________________ 170 नैषधमहाकाव्यम् / बलमिति / हे प्रिय ! प्रियङ्कर विज्ञ ! विशेषज्ञ ! उभयत्र 'इगुपधेस्यादिना कमश्ययःयामां प्रार्थनां विलय अलं याच्आभङ्गो न कार्य इत्यर्थः। विधेये विनी. तजने विविधं वाक्यं वक्रतां कृस्वापि अलं, तच्च न कार्यमित्यर्थः / आश्रवो यथोक्त कारी, 'वचने स्थित आश्रव' इत्यमरः / तस्य भावास्तत्ता सैव पदं पदक्षेपः तदुत्थात् अस्ता निरस्ता खलोक्तिखेला मिथ्यावादविनोदो येन तस्माद्यशःपथात् स्खलित्वा चलित्वा खलु न स्खलितम्यमित्यर्थः / अन्यथा हानिः स्यात् / 'निषेधवाक्यालङ्कारजिज्ञासानुनये इत्यमरः / 'म खस्योः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वे ति उभयत्रापि वाप्रत्ययः इह 'न पादादोसरवादय' इति निषेधस्योद्वेजकत्वाभिप्रायत्वासअर्थस्य नशब्दस्यानुदेजकत्वाचनवदेव पादादी प्रयोगो न दूष्यत इति अनुसन्धेयम् // 8 // हे प्रिय ! हे विश (विचारशील ! अथवा-पक्षियोंमें ज्ञानी राजहंस !, अथवा-प्रिय पक्षियोंमें ज्ञानी--राजहंस !, अथवा--प्रिय (नल ) को विशेष जाननेवाले) ? मेरी याचनाका उल्लङ्घन मत करो, (पा-प्रिय तथा विश नल-विषयक मेरी (याचनाका उल्लङ्घन मत करो) विनीतमें (या-कर्तव्य कार्यमें ) अनेक प्रकारकी कुटिलता भी मत करो और कहे हुए वचनको पालनेवालोंके चरण (या-तल्लक्षण श्रेष्ठ स्थान ) से उत्पन्न तथा दुष्टोक्ति क्रीडासे वर्जित कीर्तिमार्गसे स्खलित भी मत होवो। [लोकमें हंसको पक्षियों में श्रेष्ठतम माना जाता है, अत एव उसे अपनी उस कीर्तिसे विचलित न होनेका यहाँ निषेध ही किया गया है ] // 84 / / स्वजीवमप्यातमुदे ददद्भ्यस्तव त्रपा नेशबद्धमुष्टेः। मझ मदीयान्यदसून दत्सोधर्मः कराद् अश्यति कोतिधौतः / 8 / / स्येति : इरशवमुष्टेरीहककष्टलुब्धस्य तव आर्त्तानां मुदे प्रीत्यै स्वजीवं ददद्भयः स्वप्राणमयेन परत्राणं कुर्वदयो जीमूतवाहनादिभ्य इत्यर्थः। 'जीवञ्जीमूतवाहन' इति प्रसिदम् / त्रण नेति काकुः, अपाया मनःप्रत्यावृत्तिरूपत्वात्तदपेक्षया तेषामपादानस्वात् पशमी / यद्यस्मान्मदीयानेवासून् प्राणान् मह्यमदित्सोः तव कीया धौतः शुद्धो धर्मः कराद्धस्ताद् भ्रश्यति, न चैतत्तवाहमिति भावः // 85 / / इस प्रकार मुट्ठी बांधे हुए ( ऐले महाकृषण. अत एव ) मेरे प्राणोंको ही मुझे नहीं देनेकी इच्छा करनेवाले तुमको, दुःखियोंके हर्ष के लिए अपना जीवन तक देनेवालों ( शिवि, दधीचि, जीमूतवाहन, राजा कर्ण आदि दाताओं ) से लज्जा नहीं होती, अत एव उक्तरूप कीर्तिसे धोया गया ( स्वच्छतम ) धर्म भी तुम्हारे हाथसे गिर ( नष्ट हो ) रहा है / [ दूसरे का धन लेकर पुनः उसे समर्पित नहीं करनेवाले व्यक्तिको आत्तॊके लिए अपना जीवनतक देनेवालोंसे लज्जा कैसे हो ? यदि लज्जा हो तब तो वह दूसरेकी ली हुई वस्तु उसे समर्पित ही कर देता, वैसा तुम नहीं करते, अत एव धर्म के साथ लज्जाको भी तुम नष्ट कर रहे हो। जो दूसरेकी वस्तुको ही नहीं लौटाना चाहता, वह अपनी वस्तु कैसे दे सकता है ?