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________________ दशमः सर्गः। 624 कितुं, स्वयंवरमिति शेषः, आगतानां देवानामिति शेषः, विमानैः तादृक् तथा चारु, अभूत् ; स्वयंवरसभाया ऊर्ध्वमाकाशमण्डलं देवानां विमानैः अन्तरिक्षसृष्टस्वर्गसहशं शुशुभे इति भावः। अन्नाभ्रस्यान्तराले नाकलोकासम्बन्धेऽपि सम्भावनया तत्सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिभेदः / अभूतोपमेति केचित् // 3 // गाधि-पुत्र विश्वामित्र आकाश तथा पृथ्वी के बीचमें यदि दूसरा ही स्वर्गलोक बनाते और वह जैसा सुन्दर होता, वह अन्तरिक्ष स्वयंवर सभाको देखनेके लिये आये हुए देवों के विमानोंसे वैसा सुन्दर हुआ। [ दमयन्ती के स्वयंवरको देखने के लिये देवलोग भी विमानों पर बैठकर अन्तरिक्षमें विराजमान हुए ] / पौराणिक कथा-वसिष्ठमुनिके शापसे चाण्डाल बने हुए त्रिशङ्क राजाको विश्वामित्र मुनि पूर्व विरोधके कारण यज्ञ कराकर सशरीर स्वर्ग भेजने लगे तो चाण्डाल त्रिशङ्कका स्वर्गमें पहुँचना अनुचित होनेसे देवताओंने उन्हें नीचे गिरनेको कहा, तदनुसार वे नीचे गिरने लगे तो विश्वामित्र मुनि क्रोधित हो अपने तपोबलसे स्वर्ग-मर्त्यलोकके बीच में दूसरा ही स्वर्ग लोक बनाने लगे और अन्तमें ब्रह्माके निषेध करनेपर उस कार्य को बन्द कर दिया // 3 // कुर्वद्भिरात्मभवसौरभसम्प्रदानं भूनालचक्रचलचामरमारुतौघम् / आलोकनाय दिवि सञ्चरतां सुराणां तत्रार्चनाविधिरभूदधिवासधूपैः॥४॥ ___ कुर्वद्भिरिति / भूपालचक्रस्य राजलोकस्य, चलानां चलता, चामराणां मारुतस्यौघं प्रवाहम् , आत्मभवसौरभस्य स्वजन्यगन्धस्य सम्प्रदानं सम्प्रदानपात्रं, कुर्वद्भिः स्वसौरभं तत्र सङ्क्रामयद्भिरित्यर्थः, अधिवासधूपैः वासनार्थधूपैः, आलो. कनाय स्वयंवरदर्शनाय, दिवि आकाशे, सञ्चरतां सुराणां देवायां, तत्र स्वयंवरे, अर्चनाविधिः पूजाकृत्यम्, अभूत् , राज्ञां चामरवायुभिः अधिवासधूपा आकाशव्या. पिनोऽभूवन् इति भावः / अत्राधिवासधूपस्य सुरार्चनाऽसम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्त रतिशयोक्तिभेदः // 4 // राज-समूहके चलते हुए चामरोंके वायु-समूह को स्वजन्य सुगन्धि देते हुए सुगन्धित धूपोंसे स्वयंवर को देखने के लिये आकाशमें चलते हुए देवों की पूजा हुई। [ स्वयंवर में अनेक प्रकारके धूप जलाये गये थे जिनकी सुगन्धि राजाओंकी चामरोंकी हवा को भी सुगन्धित कर रही थी, आकाश तक पहुंचे हुए उनकी सुगन्धिसे विमानों पर बैठकर स्वयंवर देखने के लिये घूमते हुऐ देवोंकी पूजा हुई। धूपसे देवताओं की पूजा करना उचित ही है ] // 4 // तत्रावनीन्द्रचयवन्दनचन्द्रलेपनेपथ्यगन्धमयगन्धवहप्रवाहम् / आलीभिरापतदनङ्गशरानुसारी संरुध्य सौरभमगाहत भृङ्गवर्गः // 5 // तत्रेति / तत्र स्वयंवरे, आलीभिः श्रेणीभिः श्रेणीसम्बन्धात् आपततः आग.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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