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________________ प्रथमः सर्गः। अशोकमिति / एष नला पल्लवैः प्रतीशनि प्रतिगृहीतानि संच्छनानि कामस्य ज्वलदखाणि तद्रपकाणि मालकानि छादकानि बालमुकुलगुच्छा येन तं पक्षवसंच्छ. कुसुमरूपकामानमित्यर्थः / अन्यथा तदर्शनादेव ते म्रियेरनिति भावः। अशोकमत एवार्यान्वितनामता नास्ति शोकोऽस्मिनिरयन्वर्थसंज्ञा तस्कृतया आशया अस्मान. प्यशोकान् करिष्यतीत्यभिलाषेण शरणे रक्षणे साधु समर्थ शरण्यं मस्वति शेषः / 'शरणं रमणे गृह' इति विश्वः, 'तत्र साधुरिति यत्प्रत्ययः। आगतान् शरणागतानित्यर्थः / गृहान् दारान् शोचन्तीति गृहशोचिनः गृहानुद्दिश्य शोचन्त इत्यर्थः / 'गृहः पत्न्यां गृहे स्मृत' इति विश्वः / अध्वगान् प्रोषितान् अवन्तमिव शरणागतरचणे महाफलस्मरणादन्यथा महादोषस्मरणाच्च रचन्तमिवेत्यर्थः। अमन्यत ज्ञातवान् / भस्मभीरूणां तदुगोपनमेव रमणाय इति भावः / / 101 // 'जहाँ शोक नहीं है, उसे 'अशोक' कहते है। ऐसे सार्थक नामकी आशाते समीपमें 'गये हुए, स्त्रियों को सोचते हुए पथिकोंकी, पलवोंसे जलते हुए अवतुल्य कलियों के गुच्छाओंको छिपाये हुए (या-रक्त पल्लवोंमे जलते हुए कामास्त्रको अपने शरीरपर ग्रहण किये हुए, अतएव ) शरणागतों के लिए साधु ( श्रेष्ठ ) अशोकको नलने रक्षा करते हुएके समान माना / ( अथवा-... पथिकों को कामदेवके जलते हुए अस्त्रको स्वीकार कर पल्लवोंसे मारते हुए अशोकको नहने वध करने में श्रेष्ठ माना) [ प्रथम अर्थमें-उक्त रूपसे अन्वर्थक समझकर अशोकके पास गयी हुई स्त्रीकी चिन्ता करते हुए पथिकों के शरण्य (शरणागत. वत्सल ) अशोकको जाते हुए कामबाणों को अपने शरीर पर स्वीकार कर रक्षा करते हुएके समान माना / लोकमें भी शरणागतवत्सल सज्जन व्यक्ति अपने ऊपर शत्रुओंके शखोंका प्रहार सहते हुए मी शरणागतकी रक्षा करता है। द्वितीय अर्थमें-सक्त आशाले समीप गये हुए पथिकों को, अशोकने 'रक्तवर्ण पल्लवोंसे जलते हुए कामास्त्रको स्वीकार कर मारा ( वे अशोकके रक्तपल्लवोंको देखकर अधिक कामपीडित हुए ) अतएव नकने उस अशोकको वध करनेवालों में श्रेष्ठ माना / लोकमें मी कोई असज्जन व्यक्ति रक्षा पाने की आशासे समीपमें आये हुए शरणागोंका भी उनके शत्रुके भयङ्कर अत्रोंसे वध कर डालता है। अशोकपल्लवों के कामोद्दीपक होनेसे दितीय अर्थ ही उचित प्रतीत होता है और बहो अर्थ 'प्रकाश' कारको भी विशेष सम्मत है ] // 101 // विलासवापीतटवीचिवादनात् पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् / वनेऽपि तौम्यत्रिकमारगघ तं क भोगमाप्नोति न भाग्यभाग्जनः 1 / / विलासेति / विलासवापी विहारदीर्घिका तस्यास्तटे वीचीनां वादनारिपकाना. मलीनाञ्च गीतेईनात् शिखिनां मयूराणां लास्यलाघवात् नृत्यनै पुण्यात् च वनेऽपि तं नलं तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवायत्रयं कत्त, मारराध आराधयामास / तथा हिभाग्यभाक भाग्यवान् जनः क भुज्यत इति भोगः सुखं तं नाप्नोति सर्वत्रैवाप्नो. तीत्यर्थः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 102 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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