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________________ 216 नैषधमहाकाव्यम् / जीतना चाहता है। सन्तापाधिक्यसे दमयन्तीके शरीरपर रखी हुई कमलिनी के पत्ते मुझाकर सङ्कषित हो जाते थे ] // 32 // इयमनङ्गशरावलिपन्नगक्षतविसारिवियोगविषावशा। शशिकलेव खरांशुकरार्दिता करुणनीरनिधौ निदधौ न कम् / / 33 // इममिति / इयं भैमी, अनाशरावलिरेव पश्चगाः तैः पतं क्षतिः, नपुंसके भावे कः। तेन बिसारिणा व्यापिना, वियोगेनैव विषेण अवशा सती, खरांशोस्तिग्मांशोः करैरर्दिता पीडिता, शशिकलेव कं जनं करुणनीरनिधी शोकरसाधौ। 'करुणस्तुरसे पूरे रूपायो करुणा मता' इति विश्वः / न निदधौ निदधावेव, निमजयामासैवे. त्यर्थः / अत्र रूपकोपमयोरङ्गानिमावेन सहरः // 33 // काम-बाणों के समूहरूपी सर्पके काटने (पक्षान्तरमें-विद्ध होने ) से फैलनेवाले-विरह. रूपी विषसे पराधीन (मोहित ) उस दमयन्तीने सूर्य-पीडितचन्द्रकलाके समान किसको करणारूपी समुद्र में नहीं डाल दिया ? [ अर्थात सबको विरहिणी दमयन्तीको देखकर दया भा बाती थी। सांपके काटनेसे मूच्छितावस्थामें पड़े हुए व्यक्तिको देखकर सभी लोगोंको दया था जाती है / मथवा-सांप जिस व्यक्तिको काटता है, वही व्यक्ति विषबाधा-शान्ति के लिये जलमें छोड़ा जाता है, किन्तु काम-पाणावलि-सर्पदष्ट होनेसे विरह-विषज्वालासे मोहित दमयन्तीने दूसरोंको बलमें डाल दिया यह माश्चर्य है ] // 5 // ज्वलति मन्मथवेदनया निजे हृदि तयाद्रमृणाललतार्पिता। स्वजयिनोखपया सविधस्थयोमलिनतामभजद् भुजयोभृशम् // 34 // स्वतीति / तया भैम्या, मन्मथवेदनया मदनज्वरदुःखेन, ज्वलिते प्रज्वलिते निजे हृदि बरसि, अर्पिता बार्दा सरसा, मृणालकता बिसवनी, स्वजमिनोः स्वजैनो, 'बिपि इत्यादिना इनिप्रत्ययः। भुजयोस्तदीययोरेव, सविधस्थयोःसमीप. स्थयोः सतो, अपया अपयेवेत्यर्थः। गम्योस्प्रेक्षा। भृशं मलिनता वैवयंमभजत् / जितो जेतुरग्रे लज्जया वैवण्य भजतीति भावः // 34 // उस दमयन्तीके द्वारा काम-पीड़ासे जलते (सन्तप्त होते) हुए हृदयपर रखी हुई कमलकताने अपनेको बीतनेवाले समीपस्थ (दमयन्तीके) दोनों बाहोंकी लज्जासे अत्यन्त मलि. नताको धारण कर लिया। मथवा-अपनेको जीतनेवाले (दमयन्तीको ) दोनों भुजाओं के स्वसमीपस्थ होनेपर कमललताने लज्जासे मलिनताको धारण किया। [ अन्य भी कोई व्यक्ति अपने विजेताके सामने लज्जासे मलिनमुख हो जाता है / दमयन्तीके हृदयपर रखी दुई कमाता सन्तापसे मलिम हो जाती थी ] // 34 // * पिकरतश्रुतिकम्पिनि शैवलं हृदि तया निहितं विचलद्वभौ / सतततद्गतहृच्छयकेतुना हमिव स्वतनूधनधर्षिणा // 35 // पिकेति / तया भैम्या, पिकहतशत्या कोकिलकूजितश्रवणेन, कम्पिनि वपमाने,
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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