________________ नवमः सर्गः। 529 मयि खेलतु प्रसरतु, ते मुखं विकासि पोरूहमस्तु, प्रसन्नं भवस्वित्यर्थः // 12 // ___अश्रु-बिन्दुओके वर्षाकालको समाप्त करो अर्थात रोना बन्द करो, मधुर हासके द्वारा चन्द्रिका हर्षको ( मुझे ) दो, चञ्चल होनेसे नेत्ररूप दो खञ्जन पक्षी इधर ( मेरे पास, या मेरे ऊपर ) खेलें और तुम्हारा मुख विकसित कमल होवे [ वर्षाकाल के समाप्त होने पर शरद् ऋतुकी निर्मल चांदनीका होना, खजन पक्षीका खेलना और कमलका विकसित होना उचित ही है, अतः तुम रोना बन्दकर इंसो, कटाक्षसे देखो और प्रसन्नमुखी होवो] // 112 // सुधारसोद्वेलनकेलिमक्षरमजा सृजान्तर्मम कर्णकूपयोः / दृशौ मदीये मदिराक्षि ! कारय स्मितश्रिया पायसपारणाविधिम् / / 11 / / सुधेति / हे मदिराति ! मदकराषि! "इषिमदी" स्यादिना औणादिकः किरात्ययः / अक्षरस्रजा वर्णावल्या वाम्गुम्फेन कर्णकूपयोरन्तः सुधारसस्योहेलनकेलिमुन्मजनलीला सृज / आलपेत्यर्थः / किश मदीये रशी स्मितश्रिया करणेन पायसपा. रणाविधि पायसभोजनविधिमपि कारय / 'परमानन्तु पायसम्' इत्यमरः / "इक्रोरन्यतरस्याम्" इति विकल्पादणि कतुंः कर्मस्वम् // 113 // वर्णों की माला (वचन-समूह ) से मेरे कर्णकूपदयके भीतर अमृतरसकी अतिशय क्रीड़ा को करो अर्थात् अपने वचनामृतसे मेरे कानोंको तृप्त करो, हे मतवाले नेत्रोंवाली ! मेरे दोनों नेत्रों को मधुर मुस्कानकी शोभासे खीरकी पारणा करावो [ माज तक मेरे नेत्रोंने तुम्हारे दर्शनामावरूप उपवास ब्रत किया है, अतः मधुर मुस्कानसे तुम्हें पायस (दूधसे बने पदार्थखीर ) से पारणा करावा अर्थात् मधुर मुस्कानको दिखाकर उन्हें सन्तुष्ट करो। व्रतीको खीर की पारणासे सन्तुष्टकर तुम करना उचित ही है] // 113 // ममासनार्धे भव मण्डनं नन प्रिये मदुत्साविभूषणं भव / भ्रमाद् भ्रमादालपमा ! मृष्यतां विना ममोरः कतरत्तवासनम् // 114 / ममेति / हे प्रिये ! ममासनाधै मण्डनं भव / तत्रोपविशेत्यर्थः। नन / अत्यनुचितमेतदित्यर्थः / किंतु मदुस्साविभूषणं भव, अङ्कमारोहेत्यर्थः। तदपि नेस्याहभ्रमाद्भमादाल भ्रमादालपं भ्रमादालपमित्यर्थः / लपेर्लङ / अङ्ग भो! मृष्यता सम्यता, किन्तु ममोरो वक्षो विना तवासनं कतरत् किमस्ति ? 'चापले भवत इति वक्तव्यमिति ननेत्यादौ चापले विर्भावः ।चापलं संभ्रमाभिवृत्तिः सम्भ्रमश्चानी. चित्यभयादिति / अत्र भैग्याः क्रमेणाधारवृत्तिकथनात्पर्यायालङ्कारः। 'एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्यायः' इति सर्वस्वकारलक्षणात् // 114 // मेरे सिंहासनपर भूषण बनो अर्थात् सिंहासनको अलङ्कृत करो, नहीं नहीं, मेरे उत्सङ्ग ( अङ्क, क्रोड अर्थात् गोदी ) का विशिष्ट अलकार बनो, हे अङ्ग ! यह भी अत्यन्त भ्रमसे ( मैंने ) कहा ( पाठा०-हे अङ्ग ! मैंने भ्रमसे कहा), क्षमा करो, मेरे वक्षःस्थलके अतिरिक्त