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________________ 224 नैषधमहाकाव्यम् / होता तथा आकाशमें तारागण मी अत्यधिक संख्यामें दिखलाई पड़ते हैं, मतःमालूम पड़ता है कि विरहिणी-पापसे चन्द्रमा अंधेरी रातरूपी काले पत्थरपर पटका जाता है और ऊँचे स्थानसे पटके जाने के कारण चूर्ण होकर ऊपर उबले हुए उसके खण्ड ही तारारूपमें आकाश में दिखलाई पड़ते हैं / अन्य भी कोई पापी व्यक्ति घुमाकर पर्वत मादि ऊँचे स्थानोंसे काले पत्थर पर पटक दिया जाता है, और उसकी हड्डियां चूर-चूर होकर ऊपरको उछलती हैं]॥ त्वमभिधेहि विधं सखि ! मगिरा किमिदमीहगधिक्रियते त्वया / न गणितं यदि जन्म पयोनिधौ हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मृता // 50 // स्वमिति / हे सखि ! वं मदिरा विधुमभिधेहि उपालभरव / तत्प्रकारमेवाहस्वया महात्मनेति भावः। किं किमर्थमिदमीहक सीवधात्मक (कर्म), अधिक्रियते आचर्यते ? पयोनिधो जन्म न गणितं यदि मास्तु / हरशिर एष स्थितिभूनिषाप्स. भूमिः सापि विस्मृता / महाकुलप्रसूतस्य शम्भुशिरोरतस्य तवेदमनुचितमित्यर्थः // हे सखि ! तुम मेरी ओरसे चन्द्रमासे कहो अर्थात पूछो कि-'तुम ऐसा अर्थात विर• हिणियोंका वधरूप निन्दित कर्म क्यों करते हो ( तुम्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता, क्यों कि ) तुमने समुद्र में अपना बन्म होनेको नहीं गिना अर्थात लक्ष्मी आदि-जैसे परोपकारियों को जन्म देनेवाले एवं स्वयं भी अत्यन्त गम्भीर समुद्ररूप पितृ-कुलकी कोई गिनती नहीं की (कुछ ख्याल नहीं किया), लेकिन शिवजीके मस्तकपर रहना मी भुला दिया ? अर्थात तुम केवल शिवबीके साथ ही नहीं रहते हो, अपितु उन्होंने तुम्हें परोपकारिता आदि गुणों से युक्त समझकर अपने मस्तकपर रखा है-अपनेसे मी श्रेष्ठ माना है। [अन्य सज्जन या सामान्य भी व्यक्ति अपने कुल तथा सहबासकाख्यालकर निन्दित कार्य नहीं करता विशेषकर मत्यन्त पीड़ितोंकी उसमें भी दुखिया खियों की हत्या करना तो दूर रहा, उन्हें श. मात्र भी पीरित करने के लिये मन में विचारतक नहीं करता। किन्तु तुमने तो अपने उत्तम कुल तथा सहवास-इन दोनों को भुला दिया है, अतएव तुम बड़े भारी पापी हो / महापापी चन्द्रमाके साथ साक्षात बात करने में पाप समझकर सती दमयन्तीने सखोके द्वारा चन्द्रमा को कहलवाया है। अन्य भी कोई व्यक्ति महापातकियों से साक्षात पात न करके दूसरेसे सन्देश करवाता है] // 50 // निपततापि न मन्दरभूभृता त्वमुदधौ शशलाञ्छन ! चूर्णितः। . . अपि मुनेजठरार्चिषि जीर्णतां बत गतोऽसि न पीतपयोनिधिः // 51 // निपततेति / हे शशलान्छन सकलकेत्यर्थः / स्वमुदधौ निपतता। मथनसमय इति शेषः / मन्दरभूभृता मन्दराद्रिणापि न चूर्णितः, पीतपमोनिधेः आचमितसमुः दस्य मुनेः अगस्त्यस्य, जठराधिषि जठरानलेऽपि जीर्णता न गतोऽसि / वातापिव. दिति भावः। बतेति खेदे / मदाग्यविपर्यय एवायमिति भावः // 5 // - हे शशकान्छन (मृग-कलयुक्त चन्द्र)! (अमृतमन्थनके समय ) समुद्र में गिरते हुए
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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