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________________ अष्टमः सर्गः 461 हमलोग प्रणयमें कुपित हुई तुमको प्रसन्न करने के लिये जब तुम्हारे चरण कमलोंपर मस्तक झुकावेंगे तब तुम उन चरण-कमलोंसे हमलोगोंके मस्तकके ऊपर प्रहारकर [ पक्षा०हमलोगोंके मस्तकपर चरणरूप कमलोंको रखकर जो पूजा करोगी उसीसे हमलोग सन्तुष्ट होंगे, सामान्य कमल-पुष्पकी अपेक्षा अतिशय श्रेष्ठ चरण-कमलों द्वारा की गयी पूजासे हम. लोग अधिक प्रसन्न होंगे। हमलोगोंको तुम पतिरूपमें स्वीकार करो // 97 // स्ववितीणः कारवाम वामनेत्रे ! भवत्या किमुपासनासु / अङ्ग ! त्वदङ्गानि निपीतपीतादणि पाणिः खलु याचते नः // 18 // __ स्वर्णरिति / हे वामनेत्रे! चारुलोचने ! भवत्या त्वया निजोपासनासु पूजासु वितीर्णैः समर्पितैः स्वर्णैः कनककमलादिभिः किं करवाम न किमपीत्यर्थः। यतः स्वर्णाचलवासिनो वयमिति भावः / किन्तु, अङ्गेत्यामन्त्रणे, निपीतो गृहीतः पीताया हरिद्राया दर्पः कान्तिगवों यैस्तानि, 'निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरणिनी' इत्यमरः / त्वदङ्गानि नोऽस्माकं पाणिर्याचते खलु / पीतदति पुंल्लिङ्गपार्ट पीतानां स्वर्णादिद्रव्याणां दर्पमिति व्याख्येयम / स्वर्णादुत्कृष्टवस्तुसम्भवे अपकृष्ट. स्वर्णस्वीकारो न युक्त इति भावः / साधुश्चायमेव पाटः / अन्यथा स्वर्णसञ्चारिणां स्वदङ्गेषु स्वर्णादुत्कर्षे वक्तव्ये हरिद्रामात्रादुत्कर्षोक्त्यनौचित्यादिति // 98 / / हे सुलोचने ! ( हमलोगोंकी ) पूजाओं में दिये ( दक्षिणा रूपमें चढ़ाये ) गये सुवाँसे हमलोग क्या करेगे अर्थात् पूजामें चढ़ाये गये उन सुवर्गों की सुवर्ण पर्वत ( सुमेरु पर्वत ) पर निवास करनेवाले हमलोगोंको कोई आवश्यकता नहीं है / हे अङ्ग ( हे प्रिये ) ! हमलोगोंका हाथ सुवर्ण आदि पीले पदार्थों के अभिमानको अच्छी तरह नष्ट करनेवाले तुम्हारे अङ्गोंकी याचना करता है। [ जो हमलोग स्वर्णपर्वत पर निवास करते हैं तो पूजामें अर्पित थोडे-से सुवर्णोकी चाहना करना हमलोगों के लिये उचित नहीं है, हां, तुम्हारे जिन अङ्गों ने पीले-पीले सुवर्ण आदि श्रेष्ठ द्रव्यों के अभिमानको सर्वथा चूणित कर दिया है, उन्हें ही हम चाहते हैं / तुम्हारे गौर वर्णवाले अङ्ग सुवर्णादिसे भी अधिक सुन्दर एवं पोले हैं, अतएव हमलोग उन्हें ही चाहते हैं। पीले वर्णवाले पदार्थोके दर्पका अतिशय पान करनेवालेको उनकी अपेक्षा अधिक पीला होना उचित ही है, अतः उन्हीं श्रेष्ठ अङ्गोंकी हम याचना करते हैं, याचकको निराश करना अनुचित होनेसे तुम अपने सुवर्णातिशय गौर अङ्गोंको देकर हमारी याचना पूरी करो] / / 98 / / वयं कलादा इव दुविदग्धं त्वद्गीरिमस्पधि दहेम हेम | प्रसूननाराचशरासनेन सहैकवंशप्रभवभ्र ! बभ्र / / 99 / / वयमिति / प्रसूननाराचशरासनेन कामचापेन सह एकवंशप्रभवे एककारणोत्पन्ने अत्यन्ततत्सदृशे इति यावत् / ध्रुवी तस्याः सा तद्भरित्यूङन्तोत्तरपदो बहुव्रीहिः / अन्यथा अनूङन्तस्य भ्रशब्दस्योवस्थानस्यानदीत्वात् सम्बुद्धावम्बार्थत्यादिना
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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