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________________ 444 नैषधमहाकाव्यम् / शनैरिति / स इन्द्रः प्रसूनैरेव शरैस्तुदत आत्मानं विध्यतः स्मरस्य स्मरमित पर्थः / “अधीगर्थ"-इत्यादिना कर्मणि शेषे षष्ठी / अशनिना वज्रेण स्मर्तुं न करोति किं स्मृतिमात्रशेषं कुर्यादेव / किन्तु तस्य स्मरस्य गिरिशस्य प्रसादः प्रसाद लब्धमित्यर्थः / कार्यकारणयोरभेदोपचारः सोल्लुण्ठचैतदनङ्गता अभेद्यं वर्मेति रूपकम् / न स्याच्चेत् अहहेत्यद्भुते खेदे वा साङ्गत्वे पुनर्वज्रलक्ष्यलाभादेनं हन्यादे. वेत्यर्थः। तथा पीडयत्येनमनङ्गोऽपीति भावः // 66 // ___ इन्द्र पुष्परूप बाणोंसे पीडित करते हुए कामदेवको वज्र के द्वारा स्मरणीय क्या नहीं कर देता अर्थात् अवश्य ही कर देता, अहह ! अर्थात् आश्चर्य (या खेद) है, यदि शिवजी का प्रसादरूप (कामदेवकी) अनङ्गता ही उसका अभेद्य कवच नहीं होता ? [ कामदेव पुष्पमय अर्थात अतिशय कोमल भी बाणोंसे इन्द्रको सर्वदा पीडित कर रहा है, ऐसे कोमल शस्त्रवाले शत्रुको इन्द्र अतितीक्ष्ण बज्रसे अवश्य नामशेष कर देते अर्थात् मार डालते, किन्तु शिवजीने उस कामदेवको भस्मकर अनङ्ग ( शरीर-शून्य ) बना दिया है और वही अनङ्गता (शरीर-शून्यता ) उस कामदेवका दृश्य लक्ष्य नहीं होनेसे अभेद्य कवच हो रहा है, यही कारण है कि इन्द्र तीक्ष्ण वज्रसे भी उसपर विजय नहीं पाते हैं / अदृश्य लक्ष्यका भेदन करना किसी शूरवीरके लिये सम्भव नहीं होता है / इस प्रकार शिवजीने कामदेव को जलानेसे भनङ्ग बनाकर एक प्रकार वरदान ही दे दिया है, जो वह तीक्ष्ण वज्रधारी देवराज इन्द्रको भी निरन्तर पीडित करता जाता है और वे उसका कुछ नहीं कर पाते ] // 66 // धृताधृतेस्तस्य भवद्वियोगान्नानाद्रेशय्यारचनाय लूनैः / अप्यन्यदारिद्रयहराः प्रवालैर्जाता दरिद्रास्तरवोऽमराणाम् / / 67 / / तेति / अन्येषां दारिद्रयं हरन्तीत्यन्यदारिद्रयहरा अपि। हरतेरनुद्यमनेऽच / अमराणां तरवः कल्पद्रुमा भवत्या वियोगात्।सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावो वक्तव्यः। ताऽतिररतिर्येन तस्येन्द्रस्य नानाविधानामाशय्यानां शिशिरशयनानां रच. नाय लूनःप्रवालेः दरिद्रा रिक्ता जाताः, तापस्तु तथापि नापेत इति भावः / सुरवा माणां प्रवालदारिद्रयासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 67 // __तुम्हारे विरहसे अधीर उस (इन्द्र ) के अनेक आर्द्र ( ठण्डी या विरह सन्तापसे सूखी जाती हुई, या सन्तापके कारण सूखनेसे दूसरी-दूसरी) शय्याओंके लिये तोड़े गये नवपल्लवोंसे दूसरोंकी दरिद्रता दूर करनेवाले भी देववृक्ष ( कल्पतरु, मन्दार आदि ) स्वयं दरिद्र हो रहे हैं / [ तुम्हारे विरहसे सन्तप्त इन्द्रको इतनी अधिक नयी-नयी शीतल शय्या देववृक्षोंके नवपल्लव से बनायी जाती है कि उन देववृक्षोंके पल्लव तो समाप्त हो गये, किन्तु इन्द्रका सन्ताप दूर नहीं हुआ ] // 67 // १."-दनाई"-इति,-"दन्यान्य-" इति च पाठान्तरे।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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