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________________ 360 नैषधमहाकाव्यम्। [ दमयन्तीको शरीर शोमा कमलकोष तथा केतकी पुष्पसे भो क्रमशः अधिक स्निग्ध तथा गौरवर्ण थी ] // 18 // प्रत्यङ्गमस्यामभिकेन रक्षा कर्तुं मघोनेव निजात्रमस्ति / घनश्च भूषामणिमूतिधारि नियोजितं तत् युतिकामुक च / / 16 / / प्रत्यामिति / अस्यां भैम्याम् / अभिकामयत इत्यभिकेन कामुकेन 'कमनः कामनोऽमिका' इत्यमरः / "अनुकाभिकामीकः कमिता" इति निपातनात्साधुः। मबोना इन्मेण प्रत्पर रक्षा कर्तु नियोजितं नियमितं भूषामणीनां वनमणीनां मूर्तिमाकारं पारपतीति तदारि निजावं वनं च तेषां मणीनां पतय एव कार्मुकं मणिध. मुबास्तीव इन्द्रनियोगात भूषामणितत्प्रभाम्याजेन अवरोधरतार्थ बज्रायुध धनुन प्रत्यामावृत्य तिष्ठतीवेत्युस्प्रेक्षा // 19 // ___ इस दमयन्तीमें कामुक इन्द्रने प्रत्येक अङ्गमें (दोषोंसे) रक्षा करनेके लिये भूषणोंमें जड़े दुए हीरा आदि मणियोंके रूपको धारण करनेवाला बज्र और उन मणियोंसे निकलती हुई कान्तिरूप धनुषरूप अपने शखको नियुक्त कर दिया है। [दमयन्तीके भूषणोमें जड़े हुए मणि बहुमूल्य हैं और उनसे चकाचौंध करनेवाली इन्द्रधनुष के समान अनेक रंगोंकी किरण निकल रही है, और वह दमयन्ती सब दोर्षोंसे रहित है ] // 19 // अस्याः सपक्षेकविधोः कचौधः स्थाने मुखस्योपरि वासमाप | * पक्षस्थतावनबहुचन्द्रकोऽपि कलापिनां येन जितः कलापः // 20 // अथासर्गसमाप्तेर्दमयन्त्याश्चिकुरादिपादनखान्तवर्णनमारभते-अस्या इत्यादि / अस्या भैग्याः कचौधः केशपाशः सपक्षः साशः सहृद्भूतश्चैक एव विधुश्चन्द्रो यस्य तस्य सपकविधो: "तृतीयाविषु भाषितपुंस्कं पुंववालवस्य" इति वैकल्पिकः पुंव. नावः / मुखस्योपरि वासं स्थितिमाष, स्थाने युक्तम् / कुतः येन कचौधेन परस्था: गरविष्ठाः स्ववर्याश्च तावन्तो बहवश्चन्द्रका मेचकाः चन्द्राश्च यस्य सोऽपि / 'समी चन्द्रकमेचको' इत्यमरः / चन्द्रपक्षे "शेषाद्विभाषा" इति कप / कलापिनां बर्हिणां कलापो बह जितः अनेकचन्द्रसहायविजयिनः एकचन्द्रविजयस्तदुपर्यवस्थानं च कि चित्रमित्यर्थः // 20 // जिसके समान होनेसे केवल चन्द्र ही जिसका सपक्ष ( पक्षवाला ) हैं, ऐसे दमयन्तीके मुखके ऊपर केश-समूहने निवास किया यह उचित ही है, जिस ( केश-समूह ) ने पंखमें स्थित बहुत चन्द्रक ( चन्द्राकार मैचक च्छवि चिह्न-विशेष, पक्षा०-चन्द्रमा) वाले भी मयूरोंके पुच्छ-समूहको जीत लिया / ( जिस केश-समूहने बहुत चन्द्रमा ( पक्षा० चंद्रक) से युक्त मयूर-पक्षको जीत लिया, उसे एक चंद्रमा ही जिसके पक्षमें हैं, उसके ऊपर रहना सर्वथा उचित ही है / लोकमें भी बहुत पक्षपातियोंवाले ब्यक्तिको जीतनेवालेके लिए एक
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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