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________________ 324 नैषधमहाकाव्यम् / करने के लिये दमयन्तीके पास आकर गान करती थीं। यहां 'कण्ठनाल' शब्दके कहनेसेजिस प्रकार नालके ऊपर कमल रहता है, उसी प्रकार कण्ठके ऊपर मुखके रहनेसे दमयन्ती का मुखको “कमल" होना सिद्ध किया गया है ] // 65 // नावा स्मरः किं हरभीतिगुप्तेः' पयोधरे खेलति कुम्भ एव / इत्यर्धचन्द्राभनखाहूचुम्बिकुचा सखी यत्र सखीभिरूचे / / 66 / / नावेति // यत्र सभायां, अर्धचन्द्राभनखातचुम्बी अर्धचन्द्राकारनखक्षतभाक्कु चो यस्याः सा सखी / स्मरःहरभीत्या गुप्तेः, गुप्त्यर्थमित्यर्थः सम्बन्धसामान्ये षष्ठी / पयसां शीराणां नीराणाश धरः पयोधरः कुचः / “पयः स्यात् क्षीरनीरयोः" इति विश्वः। तस्मिन्नेव कुम्भ इति व्यस्तं रूपकम् / नावा नखाङ्कनैवेति शेषः / खेलति वाहपरिहाराय विहरति किमिति रूपकसकीर्णेयमुत्प्रेक्षा इति सखीभिरूचे जिस दमयन्ती-समामें अर्द्धचन्द्राकार नख क्षतसे चिह्नित स्तोंवाली सखीसे सखियों ने कहा कि-"तुम्हारे स्तन ( पक्षा०-जलाधार ) रूप घटमें शिवजीसे डरकर आत्मरक्षा करनेवाला कामदेव नौकासे क्रीड़ा करता है क्या ?" [ नावके अर्द्धचन्द्राकार होनेसे शिवजीके दाहजन्य भयसे जलाधार शीतल स्थानमें कामदेवका आत्मरक्षार्थ निवास करना उचित ही है, अन्य भी कोई व्यक्ति दाहशान्ति के लिये शीतल जलमें नौकासे क्रीडा करता हुआ निर्भय होकर आत्मरक्षा करता है / अथवा-कामदेवने सोचा कि शिवजोके आधे शरीरमें पार्वतीजी हैं, अतएव उनके भयसे ( परलोके स्तनका स्पर्श शिवजी करेंगे तब उसे पार्वतीजी कदापि सहन नहीं करेंगी, इस भयसे ) शिवजी तुम्हारे स्तनका स्पर्श नहीं करेंगे, अतः तुम्हारा स्तन शिवजीके द्वारा भयसे अमदित होनेसे मेरे लिये अत्यन्त सुरक्षित स्थान है ऐसा मानकर निर्भय कामदेव वहाँ क्रीडा करता है / अथवा-(पार्वतीजीके डरसे) शिवजीके द्वारा नहीं स्पर्श की गयी हे सखि ! ( इस पक्षमें 'हरभीतिगुप्ते' यह शब्द सखीका सम्बुद्धि पद हो जायेगा / अथवा-शिवजीके भयरूप ईति- परचक्रसे अपनी रक्षा करने. वाला ( इस अर्थमें 'हरमोतिगुप्' यह शब्द कामदेवका विशेषण हो जायेगा तथा 'ते' यह षष्ठ्यन्त 'तव' के स्थानमें आदिष्ट होगा) // नखक्षतयुक्त स्त्रीस्तनको देखकर काम-वृद्धि होनेसे सखीने वैसे स्तनोंवाली सखीसे उपहासपूर्वक उक्त वचन कहा ] // 66 // स्मराशुगीभूय विदर्भसुभ्रवक्षो यदक्षोभि खलु प्रसूनैः। स्रजं सृजन्त्या तदशोधि तेषु यत्रकया सूचिशिखां निखाय // 6 // स्मरेति / प्रसूनैः कुसुमैः स्मराशुगीभूव कामवाणा भूत्वा विदर्भसुश्रुवो वैदाः वक्षो हृदयमक्षोभि क्षोभितं खल्विति यत् / तत् / क्षोभणवैरं, यत्र सभायां, तेषु प्रसूनेषु सूचिशिखां सूच्यग्रं, निखाय निकुट्य, स्रजं मालां, सृजन्त्या एकया 1. 'गुप्ते' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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