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________________ पञ्चमः सर्गः 266 तमिति / शतमन्युः शतक्रतुः / 'मन्युदैन्ये कतौ क्रुधि' इत्यमरः / आलपनको. कितायामाभाषणोत्कण्ठायां, दूरं कथानुकथनप्रसृतायाम् उत्तरप्रत्युत्तराभ्यां दूर गतायां सत्यां, प्रसकानुप्रसक्तया सङ्गत्येत्यर्थः। चिरं चिरात्प्रभृत्ति / भूभृता राज्ञाम, अनागमहेतुं ज्ञातुमिच्छुः सन् / तं नारदम, अवददपृच्छदित्यर्थः // 13 // संभाषण-कौतुकके परस्पर कथनानुकथन ( एक दूसरेके कहने तथा सुनने) के बहुत अधिक बढ़ जानेपर बहुत दिनोंसे राजाओं के स्वर्गमें न आनेके कारणको जाननेकी इच्छा करनेवाले शतमन्यु ( सैकड़ों क्रोधवाले अर्थात् अत्यन्त क्रोधी =इन्द्र ) ने उन नारदजीसे पूछा-[ 'पहले भूलोकमें रणके सम्मुख मारे गये बहुतसे रानालोग स्वर्गमें पाया करते थे, इस समय बहुत दिनोंसे किसी युद्धहत राजाके स्वर्गमें नहीं माने का क्या कारण है ?' यह मानने की प्रबल इच्छा इन्द्रके मन में थी, सर्वत्र घूमनेवाले नारदजी इस बातको अवश्य बतलायेंगे, ऐसा समझकर उनसे पूछा / अत्यधिक क्रोधी इन्द्रका युद्धप्रिय होना तथा तद्विपयक प्रश्न करना स्वाभाविक ही था] // 13 // प्रागिव प्रसुवते नृपवंशाः किन्नु सम्प्रति न वीरकरीरान् ? | ये परप्रहरणैः परिणामे विक्षताः क्षितितले निपतन्ति // 14 // प्रागिति / नृपवंशाः राजकुलानि, नृपा एव वंशाः वेणवश्च / 'वंशो वेणौ कुले वर्गे' इति विक्षः। प्राक पूर्वमिव, सम्प्रति, वीरानेव करीरानकुरान् / 'वंशाकुरे करीरो. ऽसी' इत्यमरः / न प्रसुवते न जनयन्ति / किं नु ? कि तैरत आह-य इति ये वीर• करीराः, परिणामे परिपकावस्थायां, परेषामरीणाम अन्येषां च / 'परं दूनान्यमुख्येषु परोऽरिपरमात्मनोः' इति वैजयन्ती / प्रहररायुधैः दानादिभिश्च, विषताः सन्तः चितितलं निपतन्ति // 14 // राजवंश ( राजाओं के कुल, पक्षान्तरमें-राजारूपी बाँस ) इस समय पहले के समान वीरकरीरों ( हाथियों को भी गिराने या कम्पित करनेवाले वीरों, पक्षान्तरमें-वीररूप करीरों अर्थात बाँसके कोपलो ) नहीं उत्पन्न करते हैं क्या ? जो (वीरकरीर ) युवावस्थामें ( पक्षान्तरमें-पकने पर ) शत्रुओंके ( पक्षा०-दूसरोंके ) वाण-नगादि शत्रोंसे ( पक्षा• न्तरमें-कुल्हाड़ी मादिसे ) विक्षत होकर ( अत्यन्त घायल होकर, पक्षा-कटकर) भूतलपर गिरते हैं (किसी रोग से पीडित होकर बुढ़ापे में नहीं मरते ) / जिस प्रकार बांस उन वंशाङ्करोंको पैदा करता है, जिन्हें पक जानेपर अन्यलोग कुल्हाड़ी आदिसे काटकर ले जाते हैं, उसी प्रकार राजकुल हाथियों को भी कंपा देनेवाले वीरोंको नहीं जन्माते क्या ? जो बुढ़ापेमें किसो रोगसे आक्रान्त होकर नहीं मरते, अपितु पूर्ण युवावस्थामे युद्ध में शत्रुओं के शस्त्रप्रहारसे ही भूमिपर गिरकर प्राणत्याग करते हैं ] // 14 // पार्थिवं हि निजमाजिषु वीरा दूरमूर्ध्वगमनस्य विरोधि | गौरवाद्वपुरपास्य भजन्ते मत्कृतामतिथिगौरवऋद्धिम् / / 15 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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