________________ 430 नैषधमहाकाव्यम् / लिये देकर फिर शस्त्ररहित होनेसे उसे कदापि नहीं जीतता है। आपका भ्र द्वय कामधनुषके समान जगन्मोहक है ] // 39 // मृगस्य नेत्रद्वितयं त्वदास्ये विधौ विधुत्वानुमितस्य दृश्यम् / तस्यैव च' त्वत्कचपाशवेशः पुच्छे म्फुरच्चामरगुच्छ एषः // 40 // मृगस्येति / त्वदास्ये विधौ स्वन्मुपचन्द्रे दृश्यं दृग्गोचरीभूतं नेत्रद्वितयं विधुत्वेन चन्द्रत्वेनानुमितस्य चन्द्रस्य मृगाविनाभावादिति भावः। मृगस्यैव तदीयमेवेत्यर्थः। किश्च एषः तव कचपाशवेशः केशपाशसन्निवेशः तस्यैव मृगस्य पुच्छे वालधौ स्फुर। चामरगुच्छ इत्युत्प्रेक्षा / अन्यथा कथमनयोरीहशी शोभेति भावः // 40 // ___ आपके मुखरूपी चन्द्रमें दिखायी पड़ते हुए, चन्द्रत्वसे अनुमान किये गये मृगके ये दो नेत्र हैं ( अथवा-"चन्द्रमें चन्द्रत्वसे"नेत्र दिखायी पड़ते हैं ) तथा यह आपके केशपाश ( केश-समूह ) का वेश (रचना) उसी मृगके पूँछमें शोभित होते हुए चामर-गुच्छ हैं (अथवा-यह शोममान केशपाशवेश उस मृगका ही स्फुरित होते हुए चामरके गुच्छा. वाला पूँछ है ) [ आपका मुख चन्द्ररूप, नेत्रद्वय मृगनयनरूप और केश-समूह मृगपुच्छरूप हैं ] // 40 // आस्तामनङ्गीकरणाद्भवेन दृश्यः स्मरो नेति पुराणवाणी। तवैव देहश्रितया श्रियेति नवस्तु वस्तु प्रतिभाति वादः // 41 / / आस्तामिति / स्मरो भवेनेश्वरेणानङ्गीकरणादशरीरीकरणाद्धेतोदृश्योनेति पुराणवाणी पुरातनवादस्तावदास्ताम् / तवेव देहं श्रितया "द्वितीयाश्रितातीते" त्यादिना समासः। श्रिया सौन्दर्येण न दृश्य इति नवो नूतनो वादस्तु वस्तु परमार्थः प्रति. भाति ।तदेतिबमात्रमिदं तु प्रत्यक्षमित्यर्थः / अतःपराजयलज्जानिमित्तमस्यादृश्यत्व. मित्युत्प्रेता // 4 // 'कामदेव शिवजीके द्वारा ( भस्म करनेके कारण ) शरीर रहित करनेसे दृष्टिगोचर नहीं होता' यह पुराणवाणी ( पुराणोंमें लिखित वचन, पक्षा०-पुरानी बात ) रहे अर्थात् यों ही पड़ी रहे, आपके ही शरीरका आश्रय की हुई ( अथवा-शरीरका आश्रयकी हुई अर्थात् शरीर धारण की हुई आपकी ) शोभासे ही ( पराजयजन्य लज्जाके कारण) कामदेव दृश्य (दृष्टिगोचर, पक्षा०-सुन्दर ) नहीं है, यह नया ( अथवा-अपूर्व ) वाद ठीक ऊँचता है। [ अथवा-आपकी शरीर-शोभासे ही कामदेव अदृश्य हो गया है / अन्य कोई भी व्यक्ति किसीसे पराजित होकर लज्जावश किसीके सामने नहीं आता है / अथवा-प्रतिभाका नया अतिवाद ( अतिशयित कथन ) है। वाणी एवं स्त्री जीर्ण है तथा वाद एवं नया पुरुष है; अतः इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है / पुरानी पड़ी हुई बातकी अपेक्षा नयी बातमें 1. "चश्चत्कच....."पुच्छः" इति पाठान्तरम् /