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________________ चतुर्थः सर्गः 241 उमापतिने मदके नशेमें अन्धे तथा विरहीलोगोंके मन्त करनेवाले ( यमरानतुल्य) अकेले तुमको जो जीत लिया, इसी कारणसे उन्हें 'मदनजित , अन्धकजित् तथा अन्तक. जित् (मृत्युक्षय)' कहा जाता है क्या ? / [शङ्करनीने मदन अर्थात् कामदेव, अन्धकासुर तथा अन्तक अर्थात् मृत्युको जीत लिया है, अत एव उनके उक्त तीनों नाम प्रसिद्ध हुए है / इस पद्यमें कामदेवमें ही 'मदनत्व, अन्धकत्व' तथा 'अन्तकत्व' ये तीन गुण हैं, अतः एक तुम्ही को जीतकर शङ्करजीने उक्त तीनों नाम प्राप्त किये हैं ऐसी उत्प्रेक्षात्मक कल्पना की गयी है। अन्य कोई योद्धा जिस व्यक्तिको जीतता है, वह केवल उसी एकका विजेता कहा जाता है, पर शिवजी केवल एकमात्र तुम्हें जीतकर तीमका विजेता कहलाये यह माश्चर्य है]॥९७॥ त्वमिव कोऽपि परापकृतौ कृती न दहशे न च मन्मथ ! शुश्रवे | स्वमदहहहनाज्ज्वलतात्मना ज्वलयितुं परिरभ्य जगन्ति यः // 8 // स्वमिति / हे मन्मथ ! स्वमिव परापकृती परापकारे कृती कुशलः कोऽपि न दहशे न दृष्टः, न शुभवे न च श्रुतः, यः अपकर्ता दहनादग्निसंयोगात् , ज्वलता प्रज्वलता आस्मना स्वाङ्गेन जगन्ति परिरभ्याश्लिष्य ज्वलयितुं दग्धं, स्वमात्मान. मदहत् परिरभ्य परगात्रदूषणाय स्वगात्रे पकलेपवत् , परदाहण्यसनादेवारमदाहा. जीकारस्तवेत्यहो दुर्व्यसनमिति भावः // 98 // हे मन्मथ ! (विरहियों के मनको मथन करनेवाले कामदेव !) दूसरेका अपकार करने में तुम्हारे समान कोई भी न देखा गया और न सुना गया। बो अपकारी अपने बलते हुये स्वरूपके साथ (तीनों) लोकोंका भालिङ्गनकर बलाने के लिये अपनेको ( शिवजीके नेत्रकी) अग्निमें जला डाला। [ कोई भी व्यक्ति किसीको पीड़ा देते समय अपनी रक्षा करता है, किन्तु तुमने तो संसारको पीड़ा देने के लिये अपनी मी रक्षा नहीं की, अत एव तुम महान् दुष्ट हो] // 98 // त्वमुचितं नयनाचिषि शम्भुना भुवनशान्तिकहोमहविः कृतः / तव वयस्यमपास्य मधुं मधुं हतवता हरिणा बत्त किं कृतम् ? / / 66 // स्वमिति / हे वीर! शम्भुना नयनार्चिषिनेत्राग्निशिखायां त्वं भुवनानां शान्तिके शान्तिप्रयोजके / 'प्रयोजनम्' इति ठक / होमहविराहुतिः कृतः। उचितं वध्यस्य वधादिति भावः। तच घयस्यं सखायं, मधं घसन्तम् अपास्थोपेक्ष्य मधं मध्वाश्यं, दैत्यं हतवता हरिणा किं कृतम् ? बतेति खेदे / वध्यवधाहरः साधुकारी / हरिस्त दुपेक्षणासाधुकारीत्यर्थः / समित्रः स्मरो वध्य इति भावः // 99 // शम्भु ( मङ्गलके उत्पन्न करनेवाले शिवजी) ने नेत्राग्निज्वालामें तुमको ठीक ही संसारकी शान्तिरूपी हवनका हविष्य (हवन करनेके योग्य आहुति ) बना लिया (भववाशम्भुने जो नेत्राग्नि ....."इविष्य बनाया) यह उचित कार्य किया; किन्तु खेद है कि विष्णुने
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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