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________________ 310 नैषधमहाकाव्यम् / परस्पर एक स्थानपर स्थित वे दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) ने परस्परमें एक दूसरेको अन्यत्र स्थितके समान देखते हुए तथा यह आलिङ्गन मेरा पूर्ववत् भ्रान्तिवश ही हो रहा है ऐसा हृदयमें समझते हुए वास्तवमें सचमुच ही परस्पर आलिङ्गन कर लिया। [ अदृश्य नल एक स्थान पर ठहरे थे, दमयन्ती भी वहीं ठहरी थी, वहां दोनोंने परस्पर में एक दूसरेको देखते हुए आलिङ्गन कर लेनेपर भी मनमें यही समझा कि यह आलिङ्गन भी हमलोगोंका वैसा ही भ्रमजन्य है जैसा पहले कई बार हो चुका है ] // 51 // स्पर्श तमस्याधिगतापि भैमो मेने पुनर्धान्तिमदर्शनेन | नृपस्तु पश्यमपि तामुदीतस्तम्भो न धतु सहसा शशाक // 52 // ___ स्पर्शमिति // भैमी तं तथ्यं स्पर्शम् अधिगता प्राप्तापि / पुनरस्य नलस्य अदर्शनेनादृश्यत्वेन, भ्रान्ति मेने / अतो नलं धर्तुं न शशाकेति शेषः / नृपस्तु पश्यन्नप्युदीतस्तम्भो निष्क्रियाजस्वलक्षणः सात्विको यस्य, स सन् / तां भैमी, सहसा धर्तु ग्रहीतुं न शशाक / अन्यथा धरेदिति भावः / उदीतेति ईङ्गताविति दीर्पण 'ई' धातुना निष्पन्नम् / अत्र स्तम्भपदार्थस्य विशेषणगत्या धारणाशक्तिहेतुकरवात् पदाथहेतुकं काम्यलिङ्गमलङ्कारः // 52 // ___ नलके वास्तविक स्पर्शका अनुभव करनेवाली भी दमयन्तीने उनको नहीं देखनेसे उस स्पशको भ्रमजन्य ही माना, तथा उसे ( दमयन्तीको ) देखते हुए भी ये राजा (नल) जडता ( नामक सात्त्विक भाव ) के उत्पन्न होनेसे सरसा उस दमयन्तीको पकड़ नहीं सके // 52 // स्पर्शातिहर्षाहतसत्यमत्या प्रवृत्त्य मिध्या' प्रतिलब्धबोधौ / पुनर्मिथस्तध्यमपि स्पृशन्तौ न श्रद्दधाते पथि तौ विमुग्धौ // 55 // स्पर्शति / विमुग्धौ रागान्धौ, तौ दमयन्तीनलौ, पतिस्पर्शनातिहर्षोऽतिमात्रानन्दः, तस्माद्धेतोस्तदन्यथानुपपत्त्या, आहतया दृढीकृतया सत्यमत्या सत्योऽयं स्पर्श इति बुध्या प्रवृत्य पुनर्व्यापृत्य मिथ्याप्रतिलब्धबोधौ प्रवृत्तेऽपि स्पर्शालामान्मिथ्येति निश्चितबोधौ, मिथ्येति बुद्धवन्तावित्यर्थः / पुनरित्थमुभयदर्शनानन्तरं, मिथोऽन्योन्यं, तथ्यं यथार्थमपि स्पृशन्तावपि, न श्रद्दधाते न विशश्वसतुः / दधाते. लिटि तङ् / श्रच्छब्दस्य "श्रदन्तरोरुपसङ्ख्यानमि" त्युपसर्गत्वाद्धातोः प्राक् प्रयोगः // 53 // प्रथम स्पर्शसे उत्पन्न अत्यन्त प्र्षसे उसे सत्य मानकर फिर आलिङ्गनमें प्रवृत्त होनेपर स्पर्श न होनेसे 'वह स्पर्श भ्रान्तिजन्य था' इस मिथ्याबुद्धिसे प्रथम-स्पर्श-जन्य सत्य बुद्धिके दूर हो जानेपर फिर ( तृतीय बार ) वास्तविक स्पर्श करते हुए भी वे दोनोंने मोहित होकर इस ( वास्तविक तृतीय स्पर्शमें भी विश्वास नहीं किया इस सत्य स्पर्शको भी भ्रान्तिजन्य ही माना) // 53 // 1. 'मिथ्यामतिलब्धबाघौ' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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