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________________ चतुर्थः सर्गः 217 हृदि वक्षसि, निहितं शैस्या न्यस्तं विचलत् आधारचलनादिति भावः / शैवलं, स्वतन्या शैवलशरीरेण सह, धनधार्षिणा भृशसकर्षिणा, इयोरपि बलधरस्वादिति भावःसततं तद्वतस्य भैमीहृदूतस्य हृच्छयस्य कामस्य, केतना चिह्वेन, मरस्येन हतं ताडितमिव, बभावित्युत्प्रेक्षा // 35 // - उस दमयन्तीके द्वारा कोयलका कूकना सुननेसे कम्पित होनेवाले हृदयपर (विरहजतापशान्त्यथै ) रक्खा हुमा तथा (हृदयसे कांपते रहनेसे) हिलता हुमा शेवाल ऐसा मालूम पड़ता था कि निरन्तर उस दमयन्तीके हृदयमें रहनेवाले कामदेवको पताकारूप मछली द्वारा अपने शरीरको रगड़नेसे वह कम्पित हो रहा हो। [ 'मछलियां अपने शरीरको कण्डू दूर करने के लिये शेवाल में शरीरको रगड़ती है' यह प्रसिद्धि है। ] दमयन्ती द्वारा हृदयपर शेवाल रखनेपर भी कोयलका कुहुकना उसे पीडित कर उसके हृदय-कम्पनको बढ़ा रहा था। . न खलु मोहवशेन तदाननं नलमनः शशिकान्तमबोधि तत् / इतरथाऽभ्युदये शशिनस्ततः कथमसुस्रवदश्रमयं पयः / / 36 / / नेति / नमनः (क), मोहवशेन विरहप्रयुका ज्ञानबलेन, तदाननं भैमीमुखं (कर्म), शशिकान्तमिन्दुसुन्दरम् इन्दूपमत्र, नाबोधि खलु नाबुद्ध किमिति काकुः। अबुध्यत एवेत्यर्थः / तच सस्पमिति भावः / 'दीपजन' इत्यादिना कर्तरि चिण् / इतरथा, तहसत्यस्वे शशिनोऽभ्युदये ततो भैमीमुखादश्रमयमश्ररूपं, पयः कथं असुनवत् चुतं, चन्द्रोदये पयानावाचन्द्रकान्तस्वं सत्यमित्यर्थः। चन्द्रोदये दाहो. देकाद्रुरोदेति भाषः। द्रवतेलुकणिश्रीस्थादिना प्लेश्वङि धातोरवहादेशः // 36 // . नलका मन सुन्दर दमयन्ती-मुखको मोह (अज्ञान) के कारण चन्द्रमासे समान मनोहर (पक्षान्तरमें चन्द्रकान्तमणिरूप) नहीं समझा था, अपितु यथार्थतः समझा था। अन्यथा चन्द्रोदय होने पर उससे आँसू रूप जल क्यों निकलता ? [ दमयन्ती में अधिक प्रेम होने से उसके मुखको नसके चित्तने मोहवश नहीं; अपितु वस्तुतः चन्द्रकान्त हो समझा था। चन्द्रो. दय होनेपर विरहावस्थामें चन्द्रमाके विरहवर्द्धक होने से दमयन्ती रोने लगती थी, चन्द्रकान्तमणिसे भी चन्द्रोदय होनेपर पानी टपकने लगता है, अतः नरूका दमयन्ती-मुखको चन्द्रकान्त समझना ठीक ही था। अथवा-दमयन्तीके मुखने चन्द्रमाको अपनी सुन्दरतासे जीत लिया था, अतएव वह चन्द्रमाके उदय (अभ्युन्नति ) होने पर रोने लगता है। अन्य भी कोई व्यक्ति शत्रुको मभ्युन्नति होने पर ईष्यासे रोने लगता है। अथवा-दमयन्तीके मुखको नलने चन्द्रकान्त (चन्द्रमाके समान या चन्द्रमा है कान्त=प्रिय मित्र जिसका ऐसा) समझा था, अन्य भी कोई व्यक्ति नियमित्रकी अभ्युन्नति होनेपर आनन्दाश्रु बहाता है ] // रतिपतेर्विजयास्त्रमिषुर्यथा जयति भीमसुतापि तथैव सा / स्वविशिखानिव पञ्चतया ततो नियतमैहत योजयितुं स ताम् // 37 // रतिपतेरिति / रतिपतेः कामस्य, यथेषुः विजयस्यास्त्रं विजया विजयसाधनमा.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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