SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः सर्गः 266 कर अपना कर्तव्य नहीं समझा। (पाठभेदसे-इस प्रकार तीनों देवोंने मनमें अपना विशेष अर्यात नकसे अपने सौन्दर्यादिमें कमी समझकर ( क्या करना चाहिये, क्या नहीं) कुछ भी नहीं समझा / ( किन्तु ) एक उस स्वर्गाधिपति इन्द्रको छोड़कर वे तीनों एक दूसरे का मुख देखते रहे ( अथवा-एक उस स्वर्गाधिपति इन्द्र को छोड़ इस प्रकार मनमें विचार कर उन तीनोंने अपना कर्तव्य नहीं समझा, किन्तु परस्पर में एक दूसरे का मुख देखते रहे / वे तीनों किंकर्तव्यमूढ होकर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे) // 72 // किं विधेयमधुनेति विमुग्धं स्वानुगाननमवेक्ष्य ऋभुक्षाः / शंसति स्म कपटे पटुरुच्चैर्वञ्चनं समभिलष्य नलस्य / / 73 / / किमिति / कपटे परवाने, पटुः, ऋभुशा इन्द्रः। अधुना किं विधेयमिति विमु ग्यमितिकर्तव्यतामूढम / स्वस्थानुगानामनुयाथियां यमादीनामाननमवेचय तेषां दैन्यं हष्टवेत्यर्थः / नलस्य वचनं समभिलष्य अभिसन्धाय, उच्चैः शंसति स्म जगार // 73 // ____कपट करने में बहुत चतुर इन्द्र 'इस समय क्या करना चाहिये' इस विषयमें ज्ञानशून्य अपने अनुगामियों ( यम, वरुण तथा अग्निरूप साथियों ) को देखकर नलको वञ्चित करने का लक्ष्यकर कहने लगे-[अन्य भी कोई धूतं मनुष्य अपने साथियों को कर्तव्यमें मोहित जानकर उनको छोड़कर किसी प्रकार केवल अपना कार्य सिद्ध करना चाहता है ] // 73 / / सर्वतः कुशलभागसि कञ्चित्वं स नैषध इति प्रतिभा नः / स्वासनार्धसुहदस्तव रेखां वीरसेननृपतेरिव विदमः / / 74 / / सर्वत इति / सर्वतः सप्तस्वङ्गेषु, कुशलभागसि कचित् / 'कश्चित् कामप्रवेदने' इत्यमरः / न च स्वां न वेद्मीरयाह-वं स प्रसिद्धो नैषधः नल इति नोऽस्माकं, प्रतिभा प्रतीतिः / कुतस्तव, रेखामाकृति, स्वासनार्धसुहृदो ममार्धासनभाजो, वीर. सेननृपतेरिव तरसरशी विनः तत्साहश्यात्तरपुत्रो नलस्त्वमिति प्रतीम इत्यर्थः // 7 // 'तुम सब प्रकार (अपने सप्ताङ्ग राज्यादि, अथवा शरीरादिके विषय में ) कुशलयुक्त तो हो न 1 / 'तुम वह (लोक-प्रसिद्ध ) नैषध (निषषपति नक) हो' यह हम लोगों का अनुमान है। ( हमलोग ) अपने ( इन्द्र के ) आधे भासन के ( ऊपर बैठनेसे ) मित्र वोरसेन राजाके तुल्य लक्षण तुममें देखते हैं। [ एक दीपकसे जलाये गये दूसरे दीपकके समान पिताकी आकृति पुत्रमें होनेसे तुम्हारे पिता जो वीरसेन राजा स्वर्गमें मेरे साथ आधे भासनपर बैठनेसे मित्र थे, उनके लक्षण तुम्हारे में दीख पड़ते हैं, अतः मित्रपुत्र हानेके कारण अपरिचित मी तुमसे कुशन-पूछना अनुचित या माश्चर्यकारक नहीं है ] / / 74 // क्व प्रयास्यसि नलेत्यलमुक्त्वा यात्रयात्र शुभयाजान यन्नः / तत्तयैव फलसत्वरया त्वं नावनोमिदमार्गामतः किम् / / 5 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy