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________________ પૂરક नैषधमहाकाव्यम् / स्मरेति / हे भैमि ! मृदुः मृदङ्गी त्वं स्मरेषुबाधां कामबाणग्यथा कथं सहसें ? अथवा विसरतीति विसारी स एव वैसारिणो मरस्यः "विसारिणो मत्स्ये" इति स्वार्थप्रत्ययः / तत्केतनस्य कामस्य बाणा: द्रढीयोभ्यां दृढतराभ्यां कुचाभ्यां संवृते तव हृदि नित्य विमुखाः कुचप्रतिहत्या पराङ्मुखाः / अत एवोत्पतिष्णवः उत्प. * तनशीला:' "अलडकृषि" स्यादिना इष्णुप्रत्ययः / तत्तां ब्रजन्ति वा, अन्यथा कथ. मुपेक्षस इति भावः // 110 // सुकुमारी तुम कामदेवके बाणोंकी पीडाको क्यों सहती हो ? अथवा मीनकेतन अर्थात् ( कामदेवके वाण दृढ स्तनोंसे संवृत तुम्हारे हृदयमें गिरकर अर्थात् लगकर विमुख होते (लौट जाते, या मुड़ जाते ) तथा उछल जाते हैं / [ जिस प्रकार कठिन पत्थर आदिमें गिरे हुए वाण या कील आदि मुड़ते तथा उछल जाते हैं, उसी प्रकार दृढ स्तनरूप कवचसे सुरक्षित तुम्हारे हृदयमें कामवाण कोई असर नहीं करते हैं, 'अन्यथा सुकुमारी तुम कामदेवके स्मितस्य संभावय सृक्षणा कणान विधेहि लीलाचलमनलं भ्रवोः / अपाङ्गरध्याथिकी हेलया 'प्रसघ सन्धेहि दृशं ममोपरि / / 111 / / स्मितस्येति / स्मितस्थाकणाम्मदहासलेशान् सूक्षणा भोष्ठप्रान्तेन / 'प्रान्ता. बोस्य सफणी' इत्यमरः / सम्भावय सम्मानय भ्रवोरशलमन्तं लीलया चलं चालं विधेहि / तथा अपाङ्गारच्या कटाजमार्गः / तत्र पन्थानं गपछतीति पथिकी समा. रिणी "पथः कन्" इति कन्प्रत्यये "षिद्वौरादिभ्यश्च" इति की / शं ममोपर्यपरिधात्, “षष्ठयतसर्थप्रत्ययेने"ति षष्ठी / हेलया प्रसह्य बलात् सन्धेहि प्रसा. रवेत्यर्थः / "यसोरेदावभ्यासलोपश्चे" त्येकारः॥ 111 // ओष्ठप्रान्तसे मधुर हासके लेशोंको सुशोभित, करो, भ्रदयके प्रान्तको लीलासे चञ्चल करो अर्थात् विलासपूर्वक भ्रूक्षेप करों, नेत्रप्रान्तरूपी मार्गमें नित्य चलनेवाली अर्थात् कटाक्ष करनेवाली दृष्टिको मेरे ऊपर अर्थात् मुझे लक्ष्यकर बलात्कारसे ( पाठा०-प्रसन्न होकर विलाससे या अनाराससे ) फेंको अर्थात् मुझे कटाक्षपूर्वक देखो (पाठा०-प्रसन्न होवो ) // 111 // समापय प्रावृषमभुषिप्रषां स्मितेन विश्राणय कौमुदीमुदः / रशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी विकामिपकेनहमस्तु ते मुखम / / 11 / / समापयेति / किश्वाश्रुविषां प्रावृषं वर्षतुं घृष्टिमित्यर्थः / समापय मा रोदीरित्यर्थः / प्रावृट्समाप्तेः फलमाह-स्मितेन मन्दहासेन कौमुदीमुदो विश्राणय वितर / श्रण दान इति चौरादिकाल्लोट / दृशावेव खजनद्वयी खजनपक्षियुगमितो 1. "प्रसच" इति "प्रसीद" इति च पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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