SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 248 नैषधमहाकाव्यम् / स्पर्थः। सुमनसः पुष्पं नाम धनुः, अटनो कोटी। 'कोटिरस्याटनिर्गोधा' इत्यमरः / नमयन् दक्षिणो विरहिजनप्रहारदः स्यात् , प्रहतुं प्रवृत्तश्चेदित्यर्थः। 'सम्येतरम' इति ध्वनिः। तदा विमुखस्य विहलमुखस्य चन्द्रोदयपराङ्मुखस्य विरहिणो वियोगिजनस्य स दक्षिणस्वेन प्रसिद्धः शमनदिकपवनो याम्यदिङमारुतः, दक्षिणो दाक्षिः ण्यवान् सम्येतरम न / किन्तु सोऽपि स्वरसहकारिवानिर्दयप्रहतैवेत्यर्थः अतः सर्वाः नयंमूलत्वात् त्वमेव पापिष्ठ इत्यर्थः / प्रत्यङमुखस्य दक्षिणोऽपि वाम इति ध्वनिः। शमनदिक्पवनोऽपि न दक्षिण इति स्फुरणाविरोधाभासोलकारः // 96 // चन्द्रमाके उदय होनेपर पराङ्मुख (सन्तापकारक चन्द्रमाको नहीं देखनेके लिये पश्चिमाभिमुख) हुए विरहीके लिए यम दिशा (दक्षिण दिशा) को मलय वायु दक्षिण (मनुकूक, पक्षान्तरमें-दहने मागमें ) नहीं होगी अर्थात् वाम (प्रतिकूल, पक्षा-बायें) मागमें पड़ेगी, यदि उसे दक्षिण होने का ही अभिमान है तो पुष्पमय धनुषकी कोटिपर प्रत्यञ्चा (धनुषकी डोरी) को चढ़ाते हुए तुम्हारा बाहु तो दक्षिण ( अनुकूल, पक्षा०-दाने भागमें) होगा, अर्थात विरुद्ध लक्षणासे जिस प्रकार तुम्हारा बाहु प्रतिकूल होगा उसी प्रकार मलयवायु भी प्रतिकूल होगी / ( अथवा-तुम जिस प्रकार पुष्पमय धनुषपर प्रत्यश्चाको चढ़ाने के लिये उसे (पुष्पमय धनुषको) झुकाते हो, उसी प्रकार मलयवायु भी पहले पुष्पों के भग्रमागको झुका देता है / अथवा-शमन अर्थात् सबको मारनेवाले यमराजको दिशावाला मलयवायु भी मारनेवाला ही होनेसे दक्षिण अर्थात अनुकूल न होकर वाम अर्थात वक्र या प्रतिकूल ही होगा। अथवा-वह मलय वायु (रूपी योद्धा ) युद्धसे पराङ्मुख होनेवालेपर प्रहार करनेसे दक्षिण अर्थात् धर्मानुकूछ युद्ध करनेवाला चतुर योद्धा नहीं होगा)। [ चन्द्र पूर्व दिशामें उदित होकर विरही जनको जब सन्ताप देने लगेगा, तब उसको न देखने के लिये विरही व्यक्ति पश्चिमाभिमुख हो जायगा, अत एव पश्चिमाभिमुख उस व्यक्तिके लिये दक्षिण दिशाकी ओर बहनेवाला मलयवायु दहनी ओर नहीं पड़ेगा, अपि तु बांयी ओर पड़ेगा। भाशय यह है कि-कामजन्य तथा चन्द्रोदयजन्य विरहपीडा तो किसी प्रकार सध हो भी सकती है, परन्तु मलयानिलजन्य विरहपीड़ा किसी प्रकार भी नहीं सही जाती / / किमु भवन्तमुमापतिरेककं मदमुदान्धमयोगिजनान्तकम् / यदजयत्तत एव न गीयते स भगवान् मदनान्धक मृत्युजित् / / 67 // किम्विति / हे मदन ! उमापतिः मदश्च मुच इन्कवद्भावः / तेन मदमदाभ्यां मदानन्दाभ्याम् अन्धयति व्यामोहयति कामिजनमित्यन्धम् अन्धकम् / 'अन्ध. रष्टिप्रतीघाते' इति धातोश्चौराधिकात् पचायच। अयोगिजनान्तकं वियोगिजनमृत्युम्, एककमेकाकिनं, भवन्तमेव अजयदिति / तत एव स भगवान् उमापतिः / मदनान्धकमृत्युजित् मनमिदम्पकजिन्मस्युनिदिति गीयते किमु गीयत एवेत्यर्थः / मदनवदन्धकमत्यू अपि स्वत्तोऽन्यो न स्त इति भावः / अत्र मदनादीनां मियो भेदेऽप्यभेदोकेरतिशयोकिः // 97 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy