________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्रामस्या पुनः पुरोऽग्रे पश्यन् बभ्राम / प्रारयाशयेति भावः / एतेन चापलाल्यः सवारिभाव उक्तः / 'चापलं स्वनवस्थानम्' इति लक्षणात् // 56 // ___ वह दमयन्ती धैर्य तथा वियोगके संसर्गके ( क्रमशः ) शान ( 'यहां नल कहांसे आये ?' इस प्रकारका शान ) तथा मोह ( 'यह नल ही है। इस प्रकारका मोह / अथवा-मूर्छा) को वार-बार धारण करती हुई कुमारीगृहको चली गयी / तथा वे नल भ्रान्तिके कारण सुन्दर भौहोंवाली उसे ( दमयन्तीको ) बार-बार आगे देखते हुए ( दमयन्तीको पानेकी इच्छासे ) उस कुमारी-भवनमें घूमने लगे / [नलके इस कार्यसे 'चपलता' नामक सञ्चारी भाव सूचित होता है ] // 56 // पद्भ्यां नृपः सञ्चरमाण एष चिरं परिभ्रम्य कथं कथंचित् | विदर्भराजप्रभवानिवासं प्रासादमभ्रङ्कषमासमाद // 57 / / पद्भ्यामिति // एष नृपः पद्भ्यां सञ्चरमाणो गच्छन् / “समस्तृतीयायुक्तात्" इति तृतीया। चिरं परिभ्रम्य कथं कथञ्चित् पादचारक्लेशादतिकृच्छ्रेण, विदर्भराजः प्रभवः कारणं यस्यास्तस्याः वैदाः निवासम् / अझं कषतीत्यभ्रंकषमत्युनतम् / "सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कष" इति खच्प्रत्यये मुमागमः / प्रासादं सौधमाससाद // 5 // पैदल घूमते हुए इस राजा नलने देरतक घूमकर किसी प्रकार ( पैदल चलनेका कभी अभ्यास नहीं होनेके कारण बड़े कष्टले ) विदर्भराज-कुमारी ( दमयन्ती) के निवासस्थान (पाठान्तरसे-कुमारीके मनोहर ) प्रासादको प्राप्त क्रिया / / 57 // सखीशतानां सरसैविलासैः स्मरावरोधभ्रममावहन्ताम् / विलोकयामास समां स भैम्यास्तस्य प्रतोलीमणिवेदिकायाम् // 58 / / सखीति // नलस्तस्य प्रासादस्य प्रतोल्यां प्राङ्गणे या मणिवेदिका तस्यां सखी. शतानां सरसः सानुरागविलासै लाभिः स्मरावरोधभ्रममावहन्ती कायान्तःपुरधान्तिकरी भैम्याः सभामास्थानी विलोकयामास // 58 // ____ उस नलने उस राजकुमारी-भवनके प्राङ्गण ( या गली ) की वेदी ( चौतरे ) पर सैकड़ों सखियों के द्वारा शृङ्गार भावयुक्त विलाससे कामदेवके अन्तःपुरके भ्रमको पैदा करती हुई दमयन्तीकी सभाको देखा। [ दमयन्तीकी सखियोंको रतिके समान सुन्दरी होनेसे कामदेवके अन्तःपुरका भ्रम दर्शकोंको हो जाता था। वैसा ही नलको भी भ्रम हुआ] // 58 // कण्ठः किमस्याः पिकवेणुवीणास्तिस्रो जिताः सुचयात त्रिरखः। . इत्यन्तरस्तूयत कापि यत्र नलेन बाला कलमालपन्ती || 21 // अथ कण्ठ इत्यादिभिः चतुर्दशभिस्तां सभां वर्णयति-कण्ठ इति / यत्र सभायां कलं मधुरमालपन्ती कापि बाला। नलेन तिस्रो रेखा अस्य सन्तीति त्रिरेखः अस्याः कण्ठः पिकवेणुवीणास्तिस्रो जिताः सन्तीति सूचयति किमिति अन्तरन्तःकरणे अस्तू