________________ 406 नैषधमहाकाव्यम् / कर्णाभिदन्तच्छदबाहुपाणिपदादिनः स्वाखिलतुल्यजेतुः / उद्वेगभागद्वयताभिमानादि हैव वेधा व्यधित द्वितीयम् // 10 // कर्णेति / स्वस्या यान्यखिलानि तुल्यानि शष्कुलीकमलायुपमानवस्तूनि तेषां जेतुः भाषितपुंस्कत्वात् पुंवद्गावः / कर्णश्चाति च दन्तच्छदश्च बाहुश्च पाणिश्च पदच कर्णातिदन्तच्छदबाहुपाणिपदम् / प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः, तदादिर्यस्य तत् आदि. शब्दात् कुचादिसंग्रहः / तदादिनोऽवयवजातस्य अद्वयताभिमानात् अद्वितीयत्वगर्वात् उद्वेगभाक रोषभाक् वेधा इहास्यामेव भैम्यां द्वितीयं कर्णादिकं व्यधित विहितवान् / तदवयवानामप्रतिमतया परस्परमेवौपम्यमासीत् / यथा कर्णस्येतरकर्णेन करस्येतरकरेणेत्यर्थः // 102 // अपने उपमानभूत समस्त वस्तुओंको जीतनेवाले कान, नेत्र, दांत, ओष्ठ, बाहु, हाथ और पैर आदि ('आदि' पदसे स्तन, जधन, अङ्गुल्यादि) के अपने समान दूसरेके न होनेके अभिमान होनेसे कुपित ब्रह्माने वहींपर अर्थात् कान आदिके समीपमें ही दूसरे कान आदि बना दियो / [दमयन्तीके कान, नेत्र, दांत, ओष्ठ, बाहु, हाथ और पैर आदि अपने उपमान भूत क्रमशः पाश, कमल, पल्लव, लता, पल्लव या कमल और कमल आदि को सौन्दर्यातिशयसे पराजित कर 'हमारे समान कोई भी संसारमें सौन्दर्यशाली नहीं है। ऐसा अभिमान करने लगे, यह देख ब्रह्मा घबड़ा गये और उन्हें क्रोध आ गया, इससे उन्होंने उसके पास ही वैसे ही सौन्दर्यशाली दूसरे कान, नेत्र आदिकी सृष्टि कर दी / अन्य भी कोई व्यक्ति अमि. मानी व्यक्ति के पास ही में उसके प्रतिद्वन्द्वी वैसे ही व्यक्तिको नियुक्त कर देता है कि फिर यह अभिमान न करे / दमयन्तीके वाम कानके समान दाहिना कान तथा दाहिने कानके समान बाँया कान है, इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये / दमयन्तीके कान आदिकी समानता परस्परमें ही एक दूसरेसे है, सांसारिक पाश, कमल, पल्लव आदि पदार्थोसे नहीं]12 तुषारनिःशेषितमजसमें विधातुकामस्य पुनविधातुः / पञ्चस्विहास्याधिकरेष्वभिख्याभिक्षाऽधुना माधुकरीसदृक्षा // 10 // तुषारेति / तुषारेण निःशेषितं नाशितमन्जसर्ग. पद्मसृष्टिं पुनर्विधातुकामस्य स्रष्टुकामस्य विधातुरधुना इहास्यां भैम्यां पञ्चसु आस्यं चावी च करौ च तेषु अधिकरणैतावत्त्वे चेत्येकवद्भावप्रतिषेधः / इहाधिकरणं समानाधारत्वाद्वर्तिपदार्थः / तस्यैतावत्त्वं पञ्चत्वमभिख्याभिक्षा शोभायाच्आ। 'अभिख्या नामशोभयोः' इत्य. मरः / माधुकरी नाम पञ्चभिक्षा तया सहक्षा सरशी "दृशेः क्सश्च वक्तव्यः" इति क्सप्रत्ययः / वर्तत इति शेषः। एतदास्यादिपञ्चके यावल्लावण्यं तावत् पछेषु नास्तीत्यर्थः // 103 // हिम (तुषार, पाला ) से सर्वथा नष्ट कमीकी पुनः रचना करनेके इच्छुक ब्रह्माकी, इस समय इस दमयन्तीके ( कमलसे अधिक शोभा सम्पत्तियुक्त ) मुख, दोनों चरण तथा