________________ प्रथमः सर्गः। इस प्रकार अभीष्ट सौरमयुक्त वनमें घूमते हुए तथा तोतों एवं सारिकाओं से स्तुत मी उस नलने बाहरी आनन्दको तो प्राप्त किया, किन्तु दमयन्तीके विरहके कारण भीतरी भानन्दको नहीं प्राप्त किया / / 104 // करेण मीनं निजकेतनं दधद् द्रुमालवालाम्बुनिवेशशङ्कया / व्यतर्कि सर्वर्तुघने वने मधुं स मित्रमत्रानुसरन्निव स्मरः / / 105 / / करेणेति / स नलः निजकेतनं निजलान्छनं मीनं दुमालवालाम्बुषु निवेशशङ्कया प्रवेशभिया करेण दधत् तारक शुभरेखाम्याजेन दधान इत्यर्थः, सर्वर्तुघने सर्वतुसकुले अन्न अस्मिन् वने मित्रं सखायं मधुं वसन्तमनुसरन् भन्विष्यन् स्मर इव ग्यतर्क इत्युप्रेचा / / 105 / / ( लोगोंने ) उस नलको पेड़ोंके थालों के पानी से प्रवेश करनेकी शङ्कासे अपने पताका चिह्न मछलीको हाथ में धारण किया हुआ-(पक्षा०-अपने राजचिह्न रेखारूप मोनको हाथमें धारण किये हुए ) तथा सब ऋतुओंसे परिपूर्ण इस वन में वसन्त ऋतुका अनुगमन करता हुआ कामदेव समझा // 105 // लताऽबलालास्यकलागुरुस्तरुप्रसूनगन्धोत्करपश्यतोहरः / असेवतामुं मधुगन्धवारिणि प्रणीतलीलाप्लवनो वनानिलः / / 106 // लतेति / लता एवाबलास्तासां लास्यकलासु मधुरनृत्तविद्यासु गुरुरुपदेष्टेति मान्योक्तिः, तरुप्रसूनगन्धोस्कराणां दुमकुसुमसौरभसम्पदां पश्यतोहरः पश्यन्तमा नाहत्य हरः प्रसह्यापहत्त्यर्थः / 'पश्यतो यो हरण्यर्थ स चौरः पश्यतोहर' हतिहला. युधः, पचायच् 'षष्ठी चानादरे' इति षष्ठी / 'वाग्दिक्पश्यनयो युक्तिदण्डहरेष्वि'ति वक यादलुक् / सौरभ्ययुक्तं मधुमकरन्द एव गन्धवारि गन्धोदकं तत्र प्रणीतलीला. प्लवनः / एतेन कृतलीलावगाहन इति शेयोक्तिः, ईग्वनानिलोऽमुं नलमसेवत गुणवान् सेवकः सेव्यप्रियो भवतीति भावः // 106 // लतारूपिणी नायिकाको नृत्यकला सिखानेवाला, वृक्षोंके पुष्पों के गन्धसमूहको चुराने. पाला तथा पुष्परसरूप सुरमित जळमें (या-नलके 'मधुगन्ध' नामक सरोवरके जलमें) जलक्रीडा किया हुभा पवन इस नलकी सेवा करने लगा। [ उक्त विशेषणत्रयले पवन का मन्द, सुगन्ध तथा शीतल होना सूचित होता है, जो नलके लिए शुभ शकुनका सूचक है / लोक व्यवहार में भी कोई परिचारक बड़े लोगों की पीठमदनादिके दारा सेवा करते हैं ] // 106 // अथ स्वमादाय भयेन मन्थनाचिरत्नरत्नाधिकमुचितं चिरात् | निलीय तस्मिन्निवसन्नपांनिधिर्वने तडागो ददृशेऽवनीभुजा // 107 / / अथेति / अथ वनालोकनानन्तरं मन्थनाद्येन धनार्थ पुनर्मथिष्यतीति मयाः दित्यर्थः / चिरादुचितं सचितं चिरस्नं चिरन्तनं 'चिरपरस्परादिभ्यस्त्नो वकग्य' इति