________________ एकादशः सर्गः। काला इत्यर्थः, तेषां, चणिकता पणमात्रावस्थायितामपि, असमापयद्भिः अनिर्वतपनि, खुराप्रेण भूस्पर्शनं क्षणमपि अकुर्वद्भिरित्यर्थः, किन्तु हक्पेया अविच्छिन्नतया दृष्टिप्रायाः, न तु सङ्ग्यातुं शक्या इति भावः, केवला नभाक्रमणप्रवाहा नभोगति. परम्परा येषां तः केवलखेचरैरित्यर्थः, अतिवेगगामिभिरिति भावः, वाहै जिभिः, सहस्रहगर्वणः सहस्राक्षवाजिनः उच्चैश्रवसः, 'वाजिवाहार्वगन्धर्व-' इत्यमरः / गर्वः मदपेक्षया वेगशाली आकाशमानचारी अन्योऽश्वो नास्तीत्येवंरूपाहवारः, अलुप्यत लोपितः, सहस्राक्षस्य त्वेकक एव खेचरोऽश्वः, अस्य तु एतादृशाः परःसहस्त्राः अश्वा: विद्यन्ते इति भावः / अत्र इन्द्राश्वापेक्षया एतदश्वानामाधिक्यवर्णनात् व्यतिरेकालङ्कारः // 127 // वेगव ( वेगाधिक्य ) से खुरानों के द्वारा पृथ्वी के स्पर्शकी आयुकी क्षणिकताको भी नहीं समाप्त करते हुए, देखने योग्य आकाशगमन-परम्परावाले (अतिशय तीव्र चलनेके कारण सर्वदा ऊपर में ही पैर रक्खे रहनेसे दर्शनीय ), इसके सैनिक घोड़ोंने उच्चैःश्रवाका भी अमिमान नष्ट कर दिया। [इसकी सेनाके घोड़े खुरानोंसे पृथ्वीका स्पर्शमात्र भी नहीं करते तथा सर्वदा आकाश ( ऊपर ) में ही पैर रखनेसे बहुत सुन्दर दीखते हैं, और इस प्रकार अतिशय तीव्रगामी होनेसे इन्द्र के 'उच्चैःश्रवा' नामके घोड़े के भी अभिमानको चूर-चूर कर दिये हैं। वायु यद्यपि शीघ्र गामी है, किन्तु वह अदृश्य है, इस राजाकी सेनाके अतिशय वेगसे चलनेवाले घोड़े दृश्य हैं, अत एव अदृश्य तथा दृश्य वायु तथा उक्त घोड़ोंमें घोड़े ही श्रेष्ठ हैं ] // 127 // तद्वर्णनासमय एव समेतलोकशोभावलोकनपरा तमसो परासे। मानी तया गुणविदा यदनादृतोऽसौ तद्भभृतां सदसि दुर्यशसेव मम्लौ।। ___ तदिति / असौ दमयन्ती, तस्य काशिराजस्य, वर्णनासमये स्तोत्रकाले एव, समेतलोकानां समागतजनानां, शोभावलोकनपरा सती तं काशिराज, परासे व्याजेन परिजहारेत्यर्थः, 'उपसर्गादस्यत्यूयार्वेति वाच्यम्' इत्यस्यतेस्तङि लिट् / मानी अभिमानी, असौ राजा, गुणविदा गुणज्ञेया, तया भैम्या, यत् यस्मात् , अनाहतः, तत्तस्मादनादरणादेव, भूभृतां राज्ञां, सदसि दुर्यशसा दुष्कीयेव, मम्लो वैवयं गतः इत्यर्थः, वस्तुतः गुणज्ञया भैम्या कृतानादरेण लजावशात् म्लानोऽभूत् इति भावः। अनोस्प्रेक्षालङ्कारः // 126 // उस ( काशीनरेश ) के वर्णनके समयमें ही आये हुए लोगों ( 12 / 1 के अनुसार नवीन राजालोगों) की शोभा देखने में संलग्न इस ( दमयन्ती) ने उस ( काशीनरेश ) का परिहार कर ( उसे देखना छोड़ ) दिया / गुणज्ञा उस ( दमयन्ती) ने जो उसका अनादर किया, उससे राजाओंकी सभामें मानी वह राजा मानो अपकीर्तिसे मलिन हो गया 1. 'निरासे इति' पा०