________________ 192 नैषधमहाकाव्यम् / शातावरमनि स्वमित्यमरः / तां वषयमाणप्रकारां मझुं मन्जुलां धनुर्मअरी चाप. बारी विधि, यस्याः नित्यमङ्कनिवासेन समीपस्थित्या लालिततमया अस्यारतया ज्यवा मौा भुज्यमानमनुभूयमानमखिलं विलासं शोभा ज्यारूपतामित्यर्थः / लस. चाम्येव मध्यः बिलङ्गुलिकास्थानं यस्याः सा रोमालिस्त्वद्रोमराजिरालम्वते भजति / मन मोतिकादो गुटिकावयवरूपणादवयविनि कामे वेद्यस्वरूपणस्य गम्यमानः स्वादेकदेशविवर्सिसावयवरूपकमलकारः // 127 // हे दमयन्ति ! तुम समर्थ कामदेवके, तुम्हारे बत्तीस लड़ीवाले 'हार विशेषके मोतियों को ( मिट्टीकी बनी हुई ) गोलियाँ समझो, उस राजश्रेष्ठ ( नल, पक्षा-राजहंस पक्षी) को वेध्य ( मारने योग्य शिकार ) समझो तथा अपनेको मनोहर वह धनुलता समझो बो शोममान नामिरूप बिल ( गोलियोंको फेकने के लिए धनुषमें बना हुआ छिद्र ) वाली रोमपति जिस (धनुर्सता ) के मध्य में सर्वदा रहनेसे अतिशय लालित (नचायी गयी) डोरीसे सेवित ( अनुभूत ) होते हुए सम्पूर्ण विलासको प्राप्त करती है [मिट्टीकी गोली फेंकनेवाले धनुष में छिद्र रहता है, इसीसे गोलियोंको फेंककर लक्ष्यवेध किया जाता है। यहॉपर समर्थ कामदेव धनुर्धर, तुम्हारे हारके मोती-गोली, राजश्रेष्ठ नल-लक्ष्य, तुम अनुलता, रोमश्रेणी-धनुषको डोरी, नामि-गोली रखने के स्थानका धनुश्छिद्र है। ऐसा समझो / इस प्रकार कामदेव नलको सरलतासे जीत लेगा अर्थात तुम्हें लक्ष्य कर शीघ्र नल कामपीड़ित हो जायेंगे ] // 127 / / / पुष्पेषुश्चिकुरेषु ते शरचयं स्वं भालमूले धनू रौद्रे चक्षुषि यजितस्तनुमनुभ्राष्ट्रं च यश्चिक्षिपे / निविद्याश्रयदाश्रमं स वितनुस्त्वां तज्जयायाधुना पत्रालिस्त्वदुरोजशैलनिलया तत्पर्णशालायते / / 128 // पुष्पेषुरिति / यः पुष्पेषुः कामो यजितो येन नलेन सौन्दर्यास्पराभूतः अतएव निर्विय ईपया जीवनवैयध्य मरवेस्नर्थः / 'तत्वज्ञानोदितादेनिहो निष्फलस्वधी. रिति लक्षणात् / ते तव चिकुरेषु केशेषु स्वं स्वकीयं शरचयं स्वद्धतकुसुमन्याजा. दिति भावः / मालमूले ललाटमागे धनुः अायाजादिति भावः। तथा रौद्रे रुद्र. सम्बन्धिनि चतुष्येव अनुभ्राष्ट्रमम्बरीषे, विमतपर्येऽव्ययीभावः / 'क्लोबेऽम्बरीषं भाष्ट्रो ना' इत्यमरः / तनं शरीरं च चिचिपे चितवान् / पूर्वमेव दग्धतनुण्याजा. 1. तदुत्तममरसिंहेन-'हारभेदा यष्टिमेदाद् गुच्छगुच्छादंगोस्तनाः। पद्धदारो माणवक एकावस्यैकयष्टिका // इति / (अमर 2 / 6 / 105-106) एषा यष्टिसङ्घयावानार्थ मत्कृतममरकोषस्य 'मणिप्रमाख्यमनुवादम् , 'अमरकौमुबा'. स्या टिप्पणीच विलोकयन्तु जिशासव इति /