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________________ षष्ठः सर्गः। 323 [ दमयन्तीने सोने के समान पीले एवं कोमल केतकीके भीतरवाले पत्तेपर नाखूनसे नलसम्बन्धी जो पत्र लिखा, वह थोड़ी देर में ही स्याहीसे लिखे हुएके समान काला हो गया। कामिनियोंका अपने प्रेमीको पत्र लिखना तथा केतकी पत्रपर नखचिह्न करनेपर थोड़े समय के बाद उस नख चिह्नका काला हो जाना अनुभवसे सिद्ध है ] // 63 // विलेखितुं भीमभुवो लिपाषु सख्यातिविख्यातिभृतापि यत्र / अशाकि लीलाकमलं न पाणिमपारि कर्णोत्पलमक्षि नैव / / 64 // विलेखितुमिति // यत्र सभायां लिपीषु चित्रकर्मसु / कृदिकारादतिनो वा ङीष्वकन्यः / अतिविख्यातिभृता अतिचतुरयापीत्यर्थः / सख्या भीमभुवो भैम्याः लीला. कमलं विलेखितुम् अशाकि / भावे लुङ्। शकेत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः। पाणिं तु नाशाकि / तदपेक्षयोत्कृष्टत्वात् / तथा कर्णोत्पलं विलेखितुमपारि पर्याप्तं, पूर्वव. ल्लुङ् / “पर्याप्तिवचनेष्वलमथेष्वि"ति तुमुन् प्रत्ययः / अक्षि तु नापार्यव सर्वोपमानातीतत्वात्तल्लावण्यस्येति भावः // 64 // जिस दमयन्ती-सभामें चित्रकारी करनेके अत्यन्त निपुण कोई सखी चित्रपटपर दमयन्तीके लीलाकमलका चित्र बना देने पर भी उसके हाथका चित्र नहीं बना सकी, तथा कर्णो में भूषणभूत कमलोंका चित्र बना देनेपर भी उसके नेत्रोंका चित्र नहीं बना सकी। [ कोई व्यक्ति लौकिक वस्तुओंको ही चित्रित करने में समर्थ होता है / अलौकिक वस्तुकी चित्रित करनेमें समर्थ नहीं होता। दमयन्तीके हाथ तथा नेत्र अलौकिक ( अनुपम सुन्दर ) थे। अतएव चित्रकारी करने में अत्यन्त निपुण भी उसकी सखी उसके लीलाकमल तथा कर्णोत्पलके ही चित्रोंको बना सकी, हाथ तथा नेत्रको नहीं ] !! 64 // भैमीमुपावीणयदेत्य यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः / गन्धर्ववध्वः स्वरमध्वरोणतत्कण्ठनालकधुरीणवीणः / / 65 // भैमीति // यत्र सभायां, गन्धर्ववध्वो गन्धर्वाङ्गना एव / कलिप्रियस्य प्रियकल. हस्य नारदस्य / “वा प्रियस्य" इति बहुव्रीही प्रियशब्दस्य परनिपातः / प्रियशि. प्यवर्गः / स्वर एव मधु क्षौद्रं तेनारीणमरिक्तं पूर्णमिति यावत् / “त्वादिभ्यः" इति निष्ठानत्वम् / तेन तस्या भैम्याः कण्ठनालेन सह एकधुरं वहन्तीत्येकधुरीणाः समा इत्यर्थः। “एकधुराल्लुक च" इति खच्प्रत्ययः / ता वीणा यस्य सः सन्नेत्यागत्य भैमीमुपावीणयत् वीणया उपगायति स्म / “सत्यापपाशे"त्यादिना णिचि लङ / गानविद्यायां गन्धर्वीणामप्युपास्या भैमीत्यर्थः // 65 // जिस दमयन्ती-सभामें नारदजीका शिष्य -समुदाय तथा स्वररूप मधुसे परिपूर्ण उस ( दमयन्ती ) के कण्ठ-नालके सदृश वीणावाली गन्धर्व-स्त्रियाँ आकर वीणासे दमयन्तीकी स्तुति करती थीं। [ दमयन्तीका कण्ठस्वर इतना मधुर था कि नारदजीसे वीणा बजानेकी शिक्षा पायी हुई गन्धर्वकी स्त्रियाँ भी अपनी वीणाके स्वरका संवाद (ठीक-ठीक मिलान )
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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