________________ षष्ठः सर्गः। 325 कयाचिरकान्तया, अशोधि निर्यातितम् / हृदयच्छेदिनां हृदयच्छेद एव प्रतीकार इति भावः॥ 67 // जिस दमयन्ती-सभामें, फूलोंने कामबाण बनकर जो विदर्भकुमारी दमयन्तीके हृदयको पीडित किया, उस वैरका माला बनाती हुई एक स्त्रीने उन फूलोमें सूईका नोक चुभाकर बदला ले लिया। [ कामबाण बनकर जिन फूलोंने दमयन्तीके हृदयमें गड़कर उसे पीड़ित किया था, उनके हृदय ( बीच ) में सूई चुभाकर ही वैरका बदला लिया जा सकता है। यह विचारकर सखो दमयन्तीको पीड़ित करनेवाले पुष्पसे उसकी सखीने वैसा ही किया / अन्य भी कोई व्यक्ति पीडित करनेवाले शत्रुके शरीरमें शस्त्र छुपाकर वैरका बदला लेता है। दमयन्ती सभामें मालिन फूलोंकी माला गूथ रही थी ] // 67 // यत्रावदत्तामतिभीय भैमी त्यज त्यजेदं सखि साहसिक्यम् / त्वमेव कृत्वा मदनाय दत्से बाणान् प्रसूनानि गुणेन सज्जान् // 6 // __ यत्रेति / यत्र सभायां, तां स्त्रक्लष्ट्री, सखी, भैमी अतिभीय अत्यन्तं भीत्वा / भीधातोः क्त्वो ल्यवादेशः / अवदत् / किमिति, हे सखि ! इदम् / सहसा वर्तत इति साहसिकः अविमृश्यकारी, "ओजस्सहोऽम्भसा वर्तत" इति ठक् / तस्य कर्म साहसिक्यं, ब्राह्मणादित्वात् ष्यप्रत्ययः / त्यज त्यज / कुतः स्वमेव प्रसूनान्येव बाणान् गुणेन तन्तुना ज्यया च / 'गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येन्द्रियामुख्यतन्तुषु' इति वैजयन्ती / सज्जान् सक्तान् कृत्वा, मदनाय दरसे ददासि / तदेतत्स्वत एव दहतो वह्वेर्वायुना सन्धुक्षणमिति भावः // 68 // जिस दमयन्ती-सभामें अत्यन्त डरकर दमयन्तीने उस ( माला बनानेवाली ) से कहा कि-तुम विवेकशून्य कार्य करना ( माला गुथना ) छोड़ो-छोड़ो; (क्योंकि ) तुम्हों फूलों को गुणों ( धागों, पक्षा०-धनुषकी प्रत्यश्चाओं ) से सजाये हुए बाणोंको कामदेवके लिये देती हो / [ तुम ऐसी मेरी उपकार करनेवाली सखी हो कि बाणोंको प्रत्यञ्चासे युक्तकर मेरे बैरी कामदेवके लिये देनेसे मुझे पीडित करने में उसकी सहायता कर रही हो, अतः इस अविवेकपूर्ण कामको शीघ्र छोड़ दो। पुष्पमाला देखकर कामपीडा बढ़ने लगी, तब उसने सखीसे उपालम्भयुक्त उक्त वचन कहे ] // 68 // आलिख्य सख्याः कुचपत्रभङ्गोमध्ये सुमध्या मकरी करेण / यत्रावदत्तामियंमालि यानं मन्ये त्वदेकावलिनाकनद्याः // 69 // आलिख्येति / यत्र सभायां, सुमध्या कापि कान्ता सख्याः कुचयोः पत्रभङ्गीनां पत्ररचनानां मध्ये मकरी करेगालिख्य ता सखोमवदत् / किमिति, हे आलि सखि, इयं मकरी त्वदेकावलेरेव हारविशेषस्यैव / 'एकवल्येकष्टिका' इत्यमरः / नाकनद्या 1. 'मिदमालि' इति पाठान्तरम् /