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________________ 62 नैषधमहाकाव्यम् / यो ते कलस्यौ ते अवलम्बिते अवधीकृते ते च येन तत्तथोक्तं 'नवृतश्चेति कप। रचयन् कुर्वनवोचत उक्तवान् / जले मजन्नपि तरणार्थ कलसमवलम्बते, तद्वत्कर्णः शष्कुली-कलस्यावित्युपमारूपकयोः संसष्टिः // 8 // __मानसरोवर है प्रिय जिसका ऐसा वह हंस कौतुक रूप अमृत (पीयूष, पक्षापानी) के तरङ्गों में डूबते हुए, नलके मनको कर्णश कुलीरूप कल सदयका अवलम्बन करनेवाला बनाता हुआ अर्थात् अपने वचनको सुनने के लिए सावधान करता हुभा बोला-[लोकमें पानीकी लहरों में डूबता हुआ कोई व्यक्ति कलस (घड़े) का अवल. मनकर सावधान हो जाता है। जिसे मानस ( मानसरोवर ) प्रिय है, उसे नृपमानस ( राजा नल के चित्त ) को सावधान करना-डूबने से बचने के लिए घड़ेका सहारा देकर सावधान करना उचित ही है ] // 8 // मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्मपारगैः। स्मरसुन्दर ! मां यदत्यजस्तव धर्मः स दयोदयोज्ज्वलः // // मृगयेति / धर्मागममर्मपारगैधर्मशास्तत्वपारदर्शिभिरिव 'अन्तास्यन्ताम्वदूर पारसर्वानन्तेषु डः' इति गमेडं प्रत्ययः / नृपैर्मृगया आखेटो न विगीयते न गीते / तथापि हे स्मरसुन्दर ! मामत्यज इति यत् स त्यागस्तव दयोदयेनोज्ज्वलो विमलो धर्मतोऽपीति भावः॥ 9 // धर्मशास्त्रके मर्मके पारगामी ( मनु आदि ) राजा लोग भी आखेट (शिकार ) की निन्दा नहीं करते ( अत एव ) कामदेवतुल्य सुन्दर ! ( नक! आपने ) मुझे जो छोड़ दिया वह ( छोड़ना) दया के आविर्भावसे निर्मल बापका धर्म था / [ अर्थात् आप केवल भाकृतिसे ही सुन्दर नहीं है, किन्तु आपका धर्म ( स्वभाव ) मी सुन्दर (दयावान्) है] // 9 // अबलस्वकुलाशिनो झषानिजनीडद्रुमपीडिनः खगान् / अनवद्यतृणार्दिनो मृगान् मृगयाऽघाय न भूभृतां धनताम् // 10 // ननु प्राणिहिंसा कथं न विगीयते तत आह-अवलेति / अबलस्वकुलाशिनो झषाः 'दुर्बलस्वकुलघातिनो मत्स्या' इति प्रसिद्धिः, निजनीडद्रुमपीडिनो विण्मोक्षफलभषणादिना स्वाश्रयवृक्षपीडाकरान् खगान् अनवधतृणाहिनः अनपराधितृणहिंसकान् मृगान्, 'अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विता' इति मनुस्मृत्या तस्तृणा. दीनामपि प्राणित्वासद्धिंसा पीडेवेति भावः। सर्वत्रापि ताच्छील्ये णिनिप्रत्यया, ध्नता हिंसा भूभृतां मृगया अघाय पापाय न भवति / तदूधस्य इण्डरूपस्वात् प्रत्युताकरणे दोष इति भावः // 10 // अपने निर्बल वंशवालों को खाने वाली मछलियोंको, अपने घोसलोंके पेड़ोंको (विष्ठामूक मादिसे ) पीडित करनेवाले पक्षियोंको तथा निरपराध तृणोंको नष्ट करनेवाले मृगको
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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