________________ 315 षष्ठः सर्गः। विलोक्य तच्छायमतर्कि ताभिः पतिं प्रति स्वं वसुधापि धत्ते / यथा वयं किं मननं नथेनं त्रिनेत्रनेत्रानलकीलनीलम् // 44 / / विलोक्येति // ताभिः राजमहिषीभिः, तस्य नलस्य, छाया अनातपरेखा तच्छायम् / नीलमिति शेषः / विलोक्य यथा वयं, स्वं स्वकीयं, पति भीम, प्रत्युदबु. दम् , मदनं दध्महे / तथा वसुधापि स्वं पति भीममेव प्रत्युद्बुद्धम् / किन्तु, त्रिनेत्रस्य ईश्वरस्य, नेत्रानलकीलैत्राग्निज्वालैः, नीलं कृष्णवर्णम् , एनं मदनं धत्ते किमित्यतर्कि उत्प्रेक्षितम् / नलच्छाये वसुधागते तस्मिन्मदनस्वोत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालङ्कारः / नलच्छायेऽपि स्त्रीणां मदनविभ्रमः, नले तु किमु वक्तव्यमिति शेषः॥४४॥ नलके प्रतिबिम्बको देखकर उन ( पटरानियों ) ने ऐसा तर्क किया-"जिस प्रकार अपने पति ( भीम ) के प्रति हमलोग मदनको ( हृदयमें ) धारण करती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपने पति ( भीम ) के प्रति शिवजीकी नेत्राग्निकी ज्वालासे श्यामवर्ण मदनको धारण करती है / [ अथवा-जिस प्रकार हमलोग लज्जावश भीमके प्रति कामको छिपाती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी अपने पति भीमके प्रति शिवजीके तृतीय नेन्नाग्निकी ज्वालासे श्यामवर्ण कामदेवको ( अन्तःकरणमें ) छिपाती है / भीमको भूपति होनेसे पृथ्वीका भी पति होना स्वयंसिद्ध है। छायाके श्यामवर्ण होनेसे यहां शिवनेत्राग्नि-ज्वालाका वर्णन है, अग्निकी ज्वालासे कोई भी पदार्थ श्यामवर्ण (धूम्रयुक्त) हो जाता है ] / / 44 // रूपं प्रतिच्छायिकयोपनीतमालोकि ताभिर्यदि नाम कामम् / तथापि नालोकि तदस्य रूपं हारिद्रभङ्गाय वितीर्णभङ्गम // 45 // नन्वेवं नलविलोकिनीनामासां कथं न परपुरुषनिरीक्षणे व्रतलोपस्तत्राहरूपमिति // प्रतिच्छायव प्रतिच्छायिका / स्वार्थ कः। “कात्पूर्वस्य" इतीकारः। तयोपनीतं रूपं छायात्मकं स्वरूपं ताभिः स्त्रीभिरालोकि यदि आलोकितं चेत् / कामं यथेच्छमालोक्यतां नाम / तथापि हारिद्गभङ्गाय हरिद्राखण्डाय वितीर्णभङ्गं दत्तपराजयम् , तत्स्वरूपमित्यर्थः / अस्य तत्प्रसिद्धं रूपं स्वरूपं नालोकि नालो. 'कितम् / साक्षाद्रपदर्शने दोषः, न प्रतिच्छायादर्शन इत्यर्थः // 45 // ___उन ( पटरानियों ) ने प्रतिबिम्बमें यद्यपि नलका स्वरूप ( या सौन्दर्य ) अच्छी तरह देखा, तथापि हल्दीके टुकड़े ( या सुवर्ण ) को ( अपनी सुन्दरतासे ) पराजित करनेवाले इस ( नल ) के उस ( अति प्रसिद्ध एवं अवर्णनीय ) रूपको नहीं देखा / / 45 // भवनहश्यः प्रतिबिम्बदेहव्यूह वितन्वन्मणिकुट्टिमेषु / / पुरं परस्य प्रविशन वियोगी योगीव चित्रं स रराज राजा // 46 // भवन्निति / वियोगी विरही अयोगी च / स राजा नलः, अदृश्यो भवन् स्वयमदृश्यः सन् मणिकट्टिमेषु मणिनिबद्धभूमिषु, प्रतिबिम्बदेहानां व्यूहं समूह, वितन्व सम्पादयन् / योगिपक्षे बहूनि योगशरीराणि युगपत् कल्पयन्। तथा परस्य राजा.