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________________ षष्ठः सर्गः। प्रस्थिति // प्रसूप्रसादाधिगता मातृप्रसादलब्धा / “जनयित्री प्रसूर्माता जननी" इत्यमरः / प्रसूनमाला पुष्पमालिका। तया भैन्या भ्रमवीडितस्य भ्रान्तिाष्टस्य नलस्य कण्ठाय लिप्ताप्युपकण्ठे समीपे स्थितं सत्यमेव तश्यमेव तं नलमालम्बत प्राप / मणिप्रभायां मणिबुद्धिन्यायादिति भावः // 19 // माता द्वारा प्रसन्नता से दी हुई पुष्पकी माला, भ्रान्तिसे देखे जाते हुए नलके कण्ठके लिये फेंकी गयी भी वारलविक नलको अवलम्बित हुई। [ नलको दमयन्ती सर्वदा सव दिशाओं में भ्रान्तिवश देखा करती थी, अतः उसी भ्रान्तिमें देखे जानेवाले नलको लक्ष्यकर दमयन्तीने माता द्वारा प्रसादरूपसे प्राप्त पुष्प मालाको फेंका और वह वास्तविक नलके गले में पड़ गयी / इस वर्णन द्वारा 'भविप्यमें दमयन्ती नलको ही जयमाल पहनावेगी' यह शकुन सूचित होता है ] // 49 // स्नग्वासनादृष्टजनप्रसादः सत्येमित्यद्भुतमाप भूपः / क्षिप्तामदृश्यत्वामतां च मालामालोक्य तां विस्मयते स्म बाला // 50 // नगिति // भूपो नलः, वासनया निरन्तरभावनया, दृष्टस्य जनस्य, अलीक भैग्याः प्रसादोऽनुग्रहभृता इयं स्रक सत्या सत्यभूतेति हेतोरद्भुतमाप। बाला भैमी च, क्षिप्तामात्मना न्यस्ताम् / अथ अदृश्यत्वमितां प्राप्तां तां मालामालोक्य आलोच्य विस्मयते स्म विस्मिताभूत् // 50 // सर्वदा भावनाके देखी जाती हुई दमयन्तीका प्रसाद यह माला सत्य है, इस कारण राजा ( नल आश्चयित हुए भ्रान्ति-दृष्ट व्यक्तिकी दी हुई वस्तु भी असत्य ही होती है, पर यह पुष्पमाला तो असत्य नहीं है, सो कैसे हुआ इस कारण नलको आश्चर्य हुआ) तथा फेंकी गयी पुष्पमालाको पुनः न देखकर वाला (दमयन्ती) भी आश्चर्ययुक्त हो गयी। ( मैंने जिस मालाको अभी फेंका, वह कहाँ अदृश्य हो गयी ? यह दमयन्तीको माय हुआ) // 50 // अन्योन्यमन्यत्रवदीक्षमाणौ परस्परेणाध्युषितेऽपि देशे / आलिङ्गितालीकपरस्परान्तस्तथ्यं मिथस्तौ परिषस्वजाते / / 51 // अन्योन्यमिति // तौ भैमीनलौ, परस्परेणाध्युषिते देशेऽपि अन्योन्यमिति कर्मनिर्देशः। नलो भैमी सा च नलमित्यर्थः / अन्यत्रवद्देशान्तर इवेक्षमाणी, अन्यत्र स्थायिनाविव पश्यन्तावित्यर्थः / आलिङ्गितमालिङ्गानम्, अलीकं यस्य तदालिङ्गिता. लीकम्, एतदालिङ्गनं मिध्यत्यभिमानं, परस्परस्यान्तरन्तःकरणं यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा / अव्ययोत्तरपदो बहुव्रीहिः / अव्ययं रेफान्तं क्रियाविशेषणम् / मिथोऽन्योन्यं तथ्यं यथार्थमेव / परिषस्वजाते श्लिष्यतः / “उपसर्गात्सुनोति" इत्यादिना षत्वम् / पूर्ववासनया परस्परचेष्टां मिथ्येति मन्यमानावेव तथ्यमचेष्टेता. मित्यर्थः // 51 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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