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________________ 666 नैषधमहाकाव्यम्। या यशवृत्तिसे जीनेवाले विशिष्ट विद्वानों ) को फल देनेवाला कल्पवृक्ष (रूप यह राजा) प्रशंसनीय है। तथा-गुणी तथा निर्गुणी सबके लिए समान दान देनेवालेकी प्रशंसा नहीं होती, किन्तु जो गुणके तारतम्यका विचार कर तदनुसार दान देता है, वही दानकर्ता कल्पवृक्षवत् प्रशंसनीय होता है, अतः ऐसे ही गुणागुणका विचारकर कल्पवृक्षके समान दान करनेवाले इस राजाको तुम वरण करो] // 125 // अस्मै करं प्रवितरन्तु नृपा न कस्मादस्यैव तत्र यदभूत् प्रतिभूः कृपाणः / दैवाद यदा प्रवितरन्ति न ते तदैव नेदकृपा निजकृपाणकरग्रहाय // 126 / / ___ अस्मै इति / अस्मै राज्ञे, नृपाः अन्ये सर्वे राजानः, कस्मात् कारणात् , करं बलिं, न प्रवितरन्तु ? न दद्युः ? दयुरेव, सम्भावनायां लोट् / कराप्रदानमसम्भावितमेवे. त्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात , तत्र करदाने, अस्य राज्ञः, कृपाणः खड्गः एव, प्रतिभूल. मकः, अभूत्, 'स्युलग्नकाः प्रतिभुवः' इत्यमरः / अथ कृपाणस्य प्रतिभूत्वं व्यनक्तियदा देवात्ते नृपाः, न प्रवितरन्ति, करमिति शेषः, तदैव निजकृपाणस्य करेण हस्तेन, ग्रहाय ग्रहणाय, अन्यत्र-निजकृपाणात् प्रतिभूस्वरूपकृपाणसकाशात् , करस्य बले, ग्रहणाय 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः। अस्य कृपा इदङ कृपा, न, भवतीति शेषः, निष्कृपः सन् कृपाणमुत्तोल्य तेभ्यः प्रसह्य करं गृहातीत्यर्थः, कृपाणपात. भीत्यैव करदानात् कृपाणस्य प्रतिभूत्वव्यपदेश इति भावः // 126 // राजा लोग इस ( काशानरेश ) के लिये कर ( राजदेयभाग, पक्षा०-दासी लोग हाथ अर्थात् हस्तावलम्बन ) क्यों नहीं हैं, क्योंकि उस ( कर-दान ) में इसीकी तलवार प्रतिभू ( जमानतदार-मध्यस्थ ) हुई है। भाग्यवश यदि वे राजा लोग, कर ( अर्थात् राजदेय भागको ) नहीं देते हैं तो अपनी तलवार से कर लेनेके लिए ( पक्षा०-अपनी तलवारको हाथमें लेनेके लिए ) इस राजाकी कृपा नहीं होती। [ दासजन स्वामी के लिए हस्तालम्बन ( हाथका सहारा ) देते हैं और तलवारसे वशीभूत राजालोग इस राजाके लिए कर देते हैं, क्योंकि उनसे कर दिलाने के लिए तलवारने ही मध्यस्थता की है, अतः भाग्यवश उन राजाओं के कर नहीं देनेपर यह राजा निर्दय होकर उस तलवारसे ही कर लेता है (पक्षा०-तलवार हाथमें लेकर उन राजाओंको फिरसे अपने वशमें कर लेता है / लोकमें भी किसी ऋण आदिको लेने वाला यदि उसे वापस नहीं करता तो धनिक ( महाजन ) उस मध्यस्थ ( जामिनदार ) व्यक्तिसे ही निर्दय होकर उक्त ऋण लेता है / सब राजा इसे कर देते हैं, अत एव इस शत्रुविजयी राजाका वरण करो ] 126 // एतद्वलैः क्षणिकतामपि भूखुराग्रस्पर्शायुषां रयवशादसमापयद्भिः / दृक्पेयकेवलनभःक्रमणप्रवाहै हैरलुप्यत सहस्रहगर्वगर्वः // 127 // ___एतदिति / एतद्वलैः एतत्सैन्यभूतैः, रयवशात् वेगवशात्, भुवि पृथिव्यां, खुराग्राणां ये स्पर्शाः संयोगाः, तेषां यान्यायूंषि अवस्थानरूपजीवितानि, स्थायित्व
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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