्ष्मी श्रीविष्णुके चरणकमलों में हाथ की अङ्गुलियोंद्वारा दबानेसे पति (श्री विष्णु) को सोते रहने के लिये बहुत देर तक सावधान होवे, ( अथवा-बहुत देर तक सोते रहने के लिये सावधान होवे)। [ लोकैकसुन्दरी तुम्हें देखकर लक्ष्मी को आशङ्का हो गयी कि 'यदि मेरे पति श्री विष्णु जग जावेंगे तो परमसुन्दरी इस दमयन्तीको देख करके इसे ही पत्नी रूपमें स्वीकार कर लैंगे' अत एव उनके चरणोंको हाथकी अङ्गुलियोंसे धीरे-धीरे दबाते रहनसे उनको बहुत देरतक सोते ही रहने के लिये सावधान होवे, जिससे विष्णु भगवान् न शीघ्र जगेंगे और न दमयन्तीको देखकर इसे पत्नीरूपमें स्वीकार करेंगे ] // 42 // बालातपैः कृतकगैरिकतां कृतां द्विस्तत्रोदयाचलशिलाः परिशीलयन्तु। स्वद्विभ्रमभ्रमणजश्रमवारिधारिपादाङ्गुलीगलितया नखलाक्षयाऽपि॥४३॥ बालातपेरिति / तत्र शाकद्वीपे, उदयाचलशिलाः बालातपैः तथा तव विभ्रमभ्रमणेन सलीलचक्रमणेन, जातं तज्जं, श्रमवारि स्वेदाम्बु, तद्धारिणीभ्यः पादाङ्गुः लिभ्यः गलितया तया, नखलाक्षयाऽपि द्विर्द्विवारं, कृतां द्विगुणीकृतामित्यर्थः, क्रियाभ्यावृत्तिगणने 'द्वित्रिचतुर्व्यः सुच्' इति सुच, कृतकानि कृत्रिमाणि, यानि गैरिकाणि धातुविशेषाः, तत्तां परिशीलयन्तु अनुभवन्तु, तथाभूताः सन्तु इत्यर्थः; उदयाचलविहारे यदि तव रुचिः अस्ति तदा एनं वृणीष्व इति भावः // 43 // उस शाकद्वीपमें उदयाचल पर्वतके चट्टान प्रातःकालीन धूपसे तथा तुम्हारे विलासपूर्वक घूमनेसे उत्पन्न पसीनेके जलसे युक्त चरणाङ्गुलियोंसे गिरे हुए नाखूनोंके महावरों ( नाखून रंगनेका अरुण वर्ण द्रव्यविशेष ) से दुबारा किये गये कृत्रिम (बनावटी-अस्वा Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652 नैषधमहाकाव्यम् / माविक ) गैरिक भावको धारण करे [ उदयाचलके चट्टान प्रातःकालीन सूर्यकिरणों से पहले ही गेरूसे लाल हो रहे थे, किन्तु जब तुमने वहां विलास से भ्रमण किया तो श्रमजन्या पसीना आनेसे पैर की अंगुलियां भीग जावेंगी और उनके नाखूनों में लगाये गये लाल वर्णके महावर उन चट्टानों पर लग जायेंगे, इस कार्यसे वे चट्टान फिर गेरू-से मालूम पड़ने लगेंगे। तुम इस राजाको वरणकर उदयाचलपर विलासपूर्वक भ्रमण करो ] 43 // नृणां करम्बितमुदामुदयन्मृगाङ्कशङ्कां सृजत्वनघजवि ! परिभ्रमन्त्याः / तंत्रोदयाद्रिशिस्त्ररे तब दृश्यमास्य काश्मीरसम्भवसमारचनाभिरामम् / / - नृणामिति / हे अनघजति ! सुन्दरजवाशालिनि ! वामोरु ! इति यावत् 'नासि. कोदर-' इत्यादिना विकल्पेन, ङीष्-प्रत्ययः, तत्र द्वीपे, उदयादिशिखरे परिभ्र. मन्स्याः विहरन्त्याः , तव काश्मीरसम्भवसमारचनेन कुङ्कुमानुलेपनेन, अभिरामम अत एव दृश्यं दर्शनीयम्, 'दुपधाच्चाक्लपिचतेः' इति क्यप, तवास्यं कर्त, कर• म्बितमुदां सम्मिलितानन्दानां, नणां पुंसां, 'न च' इति विकल्पात् दीर्घः, उदयन्मृ: गाङ्कशङ्काम उदीयमानचन्द्रसन्देह, भ्रान्ति वा, सृजतु करोतु / अलङ्कारोऽपि सन्देहभ्रान्तिमतोरन्यतरोऽस्तु // 44 // __ हे अनिन्दित जघनोंवाली ( दमयन्ति ) ! उस उदयाचलकी चोटीपर भ्रमण करती हुई तुम्हारा कुङ्कुमलेपसे मनोहर ( अत एव ) देखने योग्य मुख आनन्दित मनुष्यों को उदित होते हुए चन्द्रमाकी शङ्काको पैदा करे / [ उदयाचलकी चोटीपर घूमती हुई तुम्हारे कुङ्कुमलेपयुक्त रमणीय मुखको देखकर 'यह चन्द्रमा उदय हो रहा है' ऐसे भ्रमसे मनुष्य हर्षित होवें ] // 44 // एतेन ते विरहपावकमेत्य तावत् कामं स्वनाम कलितान्वयमन्वभावि / अङ्गीकरोषि यदि तत्तव नन्दनायैलब्धान्वयं स्वमपि नन्वयमातनोतु॥४५॥ एतेनेति / ननु भैमि ! एतेन हव्याख्येन राज्ञा, ते तव, विरहपावकम् एत्य वियोगाग्नि प्राप्य, स्वं स्वकीयं, नाम हव्यसंज्ञा, कामं प्रकामं,कलितान्वयंप्राप्तान्वर्थ, सार्थकमिति यावत् , अन्वभावि तावत् अनुभूतमेव, अग्नी हुतत्वाद्धव्यसंज्ञा सार्थाऽ. जनीत्यर्थः; अङ्गीकरोषि यदि इस्थम् अनुरक्तं तं नृपं वरत्वेन स्वीकरोषि चेत् , तत् तदा, अयं नृपः, स्वम् आस्मानमपि, तव नन्दनायैः त्वय्युत्पादितपुत्रपौत्रादिभिः, लब्धान्वयं लब्धवंशप्रतिष्ठम्, आतनोतु धर्मप्रजासम्पत्यर्थत्वादारपरिग्रहस्येति भावः।। इस ('हव्य' नामक राना ) ने तुम्हारी विरहाग्निको पाकर अपने नाम ( 'हव्य' अर्थात् हवन करने योग्य द्रव्य-विशेष ) को अच्छी तरह सार्थक कर लिया है, यदि तुम इसे स्वीकार करती हो तो यह तुम्हारे पुत्र आदि (पौत्र,") से अपनेको सन्तानयुक्त करेगा। [ 'यदि' पदके द्वारा सरस्वती देवीने पाक्षिक स्वीकार करना कहकर स्वीकार करनेमें अरुचिका संकेत किया है ] | // 45 // Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 653 लक्ष्मीलतासमवलम्बभुजद्रुमेऽपि वाग्देवताऽऽयतनमञ्जमुखाम्बुजेऽपि / साऽमुत्र दूषणमजीगणदेकमेव नार्थीबभूव मघवा यदमुण्य देवः // 46 // ___ लक्ष्मीलतेति / लघमीरेव लता तस्याः समबलम्बः आधारभूतः, भुज एव दुमो वस्य तस्मिनपि, भुजार्जितसम्पपीत्यर्थः, तथा वाग्देवतायाः सरस्वत्याः, आयतनं स्थानं, मञ्ज मनोज्ञं. मुखाम्बुजं यस्य तस्मिन् अपि, चतुःषष्टिकलाऽभिज्ञेऽपि, लक्ष्मीसरस्वत्योरेकाधिकरणेऽपीति भावः, अमुत्र अमुष्मिन् हव्ये राज्ञि, सा भैमी, एक. मेव दूषणम् अजीगणत् गणयामास, गणेौँ चङ'ई च गणः' इत्यभ्यासस्येकारः, किं दूषणम् ? तदाह-अमुष्य हव्यस्य राज्ञः, देवो मघवा महेन्द्रः, यत् अर्थी याचकः, न बभूव; किन्तु नलस्य यद् दूत्यं ययाचे तत् कथं नलात् हीनमेनं स्वीकरिप्यामि इति भावः // 46 // ___ उस ( दमयन्ती ) ने लक्ष्मीरूपिणी लताके आश्रयभूत बाहुरूपी वृक्षवाले भी तथा सरस्वती देवीके निवासभूत मनोहर मुख कमलवाले भी इस ( 'हव्य' नामक राजा) में एक ही दोष गिना ( समझा) कि इन्द्रदेव इसका याचक नहीं बने ( अत एव उसका वरण नहीं किया)। [यद्यपि यह 'हव्य' राजा वीरलक्ष्मी से युक्त बाहुवाला, विद्वान् तथा सुन्दर मुखकमलवाला है, किन्तु नलके तो इन्द्रदेव याचक बने थे अर्थात् मेरे यहां व्रत बनने के लिये नलसे इन्द्रने याचना की थी और इसके नहीं अतः इस 'हव्य' राजा तथा नल में बहुत अन्तर है, इस कारण इसका वरण करना ठीक नहीं है, यह विचार कर दमयन्तीने उसका वरण नहीं किया ] / / 46 // लक्ष्मीविलासवसतेः सुमनासु मुख्यादस्माद् विकृष्य भुवि लब्धगुणप्रसिद्धिम् / स्थानान्तरं तदनु निन्युरिमां विमान वाहाः पुनः सुरभितामिव गन्धवाहाः // 47 // लक्ष्मीविलासेति / तदनु तत्परिहारानन्तरं विमानवाहाः भुवि लोके, लब्धा गुणेन सौन्दर्यादिना, अन्यत्र-घ्राणतर्पणेन च, प्रसिद्धिः यया ताम् , इमो तां दमयन्ती गन्धवाहाः वायवः, सुरभितां सौरभसम्पदमिव, लचम्याः सम्पदः, अन्यत्र--पद्माया:, विलासवसतेः लीलागृहात् , सुमनःसु विद्वत्सु, अन्यत्र-पुष्पेषु मुख्यात् अस्मात् नृपात् , पनाच्च विकृण्य, अपनीय, पुनः स्थानान्तरं राजान्तरम् , अन्यत्र-पुष्पान्तरं, निन्युः॥४७॥ इस [ दमयन्तीके द्वारा 'हव्य' राजाका वरण नहीं करने ) के बाद विमानवाहकों ने शोभा ( या श्री) के निवास स्थान तथा विद्वानोंमें प्रधान इस ('हव्य' नामक राजा) से सौन्दर्य आदि गुणोंसे प्रसिद्ध इस ( दमयन्ती) को फिर हटाकर उस प्रकार दूसरे स्थानमें ले गये, जिस प्रकार वायु फूलों में प्रधान लक्ष्मीके निवास भवन ( लक्ष्मी का कमलमें निवास Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / करना प्रसिद्ध है ) कमलसे ( उत्तम गन्ध आदि) गुगोंसे प्रसिद्ध सुगन्धिको दूसरे स्थान पर . ले जाती है // 47 // . भूयस्ततो निखिलवाङमयदेवता सा हेमोपमेयतनुभासमभाषतैनाम् / एनं स्वबाहुबहुवारनिवारितारं चित्ते कुरुष्व कुरुविन्दसकान्तिदन्ति ! // - भूय इति / ततः अनन्तरं, भूयः पुनरपि, निखिलवाङमयदेवता सकलवागधि. देवता, सा सरस्वती, हेम्ना उपमेया तनुभाः शरीरकान्तिः यस्याः ताम, एनां दमयन्तीम् , अभाषत, हे कुरुविन्दसकान्तिदन्ति ! पद्मरागसहशदशने ! 'नासिको. दर-'इत्यादिना विकल्पादीकारः / 'कुरुविन्दः पनरागः' इति विश्वः / सकान्तोत्यत्र समानस्य स-भावश्चिन्त्यः, स्वबाहुना बहुवारं निवारितारं निर्जितशत्रुम् , एनं राजानं, चित्ते कुरुष्व अनुमन्यस्वेत्यर्थः // 48 // इस ( दमयन्तीको विमानवाहकों द्वारा दूसरे राजाके पास ले जाने ) के बाद सम्पूर्ण वाङ्मयकी देवता ( सरस्वती देवी ) स्वर्णके समान शरीर-कान्तिवाली इस ( दमयन्ती) से फिर बोली-हे कुरुविन्द ( पद्मराग ) के समान सुन्दर दाँतोंवाली (दमयन्ति ) ! अपनी बाहुसे बहुत बार शत्रुओंका निवारण ( पराजित ) करनेवाले इस (राजा) को चित्तमें करो अर्थात् स्वीकार करो // 48 // द्वीपस्य पश्य दयितं द्यतिमन्तमेतं क्रौञ्चस्य चञ्चलगञ्चलविघ्रमेण | यन्मण्डले सकिल पांडुलसनिवेशः पूरश्चकास्ति दधिमण्डमयः पयोधेः।। द्वीपस्येति / यतिमन्तं नाम एतं क्रौञ्चस्य द्वीपस्य दयितमु अधिपति, चञ्चलस्य दृगझलस्य कटाक्षस्य, विभ्रमेण विलासेन, पश्य,यन्मण्डले यस्य देशे, पयोधेः समु. द्रस्य, स प्रसिद्धः, पाण्डुलसनिवेशः पाण्डुलः पाण्डुवर्णः, सनिवेशः अवस्थानं यस्य तादृशः दधिमण्डमयः दध्नो मण्डं मस्तु 'मण्डं दधिभवं मस्तु' इत्यमरः, तन्मयः पूरः तोयराशिः चकास्ति किलेल्यैतिद्ये // 49 // क्रौञ्चद्वीपके अधिपति द्युतिमान नामक इस राजाको देखो, जिसके देशमें मण्डलाकार (पाठा०-३वेत वर्ण वाला) दधिमण्डजलवाले समुद्रकी राशि ( या प्रवाह ) शोमता है // 49 / / तत्रादिरस्तिभवदंघ्रिविहारयाचीक्रौञ्चःस्फुरिष्यतिगुणानिव यस्त्वदीयान्। हंसावलीकलकलपतिनादवाग्भिः स्कन्देषुवृन्दविवरैविवरीतुकामः // 50 // तत्रेति / तत्र क्रौञ्चद्वीपे, भवत्याः अनिविहारयाची सविलासभ्रमणकामुकः, कौञ्चो नामाद्रिः अस्ति, योऽदिः, हंसावलीकलकलानां हंसश्रेणीविरुताना, प्रतिनादाः प्रतिध्वनयः एव, वाचो वचनानि येषां तैः, स्कन्दस्य कुमारस्य, इषुवृन्दानां विवरैः तस्कृतच्छिन्द्रः, तैरेव मुखैरित्यर्थः, स्वदीयान् गुणान् विवरीतुकामो व्याख्यातुकाम इव, 1. 'मण्डलसन्निवेशः' इति, परिमण्डलसनिवेशः' इति च पाठान्तरे। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 655 स्कुरिष्यति प्रकाशिष्यते, स्फुरतेः कुटादित्वात् गुणाभावः, पुरा कार्तिकेयेन बाणैः क्रोपर्वतस्य विवराणि कृतानि इति पुराणम् // 50 // उस कौञ्च द्वीपमें तुम्हारे चरणों के विहार करने का इच्छुक 'कौञ्च' पर्वत है, जो हंसावलीके कलकल ( मधुर शब्द ) रूप वचनोंसे कार्तिकेयके बाण-समूहके छिद्रोंद्वारा मानो तुम्हारे गुणोंको कहने के इच्छुकके समान स्फुरित होगा / [ कार्तिकेयने बाणोंसे उस क्रौञ्च पर्वतमें बहुत-से छिद्र कर दिये हैं, उनमें हंसावलिका कलकल प्रतिध्वनित होगा तो ऐसा ज्ञात होगा कि वह क्रौञ्च पर्वत मानो तुम्हारे गुणों का वर्णन कर रहा है, ऐसे क्रौञ्च पर्वतमें तुम इस राजाको वरण करके विहार करो] // 50 // वैदर्भि! दर्भदलपूजनयाऽपि यस्य गर्भ जनः पुनरुदेति न जातु मातुः / तस्यार्चनांरचय तत्र मृगाङ्कमौलेस्तन्मात्रदैवतजनाभिजनःस देशः // 51 // वैदर्भाति / हे वैदर्भि ! यस्य दर्भदलैः कुशपत्रैः, पूजनयाऽपि, किमुत कमलददलादिपूजनयेति भावः , जनो जन्तुः, जातु कदाऽपि, पुनर्मातुर्गर्भे न उदेति न जायते, तत्पूजनस्य मुक्तिरेव फलमित्यर्थः, तत्र पर्वते, तस्य मृगाङ्कमौलेः ईश्वरस्य, अर्चनां रचय पूजां कुरु; तथा हि, स देशः तन्मात्रं स एव, शिव एवैक इत्यर्थः, दैवतं येषां तेषां जनानाम् अभिजायते अस्मिन्निति अभिजनो जन्मभूमिः, इत्यर्थान्तरन्यासः। 'ख्यातः कुलेऽप्यभिजनो जन्मभूम्यां कुलध्वजे' इति विश्वः, तत्रत्याः सर्वं तदेकशरणास्तत्सेवयोत्पनतत्वज्ञानान्मुञ्चन्तीति भावः // 51 // हे दमयन्ति ! मनुष्य केवल कुशाके पत्तोंसे भी जिसकी पूजा करनेसे फिर कमी माताके गर्भ में नहीं आता अर्थात् मुक्ति पा लेता है ( तो फिर कमल आदि के द्वारा उसकी पूजा करने पर क्या कहना है अर्थात् उससे तो अत्यधिक फल होगा ही), उस चन्द्रशेखर (शङ्करजी) की वहांपर ( उस क्रौञ्च द्वीपमें ) पूजा करो, क्योंकि उस देशके लोगों के एक मात्र वही (शङ्करजी ही ) देवता हैं // 51 // चूडानचुम्बिमिहिरोदयशैलशीलस्तेनाः स्तनन्धयसुधाकरशेखरस्य / तस्मिन् सुवर्णरसरूषणरम्यहर्म्यभूभृद्धटा घटय हेमघटावतंसाः॥५२।। चूडाग्रेति / तस्मिन् देशे, स्तनं धयतीति स्तनन्धयः, 'नासिकास्तनयोधेिटो' इति खश-प्रत्यये मुमागमः, स्तनन्धयसुधाकरशेखरस्य बालेन्दुशेखरस्य शम्भो, हेमघटावतंसाः उपरिस्थापितकनककलसभूषिता इत्यर्थः, अत एव चूडाग्रचुम्बिमिहिरस्य शिखरामलग्नसूर्यस्य, उदयशैलस्य उदयाद्रेः शीलं स्वभावः, तस्य स्तेनाः चौराः, तत्तुल्या इत्यर्थः, सुर्वणरसरूषणेन हेमद्रवच्छुरणेन, रम्याणि हाण्येव भूभृतः पर्वताः, तेषां घटाः पनी घटय निर्मापय कनककलससंयुक्तानेकसौवर्णप्रासादनिर्माणेन तं भगवन्तमिन्दुशेखरं प्रीणयेत्यर्थः // 52 // 1. 'भूषण' इति पा०। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधमहाकाव्यम् / उस क्रौञ्च द्वीपमें मस्तकमें बाल चन्द्रधारी (शङ्करजी के ), शिखराग्रमें सूर्यका स्पर्श करनेवाले उदयाचलके शीतलको चुरानेवाला अर्थात् उदयाचलके समान शोभमान, ( ऊपर रखे हुए ) सुवर्ण कलशोंसे सुशोभित तथा सुवर्ण-रससे लिप्त ( पाठा०-सुवर्ण-रस ही है भूषण जिसका ऐसा ) होनेसे रमणीय महलों की पंक्तियों को घटित करो // 52 // / तस्मिन्मलिम्लुच इव स्मरकेलिजन्मधर्मोदबिन्दुमयमौक्तिकमण्डनं ते। जालैर्मिलन दधिमहोदधिपूरलोलकल्लोलचामरमरुत् तरुणि ! च्छिनत्तु।। तस्मिन्निति / हे तरुणि! हे उद्भूतयौवने! तस्मिन् द्वीपे, दधिमहोदधेः पूरे प्रवाहे, लोलाः चञ्चलाः, कल्लोलाः तरङ्गा एव, चामराणि तेषां मरुत्वायुः मलिम्लुचः चौर इव, 'चौरकागारिकस्तेन-दस्युतस्करमोषकाः। प्रतिरोधिपरास्कन्दिपाटश्चरमलिम्लुचाः // ' इत्यमरः, जालैः गवाक्षरन्ध्रः, मिलन् अन्तश्चरः सन् ; स्मरकेल्या जन्म यस्य तादृशं धर्मोदबिन्दुमयं स्वेदोत्करबिन्दुरूपं; 'मन्थौदन-' इत्यादिना उदकस्य विकल्पादुदादेशः, मौक्तिकमण्डनं मुक्ताभरणं, स्वार्थे ठक् / 'मौक्तिकमिति विनयादिपाठात्' इति वामनः, छिनत्त छित्त्वा हरतु; चौरा हि केनचिच्छिद्रेण प्रविश्य हारादिकं छित्त्वा आदाय पलायन्ते; अस्मिन् वृते सति दधिसमुद्रवायुना तव रतिअंमो न भविष्यति इति भावः / अत्र रूपकोपमयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 53 // हे युवति ! उस क्रौञ्च द्वीपमें खिड़कियोंसे भीतर आनेवाले दघिसमुद्रप्रवाह का चञ्चल तरङ्गरूप चामरकी वायु चोरके समान तुम्हारे कामके लिये उत्पन्न पसीने की बूंदरूपी भूषणको चुरावे / [ कामक्रीडाजन्य श्रम से पसीनेकी मोतियों के समान बूंदों की खिड़िकयोंसे दधिसमुद्रके प्रवाहसे चञ्चल तरङ्गोंरूपी चामर की हवा सुखावे / लोकमें भी कोई चोर प्रधान द्वारसे घर में प्रवेश नहीं करता किन्तु खिड़की आदिके रास्तेसे घरमें घुसकर भूषणादिको चुरा ले जाता हैं ] // 53 // एतद्यशो नवनवं खलु हंसवेशं वेशन्तसन्तरणदूरगमक्रमेण | अभ्यासमर्जयतिसन्तरितुंसमुद्रान्गन्तुञ्चनिःश्रममितः सकलान् दिगन्तान् __ एतदिति / नवनवं प्रत्यहं नूतनप्रकारं, 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विर्भावः, हंस. स्येव वेशः सर्वत्र प्रवेशव्यापारः, श्वेतात्मकरूपान्तरं, वा यस्य तत् , एतस्य राज्ञः, यशः वेशन्तसन्तरणं; पल्वलतरणं; 'वेशन्तः पल्वलञ्चाल्पसरः' इत्यमरः / दुरगमो दूरगमनं, 'ग्रहवृहनिश्चिगमश्च' इति अप-प्रत्ययः तयोः क्रमेण रीत्या, हंसस्य रीत्ये. त्यर्थः, इतोऽस्माद्देशात् , निःश्रमं श्रमरहितं-यथा तथा, समुद्रान् सन्तरितुं सकलान् दिगन्तान् गन्तुश्च अभ्यासम् अर्जयति खलु ? जिज्ञासायां खलुशब्दः, तेन, पुनः पुनरेवम् अभ्यस्यति किम् ? अन्यथा कथमस्य सकललोकलचित्वमित्युत्प्रेक्षा लभ्यते // 54 // इस ( 'द्युतिमान्' नामक राजा ) का हंसके समान श्वेत वर्ण ( पक्षा०-हंसवेषधारी) Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 657 अत्यन्त नवीन यश छोटे जलाशयके तैरते-तैरते दूर जाने के क्रमसे (पहले जलाशयके कुछ भाग तक, बाद में उससे कुछ अधिक भागतक और इस प्रकार धीरे-धीरे पार तक-इसी कमसे बढ़े जलाशयों के पारतक तदनन्तर ) समुद्र के पारतक तैरनेके लिये अभ्यास कर रहा है और यहां (समुद्र या इस स्थान ) से सम्पूर्ण दिशाओं के अन्ततक बिना अमके जानेका अभ्यास करता है। [अन्य भी कोई व्यक्ति पहले छोटे जलाशयमें धीरे-धीरे तैरनेका अभ्यास बढ़ाकर बड़े जलाशयों तथा बादमें समुद्र तकमें तैरनेका अभ्यास कर लेता है। सरस्वती देवीने इस राजाके यशको नवीनतम बतलाकर इसके वरणमें अनास्था प्रकट की है ] // . तस्मिन् गुणैरपि भृते गणनादरिद्रैस्तन्वी न सा हृदयबन्धमवाप भूपे। देवे विरुन्धति निबन्धनतां वहन्ति हन्त ! प्रयासपरुषाणि न पौरुषाणि // , तस्मिन्निति / तन्वी कृशाङ्गी, 'वोतो गुणवचनात्' इति विकल्पात् ङीष् सा भैमी, गणनादरिद्रैः, सङ्घयाशून्यैः, असङ्ख्यैरित्यर्थः, गुणैः भृतेऽपि पूर्णेऽपि, तस्मिन् भूपे द्युतिमदाख्ये राज्ञि, हृदयस्य बन्धं मनःसङ्गं, नावाप; तथा हि, देवे भागधेये, विरुन्धति प्रतिबध्नति सति, प्रयासेन दुःखबाहुल्येन, परुषाणि दुष्कराणि, पौरु. पाणि पुरुषकाराः, युवादित्वादण-प्रत्ययः निबन्धनता कार्यहेतुत्वं, न वहन्ति इत्य. र्थान्तरन्यासः; हन्तेति खेदे / वागुरापाशकादौ हरिणी यद् बन्धनमाप्नोति तत्र देवविडम्बना एव हेतुरिति ध्वनिः // 55 // ___ कृशोदरी वह ( दमयन्ती ) अगणनीय गुणोंसे परिपूर्ण भो उस ( 'द्युतिमान्' राजा ) में मनोऽमिलाष नहीं किया ( उस राजाको वरण करना नहीं चाहा ) भाग्यके प्रतिकूल होते रहने पर प्रयाससे दुष्कर भी पुरुषार्थ कार्यसाधक हेतु नहीं होते हैं। [ भाग्य के प्रतिकूल. होनेपर पुरुषों के कठोर प्रयास भी निष्फल हो जाते हैं ] // 55 // ते निन्यिरे नृपतिमन्यमिमाममुष्मादसावतंसशिविकांशभृतः पुमांसः। रत्नाकरादिव तुषारमयूखलेखां लेखानुजीविपुरुषा गिरिशोत्तमाङ्गम् // ते इति / ते प्रकृताः, अंसावतंसान् स्कन्धभूषणस्वरूपान् , शिविकायाः अंशान् अवयवान् , बिभ्रति ये ते, घुमासो यानवाहिपुरुषाः, लेखानुजीविपुरुषाः देवात्मकानुचराः, 'अमरा निर्जरा देवाः 'लेखा अदितिनन्दनाः' इत्यमरः / रत्नाकरात् रत्ना• करसकाशात् , तुषारमयूखलेखां चन्द्रकलां, गिरिशोत्तमाकं शिवशिर इव, इमां भैमीम् अमुष्मात् एतद्राजसकाशात् अमुं नृपं विहाय इत्यर्थः, अन्यम् इतरं, नृपति निन्यिरे प्रापयामासुः / भिवादात्मनेपदम् // 56 // __कन्धेके भूषण शिविकाके एकदेश ( डण्डे ) को धारण किये (कन्धेपर रक्खे ) हुए वे पुरुष अर्थात् (शिविकावाहक) उस ( दमयन्ती) को उस (युतिमान् ) राजासे हटाकर दूसरे राजाके पास उस प्रकार ले गये, जिस प्रकार देवानुचर चन्द्रकलाको शङ्कर जीके मस्तक. के पास अर्थात् मस्तकपर ले जाते है // 56 / / Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 नैषधमहाकाव्यम्। कैकमुद्गतगुणं धुनदूषणञ्च हित्वाऽन्यमन्यमुपगम्य परित्यजन्तीम् / एतां जगाद जगदर्चितपादपद्मा पनामिवाच्युतभुजान्तरविच्युतां सा / / एकैकमिति / जगद्भिः अर्चितपादपद्मा जगद्वन्द्या, सा सरस्वती, उद्गतगुणं गुणाढ्यं, धुतदूषणं निर्दोषञ्च, एकैकम् एकमेकं नृपं, वीप्सायां द्विर्भावः / 'एकं बहुः वीहिवत्' इति बहुव्रीहिवद्रावात् सुपो लुक् / हित्वा अन्यम् अन्यं नृपति, पूर्ववत् द्विर्भावः, उपगम्य परित्यजन्तीं तमपि परिहरन्तीम् , अच्युतस्य विष्णोः, भुजान्त. रात वक्षःस्थलात् , विच्युतां पद्मा साहालक्ष्मीमिव स्थिताम् , इत्युत्प्रेक्षा, एतां भैमी, जगाद // 57 // जगत्पूज्यचरणकमलवालो ( सरस्वती देवी), गुणयुक्त ( पाठा०-आश्चर्यजनक गुण. वाले ) और दोषरहित एक-एक ( राजा) को छोड़कर दूसरे-दूसरे (राजा) के पास जाकर ( उसे भी) छोड़ती हुई तथा विष्णुके वक्षःस्थलसे अवतीर्ण लक्ष्मीरूपा उस ( दमयन्ती) से बोली-॥ 57 // ईशः कुशेशयसनाभिशये! कुशेन द्वीपस्य लाञ्छिततनोर्यदिवाञ्छितस्ते / . ज्योतिष्मता सममनेन वनीघनासु तत् त्वं विनोदय घृतोदतटीषु चेतः / ईश इति / हे कुशेशयसनाभिशये! कमलसदृशपाणि! 'पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः / कुशेन दर्भस्तम्बेन, लामिछततनोः चिह्नितस्वरूपस्य, द्वीपस्य कुशद्वीपस्य, ईशः स्वामी, ते तव, वान्छितः इष्टः, यदि तत्तर्हि, त्वं ज्योतिष्मता ज्योतिष्मन्ना. मकेन, अनेन कुशद्वीपेश्वरेण, समं सह, वनीभिः घनासु वनसान्द्रासु, घृतम् उदकं यस्य सःघृतोदः घृतसमुद्रः, 'उदकस्योदः संज्ञायाम्' इत्युदादेशः, तस्य तटीषु तीरेषु चेतः चित्तं, विनोदय विनोदं कारय, विपूर्वात् नुदधातोः घन्तात् विनोद. शब्दात् 'तत् करोति'-इति ण्यन्ताल्लोटि सिप // 58 // ह कमलतुल्य हाथवाली ( दमयन्ति ) ! कुशासे चिह्नित देहवाले ( बहुत कुशाओंसे पूर्ण) द्वीप अर्थात् 'कुश-द्वीप' का स्वामी यदि तुम्हें अभीष्ट है तो तुम 'ज्योतिष्मान्' ( सौन्दर्यसे प्रकाशमान, पक्षा०-'ज्योतिष्मान्' नामवाले ) इस ( कुशद्वीपाविपति ) के साथ वनोंसे सघन समुद्रतटोंमें मन बहलावो [ अर्थात् इस 'ज्योतिष्मान् राजाको बरण कर वनोंसे सघन समुद्रतटमें विहार करो] // 58 // वातोर्मिलोलनचलहलमण्डलामभिन्नाम्रमण्डलगलज्जलजातसेकः / स्तम्बः कुशस्य भविताऽम्बरचुम्बिचूडश्चित्राय तत्र तव नेत्रनिपीयमानः / / वातेति / तत्र कुशद्वीपे, अम्बरचुम्बिनो गगनतललग्ना, चूडा अग्रं यस्य सः अभ्रकषान इत्यर्थः, अत एव वातस्य वायोः, ऊर्मिणा तरङ्गभङ्गया, लोलनेन कम्पनेन, - 1. '-मद्भुतगणम्' इति पा०। 2. 'विच्युतांसाम्' इति पा० / Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 656 चलदिः दलैः कुश्शानां पत्रैरेव, मण्डलाः खड्गैः कुशपत्ररूपखड्गैरित्यर्थः, 'खड़गे तु निस्त्रिंशचन्द्रहासासिरिष्टयः / कोक्षयको मण्डलामः करवालः कृपाणवत् // ' इत्यमरः / अत्र रूपकालङ्कारः; भिन्नात् विदारितात् , अभ्रमण्डलात् मेघमण्डलात् , गलद्भिः स्रवद्भिः, जलैः जातः सेको यस्य सः कुशस्य स्तम्बः दर्भगुल्मः, 'अग्रकाण्डे स्तम्बगुल्मी' इत्यमरः, नेत्राभ्यां निपीयमानः आदरात् दृश्यमानः सन् . तव चित्राय विस्मयाय, भविता भविष्यति // 59 // आकाशस्पर्शी अग्रभागवाला तथा वायुपरम्पराके द्वारा कँपानेसे चञ्चल पत्ररूपी तलवारोंसे छिन्न-भिन्न मेघसमूहसे गिरते हुए जलके द्वारा सींचे गये कुशस्तम्बको देखकर तुम्हें आश्चर्य होगा। [कुशद्वीपस्थ कुशका स्तम्ब आकाशस्पी है, वायुसमूहसे चञ्चल तलवारके समान तीक्ष्ण पत्तोंसे छिन्न-भिन्न मेघसमूहसे बरसे हुए पानीसे वह कुश सिक्त हो जाता है उसे देखकर तुम्हें आश्चर्य होगा ) // 59 // पाथोधिमन्थसमयोत्थितसिन्धुपुत्त्रीपत्पङ्कजार्पणपवित्रशिलासु तत्र / पत्यासहाऽऽवह विहारमयैर्विलासैरानन्दमिन्दुमुखि ! मन्दरकन्दरासु / / पाथोधीति / हे इन्दुमुखि ! तन्त्र कुशद्वीपे, पाथोधिमन्थस्य अब्धिमथनस्य, समये उत्थितायाः उद्गतायाः, समुद्रमन्थकाले तजलमध्यादुद्भूताया इत्यर्थः, सिन्धु, पुत्र्याः लपण्या:, पत्पङ्कजयोः चरणकमलयोः, 'पदनिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः, अर्पणेन पवित्राः शिलाः यासु तासु मन्दरकन्दरासु पत्या भी सह, विहाररूपः, विलासैः विनोदैः, आनन्दम आवह धारय // 60 // हे चन्द्रमुखि ( दमयन्ति )! उस कुशद्वीपमें समुद्रमथनके समय निकली हुई लक्ष्मीके चरणकमलके अर्पणसे पवित्र चट्टानोंवाली मन्दराचलकी गुफाओंमें विहारमय (विहाररूप या विहारबहुल ) विलासों ( कटाक्ष-विक्षेपादि ) से पति ( रूपमें वृत इस राजा) के साथ आनन्द प्राप्त करो // 6 // आरोहणाय तव सज इवास्ति तत्र सोपानशोभिवपुरश्मबलिच्छटाभिः / भोगीन्द्रवेष्टशतघृष्टिकृताभिरब्धि-क्षुब्धाचलः कनककेतकगोत्रगात्रि ! / / आरोहणायेति / कनककेतकं स्वर्णकेतकदलं, गोत्रम् अभिजनो यस्य तत् तादृशश, तस्य गोत्रं सन्ततिर्वा, गात्रं यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः, तद्गात्रि ! तरसदृशगात्री. त्यर्थः, 'अङ्गपात्रकण्ठेभ्यः' इत्यादिना ङीष, तत्र कुशद्वीपे, भोगीन्द्रस्य वासुके वेष्टशतवृष्टिभिः वेष्टनशतानां घर्षणैः कृताभिः अश्मसु शिलासु, बलीनां वेष्टनमार्गाणां, छटाभिः समूहः हेतुभिः, सोपानः शोभते इति तच्छोभि वपुः यस्य सः बलिकृतसोपानपतिः अब्धेः क्षुब्धाचलः मन्दराद्रिः 'तुब्धस्वान्त-' इत्यादिना निपातना साधुः, तवारोहणाय सज्जः सज्जित इव, अस्ति वर्तते, इत्युत्प्रेक्षा // 61 // Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / हे स्वर्ण-केतकीके समान ( गौर वर्ण) शरीरवाली (दमयन्ती) ! उस कुशद्वीपमें ( समुद्रमथनके समय ) सर्पराजको सैकड़ों बार लपेट कर घर्षण करनेसे उत्पन्न, 'चट्टानोंकी रचनाके परम्पराओंसे सोपान (सीढ़ी ) के समान शोभित शरीरवाला (सीढ़ीके समान सुन्दर ) मन्दराचल मानो तुम्हारे चढ़ने के लिए तैयार है [ मन्दराचलमें वासुकिको सैकड़ों बार लपेटकर समुद्रमथन किया गया था, उसके द्वारा घिसनेसे उस मन्दराचलमें पड़े हुए चिह्न चट्टानों से बनाई हुई सीढ़ोके समान मालूम पड़ते हैं, और उनके द्वारा ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो वह तुम्हें अपने ऊपर चढ़ाने के लिये तैयार हो ] / / 61 // मन्था नगः स भुजगप्रभुवेष्टघृष्टिलेखाचलद्धवलनिर्झरवारिधारः / त्वन्नेत्रयोः स्वभरयन्त्रितशीर्षशेषशेषाङ्गवेष्टिततनुभ्रममातनोतु // 6 // मन्थेति / भुजगप्रभोः वासुकेः, वेष्टः वेष्टनैः, या घृष्टिलेखाः घर्षणमार्गाः घर्षण. जन्यवलयाकाररेखा इति यावत् , तासु चलन्त्यः प्रवहन्त्यः, धवलाः निर्झरवारि. धारा यस्य तादृशः, सः प्रसिद्धः, मन्थाः। मन्थनदण्डः, 'वैशाखमन्थमन्थानमन्थानो मन्थदण्डके' इत्यमरः नगोऽद्रिः मन्दराद्रिरित्ययः, स्वन्नेत्रयोः तव चक्षुषोः स्वस्य मन्दरस्यैव, भरेण भारेण, यन्त्रितानि कुञ्चितानि शीर्षाणि यस्य तस्य शेषस्य अनन्तस्य भूभारं बहतः शेषाहेरित्यर्थः, शेषाङ्गेन अवशिष्टकायेन, वेष्टिता तनुः शरीरं यस्य स इति भ्रमम् आतनोतु भ्रान्ति जनयतु; सो हि शिरसि कामतोऽङ्गं स्वाङ्गेन वेष्टयतीति प्रसिद्धिः, शेषस्य शुभ्राङ्गतया वारिधाराणाञ्च धवलत्वात् लेखासु बलयितत्वाच्च भ्रमः सम्भाव्यते इति भावः / अत्र कविसम्मतसादृश्यमूलभ्रान्तिवर्णनात् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 62 // हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) ! सर्पराज (. वासुकि) के लपेटनेसे बनायी गयी घिसनेकी रेखाओंसे गिरती हुई स्वच्छ झरनोंके पानीकी धारावाला मथनी वह पर्वत अर्थात् मन्दराचल तुम्हारे नेत्रोंको-'अपने (मन्दराचलके) बोझ से दबे हुए मस्तकोंवाले शेषनागके अवशिष्ट ( बाकी) शरीरसे लिपटे हुए शरीरवाला यह है' ऐसा भ्रम करे। [सर्पके मस्तकको दबाने पर वह बाकी शरीरसे दबाने वालेके शरीरको लपेट लेता है, ऐसी उसकी प्रकृति होती है / मन्दराचलमें सर्पराज को लपेटकर समुद्रका मथन किया गया था, उस समय सर्पराजके लिपटने के स्थानों में घिसनेसे चिह्न ( गढ़े ) पड़ गये उनसे बहती हुई झरनोंकी स्वच्छ जलधाराको देखकर तुम्हें ऐसा भ्रम होगा कि सर्पराजने मन्दराचल के द्वारा अपना मस्तक दबानेसे अपने अवशिष्ट शरीरसे उस मन्दराचलको लपेट लिया है ] / / 62 // एतेन ते स्तनयुगेन सुरेभकुम्भौ पाणिद्वयेन दिविषद्रुमपल्लवानि / आस्येन स स्मरतु नीरधिमन्थनोत्थं स्वच्छन्दमिन्दुमपि सुन्दरिमन्दराद्रिः। एतेनेति / हे सुन्दरि ! स मन्दरादिः, एतेनेति पुरोवर्तिनिर्देशः, अस्य च तृती. यान्तपदत्रयेण सम्बन्धः, ते तव, स्तनयुगेन सुरेभस्य ऐरावतस्य, कुम्भौ, पाणिद्वयेन Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. एकादशः सर्गः। 661 दिविषदद्रमस्य कल्पवृक्षस्य, पल्लवानि, आस्येन इन्दुमपि, एवं नीरधिमन्थनोत्थं समुदमन्थनोद्भूतं, समुद्रमथनोत्थानि सर्वाण्येतानि वस्तूनि इत्यर्थः, 'नपुंसकमनपुंसकेनैकवचास्यान्यतरस्याम्' इति नपुंसकत्वं वैकल्पिकमेकत्वञ्च स्वच्छन्दं निरवग्रह, यथेष्टमित्यर्थः, 'स्वच्छन्दो निरवग्रहः' इत्यमरः, स्मरतु / अत्र कविसम्मतसा. दृश्यमूलस्मृतिनिबन्धनात् स्मरणालङ्कारः // 63 // हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) ! वह मन्दराचल तुम्हारे इस स्तनद्वयसे ऐरावतके कुम्मद्वय (मस्कस्थित कुम्भाकार दो मांसपिण्ड-विशेष ) को भुजद्वयसे कल्पवृक्षके पल्लवको और मुखसे समुद्रमथनसे निकले हुए चन्द्रमाको अच्छी तरह स्मरण करे। [ समुद्रमथनके समय ऐरावत, कल्पवृक्ष तथा चन्द्रमा निकले हैं, उनको प्रत्यक्ष देखनेवाले मन्दराचलको तुम्हारे स्तनद्वय, पाणिद्वय तथा मुखको देखकर ऐरावत, कल्पवृक्ष तथा चन्द्रमा स्मरण अवश्य हो जायेगा; क्योंकि तुम्हारे स्तनद्वय ऐरावतके कुम्भद्वयके समान, भुजद्वय कल्पवृक्षके पल्लवके समान तथा मुख चन्द्रके समान हैं। अतः सदृश वस्तुओंके देखनेसे पूर्वदृष्ट वस्तुका स्मरण होना सहज है ] // 63 // वेदैर्वचोभिरखिलैः कृतकीर्तिरत्ने हेतुं विनैव धृतनित्यपरार्थयत्ने / मीमांसयेव भगवत्यमृतांशुमौलो तस्मिन् महीभुजि तयाऽनुमतिने भजे // वदरिति / अखिलैः समस्तः, अन्यत्र-अखिले: अविच्छिन्नसम्प्रदायः, वः वेदतुल्यः, वचोभिः सत्पुरुषवाक्यः, अन्यत्र-'यतो वा' इति वेदवाक्यः, कृतं प्रका. शितम्, अन्यत्र-प्रतिपादितं, कीर्तिरत्नम् अमूल्यरत्नरूपं यशः, अन्यत्र-स्तुति. रूपरत्नं यस्य तस्मिन् , हेतुं विनैव स्वोपकारमनपेच्येव, धृतःनित्यं सदा, परार्थयत्नः स्वयमवाप्तसकलकामत्वेन परार्थंकप्रवृत्तिः येन तादृशे, तस्मिन् ज्योतिष्मन्नाग्नि, महाभुजि तया भैम्या, भगवति अमृतांशुमौलो ईश्वरे मीमांसया पूर्वमीमांसयव, अनुमातः अङ्गाकारः, न भेजे न प्राप्तः, भजेः कर्मणि लिट् , वेदापौरुषेयवादिना मीमांसा भगवन्तमीश्वरं न सहते। ईश्वरबोधकवेदवाक्यानाञ्च नेश्वरप्रामाण्यतात्प. यकत्वं परन्तु अन्यवाक्येकवाक्यतया अन्यत्र तात्पर्यकत्वं, 'यत्परः शब्दः सः शब्दाथः, इत्याशयः / पूर्णोपमा // 64 // - सब लोगोंके द्वारा वेदतुल्य सत्य वचनोंसे विस्तारित कीर्तिरूपी रत्नवाले तथा निष्कारण दूसरेके लिए उद्योग करनेवाले उस 'ज्योतिष्मान्' नामक राजाको उस दमयन्तीने उस प्रकार स्वीकार नहीं किया, जिस प्रकार समस्त वेदवचनोंसे किये गये कौर्तिरत्नवाले तथा (स्वयं नित्य पूर्ण समस्त कामनावाले होनेसे) परोपकारके लिए कार्य करनेवाले अर्थात् परमदयालु भगवान् चन्द्रमौलि ( शङ्करजी) को पूर्वमीमांसा नहीं स्वीकार करती है [ पूर्वमामांसा वेदको अपौरुषेय ( ईश्वरकृत ) मानती हे परन्तु अन्य किसी देवको नहीं मानती / दमयन्तीने उस 'ज्योतिष्मान्' राजाको वरण नहीं किया ] // 64 / / Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 नैषधमहाकाव्यम् / तम्मादिमां नरपतेरपनीय तन्वीं राजन्यमन्यमथ जन्यजनः स निन्ये / स्त्रीभावधावितपदामभिमृश्य'याच्ञामर्थी निवर्त्य विधनादिव वित्तवित्तम्॥ ___ तस्मादिति / अथ अनन्तर, जन्यजनः वाहकलोकः, स्त्रीभावेन स्त्रीलीलया, 'भावो लीलाक्रियाचेष्टाभूत्यभिप्रायजन्तुषु' इति वैजयन्ती, धावितपदां चालितचरणां, स्त्रीजनोचितचरणचेष्टयैव अन्यतो गमनमनुजानतीमित्यर्थः, अन्यत्र-स्त्रीभावे स्त्रीलिङ्गे, धावितं पदं याच्जेति पदं यस्याः तां, 'यज-याच-यत विच्छ-प्रच्छ-रक्षो न' इति नङ्-प्रत्ययस्य यजादिभ्यः पुंसि प्रयोगेयाचेरेव स्त्रीलिङ्गप्रयोगादिति भावः तन्वीं कृशाङ्गीम, इमां भैमी, तस्मात् नरपतेः अपनीय अर्थी याचकः, अभिमृश्य विमृश्य, याच्जाम् उक्तरूपां याच्जावृत्तिं, विधनात् निर्धनात् पुंसः, निवर्त्य वित्तेन धनेन, वित्तः प्रतीतः, विख्यात इति यावत् , 'वित्तो भोगप्रत्यययोः' इति विदेर्लाभार्थाविष्ठानत्वाभावान्निपातनात् भोग्ये प्रतीते चार्थे उभयं साधु,भुज्यते इति भोगो धनादि, प्रतीयते इति प्रत्ययः ख्यातिः इति कर्मसाधनावेतौ। तथाऽऽहुः,-वेसेस्तु विदिलो निष्ठा विद्यतेर्विन्न इष्यते। विन्तेविनश्च वित्तश्च भोगे वित्तश्च विन्दतेः // ' इति तं वित्तवित्तंधनाढयमिव, अन्यं राजन्यं राज्ञोऽपत्य, राजानमित्यर्थः, 'राजश्व शुराद् यत्' 'राज्ञोऽपत्ये जातिग्रहणम्' इति वचनात् राजन्यः क्षत्रियः / निन्ये / श्लेषोपमयोः संसृष्टिः // 65 // अनन्तर ( दमयन्तीके 'ज्योतिष्मान् राजाको स्वीकार नहीं करनेपर ) वे शिविकावाहक लोग स्त्रीभाव (स्त्रीपन) से चलित पादवाली ( स्पष्ट न कहकर पैरके अङ्गुष्ठको चलाकर आगे बढ़ने का संकेत करनेवाली ) इस तन्वी ( दमयन्ती) को उस राजासे हटाकर दूसरे राजकुमार के पास उस प्रकार ले गये, जिस प्रकार याचक विचारकर अर्थात् मालूमकर स्त्रीत्वसे चलित पदवाली याच्ञाको निर्धन व्यक्तिसे हटाकर धनिक व्यक्ति के पास ले जात है / [ याच्या शब्द स्त्रीलिङ्ग है अतः स्त्रीसुलभ स्वभावसे इधर-उधर दौड़नेवाली है-चाहे जिस किसीसे भी याचक याचना 'याच्या' कर लेता है। अथवा-'यजयाचयतविच्छप्रच्छ. रक्षो यङ्' (पा० सू० 3 / 3 / 90 ) से सिद्ध होनेवाले प्रयोगोंमें केवल 'याच्या' पद ही स्त्रीलिङ्ग है, अन्य सभी-'यज्ञः यत्नः, विश्नः, प्रश्नः और रक्ष्णः-शब्द पुँल्लिङ्ग ही हैं, अत एव यह स्त्रीत्व (स्त्रीलिङ्ग) में आनेवाला यह 'याच्या' पद है / जब याचकको मालूम हो जाता है कि यह ब्यक्ति निर्धन है तो उससे याचना न कर धनिकों के पास याचना करता है ] / देवी पवित्रितचतुर्भुजवामभागा वागालपत् पुनरिमां गरिमाभिरामाम् / अस्यारिनिष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् / / __ देवीति / पवित्रितः चतुर्भुजस्य विष्णोः, वामभागो यया सा, लक्ष्मीसरस्वत्यौ देवस्य दक्षिणवामपार्श्ववर्तिन्यावित्यागमः। वाक देवी सरस्वती, गरिम्णा गुणगौरवेण, अन्यत्र-अर्थगौरवेण, अभिरामा गिरम्आलपत् उवाच / किमिति ? हे वत्से! Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। अरिषु निष्कृपः यः कृपाणः खङ्गः, तेन सनाथः सहितः, पाणिः यस्य ताहशस्य, अस्य राज्ञः, गुणानां गणं पाणिग्रहात् अनु विवाहानन्तरं, गृहाण जानीहि, तदा ज्ञास्यसि महिमानमस्येत्यर्थः, यद्वा-पाणिग्रहात् पाणिग्रहणं कृत्वा, अमुं नृपं वरीस्वा इत्यर्थः, अनुगृहाण समाद्रियस्व, गुणेषु आदरं प्रदर्शयेत्यर्थः // 66 // . विष्णुके वामभागको पवित्र करनेवाली (वामभागमें निवास करने वाली) वाक (सरस्वती) देवी ( कुल-सील-सौन्दर्य आदि गुणों के या सरस्वतीकी सखी होनेके) गौरवसे मनोश इस ( दमयन्ती ) से फिर बोली-शत्रुओं में निर्दय एवं हाथ में तलवार लिये हुए ( अथवाशत्रुओं में निर्दय तलवारको हाथ में लिये हुए.) इस ( राजा ) के विवाहसे अपने ( या इस राजाके ) गुण-समूहों को अनुगृहीत करो ( या बादमें अर्थात् विवाह करने के बादमें ग्रहण ( मालूम ) करो। [ इस राजाके साथ विवाह करोगी तब अत्यन्त निकट सम्बन्ध होने के बाद यह कितना गुणवान् है यह जानोगी अथवा–यदि तुम इसके साथ विवाह नहीं करोगी तो इसके गुण व्यर्थ हो जायेंगे, अतः इसके साथ विवाह करके इसके गुणोंको अनुगृहीत करो। अथवा-इसके साथ विवाह नहीं करोगी तो तुम्हारे गुण व्यर्थ हो जायेंगे, अतः इसके साथ विवाह करके अपने गुणोंको अनुगृहीत करो // 66 // द्वीपस्य शाल्मल इति प्रथितस्य नाथः पाथोधिना वलयितस्य सुराम्बुनाऽयम्। अस्मिन् वपुष्मति न विस्मयसे गुणाब्धौ . रक्ता तिलप्रसवनासिकि ! नासि किं वा ? / / 67 // .. द्वीपस्येति / हे तिलप्रसवनासिकि ! तिलकुसुमसमाननासिके ! 'नासिकोदरोष्ठ-' इत्यादिना विकल्पात् , ङीष , अयं राजा, सुरा मद्यमेव, अम्ब यस्य ताशेन, पाथोधिना समुद्रेण, सुरासमुद्रेणेत्यर्थः, वलयितस्य सातवलयस्य, वेष्टितस्येत्यर्थः, शाल्मल इति प्रथितस्य द्वोपस्य नाथः स्वामी; गुणान्धी अस्मिन् वपुष्मति वपुष्मदाख्ये, अथ च प्रशस्तशरीरशालिनि राज्ञि, किं न विस्मयसे ? अस्य गुणेषु किम् आश्चर्यान्विता न भवसि ? रक्ता वा अनुरक्ता च, किं नासि ? उभयमप्युचितमिवेत्यर्थः // 6 // हे तिलपुष्पके समान नाकवाली ( दमयन्ति )! यह मदिराख्य जलवाले समुद्रसे घिरे हुए 'शाल्मल' इस नामसे प्रसिद्ध द्वीपका स्वामी है। गुणों के समुद्र इस वपुष्मान् ( श्रेष्ठ शरीरवाले पक्षा०–'वपुष्मान्' नामवाले ) इस राजामें आश्चर्थित नहीं होता हो ? और अनुरक्त नहीं होती हो क्या ? / [ शरीरधारी गुणी-समुद्रको देखकर आश्चर्यित होना चाहिये तथा उसमें अनुरक्त भी होना चाहिये सुरासमुद्रका वर्णनकर सरस्वतीदेवीने इस राजाके वरण करने में असम्मति प्रकट की है ] // 67 // 42 नै० Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 नैषधमहाकाव्यम्। विप्रे धयत्युदधिमेकतमं प्रसत्सु यस्तेषु पञ्चसु विभाय न शीधुसिन्धुः। तस्मिन्ननेन च निजालिजनेन च त्वं सार्द्ध विधेहि मधुरा मधुपानकेलीः॥ विप्रे इति / शेरते अनेनेति शीधुः आसवः, 'मैरेयमासवः शीधुः' इत्यमरः। शीडो धुक-प्रत्यय औणादिकः यः शीधुसिन्धुः आसवसमुद्रः, विप्रे अगस्त्ये, एकतमम् उदधिं लवणसमुद्र, धयति पिवति सति, लटः शतृ-प्रत्ययः, तेषु पञ्चसु दधिः मण्डादिसमुद्रेषु, सत्सु अयमस्मानपि पास्यतीति मरवा बिभ्यत्सु सत्सु, न विभाय स्वयं न भीतः, 'ब्राह्मणो न सुरां पिबेत्' इति निषेधादिति भावः, तस्मिन् सुराब्धौ, अनेन राज्ञा च, निजेन आलिजनेन च सार्द्ध मधुराः मनोहराः, मधुपानकेलीः मद्यपानक्रीडाः, विधेहि कुरु // 68 // ब्राह्मण ( अगस्त्य मुनि ) एक समुद्र (क्षारसमुद्र ) को पीने लगे तब दूसरे पांच समुद्र (क्षीरसमुद्र, दधिसमुद्र, घृतसमुद्र, इक्षुरससमुद्र और मधुरजलसमुद्र) डरने लगे (कि 'हम लोगोंको भी ये अगस्त्य मुनि न पी लेवें, किन्तु 'ब्राह्मणके मदिरा पीनेका निषेध होनेसे हमको ये नहीं पीयेंगे' ऐसा निश्चय कर ) उस समय जो सुरासमुद्र नहीं डरा उसमें इस ( 'वपुष्मान्' ) राजा तथा सखीजनों के साथमें तुम मनोज्ञ मद्यप न क्रीडाओं को करो। [इस राजाके साथ विवाह कर लेनेपर तुम्हारे तथा तुम्हारी सखियों के लिये मद्यपानक्रीडा करना बहुत सरल होगा, अत एव इस राजाके साथ विवाह करो]६८॥ द्रोणः स तत्र वितरिष्यति भाग्यलभ्यसौभाग्यकार्मणमयीमुपदां गिरिस्ते। तद्वीपदीप इव दीप्तिभिरोषधीनां चूडामिलजलदकजलदर्शनीयः // 6 // द्रोण इति / तत्र शाल्मलिद्वीपे, ओषधीनां तृणज्योतिषां दीप्तिभिः तस्य द्वीपस्य दीप इव, स्थितः इति शेषः, अत एव चूडायां शिखरे, मिलनिः सङ्गच्छमानैः, जल. दैरेव कज्जलैः दर्शनीयः दृष्टिप्रियः, स प्रसिद्धः, द्रोणो द्रोणाख्यः, गिरिः, ते तव, भाग्यरेव लभ्यं सौभाग्यं पतिवाल्लभ्यं, तस्य कार्मणं मूलकर्म, ओषधीनां मूलैः साध्यं वशीकरणादिरूपं कर्म, 'मूलकर्म तु कार्मणम्' इत्यमरः / 'तद्युक्तात् कर्मणोऽण' इति स्वार्थेऽण प्रत्ययः, तन्मयीं तद्पाम, उपदाम् उपायनम्, 'उपायनमुपग्राह्यमुप. हारस्तथोपदा' इत्यमरः। वितरिष्यति दास्यति; उपलक्षणमेतत् , सञ्जीवन्याद्यने. कदिव्यौषधिलाभस्ते भविष्यतीति भावः / अत्र कार्मणमयीमुपदामिति परिणामालकारः, आरोप्यमाणो यदीयस्तद्विषयकार्मणाकारपरिणामेन प्रकृतप्रभुचित्तावर्जनो. पयोगित्वात् आरोग्यमाणमारोपविषयात्मत्वेन स्थितम् ; 'प्रकृतस्योपयोगित्वे परिणाम-उदाहृतः' इति लक्षणात्; अस्य च दीप इवेत्युत्प्रेक्षया संसृष्टिः, तस्यास्तु जलदकजलेतिरूपकेण सङ्करः // 69 // . वहां ('शाल्मल' द्वीपमें ) औषधियों के प्रकाशसे उस द्वीपके दीपक के समान शिखरों में लगे हुए मेघरूप कज्जलसे दर्शनीय वह (प्रसिद्ध ) द्रोण पर्वत तुम्हारे लिए भाग्यसे मिलने Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। वाले सौभाग्य (पतिप्रेम आदि ) के ओषधियों की जड़से वशीकरणरूप उपदाको देगा। [दीपके ऊपर कज्जलके समान उस द्रोणपर्वतके शिखरों पर काले मेघ है जिनसे वह पर्वत बहुत सुन्दर मालूम पड़ता है, और उसमें बहुत-सी जड़ी-बूटियां है / अत एव तुम इस राजाको वरण कर उस पर्वतसे बड़े भाग्यसे प्राप्य वशीकरण बूटी को पा सकती हो इस कारण इस राजाको वरण करो ] // 69 // तद्वीपलक्ष्मपृथुशाल्मलितूलजालैःक्षोणीतलेमृदुनि मारुतचारुकीर्णैः। लीलाविहारसमये चरणार्पणानि योग्यानि ते सरससारसकोषमृद्धि ! // तद्द्वीपेति / सरसम् अभिनवं, यत् सारसं पद्म, तस्य कोषः मुकुलं, तद्वत् मृद्धी कोमला, तत्सम्बद्धौ हे सरससारसकोषमृद्धि ! अभिनवकमलकोरककोमले ! मारुतेन चारु यथा तथा कीर्ण, तद्वीपस्य लचम चिह, पृथुः महान् , यः शाल्मलिः तदाख्यया प्रसिद्धवृक्षविशेषः, 'स्थिरायुः शाल्मलिद्वयोः' इत्यमरः / तस्य तूलजालैः तूलसमूहैः, मृदुनि कोमले, क्षोणीतले ते तव, लीलाविहारसमये क्रीडासचरणकाले, चरणार्प. णानि पादविन्यासाः, योग्यानि अनुरूपाणि, भविष्यन्तीति शेषः, अतिकोमलायास्ते अतिकोमलस्थले एव गमनं युक्तं, तवातिश्लाघ्यमिति भावः / अत्रानुरूपयोगोतो, समालङ्कारः, 'सा समालकृतियोंगे वस्तुनोरनुरूपयोः' इति लक्षणात् // 70 // . हे नवीन ( ताजे ) कमलकोशके समान कोमल ( दमयन्ति ) ! वायुके द्वारा सम्यक फैलाये गये, उस ( शाल्मल) द्वीपके चिह्न विशाल सेमलकी रुहयों के समूहसे कोमल भूतल पर लीलापूर्वक विहार करने के समय तुम्हारा पैर रखना योग्य होगा। [ कमलकोशके समान कोमलाङ्गी तुम्हारे विहार के योग्य कोमलतम भूमि इस राजाको स्वीकार करने पर ही प्राप्त होगी, अत एव तुम इसको स्वीकार करो ] // 70 // एतद्गुणश्रवणकालविज़म्भमाणतल्लोचनाञ्चलनिकोचनसूचितस्य / भावस्य चकुरुचितं शिविकाभृतस्ते तामेकतः क्षितिपतेरपरंनयन्तः // 71 / / ___ एतदिति / तां भैमीम्, एकतः एकस्मात् , क्षितिपतेः अपरं चितिपति, नयन्तस्ते शिविकाभृतो जन्याः, एतस्य राज्ञः, गुणश्रवणकाले विज़म्भमाणायाः तस्याः दमयन्त्याः, लोचनाञ्चलस्य नेत्रप्रान्तस्य, निकोचनेन सङ्कोचनेन, सूचितस्य ज्ञापि. तस्य, भावस्य अभिप्रायस्य, उचितम् अहं कृत्यं, चक्रः, अपरागज्ञानानन्तरमपसरणमेव उचितमिति भावः // 71 // ___उस ( दमयन्ती) को एक राजा ( 'वपुष्मान्' नामक राजा ) से दूसरे ( राजा ) के पास ले जाने वाले शिविकावाहकों ने, इस ( 'वपुष्मान्' राजा ) के गुणों को सुनने के समयमें विजम्भमाण ( बढ़ते हुए ) उस (दमयन्ती ) के नेत्रप्रान्त अर्थात् कटाक्षके सङ्कोचसे व्यक्त भाव ( उस राजामें अनुरक्तिका अभाव ) के अनुकूल ही किया। [उस राजाके गुणोंको सुनते समयमें दमयन्तीने उसे कटाक्षसे देखना बन्द कर दिया, यह कार्य सामने वाले अन्य Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 नैषधमहाकाव्यम् / राजाओ के भूषणों या मणिस्तम्भोंमें देखकर 'दमयन्ती इस राजा को नहीं चाहती' ऐसा उसका भाव मालूमकर उस राजासे हटाकर उसे दूसरे राजाके पास ले गये यह दमयन्तीके भाव को समझनेवाले विज्ञ शिविकावाहकोंने ठीक ही किया ] // 71 // तां भारती पुनरभाषत नन्वमुग्मिन् काश्मीरपङ्कनिभलग्नजनानरागे। श्रीखण्डलेपमयदिग्जयकीर्तिराजिराजद्भजे भज महीभुजि भैमि!भावम् / / तामिति / भारती तां भैमी, पुनरभाषत / किमिति ! ननु भैमि ! काश्मीरपङ्कनिभेन कुछमानुलेपनमिषेणेत्यपहवः, लग्नो जनानुरागो यस्मिन् तस्मिन् , श्रीखण्डलेपः चन्दनलेपनं, तन्मयीभिः दिग्जयकीतीनां राजिभिः राजन्ती शोभमानौ, भुजौ यस्य तस्मिन् , अमुष्मिन् महीभुजि राज्ञि,भावम् अनुरागं, भज / अत्र श्रीखण्डलेके कीर्तित्वोस्प्रेक्षा गम्या // 72 // ____ सरस्वती देवी उस ( दमयन्ती ) से फिर बोली-हे दमयन्ति ! कुङ्कुमके समान लगे हुए जनानुरागवाले तथा चन्दनलेपरूप दिग्विजयजन्यकीर्ति-समूहसे शोभित बाहुवाले इस राजामें अनुराग करो / [ इस राजा के प्रत्येक अङ्गमें रक्तवर्ण कुङ्कुमलेप जिस प्रकार लगा है उसी प्रकार प्रत्येक अङ्गके सुन्दरतम होनेसे उन्हें सभी जन अनुरागसे देखते हैं तथा बाहुमें श्वेत वर्ण जो चन्दनलेप लगा है वह ऐसा मालूम पढ़ता है कि यह बाहुओं द्वारा दिशाओं के विजय करनेसे कीर्ति लगी हुई है, जनानुरागका कुङ्कुम के समान अरुण वर्ण तथा दिग्विजयजन्या कीर्तिका चन्दनलेपके समान श्वेत वर्ण होना एवं प्रत्येक अङ्गके दर्शनीय होनेसे उसमें जनानुरागका तथा बाहुबलजन्य दिग्विजयकीर्ति-समूह होनेसे उसका बाहुमें संलग्न होना उचित ही है ] / / 72 / / द्वीपं द्विपाधिपतिमन्दपदे ! प्रशास्ति प्लक्षोपलक्षितमयं क्षितिपस्तदस्य | मेधातिथेस्त्वमुरसि स्फुर सृष्टसौख्या साक्षाद् यथैव कमला यमलार्जुनारे।। द्वीपमिति / द्विपाधिपतेः गजेन्द्रस्येव, मन्दम् अलसं, पदं गमनं यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः, अयं क्षितिपः प्लक्षेण प्लक्षवृक्षण, उपलक्षितं चिह्वितं, द्वीपं प्लक्षद्वीपं प्रशास्ति पालयति, तत् तस्मात् , मेधातिथेः मेधातिथिनाम्नः, अस्य राज्ञः, उरसि सृष्टसौख्या जनितानन्दा सती, यमलयोः युग्मयोः, अर्जुनयोः ककुभवृक्षयोः, तद्रूपधारिणोः असुरयोरिति यावत् , अरेर्विष्णोः, उरसि साक्षात् कमला लचमीः, यथा तथैव स्फुर भाहि // 73 // - हे गजराजके समान मन्दगतिवाली ( दमयन्ति ) ! यह राजा 'प्लक्ष' वृक्ष से युक्त द्वीप अर्थात् 'प्लक्षद्वीप' का शासन करता है, इस कारण तुम इस मेधातिथि ( 'मेधातिथि' नामक' पक्षा-बुद्धि है अतिथि जिसकी ऐसे अतिशय बुद्धिमान् इस ) राजाके हृदयमें ( आलिङ्गनके द्वारा) सुख उत्पन्न करके श्रीविष्णु भगवान्के हृदयमें आलिङ्गन के द्वारा सुख उत्पन्न करने वाली साक्षात् लक्ष्मी के समान शोभित होवो // 73 // Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। लक्षे महीयसि महीवलयातपत्रे तत्रेक्षिते खलु तावापि मतिर्भवित्री। __ लक्ष इति / तत्र लक्षद्वीपे, अधिशाख शाखायां, विलम्बिनीभिः दोलाभिः लोलानि अखिलानि समस्तानि, अङ्गानि यस्याः तादृशी या बनता जनसमूहः, तया जनितोऽनुरागो यस्मिन् तस्मिन् , महीवलयस्यातपत्रे छत्ररूपे, महीयसि महत्तरे, प्लने प्लक्षवृते, ईषिते सति, तवापि खेलां दोलाक्रीडधं, 'क्रीडा खेला च कूर्दनम्' इत्यमरः / विधातुं कत्त, मतिः इच्छा, भवित्री भाविनी खलु, परकीयविहारदर्शनात् स्वस्यापि तदभिलाषी भवतीति भावः // 74 // उस ( प्लक्षद्वीप ) में शाखामों में लटकते हुए झूलाओंसे चन्चल समस्त अङ्गोंवाली जनतासे अनुराग उत्पन्न करनेवाले तथा भूमण्डलके छत्ररूप उस विशालतम लक्ष' वृक्षको देखनेपर क्रीडा करने (झूलेपर चढ़ने ) के लिये तुन्हारी भी रुचि होगी। [उस 'प्लक्षद्वीप' में महुत बड़ा 'प्लक्षवृक्ष' है जो छतनार होनेसे पृथ्वीमण्डलके छातेके समान जान पड़ता है और उसकी डालियों में झूला लगाकर बहुत लोगों को चढ़े एवं झूलते हुए देखकर तुम भी झूलेपर चढ़ना चाहोगी ] // 74 / / पीत्वा तवाधरसुधां वसुधासुधांशुन श्रद्दधातु रसमिक्षुरसोदवाराम् / द्वीपस्य तस्य दधतां परिवेशवेशं सोऽयं चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षि!॥ पीत्वेति / हे चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षि ! चकितचकोरचञ्चलनयने! वसुधासुधांशुः भूचन्द्रः, सोऽयं मेधातिथिः, तव अधरसुधाम् अधरामृतं, पीत्वा तस्य. द्वीपस्य परिवेशवेशं वेष्टनस्वरूपं, परिखाकारमित्यर्थः; 'परिवेशो वेष्टने स्यात् परिधावपि पुंस्ययम्र' इति मेदिनी, दुधताम्र इचरसः एवोदकं यस्य तस्य इरसाब्धेः, वारां वारीणां, रसं स्वादं, न श्रद्दधातु न अभिलषतु 'श्रद्धाऽऽस्तिक्याभिलाषयोः" इति वैजयन्ती / अमृतस्वादलोलुपस्य किमिक्षुरसगण्डूषैरिति भावः / चकोरा एव चन्द्रस्य अमृतं पिबन्ति, किन्तु चकोराच्याः तव अधरामृतं भूचन्द्रोऽयं पिबति अतः चमत्कृतपदस्य सार्थकता अवगन्तव्या इति निष्कर्षः // 75 // . हे चकित चकोर के समान चञ्चल नेत्रोंवालो ( दमयन्ति )! पृथ्वी का चन्द्र सुप्रसिद्ध यह ( 'मेधातिथि' राजा) तुम्हारे अधरामृतको पीकर उस द्वीपके परिधि बने हुए, इक्षुरसके जलके रसको नहीं चाहेगा। [ चकोर चन्द्रामृतका पान करता है, चन्द्र चकोरका पान नहीं करता; किन्तु प्रकृतमें चन्द्ररूप यह राजा चकोरनेत्री तुम्हारे अधरका पान करेगा यह चकोर के चकित होनेका कारण है। अमृतपान करनेवाले व्यक्तिको क्षुरसका पान करने के लिये इच्छुक नहीं होना उचित ही है ] / / 75 // सूरं न सौर इव नेन्दुमवेक्ष्य तस्मिन्नश्नाति यस्तदितरत्रिदशानभिक्षः। तस्यैन्दवस्य भवदास्यनिरीक्षयैव दशेऽनतोऽपि न भवत्ववकीर्णिभाव।। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 नैषधमहाकाव्यम् / सूरमिति / तस्मिन् लक्षद्वीपे, तस्मादिन्दोः, इतरेषां त्रिदशानाम् अनभिज्ञः इन्दोरन्यं देवमभजमानः, यः चन्द्रभक्तो जनः, सूरे भक्तिर्यस्य स सौरः सूर्यभक्तः, 'भक्तिः' इत्यण , सूरं सूर्यमिव, इन्दुं न अवेक्ष्य न दृष्ट्वा, नाश्नाति न भुङ्क्ते तस्य ऐन्दवस्य इन्दुभक्तस्य, पूर्ववदण प्रत्ययः, भवत्याः आस्यनिरीक्षयैव स्वन्मुखदर्शने. नैव, सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / दर्श अमावास्यायाम् , अश्नतो भुञानस्यापि, अवकीर्णिभावः तव्रतत्वम् , 'अवकीर्णी क्षतव्रतः' इत्यमरः / न भवतु; स्वन्मुखस्येव मुख्येन्दुत्वात्तद्दर्शनादेव इन्दुदर्शनवतिनां भोजनाधिकारसिद्धः नास्ति च व्रतभङ्ग. दोष इति भावः / एतेन तन्मुखे मुख्येन्दुभ्रमात् भ्रान्तिमदलङ्कारो व्यज्यत इति वस्तुनाऽलंकारभ्वनिः // 76 // उस ( प्लक्षदीप ) में उस ( चन्द्र ) से भिन्न देवताका अनभिज्ञ अर्थात् चन्द्रे तर देवकी भक्ति नहीं करनेवाला ( चन्द्रभक्त ) जो ( आदमी ) सूर्यको बिना देखे सूर्यभक्त के समान चन्द्रमा बिना देखे भोजन नहीं करता है, तुम्हारे मुखके देखनेसे ही अमावस्यामें मी भोजन करते हुय उस चन्द्रभक्त ( व्यक्ति ) का व्रत भङ्ग न होवे। [ तुम्हारा मुख ही चन्द्रमा है, अत एव अमावस्याको उसे देखकर भोजन करने पर भी सूर्यको देखकर भोजन करनेबाले सूर्यभक्त व्यक्ति के समान चन्द्रमाको देखकर ही भोजन करनेवाले चन्द्रभक्तका व्रतभङ्ग नहीं होगा। तुम्हारा मुख साक्षात् चन्द्ररूप है ] // 76 // उत्सर्पिणी न किल तस्य तरङ्गिणी या त्वन्नेत्रयोरहह !! तत्र विपाशि जाता। नीराजनाय नवनीरजराजिरास्तामत्राअसाऽनुरज राजनि राजमाने // 7 // उत्सर्पिणीति / तस्य द्वीपस्य, या विपाट-नाम्नी तरङ्गिणी उत्सर्पिणी उत्सज्य सर्पिणी, उद्धतप्रवाहा इत्यर्थः, न किल, तत्र तस्यां, विपाशि विपाशायां नद्यां, 'विपाशा तु विषाट सियाम्' इत्यमरः / जाता नवा नीरजराजिः पद्मपङ्क्तिः, त्वन्ने. त्रयोः तव चक्षुषोः, नीराजनाय निर्मन्छनाय, आस्तां तिष्ठतु, अहह !! इत्यद्भुते; विपाशायाम उत्कटतरङ्गाभावात् पद्मानि सदा जायन्ते, अतः तव अतिनीराजनं सन्ततं भविष्यति इति भावः; अत एव राजमाने दीप्यमाने, अत्र अस्मिन् मेधाति. थिनाम्नि, राजनि अअसा द्रुतम् , 'नाक झटित्यासाऽह्वाय द्राङ्मङ्घसपदि द्रुतम्' इत्यमरः / अनुरज अनुरज्यस्व, रजेभीवादिकालोटि सिप'रब्जेश्च' इत्युपधानकारस्य लोपः // 77 // उस ( प्लक्षद्वीप ) की जो ( 'विपाश' नामकी नदी, वर्षाकालमें भी) तटको भङ्ग करने वाली नहीं है, यह आश्चर्य है। उस 'विपाश' नदीमें उत्पन्न नवीन नीलकमलपंक्ति तुम्हारे नेत्रद्वयके नीराजन ( आरती करने ) के लिये होवे, इस शोभमान ( मेधातिथि नामक ) राजामें शीघ्र ( या स्वयं या सत्य ) अनुराग करो। [ 'विपाश् नदी अन्य स्थानों में तटोंको तोड़ती है किन्तु इस राजा के द्वीपमें नहीं, अतः वहाँपर उत्पन्न सरस कमलपंक्ति स्थिर Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 666 होकर तुम्हारे नेत्रोंकी आरती करती हुई-सी जान पड़ेगी / इससे दमयन्तीके नेत्रोंकी शोभा सरस कमलों से भी अधिक है, यह सूचित होता है ] // 77 // पतयशोभिरखिलेऽम्बुनि सन्तु हंसा दुग्धीकृते तदुभयव्यतिभेदमुग्धाः / क्षीरे पयस्यपि पदे द्वयवाचिभूयं नानार्थकोषविषयोऽध मृषोद्यमस्तु / / __एतदिति / एतस्य राज्ञः, यशोभिः अखिले अम्बुनि जले, दुग्धीकृते क्षीरीकृते सति, हंसाः तस्य उभयस्य दुग्धाम्बुद्वयस्य, व्यतिभेदे परस्परविवेके, मुग्धाः मूढाः, सन्तु / किञ्च, क्षीरे पदे पयसि पदेऽपि, क्षीर-पयःपदयोर्विषये इत्यर्थः, नानार्थको. षस्य 'क्षीरं नीरे च दुग्धे च' 'पयोऽम्भसि च दुग्धे च' इत्यादिना अनेकार्थनिघण्टोः विषयस्तत्प्रतिपाद्यभूतमित्यर्थः, द्वयवाचिभूयमर्थद्वयवाचकत्वं, 'भुवो भावे' इति क्यप। अद्य तव परिग्रहादिति भावः, मृषोधं मिथ्योदितम्, अस्तु; सलिलस्यापि दुग्धभावेन द्वितीयार्थासम्भवादिति भावः / 'राजसूयसूर्यमुषोध-' इत्यादिना निपा. तनात् साधुः। अत्राखिलेऽम्बुनि दुग्धीकृते इति सामान्यालङ्कारः, तदुपजीवनेन हंसानां क्षीरनीरविवेकसम्बन्धेऽपि क्षीरपयःपदयोरप्यर्थद्वयसम्बन्धे तदसम्बन्धरूपा. तिशयोक्तिद्वयोत्थापनात् सङ्करः // 78 // . हंस इस राजा के यशसे समस्त जलके दुग्ध बनाये ( दुग्धके समान श्वेत किये) जानेपर उन दोनों ( जल तथा दुग्ध ) के परस्पर विचार करने में मुग्ध हो जावे और अनेक अर्थवाले कोषका विषय 'दुग्ध तथा जल शब्दमें दो अर्थों का कथन' आज असत्य होवे / [ इस राजाके यशसे जलके भी दुग्यके समान बना दिये जानेपर 'क्षीर तथा पयस्' शब्दके दो अर्थों को कहने वाले अनेकार्थ कोषका विषय निष्प्रयोजन हो जाबे ) // 78 // ब्रमः किमस्य नलमप्यलमाजुहूषोः कीर्ति स चैष च समादिशतःस्म कत्तम्। स्वद्वीपसोमसरिदीश्वरपूरपारवेलाबला'क्रमणविक्रममक्रमेण / / 79 / / बम इति / नलं नैषधम् अपि, अलम् अस्यर्थम्, आजुहूषोः सस्पर्द्धमाह्वातु. मिच्छोः, नलसमानगुणस्येत्यर्थः, ह्वयतेरापूर्वात् स्पर्द्धायामात्मनेपदिनः सनन्तात् उप्रत्ययः, 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधान्नलम् इति कर्मणि द्वितीया अस्य मेधातिथेः, माहात्यमिति शेषः, किं ब्रमः ? वक्तमशक्यमित्यर्थः तथा हि, स नलव एष मेधातिथिश्च, अक्रमेण योगपचेन, स्वद्वीपयोः, जम्बूप्लक्षद्वीपयोः,सीमनि सरिदीश्वरपूरस्य अब्धिप्रवाहस्य, पारवेलायाः परतीरमर्यादायाः, बलेन आक्रमणमेव विक्रम पराक्रम, कत्त कीर्ति प्रयोज्यकर्ती, समादिशतः स्म समादिष्टवन्तौ; द्वीपान्तरेषु अपि अनयोः कीर्तिसञ्चार इति भावः // 79 // ___ नलकी भी अत्यन्त स्पर्धा करते हुए इस ( मेधातिथि राजा) की कीर्ति को कैसे कहूँ अर्थात् इसको कीर्तिका वर्णन करना दुःसाध्य या असाध्य है। वह (नल) तथा यह (मेधातिथि) 1. 'चला-इति पा. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 नैषधमहाकाव्यम्। भी-दोनों एक साथ अपने-अपने द्वीप (क्रमशः 'जम्बूद्वीप तथा प्लक्षद्वीप' ) की सीमामें ( या सीमाभूत ) समुद्र के प्रवाह के दूसरे तीरके पर्वतपर (पाठा०-तीरपर बलद्वारा) आक्रमण करने (चढ़ने ) का पराक्रम करते हैं (या आक्रमणरूप पराक्रमणरूप करते हैं)।: [नल तथा यह मेधातिथि एक साथ ही अपनी-अपनी कीर्तिको अपने-अपने द्वीपको : सीमाभूत समुद्र के पार वाले पर्वत पर चढ़ने के लिये भेजकर अपना-अपना पराक्रम प्रदर्शित करना चाहते हैं / ( 'आजुहूयोः' ( आह्वान स्पर्धा ) करने की इच्छा करते हुए ) पदसे यह नलकी स्पर्धा करनेकी इच्छा ही करता है, हीनबल होनेसे यह स्पर्धा करता नहीं। अथवा-यह नियम है कि बड़े के बराबर होने के लिये उसकी स्पर्धा छोटा करता है, छोटेकी स्पर्धा बड़ा कभी नहीं करता; अत एब यहां पर इस मेधातिथिका नलकी स्पर्धा करना बतलाकर इस नलसे हीन होनेका संकेत सरस्वती देवीने किया है ] // 79 // / अम्भोजगभरुचिराऽथ विदर्भसुभ्रूम्तं गर्भरूपमपि रूपजितत्रिलोकम् / वैराग्यरूक्षमवलोकयति स्म भूपं दृष्टिः पुरत्रयरिपोरिव पुष्पचापम् / / .. अम्भोजेति / अथ एतद्वाक्यश्रवणानन्तरम्, अम्भोजगर्भवत् रुचिरा रम्या, तद्वत् कोमलाङ्गीत्यर्थः, विदर्भसुभ्रः वैदर्भी, प्रशस्तो गर्भो गर्भरूपस्तं पूर्ववयसं, युवानमः पीत्यर्थः, प्रशंसायां रूपप, रूपजितत्रिलोकं रूपेण सौन्दर्येण, जितास्त्रयो लोका येन तं, पुष्पचापेऽपीदं योज्यम्; तं भूपं मेधातिथि, पुष्पचापं कामं पुरत्रयरिपोः ईश्वरस्य, दृष्टिरिव वैराग्यरूतं वैराग्येण अपरागेण, रूक्षं परुषं यथा तथा, अवलोक. यति स्म; अतिसुन्दरेऽपि तस्मिन् राज्ञि न अनुरक्ता अभूत् इति भावः // 8 // ___ इस ( सरस्वती देवाके ऐसा ( 11 / 72-79 ) कहन क ) वाद कमल-गर्भके समान सुन्दरी दमयन्तीने रूपसे तीनों लोकोंको जीतनेवाले युवक भी उस ('मेधातिथि' राजा ) को रूपसे तीनों लोकीको जीतनेवाले पुष्पवाण ( कामदेव ) को शङ्काजीकी दृष्टि के समान वैराग्यसे रूक्षतापूर्वक देखा। (प्रियतम नलके साथ स्पर्धा कर नसे दमयन्तीका उस 'मेधातिथि'राजामें वैराग्य होना तथा क्रोधोदय होनेसे रूक्षतापूर्वक देखना उचित ही है ] / ते तां ततोऽपि चकृषुर्जगदेकदीपादंसस्थलस्थितसमानविमानदण्डाः। चण्डद्यतेरुदयिनीमिव चन्द्रलेखां सोत्कण्ठकैरववनीसुकृतप्ररोहाः // - ते इति / अंसस्थलेषु स्कन्धेषु, स्थितः समानः एकरूपः, विमानदण्डो येषां ते समविभक्तभरा इत्यर्थः, ते धुर्याः, तां भैमी, सोत्कण्ठायाः चन्द्रलेखोत्सुकाया:, कैरववन्याः कुमुदिन्याः, सुकृतप्ररोहाः सौभाग्योन्मेषाः, उदयिनीम् उदयोन्मुखी, चन्द्रलेखाम अमावस्यायां सूर्यमण्डलप्रविष्टां चन्द्रकलां, शुक्लपक्षीयप्रतिपदादि. तिथिरूपामित्यर्थः, जगदेकदीपात् तेजस्वितया जगतामद्वितीयप्रकाशकस्वरूपात्, चण्डद्युतेः सूर्यादिव, जगदेकदीपात्ततो मेधातिथेरपि, चकृषुः आकर्षयामासुः, तत्स. काशात् राजान्तरं प्रापयामासुरित्यर्थः। सूर्यस्य तेजांसि एव चन्द्रे सक्रान्ततया Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। कुमुदानन्दकरत्वेन प्रसिद्धानि; तथा च वराहमिहिरः,-'यत्तेजः पितृधानि शीतमहसः पाथोमये मण्डले संक्रान्तं कुमुदाकरस्य कुरुते काञ्चित् विकासश्रियम्' इति // 8 // ___ कन्धेपर शिविकादण्डको समान भारसे रखे हुए वे (विमानवाहक ) ससार में मुख्य दीपकरूप उस ( 'मेधातिथि राजा ) से भी उस ( दमयन्ती) को उस प्रकार हटा ले गये, जिस प्रकार उदय होनेवाली (द्वितीयाकी ) चन्द्रकलाको उत्कण्ठित कुमुद्रतीके पुण्याङ्कर सूर्यसे हटा (आकृष्ट कर ) लेते हैं। [ अमावस्याको सम्पूर्ण चन्द्रकला सूर्यमें प्रविष्ट हो जाती है, वह शुक्लपक्षमें क्रमशः सूर्यसे हटती ( अलग होती ) जाती है / शिविकावाहक लोग दमयन्तीको दूसरे राजाके पास ले गये ] // 81 // भूपेषु तेषु न मनागपि दत्तचित्ता विस्मेरया वचनदेवतया तयाऽथ / वाणीगुणोदयतृणीकृतपाणिवीणानिकाणया पुनरभाणि मृगेक्षणा सा // भूपेष्विति / मृगेक्षणा सा भैमी, तेषु भूपेषु द्वीपाधिपतिषु, मनाक् ईषदपि, दत्तचित्ता अर्पितहृदया, आसक्तमानसा इत्यर्थः, न, जातेति शेषः, अथ अनन्तरं, दमयन्त्याः चित्तवृत्तिज्ञानानन्तरमित्यर्थः, विस्मेरया विस्मितया सहास्यया वा, 'नमिकम्पि-' इत्यादिना विपूर्वात् स्मिधातोः र-प्रत्ययः, वाणीगुणोदयेन माधुर्यादि. वाग्गुणप्रकर्षेण, तृणीकृतः तिरस्कृतः, पाणिवीणायाः हस्तस्थितविपन्च्याः , निकाण: ध्वनिः यया तया वीणाधिकमधुरभाषिण्या, वचनदेवतया वाग्देव्या,सया सरस्वत्या, पुनः अभाणि // 82 // इस ( शिविकावाहकों के द्वारा दमयन्तीको दूसरे राजाके पास पहुँचाने ) के बाद उन राजाओंमें थोड़ा भी मन नहीं लगानेवाली मृगनयनी उस ( दमयन्ती ) से, (किसी राजामें कुछ भी अनुराग नहीं करनेसे ) आश्चर्यित और अपनी वाणीके ( माधुर्यादि) गुणों के उत्पन्न होने से पाणिस्थित वीणाके स्वरको तिरस्कृत करनेवाली उस ( सरस्वती देवी) ने फिर कहा-[ उत्तमोत्तम गुणयुक्त भी किसी राजामें दमयन्तीके थोड़ा-सा भी अनुराग नहीं करनेसे सरस्वती देवीका आश्चर्यित होना उचित ही है ] / / 82 / यन्मौलिरत्नमुदिताऽसि स एष जम्बूद्वीपस्त्वदर्थमिलितैर्युवभिर्विभाति / दोलायितेन बहुना भवभीतिकम्पः कन्दर्पलोक इव खात्पतितस्त्रुटित्वा / यदिति / हे भैमि ! त्वं यस्य जम्बूद्वीपस्य, मौलिरत्नं भूत्वा उदिता उत्पन्ना, असि, स एष जम्बूद्वीपः, स्वदथं तुभ्यं, मिलितैः, युवभिः हेतुभिः विभाति; क इव ? भवभीत्या रुद्रभयेन, कम्प्रः कम्पनशीलः, अत एव बहुना अनेकेन, प्रबलेनेत्यर्थः, दोलायितेन दोलनेन, त्रुटित्वा विच्छिद्य, खात् स्वर्गात् , 'खमिन्द्रिये सुखे स्वर्गेशून्ये विन्दौ विहायसि' इति विश्वः, पतितः कन्दर्पलोकः कामजगदिव, इत्युस्प्रेक्षा विभा. तीत्यन्धयो वा / कम्प्रं वस्तु बहुदोलनेन त्रुटितं शून्यमार्गात पतति इति प्रसिद्धिः / सभास्थिताः सर्वे राजानः कन्दर्पतुल्या इति भावः // 83 // Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672 नैषधमहाकाव्यम् / जिस ( जम्बूद्वीप ) के मुकुटरत्नरूप अर्थात् मुकुटस्थरत्नके समान तुम उत्पन्न हुई हो, वह ( प्रसिद्ध ) यह जम्बूद्वीप तुम्हारे लिये एकत्रित युवकोंसे शङ्करजीके भयसे कम्पनयुक्त तथा झूलेके समान चञ्चल बाहुके द्वारा टूटकर आकाशसे गिरे हुए कामदेवलोकके समान शोभता है। [द्वीप में रत्नका उत्पन्न होना, कामदेवलोकका शङ्कर जीके भयसे कम्पनशील होना तथा अन्तरालस्थ वस्तुका हाथमे हिलानेपर टूटकर गिरना उचित ही है। कामदेवके समान सुन्दर ये सभी युवक तुम्हारे लिए यहां स्वयंवर में आये हुए हैं ] // 83 // विम्वगवृतः परिजनैरयमन्तरीपैस्तेषामधीश इव राजति राजपुत्रि!। हेमाद्रिणा कनकदण्डमयातपत्रः कैलासरश्मिच यचामरचक्रचिह्नः // विश्वगिति / हे राजपुत्रि ! अन्तर्गताः आपः येषां तानि अन्तरीपाणि सिंहल. द्वीपादीनि, 'द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपम्' इत्यमरः। तेरेव परिजनैः विष्वक समन्तात् , वृतः, तथा हेमाद्रिणा मेरुणा, कनकमयदण्डम्, आतपत्रं कनकमयमेवातपत्रं यस्य सः, मेरोः शिरसि विशालत्वादन्यत्र तनुत्वाच्च एकस्यैव दण्डत्वेनातपत्रत्वेन च रूपणम्; तथा कैलासस्य रश्मिचय एव चामरचक्र चामरजालं, तदेव चिहं यस्य सः, अयं जम्बूद्वीपः, तेषाम् अन्तरीपाणां, सिंहलादिद्वीपान्तराणामित्यर्थः, अधीश इव राजतीत्युत्प्रेक्षा; सुमेरुर्गिरिस्तस्य आतपत्रं, कैलासपर्वतस्तु चामरचयरूपं राजचिह्नम् , अतो जम्बूद्वीपः नृपतिचिह्ववत्वात् राजा एव सिंहलद्वीपादयस्तु तस्य चतुर्दिक्षु परिवृता भृत्या इव तिष्ठन्ति इति भावः / / 84 // ह राजकुमारी ( दमयन्ति )! अन्तरांप ( शाक-प्लक्षादिद्वीप ) रूप परिजनोंसे चारों ओर से घिरा हुआ, सुमेरु पर्वतसे कनकदण्डरूप छत्रवाला तथा कैलासके किरण- समूहरूप चामरों के समूह के चिह्नवाला यह जम्बूद्वोप उन ( शाक-प्लक्षादि द्वीपों ) के राजाके समान शोभता है। [ राजा जैसे छत्र तथा चामर से युक्त तथा परिजनोंसे घिरा रहता है, वैसे हो मध्यवर्ती यह जम्बूद्वीप भी सब द्वीपों से घिरा हुआ, सुमेरुरूपी कनकदण्डरूप छत्र तथा कैलासके किरण-समूहरूप चामरके चिह्नसे युक्त होने से सब द्वीपोंका स्वामी-जैसा शोभा पाता है ] // 84 // एतत्तरुस्तरुणि ! राजति राजजम्बूः स्थूलोपलानिव फलानि विमृश्य यस्याः सिस्त्रियः प्रियमिदं निगदन्ति दन्तियूथानि केन तरुमारुरुहुः पथेति // एतदिति / हे तरुणि ! एतस्य जम्बूद्वीपस्य, तरुः चिह्नभूतो वृक्षः, राजजम्बूः जम्बूविशेषः, 'राजजम्बूस्तु जम्बूभित्पिण्डखजूरयोः स्त्रियाम्' इति मेदिनी। राजति; सिद्धस्त्रियः यस्याः जम्ब्वाः, स्थूलोपलान् गण्डशैलानिव स्थितानि, फलानि दन्तियूथानि करिघटाः विमृश्य विविच्य, केन पथा तरुं जम्बूवृक्षम, आरुरुहुः? दन्तियूथानि इति शेषः, इति इदं वचः प्रियं स्वायतं, निगदन्ति पृच्छन्ति; गजप्रमाणानि तत्फलानीति भावः। 'ब्रविशासि०-' इत्यत्र अवेरर्थग्रहणात् गदेहि कर्मकस्वम् / अत्र जम्बूफलेषु दन्तिभ्रमोक्त्या भ्रान्तिमदलकारः // 5 // Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। हे तरुणि (दमयन्ति)! इस ( जम्बूद्वीप ) का वृक्ष राजनम्बू शोमता है, बड़े-बड़े चट्टानोंके समान जिसके फलोको देखकर सिद्धस्त्रियां 'ये हाथियों के झुण्ड किस मार्गसे पेड़पर चढ़ गये' ऐसा प्रिय वचन कहती हैं। [इस जम्बूदीपके राजजम्बूवृक्षके फल हाथियों के बराबर बड़े-बड़े हैं ] // 85 / / . जांबूनदंजगति विश्रुतिमेति मृत्स्ना कृत्स्नाऽपि सातव रुचा विजितश्रि यस्या तजाम्बवद्रवभवाऽस्य सुधाविधाम्बुर्जम्बूः सरिद्वहति सीमनि कम्बुकण्ठि! जाग्बूनदमिति / कम्बोः शङ्खस्य, कण्ठ इव कण्ठः रेखात्रयविशिष्टग्रीवा यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः, हे कम्बुकण्ठि ! हे रेखात्रयाश्चितग्रीवे ! 'रेखात्रयाश्चितग्रीवा कम्बुग्रीवेति कथ्यते' इति हलायुधः / 'अङ्गगात्रकण्ठ-' इत्यादिना ङीष। तेषां पूर्वोक्तानां, जाम्बवानां जम्बूफलानां, 'जम्बूः स्त्री जम्बु जाम्बवम्' इत्यमरः / 'जम्वा वा' इति फलरूपार्थे अण-प्रत्ययः, 'लुप्च' इति विकल्पादणो न लुप। द्रवात् रसात् भवा उत्पन्ना, सुधायाः विधेव विधा प्रकारो येषां तानि सुधाविधानि सुधाप्रका. राणि, अम्बूनि यस्याः सा अमृतसहशजला, जम्बूः जम्ब्वाख्या, सरित् अस्य जम्बू. द्वीपस्य, सीमनि सीमायां, वहति प्रवहति; यस्याः जम्बूनद्याः, सम्बन्धिनी कृत्स्ना समस्ताऽपि, सा प्रसिद्धा, मृत्स्ना प्रशस्तमृत्तिका, 'मृन्मत्तिका प्रशस्ता तु मृत्सा मृत्स्ना च मृत्तिका' इत्यमरः। 'सस्नो प्रशंसायाम्' इति मृच्छब्दास्नप्रत्ययः / तव रुचा शरीरकान्त्या, विजितथि निर्जितशोभ, नपुंसके हृस्वः। जम्बूनद्यां भूवं जाम्बूनदं सुवर्णम् , इति जगति विश्रुतिं विख्यातिम् , एति / तथा च विष्णुपुराणं,-- 'तीरभूस्तत्र सम्प्राप्य शुद्धवातविशोधिता। जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्ण देव. भूषणम् / ' इति // 86 // हे कम्बुकण्ठि (शङ्खके कण्ठ के समान तीन रेखाओंसे युक्त अतएव शुभ लक्षणयुक्त कण्ठवाली दमयन्ति )! उस 'जम्बूदीप'के ( अथवा-उन ) जामुनके फलों के रसके बहनेसे उत्पन्न हुई तथा अमृततुल्य मधुर जलवाली 'जम्बूनदी' इस जम्बद्वीपको सीमामें बहती है, जिस 'जम्बूनदी' की समस्त प्रशस्त ( उपजाऊ ) मिट्टो संसार में तुम्हारी कान्तिसे जोते गये 'जाम्ब नद' (सुवर्ण-सोना ) इस प्रसिद्धिको प्राप्त करती है। [जिस 'जम्बनदो' की मिट्टी भी सुवर्ण है, वह भी तुम्हारी कान्तिसे जीता गया है। 'जम्बनदी' की मिट्टीको जाम्बनद अर्थात् सुवर्ण ( सोना ) कह कर उसको महत्त्व दिया गया है तथा उस ( जाम्बनद अर्थात् सुवर्ण ) को जीतनेवाली दमयन्ती शरीरकी कान्तिको बतलाकर उस जाम्बूनदसे भी अधिक महत्त्व दमयन्ती-शरीर कान्तिको दिया गया है। दमयन्तीकी शरीर-कान्ति सुवर्णसे भी अधिक गौरवर्ण हैं ] // 86 // तस्मिन् जयन्ति जगतीपनयः सहस्रमस्राश्रुसान्द्ररिपुतद्वनितेषु तेषु / रम्भोरु चारु कतिचित्तव चित्तबन्धिरूपानिरुपय मुवाऽहमुदाहरामि / Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 नैषधमहाकाव्यम् / तस्मिन्निति / रम्भे कदलिस्तम्भाविव ऊरू यस्याः सा रम्भोरूः। 'ऊरूत्तरपदादौपम्ये' इत्यूप्रत्ययः / तस्याः सम्बुद्धिः, नदीहस्वः / हे रम्भोरु ! तस्मिन् जम्बूद्वीपे, सहस्रं सहस्रसङ्घयकाः, बहुसङ्ख्यका इत्यर्थः, जगतीपतयः भूपतयः जयन्ति सर्वोत्कर्षग वर्तन्ते; अस्त्रैः शोणितैः, अश्रुभिः बाष्पैश्च, यथासङ्ख्यं सान्द्राः सिक्ताः, रिपवः तद्वनिताश्च येषां तेषु हतारिषु इत्यर्थः, तेषु सर्वोत्कृष्टेषु भूपेषु मध्ये, तव चित्तबन्धि चित्तग्राहि, रूपं येषां तान् स्वन्मनोहारिसौन्दर्यान् , कतिचित् कांश्चित् भूपान् , अहं उदाहरामि कथयामि, मुदा हर्षेण, चारु निरूपय सम्यगवधारय // हे रम्भोरु ( दमयन्ति ) ! इस ( जम्बूद्वीप ) में सहस्रों राजा श्रेष्ठ हैं, रक्त तथा आसूसे (क्रमशः) भीगे हुए शत्रु तथा शत्रुस्त्रियोंवाले उन (राजाओं) में से तुम्हारे चित्तके आकर्षक रूपवाले कुछ (राजाओं) का वर्णन करती हूँ ( अथवा-अच्छीतरह वर्णन करती हूँ), तुम हर्षसे देखो ( या इनमें से किसीको वरण करनेका निश्चय करो, या अच्छी तरह देखो)। [ 'मुदा' तथा 'चारु' पदोंका सम्बन्ध सरस्वती तथा दमयन्तीमें से किसी भी एकके साथ करके विभिन्न अर्थोकी कल्पना करनी चाहिये ] / 87 / / प्रत्यर्थियोवतवतंसतमालमालोन्मीलत्तमःप्रकरतस्करशौर्यसूर्ये / अस्मिन्नवन्तिनृपतौ गुणसन्ततीनां विश्रान्तिधामनि मनोदमयन्ति ! किं ते ? ___ प्रत्यर्थीति / हे दमयन्ति ! प्रत्यर्थिनां प्रतिद्वन्द्विनृपाणां, यौवतं युवतिसमूहः, भिक्षादित्वादङ प्रत्ययः। तस्य वतंसाः कर्णभूषणभूताः, तमालमालाः, तमालदल. समूहाः एव, उन्मीलत्तमांसि उद्गच्छदन्धकाराः, तेषां प्रकरस्य समूहस्य, तस्करम् अपहारकं, शौर्य शक्तिः एव, सूर्यो यस्य, तादृशशौयं सूर्य इव यस्येति वा तादृशे; सूर्यो यथा अन्धकारम् अपनयति तथा एष नृपतिः शत्रुपत्नीनां वैधव्यसम्पादनेन कर्णभूषणभूततमालमालान् अपनयति इति भावः / गुणसन्ततीनां गुणसमूहानां विश्रान्तिधामनि विश्रामस्थाने, अस्मिन् अवन्तिनृपतौ अवन्तिदेशाधिपे, ते मनः किम् ! वर्तते इति शेषः / अत्र तादृशशौर्यसूर्ये इति रूपकोपमयोः सन्देहसङ्करः // 48 // ह दमयन्ती ! शत्रुभोंके युवति-समूहका कर्णभूषण तमाल-समूहरूप अन्धकार-समूहका नाशक पराक्रमरूपी सूर्य ( अथवा..... पराक्रममें सूर्यरूप ) तथा गुणसमूहों के विश्रामस्थान इस अवन्तिनरेशमें तुम्हारा मन है क्या ? / [ यह अवन्ती देशका राजा है, शत्रुओं की युवतियों के कानके भूषण श्यामवर्ण तमालपत्र अन्धकारके समान हैं और उन्हें दूर करनेमें इस राजाकी शूरता सूर्यरूप है अर्थात् जिस प्रकार सूर्य अन्धकार-समूहको दूर करता है, उसी प्रकार यह अवन्तिनरेश शत्रुस्त्रियों के कर्णभूषण' श्यामवर्ण तमालपत्रों को उन्हें विधवा बनाकर दूर कर देता है, और इस राजामें गुण स्थिर हो कर रहते हैं, ऐसे इस अवन्तिनरेशको तुम वरण करना चाहती हो क्या ? / स्त्रियां वीरानुरागिणी होती हैं, अतः तुम इसे चाहोगी, ऐसा मुझे आभास होता है ] / / 88 // .... . Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। तत्रानुतीरवनवासितपस्विविप्रा सिप्रा तवोर्मिभुजया जलकेलिकाले। आलिङ्गनानि दधती भविता वयस्या हास्यानुबन्धरमणीयसरोरुहाऽऽस्या।। तत्रेति / तत्र अवन्तिदेशे, अनुतीरं तीरे, विभक्त्यर्थे 'यस्य चायामः' इति तहेर्यसदृशदैोपलक्षितार्थकेनानुशब्देन वा अव्ययीभावः / यानि वनानि यावत्तीरमायतानीत्यर्थः, तद्वासिनस्तपस्विनो विप्रा यस्याः सा, सिप्रा नदी, तव जलकेलिकाले हास्यं विकासः स्मितञ्च, तदनुबन्धेन तद्योगेन, रमणीयं सरोरुहमेव आस्यं यस्याः सा सती, ऊर्मिरेव भुजा तया आलिङ्गनानि दधती कुर्वती, वयस्या भविता सखी भविष्यति / यथा सहास्यवदना सखी केलिसमये बाहुभ्यां आलिङ्गति तथा सिप्राऽपि त्वाम् आलिङ्गिष्यति इति समासोक्तिरलङ्कारः॥ 89 // . उस ( अवन्ती देश ) में तटके वनों में निवासी तपस्वी ब्राह्मणों वाली, तुम्हारी जल. क्रीडाके समयमें तरङ्गरूप भुजाओंसे आलिङ्गन देती (करती) हुई तथा हँसने के नैरन्तर्य ( संबन्ध ) से रमणीय कमलरूपी ( पक्षा०-कमलतुल्य ) हासवाली 'सिप्रा' नदी तुम्हारी ( सखी ब नेगी। [जिस प्रकार कोई सखी आलिङ्गन करती तथा इंसती है, उसी प्रकार अवन्तीदेशस्थ सिप्रा नंदी तुम्हारी जलक्रीडाके समयमें बाहुतुल्य तरङ्गोसे आलिङ्गन तथा विकसित कमलोंसे हास करती हुई तुम्हारी सखी-सी प्रतीत होगी। इस अवन्तिनरेशको वरणकर सिप्रा नदीमें जलक्रीडा करो)॥ 89 // अस्याधिशय्य पुरमुजयिनी भवानी जागर्ति या सुभगयौवनमौलिमाला / पत्याऽर्द्धकाय घटनायमृगाक्षि ! तस्याः शिष्या भविष्यसि चिरं वरिवस्ययाऽपिः // 90 // अस्येति / भवस्य पत्नी भवानी पार्वती, 'इन्द्रवरुणंभव-' इत्यादिना ङीष् , आनुगागमश्च, अस्य अवन्तिनाथस्य, उज्जयिनी पुरमधिशय्य अधिष्ठाय, 'अययि क्ङिति' इत्ययङ आदेशः; 'अधिशीस्थासां कर्म' इति अधिकरणस्य कर्मत्वम् / जागर्ति प्रकाशते, या भवानी, सुभगस्य पतिवल्लभस्य, यौवतस्य युवतिसमूहस्य, मौलिमाला शिरोभूषणम् / हे मृगाक्षि! पत्या भर्ना सह, अर्द्ध कायस्या कायः, 'अर्द्ध नपुंसकम्' इति समासः। तस्य घटनाय एकीभावसम्पादनायेत्यर्थः, तस्या भवान्याः, चिरं वरिवस्यया परिचर्यया, 'नमोवरिवश्चित्रङः क्यच' इति क्यचप्रत्ययः, ततः 'अ प्रत्ययात्' इति स्त्रियामकारप्रत्यये टाप / शिष्याऽपिः भविष्यसि, न केवलं पूर्वोक्तसिप्राविहारादिसम्पत्तिरेव किन्तु सर्वसौभाग्यभूतं भवानीशिष्य. त्वमपि ते भविष्यतीत्यर्थः; भवानीवत् पत्या सह तव क्षणमपि विरहो न भविष्यतीति भावः॥९०॥ __ हे मृगनयनि ( दमयन्ति ) ! सुन्दरी युवतियों के समूहकी शिरोमाला ( युवतियों में परमसुन्दरी) जो पार्वती इस ( अवन्तिनरेश) की उज्जयिनी नगरीमें रहती है, उस (पार्वती ) की पूजासे मी चिरकालतक पतिकी अर्धाङ्गिनी बननेके लिये शिष्या होवोगी। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 नैषधमहाकाव्यम्। [ तुम अपने सौन्दर्याधिक्यसे पतिकी अर्धाङ्गिनी बननेके योग्य हो ही, किन्तु पार्वतीकी पूजासे मी अर्धाङ्गिनी बनोगी। इस अवन्तीनरेशके वरण करनेसे पतिकी अर्धाङ्गिनी बनना अत्यन्त सरल है, अत एव इसका वरण करो ] // 90 / / निःशङ्कमङ्कुरिततां रतिवल्लभस्य देवः स्वचन्द्रकिरणामृतसेचनेन / तत्रावलोक्य सुखशां हृदयेषु रुद्रस्तदेहदाहफलमाप स किं न विद्मः // निःशङ्कमिति / तत्र उज्जयिन्यां, स देवोरुद्रो महाकालनाथः, सुहशा तत्यानां स्त्रीणां, हृदयेषु अन्तःकरणेषु, स्वचन्द्रकिरणामृतसेचनेन निजचूडामणिभूतचन्द्रकिरणामृतवर्षणेन, रतिवल्लभस्य कामस्य, निःशङ्कं निर्भयं यथा तथा, अङ्करिततां साताकुरत्वं, पुनरुत्पन्नत्वमिति यावत्, चन्द्रभासां स्मरोद्दीपकत्वादिति भावः, अवलोक्य तदेहदाहस्य स्वकृतस्य कामदेहदाहस्य किं फलम् आप प्राप? न विद्मः, स्वदग्धस्य कामस्य स्वशिरश्चन्द्रिकासेकादेव दग्धबदरादिवत् पुनः सहस्रधा प्रादुर्भावात् स्वप्रयासस्य किं साफल्यं प्राप्तवान् ? न किमपीत्यर्थः / "आप' इत्यत्र 'आह' इति पाठान्तरम्; तादृशप्रयासस्य किं प्रयोजनं ब्रते? इति तदर्थः। विषमालङ्कारः // 9 // उस ( उज्जयिनी ) में देव रुद्र अर्थात् 'महाकाल' नामक शिवजी अपने ( ललाटस्थ ) चन्द्रकिरण के अमृनसिब्बनसे सुलोचनाओंके हृदयमें कामदेवके अङ्कुरितभावको देखकर उस ( काम ) के शरीरके भस्म करनेका फल क्या बतलाते हैं, यह (हम ) नहीं जानते / [ यद्यपि शिवने कामदेवके शरीरको जला दिया, किन्तु अपने ललाटस्थ चन्द्रकिरणामृतके सिंचनसे वहांकी सुन्दरियोंके हृदयमें पुनः उत्पन्न कामाङ्कर को देखकर वे अपने द्वारा कामदेवको भस्म करना व्यर्थ ही समझेंगे। वहां सब स्त्रियां सर्वदा कामोद्दीपित रहती हैं ] // आगःशतं विदधतोऽपि समिद्धकामा नाधीयते परुषमक्षरमस्य वामाः / चान्द्री न तत्र हरमौलिशयालुरेका नाध्यायहेतुतिथिकेतुरपैति लेखा / / आग इति / समिद्धकामाः नित्यप्रदीप्तमन्मथाः, वक्रशीला अपि स्त्रियः, 'प्रती'पदर्शिनी वामा'इत्यमरः, आगसाम् अपराधानां, शतं विदधतः कुर्वाणस्यापि, अस्य राज्ञः सम्बन्धे, परुषमक्षरं निष्ठरवाक्यं, नाधीयते न पठन्ति, न जल्पन्तीत्यर्थः; अत्रानध्याये हेतुमाह-तत्रोज्जयिन्यां, नाध्यायहेतुतिथे अनध्यायहेतुतिथेः प्रतिपदः केतुश्चिह्नभूता, हरमौलौ शयालुः स्थायुका, 'स्पहि-गृहि प्रति-' इत्यादौ आलुचविधायकसूत्रे 'शीडो वाच्यः' इति वार्त्तिकात् आलुच / एका चान्द्री लेखा शुक्लप्रतिपत्स्वरूपेत्यर्थः, नापति, तत्र हरस्य नित्यस्थित्या तदीयशिरोगतैकेन्दुकलानित्ययोगात् सर्वासामपि तिथीनां शुक्ल प्रतिपदबुद्धया परुषाक्षरश्रुतीनां नित्यानध्याय इत्यर्थः तत्र नित्यसन्निहितहरशिरश्चन्द्रिकोद्दीपित मन्मथाग्निकतया खण्डितादयोऽपि नायिकाः शतशोऽपराध्यन्तम् अपि एनं परुषम् आभाषितुं नोरसहन्ते इति भावः / "प्रतिपत्पाठशीलानां वियेव तनुतां गता' इति वचनात् प्रतिपदि पाठनिषेधात् तत्र Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 670 च नगर्या प्रत्यहं हरशिरस्थितेकचन्द्रकलया प्रतिपबुद्धया स्त्रियः भत्तसमीपे श्रुतिपरुषाचरपाठं न कुर्वन्ति इति निष्कर्षः // 12 // - सैकड़ों अपराध ( सपत्नीगमन, गोत्रस्खलन आदि ) करते हुए भी इस राजाकी उद्दीप्त कामवासनावाली खियां परुष अक्षरको नहीं पढ़ती हैं (अर्थात् प्रतिकूल प्रकृति होनेपर भी कामोद्दीपित रहने के कारण इस राजाके अपराधोंको प्रत्यक्षमें जानकर भी कठोर वचन नहीं कहती हैं)। उस ( उज्जयिनी ) में शङ्कर जी के मस्तकमें स्थित, अनध्यायतिथि ( प्रतिपदा ) का चिह्न चन्द्रकला ( प्रतिपदाकी चन्द्रकला ) नहीं दूर होती है / [ सब अनध्यायों में प्रतिपदातिथिका अनध्याय मुख्य है तथा वहां शङ्करजी के मस्तकमें प्रतिपदाकी चन्द्रकलाका सदा दर्शन होनेसे इसकी स्त्रियां प्रतिदिन प्रतिपदाको ही समझती हैं, अतः एक एक भी परुष अक्षर नहीं पढ़ती, अर्थात् सदा चन्द्रकलाको देखकर कामोद्दीपित रहनेसे वामा (कर या प्रतिकूल स्वभाववाली, पक्षा०-सुन्दरी) स्त्रियां इस राजाके सैकड़ों अपराध करने पर भी कटु वचन नहीं कहती। इस अवन्तीनायको सैकड़ों अपराध करनेवाला बतलाकर सरस्वती देवाने उसे वरण करने में अपनी असम्मति प्रकट की है ] // 92 // भूपं व्यलोकत न दूरतरानुरक्तं सा कुण्डिनावनिपुरन्दरनन्दना तम् / अन्यानरागविरसेन विलोकनाद्वा जानामि सम्यगविलोकनमेव रम्यम् / / ___ भूपमिति / कुण्डिनावनिपुरन्दरस्य कुण्डिनभूमीन्द्रस्य भीमभूपस्य, नन्दना दुहिता, नन्द्यादित्वात् ल्युट् प्रत्यये टाप / सा दमयन्ती दूरतरानुरक्तम् अत्यनुरागि णमपि, तं भूपं न व्यलोकत नैक्षत; अत्रैतदेव वरमित्याह-वा अथवा अन्यानुरागात् अन्यस्मिन् नले अनुरकत्वात् विरसेन विरागेण, अश्रद्धयेत्यर्थः, विलोकनात् , विलोकनमपेच्य, दर्शनापेक्षयेत्यर्थः, ल्यबर्थे पञ्चमी, सम्यक सर्वथा, भविलोकनमेव अदर्शनमेव, रम्यं श्रेष्ठं, समीचीनमित्यर्थः, इति जानामि // 93 // ___उस कुण्डिनेशकुमारी ( दमयन्ती ) ने अत्यन्त अनुरक्त मी उस राजा ( अवन्तीनाथ ) को नहीं देखा, अथवा दूसरे ( नल ) में अनुराग होनेसे नीरस अर्थात् अनुरागरहित देखने की अपेक्षा नहीं देखना ही ( मैं ) उत्तम समझता हूँ। [जिसमें अनुराग ही नहीं है, उसे देखने की अपेक्षा नहीं देखना ही श्रेष्ठ है ] // 93 / / भैमीङ्गितानि शिविकामधरे वहन्तः साक्षान्न यद्यपि कथञ्चनजानते स्म / जस्तथाऽपि सविधस्थितसम्मुखीनभूपालभूषणमणिप्रतिबिम्बितेन // 14 // भैमीति। शिविकामधरे अधरप्रदेशे, वहन्तो वोढारः, भैमीङ्गितानि भैमीचेष्टितानि, यद्यपि कथञ्चन कथञ्चिदपि, साक्षात् प्रत्यक्षं, न जानते स्म न अजानन्त, तथाऽपि सविधे स्थितेषु, सम्मुखं दृश्यते एग्विति सम्मुखीनेषु सांमुख्येन प्रतिबिम्बमाहिष्विस्यर्थः, 'यथामुखसम्मुखस्य दर्शनः खः' इति ख-प्रत्ययः, भूपालस्यावन्तिराजस्य, Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678 नैषधमहाकाव्यम् / भूषणमणिषु प्रतिविम्बितेन भैमीप्रतिबिम्बेन हेतुना, जजुः भैमीङ्गितानि अज्ञासिषुः ऊहितवन्त इति यावत् / जानातेर्लिट् // 94 // नीचे शिविका (पालको ) को ढोते हुए (शिविकावाहक) यद्यपि दमयन्तीकी चेष्टाओं को प्रत्यक्ष रूपसे किसी प्रकार नहीं जानते थे ( नीचे पालकी ढोनेवालेके लिए ऊपर पालकीपर चढ़ा हुई दमयन्तीकी चेष्टाका देखना असंभव ही है ), तथापि पास में बैठे हुए सामने के राजा ( अवन्तीनाथ या अन्यान्य राजा ) के भूषों के रत्नोंमें प्रतिबिम्बसे ( दमयन्तीके भावोंको ) जान गये // 94 / / भैमीमवापयत जन्यजनस्तदन्यं गंगामिव क्षितितलं रघुवंशदीपः / गाङ्गेयपीतकुचकुम्भयुगाश्च हारचूडासमागमवशेन विभूषिताञ्च // 95 // __ भैमीमिति / जन्यननो वाहकजनः, गाङ्गेयं हेम, तद्वत् पीतं गौरवर्णम्, अन्यत्रगाङ्गेयेन भीष्मेण पीतं पुत्रत्वात् पानकर्मीभूतं, 'कशेरुहेग्नोर्गाङ्गेयं गाङ्गेयो गुहः भीष्मयोः' इति वैजयन्ती। 'पीतं स्यात् पीतगौरयोः इति, विश्वः। कुचकुम्भयुगं यस्याः तां, च तथा, हाराः मुक्ताहाराः, चुडा बाहुविभूषणाः, 'चूडा बाहुविभूषणे" इति विश्वः / अन्यत्र-हरस्येयं हारी, चुडा शिखा हारचूडा महादेवशिरोभागः, 'पुंवत् कर्मधारयजातीयदेशीयेषु' इति पुंवद्भावः, तत्समागमवशेन तदवस्थितिवशेन, विभूषिताश्च भैमी रघुवंशदीपो भगीरथः, गङ्गां भागीरथीं, क्षितितलमिव तत् ततः, अन्यं नृपम् , अवापयत निनाय, अवपूर्वकात् आप्नोतेय॑न्तालडि 'णिचश्च' इति तङ् / उपमालङ्कारः॥ 95 // शिविकावाहक, सुवर्णके समान पीत (गौर ) वर्णवाले स्तन-कुम्भद्वयवाली तथा कण्ठभूषण मुक्तामाला और बाहुभूषण चूडासे अधिक भूषित दमयन्तीको उस (अवन्तीनाथ ) से दूसरे ( राजा) के पास उस प्रकार ले गये, जिस प्रकार रघुवंशके दीपक तुल्य (भगीरथ) भीष्म ( या स्कन्द या भीष्म तथा स्कन्द ) के द्वारा (पुत्र होने के कारण ) पीया गया है स्तनकलसद्वय जिसका ऐसी तथा हर (शिव) के मस्तकके समागम ( सहवास ) से विशेषरूपसे भूमिमें स्थित ( या विशेष शोभित ) गङ्गाजीको भूतलपर ले गये थे। [ भीष्म तथा स्कन्दका गङ्गापुत्र होना और भगीरथ द्वारा गङ्गाजीको भूतल पर लाना पुराणों में वर्णित है। तां मत्स्यलाञ्छनदराश्चितचापभासा नीराजितवमभाषत भाषितेशा / बीडाजडे किमपि रूपयं चेतसा चेत् क्रीडारसं वहसि गौडविडोजसीह।। तामिति / भाषितानां वाचाम् , ईशा अधिष्ठात्री, वाग्देवता सरस्वती, मत्स्य लान्छनस्य कामस्य, दराश्चितस्य ईषदाकुञ्चितस्य, चाषस्य भासा कान्त्या, नीराजिते निर्मनिछते, तदपेक्षयोत्कृष्ट इति भावः, भ्रवौ यस्याः तादृशी, तां भैमीम् , अभाषत; 1. 'दरान्छित' इति पा०। 2. 'सूचय' इति पा० / Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः / 64 किमिति 1 ब्रीडाजले ! हे लज्जाऽलसे ! इह गौडविडोजसि गौडदेवेन्द्रे, गौडदेशाधिपे इत्यर्थः, चेतसा क्रीडारसं क्रीडारागं, वहसि चेत् तदा किमपि रूपय साक्षात् वक्तुमशक्यत्वेऽपि किश्चित् इङ्गिन्तादिकं सूचय / अत्र स्मरचापभासा नीराजितत्वेन भ्रुवोस्तदपेक्षया आधिक्यवर्णनात् व्यतिरेकालङ्कारः // 96 // __ वागीश्वरी ( सरस्वती देवी) कामदेवके द्वारा कुछ खेंचे गये धनुषकी शोभासे नीराजित भ्रूवाली उस ( दमयन्ती) से बोली-हे लज्जाजडे (दमयन्ति ) ! इस गौडदेश के राजामें चित्तसे यदि क्रीडारसको प्राप्त करती है तो कुछ सूचित ( सङ्के ) करो [ जिससे मैं इस राजाका सविस्तार वर्णन करूँ, अन्यथा पूर्ववर्णित अन्य राजाओं के समान यदि इस गौडनरेशको भी नहीं चाहती हो तो इसके वर्णन करनेका मेरा प्रयास व्यर्थ है। उक्त वचनद्वारा सरस्वतीदेवीने पहलेसे ही उस राज्य में अरुचि होने का संकेत कर दिया है ] // 96 // एतद्यशोभिरमलानि कुलानि भासां तथ्यं तुषारकिरणस्य तृणीकृतानि / एतदिति / एतस्य राज्ञः, यशोभिः तुषारकिरणस्य इन्दोः, अमलानि भासा कुलानि कान्तिवृन्दानि, तृणीकृतानि, तृणत्वं प्रापितानि, नैर्मल्यगुणेन तुच्छीकृतानि इत्यर्थः, तथ्यं सत्यम्, ततः तृणीकरणादेव, रङ्कः अङ्कमृगः, तदङकुरवनीकवलेषु तथाभूततृणाङ्कुरसमूहग्रासेषु, अभिलाषात् ; तेषां कान्तिरूपतृणानाम् , अङ्कुराः प्ररोहाः वनी च जलश्च, तस्कवले तृणजलग्रासे, अभिलाषादिति वाऽर्थः, वनीस्यत्र गौरादित्वात् ङीष / 'वनं नपुंसकं नीरे निवासालयकानने' इति मेदिनी। सुधाम्बुसिन्धौ सुधाम्बुनः अमृतरूपजलस्य, सिन्धौ समुद्रे, तदाश्रये इत्यर्थः, तत्र इन्दौ, वसतीति स्थाने युक्तं, 'युक्त द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः। तृणोदकसम्पनस्थले मृगा. स्तिष्ठन्तीति / उत्प्रेक्षा // 97 // इस (गौड नरेश ) की कीर्तियोंने चन्द्रके किरणसमूहको सचमुच तृण (के समान तुच्छ, पक्षा०-तृणरूप ) बना दिया है, उसी कारण उस ( तृण ) के वनमें चरनेकी इच्छासे मृग (चन्द्राङ्कस्थ मृग) उस अमृत-समुद्र (चन्द्रमें ) निवास करता है, यह उचित ही है। [ मृगका जलप्राय तृणयुक्त देशमें निवास करना ठीक ही है। यह राजा बहुत यशस्वी है, अतः इसे वरण करो] // 97 // आलिङ्गितः कमलवकरकस्त्वयाऽयं श्यामः सुमेरुशिखयेव नवः पयोदः। कन्दर्पमूर्द्धरुहमण्डनचम्पकस्रगदामत्वदङ्गरुचिकञ्चकितश्चकास्तु / / आलिङ्गित इति / कमलवन्तौ सौभाग्यसूचकपभरेखायुक्तौ, करौ पाणी यस्य सः, शैषिकः कप / अन्यत्र-कमलवन्तो जलवन्तः, तदारब्धाः इति यावत्, करकाः वर्षोपला यस्मिन् सः, 'सलिलं कमलं जलम्' इत्यमरः। श्यामः उभयत्र-श्यामवर्णः, नवः न्तनः, पयोदः सुमेरोः शिखया शृङ्गेणेव, अयं गौडनृपः, त्वया आलिङ्गितः 43 नै० Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 नैषधमहाकाव्यम् / सन् कन्दर्पस्य मूर्द्धरुहाणां केशानां, मण्डनं यच्चम्पकस्रग्दाम चम्पकपुष्पमाल्यं, तदिव यत् स्वदङ्गं तस्य रुच्या कान्त्या, कञ्चकितः आवृतः, सम्मीलित इत्यर्थः, पयोदपतेचम्पकस्रग्दामसदृशस्य त्वदङ्गस्य रुचिरिव रुचिर्यस्याः तादृशया सुमेरुशिखयेत्यर्थः, कन्चुकितः सम्मिश्रितः, चकास्तु प्रकाशस्तु, दीप्यतामित्यर्थः, श्यामवर्णः नवीनो मेघो यथा सौवर्ण सुमेरुगिरिं प्राप्य शोभते तथा श्यामवर्णः अयं नृपतिः सुवर्णचम्पकगौरी त्वां स्वीकृत्य शोभितो भविष्यति इति भावः // 18 // - कमल ( भाग्यसूचक रेखारूप चिह्न-विशेष ) से युक्त हाथवाला, श्यामवर्ण युवक और तुमसे आलिङ्गित यह ( गौडनरेश ) कामदेवके मस्तकस्थ केशोंके भूषणभूत चम्पकमालाकी लड़ो ( या चम्पकमाला) के समान तुम्हारे शरीरकी रुचि ( गौर वर्ण ) से कन्चुकित (व्याप्त ) शरीरवाला होकर वैसा शोभित होवे जैसा जलयुक्त होनेवाला (जलपूर्ण होनेसे), नीलवर्ण, सुमेरु-शिखरसे आलिङ्गित नवीन मेघ अतिशय गौर वर्ण विद्युत्कान्तिसे आलिङ्गित ' होकर शोभता है / / 98 // एतेन सम्मुखमिलत्करिकुम्भमुक्ताः कौक्षेयकाभिहतिभिर्विबभुर्विमुक्ताः। एतद्भुजोष्मभशनिःसहया विकीर्णाः प्रस्वेदविन्दव इवारिनरेन्द्र लक्ष्म्या // एतेनेति / एतेन राज्ञा, कौक्षेयकाभिहतिभिः असिघातैः, 'कुल-कुक्षि ग्रीवाभ्यः श्वाऽस्यलङ्कारेषु' इति अभिरूपेऽर्थे कुक्षिशब्दात् ढकञ् प्रत्ययः। विमुक्काः कुम्भ. स्थलेभ्यः भूमौ विक्षिप्ताः, सम्मुखं यथा तथा मिलतां सङ्गच्छमानानां, युद्धार्थ सम्मुखागतानामित्यर्थः, करिणां गजानां, कुम्भेषु मुक्ताः कुम्भस्थलस्थमौक्तिकानि, एतस्य राज्ञः, भुजोष्मणो भुजप्रतापस्य, भृशं निः न, 'निर्निश्चयनिषेधयोः' इति वररुचिः। सहते इति निःसहा असहा, पचायच। तया सोढुमशक्यया, भुजोष्मसन्तप्तयेत्यर्थः, अरिनरेन्द्राणां लक्ष्म्या विकीर्णा विसृष्टाः, प्रस्वेदबिन्दव इव विबभुरित्युत्प्रेक्षा // 99 // इस (गौडनरेश) द्वारा किये गये तलवार के आघातों के द्वारा सामने आनेवाले हाथियों के कुम्भस्थलों से निकली हुई गजमुक्ताएं, इस ( गौडनरेश ) के बाहु-प्रतापको नहीं सहनेवाला शत्रुराजाकी राजलक्ष्मीसे छोड़े गये स्वेदबिन्दुके समान शोभती हैं। [उष्ण प्रतापसे स्वेदका होना उचित हो है / यह राजा युद्ध में हाथियों को मारनेवाला बहुत शूरवीर है, अतः इसे वरण करो ] // 99 // आश्चर्यमस्य ककुभामवधीनवापदाजानुगाद्भुजयुगादुदितः प्रतापः। व्यापत् सदाशयविसारितसप्ततन्तु जन्मा चतुर्दश जगन्ति यशःपटश्च / / ____ आश्चर्यमिति / अस्य राज्ञः, आ-जानु जानुपर्यन्तं गच्छतीति तस्मात् आ जानु. गात् जानुमात्र लम्बिनः इत्यर्थः, अत्यल्पदूरप्रसारिणोऽपीति भावः। भुजयुगात् उदितः उत्थितः, प्रतापः ककुभाम् अवधीन् दिगन्तान् , अवापत् प्राप, एतत् आश्चर्य, किश Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः / 681 सता शुद्धन,आशयेन चित्तेन,विसारितेभ्योऽनुष्ठितेभ्यः इत्यर्थः, सप्ततन्तुभ्यः ऋतुभ्यः 'सप्ततन्तुमखः क्रतुः' इत्यमरः। अन्यत्र-सदा सर्वदा, शयेन पाणिना, विसारितेभ्यः प्रसारितेभ्यः, सप्तभ्यः तन्तुभ्यः सूत्रेभ्यः, उपादान कारणेभ्यः इत्यर्थः, जन्म यस्य सः यशःपटश्च चतुर्दश जगन्ति व्यापत् व्यानशे, इति च आश्चर्यम् ; स्वनुष्ठानं दिगन्तविश्रान्तकीर्तिः सम्पत्तिश्च आ-जानुबाहुत्वस्य फलमिति भावः / अत्रात्यन्तादूरगामिनः भुजयुगरूपात् कारणात् अतिदूरगामिप्रतापस्य तथा सप्तत. न्तुरूपाल्पकारणाचतुर्दशभुवनव्यापियशःपटस्य चोत्पत्या विरुद्धकार्योत्पत्तिलक्षणो विषमालङ्कारः॥१०॥ इस ( गौडनरेश ) का घुटनेतक बड़े बाहुद्वयसे उत्पन्न प्रताप दिशाओंके अन्ततक पहुँच गया यह आश्चर्य है, तथा सर्वदा हाथसे फैलाये गये सात सूतोंसे ( पक्षा०-उत्तम भाव वाले मन ) से फैलाये ( बार-बार किये गये यज्ञोंसे ) उत्पन्न यशोरूप वस्त्र चौदह भुवनों में फैल गया, यह भी आश्चर्य है। [ कारणानुगामी कार्यगुण होनेसे जानुपर्यन्त बड़े बाहुद्वयसे उत्पन्न प्रतापके दिशाओं के अन्ततक जानेसे तथा सात सूतोंसे बनाये गये यशोरूप वस्त्रके चौदह भुवनों में व्याप्त होनेसे आश्चर्य होना उचित ही है। इस राजाका प्रताप दिगन्तों में भी तथा यज्ञजन्य कीर्ति चतुर्दशका वरण करो] // 10 // औदास्यसंविदवलम्बितशून्यमुद्रामस्मिन् दृशोर्निपतितामवगम्य भैम्याः। स्वेनैव जन्यजनताऽन्यमजीगमत्तां सुझं प्रतीङ्गितविभावनमेव वाचः॥१०॥ औदास्येति / जनीं बधूं वहन्तीति जन्याः, ता जनता जनसमूहश्च षष्ठीसमासे असामर्थ्यात्तदन्तविध्यभावाच्च विशेषणसमासः। अस्मिन् गौडभूपे, निपतितां भैम्या डशोः चक्षुषोः सम्बन्धिनीम् , उदास्ते इत्युदासा पचायच , स्त्रियां टाप तस्या भाव औदास्यमौदासीन्यं, ब्राह्मणादेः आकृतिगणत्वात् ष्यङ। औदास्यसंविदा उपेक्षाबुद्धया अवलम्बितां शून्यमुदां निःस्पृहावस्थानत्वम्, अवगम्य स्वेनैव स्वत एव, वाचं विनैव इत्यर्थः, तां भैमोम्, अन्यं नृपम्, अजीगमत् गमितवती, गमेौँ चङ, तथा हि, सुझं, विज्ञं, प्रति इङ्गितविभावनं नेत्रादिचालनाविशेषेण हृदतभावप्रकटनमेव, चाचः आदेशवाक्यानि, प्रेरणानि इत्यर्थः, स्वामीङ्गितज्ञस्य हि किं तद्वाग्भिरिति भावः / अत्र सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 101 // शिविकावाहक-समूह इस ( गौडनरेश ) में दमयन्तीको दृष्टि की औदासीन्य बुद्धिसे युक्त शून्य (प्रेमहीन ) मुद्राको देखकर स्वयं ( दमयन्तीके बिना कहे ) ही उसे दूसरे (राजा) के पास ले गया; विशेषज्ञसे चेष्टाका करना ही कहना होता है। [ चतुर शिविकावाहक उस राजामें दमयन्तीका स्नेह न देखकर बिना कहे ही उसे दूसरे राजाके पास ले गये। एतां कुमारनिपुणां पुनरप्यभाणोद् वाणी सरोज मुखि! निर्भरमारभस्व / अस्मिन्न सङ्कुचितपङ्कजलख्यशिक्षानिष्णातदृष्टिपरिरम्भविजृम्भितानि / / Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 नैषधमहाकाव्यम् / एतामिति / वाणी वाग्देवी, कुमारी च सा निपुणा चेति तां कुमारनिपुण कुमारीत्वेऽपि नल तदितरयोः वैशिष्टयाभिज्ञामिति भावः, 'कुमारः श्रमणा. दिभिः' इति समासः / 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पुंवद्भावः / अथवा-कोः पृथिव्याः, मारे कन्दर्पभूते नले इत्यर्थः, निपुणाम् आसक्ताम्, एतां भैमी, पुनरप्य. भाणीत् अवोचत् ; हे सरोजमुखि ! अस्मिन् नृपे, असङ्कुचितेन विकसितेन, पङ्कजेन सह सख्यशिक्षायां मैत्रीकरणे, निष्णातया कुशलया, तत्सदृशया इत्यर्थः 'निनदीभ्यां स्नातः कौशले' इति षत्वम् / दृष्टया परिरम्भविजम्भितानि आलिङ्गनचेष्टितानि, निर्भर गाढम्, आरमस्व कुरु, एनं पश्येत्यर्थः // 102 // सरस्वती देवी ( नल तथा दूसरे राजाओं के गुणों के तारतम्यको जाननेसे ) उस निपुण कुमारी ( दमयन्ती ) से फिर बोली-हे कमलमुखि ( दमयन्ति )! इस ( राजा ) में विकसित कमलके समान शिक्षा ( दर्शनाभ्यास ) में चतुर दृष्टिके आलिङ्गनके विलासोंको अच्छी तरह आरम्भ करो अर्थात विकसित कमलतुल्य प्रफुल्लित नेत्रोंसे इस राजाको अच्छी तरह देखो // 102 // प्रत्यर्थिपार्थिवपयोनिधिमाथमन्थपृथ्वीधरः पृथुरयं मथुराऽधिनाथः / अश्मश्रुजातमनुयाति न शर्वरीशः श्यामाङ्ककर्बुरवपुर्वदनाब्जमस्या॥१०३।। प्रत्यर्थीति / प्रत्यर्थिपार्थिवपयोनिधिमाथे वैरिभूपाब्धिमन्थने, मन्थपृथ्वीधरो मन्थाचलः मन्दरः, अतिवीर इत्यर्थः, पृथुर्महान् अयं पुरोवर्ती नृपः, मथुराऽधिनाथो मथुरानगरीशः, जातं श्मश्रु अस्य इति श्मश्रुजातं, तन्न भवतीति अश्मश्रुजातम् आहिताग्न्यादित्वान्निष्ठायाः परनिपातः। अनुत्पन्नश्मश्रु, अस्य राज्ञः, वदनाब्ज मुखपद्म, श्यामेन अङ्केन कलङ्केन कर्बुरवपुः शवलाङ्गः, शर्वरीशः चन्द्रः, नानुयाति नानुकरोति, सकलङ्कनिष्कलङ्कयोः कुतः साम्यमिति भावः। अश्मश्रजातम् इति वयःसन्धौ वर्तमानः एष तव वरणयोग्य इति तात्पर्यम् // 103 // यह शत्रु राजारूप समुद्रोंके मथन करनेमें मन्दराचलरूप पृथु 'पृथु' नामक, (पक्षाविशाल ) मथुरापुरीका राजा है, श्याम वर्ण चिह्नसे कबुरित शरीरवाला अर्थात् सकलङ्क चन्द्रमा इसके दाढ़ी नहीं जमे हुए मुखकी बराबरी नहीं करता है / [ सकलङ्कपूर्ण चन्द्रकी अपेक्षा इसका दादीरहित मुख सुन्दर है / तथा यह कुमार और युवावस्थाके मध्यमें है ] // बाले ! ऽधराधरितनकविधप्रबाले ! पाणौ जगद्विजयकार्मणमस्य पश्य। ज्याऽघातजेन रिपुराजकधूमकेतुतारायमाणमुपरज्य मणिं किणेन // 104 // बाले इति / अधरेण भोष्ठेन, अधरिता अधरीकृता, नेकविधा अनेकविधाः, नजसमासः, प्रवालाः विद्रुमपल्लवरूपाः यया सा तथाविधे! हे बाले ! अस्य मथु. रेश्वरस्य, पाणी जगद्विजयस्य कार्मणं वशीकरणौषधं ज्याऽऽघातजेन किणेन ग्रन्थिना उपरज्य उपरागं प्राप्य, श्यामवर्णतां प्राप्येत्यर्थः, स्थितमिति शेषः, रिपोः शत्रुभूतस्य, Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 683 राजकस्य राजसमूहस्य, धुमकेतुतारायमाणं धूमकेत्वाख्यनक्षत्रवदाचरन्तं, राजक्षयकारकत्वात् तद्वदुपपलवायमानमित्यर्थः, आचारे क्यङन्तालटः शानच, मणि कण. माणिक्यं, पश्य // 104 // अनेक प्रकारके पल्लवो ( या विद्रुमों मूंगाओ ) को अधरसे तिरस्कृत करनेवाली हे बाले ( दमयन्ति )! इस ('पृथु' राजा ) के हाथमें संसारको जीतने ( या वशमें करनेवाली), धनुषकी डोरीके आघातसे उत्पन्न किण (घट्टे) से रंगकर (श्यामवर्ण होकर) शत्रु क्षत्रिय-राजकुमारों के लिये धूमकेतु ताराके समान आचरण करनेवाली मणि अर्थात् कङ्कणको देखो। [निरन्तर बाण चलानेसे इस राजाके हाथमें धनुषकी डोरीसे घट्ठा पड़ गया है जो शत्रुराजाओंके नाश करनेके लिये उदित धूमकेतु ताराके समान मालूम पड़ता है और उसकी श्याम वर्ण कान्ति इस राजाके जिस हस्तकङ्कणमणिमें पड़ती है, उसे तुम देखो। इतनी थोड़ी अवस्था में ही शत्रओंको पराजित करनेसे यह 'पृथु' राजा बड़ा शूरवीर है, अत एव इसे वरण करो] // 104 // एतद्भुजारणिसमुद्भवविक्रमाग्निचिह्न धनुर्गुणकिणः खलु धूमलेना। जातं ययाऽरिपरिषन्मशकार्थयाऽश्रुवित्रावणाय' रिपुदारदगम्बुजेभ्यः॥ एतदिति / एतस्य राज्ञः,भुजाया एव अरणेः निर्मन्थ्यकाष्ठात् , 'निर्मन्थ्यदारुणि स्वरणिद्वयोः' इत्यमरः / समुद्भवस्य समुत्पन्नस्य, विक्रमाग्नेः चिह्नमनुमापकं लिङ्ग, धनुर्गुणकिणो ज्याऽऽघातरेखा, धूमलेखा, धूमरेखा, खलु निश्चये; अरिपरिषदः अरिसङ्घाः, ता एव मशकास्तदर्थया तन्निवृत्त्यर्थया, 'अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजनिवृ. त्तिषु' इत्यमरः / अर्थन सह नित्यसमासः सर्वलिङ्गता च वक्तव्या। ययाधूमलेखया, रिपुदाराणां दृगम्बुजेभ्यो नयनारविन्देभ्यः, अश्रुवित्रावणाय बाष्पोद्गमाय, जातम् / धूमोरपीडनादश्रुस्त्रावो जायते; अयं शत्रुघाती बलवांश्चेति भावः। अत्र रूपकालङ्कारः॥ इस ( 'पृथु' राजा ) की भुजारूपी अरणि ( यज्ञमें सङ्घर्षणसे अग्नि उत्पन्न करनेवाला काष्ठ-विशेष ) से उत्पन्न अग्निका चिह्न धूमरेखा धनुषकी तांत (डोरी) से उत्पन्न किया अर्थात् घट्ठा है, जो (धूमरेखा) शत्रुसमूहरूप मच्छरके लिये (मच्छरको दूर करने अर्थात् नष्ट करने के लिए ) तथा शत्रुस्त्रियों के नेत्रकमलोंसे अश्रु गिराने के लिए हुई है। (पाठा०-शत्रुस्त्रियों के नेत्रकमलों को अश्रु देने के लिए हुई है)। [धूमरेखाका अग्निचिह्न होना उचित ही है। इस राजाके हाथमें धनुषकी डोरीका जो श्यामवर्ण घट्ठा है, वही इसके बाहुरूप अरणिसे उत्पन्न पराक्रमरूपी अग्निकी चिह्न धूमरेखा है और उस धूमरेखासे मच्छर के समान शत्रु-समूह दूर ( नष्ट ) हो जाते हैं और शत्रुस्त्रियों के नेत्रोंसे आंसू गिरने लगते हैं। धूमरेखाका अग्निचिह्न होना, उससे मच्छरोंका दूर होना और नेत्रोंसे आंसू गिरना उचित ही है। यह राजा बहुत बहादुर है, अत एव इसे स्वीकार करो] // 105 // 1. 'विश्राणनाय' इति पा० / Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684 नैषधमहाकाव्यम् / श्यामीकृतां मृगमदैरिव माथुरीणां धौतैः कलिन्दतनयामधिमध्यदेशम् / तत्राप्तकालियमहाहृदनाभिशोभांरोमावलीमिव विलोकयितासि भूमेः॥ ___ श्यामीति / माथुरीणां मथुरानगरीजातस्त्रीणां, 'तत्र जातः' इत्यण-प्रत्यये डीप, धौतैर्जलक्रीडासु क्षालितः, मृगमदैः कस्तूरिकाभिरिवेत्युत्प्रेक्षा; श्यामीकृतां, मध्यदेशे अधि इति अधिमध्यदेशं मध्यदेशविशेषे देहमध्यभागे च, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / आप्ता प्राप्ता, कालियस्य कालियनागस्य, महाहद एव नाभिः तस्याः शोभा यया ताम , अत एव भूमेः रोमावलीमिव स्थितामित्युत्प्रेक्षा, कलिन्दतनयां कालिन्दी, तऋ मथुरायां, विलोकयितासि विलोकयिष्यसि // 106 // मथुराकी स्त्रियों ( के स्तनों ) की कस्तूरी के धोनेसे मानो श्यामवर्णवाली यमुना नदीके बीच ( पक्षा०-काटिभाग ) में कालियदहके मध्य भागकी शोभाको प्राप्त की हुई ( समान शोभती हुई ) पृथ्वीकी रोमावलिके समान देखोगी। [ मथुराकी स्त्रियोंने यमुना नदीमें जलक्रीडा करते समय अङ्गों में लगाई हुई कस्तूरीको जो धोया है मानो इसीसे वह श्यामवर्ण हो गई है, और उसके बीचमें कालियदहसे पृथ्वीके रोमपति के तुल्य शोभती है। इसके साथ मथुरामें यमुनामें जलक्रीडा करने के लिए इसे वरण करो ] // 106 // गोवर्द्धनाचलकलापिचयप्रचारनिर्वासिताहिनि घने सुरभिप्रसूने / तस्मिन्ननेन सह निर्विश निर्विशङ्क वृन्दावने वनविहारकुतूहलानि // __ गोवर्द्धनेति / गोवर्द्धनाचले ये कलापिचयाः केविजाः, तेषां प्रचारेण सञ्चारण निर्वासिताहिनि निष्कासितभुजङ्गमण्डले, अत एव सुखसञ्चारे इत्यर्थः, घने निबिडे, भत एव निरातपे इति भावः, सुरभिप्रसूने सुगन्धिकुसुमसमृद्धया विहारयोग्ये इत्यर्थः, तस्मिन् प्रसिद्ध, यत्र पुरा गोपालमूत्तिः कृष्णो विजहारेति भावः, वृन्दावने वृन्दाख्ये वने, अनेन राज्ञा सह, निशिकं विस्रब्धं, वनविहारकुतूहलानि काननक्रीडासुखानि, निर्विश भुझ्य, निविंशो भृतिभोगयोः' इत्यमरः / साभिप्रायविशेषणस्वात् परिकरालङ्कारः // 107 // ___ गोवर्धन पर्वतपर रहनेवाले मयूर-समूहके घूमनेसे भगाये गये सर्पोवाले, सघन तथा सुगन्धि पुष्पोंवाले (पाठा०-सुगन्धि पुष्पोंसे सघन ) उस (श्रीकृष्णलीलासे अतिशय प्रसिद्ध ) वृन्दावन में इस ('पृथु' राजा ) के साथ निश्शक होकर वनविहारकी क्रीडाओं को करो॥१०७ // भावी करः कररुहाङ्करकोरकोऽपि तद्वल्लिपल्लवचये तव सौख्यलक्ष्यः / अन्तस्त्वदास्यहृतसारतुषारभानुशोभानुकारिकरिदन्तजकङ्कणाङ्कः // भावीति / स्वदास्येन अनेन तव मुखेन, हृतसारस्य हृतकान्तिसर्वस्वस्य, तुषार१. 'प्रसूनैः' इति पा०। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 685 भानोः चन्द्रस्य, या शोभा पराजयनिमित्ता पाण्डुच्छाया, तदनुकारी तत्सरशः, यः करिदन्तः तजं कङ्कणमङ्कश्चिहूं यस्य तादृशः, तव करः, कररुहा नखाः, अङ्कुरा अभिनवोद्भिन्ना इवेस्युपमितसमासः, त एव कोरकाः कलिकाः यस्य तादृशः सञपि, लोहि. तत्वात् कोमलत्वाच अयं कररुहः कोरको वेति सन्देहविषयीभूतोऽपीत्यर्थः, तद्वल्लिपल्लवचये वृन्दावनलताकिसलयजाले, अन्तमध्ये, सौख्येन अनायासेन, लक्ष्यः दर्शनीयः, अदुग्रह इति यावत्, भावी; करिदन्तजातवलयचिह्वेन अयं कर इति निश्चितो भविष्यतीति भावः। अत्र पल्लवोपचयकाले तस्सादृश्यात् सन्दिग्धस्य भैमीकरस्य दन्तवलयेन निश्चयानिश्चयान्तः सन्देहालङ्कारः // 108 // बीचसे तुम्हारे मुखद्वारा ग्रहण किये गये सारवाले चन्द्रकी शोभाको अनुकरण करने बाला अर्थात् उक्त प्रकार चन्द्र के समान शोममान, हाथी-दांतके बने कङ्कणसे चिहित और नखके समान अङ्कुर ही है कलिका ( अस्फुटित पुष्प ) जिसकी ऐसा तुम्हारा हाथ उस ( वृन्दावन ) की लताओंके पल्लवों के समूहमें ( अथवा-पल्लव समूहके बीच में ) अनायास (विना विशेष प्रयत्न) के देखा जायेगा। [तुम्हारा हाथ लतापल्लवके तथा नखकोरके समान होनेसे दोनों में परस्पर अतिशय समानता होनेपर भी हाथी-दांतके बने कङ्कणको पहना हुआ हाथ सरलतासे वृन्दावनकी लताओंके पल्लवोंमें लक्षित हो जायेगा; वह हाथी-दांतका बना कङ्कण ऐसा ज्ञात होता है कि मानो तुम्हारे मुखकी रचनाके लिये चन्द्रमाके बीचसे सारभूत तत्त्व निकाल लेनेसे बीचमें खाली पड़ा हुआ चन्द्र ही वह वलय हो गया है। तुम्हारा मुख चन्द्राधिक सुन्दर, हाथ लतापल्लव सदृश, नख पुष्प-कलिका सदृश तथा कङ्कण मध्यमें खाली पड़ा हुआ चन्द्र के तुल्य है ] // 108 / / तजः श्रमाम्बु सुरतान्तमुदा नितान्तमुत्कण्टके स्तनयुगे तव सञ्चरिष्णुः। खञ्जन् प्रभञ्जनजनः पथिकः पिपासुः पाता कुरङ्गमदपङ्किलमप्यशङ्कम् // 109 // तज्ज इति / सुरतान्ते सुरतक्रियावसाने, या मुत तया मुदा आनन्देन, नितान्त. मुत्कण्टके कण्टकिते पुलकाञ्चितेच, तव स्तनयुगे सञ्चरिष्णुः सञ्चरणशीलः, खान तरुलतादिगहनत्वात् मन्दीभवन् , अन्यत्र-कण्टकवेधात् खोडन्, विकलं गच्छति त्यर्थः, खओर्गतिवैकल्यार्थानटः शत्रादेशः। गतावित्यनुवृत्तौ विकलायान्तु द्वयं खाति खोडतीति भट्टमलः। पथिकः, सदागतिः अध्वगमनश्रान्तश्च, अत एव पिपासुः तृषितः, तस्मिन् वृदावने जातः तज्जः, 'सप्तम्यां जनेड / प्रभञ्जनो वायुः, स एव जनः कुरङ्गमदेन मृगमदेन, पङ्किलं निर्मलजलाभावात् सपङ्कमपि श्रमाम्बु सुरतज. न्यस्वेदोदकम्, अशङ्कम्, असोचं, निर्विचारं यथा तथा इत्यर्थः, पाता पास्यति, 1. 'स्तनतटे' इति पा०। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 नैषधमहाकाव्यम् / स्वेदं हरिष्यतीत्यर्थः / पिबतेः कर्तरि लुट, यथा अतिश्रान्तः तृषितः पान्थः कण्टका. कीर्णदेशस्थं तथा पङ्किलमपि जलं प्रायेण स्वोदरपूरं पिबति तद्वदिति भावः // 109 // उस ( वृन्दावन ) में उत्पन्न, रतिके अन्तिम समयमें हर्षसे रोमाञ्चित ( पक्षाकण्टकयुक्त ), तुम्हारे स्तनद्वय ( पाठा०-स्तनतट ) में सचरण करने ( लगने, पक्षाघूमने या चलने ) वाला, लँगड़ाता हुआ, प्यासा हुआ पथिक (नित्य चलनेवाला, पक्षा०यात्री ) वायु-समूह ( पक्षा०-वायुरूप मनुष्य ) कस्तूरीसे मलिन ( पक्षा०-पङ्कयुक्त ) श्रमजल (पसीना, पक्षा०-श्रमसे प्राप्त जल) का पान करेगा (सुखावेगा, पक्षापीयेगा)। [जिस प्रकार कण्टकयुक्त वन आदिमें सर्वदा चलनेवाला, कांटों के चुभनेसे लंगड़ाता तथा प्यासा हुआ यात्री स्वच्छ जलके नहीं मिलनेपर पङ्किल ( मटमैले ) पानीको भी पीता है, उसी प्रकार रोमाञ्चयुक्त स्तनोंमें धीरे-धीरे सदा लगता हुआ वायुसमूह कस्तूरीलेपसे मलिनीभूत स्वेदको पान करेगा अर्थात् उसे सुखायेगा ] // 109 // पूजाविधौ मखभुजामुपयोगिनो ये विद्वत्कराः कमलनिर्मलकान्तिभाजः। पूजेति / मखभुजां देवानां, पूजाविधौ यज्ञादिकर्मणि, उपयोगिनः प्रतिग्रहोप. कारिणः, ये विदुषां कराः पाणयः, कमलेन जलेन, दानसम्बन्धिजलेन इति भावः, निर्मला या कान्तिः तद्भाजस्तद्विशिष्टाः अथवा-कमलानां या निर्मलकान्तिस्तदाजः पद्मसदृशाः, ते विद्वत्कराः लक्ष्मी दधता श्रीमता, अनेन राज्ञा, अनुदिनं वितीर्णैः दत्तैः, हाटकैः सुवर्णैः, 'स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम्' इत्यमरः / स्फुटाः उज्ज्वलाः, वराटकाः कर्णिकाः, 'बीजकोशो वराटकः कर्णिका कर्णिकञ्च' इति वैजयन्ती, तद्वत् गौराः पीता अरुणा वा, गर्भा अभ्यन्तराणि येषां ते तादृशाः, कृता इति शेषः। 'गौरोऽरुणे सिते पीते' इति विश्वः। कमलानां कर्णिकावत्पाणिकमलानां हाटकैस्तद्वत्वं सम्पादितमित्यर्थः ; अतिदानशीलोऽयं नृपतिरिति भावः // 11 // देवताओंकी पूजा करने में उपयोगी तथा कमल अर्थात् दानजलसे ( पक्षा०-कमलपुष्प के समान ) निर्मल कान्तिवाले जो विद्वानों के हाथ हैं, वे लक्ष्मी ( सम्पत्ति, या शोमा) धारण करनेवाले इस ( मधुराधीश 'पृथु' राजा) के द्वारा प्रतिदिन दान किये गये सुवर्णोसे बीजकोष ( कमलगदृ का छत्ता ) के समान गौर वर्णसे युक्त अन्तर्मागवाले बना दिये गये हैं ( पाठा०-इसके द्वारा अन्तर्भागवाले वे हाथ लक्ष्मी ( सम्पत्ति, या शोमा) धारण करते है ) / [ यह राजा देवपूजनतत्पर विद्वानों को सर्वदा दान करनेवाला है। कमलकोषके पीतवर्ण होनसे हाथमे सुवर्ण लेने पर उसके भीतरी भाग ( तलहत्थी ) को कमलकोषके समान मालूम पड़ना उचित ही है। पहले विद्वानों के हाथ कमलपुष्पके समान-निर्मल कान्तिवाले थे, किन्तु दानशूर इस राजाने सुर्वण-दानकर उन हाथों को बीजकोष (कमलके 1. 'दधते' इति पा०। Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 687 एकादशः सर्गः। फल ) के द्वारा पीतवर्ण कर दिया अर्थात् वे हाथ अब केवल कमल-पुष्प-कान्तिवाले न होकर कमल-फल-कान्तिवाले (पुष्पकी अपेक्षा सफल, अथ च श्वेतकी अपेक्षा रंगीन और वर्ण होने से श्रेष्ठ ) बना दिये गये ] // 110 // वैरिश्रियं प्रति नियुद्धमनाप्नुवन् यः किञ्चिन्न तृप्यतिधरावलयकवीरः / स त्वामवाप्य निपतन्मदनेषुवृन्दस्यन्दीनि तृप्यतु मधूनि पिबन्निवायम्॥ वैरीति / धरावलये भूमण्डले, एकवीरः अद्वितीययोद्धा, यःमथुरापतिः, वैरिश्रियं प्रति शत्रुलक्ष्मी लक्ष्यीकृत्य, नियुद्धं नितरां युद्धं, बाहुयुद्धमित्यर्थः, 'नियुद्धं बाहुयुः खेऽथ' इत्यमरः। अनाप्नुवन् किश्चित् ईषदपि, न तृप्यति न तद्विना सन्तुष्यती. स्यर्थः, यस्य भयात् युद्धं विनैव शत्रुनृपतिसमर्पितराजलक्ष्मीलाभेऽपि युद्धेच्छाविगमाभावात् अयं न किञ्चिदपि सन्तुष्यतीति भावः / स नियुद्धप्रियोऽयं राजा, स्वाम अवाप्य निपततां मदनेषूणां कन्दर्पबाणभूतानां कुसुमानां, वृन्दात् स्यन्दन्ते नवन्तीति स्यन्दीनि, मधूनि मकरन्दान् , पिबन्निव तृप्यतु; स्वमस्य राजलक्ष्म्यपे. क्षयाऽपि तृप्तिदायिनीति भावः / अत्र मदनेषुभूतकुसुममधुपानोत्प्रेक्षया तेषामेवेषूणां स्वत्समागमात् गाढानन्दकरित्वप्रतीतेः अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 111 // ___ पृथ्वीमें प्रधान वीर जो ( 'पृथु' राजा) शत्रुलक्ष्मीको लक्ष्यकर बाहुयुद्ध (पक्षा०आलिङ्गन ) को नहीं पाता हुआ थोड़ा भी सन्तुष्ट नहीं होता है (इसके भयसे शत्रुलोग बिना युद्ध किये ही अपनी लक्ष्मीको समर्पित कर देते हैं, अत एव युद्धका अवसर नहीं मिलनेसे इस वीर राजाको पूर्ण सन्तोष नहीं होता ), वह (बाहुयुद्धप्रिय ) यह ( पृथुराजा) तुम्हें पाकर गिरते हुए कामबाणों (पुष्पों ) के समूहोंसे बहते हुए मकरन्दों (पुष्प-परागरूप मद्य ) का पान करता हुआ सन्तुष्ट होवे / [ लोकमें भी किसी अभीष्ट वस्तुको नहीं मिलनेसे असन्तुष्ट व्यक्ति मद्यपानकर प्रथम असन्तोषकर विषय भूल जानेसे सन्तोषानुभव करता है। तस्मादियं क्षितिपतिक्रमगम्यमानमध्वानमैक्षत नृपादवतारिताक्षी। तद्भावबोधबुधतां निजचेष्टयैव व्याचक्षते स्म शिविकानयने नियुक्ताः॥ तस्मादिति / इयं भैमी, तस्मात् नृपात् , अवतारिताक्षी निवारितदृष्टिः सती, क्षितिपतीनां गन्तव्यनृपाणां, क्रमेणानूपूा, गम्यमानम् अध्वानम् ऐक्षत ; अथ शिविकानयने नियुक्ताः शिविकावाहिनः, तस्या भावबोधे अभिप्रायज्ञाने, बुधतां पाण्डित्यं, निजचेष्टया अन्यतो नयनक्रिययैब, व्याचक्षते स्म ज्ञापयामासुरित्यर्थः। उस राजासे दृष्टि हटायी हुई इस ( दमयन्ती) ने राजक्रमसे प्राप्य (आगेवाले) मार्गको देखा तथा शिविका ढोने में तत्पर (शिविकावाहक ) अपनी चेष्टा (दमयन्तीको उस राजाके पाससे हटाकर दूसरे राजाके पास ले जाने ) से ही उस ( दमयन्ती) के भावको जाननेके पाण्डित्यको प्रकट कर दिये। [शिविकावाहक दमयन्तीको दूसरे राजाके पास ले गये। अन्य भी कोई व्यक्ति अपनी चेष्टासे दूसरोंके भाव-ज्ञानके चातुर्यको स्पष्ट करता है] // 112 // Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 689 नैषधमहाकाव्यम् / भूयोऽपि भूपमपरं प्रति भारती तां त्रस्यञ्चमूरुचलचक्षुषमाचचक्षे / एतस्य काशिनृपतेस्त्वमवेक्ष्य लक्ष्मीमणोर्मुदं जनय खञ्जनमञ्जुनेत्रे!॥ भूयोऽपीति / भारती सरस्वती, भूयोऽप्यपरं भूपं राजानं, प्रति लक्षीकृत्य, त्रस्यश्चमूरुचलचक्षुषं चकितहरिणचलाक्षी, तां भैमीम् , आचचक्षे; किमिति ? खञ्जनमजुनेत्रे ! हे खञ्जनाक्षि ! म लाक्षीत्यर्थः, त्वम् एतस्य काशिनृपतेः काशिराजस्य, काशते इति काशिः 'सर्वधातुभ्य इन्' इत्युणादिसूत्रेण काशधातोरिन्प्रत्ययः, ततः 'कृदिकारादक्तिन' इति सूत्रे ङीषो वैकल्पिकत्वेनात्र न ङीष् ; अत एव काशी काशिः इति रूपद्वयमेव साधु / लक्ष्मी शरीरशोभाम्, अवलोक्य अक्षणोः. चक्षुषोः, मुदं हर्ष, जनय सम्पादय // 113 // सरस्वती देवीने डरते हुए मृगके समान चपल नेत्रवाली उस ( दमयन्ती ) के प्रति फिर दूसरे राजाको ( लक्षित कर ) कहा-हे खञ्जनके समान सुन्दर नेत्रवाली ( दमयन्ती)! तुम इस काशीनरेशकी ( अथवा-काशीनरेशके नेत्रोंकी ) शोभाको देखकर नेत्रों ( अपने नेत्रों ) के सुखको (अथवा-सुखको) उत्पन्न करो। ( अथवा-तुम इस काशीराजकी शोभा को देखकर इसके नेत्रों के सुखको उत्पन्न करो) [अपनी शोभाको तुम्हारे द्वारा देखने पर यह दमयन्ता मुझे वरण करेगी' इस भावनासे इस राजाको सुख-प्राप्ति होगी ] // 113 / / एतस्य साऽवनिभुजः कुलराजधानी काशी भवोत्तरणधर्मतरिः स्मरारः। यामागता दुरितपूरितचेतसोऽपि पापं निरस्य चिरज विरजीभवन्ति / एतस्येति / स्मरारेः संसारार्णवकर्णधारस्य महादेवस्य सम्बन्धिनी, भवोत्तरणे लोकानां भवाब्धितरणे, धर्मतरिः मूल्यमगृहीत्वा पारकारिणी तरणिः, धर्मतरिग्रहणात् केवलं धर्मार्था नौः इत्यर्थः, 'स्त्रियां नौस्तरणिः तरिः' इत्यमरः। सा काशी एतस्यावनिभुजः काशीराजस्य, कुलराजधानी वंशपरम्परागतराजधानी; दुरित.. पूरितचेतसोऽपि अतिपापात्मानोऽपि, यां काशीम् , आगताः चिरजं चिरसश्चितं, पापं निरस्य परित्यज्य, अविरजसो विरजसः सम्पद्यमाना भवन्ति विरजीभवन्ति वीतरजोगुणाः सत्त्वप्रधाना मुक्ता भवन्तीत्यर्थः। अभूततद्भावे विः 'अरुमनश्चक्षुश्वे-- तोरहोरजसा लोपश्च' इति सकारलोपः // 14 // शिवजीकी संसार से पार करने में धमनीका वह काशी इस राजाकी कुलपरम्परागत राजधानी है, जिसमें आये हुए पापपूर्ण वित्तवाले ( महापापी) भी चिरकालसे उत्पन्न पापको छोड़कर निष्पाप ( रजोगुणरहित होकर सत्त्वगुणयुक्त ) हो जाते हैं / [ 'धर्म' नौका कहनेसे बिना खेवाई लिये सर्वसाधरण को संसार से पार उतारनेवाली उस नावका होना सूचित किया गया है ] / / 114 / / आलोच्य भाविविधिकर्तृकलोकसृष्टिकष्टानि रोदिति पुरा कृपयैव रुद्रः। ..1. 'मालोक्य' इति पा०। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 689 एकादशः सर्गः। नामेच्छयेति मिषमात्रमधत्त यत्तां संसारतारणतरीमसृजत् पुरी सः / / आलोच्येति / रुद्रो हरः, भाविन्याः विधिकर्तकाया ब्रह्मकत्तेकायाः, लोकसृष्टेः सृष्टप्राणिजातस्य, कष्टानि दुःखानि, आलोच्य विचार्य, कृपयैव न तूपाध्यन्तरेणेत्यर्थः। पुरा रोदिति अरुदत् , 'पुरि लुङ् चास्मे' इति चकारात् पुरा-शब्दयोगे भूतानद्यत. नार्थ लट् / ननु यत् श्रूयते 'सोऽरोदीत् यदरोदीत् तत् रुद्रस्य रुद्रत्वम्' इति, तत् व्याजमात्रमित्याह-नामेति / नामेच्छयेति रोदनाद्रुद्रनामाकाङ्क्षयारोदात् इति, यत् तत् मिषमानं व्याजमात्रम् , अधत्त पृतवान् , वस्तुतः प्राणिनां कष्टमवलोक्ये. वारुदत् न तु स्वीयरुद्रनामेच्छयेत्यर्थः; कुतः ? यत् यस्मात् , स रुद्रः, संसारतारगरिं तां पुरी काशीम् , असृजत् ; कृपालो हि परदुःखेन दुःखायन्ते तत्प्रतीकार णोपायच कुर्वन्तीति भावः / ततो नूनं कृपयैव अरोदीदित्युस्प्रेक्षा // 115 // शिवजी भविष्य में की जानेवाली ब्रह्माकी प्राणिसृष्टिके दुःखां को देखकर कृपासे ही पहले रोये, ( और ) नामकी इच्छासे ( रोता हूँ यह तो) बहानामात्र किया; क्योंकि उसः शिवजीने संसारको पार करनेके लिये नावरूप पुरी ( काशीपुरी ) की रचना की / [ब्रह्माके ललाटसे उत्पन्न होकर रोते हुए उस शिवको देखकर 'क्यों रोते हो ?? ऐसा ब्रह्माके पूछने पर 'नामकी इच्छासे रोता हूँ' ऐसा उत्तर बहानामात्रसे उन्होंने ही दिया, वास्तविकमें तो 'ये ब्रह्मा भविष्यमें जिन प्राणियोंकी सृष्टि करेंगे वे महादुःखी होंगे' यह विचारकर ही शिवजी रोये थे। यही कारण है कि उन प्राणियोंको दुःखसे सर्वदाके लिए छुड़ाने अर्थात् मुक्त करने के लिए उन्होंने काशीपुरीकी रचना की। दूसरे भी दयालु पुरुष किसीके. भावी दुःखको विचारकर रोते तथा उसे दूर करनेका उपाय करते हैं, किन्तु किसीके रोनेका (या दुःखित होने) का कारण पूछनेपर वास्तविक बात नहीं कह कर कोई बहाना बना देते हैं और चुपचाप उसके दुःखको दूर करने का उपाय कर देते हैं। इस राजाके वरण करनेसे काशीकी प्राप्ति होनेसे किसी दुःखको आशङ्का नहीं रहेगी अतएव तुम इसे वरण करो] // 115 // वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिमखभुजां भुवने निवासः।। तत्तीर्थमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात् परं पदमुदेतु मुदे तु कीटक ? // वाराणसीति / वाराणसी काशी, वसुन्धरायां न निविशते भूलोकान्तःपातिनी न भवतीत्यर्थः, अत एव तत्र वाराणस्यां, स्थितिर्लोकानां निवासः, मखभुजां देवानां, भुवने लोके, स्वर्गे इत्यर्थः, निवासः स्वलोकवसतिः, अत एव तस्याः स्वर्गत्वादेव, तस्मिन् तीर्थे मुक्तवपुषां त्यक्तकलेवराणां, मुक्तिरपवर्ग एव; तथा हि, स्वर्गात् स्वर्गरूपात् काशीतः, परम् उत्क्लष्टं, कीहक पदन्तु कीदृशं स्थानं पुनः, मुदे प्रीतये, उदेतु ? उद्गच्छतु ?. भवतु इत्यर्थः, तव इति शेषः, स्वर्गवास एव मानां काम्यतमः, अतस्त्वं काशीराजं वरीस्वा काशीरूपस्वर्गवाससुखमनुभव इति भावः। यद्वा-स्वर्गादपवर्गात् , परमधिकम् , अपवर्गादन्यादृशं, कीहक् पदन्तु स्थानं पुनः, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / मुदे आनन्दाय, उदेतु ? उत्पद्यताम् ? ते इति शेषः, न किञ्चिदन्यदित्यर्थः / सम्भावनायां लोट् , भूलोकवासिनां मृतानां स्वर्गः, स्वर्गवासिनान्तु मृतानाम् अपवर्ग एव परं पदं, न तु स्वर्ग एवोचितः, अतः सा काशी स्वर्ग एव इति भावः॥ __ वाराणसी पृथ्वीपर नहीं स्थित है (या पृथ्वीमें अन्तर्भूत नहीं हैं) वहाँपर निवास करना देवलोक (स्वर्ग) में निवास करना है अर्थात् वाराणसी स्वर्ग ही है भूमिगत कोई पुरी नहीं है, ( अथवा-वहाँ देवोंका निवास करना भूलोकमें निवास करना है, अर्थात् स्वर्गसे भी अधिक रमणीय होनेसे देवलोग स्वर्गसे वहाँ वाराणसी पुरीमें ) आकर निवास करते हैं। इसी कारण उस (वाराणसी) के तीर्थों ( मणिकणिका आदि ) में शरीरत्याग करने ( मरने) वालों की मुक्ति होती है, ( यदि वाराणसी भी अन्य पुरियोंके समान भूमिपर ही होती तथा वहाँ निवास करना स्वर्गमें निवास करना नहीं होता तो उसके तीर्थमें भी मरनेवाले प्राणियोंको अन्य पुरियों के तीर्थों में मरनेवाले प्राणियों के समान स्वर्ग-प्राप्ति ही होती, मुक्तिप्राप्ति नहीं होती, अतएव वहाँ निवास करना स्वर्गमें ही निवास करना है ), स्वर्गसे श्रेष्ठ भी ( मुक्ति के अतिरिक्त ) पद हर्षके लिये प्राप्त होवे ( भूलोकमें मरनेवाले प्राणियों के हर्षके लिए भूलोकाधिक श्रेष्ठ स्वर्ग-प्राप्ति होना और वाराणसीरूप स्वर्गमें मरनेवाले प्राणिके हर्षके लिए स्वर्गाधिक मुक्ति-प्राप्ति होना उचित ही है ) // 116 / / सायुज्यमृच्छति भवस्य भवाब्धियादस्तां पत्युरेत्य नगरी नगराजपुत्र्याः। भूताभिधानपटुमद्यतनीमवाप्य भीमोद्भवे ! भवतिभावमिवास्तिधातुः॥ ____ सायुज्यमिति / भीमोद्भवे ! हे भैमि ! भवाब्धियादः संसारसागरजजन्तुजातं, कत। 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यमरः / नगराजपुत्र्याः पत्युः पार्वतीपतेः सम्ब. धिनी, तां नगरी काशीम् , एत्य अस्तिधातुः 'अस भुवि' इत्ययं धातुः, भूताभिधानपटुम् अतीतकालाभिधानसमाम् , अन्यत्र-भूतस्य सत्यस्य तारकब्रह्मरूपस्येत्यर्थः, अभिधाने उपदेशप्रापणे, पटुं समर्थाम्, इति नगरीपक्षे योज्यम् ; अद्यतनों लुङम् , अवाप्य अद्यतनीति लुङ् पूर्वाचार्याणां संज्ञा आर्द्धधातुकोषलक्षणमेतत् , अस्तेभूभावस्या धातुकाधिकारात् / अद्यतनीग्रहणन्तु उपमानोपमेययोरभिन्नलिङ्गस्वायेति द्रष्टव्यम् / भवतीति भावम् इव 'अस्तेर्भूः' इति विधानात् अस्-धातो . धातुस्वमिव, भवस्य ईश्वरस्य, सयुजो भावः सायुज्यं तादात्म्यं, ऋच्छति गच्छति // ___ हे भीमनन्दिनि ( दमयन्ति ) ! संसाररूपी समुद्रका जलजन्तु अर्थात् संसारी जीव पर्वतराजपुत्री ( पार्वती ) के पति शिवजीकी तारक ब्रह्म के उपदेशमें समर्थ उस नगरी ( वाराणसी पुरी) को पाकर ( अथवा-उस नगरीको पाकर पर्वतराजपुत्रीके पति शिवजी) के सायुज्यको उस प्रकार प्राप्त करता है, जिस प्रकार 'अस' धातु ('अस् भुवि'-अदादि परस्मैपदसंशक धातु ) 'भूत' कालके कहने में समर्थ अद्यतन विभक्ति ( 'लुङ' लकार ) को प्राप्तकर 'भू' भाव ( 'अस्तेर्भूः पा० 2 / 4 / 52 ) से 'भू' आदेश को प्राप्त करता है। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। [वाराणसीमें शरीरत्याग करनेपर शिवजी प्राणीको श्रेष्ठ तारक मन्त्रका उपदेश देते हैं.. जिससे वह प्राणी उनकी सायुज्य मुक्तिको प्राप्त कर लेता अर्थात् शिवरूप हो जाता है। मुक्तिके सायुज्य, सामीप्य, सालोक्य आदि अनेक भेद शास्त्रों में वर्णित हैं ] // 117 // निर्विश्य निर्विरति काशिनिवासि भोगान् निर्माय नर्म च मिथो मिथुनं यथेच्छम् / गौरीगिरीशघटनाधिकमेकभावं शोर्मिकचुकितमञ्चति पञ्चतायाम् // 118 / / निर्विश्येति / काशिः काशी, 'कृदिकारादअक्तिनः' इति ङीषो वैकहिपको भावः / तस्यां निवासि वास्तव्यं, मिथुनं स्त्रीपुंसजातं, यथेच्छं, भुज्यन्ते इति भोगान् विषयान् , निर्विरति निर्विच्छेदं यथा तथा, निर्विश्य उपभुज्य, तथा मिथोऽन्योऽन्यं रहसि वा, नर्म क्रीडाच, निर्माय कृत्वा, पश्चतायां मृत्यौ सस्यां, गौरीगिरीशयोघं-- टनादर्भाङ्गसङ्घटनात् , अधिकमुत्कृष्टमेव, तत्र शरीरद्वयत्वेन प्रकाशः अत्र तु शिव. शरीरं एकत्वेनेति तदपेक्षया उत्कृष्टस्वमिति भावः, शर्मोर्मिभिः आनन्दलहरीभिः, कञ्चकितं सातकश्चकम् , आवृतसर्वाङ्गमित्यर्थः, एकभावम् एकत्वरूपम् , अश्चति प्रामोति, अन्यत्र सन्न्यासादिक्लेशात् मुक्तिः, इह तु भोगपूर्वकदेहत्यागेनापि मुक्तिरिति भावः // 118 // काशीमें निवास करनेवाला मिथुन (स्त्री-पुरुष की जोड़ी) वैराग्यरहित अर्थात् अनुरागपूर्वक इच्छानुसार भोगों ( कुङ्कुम केसर कस्तूरी चन्दन माल्यादि भोग-सामग्रियों) को प्राप्तकर और परस्पर में इच्छानुसार नर्म (हास-विलासादि ) करके मरनेपर (आधेआधे शरीरका संयोगरूप ) पार्वती-शिवके संयोगसे भी अधिक अर्थात् श्रेष्ठ एवं सुख परम्परासे संयुक्त एकीभाव (तादात्म्य ) को प्राप्त करता है / [पार्वती तथा शिवके अर्धाङ्ग होनेपर भी दोनोंका पृथक पृथक् ज्ञान होता है, किन्तु उक्त काशीवासी स्त्री-पुरुष-मिथुन तद्रूप होकर-पृथक नहीं मालूम पड़नेसे उक्त पार्वती-शिवको अर्धशरीरसंयोगकी अपेक्षा भी उत्तम गति लाम करता है। अन्यत्र निवास करनेपर भोग-विलास साधनोंसे विरक्त होकर तथा कष्ट सहते हुए ध्यान जप तप आदि करने पर ही मुक्ति मिल सकती है और यहां उक्त सब कष्टों को विना सहन किये ही काशी में निवास करने मात्रसे मुक्ति मिल जाती है, अत एव सर्वामिलाषसिद्धि के लिए इस काशीराजका वरण करो] // 118 // न श्रद्दधासि यदि तन्मम मौनमस्तु कथ्या निजाप्ततमयैव तवानुभूत्या। न स्यात् कनीयसितरायदि नाम काश्या राजन्वती मुदिरमण्डनधन्वना भूः॥ नेति / न श्रद्दधासि यदि स्वर्गादपि काश्या आधिक्यवर्णनरूपं मद्वाक्यं न विश्वसिषि चेत् , तत्तर्हि, मम मौनमस्तु अहं तूष्णीमासे, तव निजया आत्मीयया,. आप्ततमया नितरां हितकारिण्या, अनुभूत्या प्रमाणभूतस्वीयानुभावेनैव, कथ्या Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 नैषधमहाकाव्यम् / कयनीयाऽसि; किं कथ्या ? तदाह,-मुदिरा जीमूताः, 'धनजीमूतमुदिर-' इत्यमरः, तेषां मण्डनं भूषणभूतं, धनुर्यस्य स तद्धन्वा देवेन्द्रः, 'धनुषश्च' इत्यनडादेशः तेन राजन्वती शोभनराजविशिष्टा, भूः स्वर्गभूः, 'राजन्वान् सौराज्ये' इति निपातनात् साधुः। काश्याः काशीतः, 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी। अतिशयेन कनीयसी कनीसितरा हीनतरा, 'युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्' इत्यल्पशब्दस्य कनादेशः, 'घरूपकल्प-' इत्यादिना डीपो द्वस्वः न स्यान्नाम यदि, अपि तु स्यादेवेत्यर्थः, दिवः स्वर्गात् अधिका काशी, दिवस्पतेरधिक; काशीराज इत्यलं वार्ताभिः, एतत्पाणिग्रहणानन्तरमनुभव एव ते कययिष्यतीति भावः // 119 // यदि ( मेरे बचनमें ) विश्वास नहीं करती हो तो मेरा मौन ही हो अर्थात् मैं चुप रहती हूँ। मेघों का भूषण है धनुष जिसका ऐसे इन्द्रसे सुन्दर राजावाली भूमि ( अमरावती पुरी) यदि काशीसे अत्यन्त हीन नहीं है तो अपना आप्ततम अर्थात् अत्यन्त निष्पक्ष (या हितकारी ) तुम्हारा अनुभव ही तुमसे कहेगा। [इस काशीनरेशके वरण करनेसे तुम स्वयं ही यह अनुमव करोगी की काशीकी अपेक्षा इन्द्रपुरी अमरावती भी अत्यन्त तुच्छ है, अन एव इसका वरण करो] // 119 // झानाधिकाऽसि सुकृतान्यधिकाशि कुर्याः कार्य किमन्यकथनैरपि यत्र मृत्योः। एक जनाय सतताभयदानमन्यद् धन्ये ! बृहत्यमृतसत्रमवारितार्थि / / ज्ञानेति / धन्ये ! हे श्लाध्ये ! भैमि ! ज्ञानेन अधिका उत्कृष्टा, असि भवसि, अतः अधिकाशि काश्यां, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / सुकृतानि एतत्परिणयेन दानादिविविधसत्कर्माणि कुर्याः; अथवा अन्यक्थनैः कर्तव्यान्तरोपदेशः, किं कार्यम् ? किं प्रयोजनम् ? न किञ्चिदित्यर्थः, यत्र काश्यां, मृत्योरपि मृत्युसकाशादपि, जनाय एकं केवलं, सतसमविच्छिन्नम् , अभयदानं मृत्युवशानां सद्य एव मृत्युञ्जयत्वप्राप्ते. रिति भावः; अन्यद् अपरम् , अवारिताः अनिवारिताः, अर्थिनो याचकाः यस्मिन् तत् , अमतसत्रं मोक्षदानं, गङ्गोदकदानञ्च, 'अमृतं तूदके मोक्षे' इति केशवः / 'सत्रमाच्छादने यज्ञे सदा दाने वनेऽपि च' इति चामरः। वहति प्रवर्तते; काशिमृतानां शिवसारूप्यममृतत्वञ्च सिद्धमिति अन्यत्र जीवनात् मरणमपि काश्यां वरमिति भावः // 120 // हे धन्ये ( दमयन्ति ) ! श्रेष्ठ ज्ञानवाली हो, ( अत एव ) काशीमें पुण्यों (पति-सेवादि सत्कौं ) को करो, दूसरे ( कर्तव्य, या माहात्म्य ) के कहनेसे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं, जहाँ ( जिस काशीमें ) मनुष्य के लिये सर्वदा अभयदानरूप एक अमृतयज्ञ (मोक्षदान यज्ञ ) होता रहता है तथा जिसमें किसी याचकको निषेध नहीं किया जाता, ऐसा दूसरा अमृतयश (जल-दानयश अर्थात् गङ्गाजी ) होता रहता है। [ काशीमें मरने के बाद मुनर्जन्म लेनेका मय नहीं रहने से मोक्ष-दानरूप एक यज्ञ और याचकके लिये विना निषेध किये निरन्तर जल-दानरूप द्वितीय यज्ञ ( गङ्गाजी ) प्रवाहित होता रहता है। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 663 काशीमें निवासकर तथा गङ्गाजल पीकर अनायास ही जीव मृत्यु के भयसे मुक्त हो जाता है, अतः इसका वरण कर मृत्युभयसे तुम भी मुक्त हो जावो ] // 120 // भूभत्तुरस्य रतिरेधि मृगाक्षि ! मूर्ती सोऽयं तवास्तु कुसुमायुध एवमूर्तः। भातश्च ताविव युवां गिरिशं विरुद्धमाराद्धमाशु पुरि तत्र कृतावतारौ॥ भूभत्तरिति / हे मृगाक्षि ! त्वमस्य भूभत्तः काशीराजस्य, मूर्त्ता मूर्तिमती, रतिः कामपत्नी, एधि भव अस्तेः सिचि हेर्धिरादेशे 'वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च' इत्येकारा. देशः। सोऽयं राजा च, तव मूर्तो मूर्तिमान् , कुसुमायुधः कामः एव; अस्तु भवतु, किञ्च युवां विरुद्धं द्विष्टं पुरा कोपितमित्यर्थः,गिरिशमीश्वरम्, आराधुम् आराधयितुं, तदीयकोपशान्त्यर्थमिति भावः, तत्र पुरि काश्याम, आशु अधुना, कृतावतारौ अवतीर्णी, ताविव रतिकामाविव,भातं विराजतञ्च, भातेलोटि थसस्तमादेशः // 121 / / हे मृगनयनि ( दमयन्ति ) ! तुम इस राजाकी मूर्तिधारिणी रति बनो तथा यह (राजा) तुम्हारा मूर्तिधारी कामदेव ही बने ( यह राजा तुम्हें साक्षात् रति समझे और तुम इस राजाको साक्षात् कामदेव समझो अथवा-तुम इसकी मूर्तिधारिणी प्रीति बनो और यह तुम्हारा मूर्तिधारी अनुराग बने अर्थात् तुम दोनों परस्परमें अत्यधिक स्नेह करो) और पहले विरोध किये गये शिवजीको पूजा ( करके प्रसन्न ) करने के लिए उस ( काशी) पुरीमें शीघ्र अवतार लिये हुए ( या देहधारण किये हुए ) उन दोनों ( रति-कामदेव ) के समान तुम दोनों शोभित होवो / [ अत्यन्त सुन्दर तुम दोनों को देखकर काशीवासी लोग ऐसी कल्पना करेंगे ] // 121 // कामानुशासनशते सुतरामधीती सोऽयं रहो नत्रपदैर्महतु स्तनौ ते। रुष्टाद्रिजाचरणकुङ्कुमपङ्करागसंकीर्णशङ्करशशाङ्ककलाङ्ककारैः // 122 / / कामेति / कामानुशासनानां कामशास्त्राणां, शते समूहे, सुतरां नितराम, अधीतमनेनेत्यधीति 'इष्टादिभ्यश्च' इति इनि प्रत्यये सप्तमीविधाने 'क्तस्येविषयस्य कर्मण्युपसङ्ख्यानम्' इति सप्तमी। कृताध्ययनः, सोऽयं राजा, रुष्टा कुपिता, अद्रिजा पार्वती, तस्याश्चरणकुङ्कुमपरागेण सङ्कीर्णा पार्वस्याः कोपापनोदनाय पादग्रहणकाले कुङ्कुमरजिततदीयचरगसम्पर्कात् रूषिता, या शङ्करशशाङ्ककला महादेवशिरःस्थित. चन्द्रकला, तया सह अङ्ककारः कलहकारिभिः, तदनुकारिभिरित्यर्थः, कुङ्कमरञ्जित. चन्द्रकलासहशैरिति यावत् , कर्मण्यण 'अङ्क: कलहचिह्नयोः' इति विश्वः / नखपदनखक्षतविह्नः ते स्तनौ कुचौ, रहः निर्जने महतु पूजयतु, अलङ्करोतु इत्यर्थः / मह पूजायामिति धातोभीवादिकालोट् // 122 // ___ सैकड़ों कामशास्त्रको अध्ययन किया सुप्रसिद्ध यह राजा एकान्तमें रुष्ट पार्वतीके (शङ्करजीके मस्तकपर चरण प्रहार करनेसे) चरणमें लगाये गये कुङ्कमपङ्कके लेपसे युक्त अर्थात् अरुण वर्णवालो शङ्करजोके ( मस्तक पर स्थित ) चन्द्रकलाके साथ कलह करनेवाले Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 नैषधमहाकाव्यम् / (अथवा-प्रतिमल्ल ) अर्थात् सदृश नखचिह्नोंसे तुम्हारे स्तनों को सुशोभित करे। [ वक्राकार एवं रक्तवर्ण नखचिह्नसे उक्त चन्द्रकलाकी समानता होना स्पष्ट है / तुम इस काशी नरेशको वरण करो ] // 122 // पृथ्वीश एष नुदतु त्वदनङ्गतापमालिङ्गय कीर्तिचयचामरचारुवापः। संग्रामसङ्गतविरोधिशिरोधिदण्डस्खण्डिक्षुरप्रसरसम्प्रसरत्प्रतापः // 123 / __ पृथ्वीश इति / कीर्तिचय एव चामरवत् चारुः मनोहरः, चापो यस्य सः कीर्तिधन्वा, महाशूरोऽयमिति कीर्तिधनुषा एव रिपुदमनकारी इत्यर्थः, अत्र चामरचारचाप इति प्रयोगस्तु कीर्ते; कविसमयसिद्धातिनैर्मल्यख्यापनार्थमिति बोद्धव्यम् / यशसि धवलता वय॑ते हासकीयोः, इति कविप्रसिद्धेरिति / अत एव संग्रामे सङ्गतानां विरोधिनां शत्रणां, शिरोधिदण्डान् कण्ठनालान् , खण्डयन्तीति तेषां तुरप्राणां शरविशेषाणां, सरेण प्रसरेण, सम्प्रसरन् सम्यक् प्रसरन्, समधिकं वर्द्धमानः इत्यर्थः, प्रतापः यस्य तादृशः एष पृथ्वीशः भूपतिः, आलिङ्गय तव अनङ्गतापं कामसन्तापं, नुदतु अपनयतु; समर-सुरतयोः समरस एव इति भावः / अत्र प्रकृष्टतापशालिनः आलिङ्गनेन तापनोदनमिति आपाततः विरोधोऽवभासते, प्रकृतव्याख्यया तु तत्परिहारः॥ 123 // युद्ध मे ( लड़ने के लिए ) आये हुए शत्रओं के शिरोनाल (गर्दन ) को काटनेवाले 'क्षुरप्र' नामक बाण-विशेषसे फैलते हुए प्रतापवाला तथा कीर्ति-समूहरूपी चामरसे सुन्दर धनुषवाला (धनुषसे प्राप्त कीर्तिवाला ) यह राजा ( तुम्हारा ) आलिङ्गनकर तुम्हारे ( अथवा-तुम्हारे कारणसे उत्पन्न अपने ) कामसन्तापको दूर करे / [ कुशल धनुर्धारियों के बाणमें चामर लगा रहता है / कीर्तिमान् तथा प्रतापी इस राजाके वरणसे तुम्हारा कामसन्ताप दूर होगा, अत एव तुम इसे वरण करो] // 123 // वक्षस्त्वदुग्रविरहादपि नाम्य दीर्ण वज्रायते पतनकुण्ठितशत्रुशस्त्रम् / तत्कन्दकन्दलतया भुजयोन तेजोवह्निर्नमत्यरिवधूनयनाम्बुनाऽपि॥१२४॥ वक्ष इति / हे भैमि ! तब उग्रात् दुःसहात् , विरहादपि न दीर्णम् अविदीर्ण, तथा पतनेन कुण्ठितानि प्रतिहतानि, भग्नधाराणीत्यर्थः, शत्रूणां शस्त्राणि आयुधानि यत्र तत् , अस्य राज्ञः, वक्षो वज्रायते वज्रमिवाचरति, वज्रमेवेत्यर्थः, अन्यथा कथमीहगभेद्यमिति भावः / आचारक्यङन्तालट् , तत् वक्षोवज्रमेव, कन्दो मूलं, तस्य कन्दलतया प्ररोहत्वेन, हृदयदाढर्यमूलत्वात् तत्प्ररोहभूतभुजतेजसोऽपि दाढयंताइति भावः, भुजयोस्तेजोवह्निः प्रतापाग्निः अरिवधूनयनाम्बुनाऽपि न नमति न शाम्यतीत्यर्थः, वज्राग्नेरिव अरिनिधनकारित्वादिति भावः / अत्र भुजतेजसोऽनम्बुहार्यत्वेन वज्रायितबक्षःकार्यताद्वारादन्यतेजस्वोत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 12 // तुम्हारे विरह (रूप अग्नि ) से भी नहीं फूटा हुआ तथा गिरनेसे शत्रुओंके शत्रोंको Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। 665 कुण्ठित करनेवाला इस ( काशीनरेश ) का हृदय वज्रके समान आचरण करता है अर्थात् वज्र ही है ( वज्र भी अभिमें नहीं फूटता है तथा उसपर गिरे हुए शस्त्र कुण्ठित हो जाते हैं / अथवा-इसका उक्तरूप हृदय हीरेके समान आचरण कर रहा है, हीरा भी अनिमें डालनेपर नहीं फूटता है और उसपर गिरनेवाले शस्त्र कुण्ठित हो जाते हैं / यहां 'वज्र' शब्द इन्द्रास्त्रका वाचक है)। उस ( वज्र ) के कन्दके अङ्कर होनेसे भुजाओंकी प्रतापाग्नि शत्रुस्त्रियों के नेत्रजल ( आँसू ) से भी शान्त नहीं होती। [ हृदयसे उत्पन्न स्थूल मूलवाली भुजाओंसे उत्पन्न प्रतापामिका शत्रुस्त्रियों के नेत्रजलसे नहीं शान्त होना उचित ही है, क्योंकि मेघजल स्वोत्पादित विद्युदग्निको नहीं शान्त करता। प्रकृतमें शत्रुओंके मारनेसे उनकी त्रियोंके रोनेसे उत्पन्न नेत्रजल स्वजन्य भुज-प्रतापानिको नहीं शान्त करता है। वज्रतुल्यअतिकठोर हृदयस्थलसे उत्पन्न बाहुओंसे उत्पन्न तीव्र प्रतापाग्नि शत्रुओंको मारकर भी शान्त नहीं होती। यह राजा शत्रुओंमें निष्करुण एवं उनका नाश करनेवाला है तथा तुम्हारे विरहसे सन्तप्त है, अत एव इसका वरणकर इसे अनुगृहीत करो] // 124 // क नद्रुमा जगति जाग्रति लक्षसङ्घथास्तुल्यांपनीतपिककाकफलोपभोगाः? स्तुत्यस्तु कल्पविटपी फलसम्प्रदानं कुर्वन् स एष विबुधानमृतैकवृत्तीन् / किमिति / तुल्यं निर्विशेषं यथा तथा, उपनीतः सम्पादिता, पिकानां काकानाश फलोपभोगो यैस्ते, लपसङ्ख्या द्रुमाः वृक्षाः, जगति न जाप्रति किम् ? न स्फुरन्ति किम् ? स्फुरन्त्येवेत्यर्थः, तु किन्तु, अमृतैकवृत्तीन् सुधैकजीवनान् , विबुधान् देवान विदुषश्च,फलसम्प्रदानम् ईप्सितार्थप्रतिग्राहिणः, कुर्वन् सर्वामरमनोरथपूरक इत्यर्थः, स एष कल्पविटपी कल्पवृक्षः, कल्पवृक्षकल्पोऽयं काशिराज इत्यर्थः, स्तुत्यः स एक एव स्तोत्रा) नान्य इत्यर्थः, अन्ये नृपतयः असत्पात्रेभ्यः दानं कुर्वन्ति, अयं काशिराजस्तु पण्डितेभ्य एवं ददाति इति भावः। अत्राप्रस्तुतकल्पवृक्षकथनात् प्रस्तुत. काशिराजप्रतीतरप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः, 'अप्रस्तुतस्य कथनात प्रस्तुतं यत्र गम्यते / अप्रस्तुतप्रशंसेयं सारूप्यादनियन्त्रिता।' इति लक्षणात् // 125 // ___ कोयल और कौवेके लिए समान रूपसे फलोंके दनेवाले ( आम्र आदि ) लाखों पेड़ संसारमे नहीं हैं क्या ? अर्थात् अवश्य हैं (किन्तु वे प्रशंसनीय नहीं हैं, अपितु) अमृतमात्र भोजन करनेवाले देवोंके लिए फलोंको देनेवाला यह कल्पवृक्ष प्रशंसनीय है। [प्रकृतमें गुणागुणका विचार छोड़कर समानरूपसे सबको फल देनेवाले आम्र आदिके समान अन्य राजा संसारमें प्रशंसनीय नहीं है, किन्तु अमृतमात्रसे जीनेवाले देवों ( पक्षा०-अयाचित 1. तदुक्तं 'प्रकाश' व्याख्यायां नारायणभट्टेन 'पृथिव्यां यानि रत्नानि ये चान्ये लोहजातयः। ___ तानि वज्रेण लिख्यन्ते वज्रं नान्येन लिख्यते // ' इति / 2. तदुक्तं मनुना-'ऋतमुन्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् / मृतं तु याचितं भैयं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् // (मनुः 45) 44 नै० Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 नैषधमहाकाव्यम्। या यशवृत्तिसे जीनेवाले विशिष्ट विद्वानों ) को फल देनेवाला कल्पवृक्ष (रूप यह राजा) प्रशंसनीय है। तथा-गुणी तथा निर्गुणी सबके लिए समान दान देनेवालेकी प्रशंसा नहीं होती, किन्तु जो गुणके तारतम्यका विचार कर तदनुसार दान देता है, वही दानकर्ता कल्पवृक्षवत् प्रशंसनीय होता है, अतः ऐसे ही गुणागुणका विचारकर कल्पवृक्षके समान दान करनेवाले इस राजाको तुम वरण करो] // 125 // अस्मै करं प्रवितरन्तु नृपा न कस्मादस्यैव तत्र यदभूत् प्रतिभूः कृपाणः / दैवाद यदा प्रवितरन्ति न ते तदैव नेदकृपा निजकृपाणकरग्रहाय // 126 / / ___ अस्मै इति / अस्मै राज्ञे, नृपाः अन्ये सर्वे राजानः, कस्मात् कारणात् , करं बलिं, न प्रवितरन्तु ? न दद्युः ? दयुरेव, सम्भावनायां लोट् / कराप्रदानमसम्भावितमेवे. त्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात , तत्र करदाने, अस्य राज्ञः, कृपाणः खड्गः एव, प्रतिभूल. मकः, अभूत्, 'स्युलग्नकाः प्रतिभुवः' इत्यमरः / अथ कृपाणस्य प्रतिभूत्वं व्यनक्तियदा देवात्ते नृपाः, न प्रवितरन्ति, करमिति शेषः, तदैव निजकृपाणस्य करेण हस्तेन, ग्रहाय ग्रहणाय, अन्यत्र-निजकृपाणात् प्रतिभूस्वरूपकृपाणसकाशात् , करस्य बले, ग्रहणाय 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः। अस्य कृपा इदङ कृपा, न, भवतीति शेषः, निष्कृपः सन् कृपाणमुत्तोल्य तेभ्यः प्रसह्य करं गृहातीत्यर्थः, कृपाणपात. भीत्यैव करदानात् कृपाणस्य प्रतिभूत्वव्यपदेश इति भावः // 126 // राजा लोग इस ( काशानरेश ) के लिये कर ( राजदेयभाग, पक्षा०-दासी लोग हाथ अर्थात् हस्तावलम्बन ) क्यों नहीं हैं, क्योंकि उस ( कर-दान ) में इसीकी तलवार प्रतिभू ( जमानतदार-मध्यस्थ ) हुई है। भाग्यवश यदि वे राजा लोग, कर ( अर्थात् राजदेय भागको ) नहीं देते हैं तो अपनी तलवार से कर लेनेके लिए ( पक्षा०-अपनी तलवारको हाथमें लेनेके लिए ) इस राजाकी कृपा नहीं होती। [ दासजन स्वामी के लिए हस्तालम्बन ( हाथका सहारा ) देते हैं और तलवारसे वशीभूत राजालोग इस राजाके लिए कर देते हैं, क्योंकि उनसे कर दिलाने के लिए तलवारने ही मध्यस्थता की है, अतः भाग्यवश उन राजाओं के कर नहीं देनेपर यह राजा निर्दय होकर उस तलवारसे ही कर लेता है (पक्षा०-तलवार हाथमें लेकर उन राजाओंको फिरसे अपने वशमें कर लेता है / लोकमें भी किसी ऋण आदिको लेने वाला यदि उसे वापस नहीं करता तो धनिक ( महाजन ) उस मध्यस्थ ( जामिनदार ) व्यक्तिसे ही निर्दय होकर उक्त ऋण लेता है / सब राजा इसे कर देते हैं, अत एव इस शत्रुविजयी राजाका वरण करो ] 126 // एतद्वलैः क्षणिकतामपि भूखुराग्रस्पर्शायुषां रयवशादसमापयद्भिः / दृक्पेयकेवलनभःक्रमणप्रवाहै हैरलुप्यत सहस्रहगर्वगर्वः // 127 // ___एतदिति / एतद्वलैः एतत्सैन्यभूतैः, रयवशात् वेगवशात्, भुवि पृथिव्यां, खुराग्राणां ये स्पर्शाः संयोगाः, तेषां यान्यायूंषि अवस्थानरूपजीवितानि, स्थायित्व Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। काला इत्यर्थः, तेषां, चणिकता पणमात्रावस्थायितामपि, असमापयद्भिः अनिर्वतपनि, खुराप्रेण भूस्पर्शनं क्षणमपि अकुर्वद्भिरित्यर्थः, किन्तु हक्पेया अविच्छिन्नतया दृष्टिप्रायाः, न तु सङ्ग्यातुं शक्या इति भावः, केवला नभाक्रमणप्रवाहा नभोगति. परम्परा येषां तः केवलखेचरैरित्यर्थः, अतिवेगगामिभिरिति भावः, वाहै जिभिः, सहस्रहगर्वणः सहस्राक्षवाजिनः उच्चैश्रवसः, 'वाजिवाहार्वगन्धर्व-' इत्यमरः / गर्वः मदपेक्षया वेगशाली आकाशमानचारी अन्योऽश्वो नास्तीत्येवंरूपाहवारः, अलुप्यत लोपितः, सहस्राक्षस्य त्वेकक एव खेचरोऽश्वः, अस्य तु एतादृशाः परःसहस्त्राः अश्वा: विद्यन्ते इति भावः / अत्र इन्द्राश्वापेक्षया एतदश्वानामाधिक्यवर्णनात् व्यतिरेकालङ्कारः // 127 // वेगव ( वेगाधिक्य ) से खुरानों के द्वारा पृथ्वी के स्पर्शकी आयुकी क्षणिकताको भी नहीं समाप्त करते हुए, देखने योग्य आकाशगमन-परम्परावाले (अतिशय तीव्र चलनेके कारण सर्वदा ऊपर में ही पैर रक्खे रहनेसे दर्शनीय ), इसके सैनिक घोड़ोंने उच्चैःश्रवाका भी अमिमान नष्ट कर दिया। [इसकी सेनाके घोड़े खुरानोंसे पृथ्वीका स्पर्शमात्र भी नहीं करते तथा सर्वदा आकाश ( ऊपर ) में ही पैर रखनेसे बहुत सुन्दर दीखते हैं, और इस प्रकार अतिशय तीव्रगामी होनेसे इन्द्र के 'उच्चैःश्रवा' नामके घोड़े के भी अभिमानको चूर-चूर कर दिये हैं। वायु यद्यपि शीघ्र गामी है, किन्तु वह अदृश्य है, इस राजाकी सेनाके अतिशय वेगसे चलनेवाले घोड़े दृश्य हैं, अत एव अदृश्य तथा दृश्य वायु तथा उक्त घोड़ोंमें घोड़े ही श्रेष्ठ हैं ] // 127 // तद्वर्णनासमय एव समेतलोकशोभावलोकनपरा तमसो परासे। मानी तया गुणविदा यदनादृतोऽसौ तद्भभृतां सदसि दुर्यशसेव मम्लौ।। ___ तदिति / असौ दमयन्ती, तस्य काशिराजस्य, वर्णनासमये स्तोत्रकाले एव, समेतलोकानां समागतजनानां, शोभावलोकनपरा सती तं काशिराज, परासे व्याजेन परिजहारेत्यर्थः, 'उपसर्गादस्यत्यूयार्वेति वाच्यम्' इत्यस्यतेस्तङि लिट् / मानी अभिमानी, असौ राजा, गुणविदा गुणज्ञेया, तया भैम्या, यत् यस्मात् , अनाहतः, तत्तस्मादनादरणादेव, भूभृतां राज्ञां, सदसि दुर्यशसा दुष्कीयेव, मम्लो वैवयं गतः इत्यर्थः, वस्तुतः गुणज्ञया भैम्या कृतानादरेण लजावशात् म्लानोऽभूत् इति भावः। अनोस्प्रेक्षालङ्कारः // 126 // उस ( काशीनरेश ) के वर्णनके समयमें ही आये हुए लोगों ( 12 / 1 के अनुसार नवीन राजालोगों) की शोभा देखने में संलग्न इस ( दमयन्ती) ने उस ( काशीनरेश ) का परिहार कर ( उसे देखना छोड़ ) दिया / गुणज्ञा उस ( दमयन्ती) ने जो उसका अनादर किया, उससे राजाओंकी सभामें मानी वह राजा मानो अपकीर्तिसे मलिन हो गया 1. 'निरासे इति' पा० Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द६८ नैषधमहाकाव्यम् / ( अथवा-गुणशा इसने राजाओंकी सभामें मानी इस काशीनरेशका जो तिरस्कार किया, उस कारण मानो अपकीर्तिसे वह राजा मलिन हो गया / अथवा-मानी वह राजा मलिन हो गया, शेष व्याख्या पूर्ववत् है ॥)[गुणज्ञ व्यक्ति किसी मानी व्यक्तिका राजसमामें तिरस्कार करता है तो वह मानी व्यक्ति मानो अपकीर्तिसे खिन्न हो जाता है, किन्तु अगुणज्ञ (मूर्ख) के अपमान करनेपर खिन्न नहीं होता, अतः उस राजाका गुणज्ञा दमयन्तीके - राजसभामें निरादर करनेपर खिन्न होना उचित ही था ] // 128 / / साऽनन्तानाप्य तेजःसखनिखिलमरुत्पार्थिवान् दिष्टभाजः चित्तेनाशापुषस्तान् सममसमगुणान् मुञ्चती गृढभावा / पारेवाग्वत्तिरूपं पुरुषमनु चिदम्भोधिमेकं शुभाङ्गी निःसीमानन्दमासीदुपनिषदुपमा तत्परीभूय भूयः॥१२९ / / सेति / अनन्तान् अपरिमितान् , दिष्टभाजो भाग्यभाजः, चित्तेन आशाम् अभिलार्ष, पुष्णन्ति इति आशापुषः भैमी कामयमानानित्यर्थः, तान् प्रसिद्धान्, असमगुणान् असाधारणशौर्यादिगुणान् , तेजसः सखायः तेजःसखाः तेजस्विन इत्यर्थः, 'राजाहःसखिभ्यष्टच' निखिला मरुतो देवा इन्द्रादयः, पार्थिवाश्च तान् , आप्य प्राप्य, समं युगपत् , मुञ्चती परिहरन्ती, उपनिषत्पनेतु-सानन्तान् आकाशसहि. तान् , 'अनन्तं सुरवमै खम् / पुंस्याकाशविहायसी' इत्यमरः। दिष्टभाजः कालयुक्तान्, 'दिष्टं भाग्ये च काले च' इति विश्वः / चित्तेन मनसा, समं सह, आशापुषो दिग्युक्तान्, 'आशा दिगतितृष्णयोः' इति वैजयन्ती। असमगुणान् न्यूनाधिकसङ्ख्यातरूपरसादिगुणकान् , अपां विकारः आप्यं, 'त्रिषु द्वे भाप्यमम्मयम्' इत्यमरः। आप्यञ्चेति चान्द्रसूत्रनिपातनात् साधुः / तेजःसखाः तेजोव्यसहिताः, निखिलाः मरुतः वायवः, 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः / पार्थिवाः पृथिवीविकाराः, अत्रापि आप्यपार्थिवशब्दौ तद्धितान्तावपि प्रकरणात् प्रकृत्यर्थमात्रपुरौ द्रष्टव्यौ, तान् मुञ्चती तार्किकोक्तपृथिव्यादिनवद्रव्येषु आत्मातिरिक्तद्रव्याष्टकस्य 'एकमेवा. द्वितीयम्' 'नेति नेति' इत्यादि श्रुतिवाक्यैः निषेधं कुर्वतीत्यर्थः, गूदभावा गूढ़ः गोपायितः, भावः नलानुरागो यया सा, अन्यत्र-ब्रह्मरूपगहनार्थप्रतिपादनात् दुर. वगाहाभिप्राया, शुभाङ्गी अनवद्यगात्री, अन्यत्र-सम्पूर्णाङ्गी, षडङ्गयुक्ता इत्यर्थः, सा दमयन्ती, वाचां पारे परपारे पारेवाक् 'पारे मध्ये षष्ठ्या वा' इत्यव्ययीभावः, तद्वति बाचा वर्णयितुमशक्यं, रूपं सौन्दर्य यस्य तम् ; अन्यत्र-'यतो वाचः-' इत्यादि श्रुतेः वाग्व्यापारातीतस्वरूपं, चिदम्भोधिं सकलशास्त्रपारगत्वेन ज्ञानसागरम् ; अन्यत्र-तद्रूपं, ज्ञानघनमित्यर्थः, एकं स्वसमानगुणशालिद्वितीयरहितम् ; अन्यत्रअद्वितीयं, निःसीमा आनन्दो यस्येति बहुव्रीहिः / अपारानन्दयुक्तम्, अन्यत्रअनन्त सुखस्वरूपं,कर्मधारयः। पुरुष नलरूपं पुमांसं परमात्मानञ्च, अनु लक्षयित्वा, Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः। प्रतीत्यर्थः, 'अनुलक्षणे' इति कर्मप्रवचनीयत्वात् द्वितीया / भूयो भूयिष्ठं, तत्परा तस्मिन् नले भासका भूत्वा; अन्यत्र-परब्रह्मरूपे तात्पर्यवती भूता, उपनिषत् वेदान्तवाक्, उपमानं यस्याः तदुपमा तत्कल्पा, पासीदिति श्लिष्टविशेषणेयमुपमा, श्लेष एवेति केचित् / स्रग्धरावृत्तम् // 129 // शुभ (शुभ लक्षणोंसे युक्त) अङ्गोवाली तथा अनन्तसंख्यावाले अर्थात् अपरिमित, भाग्यवान् ( या बहुत सम्पत्तिवाले), चित्तसे आशाकी वृद्धि करनेवाले ('दमयन्ती हमें ही वरण करेगी' ऐसी आशाको बढ़ानेवाले, पाठा०-आशाको करनेवाले), असमान गुणों (शौर्य, दान, विद्वत्ता आदि ) वाले सम्पूर्ण देव (इन्द्रादि) तथा राजाओंको प्राप्तकर एक साथ हो छोड़ती हुई, वचनागोचर रूप (अवर्णनीय सौन्दर्य) वाले, चैतन्य (ज्ञान) के समुद्र, अद्वितीय, सोमारहित (बेहद ) आनन्दवाले पुरुष (नल) को उद्देश्यकर गुप्त भाववाली (नल विषयक अनुरागको प्रकट नहीं करनेवाली), तत्पर होकर उपनिषद्के समान हुई शुभ छः अङ्गोंवाली उपनिषद् भी अनन्त अर्थात् माकाशसहित, काळयुक्त, मनके साथ दिशायुक्त, असमान (न्यूनाधिक असङ्ख्थात रूप-रसादि गुणोंबाले; जल, वायु तेजोयुक्त समस्त वायु और पृथ्वीको एक साथ निषेध करती हुई (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक् , आत्मा तथा मन-वार्षिकोक्त इन नब द्रव्यों में आत्माके अतिरिक्त शेष आठ द्रव्योंका एक साथ निषेध करती हुई) गूढ अभिप्रायवाली है, वह मनोवचनातीत रूपवाले, चैतन्यस्वरूप, अपरिमित आनन्दस्वरूप, परमात्माको लक्षितकर बहुत तात्पर्ययुक्त होती है / [अन्यान्य व्याख्याओंकी 'प्रकाश'आदि टीकाओंसे समझ लेना चाहिये ] // 129 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् / शृङ्गारामृतशीतगावयमगादेकादशस्तन्महाकाव्येऽस्मिन् निषधेश्वरस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 130 / / श्रीहर्षमित्यादि / शृङ्गार एव अमृतं तस्य शीता गावः किरणा यस्य सः शीतगुः तस्मिन् शीतगौ चन्द्रे 'गोलियोरुपसर्जनस्य' इति ओकारहस्वः // 30 // इति महिनाथविरचिते 'जीवातु' समाल्याने एकादशः सर्गः समाप्तः। कबीश्वर-समूहके......"उत्पन्न किया, उसके रचित शृङ्गारामृतके चन्द्ररूप 'नैषधचरित' नामक सुन्दर महाकाव्यमें स्वभावतः उज्ज्वल यह एकादश ( ग्यारहवां ) सर्ग समाप्त हुमा / (शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान समझनी चाहिये)॥१३०॥ यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'मैषधचरित' का एकादश सर्ग समाप्त हुआ // 11 // Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः समासः Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20-00 हमारे कतिपय नवीन प्रकाशन हिन्दी अलङ्कारसर्वस्व-('विमर्शिनी' 'सहृदयलीला' टीकाद्वय सहित) _व्या-डॉ० रेवाप्रसाद द्विवेदी 25-00 हिन्दी अलङ्कारसूत्राणि-('काव्यालंकारकामधेनु' टीका सहित ) व्या०-डॉ. वेचन झा 10-00 हिन्दी चित्रमीमांसा--('सुधा' टीका सहित ) व्या-आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र हिन्दी सांख्यतत्त्वकौमुदी-व्या०-डॉ० गजाननशास्त्री 10-00 शब्दस्तोममहानिधिः-तारानाथ भट्टाचार्य विरचित्त 45-00 त्रिपुरारहस्यम्-ज्ञानखण्डम् / 'ज्ञानप्रभा' हिन्दी व्याख्या सहित 13-00 कामकुजलता-पण्डितराज दुण्डिराज शास्त्री सम्पादित 25-00 चन्द्रकला नाटिका-विश्वनाथकविराजप्रणीत / 'प्रभावती' हिन्दीव्याख्या 8-00 हिन्दी वक्रोक्तिजीवित / व्याख्याकार-श्री राधेश्याम मिश्र 15-00 हिन्दी वैशेषिकदर्शन-(प्रशस्तपादभाष्य सहित ) 18-00 स्याकरणमहाभाष्यम्-सप्रदीप हिन्दीव्याख्या 1-5 आह्निक 10-00 शृङ्गाररस का शास्त्रीय विवेचन-डॉ० इन्द्रपाल सिंह 10-00 भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधिसिद्धान्त-श्री राजवंशसहाय 16-00 औचित्य सम्प्रदाय का हिन्दी-काव्य शास्त्र पर प्रभावडॉ. चन्द्रहंस पाठक 25-00 मूल संस्कृत उद्धरण-प्रोजे मुहर / (हिन्दी रूपान्तर)१-५ भाग 125-00 लौकिक संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहाल-डॉ. गौरीनाथ शास्त्री। अनुवादक-डॉ० रामकुमार राय 10-00 विष्णुपुराण का भारत-डॉ० सर्वानन्द पाठक 20-00 शुक्रनीति:-विद्योतिनी हिन्दी व्याख्या भू० पण्डितराज राजेश्वर शास्त्री 12-50 स्वतन्त्र कलाशास्त्र-(प्र० भाग भारतीय रूपान्तर) 1-5 भाग 125-0. -नाटेग 35-00 हिन्दी सहृदयानन्दकृष्णानन्द प्रणीत / तिहास--डॉ. गौरीनाथ धर्मसिन्धु:-'धर्मदीपिका' हिन्दी टीका 'सुध याज्ञवल्क्यस्मृतिः- 'मिताक्षरा' तथा 'पाक 1-5 भाग - प्राप्तिस्थानम्-चौखम्बा संस्कृत से डॉ. गौरीनाथ 10-00 .00