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________________ 558 नैषधमहाकाव्यम् / भी अपनेको असफल (दमयन्तीकी प्राप्ति) से वञ्चित माना। [ पक्षा०-यन्त्रस्थित सिद्धार्थ (सिद्ध मनोरथवाले ) के स्थानमें अभिषेकको प्राप्तकर भी अपनेको असिद्धार्थ ( असफल मनोरथवाला ) माना, यह विरोध होता है, इसका परिहार ऊपर के अर्थसे हो जाता है / धक्के में दोनों ओरसे कोल्हूके सरसों के समान दबाया गया कोई राजा बहुत दुःखी हुआ अथवा-सङ्कीर्ण भागमें सरसों के समान पीसे जाते हुए मुझे दमयन्ती कैसे प्राप्त होगी ? अर्थात् नहीं प्राप्त होगी इस प्रकार दुःखी हुआ ] // 6 // राज्ञां पथि रत्यानतयानुपूर्वीविलङ्घनाशक्तिविलम्बभाजाम् / आह्वानसंज्ञानमिवाग्रकम्पैर्दधुर्विदर्भेन्द्रपुरीपताकाः // 7 // राज्ञामिति / विदर्भेन्द्रपुरी कुण्डिनपुरं तस्यां पताकाः अग्रकम्पैः स्वाग्रचलनैः पथि मार्गे स्त्यानतया संहततया सैन्यसङ्कीर्णतयेत्यर्थः / 'संयोगादेरातो धातोर्यण्वत' इति स्स्यायतेनिष्ठानत्वम् / आनुपूर्वीविलङ्घनाशक्त्या अक्रमचङ्कमणाशक्त्या विलम्ब भाजां राज्ञामाह्वानसंज्ञानमाकारणचेष्टां दधुरिवेत्युत्प्रेक्षा // 7 // ___कुण्डिनपुरीकी पताकाएँ ( वायुसे ) आगे हिलनेसे मार्गमें अत्यन्त सङ्कीर्णतासे क्रमको (क्रमशः गतिको ) उलङ्घन करनेमें असमर्थ होनेसे विलम्ब करनेवाले राजाओंको बुलानेका सङ्केत करती थी। [लोकमें भी भीड़से पिछड़े हुए व्यक्तिको जिस प्रकार कोई व्यक्ति हाथ आदिसे आगे बढ़नेका संकेत करता है, उसी प्रकार कुण्डिनपुरीको वायुप्रेरित पताकाओंने भी भीड़से आगे बढ़ने में असमर्थ राजाओंको शीघ्र आगे बढ़ने का संकेत किया। राजाओंने दूरसे कुण्डिनपुरीकी पताकाओंको देखा ] // 7 // प्राग्भूय कर्कोटक आचकर्ष सकम्बलं नागबलं यदुच्चैः। भुवस्तले कुण्डिनगामिराज्ञां यद्वासुकेश्चाश्वतरोऽन्वगच्छत् // 8 // प्रागिति / भुवस्तले भूपृष्ठे कुण्डिनगामिनाम् / श्रितादिषु गमिगम्यादीनामुपसङ्खयानात् द्वितीयासमासः। राज्ञां सम्बन्धि सकम्बलं सप्रावारमुच्चैर्महद्यन्नागबलं गजबलं (कर्म) कर्क इति पदच्छेदः / अस्तीत्यटकः शीघ्रं गन्ता, हृद्यगर्तिवा / 'बहुल. मन्यत्रापी'त्यौणादिकः क्युन्प्रत्ययः। कर्क श्वेताश्वः। 'पृष्ठयः स्थौरी सितः कर्कः' इत्यमरः / जातावेकवचनम् / प्राग्भूय अग्रसरो भूत्वा प्रागिति च्यन्तस्य गतित्वाद्गतिसमासे क्त्वो ल्यम् / आचकर्ष आकृष्टवान् / अश्वपूर्वं गजा गच्छन्तीति प्रसिद्धम् / तन्नागबलमश्वतरो गर्दभादश्वायामुत्पन्नो वेसराख्यो वाहनविशेषः। 'वत्सोक्षाश्वर्ष. भेभ्यश्च तनुत्वे' इति तरप्प्रत्ययः। तस्य तनुत्वमन्यपितृकतेति काशिका / सोऽन्वगच्छत् / अत्रापि जातावेकवचनम् / अग्रतोऽश्वास्ततो गजास्ततोऽश्वतराजग्मुरित्यर्थः। अन्यत्र भुवस्तले रसातले कुण्डिनगामिनः वासुकेर्वासुकिमहानागस्य सम्बन्धि, सकम्बलं कम्बलाख्यनागेन्द्रसहितम् / 'कम्बलो नागराजे स्यात् सास्राप्रावारयोरपि' 1. 'नुपूर्व्या' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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