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________________ सप्तमः सर्गः। 281 - ब्रह्मा चन्द्रमाके सैकड़ों बिम्बोंको (क्षयशील कान्ति होनेसे) प्रत्येक महीने के कूहू (चन्द्रकला जिसमें बिलकुल ही नहीं दिखलायी पड़े वह अमावस्या) की रात्रियों में बार-बार नष्टकर स्थिर कान्तिवाले एक बचे हुये इस दमयन्तीके मुखचन्द्रको रचा है क्या ? / [लोकमें भी कोई शिल्पी आदि क्षीणकान्तिवाली निकृष्ट वस्तुओं को नष्टकर स्थिर कान्तिवाली केवल एक वस्तु. को ही रख लेता है। 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' (पा० सू० 1 / 264 ) से भी समान रूपवाले अनेक का नाश (लेप) होकर एक ही शेष रह जाता है और उसीसे उन लुप्तका भी कार्य सम्पन्न होता है, उसी प्रकार अविनाशशील कान्तिवाले दमयन्तीके मुखसे ही भाकाशस्थ अन्य चन्द्रसम्बन्धी भी कार्य सम्पन्न होता है। प्रत्येक मासमें क्षयशीलकान्तिवाले माकाशस्थ चन्द्र की अपेक्षा नित्य स्थित कान्तिवाला दमयन्तीका मुखचन्द्र ही श्रेष्ठ है ] // 59 कपोलपत्रान्मकरास केतु भ्यागिषुर्धनुषा जगन्ति / इहायलम्यास्ति रति मनोभू रण्ययस्यो मधुनाघरेण / / 60 // कपोलेति / मनोभूः कपोलपत्रात् पत्रभङ्गादेव मकराखेतोः सकेतुः केतुमान मकरध्वज इत्यर्थः / भूभ्यामेघ धनुषा जगन्ति जिगीषुः जेतुमिछुः अधरेणैव मधुना जीडेण वसन्तन च रज्ययस्योऽनुरक्तसखः इहास्यां रतिं प्रीति स्वदेवी चावलमयास्ति / जगजिगीषोः कामस्य सर्वापि साधनसम्पतिरस्यामेवास्तीत्यर्थः। अत्र पत्रमनादावारोप्यमाणस्य केस्वादेस्तादात्म्येन प्रकृतजगज्जयोपयोगिस्वात् परिणामालधारः / 'भारोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः' इति लक्षणात् // 10 // (इस दमयन्तीके ) कपोल में बनी हुई पत्ररचना रूप मकरसे पताकासहित तथा (दमयन्तीके ) दोनों भ्रूप धनुषसे संसार या विजयाभिलाषी कामदेव मधुतुल्य ( मधुर दमयन्तीके) अधरोष्ठसे प्रीतियुक्त ( पक्षा०-अधरोष्ठरूर मधु अर्थात वसन्तसे अनुरक्त ) होते हुए मित्रवाला कामदेव रति ( अनुराग, पक्षा०-अपनी प्रिया ) को लेकर इस दमयन्तीक मुखमें स्थित है / दमयन्तीका मुख कामदेवके जगद्विजय-सम्बन्धी सब सामग्रियोंसे पूर्ण हैं, यथा-दमयन्तांके कपोल में चन्दनादिसे बनायी हुई रचनामें मकर कामदेवकी पताका है, दमयन्तीका भ्र युगल कामदेवका धनुप है तथा मधुर और रक्तवर्ण अधर ही कामदेवका अनुरक्त वसन्त नामक मित्र है; अत एव इस दमयन्ती-मुख में ही अनुराग ( पक्षा०-रति नामक अपनी स्त्री ) को साथ लेकर कामदेव जगतका विजय हो रहा है अर्थात कामदेवके लिये जगद्विजयके साधन मकरयुक्त पताका, धनुष, मित्र वसन्त ऋतु और रति-ये सब विजय साधन एक दमयन्तीके मुख में उपलब्ध हो रहे हैं / ] हैं / / 60 / / वियोगमापाश्चित नेत्रपप्रच्छमान्वितोत्सगपयःप्रसूनौ / कणा किमस्या तितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपी विधिशिल्पमीएक् / / 61 / / वियोगेति / ईगपूर्व विधिशिल्पं ब्रह्मनिर्माणमस्याः कौँ वियोगेन हेतुना बाप्पाश्चितयोरभ्रयुक्तयोः नेत्रपमयोः / छस्यपटवभेदः / तेन छद्मनाग्विते मिलिते
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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