________________ नैषधमहाकाव्यम् / साकार एवं सतवर्ण रस्मीसे मानो गरड़का प्रतिद्वन्दी होकर उन्हें बीत रहा था। घोड़े मुखमें पोरगामको रस्सी दो सोक समान-प्रतीत हो रही यो] // 63 // स सिन्धुजं शीतमहस्सहोदरं हर तमुच्चअवसः श्रियं हयम् / जिताविलक्ष्माभृदनल्पलोपनस्तमारोह मितिपाकशासनः / / 64 // सति ।पिता अखिलाः माभृतो भूपा भूधराच येन सः अनल्पलोचनो विसावा अन्यत्र बाहुनेत्रः सहवाच इति यावत्।शितिपाकशासनः पितीन्द्रो नलः देवेन्द्रबसिगजं पिदेशोअवा समुद्रोद्भवाम देशे नदविशेषेधौ सिन्धुर्ना सरिति सिपामि'त्यमरः / शीतमहासहोदरं चन्द्रसवर्णमित्वः, अन्यत्र चन्द्रमासरमेकपोनित्वादिति भावः। सवैभवस इन्द्रारवस्थ श्रियं हरन्तं तत्स्वरूपमित्यर्थः, तं हयमारोह। बनोगःशवसः श्रियं हरन्तमिवेत्युपमा। सा- रिलष्टविशेषणात् सहीणेयं सितिपाकशासन इस्पतिशयोक्तिः // 6 // सिन्धु (पक्षा-समुद्र ) में उत्पन्न (भत एष ) पन्द्रमा के सहोदर ( समान) तथा एच्चेःमवाकी शोमाको हरण करते हुए उस ( नौकरोंद्वारा डाये गये ) घोड़े पर समस्त राधामों के विजेता तथा विशाग्नेत्र (या-बान) वाले ( पक्षा०-पर्वतोंके विजेता तथा बहुत अर्थात सहस्र नेत्रोंवाडेसे ) पृथ्वीके इन्द्र (पृथ्वीपति ) रामा नल सगर हुए / [समुद्रोपा चन्द्रमाके सहोदर उच्चैःश्रवापर सर्वपर्वतविजेता सासनेत्र इन्द्र के समान सिन्धुदेशोत्पत्र, चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण उच्चैःमवाको शोमावाले उस घोड़े पर सर्वनृपतिविजेता विशालनपन भूपति नक सवार हुए ] // 64 // निजा मयूखा इव तिग्मदीधिति स्फुटारविन्दाक्षितपाणिपङ्कजम् / तमश्वधारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः // 4 // निवा इति / निमा आत्मीयाः प्रकाशरूपा उज्ज्वलाकारा भास्वररूपाश्च अश्यावारयन्तीत्यरववाराः अचारोहाः स्फुटारविन्दाक्तिपाणिपाज परेशाश्तिहस्तम, अन्यत्र पमहस्तं जवनोभवशीलः 'जुचक्रम्यस्यादिना युष। तेनाश्वेन अन्यत्र तैरस्वैर्यातीति तथोक्तं मनुजा मनोर्जाता मनुजा नरास्तेषामीशं राजानच तं नलं तिग्मवीधिति सूख्यं मयूखा इव अन्वयुः अन्वगच्छन् / यातलंङि झेजुंसादेशः // 15 // विकसित कमलसे चिह्नित करकमलवाले तथा तीन (उच्चैःश्रवानामक ) घोड़ेसे चलनेवाले सूर्य के पीछे जिस प्रकार प्रकाशरूप अपने किरण च*ते हैं. उसी प्रकार ( रेखारूप विकसित कमलम चिह्नित करकमलवाले तथा तीव्र पाड़े चहनेवाले उस मनुजेश्वर (नल ) के पीछे अपने घुड़सवार चकने लगे // 65 // चलन्नलहत्य महारयं हयं स वाहवाहोचित वेषपेशलः। प्रमोदनिष्पन्दतराभिपक्ष्मभिर्यलोकि लोकैनंगरालयर्नलः / / 66 / / चलचिति / वाहवाहोचितवेषपेशलः अश्ववाहोचितनेपथ्यचार 'चारौ दक्षे च