________________ 438 नैषधमहाकाव्यम् / हरिदिति / मां गुरुणा आदरेण अतिप्रयत्नेन स्वःप्रभूणामिन्द्रादीनां म्याहृतार्था वाचो वाचिकानि सन्देशवाक्यानि / 'सन्देशवाग्वाचिकं स्यात्' इत्यमरः / “वाचो व्याहृतार्थायाम्" इति ठक् / प्राणानिव त्वदीयानेवेत्यर्थः / अन्तरन्तरात्मनि वहन्तं हरिस्पतीनामिन्द्रादिदिक्पालानां सदस आस्थानादागतं त्वदीयमेवातिथिं प्रतीहि स्वामेवोद्दिश्यागतं विद्धीत्यर्थः // 55 // ___ बड़े आदरसे स्वर्गाधीशोंके संदेशोंको ( अपने या उन्हींके ) प्राणों के समान हृदयमें धारण करते हुए तथा दिक्पालोंके सभासे आये हुए मुझको तुम तुम्हारा (अपना) ही अतिथि जानो / [इन्द्रादि दिक्पालोंके जिन वाचिक सन्देशोंको मैं हृदयमें आदरपूर्वक धारण कर रहा हूँ, वे प्राणों के समान प्रिय हैं, अतएव उनको सुनकर पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है, और मैं दिक्पालों के स्थानसे तुम्हारे ही यहाँ आया हूँ ] // 55 // विरम्यतां भूतवती सपर्या निविश्यतामासनमुज्झितं किम् / या दतता नः फलिना विधेया सेवातिथेयी पृथुरुद्भवित्री / / 56 // विरम्यतामिति / सपर्या पूजा भूतवती भूतैव।भवतेः क्तवतुप्रत्यये डीप / विरम्यतामवसीयतां भावे लोट् / निविश्यतां उपविश्यतां कि किमर्थमासनमुज्झितं स्यक्तम् ? फलिना फलवती, “फलबर्हाभ्यामिनज्वक्तव्यः" / विधेया कर्तव्या नोऽस्माकं या दूतता दूत्यं सैव पृथुमहती आतिथेयी अतिथिपूजा उद्भवित्री भाविनी // 56 / पूजा ( अतिथि-सत्कार ) हो गयी, (इससे ) विरत होवो, बैठो, (दूतरूप मुझे देखकर ) आसनको क्यों छोड़ दिया ? ( अतिथि-सत्कार करना गृहस्थमात्रका धर्म है, अतएक मैंने आसन छोड़ दिया है और आपका अतिथि-सत्कार करना चाहती हूँ, ऐसा मत कहो क्योंकि ) सफल की जानेवाली मेरी जो दूतता है, वही बड़ी ( महत्त्वपूर्ण ) अतिथि-पूजा / होगी। [ तुम अतिथि सत्कारको छोड़कर मेरी दूतताको जो सफल करोगी, वही मेरा बड़ा भारी अतिथि-सत्कार होगा। तुम मेरे दूत-कर्मको सफल करो] // 56 / / कल्याणि ! कल्यानि तवाङ्गकानि कच्चित्तमां चित्तमनाविलं ते / अलं विलम्बेन गिरं मदीयामाकर्णयाकर्णतटायताक्षि / / 57 / / कल्याणीति / हे कल्याणि ! भद्रे ! तवाङ्गकानि कोमलान्यङ्गानिकल्यानि पनि कच्चित्तमा ? कच्चिदिति प्रश्नार्थमध्ययम् / 'कच्चित्कामप्रवेदने' इत्यमरः / तस्मात् "अतिशायने तमबिष्ठनो" इति तमप् / “किमेत्तिङव्ययघात्" इत्यामुप्रत्ययः / किञ्च ते चित्तमनाविलमकलुषं कच्चित्तमाम् ? आकर्णतटाकर्णतटपर्यन्तं मर्यादायामन्ययीभावः / ततः "सुप्सुपा" इति समासे आकर्णतटायते अक्षिणी यस्याः सेति "बहुवीही सक्थ्यषणोः स्वाङ्गात् षच," "षिद्वौरादिभ्यश्च" इति डोप / “अम्नार्थनधीईस्वः" हे आकर्णतटायताक्षि ! विलम्बेनालं मदीयां गिरमाकर्णय // 57 // हे भद्रे ! तुम्हारे कोमल शरीर नीरोग ( स्वस्थ ) हैं न ? और तुम्हारा चित्त प्रसन्न