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________________ दशमः सर्गः। अंदेशाः / स्ववर्तिनां स्वनिष्ठानां तेषां तेषां जनानां यन्त्रणया सम्बन्धेनातः पीडायाः विश्रान्ति विरतिमापुः, भारराहित्यात् सुखावस्थानं चक्रुरित्यर्थः // तद्वदलच्यतेत्युस्प्रेक्षा गम्या // 4 // ___पृथ्वीको शोभा दमयन्तीके उद्देश्यसे दिशामें होनेवाले सब लोगोंके वहाँसे यात्रा करनेपर दिशाओं के विभागोंने अपने यहां रहनेवाले उन-उन आदमियों के सम्बन्ध (या सङ्कीर्णतापूर्वक निवास ) से उत्पन्न पीड़ाकी विश्रान्तिको प्राप्त किया अर्थात् अपनेअपने यहां रहनेवाले लोगों के स्वयंवर में चले जानेसे दिशाओंने थोड़ा हल्कापन प्राप्त किया // 4 // तलं यथेयुन तिला विकीर्णाः सैन्यैस्तथा राजपथा बभूवुः / भैमी स लब्धामिव तत्र मेने यः प्राप भूभृद्भवितुं पुरस्तात् // 5 // तलमिति / यथा विकीर्णा उपरि क्षिप्तास्तिलास्तलं भूतलं नेयुः नाप्नुयुः सैन्यैः सैनिकः। 'सेनायां समवेता ये सैन्यास्ते सैनिकाश्च ते' इत्यमरः। 'सेनाया वे'ति ण्यप्रत्ययः। राजपथा राजमार्गास्तथा तिलमात्रावकाशरहिता बभूवुः। ताइक्स. म्बन्धासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धस्योक्तरतिशयोक्तिभेदः। किञ्च तत्र समये यो भूभृ. द्राजा पुरस्ताद्भवितुं गन्तुं प्राप प्राप्तः स राजा भैमी लब्धामिव मेने / यदि पूर्वगतो भवेयं तर्हि स्वयं भैमी लप्स्य इत्यभिमानादपूर्विकया सर्व समाजग्मुरित्यर्थः // 5 // ( ऊपर में ) विखरे गये तिल भी भूमिपर नहीं गिर सके, इस प्रकार राजमार्ग (सड़के) सेनाओंसे व्याप्त हो गये अर्थात् ठसाठस भर गये। ( उस प्रकार ठसाठस भरनेसे तिल गिरनेके भी स्थानसे शून्य ) उस राजमार्गमें जो राजा आगे पहुँच सका, उसने दमयन्ती को प्राप्त हुई-सी समझा। [ जिस प्रकार अत्यन्त सङ्कीर्ण राजमार्गमें सब राजा अहमहमिका ( 'मैं आगे पहुँचूँ' 2 ऐसी इच्छा ) से आगे पहुँचकर दमयन्तीकी प्राप्ति समझते थे] // 5 // नृपः पुरःस्थैः प्रतिरुद्धवा पश्चात्तनैः कश्चन नुद्यमानः / यन्त्रस्थसिद्धार्थपदाभिषेकं लब्ध्वाप्यसिद्धार्थममन्यत स्वम् // 6 // नृप इति / पुरःस्थैर्जनैः प्रतिरुद्धवर्मा निरुद्धमार्गः पश्चात्तनैः पश्चाद्भवैः पृष्ठत आगतेरित्यर्थः / 'सायं चिरमि"त्यादिना ट्युलप्रत्ययस्तुडागमश्च / नुद्यमानःप्रेर्यमाणः कश्चन नृपः यन्त्रस्थस्य तैलाकर्षणयन्त्रलग्नस्य सिद्धार्थस्य सर्षपस्य पदे स्थाने अभिषेकं लब्ध्वापि सर्षपत्वं प्राप्यापीत्यर्थः / स्वमात्मानमसिद्धार्थमसर्षपममन्यतेति विरोधः / अपिशब्दो विरोधद्योतनार्थः / असिद्धार्थ भैमीप्राप्तिरूपसिद्धिरहितममन्यतेत्यविरोधाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः। अत्र संमर्दै यन्त्रस्थसर्षपवद्विशीर्णस्य मे कुतोऽर्थसिद्धिरित्यमन्यतेत्यर्थः // 6 // ___ आगे चलनेवालोंसे रुके हुए मार्गवाला तथा पीछे चलनेवालों से ( आगे बढ़ने के लिये ) प्रेरित किया जाता हुआ कोई राजा कोल्हू में पड़े हुए सरसोंके स्थानमें अभिषिक्त होकर
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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