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________________ 352 नैषधमहाकाव्यम् / उत्सर्गपयःप्रसून दानोदकमिश्रकुसुमे ययोस्तौ रतितत्पतिभ्यां सम्प्रदाने चतुर्थी। निवेद्यावर्पणीयौ पूपावपूपौ किम् / 'पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात्' इत्यमरः / नैवेद्यसमपंणेन पुष्पाञ्जलिमुत्सृजन्ती साश्रुनेत्रयोगात्तत्कर्णयोस्ताहक्पुष्पयुक्तरतिस्मरनैवेद्यापूपत्वोत्प्रेक्षया सापह्ववया कर्णान्तविश्रान्तलोचनत्वं वस्तु व्यज्यते // 6 // विरहजन्य आंसूसे पूजित (या शोभित ) नेत्ररूप पद्मके बहानेसे दिये गये जल तथा पुष्पसहित, दमयन्ती के कान कामदेव तथा रति ( रूप देवद्वय ) के लिये समर्पण करने अर्थात चढ़ाने योग्य दो मालपूआ रूप हैं, ऐसा ब्रह्माने बनाया है क्या ? / [ किसी देवताको प्रसन्न करनेके लिये मालपूआ नैवेद्यरूपमें चढ़ाया जाता है, उसके माथ पूजनमें जल तथा पुष्पका होना भी आवश्यक है। यहां पर ब्रह्माने इन दोनों कानोंको कामदेव तथा रतिरूप देवदयके लिये समर्पण करने योग्य नैवेद्यस्थानीय दो मालपुए बनाये हैं, तथा उसके साथ जलस्थानीय विरहजन्य आँसू तथा पुष्पस्थानीय नेत्रकमल हैं, इस प्रकार कामदेव-दम्पतीको पूजनद्वारा प्रसन्न करनेके लिये सब पूजनद्रव्योंको ब्रह्माने एकत्रित किया है / दमयन्तीके कानोंको कामवृद्धि होती हैं ] // 61 // इहाविशद् येन पथातिवक्रः शास्त्रौषनिष्यन्दसुधाप्रवाहः / सोऽस्याः श्रवःपत्रयुगे प्रणाली रेखेव धावत्यभिकर्णकूपम् / / 62 / / इहेति / अनिवक्रः शास्त्राणामोघः समूहस्तस्य निष्यन्दः सारः एव सुधार वाहो येन पथा वर्मना यया प्रणाल्या इहास्यां भैम्यामविशत् प्रविष्टः, अस्याः, श्रवसी पत्रे दले इव श्रवःपत्रे तयोर्युगे युग्मे या रेखा वक्रप्रणाली सुधाप्रवाहपदः वीव / 'इयोः प्रणाली पयसा पदव्याम्' इत्यमरः / अभिकर्णकूपं धावति कर्णरन्ध्र. मभिगच्छति / यथा कुतचिनिःसृतं जलं वक्रगत्या कयाचिस्प्रणाल्या कश्चिन्निनदेशं मच्छति तदिति भावः / अत्र कर्णस्य रेखायां सुधाप्रणालीत्वमुस्प्रेषयते // 62 // अत्यन्त टेढ़ा (व्यङ्गयादिजन्य क्लिष्टता होनेसे दुर्योध, पक्षा०-टेढ़ा बहनेवाला) शास्त्रसमूहके सारभूत अमृत ( पाठा०-रस ) का प्रवाह जिस मार्गसे इस ( दमयन्तीके कानों) में प्रवेश किया, वह दमयन्तीके कर्णद्वयमें रेखारूपी प्रणाली ( उक्त सुधा प्रवाहका नाली, रूप मार्ग ) कानों के छिद्ररूप कूपमें अर्थात् कानोंके छिद्रसे जा रही है। जैसे सीधी या टेढ़ी नाली अर्थात् जलमार्ग रहता है, वैसे ही जलादि द्रव पदार्थोका प्रवाह भी होता है, अथवा जिस 2 मार्गसे जलादि द्रव पदार्थ वहते हैं वैसी ही टेढ़ी या सीधी नाली ( जलमार्ग) भी बन जाती है, उसी मार्गसे बहता हुआ जल कूएँ आदि निम्न स्थानोंमें प्रविष्ट हो जाता है / दमयन्तीके कानों में जो टेढ़ी मेढ़ी रेखायें दीख रही हैं, वे रेखायें नहीं, अपि तु शास्त्रसमूहके सारभूत अमृतप्रवाहके कान के छिद्रोंमें प्रवेश करनेके मार्ग हैं / दमयन्तीके कान टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओंसे युक्त हैं तथा दमयन्ती सत्र शास्त्रों के तत्त्वको जाननेवाली विदुषी है / ] // 62 // 1. "रसप्रवाहः" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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