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________________ द्वितीयः सर्गः 83 मारते हुए राजाओंका आखेट दोष के लिए नहीं होता है / [ क्योकि निरपराधियों को पीड़ित करनेवालों को दण्डित करना राजाका धर्म है ] // 10 // यदवादिषमप्रियन्तव प्रियमाधाय नुनुत्सुरस्मि तत् / कृतमात पसंज्वरं तरोरभिवृष्यामृतमंशुमानित्र // 11 // तथावि किमर्थ पुनरागतन्वयेत्यत आह-यदिति / तव यदप्रियमवादिषमवो. चम् / प्रियमाधाय प्रियं कृत्वा तदप्रियन्तरोः कृतं स्वकृतमातपसन्तापम् अमृत. मुहकभिवृष्य पयः कीलालममृतमि'स्यमरः / अंशुमानिद नुनुत्सुनौदितुं प्रमाटुं. मिच्छुः, नुद-प्रेरण इत्यस्माद्धातोः समन्तादुप्रत्ययः // 11 // (पहले ) मैंने आपको अप्रिय ( 11130- 133 ) कहा था, ( अब ) प्रिय ( अमिल. षित ) कर के उस अप्रिंयको उस प्रकार दूर करना चाहता हूँ, जिस प्रकार सूर्य वृक्षको धूपके द्वारा तपाकर बाद में जैसे बरसाकर उसका प्रिय करता है // 11 // उपनम्रमयाचितं हितं परिहत्तु न तवापि साम्प्रतम् / करकल्पजनान्तराद्विधेः शुचितः प्रापि स हि प्रतिग्रहः // 12 // तर्हि भवन्मोचनं सुकृतमेव मम पर्याप्ठम् किं दृष्टोपकारेणेति न वाच्यमित्याहउपनम्रमिति / अयाचितमप्रार्थितमुपनम्रमुपनत हितम् इह चामुत्र चोपकारक तवापि परिहर्त न सांम्प्रतम् युक्तम् / 'अयाचितं हितं ग्रामपि दुष्कृत कर्मण' इति स्मरणादिति भावः / तदपि मारशात पृथग्जनात् कथं ग्राघमत आह-करेति / हि यस्मारकारणात् स प्रतिग्रहः करकापङ्करस्थानीयमित्यर्थः। ईषदसमाप्तो कल्पप्र. त्ययः, यजनान्तरं स्वयं यस्य तस्माच्छुचेः शुद्धाद्विधेः ब्रह्मणः प्राप्तः न तु मत्त इति भावः / प्राप्नोतेः कर्मणि लुछ। विधिरेव ते दाता अहं तस्योपकरणमात्रम्, अतो न यात्रालाघवन्तवेति भावः // 12 // बिना याचना किये उपस्थित हित (प्रिय-अभीष्ट ) को छोड़ना (सार्वभौम ) भापको भी उचित नहीं है, क्योंकि हाथके समान (मद्रूप ) दूसरे व्यक्तिवाले शुद्ध भाग्यसे प्राप्त होने वाला यह प्रतिग्रह ( दान ) है। [ यद्यपि आप सार्वभौम चक्रवर्ती राजा हैं, अतएव दूसरे किसीसे कुछ भी लेना-दान स्वरूपमें प्राप्त हुएको ग्रहण करना उचित नहीं है, तथापि बिना याचना किये बो हितकारक वस्तु उपस्थित हो जाय, उसे ग्रहण करने में चक्रवती होते हुए भी आपको निषेध नहीं करना चाहिये; क्योंकि दूसरे व्यक्तिको अपना हाथ बनाकर शुद्ध भाग्य ही दानरूप में तक्त हितकारक बस्तुको देता है अर्थात भाग्यानुसार ही विना याचना किये वह वस्तु उसे मिलती है, अतएव उसका निषेध करना किसीको भी उचित नहीं ] // 12 // पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्यै तव किं प्रभूयते / इति वेद्मि, न तु त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकत्तुमर्तयः // 13 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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