________________ 284 नैषधमहाकाव्यम् / तावात्मनेपदम् / भैमी परिणेतुमागतानां राज्ञां तरसौन्दर्यमुग्धानामहमेवास्या अनुरूप इत्यादि विवादो भविष्यतीति भावः // 42 // तुम्हें मैंने देख लिया अर्थात् तुमसे भेंट-मुलाकात हो गयी, अब मुझे मयकोकमें जाने के लिये छुट्टी दो। वहां (मर्त्यलोकमें, अथवा-कुण्डिनपुरमें ) उस ( दमयन्ती) के साथ विवाह करने के खिये आए हुए राजालोग क्या विवाद नहीं करेंगे ? [ उस सुन्दरीके नहीं मिलनेपर उसको पानेवाले राजाके साथ अवश्यमेव अन्य राजालोग युद्ध करेंगे, अतः युद्ध देखनेका आनन्द मुझे अनायास ही मत्यलोकमें मिल जायगा, इस कारण अब मुझे वहां जाने दो) // 42 // इत्युदीर्य स ययौ मुनिरुवीं स्वर्पति प्रतिनिवर्त्य जवेन'। वारितोऽप्यनुजगाम स यन्तं तं कियन्त्यपि पदान्यपराणि // 43 // इतीति / स मुनिरित्युदीर्य स्वर्पतिमिन्द्रम्, 'महरादीनां पत्यादिषु' इति वैक. शिपको रेफादेशः। प्रतिनिवर्य जवेनोर्वी ययौ। स इन्द्रो वारितो निवतितोऽपि यन्तं गच्छन्तम् / इणो लटः शत्रादेशः / तं मुनिमपराण्यपि कियन्ति कतिचन पदानि / आसीममित्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / अनुजगाम // 43 // ___ यह (श्लो० 41-42 ) कहकर वह मुनि ( नारदजी ) इन्द्रको लौटाकर वेगसे भूलोक को चले ( पाठभेदसे-न्द्रको बलपूर्वक लौटाकर भूलोकको चले ) / मना करनेपर भी (वह इन्द्र ) कुछ पैर ( कदम ) जाते हुए (नारदजीकी इच्छा न होनेपर मी बलपूर्वक ) उनके पीछे चले / (सयत्न पाठमें यत्नपूर्वक वह इन्द्र ) खाते हुए नारदजीके पीछे चले। ('सजन्ता' पाठमें-मना करनेपर भी कुछ और पैर ( कदम ) पीछे 2 लगते अर्थात् चलते हुए इन्द्रको बलात लौटाकर नारदमी भूलोकको चले ) // 43 // पर्वतेन परिपीय गभीरं नारदीयमुदितं प्रतिनेदे / स्वस्य कश्चिदपि पर्वतपक्षच्छेदिनि स्वयमदशि न पक्षः // 44 // पर्वतेनेति / पर्वतेन मुनिना गिरिणा च गभीरं, नारदीयमुदितं नारदवाक्यं, परिपीय प्रतिनेदे प्रतिदम्चने तदेवानुकृतमित्यर्थः / पर्वते / सनिकृष्ट प्रतिनादो युक्त इति भावः / नदेलिट / 'अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि' इत्येत्वाभ्यासलोपौ / स्वयं तु न किशिनिवेदितवानिस्याह-पर्वतपाछेदिनीन्द्रे स्वस्य कश्चिदपि पक्षः साध्य प्रयोजन गरुष / 'पक्षः पार्श्वगरुत्साध्यसहायबलभित्तिषु' इति बैजयन्ती। स्वयं नादर्शि न रशिंतः। तस्साहचर्यमाप्रलोभादागस्य स्वस्य पृथक्साध्याभावात्तदुक्त मेवाणुकृतम् / न तु पृथकिचिन्निवेदितमित्यर्थः / पर्वतपरच्छेदिस्वादिन्द्रस्याने पर्वतेन स्वपक्षो न प्रकाशित इति ध्वनिः॥ 44 // 1. 'बल्लेन' इति पाठान्तरमा 2. 'सयानं, 'स यान्त 'सजन्ताम्' इति पाठान्तराणि।