________________ तृतीयः सर्गः। अर्थात् कदापि नहीं दे सकता अत एव तुम नलदानद्वारा मेरे प्राणोंको मुझे देकर अपने धर्म तथा लज्जा दोनोंकी रक्षा करो [ // 85 // दत्त्वाऽऽत्मजीवं त्वयि जीवदेऽपि शुध्यामि जीवाधिकदे तु केन / विधेहि तन्मां त्वरणेष्वंशोधुममुद्रदारिद्रयसमुद्रमग्नाम् / / 86 // दत्त्वेति / किं च, जीवदे प्राणदे त्वयि विषये आत्मजीवं मत्प्राणं दत्त्वापि शुध्यामि आनृण्यं गमिष्यामीत्यर्थः / किन्तु जीवादधिकः प्रियः तद्दे त्वयि केन शुध्यामि ? न केनापि, तत्तल्यदेयवस्वभावादित्यर्थः। सम्प्रति प्राणैः समं तु न किञ्चिदस्तीति भावः / तत्तस्मादभावादेव मां.त्वहणेषु विषये अशोधुमऋणग्रस्तांभवितुमेव अमुद्र अपरिमिते दारिद्रयं त्वयवस्त्वभावरूपं तस्मिन्नेव समुद्र / मनां विधेहि नलसानेन मामृणग्रस्तां कुर्वित्यर्थः / अशोद्धं, मनामिति मग्नत्वानुवादेन अशुद्धिर्विधीयते दरिद्राणामृणमुक्तिर्नास्तीति भावः // 86 // __ तुम्हें जीव-दान करनेपर मैं अपना जीवन-दान करके भी शुद्ध (ऋणहीनअनृणी ) हो सकती हूँ, किन्तु जीवसे अधिक (नल ) के देनेपर (जीवाधिक पदार्थान्तर नहीं होनेसे ) मैं किससे अर्थात् तुम्हारे लिए क्या देकर शुद्ध हो जगी (तुम्हारे ऋणते छुटकारा पाऊँगी) ? इस कारण तुम तुम्हारे ऋणको नहीं चुकानेके लिए मुझे अपरिमित दारिद्रयरूपी समुद्रमें मग्न कर दो। [ मेरे जीवनसे भी अधिक नलको मुझे देकर सदाके लिए अपना ऋणी बना लो ] // 86 // क्रीणीष्व मजीवितमेव पण्यमन्यं न चेद्वस्तु तदस्तु पुण्यम् / जीवेशदातयदि ते न दातुं यशोऽपि तावत्प्रभवामि गातुम् / / 87 // क्रीणीप्वेति / हे जीवेशदातःप्राणेश्वरद ! मज्जीवितमेव पण्यं क्रेयं वस्तु क्रीणीष्व, जीवेशरूपमूल्यदानेन स्वीकुरुष्वेत्यर्थः। अन्यदेतन्मूल्यानुरूप वस्वन्तरं नास्ति चेत्तर्हि पुण्यं सुकृतमस्तु, किञ्चिद्यदि ते तुभ्यं दातुं न प्रभवामि न शक्नोमि तावत्तर्हि यशोऽपि कीतिं गातं प्रभवामि, ख्यातिसुकृतार्थमेवोपकुरुवेत्यर्थः // 87 // ( नलको बिना पाये मेरा मर जाना निश्चित है, अत एव तुम नलको देकर ) मेरे जीवनरूप सौदेको खरीद लो। ( यद्यपि जीवनदान तथा जीवनाधिकदानमें जीवनाधिकदानके बिना दूसरा कोई भी मूल्य नहीं हो सकता ), तथापि तुम्हें पुण्य ही हो / हे प्राणनाथके दाता राजहंस यदि मैं कुछ नहीं दे सकती हूँ तो तुम्हारा यश भी नहीं गा सकती ? अर्थात् तुम्हारा यश ही गाया करूंगी [ इसी प्रकार पुष्यरूप पारलौकिक फलमें अनिच्छा या अविश्वास रखनेवाले तुमको ऐहिक यशोगानरूप फल तो मिल ही जायेगा। वराटिकोपक्रिययाऽपि लभ्यान्नेभ्याः कृतज्ञानथवाद्रियन्ते / 1. त्वदृणान्यशोधु-' इति पाठान्तरम् / 2. '-असोदु-' इति पाठान्तरम् /