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________________ अष्टमः सर्गः। 431 ही आस्था एवं विश्वास करना उचित है / आपकी शरीर शोभा कामदेव से भी बढ़ी-चढ़ी है ] // 41 // त्वया जगत्युच्चितकान्तिसारे यदिन्दुनाऽशीलि शिलोच्छवृत्तिः / आरोपि तन्माणवकोऽपि मौलौ स यवराज्येपि महेश्वरेण // 42 // स्वयेति / स्वया जगति उच्चितकान्तिसारे गृहीतलावण्यसर्वस्वे सति इन्दुना शिलोम्छावेव वृत्तिः जीविका / 'उन्छो धान्यकणादानं कणिकांशार्जनं शिलम्' इति यादवः / अशीलि शीलितेति यत् तत्तस्माद्धेतोः मनोरपत्यं पुमान् मानवः "तस्यापत्यम्" इत्यण्प्रत्यये णत्वम् / “अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरौत्सर्गिकः स्मृतः। नकार स्य तु मूर्धन्यस्तेन सिद्धयति माणवः // " तेन सोऽल्पो माणवकः / बालोऽपि स इन्दु. महेश्वरेण महादेवेन महाराजेन च मौलौ शिरसि तथा यज्वराज्ये द्विजराजत्वेऽप्या. रोपि आरोपित इत्युप्रेक्षा / प्रकृष्टधर्मः कस्मै फलाय न भवतीति भावः, त्रैलोक्या. हादवानन्द्रोऽपि तल्लावण्यलेश एवेति तात्पर्यार्थः // 42 // ___ आपसे अच्छी तरह चुने गये कान्तिके सारभूतवाले संसारके होने पर या संसारमें चन्द्रमाने जो शिल ( कटे हुए खेतोंमेंसे एक-एक मजरी अर्थात बालको चुंगना) और उञ्छ (कटे हुए खेतोंमें एक-एक दाना चुंगना) वृत्तिका जो परिशीलन ( एक बार ही नहीं अपितु सर्वदा ) किया, उस कारण छोटे बच्चे ( पक्षा०-प्राथमिक अवस्थावाले अर्थात् द्वितीयाके बालचन्द्र ) को भी महेश्वर (शिवजी, पक्षा०-महाराज या महापनिक ) ने मस्तकपर तथा यशकर्ताओं (द्विजों - ब्राह्मणों ) के राज्यपर अर्थात् द्विजराज पदपर स्थापित किया। [आपने संसारकी कान्तिके सारभूत पदार्थों को अच्छी तरह एक-एक करके चुंग लिये-( यहां चुगनेसे निःसार या अल्पसार पदार्थों का त्याग ध्वनित होता है) तो चन्द्रने बचे हुए उन सामान्य पदार्थों को ही अन्नके बालों तथा दानोंके समान उस प्रकार चुगा, जिस प्रकार मुनिजन अपनी जीविकाके लिये काटकर किसानों द्वारा धान्यके खेतोंसे ले जानेके बाद एक-एक वाल या दानों को चुंगते हैं (इस प्रकार जीविका करना तपस्या का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है ), उस पुण्य प्रभावसे शङ्करजीने बाल भी चन्द्रमाको अपने मस्तकपर रखा तथा द्विजराज (ब्राह्मणों का राजा = अतिश्रेष्ठ ) बनाया, अथवाकिसी महाराजने अपने मस्तक पर रखा और ब्राह्मण-श्रेष्ठ माना। अथवा-उक्त प्रकारसे शिल तथा उच्छवृत्ति द्वारा जीविका करनेवाले ब्रह्मचारी बालकको महाराज या महापनिक लोग भी माथे चढ़ाते ( पूज्य मानते ) और ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ समझते हैं / अथवा-महाधनिक लोग माणवक ( 20 लड़ीवाले बहुमूल्य हार') को कण्ठमें धारण करते हैं, किन्तु इसे मस्तकपर धारण किया यह अधिक आश्चर्य है / अथ च शिलोञ्छद्वारा जीवन-निर्वाह करनेसे 1. विविधहाराणां लतासंख्याबोधाय मत्कृता नामलिङ्गानुशासन ( अमरकोष ) स्यामरकौमुदी टिप्पणी ( 2 / 6 / 106, पृ० 223-224 ) द्रष्टव्या।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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