________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्तरस्य, पुरं नगरम् / अन्यत्र जीवान्तरस्य शरीरं परकायं प्रविशन् / 'पुरं पुरि शरीरे च' इति विश्वः / योगी अणिमादिसिद्धिमानिव, रराज चित्रम् // 46 // वियोगी ( दमयन्ती-विरहयुक्त ) नल अदृश्य होकर मणिमय भूमिमें प्रतिबिम्बसे अपने पक्षान्तरमें-दूसरेके शरीर में ) प्रवेश करते हुए योगी अर्थात् मुनिके समान शोभमान हुए, यह आश्चर्य है [ वियोगीका योगीके समान होना आश्चर्यकारक होता ही है। योगी भी अपने कायव्यूहका विस्तार करता है, अदृश्य होता है तथा वियोगी अर्थात् विषयोंसे विरक्त होता है ] // 46 // पुमानिवास्पशि मया भ्रमन्या छाया मया पुंस इव व्यलोकि / निवातकि मयापि कश्चिदिति स्म स स्त्रैणगिरः शृणोति / / 40 // पुमानिति / श्रमन्त्या मया पुमानिवास्पर्शि स्पृष्टः / मया पुस छायेव व्यलोकि विलोकिता। मयापि कश्चित् ब्रुवन् लपन्निव, अतर्कि तकितः / सर्वत्र कर्मणि लुङ। . इत्येवंरूपाः स्त्रैणस्य स्त्रीसमूहस्य गिरः / यद्वा, स्त्रीषु भवाः स्त्रैणाः गिरः। "स्त्रीपुंसाभ्यां नअस्नो भवनात्" इति भवार्थे नन्प्रत्ययः। स नलः, शृणोति स्म / “लट स्मे” इति भूते लट // 17 // ___ 'घूमती हुई मैंने पुरुषके समान किसीका स्पर्श किया, मैंने पुरुषके समान किसीका प्रतिबिम्ब देखा, मैंने पुरुषके समान किसीके शब्दका अनुमान किया' इस प्रकार (परस्परमें या दमयन्तीसे कहते हुए ) स्त्री-समूहके ( अथवा स्त्री-सम्बन्धी ) वचनको नलने सना / / 47 / / अम्बां प्रणम्योपनता नताङ्गी नलेन भैमी पथि योगमाप | स भ्रान्तभैमीषु न यां विवेद सा तं च नादृश्यतया ददर्श // 4 // अम्बामिति // नताङ्गी व्यानतगात्री भैमी / अम्बां मातरम् / 'अम्बा सवित्री जननी माता च' इति हलायुधः। प्रणम्योपनता सती, नलेन पथि योगमाप। किन्तु स नलो भ्रान्तभैमीषु अलीकभैमीषु मध्ये तां न विवेद विविच्य नाजानात् , सा च तं नलम् अदृश्यतया न ददर्श / अत्र रूपसाम्यादभ्रान्तभैम्याः भ्रान्तभैमीभिः सहाभेदाभिधानात् सामान्यालङ्कारः / “सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्त्वन्तरकता" इति लक्षणात् // 48 // माताको प्रणाम कर आयी हुई नताङ्गी दमयन्तीने रास्तेमें नलका स्पर्श अर लिया। तब नलने भ्रान्तिसे शतशः कल्पित दमयन्तीके बीच में उसको वास्तविक दमयन्ती नहीं विक रूपमें किसीने किसीको नहीं पहचाना ] // 48 // प्रसूप्रसादाधिगता प्रसूनमाला नलस्य भ्रमवीक्षितस्य / क्षिसापि कण्ठाय तयोपकण्ठे स्थितं तमालम्बत सत्यमेव / / 46 //