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________________ 416 नैषधमहाकाव्यम् / अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति होने लगे तब तो वह ( स्वभाव चञ्चल व्यक्ति), अवश्य ही बार-बार इधर-उधर अर्थात् दोनों ओर आता-जाता है। उसी प्रकार दमयन्तीकी दृष्टि भी स्वभाव चञ्चल ( स्त्री की दृष्टिका चञ्चल होना गुण है, दोष नहीं ) होनेसे कभी नलके पूर्व पृष्ट अङ्गको देखती थी तो कभी नये दूसरे अङ्गको देखती थी, क्योंकि वह यह चाहती थी कि दोनों अङ्गोंमेंसे जो अङ्ग अधिक सुन्दर हो उसे मैं देखू, किन्तु बार-बार ऐसा करने. पर भी नलके दोनों या सभी अङ्गोंके एकसे एक सुन्दर होनेके कारण निर्णय नहीं कर सकने के कारण उसे बार-बार गमनागमन करना पड़ा। अन्य भी कोई अधिक लाभेच्छु व्यापारी अधिक लाभ होनेकी सम्भावना होनेपर या अधिक लाभ होते रहने तक एकसे दूसरे स्थानमें बार-बार गमनागमन करता है ] // 11 // निरीक्षितञ्चाङ्गमवीक्षित हशा पिबन्ती रभसेन तस्य / समानमानन्दमियं दधाना विवेद भेदं न विदर्भसुभ्रः / / 12 / / निरीक्षितमिति / इयं विदर्भसुभ्रवैदर्भी तस्य नलस्य सम्बन्धि निरीक्षितं च अवीक्षितं चाङ्गंशा रभसेन पिबन्ती तृष्णया पश्यन्ती समान मानन्दं दधाना भेदमिदं दृष्टपूर्वमिदमदृष्टपूर्वमिति विवेकंन विवेद / उभे अप्यनवद्यया अपूर्ववदेव पीते इत्यर्थः // उस नलके सम्यक् प्रकारसे देखे हुए. तथा नहीं देखे हुए अङ्गके सादर देखती एवं सनान आनन्दको धारण करती हुई विदर्भराजकुमारी दमयन्तीने (दोनोंमें) कोई भेद नहीं समझा। [ अन्य कोई भी व्यक्ति देखे हुए पदार्थमें अनुत्कण्ठित तथा नहीं देखे हुए पदार्थमें उत्कण्ठित रहता है, किन्तु नलके सब अङ्गों के एकसे एकके बढ़कर सुन्दर होनेसे दमयन्ती दृष्ट तथा अदृष्ट दोनों प्रकार के अङ्गों में कोई भेद नहीं जान सकी, अपितु उसने दोनों ही प्रकार के अङ्गों में समान आनन्दको प्राप्त किया / अन्य भी कोई योग साधनेवाली नारी वच. नादिसे घट तथा वेदवाक्यादिसे ब्रह्मका प्रत्यक्ष ( वास्तविक स्वरूपका ज्ञान ) होनेपर वेदादि वाक्योंसे विचारकर निःसारभृत घटादि का त्याग एवं ससार ब्रह्मका ग्रहण कर महान् आनन्द प्राप्त करती है / किन्तु दमयन्तीने दोनों अङ्गों में जो समान आनन्द प्राप्त किया, यह आश्चर्य है अथवा-जगन्मात्रके ब्रह्मस्वरूप होनेके कारण वह वस्तु पूर्वदृष्ट हो या न हो किन्तु योगसाधक वह व्यक्ति उक्त दोनों प्रकारकी वस्तुओंमें ब्रह्मानन्दको समान रूपसे प्राप्त करता है उसी प्रकार उक्त द्विविध अगों के नल सम्बन्धी होनेसे अभेद होने के कारण उनसे दमयन्तीको समान आनन्द प्राप्त हुआ, यह ठीक ही है ] // 12 // सूक्ष्मे घने नैषधकेशपाशे निपत्य निष्पन्दतरीभवद्भ्याम् / तस्यानुबन्धं न विमोच्य गन्तुमपारि तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् // 1 // सूचम इति / सूक्ष्मे तनीयसि घने सान्द्रे दृढे च नैषधस्य नलस्य केशपाशे केशकलापे केशापबन्धने च / 'धनं सान्द्रे दृढे हाथै पाशः पश्यादिबन्धने' इति विश्वः / निपत्य निष्पन्दतरीभवद्भ्यामेकत्र विस्मयादन्यत्र यन्त्रलग्नाच्च निश्चलीभवद्भयां
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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