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________________ 368 नैषषमहाकाव्यम् / पन्धूकबन्धूमवदेतदस्या मुखेन्दुनानेन 'सहोजिहानम् / रागश्रिया शैशषयौषनीयां स्वमाह सन्ध्यामधरोष्ठलेखा // 37 / / बन्धूकेति / अस्या भैम्याः अधरोष्ठलेखा अनेन मुखेन्दुना सहोज्जिहानमुखम् / बन्धकबन्धूभवत् / बन्धुजीवकुसुमसमीभवत् एतपुरोवर्ति स्वमात्मानम् / 'आत्मनि स्वम्' इत्यमरः। रागश्रिया भारुण्यसम्पदा, शैशवयौवनयोरेतत्सम्ब. धिनी सन्ध्यामाह / अहोरात्रसन्धाविव वयःसन्धी भवा सन्ध्या स्वयमेवेति स्वरागसमृद्ध्या कथयति इवेत्युप्रेक्षाग्यअनाप्रयोगाम्या // 37 // इस दमयन्ती की यह नीचेकी ओष्ठरेखा अर्थात् ओष्ठ इस (सामने दृष्टिगोचर होते हुए ) मुख चन्द्रके साथ उत्पन्न होते ( उदय प्राप्त करते ) हुए राग ( लालिमा) की शोभासे दुपहरिया फूलके समाज होते हुए ( अपनेको बाल्य और यौवनके मध्यवर्तिनी) सन्ध्याको कहती है / [ दमयन्ती का बचपन समाप्त हो रहा है तथा युवावस्था प्रारम्भ हो रही है, और इस समय उसके अधरोष्ठ दुपहरिया फूल के समान लाल हो रहे हैं तथा मुख चन्द्रमाके समान हो रहा है / जिस प्रकार दिन और रात्रिके बीचमें लाल वर्ण की सन्ध्या होती है तथा उसी समय चन्द्रोदय भी होता है / अतः यहां बचपन और यौवनावस्थाको दिन-रात, मुखको चन्द्रमा तथा अधरोष्ठ रेखा को सन्ध्या होना बतलाया गया है ] // 37 // अस्या मुखेन्दोरधरः सुधाभुर्विम्बस्य युक्तः प्रतिविम्ब एषः / तस्याथ वा श्रीमभाजि देशे संभाव्यमानास्य तु विद्रुमे सा // 18 // अस्या इति / अस्याः भैम्याः एषोऽधरः अधरोष्ठः मुखेन्दोः सुधायाममृते भव. स्याविर्भवतीति सुधाभूः, बिम्बस्य बिम्बफलस्य प्रतिबिम्बः सदृशो युक्तः। न तु च बिम्बफलात्कश्चिद्विशेषोऽस्तीत्यर्थः। तस्य बिम्बफलस्य श्री: शोभा, द्रमभाजि द्रुमपति देशे सम्भाग्यमाना / अस्याधरस्य स्वसौ श्रीः विद्रुमे प्रवाले विगतद्रुमे च सम्भाव्यत इत्यर्थः / 'विद्रुमः पुंसि प्रवालं नपुंसकम्' इत्यमरः। विद्रुमसमश्रीरित्यर्थः // 38 // इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमाके अमृतमें उत्पन्न अधरोष्ठ बिम्बफलके सदृश है यह ठीक है, या काकुसे ....."बिम्बफलके सदृश है ? अर्थात् नहीं ( क्योंकि अधरोष्ठ मुखचन्द्रसुधामें उत्पन्न हैं और बिम्बफल सुधामें उत्पन्न नहीं है, अत एव यह इसके अधरोष्ठके सदृश कदापि नहीं हो सकता ) / इस बिम्बफलकी शोभा वृक्षस्थानमें (पक्षा०-जङ्गली देशमै ) सम्भावित हैं और इसकी ( दमयन्तीके अधरोष्ठकी ) शोभा विद्रुम अर्थात् मूगेमें पक्षा०वृक्षरहित स्थान अर्थात् नगरमें है, अतएव जङ्गली देशमें उत्पन्न होनेवाला नगरमें उत्पन्न होनेवालेकी समानता कदापि नहीं कर सकता / [ पाठ भेदसे-इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमें स्थित यह अधरोष्ठ अमृतमें उत्पन्न बिम्बफलका प्रतिबिम्ब ( सदृश ) है यह उचित है; श्वेतवर्ण मुखरूप चन्द्रमें सुधोद्भव अधररूप बिम्बफलका प्रतिविम्बित (पक्षा०-सदृश) 1. 'सहोजिहाना' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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