SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 256 नैषधमहाकाव्यम् / अवश्यमेव मिलेगा, ऐसी आशारूप सहारा) के लेश ( कुछ माग ) के नाश (वय हृदय में भी प्रिय नहीं रहा तब वह कैसे मिलेगा इस प्रकार विचार आनेपर भाशाके ठूट जाने ) को कैसे सहन करे ? / [ अतिदुःखित व्यक्ति सत्य असत्य, परित-मटित, इर्षादिके तदर्थ या अन्यार्थक आदि बातों का विचार नहीं कर सकता, किन्तु जैसा सुनता है, उसका वैसा ही सीधा अर्थ मानकर तदनुसार निर्णय कर लेता है, अतः अतिपीडित सुकुमारी दमयन्तीको मी सखीके द्वारा कही गयी इलेपोक्तिसे अपने हृदयको नकरहित समझकर मूच्छित होना उचित ही था] // 110 // अधित कापि मुखे सलिलं सखी प्यधित कापि सरोजदलैः स्तनौ / व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ // __ अधितेति / कापि सखी सतनोभैंग्या मुखे सबिलम् भधित माहितवतीत्यर्थः / कापि स्तनी सरोजदलै प्यधित पिहितवत्ती, 'वष्टि भागुरिरखोपमवाप्योउपसर्गयो' इत्यपेरकारलोपः। कापि हदि ग्यजनानिलं ब्यधित विहितवती / तालवृन्तेन वीज. यामासेत्यर्थः / कापि तनी शरीरे हिमं चन्दनम् / 'चन्दनेऽपि हिमं विदुः' इति विश्वः / न्यधित निहितवती // 111 // (यह देख ) किसी सखीने सुन्दर शरीरवाली दमयन्तीके मुखपर पानी ( का छींटा) दिया, किसीने कमलिनीपत्रोंसे उसके स्तनोंको ढक दिया, किसी सखीने हृदयपर पंखेकी हवा की और किसी सखीने उसके शरीरपर चन्दनलेप लगाया // [ दमयन्तीको मूच्छित देख सब सखियां एक साथ ही शीतलोपचारद्वारा उसकी मूळ दूर करनेमे जुट गयीं]॥१११॥ उपचचार चिरं मृदुशीतलंजलजजालमृणालजलादिभिः / प्रियसखीनिवहः स तथा क्रमादियमवाप यथा लघु चेतनाम् // 112 // उपचचारेति / स प्रियसखीनिवहः मृदुशीतलैजलमजालमृणाबजलादिभिः जलजजाले पनसमूहैः, मृणाल जलैः / आदिशब्दान्यजनादिसाधनविशेषैः क्रमा. चिरं तथोपचार, यथेयं भैमी लघु सिप्रं चेतनां संज्ञामबाप // 112 // उस प्रिय सखीवर्गने कोमल और ठंढे कमल (पाठभेदसे-कमलसमूह-कमलनाल ), विसकता और मल मादि ( चन्दन, खश भादि ) से क्रमशः बहुत समय तक ऐसा उपचार किया, जिससे यह दमयन्ती थोड़ा होशमें आ गयी / ( 'लघु' शब्द भी शीघ्र अर्थ करना प्रकृतपपके प्रथमपादस्य 'चिरम्' पदसे विरुद्ध होनेके कारण तथा सुकुमारी दमयन्तीको चिरकालम नक-विरहबन्य पीडा होनेस 'शीघ्र होशमें भा गयो' ऐसा अर्थ करनेकी अपेक्षा 'कुछ ( थोड़ा) होशमें भा गयो' यही अर्थ अधिक सङ्गत है, और इस अर्थके करनेसे मग्रिम दो श्लोकोंके साथ भी विरोध नहीं होता] // 112 // 1. 'विष' इति पाठान्तरम्। 2. 'नाल' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy