________________ द्वितीयः सर्गः 81 दधत इति / अथ स खगो हंसः बहुशैवला भूरिशैवला चमा भूर्यस्य तहुशैवलयम तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानात् स्वरसः पश्वलात् बहूनि शैवलचमाणि शिवभक्तचिह्नानि यस्य स बहुशैवलयमा तस्य भावः तत्ता तां दधतो दधानस्य नलस्य रुद्राक्षाणि मधुव्रता इदेत्युपमितसमासः, ते पृता येन तं करं कोकनदभ्रमा. द्रकोपलभ्रान्तेरिव पुनर्ययो, कोकनदन्तु रुद्राक्षप्तहशमधुव्रतं खलु / अत्र बहुशैव. लेत्यादौ शब्दश्लेषस्तदनुप्राणिता रुद्राक्षमधुव्रतमित्युपमा तस्सापेक्षा चेयं कोकनद. प्रमादिवेत्युत्प्रेक्षेति सङ्करः // 6 // ___ वह पक्षी (हंस ) बहुत शेवाल युक्त भूमि वाले सरोवरसे शिव-सम्बन्धी (या शिवभक्तोंकी ) बहुत-से चिह्नों को धारण करते हुए नलके ( मानो भ्रमरसदृश रुद्राक्षको धारण करते हुए ) हाथको रुद्राक्ष-सदृश भ्रमरों वाळे रक्तकमकके भ्रमसे पुनः प्राप्त किया। [बहुत से शेवाल युक्त भूमिवाले तडागके रुद्राक्ष तुल्य भ्रमरोंसे युक्त रक्त कमल के भ्रम से वह हंस बहुतने शैव ( शिवमरत या-शिवसम्बन्धी, या-मङ्गलकारक सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभ ) चिह्नोंवाले ( रक्तवर्ण) नल के हाथको पुनः प्राप्त किया अर्थात नलके हाथ में पुनः आ गया। अथवा-रुद्राक्षके मधुतुल्य श्रेष्ठ व्रतों को धारण करते हुए हाथ को........." / अथवा-रुद्रको नहीं सहन करने वाले अर्थात शिवद्रोहियोंको पराभूत करने वाले व्रत (नियम-प्रतिज्ञा ) से युक्त = शिवद्रोहि पराभव कारक नल-करको....... / अथवा-गूंजते हुए एवं अग्नितुल्य पिङ्गलवर्ण नेत्र वाले भ्रमरोंसे युक्त रक्तकमलकी भ्रान्तिसे"."...] // 6 // पतगश्चिरकाललालनादतिविश्रम्भमवापितो नु 'सः / अतुलं विदधे कुतूहलं भुजमेतस्य भजन्महीभुजः / / 7 // अथास्य स्वयमातमनादुस्प्रेचते-पता इति / पतङ्गो हंसश्चिरकाललालनादुपळा. लनादतिविशम्भमतिविश्वासं 'समौ विश्रामविश्वासावित्यमरः / अवापितः प्रापितो नु किमि युस्प्रेछा, अन्यथा कथं पुनः स्वयमागच्छेदिति भावः / किन्न एनस्य सही. भुजो भुजम्मजन् स्वयमाप्नुवन् अतुलं कुतूहलं विदधे कौतुकारेत्यर्थः / अत्रोत्प्रे. झावृश्यनुप्रासयोः शब्दार्थालङ्कारयोस्तिलत्तण्डुलवत् संसृष्टिः। 'एकद्विश्यादिवर्णानां पुनरुकिलेशदि / सख्या नियममुहमध्य वृत्यनुप्रास ईरितः // ' इति // 7 // ___ इस राजा ( नल) के हाथ में आये हुए उस पक्षी (हंस ) ने बहुत समय तक लालन करनेसे मानों अतिशय विश्वासको पाये हुएके समान अत्यधिक कौतूहल को धारण किया / नृपमानसमिष्टमानसः स निमजत्कुतुकामृतोर्मिषु / अवलम्बित कर्णशष्कुलीकलसीकं रचयन्नवोचत / / नृपमानसमिति / इष्टमानसः प्रियमानसः स राजहंसः कुतुकं हर्षस्तदेव अमृतं सुधा तस्योर्मिषु निमजदन्तर्गतं नृपमानसं नलमनःकर्णी शकुष्याविव कर्णशकु. 1. 'सन्' इति पाठान्तरम् /