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________________ 436 नैषधमहाकाव्यम् / शक्यवेत्यर्थः / अत्रेष्टमुखस्तुतेः द्विषन्मुखस्तुत्यपेक्षया कैमुस्येन स्वादुरवोत्कर्षप्रति. पादनादर्थापत्यलङ्कारः / तस्य वाक्यभूतस्य आमज्ज सुधामजनहेतुत्वाद्वाक्यार्थहे. तुकं काग्यलिङ्गमिति सकरः॥५१॥ ये ( नल ) प्रिया (दमयन्ती) के मुखसे प्रियवचनका पानकर (प्रिय वचनको सुनकर) 'मज्जा' नामक धातुतक ( पाठा०-कण्ठतक ) अमृतमें डूब गये / जो प्रशंसा शत्रुके मुख में अर्थात् शत्रुके द्वारा कहने पर भी रुचती है, फिर उसकी मधुरता प्रियके मुखमें (प्रियजनके मुखके द्वारा कहने पर) अपरिमित नहीं होगी क्या ? अर्थात् प्रियजनके द्वारा की गयी प्रशंसा अवश्यमेव मधिक रुचिकर होगी (पाठा०- उसकी मधुरता प्रियजनके मुखमें परिमित नहीं होगी अर्थात् अपरिमित ही होगी)। [ पहले तो शत्रुलोग किसीकी प्रशंसा करते ही नहीं और कोई शत्रु यदि किसीकी प्रशंसा करता भी है तो साधारण तथा थोडी ही करता हैं / इसके सर्वथा विपरीत प्रियजन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करते हैं, अतः यदि शत्रुकृत प्रशंसा भी रुचती है तो फिर प्रियजनकृत प्रशंसा कितना अधिक रचेगी इसका प्रमाण नहीं किया जा सकता। प्रिया दमयन्तीके मुखसे अपनी प्रशंसा सुनकर नलको अत्यधिक प्रसन्नता हुई। पौरस्त्यशैलं जनतोपनीतां गृहन् यथाहपीतरध्यपूजाम् / तथातिथेयीमथ संप्रतीच्छन्नस्या वयस्यासनमाससाद / / 5 / / पौरस्त्येति / अथ नलः अह्नः पतिः अहर्पतिः सूर्यः "अहरादीनां पत्यादिषूपस. जयानम्" इति रेफादेशः / यथा जनानां समूहो जनता। "ग्रामजनबन्धुसहायेभ्यस्तल्"। तथा उपनीतां समर्पिताम् अर्धार्थ जलमध्ये “पादार्धााञ्च" इति यत्प्रत्ययः। तदेव पूजां तां गृहन स्वीकुर्वन पुरो भवः पौरस्त्यः / “दक्षिणापश्चात् पुरसस्त्य. क"। तं शैलमुदयाद्रिमाससादेति शेषः / तथा अतिथिषु साधुमातिथेयीं पूजां, "पथ्यतिथिवसतिस्वपतेढं। सम्प्रतीच्छन् प्रतिगृह्णन अस्या भैम्याः वयसा तुझ्या सखी "नौवयोधर्मे"त्यादिना यस्प्रत्ययः / तस्या आसनमाससाद / न तु भैम्याः दत्यावस्थायामनौचित्यादिति भावः / उपमालंकारः // 52 // इसके बाद जनसमूहसे अर्पित अर्य-( अर्घार्थ जल ) पूजाको ग्रहण करते हुए सूर्य जिस प्रकार उदयाचलको प्राप्त करते ( उदयाचलपर आरूढ़ होते ) हैं, उसी प्रकार अतिथियोग्य पूजाको स्वीकार करते हुए वे ( नल ) इस ( दमयन्ती ) की सखीके आसनको ( पाठा०प्रियाके द्वारा दिये आसनको ) प्राप्त किया अर्थात् उसपर बैठे। [ स्वयं दूत होने के कारण दमयन्तीके आसनपर बैठना अनुचित होनेसे वे उसकी सखीके आसनपर बैठे ] // 52 / / अयोधि तद्धैर्यमनोभवाभ्यां तामेव भूमीमवलम्ब्य भैमीम् / आह स्म यत्र स्मरचापमन्तश्छिन्नं भ्रवौ तज्जयभङ्गवार्ताम् // 53 // अयोधीति / तस्य नलस्य धैर्यमनोभवाभ्यां कर्तृभ्यां तां भैमीमेव रणभूमिमिति व्यस्तरूपकम् / अवलम्ब्य प्राप्य अयोधि भावे लुङ्। यत्र युद्धे युद्धभूमौ वा अन्त.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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