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________________ अहमः सर्गः। 415 क्रियातिपत्ती एनिमेषकृतबुद्धिविच्छेवायनान्तरमाप्तिा, न गयेति भावः॥ इस दमयन्तीकी दृष्टि इस नलके जिस अङ्गमें पहले पड़ी उसी में मग्न होकर (फॅस कर साडूनकर ) दूसरे अङ्गको नहीं प्राप्त होती अर्थात दूसरे भाको नहीं देखती, यदि निमेप ( पलकका गिरना) बहुत देर में रुक-रुककर इस (दमयम्ती या टि) का मुशिविद नहीं कर देता / [ बहुत बिलम्बतक एकटक देखते रहने के बाद पलक गिरनेसे युद्धि-विच्छेद होनेपर ही दमयन्ती नलके दूसरे 2 भङ्गों को देखती थी, पहले देखे जाते हुए अङ्गको देखने से सर्वथा सन्तुष्ट हो जानेके कारण दूसरे अङ्गको नहीं देखती थी ] // 9 // शापि सालिङ्गितमङ्गमस्य जग्राह नामावगतामहर्षेः / अङ्गान्तरेऽनन्तरमीक्षितेत निवृत्य सस्मार न पूर्वप्रम / / 10 / / शेति / सा भैमी इशा भालिङ्गिन्तं प्राप्तमस्य नलस्याङ्गमान्तरं अग्रावगतारहर्षेः पूर्वगृहीताजनितानन्दः तपारवश्येनेत्यर्थः / न जग्राह नाज्ञासीत् / अथ कथ. चिदनन्तरं अनान्तरे ईशिते गृहीते तु निवृस्य पूर्वाष्टमङ्गं न सस्मार / तस्य तस्य लोकोत्तरत्वादिति भावः // 10 // ____ उस दमयन्तीने नेत्रसे आलिङ्गित अर्थात् देखे हुए भी नलके अङ्गको पूर्वशात हर्पके कारण नहीं देखा और बादमें दूसरे अङ्गके देखनेपर पहले देखे हुए अङ्गका स्मरण नहीं किया। [ नलके जिस अङ्गको दमयन्ती देखती थी, उसको अत्यन्त रमणीय होने के कारण देखने लग जाती थी, पहले देखे हुए अङ्गका स्मरण तक भी वह नहीं करती थी / अन्य कोई व्यक्ति पूर्वदृष्ट वस्तुका स्मरण करता है, पर दमयन्तीने स्मरण नहीं किया यह आश्चर्य है। और अन्य भी कोई व्यक्ति उत्तम वस्तु प्राप्तकर पूर्वप्राप्त वस्तुका स्मरण नहीं करता। नलके अङ्ग एक दूसरेसे बढ़कर सुन्दर थे] // 10 // हत्वकमस्यापघनं विशन्ती तदुष्टरङ्गान्तरभुक्तिसीमाम् / चिरं चकारोभयलाभलोभात् स्वभावलोला गतमागतञ्च / / 11 / / हित्वेति / स्वभावलोला अभिमतविषयलाभे किमु वक्तव्यमिति भावः / तद्दा ष्टिभैमीदृष्टिरस्य नलस्य एकमपधनमवयवम् / “अपघनोऽङ्ग"मित्यवन्तो निपातः / हित्वा अङ्गान्तरभुक्तिसीमामवयवान्तरदेशं विशन्ती चिरमुभयोः लाभे लोभाद्र्धः नात् / “उभादुदात्तो नित्यम्" इत्यत्र पृथक्सूत्रकरणादेव नित्यमजादेशे सिद्धे पुनः नित्यग्रहणमुभयशब्दस्य वृत्तावप्ययजमिति कैयटः / गतमागतञ्च चकार / उभयो। रपि तथा रमणीयत्वादिति भावः // 11 // __ इस नलके एक अङ्गको ( देखने के बाद उसे ) छोड़कर दूसरे अङ्गके देखनेकी सीमामें प्रवेश करती हुई स्वभावतः चञ्चल दमयन्ती-दृष्टिने दोनों (अङ्गों ) के सौन्दर्य लाभ होने के लोभसे गमनागमन किया अर्थात् कभी पूर्वदृष्ट अङ्गको देखा तो कभी दूसरे भङ्गको देखा। [जो स्वभावतः चञ्चल है वह बार 2 इधर-उपर जाता-माता है, उसमें भी कदाचित
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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